संपादकीय
कई राज्यों में कांग्रेस के भीतर असंतोष की खबरों से अधिक अहमियत कांग्रेस की एक दूसरी खबर को मिल रही है कि किस तरह प्रशांत किशोर ने दिल्ली में सोनिया, राहुल, और प्रियंका, तीनों से मुलाकात की है. जिन लोगों से मिलने के लिए उनकी खुद की पार्टी के मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों को हफ्तों और महीनों लग जाते हैं, उन लोगों से प्रशांत किशोर जैसा एक बाहरी व्यक्ति आकर एक दिन में तीनों से मुलाकात कर लेता है, तो इसका खबर बनना जायज भी है। फिर यह खबर बनना जायज इस नाते भी है कि अभी-अभी प्रशांत किशोर ने अपनी पूरी साख दांव पर लगाकर ममता बनर्जी के चुनाव अभियान की जैसी तैयारी करवाई थी, और जिस अंदाज में ममता बनर्जी ने देश के दो सबसे बड़े और सबसे ताकतवर नेताओं, नरेंद्र मोदी और अमित शाह को शिकस्त दी, उस ऐतिहासिक लड़ाई के परदे के पीछे सेनापति प्रशांत किशोर ही थे। इसलिए अब जब कांग्रेस पार्टी अगले बरस उत्तर प्रदेश में और पंजाब में होने वाले चुनावों को लेकर एक बहुत नाजुक मोड़ पर पहुंच रही है, तो प्रशांत किशोर का इन लोगों से मिलना कई हिसाब से बहुत अहमियत का है। लेकिन इसके पहले कि दिल्ली की अटकलें यह सुझाएँ कि प्रशांत किशोर कांग्रेस के रणनीतिकार बनने जा रहे हैं, यह भी याद रखने की जरूरत है कि अभी-अभी, कुछ दिन पहले ही उन्होंने मुंबई में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के मुखिया शरद पवार से भी मुलाकात की है, और कल शिवसेना के प्रवक्ता संजय राउत ने यह सार्वजनिक बयान दिया है कि मोदी के मुकाबले प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में शरद पवार सबसे काबिल हैं। ममता बनर्जी ने जिस अंदाज में बंगाल में मोदी और शाह को निजी शिकस्त दी है उससे कई लोगों के मन में यह बात भी उठ रही है कि क्या ममता बनर्जी मोदी के मुकाबले किसी एक मोर्चे की बड़ी नेता या सर्वमान्य नेता हो सकती हैं? इसलिए प्रशांत किशोर की कांग्रेस के राज परिवार से यह मुलाकात सिर्फ कांग्रेस के रणनीतिकार बनने की संभावनाओं से जुड़ी हों, ऐसा जरूरी भी नहीं है, यह भी हो सकता है कि वे ममता के साथ रहने के बाद, ममता से बिना किसी कटुता के, अलग हुए बिना, शरद पवार से मिलने के बाद, अब कांग्रेस से मिल रहे हैं, और क्या वे मोदी के मुकाबले किसी एक गठबंधन की संभावनाओं को टटोल रहे हैं?
यहां पर प्रशांत किशोर के बारे में थोड़ी सी बात कर लेना ठीक होगा प्रशांत किशोर संयुक्त राष्ट्र संघ में काम करके लौटे हुए एक राजनीतिक और चुनावी रणनीतिकार हैं। उन्होंने मोदी के मुख्यमंत्री के दो कार्यकाल के बाद, तीसरे कार्यकाल के लिए उन्हें जिताने के लिए काम किया था, और उसके बाद उससे भी अधिक महत्वपूर्ण काम था 2014 के आम चुनाव में मोदी को प्रधानमंत्री तक पहुंचाने की रणनीति में हिस्सेदारी का। प्रशांत किशोर चुनावी रणनीति बनाने वाले एक कामयाब व्यक्ति माने जाते हैं जिन्होंने अब तक भाजपा, कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, वाईएसआर कांग्रेस, द्रमुक, और तृणमूल कांग्रेस, ऐसी तमाम पार्टियों के लिए काम किया है, और यह जाहिर है कि वह अपनी किसी राजनीतिक सोच के बिना एक पेशेवर की तरह पार्टी चलाने और चुनाव जीतने के लिए सलाहकार की तरह, रणनीतिकार की तरह, काम करते हैं। आज प्रशांत किशोर पर यहां लिखने का मकसद कांग्रेस पार्टी में उनके जुडऩे या कांग्रेस की संभावनाएं बढ़ाने तक सीमित नहीं है। हम यह भी लिख कर बात खत्म करना नहीं चाहते कि प्रशांत किशोर मोदी के मुकाबले एक विपक्षी गठबंधन खड़ा करने में मददगार हो सकते हैं, हो सकता है कि वह इसमें काबिल हों, और हो सकता है कि सच ही उनका ऐसा एजेंडा हो, लेकिन हम फिर भी यह कहना चाहेंगे कि जो सक्रिय राजनीति में हिस्सेदार नहीं है, और जो थोड़े से वक्त तक नीतीश कुमार की पार्टी का सदस्य जरूर रहा हो, लेकिन जिसकी अपनी कोई राजनीतिक सोच और फिलासफी नहीं दिखती है, क्या उसके हाथों में भारतीय लोकतंत्र की इतनी सारी चुनौतियां रहना जायज है?
हमारी फिक्र भारतीय लोकतंत्र को लेकर अलग है और वही सबसे ऊपर है, न तो कांग्रेस की हमें ज्यादा फिक्र है और न ही मोदी की। ममता का चुनाव निपट गया है और यूपी का चुनाव भी किसी की तैयारी से, और किसी की बिना तैयारी के भी, निपट ही जाएगा। उत्तर प्रदेश ने जितना कट्टरपंथी और जितना सांप्रदायिक राज अभी देख लिया है, अब इसके बाद और कुछ बहुत ज्यादा देखने को बचता नहीं है। लेकिन देखने को जो बचता है वह यह है कि एक गैरराजनीतिक चुनावी रणनीतिकार अगर एक पेशेवर की तरह भारतीय लोकतंत्र को इस तरह मोड़ सकता है, इस तरह उसे किसी तरफ झुका सकता है, तो यह सोचने की जरूरत है कि क्या यह लोकतंत्र सचमुच ही इतनी इज्जत का सामान रह गया है? क्या हिंदुस्तानी चुनाव और आम चुनाव क्या सचमुच ही इतने महत्वपूर्ण और जनता की सोच के इतने बड़े प्रतिनिधि रह गए हैं कि उन्हें लोकतंत्र का एक फैसला मान लिया जाए? क्या यह अपने आप में भारतीय लोकतांत्रिक राजनीति की एक घोर नाकामयाबी नहीं है कि बाहर से आए हुए पेशेवर लोग इस तरह, इस हद तक भारतीय लोकतंत्र को प्रभावित कर सकते हैं, और अपनी पसंद की, अपनी छांटी हुई पार्टी को जिता सकते हैं? यह सिलसिला कुछ अजीब है लेकिन लोगों को यह सोचना है कि जिस राजनीति में हिंदुस्तान के नेताओं ने पौन-पौन सदी गुजार दी है, लेकिन वे अपने पूरे राजनीतिक जीवन के किसी भी मोड़ पर क्या सचमुच ही इतने प्रभावशाली रहे हैं जितना कि आज एक अकेले प्रशांत किशोर को मान लिया जा रहा है? और क्या देश की जनता के लिए देश के बड़े-बड़े नेताओं के मुकाबले प्रशांत किशोर की राय इतनी अधिक मायने रखती है कि उनके सुझाए नेता को या उनकी सुझाई पार्टी को लोग सत्ता पर बिठा दें?
यहां पर बात प्रशांत किशोर की खूबी की नहीं है, यहां पर बात भारतीय लोकतंत्र की खामी की है, क्या भारतीय लोकतंत्र अपने-आप में इतना कमजोर हो गया है कि वह बाहर से आए हुए किसी व्यक्ति की आंधी के झोंके में उसकी बताई दिशा में झुक जाता है? राजनीतिक दलों को यह सोचना चाहिए कि क्या वे सत्ता की लड़ाई लड़ते हुए जनता और जमीन से इस हद तक कट गए हैं कि राजनीति से परे रहने वाला एक व्यक्ति जनता के रुख को अधिक समझ रहा है, वह जनता के दिल को जीतने की अधिकतर की पहचान रहा है? अगर किसी पेशेवर की ऐसी खूबी से भारतीय लोकतंत्र की दशा और दिशा तय हो सकती है, तो भारतीय लोकतंत्र को अपने बारे में सोचना चाहिए। किशोर सौ बरस से चली आ रही पार्टियों और तीन-तीन पीढिय़ों से काम कर रहे नेता, और तमाम धार्मिक समर्थन पाकर मजबूत बनने वाले राजनीतिक दल, क्या इन सबसे ऊपर एक अकेला कोई व्यक्ति हो सकता है? तो अगर ऐसा एक व्यक्ति इतना ताकतवर हो सकता है, तो क्या उसकी मनमानी इस देश पर कोई गलत नेता भी थोप सकती है? क्या वह इस देश पर कोई सांप्रदायिक, भ्रष्ट, तानाशाह नेता भी थोप सकता है? हमारे पास प्रशांत किशोर के खिलाफ कुछ नहीं है, और ना ही उनके खिलाफ लिखने की नीयत है, लेकिन हमारे पास भारतीय लोकतंत्र के बाकी हिस्से से सवाल जरूर है कि प्रशांत किशोर नाम की एक शख्सियत को देखकर उन्हें अपने दल को, अपने आपको, और अपने पूरे राजनीतिक जीवन को तौलना जरूर चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिंदुस्तान में विज्ञान के साथ एक दूसरी दिक्कत आ खड़ी हुई है, एक तरफ तो उसे कोरोना जैसे जानलेवा संक्रमण की महामारी से जूझना पड़ रहा है, और दूसरी तरफ धर्म और राजनीति के एक जानलेवा घालमेल से भी। कई दिनों से लगातार खबरें आ रही हैं कि किस तरह पहले तो उत्तराखंड में इस बरस की कांवर यात्रा को इजाजत न देना तय हुआ था, और सरकार की घोषणा हो जाने के बाद जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कांवड़ यात्रा पर रोक लगाने से इनकार कर दिया और भाजपा के इन दो राज्यों के बीच सरहदी टकराव की नौबत का खतरा दिखा, तो पहले समझदारी का फैसला लेने वाला उत्तराखंड पीछे हट गया, और कांवड़ यात्रा के बारे में दोबारा सोच-विचार करने लगा। गुजरात की कुछ डरावनी तस्वीरें आज आई हैं कि किस तरह वहां पावागढ़ के मंदिर में एक दिन में 1 लाख लोग जुटे। हो सकता है कि देश में दूसरी जगहों पर दूसरे धर्म स्थलों पर भी ऐसी भीड़ जुटी होगी, और जाहिल फैसले और अवैज्ञानिक मनमानी पर हिंदू धर्म का एकाधिकार तो है नहीं, इसलिए हो सकता है कि दूसरे धर्मों के भी ऐसे जमघट लगे हों। हम फिलहाल किसी एक धर्म के मामले गिनाने के बजाय विज्ञान के साथ धर्म के टकराव की बात कर रहे हैं जिसे कि राजनीति बढ़ावा दे रही है।
पिछले डेढ़ बरस के लॉकडाउन के दौरान लोगों ने यह देखा था कि जब चुनावों से परे सिर्फ सरकारी समझदारी को फैसले लेने थे, तो उसने देश भर में धर्मस्थलों को बंद करवाया था। लेकिन जब चुनाव आयोग और राजनीतिक दलों को फैसले लेने थे तो उन्होंने इस महामारी के खतरे को पूरी तरह अनदेखा करके परले दर्जे की एक लापरवाही दिखाई थी। लाखों लोगों की भीड़ वाली चुनावी सभाओं पर भी रोक नहीं लगाई थी। अब ऐसी ही लापरवाही चुनाव के मुहाने पर खड़े हुए उत्तर प्रदेश में दिख रही है, जहां पर कांवड़ यात्रा को राज्य सरकार बढ़ावा दे रही है। लोगों को याद होगा कि उत्तराखंड में जब कुंभ मेला भीड़ जुटा रहा था, कुंभ मेले में पहुंचे हुए भाजपा के एक विधायक ने कैमरों के सामने दावे के साथ ही यह कहा था कि वह कोरोना पॉजिटिव हैं और उसके बाद भी वे वहां आए हैं। कायदे की बात तो यह होती कि ऐसे व्यक्ति को तुरंत गिरफ्तार किया जाता जिसने कोरोना संक्रमित होने के बाद भी ऐसी भीड़ की जगह पर पहुंचकर लोगों के लिए खतरा खड़ा किया, लेकिन यह पूरे हिंदुस्तान में आम हाल है कि देश-प्रदेश का कानून वहां की सरकार की मर्जी के मुताबिक चलता है। पुराने जमाने में एक कहावत कही जाती थी कि जिसकी लाठी उसकी भैंस, तो हिंदुस्तान का संविधान आज भी एक भैंस से अधिक मायने नहीं रखता है और सत्ता उसे अपने हिसाब से लागू करती है, और अपने हिसाब से उसकी अनदेखी करती है। इसलिए दूसरी लहर खत्म होने के पहले और तीसरी लहर आने की आशंका के बीच आज जब हिंदुस्तान में प्रधानमंत्री टीवी पर जब यह नसीहत बांटते हैं कि लोगों को तीसरी लहर रोकनी है, इसकी जिम्मेदारी लोगों पर है, तो उस वक्त लोगों को गैरजिम्मेदार बनाते हुए कुछ सरकारें ऐसे फैसले ले रही हैं।
लोगों को अभी कुछ ही दिन पहले का वह वीडियो भी याद होगा जिसमें लगातार हिमाचल के पर्यटन केंद्रों में पर्यटकों की भीड़ अंधाधुंध इकट्ठा है, और रेले की तरह घूम रही है, बिना मास्क के घूम रही है. एक छोटा सा दिलचस्प वीडियो भी सामने आया था जिसमें एक छोटा सा बच्चा प्लास्टिक का एक डंडा लिए हुए चलती हुई भीड़ के बीच बिना मास्क वाले लोगों को अकेले ही रोक रहा है कि उनका मास्क कहां है? इस देश में विज्ञान के सामने कोरोना की दिक्कत छोटी है उसके सामने बड़ी दिक्कत और बड़ी चुनौती धर्म पर सवार राजनीति, और राजनीति पर सवार धर्म है। इन दोनों से मुकाबला करने के बाद अगर विज्ञान की कोई ताकत बचेगी तो हो सकता है कि वह कोरोना से भी लड़ ले। फिलहाल इस देश का संविधान बिना वेंटिलेटर के छटपटा रहा है, और उसे जिंदा रखने में किसी की अधिक दिलचस्पी भी नहीं दिख रही है क्योंकि वह लोगों को मनमानी करने से रोकता है। पिछले कई दिनों में देखें तो हिंदुस्तान के एक पर्यटन केंद्र में प्लास्टिक के छोटे से डंडे को लेकर लोगों को जिम्मेदारी सिखाता हुआ यह बच्चा ही अकेला देख रहा है जिसे संविधान की कोई फिक्र है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पिछले कई वर्षों में दुनिया के बहुत से प्रमुख विश्वविद्यालयों ने सोशल मीडिया के लोगों पर असर को लेकर कई तरह के शोध किए हैं। उनमें से अधिक ऐसे हैं जिनका निष्कर्ष है कि लोगों पर सोशल मीडिया का सकारात्मक असर पड़ता है। लेकिन इस तरह की शोध के साथ इस बात को जोडक़र ही देखा जाना चाहिए कि इसे किन विश्वविद्यालयों ने किया है, किन देशों के लोगों पर किया है, और वहां पर सोशल मीडिया का क्या हाल है।
हम अगर हिंदुस्तान के बारे में बिना किसी शोध प्रक्रिया के, सिर्फ अपनी मामूली समझ से देखने की कोशिश करें, तो यह बात दिखती है कि इसने भारत के संकीर्ण समाज के बहुत से लोगों को एक-दूसरे के साथ जान-पहचान बढ़ाने में मदद की है। हिंदुस्तान में अधिकतर इलाकों में लडक़े-लड़कियों के साथ उठने-बैठने पर भी पिछली कई पीढिय़ों से रोक चली आ रही थी, और कम ही लोगों को एक दूसरे से बात करने का ऐसा मौका मिलता था, जो कि इस नई पीढ़ी को तो फिर भी हासिल है। इस नए सोशल मीडिया ने यह मुमकिन कर दिया है। इसके अलावा अलग-अलग शहरों के, अलग-अलग देशों के, अलग-अलग जाति और धर्म के लोगों से जान पहचान भी ऐसी आसान नहीं रहती थी कि उनकी सोच को जानने का मौका मिले। लेकिन इन दिनों सोशल मीडिया की मेहरबानी से लोगों को स्थापित लेखकों की लिखी और छपी हुई बातों से परे भी, अनगिनत अनजाने लोगों की लिखी गई तरह-तरह की बातों को पढऩे का मौका मिलता है। बिल्कुल ही असंगठित क्षेत्र के गैर पेशेवर लेखक अपनी मौलिक सोच को सोशल मीडिया पर आसानी से लिख पाते हैं और लोग न सिर्फ उन्हें पढ़ पाते हैं, बल्कि उसे आगे भी बढा पाते हैं।
इसलिए सोशल मीडिया ने लोगों के लिए एक नई दुनिया खोल दी है और इस नए संसार में वे अपनी पसंद की चीजों में खो सकते हैं। बहुत से लोग यह भी मान सकते हैं कि सोशल मीडिया लोगों का वक्त बर्बाद करता है और लोग वहां पर महज नफरत फैलाने में लगे रहते हैं। यह बात तो असल जिंदगी में भी लागू होती है। लोग जिस तरह के लोगों के साथ उठना-बैठना चाहते हैं, वैसे लोगों के साथ उठते-बैठते हैं और उनका असर उन पर कम या अधिक होता ही है। इसलिए सोशल मीडिया ने गलत लोगों के साथ संगत का कोई नया खतरा पैदा नहीं किया है, यह खतरा तो असल जिंदगी वाले जमीनी समाज में पहले से चले ही आ रहा था। अब तो बल्कि शारीरिक और सामाजिक दायरे से बाहर जाकर एक अनदेखे दायरे तक के लोगों को दोस्त बनाना मुमकिन हो गया है जो कि पहले नहीं रहता था। हिंदुस्तान में ही 25-30 बरस पहले तक कुछ लोग दूर-दूर बसे हुए लोगों को अपने पत्र-मित्र बनाते थे, और उन्हें चिट्ठियां लिखते थे, उनकी चि_ी का इंतजार करते थे। वह दौर भी गजब का था जब ऐसे लोगों की चिट्ठियों पर लगी डाक टिकटों को इकट्ठा करने वाले लोग मांगते फिरते थे। खैर हर युग का अपना एक तरीका रहता है और यह 21वीं सदी तो सोशल मीडिया की एक किस्म से आंधी लेकर आई है, और आज जो पीढ़ी इसी सदी में पैदा हुई है, उसे तो यह बात समझ भी नहीं आएगी कि फेसबुक और ट्विटर के बिना पहले के लोग रहते कैसे थे।
अब इस मुद्दे पर चर्चा की वजह यह है कि सोशल मीडिया पर लोग अपना रोज का खासा वक्त लगाते हैं, वहां पर जिन लोगों से दोस्ती होती है या मोहब्बत होती है उन पर उनकी भावनाएं भी खासी खर्च होती हैं, वक्त भी और भावनाएं भी। लेकिन भावनाओं के ऐसे संबंध उन लोगों के बहुत काम के रहते हैं जिनकी अपनी जिंदगी में उनके पास इस तरह के संबंध नहीं हैं, और सोशल मीडिया पर ही उन्हें ऐसे लोग मिले हैं। ऐसी ही कमी का फायदा उठाकर बहुत से जालसाज सोशल मीडिया पर लोगों को धोखा दे रहे हैं, उन्हें ठग रहे हैं। लेकिन ऐसा तो असल जिंदगी में भी होते ही रहता है, इसलिए सोशल मीडिया ने ऐसी ठगी को शुरू किया हो ऐसी बात भी नहीं है। पहले से बहुत से ऐसे लोग चले आ रहे हैं जिन्होंने 10-10, 20-20 लड़कियों और महिलाओं को शादी का झांसा देकर उन्हें ठगा, और उसके बाद किसी की शिकायत पर भी गिरफ्तार हुए हैं। इसलिए आज सोशल मीडिया की वजह से ऐसे हादसों की गिनती थोड़ी सी बढ़ी हुई हो सकती है, लेकिन यह कोई नई बात नहीं है।
आज की बात का मकसद यह है कि लोग क्योंकि सोशल मीडिया पर अब वक्त गुजार रहे हैं और वहां से उनकी भावनाएं जुड़ी हुई हैं इसलिए उन्हें अपनी असल जिंदगी के लिए काम की बातों को भी सोशल मीडिया पर देखना चाहिए, और यहां पर सिर्फ जन्मदिन की बधाई, और किसी तीज के त्यौहार की बधाई जैसी बातों के बजाय अपने सामान्य ज्ञान को बढ़ाने वाली, अपनी समझ को बढ़ाने वाली बातों के लिए लोगों से पहचान बढ़ानी चाहिए। सोशल मीडिया लोगों को समझदार बनाने का भी एक बड़ा माध्यम हो सकता है और लोगों को बेवकूफी में डुबाने का भी। ठीक उसी तरह जैसे कि असल जिंदगी में मोहल्ले के किसी एक कोने में 4 लोफर लडक़े आवारगी सिखाने के लिए तैयार खड़े रहते हैं, और दूसरी तरफ उसी मोहल्ले के किसी मैदान में कुछ अच्छे खिलाड़ी खेल में और खूबी पाने में लगे रहते हैं। ऐसा ही सोशल मीडिया पर लगातार चलता है और लोगों को इसका भरपूर इस्तेमाल भी करना चाहिए। उतने ही वक्त सोशल मीडिया पर रहना चाहिए जितना वक्त उनकी जिंदगी में सोशल मीडिया के लिए हो, लेकिन इतने वक्त में भी उन्हें यहां पर अपने से बेहतर लोगों से जुडऩे की कोशिश करना चाहिए उनकी बेहतर बातों को पढऩा चाहिए और बिना किसी नफरत के, बिना गालियों के, लोगों से समझ की बात करनी चाहिए। असल जिंदगी में अगर वे देखेंगे तो इतनी समझ की बात करने के लिए उन्हें लोग मुश्किल से भी नसीब नहीं होते, लेकिन सोशल मीडिया पर आसानी से होते हैं। अगर लोग यही मानकर चलें कि सोशल मीडिया पर वे अपने से अधिक समझदार लोगों को देखेंगे, ढूंढेंगे, उन्हें पढ़ेंगे और उनसे कुछ जानने-समझने की कोशिश करेंगे, तो उनके लिए सोशल मीडिया एक बहुत ही सकारात्मक औजार बनकर सामने आ सकता है।
पिछले एक-डेढ़ बरस से लॉकडाउन की वजह से लोगों को घरों से काम करना पड़ा, स्कूल और कॉलेज के बच्चों को घरों में पढ़ना पड़ा, और घरों से ही इम्तिहान भी देना पड़ रहा है। इन सबको अगर देखें तो यह लगता है कि हिंदुस्तान जैसे देश में भी जहां एक बड़ा गरीब तबका डिजिटल टेक्नोलॉजी, इंटरनेट, और स्मार्टफोन के बिना था, उसके बीच भी इन सबकी घुसपैठ बड़ी तेजी से हुई है। हम अभी भी यह मानते हैं कि हिंदुस्तान में लॉकडाउन ने, और तमाम ऑनलाइन काम ने, गरीबों और अमीरों के बीच एक बड़ी डिजिटल खाई को और गहरा और चौड़ा किया है। लेकिन यह बात भी समझना चाहिए कि कुछ वर्षों के अमीर-गरीब मुकाबले के नुकसान के बावजूद, आज हिंदुस्तान में डिजिटल काम जिस तरह से बढा है और कागज का काम जिस तरह से कम हुआ है, क्या उससे दुनिया में कागज पर दबाव घटा है?
यह बात सिर्फ हिंदुस्तान में नहीं रही कि अधिक लोगों को घरों से ऑनलाइन काम करना पड़ा, बाकी दुनिया में भी ऐसा हुआ। विकसित देशों में और अधिक हद तक हुआ, भारत से कम विकसित देशों में भी कुछ सीमा तक तो यह हुआ ही है। कुल मिलाकर हुआ यह है जिंदगी में कंप्यूटर और स्मार्टफोन का जो काम था वह एकदम से बढ़ गया। और इसके साथ ही कागज का काम घटा भी है। बहुत से ऐसे लोग हैं जिन्होंने कोरोना लॉकडाउन के दौरान संक्रमण के खतरे से बचने के लिए गैरजरूरी कागजों को छूना बंद कर दिया जिनमें अखबार और पत्रिकाएं भी शामिल थे। उनकी जगह इनको ऑनलाइन पढ़ना शुरू किया और धीरे-धीरे ऑनलाइन उन्हें बेहतर लगने लगा। अब एक बुनियादी सवाल यह उठता है कि क्या लॉकडाउन के इस लंबे दौर ने लोगों को इस बात के लिए तैयार किया है कि वे कागज का कम इस्तेमाल करें और कंप्यूटर या स्मार्टफोन का अधिक इस्तेमाल करें?
