संपादकीय
मध्यप्रदेश में एक आईएएस अधिकारी को लेकर बड़ा विवाद चल रहा है। इस नौजवान अफसर के तेवर कुछ ऐसे हैं कि 4 बरस में उसका 9 बार तबादला हो चुका है, और उसके खिलाफ कई तरह की कार्रवाई भी सरकार कर रही है। दूसरी तरफ इस अफसर ने अपने बड़े अफसरों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हुए उनके खिलाफ सार्वजनिक रूप से भी बहुत सी बातें कही हैं जो कि लोगों को कुछ हैरान भी करती हैं। अब ताजा मामला यह है कि इस अफसर ने अपने से सीनियर पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हुए यह भी कहा कि उसने सीएम हाउस में किसी से बात की और इस जूनियर का तबादला करवा दिया। इसके साथ-साथ उसने यह भी कहा कि सीएम की पत्नी और इस कलेक्टर की पत्नी दोनों एक जाति संगठन में अध्यक्ष और सचिव हैं, इस नाते उनका घरोबा है। लेकिन इस अधिकारी को अभी सरकार की तरफ से जो नोटिस मिला है वह इस बात के लिए हैं कि उसने राजधानी से एक बड़ी अफसर द्वारा टेलीफोन पर कही गई बातों को आईएएस अफसरों के एक व्हाट्सएप ग्रुप में पोस्ट किया। अपने से बड़ी अफसर के टेलीफोन कॉल को रिकॉर्ड करना और उसकी बातों को पोस्ट करना इसे सरकार ने बहुत बड़ा जुर्म माना है और इस नौजवान अफसर के खिलाफ कार्रवाई शुरू हो गई है।
अब यहां पर दो-तीन बातों को देखना जरूरी है कि किसी अफसर को अगर उससे बड़े किसी अफसर ने टेलीफोन पर या रूबरू कोई बात कही है, तो उसे रिकॉर्ड करना क्या एक जुर्म माना जाना चाहिए? सवाल यह है कि एक सीनियर और एक जूनियर अफसर के बीच अगर कोई निजी बात हो रही है तो यह उनकी निजी हैसियत से होने वाली बात है इस पर कोई सरकारी नियम लागू नहीं हो सकते। दूसरी तरफ अगर उनके बीच सरकारी कामकाज को लेकर कोई बात हो रही है तो कोई भी बात रिकॉर्ड से परे की क्यों होनी चाहिए? अगर बात नियम-कानून के तहत सही है, तो उसे रिकॉर्ड पर लाने में क्यों दिक्कत होनी चाहिए, फिर चाहे वह फाइल हो या कोई व्हाट्सएप ग्रुप हो। इस देश में सूचना का अधिकार इसीलिए लागू किया गया है कि लोगों को सरकार से जुड़ी हुई तमाम बातों को मालूम करने का हक होना चाहिए। सूचना का अधिकार एक किस्म से सरकार की जवाबदेही तय करता है और कुछ वैसा ही काम इस अफसर ने किया है। उसने अपने से सीनियर अफसर की कही हुई बातों को अफसरों के समूह में पोस्ट किया।
सरकारी ढांचे के फौलादी मिजाज को जो लोग बहुत इज्जत करने के लायक मानते हैं, उन लोगों को तो यह बात अटपटी लगेगी कि अपने सीनियर की बातों को कोई रिकॉर्ड करें। लेकिन सरकार में यह एक आम बात भी रहती है कि जिस फाइल पर चर्चा करें लिखा जाता है उस पर चर्चा के बाद फाइल में यह बात दर्ज भी की जाती है कि चर्चा क्या हुई। उसी बात को दर्ज करना अटपटा लग सकता है, जो बात किसी भ्रष्टाचार की हो जो बात नियमों के खिलाफ हो, जो बात किसी का पक्ष लेने की हो, या जो बात किसी राजनीतिक पूर्वाग्रह की हो। ऐसी बातों से परे अगर नियम-कायदे की बात दो अफसरों के बीच हो रही है तो उसे रिकॉर्ड करने में क्यों दिक्कत होनी चाहिए? खासकर तब, जब वह बात सरकारी कामकाज को लेकर हो रही है। टेलीफोन की बातचीत को तो बाद में शब्दश: लिखा नहीं जा सकता, इसलिए उसे रिकॉर्ड कर लेना एक बेहतर तरीका है।
हम मध्यप्रदेश के इसी मामले को लेकर नहीं, इसके पहले भी कई बार इस मुद्दे पर लिख चुके हैं कि लोगों को सरकारी कामकाज के सिलसिले में जो भी बातचीत करनी है उसे रिकॉर्ड करना चाहिए, ताकि अगर उसमें कोई गैरकानूनी सुझाव दिया जा रहा है, या कोई भ्रष्ट सुझाव दिया जा रहा है, तो उसके खिलाफ लडऩे के लिए एक सामान रहे। यह हर किसी का न सिर्फ एक हक है, बल्कि हर किसी की एक जिम्मेदारी भी है। अगर कोई सरकारी अफसर किसी दूसरे अफसर से फोन पर किसी नाजायज काम के लिए बात करें तो यह उस दूसरे अफसर की कानूनी जिम्मेदारी भी रहती है कि उसके नाजायज हिस्से को वह सरकार या कानून के सामने रखे। नाजायज बातें सुनकर उन पर चुप रहना यह जनता के पैसों पर तनख्वाह पाने वाले लोगों की जिम्मेदारियों के खिलाफ है। इसलिए हम पहले से यह बात लिखते आए थे कि सरकारी बातचीत टेलीफोन पर मिलने वाले सरकारी निर्देश, इन सबको रिकॉर्ड करके रखना चाहिए और इसमें कोई सरकारी नियम आड़े नहीं आते।
