विचार/लेख
तरहब असगर
शनिवार को पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के लाहौर के जमान पार्क स्थित घर पर पंजाब पुलिस के ऑपरेशन और राजधानी इस्लामाबाद में तोशाखाना केस में पेशी के दौरान पीटीआई (पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ) के कार्यकर्ताओं और पुलिस में झड़प हुई।
इसके बाद एक बार फिर इन अफवाहों में तेजी आई है कि चुनावी मुहिम से पहले दर्जनों जगहों में से किसी एक में इमरान खान को गिरफ्तार किया जा सकता है।
हालांकि सत्तारूढ़ गठबंधन पीडीएम (पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट) ने इमरान खान की गिरफ्तारी से संबंधित कोई साफ बयान नहीं दिया है, लेकिन गृह मंत्री राना सनाउल्लाह ने पिछले दिनों एक निजी टीवी चैनल से बात करते हुए कहा था, ‘हम गिरफ्तारी की सोचें भी तो उन्हें (इमरान खान को) जमानत मिल जाती है। हम कौन हैं जो उन्हें गिरफ्तार करने की योजना बनाएं।’
तहरीक-ए-इंसाफ के अध्यक्ष इमरान खान अपनी गिरफ्तारी से बारे में कई बार भविष्यवाणी करते रहे हैं और पिछले दिनों उन्होंने ‘लंदन प्लान’ का दावा करते हुए कहा था कि जमान पार्क ऑपरेशन का मकसद ‘मेरी अदालत में पेशी सुनिश्चित करना नहीं बल्कि मुझे इस्लामाबाद में गिरफ्तार कर जेल भेजना है।’
इससे पहले जब बीते मंगलवार को पुलिस ने जमान पार्क के इलाके में ऑपरेशन किया तो इमरान खान ने अपने कार्यकर्ताओं को संदेश दिया, ‘पुलिस मुझे जेल ले जाने के लिए आई है। उन्हें लगता है कि इमरान खान जेल चला जाएगा तो राष्ट्र सो जाएगा। आपको उन्हें गलत साबित करना है।’
साथ ही साथ इमरान खान अपनी गिरफ्तारी से जुड़े तर्क भी देते हैं। उनके शब्दों में, ‘वह यह इसलिए करना चाहते हैं कि मैं इलेक्शन की मुहिम न चलाऊं। वह मैच खेलना चाहते हैं, लेकिन कप्तान के बिना। वो समझते हैं कि अगर मैं जेल चला जाऊं या अयोग्य करार दिया जाऊं तो उनके मैच जीतने की संभावनाएं बेहतर हो जाएंगी।’
इन दावों की सच्चाई एक तरफ है, लेकिन यह बहस भी धीरे-धीरे जोर पकड़ रही है कि अगर इमरान खान को गिरफ्तार किया गया तो इसका राजनीतिक लाभ आखिर किसे होगा।
अतीत में जब अविश्वास प्रस्ताव सफल होने के करीब था तो इमरान खान ने खुद ही कहा था कि वह सरकार से निकल जाने के बाद ‘ज्यादा खतरनाक’ हो जाएंगे।
जानकारों के मुताबिक, उन्होंने बतौर विपक्षी नेता अपने इस दावे को कुछ हद तक सही भी साबित किया है।
अब सवाल यह है कि अगर इमरान खान जेल जाते हैं तो क्या वह अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के लिए पहले से ज्यादा ‘खतरनाक’ साबित हो सकते हैं और क्या सरकार की सोच के उलट उनकी गिरफ्तारी उनके दल की लोकप्रियता और समर्थन में और इजाफे की वजह बनेगी?
इस पर तहरीक-ए-इंसाफ के नेता फवाद चौधरी का कहना है कि पिछले 11 महीनों में सरकार और इस्टैब्लिशमेंट के तहरीक-ए-इंसाफ विरोधी हर कदम ने इमरान खान को जनता में और लोकप्रिय बनाया है। ‘इमरान खान के गिरफ्तार होने के बाद उनकी लोकप्रियता का ग्राफ अगर अभी 70 प्रतिशत है तो वह 100 प्रतिशत पर चला जाएगा।’
फवाद चौधरी का यह भी कहना है, ‘इस समय सरकार एजेंसियां चला रही हैं। इमरान खान का मुकाबला ताकत से हो रहा है और इसी वजह से देश में राजनीतिक खालीपन पैदा हो रहा है और सरकार का ग्राफ हर दिन नीचे जा रहा है।’
उन्होंने कहा कि इस समय इस्टैब्लिशमेंट जितनी अलोकप्रिय है उतनी अतीत में कभी नहीं थी और ऐसा पहली बार हो रहा है कि सैन्य प्रतिष्ठान की रेटिंग राजनीतिक लोगों से नीचे है।
तहरीक-ए-इंसाफ की राजनीतिक विरोधी मुस्लिम लीग-नून के केंद्रीय नेता अहसन इकबाल फवाद चौधरी के इस दावे को रद्द करते नजर आते हैं।
उनका कहना है कि तहरीक-ए-इंसाफ वह दल है जिसमें बहुत अंदरूनी मतभेद हैं। ‘इमरान ख़ान के रहते उन समस्याओं पर पर्दा डालना आसान होता है। अगर वह नहीं होंगे तो यह मतभेद खुलकर सामने आ जाएंगे।’
उन्होंने यह भी कहा कि इमरान खान की गिरफ्तारी से जनता के बीच वह राय भी गलत साबित होगी जो इमरान खान ने अपने कार्यकर्ताओं के बीच बनाई है यानी ‘मैं वह शख्स हूं जिसने कभी कोई गलती नहीं की।’
सीनेटर डॉक्टर अफऩान उल्लाह ने बीबीसी उर्दू को बताया कि यह एक कानूनी प्रक्रिया है और इसको सरकार के फायदे या नुकसान से हटकर कानून को लागू करने के तौर पर देखना चाहिए।
उनके अनुसार, ‘अगर नवाज शरीफ 200 से अधिक पेशियां भुगत सकते हैं, कैद काट सकते हैं तो कोई भी कानून से ऊपर नहीं है।’
जनता कैसे देखती है और चुनाव पर क्या असर पड़ेगा?
राजनीतिक विश्लेषक अहसन इकबाल की इस राय से सहमत दिखाई नहीं देते। वरिष्ठ पत्रकार और विश्लेषक सलमान गऩी का कहना है कि इमरान खान की गिरफ्तारी के नतीजे में पीडीएम को राजनीतिक तौर पर नुकसान होगा।
‘राजनीतिक गिरफ्तारियां कार्यकर्ताओं और राजनीतिक दलों में अधिक उत्साह पैदा करती हैं जिसका चुनाव पर असर पड़ता है।’
उनका कहना है कि अब तक जो पार्टियां सत्ता में आई हैं, उनकी लीडरशिप की लोकप्रियता दो जगहों पर नोट होती है, एक जनता के बीच और दूसरी इस्टैब्लिशमेंट में।
वह कहते हैं कि इमरान ख़ान ने दूसरी जगह पर अपने आप को रक्षात्मक मोर्चे पर खड़ा कर रखा है। ‘पाकिस्तान की इस्टैब्लिशमेंट पाकिस्तान की एक बड़ी राजनीतिक सच्चाई भी है और उनकी स्वीकार्यता के बिना किसी भी दल का सत्ता में आना मुश्किल है।’
‘दूसरी ओर उनका राजनीतिक पक्ष इस हिसाब से जनता में मजबूत है कि वह सरकार को टारगेट करते हैं।’
इमरान खान के अदालत में पेश न होने के मामले पर तहरीक-ए-इंसाफ का यह कहना है कि एक और जहां उनके नेता की जान को खतरा है, वहीं सरकार की ओर से उन पर झूठे मुकदमों की भरमार कर दी गई है और यह संख्या इतनी अधिक है कि किसी इंसान के लिए उतने मामलों में अदालतों में पेश होना मुमकिन नहीं है।
जानकारों के विचार में तहरीक-ए-इंसाफ के अपने कार्यकाल में भी विपक्ष के प्रति सत्ता का रवैया कुछ ऐसा ही रहा था। इसलिए यह सवाल भी महत्वपूर्ण है कि क्या मुस्लिम लीग-नून वही कर रही है जो तहरीक-ए-इंसाफ ने अतीत में अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के साथ किया?
इमरान और नवाज शरीफ के मामलों में क्या अंतर है?
इस बारे में तहरीक-ए-इंसाफ के नेता फवाद चौधरी कहते हैं कि यह कहना सही नहीं कि जो हमारे दौर में नून लीग के साथ हुआ वही अब तहरीक-ए-इंसाफ के साथ हो रहा है क्योंकि नवाज शरीफ तो पनामा केस में अयोग्य घोषित हुए और जेल गए जो कि एक अंतरराष्ट्रीय स्कैंडल था।
‘वह करप्शन के केस में अंदर गए जबकि इमरान खान के खिलाफ फर्जी मामले बनाए गए हैं। यह लेवल प्लेइंग फील्ड नहीं है, जो हम मांगते हैं। जहां तक रही बात इस्टैब्लिशमेंट की तो उनकी भूमिका तो संविधान और कानून से भी बहुत अधिक बनी हुई है, जो अलोकतांत्रिक है।’
इस बारे में अहसन इकबाल का कहना है कि इमरान ख़ान का इस समय सिर्फ ये कहना है कि फौज उनका साथ दे। अहसन इकबाल के अनुसार, ‘वह यह नहीं कहते हैं कि फौज न्यूट्रल रहे। वह चाहते हैं कि फौज उनकी सत्ता की राह दोबारा आसान करे।’
विश्लेषक हबीब अकरम का कहना है कि साफ़ तौर पर यही लगता है कि जो मुस्लिम लीग नून के साथ बतौर विपक्षी पार्टी हुआ, वही अब ‘पीटीआई’ के साथ हो रहा है।
वह कहते हैं, ‘लेकिन यहां यह बात बेहद महत्वपूर्ण है कि जनता इन दोनों दलों की लड़ाई को कैसे देखती है।’
हबीब अकरम के अनुसार, मुस्लिम लीग-नून की जिस बात के लिए आलोचना हो रही है वह करप्शन है, जबकि इमरान ख़ान पर जो मामले हैं उनमें कोई महत्वपूर्ण केस करप्शन से संबंधित नहीं है।
‘केवल एक केस है वह भी तोशाख़ाना का। जनता के लिए यह बहुत बड़ा अंतर है।’ (bbc.com)
पढ़ें डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय का लिखा-
लगातार बहुमत के साथ दो लोक सभा चुनाव जीतने वाली बीजेपी के नेताओं में हाल तक कहीं भी सरकार बना लेने की काबिलियत का दंभ नजर आता था। पार्टी केंद्र में ही नहीं बल्कि हर राज्य में भी एक के बाद चुनाव जीतती जा रही थी।
कई राज्यों में तो पार्टी ने चुनाव हारने के बाद भी सरकार बना ली और चुनावी हार और जीत के बीच के अंतर को खत्म ही कर दिया। मध्यप्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र के घटनाक्रम इसके बड़े उदाहरण हैं। लेकिन इन दिनों जिस तरह पार्टी के नेताओं, सांसदों और केंद्रीय मंत्रियों ने अपनी पूरी ऊर्जा विपक्ष के सिर्फ एक नेता की आलोचना में झोंक दी है, उससे बीजेपी में असुरक्षा के संकेत मिल रहे हैं।
मौजूदा बीजेपी सरकार के तहत भारत में लोकतंत्र का हाल इस समय पूरी दुनिया में चर्चा का विषय है। दूसरे देशों की सरकारें इस पर भले कुछ ना कहती हों, लेकिन दुनिया भर के कई प्रतिष्ठित संस्थान लगातार भारत की तरफ देख रहे हैं।
लोकतांत्रिक व्यवस्था पर सवाल
पत्रकारों की स्वतंत्रता हो या एक्टिविस्टों द्वारा आलोचना करने की आजादी, ब?ती सांप्रदायिकता हो या इंटरनेट पर अंकुश, जांच एजेंसियों का बेजा इस्तेमाल हो या विपक्ष के नेताओं की गैर कानूनी जासूसी, आए दिन किसी न किसी अंतरराष्ट्रीय संस्था की इन विषयों पर रिपोर्ट आती रहती है और हर रिपोर्ट में भारत पर सवालिया निशान होता है।
भारत के अंदर सरकार का अंधा समर्थन करने वाले मीडिया संस्थानों के मायाजाल के परे जो लोग देख पा रहे हैं उन्हें भी जो हो रहा है वो साफ नजर आ रहा है। ऐसे में विपक्ष के किसी नेता ने विदेश जा कर यही बातें दोहरा दीं तो क्या गलत किया?
बीजेपी के इस ताजा अभियान की शुरुआत में एक केंद्रीय मंत्री ने राहुल गांधी के इन बयानों की आलोचना करते हुए उन्हें च्च्पप्पूज्ज् कहा था। और अब अचानक वही च्च्पप्पूज्ज् बीजेपी के लिए इतना खतरनाक हो गया है कि पार्टी चाहती है उसे संसद से निकाल बाहर किया जाए।
दिलचस्प यह है कि संसद से तो राहुल गांधी को जनता ने ही लगभग निकाल बाहर कर दिया था। उनके नेतृत्व में ल?े गए लगातार दो लोक सभा चुनावों में देश की जनता ने उनकी पार्टी को नहीं चुना। और 2019 में तो राहुल गांधी खुद भी वो सीट हार बैठे थे जहां से ना सिर्फ उनकी मां, उनके पिता और उनके चाचा दशकों तक बल्कि वो खुद 15 सालों तक सांसद रहे।
विपक्षी एकता की पहेली
उस साल अगर उन्होंने केरल के वायनाड से भी चुनाव ना ल?ा होता तो वो लोक सभा से बाहर ही होते। जिस राहुल गांधी को जनता ने इस हाल में पहुंचा दिया था उन पर इस तरह का संगठित हमला करके बीजेपी उन्हीं की मदद कर रही है।
2024 का लोक सभा चुनाव सर पर है और इस बार अपने अस्तित्व की ल?ाई का सामना करने वाली भारत की अनेकों विपक्षी पार्टियों को एकजुटता रास नहीं आ रही है। पश्चिम बंगाल में उपचुनाव होता है तो कांग्रेस और लेफ्ट मिल कर तृणमूल कांग्रेस को हरा देते हैं।
फिर दिल्ली में जब कांग्रेस सभी पार्टियों का साझा कार्यक्रम आयोजित करती है वो उसमें तृणमूल कांग्रेस शामिल नहीं होती। आम आदमी पार्टी के ब?े नेता को जेल हो जाती है तो खुद भी एजेंसियों की गर्मी झेल रही कांग्रेस इसका विरोध नहीं करती।
ममता बनर्जी हों या नीतीश कुमार, अरविंद केजरीवाल हों या चंद्रशेखर राव, विपक्ष में कई कई नेता है जो बीच बीच में विपक्ष का चेहरा बनने की दावेदारी सामने रखते रहते हैं। ऐसे में बीजेपी का इन सब को छो? कर राहुल गांधी के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर से अभियान शुरू कर देना राहुल को विपक्ष में एक विशेष स्थान देने का काम कर रहा है।
राहुल की पदयात्रा की भूमिका
कई समीक्षकों का कहना है कि यह च्भारत जो?ो यात्राज् का असर हो सकता है। उनका कहना है कि दक्षिण से उत्तर भारत तक 4000 किलोमीटर पैदल चल कर राहुल ने अपनी छवि काफी मजबूत कर ली है और यही बीजेपी की चिंता का कारण बन गया है।
कांग्रेस पार्टी घोषणा कर चुकी है कि राहुल जल्द ही पश्चिम से पूर्वी भारत तक भी ऐसी ही एक और पदयात्रा करेंगे। समीक्षकों का कहना है कि ऐसे में बीजेपी उनकी छवि बिगा?ने में अपना पूरा जोर लगा रही है।
कांग्रेस और राहुल की चुनावी संभावनाओं को मजबूत करने का काम यात्रा ने किया है या नहीं इसका जवाब तो चुनावों में ही मिलेगा, लेकिन यह स्पष्ट है कि राहुल पर इस तरह संगठित हमला कर के बीजेपी उनका और उनकी पार्टी का भाव जरूर ब?ा रही है। अब वो ऐसा जान बूझ कर कर रही है या नहीं, यह तो बीजेपी ही जाने।
लेकिन इस पूरी कवायद की वजह से कांग्रेस विपक्ष की सबसे वजनदार पार्टी और राहुल विपक्ष के सबसे आक्रामक छवि वाले नेता बन कर उभर सकते हैं। विपक्षी एकता की पहेली की कुछ गांठें इस घटनाक्रम से सुलझ सकती हैं। (डायचे वैले)
-रेहान फजल
अपने जीवन के शुरुआती सालों में ही मौलाना अबुल कलाम आजाद ने इतना नाम कमा लिया था कि सरोजिनी नायडू ने उनके बारे में कहा था, ‘आजाद जिस दिन पैदा हुए थे उसी दिन वो 50 साल के हो गए थे।’
जब वो बच्चे थे तो वो एक ऊंचे मंच पर खड़े होकर भाषण देते थे और अपनी बहनों से कहते थे कि वो उन्हें घेरकर उनके भाषण पर ताली बजाएं। फिर वो मंच से उतरकर नेताओं की तरह धीरे-धीरे चलते थे।
आजाद का पूरा नाम था- अबुल कलाम मोहिउद्दीन अहमद।
उनका जन्म सऊदी अरब में मक्का में हुआ था। उनके पिता खैरुद्दीन 1857 के विद्रोह से पहले सऊदी अरब चल गए थे। वहां उन्होंने 30 साल बिताए थे। वो अरबी भाषा के बहुत बड़े जानकार और इस्लामी धर्मग्रंथों के विद्वान बन गए थे।
सऊदी अरब में उन्होंने एक नहर की मरम्मत में मदद की थी, अरबी में एक कि़ताब लिखी थी और अरब की ही एक महिला आलिया से शादी की थी।
खैरुद्दीन अपने परिवार सहित 1895 में भारत वापस लौटकर कलकत्ता में बस गए थे। आजाद ने किसी स्कूल, मदरसे या विश्वविद्यालय में शिक्षा नहीं ली थी। उन्होंने सारी पढ़ाई घर पर ही की थी और उनके पिता उनके पहले शिक्षक थे। जब आजाद 11 साल के थे तभी उनकी माँ का देहांत हो गया था और उसके 11 साल बाद उनके पिता भी चल बसे थे।
मुस्लिम नेता कहलाना पसंद नहीं था आजाद को
आजाद बहुत बड़े राष्ट्रवादी थे। महात्मा गाँधी से उनकी पहली मुलाकात 18 जनवरी, 1920 को हुई थी। आजादी की लड़ाई में उनकी भूमिका की शुरुआत खिलाफत आंदोलन से हुई थी। साल 1923 में उन्हें पहली बार कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया।
1940 में वो एक बार फिर कांग्रेस के अध्यक्ष बने।
हाल ही में आजाद की जीवनी लिखने वाले सैयद इरफान हबीब लिखते हैं, ‘आजाद, हकीम अजमल खाँ, डॉक्टर एमए अंसारी, खान अब्दुल गफ्फार खान और हसरत मोहानी जैसे नेताओं की श्रेणी मे आते थे जो अपने-आप को मुस्लिम नेता कहलाना पसंद नहीं करते थे।’
सैयद इरफान हबीब लिखते हैं, ‘निजी जीवन में ये सभी समर्पित मुस्लिम थे लेकिन खिलाफत आंदोलन के अलावा उन्होंने सार्वजनिक जीवन में अपने धर्म को कभी सामने नहीं आने दिया।’
अबुल कलाम आजाद ने कुरान का उर्दू में अनुवाद करने का बीड़ा उठाया। 1929 तक उन्होंने कुरान के 30 अध्यायों में से 18 का उर्दू में अनुवाद कर डाला था।
आजाद के प्रति मोहम्मद अली जिन्ना की तल्खी
जब आजाद दूसरी बार कांग्रेस के अध्यक्ष बने, तब तक मोहम्मद अली जिन्ना की अलग मुस्लिम राष्ट्र बनाने की मांग जोर पकड़ चुकी थी। जिन्ना ने मुसलमानों से कहना शुरू कर दिया था कि वो गोरे हुक्मरानों को हिंदू हुक्मरानों से बदलने की गलती न करें।
जिन्ना को समझाने की जिम्मेदारी आजाद को सौंपी गई कि हिंदुओं और मुसलमानों के सैकड़ों सालों तक साथ रहने के बाद अलग होने की मांग सकारात्मक नहीं होगी।
आज़ाद के प्रति जिन्ना की तल्खी इतनी थी कि उन्होंने उन्हें पत्र लिखकर कहा, ‘मैं आपके साथ न तो कोई बात करना चाहता हूँ और न ही कोई पत्राचार। आप भारतीय मुसलमानों का विश्वास खो चुके हैं। क्या आपको इस बात का अंदाजा है कि कांग्रेस ने आपको दिखावटी मुसलमान अध्यक्ष बनाया है? आप न तो मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करते हैं और न ही हिंदुओं का। अगर आप में जरा भी आत्मसम्मान है तो आप कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दीजिए।’
आजाद ने जिन्ना के पत्र का सीधा जवाब नहीं दिया लेकिन उन्होंने जिन्ना के इस तर्क का प्रतिवाद जरूर किया, ‘हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग सभ्यताएं हैं और उनके महाकाव्य और नायक अलग-अलग हैं और अक्सर एक समुदाय के नायक दूसरे समुदाय के खलनायक हैं।’
महादेव देसाई ने आजाद की जीवनी में लिखा, ‘आज़ाद ने कहा कि हजार साल पहले नियति ने हिंदुओं और मुसलमानों को साथ आने का मौका दिया। हम आपस में लड़े जरूर लेकिन सगे भाइयों में भी लड़ाई होती है। हम दोनों के बीच मतभेदों पर जोर देने से कोई फल नहीं निकलेगा क्योंकि दो इंसान एक जैसे ही तो होते हैं। शांति के हर समर्थक को इन दोनों के बीच समानता पर जोर देना चाहिए।’
आजाद और जिन्ना: दो अलग-अलग व्यक्तित्व
आजाद के राजनीतिक जीवन के सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी थे मोहम्मद अली जिन्ना।
राजमोहन गांधी अपनी कि़ताब ‘एट लाइव्स: अ स्टडी ऑफ द हिंदू-मुस्लिम इनकाउंटर' में लिखते हैं, ‘जिन्ना हमेशा पश्चिमी ढंग के महंगे सूट पहनते थे जबकि आजाद की पोशाक शेरवानी, चूड़ीदार पाजामा और फैज टोपी हुआ करती थी।’
वो लिखते हैं, ‘आजाद और जिन्ना दोनों लंबे कद के थे। दोनों सुबह जल्दी उठ जाया करते थे। दोनों चेन स्मोकर्स थे। दोनों को आम लोगों से मिलना-जुलना पसंद नहीं था लेकिन दोनों ही अक्सर बड़ी भीड़ के सामने भाषण दिया करते थे। जब जिन्ना अकेले होते थे तो वो अपनी राजनीतिक योजनाएं बनाया करते थे जबकि आजाद कई भाषाओं में इतिहास की किताबें पढऩे में अपना वक्त बिताते थे।’
महात्मा गांधी के सचिव रहे महादेव देसाई का मानना था कि आजाद के पास कभी भी सही शब्दों की कमी नहीं रहती थी और कांग्रेस की बैठकों में सबसे ज्यादा बोलने वालों में आजाद ही हुआ करते थे।
मौलाना आजाद का मानना था कि जिन्ना को राष्ट्रीय नेता बनाने में गांधी की भूमिका थी।
आजाद अपनी आत्मकथा ‘इंडिया विंस फ्रीडम’ में लिखते हैं, ‘बीस के दशक में कांग्रेस छोड़ देने के बाद जिन्ना अपनी राजनीतिक महत्ता खो चुके थे। लेकिन गांधी जी की वजह से जिन्ना को भारतीय राजनीति में वापस आने का मौका मिल गया। भारतीय मुसलमानों के एक बहुत बड़े वर्ग को जिन्ना की राजनीतिक क्षमता के बारे में संदेह था लेकिन जब उन्होंने देखा कि गांधीजी जिन्ना के पीछे भाग रहे हैं तो जिन्ना के लिए उनके मन में नया सम्मान पैदा हो गया।’
आजाद लिखते हैं, ‘गांधी जी ने ही जिन्ना के लिए अपने पत्र में’ शब्द का प्रयोग किया। ये पत्र तुरंत ही अखबारों में छपवा दिया गया। जब मुसलमानों ने देखा कि गांधी जी जिन्ना को ‘कायद-ए-आजम’ कहकर संबोधित कर रहे हैं तो जरूर उनमें खास बात होगी।’
आजाद और नेहरू में मतभेद