इसके अलावा सरकारों के ऊपर भी यह जिम्मेदारी आती है कि क्या वे कागज के विकल्प के रूप में स्क्रीन को बढ़ावा देने के काम को और योजनाबद्ध, और व्यवस्थित तरीके से आगे बढ़ा सकते हैं? यह मामला थोड़ा मुश्किल है क्योंकि अभी तो एक बड़ी आपदा के रूप में सरकारों ने किसी भी तरह सब कुछ ऑनलाइन करने की कोशिश की और जैसे ही साल-छह महीने में संक्रमण का खतरा घटेगा, हो सकता है सरकार फिर से अपने परंपरागत तौर-तरीकों पर लौट आएं। लेकिन इस मौके को एक सबक के रूप में भी लेना चाहिए कि कागज के काम को कैसे-कैसे कम किया जा सकता है, खासकर सरकार को अपनी कागजी खानापूरी घटाने की बात सीखने का यह एक बड़ा सही मौका आया है।
अब हम इस मुद्दे पर लिखने के पीछे की आज की अपनी वजह पर आते हैं कि क्या डिजिटल तकनीक और डिजिटल उपकरणों से धरती के पेड़ों पर दबाव घट सकता है? अगर कागज की खपत घटेगी तो हो सकता है कि धरती पर पेड़ भी कम कटने लगें और कागजों की वजह से कटने वाले पेड़ बच जाएं। इसलिए आज जब धरती पर डिजिटल उपकरणों का कचरा बढ़ने का एक खतरा दिख रहा है वहां यह भी समझने की जरूरत है कि क्या धरती पर पहले से मौजूद पेड़ों के कटने का जो खतरा था क्या उसके घटने की संभावना भी साथ-साथ नहीं दिख रही है? राज्य सरकारों को और सरकार के बाहर के संस्थानों को भी यह सोचने की जरूरत है कि लॉकडाउन के दौरान बिना कागजों के जो काम हो सका है उनके लिए आगे फिर कागजों की एक शर्त क्यों लागू की जाए?
राज्य सरकारें चाहें तो अपने आपको पूरी तरह कागजमुक्त बनाने के लिए एक योजना बना सकती हैं और इसके लिए सरकारी ढांचे के बाहर के कल्पनाशील और जानकार विशेषज्ञों को रखना जरूरी होगा क्योंकि सरकारी अधिकारी और कर्मचारी उनके सामने पेश किए जाने वाले कागजों पर ही अपनी सत्ता चलाने के आदी रहते हैं। अगर सामने कागज नहीं रहेंगे तो उन्हें लगेगा कि उनका साम्राज्य खत्म हो रहा है, उनका अधिकार खत्म हो रहा है। इसलिए जरूरत यह है कि सरकार बाहर के लोगों को लेकर आएं और उनसे अपने कामकाज में इस तरह की मरम्मत करवाएं कि बिना कागजों के क्या-क्या काम किए जा सकते हैं। पिछले डेढ़ बरस की डिजिटल तकनीक इस्तेमाल ने यह संभावना दिखाई है कि लोग बिना कागजों के या काफी कम कागजों के साथ जी सकते हैं। इस संभावना को आगे बढ़ाने की जरूरत है और एक-एक कागज की जरूरत को घटाने का मतलब एक-एक पेड़ को बचाना भी होगा, यह भी याद रखना चाहिए।
किसी भी लोकतंत्र में बड़ी अदालतों के कई आदेश और फैसले दोनों ही बड़े दिलचस्प तो होते हैं, और उनसे देश में सरकारी कामकाज या सार्वजनिक जीवन को लेकर बहुत से नए पैमाने भी तय होते हैं। अभी सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की एक बेंच ने उत्तर प्रदेश हाई कोर्ट के एक आदेश को खारिज किया और अदालत को एक समझाइश दी है। बड़े कड़े शब्दों में अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अदालतों को अफसरों को व्यक्तिगत रूप से कोर्ट में पेश होने के लिए कहने का सिलसिला अच्छा नहीं नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के जजों से कहा कि सरकारी अधिकारियों के जिम्मे भी बहुत तरह के काम रहते हैं, और उन्हें बात-बात पर मनमाने ढंग से अदालत में व्यक्तिगत रूप से मौजूद रहने के लिए कहना, जनता के कामकाज का नुकसान है। इन जजों ने कहा कि जजों को सम्राट की तरह बर्ताव नहीं करना चाहिए और उन्हें अपनी सीमाएं मालूम होना चाहिए। उनके बर्ताव में शालीनता और विनम्रता रहनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने साफ साफ कहा कि किसी अधिकारी को अदालत में बुलाने से अदालत की गरिमा और महिमा नहीं बढ़ती है। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी माना कि बहुत से जज अधिकारियों को अपनी अदालत में बुलाकर और उन पर दबाव बनाकर अपनी इच्छा के अनुसार काम करवाने का आदेश पारित करवाने की कोशिश भी करते हैं। अदालत ने यह भी कहा कि अधिकारियों को बार-बार अदालत में बुलाने की कड़े शब्दों में निंदा करनी चाहिए।
अब यह मामला दिलचस्प है इसलिए है कि जनहित के कुछ बड़े मुद्दों पर जिनमें कि सरकार लापरवाही बरतती हैं उनमें हम भी अदालतों को ऐसे सुझाव देते आए हैं कि अफसरों को बुलाकर कटघरे में खड़ा करना चाहिए और दिन भर वहां खड़ा रखा जाए तो सरकार का कामकाज ठीक होने लगेगा। यह हमारी अपनी सोच है लेकिन सुप्रीम कोर्ट का यह ताजा आदेश इस सोच के खिलाफ है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने किसी अफसर को अदालत में बुलाने के खिलाफ कोई आदेश नहीं दिया है लेकिन अफसरों को बार-बार बुलाने के मिजाज के खिलाफ बात कही है। ऐसे में देश के अलग-अलग हाईकोर्ट के सामने यह ताजा फैसला तब तक एक मिसाल रहेगा जब तक कि सुप्रीम कोर्ट की इससे बड़ी कोई बेंच इसके खिलाफ कोई बात ना करे। किसी किसी बड़े जनहित के मुद्दे पर और सरकारी अफसरों की सोची समझी अनदेखी पर हमें भी ऐसा लगता है कि उन्हें अदालत में बुलाकर फटकार लगानी चाहिए। अब सुप्रीम कोर्ट ने बाकी जजों को यह याद दिलाया है कि उन्हें जो कहना है वे अपने लिखित आदेश या फैसले में कह सकते हैं, उसके लिए अफसरों को वहां बुलाकर खड़ा रखना जरूरी नहीं है, और उनके अदालतों तक आने-जाने से जनता के प्रति उनकी जो जिम्मेदारी है उसकी भी अनदेखी होती है।
सुप्रीम कोर्ट ने जजों को सम्राटों की तरह बर्ताव ना करने की जो नसीहत दी है उसकी एक ताजा मिसाल अभी बंगाल में सामने आई। वहां एक हाई कोर्ट के जज के पास ममता बनर्जी का एक मामला पहुंचा और ममता बनर्जी ने यह संदेह जाहिर किया कि इस जज से उन्हें इंसाफ नहीं मिल सकेगा क्योंकि वे पहले भाजपा के सदस्य रह चुके हैं। इस बात पर जज ने ममता बनर्जी पर पांच लाख रुपये का एक जुर्माना ठोक दिया। इस अकेले मुद्दे पर लिखने से हम बच रहे थे लेकिन अभी सुप्रीम कोर्ट का यह नया फैसला जो कहता है उसकी रोशनी में जब बंगाल के इस जज के इस आदेश को देखते हैं, तो लगता है कि सम्राट की तरह बर्ताव बंगाल के इस जज के मिजाज में भी है। अगर कोई जज किसी एक राजनीतिक दल का सदस्य रहा हुआ है तो उसे उसके विरोधी रहे हुए राजनीतिक दल के नेता के बारे में मामले को सुनने से वैसे भी बचना चाहिए था। बहुत से जज तो खुद होकर भी बहुत से मामले छोड़ देते हैं लेकिन इस जज ने ममता बनर्जी पर जुर्माना लगा दिया। अब ममता बनर्जी इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करने जा रही हैं और हमारा अंदाज यह है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला ममता के पक्ष में होगा और कोलकाता हाई कोर्ट के जज का लगाया हुआ यह जुर्माना रद्द हो जाएगा। लोगों को इस बात का पूरा हक है कि वे किसी वजह से उन्हें इंसाफ न मिलने की अपनी आशंका जाहिर कर सकें और किसी दूसरे जज के पास अपने मामले को भेजने की अपील कर सकें। जब संविधान में ही ऐसा प्रावधान किया गया है तो फिर इसे अपमानजनक कैसे कहा जा सकता है। पश्चिम बंगाल की राजनीति में ममता बनर्जी और भाजपा के बीच जितने हिंसक और तनावपूर्ण संबंध हाल के वर्षों में रहे हैं, वे सबके सामने हैं। भाजपा से जुड़े रहे एक जज से अपने मामले की सुनवाई में अगर उन्हें इंसाफ की गुंजाइश नहीं दिखती है, तो इसमें कोई अटपटी बात नहीं है। ऐसे में ऐसे जज को कोई जुर्माना सुनाकर अपनी व्यक्तिगत नापसंदगी को इस तरह से उजागर भी नहीं करना था।
इसी सिलसिले में यह भी समझने की जरूरत है कि देश में बहुत से हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जज मामलों की सुनवाई के दौरान कई केस में जुबानी बातें कहते हैं जो कि बाद में उनके आदेश या फैसले का हिस्सा नहीं रहतीं, लेकिन चूंकि वे सुनवाई के दौरान इन बातों को कहते हैं, इससे उनका रुख भी उजागर होता है और इससे बाकी लोगों को भी एक संदेश मिलता है। हमारे हिसाब से ऐसा जुबानी जमाखर्च चाहे कितना ही लुभावना क्यों न हो, उससे जजों को बचना चाहिए क्योंकि इनके खिलाफ कोई अपील भी नहीं हो सकती। यह आदेश और फैसले से अलग ऐसी टिप्पणियां रहती हैं जिनके खिलाफ ना कोई मानहानि का मुकदमा किया जा सकता है कमा और ना ही इनके खिलाफ ऊपर की बड़ी अदालत में कोई पुनर्विचार याचिका लगाई जा सकती। हमारा ऐसा मानना है कि बहुत से बड़े जज बहुत किस्म की अप्रासंगिक बातें भी करने पर उतारू हो जाते हैं, उससे लोगों के ऊपर एक गैरकानूनी और नाजायज हमला हो जाता है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट को किसी फैसले में यह जिक्र भी करना चाहिए कि हाईकोर्ट के जज सुनवाई के दौरान अपनी निजी राय को जुबानी बहुत अधिक सामने ना रखें, क्योंकि वे जो चाहते हैं उसके लिए औपचारिक आदेश जारी कर सकते हैं, और उनके वैसे आदेश को चुनौती भी दी जा सकती है, लेकिन उनकी जुबानी बातों को कोई चुनौती भी नहीं दी जा सकती। इसलिए जजों को सम्राटों की तरह मनमानी बातें कहने का हक भी नहीं रहना चाहिए और इस बारे में भी बड़ी अदालतों को फैसले में लिखना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
विज्ञान और जिंदगी की हकीकत कई बार साथ-साथ चलते हुए दिखती हैं, लेकिन कई बार वे साथ-साथ नहीं भी चलतीं। विज्ञान की हकीकत यह है कि वह एटॉमिक बम बना सकता था और उसने बनाया, लेकिन जिंदगी की हकीकत यह थी कि अमेरिका ने उस बम को जापान पर गिरा दिया, लाखों लोग मारे गए और दसियों लाख लोग उसकी वजह से तरह-तरह के प्रदूषण की बीमारी के शिकार हुए। यहां पर विज्ञान की कामयाबी को इंसान ने नाकामयाब कर दिया और उसका बुरा इस्तेमाल किया। वह ताकत किसी काम नहीं आई और लोगों का नुकसान कर गई। लेकिन उस बम को बनाने के पहले की टेक्नोलॉजी में कामयाबी, और बम को बनाने में कामयाबी, यह तो वैज्ञानिकों के नाम दर्ज हुई है। इसी तरह आज दुनिया भर में तरह-तरह की बीमारियों से बचाव के लिए बचपन से ही लोगों को दर्जनों वैक्सीन लगते हैं, बाद में तरह-तरह की ऐसी जांच होती है जिससे बीमारियों का बहुत शुरुआती दौर में ही पता लग जाता है। दुनिया की गरीबी कम से कम एक तबके के लिए तो घट ही रही है, और इस तबके को बेहतर खानपान, बेहतर और साफ-सुथरी जिंदगी हासिल है। नतीजा होता है कि उसकी औसत उम्र बढ़ती जा रही है। वैसे तो सबसे गरीब और सबसे कमजोर तबके को जोडक़र भी धरती के लोगों की औसत उम्र लगातार बढ़ रही है। ऐसे में लोगों के बीच जो संपन्न तबका है उसकी औसत उम्र हो सकता है कि और तेजी से आगे बढ़ रही हो, और अधिक आगे बढ़ रही हो।
अब वैज्ञानिकों ने रिसर्च करके यह निष्कर्ष निकाला है कि इस सदी के अंत तक इंसान हो सकता है कि 130 बरस की उम्र तक जिंदा रह सकें। अमेरिका की वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने दुनिया के दूसरे देशों के विज्ञान के आंकड़ों को लिया और अपना नतीजा निकाला है। उनका मानना है कि आने वाले वर्षों में इंसान की औसत उम्र बढ़ते चलेगी। आज दुनिया में 10 लाख से अधिक लोग ऐसे हैं जो 100 बरस की उम्र पार करके भी जिंदा है, इनमें से 600 से अधिक लोग ऐसे हैं जो 110 या 120 बरस भी पार कर चुके हैं। इसलिए इंसान अमर होने की दिशा में एक-एक इंच आगे बढ़ रहे हैं, और इस सैद्धांतिक संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि लोग काफी लंबा जीने लगेंगे।
एक तरफ तो यह चिकित्सा विज्ञान की एक कामयाबी रहेगी कि वह लोगों को अधिक उम्र तक जिंदा रख पाएगा, और लोगों को बीमारियों से बचा कर भी रखेगा, बीमार होने पर ठीक भी कर सकेगा, और मौत को हम से दूर रखेगा, लेकिन दूसरी तरफ परिवार और समाज के नजरिए से देखें तो यह लगता है कि हर कुछ बरस में लोगों की औसत उम्र कुछ-कुछ बरस अगर बढ़ती चली जाएगी तो क्या समाज उनके उसके हिसाब से तैयार हो सकेगा, परिवार उसके हिसाब से तैयार हो सकेंगे? यह बात किसी झटके के साथ नहीं आने जा रही क्योंकि अगले बरस लोग 10-20 बरस अधिक जीने वाले नहीं होने वाले हैं, वह अपनी जिंदगी की लंबाई को धीरे-धीरे ही बढ़ते देखेंगे, और हो सकता है कि इस सदी की बची हुई करीब 4 पीढिय़ों की औसत उम्र में लोग हर पीढ़ी में 10-10 बरस और अधिक जीने वाले हों। इसलिए यह रातों-रात नहीं होने जा रहा है कि लोगों ने अपने माता पिता को तो 80 बरस में मरते देखा था और अब वे खुद सीधे 100 बरस में मरेंगे। उम्र का यह बढऩा धीरे-धीरे होगा, कुछ चुनिंदा लोगों में होगा, और आबादी का बहुतायत तो इतना लंबा फिर भी नहीं जी सकेगा। इसलिए यह एक बड़ा सामाजिक मुद्दा नहीं बनने जा रहा है कि एक समाज का एक बड़ा हिस्सा सवा सौ बरस का हो जाए। लेकिन यह समझने की जरूरत है कि समाज में अगर कुछ फीसदी लोग भी 100 बरस पार करके इतना लंबा जीने वाले हैं तो उस समाज की जरूरतें क्या होंगी? क्या उनके परिवार सचमुच ही इतने लंबे समय तक अपने बुजुर्गों का जरूरत की हद तक साथ दे पाएंगे? या फिर समाज और सरकार को आज के वृद्धाश्रमों की तरह, अति वृद्ध लोगों के आश्रम के बारे में भी सोचना पड़ेगा, जिनकी जिंदा रहने की जरूरतें आज के वृद्ध लोगों के मुकाबले भी अलग होंगी, उनकी इलाज की जरूरतें भी अलग होंगी। यह भी समझना पड़ेगा कि इतने बुजुर्ग लोगों के इलाज के लिए, उनकी मदद के लिए किस किस्म का ढांचा लगेगा। अच्छी बात यही है कि आज समाज के पास इसकी तैयारी करने का वक्त है, और इंसानों में लंबी उम्र रातों-रात पहुंचने वाले कोरोना वायरस की तरह रातों-रात नहीं आने वाली है, बल्कि वह धीमी रफ्तार से आएगी। हमने हिरोशिमा-नागासाकी पर अमेरिकी बम गिरने की जो बात शुरू में कही है, यह बुढ़ापा उस तरह रातों-रात सिर पर नहीं गिरने वाला है, फिर भी एक जो बड़ी बात रहेगी वह कि समाज में बुजुर्ग अधिक संख्या में रहेंगे और उनके अधिक वक्त तक जिंदा रहने की संभावना रहेगी, या कि कुछ परिवारों पर बोझ के हिसाब से देखें तो, आशंका रहेगी।
चिकित्सा विज्ञान को भी अपनी एक अलग शाखा विकसित करनी होगी जो वृद्ध और अति वृद्ध लोगों की जरूरतों को देख सके, सरकारों को भी अति वृद्ध आश्रम को कम से कम सैद्धांतिक रूप से तो सोच-विचार में लाना पड़ेगा और उसकी तैयारी करनी पड़ेगी। इसके अलावा सरकारें यह भी सोच सकती हैं कि लोग अपने अति बुढ़ापे के वक्त के लिए किस किस किस्म के बीमे का इंतजाम कर सकते हैं और अभी से कर सकते हैं। बीमा कंपनियां खुद भी लोगों के सामने अभी से ऐसी संभावनाओं को लेकर तरह-तरह की पॉलिसी रख सकती हैं कि वे किस-किस किस्म के बुढ़ापे के लिए रहने खाने, और इलाज, तमाम किस्म का बीमा कर रही हैं। आज लोगों को भी यह समझ आना चाहिए कि आज तो वे जवान हैं, लेकिन 50 वर्ष बाद अगर उन्हें यह समझ आएगा कि अभी 20 बरस की जिंदगी और बाकी है, तो उस 20 बरस का इंतजाम क्या होगा?