सरकार ने अपने किसी भी कर्मचारी या अधिकारी को बर्खास्त करने के लिए एक ब्रह्मास्त्र बनाकर अपने हाथ में रखा हुआ है और सरकारी सेवा नियमों में एक लाइन जोड़ी है कि उनका बर्ताव सरकारी कर्मचारी या अधिकारी जैसा ना होने पर उनकी सेवा समाप्त की जा सकती है। अनबिकमिंग ऑफ एन ऑफिसर, नाम की यह शर्त पूरी तरह से धुंधली है और यह बेजा इस्तेमाल करने के लिए ही बनाई गई है। हम अभी मध्यप्रदेश के इस मामले में सही या गलत पर नहीं जा रहे हैं, कौन भ्रष्ट है और कौन नहीं, उस पर हम कोई बात नहीं कह रहे हैं, लेकिन हम इतना जरूर कह रहे हैं कि सरकारी कामकाज में कोई निजी बात क्यों रहना चाहिए जिसे कि रिकॉर्ड ना किया जाए या जिसे सार्वजनिक रूप से कहा न जा सके? ऐसे 10-20 और अफसर अगर सामने आएंगे तो बड़े मंत्रियों और बड़े अफसरों का मातहत अधिकारियों और कर्मचारियों को गलत काम करने के लिए कहना भी बंद होने लगेगा। लोकतंत्र के हित में यही है कि इस तरीके को बढ़ावा दिया जाना चाहिए ताकि सब कुछ पारदर्शिता से हो सके। अगर सरकार को अदालत में जाना पड़ा, तो वहां उसकी शिकस्त होगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आज जब देश के बाकी तमाम हिस्सों में कोरोना की मार कुछ हल्की होती दिख रही है, तब महाराष्ट्र में यह अंदेशा जताया जा रहा है कि तीन-चार हफ्तों में कोरोना की तीसरी लहर वहां शुरू हो सकती है। लेकिन इस बीच एक बड़ी फिक्र की बात यह सामने आई है कि अहमदाबाद से लेकर असम तक जिन नदियों में कोरोना की जांच हुई, उन सारी नदियों के पानी के तमाम सैंपल कोरोना पॉजिटिव निकले। गुजरात में साबरमती नदी में पिछले 1 बरस में आईआईटी गांधीनगर ने जितने सैंपल लिए सब पॉजिटिव मिले और यह सैंपल सैकड़ों की संख्या में लिए गए। इसी तरह असम की कई नदियों से सैंपल लिए गए और उसमें भी कोरोना पॉजिटिव रिजल्ट आए। अब तक यह माना जा रहा था कि जो नाले-नालियों का पानी है जिनमें अस्पतालों से और कोरोनावायरस मरीजों के घरों से निकला हुआ पानी, अस्पताल के कचरे के बहकर आने से, कोरोना वायरस मिल रहा है, वह अब ऐसी नदियों के पानी में भी मिल रहा है जहां पर गंदा पानी सीधे नदी में नहीं मिलता है, और उन्हें जल शोधन संयंत्र से साफ करके ही नदी में भेजा जाता है फिर भी वहां कोरोना वायरस पाया गया है।
आईआईटी के वैज्ञानिकों का कहना है कि इसके पहले तक केवल गंदे पानी की नालियों में ही कोरोना वायरस के जिंदा रहने की बात मिली थी, लेकिन अब उन नदियों के पानी में भी यह मिल रहा है जहां पर लोग नहाते हैं या जहां से पानी लेकर उसे लोगों के पीने के लिए भेजा जाता है, तो यह एक नए खतरे की नौबत है। इस बात को लेकर विज्ञान थोड़ा सा हैरान भी है लेकिन यह खतरा हमें बहुत अजीब नहीं लग रहा है। यह वायरस जिस रफ्तार से अपनी शक्ल बदल रहा है, और अलग-अलग तरह से यह विज्ञान के लिए चुनौती खड़ी कर रहा है, उसमें इसके हवा से फैलने या पानी से फैलने का खतरा महज कुछ दूर ही था, वह खतरा पूरी तरह से नामौजूद नहीं था। अब जब दुनिया के देश, कोई कोरोना की तीसरी लहर के कगार पर है, कोई कोरोना की दूसरी लहर के कगार पर, तब पानी में ऐसा खतरा मिलना एक बहुत ही फिक्र की बात है। और फिर ये सैंपल एक-एक नदी से सैकड़ों की संख्या में लिए गए, और हर सैंपल में कोरोना वायरस मिला। इसका मतलब यह है कि यह किसी गलती से निकाला गया नतीजा नहीं है। ऐसे में पानी में कोरोना का होना आगे किस तरह खतरा बन सकता है यह भी सोचने की बात है, और उसके लिए सावधानी बरतने की बात भी है।
आज जो लोग कोरोना को गुजर चुका मान रहे हैं, और वैक्सीन से परहेज कर रहे हैं या लापरवाह हो रहे हैं उन्हें भी इन ताजा नतीजों को देखते हुए अपने तौर-तरीके बदलने चाहिए। इन वैज्ञानिक निष्कर्षों को देखते हुए भारत सरकार को देश भर के लिए इससे बचाव के तरीके निकालकर राज्यों के साथ बांटने चाहिए और देश के दूसरे वैज्ञानिक संस्थानों के लोगों को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए कि ऐसे खतरे से कैसे बचा जा सकता है। यह मामला महज एक-दो नदियों का नहीं है गुजरात में तो कई झीलों का पानी भी लिया गया और उनमें भी हर सैंपल में कोरोना वायरस मिला है। इसलिए यह किसी एक नदी के प्रवाह से फैला हुआ नहीं है, और यह बात भी है कि यह पानी में इस तरह जिंदा रह रहा है कि वह कई हफ्तों तक लगातार लिए गए नमूनों में लगातार बने रहा। आईआईटी गुजरात ने 4 महीने तक लगातार हर हफ्ते कई नदियों और झीलों से सैंपल लिए, और उनमें से हर किसी में कोरोना पॉजिटिव मिला। इस देश की शायद आधी आबादी सीधे नदी-तालाब में निस्तारी से काम चलाती है, और अगर इनके पानी से कोरोना अगर इंसानों में आने लगेगा, या जानवरों में जाने लगेगा तो क्या होगा?
एक दूसरा खतरा
कांग्रेस पार्टी के एक प्रवक्ता ने ट्विटर पर यह पोस्ट करके एक बवाल खड़ा कर दिया है कि क्या कोरोना वैक्सीन में नवजात बछड़े के खून से निकला गया सीरम मिलाया गया है? वैज्ञानिकों ने इस पर खुलासा किया है कि वैक्सीन विकसित करते हुए किसी एक स्तर पर बछड़े के सीरम का इस्तेमाल होता है, लेकिन लोगों तक पहुँचने वाली वैक्सीन में ऐसा कुछ भी नहीं मिला है। भाजपा ने भी कांग्रेस प्रवक्ता की इस बात को गलत बताया है, और इसे लोगों को वैक्सीन से दूर करने की गैरजिम्मेदार हरकत करार दिया है। कांग्रेस प्रवक्ता की ऐसी पोस्ट हम एक बहुत ही गैर जिम्मेदारी का काम मानते हैं, क्योंकि डायबिटीज के मरीजों के लिए इंसुलिन की दवाई हो या कई किस्म के टीके हों, इनको विकसित करते हुए कई बार जानवरों के शरीर के कुछ पदार्थ इस्तेमाल किए जा सकते