1937 के चुनावों के बाद आजाद को उत्तरी राज्यों में कांग्रेस की सरकार बनवाने की जिम्मेदारी सौंपी गई।
उत्तर प्रदेश में आजाद ने विधानसभा में मुस्लिम लीग के दो सदस्यों खलीकुज्जमा और नवाब इस्माइल खाँ को कांग्रेस के कैबिनेट में शामिल होने की दावत दी। वो इसके लिए तैयार भी थे लेकिन उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू ने तय किया कि मुस्लिम लीग को कैबिनेट में सिर्फ एक जगह ही दी जा सकती है।
राजमोहन गांधी लिखते हैं, ‘आजाद के कहने पर महात्मा गांधी ने भी मुस्लिम लीग के दो सदस्यों को उत्तर प्रदेश मंत्रिमंडल में शामिल करने की सिफारिश की लेकिन नेहरू ने अपना फैसला नहीं बदला। मुस्लिम लीग भी एक स्थान के लिए राजी नहीं हुई। इस तरह मौलाना आजाद का उत्तर प्रदेश में कांग्रेस- लीग गंठबंधन का प्रयास विफल हो गया।’
बाद में आजाद ने अपनी आत्मकथा ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ में लिखा, ‘नेहरू के रवैए की वजह से जिन्ना लीग के उत्तर प्रदेश घटक का समर्थन बनाए रखने में कामयाब हो गए जो कि एक समय जिन्ना का साथ छोडऩे के लिए तैयार था। नेहरू के इस कदम से मुस्लिम लीग को उत्तर प्रदेश में नई जान मिल गई। जिन्ना ने इसका पूरा फ़ायदा उठाया और आखिर में इसका नतीजा ये हुआ कि पाकिस्तान बन गया।’
चौधरी खलीकुज्जमाँ ने अपनी किताब ‘पाथवे टू पाकिस्तान’ में भी लिखा, ‘आजाद का ये सोचना गलत नहीं है कि उत्तर प्रदेश में मुस्लिम लीग-कांग्रेस की बातचीत नाकाम होने के बाद ही पाकिस्तान की नींव रखी गई थी।’
वो लिखते हैं, ‘हालात बदल गए होते अगर आज़ाद अपनी बात पर अड़े रहते और इस मुद्दे पर अपने पद से इस्तीफा देने की धमकी दे देते लेकिन ऐन मौक़ै पर आज़ाद पीछे हट गए।’
आजाद फिर बने कांग्रेस के अध्यक्ष
जब 1938 में कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर सुभाषचंद्र बोस का कार्यकाल समाप्त हुआ तो मौलाना आजाद का नाम सबकी जुबान पर था।
महादेव देसाई मौलाना की जीवनी में लिखते हैं कि महात्मा गांधी ने उनसे ये पद ग्रहण करने के लिए कहा था लेकिन बोस एक और वर्ष के लिए कांग्रेस अध्यक्ष बने रहना चाहते थे, आज़ाद ने गांधी के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया क्योंकि वो बंगाल में अपने कई प्रशंसकों को निराश नहीं करना चाहते थे। तब तक बोस बंगाल के हीरो बन चुके थे। उस वर्ष हुए चुनाव में सुभाषचंद्र बोस एक बार फिर कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। उन्होंने पट्टाभि सीतारमैया को हराया जिन्हें गांधीजी का समर्थन हासिल था।
साल 1939 में गांधी जी ने एक बार फिर मौलाना से कांग्रेस का नेतृत्व करने के लिए कहा। इस बार आज़ाद राजी हो गए। उन्हें कुल 1854 वोट मिले जबकि उनके प्रतिद्वंदी एमएन रॉय सिर्फ 183 वोट ही हासिल कर सके।
विभाजन योजना का पुरजोर विरोध
नौ अगस्त, 1942 को जब महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया तो मौलाना आजाद कांग्रेस के अध्यक्ष थे। उन्हें कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं के साथ गिरफ्तार कर अहमदनगर किले में ले जाया गया और कांग्रेस पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
32 महीने बाद अप्रैल, 1945 में उनकी रिहाई हुई। जब सितंबर, 1946 में अंतरिम सरकार का गठन किया गया तो शुरू में गांधी और नेहरू के अनुरोध के बावजूद आजाद केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल नहीं हुए।
गांधी और नेहरू के बार-बार जोर देने पर उन्होंने चार महीने बाद शिक्षा मंत्री का पद संभाला। माउंटबेटन ने पद संभालने के बाद जब भारत के विभाजन की प्रक्रिया शुरू की जो मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने उसका पुरजोर विरोध किया। एक भारतीय के रूप में उन्हें देश के टुकड़े होना मंजूर नहीं था।
उस समय मौलाना अबुल कलाम आजाद ने कहा था, ‘जब हिंदु बहुल देश में लाखों मुसलमान जागेंगे तो वो पाएंगे कि अपने ही देश में पराए और विदेशी बन गए हैं। आजाद ने अपनी आत्मकथा में लिखा था, मैं एक क्षण के लिए भी पूरे भारत को अपनी मातृभूमि न मानने और उसके एक-एक हिस्से मात्र से संतुष्ट होने के लिए तैयार नहीं था।’
मार्च 1947 आते-आते सरदार पटेल भारत के विभाजन के लिए तैयार हो गए थे और नेहरू ने भी इस सत्य को करीब-करीब स्वीकार कर लिया था।
आजाद लिखते हैं, ‘मुझे बहुत दुख और आश्चर्य हुआ जब सरदार पटेल ने अंतरिम सरकार में ध्रुवीकरण से तंग आकर मुझसे स्वीकार किया, ‘हम इसे पसंद करें या न करें, भारत में दो राष्ट्र हैं।’ नेहरू ने भी मुझसे दुखी स्वर में कहा कि मैं विभाजन का विरोध करना बंद कर दूं।’
31 मार्च को जब गांधी पूर्वी बंगाल से दिल्ली लौटे तो आजाद ने उनसे मुलाकात की।
आजाद ने लिखा, ‘गांधी ने मुझसे कहा कि विभाजन अब एक बड़ा खतरा बन गया है। ऐसा लगता है कि वल्लभभाई पटेल और यहां तक कि जवाहरलाल ने भी हथियार डाल दिए हैं। क्या तुम मेरा साथ दोगे या तुम भी बदल गए हो? मैंने जवाब दिया विभाजन के प्रति मेरा विरोध इतना मजबूत कभी नहीं रहा जितना आज है। मेरी एकमात्र आशा आप हैं।’
‘अगर आप भी इसे मान लेते हैं तो ये भारत की हार होगी। इस पर गांधी बोले, ‘मेरे मृत शरीर पर ही कांग्रेस विभाजन स्वीकार करेगी।’ लेकिन दो महीने बाद गांधी जी ने मेरे जीवन का सबसे बड़ा झटका मुझे दिया जब उन्होंने कहा कि विभाजन को अब रोका नहीं जा सकता।’
मुसलमानों को समझाने की कोशिश
आजादी के बाद जब भारतीय मुसलमानों का पाकिस्तान जाने का सिलसिला शुरू हुआ तो आज़ाद ने उन्हें नसीहत देने की कोशिश की।
सैयदा सैयदेन हमीद ने अपनी किताब ‘मौलाना आजाद, इस्लाम एंड द इंडियन नैशनल मूवमेंट’ में लिखा, ‘मौलाना ने उत्तर प्रदेश से पाकिस्तान जाने वाले मुसलमानों से कहा, आप अपनी मातृभूमि को छोडक़र जा रहे हैं। क्या आपको पता है कि इसका परिणाम क्या होगा? इस तरह आपका जाना भारत के मुसलमानों को कमज़ोर करेगा।’
वो लिखती हैं, ‘एक समय ऐसा भी आएगा जब पाकिस्तान के अलग-अलग क्षेत्र अपनी अलग पहचान बताना शुरू कर देंगे। हो सकता है कि बांग्ला, पंजाबी, सिंधी और बलोच अपने आपको अलग राष्ट्र घोषित कर दें। पाकिस्तान में आपकी स्थिति क्या बिन बुलाए मेहमान की नहीं होगी। हिंदू आपके धार्मिक प्रतिद्वंद्वी हो सकते हैं लेकिन क्षेत्रीय और राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्वी कतई नहीं।’
सिगरेट और शराब के शौकीन
आजाद के मन में महात्मा गांधी के लिए अपार श्रद्धा थी लेकिन वो उनके सभी विचारों को नहीं मानते थे। वो गांधी जी की उपस्थिति में खुलेआम सिगरेट पिया करते थे जबकि ये जगजाहिर था कि गांधी जी को धूम्रपान करने वाले लोग पसंद नहीं थे। आजाद शराब पीने के भी शौकीन थे।
नेहरू के सचिव रहे एमओ मथाई अपनी किताब ‘रेमिनिसेंसेज ऑफ नेहरू एज’ में लिखते हैं, ‘मौलाना आजाद विद्वान मुस्लिम अध्येता तो थे ही लेकिन उन्हें दुनिया की अच्छी चीज़ें भी पसंद थीं। जब वो शिक्षा मंत्री के रूप में पश्चिमी जर्मनी की यात्रा पर गए थे तो वहां भारत के राजदूत एसीएन नाम्बियार ने उन्हें अपने घर में ठहराया। उन्हें पता था कि मौलाना शराब के शौकीन हैं, इसलिए उन्होंने उनके लिए अपने घर में एक छोटा बार बनाया।’
वे लिखते हैं, ‘मौलाना विदेश यात्रा के दौरान शैंपेन पीना पसंद करते थे। वो अकेले शराब पीते थे और नहीं चाहते थे कि इस दौरान दूसरा कोई उनके साथ हो।
नाम्बियार ने मौलाना के सम्मान में कई जर्मन मंत्रियों को आमंत्रित किया था लेकिन जैसे ही भोज समाप्त हुआ आजाद डायनिंग रूम छोडक़र अपने कमरे में आकर अकेले शैंपेन पीने लगे।’
शाम के बाद कोई काम नहीं
मथाई लिखते हैं ‘दिल्ली में मौलाना कभी भी रात्रि भोज पर नहीं जाते थे। नेहरू के आवास पर भी विदेशी मेहमानों के सम्मान में दिए गए दिन के भोज में ही शामिल होते थे। मंत्रिमंडल की बैठक में भी जिसका आम तौर से समय पांच बजे शाम का होता था, मौलाना ठीक छह बजे उठ खड़े होते थे चाहे कितने ही महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा चल रही हो, अपने घर पहुंचकर वो विस्की, सोडा और समोसे की एक प्लेट मंगवा लेते थे।’
शराब पीते समय कुछ ही लोगों को उनसे मिलने की इजाजत थी। उनमें शामिल थे प्रधानमंत्री नेहरू, अरुणा आसफ अली और आज़ाद के निजी सचिव हुमायूँ कबीर जो बाद में केंद्रीय मंत्री बने।
नेहरू शाम को उनसे मिलने में कतराते थे और तभी उनसे मिलते थे जब कुछ बहुत जरूरी काम आ पड़ा हो।
आजादी के बाद आजाद, नेहरू के मंत्रिमंडल में शिक्षा मंत्री बने। शुरू से ही कई मुद्दों पर नेहरू और सरदार पटेल के बीच मतभेद रहे।
राजमोहन गांधी लिखते हैं, ‘ऐसे कई मौके आए जब मौलाना ने नेहरू और पटेल के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाई। आजाद और पटेल दोनों को नेहरू के ऊपर कृष्णा मेनन का प्रभाव पसंद नहीं था। सरदार और आजाद कई मुद्दों पर एक दूसरे से अलग राय रखते थे लेकिन कृष्णा मेनन के बारे मे दोनों की राय एक थी। सरदार की मौत के बाद नेहरू ताकतवर होते चले गए और उनके लिए आज़ाद का महत्व घटता चला गया। वो अभी भी उनके साथी और दोस्त बने रहे लेकिन कृष्णा मेनन का महत्व बढ़ता चला गया और आज़ाद का असर घटता चला गया।’
बदरुद्दीन तैयबजी जो 50 के दशक में नेहरू और आजाद के लगातार संपर्क में रहे, अपनी आत्मकथा ‘मेमॉएर्स ऑफ एन इगोटिस्ट’ में लिखते हैं, ‘पंडितजी और आजाद के बीच मुलाकातें कम होने लगीं, जबकि कैबिनेट में न रहते हुए भी कृष्णा मेनन नेहरू के मुख्य सलाहकार के रूप में काम करने लगे।’
बाथरूम में गिरने से हुई मौत
मौलाना आजाद हमेशा स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से जूझते रहे। उन्हें कसरत करना और यहां तक कि सुबह टहलना कतई नापसंद था। वो हमेशा किताबों से चिपके रहते थे। वो न ही अपने घर से बाहर निकलते थे और न ही किसी को अपने घर बुलाते थे।
कसरत न करने की वजह से उनके पैरों में अकडऩ आ गई थी। वो थोड़ा लंगड़ा कर चलते थे और दो बार अपने बाथरूम में गिर भी पड़े थे।
19 फऱवरी, 1958 को वो एक बार फिर अपने बाथरूम में गिरे। इस बार उनकी कमर की हड्डी टूट गई और वो बेहोश हो गए।
थोड़ी देर के लिए उन्हें होश आया। जब नेहरू उन्हें देखने आए तो उन्होंने उन्हें देखते ही कहा, ‘जवाहर, खुदा हाफिज।’
बहुत कोशिशों के बाद भी वो इस चोट से उबर नहीं पाए और 22 फरवरी, 1958 को सुबह दो बजे उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। (Bbc.com)
बहुत दिनों गर्मी पडऩे के बाद जब बरसात की पहली फुहार आती है। उससे किसान के खेत या बागीचे तो नहीं लहलहाते। लेकिन लहलहाने वाली फसल की उम्मीद जगने लगती है। वर्षों से निढाल, अनुकूल और सहमते हुए सत्तासमर्थक लगते सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग संबंधी एक फैसला देकर उम्मीदों की बौछार तो की है। मौसम के बदलने का इशारा भी उसमें छिपा हो सकता है। भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग में रूढ़ अवधारणा पैठ गई है कि संविधान तो सिर माथे लगाने लायक है। उसे लेकर कोई विपरीत बहस, निंदा, आलोचना या पुर्नमूल्यांकन की बात भी नहीं करनी चाहिए। इसके बरक्स कुछ लोग संविधान को कुचल, बदल और खारिज कर ‘एक निशान, एक विधान, एक प्रधान’ जैसा गैरलोकतंत्रीय नारा लगाते हिन्दू राष्ट्र बनाने का ऐलान संविधान में दर्ज कर देना चाहते हैं। संविधान बनने के 70 वर्ष से ज्यादा हो जाने पर भी उसके विकल्प, विश्वसनीयता और भविष्यमूलकता को लेकर वक्त ने संदेह करने का मौका नहीं दिया। फिर भी लगातार परिवर्तन और पुनरीक्षण संविधान के लिए वे बौद्धिक चुनौतियां हैं, जिनका तार्किक उत्तर देना लोकतांत्रिक समझ के लिए बेहद जरूरी है। इस नजरिए से देखने पर सुप्रीम कोर्ट का हालिया फैसला संविधान के गर्भगृह में पैदा हुई लेकिन अनदेखी कर दी गई उन घटनाओं और परिस्थितियों को उकेरना चाहेगा कि कहीं कोई चूक पहले ही हो गई है। उसके कारण भारतीय लोकतंत्र को केन्द्र सरकार की दादागिरी या बपौती का लगातार सामना करना पड़ता रहता है। अगर सुप्रीम कोर्ट इसी तरह सभी बुनियादी संवैधानिक मसलों को ऐसे ही लेकर अपनी संभावित भूमिका को कारगर ढंग से समझता रहे। तो भारतीय संविधान की पोथी को केवल बांचने के अलावा उसके प्रति श्रद्धा कायम रहनी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने 378 पृष्ठ के अपने लंबे फैसले में मामले से जुड़े सभी पक्षों, इतिहास, संभावनाओं और सरकारी कारनामों वगैरह पर विचार किया है। इसके बावजूद जाहिर कारणों से सुप्रीम कोर्ट ने उन कई बातों का स्पर्ष नहीं किया जिन्हें लोकतंत्र के बुनियादी ढांचे के सिलसिले में आजाद खयाल नागरिकों द्वारा विचार करना जरूरी है। यह आमफहम है कि संविधान निर्माता महान देषभक्त थे और जो कुछ उन्होंने कहा रचा, उस पर बहस मुबाहिसा करने के बाद उसे विवेक के माथे पर लीप लेना चाहिए। यह समझाइष ही वह रहस्यलोक है जहां सच की हिफाजत करना पुरखों की इज्जत करने से ज्यादा महत्वपूर्ण और आवष्यक संवैधानिक आचरण है। स्वतंत्र चुनाव आयोग की परिकल्पना लोकतंत्र के लिए बेहद जरूरी है। यह दुनिया के सभी लोकतंत्रों में है। भारत की संविधान सभा में 15 और 16 जून 1949 को इस विषय पर जीवंत बहस हुई। दिलचस्प है कि संविधान के कई महत्वपूर्ण हिस्सों पर बहस के वक्त सबसे बड़ेे नेता जवाहरलाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल, मौलाना आजाद आदि की गैरहाजिरी या चुप्पी के कारण भी कई अपूर्णताएं बल्कि गलतफहमियां रह गईं। उनके कारण भविष्य में सुप्रीम कोर्ट तक में पेचीदी स्थितियां पैदा होती रहीं। संविधान बनाने के लिए गठित मूल अधिकारों, अल्पसंख्यक अधिकारों आदि की कुछ उपसमितियों में नागरिकों को वोट डालने की आजादी मूल अधिकार के रूप में देने की पेशकश हुई। बाद में उसके सामने आने पर संविधान सभा ने इसे बहुत महत्वपूर्ण समझते हुए तय किया कि मूल अधिकारों की फेहरिश्त में चुनाव में भाग लेने के अधिकार का उल्लेख भर कर देने से बात बनेगी नहीं। इसलिए पूरे चुनाव प्रबंधन को एक नए परिच्छेद में अलग से लिखकर उसका खुलासा किया जाए।
यही वजह है कि प्रारूप समिति के अध्यक्ष डा. अंबेडकर ने पहले के प्रस्तावित प्रावधानों को अंतिम बहस के ठीक पहले बदल दिया। इस बदलाव के कारण लोकतंत्र की जवाबदेही की प्रतिनिधि भावना को राज्यों की सूची से हटाकर केन्द्र सरकार के जिम्मे कर दिया गया। संविधान सभा में षिब्बनलाल सक्सेना, हरिविष्णु पाटस्कर, हृदयनाथ कुंजरू और कुलाधर चालिहा आदि ने प्रस्तावित प्रावधान का कड़ा विरोध किया था। इन पुरखों के साथ ऐसा भी था कि वे कई बार बौद्धिक बहस करने के बदले अपने परस्पर कटाक्षों के लिए समय और नीयत निकाल लेते थे। कई बार डा. अंबेडकर अनावश्यक रूप से तल्ख होकर सदस्यों पर टिप्पणियां कर देते थे। ऐसे सदस्य भी पलटकर जवाबी हमला करने में कोताही नहीं करते थे। शिब्बनलाल सक्सेना ने बुनियादी बात यही कही कि मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति राज्यसभा और लोकसभा दोनों के दो तिहाई के बहुमत से ही होनी चाहिए। इससे सत्ताधारी पार्टी अपनी दादागिरी नहीं कर सकेगी। कुछ अन्य पार्टियों को भी अपनी बात कहने का अवसर मिलेगा। इससे पारदर्षिता आएगी। सक्सेना ने यह जोर देकर कहा था कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति केवल केन्द्र सरकार या प्रधानमंत्री की सिफारिशपर राष्ट्रपति द्वारा किए जाने पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। उनकी नियुक्ति से लेकर अन्य सभी आनुशंगिक विषयों के लिए संसद में अधिनियम पारित कराना जरूरी होगा। अपने लंबे भाषण में हरिविष्णु पाटस्कर ने कहा कि डा. अंबेडकर ने यक ब यक सारे अधिकार राष्ट्रपति के नाम से केन्द्र सरकार अर्थात प्रधानमंत्री को दे दिए हैं जबकि मूल प्रस्तावना उपसमितियों में यही थी कि प्रदेषों के लिए प्रादेषिक चुनाव आयोग वहां के राज्यपालों के नाम से गठित किए जाएंगे। इससे संवैधानिक मर्यादाओं का विकेन्द्रीकरण होना जरूरी होगा। केन्द्र को एकाधिकार देते समय सक्सेना ने टोका था कि आज जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री हैं। वे एक आदर्ष डेमोक्रेट हैं। वे अपनी पसंद का चुनाव आयुक्त बहुमत के दम पर नहीं थोपेंगे। आगे कभी ऐसा प्रधानमंत्री आ सकता है जो अपनी सत्ता को कायम रखने के लिए चुनाव आयोग को बंधुआ मजदूर बना ले और अपनी सियासी सेवाटहल कराने की उम्मीद में हुक्मबजाऊ चुनाव आयुक्तों को नियुक्त करे। प्रदेशों की पहले प्रस्तावित स्वायत्तता को छीनने का कड़ा विरोध कुलाधर चालिहा ने भी किया। उनका कहना हुआ कि दिल्ली या भारत के अन्य किसी कोने में बैठकर अपना हुक्म चलाने वाले चुनाव आयोग से प्रदेशों के हित की कैसे उम्मीद की जा सकती है? उन्होंने नाम लेकर कहा कि गोविन्दवल्लभ पंत, एन बी खेर और रविशंकर शुक्ल जैसे मुख्यमंत्रियोंं के रहते प्रदेशों के नेतृत्व पर भरेासा क्यों नहीं किया जा सकता? उन्होंने इस बात पर भी ऐतराज किया कि मुख्य चुनाव आयोग को तो सुरक्षा है कि वह सुप्रीम कोर्ट जज की तरह महाभियोग लाए जाने पर ही सेवा से पृथक किया जा सकता है। बाकी चुनाव आयुक्तों को मुख्य चुनाव आयुक्तों के परामर्श ये हटाया जा सकता है। वास्तव में यह एक महत्वपूर्ण सवाल उठाया गया। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस सुप्रीम कोर्ट के अन्य जजों को सेवा से अलग नहीं कर सकते। द्विसदस्यीय या बहुसदस्यीय बेंच में बैठने पर हर एक जज की राय का बराबर मत होता है। डॉ. अंबेडकर, के. एम. मुंशी, आर. के. सिधवा, नजीरुद्दीन अहमद जैसे सदस्यों की अपनी समझ की जिद के कारण बाकी चुनाव आयुक्तों की वह हालत कर दी गई जैसी मंत्रिपरिषद में बाकी मंत्रियों की होती है। उन्हें प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री अपने विवेक से हटा सकते हैं। मुख्य चुनाव आयुक्त प्रधानमंत्री की सिफारिश पर नियुक्त होता है और वैसा ही बाकी अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर होता है। तो फिर उनकी अनिश्चित सेवा शर्तें किस तरह संवैधानिक होंगी? यही सवाल हाल में सुप्रीम कोर्ट ने भी चुनाव आयोग संबंधी अपने फैसले में भी दुहराया है।