आज भी बहुत से जवान, कामयाब, और खाते-पीते लोगों ने अपने मां-बाप को वृद्ध आश्रम में भेज ही दिया है, और हो सकता है यह सिलसिला बढ़ते चले। शहरों में जहां मकान छोटे हैं, और पति-पत्नी दोनों काम करने वाले हैं, वहां हो सकता है कि उनकी जिंदगी में बुजुर्ग मां-बाप को साथ में रखने में दिक्कत हो, इसलिए आने वाला वक्त अगर लोगों को अमर करने वाला नहीं है, तो कम से कम देर से मारने वाला जरूर है। इसलिए समाज और सरकार को, बीमा कंपनियों को, समाजसेवी संगठनों को इस दिन के हिसाब से तैयारी रखनी चाहिए कि आने वाली हर पीढ़ी दस-दस बरस अधिक जिंदा रह सकती है, और सदी के अंत तक हो सकता है कि कुछ फ़ीसदी लोग सवा सौ बरस उम्र तक के रहें। आज जो लोग खा-कमा रहे हैं और जिनके पास भविष्य में झांकने के लिए कुछ इंतजाम है, उन्हें अपने-आपको सवा सौ बरस का देखते हुए एक कल्पना करनी चाहिए और उसका इंतजाम करना चाहिए लेकिन ऐसा इंतजाम कोई व्यक्ति अपने अकेले के स्तर पर शायद नहीं कर सकेंगे, जब तक उन्हें बैंक, बीमा कंपनियां, सरकार, और सामाजिक संगठन सभी मिलकर तरह-तरह के विकल्प न दें।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिंदी की एक जानी-मानी लेखिका मैत्रेयी पुष्पा हाल के महीनों में अपने कई सोशल मीडिया बयानों को लेकर बहस का सामान बनी हैं। बहुत से लोगों का यह मानना है कि उन पर उम्र का असर हो रहा है और वह बहुत ही रद्दी किस्म की बातें लिख रही हैं। हम पुरानी बातों को तो नहीं देख पाए लेकिन अभी उन्होंने एक ताजा फेसबुक पोस्ट में कह दिया है कि जो खुद तलाकशुदा हैं या पति से अलग हैं वे किसी दूसरे के तलाक के उचित अनुचित (होने) पर बहस कर रही हैं, और इसके साथ उन्होंने हैरानी जाहिर करने वाला निशान भी पोस्ट किया है। बहुत से लेखकों के साथ ऐसा होता है कि वे लिखते-लिखते थक जाते हैं, और उसके बाद सोशल मीडिया पर जब वे अपनी रचनाओं से परे कुछ लिखते हैं तो उनके असली रंग सामने आते हैं जो कि उनके पहले के लेखन में नहीं दिखे रहते। टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे बड़े अखबार में प्रधान संपादक रहे हुए गिरिलाल जैन के वहां काम करते हुए लोगों को यह एहसास नहीं हुआ था कि वे संघ की विचारधारा के हैं, लेकिन जब वहां से रिटायर होने के बाद उन्होंने बाहर लिखना शुरू किया, तो वे संघ परिवार के एक पसंदीदा लेखक बन गए थे, और संघ के प्रकाशनों में छपने लगे थे। साहित्यकार तो पत्रकारों से कुछ अलग होते हैं और वे कल्पनाशील बातें अधिक लिखते हैं और उसमें उनकी विचारधारा कई बार तो सामने आती है और कई बार सामने नहीं भी आ पाती है। मैत्रेयी पुष्पा हिंदी की जानी मानी लेखिका है और इतने परिचय के साथ ही हम इस बात को आगे बढ़ाना चाहते हैं।
यह पहला यह अनोखा मौका नहीं है जब किसी ने यह लिखा हो कि कौन लोग किन मुद्दों पर लिखने के हकदार होते हैं। लोगों को याद होगा कि साहित्य में एक ऐसे आंदोलन का दौर आया था जब दलित लेखकों ने यह मुद्दा उठाया था कि गैरदलित लोग दलित साहित्य क्यों लिख रहे हैं? उनका यह मानना था कि जो लोग उसी तकलीफ से नहीं जूझ रहे हैं, जिन्होंने वह सामाजिक प्रताडऩा नहीं झेली, वे लोग भला कैसे दलितों के मुद्दों पर लिख सकते हैं? हो सकता है यह यह बात कुछ या काफी हद तक सही भी हो और यह भी हो सकता है कि दलितों के बीच के लेखक दलित मुद्दों पर जितनी तल्खी के साथ लिख सकते हैं, उतनी तल्खी के साथ गैरदलित लेखक उन मुद्दों पर शायद ना भी लिख पाएं। फिर भी यह सवाल हमेशा बने रहेगा कि क्या गैरदलितों का दलित साहित्य लिखना नाजायज है और क्या दलित साहित्य में लेखक का अनिवार्य रूप से दलित होना जरूरी है? कुछ ऐसा ही एक मुद्दा तलाकशुदा महिला को लेकर है मैत्रेयी पुष्पा ने उठाया है कि जो महिलाएं खुद तलाकशुदा हैं, या पति से अलग हैं, वे किसी दूसरे के तलाक के उचित या अनुचित होने पर बहस कर रही कर रही हैं? वे एक किस्म से इस पर हैरानी भी जाहिर कर रही हैं, लेकिन दूसरी तरफ उन्हें इस बात पर आपत्ति भी दिखाई पड़ती है। अब सवाल यह उठता है कि अगर यातना के किसी दौर से गुजरने के बाद ही किसी का उस पर लिखने का हक हो, या जो तलाकशुदा हूं उनको तलाक सही या गलत होने के किसी के मामले पर लिखना चाहिए या नहीं, तो ऐसी सीमाओं में लोगों और मुद्दों को बांधना है शायद ज्यादती होगी। ऐसे में तो देह के धंधे में फंसी हुई कोई महिला वेश्याओं के मुद्दों पर लिखे या ना लिखें? मैत्रेयी पुष्पा के उठाए सवाल, उनकी उठाई आपत्ति, का एक बड़ा आसान सा जवाब यह है कि जो महिलाएं ऐसे दौर से गुजरी हैं वे महिलाएं शायद इस मुद्दे पर लिखने की अधिक क्षमता रखती हैं, वे शायद तलाक के मुद्दे पर लिखने की एक बेहतर समझ रखती हैं। मैत्रेयी की बात पर एक सवाल यह भी उठ सकता है कि गैर तलाकशुदा महिलाएं भला क्या खाकर तलाक के मामले में लिख सकती हैं? जिन्होंने तलाक को भोगा नहीं है, या तलाक का मजा नहीं पाया है वे भला तलाक को क्या जानें? तो यह सिलसिला कुछ अटपटा है जो कि किसी लेखक के ऐसे किसी मुद्दे से अछूते रहने की उम्मीद करता है।
इस तर्क के विस्तार को देखें तो जो लोग मजदूर नहीं हैं वे मजदूर संगठनों के नेता कैसे हो सकते हैं? और जो आदिवासी नहीं है वे आदिवासियों के बीच नक्सली संगठनों के नेता कैसे हो सकते हैं? ऐसी बहुत सी बातें हैं कि किसी व्यक्ति का यातना के उस दौर से गुजरना या तजुर्बे के उस दौर से गुजरना उन्हें लिखने का अधिक हकदार बना दे या कि उनसे लिखने का हक छीन ले, यह कुछ तंगदिली और तंग नजरिए की बात लगती है। ऐसे में तो अनाथ रह गए बच्चों के बारे में लिखने के लिए किसी के अनाथ होने को जरूरी मान लिया जाए या फिर यह कह दिया जाए कि वह तो खुद ही अनाथ थे और वह भला अनाथों के बारे में क्या लिख सकते हैं? यह सिलसिला कुछ कुतर्क का लग रहा है। और हम फिलहाल उस सबसे ताजा मिसाल को लेकर बात करें जिसे लेकर आज का यह मुद्दा शुरू हुआ है, तो तलाक के मामले में कुछ लिखने के लिए एक तलाकशुदा या अकेली महिला तो गैरतलाकशुदा महिला के मुकाबले कुछ अधिक और बेहतर ही समझ रखती होगी।
अभी तक हमने जगह-जगह विचारधारा की शुद्धता, या धर्म और जाति की शुद्धता के आग्रह और दुराग्रह तो देखे थे, लेकिन अब तलाक के मुद्दे पर लिखने के लिए तलाकशुदा ना होने की शुद्धता का आग्रह बड़ा ही अजीब है ! और यह भी बताता है कि अच्छे-भले लिखने वाले लोग भी एक वक्त के बाद किस तरह चुक जाते हैं।
सुप्रीम कोर्ट के हुक्म से भी इस कदर बेपरवाह सरकारें
हिंदुस्तान एक बड़ा अजीब सा लोकतंत्र हो गया है जहां पर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के दिए हुए आदेश भी अमल में लाने से सरकारें लंबे समय तक कतराती हैं। अभी दो-चार दिन पहले ही उत्तर प्रदेश सरकार के बारे में वहां के हाईकोर्ट ने यह कहा कि हम यह समझ नहीं पा रहे हैं कि सरकार हमारे आदेश पर अमल करने से कतराती क्यों हैं? और कल सुप्रीम कोर्ट के सामने यह मुद्दा आया कि सूचना तकनीक कानून की जिस विवादास्पद धारा 66-ए को उसने 2015 में ही निरस्त कर दिया था, उसी धारा के तहत देश भर में आज भी मुकदमे दर्ज किए जा रहे हैं। एक जनहित याचिका पर फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने आईटी एक्ट के सेक्शन 66-ए को असंवैधानिक घोषित किया था, और तबसे अब तक पूरे देश में हजारों मामले इसी धारा के तहत दर्ज होते आ रहे हैं, अब सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को नोटिस देकर इस पर जवाब मांगा है। किसी लोकतंत्र में यह कल्पना आसान नहीं है कि देश की सबसे बड़ी अदालत किसी कानून की किसी धारा को असंवैधानिक घोषित कर दे और 6 साल बाद तक पूरे देश भर की पुलिस उसके तहत मुकदमे दर्ज करती रहे।
लोगों को यह मामला याद होगा कि आईटी एक्ट के तहत बहुत से लोगों पर इस बात को लेकर राज्यों की पुलिस कार्रवाई कर रही थी कि उन्होंने सोशल मीडिया पर या किसी को भेजे गए संदेश में किसी के लिए अपमानजनक मानी जाने वाली बात लिखी, या कोई आपत्तिजनक बात लिखी, या कोई झूठी सूचना भेज दी, या अपनी पहचान छुपाकर कुछ भेज दिया। ऐसे में पुलिस अंधाधुंध मामले दर्ज कर रही थी, और थाने के स्तर पर ही यह तय होने लगा था कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहां लागू नहीं होती है। ऐसे में कानून की एक छात्रा ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी और उस छात्रा की व्याख्या के मुताबिक अदालत ने इस धारा को असंवैधानिक माना और खारिज कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि कोई सामग्री या संदेश किसी एक के लिए आपत्तिजनक हो सकता है, और दूसरे के लिए नहीं। उस वक्त के जज जस्टिस जे चेलमेश्वर और जस्टिस रोहिंटन नरीमन की बेंच ने यह कहा था कि यह प्रावधान संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को प्रभावित करता है क्योंकि 66ए का दायरा बहुत बड़ा है और ऐसे में कोई भी व्यक्ति इंटरनेट पर कुछ भी पोस्ट करने से डरेंगे, इस तरह या धारा फ्रीडम आफ स्पीच के खिलाफ है, यह विचार अभिव्यक्ति के अधिकार को चुनौती देती है। ऐसा कहते हुए अदालत ने इस एक सेक्शन को असंवैधानिक करार दे दिया था।
अब सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर हैरानी जाहिर की है कि जब इस कानून के मूल ड्राफ्ट में भी 66ए के नीचे लिखा गया है कि सुप्रीम कोर्ट इसे निरस्त कर चुका है, तो पुलिस इसे क्यों नहीं देख पा रही है। अदालत ने हैरानी जाहिर करते हुए 2 हफ्ते में केंद्र सरकार से जवाब मांगा है और कहा है कि अदालत इस पर कुछ करेगी। इस बार की यह नई जनहित याचिका पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज पीयूसीएल ने लगाई थी और केंद्र सरकार को यह निर्देश देने की मांग की थी कि देश के तमाम थानों को एडवाइजरी जारी करें कि आईटी एक्ट की धारा 66ए में केस दर्ज न किया जाए। पीयूसीएल के वकील ने अदालत को बताया कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के 6 बरस बाद भी देश में अभी हजारों केस इसी धारा के तहत दर्ज किए गए हैं।
दरअसल हिंदुस्तानी लोकतंत्र का मिजाज कुछ इस तरह का हो गया है कि सत्ता को जो बात नापसंद हो, उस बात को लेकर लगातार पुलिस का इस्तेमाल एक औजार और एक हथियार की शक्ल में किया जाता है और लोगों को परेशान करने की नीयत से उनके खिलाफ मुकदमे दर्ज किए जाते हैं। हमारे हिसाब से तो सुप्रीम कोर्ट के 6 बरस पहले के बहुत साफ-साफ फैसले का जितना प्रचार-प्रसार हुआ था, उससे भी राज्यों के महाधिवक्ताओं की यह जिम्मेदारी हो गई थी कि वे अपनी सरकारों को इसकी जानकारी ठीक से दें और राज्य के सभी पुलिस अधिकारियों की यह जिम्मेदारी हो गई थी कि इस धारा के तहत कोई जुर्म दर्ज न किया जाए। ऐसे में यह देखने की जरूरत है कि जिन सरकारों की अदालत की तौहीन करते हुए ऐसी हिमाकत करने की सोच रही है, उन्हें कटघरे में क्यों न खड़ा किया जाए? इस बात में क्या बुराई है अगर जिम्मेदार आला अफसरों को सुप्रीम कोर्ट व्यक्तिगत रूप से कटघरे में दिनभर खड़ा रखें और उसके बाद इनको जो सजा देना ठीक लगे वह दे। कटघरे में गुजारा गया एक दिन राज्यों के बड़े बड़े अफसरों को, और केंद्र सरकार की भी पुलिस को, अपनी याददाश्त बेहतर बनाने में मदद करेगा।
अभी कुछ महीने पहले ही एक और मामला सामने आया था जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने याद दिलाया था कि राजद्रोह के नाम पर जो मुकदमे दर्ज किए जा रहे हैं उनके खिलाफ तो सुप्रीम कोर्ट का कई दशक पहले का एक फैसला ऐसा आया हुआ है जो बतलाता है कि किस तरह के मामलों में राजद्रोह का जुर्म नहीं बन सकता, लेकिन उसके दशकों बाद भी आज तक इस देश में बात-बात पर टुटपुँजिया मुद्दों को लेकर नौजवानों और सामाजिक कार्यकर्ताओं पर, बूढ़े लोगों और विचारकों पर, लगातार राज्य द्रोह के मुकदमे दर्ज होते जा रहे हैं। कुछ महीने पहले जब सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया और उसमें यह बात लिखी तो उस वक्त भी हमें हैरानी हुई कि यह फैसला केंद्र और राज्य सरकारों को संबोधित करते हुए एक स्पष्ट आदेश क्यों नहीं दे रहा है, और क्यों यह कई दशक पहले के एक आदेश का हवाला भर देकर वहां रुक जा रहा है? अदालतों को केंद्र और राज्य सरकारों से निपटते हुए लोकतांत्रिक रुख अख्तियार करना होगा जिसके तहत सरकारों की जवाबदेही बढ़ानी होगी और अफसरों की या नेताओं की मनमानी को खत्म करना होगा। देश में लोकतंत्र की बुनियादी समझ तो हर किसी को रहना चाहिए और उसे बुरी तरह से कुचलते हुए जब लोग इस तरह कानून का बेजा इस्तेमाल करते हुए लोकतांत्रिक अधिकारों को खत्म कर रहे हैं तो सुप्रीम कोर्ट को लोगों को बचाने के लिए सामने आना चाहिए।
अभी 2 दिन पहले देश के एक सबसे बुजुर्ग सामाजिक कार्यकर्ता फादर स्टेन स्वामी के गुजरने पर एक बार फिर यह बात तल्खी के साथ याद आई कि कुछ महीने पहले जब उनकी तरफ से अदालत में यह अर्जी दी गयी कि 84 बरस की उम्र में गंभीर बीमारियों के शिकार रहते हुए उनके हाथ कांपते हैं और गिलास से पानी उन पर गिर जाता है, तो उन्हें पानी पीने का प्लास्टिक का पाइप दिया जाए, और किस तरह जांच एजेंसी ने इसका विरोध किया था और किस तरह अदालत ने उनकी इस मांग को जरूरी, या सही नहीं माना था। अदालतें सरकारों और जांच एजेंसियों की मनमानी के आगे बहुत नरमी बरत रही हैं, और जनता के अधिकारों को बचाने वाली और कोई संस्था तो देश में है नहीं। मानवाधिकार आयोग, महिला आयोग, अनुसूचित जाति, जनजाति आयोग, या बाल कल्याण आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाएं सत्ता के मनोनीत और पसंदीदा लोगों से भरी रहती हैं, इसलिए वे भी जनता के अधिकारों को बचाने के लिए कुछ भी नहीं करतीं। जब पीयूसीएल जैसी संस्था बार-बार तरह-तरह की जनहित याचिकाएं लेकर अदालत में जाती है तब जनता के मुद्दों की सुनवाई होती है। सरकारों के खिलाफ जनहित याचिकाओं का यह सिलसिला एक जागरूक समाज की लोकतांत्रिक संस्थाओं का सबूत तो है, लेकिन यह उससे बड़ा सुबूत सरकारों के अलोकतांत्रिक हो जाने का भी है।
उत्तर प्रदेश में अगले बरस होने जा रहे विधानसभा चुनाव के पहले एक बार फिर राज्य में धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण बहुत रफ्तार से शुरू हुआ है। राज्य सरकार ने अभी ऐसे मामले पकडऩे का दावा किया है जिनमें सैकड़ों हिंदुओं को मुसलमान बनाने की बात कही गई है। पुलिस के रोजाना आते हुए बयान यह बताते हैं कि ऐसे धर्मांतरण के लिए लोगों को बाहर से पैसा भी मिला है। इससे परे देश की कुछ जगहों पर इक्का-दुक्का ऐसी शादियां भी हो रही हैं जिन्हें लव जिहाद कहा जा रहा है। आमतौर पर यह भाषा उन शादियों के लिए इस्तेमाल हो रही है जहां एक हिंदू लडक़ी एक मुस्लिम लडक़े से शादी करती है। ऐसे में इतवार को दिल्ली से लगे हुए हरियाणा के गुडग़ांव में एक महापंचायत हुई जिसमें हिंदू समाज के बहुत से लोगों ने बड़े हमलावर भाषण दिए और मुस्लिमों के खिलाफ कई किस्म की बातें कही गई। इनमें से एक तो राज्य भाजपा का एक प्रवक्ता है जो कि करणी सेना का भी प्रमुख है, सूरजपाल अमू नाम के इस नेता ने मंच और माइक से मुस्लिम समुदाय के खिलाफ एक बार फिर भडक़ाऊ भाषण दिया। कुछ समय पहले भी यह आदमी किसी और जगह पर इस किस्म का भडक़ाऊ भाषण दे चुका है। यहां पर इसने कहा कि लोग ‘इन लोगों’ के खिलाफ एक प्रस्ताव पास करें ताकि उन्हें देश से बाहर फेंक दिया जाए और सभी समस्याएं अपने आप समाप्त हो जाएं। इस भाजपा प्रवक्ता ने नौजवानों के लिए फतवा दिया कि उन सभी बगीचों से उन सारे पत्थरों को उखाड़ फेंकें जहां पर एक खास समुदाय के लोगों के नाम लिखे हैं। उसने एक गांव के लोगों की तारीफ की जिन्होंने अपने गांव में एक भी मस्जिद नहीं बनने दी और उसने भीड़ से अपील की कि ऐसी इमारत की बुनियाद को खोदकर फेंक दो। उसने कहा कि इतना काफी नहीं है कि इन लोगों को घर किराए पर ना दिया जाए बल्कि इनको देश है उसे बाहर फेंकने का प्रस्ताव अपनाना चाहिए।
पुलिस से जैसी की उम्मीद की जाती है उसने ऐसी कोई बात नहीं सुनी, उसके पास ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं है, उसने किसी भी शिकायत मिलने से इनकार किया है और कहा है कि कोई शिकायत मिलेगी तो वह जांच करेगी। जहां मीडिया के लोगों को, इलाके के बच्चे-बच्चे को ऐसे वीडियो मिल गए हैं, हजारों लोगों ने ऐसी भडक़ाऊ बातें सुनी हैं, वहां पर पुलिस ऐसा मासूम चेहरा बना लेती है कि यह किस बारे में बात की जा रही है। दूसरी तरफ इसी महापंचायत में एक ऐसा नौजवान पहुंचा जिस पर पिछले बरस दिल्ली में जामिया मिलिया इस्लामिया में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे लोगों पर गोली चलाने और उन्हें राष्ट्रवादी धमकी देने का जुर्म दर्ज हुआ था, लेकिन उसके नाबालिग होने से उसे महज सुधारगृह भेज दिया गया था, जहां से कुछ महीनों में वह निकलकर बाहर आ गया था। उसने भी इस महापंचायत में पहुंचकर मंच और माइक से भारी भडक़ाऊ बातें कहीं, और मुसलमानों पर हमला करने का आव्हान किया यह भी कहा कि जब उन पर हमला किया जाएगा तो मुसलमान राम-राम चिल्लाएंगे। उसने यह भी कहा कि अगर मुस्लिम हिंदू लड़कियों को ले जाते हैं, तो उसके जवाब में मुस्लिम महिलाओं को अगवा किया जाए। और यह तो जाहिर है ही कि राजधानी से लगे हुए गुडग़ांव की पुलिस ने इस भाषण को भी नहीं सुना है जबकि इसका वीडियो चारों तरफ घूम रहा है।
कोई अगर यह सोचे कि यह सब कुछ अनायास हो रहा है तो ऐसी बात नहीं है। उत्तर प्रदेश से लगे हुए हरियाणा के इस हिस्से का भी दिल्ली के राजधानी क्षेत्र से वैसा ही गहरा संबंध है, और यहां से निकली हुई बात देश की राजधानी से उठी हुई बात ही मानी जाती है। ऐसे में एक तरफ असम में आबादी नियंत्रित करने के लिए बच्चों की सीमा तय करने की बात की जा रही है, उत्तर प्रदेश में धर्मांतरण के मामले पकडऩे का दावा करते हुए लोगों की गिरफ्तारियां हो रही है, उधर कश्मीर में 2 सिख लड़कियों के मुस्लिम लडक़ों से शादी करने के खिलाफ वहां सिख समुदाय आज उबला हुआ है। इसके साथ साथ जब यह देखें कि किस तरह हैदराबाद में केंद्रित मुस्लिम राजनीति करने वाले ओवैसी लखनऊ जाकर अभी से चुनावी ताल ठोकने लगे हैं, तो यह समझ पड़ता है कि इस पूरी तैयारी का मकसद क्या है। हाल के वर्षों में असदुद्दीन ओवैसी ने अलग-अलग प्रदेशों में जाकर बिना किसी जमीन के जब मुस्लिम वोटरों के बीच अपने उम्मीदवार खड़े किए, तो उन्होंने मानो भाजपा की जीत के लिए ओवैसी शामियाना वाले जैसा काम किया। भाजपा की चुनावी सभाओं के पहले हरे रंग का एक ऐसा शामियाना बांधा कि जिसे देख-देखकर भाजपा के लिए भीड़ अधिक जुटती रहे। कुछ वैसा ही अभी यह महापंचायत कर रही हैं और जिस जुबान में वहां पर मुसलमानों के बारे में बातें हो रही हैं क्या वहां की पुलिस को इसकी कोई उम्मीद नहीं थी और क्या पुलिस ने वहां रिकॉर्डिंग का इंतजाम नहीं रखा था और क्या राज्य सरकार का किसी कार्यवाही का जिम्मा नहीं बनता है ? ऐसे बहुत से सवाल उठ खड़े होते हैं और लोगों को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इसी मौके पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने एक बार फिर जिस तरह हिंदू और मुस्लिम का डीएनए एक ही होने जैसी बहुत सी बातें कहीं हैं, और जिस तरह से कुछ बातें मुसलमानों को हिंदू साबित करने वाली कहीं हैं, और कुछ बातें मुसलमानों को हिंदुस्तानी बने रहने के हक की हैं, उन सबसे भी तरह-तरह के मिले-जुले संकेत उठते हैं और एक भ्रम फैलने के अलावा और कुछ नहीं हो रहा है।
भाजपा की सरकारों वाले हरियाणा और उत्तर प्रदेश से जिस तरह की खबरें उठ रही हैं, वहां संघर्ष से लेकर ओवैसी तक की जिस तरह की तैयारियां दिख रही हैं, जिस तरह से चुनाव के महीनों पहले से योगी और ओवैसी एक दूसरे के सामने मोर्चा संभालने के अंदाज में बयान देते दिख रहे हैं, वह सब कुछ ऐसा लगता है कि मानो किसी एक बड़ी चित्र पहेली के अलग-अलग टुकड़े हैं जिन्हें जोडक़र देखा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश की विधानसभा सीटों का नक्शा उस राज्य के नक्शे पर कैसा दिखता है। जिन लोगों को यह लगता है कि भडक़ाऊ बयान की राज्य सरकार को फिक्र भी नहीं करना चाहिए, वे लोग देश पर मंडराते हुए इस खतरे को नहीं देख रहे हैं जिसमें एक धार्मिक ध्रुवीकरण को सोच समझ कर लाया जा रहा है। जिस दिन हिंदुस्तान के लोकतांत्रिक चुनावों के नाम पर देश में धार्मिक आधार पर जनमत संग्रह कराया जाएगा, उस दिन लोकतंत्र की रही सही उम्मीद और खत्म हो जाएगी लेकिन लोगों को यह मानकर चलना चाहिए कि हम उसी तरफ बढ़ रहे हैं।
देश में आतंक विरोधी कानून के तहत गिरफ्तार सबसे बुजुर्ग व्यक्ति स्टेन स्वामी का आज अस्पताल में निधन हो गया। उन्हें पुणे के बहुचर्चित भीमा कोरेगांव हिंसा के सिलसिले में हिंसा भडक़ाने और माओवादियों से संपर्क रखने के आरोप में झारखंड से गिरफ्तार किया गया था। इस मामले में छत्तीसगढ़ की सुधा भारद्वाज सहित कई और सामाजिक कार्यकर्ता भी गिरफ्तार किए गए थे जो कि जेल में बिना जमानत अब तक बरसों से बंद हैं। इनके खिलाफ एनआईए की जांच चल रही है और जब स्टेन स्वामी की तबीयत लगातार बहुत खराब चल रही थी तो कोरोना का खतरा बताते हुए उनके वकीलों ने अदालत के सामने बार-बार कहा कि उन्हें जमानत दी जाए, लेकिन 84 बरस के सामाजिक कार्यकर्ता को जमानत देने का एनआईए ने अदालत में जमकर विरोध किया था, और कहा था कि उनकी बीमारी के कोई ठोस सुबूत नहीं हैं। आज जब बॉम्बे हाई कोर्ट में स्टेन स्वामी की जमानत अर्जी पर सुनवाई चल रही थी, उसी वक्त वहां डॉक्टर ने खड़े होकर जजों को बताया कि स्टेन स्वामी को नहीं बचाया जा सका। इस तरह देश के एक सबसे सख्त कानून के तहत गिरफ्तार, देश के सबसे अधिक उम्र के सामाजिक कार्यकर्ता की मौत हुई जिन्हें जेल से अस्पताल तक जाने देने का विरोध एनआईए ने जमकर किया था, और बाद में अदालती आदेश से उन्हें अस्पताल में दाखिल किया गया था।
यह मामला 2017 में पुणे में हुई एक हिंसा का था जिसे लेकर कई सामाजिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया और उन पर नक्सलियों से संबंध रखने की, हिंसा भडक़ाने की तोहमत लगाई गई। यह एक अलग बात है कि अमेरिका की एक साइबर लैब ने जांच करके यह स्थापित किया था कि इस मामले में गिरफ्तार कुछ लोगों के कंप्यूटर पर बाहर से घुसपैठ करके उसमें कुछ दस्तावेज डाले गए थे। उल्लेखनीय है कि कंप्यूटर पर मिले कुछ दस्तावेजों को लेकर ही एनआईए ने इन सब लोगों की गिरफ्तारी की थी जो आज भी जमानत पर बरी होने के लिए बरसों बाद भी तरस रहे हैं।
हिंदुस्तान में कानून इतने कड़े बनाए जा रहे हैं कि बेकसूर लोग भी जमानत के बिना जेल में ही दम तोड़ दें। कल ही एक दूसरी रिपोर्ट दिख रही थी कि किस तरह 11 बरस जेल में बंद रहने के बाद एक मुस्लिम की बेकसूर करार देकर रिहाई हुई और बाहर निकलकर अब वह समझना चाह रहा है कि जिंदगी के इन 11 वर्षों का नुकसान वह कैसे पूरा कर सकता है। इससे भी अधिक 20-25 बरस तक जेल में बंद रहने वाले कुछ और मुस्लिम लोगों के मामले हैं जिन्हें आतंक के आरोपों में गिरफ्तार किया गया था, लेकिन उनके खिलाफ कुछ भी साबित नहीं हो सका और वे बरी होने के बाद अब बाहर की दुनिया में बहुत अटपटे से होकर रह गए हैं कि वे कैसे जिंदा रहे क्या काम करें।
देश में आतंकी हिंसा को रोकने के नाम पर बहुत से लोगों को आज अर्बन नक्सल करार दिया जा रहा है, यह शब्दावली ताजा-ताजा पैदा हुई है और जिन लोगों को मानवाधिकार की हिमायत करने वाले लोग नापसंद रहते हैं, वे लोग अक्सर ही मानवाधिकार वादियों को लेकर अर्बन नक्सल जैसे शब्द इस्तेमाल करते हैं। एक तरफ तो सरकार के पास नक्सलियों को कुचलने के लिए अनगिनत सुरक्षा बल जवान मौजूद हैं, और केंद्र और राज्य सरकारों के सुरक्षा बल मिलकर नक्सल मोर्चे पर बड़ी तैनाती के साथ हमलावर कार्रवाई करते रहते हैं। दूसरी तरफ नक्सलियों को मदद पहुंचाने के नाम पर बहुत से शहरी लोगों को एजेंसियां पकड़ती हैं, जिनमें ऐसे बहुत से लोग हैं जिनका पूरा जीवन हिंसा से दूर रहा है और जिन्होंने आदिवासियों के हक की महज बात की है जो आदिवासी नक्सलियों और सुरक्षाबलों के बीच पिस रहे हैं। आज स्टेन स्वामी की मौत से यह बात बड़ी तल्खी के साथ उभरकर सामने आती है कि इस देश का इतना कड़ा बनाया गया कानून क्या बेकसूर लोगों को इसी तरह मारते रहेगा, और क्या जमानत पर रिहा होने का भी कोई हक ऐसे लोगों को नहीं मिलेगा?