हैं। हिंदुस्तान में हिंदुओं के बीच गाय को लेकर जैसी भावनाएं हैं, या मुस्लिमों के बीच में सूअर को लेकर जिस तरह की हिकारत है, या सिखों के बीच जानवरों को काटने के तरीके को लेकर अपनी मान्यताएं हैं, इन सबको पूरा करने की बात अगर की जाएगी तो दुनिया में कोई चिकित्सा-वैज्ञानिक परीक्षण हो भी नहीं सकेंगे। आज जब पूरी दुनिया महामारी का एक खतरा झेल रही है, आज इस वक्त हिंदुस्तान में इतनी बड़ी संख्या में लोग मारे जा चुके हैं, और तीसरी लहर के खतरे का अंदेशा बना हुआ है, उस वक्त इस किस्म की जटिल-वैज्ञानिक बात पोस्ट करना और एक सनसनीखेज समाचार की शक्ल में किसी वैज्ञानिक बात को, सच या झूठ को तोड़-मरोड़ कर सामने रखना, एक जुर्म सरीखा काम है। इससे राष्ट्रीय सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है क्योंकि अगर हिंदुओं के बीच इस बात की दहशत हो गई कि इसमें गाय के शरीर के खून या किसी और चीज को मिलाया गया है, तो बहुत से लोग वैक्सीन से परहेज करने लगेंगे।
लोगों को याद होगा कि जब पोलियो वैक्सीन दी जाती थी तो हिंदुस्तान के कुछ प्रदेशों में कई मुस्लिम इलाकों के बीच इसे लेकर तरह-तरह की आशंकाएं थीं और लोग अपने बच्चों को पोलियो ड्रॉप्स नहीं पिलाते थे। किसी वैक्सीन को विकसित करने की वैज्ञानिक प्रक्रिया में अगर किसी स्तर पर किसी जानवर के शरीर का निकला हुआ कोई अंश इस्तेमाल भी होता है तो उसे इस तरह सार्वजनिक मंच पर लापरवाही और गैरजिम्मेदारी से चर्चा और खबर में लाना, उसकी सनसनी फैलाना, एक बहुत ही गैरजिम्मेदारी का जुर्म है। कांग्रेस पार्टी पता नहीं क्या सोच कर अपने प्रवक्ता से ऐसा कहला रही है। अब तक तो कांग्रेस पार्टी का कोई खंडन अपने प्रवक्ता की ट्वीट के खिलाफ आया नहीं है, और उसने देश भर की फजीहत के इस सामान को लेकर अपनी आलोचना का एक बड़ा मौका विरोधी पार्टियों को दिया है। आज देश में तमाम लोगों को ऐसी सनसनी फैलाने से बचना चाहिए और कांग्रेस की इस गैरजिम्मेदारी का बुरा नतीजा पूरे देश में देखना पड़ सकता है।
हिंदुस्तान बड़ा ही दिलचस्प देश है। लोगों को बारहमासी नफरत से कभी आजादी ही नहीं मिलती, और आबादी का एक बड़ा हिस्सा यह आजादी चाहता भी नहीं है। रात-दिन बहुत से लोग इस फिक्र में दुबले हुए रहते हैं कि हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच कोई तनातनी खड़ी क्यों नहीं हो पाई। जहां पर हिंदू-मुस्लिम विवाद की गुंजाइश कम दिखती है वहां पर लोग हिंदू-ईसाई झगड़ा ढूंढ निकालते हैं, जहां वह भी नहीं दिखता है वहां पर सवर्ण और दलित का झगड़ा ढूंढ निकालते हैं, आदिवासियों से शहरी लोग अपना झगड़ा ढूंढ निकालते हैं। यह सिलसिला कभी खत्म ही नहीं होता, और अब तो सोशल मीडिया की मेहरबानी से नफरत को किसी आग की तरह सुलगाते रहना आसान हो गया है। ताजा बवाल खड़ा किया जा रहा है एक मुस्लिम से शादी करने वाली हिंदू अभिनेत्री करीना कपूर का बहिष्कार करने का।
ऐसी खबर आई ही थी कि सीता नाम की एक फिल्म बन रही है और उसमें सीता का किरदार निभाने के लिए करीना कपूर को छाँटा जा रहा है तो उसे लेकर कई हिंदू संगठन, और हिंदू धर्म के बहुत से स्वघोषित ठेकेदार विरोध करके अपने अस्तित्व को साबित करने में लग गए हैं कि वे अभी भी जिंदा है, और सक्रिय हैं। उनका विरोध है कि एक मुस्लिम अभिनेत्री को सीता के किरदार के लिए क्यों छांटा गया है। कई दिनों से ट्विटर पर बाइक और करीना खान नाम का एक बहिष्कार चलाया जा रहा था जिस पर दसियों हजार लोगों ने अपनी नफरत जाहिर की थी। आज नागपुर की खबर है कि वहां पर बजरंग दल के लोगों ने जाकर कलेक्टर को एक ज्ञापन दिया है कि अगर यह फिल्म बनी तो इसका जमकर विरोध किया जाएगा और विरोध करने की वजह में उन्होंने कुछ तस्वीरें भी लगाई हैं जिनमें करीना कपूर बिकनी पहने हुए दिख रही हैं और एक फोटो में वे अजमेर की दरगाह की यात्रा भी कर रही हैं। इन बातों को लेकर एक मुस्लिम अभिनेत्री के सीता का किरदार करने का विरोध किया जा रहा है।
भाजपा से जुड़े हुए जितने अभिनेता और अभिनेत्री रहे हैं उन्होंने किस-किस फिल्म में किस धर्म के लोगों का किरदार निभाया था इसकी एक लंबी लिस्ट बन सकती है। लव जिहाद नाम का एक शब्द उछालकर जिस तरह से समाज में नफरत और दहशत दोनों फैलाई जा रही थी, उस वक्त भी नफरतजीवी लोग यह देखने से इंकार कर रहे थे कि किस तरह भाजपा की सांसद अभिनेत्री हेमा मालिनी ने पहले से शादीशुदा एक अभिनेता धर्मेंद्र से दूसरी शादी करने के लिए धर्म बदला था। अब यह बात लव जिहाद के दायरे में आती है या नहीं यह कहना मुश्किल है क्योंकि नफरतजीवी लोगों ने लव जिहाद की कोई सरकारी परिभाषा अभी तक जारी नहीं की है। लेकिन सवाल यह है कि अगर हिंदुस्तान में नफरत इस हद तक इस्तेमाल की जानी है कि किसी धर्म के किरदार को उसी धर्म के कलाकार निभाएं, तो फिर यहां एक धर्मराज की जरूरत है, यहां लोकतंत्र की जरूरत ही क्यों हैं?