संविधान सभा में कश्मीर जैसा बहुत महत्वपूर्ण मसला जेरे बहस आया। तब सरदार पटेल और जवाहरलाल नेहरू जैसे जिम्मेदार लोग हाजिर नहीं थे। श्यामाप्रसाद मुखर्जी को बाद में उनकी मृत्यु के कारण षेरे कष्मीर और षहीद वगैरह के संबोधन ढूंढे गए। कश्मीर की बहस में उन्होंने हाजिरी देकर उस वक्त क्यों कुछ नहीं कहा। जवाब संविधान सभा की फाइलों में दर्ज नहीं है। केन्द्र सरकार, प्रधानमंत्री और फिर मुख्य चुनाव आयुक्त आदि के एकतरफा एकाधिकार की संभावित पक्षधरता के खिलाफ कुछ संविधान पुरखों ने अपनी सयानी समझ का पोचारा फेरा। उनके बारे में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कुछ भी नहीं कहा। भारत पाक विभाजन की खतरनाक घटना के कारण संविधान सभा के अधिकांश सदस्यों ने संविधान को ही केन्द्राभिमुखी बना दिया। उन्हें भय रहा था कि मजबूत केन्द्र के बिना खंडित भारत की अखंडता कैसे बचेगी। नागरिकों के संवैधानिक अधिकार और लोकतंत्र का उद्भव और विकास राजनीतिक दुर्घटनाओं पर निर्भर हो जाएं। तो संविधान की आत्मा की हेठी होती है। तुर्रा यह कि यदि भारत पाक विभाजन हुआ भी तो उसकी अगुवाई की जिम्मेदारी तो केन्द्रीय नेताओं की ही रही है। भारत के प्रदेषों का नेतृत्व इस सिलसिले में हाषिए पर ही रहा है। तब भी प्रदेशों का अधिकार छीनकर केन्द्र को दे दिया गया। इसीलिए पाटस्कर ने याद दिलाया कि अपने पहले प्रस्तावित भाषण में संविधान की रूपरेखा समझाते हुए 4 नवंबर 1948 को अंबेडकर ने कहा ही था कि भारत प्रदेशों का एक फेडरेशन बनेगा। बाद में लगातार अलग अलग विषयों पर विधायन करते हुए राज्यों के अधिकार कम किए जाते रहे और एक मजबूत केन्द्र की अवधारणा के नाम पर लगभग अत्याचारी केन्द्र की हैसियत बना दी गई।
मौजूदा वक्त में मुख्य चुनाव आयुक्त अरुण गोयल की नियुक्ति संविधान की पीठ पर छुरा भोंकने का वीभत्स उदाहरण है। पंजाब के आईएएस काडर के इस अधिकारी ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति का आवेदन किया। वे अपने कारणों से नौकरी करने की स्थिति में नहीं थे। उन्होंने लगभग उसी दिन मुख्य चुनाव आयुक्त बनने की अर्जी लगा दी और उनका इस्तीफा भी आनन-फानन में मंजूर हो गया। एक अनिच्छुक नौकरशाह काफी बड़े पद पर इच्छुक मुख्य चुनाव आयुक्त बन गया। संविधान कहता है कि इन्हें बनाया तो प्रधानमंत्री ने। तो प्रधानमंत्री और अरुण गोयल की साठगांठ का यह उदारण नहीं तो क्या है? ऐसे में अगले 6 वर्षों तक मुख्य चुनाव आयुक्त की हैसियत में एक पक्षपाती और आत्ममुग्ध व्यक्ति से संविधान और लोकतंत्र क्या उम्मीद करेंगे? प्रधानमंत्री की चुप्पी तो किसी रहस्य महल या भुतहा महल की कहानियों जैसी अवाम विरोधी कथा ही तो कहलाएगी। सुप्रीम कोर्ट का निर्णय तभी लागू होगा जब मौजूदा चुनाव आयुक्तों का कार्यकाल खत्म हो जाए। ऐसा भी क्यों हो? जब नियुक्ति करने वाले अधिकारी अर्थात प्रधानमंत्री का विवेक ही प्रदूषित सिद्ध हो जाए। तो उसके उत्पाद अपनी कुर्सियों पर क्यों बैठे रहें। अन्यथा कुछ वर्षों का समय बीत जाने पर केन्द्र सरकार बहुमत की ताकत के कारण कोई न कोई जुगत बिठाना चाहेगी, जिससे सुप्रीम कोर्ट का यह बहुचर्चित फैसला ठंडा पड़ जाए। संविधान सभा में कई मौकों पर सबसे बड़ेे नेताओं की चुप्पी संविधान के लोकयष के लिए मतिभ्रम पैदा करती रही है। आदिवासी अधिकारों को लेकर भी डॉ. अंबेडकर ने प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में बहस के दिन ही पूरा ड्रॉफ्ट बदल दिया और आदिवासी अधिकारों में बेतरह कटौती हो गई। तब भी सबसे बड़ेे नेता जवाहलाल नेहरू आजादी की लड़ाई के सबसे बड़े सेनापति भी थे। वे मौन रहे। ऐसे और भी उदाहरण हैं। इसलिए भारतीय लोकतंत्र की मौजूदा पीढ़ी भक्तिभाव में अभिभूत होकर वैज्ञानिक सच को नहीं समझ पाएगी। लोकतंत्र की बुनियाद नेता, सरकार या राष्ट्रपति और उनके द्वारा नियुक्त संवैधानिक पदाधिकारी नहीं हैं। हम भारत के लोग अर्थात नागरिक बुनियाद का पत्थर हैं। हम पर लोकतंत्र के भवन की मजबूती निर्भर हो सकती है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला ऐतिहासिक कहा जाता है। भले ही वह परिणाम ऐतिहासिक नहीं भी हो। वह चुनाव सुधारों के लिए एक कोशिश के रूप में जरूर दर्ज होगा। पहले चुनाव आयुक्त रहे टी. एन. शेषन और बाद में डॉ. एम. एस. गिल ने कई सुझाव दिए थे। वे सुप्रीम कोर्ट तक गए थे लेकिन तब सुप्रीम कोर्ट ने भी टालमटोल किया। वरना तब ही ऐसे सवाल हल किए जा सकते थे। विख्यात संविधानविद जस्टिस वी. आर. कृष्ण अय्यर ने तो इस संबंध में काफी लिखा है। अन्य कई विचारकों का भी इसमें योगदान है। यह तो पिछले 70 वर्षों में एक के बाद एक प्रधानमंत्रियों ने इस मुद्दे की अनदेखी की। वे चाहे जैसे रहे हों लेकिन नरेन्द्र मोदी नाम के प्रधानमंत्री ने संविधान की एक-एक आयत का कचूमर निकालने में अपने अनोखे अभियान का परिचय दिया है। यदि वह कायम रहा तो आगे पूरे संविधान का क्या होगा? उसकी भयावहता केवल उनको हो सकती है जो संविधान का तटस्थ और वस्तुपरक मूल्यांकन करने में भरोसा करते हैं।
-सुब्रतो चटर्जी
अमरीकी साम्राज्यवाद को चीन के विरुध्द भारत को खड़ा करने के लिए नाटू-नाटू जैसे थर्ड क्लास गाने को ऑस्कर देने की जरूरत है। मूर्खों को बाद में समझ आएगा। अभी नाचो।जिंदगी में जब भी प्रशंसा मिले सबसे पहले यह देखिए कि कौन कर रहा है और क्यों कर रहा है। बिना निहित स्वार्थ की पहचान किए आप बहक जाएँगे।
दूसरी जरूरी बात है आत्म विश्लेषण। अगर मेरी किसी घटिया कृति पर बहुत वाहवाही मिलती है तो मैं उसे मिटा देता हूँ। हाल में ही रेत समाधि जैसे औसत से नीचे दर्जे की किताब को भी बुकर पुरस्कार मिल गया। ये घटनाएँ मुझे उन दिनों की याद दिलातीं हैं जब भारत के नए बाजार में कॉस्मेटिक बेचने के लिए सुस्मिता सेन को ब्रह्मांड सुंदरी के खिताब से नवाजा गया।
वह नब्बे के दशक का दौर था। आगे की कहानी आपको मालूम है । हर छोटे बड़े शहर की गलियों में कुकुरमुत्ते की तरह ब्यूटी पार्लर उग आए। हर दूसरी भारतीय लडक़ी खुद को कुरुप मानते हुए वहाँ जाने लगीं। यहाँ तक कि सुंदरता के पैमाने भी बदल गए। उबटन और मुल्तानी मिट्टी से चमकते हुए, अच्छी साड़ी में लिपटी वधू अब किसी को पसंद नहीं। सबको फेशियल, आई ब्रो, पैडिक्योर, मैनिक्योर, वैक्सिंग की हुई मोम की गुडिय़ा पसंद है। हम भूल गए कि बाजार पहले आपकी जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए साधन उपलब्ध कराता है और जता देता है कि आप एक बहुत ही घटिया जिंदगी जी रहे हैं । आपको लगता है कि सरकारी स्कूल और अस्पताल बेकार हैं और प्राइवेट बेहतर हैं।
नतीजा यह होता है कि आप सरकार पर बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के लिए दबाव बनाना छोड़ देते हैं और धीरे-धीरे कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को आपकी सहमति से ही फासिस्ट लोगों द्वारा खत्म किया जाता है।
ठीक इसी तरह से प्राईवेट क्षेत्र के कुछेक उच्च सैलरी पाने वाले लोगों को प्रचारित कर आपको बताया जाता है कि कैसे निजी क्षेत्र सरकारी क्षेत्र से बेहतर सुख सुविधाएँ देता है। आपको ये सोचने की फुर्सत नहीं है कि इतने बड़े देश और इतनी बड़ी जनसंख्या को रोजगार देने के लिए निजी क्षेत्र के पास कितनी बड़ी पूँजी और संसाधन हैं। आप ये भी नहीं समझते हैं कि सैलरी नौकरी का एक हिस्सा है, सामाजिक सुरक्षा, मान सम्मान, देश की प्रगति से सीधे तौर पर जुडऩे का जो मौका एक सरकारी कर्मचारी के पास है वह किसी सत्य नाडेला के पास भी नहीं है ।
नतीजतन, आप अपने बच्चों को कॉरपोरेट ग़ुलाम बनाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं और वे पैसों से भरपूर एक नाकामयाब जिंदगी जीते रहते हैं। इस तरह से आप शोषण और युद्ध आधारित पूँजीवादी व्यवस्था के कल्पतरु की जड़ों में अपने खून को पानी समझ कर सींचते रहते हैं ।
आज की परिस्थितियों में मैं देश की राजनीतिक व्यवस्था पर मध्यम वर्ग की चुप्पी के बारे बहुत कुछ सुनता रहता हूँ। यह मध्यम वर्ग कौन है और क्या है इसका राजनीतिक, सामाजिक चरित्र? यह वही वर्ग है जिसकी आधी आबादी ब्यूटी पार्लर के आसरे है खूबसूरत दिखने के लिए और बाकी महानगरों में एक फ्लैट खरीदने को अपने जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि मान कर सारे गलत सही काम निर्विकार भाव से करती है।
अब एक नई चाल चली गई है । हमारे हजारों साल पुराने शास्त्रीय संगीत पर कोई भी गीत उनको ऑरिजिनल नहीं लगता, लेकिन एक सी ग्रेड फि़ल्म की डी ग्रेड गाने को पुरस्कार मिलता है । वे जानते हैं कि राष्ट्रवाद के इस घिनौने दौर में अधिकांश भारतीयों के दिमाग को यह कितना सुकून पहुँचाएगा और गधों को नाचते देखना मजेदार तो होता ही है।
समाज और देश के पतन के लिए सबसे ज्यादा जि़म्मेदार विचारों का पतन होता है । हो सके तो इसे बचा लीजिए। चलते चलते बता दूँ कि हाथी पर बनी डॉक्यूमेंट्री को मिले पुरस्कार के लिए उनके निर्माता वाकई बधाई के पात्र हैं। आपको ये विरोधाभास लग रहा होगा, लेकिन लोहे के पंजे मखमल के दस्तानों में ही छुपे रहते हैं....
डॉ. लखन चौधरी
छत्तीसगढ़ विधानसभा में प्रस्तुत 2022-23 के आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक राज्य में मजबूत आर्थिक विकास के आधार एवं संकेत दिख रहे हैं, लेकिन सरकार को सेवा क्षेत्र पर और फोकस करने की दरकार है। सेवा क्षेत्र में विकासदर बढ़ाने की आवश्यकता है, क्योंकि राज्य की अर्थव्यवस्था में सेवा क्षेत्र का योगदान केन्द्र के मुकाबले में 22 फीसदी कम है। इसी तरह राज्य में प्रतिव्यक्ति आय बढ़ाने के लिए काम करने की जरूरत है। यद्यपि सरकार ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए जोरदार काम किया है, लेकिन अब सरकार को लोगों की आमदनी बढ़ाने पर फोकस करने की जरूरत है। इसकी वजह यह है कि 2022-23 में छत्तीसगढ़ में प्रतिव्यक्ति आय 1,33,898 रू. अनुमानित है, जबकि इस समय देश की प्रति व्यक्ति आय 1,97,000 रू. है।
2022-23 के वित्तीय वर्ष में राज्य में 8 फीसदी विकासदर अनुमानित है। यह देश के राष्ट्रीय औसत से एक फीसदी अधिक है, लेकिन राज्य सरकार के ही पिछले साल यानि 2021-22 के 11.54 फीसदी मुकाबले 3.54 फीसदी कम है। 2021-22 में स्थिर भाव पर राज्य की सकल राज्य घरेलु उत्पाद यानि जीएसडीपी 2,67,681 करोड़ रू. थी जिसके 2022-23 में बढक़र 2,89,082 करोड़ रू. हो जाने के अनुमान हैं। इस तरह 2022-23 में प्रचलित भाव पर राज्य की सकल राज्य घरेलु उत्पाद यानि जीएसडीपी बढक़र 4,57,608 करोड़ रू. हो जाने का अनुमान है।
प्रचलित मूल्य पर राज्य की सकल राज्य घरेलु उत्पाद यानि जीएसडीपी में साल 2022-23 में 12.6 फीसदी बढ़ोतरी का अनुमान है, जो पिछले साल 2021-21 के अनुमान 13.60 फीसदी से लगभग एक फीसदी कम है, जबकि कोरोना कालखण्ड की चुनौतियों से अर्थव्यवस्था बाहर निकल चुकी है। यह साफ और सपष्ट है कि छत्तीसगढ़ की अर्थव्यवस्था कोरोना कालखण्ड में भी अच्छी विकासदर के साथ बेहतर प्रदर्शन करते हुए आगे बढ़ रही है, लेकिन और काम करने की आवश्यकता है।
प्रदेश में 2022-23 में कृषि क्षेत्र की विकास दर 5.93 फीसदी अनुमानित है, जो कि पिछले साल 2021-22 की 3.88 फीसदी की तुलना में बेहतर है। इसी तरह उद्योग क्षेत्र की विकास दर 2022-23 में 7.83 फीसदी संभावित है, जो कि पिछले साल 2021-22 की 15.44 फीसदी तुलना में बहुत कम है। सेवा क्षेत्र की विकास दर 2022-23 में 9.29 फीसदी अनुमानित है, जो कि पिछले साल 2021-22 की 8.54 फीसदी की तुलना में ठीक है, मगर पर्याप्त नहीं है।
राज्य एवं देश की अर्थव्यवस्थाओं में विभिन्न क्षेत्रों का तुलनात्मक योगदान इस प्रकार अनुमानित है। छत्तीसगढ़ की अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र का योगदान 17 फीसदी अनुमानित है, जबकि देश की अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र का योगदान 15 फीसदी है, यानि 2 फीसदी अधिक है। इसी तरह छत्तीसगढ़ की अर्थव्यवस्था में उद्योग क्षेत्र का योगदान 50 फीसदी अनुमानित है, जबकि देश की अर्थव्यवस्था में उद्योग क्षेत्र का योगदान मात्र 30 फीसदी है, यानि 15 फीसदी अधिक है। छत्तीसगढ़ की अर्थव्यवस्था में सेवा क्षेत्र का योगदान 33 फीसदी अनुमानित है, जबकि देश की अर्थव्यवस्था में सेवा क्षेत्र का योगदान 55 फीसदी है, यहां पर राज्य की स्थिति कमजोर है यानि सेवा क्षेत्र में 22 फीसदी की कमी है। इस पर सरकार को बहुत काम करने की जरूरत है।
योजना आर्थिक एवं सांख्यिकी मंत्रालय द्वारा सदन में प्रस्तुत आर्थिक सर्वेक्षण के ब्यौरे के अनुसार 2022-23 के साल में प्रतिव्यक्ति आय 1,33,898 रू. अनुमानित है, जो कि पिछले साल 2021-22 के अनुमान 1,18,401 की तुलना में 15,497 रू. अधिक है। 2022-23 के साल में प्रतिव्यक्ति आय में 10.93 फीसदी की बढ़ोतरी का अनुमान है। यह 2021-22 में 11.93 यानि 12 फीसदी अनुमानित थी। यानि प्रतिव्यक्ति आय के मामले में भी सरकार को और काम करने की जरूरत है।
2022-23 के आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार सरकार की आर्थिक सेहत भले ही भारत सरकार के औसत की तुलना में बेहतर है, लेकिन स्वयं छत्तीसगढ़ सरकार के पिछले साल 2021-22 की तुलना में कमजोर प्रदर्शन की ओर इशारा करता है। कृषि विकास दर राष्ट्रीय औसत 3.45 फीसदी की तुलना में 5.93 फीसदी बेहतर है। उद्योग में विकास दर राष्ट्रीय औसत 4.11 फीसदी की तुलना में 7.83 फीसदी बहुत बेहतर, यानि लगभग दोगुनी है। लेकिन सेवा क्षेत्र में विकास दर राष्ट्रीय औसत 9.14 फीसदी की तुलना में 9.21 फीसदी लगभग बराबर है।
2022-23 के आर्थिक सर्वेक्षण एवं 2023-24 के केन्द्रीय बजट के अनुसार इस समय देश की प्रतिव्यक्ति आय 1,97,000 रू. है, जबकि छत्तीसगढ़ में प्रतिव्यक्ति आय 2022-23 में मात्र 1,33,898 रू. अनुमानित है। सरकार को इस दिशा में ध्यान देकर काम करने की जरूरत है, कि आखिरकार ग्रामीण अर्थव्यवस्था की इतनी मजबूती के बावजूद आमदनी के मामले में राज्य क्यों पिछड़ रहा है। हालांकि 2022-23 में राज्य में प्रतिव्यक्ति आय में 10.93 की बढ़ोतरी हुई है, लेकिन यह बढ़ोतरी भी राष्ट्रीय औसत बढ़ोतरी 13.7 फीसदी की तुलना में लगभग 3 फीसदी कम है। यद्यपि छत्तीसगढ़ के लोगों की औसत आमदनी या कमाई पिछले साल 2021-22 की तुलना में 15,497 रू. बढ़ गई है।
आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट 2022-23 के अनुसार मौजूदा वर्ष के लिए सरकार की राजस्व प्राप्ति का लक्ष्य 89,073 करोड़ है, जबकि इस वर्ष में राजस्व व्यय 88,372 करोड़ अनुमानित है। इस तरह से मौजूदा वर्ष के लिए 701 करोड़ का राजस्व अधिक्य यानि लाभ का बजट पेश होने की उम्मीद है, जो आमजन के लिए उक सुखद संदेश हो सकता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस साल आम आदमी के लिए कोई नया कर नहीं होगा। निष्कर्ष यह है कि छत्तीसगढ़ सरकार को सेवा क्षेत्र के विकास के लिए काम करने के साथ प्रतिव्यक्ति आमदनी बढ़ाने पर फोकस करना होगा, तभी समावेशी विकास की संकल्पना साकार हो सकेगी।
ईश्वर सिंह दोस्त
‘किसी भी प्रकार की संगठित राजनीति को मैं कभी यह पूरा अधिकार नहीं दे सकता कि वह रचना की जाँच करे या उस पर निर्णय दे। और निर्णय देगी तो उस निर्णय को मैं पक्षपात का निर्णय मानूँगा, भले ही वह संयोगवश सही निर्णय हो। इस बात की संभावनाएँ बहुत अधिक हैं कि जिन कविताओं में किसी राजनीतिक दल ने राजनीति का इस्तेमाल नहीं देखा है उन्हीं में आदमी के लिए न्याय के पक्ष की सबसे ज़्यादा राजनीति हो।’
-रघुवीर सहाय (‘कविता क्या बचाती है’ लेख में)।
पिछले दिनों फेसबुक में आना कम हुआ। इसी बीच फेसबुक पर विनयशील की विनोद कुमार शुक्ल पर एक पोस्ट की तरफ ध्यान गया। इसे और इस पर की गई कुछ गैर-जिम्मेदार व दंभी टिप्पणियों को पढक़र गहरा दु:ख हुआ।
इस पोस्ट की सबसे आत्म-दीप्त पंक्ति यह है कि ‘एक तो साहित्य मेरा विषय नहीं रहा है, दूसरे लेखक का मूल्यांकन मेरा कार्य नहीं, न मुझे इसकी समझ है।’
पूछने का मन करता है कि अगर ‘साहित्य आपका विषय नहीं रहा है’ तो आप में यह आत्मविश्वास कहाँ से आ गया कि एक लेखक के समृद्ध संसार में गए बगैर कहासुनी के आधार पर सोशल मीडिया के चौराहे पर उस पर फ़ैसला करने बैठ जाए?
अगर साहित्य या लेखक के मूल्यांकन की आपकी समझ नहीं है तो फिर सोशल मीडिया पर एक नासमझ बहस क्यों चलाना चाहते हैं?
अपनी स्वीकारोक्ति को आप ऐसी बातें बोलने के लाइसेंस के रूप में क्यों ले रहे हैं, जिसका आपके ही अनुसार आपको इख़्तियार नहीं होना चाहिए?
पहली ही पंक्ति में यह भंगिमा ली गई है कि इरादा मानो संवाद का हो- ‘साहित्य जगत, पाठक वर्ग, प्रबुद्धजन सहयोग करें।’
काश कि इरादा संवाद का होता! तब इस पोस्ट की मान्यताओं पर सवाल उठाने वाली रितेश मिश्रा, सुभाष मिश्रा, गौरव गुलमोहर, पलाश किशन आदि की टिप्पणियों का जवाब भी मिलता। कुछ बहस होती। तब इस पोस्ट के बाद इस पोस्ट का समर्थन जताती पोस्टों को किसी अभियान की शक्ल में शेयर नहीं किया जाता। किसी अज्ञात अनुभवी व्यक्ति के जिक्र के पीछे छिपने की कोशिश नहीं की जाती। एक पूर्वाग्रह वाली पोस्ट करते हुए मासूमियत की भंगिमा नहीं बनाई जाती।
राजनीतिक काम से जुड़े लोगों के लिए याद रखना ज्यादा जरूरी है कि राजनीति और साहित्य का रिश्ता सरल सपाट नहीं बल्कि पेचीदा है। रघुवीर सहाय की कही बात याद आती है—
‘किसी भी प्रकार की संगठित राजनीति को मैं कभी यह पूरा अधिकार नहीं दे सकता कि वह रचना की जाँच करे या उस पर निर्णय दे। और निर्णय देगी तो उस निर्णय को मैं पक्षपात का निर्णय मानूँगा, भले ही वह संयोगवश सही निर्णय हो। इस बात की संभावनाएँ बहुत अधिक हैं कि जिन कविताओं में किसी राजनीतिक दल ने राजनीति का इस्तेमाल नहीं देखा है उन्हीं में आदमी के लिए न्याय के पक्ष की सबसे ज़्यादा राजनीति हो।’
रघुवीर सहाय सत्ता और रचना के बीच के अंतर्भूत तनाव की बात करते हैं। वे एक ऐसी लोकतांत्रिक सत्ता की संभावना को मानते थे, जो रचना को स्वायत्तता देती हो, जो उससे भयभीत न होती हो, जो रचना को अपनी फ़ौरी राजनीतिक ज़रूरतों से हांकना न चाहती हो, जो कलाकार को प्रमाणपत्र न देती हो। कहना न होगा कि नेहरू की सत्ता एक ऐसी उदारवादी सत्ता थी। जो कलाकार के प्रति स्वामित्व की भावना नहीं रखती थी। और आज भी हम ऐसी सत्ता की उम्मीद करते हैं।
रचना पर निर्णय के कंगारू कोर्ट सांप्रदायिक राजनीति आज जगह-जगह लगाती है। कई बार यह जल्दबाज़ी परिवर्तनकारी भी करते रहे हैं, जिन्हें उनके ही साहित्यिक पक्षों से जुड़ी जिम्मेदार और समृद्ध आलोचना ने कई बार दुरुस्त किया है। क्या ऐसा ही रवैया सेकुलर उदारवादी कही जाने वाली राजनीति का भी होगा, वह अपने ‘कमिसार’ बनाना चाहेगी? सांप्रदायिक राजनीति कहती है कि या तो आप मेरे साथ हैं या मेरे विरूद्ध हैं? बुश से लेकर तमाम तानाशाह ध्रुवीकरण खड़ा कर सत्य और संवेदना की तमाम बारीकियों को खत्म करना चाहते हैं। उनसे प्रभावित लोग फिल्मों व साहित्य पर फिल्म व साहित्य के मापदंड के बगैर फ़ैसला देना चाहते हैं। आस्वाद और रचना के मूल्यांकन के प्रश्न और बहसें उनके लिए बेमानी हैं। ऐसी तराज़ू सेकुलर क्यों लेकर चलना चाहते हैं? उन्हें साहित्यकार की स्वतंत्रता से क्यों घबराना चाहिए?