अभी कल की ही बात है हमने सोशल मीडिया पर एक लाइन पोस्ट की थी जो कि विश्व विख्यात राजनेता बेंजामिन फ्रैंकलिन की कही हुई थी उन्होंने कहा था कि सबसे कड़े कानून कई मौकों पर सबसे बुरा बेइंसाफ भी हो जाते हैं। उनकी कही हुई यह बात कल ही हमारे सामने आई थी, और आज हिंदुस्तान के इस सबसे बुजुर्ग सामाजिक कार्यकर्ता की बिना जमानत इस तरह मौत के मौके पर बहुत बुरी तरह खटक भी रही है। हिंदुस्तान आज बिल्कुल ऐसे ही दौर से गुजर रहा है। आज हिंदुस्तान में आईटी एक्ट इतना कड़ा बनाया गया है कि जगह-जगह कहीं केंद्र सरकार की एजेंसियां, तो कहीं राज्य सरकार, इस एक्ट के तहत किसी कार्टून पर तो किसी एक तस्वीर पर कार्रवाई करते हुए लोगों को गिरफ्तार कर रहे हैं। हम अभी कार्रवाई के बीच में किसी की बेगुनाही या किसी के कसूरवार होने के बारे में कुछ कहना नहीं चाहते लेकिन यह जरूर कहना चाहते हैं कि जिनको जमानत मिलने से कोई खतरा नहीं है, ऐसे लोगों को जमानत ना देना अपने आप में बिना सुनवाई, बिना फैसले के, सजा देने से कम नहीं है। लोग अपने बच्चों को छोडक़र जेल जा रहे हैं और बच्चों के बच्चों को देखने के वक्त पर जेल से बाहर आ रहे हैं, बेकसूर साबित होकर। यह किस किस्म का लोकतंत्र है यह समझना बहुत मुश्किल है। ऐसे कड़े कानून किस काम के जो कि बेकसूरों को कुचलने के काम ही आएँ । हमने पिछले वर्षों में देखा है कि किस तरह जेएनयू के छात्र छात्राओं को कुचलने के लिए फर्जी वीडियो गढक़र उन्हें देश का गद्दार करार दिया गया, किस तरह जामिया मिलिया के छात्र छात्राओं के साथ ऐसा ही सुलूक किया गया, किस तरह शाहीन बाग का आंदोलन कुचला गया, और देश भर में जगह-जगह ऐसा काम हो रहा है। ऐसे कड़े कानूनों के बारे में एक बार फिर सोचने की जरूरत है और हिंदुस्तान की अदालतों को जमानत देने के अपने अधिकार और अपने रुख के बारे में एक बार फिर सोचना चाहिए। स्टेन स्वामी की इस तरह बिना जमानत और बिना सही इलाज के मौत इस देश को हिलाने के लिए काफी होनी चाहिए।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पिछले चार दिनों में उत्तर भारत से चार ऐसी खबरें आई हैं जिनमें प्रेम संबंधों को लेकर परिवार के लोगों ने ही हत्या कर दी। कुछ मामले तो ऐसे भी थे जिनमें एक ही धर्म के लोग प्रेम संबंध में थे, और लडक़ी के भाई ने उसके प्रेमी को बुलवाया और खुलेआम गोली मारकर हत्या कर दी। यह घटना उत्तर प्रदेश की है और इसी इलाके में अभी 2 दिन पहले एक लडक़ी के बाप ने अपनी बेटी और उसके प्रेमी की गोली मारकर हत्या कर दी थी। इससे थोड़े से परे, बगल के बिहार में ऑनर किलिंग कही जाने वाली एक और हत्या हुई है जिसमें एक लडक़ी शादी के बाद भी मायके लौटकर अपने प्रेमी से मिल रही थी तो उस लडक़ी के पिता ने ही अपने घर वालों के साथ मिलकर उसकी हत्या कर दी और 20 किलोमीटर दूर ले जाकर उसकी लाश फेंक दी, बाप गिरफ्तार हो गया है।
जितनी भयानक ऐसी हत्याओं की खबरें हैं, उतना ही भयानक यह भी है कि हिंदुस्तानी मीडिया ऐसी हत्याओं को ऑनर किलिंग लिखता है। यह बात सही है कि ऐसी हत्याओं के पीछे परिवारों का तर्क यही रहता है कि उनका सामाजिक अपमान हुआ है और वे अपने सम्मान को दोबारा पाने के लिए अपने परिवार के लोगों की या उनके प्रेमी प्रेमिकाओं की ऐसी हत्याएं कर रहे हैं। लेकिन सवाल यह है जिन हत्याओं को यह परिवार अपनी खोई इज्जत वापस पाना बतलाते हैं, क्या मीडिया भी उसी भाषा का इस्तेमाल करे? क्या मीडिया भी इन्हें परिवारों की प्रतिष्ठा से जोडक़र देखे? यह सिलसिला भयानक इसलिए है कि यह सिर्फ लडक़ी पर केंद्रित है। लडक़ी ने अपने मन से शादी कर ली तो परिवार की इज्जत खराब हो गई, लडक़ी के साथ बलात्कार हो गया तो भी उसके परिवार की इज्जत खराब हो गई, लडक़ी ससुराल छोडक़र मायके लौट आई तो भी उसके परिवार की इज्जत खराब हो गई। लडक़ी के साथ समाज क्या करता है, उसका परिवार क्या करता है, बलात्कारी क्या करता है, इसकी फिक्र किसी को नहीं है। आज तक किसी ने ऐसा नहीं लिखा कि बलात्कारी के परिवार की इज्जत खराब हो गई या बलात्कारी की इज्जत लुट गई। बलात्कार की शिकार लडक़ी की इज्जत लुट जाती है यानी उसके साथ बलात्कार भी किया जाए और उसकी इज्जत भी लुट जाए ? मतलब यह कि मर्द मुजरिम की इज्जत किसी हालत में खराब नहीं हो रही, जुर्म की शिकार लडक़ी की इज्जत भी खराब हो रही है वह अपना कौमार्य भी खो रही है, वह अपने शरीर का सम्मान भी खो रही है, वह अपने जिंदा रहने के हक को भी खो रही है, और समाज की नजरों में इज्जत को भी वही खो रही है। लडक़ा और लडक़ी बालिग होने पर मर्जी से शादी कर लें, तो भी लडक़े के परिवार की इज्जत खऱाब नहीं होती, सिर्फ लडक़ी के परिवार इज्जत खऱाब होती है। सिर्फ लडक़ी का परिवार क़त्ल पर उतारू हो जाता है !
इज्जत को लेकर हिंदुस्तानी समाज की है सोच एकदम ही हिंसक है और जाने यह कितने लाख साल पहले के इंसानों की तरह गुफा में चलने वाली उस सोच की तरह है जहां ताकत ही सब कुछ हुआ करती थी। जिन दिनों जंगल के जानवरों और उस वक्त के इंसानों के बीच जिंदा रहने के लिए ताकत ही अकेली काबिलियत मानी जाती थी, वैसी नौबत आज 21वीं सदी में भी हिंदुस्तान में कायम है, जहां मर्द की ताकत है, लडक़ी के भाई और बाप की ताकत है, पाखंडी समाज की ताकत है, लेकिन लडक़ी की यह ताकत नहीं है कि बालिग होने के बाद भी वह अपनी मर्जी से शादी कर सके। जगह-जगह से यह बात सुनाई पड़ती है कि किस तरह शादी करने के बाद भी उस जोड़े को ढूंढकर घर वालों ने गोलियां मार दीं, अकेले प्रेमी को मार दिया, लडक़ी को मार दिया। यह अंतहीन सिलसिला चले आ रहा है।
समाज में अखबारों को भी अपनी जुबान सुधारनी होगी। किसी भी मामले को मीडिया लव जिहाद लिखना शुरू कर देता है जैसे कि एक बालिग लडक़ी को मोहब्बत करने का हक ही नहीं है, और अगर आज शहंशाह अकबर नहीं हैं, तो यह समाज शहंशाह अकबर बनकर अपनी तानाशाही से अनारकली को कुचलने के लिए खड़े हो जाता है। लडक़ी के बारे में लिखते हुए यह कहा जाता है कि वह घर छोडक़र भाग गई, उसे भगाकर ले गया, लडक़ी अगर बालिग हो तो भी यही जुबान इस्तेमाल होती है। तो क्या लडक़ी कोई गाय या बकरी है जिसकी रस्सी खोलकर कोई उसे लेकर भाग जाए? क्या एक बालिग लडक़ी को भी अपनी मर्जी से किसी के साथ कहीं जाने का कोई हक नहीं है? हिंदुस्तान में आमतौर पर यह देखने में आता है कि जब प्रेम संबंधों में कोई लडक़ी अपनी मर्जी से बालिग होने पर किसी लडक़े के साथ हो जाती है तो भी परिवार का पहला काम यह दिखाई पड़ता है कि उसे नाबालिग साबित करने के लिए तरह-तरह के फर्जी सर्टिफिकेट पुलिस में पेश करे, और किसी तरह उस लडक़ी को पकड़वाकर एक बार अपने घर वापस ले आए। आज तक कभी यह सुनाई नहीं पड़ता कि लडक़ी के घरवालों के पुलिस में जमा किए गए फर्जी उम्र सर्टिफिकेट को लेकर उनके खिलाफ कभी कोई जुर्म दर्ज हुआ हो कि यह पुलिस को झांसा देने की कोशिश की गई, और एक बालिग लडक़ी के हक कुचलने की कोशिश की गई।
आम तौर पर पुलिस इतनी दकियानूसी रहती है कि वह अपने धर्म के बाहर जाकर शादी करने वाली लडक़ी, अपनी जाति के बाहर जाकर शादी करने वाली लडक़ी, या बलात्कारी के खिलाफ रिपोर्ट लिखाने वाली लडक़ी, इन सबका हौसला पस्त करने में लग जाती है। इन्हें तरह-तरह के डर दिखाने में पुलिस जुट जाती है। एक नजर में देखें तो यह समझ ही नहीं पड़ेगा कि क्या यह हिंदुस्तान आजाद हुए पौन सदी होने जा रही है और अब तक एक बालिग लडक़ी को अपनी मर्जी से कुछ भी करने का हक नहीं दिया गया है। अभी किसी ने सोशल मीडिया पर एक अच्छी बात लिखी कि हिंदुस्तानी शादी में दुल्हन को सब कुछ अपनी मर्जी का मिलता है सिवाय दूल्हे के। पुलिस और अदालत को, और मीडिया को, अपनी जुबान संभालना चाहिए और ऐसी हत्याओं को ऑनर किलिंग लिखना बंद करना चाहिए। लडक़ी से बलात्कार के मामले में उसकी इज्जत लुट गई या उसकी आबरू लुट गई जैसी भाषा तुरंत बंद करना चाहिए। उत्तर भारत एक शर्मिंदगी में जीने वाला इलाका होना चाहिए जिसे अपनी लड़कियों को मारकर अपनी इज्जत वापस पाने जैसी बातें सूझती हैं।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिंदुस्तान में आज बहुत से लोगों को पेट्रोल और डीजल के सौ रुपये पार कर जाने की दिक्कत ही सबसे बड़ी लग रही है। कुछ और लोग हैं जिन्हें गैस सिलेंडर के कुछ साल पहले के दाम और आज के दाम में फर्क के साथ-साथ यूपीए सरकार के वक्त भाजपा नेताओं द्वारा सडक़ों पर किए गए प्रदर्शन की तस्वीरें और वीडियो याद पड़ रहे हैं। आज के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस वक्त के वे वीडियो भी चारों तरफ घूम रहे हैं जिनमें वे डॉलर के दाम बढऩे और पेट्रोल, डीजल, गैस के दामों में मामूली इजाफा होने को लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर तीखे हमले कर रहे थे। आज इन तमाम चीजों के दाम आसमान पर हैं. पेट्रोल, डीजल, गैस, और डॉलर के दाम तो आसमान पर हैं, तेल और दाल जैसी बुनियादी जरूरत की दूसरी चीजें भी अंधाधुंध महंगी हो चुकी हैं। देश के हालात कितने खराब हैं इसका अंदाज लगाना हो तो एक प्रमुख हिंदी अखबार में साथ में छपी हुई दो सुर्खियों को देखने की जरूरत है जिसमें अकेले मध्यप्रदेश में प्रोविडेंट फंड के 12 लाख खातों से इस वित्तीय वर्ष में जून के महीने तक 35 सौ करोड़ रुपए निकालने के आंकड़े हैं। इसका मतलब यह है कि हर खाते से औसतन 29 हजार रुपियों से अधिक निकाले गए हैं। यह लगता है कि कोरोना के इलाज और बढ़ती महंगाई की वजह से लोगों को यह करना पड़ा। दूसरी खबर यह बतलाती है कि किस तरह पिछले 2 महीने में एमपी में ही लोगों ने करीब डेढ़ टन सोना गिरवी रखा और 700 करोड़ों रुपए का कज़ऱ् लिया है, सोने पर लोन देने वाली निजी कंपनियां भी बहुत आक्रामक तरीके से तरीके से इश्तहार देकर ग्राहक जुटाती हैं, और सरकारी और निजी बैंक भी सोने पर लोन देने लगे हैं।
अब सवाल यह उठता है कि जिन लोगों ने पीएफ से रकम निकाली वे संगठित क्षेत्र के कर्मचारी हैं और उनके प्रोविडेंट फंड से निकाली गई रकम आंखों में दिख रही है। लेकिन जो लोग असंगठित क्षेत्र के कर्मचारी हैं, जिनका पीएफ जमा नहीं होता है, जो छोटे कारोबारी हैं, जो लॉकडाउन और कोरोना के पूरे दौर में सडक़ पर आ गए हैं, और जो सडक़ किनारे फुटपाथ पर कारोबार करते थे वह मानो एक तरीके से खिसककर नालियों में जा चुके हैं। इन सबकी दिक्कत यह रही कि इनकी कमाई का जरिया रोजाना होने वाली कमाई थी जो कि महीनों तक बंद रही, और इनकी खपत रोजाना की रही जिसमें परिवार का खानपान रहा, बिजली और किराया रहा, और परिवार की दूसरी रोजाना की जरूरतें रहीं। इनमें से कोई जरूरत खत्म नहीं हुई, बंद नहीं हुई, थमी नहीं, बस कमाई थम गई, और ऐसा भी नहीं कि वह कमाई बाजार खुलने के बाद बकाया भी हो जाए और बीते नुकसान की भरपाई कर ले।
क्योंकि हिंदुस्तान का बहुत बड़ा हिस्सा असंगठित कर्मचारियों का है जिनके बारे में सरकारी आंकड़े कुछ भी नहीं बता पाते, और गरीब मजदूरों का है जिनके बारे में सरकार के आंकड़े महज मनरेगा जैसी सरकारी रोजगार योजनाओं में दिए गए काम की जानकारी रखते हैं, इनके अलावा गरीबों की हालत या मध्यमवर्गीय असंगठित लोगों की हालत का पता लगाने का सरकार के पास कोई जरिया नहीं है। नतीजा यह है कि सरकार का जनधारणा प्रबंधन लोगों को जितना खुशहाल बता सकता है, बता रहा है, और महत्वहीन बातों को लेकर एक-दूसरे को बधाई दे रहा है, देश के प्रधानमंत्री को बधाई दे रहा है, और इस हद तक बधाई दे रहा है कि अब लोग सोशल मीडिया पर यह मजाक बनाने लगे हैं कि कल बारिश हुई और आज धूप निकली इसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को हार्दिक बधाई। देश के इस हाल को समझने की जरूरत है जब मामूली खाते-पीते लोग पीएफ के पैसे निकालकर इलाज करा रहे हैं, या खा पी रहे हैं, और जो हिंदुस्तान सोना खरीदने के लिए बावला रहता है वह हिंदुस्तान सोने के गहने गिरवी रखकर सैकड़ों करोड़ रुपए कर्ज लेकर भारी ब्याज चुकाने के लिए तैयार है. जिंदगी चलाने के लिए उसके लिए यह जरूरी हो गया है, और अखबार की रिपोर्ट कहती है कि सबसे अधिक मंगलसूत्र गिरवी रखे गए हैं। जो लोग हिंदुस्तानी संस्कृति को जानते हैं, और अधिकतर हिंदुस्तानी या हिंदू महिलाओं की पसंद और प्राथमिकता को जानते हैं, उन्हें मालूम है कि मंगलसूत्र पहनने वाला पहला गहना होता है, और उतारने वाला आखिरी गहना। अब अगर इसे भी इतनी बड़ी संख्या में गिरवी रखा गया है तो तो यह परिवार को जिंदा रखने के लिए सुहाग के प्रतीक को गिरवी रखने का काम है जो कि कोई भी महिला या परिवार बहुत आसानी से नहीं करते।
देश में आज आर्थिक स्थिति इस कदर खराब है कि उसका अंदाज लगाना बड़ा मुश्किल है। लोग करोड़ों की संख्या में रोजगार खो बैठे हैं कारोबार बंद हो रहे हैं, बाजार में जहां सामान है वहां ग्राहक नहीं है, घरों में जहां जरूरत है वहां खरीदने की ताकत नहीं है। इस देश का क्या होगा, यहां के लोगों का क्या होगा, इसका कोई अंदाज किसी को लग नहीं रहा है। महज वही लोग आज के इस वक्त को भी खुशहाल मानकर चल रहे हैं जो हर हाल में देश की मौजूदा लीडरशिप से खुश रहने की कसम खाए हुए हैं। वे खुद तो एक मंत्रमुग्ध दौर से गुजर रहे हैं, लेकिन आबादी के ऐसे हिस्से से परे, और लोग खुश नहीं हैं, और उन्हें भूख भी लगती है, प्यास भी लगती है, और बिजली की भी जरूरत पड़ती है, पेट्रोल और गैस की जरूरत भी पड़ती है, लेकिन किसी चीज तक उनकी पहुंच नहीं रह गई है। यह पूरा सिलसिला जितना सोचे उतना अधिक निराश करता है, कि यह कहां जाकर थमेगा? अगर थमेगा तो कब थमेगा, और उस वक्त तक कितने लोग किस हाल में बचेंगे, यह कुछ भी पता लगाना या कुछ भी सोच पाना बड़ा ही मुश्किल है। आज ऐसे लोगों की दिमागी हालत से बस रश्क हो सकता है जो लोग ऐसे में भी खुशी मुमकिन मानकर चल रहे हैं।
श्याम बेनेगल की उनकी अपनी शैली से हटकर बनाई गई एक फिल्म ‘कलयुग’ जिनको याद हो, उन्हें हर मौत के बाद जुटने वाले कुनबे का नजारा याद होगा, जब आपस में एक दूसरे के खून के प्यासे लोग भी सफेद कपड़े पहनकर गम में शरीक होने के लिए पहुंच जाते हैं। फिल्म में कुछ दिनों बाद एक और किसी की मौत होती है, और एक-दूसरे पर शक करते हुए भी लोग अंतिम संस्कार में पहुंच जाते हैं, या उसके बाद की श्रद्धांजलि के लिए। आज भी आमतौर पर यह देखने मिलता है कि जो संपन्न तबका है वह गमी के मौके पर जाने के लिए सफेद रंग के कपड़े पहन लेता है, फिर चाहे वह कपड़े बहुत फैशनेबल ही क्यों ना हों। कपड़ों का सफेद होना जरूरी माना जाता है। यही वजह है कि अभी फिल्म अभिनेत्री मंदिरा बेदी के पति की कम उम्र में ही दिल के दौरे से मौत हो गई, मंदिरा ने अपनी रोज की घरेलू पोशाक जींस और सफेद टीशर्ट में ही पति के अंतिम संस्कार किए, और इस बात को लेकर सोशल मीडिया पर लोग उन पर बरस पड़े। हिंदुस्तानी लोगों की सोच पति को खोने वाली महिला को सफेद साड़ी में देखने की है, और उनकी वह हसरत मंदिरा बेदी से पूरी नहीं हो पाई। उनकी एक और हसरत पूरी नहीं हो पाई होगी कि पति को खोने वाली महिला को फर्श पर या दरी पर बैठकर आने-जाने वाले लोगों की श्रद्धांजलि लेनी चाहिए, और श्मशान जाकर अंतिम संस्कार करने का काम मर्दों को करने देना चाहिए। मंदिरा ने जब अपने गुजरे हुए पति का अंतिम संस्कार खुद किया, तो उससे भी हिंदुस्तानी मर्दानगी को खासी ठेस लगी होगी, क्योंकि मर्दों के एकाधिकार वाला यह मामला अगर महिलाएं करने लगें, तो यह चलन तो धीरे-धीरे महिलाओं को पुरुषों की बराबरी पर ले आएगा।
लेकिन सोशल मीडिया पर जिन लोगों को कमीनगी की आदत पड़ी हुई है, उन लोगों ने इस बात को लेकर बखेड़ा खड़ा किया कि अंतिम संस्कार के इस मौके पर मंदिरा बेदी ने जींस और टीशर्ट पहन रखा था। हालाँकि हिंदू और हिंदुस्तानी रिवाजों के मुताबिक मंदिरा के आधे कपड़े तो सफेद रंग के थे, जो कि हिंदुओं की विधवा महिला के लिए तय की गयी पोशाक के हिसाब से ठीक रंग था, लेकिन हिंदुओं की भावनाओं को इस बात को लेकर ठेस लगी कि सफेद रंग की साड़ी के बजाय मंदिरा सफ़ेद टी शर्ट और जींस में क्यों थीं। उन्हें यह भी ठेस लगी होगी कि मंदिरा ने अर्थी को कंधा क्यों लगाया, उन्हें इस बात से भी दहशत हुई होगी कि शव के आगे-आगे अग्नि लेकर मंदिरा खुद चल रही थी। फिर उन्हें यह भी खड़ा होगा कि एक महिला विद्युत शवदाह गृह में आखिरी पल तक अपने पति के शव के साथ बनी हुई थी। अगर तमाम महिलाएं ऐसा करने लगे तो मर्दों के एकाधिकार का क्या होगा? इसी बात को लेकर लोग मंदिरा बेदी पर टूट पड़े हैं, और उनके खिलाफ जो मन में आए वह लिख रहे हैं।
हम इस अभिनेत्री के बारे में इस जगह पर लिखने की और कोई वजह नहीं सोच सकते थे. आज हिंदुस्तान के हजारों लोगों ने जिस तरह उनके खिलाफ जहर उगला है उसकी वजह से इस मौत और अंतिम संस्कार की खबर को पढ़ते हुए मंदिरा के बारे में यह भी पता लगा कि 10 बरस का अपना एक बेटा होते हुए पिछले बरस उन्होंने 4 बरस की एक बच्ची को गोद भी लिया था। और इस परिवार के सोशल मीडिया अकाउंट उस बच्ची के साथ पूरे परिवार की तस्वीरों से भरे हुए हैं कि वे उस बच्ची के साथ कितने खुश हैं और वह बच्ची उनके साथ कितनी खुश है। हिंदुस्तान के जिस समाज के लोग पति को खोने वाली और विधवा कहलाने वाली एक महिला को साड़ी में ना देखकर जिस तरह जख्मी हो गए हैं, उन्हें अपने बारे में सोचना चाहिए कि अपने परिवार में 10 बरस का बेटा होने के बाद क्या वे बाहर की किसी एक बच्ची को गोद लेने की हिम्मत रखते हैं? और क्या गमी के मौके पर एक सफेद साड़ी पहन लेना क्या एक किसी बच्ची को अपनाने के मुकाबले अधिक बहादुरी का और अधिक इंसानियत का काम है?