यह बात हिंदू धर्म के देश के सबसे संगठित संगठन भाजपा की तरफ से औपचारिक रूप से नहीं उठाई गई है, लेकिन पिछले हफ्ते-दो हफ्ते से सोशल मीडिया पर फैलाई जा रही सबसे घटिया और सबसे हिंसक इस नफरत का कोई विरोध भी भाजपा की तरफ से नहीं किया गया है, और न ही केंद्र सरकार ने ऐसी हिंसक नफरत पर कोई कार्रवाई की है जिसमें एक मुस्लिम से शादी करने वाली जन्म से हिंदू अभिनेत्री के एक हिंदू किरदार करने के खिलाफ यह आंदोलन चलाया जा रहा है। ऐसी नफरत फैलाना अगर राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा नहीं है तो फिर क्या उत्तर प्रदेश और दिल्ली में की जाने वाली एक-एक अकेली ट्वीट को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा मान लेना ठीक है? चूँकि बजरंग दल देश में सत्तारूढ़ भाजपा के सहयोगी संगठन आरएसएस के तहत आने वाले दर्जनों संगठनों में से एक माना जाता है, इसलिए भाजपा और आरएसएस को भी इस मुद्दे पर अपनी राय जाहिर करनी चाहिए कि वे फिल्मी किरदार निभाने वाले लोगों के लिए धार्मिक अनिवार्यता तय करना चाहते हैं क्या? अगर ऐसा नहीं है तो हिंदुस्तान में आज की जलती-सुलगती दिक्कतों और बुनियादी मुद्दों की तरफ से ध्यान भटकाने के लिए इस किस्म के शिगूफे राष्ट्रीय सुरक्षा पर खतरा क्यों बनने दिए जा रहे हैं? क्या अब कोई मुस्लिम लेखक हिंदू किरदारों को लेकर कोई कहानी भी नहीं लिख सकेंगे? या क्या अब राही मासूम रजा को कब्र से निकालकर रामायण लिखने की सजा सुनाई जाएगी? देश के इस खतरनाक होते माहौल पर राजनीतिक दलों की, और उनसे भी अधिक सरकार की चुप्पी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक खतरा है। एक तरफ तो देशभर में अलग-अलग प्रदेशों में सत्तारूढ़ दल से असहमति रखने वाले लोगों पर राष्ट्रीय सुरक्षा अध्यादेश के तहत जुर्म दर्ज करने का काम थानेदार भी कर ले रहे हैं, और दूसरी तरफ पूरे देश में नफरत और हिंसा के ऐसे संगठित अभियान को चलाने वाले लोगों की नीयत और उनके खतरे को केंद्र सरकार इस हद तक अनदेखा कर रही है। आज यह नफरत फैलाने वाले लोग, लव जिहाद नाम का शब्द उछालकर हिंसा करने वाले लोग, इस बात को पूरी तरह अनदेखा करते हैं कि किस-किस राजनीतिक दल के कौन-कौन से सांसद और मंत्री ऐसे ही लव जिहाद के तहत अपना परिवार बसाकर सुख से जीते हैं।
एक तरफ तो बड़े-बड़े नेता अपनी खुद की शादी के वक्त ऐसे किसी फतवे की फिक्र नहीं करते, देश के बड़े-बड़े कामयाब लोग और दौलतमंद लोग ऐसे फतवों और झंडे-डंडों से परे जब चाहे जिससे शादी करते हैं, और अपनी मर्जी से धर्म निभाते हैं या नहीं निभाते हैं। लेकिन आम लोगों को ऐसे नफरत की मार मारने के लिए ऐसे ही बजरंग दल जैसे संगठनों के लोग झंडे-झंडे लेकर निकलते हैं। इनको अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए और उसे साबित करने के लिए ऐसे शिगूफा तलाशकर रखने पड़ते हैं। लेकिन ऐसी हरकतें हिंदुस्तान की राष्ट्रीय एकता के खिलाफ हैं, और जो राजनीतिक दल, जो सरकार इसके खतरों को कम आंकती हैं, वह हमारे हिसाब से कम गुनहगार नहीं हैं।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिंदुस्तान के अदालती फैसलों में भी कोरोना सी लहर आते रहती हैं। पिछले कुछ हफ्तों से अदालतें एक बार फिर उम्मीदें जगा रही हैं कि वे सरकार की हामी भरने वाली संस्था ना होकर जनता और संविधान की भी फिक्र करने वाली जिम्मेदार अदालतें हैं। दिल्ली हाईकोर्ट ने कल 3 छात्र-छात्राओं को आतंकी आरोपों के मामले में जमानत देते हुए कहा कि ऐसा लगता है कि सरकार की नजर में विरोध के संवैधानिक अधिकार और आतंकवादी गतिविधि के बीच फर्क करने वाली लकीर कुछ धुंधली हो गई है। दिल्ली हाईकोर्ट ने इन गिरफ्तार लोगों को जमानत देते हुए केंद्र सरकार के यूएपीए कानून की आलोचना करते हुए कहा कि इसमें आतंकवाद और आतंक शब्द की परिभाषा कहीं पर नहीं दी गई है।
अदालत ने कहा कि यूएपीए में आतंकवादी काम की परिभाषा अस्पष्ट है और आतंकवादी काम का इस्तेमाल किसी भी आपराधिक काम के लिए नहीं किया जा सकता, खासकर ऐसे कामों के लिए जिनकी परिभाषा पहले से अन्य कानूनों में तय है। अदालत ने सरकार को सावधानी बरतने की नसीहत देते हुए कहा कि ऐसा न करने पर इस बेहद घृणित अपराध की गंभीरता खत्म हो जाएगी। पिछले साल दिल्ली में पिंजरातोड़ नाम के एक सामाजिक आंदोलन के कार्यकर्ता और जेएनयू-जामिया के तीन छात्र-छात्राओं को दिल्ली पुलिस ने दिल्ली दंगे की साजिश रचने के आरोप में गिरफ्तार किया था और वे लंबे समय से जेल में चले आ रहे थे। अब अदालत ने इन्हें जमानत देते हुए जो बातें कही हैं, उनमें यह भी है की असहमति को दबाने के लिए सरकार के जहन में विरोध के संवैधानिक अधिकार और आतंकवादी गतिविधि के बीच का फर्क धुंधला हो गया है, और अगर इस रवैया को बढ़ावा मिलता है तो यह लोकतंत्र के लिए दुखद दिन होगा।
देश के मीडिया का एक हिस्सा, और देश के बहुत से सामाजिक विचारक, कई राजनीतिक दल लगातार नौजवान छात्र-छात्राओं के ऐसे गंभीर कानून के तहत गिरफ्तारी के खिलाफ बोलते और लिखते चले आ रहे थे। लेकिन केंद्र सरकार के मातहत दिल्ली पुलिस ने इस तरह की बहुत सी गिरफ्तारियां की और उनमें देश के सबसे कड़े एक कानून को लागू करके इनकी जमानत अब तक नहीं होने दी थी। जब किसी बेकसूर सामाजिक कार्यकर्ता पर आतंकवादी होने का आरोप लगाया जाता है या उस पर देशद्रोह या राजद्रोह के आरोप लगा दिए जाते हैं या फिर उन पर सांप्रदायिकता फैलाने की बात कही जाती है और उनके खिलाफ कानूनी कार्यवाही शुरू कर दी जाती है, तो इसका असल मकसद देश में ऐसे बाकी जागरूक लोगों का हौसला पस्त करना होता है। कुछ गिने-चुने लोगों को ऐसे कड़े कानूनों के तहत गिरफ्तार करके जेल में लंबे समय तक रखकर, मुकदमों को आगे न बढ़ाकर सरकारें लोकतांत्रिक आंदोलनों को खत्म करती हैं। दिल्ली हाईकोर्ट के इस आदेश और उसकी इस टिप्पणी को देखते हुए देश में बाकी जगहों पर भी इस किस्म की कार्रवाई के बारे में दोबारा सोचना चाहिए।