हो सकता है कि कोई साहित्यकार कभी किसी राजनीति का अनुगामी हो और नागरिक के बतौर राजनीतिक कार्रवाई में शामिल होता हो, मगर साहित्यकार के रूप में वह उस संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना की जमीन पर खड़ा होता है, जो दलगत या मुद्दों की राजनीति से कहीं ज्यादा व्यापक होती है। साहित्य अपने समय के राजनीतिक नज़रियों और आंदोलनों को भी मनुष्यता की कसौटी पर परख सकता है। तमाम सत्ता व शक्ति समीकरणों के बीच फंसे मनुष्य की स्थिति और उसकी गरिमा के संघर्ष की जिन बारीक संवेदनाओं की खबर साहित्य रखता है, उसे फ़ौरी राजनीतिक मुहावरों व नारों में हमेशा अपघटित नहीं किया जा सकता। और न इतिहास, समाजशास्त्र व दूसरे समाज विज्ञानों की निष्पत्तियों में। अगर ऐसा न होता तो साहित्यकार की प्रतिबद्धता का सवाल उठा कर गुस्ताव फ्लोबेर (Madame Bovary के लेखक) को ख़ारिज करने वाले ज्याँ पाल सार्त्र कोई पच्चीस साल बाद उन पर बाकायदा एक ग्रंथ लिखकर उन्हें अपने समय का सबसे बड़ा रचनाकार घोषित न करते और यह न कहते कि फ्लोबेर और बोदिलेयर आधुनिक संवेदनशीलता के रचयिता हैं।
रघुवीर सहाय ने एक और लेख में लिखा था- ‘मगर मैं किसी राजनीतिक दल को, सत्ताधारी दल को तो और भी नहीं, यह अधिकार नहीं देता कि वह मुझसे मेरे काम की कैफिय़त माँगे। मैं जो करता हूँ, अपनी जिम्मेदारी पर करता हूँ और मेरी बेईमानी की सज़ा मेरे साहित्यकार की मृत्यु है। पर यह दंड मुझे न तो दल के साहित्यिक आलोचक दे सकते और न साहित्य अकादमी के सलाहकार। यह दंड ठीक उसी तरह मेरी अपनी उपलब्धि ही हो सकता है जैसे साहित्य रचना ठीक मेरा अपना निर्णय है।’
विनोद कुमार शुक्ल आज हिंदी के सबसे बड़े साहित्यकार हैं और राजनीति शब्द के व्यापक अर्थों में सबसे बड़े राजनीतिक कवि भी हैं। उन्हें मिला सम्मान हिंदी की आज की सर्वश्रेष्ठ रचनाशीलता को मिला सम्मान है। याद रखा जाना चाहिए कि एक बड़ा साहित्यकार राजनीति के चालू मुहावरों, कार्यनीतियों, रणनीतियों और वाग्मिताओं का अनुवादक नहीं होता। वह ऐसी बातें भी देखता है, जो दलों व नेताओं, कार्यकर्ताओं की भाषा में व्यक्त नहीं हो सकती। विनोद कुमार शुक्ल भी अपनी भाषा को सहमत और प्रमाणीकृत विचारों का उपनिवेश बनने से बचाते हैं। उनके लेखन में आम आदमी की बेबसी, पीड़ा (और मनुष्यता के बरक्स मौजूदा ‘लोकतांत्रिक’ राजनीति की सीमाएं भी) जिस तरह से आती है, वह हमारी राजनीतिक समझ को भी गहराई और विस्तार देती है। वे पाठक को नए अनुभव संसार में ले जाते हैं। जहाँ वह पहले से देखे और बरते गए और किन्हीं छवियों या मान्यताओं के रूप में रूढ़ हो गए अपने संसार को नई निगाह से देख सकता है।
कोई कहता है कि वे अपने समय को दर्ज नहीं करते तो निश्चित ही उसे न साहित्य की समझ है, न अपने समय की और न प्रतिरोध की।
कृपया एक्टिविज्म की लाठी से साहित्य और साहित्य की लाठी से एक्टिविज्म पर प्रहार करने के अपने तैश पर पुनर्विचार करें। सोशल मीडिया को यह इजाजत न दें कि वह हमारे विवेक और विनय को निस्तेज कर दे। ध्रुवीकरण की राजनीति का मुकाबला करने के लिए ध्रुवीकरण की उसी शैली में डूबना-उतराना आवश्यक नहीं। सरलीकरण और आक्रामक उथलेपन से बाहर भी यथार्थ और कार्रवाई के ज़रूरी दायरे हैं। वैसे भी कला, साहित्य और दर्शन का एक जरूरी काम फ़ैसला सुनाने की त्वरा को कुछ धीमा करते हुए मनुष्य के विवेक का परिष्कार करना है। हालांकि धैर्य और पुनर्विचार आज के दौर में हाशिए पर धकेले गए सद्गुण हैं।
ध्रुव गुप्त
आज आधुनिक युग के महानतम वैज्ञानिक और ब्रह्मांड के कई रहस्यों को सुलझाने वाले खगोल विशेषज्ञ स्टीफन हॉकिंग की पुण्यतिथि है। हॉकिंग की वैज्ञानिक स्थापनाएं समझने लायक बुद्धि मुझमें नहीं है, लेकिन जब भी उनका नाम आता है उनकी एक भविष्यवाणी मुझे बेचैन कर देती है। उनका मानना था कि पृथ्वी पर हम मनुष्यों के दिन अब पूरे हो चले हैं। हम यहां दस लाख साल बिता चुके हैं। पृथ्वी की उम्र अब महज़ दो सौ से पांच सौ साल ही बच रही है। इसके बाद या तो कहीं से कोई धूमकेतु आकर इससे टकराएगा या सूरज का ताप इसे निगल जाने वाला है। हाकिंग के अनुसार मनुष्य को अगर एक और दस लाख साल जीवित बचे रहना है तो उसे पृथ्वी को छोडक़र किसी दूसरे ग्रह पर शरण लेनी होगी। यह ग्रह कौन सा होगा, इसकी तलाश अभी बाकी है। इस तलाश की रफ़्तार भी बहुत धीमी है। पृथ्वी का मौसम, तापमान और यहां जीवन की परिस्थितियां जिस तेज रफ़्तार से बदल रही हैं, उन्हें देखते हुए उनकी इस भविष्यवाणी पर भरोसा न करने की कोई वजह नहीं दिखती। भरोसा मुझे इस बात का भी है कि हाकिंग मरे नहीं, बस अपनी जर्जर और असहाय देह यहीं छोडक़र सितारों की दुनिया में कहीं दूर निकल गए हैं। शायद आकाशगंगा में हम पृथ्वीवासियों के लिए एक सुरक्षित ग्रह की तलाश में !
श्रद्धांजलि, सितारों में हाकिंग !
आज आधुनिक युग के महानतम वैज्ञानिक और ब्रह्मांड के कई रहस्यों को सुलझाने वाले खगोल विशेषज्ञ स्टीफन हॉकिंग की पुण्यतिथि है। हाकिंग की वैज्ञानिक स्थापनाएं समझने लायक बुद्धि मुझमें नहीं है, लेकिन जब भी उनका नाम आता है उनकी एक भविष्यवाणी मुझे बेचैन कर देती है। उनका मानना था कि पृथ्वी पर हम मनुष्यों के दिन अब पूरे हो चले हैं। हम यहां दस लाख साल बिता चुके हैं।
पृथ्वी की उम्र अब महज़ दो सौ से पांच सौ साल ही बच रही है। इसके बाद या तो कहीं से कोई धूमकेतु आकर इससे टकराएगा या सूरज का ताप इसे निगल जाने वाला है। हाकिंग के अनुसार मनुष्य को अगर एक और दस लाख साल जीवित बचे रहना है तो उसे पृथ्वी को छोडक़र किसी दूसरे ग्रह पर शरण लेनी होगी। यह ग्रह कौन सा होगा, इसकी तलाश अभी बाकी है। इस तलाश की रफ़्तार भी बहुत धीमी है। पृथ्वी का मौसम, तापमान और यहां जीवन की परिस्थितियां जिस तेज रफ़्तार से बदल रही हैं, उन्हें देखते हुए उनकी इस भविष्यवाणी पर भरोसा न करने की कोई वजह नहीं दिखती। भरोसा मुझे इस बात का भी है कि हाकिंग मरे नहीं, बस अपनी जर्जर और असहाय देह यहीं छोडक़र सितारों की दुनिया में कहीं दूर निकल गए हैं। शायद आकाशगंगा में हम पृथ्वीवासियों के लिए एक सुरक्षित ग्रह की तलाश में !
श्रद्धांजलि, स्टीफन हॉकिंग सर !
सुजय पान
‘भारत के पास दुनिया का सबसे बड़ा युवा कार्यबल है,’ यह एक ऐसी बात है जिसे देश की जनसांख्यिकी के फायदे गिनवाते हुए जब-तब दोहराया जाता है। भारत के युवाओं से जुड़ी संभावनाओं को लेकर पैदा हुए इस उत्साह ने, इस तथ्य को दबा दिया है कि देश में मृत्यु दर में आ रही गिरावट के कारण यहां बुजुर्ग लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा हाल ही में भारत में युवा 2022 रिपोर्ट ने इस बदलते जनसांख्यिकीय बदलाव की बात की है। रिपोर्ट के अनुसार, 2011 से 2036 की अवधि के उत्तरार्ध में गिरावट आने से पहले युवा आबादी (15-29 वर्ष की आयु) के बढऩे की उम्मीद है। भारत की कुल जनसंख्या में युवाओं का अनुपात 1991 में 26.6 प्रतिशत था जो 2016 में बढक़र 27.9 प्रतिशत हो गया। ऐसा अनुमान है कि 2036 तक जनसंख्या में उनकी हिस्सेदारी घटकर 22.7 फीसद हो जाएगी। इसके विपरीत, कुल जनसंख्या में बुजुर्गों का अनुपात जो 1991 में 6.8 प्रतिशत था, वह 2016 में बढक़र 9.2 प्रतिशत हो गया है। ऐसी उम्मीद की जा रही है कि यह आंकड़ा 2036 में 14.9 फीसद तक पहुंच जाएगा। एक अन्य पूर्वानुमान के अनुसार, 2061 तक, भारत में हर चौथा व्यक्ति 60 से अधिक उम्र का होगा।
जैसे-जैसे भारत की आबादी की उम्र बढ़ रही है, हमें अधिक उम्र के उन लोगों के बारे में सोचना शुरू करना होगा जो अपेक्षाकृत कमजोर और असुरक्षित हैं। इसमें असंगठित क्षेत्र के बुजुर्ग श्रमिक शामिल हैं जो देश की कुल कार्यबल का 90 फीसद से भी अधिक काम संभालते हैं।
असंगठित क्षेत्र के बुजुर्ग श्रमिक बहुत असुरक्षित हैं
आंकड़ों में परेशान करने वाले संकेत पहले से ही दिखाई पड़ रहे हैं। 2020-21 में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) योजना के तहत 61 वर्ष और उससे अधिक आयु के कुल 138.54 लाख लोगों को रोजग़ार मिला था। यह संख्या हर साल बढ़ रही है-2019-20 में यह 100.08 लाख थी और 2018-19 में 93.85 लाख। बुजुर्ग श्रमिक मनरेगा से मिलने वाली आर्थिक सुरक्षा के लिए वापस लौट रहे हैं। उनका लौटना इस बात का संकेत है कि बुढ़ापे में उनकी उचित देखभाल नहीं हो रही है। वित्तीय सुरक्षा की कमी भी इन वयोवृद्ध लोगों के लिए एक बड़ा खतरा है जिनके पास पैसे कमाने के लिए पर्याप्त विकल्प एवं अवसर उपलब्ध नहीं हैं। वर्तमान में, असंगठित वर्ग की श्रेणी में लगभग 25 लाख लोगों को राष्ट्रीय पेंशन योजना का लाभ मिलता है। यह संख्या भारत में असंगठित क्षेत्र के कुल आकार का मात्र 0.6 फ़ीसद है। ये आंकड़े चिंता का कारण हैं क्योंकि वृद्ध जनसंख्या में केवल वृद्धि ही होने वाली है।
असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों के पास संगठित क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों की तरह सेवानिवृति या रिटायरमेंट की कोई तय उम्र नहीं होती है। असंगठित क्षेत्रों में मिलने वाली कम मज़दूरी और आय की असुरक्षा के कारण इस क्षेत्र में काम करने वाले लोग इस स्थिति में आ जाते हैं कि उन्हें दिहाड़ी मजदूरी करनी पड़ती है। स्वनीति संस्था के लोग महाराष्ट्र में असंगठित श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा पर किए जाने वाले अपने अध्ययन के लिए पुणे शहर के एक नाका (श्रमिक बाजार) गए। अपनी इस यात्रा में हमने देखा कि नाका पर युवाओं का वर्चस्व है और बुजुर्गों को काम लेने के लिए कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। बढ़ती उम्र के साथ शारीरिक क्षमता में कमी आने लगती है और इसलिए ठेकेदारों को अधिक शारीरिक श्रम करने वाले युवाओं को काम पर लगाना फायदेमंद लगता है। पुणे में उस नाका के एक वरिष्ठ नागरिक ने हमें बताया कि च्च्हमारी देखभाल करने वाला कोई नहीं है इसलिए हमें काम की तलाश में यहां आना पड़ता है। और ठेकेदार हमें काम पर नहीं लेना चाहते हैं क्योंकि हमारी उम्र अधिक है- वो सोचते हैं कि हम भारी सामान उठाने का काम नहीं कर सकते हैं।’
असंगठित क्षेत्र में सेवानिवृति की तय उम्र सीमा नहीं है इसलिए ये लोग जब तक शरीर साथ देता है तब तक काम करते हैं। मजदूरी बहुत कम होती है और यह उस दिन मिलने वाले काम की प्रकृति पर निर्भर करता है। यह आर्थिक सच्चाई बहुत सारे बुजुर्ग श्रमिकों को रोज काम करने की स्थिति में लाकर खड़ा कर देती है। जैसे ही कोई मजदूर बूढ़ा होने लगता है उसकी ‘मार्केट वैल्यू’ में कमी आने लगती है। बुजुर्ग श्रमिक अपने जीवनयापन के लिए हर दिन काम करना चाहते हैं लेकिन उन्हें नाकों पर खड़े युवाओं (जो खुद बेरोजगारी संकट का सामना कर रहे हैं और उन्हें अनौपचारिक क्षेत्र का सहारा लेना पड़ता है) की भीड़ से मुकाबला करने में परेशानी होती है।
सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की नीतियों को बनाने की आवश्यकता है
1999 में स्थापित, नेशनल पॉलिसी ऑन ओल्डर पर्सन्स (एनपीओपी) देश की उम्रदराज आबादी पर निर्देशित पहली प्रमुख नीतियों में से एक थी। वर्तमान में, देश की वरिष्ठ आबादी पर केंद्रित एक व्यापक नीति अटल वयो अभ्युदय योजना (जिसे पहले वरिष्ठ नागरिकों के लिए राष्ट्रीय कार्य योजना या हृ्रक्कस्ह्म्ष्ट के रूप में जाना जाता था) है। यह योजना केवल वरिष्ठ नागरिकों की बुनियादी ज़रूरतों पर ही नहीं बल्कि जीवन के कई पहलुओं पर ध्यान देती है। लेकिन यह यहीं तक सीमित नहीं है। यह नीति युवा और वृद्धों के बीच अंतर-पीढ़ी संबंधों की बात भी करती है। इसका उद्देश्य पूरे देश में क्षेत्रीय संसाधन और प्रशिक्षण केंद्रों के माध्यम से सक्रिय और उत्पादक उम्र को सुनिश्चित करना है।
दो पेंशन योजनाएं भी हैं जो भारत में अनौपचारिक क्षेत्र पर केंद्रित हैं—प्रधानमंत्री श्रम योगी मानधन (पीएमएसवाईएम) और अटल पेंशन योजना (एपीवाई)। पीएमएसवायएम उन असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों पर ध्यान केंद्रित करता है जो 18-40 वर्ष की आयु के हैं और जिनकी मासिक आय 15,000 रुपये या उससे कम है। 60 वर्ष की आयु के बाद, उन्हें प्रति माह 3,000 रुपए की पेंशन का आश्वासन दिया जाता है। एपीवाई 18-40 वर्ष की आयु के गरीब और असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों पर ध्यान केंद्रित करता है और प्रति माह 1,000-5,000 रुपये से लेकर सेवानिवृत्ति के बाद कई स्तरों पर पेंशन देता है। ये दोनों योजनाएं स्वैच्छिक और अंशदायी प्रकृति की हैं। हालांकि प्रति दिन काम खोजने वाले दिहाड़ी मजदूरों के लिए अपनी गाढ़ी कमाई सरकार के पास जमा करने और कई सालों बाद उसका एक निश्चित हिस्सा ही पाने में सक्षम होने वाली बात स्वीकार कर पाना आसान नहीं होता है।
बुजुर्गों की जरूरतों पर हेल्पएज इंडिया द्वारा 2022 का एक अध्ययन ब्रिज द गैप बताता है कि भारत के बुजुर्गों को देखभाल और गरिमापूर्ण जीवन प्रदान करने का रास्ता बहुत लंबा है। बुजुर्गों के साथ किए गए सैम्पल सर्वे के अनुसार 47 फीसद बुजुर्गों को अपने परिवारों से पैसे मांगने पड़ते हैं और 21 फीसद को जीवनयापन के लिए काम का सहारा लेना पड़ता है। इसके अतिरिक्त, 57 फीसद बुजुर्ग तात्कालिक वित्तीय असुरक्षा का सामना करते हैं। लगभग 45 फीसद ने पेंशन की अपर्याप्तता और 38 फीसद ने वित्तीय असुरक्षा के कारणों के रूप में रोजगार के अवसरों की कमी की बात कही है। ये आंकड़े इस बात को रेखांकित करते हैं कि उन विकल्पों की कमी है जो बड़े-बूढ़ों को स्वायत्ता और अपने जीवन पर नियंत्रण दे सकते हैं।
नीति सुझाव
अनौपचारिक क्षेत्र के पूर्व श्रमिकों के लिए स्वास्थ्य देखभाल प्रावधानों पर विशेष ध्यान राष्ट्रीय योजना के लिए एक उपयोगी चीज़ हो सकती है। आर्थिक संकट के कारण अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले लोग बीमारियों और दर्द के साथ जीवन जीने पर मजबूर हो सकते हैं। हेल्पएज इंडिया की रिपोर्ट इस तथ्य को दर्शाती है कि 67 फीसद बुजुर्गों के पास कोई स्वास्थ्य बीमा नहीं है और केवल 52 फीसद बुज़ुर्ग ही स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े विकल्पों का उपयोग करने में सक्षम हो पाते हैं।
बुजुर्ग लोगों के लिए अधिक शारीरिक परिश्रमिक की मांग वाले काम करना उचित नहीं होता है। अनौपचारिक अर्थव्यवस्था का खराब विनियमित सुरक्षा वातावरण उनके लिए एक अतिरिक्त खतरा बन गया है। राष्ट्रीय योजना यह सुनिश्चित करने पर ध्यान केंद्रित कर सकती है कि ऐसे व्यक्तियों को वृद्धाश्रम और देखभाल के सुरक्षित घेरे में लाया जा सके।
संकट आने पर अनौपचारिक क्षेत्र में वृद्ध लोगों के काम करने का प्राथमिक कारण सेवानिवृति के बाद जीवनयापन के लिए आवश्यक धन और बचत का न होना है। यह अनौपचारिक क्षेत्र में वरिष्ठ नागरिकों के लिए एक न्यायसंगत और समावेशी सेवानिवृत्ति और पेंशन योजना प्रदान करने की आवश्यकता का संकेत देता है। राज्य द्वारा प्रदान की जाने वाली पेंशन योजनाओं में एक घटक शामिल किया जा सकता है जो 60 साल की उम्र में योजना से केवल एक फ्री एग्जिट देने की बजाय अलग-अलग समय पर यह सुविधा देता हो।
निजी क्षेत्र को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए क्योंकि यह अनौपचारिक क्षेत्र द्वारा किए गए कार्यों पर निर्भर होता है। उप-अनुबंधित इकाइयों के तहत काम करने वाले श्रमिकों को उन औपचारिक निगमों के तत्वावधान में रखा जाना चाहिए जिनके लिए वे अप्रत्यक्ष रूप से काम करते हैं। उन्हें पेंशन और स्वास्थ्य सुविधाओं के विकल्प प्रदान किए जा सकते हैं। निजी क्षेत्र में बड़ी संगठित कंपनियों के लिए काम करने वाली उप-अनुबंधित अनौपचारिक क्षेत्र की इकाइयों में निर्धारित समय तक काम करने वाले श्रमिकों को पेंशन योजना के विकल्प प्रदान किए जाने चाहिए। यह काम के प्रति उनकी निष्ठा को सम्मान देने का एक तरीक़ा हो सकता है। पेंशन योजनाएं, समय के साथ कंपनी के खर्च को काफी हद तक बढ़ा देती हैं। इसलिए वृद्धाश्रम और आश्रय स्थल जैसे अन्य विकल्पों पर विचार किया जा सकता है। जिन क्षेत्रों में कंपनियां सक्रिय हैं, वहां बुजुर्गों की आबादी की देखभाल करने के लिए सीएसआर फंडिंग भी एक महत्वपूर्ण और चुनौतीपूर्ण घटक हो सकता है। आखिरकार, बुजुर्ग कार्यबल के इस सवाल का हल सरकार और बाजार दोनों को निकालना होगा ताकि उनकी देखभाल का बोझ किसी एक पक्ष पर न पड़े।
असंगठित क्षेत्र में वृद्ध श्रमिकों पर ध्यान देना जरूरी है क्योंकि वे बहुत तेजी से कमजोर हो रहे हैं। भारत बूढ़ा हो रहा है, और इसे अपनी क्षमताएं इतनी बढ़ानी होंगी कि यह गरिमापूर्ण तरीक़े से इस स्थिति से निपट सके।
(idronline.com)
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बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आजकल समलैंगिक विवाह पर सर्वोच्च न्यायालय में जमकर बहस चल रही है। दर्जन भर से भी ज्यादा लोगों ने याचिका लगाकर मांग की है कि आदमी और औरत का विवाह तो होता ही रहा है, अब आदमी और आदमी, तथा औरत और औरत के बीच विवाह की अनुमति होनी चाहिए। इस नई पहल पर कोई कानूनी रोक नहीं होनी चाहिए। अपनी मांग के समर्थन में ये लोग कई तर्क देते हैं। जैसे उनका कहना है कि दो व्यक्तियों के विवाह की सबसे बड़ी आत्मा प्रेम है।
यह जरूरी नहीं कि प्रेम आदमी और औरत के बीच ही हो। वह दो आदमियों और दो औरतों के बीच भी हो सकता है। वे दोनों उस प्रेम के बंधन में बंधकर जीवन भर साथ क्यों नहीं रह सकते हैं? इसके अलावा यदि विवाह इसलिए किए जाते हैं कि युवा होने पर स्त्री-पुरूष यौन आनंद भोग सकें तो उनका कहना है कि यौन-सुख तो पुरूष, पुरूष के साथ और स्त्री-स्त्री के साथ भी भोग सकती है। और यौन-सुख भोगने के आजकल ऐसे यांत्रिक तरीके निकल आए हैं कि व्यक्ति उसे अकेले रहकर भी भोग सकता है।
समलैंगिकों का एक तर्क यह भी है कि जिन लोगों को संतानों की जरूरत नहीं है, वे संतानोत्पत्ति के चक्कर में क्यों पड़ें? आजकल पश्चिमी समाज की जीवन-पद्धति इतनी व्यक्तिवादी हो गई है और परिवार नामक संस्था इतनी विखंडित हो गई है कि लोग अपनी ही संतान और संतान अपने ही माता-पिता की कोई परवाह नहीं करती। ऐसी स्थिति में उनका तर्क है कि विषमलिंगी (आदमी-औरत) विवाह करने की जरूरत ही क्या है? समलैंगिकों के ये सब तर्क पश्चिमी जगत की भौतिकवादी और व्यक्तिवादी जीवन-पद्धति की उपज हैं।
इसीलिए आप देखें कि दुनिया के जिन देशों में समलैंगिक विवाहों को कानूनी मान्यता मिले हैं, उनमें सबसे पहले और सबसे ज्यादा पश्चिम के उपभोक्तावादी संपन्न देश ही हैं। दुनिया के 32 देशों में ऐसे विवाह कानूनी माने जाते हैं। उनमें प्रमुख हैं- अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, फ्रांस, आस्ट्रेलिया, ब्राजील, डेनमार्क, द. अफ्रीका, ताइवान आदि। इन देशों की सरकारें इस सवाल पर असमंजस में थीं। इसीलिए 22 देशों में जनमत संग्रह के द्वारा इस नई प्रथा को कानूनी मान्यता मिली। मैंने लिखा था कि अंग्रेज के ज़माने में बने समलैंगिकता कानून में सुधार होना चाहिए।
वह तो सर्वोच्च न्यायालय ने कर दिया और समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर निकाल दिया याने अब दो लोग स्वेच्छा से शारीरिक संबंध बनाएं तो वह जुर्म नहीं माना जाएगा। लेकिन समलैंगिक विवाह को कानूनन सही ठहराना बहुत ही गलत होगा। यह सृष्टि नियम के विरूद्ध होगा। मानव-स्वभाव के विपरीत इस कानून से परिवार नामक संस्था ही नष्ट हो जाएगी। मुक्त-यौन ही सामाजिक प्रथा बन जाएगा। वेश्यावृत्ति सबल हो जाएगी। स्वैराचारी समाज में अराजकता फैल जाएगी और जनसंख्या और संपत्ति-विवाद के नए सिरदर्द खड़े हो जाएंगे। यह व्यक्ति और समाज, दोनों की बर्बादी का मार्ग है। (नया इंडिया की अनुमति से)
ध्रुव गुप्त
बेहया, जिसे बेशरम और थेथर भी कहते हैं, के फूलों पर नजऱ तो सबकी ही पड़ती है, उन्हें ठहरकर देखता कोई नहीं। तालाबों, पोखरों, नदियों के किनारों और कीचड़ भरे गड्ढों में बेतरतीब-सी झाडिय़ों में इफऱात से मिलने वाला यह गंधरहित लेकिन खूबसूरत फूल दुनिया के कुछ सबसे अभागे फूलों में एक है। कोई इन्हें अपने घर के लॉन में पनपने नहीं देता। न यह देवताओं पर चढ़ता है, न स्त्रियों का शृंगार बनता है। दुनिया के किसी प्रेमी ने अपनी प्रेमिका को उपहार में भी नहीं दिया होगा यह फूल। इनकी झाडिय़ां तो जलावन में, बाड़ बनाने अथवा औषधि के तौर पर काम आती हैं। हमारे स्कूली दिनों में यह मास्टर साहब की खतरनाक छड़ी भी होती थी। लेकिन बैंगनी और गुलाबी रंगों का मिला-जुला तिलिस्म जगाते इसके फूल सदा से उपेक्षित ही पैदा होते और उपेक्षित ही मरते रहे हैं। बिना देखभाल के कठिन परिस्थितियों में भी जिन्दा बचे रहने वाले इस फूल को कभी ध्यान से देखिएगा।
अपारंपरिक सौंदर्य से लदा यह गर्वोन्नत फूल आपको हमेशा हंसता हुआ मिलेगा। चौतरफा तिरस्कार के बावजूद इसी आत्ममुग्धता की वजह से शायद इसे बेहया ,बेशरम, थेथर जैसे नाम दिए गए। जैसे भी है, ये फूल मुझे बेहद पसंद हैं।बगैर किसी प्यार, प्रत्याशा, देखभाल के गर्व से कैसे जिया और मरा जा सकता है, यह इन बेहया के फूलों से बेहतर कौन बता सकता है ?