हिंदुस्तान के लोगों में से बहुत से लोग ऐसे हैं जो खूबियों वाले इंसान की छवि से बिल्कुल अलग रहते हैं, हालाँकि हम इंसान को महज खूबियों वाला नहीं मानते और हैवानियत कही जाने वाली हरकतों को हम इंसानियत के बाहर का नहीं मानते। इसलिए हमारे लिए तो कमीनगी दिखाने वाले लोग इंसान ही हैं, उनके भीतर की ये घटिया हरकतें इंसानियत ही है। उनके भीतर से ऐसी हिंसा करवाने के लिए बाहर से कोई हैवान नहीं आता है, उनके भीतर का ही एक हिस्सा ऐसा काम करवाता है, जिसे वे अपने से परे बाहर का कुछ और दिखाना चाहते हैं। एक परिवार जिसमें कम उम्र में अकेली होने वाली महिला के दुख तकलीफ को समझने के बजाय जिनको उसकी जींस खटक रही है, उन्हें अपने परिवार को इंसानियत के इस पैमाने पर आंकना चाहिए कि क्या वे बाहर की किसी बच्ची को अपनाकर अपने परिवार में खुश रख सकते हैं? या फिर भी किसी हिंदू महिला के माथे का सिंदूर पोंछकर, गले का मंगलसूत्र तोडक़र, हाथों की चूडिय़ां चूर-चूर करके ही खुश होंगे? मंदिरा बेदी ने जिस तरह से अनजाने-अनचाहे ही सही, हिंदुस्तानियों की इस कमीनगी पर चोट की है, वह बहुत अच्छी बात हुई है। श्याम बेनेगल की फिल्म ‘कलयुग’ में मन में जहर लिए हुए लोग झक सफेद कपड़े पहनकर विरोधी के अंतिम संस्कार में भी पहुंचे जाते थे, उस दर्जे की इंसानियत के बजाय इस दर्जे की इंसानियत बेहतर है जो दिखावे और नाटक के लिए सफेद साड़ी पहनने के बजाय अपनी आम जींस में है, और अपने पति की आखरी झलक तक उसके साथ है।
भारत के मुख्य न्यायाधीश एन वी रमन्ना ने कहा है कि चुनावों के जरिये सत्ता में बैठे हुए लोगों को बदल पाने का अधिकार, निरंकुश शासन से बचे रहने की गारंटी नहीं है।
रमन्ना ने 17वें पीडी देसाई मेमोरियल लेक्चर को संबोधित करते हुए कहा कि ‘लोकतंत्र को बचाये रखने के लिए यह जरूरी है कि तर्कसंगत और अतर्कसंगत, दोनों तरह के विचारों को जगह दी जाये। दिन-ब-दिन होने वाली राजनीतिक चर्चाएं, आलोचनाएं और विरोधियों की आवाजें, एक अच्छी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा हैं। इनका सम्मान किया जाना चाहिए।’ उन्होंने कहा कि लोकतंत्र की खूबसूरती इसी में है कि इस व्यवस्था में आम नागरिकों की भी एक भूमिका है। सरकार पर असहमति व विरोध की आवाज को दबाने और आलोचनाओं को बर्दाश्त नहीं किए जाने के लगने वाले आरोपों के बीच रमन्ना ने कानूनी विद्वान जूलियस स्टोन के कथन का जिक्र करते हुए कहा, ‘हर कुछ वर्षों में एक बार शासक को बदलने का अधिकार, अपने आप में तानाशाही के खिलाफ सुरक्षा की गारंटी नहीं होनी चाहिए’। इसके साथ ही उन्होंने कहा कि चुनाव, दिन-प्रतिदिन के राजनीतिक संवाद, आलोचना और विरोध की आवाज ‘लोकतांत्रिक प्रक्रिया के अभिन्न अंग’ हैं। उन्होंने कहा, ‘यह हमेशा अच्छी तरह से माना गया है कि हर कुछ वर्षों में शासक को बदलने का अधिकार, अपने आप में तानाशाही के खिलाफ सुरक्षा की गारंटी नहीं होना चाहिए... यह विचार कि आखिरकार लोग ही संप्रभु हैं, यह मानवीय गरिमा और स्वायत्तता के विचार में परिलक्षित होना चाहिए। तर्कसंगत और उचित सार्वजनिक संवाद को मानवीय गरिमा के एक अंतर्निहित पहलू के रूप में देखा जाना चाहिए और इसलिए यह ठीक से काम करने वाले लोकतंत्र के लिए जरूरी है।’
जस्टिस रमन्ना ने भारत के आज के लोकतंत्र के बारे में बहुत आसान शब्दों में बड़ी गंभीर बात कही है और इसलिए हम उनकी कही हुई बात को उसका एक हिस्सा ज्यों का त्यों ऊपर रखने के बाद अपनी बात शुरू कर रहे हैं। उन्होंने इस व्याख्यान में कानून के राज्य को लेकर कई पहलुओं पर बहुत कुछ कहा लेकिन हम उन सब पर कुछ टिप्पणी करने के बजाए इतने सीमित मुद्दे पर अपनी बात आगे बढ़ाना चाहते हैं। उनका कहा हुआ बहुत मायने रखता है कि लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए जरूरी है कि तर्कसंगत और तर्कहीन, इन दोनों तरह के विचारों को जगह दी जाए, आलोचना और विरोध की आवाज लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा है इनका सम्मान किया जाना चाहिए। जाहिर तौर पर उनकी ये बातें हिंदुस्तान में आज असहमति के खिलाफ मौजूद एक असहिष्णुता को लेकर की गई हैं। यह बात क्योंकि एक व्याख्यान में उन्होंने कही है इसलिए इसे उनके किसी अदालती फैसले या अदालत की किसी टिप्पणी से जोडक़र नहीं देखा जा सकता। लेकिन यह बात तो साफ है कि अदालत के फैसले जज की अपनी सोच से प्रभावित रहते ही हैं और सुप्रीम कोर्ट क्योंकि मौजूदा संविधान और कानून की भी व्याख्या करता है और कई मौकों पर वह संविधान की कुछ धाराओं को असंवैधानिक भी करार देता है इसलिए सुप्रीम कोर्ट के जजों की निजी सोच किसी एक विवाद पर सिर्फ वही तक के फैसले तक सीमित नहीं रहती बल्कि वह संविधान की एक व्यापक व्याख्या करती है और जिससे देश का लोकतंत्र भी एक दिशा पाता है।
आज उन्होंने जितनी महत्वपूर्ण बात कही है उसे देश की राजनीति में शामिल तमाम हिस्सेदारों को गंभीरता से सुनना और उस पर सोचना चाहिए। उन्होंने तर्कहीन बातों को भी लोकतंत्र में जगह देने की बात कही है और आलोचना और विरोध की आवाजों को भी अच्छी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा कहा है। दरअसल लोकतंत्र एक ऐसी लचीली व्यवस्था है जो कि कई मायनों में बहुत महंगी भी पड़ती है। एक तानाशाही शायद समय बचाने वाली व्यवस्था रहती है जिसमें सरकार और सरकारी एजेंसियों के हाथ अंधाधुंध अधिकार रहते हैं, अदालतों के अधिकार सीमित रहते हैं, फैसले बहुत तेजी से हो जाते हैं, गुनहगारों को या जिन्हें सरकार गुनाहगार मानती है उन्हें सजा बहुत तेजी से हो जाती है। यह पूरी तस्वीर हिंदुस्तान की इमरजेंसी जैसी है। लेकिन जैसे-जैसे तानाशाही लोकतंत्र की तरफ बढ़ती है, और लोकतंत्र परिपक्वता की तरह बढ़ता है, सारी व्यवस्था अधिक लचीली होने लगती है, और अधिक खर्चीली भी होने लगती है उसमें असहमति के लिए संदेह का लाभ बढ़ते चलता है और सत्ता को एक असहमति के साथ जीना सीखना पड़ता है। असहमति न शहरी नक्सल करार दी जा सकती और न ही उसे देशद्रोही करार दिया जा सकता।
असहमति खुद सत्ता के हित में होती है, अगर सत्ता को तानाशाही मिजाज की मनमानी करने की हसरत रहे तो असहमति सत्ता को गलतियों से बचाती भी है। हम हिंदुस्तान के बहुत ताजा इतिहास को देखें और मोदी के प्रधानमंत्री बनने के ठीक पहले की यूपीए सरकार को देखें, तो यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में वामपंथी दल सरकार के बाहर रहते हुए सरकार का समर्थन कर रहे थे। वे सत्ता में भागीदार नहीं थे लेकिन वे संसद में जरूरी गिनती जुटाने में एक जिम्मेदारी के भागीदार थे। सरकार पर वामपंथियों की नजरें थी और अगर यूपीए के पहले कार्यकाल को देखें तो उस कार्यकाल में कोई बड़े भ्रष्टाचार नहीं हो पाए थे, सरकार बड़ी ऐतिहासिक गलतियां नहीं कर पाई थी। लेकिन यूपीए के दूसरे कार्यकाल में जब वामपंथियों के बाहरी समर्थन की जरूरत नहीं रह गई थी, और सरकार वामपंथियों के प्रति जवाबदेही भी नहीं रह गई थी, उस वक्त उस सरकार ने ढेरों गलतियां की। मतलब यह कि असहमति और जवाबदेही इनसे किसी भी लोकतंत्र में सत्ता सही राह पर चलने को मजबूर होती है जो कि उसे नापसंद हो सकता है लेकिन लंबे वक्त को देखें तो यह खुद सत्ता के हित की बात रहती है।
जिस तरह मनमोहन सिंह सरकार का दूसरा कार्यकाल भ्रष्टाचार से भरा रहा उस सरकार को जनता ने ऐतिहासिक स्तर तक खारिज कर दिया, उसे देखकर भी लोगों को सीखना चाहिए। लेकिन होता यह है कि जब कोई पार्टी और नेता सत्ता पर रहते हैं तो उन्हें असहमति को उसी तरह कुचलना सुहाता है जिस तरह पकड़ी गई अवैध शराब की बोतलों को जमीन पर बिछाकर किसी रोड रोलर से उन्हें चूर-चूर कर दिया जाता है। सत्ता के मन को पढऩा अगर मुमकिन हो तो वह असहमति पर ऐसा ही रोड रोलर चलाना चाहती है। लेकिन भारत के मुख्य न्यायाधीश ने कल अपने इतने लंबे व्याख्यान में जो कहा है उस पर सबको गौर करना चाहिए, उन्होंने कोई रहस्यमय रॉकेट साइंस की बात नहीं कही है, उन्होंने लोकतंत्र की ऐसी बुनियादी बात कही है जिसकी समझ तो सबको है लेकिन जिसे समझना सत्तारूढ़ शायद ही कोई चाहते हैं। लेकिन जैसा कि उन्होंने कहा है, 5 बरस में वोट डालने के बीच में भी लोगों की अहमियत रहती है, हम भी इस बात को अलग-अलग शब्दों में लगातार लिखते आए हैं और सोशल मीडिया पर भी इस बात को लिखते आए हैं कि हिंदुस्तान में हर 5 बरस में वोट देने के हक को लोकतंत्र करार देने का झांसा दिया जाता है, या लोग खुद ही उस झांसे में पड़े रहते हैं। जस्टिस रमन्ना एक जिम्मेदारी के ओहदे पर बैठे हैं इसलिए उन्होंने इतने हमलावर तेवर में बात नहीं कही है, लेकिन कुल मिलाकर बात इसी तरह की है कि हिंदुस्तान के लोकतंत्र में लोगों की असहमति लोकतंत्र के अपने विकास के लिए उसकी सेहत के लिए जरूरी है।
लोकतंत्र संसद की बहस से परे का होता है, संसद की बहस भी लोकतंत्र का महज एक छोटा हिस्सा होती है, एक बड़ी बहस संसद सत्रों के बाहर, संसद में पार्टियों की गिरोहबंदी से परे, एक आजाद बहस होती है, और वह बहस हिंदुस्तान के आज के हाल को देखें तो वह संसद की नामौजूद बहस के मुकाबले तो बहुत अधिक अहमियत रखती है। संसद की बहस तो अब, स्मृतियां ही शेष हैं, किस्म की याद पड़ती है। जिस देश में लाखों लोगों की मौजूदगी वाली एक-एक चुनावी सभा सेहत पर खतरा न मानी जाती हो और जिस देश में एक-एक दिन में दसियों लाख लोगों का कुंभ स्नान भी देश की सेहत पर खतरा ना माना जाता हो, वहां पर हजार से कम सांसदों के दो अलग-अलग सदनों में बैठकर देश की बात करने को सेहत पर ऐसा खतरा मान लिया गया है कि आज किसी को यह याद भी नहीं होगा कि संसद का पिछला सत्र कब हुआ था। इसलिए हम भारतीय लोकतंत्र में संसद के आसरे जीना नहीं चाहते, संसद तो सत्ता के नियंत्रण में काम करने वाली एक ऐसी संस्था है जिसके उठने-बैठने को सत्ता तय करती है, इसलिए वहां से कोई अधिक उम्मीद नहीं की जा सकती। जो सडक़ों पर बहस होती है, और संसद के बाहर जो बहस होती है, वही इस देश में लोकतंत्र को जिंदा रहने का थोड़ा बहुत सुबूत रह गई है। इसलिए लोगों को अपने इस वक्त का इस्तेमाल करना चाहिए और तर्कसंगत हो या कि तर्कहीन हो, लोगों की बातों को सुनना चाहिए उन्हें बर्दाश्त करना चाहिए, और एक-दूसरे को अपने तर्कों से सहमत करना चाहिए ना कि लोगों की असहमति की वजह से उनकी भीड़त्या करने के।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कोरोना के मोर्चे पर एक बार फिर केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट में बहुत बुरी तरह घिरी है। सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका लगाई गई थी कि कोरोना से मरने वालों के परिवारों को 4-4 लाख मुआवजा दिया जाए। इस पर केंद्र सरकार ने पहले तो सुप्रीम कोर्ट में कहा कि केंद्र और राज्य सरकारें कोरोना से बहुत बुरी आर्थिक स्थिति से गुजर रही हैं और ऐसा कोई मुआवजा दे पाना उनकी क्षमता से परे हैं। लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर किया गया उस वक्त सरकारी वकील ने वहां पर यह कहा कि आर्थिक क्षमता कोई मुद्दा नहीं है, लेकिन जिस कानून के तहत सुप्रीम कोर्ट यह मुआवजा देने की बात सुन रहा उस कानून के तहत ऐसा मुआवजा देने की कोई अनिवार्यता नहीं है। इस पर राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण कानून को पढक़र सुप्रीम कोर्ट ने यह साफ कहा कि इस कानून के तहत मुआवजा देने की अनिवार्यता है, और केंद्र सरकार यह मुआवजा दे। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने मुआवजे की रकम तय करने से इंकार कर दिया और इसे सरकार के ऊपर छोड़ा। सुप्रीम कोर्ट का ताजा रुख जनहित का दिख रहा है और आम जनता के हिमायती होने का संकेत है। अभी कुछ अरसा पहले तक देश का सुप्रीम कोर्ट केंद्र सरकार की ही एक संस्था की तरह काम करते दिख रहा था, और देश के लोगों को उससे बड़ी निराशा हो रही थी। अब ताजा फर्क नए मुख्य न्यायाधीश के आने के बाद दिखाई पड़ रहा है, लेकिन यह कब तक जारी रहेगा यह अंदाज लगाना कुछ मुश्किल है। फिर भी आज इतनी बात तो राहत की है ही कि सरकार सुप्रीम कोर्ट में अगर घिर रही है तो इसका मतलब है कि सुप्रीम कोर्ट सरकार की मनमानी नहीं सुन रहा है।
लोगों को याद होगा कि अभी कुछ हफ्ते पहले जब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को कोरोना वैक्सीन के मामले में बुरी तरह से घेरा और सरकार की हर लापरवाही, अनदेखी पर ढेर सवाल किए, तो उन्हीं का नतीजा निकला कि कटघरे में खड़ी हुई मोदी सरकार ने अदालत के बाहर खुद होकर देश के तमाम लोगों को मुफ्त वैक्सीन लगाने की घोषणा की। वरना इसके पहले बहुत से राज्य, केंद्र सरकार के सामने इस बात की अपील करते हुए थक गए थे, एक दर्जन गैर-एनडीए दलों ने कई बार ऐसी मांग की थी कि सरकार प्रधानमंत्री के नाम से बनाए गए एक नए फंड की रकम का इस्तेमाल करके, या बजट में रखे गए 30 हजार करोड़ रुपए का इस्तेमाल करके पूरे देश को मुफ्त में वैक्सीन लगाएं। महीनों तक यह खींचतान चली और आखिर में जब सुप्रीम कोर्ट में सरकार बुरी तरह घिर गई, तब जाकर प्रधानमंत्री ने इस बात की घोषणा की। पता नहीं केंद्र सरकार में प्रधानमंत्री के स्तर पर फैसला लेने के वक्त कौन उनके सलाहकार चल रहे हैं, लेकिन यह बात जाहिर है कि पिछले काफी समय से केंद्र सरकार के सर्वोच्च फैसलों में से कई फैसलों ने सरकार को बहुत ही फजीहत में डाला है। अब अगर यह फैसले प्रधानमंत्री अकेले ले रहे हैं, तो वे इस फजीहत के खुद ही हकदार हैं, लेकिन अगर फैसले लेने में कुछ और लोग भी शामिल हैं तो उन सब लोगों को काम के अपने तौर-तरीकों के बारे में फिर से सोचना चाहिए। राहुल गांधी की ट्वीट के कुछ या कई हफ्ते बाद जिस तरह से सरकार को उसकी एक-एक बात माननी पड़ रही है हालांकि उसके पहले मोदी सरकार और उसके समर्थकों के अनगिनत ट्वीट राहुल गांधी के खिलाफ आ चुके रहते हैं, और आखिर में जाकर केंद्र सरकार राहुल की बातों पर अमल करती है।
यह सिलसिला आज के इस माहौल में ठीक नहीं है जब कोरोना ने लाखों परिवारों से लोगों को छीना है, माहौल पिछले महीनों में इतना खराब था कि लोग अपने परिवार के लोगों को आखिरी हफ्ते-दस दिन देख भी नहीं पाए और न उनका अंतिम संस्कार कर पाए। दूसरी तरफ लॉकडाउन की वजह से देश में अर्थव्यवस्था का जो हाल है, कारोबार जिस तरह से चौपट हो गया है, लोगों के पास बस सरकारी राशन की वजह से जिंदगी बचाने का एक जरिया बचा है, ऐसे वक्त पर केंद्र सरकार का बार-बार बदलता रूख, बार-बार अनचाहे और मजबूरी में अपने फैसलों को बदलना, बार-बार टीकों को लेकर नीति बदलना, बार बार अडऩा, और बार-बार झुकना, इस पूरे सिलसिले ने देश के लोगों का भरोसा तोड़ा है, और केंद्र सरकार की साख खराब की है। यह सिलसिला जितनी जल्द खत्म हो उतना अच्छा है क्योंकि सरकार तो 5 बरस के लिए चुनी गई है, और अभी खासा अरसा बाकी है इसलिए देश में सरकार तो यही चलनी है, लेकिन उसका ऐसा रुख लोकतंत्र पर से लोगों का भरोसा तोड़ रहा है। जिस वक्त निर्वाचित सरकार जनकल्याण के फैसलों से कतराए, और अदालत को बांह मरोड़ कर उससे जनकल्याण के काम करवाने पड़ें, तो यह बहुत ही अजीब सी नौबत रहती है, क्योंकि जजों को तो कोई चुनाव लडऩा नहीं है, उन्हें तो लुभावने फैसले देने नहीं हैं, लेकिन सरकार अपनी जिम्मेदारियों से इस हद तक कतराए या अच्छी बात नहीं है।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
जब बड़े जिम्मेदार पदों पर बैठे हुए लोग कोई लापरवाह बात कहते हैं तो अटपटा लगता है। आमतौर पर अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी या जमानत जैसे देश के सबसे ज्वलंत मामले में ही मुंह खोलने वाले भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने अभी अपने गांव जाकर वहां एक सार्वजनिक कार्यक्रम में मंच से जब यह कहा कि उन्हें 5 लाख रूपये तनख्वाह मिलती है, लेकिन उनमें से पौने तीन लाख तो इनकम टैक्स कट जाता है, और एक शिक्षक की तनख्वाह उनसे ज्यादा बचती है, तो लोगों को बात अटपटी लगी। अटपटी कई मायनों में लगी, एक तो इस हिसाब से कि लोगों का सामान्य ज्ञान और कानून की सामान्य जानकारी यह कहती है कि राष्ट्रपति की तनख्वाह इन्कम टैक्स से मुक्त रखी गई है। दूसरी बात यह कि इन 3 दिनों में हिंदुस्तान के मीडिया में से किसी भरोसेमंद मीडिया ने, या कि राष्ट्रपति भवन ने इस बात का खुलासा नहीं किया है कि नियमों में चली आ रही टैक्स छूट की व्यवस्था अगर खत्म हो चुकी है तो कब खत्म हुई है, और कब से राष्ट्रपति को टैक्स देना पड़ रहा है? और तीसरी बात यह कि क्या हिंदुस्तान का राष्ट्रपति देश के सबसे बड़े रिहायशी मकान में रहते हुए, तीनों सेनाओं का सर्वोच्च कमांडर रहते हुए, देश का प्रथम नागरिक बने हुए, क्या अपनी तनख्वाह और उस पर कटने वाले टैक्स पर मलाल जाहिर करते हुए गरिमापूर्ण लग रहा है? यह पूरा सिलसिला अटपटा था और बदमज़ा था, जिन लोगों ने रामनाथ कोविंद के राष्ट्रपति बनने के बाद से अब तक उनकी आलोचना की कोई बात नहीं पाई थी, उनको भी लगा कि क्या राष्ट्रपति टैक्स को लेकर ऐसी बात करते हुए अच्छे लग रहे हैं? और दूसरी बात यह कि लोगों के पास उनकी बात पर भरोसा करने की कोई वजह नहीं है क्योंकि देश में टैक्स की अधिकतम सीमा इतनी नहीं है कि पांच लाख की तनख्वाह पर पौने तीन लाख टैक्स लग जाए। सच जो भी होगा, कभी ना कभी सामने आएगा।
इसी किस्म की दूसरी बात कल सामने आई जब बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपने प्रदेश के राज्यपाल जगदीप धनखड़ पर यह आरोप लगाया कि 1996 के जैन हवाला कांड की चार्जशीट में उनका नाम आया था, वह एक भ्रष्ट आदमी हैं, और केंद्र सरकार को उन्हें हटाना चाहिए। ममता ने यह भी कहा कि अगर केंद्र सरकार को इस बात की जानकारी नहीं है कि आरोपपत्र में राज्यपाल का नाम है, तो मैं उन्हें बतला रही हूं और केंद्र सरकार इसका पता लगा ले। राज्यपाल ने इस बात को पूरी तरह बेबुनियाद बताया और कहा कि यह बात कुछ इस तरह की है कि उनके बारे में कहा जाए कि वह चांद पर गए थे।
अब यह दोनों बातें दो जिम्मेदार लोगों द्वारा कही गई हैं, एक भारत का राष्ट्रपति है, और एक पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री हैं। कायदे से तो इन पदों पर बैठे हुए लोगों को कोई भी तथ्यविहीन या गलत तथ्यों वाली कोई बात नहीं करना चाहिए, लेकिन सच यह है कि राष्ट्रपति की सेवा शर्तों की जो जानकारी किताबों में दर्ज है, या तो वह गलत है या राष्ट्रपति की दी गई जानकारी गलत है। इसी तरह या तो ममता गलत हैं, या जगदीप धनखड़ गलत हैं। सही कौन है इसके फैसले में देश का बहुत बड़ा वक्त भी बर्बाद हो रहा है, मीडिया का एक गैर जरूरी ध्यान इस तरफ जा रहा है, सोशल मीडिया पर लोग इन बातों को लेकर काफी कुछ लिख रहे हैं। हैरानी की बात यह है कि दिल्ली के जिस मीडिया की पहुंच राष्ट्रपति भवन और राष्ट्रपति की जानकारी तक है, और जो भारत के टैक्स ढांचे के बारे में भी वित्त मंत्रालय से बात कर सकते हैं उनमें से किसी ने भी अब तक इस विवाद पर सच सामने रखा हो, ऐसा हमारे देखने में नहीं आया है। ममता बनर्जी के हाथ बड़े-बड़े वकील हैं, पूरी सरकार है, और जैन हवाला केस ऐसा नहीं था कि उसका कोई भी पहलू कानूनी दस्तावेजों में ना आया हो, सरकारी कागजात में ना आया हो, मीडिया में न आया हो। इसलिए राज्यपाल के बारे में भ्रष्टाचार के बयान के पहले ममता बनर्जी भी कागजात जुटा सकती थीं और फिर सामने रख सकती थी कि ऐसे व्यक्ति को बंगाल का राज्यपाल ना रखा जाए।
इन दोनों ही मामलों में यह भी लगता है कि मीडिया ने भी अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाई है जिन्हें राष्ट्रपति भवन में एक पूर्णकालिक प्रेस सचिव रहते हुए उससे उसका पक्ष नहीं लिया कमा और राष्ट्रपति की बात को सही या गलत ठहराने की अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं की। इसी तरह ममता बनर्जी के आरोपों पर मीडिया ने उनसे यह नहीं कहा कि इसके तथ्य साबित करते हुए दस्तावेज कहां हैं? लोकतंत्र में यह सिलसिला अपने आपको चौथा स्तंभ कहने वाले मीडिया की गैरजिम्मेदारी का भी है और राष्ट्रपति से लेकर मुख्यमंत्री तक के लापरवाह बयानों का भी है। जब देशभर के सोशल मीडिया पर राष्ट्रपति की तनख्वाह को लेकर दिए गए उनके बयान पर विवाद खड़ा हो रहा है तो अगर राष्ट्रपति ने सही बात कही है तो राष्ट्रपति भवन के प्रेस सचिव को इस बारे में तुरंत एक बयान जारी करना चाहिए था, और अटकलबाजी को खत्म करना चाहिए था। हिंदुस्तान में मीडिया के साथ एक दिक्कत यह है कि वह अपना जिम्मा निभाने के बजाए एक हरकारे की तरह काम करने लगता है, एक व्यक्ति के बयान को लेकर दूसरे व्यक्ति से उसका पक्ष ले लेता है, दूसरे के बयान को पहले के बयान के साथ जोडक़र दिखा देता है, लेकिन इतनी जहमत नहीं उठाता कि सच को तलाशने की अपनी जिम्मेदारी भी पूरी कर ले। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए।