छत्तीसगढ़ की एक प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता, मजदूर अधिकारों के लिए अदालतों में लडऩे वाली एक प्रमुख वकील सुधा भारद्वाज को भी महाराष्ट्र में गिरफ्तार हुए हजार दिन हो रहे हैं और वे भी अब तक बिना जमानत जेल में हैं। लोकतंत्र में सामाजिक कार्यकर्ताओं को अदालती फैसलों के भी पहले इस तरह की सजा देना सरकार के हाथ में है। ऐसे मामलों का जब अदालती निपटारा होगा, तब जाकर यह पता लगेगा कि उनके खिलाफ चलाए गए मुकदमे में कुछ दम था या नहीं। और उसके बाद भी देश की सबसे बड़ी अदालत तक पहुंचने में फिर बरसों लग जाते हैं। लेकिन इस बीच ऐसे आंदोलनकारियों की जिंदगी तबाह करना सरकार के हाथ में रहता है और यह काम देशभर में जगह-जगह चल रहा है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए।
देश में ऐसे अलोकतांत्रिक कानूनों को भी खत्म करना चाहिए जो अंग्रेजों ने हिंदुस्तानियों पर राज करने के लिए एक बदनीयत से बनाए थे, और जो एक गुलाम देश के लायक थे. हिंदुस्तान के आजाद होने के बाद पौन सदी गुजर रही है और अब तक हिंदुस्तानी कानून अगर अंग्रेजों का पखाना ढोकर चल रहा है तो उसमें फेरबदल की जरूरत है. लेकिन दिक्कत यह है कि पिछले कुछ वर्षों में केंद्र सरकार ने कई कानूनों को और अधिक कड़ा किया है जिससे लोकतांत्रिक आंदोलनों की, असहमति की गुंजाइश और कम हो गई है। इसके अलावा ऐसे कानूनों के तहत नाजायज कार्रवाई के मामले लगातार बढ़ रहे हैं और अदालतों से इनका निपटारा होने तक एक पूरी पीढ़ी के हौसले खत्म करने का सरकारी मकसद तो पूरा हो ही जाता है। अब यह समझ में नहीं आता है कि सरकार की ऐसी कार्यवाही के खिलाफ अदालतों से कैसे जल्दी इंसाफ मिल सके और कैसे ऐसी मिसाल कायम हो सके जो बाद में दूसरे मामलों में भी इस्तेमाल हो?(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
इन दिनों बड़े से बड़े अखबार या टीवी चैनल की वेबसाइटों को देखें, या कुछ ऐसी वेबसाइटों को देखें जो न अखबार की हैं न टीवी चैनलों की, और जो सिर्फ बहुत ही प्रमुख और कामयाब वेबसाइट हैं, तो उन पर कई किस्म के झांसे के इश्तहार दिखाई पड़ते हैं. बहुत से इश्तहार तो खबरों के बीच में इस तरह से दबे-छुपे रहते हैं जिस तरह किसी पेड़ के तने या पत्तों के बीच में कुछ जानवरों के छुपने की तस्वीरें कभी-कभी सामने आती हैं कि उन्हें पेड़ से अलग करके देखना ही नहीं हो पाता। ऐसे इश्तहार आमतौर पर धोखा देने वाले रहते हैं, और चूँकि वेबसाइटों को विज्ञापन से कमाई का लेना-देना रहता है इसलिए वे इस बात की परवाह भी नहीं करतीं कि उनकी खबरों के बीच, उनके दूसरे पोस्ट के बीच किस तरह के झांसे वाले इश्तहार दिखाई पड़ रहे हैं। जाहिर तौर पर बहुत से लोग इन्हें देख कर धोखा खाते भी होंगे।
अभी ऐसा ही एक इश्तहार एक फिल्म कलाकार सुशांत सिंह राजपूत से जुड़ी हुई एक तस्वीर के नीचे आया जिसे रायपुर के ही एक कंप्यूटर से वेबसाइट पर जाकर देखा गया था और उसके नीचे इस इश्तहार में नोटों का ढेर उठाए हुए एक गरीब आदमी की तस्वीर है और यह लिखा हुआ है कि रायपुर के एक गरीब मजदूर ने किस तरह 1 करोड़ 16 लाख रुपए अपने मोबाइल फोन से कमा लिए। अब इस तरह की अविश्वसनीय कमाई के बहुत से इश्तहार वेबसाइटों पर दिखते हैं, और अगर कंप्यूटर का इंटरनेट किसी तकनीकी वजह से अपने को इंदौर के इलाके में बताता है तो इस इश्तहार में रायपुर की जगह इंदौर आ जाता है। देश के अलग-अलग कोनों में जिस इलाके से आप इंटरनेट पर पहुंचेंगे, इसी इश्तहार में सिर्फ शहर का नाम बदल जाएगा और उस शहर का मजदूर एक करोड़ 16 लाख रुपए अपने मोबाइल फोन से कमाते हुए दिखने लगेगा। ऐसे दूसरे को इश्तहारों में एक बहुत ही आलीशान कोठी के सामने एक बहुत ही महंगी विदेशी कार में बैठा हुआ एक नौजवान, या एक युवती दिखते हैं और उसके साथ भी कुछ इसी किस्म का एक उकसाता हुआ विज्ञापन स्लोगन लिखा रहता है कि किस तरह उन्होंने 1 महीने में ही कमाई करके यह बंगला, गाड़ी सब कुछ खरीद लिया। आप जिस शहर से इंटरनेट पर पहुंचें, उसी शहर का नाम उसी इश्तहार में दिखने लगता है।
अब सवाल ये उठता है कि भारत सरकार का इतना कड़ा सूचना तकनीक कानून है कि जिसके तहत मामूली चूक करने वाले और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग करने वाले लोग भी आए दिन कानून के फंदे में फंसते रहते हैं। दूसरी तरफ जो ठग, धोखेबाज, और जालसाज लगातार इस तरह इंटरनेट पर लोगों को धोखा देते हैं, वह हमारे जैसे साधारण समझ वाले लोगों को भी मामूली आंखों से समझ में आने वाले धोखेबाज़ हैं, लेकिन भारत सरकार के साइबर क्राइम पकडऩे वाले लोगों को यह नहीं दिखता, न ही राज्यों को यह दिखता है कि इसमें क्या जालसाजी है। यह कुछ उसी किस्म का है जिस तरह एक फाड़े गए साइलेंसर वाली बड़ी सी मोटरसाइकिल भारी शोरगुल करते हुए चौराहे पर से पुलिस के सामने से निकल जाती है, लेकिन पुलिस को उसकी आवाज सुनाई नहीं पड़ती। फिर चाहे बाकी तमाम लोगों को शोरगुल से दिक्कत क्यों ना हो। इसी तरह ये जालसाज विज्ञापन लोगों को इंटरनेट पर दिखते हैं, लोगों के व्हाट्सएप पर आते हैं, लेकिन सरकार इनमें से कोई जालसाजी नहीं रोक पाती। दूसरी बात यह भी है कि जिन वेबसाइटों पर धोखाधड़ी के ऐसे विज्ञापन रात-दिन आते हैं और उन पर टंगे रहते हैं, क्या उन वेबसाइटों की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती है कि वे अपनी सामग्री के साथ, अपनी खबरों के साथ, इस तरह की धोखाधड़ी के विज्ञापनों का दिखना बंद करें या फिर धोखे में भागीदारी करके भी कमाई करने की चाह में सब उलझे हुए हैं?