अगली बार कभी इनकी झाडिय़ों से गुजऱना हुआ तो तनिक ठहरकर इन्हें छू और इनसे बतिया ज़रूर लीजिएगा! क्या पता आपके थोड़े स्नेह से इन्हें अपने जीने की एक वजह भी मिल जाय!
(मेरी एक कविता का गद्यानुवाद)
नासिरुद्दीन
बिना रजामंदी के किसी स्त्री के शरीर को छूना, अपराध है। फिर छटपटाती स्त्री के कपड़े में हाथ डाल देना। बिना सहमति के बाँहों में जकडऩा। उसके अंगों को मजे-मजे ले-लेकर मसलना। उसे जाँघों तले दबाना। उसकी चोटियों को ही उसे काबू में करने का औजार बना देना। ज़बरदस्ती मुँह से मुँह सटाना। गालों को नोचना। गाल और गर्दन पर हाथ फेरना। सहलानाज् यह सब किस श्रेणी में आयेगा?अपराध होगा या नहीं?
होली के मौक़े पर दिल्ली में जापान की युवती के साथ बदसलूकी का एक मामला सामने आया। इससे जुड़ा एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है। अब वो लडक़ी भारत से वापस चली गई हैं लेकिन दिल्ली पुलिस की ओर से इस मामले में कार्रवाई की बात सामने आई है।
होली के बाद से सोशल मीडिया पर कुछ ऐसे वीडियो दिख रहे हैं। उनमें ऐसी ही तस्वीरें दिख रही हैं। कहने को यह सब होली के नाम पर हो रहा है। मगर यह होली किसी के लिए यंत्रणा बन जाए और हम कहें कि बुरा न मानोज् या इसमें बुरा मानने की क्या बात है? यह क्या बात हुई?
ऐसा नहीं है कि होली में यह सब पहली बार हो रहा है। या पहली बार किसी स्त्री या लडक़ी के साथ ऐसा हो रहा है। या सिर्फ होली में ही ऐसा होता है। बाकी दिन तो स्त्रियाँ बहुत बेखौफ घूमती हैं! मर्द उन पर नजर भी नहीं डालते! न ही उनके कपड़े के आर-पार देखने की कोशिश करते हैं!
लेकिन बात होली पर ही क्यों हो रही है? खूबसूरत रंगीन होली हमारे समाज में हर तरह की छूट लेने वाले त्योहार का नाम है। लेकिन इस छूट का नजरिया पूरी तरह मर्दवादी है। दबंग मर्दाना।
स्त्री देह का बलात अतिक्रमण
मर्द यह छूट लेता है कि वह कैसे हुड़दंग करेगा। खुलेआम गालियाँ देगा और उन गालियों के गीत गाएगा। वह स्त्रियों के अंगों और कपड़े को निशाना बनाते गीत गाएगा। वह भद्दे द्विअर्थी गीत गाएगा। इन गीतों का मकसद कहीं से भी स्त्री के सम्मान में बढ़ोतरी करना नहीं है।
मगर स्त्री-पुरुष के रिश्ते पर चौतरफा चौकीदारी करने वाला समाज इसकी इजाजत कैसे देता है? वह पहले ऐसी हरकतों को छेड़छाड़, हँसी-ठिठोली-मजाक जैसा खूबसूरत नाम देता है। इन्हें सामान्य या मामूली बनाता है। इसके बाद यही समाज में कुछ रिश्तों में स्त्री-पुरुषों के बीच हँसी-ठिठोली-मजाक की इजाजत देता है। यानी देवर-भाभी, जीजा-साली/साला, मामी-भाँजा आपस में हँसी-मजाक कर सकते हैं।
चौकीदारी करने वाला समाज इनके बीच की हँसी-ठिठोली को बुरा नहीं मानता लेकिन होली में यह हँसी-ठिठोली महज शब्दों का मजाक नहीं रह जाता। यह देह पर आक्रमण करता है। इस आक्रमण में ऊँगली पर गिनने वाली भाभियाँ होंगी जो देवरों पर हमलावर हो पाती हैं।
यहाँ पुरुष ही हमलावर रहता है। वह मजाक के रिश्ते का खुलेआम मजाक बनाता है। यह रिश्तों की छेडख़ानी की परिभाषा से परे स्त्री देह का बलात अतिक्रमण है।
अब उस मर्का का हौसला देखिए। एक बहनोई अपनी साली के साथ जबरदस्ती करता है। उसका वीडियो बनाने के लिए कहता है। छटपटाती और चिल्लाती लडक़ी का वीडियो बनता रहता है, जीजा वह सब करता है, जो वह करना चाहता है। परिवारीजन इसे रिश्ते की मर्यादा मानकर तमाशबीन बने रहते हैं।
इस होली का मजा सिर्फ वह मर्द लेता है। लडक़ी नहीं। इसी तरह भाभियों पर रंग उँड़ेलते, उनके कपड़ों में जबरन रंग डालते, उन्हें पटकते और पटककर सीने पर चढ़ते वीडियो भी देखे जा सकते हैं। लड़कियों के देह को निशाना बनाकर पिचकारी और बैलून मारने के तजुर्बे सुने जा सकते हैं।
(एक बात ध्यान रखें ऐसा नहीं है कि ऐसे तजुर्बे स्त्रियों को साल में होली के एक दिन ही होता है।)
विडंबना ये कि होली के दिन ही था महिला दिवस
देश के बड़े हिस्से में होली उस दिन मनाई गयी, जिस दिन महिला दिवस होता है। महिला दिवस यानी स्त्री के अपने हक के लिए संघर्ष और जीत के जश्न का दिन है।
हिंसा से परे बेहतर और सुरक्षित घर-परिवार-समाज-दुनिया बनाने के लिए एकजुट होने वाली स्त्रियों का दिन है। इस बार उसी दिन होली पड़ी। यानी दो-दो जश्न। लेकिन कुछ स्त्रियों के लिए तो यह त्रासदी का दिन बन गया।
जब हम त्योहार पर अपने घर-परिवार की स्त्रियों की देह से बेखौफ और बेझिझक खेल लेते हैं तो सामने कोई और गैर-रिश्ते वाली स्त्री हो तो हम कैसे चूक सकते हैं। त्योहार के नाम पर उसके देह के साथ भी वही करते हैं। फिर चाहे वे विदेशी महिला पर्यटक ही क्यों न हों। उसे ही हम कहते हैं-बुरा न मानो।
मर्दवादी मर्द
जिस किसी महिला या लडक़ी के साथ ऐसा हुआ, यकीन जानिए वह त्रासद अनुभव से गुजरी हैं। ट्विटर पर हम कुछ के बयान पढ़ सकते हैं। उनके लिए होली ताउम्र एक बुरी याद बन कर रह जाए तो ताज्जुब नहीं।
मगर क्या हमने उन वीडियो के मर्दों को देखा है? मजे लेते मर्द। हँसते मर्द। वीडियो बनाते मर्द...और वीडियो देखकर मजे लेते मर्द। फॉरवर्ड फॉरवर्ड कर मजे और मस्ती का विस्तार करते मर्दवादी मर्द।
इसे समझने के कई तरीके हो सकते हैं। एक है, दबी हुई मर्दाना हिंसक यौन इच्छाओं का सामने आना। जहाँ एक ओर, कुछ मर्द सीधे-सीधे अपनी यौन कुंठाओं को शांत कर रहे हैं। कुछ स्क्रीन पर आँखों देख कल्पनाओं में उस हिंसक यौन हरकत की लज्जत ले रहे हैं।
दोहराना जरूरी है, सवाल होली के त्योहार का नहीं है। यह तो रंगों में डूबने-उतराने का त्योहार है। सवाल है, त्योहार पर मर्दाना कब्जे का। त्योहार के नाम पर हिंसक मर्दानगी का खुलेआम प्रदर्शन करने का। मर्द कोई त्योहार कैसे मनायेगा, होली के नाम पर यौन हिंसा ज् इसका उदाहरण है।
मर्द की कल्पना में ही मजे और मस्ती का मतलब स्त्री देह पर कब्जा है। बिना उसकी सहमति के उसकी देह से खेलना है। ख़ुद मज़ा लेना है। भले ही मजा सामने वाले की देह को कितनी भी तकलीफ पहुँचाए, मानसिक पीड़ा दे या भीतर-बाहर से तोड़ दे। होली, उसे महज एक बहाना देता है। हम ऐसा मर्दाना व्यवहार कई और मौकों पर भी देख सकते हैं। हर रोज देख सकते हैं।
सही ठहराने की कोशिश
दूसरी ओर, लडक़ी या स्त्री के साथ इस हिंसा पर बात करने वालों को त्योहार विरोधी या हिन्दू विरोधी बताने की कोशिश हो रही है। किस तरह दबंग मर्दाना विचार स्त्री के साथ हिंसा को, धर्म की आड़ लेकर सही ठहराने की कोशिश करता है, यह उसका जीता-जागता उदाहरण है।
दो दिन पहले ही एक वैवाहिक पोर्टल ‘भारत मैट्रीमोनी’ ने विज्ञापन जारी किया था। महिला दिवस और होली दोनों के लिए एक साथ संदेश देने की कोशिश थी। चूँकि होली, महिला दिवस के दिन पड़ी तो उन्होंने होली को भी महिलाओं के नजऱ से देखने की कोशिश की।
इस कोशिश में वह विज्ञापन कहता है कि रंगों के पीछे हिंसा को छिपने न दें। स्त्रियों के लिए हर जगह सुरक्षित हो इसकी कोशिश करें। इस विज्ञापन के खिलाफ जबरदस्त मुहिम चली। इसे एक धर्म के खिलाफ बताया गया।
एक तरफ यह सब हो रहा था तो दूसरी ओर महिलाओं के साथ होली के वीडियो आ रहे थे। अलग-अलग जगहों से घरों के अंदर हो रही लड़कियों और महिलाओं के साथ जबरिया होली के वीडियो आ रहे थे। अगर विदेशी महिलाओं के साथ यौन हिंसा के वीडियो सामने न आते तो शायद इसकी सार्वजनिक चर्चा भी नहीं होती। हम इसे होली का अंग मानकर अगले साल यही सब करने के लिए आगे बढ़ जाते।
‘दूसरे की स्त्री’
एक और चीज सोशल मीडिया पर पिछले कुछ सालों से देखने को मिल रही है। इस चर्चा में उसे भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। वह भी दबी मर्दाना यौन ख्वाहिशों का सार्वजनिक प्रदर्शन है।
सोशल मीडिया पर अनेक ऐसे पोस्ट दिख जाएंगे जिसमें एक लडक़ी है। वह नकाब पहने है। हिजाब में है। एक लडक़ा है। वह उसे पकड़ता है। उसके गालों पर रच-रचकर रंग लगाता है। ज़ाहिर है, नकाब या हिजाब से क्या दिखाने की कोशिश हो रही है, बताने की ज़रूरत नहीं है।
अगर ऐसी तस्वीर या वीडियो का मकसद बंधुत्व, प्रेम और सद्भाव को बढ़ाना है तो दूसरे धर्म के पुरुष कहाँ गए? इसका मकसद तो वह विजय है, जो वाया स्त्री किसी दूसरे धर्म पर हासिल करने का ख्वाब है। ‘दूसरे की स्त्री’ पर रंग यानी हमारी जीत। यही तो ‘हार-जीत’ का मर्दाना ख्याल है।
इस कल्पना में दूसरे धर्म की लडक़ी के साथ वह सब करना शामिल है, जो मर्द करना चाहता है। और होली के नाम पर मर्द क्या-क्या करने की ख्वाहिश रखता है, अगर हमें यह जानना है तो होली के नाम पर बने गाने सुन लें। उसकी कल्पना की उड़ान उन गानों के बोल बताते हैं। बलात्कार की एक श्रेणी ही बन सकती है- ख्यालों में बलात्कार!
बुरा मानना जरूरी है...
पिछले कुछ सालों में होली के नाम स्त्रियों के साथ ऐसी हुड़दंग के खिलाफ कई मुहिम भी शुरू हुई हैं। पुरुषों के साथ जेंडर संवेदनशीलता पर काम करने वाले कई संगठन और लोग अब यह कहने लगे हैं कि बुरा न मानो होली है।
यह एक सीमा तक ठीक है।
लेकिन बुरा मानो अगर होली के नाम अश्लीलता हो रही हो। गाली-गलौज हो रही हो। भद्दे मजाक हो रहे हों। शरीर के साथ छेड़छाड़ हो रही हो। भद्दी हरकत हो रही हो। जबरदस्ती हो रही हो। यानी कोई चीज बुरी हो रही है या बुरी लग रही है तो होली पर भी बुरा मानना जरूरी है।
कुछ साल पहले दिल्ली विश्वविद्यालय की लड़कियों के एक समूह ने भी होली के नाम पर स्त्री के शरीर पर हमला करने का विरोध अभियान चलाया था। मगर यह अभियान बड़ी शक्ल अख्तियार नहीं कर पाते हैं। लेकिन सबसे बड़ा सवाल है ‘आखिर होली में ही यह बात क्यों कही जाती है कि बुरा न मानो होली है।’
यानी हम ऐसी कोई चीज कर रहे हैं, जो सामने वाले को बुरी लग सकती है। तो फिर वह करना ही क्यों?
सबसे जरूरी बात है, जिसे हम सिर्फ होली के दिन ही नहीं बल्कि हर रोज याद रखें, वह है- किसी की सहमति या रजामंदी के बगैर किसी के साथ कुछ भी नहीं यानी कुछ भी नहीं करना। (बीबीसी)
-जेके कर
दर्द निवारक तथा बुखार की दवा निमेसुलाइड बंग्लादेश से लेकर श्रीलंका तक में प्रतिबंधित है परन्तु भारत में धड़ल्ले से बिकती हैं. इसके अलावा विकसित देश अमरीका, ब्रिटेन, कनाडा, आस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैंड में प्रतिबंधित है लेकिन भारत के हर गली मुहल्ले की दवा दुकान से आप इसे खरीद सकते हैं. जाहिर है कि दवा कंपनियां मुनाफे के लिये इसे बेच रही है वह भी नियामक संस्था को गलत तरह से सूचनायें देकर. इस दवा से एक्यूट हेपेटाइटिस होता है तथा लीवर पर इसका खराब असर पड़ता है. उल्लेखनीय है कि बुखार तथा सामान्य दर्द के लिये इससे बेहतर दवा पैरासिटामाल 500 मिलीग्राम उपलब्ध है जिसका मूल्य भी प्रति गोली ₹ 1 है.
भारत में इसे बच्चों के लिये प्रतिबंधित किया गया था लेकिन बाद में यह फिर से बिकने लगा है. गौरतलब है कि 12 फरवरी 2011 को केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने 12 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिये इसे प्रतिबंधित कर दिया था परन्तु माननीय उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद से फिर से यह बिकने लगा है.
हां, इससे दवा कंपनियों को भरपूर मुनाफा होता है. अब इसकी भी जरा तहकीकात कर लें. निमेसुलाइड का एपीआई के 1 किलोग्राम का कुछ दिनों पहले तक का बाज़ार भाव था ₹ 1,300. इस 1 किलो से निमेसुलाइड की 100 मिलीग्राम की 10,000 गोलिया बन सकती है. इस तरह से हर निमेसुलाइड की गोली में मात्र 13 पैसे का ही एपीआई लगता है. जबकि खुले बाज़ार में गोली बिकती है तकरीबन ₹ 9 में. भारत में यह दवा हर साल कई सौ करोड़ रुपये की बिकती है.
आजकल तो ई-फार्मेसी के माध्यम से भी इस दवा को बेचा जा रहा है. जहां पर इसका मूल्य ₹92.15 प्रति 10 गोली की कीमत है. इसी के साथ जो सूचना दी गई है उसमें कहा गया है कि इससे उल्टी तथा दस्त हो सकता है. साथ में इसके प्रतिकूल प्रभाव के बारे में कहा गया है कि "Most side effects do not require any medical attention and disappear as your body adjusts to the medicine. Consult your doctor if they persist or if you’re worried about them." जाहिर है कि लीवर को होने वाले नुकसान के बारें में नहीं बताया जा रहा है. एक कहावत है कि 'जहां से बाज़ार की उत्पत्ति हुई वहीं पर मानवता ने दम तोड़ दिया' कोई गलत कहावत नहीं है.
निमेसुलाइड का ईज़ाद अमरीकी दवा कंपनी थ्रीएम ने किया था परन्तु इसके दुष्प्रभाव को देखते हुये इसे वहां बेचने की अनुमति नहीं दी गई. जब अमरीका में इस दवा को अनुमति नहीं मिली तो इसे स्विटजरलैंड की दवा कंपनी Helsinn को बेच दिया गया. यह जानना दिलचस्प है कि इस दवा कंपनी को भी स्विटजरलैंड में इस दवा को बेचने/उपयोग करने की अनुमति नहीं मिली. फिर इसे Boehringer नामक कंपनी को बेच दिया गया, जिसने 1985 में इटली में इससे संबंधित प्रयोग किये. किसी तरह इस दवा को स्विटजरलैंड में अनुमति इस शर्त के साथ मिली कि यह दवा किसी भी परिस्थिति में बच्चों के लिये उपयोग में नहीं लाई जायेगी.
भारत में किसी भी नई दवा को बेचने के लिये ड्रग कंट्रोलर ऑफ इंडिया से अनुमति लेनी पड़ती है. अनुमति के लिये भारत में पशुओं और मनुष्यों पर किये गये प्रयोग और उन पर होने वाले प्रभाव की रिपोर्ट देनी पड़ती है. लेकिन निमेसुलाइड के मामले में न्यूजीलैंड की एक कंपनी Adis International Ltd. द्वारा किये गये परीक्षण रिपोर्ट को जमा करा दिया गया और उसे स्वीकार भी कर लिया गया. चौंकाने वाली बात ये है कि निमेसुलाइड न्यूजीलैंड में ही प्रतिबंधित है.
लेकिन लाख टके का सवाल यही है कि आखिर जब देश में पहले से ही बुखार के लिये पैरासिटामाल जैसी दवाइयों के विकल्प उपलब्ध थे तो फिर किन कारणों से इस प्रतिबंधित दवा को भारत में प्रवेश की अनुमति मिली ? इसका जवाब बहुत सीधा है कि निमेसुलाइड, दवा कंपनियों के लिये मुनाफेदार उत्पाद है और भारतीय कानून के चोर दरवाजे ऐसे मुनाफे के लिये ही तो बने हैं !
कई बार निमेसुलाइड के पक्षधर यह सवाल उठाते हैं कि अगर निमेसुलाइड इतनी खतरनाक है तो इसके दुष्प्रभाव तो अब तक भारत में नजर आने चाहिये थे. लेकिन बहुत भोलेपन से इस तरह के सवाल उठाने वाले यह बात बेहतर तरीके से जानते हैं कि भारत में अधिकांश मामलों में मरीजों के मर्ज और इलाज का कोई ब्यौरा नहीं रखा जाता. कोई मरीज बुखार आने पर एक चिकित्सक के पास जाता है तो खांसी की शिकायत होने पर किसी दूसरे चिकित्सक के पास. भारतीय मरीज आमतौर पर अपने इलाज की पर्चियों को भी संभाल कर नहीं रखता. ऐसे में अगर किसी मरीज का यकृत काम करना बंद कर दे तो उसे निमेसुलाइड से जोड़ कर, उसके अध्ययन का कोई तरीका हमारे पास नहीं है. ऐसे में भला निमेसुलाइड की गड़बड़ियों की जांच ही कहां संभव है ?