जिस वक्त हिंदुस्तान में मीडिया नाम की कोई चीज नहीं थी, और महज प्रेस हुआ करता था उस वक्त अखबारनवीस अधिक जिम्मेदार हुआ करते थे लेकिन जैसे-जैसे अखबारों का एकाधिकार खत्म हुआ और टीवी का दाखिला हुआ, धीरे-धीरे डिजिटल मीडिया आया, और जिम्मेदारी बहुत हद तक खत्म हो गई। जहां मीडिया को बड़े तल्ख सवालों के साथ राष्ट्रपति से लेकर मुख्यमंत्री तक से जवाब लेना था, वहां पर आज का मीडिया एक पहलू को ही एक खबर बनाकर लोगों के सामने पेश कर रहा है। जो बातें सरकारी अदालती कागजों में दर्ज हैं उनको भी नहीं देख रहा है। हिंदुस्तान की जनता नेताओं से लेकर मीडिया तक की ऐसी गैरजिम्मेदारी का नुकसान झेल रही है, और यह लोकतंत्र परिपक्व हो ही नहीं पा रहा है।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
तेलंगाना सरकार का एक नया फैसला सामने आया है जिसमें राज्य के तमाम गरीब दलित परिवारों को सरकार अगले 4 बरस में 10-10 लाख रुपए देगी। यह योजना 40000 करोड़ों रुपए खर्च करने की है और राज्य के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने बाकी पार्टियों से भी अपील की है कि वे राजनीति से परे इस योजना में साथ देने के लिए दलित परिवारों की शिनाख्त में मदद करें। दलित, आदिवासी, या देश के दूसरे कमजोर तबकों की मदद के लिए केंद्र और राज्य सरकारों की बहुत सी योजनाएं हैं। लेकिन दलित परिवारों को सीधी मदद के साथ-साथ इस तबके के व्यापक फायदे के लिए उनके सशक्तिकरण पर तेलंगाना सरकार 40000 करोड़ रुपए खर्च करने जा रही है। यह देश में अपनी किस्म का सबसे बड़ा खर्च या पूंजी निवेश है। अगर इससे इन परिवारों और इस तबके की उत्पादकता बढ़ती है तो यह पूंजी निवेश है वरना यह एक अनुदान रहेगा और इससे होने वाले फायदों को लेकर सवाल उठेंगे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के किसानों के खाते में सीधे मदद भेजने का एक सिलसिला शुरू किया, और छोटी-छोटी रकम किस्तों में उनके बैंक खातों में पहुंचने लगी और कुछ हजार रुपए हर कुछ महीने के बाद किसी किसान परिवार को मिले। वैसी योजना का तेलंगाना की ताजा योजना से कोई मुकाबला नहीं हो सकता। और कई राज्य हैं जो दलित या आदिवासी या गरीबी की रेखा के नीचे के परिवारों को कई तरह की मदद करते हैं। छत्तीसगढ़ ने बिना जातिगत आधार के सभी किसानों के कर्ज माफ किये, और सभी का धान महंगे में खरीदा, सबको धान-बोनस दिया। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री कन्या विवाह योजना जैसी योजनाएं चलती हैं जिनमें हर जोड़े पर 25-30 या 50 हजार रुपियों तक का खर्च सरकार उठाती है। जयललिता ने तमिलनाडु का मुख्यमंत्री रहते हुए कई किस्मों की योजनाएं शुरू की थी जिनमें गरीबों को 5 या 10 में भरपेट खाना देने की योजना सबसे अधिक लोकप्रिय हुई थी और वह आज भी वहां जारी है। छत्तीसगढ़ में इस किस्म के खाने की योजना शुरू हुई, लेकिन वह चल नहीं पाई और धीरे-धीरे उसने दम तोड़ दिया। अब हर राज्य अपनी ऐसी लुभावनी योजना सामने रखकर बाकी राज्यों के सामने एक चुनौती भी खड़ी कर देते हैं कि वे अपने राज्य के उन तबकों के लोगों के लिए क्या कर सकते हैं? तेलंगाना की इस योजना पर प्रतिक्रियाओं को अभी हमने पूरा देखा नहीं है लेकिन खबरों में जितनी जानकारी आई है वह यही है के राज्य सरकार 4 बरस में दलित तबकों के लिए 40 हजार करोड़ रुपए खर्च कर रही है और हर गरीब दलित परिवार को 10-10 लाख रुपए सहायता नगद देने का फैसला लिया गया है।
यह रकम खासी बड़ी होती है और अगर दलित परिवार अपने मौजूदा रोजगार के अलावा इस रकम का समझदारी से इस्तेमाल करें तो उनकी जिंदगी बदल सकती है। लेकिन बहुत से लोगों का यह तजुर्बा रहा है कि जब लोगों को बिना मेहनत के अचानक ऐसी मदद मिलती है तो उनके पास इसके सही इस्तेमाल की सोच नहीं रहती और परिवार अपनी तमाम अपूरित हसरतों पर ऐसी रकम खर्च कर देता है। अगर सरकार ने इसके साथ कोई बंदिश नहीं रखी होगी, तो हो सकता है कि बहुत से परिवार शादी-ब्याह में इसे खर्च कर दें, या परिवार के लडक़े-लड़कियां शौक के दुपहिया खरीदने में इस रकम को लगा दें, या परिवार अगर धार्मिक होगा तो हो सकता है कि तीर्थ यात्रा पर इसका कुछ हिस्सा खर्च हो जाए। अब सवाल यह है कि आर्थिक रूप से कमजोर दलित परिवारों की मदद तो ठीक है, लेकिन उस मदद का उनके लिए अच्छा इस्तेमाल भी हो जाए, यह देखना भी सरकार का जिम्मा है, और रहेगा।
सरकार को सिर्फ मदद नहीं देनी चाहिए यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि इस मदद से उस परिवार का एक लंबे समय का भला होगा, वरना यह भी हो सकता है कि हर साल ढाई लाख रुपए मिलने हैं, जो कि बीस हजार रुपये महीने के करीब होते हैं, तो ऐसे में कोई भी काम करने की क्या जरूरत है? ऐसे परिवार मेहनत करना कम कर सकते हैं, मौजूदा काम से जी चुरा सकते हैं, और 4 बरस बाद वे उसी जगह बैठे रह सकते हैं, जहां आज हैं। बात यह भी है कि दूसरे राज्यों के सामने तो यह चुनौती बाद में रहेगी, खुद तेलंगाना में अगली जो भी सरकार रहेगी, उसके सामने यह एक बड़ी चुनौती रहेगी कि इसका मुकाबला करने लायक और कौन सी लोक लुभावनी योजना वह सरकार ला सकती है? और यह मामला अगली सरकार के आने तक भी नहीं चलेगा, यह तो अगले विधानसभा चुनाव में मुकाबले में खड़ी तमाम बड़ी पार्टियों के सामने रहेगा कि वे अपने चुनाव घोषणापत्र में 10 लाख की इस रकम को 20 लाख तक ले जाती हैं, या दलितों से परे इसे आदिवासियों तक ले जाती हैं, या इसमें ओबीसी को भी शामिल किया जाता है, या गरीबी की रेखा के ऊपर के लोगों को भी इसमें शामिल किया जाता है।
मुफ्त में दिए जाने वाले 100 फ़ीसदी अनुदान आदतों को बिगाडऩे वाले भी होते हैं। हम खुद गरीब दलित परिवारों के भले के लिए अपने सवाल खड़े कर रहे हैं कि इस रकम का बेहतर इस्तेमाल करने की उनकी तैयारी करवाना भी सरकार की जिम्मेदारी है। सीधे उनके खाते में एकमुश्त सालाना ढाई लाख या हर महीने 20000 भेज देना न तो जनता के पैसों का अच्छा इस्तेमाल होगा और न ही इनसे उन परिवारों का बहुत भला होगा। गरीब कल्याण की जितनी अनुदान योजनाएं रहती हैं उनके साथ लोगों को आलसी बनाने का एक खतरा भी लगे रहता है। इस देश में गरीबों के कल्याण की जो सबसे कामयाब योजना रही वह ग्रामीण रोजगार देने की मनरेगा योजना रही जिसे यूपीए सरकार ने शुरू किया था और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसके घोर आलोचक थे, लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद उनको यह बात समझ में आई कि देश के सबसे गरीब तबके के कल्याण के लिए मनरेगा से बेहतर कोई योजना नहीं हो सकती और मोदी ने पूरे उत्साह के साथ इस योजना को जारी रखा आगे बढ़ाया और इस पर दांव लगाया। लेकिन वह योजना, रोजगार योजना थी, उसमें स्थानीय बाजार के मजदूरी के रेट से अधिक मजदूरी सरकार देती है, और जिन इलाकों में मजदूरी का कोई बाजार नहीं है वहां भी सरकार लोगों को साल में 100 दिन रोजगार देने के लिए इस योजना को चला रही है। ऐसी हालत में यह योजना घर बैठे बिना मेहनत खाने की योजना नहीं है बल्कि जाकर मजदूरी करके कमाने की योजना है।
तेलंगाना सरकार की यह ताजा दलित कल्याण योजना हमारे मन में कई तरह के संदेह और कई तरह के सवाल खड़े करती है। गरीबी की रेखा के नीचे के या गरीबी के किसी और पैमाने पर छांटे गए दलित परिवारों की महीने की कमाई भी आज शायद उतनी नहीं होगी जितनी मदद यह सरकार उन्हें 4 वर्ष तक करने जा रही है। क्या यह मदद उन्हें 4 बरस तक बिना किसी काम के निठल्ला बैठने के लिए बढ़ावा देगी? अगर ऐसा होगा तो इस राज्य में यह रवैया बढ़ते बढ़ते और खतरनाक स्तर पर पहुंच जाएगा। हमने इसी पन्ने पर अभी कुछ दिन पहले तमिलनाडु सरकार की एक सोच की तारीफ की थी जिसमें राज्य के आर्थिक विकास के लिए एक ऐसी सलाहकार समिति वहां राज्य सरकार ने बनाई है जिसमें ज्यां द्रेज़ जैसे गरीबों के हिमायती अर्थशास्त्री हैं, और हाल ही में नोबेल पुरस्कार पाने वाली अमेरिका में पढ़ा रहे हैं एक दूसरी अर्थशास्त्री भी हैं। उसमें रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे हुए रघुराम राजन को भी रखा गया है, और ऐसे लोगों के रहते हुए वहां पर गरीबों के कल्याण की बात भी होगी और आर्थिक मामलों के जानकार लोगों के संदेह भी मेज पर रहेंगे कि इनसे सचमुच का फायदा लोगों को किस तरह पहुंचे। अभी तक की खबरों के मुताबिक तेलंगाना मुख्यमंत्री की यह ताजा घोषणा इस तरह की किसी सलाहकार समिति की सिफारिश या व्यापक जन चर्चा के बाद लिया गया फैसला नहीं है। यह फैसला लेकर इसकी घोषणा की गई है। इसलिए ऐसे फैसले के साथ जो खतरे जुड़े रह सकते हैं उन पर कोई चर्चा हुई हो ऐसा हमें नहीं दिख रहा है। हम किसी भी तरह से गरीब दलित परिवारों के उत्थान के लिए किसी राज्य सरकार द्वारा खर्च करने सीधी नगद मदद करने के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन इस मदद का उत्पादक इस्तेमाल हो यह राज्य सरकार की जिम्मेदारी बनती है और जो हमें आज तेलंगाना में नहीं दिख रही है।
राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद 4 बरस बाद अपने गृह ग्राम जाने के लिए दिल्ली से कानपुर पहुंचे। इस मौके की जो तस्वीरें सरकारी अफसरों ने सोशल मीडिया पर पोस्ट की हैं उनमें कानपुर के रेलवे स्टेशन पर पटरियों के नीचे लगी स्लीपर तक को रंग कर सजाया गया था, जाहिर है कि कानपुर शहर को भी कुछ सजाया गया होगा और कानपुर के पास से राष्ट्रपति के अपने गांव को भी। लेकिन इसके पहले कि यह सब खुशियां कामयाब हो पातीं, कानपुर शहर में राष्ट्रपति के लिए पौन घंटे तक रोके गए ट्रैफिक में फंसी एंबुलेंस में तड़प तड़प कर एक महिला की मौत हो गई। वहां मौजूद पुलिस वालों से एंबुलेंस को जाने देने की अपील काम नहीं आई, घर वाले रोते रहे, गिड़गिड़ाते रहे, लेकिन पुलिस रास्ता रोके खड़ी रही, जिंदगी चली गई। जब मुर्दा जिस्म को लेकर परिवार अस्पताल पहुंचा तो डॉक्टरों का कहना था कि 10 मिनट पहले अगर लाया जाता तो शायद जान बच सकती थी। मीडिया की मेहरबानी से यह खबर चारों तरफ फैली और जब इस महिला का अंतिम संस्कार हो रहा था तो राष्ट्रपति की तरफ से शोक संदेश लेकर कानपुर के बड़े अफसरों को वहां भेजा गया।
यह अकेला मौका नहीं है और इसे हम मोदी सरकार के बनाए हुए राष्ट्रपति से जोडक़र भी नहीं देखते। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने कार्यकाल में जब चंडीगढ़ गए थे तो वहां भी सबसे बड़े अस्पताल के आसपास का ट्रैफिक इसी तरह रोका गया था, और देश भर में यह जगह जगह होता है। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तो इस देश में एक-एक ही हैं, लेकिन 2 दर्जन से अधिक मुख्यमंत्री, 2 दर्जन से अधिक राज्यपाल, और शायद हजार-पांच सौ मंत्रियों के लिए भी अलग-अलग जगहों पर वहां के स्थानीय मिजाज के मुताबिक ट्रैफिक को ऐसे ही रोका जाता है। छत्तीसगढ़ में एक मुख्यमंत्री के काफिले के लिए एक अस्पताल के बाहर इसी तरह राष्ट्रीय राजमार्ग पर ट्रैफिक को जब बहुत देर तक रोका गया था, और जब मुख्यमंत्री की फूलों से लदी हुई गाड़ी निकली, तो सडक़ पर खड़े लोगों में से एक ने पूछा कि गाड़ी में कौन है, तो दूसरे ने जवाब दिया कि कोई मुर्दा दिखता है, इतनी माला किसी मुर्दे पर ही चढ़ती हैं. ऐसा भी नहीं था कि लोगों को समझ नहीं आ रहा था कि गाडिय़ों के काफिले में फूलों लड़ी गाड़ी में कौन है, लेकिन लोगों के मन की हिकारत और नफरत थी जो जिंदा मुख्यमंत्री को भी मुर्दा करार दे रही थी। यह बात सही है कि सडक़ों पर ट्रैफिक को रोकने वाले ऐसे नेताओं की संवेदनशीलता तो मुर्दा रहती ही है क्योंकि उन्हें भी यह बात मालूम है कि रोके गए ट्रैफिक में कोई बीमार हो सकते हैं, कोई लोग ट्रेन पकडऩे जा रहे हो सकते हैं जिनकी ट्रेन छूट जाए, कुछ और लोग बैंक, सरकारी दफ्तर या अदालत जाने वाले हो सकते हैं जहां न पहुंचने पर उन्हें बड़ा नुकसान हो जाए।
हिंदुस्तान में वीआईपी और वीवीआईपी कहे जाने वाले इस तबके के लिए आम जनता को जानवरों की तरह कहीं भी रोक देना एक बिल्कुल ही आम बात है, और हमने आज तक किसी ऐसे नेता को नहीं देखा है जिसने इस लोकतांत्रिक अधिकार का मजा ना लिया हो। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में जिस वक्त रमेश बैस महज एक सांसद थे, उन्होंने राज्य सरकार को चिट्ठी लिखी थी कि उनके निकलने पर ट्रैफिक नहीं रोका जाता है और सामने सायरन वाली गाड़ी नहीं चलती है। इसी राजधानी में स्थानीय विधायक और पिछली सरकार में 15 बरस मंत्री रहे हुए बृजमोहन अग्रवाल जब भी अपने सरकारी बंगले से अपने पारिवारिक मकान तक आते जाते थे तो उनके काफिले में सामने सायरन बजाती हुई गाड़ी लोगों को हटाते चलती थी, और वे खुद कार में सामने बैठे हुए एक लाइट जलाकर अपना चेहरा लोगों को दिखाते रहते थे। जिन लोगों को उनका काफिला लाठियों से हांककर हटाता था, उन्हीं को चेहरा दिखाने का साहस भी कोई छोटी बात नहीं होती।
लेकिन हिंदुस्तान में यह सिलसिला सिर्फ नेताओं के लिए रहता हो ऐसा भी नहीं है। हम हाईकोर्ट जजों को देखते हैं कि उनके शहर से राजधानी आने और यहां से किसी उड़ान में आगे आने-जाने के दौरान पूरे रास्ते में पुलिस यह देखती है कि कोई जानवर सामने ना आ जाए और सायरन बजाती पायलट गाड़ी लोगों को रास्ते से हटाते चलती है कि बड़े जज साहब आ रहे हैं। कोई यह अंदाज लगा सकते हैं कि एक बड़े जज को प्रदेश में कहीं भी आते-जाते हुए ऐसी पुलिस गाड़ी और सायरन की जरूरत क्यों पड़ती है? और क्यों उनके लिए चौराहों पर सिपाहियों को चौकन्ना होकर खड़े रहना पड़ता है? क्या जज फांसी पर टंगने जा रहे किसी इंसान की जिंदगी को रोकने का फैसला करने कहीं पहुंच रहे हैं कि उन्हें सडक़ों पर लोगों को रोककर, वहां से हांककर खुद पहले आगे बढऩे की हड़बड़ी हो? इस देश में सिर्फ सरकारी पदों पर बैठे हुए नेताओं को ही नहीं, बड़े अफसरों को भी, बड़े जजों को भी, और दूसरे संवैधानिक पदों पर बैठे हुए लोगों को भी सार्वजनिक सडक़ों पर जनता को हांककर खुद तेजी से आगे बढऩा बहुत अच्छा लगता है।
यह देश अपने-आपको लोकतांत्रिक भी कहता है और विकसित भी कहता है, लेकिन इस देश में लोकतंत्र बस इतना ही विकसित है कि कुछ हजार लोग वीआईपी या वीवीआइपी हैं, और बाकी करोड़ों लोग कीड़े मकोड़े की तरह, मवेशियों की तरह सडक़ों से खदेड़ देने के लायक हैं, सडक़ों पर रोक दी गई एंबुलेंस में मर जाने के लायक हैं। इस देश में राजशाही और सामंतवाद का खात्मा दूर-दूर तक कहीं नहीं दिखता। लोगों को ऐसी शान शौकत बहुत सुहाती है, बड़े-बड़े काफिले बहुत अच्छे लगते हैं। इस देश के रेलवे स्टेशनों पर शौचालय चाहे साफ न हो सकें, पीने का पानी चाहे साफ ना मिल सके, लेकिन राष्ट्रपति के पहुंचने पर रेल पटरियों के नीचे बिछे हुए स्लीपर भी रंगे जाते हैं जहां तक कि राष्ट्रपति की नजर भी नहीं पडऩे वाली है। और यह सब खर्चा उस गरीब जनता के हक को छीन कर ही होता है जिस गरीब जनता को अगर सरकारी मदद का अनाज ना मिले तो वह भूखे ही मर जाए।
लोग सत्ता पर पहुंचकर संवेदना अनिवार्य रूप से खो बैठते हैं। जो इंसान इस देश में सबसे बड़े रिहायशी मकान, राष्ट्रपति भवन में रहता है उसे तो अपने पूरे गांव को एक ट्रेन में दिल्ली बुलवा लेना था, गांव दिल्ली देख लेता, अपने एक कामयाब बेटे का राष्ट्रपति भवन देख लेता, और कानपुर की फिजूलखर्ची भी बचती, और एक बेकसूर महिला की जिंदगी भी शायद बच गई होती। इस देश में वीआईपी और वीवीआईपी तबके में अपने को शुमार करवाने के लिए जो लोग लगातार कोशिश करते रहते हैं उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि आम जनता ऐसे तबकेधारी लोगों से हिकारत ही नहीं करती, बल्कि नफरत करती है। गरीब की आह लेना किसी के लिए अच्छी बात नहीं है, इसलिए इस एक मौत से सबक लेकर कम से कम राष्ट्रपति यह सिलसिला शुरू कर सकते हैं कि उनके काफिले के लिए किसी चौराहे पर ट्रैफिक ना रोका जाए और वह खुद लालबत्ती पर रुककर हरी बत्ती पर ही आगे बढ़ेंगे। अगर राष्ट्रपति ऐसा करते हैं तो यह माना जायेगा कि उनके नाम पर, उनकी तामझाम के लिए, जिस जिंदगी को बलि चढ़ाया गया है, उसका कुछ दर्द राष्ट्रपति को हुआ है। यह लिखते हुए हमें उम्मीद जरा भी नहीं है कि इस देश के ताकतवर लोगों में से कोई भी अपने ऐसे विशेष अधिकारों को और ऐसे आडंबरों को कम करने के बारे में सोचेंगे भी, लेकिन फिर भी लिखना हमारा काम है, और हमारा बस लिखने तक ही तो सीमित है।
बस्तर पुलिस की बार-बार एक अपील आ रही है कि माओवादी आत्मसमर्पण करें और कोरोना का इलाज कराएं, अपनी, अपने साथियों की, और ग्रामीणों की जान बचाएं। इसके साथ ही पुलिस यह भी बता रही है कि किस तरह आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों को कोरोना की वैक्सीन लगाई जा रही है। बात सही है कि जंगलों में जो माओवादी हैं, जो इलाज के लिए शहरों तक नहीं आ पाते हैं, उनके लिए कोरोना का इलाज जंगल में मुमकिन भी नहीं है, और न ही कोरोना की वैक्सीन उन्हें हासिल हो सकती है। नतीजा यह है कि अभी 2 दिन पहले ही दो प्रमुख नक्सलियों की मौत की खबर आई है। जंगल में जहां वे पुलिस और बाकी सुरक्षा बलों के खिलाफ लगातार हथियारबंद लड़ाई लड़ रहे हैं वहां पर उनके पास मामूली बीमारियों का इलाज तो है, मामूली जख्मों का इलाज भी है, लेकिन खतरनाक संक्रामक रोग से बचाव का उनके पास कोई जरिया नहीं है।
अभी यहां पर एक सवाल यह उठता है कि सरकार की तरफ से बस्तर के नक्सल मोर्चे पर तकरीबन सारे ही बयान देने वाली पुलिस का यह ताजा बयान कहता है कि वे आत्मसमर्पण करें और फिर कोरोना का इलाज करवाएं। सवाल यह है कि अगर वे आत्मसमर्पण ना करें तो क्या वे भारतीय नागरिक के रूप में या भारतीय जमीन पर मौजूद इंसान के रूप में किसी इलाज के हकदार हैं, या नहीं है? यह सवाल जरूरी इसलिए है कि कुछ बरस पहले तक बस्तर में एक अंतरराष्ट्रीय संगठन, एमएसएफ, काम कर रहा था और इस संगठन की यह घोषित नीति थी कि दुनिया में वह आमतौर पर हथियारबंद संघर्ष वाले इलाकों में ही स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध कराता था, और ऐसा करते हुए वह यह भेदभाव नहीं करता था कि इलाज के लिए आने वाले लोग कौन हैं, वे हथियारबंद गोरिल्ला हैं, या वे सुरक्षाबलों के लोग हैं, वे कानूनी हैं या गैरकानूनी हैं, या कोई मुजरिम हैं. ऐसा कोई भी फर्क वह इलाज के लिए नहीं करता था, उसकी एक ही शर्त पूरी दुनिया में रहती है कि उसके अहाते में इलाज के लिए आने वाले लोग अपने हथियार बाहर छोडक़र आएं. हथियार लेकर भीतर आने वाले लोगों के इलाज से यह संगठन मना कर देता था। छत्तीसगढ़ में 2007 के करीब इस संगठन को बस्तर से निकाल बाहर किया गया क्योंकि इसने इलाज के लिए आने वाले सुरक्षाबलों के लिए भी यह शर्त रखी थी कि वे हथियार बाहर छोडक़र आएं, और हथियार बाहर छोडक़र आने वाले नक्सलियों को भी यह इलाज के लिए मना नहीं करता था। राज्य सरकार की पुलिस और दूसरी एजेंसियों को इस बात की शिकायत थी कि यह अंतरराष्ट्रीय संगठन नक्सलियों का भी इलाज करता है। इसलिए इसे चेतावनी दी गई, इसने बार-बार छत्तीसगढ़ की रमन सिंह सरकार के सामने अपनी बात को रखने की कोशिश की, अपनी अंतरराष्ट्रीय नीति बतलाई, और यह बताया कि दुनियाभर के संघर्षग्रस्त इलाकों में काम करते हुए वह इसी नीति पर चलता है, और वह आने वाले किसी को भी इलाज के लिए मना नहीं करता है. लेकिन राज्य सरकार इस बात से सहमत नहीं हुई और इस अंतरराष्ट्रीय संगठन को प्रदेश से बाहर निकाल दिया गया था।
अब सवाल यह उठता है कि देश में जो मौजूद हैं, वे चाहे दूसरे देशों से गैरकानूनी तरीके से आए हुए शरणार्थी हैं, घुसपैठिए हैं, या कि इस देश के भीतर ही कानून से टकराव मोल लेने वाले, और गैरकानूनी हरकत करने वाले हिंसक, हथियारबंद लोग हैं, क्या सरकार इनमें से किसी के इलाज को मना कर सकती है, और क्या यह बात यह देश के कानून के मुताबिक जायज है, या क्या यह बात अंतरराष्ट्रीय कानून के मुताबिक सही है कि किसी को इलाज के लिए मना किया जाए? लोगों को एक ताजा घटना शायद याद हो कि अभी कुछ हफ्ते पहले ही उत्तर पूर्व के एक राज्य मणिपुर में म्यांमार से गैर कानूनी रूप से भारत आने वाले लोगों के बारे में वहां की मणिपुर की भाजपा सरकार ने यह नोटिस जारी कर दिया था कि कोई भी व्यक्ति म्यांमार के ऐसे लोगों को ना शरण दे, ना खाना दे, ना उन्हें किसी तरह का इलाज दे। हमने इसके खिलाफ तुरंत लिखा भी था, और बाकी चारों तरफ से मणिपुर सरकार पर इतना दबाव पड़ा, खुद भारत सरकार ने शायद उसके खिलाफ राज्य सरकार को निर्देश दिया और राज्य का वह आदेश वापस लेना पड़ा।