यह सिलसिला खतरनाक इसलिए है कि इंटरनेट का इस्तेमाल बढ़ते चल रहा है और हर दिन लाखों नए लोग इंटरनेट पर जुड़ते हैं जो कि भरोसेमंद वेबसाइटों के विज्ञापनों को भी भरोसेमंद मान लेते हैं, और कई विज्ञापन तो ऐसे दबे-छुपे अंदाज में रहते हैं कि वे पहली नजर में खबर ही लगते हैं। इसलिए इस धोखाधड़ी को बंद करने का काम होना चाहिए और सरकार को इस पर कड़ी कार्यवाही करनी चाहिए। दूसरी तरफ हिंदुस्तान में एक एडवरटाइजिंग स्टैंडर्ड्स काउंसिल नाम की एक संस्था है और वह संस्था भी धोखा देने वाले विज्ञापनों या झूठे दावे करने वाले विज्ञापनों पर कार्यवाही करने का दावा करती है। इस संस्था को भी ऐसे विज्ञापन देने वाले से पूछना चाहिए कि वह रायपुर के उस मजदूर की जानकारी दें जिसे एक करोड़ 16 लाख रुपए की कमाई अपने मोबाइल फोन से हुई है। यह सिलसिला इसी तरह चलते रहने देना गलत है, और यह बहुत से लोगों की गैर जिम्मेदारी का नतीजा है यह मीडिया की भी गैर जिम्मेदारी है, केंद्र और राज्य सरकारों की भी गैर जिम्मेदारी है और एडवरटाइजिंग स्टैंडर्ड्स काउंसिल ऑफ इंडिया की गैर जिम्मेदारी तो है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अयोध्या में बन रहे राम मंदिर को लेकर एक बड़ा ही खराब विवाद आज सामने आया है जिसे आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सदस्य संजय सिंह ने भी उठाया है और उत्तर प्रदेश के समाजवादी पार्टी के एक विधायक ने भी। अगर इनके आरोप सही हैं और इनके पेश किए गए दस्तावेज कोई जालसाजी नहीं हैं, तो यह एक भयानक भ्रष्टाचार का मामला दिख रहा है और चूंकि यह राम मंदिर निर्माण ट्रस्ट को लेकर है जो कि केंद्र सरकार द्वारा बनाया गया एक ट्रस्ट है इसलिए यह देश की सर्वोच्च स्तर की जांच के लायक मामला है।
पहली नजर में जो दस्तावेज इन दोनों नेताओं ने पेश किए हैं उनके मुताबिक, मंदिर से लगी हुई जमीनों को खरीदने के लिए मंदिर ट्रस्ट लोगों से बात कर रहा था। जिस जमीन को मंदिर खरीदना चाहता था उसका सरकारी रजिस्ट्री रेट करीब 5 करोड़ बताया जाता है। और इस जमीन को दो और लोगों ने उसके मालिक से 2 करोड रुपए में खरीदा। इसे खरीदने के 10 मिनट के भीतर राम मंदिर निर्माण ट्रस्ट ने उस जमीन को इन नए मालिकों से 18 करोड़ रुपए में खरीदने का एग्रीमेंट किया, और 17 करोड़ रुपए आरटीजीएस से इन नए मालिकों के खाते में डाल दे दिए। 10 मिनट पहले की खरीद-बिक्री में जो दो गवाह थे, उनमें से एक मंदिर ट्रस्ट के सदस्य हैं और दूसरे व्यक्ति अयोध्या के मेयर हैं। और यही दोनों गवाह 10 मिनट बाद की उस जमीन की 18 करोड़ की बिक्री के मामले में भी गवाह हैं। आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सदस्य संजय सिंह ने इन दोनों रजिस्टर्ड दस्तावेजों को मीडिया के सामने पेश किया है जिनमें भुगतान की जानकारी भी है। मंदिर ट्रस्ट की तरफ से श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय ने इन आरोपों पर कहा कि उन पर तो महात्मा गांधी की हत्या के आरोप भी लगते रहे हैं और वे उसकी परवाह नहीं करते।
अब इस खरीद-बिक्री में जो दो खरीददार हैं उनमें एक हिंदू है और एक मुस्लिम है। इसके दोनों गवाह डॉ. अनिल मिश्रा और ऋषिकेश उपाध्याय मंदिर ट्रस्ट के सदस्य और अयोध्या के महापौर हैं। जमीन को बेचने वाले मूल स्वामी बाबा हरिदास हैं और खरीदने वाले मंदिर ट्रस्ट के महासचिव चंपक राय हैं। समाजवादी पार्टी के विधायक और आम आदमी पार्टी के सांसद के उठाए हुए सवाल और उनके पेश किए हुए दस्तावेज हैरान करते हैं कि 5 करोड रुपए रजिस्ट्री दाम की जमीन को दो करोड़ में कैसे खरीदा गया और फिर 10 मिनट में ही उसे साढ़े 18 करोड़ में कैसे बेच दिया गया और आनन-फानन ट्रस्ट के 17 करोड़ों रुपए इस नए खरीददार के खाते में चले भी गए।
जमीन जायदाद के काम करने वाले लोगों को यह बात बड़ी आसानी से समझ आ जाएगी कि यह गोरखधंधा किस तरह किया गया है। अब सवाल यह उठता है यह ट्रस्ट तो केंद्र सरकार का बनाया गया है, और सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद बनाया गया है जिसमें केंद्र सरकार द्वारा मनोनीत प्रतिनिधि सदस्य हैं। इस तरह से यह धार्मिक ट्रस्ट होने के बावजूद सरकार निर्मित ट्रस्ट है, और इस पर अगर जमीन खरीदी में इतनी बड़ी रकम का घपला करने का ऐसा आरोप लगा है तो केंद्र सरकार को बिना देर किए हुए इसकी जांच करवानी चाहिए क्योंकि यह देश के करोड़ों राम भक्तों और हिंदुओं की आस्था का भी मामला है। इस मंदिर ट्रस्ट में जिस तरह शायद 5000 करोड़ का दान और चंदा इकट्ठा किया है उसके इस्तेमाल पर भी एक बड़ा सवाल इन आरोपों से लगता है।
उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार है और भाजपा के ही मुख्यमंत्री हैं इसलिए इस मामले की सीबीआई जांच में राज्य सरकार की असहमति की कोई बात नहीं हो सकती है। देश के इस सबसे बड़े मंदिर निर्माण ट्रस्ट को लेकर जितने गंभीर आरोप लगे हैं प्रधानमंत्री को इस मामले की सीबीआई जांच के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को कहना चाहिए कि वे इसकी सिफारिश करें और इसकी तेजी से जांच करवाई जाए, ताकि दान देने वाले, और दान ना देने वाले आस्थावान, लोगों की भी आस्था को चोट ना पहुंचे। तब तक इस ट्रस्ट की ऐसी किसी खरीदी-बिक्री पर रोक भी लगना चाहिए।
ऐसे ट्रस्ट आमतौर पर स्थानीय कलेक्टर के नियंत्रण में माने जाते हैं, जिसके भी नियंत्रण में यह हो उन्हें तुरंत ही इसके बैंक खातों पर एक रोक भी लगानी चाहिए ताकि ऐसी धोखाधड़ी की और कोई खरीदी ना हो सके। ट्रस्ट के प्रभारी सचिव चंपक राय का बयान बहुत ही बुरी तरह अहंकार से भरा हुआ है और गैर जिम्मेदारी का है। यह मौका ऐसे अहंकार को दिखाने का नहीं है कि महात्मा गांधी की हत्या का आरोप भी उन पर लगा था। वे यह भी साफ नहीं कर रहे हैं कि वह किस पर आरोप लगने की बात कर रहे हैं, व्यक्तिगत रूप से उन पर गांधी की हत्या के आरोप की बात कर रहे हैं, या इस ट्रस्ट को लेकर बयान दे रहे हैं।