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान के विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो ने अनजाने ही कश्मीर के सवाल पर पाकिस्तान की नाकामी को उजागर कर दिया है। वे न्यूयार्क में एक प्रेस-काफ्रेस को संबोधित कर रहे थे। कश्मीर का स्थायी राग अलापते-अलापते उनके मुंह से निकल गया कि कश्मीर के सवाल को अंजाम देना बहुत ‘‘ऊँची चढ़ाई’’ है। इस बात को बिलावल के नाना जुल्फिकार अली भुट्टो अब से 51 साल पहले ही समझ गए थे, जब 1972 के शिमला समझौते में उन्होंने दो-टूक शब्दों में स्वीकार किया था कि कश्मीर भारत और पाकिस्तान के बीच द्विपक्षीय विवाद है।
द्विपक्षीय याने इस विवाद का ताल्लुक सिर्फ भारत और पाकिस्तान से है। इसमें किसी तीसरे राष्ट्र या संयुक्तराष्ट्र जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठनों को टांग अड़ाने की जरूरत नहीं है। यह वही जुल्फिकारअली भुट्टो हैं, जो कहा करते थे कि यदि हमें हजार साल भी लड़ना पड़े तो हम लड़ेंगे और कश्मीर को भारत से लेकर रहेंगे। पाकिस्तान के शोध-संस्थानों और विश्वविद्यालयों में मेरे जब भी भाषण हुए मैंने श्रोताओं से पूछा क्या पाकिस्तान हजार साल में भी कश्मीर को भारत से छुड़ा सकता है? तो सबकी बोलती बंद हो जाती थी।
मुझे कई पाकिस्तानी कहते रहे कि कश्मीर हमारे लीडरों के लिए एक जबर्दस्त कश्ती है। जो लीडर इसे जितने जोर से दौड़ाता है, वह अपना चुनाव उतने ही जोर से जीतता है लेकिन पाकिस्तान की आज जो हालत हो गई है, उसमें कश्मीर-जैसा कोई मुद्दा रह ही नहीं गया है। पाकिस्तानी कश्मीरी ही नहीं, बलूच और पठान भी आजादी और अलगाव की मांग कर रहे हैं।
पाकिस्तान को कश्मीर मुद्दे पर न तो संयुक्तराष्ट्र संघ में कोई समर्थन मिल रहा है, और न ही अन्तरराष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग में! इधर तुर्की और मलेशिया ने थोड़ी चिल्लपों जरूर मचाई थी लेकिन कश्मीर के सवाल को अब सउदी अरब और संयुक्त अरब अमारात ने भी खूंटी पर टांग रखा है। बिलावल को अफसोस है कि फलस्तीन के मामले पर संयुक्तराष्ट्र संघ और महाशक्तियां कुछ न कुछ पहल करती रहती हैं लेकिन कश्मीर के मुद्दे पर ये सब चुप्पी खींचे रखते हैं।
बिलावल ने भारत के बारे में बोलते हुए गलती से उसे अपना ‘मित्र’ और अपना पड़ौसी भी कह दिया। अफगानिस्तान के बारे में उसने ठीक ही कहा कि यदि अफगानिस्तान छींकता है तो पाकिस्तान को जुकाम हो जाता है। कश्मीर पर कब्जा करने के बदले पाकिस्तान को पहले तालिबानी जुकाम और आर्थिक बुखार की गोलियां खानी चाहिए। (नया इंडिया की अनुमति से)
रिचर्ड महापात्रा
सतत विकास लक्ष्य-1 के तहत 2030 तक दुनियाभर से गरीबी का उन्मूलन करना है लेकिन इससे आठ साल पहले दुनिया गरीबी के विरुद्ध छेड़े गए युद्ध में हताशा भरी स्थिति में पहुंच गई है। इसके अलावा यह भी निश्चित नहीं है कि दुनिया कब तक कुल आबादी के मुकाबले चरम गरीबी में रह रहे लोगों की संख्या को तीन प्रतिशत की निर्धारित सीमा तक रख पाएगी।
Why I quit the corporate world to start teaching mud house construction
इसके विपरीत विश्व बैंक की हालिया रिपोर्ट ‘पॉवर्टी एंड शेयर्ड प्रॉस्पेरिटी 2022 : करेक्टिंग कोर्सेस’ कहती है कि मौजूदा परिस्थितियों में सबसे गरीब व विकासशील देशों के उप सहारा अफ्रीका और ग्रामीण इलाकों से गरीबी का उन्मूलन लगभग असंभव है।
विश्व बैंक की इस रिपोर्ट में कोविड-19 महामारी और वर्तमान में जारी रूस-यूक्रेन युद्ध का वैश्विक गरीबी पर पडऩे वाले प्रभाव का विस्तार से आकलन किया गया है।
महामारी से पहले लगातार पांच वर्षों तक गरीबी उन्मूलन की दर लगातार घट रही थी। महामारी ने जहां जीवनभर का आर्थिक झटका दिया, वहीं युद्ध ने ऊर्जा और खाद्य की कीमतों को उछालकर हालात बदतर कर दिए। इससे गरीब और गरीब हो गए। उन्हें उम्मीद थी कि महामारी के बाद हालात सुधरेंगे, लेकिन तभी यूक्रेन-रूस युद्ध छिड़ गया।
खाद्य और ऊर्जा के मूल्य में उछाल के साथ चरम मौसम की घटनाओं ने कृषि को बुरी तरह प्रभावित किया। साथ ही आपदाओं ने संपत्ति और आय का बंटाधार कर दिया। इन तमाम घटनाक्रमों ने हालात में सुधार को केवल असंभव ही नहीं बनाया है बल्कि लोगों को लंबे समय के लिए गरीबी की दलदल में पहुंचा दिया है।
नतीजतन, दूसरे विश्वयुद्ध के बाद गरीबी से खिलाफ छिड़ी जंग को सबसे बड़ा झटका लगा है। रिपोर्ट के अनुसार, ‘इन झटकों ने गरीबी उन्मूलन की ट्रजेक्टरी को बदलकर उसे बड़ा और लंबा बना दिया। 2030 तक चरम गरीबी खत्म करने का लक्ष्य पथ से भटक गया है।’
महामारी ने 2020 में सात करोड़ अतिरिक्त लोगों को गरीबी में पहुंचा दिया है। इसका नतीजा यह निकला कि करीब 71.9 करोड़ अंतरराष्ट्रीय गरीबी रेखा से नीचे चले गए। ये लोग 2.15 डॉलर प्रतिदिन पर गुजर बसर कर रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो गरीबी की दर 2019 की 8.4 प्रतिशत से बढक़र 9.3 प्रतिशत हो गई है।
भले ही दुनिया इस वक्त महामारी से उबर रही है लेकिन युद्ध के चलते 68.5 करोड़ लोग 2022 के अंत तक चरम गरीबी के स्तर पर पहुंच जाएंगे। रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है, ‘दुनिया की 7 प्रतिशत आबादी यानी 57.4 करोड़ लोग 2030 तक चरम गरीबी से जूझ रहे होंगे।’ यह सतत विकास लक्ष्य-1 में निर्धारित 3 प्रतिशत की दर के मुकाबले दोगुना से भी अधिक है।
महामारी के कारण असमानता भी खाई भी चौड़ी हो गई है। यह पिछले कई दशकों के चलन के विपरीत है। महामारी से रिकवरी की तरह ही गरीबी में सुधार भी असमान है।
विकासशील व गरीब देशों ने गरीबों की संख्या में सबसे अधिक वृद्धि की है और इन्हीं देशों में गरीबी की स्तर बदतर हुआ है। रिपोर्ट के मुताबिक, ‘सबसे गरीब लोगों ने महामारी की सबसे बड़ी कीमत चुकाई है। उनकी आय में 4 प्रतिशत के औसत के मुकाबले 40 प्रतिशत का नुकसान हुआ है। इसी तरह अमीरों की आय के वितरण में 20 प्रतिशत नुकसान के मुकाबले दोगुना नुकसान गरीबों को हुआ है।’
इस स्थिति को बैंक ने अपने अनुमान में चिंताजनक बताया है। उसके अनुसार, ‘नीति निर्माताओं को अब कठोर पर्यावरण का सामना करना पड़ रहा है। चरम गरीबी उप सहारा अफ्रीका, संघर्षरत क्षेत्रों और ऐसे ग्रामीण क्षेत्रों में केंद्रित है, जहां से इसे खत्म करना बेहद मुश्किल है।’
उदाहरण के लिए उप सहारा अफ्रीका में दुनिया की सबसे अधिक 35 प्रतिशत गरीबी की दर है और यहां दुनिया की 60 प्रतिशत चरम गरीब आबादी बसती है। सतत विकास लक्ष्य-1 को 2030 तक पूरा करने के लिए यहां के प्रत्येक देश की विकास दर अगले आठ वर्षों तक 9 प्रतिशत होनी चाहिए। मौजूदा स्थितियों में यह असंभव प्रतीत होता है, खासकर यह देखते हुए महामारी से पहले यहां की विकास दर दो प्रतिशत से भी कम थी। (डाऊन टू अर्थ)
-ईश्वर सिंह दोस्त
“किसी भी प्रकार की संगठित राजनीति को मैं कभी यह पूरा अधिकार नहीं दे सकता कि वह रचना की जाँच करे या उस पर निर्णय दे। और निर्णय देगी तो उस निर्णय को मैं पक्षपात का निर्णय मानूँगा, भले ही वह संयोगवश सही निर्णय हो। इस बात की संभावनाएँ बहुत अधिक हैं कि जिन कविताओं में किसी राजनीतिक दल ने राजनीति का इस्तेमाल नहीं देखा है उन्हीं में आदमी के लिए न्याय के पक्ष की सबसे ज़्यादा राजनीति हो।”
--रघुवीर सहाय (‘कविता क्या बचाती है’ लेख में) ।।
पिछले दिनों फेसबुक में आना कम हुआ। इसी बीच फेसबुक पर विनयशील की विनोद कुमार शुक्ल पर एक पोस्ट की तरफ ध्यान गया। इसे और इस पर की गई कुछ गैर-जिम्मेदार व दंभी टिप्पणियों को पढ़कर गहरा दुःख हुआ।
इस पोस्ट की सबसे आत्म-दीप्त पंक्ति यह है कि “एक तो साहित्य मेरा विषय नहीं रहा है, दूसरे लेखक का मूल्यांकन मेरा कार्य नहीं, न मुझे इसकी समझ है.”
पूछने का मन करता है कि अगर ‘साहित्य आपका विषय नहीं रहा है’ तो आप में यह आत्मविश्वास कहाँ से आ गया कि एक लेखक के समृद्ध संसार में गए बगैर कहासुनी के आधार पर सोशल मीडिया के चौराहे पर उस पर फ़ैसला करने बैठ जाए?
अगर साहित्य या लेखक के मूल्यांकन की आपकी समझ नहीं है तो फिर सोशल मीडिया पर एक नासमझ बहस क्यों चलाना चाहते हैं?
अपनी स्वीकारोक्ति को आप ऐसी बातें बोलने के लाइसेंस के रूप में क्यों ले रहे हैं, जिसका आपके ही अनुसार आपको इख़्तियार नहीं होना चाहिए?
पहली ही पंक्ति में यह भंगिमा ली गई है कि इरादा मानो संवाद का हो- “साहित्य जगत, पाठक वर्ग, प्रबुद्धजन सहयोग करें”
काश कि इरादा संवाद का होता! तब इस पोस्ट की मान्यताओं पर सवाल उठाने वाली रितेश मिश्रा, सुभाष मिश्रा, गौरव गुलमोहर, पलाश किशन आदि की टिप्पणियों का जवाब भी मिलता। कुछ बहस होती। तब इस पोस्ट के बाद इस पोस्ट का समर्थन जताती पोस्टों को किसी अभियान की शक्ल में शेयर नहीं किया जाता। किसी अज्ञात अनुभवी व्यक्ति के जिक्र के पीछे छिपने की कोशिश नहीं की जाती। एक पूर्वाग्रह वाली पोस्ट करते हुए मासूमियत की भंगिमा नहीं बनाई जाती।
राजनीतिक काम से जुड़े लोगों के लिए याद रखना ज्यादा जरूरी है कि राजनीति और साहित्य का रिश्ता सरल सपाट नहीं बल्कि पेचीदा है। रघुवीर सहाय की कही बात याद आती है—
“किसी भी प्रकार की संगठित राजनीति को मैं कभी यह पूरा अधिकार नहीं दे सकता कि वह रचना की जाँच करे या उस पर निर्णय दे। और निर्णय देगी तो उस निर्णय को मैं पक्षपात का निर्णय मानूँगा, भले ही वह संयोगवश सही निर्णय हो। इस बात की संभावनाएँ बहुत अधिक हैं कि जिन कविताओं में किसी राजनीतिक दल ने राजनीति का इस्तेमाल नहीं देखा है उन्हीं में आदमी के लिए न्याय के पक्ष की सबसे ज़्यादा राजनीति हो।”
रघुवीर सहाय सत्ता और रचना के बीच के अंतर्भूत तनाव की बात करते हैं। वे एक ऐसी लोकतांत्रिक सत्ता की संभावना को मानते थे, जो रचना को स्वायत्तता देती हो, जो उससे भयभीत न होती हो, जो रचना को अपनी फ़ौरी राजनीतिक ज़रूरतों से हांकना न चाहती हो, जो कलाकार को प्रमाणपत्र न देती हो। कहना न होगा कि नेहरू की सत्ता एक ऐसी उदारवादी सत्ता थी। जो कलाकार के प्रति स्वामित्व की भावना नहीं रखती थी। और आज भी हम ऐसी सत्ता की उम्मीद करते हैं।
रचना पर निर्णय के कंगारू कोर्ट सांप्रदायिक राजनीति आज जगह-जगह लगाती है। कई बार यह जल्दबाज़ी परिवर्तनकारी भी करते रहे हैं, जिन्हें उनके ही साहित्यिक पक्षों से जुड़ी जिम्मेदार और समृद्ध आलोचना ने कई बार दुरुस्त किया है। क्या ऐसा ही रवैया सेकुलर उदारवादी कही जाने वाली राजनीति का भी होगा, वह अपने ‘कमिसार’ बनाना चाहेगी? सांप्रदायिक राजनीति कहती है कि या तो आप मेरे साथ हैं या मेरे विरूद्ध हैं? बुश से लेकर तमाम तानाशाह ध्रुवीकरण खड़ा कर सत्य और संवेदना की तमाम बारीकियों को खत्म करना चाहते हैं। उनसे प्रभावित लोग फिल्मों व साहित्य पर फिल्म व साहित्य के मापदंड के बगैर फ़ैसला देना चाहते हैं। आस्वाद और रचना के मूल्यांकन के प्रश्न और बहसें उनके लिए बेमानी हैं। ऐसी तराज़ू सेकुलर क्यों लेकर चलना चाहते हैं?
उन्हें साहित्यकार की स्वतंत्रता से क्यों घबराना चाहिए?
हो सकता है कि कोई साहित्यकार कभी किसी राजनीति का अनुगामी हो और नागरिक के बतौर राजनीतिक कार्रवाई में शामिल होता हो, मगर साहित्यकार के रूप में वह उस संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना की जमीन पर खड़ा होता है, जो दलगत या मुद्दों की राजनीति से कहीं ज्यादा व्यापक होती है। साहित्य अपने समय के राजनीतिक नज़रियों और आंदोलनों को भी मनुष्यता की कसौटी पर परख सकता है। तमाम सत्ता व शक्ति समीकरणों के बीच फंसे मनुष्य की स्थिति और उसकी गरिमा के संघर्ष की जिन बारीक संवेदनाओं की खबर साहित्य रखता है, उसे फ़ौरी राजनीतिक मुहावरों व नारों में हमेशा अपघटित नहीं किया जा सकता। और न इतिहास, समाजशास्त्र व दूसरे समाज विज्ञानों की निष्पत्तियों में। अगर ऐसा न होता तो साहित्यकार की प्रतिबद्धता का सवाल उठा कर गुस्ताव फ्लोबेर (Madame Bovary के लेखक) को ख़ारिज करने वाले ज्याँ पाल सार्त्र कोई पच्चीस साल बाद उन पर बाकायदा एक ग्रंथ लिखकर उन्हें अपने समय का सबसे बड़ा रचनाकार घोषित न करते और यह न कहते कि फ्लोबेर और बोदिलेयर आधुनिक संवेदनशीलता के रचयिता हैं।
रघुवीर सहाय ने एक और लेख में लिखा था- “मगर मैं किसी राजनीतिक दल को, सत्ताधारी दल को तो और भी नहीं, यह अधिकार नहीं देता कि वह मुझसे मेरे काम की कैफ़ियत माँगे। मैं जो करता हूँ, अपनी जिम्मेदारी पर करता हूँ और मेरी बेईमानी की सज़ा मेरे साहित्यकार की मृत्यु है। पर यह दंड मुझे न तो दल के साहित्यिक आलोचक दे सकते और न साहित्य अकादमी के सलाहकार। यह दंड ठीक उसी तरह मेरी अपनी उपलब्धि ही हो सकता है जैसे साहित्य रचना ठीक मेरा अपना निर्णय है।”
विनोद कुमार शुक्ल आज हिंदी के सबसे बड़े साहित्यकार हैं और राजनीति शब्द के व्यापक अर्थों में सबसे बड़े राजनीतिक कवि भी हैं। उन्हें मिला सम्मान हिंदी की आज की सर्वश्रेष्ठ रचनाशीलता को मिला सम्मान है। याद रखा जाना चाहिए कि एक बड़ा साहित्यकार राजनीति के चालू मुहावरों, कार्यनीतियों, रणनीतियों और वाग्मिताओं का अनुवादक नहीं होता। वह ऐसी बातें भी देखता है, जो दलों व नेताओं, कार्यकर्ताओं की भाषा में व्यक्त नहीं हो सकती। विनोद कुमार शुक्ल भी अपनी भाषा को सहमत और प्रमाणीकृत विचारों का उपनिवेश बनने से बचाते हैं। उनके लेखन में आम आदमी की बेबसी, पीड़ा (और मनुष्यता के बरक्स मौजूदा ‘लोकतांत्रिक’ राजनीति की सीमाएं भी) जिस तरह से आती है, वह हमारी राजनीतिक समझ को भी गहराई और विस्तार देती है। वे पाठक को नए अनुभव संसार में ले जाते हैं। जहाँ वह पहले से देखे और बरते गए और किन्हीं छवियों या मान्यताओं के रूप में रूढ़ हो गए अपने संसार को नई निगाह से देख सकता है।
कोई कहता है कि वे अपने समय को दर्ज नहीं करते तो निश्चित ही उसे न साहित्य की समझ है, न अपने समय की और न प्रतिरोध की।
कृपया एक्टिविज्म की लाठी से साहित्य और साहित्य की लाठी से एक्टिविज्म पर प्रहार करने के अपने तैश पर पुनर्विचार करें। सोशल मीडिया को यह इजाजत न दें कि वह हमारे विवेक और विनय को निस्तेज कर दे। ध्रुवीकरण की राजनीति का मुकाबला करने के लिए ध्रुवीकरण की उसी शैली में डूबना-उतराना आवश्यक नहीं। सरलीकरण और आक्रामक उथलेपन से बाहर भी यथार्थ और कार्रवाई के ज़रूरी दायरे हैं। वैसे भी कला, साहित्य और दर्शन का एक जरूरी काम फ़ैसला सुनाने की त्वरा को कुछ धीमा करते हुए मनुष्य के विवेक का परिष्कार करना है। हालांकि धैर्य और पुनर्विचार आज के दौर में हाशिए पर धकेले गए सद्गुण हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
विदेश नीति के मामले में चीन कैसे भारत से ज्यादा सफल हो रहा है, इसका ताजा उदाहरण हमारे सामने आया है। हम चीन को अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अपना प्रतिद्वंदी समझते हैं और अपनी जनता को हम यह समझाते रहते हैं कि देखो, हम चीन से कितने आगे हैं लेकिन कल ईरान और सउदी अरब के बीच जो समझौता हुआ है, उसका सारा श्रेय चीन लूटे चले जा रहा है और भारत बगलें झांक रहा है। पिछले सात साल से ईरान और सउदी अरब के बीच राजनयिक संबंध भंग हो चुके थे, क्योंकि सउदी अरब में एक शिया मौलवी की हत्या कर दी गई थी।
ईरान एक शिया राष्ट्र है। तेहरान स्थित सउदी राजदूतावास पर ईरानी शियाओं ने जबर्दस्त हमला बोल दिया था। सउदी सरकार ने कूटनीतिक रिश्ता तोड़ दिया। इस बीच सउदी अरब और ईरान पश्चिम एशियाई देशों के आंतरिक मामलों में एक-दूसरे के विरूद्ध हस्तक्षेप भी करते रहे। यमन, सीरिया, इराक और लेबनान जैसे देशों में एक-दूसरे के समर्थकों को सैन्य-सहायता भी देते रहे। सउदी अरब ने ईरान पर ये आरोप भी लगाए कि यमन के हाउथी बागियों से उसने सउदी अरब में सीमा-पार से प्रक्षेपास्त्र और ड्रोन आक्रमण भी करवाए तथा उसके तेल के कुओं को उड़ाने की भी कोशिशें कीं।
दोनों इस्लामी देशों के संबंध इतने कटु हो गए थे कि सउदी अरब के शासक मोहम्मद बिन सलमान ने यहां तक कह दिया कि आयतुल्लाह खामेनई ‘नया हिटलर’ है। सउदी अरब लंबे समय से अमेरिका के नजदीक रहा है। इजराइल के साथ उसके संबंधों को सहज बनाने में अमेरिका की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है। लेकिन अमेरिका-ईरान संबंधों में पिछले 40-42 साल से गहरा तनाव है। दोनों राष्ट्रों के बीच व्यापार, आवागमन, कूटनीतिक संबंध तथा अन्य क्षेत्रों में दुश्मनों के जैसा व्यवहार रहा है लेकिन इन दोनों मुस्लिम राष्ट्रों से भारत के संबंध सहज और उत्तम रहे हैं।
दोनों को हमने पटा रखा है, यह हमारी कूटनीतिक चतुराई है लेकिन क्या यह काफी है? दोनों राष्ट्र हमसे अच्छे संबंध बनाए रखते हैं, क्योंकि दोनों के मतलब सिद्ध हो रहे हैं लेकिन क्या भारत कोई बड़ी भूमिका निभा पा रहा है? नहीं! जैसे वह यूक्रेन के मामले में ठकुरसुहाती बोलता रहता है, वैसे ही ईरान और सउदी के मामले में भी वह रामाय स्वास्ति और रावणाय स्वस्ति करता रहता है।
इस मामले में चीन ने भारत को मात दे दी है। चीन के प्रसिद्ध राजनयिक वांग ई ने इन दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा अधिकारियों को बुलाकार पेइचिंग में बिठाया और उनके बीच समझौता करवा दिया। अब अगले दो माह में ईरान और सउदी कूटनीतिक संबंध स्थापित कर लेंगे और दोनों ने एक-दूसरे की संप्रभुता के सम्मान की घोषणा भी की है।