आज बस्तर में नक्सलियों को कोरोना के इलाज से, या कोरोना का टीका लगाने से मना करना शायद देश के कानून के हिसाब से ठीक बात नहीं है, इंसानियत के हिसाब से तो बिल्कुल ही ठीक नहीं है। सरकार की यह जिम्मेदारी हो जाएगी कि इलाज के लिए आने वाले ऐसे लोगों को उनके गैरकानूनी कामों के लिए गिरफ्तार किया जाए, और यह बात ही नक्सलियों को किसी सरकारी इलाज तक आने से रोकती है। ऐसे में ही वहां से निकाले गए अंतरराष्ट्रीय संगठन एमएसएफ की जरूरत महसूस होती है। इस संगठन को डॉक्टर्स विदाउट बॉर्डर्स कहां जाता है और यह संगठन सरकार या दूसरे हथियारबंद उग्रवादियों के मामले में इलाज के लिए कोई फर्क नहीं करता। बस्तर से इस संगठन को निकाल तो दिया गया लेकिन आज कोरोना की नौबत में ऐसे संगठन की जरूरत महसूस हो रही है क्योंकि उग्रवादियों को भी इलाज उपलब्ध न कराना राज्य सरकार या देश की सरकार की लोकतांत्रिक नाकामयाबी ही होगी। जिस तरह देश में किसी मुजरिम को भी एक वकील करने का हक रहता है, अपने वकील से जाकर मिलने का हक रहता है, उससे बात करने का हक रहता है, और वकील का यह विशेषाधिकार रहता है कि वह अपने मुवक्किल से की गई किसी भी बातचीत को अदालत को भी बताने से मना कर सकता है, ऐसा ही डॉक्टरी के पेशे के साथ भी होना चाहिए और ऐसा ना होना लोकतंत्र की एक नाकामयाबी है।
छत्तीसगढ़ में कई बरस पहले पिछली भाजपा सरकार के दौरान एक विशेष जन सुरक्षा अधिनियम बनाया था जिसमें नक्सलियों की खबरें छापने या उनके बयान छापने को लेकर अखबारों को भी घेरे में लेने की बात थी। यह एक अलग बात है कि रमन सरकार ने कभी उसका इस्तेमाल मीडिया के खिलाफ नहीं किया, लेकिन वह एक अलग से कानून बनाकर नक्सलियों की मीडिया तक की पहुंच को रोकने की कोशिश की गई थी, जो रोक कभी कामयाब नहीं हो सकी। देश के भीतर गैरकानूनी काम करने वाले लोग भी कानून के तहत नागरिकों को मिलने वाले आम अधिकारों के हकदार होते हैं।
बस्तर को एक पुलिस समस्या मानकर पुलिस के भरोसे छोड़ देना बड़ी गैर जिम्मेदारी का काम है। राज्य सरकार और बस्तर की राजनीतिक ताकतें अगर कोरोनाग्रस्त नक्सलियों को लेकर कोई भी बात नहीं सोच रही हैं, और इसे महज एक जिले के एसपी के तय करने का मामला मान लिया गया है, तो यह एक लोकतांत्रिक राजनीति की विफलता है। पुलिस से इतनी लोकतांत्रिक परिपच्ता की उम्मीद नहीं की जाती कि वह नक्सलियों के मानवाधिकारों और बुनियादी अधिकारों के बारे में भी सोचे, लेकिन बस्तर के साथ यह दिक्कत लंबे समय से चली आ रही है कि वहां के नक्सल मोर्चे को सिर्फ पुलिस अफसरों के लायक मानकर उन्हीं के भरोसे छोड़ दिया गया है। यह बात छोटी है और कोरोना के इलाज या वैक्सीन के लिए जरूरतमंद नक्सलियों की गिनती बहुत बड़ी नहीं होगी और आम शहरी लोगों को यह बात अटपटी लगेगी कि जो नक्सली बेकसूर लोगों को मारते हैं उनकी जान भी बचाने की बात हो रही है। लेकिन खुद पुलिस के बीच से ऐसी मिसालें सामने आई हैं कि जब कोई जख्मी नक्सली पुलिस के हाथ लगा है, और उसे खून देने की नौबत आई है, तो पुलिस वालों ने ही उसे खून दिया है। हम इसे राज्य सरकार की जिम्मेदारी मानते हैं कि वह नक्सलियों के लिए कोरोना के इलाज या वैक्सीन के कैंप लगाए और उन्हें खुला न्यौता दे कि वे वहां आकर अपना इलाज करवा सकते हैं, या वैक्सीन लगवा सकते हैं, और इस दौरान सुरक्षाबल उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं करेंगे। नक्सलियों के मन में न तो लोकतंत्र के लिए सम्मान है, और न ही माननीय मुद्दों को लेकर वे नरम दिल हैं। लेकिन एक लोकतांत्रिक सरकार को नक्सलियों के मुकाबले अधिक जिम्मेदार रहना चाहिए, अपने पर हमले करने वाले नक्सलियों को भी इलाज उपलब्ध कराना चाहिए। ऐसा ना होने पर नक्सलियों की आवाजाही वाले गांव के बेकसूर लोग भी संक्रामक रोग के शिकार हो सकते हैं। इस मामले को लेकर राज्य सरकार को एक नीतिगत फैसला लेना चाहिए, न कि इसे पुलिस के तय करने का मुद्दा मान लिया जाए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ में सरकार सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के लिए भी अंग्रेजी में पढ़ने का इंतजाम कर रही है और प्रदेश के हर जिले में अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खोले जा रहे हैं। इनके लिए अलग से शिक्षक नियुक्त हो रहे हैं जिनके लिए इश्तहार हो चुके हैं। इनमें दाखिले के लिए बच्चों से आवेदन बुलाकर उसकी लॉटरी निकाली जाएगी और दाखिला होगा। इस बीच जमीन पर सरकारी स्कूलों को अंग्रेजी स्कूल बनाने का काम भी तेजी से चल रहा है, उनका ढांचा सुधारा जा रहा है, उनके अहाते में सब तरह के विकास कार्य हो रहे हैं, इमारतों का रंग रोगन हो रहा है, खुद सरकार की घोषणाओं को देखें तो वहां पर अच्छी लाइब्रेरी और अच्छी कंप्यूटर लैब भी बनने जा रही है। सरकार का यह कहना है कि जब भी कोई नई चीज बनती है तो वह नए पैमानों के आधार पर पहले से बेहतर बनती है, और फिर बाद में बाकी पुरानी चीजों को भी सुधारने का काम होता है। सरकारी अंग्रेजी स्कूलों को बेहतर ढांचागत सुविधाओं के साथ शुरू करने का एक यह तर्क भी सरकार दे रही है कि इन स्कूलों का मुकाबला निजी अंग्रेजी स्कूलों से होगा इसलिए बच्चों के परिवार उन्हें यहां तभी भेजेंगे जब यहां निजी स्कूलों से तुलना करने के लायक सहूलियतें होंगी।
यह देखकर अच्छा लग रहा है कि हर शहर में कुछ सरकारी स्कूलों का दर्जा ऊंचा हो रहा है और वे बाकी सरकारी स्कूलों के मुकाबले खासी अधिक सहूलियत वाली होने जा रही हैं क्योंकि वे अब अंग्रेजी स्कूल रहेंगी। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम लगातार अंग्रेजी को एक भाषा के रूप में बढ़ावा देने के लिए लिखते आए हैं, ना सिर्फ स्कूल कॉलेज में, बल्कि इनकी इमारतों में छुट्टी के दिन या शाम के घंटों में आम लोगों के लिए भी अंग्रेजी सीखने-सिखाने का सरकारी या सामाजिक इंतजाम करने की सलाह हम देते आए हैं। अब सरकार का इंतजाम साफ-साफ दो किस्म का हो रहा है एक तो अधिक सहूलियतों वाली अंग्रेजी स्कूल है, और दूसरा पहले से चली आ रही हिंदी स्कूल है जिनमें दिक्कतों की भरमार है, और जिनके सुधार के लिए जिन्हें बेहतर बनाने के लिए सरकार के बजट में कोई अधिक रकम भी नहीं दिख रही है। कुछ लोगों ने अंग्रेजी स्कूलों की शानदार इमारतों की तस्वीरें देखते ही सोशल मीडिया पर यह पोस्ट करना शुरू किया है कि हिंदी भाषा की बाकी सरकारी स्कूलों का बदहाल कैसा है। लोगों ने विधानसभा में राज्य सरकार के पेश किए हुए आंकड़े बतलाए हैं कि सैकड़ों स्कूलों में कोई अहाता नहीं है, और ना ही उन्हें बनाने के लिए सरकार ने बजट में कोई रकम रखी है। स्कूल की इमारतों को लेकर अभी जैसे ही सत्र चालू होगा, लगातार जगह-जगह से तस्वीरें आने लगेंगी कि कहां पानी गिर रहा है, कहां छप्पर टूटा हुआ है, और कहां पानी में डूबकर बच्चों को स्कूल की इमारत तक पहुंचना पड़ता है।
इसमें कोई हैरानी या बदनीयत की बात नहीं है कि जैसे ही नई सरकारी अंग्रेजी स्कूलों की अधिक चमकदार और शानदार इमारतों की तस्वीरें आईं वैसे ही लोगों को बाकी स्कूलों की बदहाली याद आने लगी। ऐसा होता ही है आजादी की सालगिरह के दिन ही यह अधिक याद पड़ता है कि देश में लोग किस-किस बात के लिए आज भी आजाद नहीं है। गांधी जयंती या गांधी पुण्यतिथि के दिन याद पड़ता है कि गांधी को आज किस तरह अप्रासंगिक बना दिया गया है और उनकी बात पर उनकी शुरू की हुई कांग्रेस पार्टी ही नहीं चल रही है। इसलिए जब एक तरफ प्रदेश के कुछ अफसर और सत्तारूढ़ पार्टी के कुछ नेता अंग्रेजी स्कूलों के लिए तैयार शानदार इमारतों की तस्वीरें पोस्ट कर रहे हैं तो उसी वक्त बहुत लोगों को हिंदी स्कूलों की याद आएगी ही आएगी।
राज्य सरकार के कई लोगों से पिछले कुछ महीनों में बात करके हमें जो समझ आया है, उसमें एक बात फिर भी समझ नहीं आई है कि अगर अंग्रेजी भाषा में कोई पढ़ाई होनी है, तो उसके लिए हिंदी भाषा की पढ़ाई वाली स्कूलों के मुकाबले बेहतर ढांचा क्यों जरूरी है? अगर सरकार का यह तर्क है कि अगर ढांचा बेहतर नहीं रहेगा तो लोग अपने बच्चों को सरकारी अंग्रेजी स्कूल में क्यों भेजेंगे? तो यह तो जाहिर है कि सरकारी अंग्रेजी स्कूल क्योंकि बिना फ़ीस बच्चों को पढ़ाएगी इसलिए मां बाप अपने बच्चों को वहां भेजना चाहेंगे, और जो संपन्न तबका निजी अंग्रेजी स्कूल का खर्च उठा सकता है, वह सरकारी अंग्रेजी स्कूलों के बाद भी अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेजेगा। अंग्रेजी भाषा में पढ़ाने वाले शिक्षकों की कमी हो सकती है और उनकी भर्ती करते समय उन्हें हिंदी भाषा के शिक्षकों के मुकाबले अधिक तनख्वाह देने की मजबूरी हो सकती है क्योंकि यह पूरी तरह से बाजार में डिमांड और सप्लाई की बात है। जब अंग्रेजी भाषा में पढ़ाने वाले शिक्षकों की कमी है तो वे अधिक तनख्वाह की मांग रख सकते हैं और सरकार को उसे मानना पड़ सकता है। लेकिन स्वामी आत्मानंद के नाम पर शुरू किए जा रहे अंग्रेजी स्कूलों के लिए शान शौकत का दिखने वाला, और हो सकता है कि महज अधिक सहूलियत वाला, ऐसा ढांचा बनाने की क्या जरूरत है जो कि बाकी हिंदी स्कूलों को इस सरकार के बाकी कार्यकाल में भी नसीब नहीं हो सकता? सरकार के पास शिक्षा के बजट के लिए इतना पैसा नहीं दिख रहा है कि प्रदेश की सभी सरकारी हिंदी स्कूलों को इतना साधन-संपन्न बना दिया जाए, या उन पर इतना रंग-रोगन भी कर दिया जाए। ऐसे में अंग्रेजी भाषा पढ़ाने के लिए सरकार इस समाज में एक ऐसा विभाजन खड़ा कर रही है जो कि भाषा के आधार पर हो रहा है, और सरकारी खर्चे से हो रहा है। हमारे हिसाब से यह सामाजिक खाई न सिर्फ गलत है बल्कि गैरजरूरी भी है। बहुत सी ऐसी शिक्षण संस्थाएं रहती हैं जो कम साधन सुविधा में भी अपने बच्चों को बहुत अच्छा तैयार करती हैं। बिहार में लोगों को पढ़ाकर आईआईटी जैसे संस्थानों में दाखिले के लिए तैयार करने वाले आनंद कुमार की कहानी सबने देखी हुई है कि किस तरह बिना किसी सहूलियत के और केवल गरीब तबके के बच्चों को पढ़ाकर देश में सबसे अधिक संख्या में आईआईटी में दाखिला करवाने लायक उन्हें बनाते हैं। इसलिए इस बात में हमारा कोई भरोसा नहीं है कि अंग्रेजों की जुबान में पढ़ाई करवाने के लिए हिंदी के मुकाबले बेहतर इमारत की जरूरत है, अधिक सहूलियतों की जरूरत है, अधिक रंग-रोगन की जरूरत है।
उन बच्चों के बारे में भी सोचना चाहिए जो ऐसी रंग-बिरंगी इमारतों के सामने से होकर अपनी हिंदी स्कूल आएंगे-जाएंगे जहां उन्हें बहुत सी दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा। यह सिलसिला एक भाषा की गैरजरूरी दहशत में आ जाने का है कि अंग्रेजी के लिए अधिक सहूलियत की जरूरत होती है। सरकार को अपने पैसे से इस किस्म का फर्क नहीं करना चाहिए। और कुछ लोग यह तर्क भी दे रहे हैं कि जिस वक्त केंद्र सरकार ने नवोदय स्कूल शुरू किए थे, वे भी ऐसी ही आलोचना के शिकार हुए थे कि वे कुलीन टापू होकर रह जाएंगे। हम ऐसी किसी तुलना को पूरी तरह से गलत मानते हैं क्योंकि नवोदय की सोच एक बिल्कुल अलग सोच थी, वह शहरी और ग्रामीण बच्चों को एक साथ रखकर पढ़ाने की थी, वह अलग-अलग जाति और धर्म के बच्चों को एक साथ रहकर पढ़ाने की थी, और वह देश के अलग-अलग प्रदेशों के बीच बच्चों की अदला-बदली से एक अलग किस्म का राष्ट्रीय एकीकरण करने वाली सोच थी जो कि अपने मकसद में बहुत ही कामयाब भी हुई है। छत्तीसगढ़ में अंग्रेजी के लिए बन रही या बन चुकी सुंदर दिख रही स्कूलों से हमें कोई शिकायत नहीं है लेकिन इस बात का अफसोस जरूर है कि प्रदेश की 99 फ़ीसदी बाकी सरकारी हिंदी स्कूलें शायद ही कभी ऐसी सहूलियत में पा सकें। हिंदी भाषा एक गरीब क़िस्म का दर्जा पाकर रह जा रही है, और अंग्रेजी का आतंक ऐसा दिख रहा है कि उस भाषा में पढ़ाने के लिए बेहतर ढाँचा जरूरी लग रहा है। इसलिए सरकार को अंग्रेजी स्कूल भी उसी किस्म के ढांचे में शुरू करना था ताकि हिंदी बच्चों को हीनभावना का शिकार ना होना पड़े कि वे हिंदी में पढ़ रहे हैं इसलिए वह घिसी-पिटी पुरानी इमारत के टूटे-फूटे फर्नीचर पर बैठकर दिक्कतों में पढ़ रहे हैं और चुनिंदा बच्चे अंग्रेजी पढ़ रहे हैं, तो वे सूट-बूट में बेहतर इमारत में बेहतर फर्नीचर पर बैठकर पढेंगे। किसी भी भाषा में पढ़ाने के लिए किसी बेहतर ढांचे की जरूरत नहीं होती सिवाय उस भाषा के शिक्षकों के और उस भाषा की किताबों के। छत्तीसगढ़ सरकार हमारे हिसाब से एक निहायत गैरजरूरी दबाव में आ गई है और उसने खुद ही मान लिया है कि अंग्रेजी भाषा में पढ़ने वालों का हक, हिंदी भाषा में पढ़ने वालों से कुछ अधिक होना चाहिए। सरकारी खर्च पर गिने-चुने बच्चे एक ग़ैरज़रूरी आत्मगौरव में जिएँ, और बाक़ी तमाम बच्चे उन्हें देखकर हीनभावना में रहें, यह अच्छी बात नहीं है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
देशभर के पशु चिकित्सकों ने कल भाजपा सांसद मेनका गांधी के खिलाफ आंदोलन किया। मेनका गांधी लोगों से बदजुबानी के लिए बदनाम हैं और टेलीफोन पर पशु चिकित्सकों को गालियां देने के बहुत से काम उन्होंने किए हैं। यह पहला मौका नहीं है जब उनकी बदजुबानी इस तरह से सुबूतों सहित सामने आई है, लेकिन यह पहला मौका जरूर है कि 13 मिनट की एक टेलीफोन कॉल में वे गंदी से गंदी गालियां देते नजर आईं, जातिसूचक गालियां देते नजर आईं, गांव के लोगों को गालियां देते नजर आईं, और एक पढ़े-लिखे पशु चिकित्सक को यह कर कह कर भी गालियां दे रही हैं कि उनका बाप कोई माली या ऐसा कोई रहा होगा। उन्होंने तरह-तरह की धमकियां दी, कलेक्टर की धमकी दी, पुलिस की धमकी दी, यह धमकाया कि जिसके कुत्ते का इलाज किया है, जाकर उसी दिन उसके मालिकों को 70 हजार रुपये का चेक देकर आए वरना वे देख लेंगी। हिंदुस्तान में किसी महिला के मुंह से जैसी गालियां सुनने की उम्मीद भी कोई नहीं करते हैं, वैसी ढेर सारी गालियां उन्होंने इस पशु चिकित्सक को बुरी तरह से धमकाते हुए दीं। उसे बार-बार हरामजादा कहा, और न लिखने लायक गालियां देती ही चली गईं। जिन भरोसेमंद वेबसाइटों पर मेनका गांधी का यह ऑडियो क्लिप सुनाया जा रहा है उन्हें दर्जनों बार मेनका गांधी की गालियों को मौन करना पड़ रहा है क्योंकि वह लोगों को सुनाने लायक नहीं हैं। कौन यह उम्मीद कर सकता है कि भारतीय संस्कृति की बात करने वाली भारतीय जनता पार्टी की कई बार की सांसद, जो कि पहले केंद्रीय मंत्री भी रह चुकी हैं, और जिनका बेटा भी भाजपा का सांसद रह चुका है, वह इस तरह की गंदी गालियां देकर एक डॉक्टर को धमकाएगी? यह हक्का-बक्का करने वाली हरकत है, और इससे मेनका गांधी के बारे में पहले से प्रचलित यह चर्चा सही साबित होती है कि वह अधिकारियों को डॉक्टरों को और पशुओं से जुड़े हुए किसी भी तरह के लोगों को इसी तरह धमकाती हैं, इसी तरह गालियां देती हैं।
मेनका गांधी जब केंद्रीय मंत्री थी तब भी वह देश भर की राज्य सरकारों में काम करने वाले अधिकारियों को फोन पर धमकाने का काम करती थीं, और कहीं भी किसी वन्य पशु के साथ किसी ज्यादती होने की आशंका उनको होती थी, तो वे बदजुबानी पर उतर आती थी। अभी कुछ वक्त पहले छत्तीसगढ़ में जब लगातार हाथी मर रहे थे, उस वक्त भी मेनका गांधी ने रात-दिन फोन कर-करके छत्तीसगढ़ सरकार के बड़े दिग्गज अफसरों को खूब धमकाया था, जबकि न तो वह केंद्र सरकार में किसी मंत्री के पद पर थीं, और ना ही राज्य सरकार के अधिकारी उनके प्रति किसी भी बात के लिए जवाबदेह थे। लेकिन उनका वैसा बर्ताव शुरू से चले आ रहा है और उनके बारे में यह बात प्रचलित है कि अगर मेनका गांधी से अच्छा बर्ताव पाना है तो आपका पशु होना जरूरी है आपके इंसान होने से आपको अच्छा बर्ताव उनसे मिल जाए ऐसी कोई गारंटी नहीं हो सकती। ऐसी चर्चा उनके बारे में हमेशा से चलती रही है और अब जो ताजा ऑडियो सामने आया है, जिसे लेकर देशभर के पशु चिकित्सक आंदोलन कर रहे हैं वह मेनका गांधी के ऊपर कम से कम आधा दर्जन अलग-अलग किस्म के जुर्म दर्ज करने के लिए काफी है। यह अलग बात है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार है और वहां पर पुलिस की इतनी मजाल नहीं हो सकती कि भाजपा के एक सांसद के खिलाफ वह कोई कार्यवाही करे, लेकिन हमारा यह मानना है कि ना सिर्फ उत्तर प्रदेश की इस सांसद के खिलाफ बल्कि ऐसी बदजुबानी करने वाले, ऐसी गुंडागर्दी करने वाले, जितने भी किस्म के दूसरे नेता हो सकते हैं, उन सबके खिलाफ ऐसे सबूतों को लेकर पुलिस में रिपोर्ट होनी चाहिए, अदालत में केस होना चाहिए, और ऐसे कुछ लोगों को कैद होनी चाहिए जिससे कि बाकी लोगों को ऐसी गंदी जुबान इस्तेमाल करने, ऐसी गुंडागर्दी करने, ऐसी धमकियां देने के खतरे समझ में आएं।
इसी उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के ताकतवर मंत्री रहे हुए आजम खान ने जब बलात्कार की शिकार एक बच्ची के बारे में तरह-तरह की गंदी बातें कहीं और उसे एक राजनीतिक साजिश करार दिया तो उस वक्त सुप्रीम कोर्ट ने आजम खान को बुलाकर कटघरे में खड़ा किया खूब जमकर फटकार लगाई और आजम खान से उनका बयान वापस करवाकर उनसे माफी मंगवाई थी। हमारा यह मानना है कि डॉक्टरों का जो संगठन आज मेनका गांधी के खिलाफ आंदोलन कर रहा है, कल देशभर में उनके खिलाफ प्रदर्शन किए गए हैं, ऐसे डॉक्टरों को अदालत जाना चाहिए और मेनका गांधी के खिलाफ कार्रवाई की मांग करनी चाहिए क्योंकि उनके पास एक टेलीफोन पर यह पूरा सुबूत है और टेलीफोन कॉल रिकॉर्ड से भी यह निकल सकता है कि मेनका गांधी ने कब-कब फोन करके इस डॉक्टर को धमकाया है। आखिर में एक बात और, मेनका गाँधी का बर्ताव उनके गुजर चुके पति संजय गाँधी की इमर्जेन्सी की ज्यादतियों की याद दिलाता है। मेनका उस वक्त संजय के साथ थीं, और ये तेवर बताते हैं कि उस वक्त की बददिमागी भाजपा में आने के बाद भी उनके मिजाज में जारी है।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर देशभर में जलसे किए गए और इस दिन कोरोना वैक्सीनेशन का एक नया रिकॉर्ड बनाने के लिए कई राज्यों ने बड़ी मेहनत की। खासकर भाजपा के राज वाले पांच राज्यों ने इस दिन इतनी बड़ी संख्या में टीके लगाए कि भारत के कुल आंकड़े केंद्र सरकार के मुताबिक एक टीकाकरण विश्व रिकॉर्ड बना रहे हैं। यह एक अलग बात है कि चीन में टीकाकरण कई हफ्तों से लगातार इसके खूब अधिक चल रहा है और भारत के आंकड़े कहीं दूर-दूर तक उसे छू भी नहीं पा रहे हैं। भारत में हर दिन 25 30 लाख लोगों को टीके लग रहे थे और अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के दिन यह टीकाकरण बढक़र 1 दिन में 85 लाख पहुंच गया। इसे बहुत बड़ी कामयाबी बताया गया लेकिन इन आंकड़ों की हकीकत देखना हो तो टीकाकरण के कुछ दिन पहले और उसके बाद के आंकड़े देखना जरूरी है। भाजपा के पांच राज्यों में 21 जून योग दिवस के पहले के दिनों में टीकाकरण कम किया गया और रोक कर रखे गए सारे टीके रिकॉर्ड बनाने के इस दिन लगाए गए। मध्यप्रदेश, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, गुजरात, और हरियाणा, इन सभी जगहों पर करीब एक सा ट्रेंड देखने मिला। मध्य प्रदेश के आंकड़े सबसे अधिक हैरान करते हैं जहां 20 जून को 700 से कम लोगों को टीके लगाए गए, 21 जून को 16 लाख 93 हजार लोगों को टीके लगाए गए, और 22 जून को 48 सौ लोगों को टीके लगाए गए। यह उतार-चढ़ाव इस बात का सुबूत है कि कई राज्यों ने टीकाकरण के दिन रिकॉर्ड बनाने के लिए टीके बचाकर रखे।