ट्रस्ट के किसी जिम्मेदार पद पर बैठे हुए व्यक्ति को ऐसी गैरजिम्मेदारी की बात नहीं करनी चाहिए और खासकर धार्मिक आस्था से जुड़े हुए ट्रस्ट के सबसे बड़े ट्रस्टी अगर आरोपों पर सफाई देने के बजाय अपने आपको गांधी हत्या के आरोप झेल चुका साबित कर रहे हैं, तो यह ट्रस्ट के लिए भी बहुत ही शर्मिंदगी की बात है। जो दो लोग इन दोनों खरीद-बिक्री में गवाह रहे हैं, उन्होंने मुंह खोलने से मना कर दिया है, इसलिए यह पूरा मामला भारी संदेह से भरा हुआ है, और जिन-जिन लोगों पर इस ट्रस्ट की जिम्मेदारी आती है उन्हें, और उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार, और केंद्र सरकार को तुरंत एक बड़ी जांच की घोषणा करनी चाहिए जिसके बिना इस ट्रस्ट के पास आए हुए हजारों करोड़ों रुपए खतरे में भी हैं और लोगों का भरोसा भी टूट रहा है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
भारत की राजनीति हाल के बरसों में एकदम से हमलावर हो गई है। जिनसे असहमति है उनके खिलाफ सोशल मीडिया पर हमले करवाने से बात शुरू होती है, और अगर उससे भी लोगों की सोच में बदलाव ना आए तो सोशल मीडिया कंपनियों में शिकायत करके उनके अकाउंट ब्लॉक करवाने का अगला कदम होता है। इस पर भी ना सुधरे तो पार्टियां अपने राज वाले प्रदेशों में लोगों के खिलाफ अंधाधुंध पुलिस रपट करवाती हैं, और क्योंकि पुलिस राज्य सरकार की मातहत होती है, बल्कि अपने भ्रष्टाचार की वजह से वह नेताओं के हाथों की कठपुतली भी होती है, इसलिए वह सत्तारूढ़ पार्टी की मर्जी से आनन-फानन एफआईआर दर्ज कर लेती है। केंद्र सरकार के पास दिल्ली या केंद्र प्रशासित प्रदेशों को छोडक़र किसी और प्रदेश में पुलिस सीधे-सीधे अपने हाथ तो नहीं है, लेकिन दूसरी जांच एजेंसियां हैं और ऐसा साफ दिखते रहता है कि असहमति की हालत में उसकी गंभीरता को देखते हुए उससे होने वाले नुकसान का अंदाज लगाते हुए उतनी अधिक ताकतवर एजेंसी को असहमति के पीछे लगा दिया जाता है। यह पूरा सिलसिला किसी एक पार्टी की सरकार या किसी एक सरकार तक सीमित नहीं है, यह सिलसिला अलग-अलग बहुत से राज्यों में बहुत शर्मनाक तरीके से दिख रहा है और केंद्र सरकार ने इसी हमलावर तेवर को और आगे बढ़ाते हुए देश के एक सबसे प्रमुख कार्टूनिस्ट मंजुल के ट्विटर अकाउंट को ब्लॉक करने के लिए ट्विटर को लिखा है।
किसी कार्टूनिस्ट को निशाना बनाकर उसके खिलाफ कोई कार्यवाही करना सडक़ पर किसी नंगे को गाली देने जैसा होता है, जिसके बाद अगर वह भी पीछे लग जाए तो फिर गाली देने वाले के पास भागने का भी कोई रास्ता नहीं होता। आज यह हुआ कि मंजुल का साथ देने के लिए देश के हर कार्टूनिस्ट ने कई-कई कार्टून बनाए हैं, और मोदी सरकार एकदम ही निशाने पर आ गई है। लोगों ने खुद तो कार्टून बनाए ही हैं, इमरजेंसी के वक्त से लेकर, उसके बाद तक, और उसके भी बहुत पहले नेहरू के वक्त के भी बहुत से चर्चित कार्टून निकाल निकाल कर लोग पोस्ट कर रहे हैं कि नेहरू में उन पर तंज कसने वाले कार्टूनिस्टों के लिए कितना बर्दाश्त होता था। लोगों ने इंदिरा और राजीव के वक्त के कार्टून भी निकालकर पोस्ट करना शुरू किया है कि उन्होंने भी आपातकाल से परे कभी किसी कार्टूनिस्ट को धमकी नहीं दी, उसके काम को बंद करवाने की कोशिश नहीं की। आपातकाल का वक्त जरूर था जब कार्टून, खबरों और संपादकीय पर सरकारी बंदिशें लग गई थीं, और सबसे हौसलामंद लोगों ने विरोध में अपने संपादकीय कॉलम को खाली छोड़ा था। लेकिन आज एक कार्टूनिस्ट के काम को ब्लॉक करने का नोटिस ट्विटर को देकर मोदी सरकार ने देश के तमाम कार्टूनिस्टों के सामने सिर्फ एक विकल्प छोड़ा है कि वे अपने भी अस्तित्व को बचने के लिए लड़ें।
कार्टूनिस्ट सत्ता को खुश करने के लिए ठकुरसुहाती के कार्टून नहीं बना सकते। व्यंग्य और कार्टून का मिजाज ही सत्ता और ताकतवर के खिलाफ होता है, और कमजोर का साथ देने के लिए रहता है। हमें याद पड़ता है कि ममता बनर्जी ने बंगाल के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अपने पहले कार्यकाल के दौरान सोशल मीडिया और कार्टून पर इसी किस्म की बहुत सी कार्यवाही की थी, हमारे अपने अखबार के पुराने पन्ने ममता बनर्जी पर बनाए हुए उस वक्त के बहुत से कार्टून से भरे पड़े हैं। मोदी सरकार एक तरफ तो सोशल मीडिया पर तरह-तरह से काबू बनाने की कोशिश में लगी हुई है, दूसरी तरफ अगर हिंदुस्तान के भीतर के कार्टूनिस्टों, या लेखकों और पत्रकारों को इस तरह से घेर कर मारने की कोशिश होगी तो उसका बड़ा विरोध भी होगा और फिर असहमति कई गुना अधिक ताकत से सामने आएगी।
लक्षद्वीप की एक अभिनेत्री पर राजद्रोह का मुकदमा दर्ज कर लिया गया है क्योंकि उसने वहां भेजे गए तानाशाह किस्म के प्रशासक को व्यंग्य में केंद्र का भेजा गया जैविक हथिया कह दिया था। इस प्रशासक के खिलाफ तो वहां बीजेपी के लोग ही खड़े हो गए हैं। व्यंग्य की भाषा के खिलाफ अगर कानूनी करवाई ही सरकार की समझ रह गयी है, तो फिर हरिशंकर परसाई और श्रीलाल शुक्ल की तो तमाम किताबों को गैरकानूनी करार दे देना होगा। पार्टियां समझें, सोच तो एक बीज की तरह की होती है जिसे अगर दफन करने की कोशिश होगी तो वह जमीन फाडक़र निकलेगी और पेड़ बन जाएगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