यह चीनी पहल उसे विश्व राजनीति में विशेष स्थान दिलवाने में मदद करेगी। यों तो भारत की विदेश नीति भारत के राष्ट्रहित की रक्षा काफी ठीक से कर रही है लेकिन उसके पास कुछ प्रतिभाशाली नेता और तेजस्वी अधिकारी हों तो आज की दिग्भ्रमित विश्व-राजनीति में वह काफी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-के विक्रम राव
अमेरिका में दूसरा ऐतिहासिक अवसर कल (रात्रि 8 बजे रविवार, 12 मार्च 2023) होगा जब विश्वभर के करोड़ों श्रोता (दर्शक भी) प्राचीन भारत की तेलुगु भाषा को सुनेंगे। विश्वविख्यात ऑस्कर फिल्म समारोह (फिल्मफेयर से कई गुना बड़ा) हॉलीवुड के डोल्बी थियेटर से प्रसारित होगा। इसमें फिल्म RRR का गीत “नाटू-नाटू” गूंजेगा। प्रस्तुतकर्ता होंगे एनटी रामाराव जूनियर जिनके पिता तेलुगू देशम पार्टी के संस्थापक तथा आंध्र के प्रथम गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री रहे। नाम था : नंदमूरी तारक रामाराव। इसमें कंठस्वर होगा गायक-द्वय राहुल सिप्लीगुंज तथा कालभैरव का। भारत में इस कार्यक्रम का जीवंत प्रस्तुतीकरण, सोमवार प्रातः 5:30 बजे देखा तथा सुना जा सकता है।
पहला मौका तेलुगुभाषी को अमेरिका में 20 जनवरी 2021 को मिला था जब बाइडेन राष्ट्रपति पद की शपथ ले रहे थे। उनके इस 38—मिनट के भाषण में बाइडेन की एक उक्ति थी : “प्रकाश, न कि अंधकार, की ओर जायें।” यह एक सूचक है। भारत में पुरानी कहावत है : ''तमसो मा ज्योतिर्गमय।'' हमारी प्राचीन संस्कृत वाली यह उक्ति वाशिंगटन में प्रयुक्त हुई ! पता चला कि आठ हजार किलोमीटर दूर तेलंगाना के करीमनगर में एक किसान कुटुम्ब के डा. चोल्लेटि विनय रेड्डी गत बारह वर्षों से बाइडेन का भाषण लिख रहे हैं। इस बार का तो विशेष तौर पर विनय ने ही तैयार किया था। कौन है यह विनय जिन्हें इतना महत्वपूर्ण लेखन कार्य सौंपा गया है ? निजामशाही ग्राम पोतिरेड्डिपेटा के डा. चोल्लेटि नारायण रेड्डि दशकों पहले मेडिसिन पढ़ने ओहायो आये थे। वहां उनका पुत्र तेलुगुभाषी विनय जन्मा जो अब डेमोक्रेटिक पार्टी का एक प्रमुख नेता बना।
इस समस्त प्रसंग में गौरवशाली विषय भारत के लिए यह है कि दुनिया में बोली जाने वाली सात हजार भाषाओं (भारत की 122 मिलाकर) में तेलुगु भाषा का महत्व निरूपित हो रहा है। ईसा के चार सदियों पूर्व गुंटूर जिले के बौद्ध नगर प्रतिपालापुर (अब भट्टीप्रोलू मंडल) में जन्मी तेलुगु भाषा को अंग्रेजी शासकों ने “इतालियन ऑफ दि ईस्ट” कहा था। इतालवी की भांति तेलुगु में भी शब्द के अंत (पुछल्ले) में “दु, मु, बु, लु” आदि जुड़े रहते हैं। सब कोमलकांत पदावलि। सातवाहनों का तब साम्राज्य था।
अतः हॉलीवुड में “नाटू-नाटू” गीत गा रहे इन तेलुगू जनों को अमेरिका में बसे सवा आठ लाख तेलुगूभाषी तथा आंध्र-तेलंगाना आदि के नौ करोड़ जन अपनी मातृभाषा में सुनेंगे। यह मशहूर लोकगीत “नाटू-नाटू” निर्माता एसएस राजामौली की फिल्म RRR की है। इस पर लोग थिरकते हैं। यू ट्यूब पर इसे बारह करोड़ यूजर अब तक मिले हैं। इंस्टाग्राम पर अपार रील अपलोड मिली हैं। ऑस्कर में भी ये ओरिजिनल सॉन्ग कैटेगरी में शॉर्टलिस्ट है। इसकी शूटिंग यूक्रेन में उस दौरान की गई थी जब वहां रूस से जंग शुरू हुई थी। दरअसल आरआरआर की टीम यूक्रेन में कुछ सीन शूट करने के दौरान फंस गई थी जिसके बाद “नाटू-नाटू” की शूटिंग यूक्रेन के प्रेजिडेंट व्लादिमीर जेलेंस्की के महल में हुई थी।
अपार सफलता प्राप्त इस मूल तेलुगू फिल्म का नाम RRR कैसे पड़ा ? तेलुगु भाषा के तीन शब्दों के प्रथम अक्षर को मिलाकर यह रचित हुआ है : “रौद्रम”, रोर (गरजो) और “रुधिरम” (खून)। शुरुआती दिनों में राजामौली ने सबके बीच फिल्म के टाइटल से जुड़ा अपना एक आइडिया रखा। उन्होंने फिल्म के दोनों स्टार राम चरण और एनटी रामा राव के अलावा निर्देशक (राजामौली) के नाम के पहले अक्षर, यानी 'R' से फिल्म का टाइटल रखने का सुझाव दिया, जिसके बाद फिल्म का नाम 'आरआरआर' (RRR) रखा गया।
फिल्म देशभक्ति की भावना से ओत-प्रोत है। क्रांतिकारी अल्लूरी सीताराम राजू और कोमाराम भीम पर बनाई गई है, जिन्होंने ब्रिटिश हुकुमत और हैदराबाद के निजाम के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। अब चर्चा हो कि यह अद्भुत नायक कोमराम भीम कौन हैं ? वे एक आदिवासी क्रन्तिकारी थे जिन्होंने हैदराबाद के निजाम आसफ अली द्वारा किये जाने वाले अत्याचारों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। उनका जन्म 22 अक्टूबर1901 को वर्तमान तेलंगाना राज्य के संकेपल्ली गाँव के गोंड आदिवासी परिवार में हुआ था। उन्होंने बचपन से ही अंग्रेज़ो और निज़ामों को उनके समाज के लोगों पर जुल्म करते देखा था। वे निरक्षर जरूर थे, लेकिन परिस्थितियों को संभालना वे सही से जानते थे। इस क्षेत्र के किसानों की फसलों का बड़ा हिस्सा निजाम को देना पड़ता था। इससे किसानों के हालत बद से बदतर होते जा रहे थे। जंगल में पेड़ काटने के आरोप में आदिवासी महिला, पुरुष और बच्चों तक को यातनायें दी जाती थीं। उनके पिताजी ने लोगों की परेशानियों को समझा था। इस बीच एक जंगल अधिकारी ने उनकी गोली मारकर हत्या कर दी थी। इस घटना से पीड़ित परिवार संकेपल्ली से सरदारपुर चला गया। वहां वे खेती करने लगे, लेकिन यहां भी निजाम शाही का खौफ उन्हें महसूस हुआ। निजाम के आदमी उनके पास आकर टैक्स के लिए डराते, धमकाते थे। निजाम के अत्याचार दिन ब दिन बढ़ते चले गए। कोमराम ने अब निजामशाही के विरुद्ध आवाज़ उठाने का निश्चय किया था। उन्होंने अपने आदिवासी मित्रों तथा किसानों को संगठित किया और उन्हें निजामशाही का विरोध करने के लिए प्रेरित किया। कोमराम भीम अब एक नेता के रूप में लोगों के बीच प्रकट हो चुके थे। धीरे-धीरे कोमराम की सेना तैयार की गयी जो निजाम से लड़ने के लिए तैयार थी। कोमराम के करतब से परेशान निजाम ने उन्हें पकड़ने के लिए सेना भेजी। कुछ समय बाद उन्हें आत्मसमर्पण के लिए कहा गया, परन्तु इन्होने आत्मसमर्पण के बदले संघर्ष का पथ चुना। दोनों के बीच जबरदस्त संघर्ष हुआ और इसमें 8 अक्टूबर 1940 को कोमराम के साथ कुल 15 लोगों ने अपनी जान गवां दी। इस फिल्म से बताते हैं कि नक्सलवादियों को भी प्रेरणा मिली थी। मगर वास्तविकता यह है कि यह केवल एक ऐतिहासिक घटना है। आजादी के अमृतकाल में इसकी प्रासंगिकता है। श्रद्धा सुमन अर्पण करने की आवश्यकता है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नगालैंड, त्रिपुरा और मेघालय में भाजपा का डंका बज गया, यह देश ने जमकर देखा लेकिन वहां जो असली विलक्षण घटना हुई है, उसकी तरफ लोगों का ध्यान बहुत कम गया है। वह विलक्षण घटना यह है कि जिन पार्टियों ने चुनाव में एक-दूसरे का डटकर विरोध किया, उन्होंने भी मिलजुल कर अब नई सरकार बनाई है। इतना ही नहीं, वे छोटी-मोटी पार्टियां, जो राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा आदि का विरोध करती रही हैं, उन्होंने भी नगालैंड में ऐसी सरकार बनाई है, जैसी दुनिया के किसी भी लोकतांत्रिक देश में भी नहीं है।
नगालैंड की ताजा सरकार ‘नेशनलिस्टिक डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी’ के नेतृत्व में बनी है। उसके नेता नेफ्यू रियो मुख्यमंत्री हैं। उनकी 60 सदस्योंवाली विधानसभा में एक भी सदस्य ऐसा नहीं है, जो कहे कि मैं विपक्ष में हूं या मैं विरोधी दल हूं। तो क्या हम यह मान लें कि रियो ने साठों की साठ सीटें जीत लीं? नहीं, ऐसा नहीं हुआ है। उनकी पार्टी और भाजपा को सबसे ज्यादा सीटें मिली हैं लेकिन उनकी संख्या कुल 37 हैं। 60 में से 37 याने आधी से सिर्फ 7 ज्यादा! फिर भी क्या बात है कि नगालैंड में कोई विरोधी दल नहीं है? जिन आठ दलों ने विरोधी बनकर चुनाव लड़ा था, उनमें 4 पार्टियां नगालैंड के बाहर की थीं। सभी आठों पार्टियों के जीते हुए विधायकों ने कहा है कि हम सत्तारुढ़ गठबंधन के साथ है।
अभी तक यह निश्चित नहीं है कि इन विरोधी पार्टियों के विधायकों में से कुछ को मंत्री बनाया जाएगा या नहीं। शरद पवार की नेशनल कांग्रेस पार्टी को 7 सीटें मिली हैं। वह तीसरी सबसे बड़ी पार्टी है। उसे दुविधा है, भाजपा से हाथ मिलाने में! इसीलिए वह सरकार को बाहर से ही समर्थन देगी। जो भी हो, नगालैंड में जो सरकार बनेगी और चलेगी, मेरी राय में वह दुनिया के सभी लोकतंत्रों के लिए आदर्श है। दुनिया की संसदों में पक्ष और विपक्ष की पार्टियां जो फिजूल का दंगल करती हैं और अपना तथा देश का समय नष्ट करती रहती हैं, उससे भारत, एशिया, अफ्रीका, अमेरिका और यूरोप के लोकतांत्रिक देशों को छुटकारा मिलेगा।
जो भी सरकार सर्वसम्मति से बने, उसमें दलीय संख्या के अनुपात में मंत्री बना दिए जा सकते हैं। मंत्रिमंडल के सभी फैसले बहुमत के आधार पर होंगे। नगालैंड से भारत और दुनिया के सभी राजनीतिक दल प्रेरणा लेकर अपने-अपने देश में वैसी ही सरकारें बना सकते हैं, जैसी आजादी के बाद 1947 में भारत में जवाहरलाल नेहरु के नेतृत्व में बनी थी।
उस नेहरु सरकार में घनघोर गांधीविरोधी भीमराव आंबेडकर और जनसंघ के जनक श्यामाप्रसाद मुखर्जी भी मंत्री थे। उसके 14 मंत्रियों में हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, पारसी, दक्षिण भारतीय, दलित, महिला आदि सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व था। वह सचमुच की राष्ट्रीय सरकार थी। आजकल की पार्टी-आधारित सरकारों में भी इन वर्गों का प्रतिनिधित्व रहता है लेकिन उन सब पर सेंत-मेंत प्रहार करने के लिए हम एक विपक्ष भी फिजूल में खड़ा कर लेते हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
पढ़ें बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक का लिखा-
राहुल गांधी का भाषण पहले केंब्रिज विश्वविद्यालय में हुआ, फिर ब्रिटिश संसद में हुआ और फिर लंदन के चेथम हाउस में हुआ। इन तीनों संस्थाओं में मैं पिछले 50-55 साल से जाता रहा हूं। मुझे आश्चर्य हुआ कि हमारे नेताओं में एक नेता इतना योग्य निकला कि इन विश्व-प्रसिद्ध संस्थाओं में भाषण देने के लिए उसे बुलाया गया। मेरा सीना गर्व से फूल गया। लेकिन सच यह है कि इन संस्थाओं के सभा-भवनों को कोई भी किराए पर बुक कर सकता है। राहुल गांधी विपक्ष के नेता हैं और सांसद हैं, इस नाते सरकार की आलोचना करने का उन्हें पूरा अधिकार है लेकिन यह काम बड़ी सावधानी से किया जाना चाहिए। ऐसी अतिवादी बातें नहीं कही जानी चाहिए जिनसे देश की छवि बिगड़ती हो, हालांकि भाजपा के प्रवक्ता जरूरत से ज्यादा परेशान मालूम पड़ते हैं।
उन्हें क्या यह पता नहीं है कि विदेशी लोग राहुल की बातों को उतना महत्व भी नहीं देते, जितना हमारी जनता के कुछ लोग दे देते हैं। राहुल की इस बात से सहमत नहीं हुआ जा सकता है कि भारत का लोकतंत्र खतरे में है। यदि भाजपा पर मोदी के शिकंजे की तरफ वे इशारा कर रहे हैं तो वह तो ठीक है लेकिन क्या नेहरु, इंदिरा और सोनिया-काल में ऐसा ही नहीं था। और अब तो कांग्रेस बिल्कुल प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बन गई है। देश की सभी पार्टियां अब कांग्रेस के ही ढर्रे पर चल पड़ी हैं। इसके बावजूद देश में लोकतंत्र जिंदा है, इस सत्य का सबूत यह तथ्य है कि हर पांच-दस साल में इधर हमारी सरकारें उलटती-पलटती रही हैं। यदि भारत में तानाशाही होती तो राहुल गांधी, नरेंद्र मोदी और छोटे-मोटे नेताओं के कई अनर्गल बयानों को क्या हमारे अखबार और टीवी चैनल प्रसारित कर सकते थे? लोकतंत्र की हत्या तो इंदिराजी के आपात्काल में ही हुई थी। क्या वैसी हालत आज भारत में है? राहुल को अमेरिका और यूरोप के देशों से यह कहना कि वे भारत के लोकतंत्र को बचाएं, अपनी हैसियत को हास्यास्पद बनाना है।
पता नहीं, हर भाषण के पहले राहुल को कौन अपरिपक्व सलाहकार गुमराह कर देता है? कांग्रेस खत्म हो रही है, कुछ भाजपाइयों का यह कहना अनुचित है। कांग्रेस का मजबूत होना भारत के लोकतंत्र के लिए बहुत जरूरी है लेकिन राहुल का यह कहना कि संघ सांप्रदायिक और तानाशाही संगठन है, यह भी गलत है। संघ-प्रमुख मोहन भागवत ने इधर मुस्लिम नेताओं, बुद्धिजीवियों और मौलानाओं को मुख्यधारा में लाने का जैसा प्रयत्न किया है, किसी पार्टी के नेता ने भी नहीं किया है। यह ठीक है कि संघ में आंतरिक चुनाव नहीं होते लेकिन राहुल बताए कि किस पार्टी-संगठन में आंतरिक चुनाव होते हैं? जिन संगठनों को आम चुनाव नहीं लड़ने हैं, उनके अंदर चुनाव अनिवार्य क्यों हों? क्या संघ कोई राजनीतिक पार्टी है? राहुल ने कहा कि संसद में उन्हें बोलने की अनुमति नहीं मिलती। कुछ हद तक यह ठीक है लेकिन आपके बोलने में कुछ दम तो होना चाहिए। विपक्ष को जितनी अनुमति मिलती है, क्या वह उसका सदुपयोग कर पाता है? मुझे याद है कि 1965-66 में डाॅ. राममनोहर लोहिया को संसद में 5 मिनिट का भी मौका मिलता था, तो भी उसी में इंदिरा सरकार को वे थर्रा देते थे। इस मौके पर मुझे अल्लामा इकबाल का एक शेर याद आ रहा है-
‘‘खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तदबीर से पहले।
खुदा बंदे से खुद पूछे, बता तेरी रज़ा क्या है।।’’ (नया इंडिया की अनुमति से)
कनक तिवारी
दिनांक 2 मार्च 2023 को सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने अनुच्छेद 324 की व्याख्या और पुनरर्चना करते फैसला किया। अब चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति सीधे केन्द्र सरकार अर्थात प्रधानमंत्री के नियंत्रण से बाहर होकर तीन सदस्यों की सिफारिश के आधार पर की जाएगी। सिफारिश समिति में प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के चीफ जस्टिस होंगे। बेंच में न्यायमूर्ति के. एम. जोसेफ, अजय रस्तोगी, हृषिकेश राय और सी. टी. रविकुमार थे। जानना जरूरी है चुनाव आयोग संबंधी संविधान के अनुच्छेद 324 (2) के अनुसार निर्वाचन आयोग, मुख्य निर्वाचन आयुक्त और उतने अन्य निर्वाचन आयुक्तों से यदि, कोई हों, जितने राष्ट्रपति समय-समय पर नियत करे, मिलकर बनेगा। मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति, संसद द्वारा इस निमित्त बनाई गई विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी।
आजाद भारत में चुनाव आयोग की स्थापना और उसके जरिए स्वतंत्र और निष्पक्ष चुुनावों का संचालन करना लोकतंत्र की स्थापना और मजबूती के लिए बहुत महत्वपूर्ण रहा है। संविधान के निर्देश के बावजूद पिछले 70 वर्षों में संसद में चुनाव आयोग की स्थापना और उसके कर्तव्य पालन के कानून बनाने की जहमत नहीं उठाई गई। दुनिया के सबसे बहुसंख्यक लोकतंत्र में चुनाव केन्द्र सरकार के मुखिया के हुक्मशाही के तहत लगभग प्रतिबद्ध चुनाव आयोग द्वारा कराए जाने का प्रावधान राजनेताओं ने जीवित रखा। प्रधानमंत्री नेहरू पर चुनावों को प्रदूषित करने का आरोप नहीं लगा क्योंकि नेहरू की जम्हूरियत में आस्था किसी बाहरी व्यक्ति की तरह नहीं थी। वे ही संविधान की मूल भावना के प्रारूपकार थे। धीरे धीरे चुनाव आयोग की निष्पक्षता धूमिल होती गई। अब तो नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में पक्षपात का आसमान सिर पर उठा लिया गया है। मौजूदा प्रमुख चुनाव आयुक्त अरुण गोयल केन्द्रीय सचिव रहे हैं। उनका इस्तीफा कराकर उन्हें आनन फानन में लगभग चौबीस घंटे में ही प्रमुख चुनाव आयुक्त बना दिया गया। उसका भरपूर डिविडेंड भाजपा के सिद्धांत पुरुष को मिल रहा है। हालिया जितने चुनाव हुए, वे नरेन्द्र मोदी और भाजपा के पक्ष में चुनाव आयोग की भूमिका को पक्षपात से रंगते नजऱ आ रहे हैं।
भारत को गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 के तहत संविधान बनाने की प्रेरणा मिली। उस अंगरेजी अधिनियम में तथाकथित चुनाव आयोगों की नियुक्ति का अधिकार केन्द्र सरकार को ही रहा। भारत की संविधान सभा यदि चाहती तो तय कर सकती थी कि चुनाव आयोग किस अधिनियम या कानून के तहत स्थापित हो और निष्पक्ष कार्यसंचालन किस तरह सुनिश्चित किया जाए। संवैधानिक पुरखों के प्रति सम्मान रखने भी कहना पड़ेगा कि उनसे कई तरह की भूल चूक हुई। भले ही सद्भावनाजन्य हुई होगी। उसका खमियाजा लोकतंत्र को भुगतना पड़ा है।
संविधान सभा की कार्यवाही में 15 जून और 16 जून 1949 को चुनाव आयोग की स्थापना को लेकर गंभीर बहस हुई। मजा यह कि बहस के ठीक पहले भारसाधक सदस्य डॉ. अंबेडकर ने पहले के प्रस्तावित प्रारूप को काफी बदल दिया। इस पर सदस्यों को कई तरह की आपत्तियां हुईं। तेज-तर्रार सदस्य शिब्बनलाल सक्सेना ने दो टूक कहा चुनाव आयोग को कार्यपालिका अर्थात केन्द्र सरकार से बिल्कुल अलग रखा जाना चाहिए। राष्ट्रपति को चुनाव आयोग की नियुक्ति करने का अधिकार दिया जाता है। तो साफ क्यों नहीं कहते कि प्रधानमंत्री ही चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करेगा। जो प्रधानमंत्री खुद चुनाव लडक़र अपने पद पर आता है। उसकी यह इच्छा क्यों नहीं होगी कि उसकी सल्तनत कायम रहे, और उसके लिए ऐसा चुनाव आयोग हो जो उसकी मर्जी से चले। फिर वे स्वतंत्र होकर कैसे काम कर सकते हैं। सक्सेना ने दो टूक कहा आज वैसी स्थिति नहीं है। मुमकिन है अगला कोई सत्ताधारी दल अपने चुनाव में सुलभ होने के लिए अपनी पार्टी के प्रति निष्ठा रखने वाले चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करे। सक्सेना ने यहां तक कहा कि उसे चुनाव आयुक्त बनाएं जो राज्यसभा और लोकसभा के सदस्यों को मिलाकर दो तिहाई सदस्यों का समर्थन हासिल कर सके। ऐसी स्थिति में एक से अधिक राजनैतिक पार्टियों का उसे समर्थन लेना पड़ेगा। एच. वी. पाटस्कर को आपत्ति थी कि राज्यों के चुनाव के लिए भी यदि सारी ताकत केन्द्र सरकार अर्थात् प्रधानमंत्री की मु_ी में बंद की जा रही है तो भारत राज्यों का संघ कहां हुआ?