आंकड़ों का यह खेल हिंदुस्तान में कोई नई बात नहीं है, यह पहले से चले आ रहा एक ऐसा खेल है जिसे रिकॉर्ड बनाने के लिए लोग इस्तेमाल करते हैं। लोगों को याद होगा कि आपातकाल में नसबंदी का रिकॉर्ड बनाने के मुकाबले में अफसर और नेता लगे रहते थे और संजय गांधी को खुश करने के लिए एक-एक नसबंदी कैंप में हजारों लोगों को दरी पर लिटाकर और तमाम किस्म की गंदगी के बीच रफ्तार से उनकी नसबंदी की जाती थी, और वे किसी सामान की तरह, बड़े-बड़े कमरों या हॉल में फर्श पर डाल दिए जाते थे। इसके बाद भी कभी किसी एक जिले में किए जाने वाले ऑपरेशन, या कभी किसी एक दिन में करने वाले सर्वाधिक नसबंदी का रिकॉर्ड, आंखों के ऑपरेशन के मामले में भी कई जगह किया जाता है। डॉक्टर रफ्तार से ऑपरेशन करते हैं और आंकड़ों का रिकॉर्ड बनाते हैं। ऐसा ही अभियान पौधे लगाने का होता है और एक-एक दिन में दसियों लाख से लेकर करोड़-करोड़ तक पौधे लगाने का अभियान छेड़ा जाता है फिर चाहे उनमें से दो चार फ़ीसदी भी पौधे जिंदा ना बचें. कुछ संगठन रक्तदान का भी ऐसा रिकॉर्ड बनाते हैं फिर चाहे दान में मिले उतने खून को रखने की क्षमता ब्लड बैंक की हो या ना हो। रिकॉर्ड बनाने की चाह इंसान की जिंदगी की एक बड़ी चाह रहती है। सरकारों के अलग-अलग तबके इस फेर में रहते हैं कि कैसे कोई बड़ा रिकॉर्ड बने, और कैसे वह बड़ी खबर बने, और कैसे किसी विश्वसनीय या अविश्वसनीय रिकॉर्ड कंपनी की तरफ से एक सर्टिफिकेट हासिल करके उसे दीवार पर टंगा जाए। यह सिलसिला बड़ा खराब है। हिंदुस्तान में योग दिवस के दिन अधिक से अधिक टीके लगाने का रिकॉर्ड बनाने के लिए राज्य सरकारों ने कई दिन पहले से ही टीकों की रफ्तार घटा दी थी। जानकार लोगों ने यह सवाल भी उठाया है कि जिन लोगों को 4 दिन पहले टीके लग सकते थे उन्हें रोककर योग दिवस के दिन टीका लगाने से उनकी जिंदगी 4 दिन अधिक तो खतरे में पड़ेगी क्योंकि टीके का जो फायदा उन्हें जिस दिन मिलना शुरू हो सकता था उसे 4 दिन लेट किया गया।
सरकारों का ऐसा मिजाज देखना है तो लोक अदालतों में देखना चाहिए जो कि अपने प्रदेश के हाईकोर्ट जजों को खुश करने के लिए या जिला अदालत के जजों को खुश करने के लिए लगाई जाती हैं. उनमें आंकड़ों की भरमार करने के लिए छोटे-छोटे ट्रैफिक चालान रोककर रखे जाते हैं जिन्हें लोक अदालत में ही निपटाया जाए, राशन के या आबकारी के छोटे-छोटे मामले बनाए जाते हैं और उन्हें रोक कर रखा जाता है ताकि लोक अदालत की रिकॉर्ड बनाने के हसरत का पेट भरा जा सके। ऐसी लोक अदालतों में लोगों के बीच के छोटे-छोटे झगड़ों का निपटारा जो कि पहले हो चुका रहना चाहिए था उन्हें पुलिस या अदालत के पास रोक कर रखा जाता है कि इन्हें लोक अदालत में पेश किया जाएगा ताकि वहां अधिक से अधिक मामले निपटाने का एक नया रिकॉर्ड कायम हो सके। आंकड़ों की यह मोह माया बहुत ही गलत है और खासकर उस वक्त जब यह लोगों की सेहत से जुड़ी हुई है।
लोगों ने सोशल मीडिया पर यह गिनाया भी है कि हिंदुस्तान में जो लोग इसे भारत की एक दिन की सबसे बड़ी उपलब्धि करार दे रहे हैं और इसे दुनिया में एक दिन का सबसे अधिक टीकाकरण करार दे रहे हैं उन्हें यह मालूम होना चाहिए कि चीन में पिछले कई हफ्तों से हर दिन औसतन डेढ़ करोड़ लोगों को टीके लग रहे हैं. हिंदुस्तान तो हफ्ते भर के टीके को रोककर भी इसके किसी किनारे तक नहीं पहुंच पाया है, शायद इसके आधे तक ही पहुंचा है। सेहत को लेकर ऐसे रिकॉर्ड कायम करने के खिलाफ किसी अदालती आदेश की जरूरत है क्योंकि सरकारों में बैठे हुए लोग तो अपनी कामयाबी दिखाने के लिए आंकड़ों पर सवार रहते ही हैं, यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। जिस दिन जिस प्रदेश के हाथ में जितने टीके थे, उन्हें जल्दी से जल्दी लोगों को लगाना चाहिए था। अगर लोगों को किसी दिन के इंतजार में टीकों को फ्रिज में रखना है और लगवाने वालों को इंतजार करवाना है तो यह एक जुर्म है. भारत में अभी एक आईआईटी ने कोरोना की तीसरी लहर को लेकर अपना जो अंदाज यह सामने रखा है, वह दिल दहलाने वाला है इसके मुताबिक सितंबर के बीच तक कोरोना के आंकड़े पिछली लहर के सबसे अधिक से भी सवा गुना अधिक पहुंच जाएंगे। और ऐसी लहर के पहले जिस तरह देश की अधिकतर आबादी के टीकाकरण का काम हो जाना चाहिए, वह किसी किनारे लगते नहीं दिख रहा है। जो देश अपनी झूठी कामयाबी के झूठे आत्मगौरव में डूबा रहता है उसे कड़वी और खुरदरी जमीनी हकीकत का एहसास भी नहीं हो पाता, क्योंकि क्योंकि उसके पांव ही जमीन पर नहीं पड़ते हैं। हिंदुस्तान को ऐसे झूठे और फर्जी आत्मगौरव से बचना चाहिए क्योंकि ऐसी उपलब्धि का एक झूठा एहसास उसे सचमुच की मेहनत करने से रोक रहा है, उसे अपने सामने खड़ी हुई असली चुनौती को देखने से रोक रहा है।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
तमिलनाडु सरकार ने अभी विधानसभा में राज्यपाल के अभिभाषण के दौरान यह घोषणा करवाई कि वह एक आर्थिक सलाहकार परिषद का गठन कर रही है जिसमें एक नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री एस्थर दुफ्लो भी सदस्य होंगी। लेकिन उनके साथ-साथ कुछ और नाम भी इस परिषद के लिए घोषित किए गए हैं जो नोबेल पुरस्कार विजेता तो नहीं है, लेकिन किसी मायने में उनसे कम भी नहीं है। इन नामों में रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रहे हुए रघुराम राजन, और भारत सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम का नाम है, देश के एक चर्चित अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज का नाम है, और एक पूर्व केंद्रीय वित्त सचिव एस नारायण भी इस परिषद में रखे गए हैं। राज्यपाल का अभिभाषण राज्य सरकार का तैयार किया हुआ होता है और उसमें कहा गया है कि आर्थिक सलाहकार परिषद की सिफारिशों के आधार पर सरकार सुनिश्चित करेगी कि आर्थिक विकास समाज के हर क्षेत्र तक पहुंचे।
भारत के संघीय ढांचे की खूबी यही है कि केंद्र सरकार से परे अलग अलग राज्य सरकारें अपनी-अपनी सोच के मुताबिक बहुत से मौलिक प्रयोग कर सकती हैं, और उन प्रयोगों से बाकी देश की कई बार कई चीजें सीखता है कि उन प्रयोगों के मुताबिक काम करना है, या उन प्रयोगों से परहेज करते हुए काम करना है. तजुर्बे का फायदा भी मिलता है या एक नसीहत मिलती है। लोगों को अगर याद होगा कि यूपीए सरकार के 10 वर्ष में दिल्ली में सोनिया गांधी की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद बनी थी जिसमें सामाजिक क्षेत्र के कुछ लोग मनोनीत किए गए थे. उसमें भारत सरकार के एक रिटायर्ड सचिव भी थे और गरीबों के कल्याण की अर्थव्यवस्था के देश के एक सबसे बड़े जानकार ज्यां द्रेज भी उस एनएसी के एक मेंबर थे। एक समय छत्तीसगढ़ में कलेक्टर और कमिश्नर रह चुके हर्ष मंदिर भी सोनिया गांधी की उस सलाहकार परिषद के सदस्य थे। ऐसा माना जाता है कि यूपीए सरकार की गरीब कल्याण की बहुत सी योजनाओं पर इस सलाहकार परिषद की छाप थी और सोनिया गांधी इन सलाहकारों से प्रभावित भी रहती थीं। भारत में अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग तरह से सरकारें अपने सलाहकार तय करती हैं। उनका सरकारों के कामकाज में काम या अधिक योगदान रहता है। यह एक अलग बात है कि छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने अपने 3 साल के कार्यकाल में देश के कई ऐसे लोगों को प्रदेश का सलाहकार बनाया था जिन्होंने कोई भी योगदान नहीं दिया था, या राज्य सरकार उनका योगदान ले नहीं पाई थी। अभी मौजूदा मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने अपने ही चार पुराने और करीबी साथियों को सलाहकार बनाकर जिम्मेदारी के काम दिए हैं और यह उम्मीद है की जाती है कि उनका योगदान राज्य सरकार को मिल रहा होगा।
तमिलनाडु सरकार के इस ताजा फैसले से एक रास्ता खुलता है कि देश के बाहर काम करने वाली एक अर्थशास्त्री महिला को राज्य के विकास और जनकल्याण की इस परिषद में रखा गया है, और इसमें दो और ऐसे लोग हैं जिनका भारत के बाहर से रिश्ता रहा है। आरबीआई के भूतपूर्व गवर्नर रघुराम राजन लंबे समय से एक अमेरिकी विश्वविद्यालय में पढ़ा रहे थे और भारत में अपना काम करने के बाद वे फिर अमेरिका ही लौट चुके हैं। एक अन्य नाम ज्यां द्रेज का ऐसा है जो कि विदेशी मूल का है। वे दशकों पहले यूरोप से हिंदुस्तान आए थे और तब से वे यहीं के होकर रह गए हैं, उन्होंने नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन के साथ आधा दर्जन से अधिक किताबों में सह लेखक की हैसियत से काम किया है. और उनके काम का महत्व ऐसा है कि अमर्त्य सेन ने उनके बारे में यह कहा था कि वे ज्यां द्रेज के साथ किताब इसलिए लिखते हैं कि तमाम काम ज्यां द्रेज करते हैं, और अमर्त्य सेन को सहलेखक की वाहवाही मिलती है. भारत के हाल के बहुत सारे जनकल्याण के ऐसे काम हैं जो न सिर्फ यूपीए सरकार के वक्त बल्कि कई प्रदेशों में भी ज्यां द्रेज की सलाह से चले और उनसे गरीबों का बहुत भला हुआ। वे चाहे सोनिया गांधी की एनएसी के मेंबर थे, लेकिन छत्तीसगढ़ में भाजपा की रमन सिंह सरकार ने उनकी सलाह पर अपनी पीडीएस योजना तैयार की थी, जिसकी देशभर में बड़ी वाहवाही हुई थी। आज छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार के साथ ज्यां द्रेज बस्तर के आदिवासी आंदोलन के मुद्दे पर असहमत नजर आ रहे हैं, लेकिन यह याद रखने की जरूरत है कि जिस वक्त रमन सिंह सरकार ज्यां द्रेज के सुझाए हुए पीडीएस को लागू कर रही थी, उस वक्त भी वे इस सरकार की बस्तर की पुलिस नीति के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में बहुत से मामले लड़ रहे थे।
देश-विदेश का तजुर्बा रखने वाले और अंतर्राष्ट्रीय समझ-बूझ रखने वाले ऐसे लोगों की सलाह किसी भी राज्य के काम की हो सकती है. तमिलनाडु की यह नई आर्थिक सलाहकार परिषद इस मायने में भी दिलचस्प है कि इसमें अमेरिकी पृष्ठभूमि से आए हुए दो अर्थशास्त्री हैं, और एक अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज ऐसे हैं जिन्होंने कभी भी अमेरिका जाने का भी कोई न्यौता मंजूर नहीं किया। राज्य के आर्थिक विकास का यह तजुर्बा कितना कामयाब होता है यह तो आने वाले वर्षों में पता लगेगा और क्योंकि इस सरकार ने अपना कार्यकाल शुरू होते ही यह फैसला लिया है तो इसका कोई फायदा अगर होना है तो वह देखने के लिए इसका पूरा कार्यकाल ही सामने खड़ा रहेगा। तमिलनाडु एक बड़ी अर्थव्यवस्था है, और वहाँ सम्भावनाएँ भी बहुत हैं। भारत के अलग-अलग राज्यों को एक दूसरे के तजुर्बे से इसलिए भी सीखना चाहिए कि प्रतिभा और मौलिक सोच, इन पर किसी का एकाधिकार तो है नहीं, और देश-प्रदेश की कोई भी सरकार अगर यह समझती है कि उसे किसी सलाह की जरूरत नहीं है, तो उसका जो नतीजा होता है वह देश आज देख ही रहा है।
हिंदुस्तान इस बात को देख और भुगत रहा है कि किस तरह यहां योजना आयोग को खत्म किया गया, और उसके नाम पर नीति आयोग नाम की एक छोटी सी ऐसी संस्था बना दी गई जिसमें राज्यों की व्यापक भागीदारी खत्म सरीखी हो गई है। एक वक्त था जब देश के राज्य, भारत के योजना आयोग में अपने तर्कों को रखते थे, अपनी योजना और अपनी सोच को रखते थे, देश के साधनों में अधिक हिस्सेदारी के अपने दावे तो पेश करते थे। लेकिन आज खुद योजना आयोग नाम की संस्था नहीं रह गई, और नीति आयोग नाम की संस्था की एक इतनी सीमित भूमिका रह गई है कि जब उसकी खुद की बात का कोई वजन नहीं है तो वह राज्यों की बात को सुनकर क्या कर ले। नतीजा यह है कि हिंदुस्तान के संघीय ढांचे के तहत योजना आयोग नाम की जिस संस्था में सारे वक्त राज्यों की बात सुनी जाती थी, उस मंच को ही खत्म कर दिया गया है। बिना योजना आयोग यह हुआ है कि मोदी सरकार अनगिनत ऐसे बड़े-बड़े फैसले रही है जिनसे ऐतिहासिक बर्बादी हुई है। लेकिन योजना आयोग जैसी कोई संस्था ऐसे फैसलों के वक्त ना अस्तित्व में थी और ना ही देश में किसी और संस्था से, किसी और मंत्रिमंडल से इनके बारे में कोई सलाह दी गई. नतीजा यह है कि हर कुछ बरस में बड़े-बड़े ऐतिहासिक फैसले सामने आए, कभी नोटबंदी का फैसला आया, तो कभी ऐसा जीएसटी आया कि जिसकी मरम्मत सालों से चल ही रही है, और कभी लॉकडाउन का, और किसी पारे की तरह अस्थिर वैक्सीन नीति का. ऐसे कई फैसले आए जिनमें विशेषज्ञ सलाह की कमी साफ-साफ दिखती रही। इसलिए लोकतंत्र में निर्वाचित लोगों को अपनी समझ पर एक सीमा से अधिक भरोसा नहीं होना चाहिए और दुनिया में विशेषज्ञता का सम्मान अधिकतर लोकतंत्रों में होता है। और जहां लोकतंत्र नहीं होता वहां के बारे में क्या कहा जा सकता है।
हिंदुस्तान के अधिकतर हिस्सों में बोलचाल में गालियों का खूब चलन है। और यह बात महज बड़े लोगों के बीच नहीं हैं, बल्कि छोटे-छोटे बच्चे भी सडक़ों पर गालियां देते दिखते हैं और मां-बहन की गंभीर गालियां देते हैं। इतने छोटे बच्चे एक दूसरे की मां-बहन को लेकर सेक्स की गंदी गालियां देते हैं जिसका शायद वह मतलब भी ठीक से नहीं समझ पाते होंगे। लेकिन इनका मतलब यही है कि इन बच्चों के आसपास कोई बड़े लोग इस तरह की गालियां देते ही हैं और उन्हीं से सीखी हुई गालियां कुछ बच्चे शुरू करते हैं, और बाद में बाकी बच्चे उन्हें आगे बढ़ाते हैं। दिक्कत महज इन गालियों की नहीं है जिन्हें सुनते हुए आसपास भले लोगों को, या महिलाओं को और लड़कियों को वहां से गुजरना भी मुश्किल पड़ता हो, या वहां खड़े रहना मुश्किल पड़ता है, दिक्कत इससे आगे की है। जो हमलावर हरकत और सेक्स की गालियां छोटे-छोटे बच्चे देते हैं, वे उनके दिल दिमाग में बैठी रहती हैं। इसका असर यह होता है कि जब भी वे बड़े होते हैं और किसी लडक़ी के साथ छेडख़ानी या अधिक गंभीर सेक्स अपराध करने की कोशिश करते हैं, तो उनके दिमाग में लड़कियों और महिलाओं के साथ बलात्कार करने को लेकर कोई झिझक नहीं रहती। वह बरसों से, अपनी कम उम्र से, किसी दूसरे की मां बहन को लेकर सेक्स की गालियां इतनी दे चुके रहते हैं कि उनके लिए किसी के साथ सेक्स की ज्यादती करने में कोई झिझक नहीं रह जाती। इसलिए गालियों को महज गालियां मान लेना और उन्हें बदजुबान मान लेना काफी नहीं है। समाज में जब वह बच्चे गालियों से शुरुआत करते हैं और जाहिर तौर पर एक दूसरे की मां बहन को लेकर गालियां देते हैं, या खेल खेल में बिना किसी की मां-बहन को संबोधित किए हुए हवा में गालियां निकालते रहते हैं, क्रिकेट की गेंद को मां-बहन की गाली देते हैं, किसी स्कूटर या कार को मां-बहन की गाली देते हैं तो उसका नतीजा यही होता है कि किसी महिला के साथ सेक्स को लेकर संवेदनशीलता पूरी तरह से खत्म हो जाती है और वह उन्हें अपने अधिकार की बात लगने लगती है।
हिंदुस्तान कहने को अपनी संस्कृति पर बहुत गर्व करने वाला देश है लेकिन आज उसकी आम संस्कृति यह है कि सार्वजनिक जगहों पर लोग खूब गंदी-गंदी गालियां देते हैं, और कल परसों छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में जिस तरह एक कांग्रेस नेता ने सडक़ पर एक ट्रैफिक सिपाही को पेट भर कर मां की गालियां दी हैं, अपनी बीवी की मौजूदगी में गालियां दी हैं, वही हिंदुस्तान की असल संस्कृति रह गई है। जो लोग अधिक समझदार और जिम्मेदार हैं वे सार्वजनिक रूप से गालियां नहीं देते लेकिन आपसी बातचीत में वह मौजूदा लोगों को देखकर जहां गुंजाइश रहती है वहां गालियां देकर अपनी भड़ास निकालते हैं। जो लोग बंद कारों में अकेले चलते हैं वह भी ट्रैफिक की दिक्कतों को लेकर बंद शीशों के भीतर किसी न किसी मां-बहन को गालियां देते रहते हैं, बड़बड़ाते रहते हैं। यह सिलसिला कम से कम सार्वजनिक जगहों पर पूरी तरह खत्म होना चाहिए क्योंकि हिंदुस्तान में ऐसे काम के लिए सजा का इंतजाम किया गया है। दिक्कत यह है कि कुछ लोगों की ऐसी गालियों के खिलाफ अगर पुलिस को बुलाया जाए, तो वह लाठी से हांकते हुए इससे भी बुरी गालियां देने लगती है। नतीजा यह होता है कि सार्वजनिक जगह पर गंदी जुबान को रोकने का मकसद ही हार जाता है।
कुछ लोगों को यह बात अटपटी लग सकती है कि मां-बहन की गालियां देने वाले क्या सचमुच ही बलात्कारी हो सकते हैं, लेकिन यह बात समझना चाहिए कि भाषा लोगों के दिल-दिमाग पर गहरा असर करती है। जिन परिवारों में और जिन समुदायों में बच्चों की भाषा को ठीक रखने की कोशिश की जाती है वहां बच्चों की हरकतें भी अपने आप ठीक होने लगती हैं। यह सिलसिला लंबा चलता है, लेकिन समाज की बेहतरी कोई छोटा काम नहीं है जो कि तेजी से करके जल्दी निपटाया जा सके। लोगों को यह ध्यान रखना चाहिए कि उनकी खुद की जुबान ठीक रहे और आसपास अगर वे किसी को गंदी जुबान इस्तेमाल करते देखें तो टोकने से ना चूकें। बहुत से लोग बीच में पडऩे से परहेज करते हैं कि कौन उलझे, लेकिन लोगों को यह याद रखना चाहिए कि सार्वजनिक जगहों पर अगर इतनी गंदी भाषा इस्तेमाल हो रही है कि वहां से लड़कियां और महिलाएं निकलने में भी हिचकें तो यह समाज की एक सामूहिक हार रहती है और लोगों को अपनी सामूहिक जिम्मेदारी, सामाजिक जिम्मेदारी से मुंह नहीं चुराना चाहिए।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कल छत्तीसगढ़ के बिलासपुर शहर में सत्ता की गुंडागर्दी का एक भयानक नजारा देखने मिला जब कांग्रेस पार्टी के एक ब्लॉक अध्यक्ष ने सडक़ पर गलत तरफ से स्कूटर चलाकर लाने पर रोकने वाले ट्रैफिक सिपाही को खूब मां बहन की गालियां बकी, उसे तरह-तरह की धमकियां दीं, उससे धक्का-मुक्की की, उसे मारने के लिए कई बार हाथ उठाया, और उसका मोबाइल फोन छीन लिया। यह सब कुछ दिनदहाड़े व्यस्त सडक़ पर बाजार के बीच किया। पुलिस की पोशाक में ड्यूटी पर तैनात, अपना काम करते हुए एक सिपाही के साथ इस तरह का सुलूक लोगों को कई बरस जेल भेजने के लिए काफी होना चाहिए। यह तो अच्छा हुआ कि बिलासपुर की पुलिस ने अपने सिपाही का साथ दिया और कांग्रेस नेता के खिलाफ जुर्म दर्ज किया, उसकी गिरफ्तारी के लिए उसकी तलाश की जा रही है, वरना आमतौर पर सत्ताधारी गुंडों को बंद कमरे में बिठाकर, पुलिस के छोटे कर्मचारियों को दबाकर एक जुबानी समझौता करवा दिया जाता है।
इसी तरह का नजारा छत्तीसगढ़ में कई जगह सत्तारूढ़ गुंडों की हरकतों का देखने मिला है, दिक्कत यह है कि अधिकतर मामलों में सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी दोनों ही चुप भी रह जाते हैं। यह कोई नई बात नहीं है, और न ही यह केवल छत्तीसगढ़ की बात है, हिंदुस्तान के अधिकतर प्रदेशों में हर सत्तारूढ़ पार्टी के मवाली इसी तरह का काम करते हैं और अपनी ड्यूटी पूरी कर रही पुलिस का साथ देने के लिए अक्सर उनके बड़े अफसर भी साथ नहीं रहते। यही वजह है कि छोटे पुलिस कर्मचारी चेहरा देख-देखकर काम करते हैं। राजनीतिक गुंडों पर हाथ डालना, अपना किसी मुश्किल इलाके में तबादला करवाने सरीखा काम माना जाता है। देश में जगह-जगह ऐसा होता भी है कि सत्तारूढ़ गुंडों पर जिसने हाथ डाला, तुरंत ही या कुछ दिन रुककर उन्हें किसी मुश्किल जगह भेज दिया जाता है और यह बाकी लोगों के लिए भी एक इशारा होता है कि सत्ता पर हाथ डालने से बचें। यह भी एक वजह रहती है कि किसी प्रदेश में सत्तारूढ़ पार्टी में शामिल होने वाले लोग अधिक रहते हैं, और उसे छोडऩे वाले लोग कम रहते हैं। पश्चिम बंगाल में ही यह नजारा देखने लायक है कि जिन लोगों ने ममता बनर्जी की पीठ में छुरा भोंककर पार्टी छोड़ी थी और भाजपा में गए थे, उनमें से हजारों लोग आज कतार लगाकर घरवापिसी के लिए खड़े हैं और ऑटो रिक्शा में लाउडस्पीकर लगाकर पूरे शहर में मुनादी कर रहे हैं कि उन्होंने भाजपा में जाकर बहुत बड़ा गलत काम किया था, और अब दीदी के पास लौटना चाह रहे हैं। दीदी के पास लौटने की ऐसी और कोई मजबूरी नहीं है सिवाय इसके कि सत्तारूढ़ पार्टी की गुंडागर्दी और पुलिस के किसी मामले में फंसने पर विपक्ष में होने का नुकसान, इसका खतरा उन्हें दिख रहा है।
यह तो भला हो मोबाइल फोन पर वीडियो रिकॉर्डिंग की सुविधा का जो कल बिलासपुर के बाजार में किसी ने कांग्रेसी गुंडे की इस हरकत को रिकॉर्ड कर लिया और यह भी रिकॉर्ड किया कि किस तरह एक पुलिस सिपाही सहनशील बना हुआ इस गुंडागर्दी के खिलाफ हाथ नहीं उठा रहा था वरना वह कद काठी में इतना था कि इस कांग्रेस नेता को वहीं पीटकर रख देता जिसने कि बाद में यह दावा किया है कि उसकी बीवी भी साथ में थी। यह बात भी सोचने के लायक है कि बीवी साथ में रहते कोई नेता सडक़ पर किस तरह की गुंडागर्दी कर सकता है और किस तरह पुलिस को गंदी गालियां दे सकता है। यह सिलसिला अधिकतर प्रदेशों में सत्ता की मेहरबानी से चलने वाली गुंडागर्दी को बढ़ाते भी चलता है। एक तरफ तो पुलिस सूरजमुखी की तरह हो जाती है जो कि सत्ता का चेहरा देख-देखकर यह तय करती है कि कौन सी बात जुर्म है, और कौन सी नहीं।
दूसरी तरफ सरकारी वकील सत्तारूढ़ पार्टी के पसंदीदा और उसके तय किए हुए होते हैं इसलिए अदालत में सजा दिलवाने की उनकी दिलचस्पी उस वक्त घट जाती है जब कटघरे में उनके ही संगी साथी रहते हैं। फिर इसके बाद सत्ता की ताकत ऐसी रहती है कि पुलिस गवाहों को मार-मारकर भगा देती है या बागी बना देती है, तमाम सबूतों को बर्बाद कर देती है। और सच तो यह है कि सत्ता की मर्जी के खिलाफ किसी को सजा दिला पाना बहुत ही मुश्किल काम होता है। फिलहाल जिस घटना से यह लिखना शुरू हुआ है उसे लेकर प्रदेश कांग्रेस को अपना मुंह खोलना चाहिए और प्रदेश के गृह मंत्री को भी बताना चाहिए कि उनकी पार्टी के ब्लॉक अध्यक्ष जब उनकी उनके विभाग की पुलिस को पीट रहे हैं, मां-बहन की गालियां दे रहे हैं तो गृहमंत्री की जिम्मेदारी अपनी पार्टी के प्रति बनती है या अपने सिपाही के प्रति?