लगता है कि अब सब कुछ केन्द्र को ही करना होगा। राष्ट्रपति प्रदेशों के लिए अलग निर्वाचन आयुक्त क्यों नहीं नियुक्त कर सकते? हालांकि इसके उलट कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी और नज़ीरुद्दीन अहमद वगैरह ने अंबेडकर की सिफारिशों के पक्ष में अपनी राय जाहिर की।
चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति और अधिकार का मामला कई उपसमितियों में भी आया था। अल्पसंख्यक उपसमिति में 17 अप्रैल 1947 को स्वीकृत सिफारिशों में डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी का सुझाव भी था कि ऐसे चुनाव आयोगों में अल्पसंख्यकों को कम से कम आबादी के अनुपात में आरक्षण नियुक्ति में मिलना चाहिए। अंबेडकर चुनाव के अधिकार को मूल अधिकारों में शामिल करने के पक्ष में रहे हैं। फिर भी भारत की संसद ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति का अधिकार आखिरकार केन्द्र सरकार अर्थात् प्रधानमंत्री पर छोड़ दिया। उसका खमियाजा देश को भुगतना तो पड़ रहा है।
ऐसे हालात में कुछ याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गईं और काफी बहस मुबाहिसा हुआ। कई पुराने मुकदमों का हवाला दिया गया और संविधान पीठ ने प्रजातांत्रिक मूल्यों की महत्ता और उनके अमल में लाए जाने को लेकर सार्थक विचार विमर्श किया। अब सवाल है कि सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले से असहमत और असहज केन्द्र सरकार को क्या करना होगा? बंद मु_ी लाख की होती है लेकिन खुल गई तो? अरुण गोयल जैसे चुनाव आयुक्त और अरुण मिश्रा जैसे सुप्रीम कोर्ट जज संवैधानिक प्रावधानों की अनदेखी करने के कारण ही तो पुष्पित, पल्लवित और प्रोन्नत हुए हैं। प्रधानमंत्री की मुस्कान में यह फसल कभी कभी लहलहाती रहती है। भारत और न्यायिक और अर्ध न्यायिक संस्थाओं ने अपने यश और अपने सम्मान से बेरुख रहकर कई गुल गपाड़े किए हैं। गनीमत है भारत के सुप्रीम कोर्ट को लगातार सोने की आदत नहीं है। वैसे जागना भी तो चाहिए। फिलवक्त फिसल पड़ेे तो हर गंगा कहने में जनता को सुप्रीम कोर्ट का साथ तो देना चाहिए।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
गौतम अडानी और हिंडनबर्ग रिपोर्ट के मामले पर नए रहस्योद्घाटन लगभग रोज़ ही हो रहे हैं। इस बार का संसद का सत्र भी इसी मामले का शिकार होनेवाला है, क्योंकि विपक्ष के पास इसके अलावा कोई बड़ा मुद्दा है ही नहीं। वैसे एक मुहावरे में कहा भी गया है कि ‘भागते भूत की लंगोटी ही काफी।’ अब अंग्रेजी के ‘हिंदू’ अखबार में श्रीलंका के विदेश मंत्री अली साबरी की एक भेंटवार्ता छपी है। उसमें साबरी ने दावा किया है कि श्रीलंका की सरकार के साथ अडानी के कोलंबो बंदरगाह और विद्युत परियोजना के जो सौदे हुए हैं, वे ऐसे ही हैं, जैसे कि दो सरकारों के बीच होते हैं।
यह कथन बहुत मायने रखता है। पता नहीं, यह बोलते हुए साबरी को इस बात का ध्यान रहा या नहीं कि अडानी और हमारी सरकार के संबंधों को लेकर यहां बड़ा बावेला उठ खड़ा हुआ है। साबरी ने श्रीलंका के इस भयंकर संकट के समय भारत द्वारा दी गई प्रचुर सहायता के लिए मोदी सरकार का बड़ा आभार माना है लेकिन उन्होंने मोदी और अडानी को एक-दूसरे का पर्याय बना दिया है। कोई आश्चर्य नहीं कि भारत के विपक्षी नेताओं को अब एक छड़ी हाथ लग जाए, जिससे वे मोदी सरकार पर प्रहार कर सकें।
अभी तक तो हमारा विपक्ष सिर्फ अडानी की खाली तूती बजा रहा है, जिसका असर शेयर मार्केट पर तो पड़ा है लेकिन वह जनता के कानों में नहीं गूंज पा रही है। श्रीलंका के विदेश मंत्री साबरी ने भी कहा है कि अडानी के शेयरों में हालांकि 140 बिलियन डालर का पतन हो गया है लेकिन उन्हें अडानी समूह की कार्यक्षमता पर पूरा भरोसा है। साबरी शायद कहना यह चाह रहे हैं कि अडानी में उनका भरोसा इसलिए है कि भारत सरकार में उनका भरोसा है।
दूसरे शब्दों में भारत सरकार और अडानी को वे एक ही सिक्के के दो पहलू समझ रहे हैं। जैसा उत्साह श्रीलंका ने अडानी की परियोजनाओं के बारे में दिखाया है, वैसा ही उत्साह इजराइल ने भी दिखाया है। हमारा विपक्ष इजराइल से हुए अडानी के सौदे का प्रधानमंत्री की इजराइल-यात्रा का ही परिणाम बताता है। इजराइल का हैफा बंदरगाह सामरिक दृष्टि से पश्चिम एशिया का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। अडानी ने उसे 1.2 बिलियन डालर में खरीद लिया है। इस तरह के कई सौदे अडानी समूह ने देश और विदेश में किए हैं।
हमें देखना यह है कि क्या इन सौदों से भारत का कोई नुकसान हुआ है? यदि नहीं हुआ है तो विपक्ष द्वारा खाली-पीली शोर मचाने का कोई नतीजा नहीं निकलनेवाला है। देश में आज तक एक भी सरकार ऐसी नहीं हुई है, जिसने भारतीय उद्योगपतियों के साथ पूर्ण असहयोग का रास्ता अपनाया हो। वे असहयोग करेंगी तो देश की हानि ही होगी। उनके सहयोग का वित्तीय फायदा उन्हें जरूर मिलता है। उसके बिना भी राजनीति चल नहीं सकती।
यदि अडानी-समूह ने कोई कानून-विरोधी कार्य किया है या उसके किसी काम से देश या जनता की हानि हुई है तो वह दंड का भागीदार अवश्य होगा। यदि अडानी-समूह ने फर्जीवाड़ा किया है तो वह भुगतेगा लेकिन इसमें मोदी क्या करें? मोदी कुछ बोलते क्यों नहीं? मोदी की चुप्पी विपक्ष की आवाज को बुलंद कर रही है। (नया इंडिया की अनुमति से)
डॉ. परिवेश मिश्रा
लम्बे समय तक चले अकाल ने उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक में राजस्थान और गुजरात जैसे हिस्सों से अनेक लोगों को पलायन के लिए मजबूर किया। देश की पश्चिमी सीमा पर जोधपुर के पास भोजासर गांव के श्वेतांबर जैन धर्मावलम्बी वणिक सेठ श्री आसकरण श्रीश्रीमाल के तीन बेटे भी इनमें शामिल थे। आसपास के बीकानेर, चुरू, सीकर जैसे इलाकों से कलकत्ता पहुंचे कुछ लोग तब तक नयी शुरू हुई हावड़ा-बम्बई रेल लाईन के जरिये भारत के मध्य की ओर आकर बसने लगे थे। श्री आसकरण के बेटे भी रायपुर होते हुए पहले चालीस किलोमीटर दूर महानदी के किनारे राजिम, और कुछ ही सालों के बाद वहां से पचास किलोमीटर आगे जंगल मे खल्लारी नामक स्थान पर पहुंचे। तीनों भाईयों ने शुरुआत कपड़ों के व्यापार से की।
1877 में नागपुर में टाटा की एम्प्रेस मिल की शुरुआत के बाद 1892 में राजनांदगांव के राजा के प्रयासों से कलकत्ता की एक मैक्बेथ ब्रदर्स नामक ब्रिटिश कम्पनी ने वहां कपड़ा मिल स्थापित कर दी थी। उन दिनों राजनांदगांव छत्तीसगढ़ का सबसे बड़ा शहर था। श्रीमती इलीना सेन (‘इनसाइड छत्तीसगढ़’ में) के अनुसार ‘सीपी मिल’ नामक इस मिल को श्री जगन्नाथ शुक्ल ने खरीद लिया और मिल का नाम रखा ‘बंगाल-नागपुर-कॉटन (बीएनसी) मिल’। श्री जगन्नाथ शुक्ल श्री रविशंकर शुक्ल के पिता थे। रेल के कारण मिलों में उत्पादित कपड़ा रायपुर पहुंचने लगा था। और वहां से बैलगाडिय़ों पर कई दिन और घण्टों की यात्रा कर यह माल खल्लारी जैसे छत्तीसगढ़ के अंदरूनी इलाकों तक पहुंचता था।
यह क्षेत्र सडक़ों और आवागमन के आज के प्रचलित साधनों से विहीन, घने जंगलों वाला इलाका था। वन्य-जीवों के मामले में अति समृद्ध। रास्ते में रातें भी बितानी पड़ती थीं जहां चोर-लुटेरों से कहीं अधिक बाघ, भालू जैसे हिंसक वन्य प्राणियों से चौकसी प्राथमिकता होती थी। यह संयोग नहीं है कि अनेक दशकों तक सारंगढ़ समेत बाकी छत्तीसगढ़ में भी बीएनसी मिल की बनी और बहुत लोकप्रिय रही सफेद धोती ‘बाघ-छाप’ ही कहलाती थी।
गांव-गांव घूमकर साप्ताहिक बाजारों में कपड़े बेचने का काम चल रहा था कि भाईयों के बीच अनबन हो गयी। एक भाई धनराज जी एक दिन पत्नी और पांच बेटों वाले अपने परिवार को लेकर घर छोड़ पैदल निकल गये और उसी जंगल से घिरे कोई 15-20 किलोमीटर दूर खोपली गांव पहुंच गये। यहां बसकर वही कपड़े का काम फिर जमाया।
जब सेठ आसकरण जोधपुर के भोजासर गांव से अपने बेटों को छत्तीसगढ़ रवाना कर रहे थे तब उन्हें मालूम नहीं था कि भारत के पूर्वी तट पर हो रही एक महत्वपूर्ण घटना छत्तीसगढ़ की आर्थिक सामाजिक दशा को हमेशा के लिए बदल देने की तैयारी कर रही थी।
उन्नीसवीं सदी का अंत होने से पहले अंग्रेज़ों ने कलकत्ता, बम्बई और मद्रास में बंदरगाहों को रेल मार्ग से आपस में जोड़ दिया था। लेकिन भारत के मध्य क्षेत्रों को समुद्र तट से जोडऩा बाकी था। इन क्षेत्रों में छत्तीसगढ़ प्रमुख था जहां का मैंगनीज़ अयस्क इंगलैंड भी पहुंचाना था और अमेरिका भी। तिलहन, जूट, नील जैसे अन्य अनेक माल का निर्यात भी सुगम करना था।
समाधान के रूप में मौज़ूद था विशाखापत्तनम बंदरगाह। इसका इस्तेमाल तो सैकड़ों सालों से हो रहा था लेकिन यह बंदरगाह छोटा था। बंगाल-नागपुर रेल कम्पनी तब तक वहां वाल्टेयर नाम से रेलवे-स्टेशन बना चुकी थी। उसी कम्पनी ने विशाखापत्तनम बंदरगाह को बड़े जहाजों के लायक बनाने का काम शुरू किया। साथ ही तत्काल रायपुर को वाल्टेयर से जोडऩे के लिए एक नयी रेल लाईन बिछाने का काम भी शुरू कर दिया गया। जिन दिनों सेठ आसकरण के बेटे धनराज जी अपना कारोबार खपोली में बढ़ा रहे थे, यह नयी रेल लाईन रायपुर से बिछना शुरू होकर और महानदी पार कर कोई अस्सी किलोमीटर दूर इनके खपोली गांव से कोई तीन किलोमीटर दूरी तक पहुंच गयी। पता चला जंगल में उस स्थान पर एक स्टेशन भी बन रहा है। स्टेशन के पास कोई आबादी तो थी नहीं सो उसका नामकरण करने के लिए कम्पनी के अधिकारियों ने अपनी बुद्धि और कल्पनाशीलता का उपयोग किया। जिस भौगोलिक स्थान पर स्टेशन बन रहा था वह ऐसा स्थान था जो निचले लेवल पर था। पानी का बहाव ऐसी भूमि की दिशा में होता है और छत्तीसगढ़ में ऐसे स्थान को ‘बहरा’ जमीन कहा जाता था। इलाके में बाघ इफरात में हैं यह तो वहां काम करने वालों ने स्वयं जान ही लिया था सो स्टेशन का नामकरण हो गया ‘बाघबहरा’।
इलाके में धान की प्रचुरता हमेशा से रही है। तब भी थी। लेकिन चावल बाजार में नहीं बेचा जाता था। जिस को जब जितनी जरूरत हो घर में कूट लिया जाता था। रेल लाईन और स्टेशन बनाने बनाने वाले ठेकेदार अपने साथ बड़ी संख्या में मजदूरों और मिस्त्रियों के गैंग लेकर चलते थे। उनके साथ पटरियों पर आगे बढ़ते जाने वाली एक पोर्टेबल राइस मिलिंग मशीन भी होती जिसे एक अलग मोटर से चलाया जाता था। इस तरह धान से चावल प्राप्त करने की मशीन को इलाके में पहली बार देखा गया।
सेठ धनराज जी के बड़े बेटे श्री खेमराज ने अपने व्यावसायिक बुद्धि और उद्यमशीलता के बल पर इस मशीन के साथ अपने और अपने इलाके के भविष्य को जोडक़र अपार संभावनाओं को आंका और ठेकेदार के पीछे पडक़र वैसी ही एक मशीन अपने लिए मंगवा ली।
यह मशीन दरअसल वह नींव का पत्थर साबित हुई जिस पर आगे चलकर छत्तीसगढ़ में राइस मिलों का साम्राज्य खड़ा हुआ।
नये बने स्टेशन के आसपास की ज़मीन खरीदकर सेठ खेमराज ने अपना घर बनाया। मिल की स्थापना की, काम करने वालों के लिए घर बनाए, अस्पताल और पुलिस स्टेशन बने, दुकानें बनीं, और इस तरह बागबहरा नाम की एक बस्ती पैदा हुई जिसे आज कोई 25-30 हजार आबादी वाली नगर पंचायत का दजऱ्ा प्राप्त है।
सेठ खेमराज ने अपने भाईयों - विशेषकर सेठ नेमीचंद के साथ मिलकर रायपुर से वाल्टेयर की रेल लाइन के साथ साथ चावल और तेल मिलों की कतार खड़ा करने का सपना देखा और उसे पूरा करने में लग गये। कुछ मिलें स्वयं खड़ी कीं किन्तु अधिकांश में राजस्थान से आये अन्य परिवारों के साथ जानकारी, अनुभव और संसाधन साझा कर भागीदारी की। देखते देखते खरियार रोड, केसिंगा, भीमखोज (खल्लारी का स्टेशन), नवापारा-राजिम, महासमुंद, बसना जैसे अनेक स्थानों में मिलें शुरू होने लगीं। विशाखापत्तनम में 1933 में लॉर्ड विलिंगडन के हाथों बंगाल नागपुर रेल्वे द्वारा बनाए गए बंदरगाह का उद्घाटन हो चुका था। वहां भी सेठ नेमीचंद ने एक तेल मिल स्थापित कर दी।
और फिर आया 1940 का साल जब दूसरा विश्वयुद्ध शुरू होते ही ब्रिटेन में अनाज की कमी पडऩा शुरू हो गयी थी। कुछ ही समय में युद्ध क्षेत्र का विस्तार बर्मा में हो गया। भारत पर दबाव बना कि जहाजों से अधिक से अधिक अनाज भेजा जाए। यह अपने किस्म का पहला मौका था। सन 1940-41 में मध्य छत्तीसगढ़ में भी अवर्षा के कारण सूखे की विकराल स्थिति बनी थी।
उस जमाने में आज की तरह की फूड कार्पोरेशन जैसी कोई एजेंसी नहीं थी। अंग्रेजों के लिए श्रीश्रीमाल भाईयों की मदद अपरिहार्य हो गई। सेठ खेमराज और छोटे भाई सेठ नेमीचंद ऐसे कॉमन सूत्र थे जो इलाके की सारी राईस मिलों को आपस में बांधते थे। अंग्रेजों ने इन्हें अपना ऐजेन्ट नियुक्त किया। इनके जिम्मे था रायपुर जिले के धमतरी, भाटापारा, नावापारा, राजिम, तिल्दा, नेवरा, बागबहरा, महासमुंद, आरंग, बसना और रायपुर जैसे स्थानों में फैली लगभग पचास राईस मिलों से हर रोज आवश्यक मात्रा में चावल एकत्र करना, परिवहन कर विभिन्न स्टेशनों पर पहुंचाकर गंतव्य के लिए डिस्पैच करना, सरकार से रायपुर स्थित इम्पीरियल बैंक (जयस्तंभ के किनारे स्थित अब का स्टेट बैंक) से भुगतान कलेक्ट करना और मिलों तक पैसों का वितरण सुनिश्चित करना।
यही वह समय था जब सेठ नेमीचंद श्रीश्रीमाल को ‘राइस-किंग’ की अनौपचारिक उपाधि मिली। आजादी के बाद छत्तीसगढ़ समेत मध्यप्रदेश में राइस मिलों की संख्या में इजाफा होता गया और साथ ही राइस मिल मालिकों के प्रवक्ता और प्रतिनिधि के रूप में सेठ नेमीचंद के नाम के साथ ‘राईस-किंग’ का तमगा मजबूत होता चला गया।
छत्तीसगढ़ में इस परिवार को आये लगभग सवा सौ साल बीत चुके हैं। सेठ आसकरण श्रीश्रीमाल की चौथी पीढ़ी के सदस्य श्री स्वरूपचंद जैन ने अपने परिवार के सफर को हाल ही में एक पुस्तक ‘द जॉय ऑफ गिविंग’ में लिपिबद्ध किया है। इस लेख में पुस्तक से संदर्भ लिए गये हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हमारी दो दवा-निर्माता कंपनियों के कारनामों से सारी दुनिया में भारत की बदनामी हो रही है। इस बदनामी से भी ज्यादा दर्दनाक बात यह है कि इन दोनों कंपनियों- मेडेन फार्मा और मेरियन बायोटेक- की दवाइयों से गांबिया में 60 बच्चों और उजबेकिस्तान में 16 बच्चों की मौत हो गई। जब पहले-पहल ये खबरें मैंने अखबारों में देखी तो मैं दंग रह गया। मुझे लगा कि भारत से अरबों रु. की दवाइयों का जो निर्यात हर साल होता है, उस पर इन घटनाओं का काफी बुरा असर पड़ेगा।
भारत की प्रामाणिक दवाइयों पर भी विदेशियों के मन में संदेह पैदा हो जाएगा। हमारी दवाएं अमेरिका और यूरोप की तुलना में बहुत सस्ती होती हैं। मुझे यह भी लगा कि इस मामले ने यदि तूल पकड़ लिया तो एशिया और अफ्रीका के जिन गरीब मरीजों की सेवा इन दवाइयों से होती हैं, अब वे वंचित हो जाएंगे। हो सकता है कि गांबिया और उजबेकिस्तान के उन बच्चों की मौत का कारण कुछ और रहा हो।
लगभग दो माह पहले जब ये खबरें आईं तो यह भी अपुष्ट सूत्रों ने कहा कि इन दवाइयों के नमूनों की जांच यहीं की गई है और वे ठीक पाई गई हैं लेकिन इन देशों के जाँच कर्ताओं ने अब जांच पूरी होने पर कहा है कि इन दवाइयों में कुछ नकली और हानिकर तरलों को मिला देने के कारण ही ये जानलेवा बन गई थीं। इस निष्कर्ष की पुष्टि अब एक अमेरिका की एक जांच कंपनी ने भी कर दी है।
भारत सरकार ने इन कंपनियों के खिलाफ पुलिस में रपट लिखवा दी है और उनके कुछ कर्मचारियों को गिरफ्तार भी कर लिया है लेकिन दोनों कंपनियों के मालिक और वरिष्ठ प्रबंधक फरार हैं। यदि उनको विश्वास है कि उनकी दवाइयों में कोई मिलावट नहीं की गई है तो उन्हें डरने की जरूरत क्या है? यह भी हो सकता है कि मालिकों और मेनेजरों की जानकारी के बिना भी मिलावट की गई होगी।
यदि ऐसा है तो उन कर्मचारियों को कठोरतम सजा दी जानी चाहिए और यदि मालिक और प्रबंधक भी इस जानलेवा मिलावटखोरी के लिए जिम्मेदार हैं तो उनकी सजा तो और भी सख्त होनी चाहिए। इन लोगों पर दस-बीस लाख या करोड़ रु. का जुर्माना बेमतलब होगा। इन सबको 76 बच्चों की सामूहिक हत्या का जिम्मेदार मानकर इनकी सजा भी इतनी भयंकर होनी चाहिए कि भावी मिलावटखोरों की नींद हराम हो जाए।
यह सजा जल्दी से जल्दी दी जानी चाहिए ताकि आम लोगों को पता चले कि किस कुकर्म के लिए उन्हें दंडित किया गया है। उन्हें जेल के बंद दरवाजों के पीछे नहीं, चौराहों पर लटकाया जाना चाहिए और हर टीवी चैनल पर उसका जीवंत प्रसारण किया जाना चाहिए। उसके बाद आप देखेंगे कि देश में किसी भी तरह के मिलावटखोर आपको ढूंढने से भी नहीं मिलेंगे। (नया इंडिया की अनुमति से)
-श्रवण गर्ग
‘आम आदमी पार्टी’ के एक ख़ास नेता और दिल्ली के पूर्व उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया इस समय सीबीआई की हिरासत में हैं। शराब नीति से संबंधित एक मामले में जाँच एजेंसी द्वारा कथित तौर जुटाए गए अनियमितताओं के सुबूतों के आधार पर उनकी गिरफ़्तारी हुई है। कहा जा रहा है कि कार्रवाई की तलवार मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के सिर पर भी लटक रही है। जाँच एजेंसियों के ज़रिए जिस तरह की राजनीति देश में इस समय चलाई जा रही है उसमें अब कुछ भी नामुमकिन नहीं बचा है !
सवाल यह है कि ‘आप’ के मामले में उस ‘आम’ आदमी की प्रतिक्रिया क्या होनी चाहिए जिसने कोई बारह साल पहले दिल्ली के रामलीला मैदान में तब 74-वर्षीय किशन बाबूभाई हज़ारे उर्फ़ अन्ना हज़ारे की अगुवाई में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ चले आंदोलन (‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’) का अपनी संपूर्ण सामर्थ्य से समर्थन किया था और इंडिया गेट पर उम्मीदों की मोमबत्तियाँ जलाईं थीं ? क्या नागरिकों को 2011 की तरह ही ‘आप’ नेताओं पर हो रही कार्रवाई के ख़िलाफ़ भी फिर से खड़े हो जाना चाहिए ? (शायद) नहीं ! चीजों को सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए थोड़ा पीछे लौटना होगा :
बारह साल पहले की दिल्ली और उसके रामलीला मैदान का नज़ारा अगर याद किया जाए तो एक ऐसा माहौल बन गया था कि 1974 के बाद देश में एक नई जनक्रांति की शुरुआत होने जा रही है और उसके नायक केजरीवाल हैं।मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने जब करतल ध्वनि के बीच अन्ना आंदोलन की अधिकांश माँगें संसद में मंज़ूर कर लीं तब रामलीला मैदान में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने के बाद मैंने लिखा था :
‘’27 अगस्त 2011 का दिन स्वतंत्र भारत के इतिहास का एक अप्रतिम अध्याय बनकर एक सौ बत्तीस करोड़ नागरिकों के हृदयस्थलों पर अंकित हो गया है। सत्ता के अहिंसक और शांतिपूर्ण हस्तांतरण की यह गूंज अब दूर-दूर तक सुनाई देगी । शर्त केवल यह है कि परिवर्तन की अगुवाई करने वालों की आँखों में बेईमानी का काजल नहीं बल्कि ईमानदारी का साहस होना चाहिए।’’ क्या अंत में ऐसा ही हुआ ? अन्ना कहाँ ग़ायब हो गए ? अन्ना और केजरीवाल हक़ीक़त में किन उद्देश्यों (या लोगों!) के लिए काम कर रहे थे ? क्या केंद्र से मनमोहन सिंह की सरकार को अपदस्थ करने में संघ-भाजपा की मदद के लिए ? ख़ुद की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए ?
आंदोलन की समाप्ति के बाद केजरीवाल ने सुझाव दिया था कि मुझे भी ‘आप’ के साथ जुड़ जाना चाहिए। मैंने सहमति भी व्यक्त कर दी। हमारी दो बैठकें भी हुईं। इसी बीच ‘आप’ से जुड़े प्रमुख लोगों की (शायद) हिमाचल के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल पालमपुर में कोई महत्वपूर्ण बैठक हुई जिसमें आगे के काम की रूपरेखा पर विचार-विमर्श होना था। पालमपुर बैठक से लौटने के बाद केजरीवाल ने मुझे फ़ोन किया और अपने काम के साथ जोड़ने से पहले एक महत्वपूर्ण मुद्दे पर मेरी राय जानना चाही ! राय जानने का मुख्य मुद्दा यह था कि ‘आप’ को चुनावी राजनीति में भाग लेना चाहिए या नहीं ?
केजरीवाल को मैंने उत्तर दिया कि ‘आप’ को चुनावी राजनीति में नहीं पड़ना चाहिए। रामलीला मैदान में चले आंदोलन के ज़रिए युवाओं की जो अभूतपूर्व शक्ति प्रकट हुई है उसे संगठित करके एक देशव्यापी आंदोलन में परिवर्तित किए जाने की ज़रूरत है। यह काम कोई राजनीतिक दल नहीं कर सकता।केजरीवाल ने मेरी बात पूरी सुनी और अंत में जवाब दिया कि वे शीघ्र ही फिर संपर्क करेंगे। यह उनसे आख़िरी संवाद था।उन्होंने कोई संपर्क नहीं किया। बाद में जानकारी मिल गई कि पालमपुर बैठक में तय किया जा चुका था कि ‘आप’ चुनावी राजनीति में भाग भी लेगी और सरकारें भी बनाएगी।बाद में स्थितियां ऐसी बना दीं गईं कि प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव जैसे सिविल सोसाइटी के कई प्रतिष्ठित लोगों को केजरीवाल का साथ छोड़ना पड़ा।
यह सब की जानकारी में है कि किस तरह दिल्ली में शीला दीक्षित की सरकार को गिराने में कांग्रेस-विरोधी ताक़तों की मदद करके केजरीवाल दिसंबर 2013 में पहली बार मुख्यमंत्री बने। उसके कुछ ही महीनों बाद केंद्र में मनमोहन सिंह की सरकार भी चली गई और मोदी सत्ता में आ गए। आरोप है कि यूपीए सरकार की बर्ख़ास्तगी के उद्देश्य से अन्ना के आंदोलन पर संघ-भाजपा से जुड़े लोगों का क़ब्ज़ा हो गया था। दिल्ली विजय के बाद केजरीवाल एक-एक कर उन तमाम राज्यों में पहुँचते गए जहां भाजपा के मुक़ाबले में खड़ी कांग्रेस को कमजोर किया जा सकता था। गोवा, उत्तराखण्ड, पंजाब, गुजरात इसके उदाहरण हैं।आरोप है कि पंजाब से लगे हिमाचल को छोड़ केजरीवाल इसलिए चुनाव लड़ने गुजरात पहुँच गए कि ‘आप’ की हिमाचल में उपस्थिति से नुक़सान कांग्रेस के बजाय भाजपा को पहुँच सकता था।
शाहीनबाग का शांतिपूर्ण आंदोलन हो या तबलीगी जमात के धार्मिक लोगों के ख़िलाफ़ किया गया दक्षिणपंथी संगठनों का दुर्भावनापूर्ण प्रचार और सरकार की द्वेषपूर्ण कार्रवाई ! या फिर दिल्ली के दंगों में अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ कथित पुलिस ज़्यादतियाँ ! केजरीवाल हरेक मौक़े पर केंद्र के एजेंडे के साथ ही खड़े नज़र आए। भाजपा से लड़ने के लिए विपक्षी दलों के बीच एकता की कोशिशों से भी वे हमेशा दूरी बनाते हुए दिखे। भाजपा के सत्ता में आने के बाद जाँच एजेंसियों द्वारा कुल जितने अपराध क़ायम किए गए आरोप हैं कि उनमें 95 प्रतिशत से अधिक में विपक्षी नेताओं को ही निशाना बनाया गया।आम आदमी पार्टी पर आरोप है कि उसने कभी विपक्ष का बचाव नहीं किया। स्वयं के मामले में पार्टी अब ‘विक्टिम कार्ड’ खेल कर जनता की सहानुभूति प्राप्त करना चाह रही है !
पूछा जा सकता है कि इस समय जब केजरीवाल की हुकूमत पर प्रहार हो रहे हैं, दिल्ली की जनता 2011 की तरह ‘आम आदमी पार्टी' के साथ क्यों खड़ी नज़र नहीं आ रही है ? अंत में सवाल यह है कि क्या ‘आप’ के कमज़ोर पड़ने से देश में विपक्ष की राजनीति पर कोई विपरीत असर पड़ सकता है ? अगर ‘नहीं’ तो फिर हमें और विपक्षी दलों को ‘आप’ से कोई भी मतलब क्यों होना चाहिए ?