उत्तर प्रदेश में एक गांव में कोरोना मौतें हुईं तो गांववालों ने वहां कोरोना माता का मंदिर बना लिया। बाद में प्रशासन को वहां पूजा के लिए जुटते हुए लोग दिखे तो वह मंदिर गिराया गया और उसका मलबा गांव के बाहर फिंकवाया गया। लेकिन उत्तर प्रदेश के इस गांव से परे भी देश में कुछ और जगहों से ऐसी खबरें आई हैं कि कोरोना का मंदिर बनाया गया है और उसकी पूजा शुरू हो गई है। अब हिंदुस्तान की आबादी के बड़े हिस्से की सोच अगर देखें तो उसमें बीमारियों को लेकर दैवीय प्रकोप की बात लंबे समय से चलती है। यह आदिवासी समाज में तो चलती ही है, शहरी समाज में भी चलती है, जहां चेचक जैसी संक्रामक बीमारी को माता की बीमारी नाम दिया गया था और दो अलग-अलग किस्म के संक्रमणों के लिए छोटी माता और बड़ी माता ऐसा आज भी बोलचाल में प्रचलन में है। जब लोग चेचक से किसी के चेहरे पर आए हुए दाग की चर्चा करते हैं तो वैसे लोगों को माता दाग वाले ही कहा जाता है। इसलिए संक्रामक रोगों को ईश्वर से जोडऩा या ईश्वर के प्रकोप से जोडऩा इस देश में बहुत लंबे समय से चले आ रहा है। देश में जो बीमारियां खत्म हो चुकी हैं उनके लिए भी बहुत से समाजों में महिलाएं साल में एक बार माता की पूजा करती हैं, और ठंडा खिलाती हैं, पहली रात को खाना बनाकर रख दिया जाता है और अगले दिन घर में कुछ गर्म पकाए बिना उस ठंडे को खाया जाता है। जिस तरह हर धार्मिक रीति रिवाज के पीछे लोग एक वैज्ञानिक आधार होने की बात करने लगते हैं, वैसे ही इस ठंडा खाने के पीछे भी वैज्ञानिक आधार बता दिया जाता है। यह एक अलग बात है कि इस खाने से किसी का नुकसान नहीं होता, और न किसी की बलि देनी पड़ती। इस तरह हिंदुस्तान में संक्रामक रोगों को देवी देवताओं से जोडक़र चलने का सिलसिला पुराना है और उसी की ताजा कड़ी की शक्ल में कोरोना माता का मंदिर है।
लोगों को याद होगा कि भारत के हिंदू धर्म के परंपरागत देवी देवताओं से परे बीच-बीच में कुछ नए देवी देवताओं की लोकप्रियता भी बढ़ती है। जैसे आज से 50 बरस के करीब पहले एकाएक संतोषी माता का चलन बढ़ा, बहुत ही मान्यता फैली, और घर-घर में शुक्रवार को ना सिर्फ संतोषी माता की पूजा करके गुड़-चने का प्रसाद बांटा जाने लगा बल्कि उस दिन खट्टा खाने पर कट्टर मनाही लग गई थी क्योंकि संतोषी माता के बारे में कहा जाने लगा कि वे खट्टा पसंद नहीं करती हैं। हालत यह हुई कि संतोषी मां पर एक ऐसी फिल्म बनी जिसने उसके पहले के तमाम फिल्मों के रिकॉर्ड तोड़ दिए। उस फिल्म को देखना पूजा माना जाने लगा। हालत यह थी कि सिनेमा घर की टिकट खिडक़ी पर टिकट के साथ-साथ गुड़-चने का प्रसाद भी दिया जाता था। लोग धार्मिक भावना से भरे हुए इस फिल्म को देखने जाते थे, और वर्षों तक संतोषी माता की पूजा हिंदुओं के बीच होने वाली सबसे लोकप्रिय पूजा हो गई थी। बाद में धीरे-धीरे उस पूजा का चलन ही खत्म हो गया।
इसलिए अब कोरोना महामारी के बाद अगर कोरोना माता की पूजा होने लगे, उसके मंदिर बनने लगें, तो लोगों को हैरान नहीं होना चाहिए क्योंकि आज आम हिंदुस्तानियों के अधिकतर तबके में सोच कुछ इसी किस्म की रह गई है। लोगों में वैज्ञानिक सोच को बुनियाद सहित उखाड़ दिया गया है, तमाम किस्म के धर्मांध टोटके खूँटे की तरह ठोक दिए गए हैं। कोरोना महामारी ने हिंदुस्तानियों की अवैज्ञानिक सोच का फायदा ना सिर्फ अभी इस पूजा-पाठ की शक्ल में उठाया है, बल्कि दवाओं से परहेज, वैक्सीन से परहेज की शक्ल में भी उठाया है। देश की आम सोच में वैज्ञानिक सोच कतरा-कतरा नहीं आ सकती, लोग किसी एक मामले में अंधविश्वासी और दूसरे मामले में वैज्ञानिक सोच वाले नहीं हो सकते। इसलिए आज देश की सोच पर एक अंधकार छाया हुआ है क्योंकि हाल के वर्षों में लगातार अवैज्ञानिक बातों को प्राचीन विज्ञान बताकर लोगों को गोबर और गोमूत्र के साथ उनके गले उतारा गया है। देखें आगे और कौन सी देवी की कथा शुरू होती है।
हरियाणा के रोहतक से एक दिल दहलाने वाली खबर आई है कि 10 बरस की एक बच्ची के साथ सामूहिक बलात्कार करके उसका वीडियो बनाकर फैलाया गया और ऐसा करने वाले लोगों में एक 18 बरस का नौजवान था, और 8 नाबालिग थे। बलात्कारियों में 5 बच्चे तो 10 से 12 वर्ष उम्र के हैं। यह बच्ची अपने घर के बाहर खेल रही थी और इस टोली ने उसे स्कूल के पास ले जाकर बलात्कार किया, उसकी वीडियो रिकॉर्डिंग की, बच्ची को धमकी दी, और बाद में यह वीडियो फैलाकर उस बच्ची को ब्लैकमेल करना भी शुरू किया।
इस घटना से बहुत से सवाल उठते हैं, एक तो देश के सबसे चर्चित बलात्कार निर्भया कांड के समय से यह बात सामने आ रही थी कि नाबालिग लोग भी बलात्कार की ताकत और समझ रखते हैं। निर्भया के सामूहिक बलात्कार में एक लडक़ा नाबालिग था इसलिए वह कड़ी सजा से बचा और उसे किसी सुधार गृह में कहीं भेजा गया था। उसके बाद से देश भर में यह चर्चा शुरू हुई कि क्या बलात्कार के ऐसे मामलों के लिए बालिग होने की उम्र को 18 वर्ष से घटाकर 16 वर्ष कर दिया जाए? जिस तरह घुटनों पर चोट लगने पर पूरा बदन बिलबिला उठता है उसी तरह देश की चेतना पर निर्भया कांड से एक चोट लगी थी और बिलबिलाए हुए देश ने बलात्कारियों के लिए फांसी की बात की थी। बलात्कारियों को 16 बरस से ही बालिग मान लेने की भी मांग की थी। इन दोनों ही बातों का कई तर्कों के आधार पर लोगों ने विरोध भी किया था। फिर भी बलात्कार के लिए मौत की सजा को जोड़ दिया गया है और बालिग होने की उम्र को घटाने के बारे में भी समाज में चर्चा चल रही है।
अब हरियाणा तो देश में बहुत अधिक सामाजिक नियम कायदे लागू करने वाला प्रदेश है जहां महिलाओं और लड़कियों पर बहुत तरह के प्रतिबंध लगाए जाते हैं, लेकिन कोई बच्ची अगर अपने घर के सामने ना खेले तो वह जिंदा भी कैसे रहे? और इसलिए अगर ऐसे में गांव के ही लडक़े एकजुट होकर गिरोहबंदी करके उस अकेली बच्ची के साथ सामूहिक बलात्कार करें, तो इसे कौन से सामाजिक प्रतिबंध लगाकर रोका जा सकता है? क्या लडक़ों का घूमना-फिरना बंद किया जा सकता है, या लड़कियों का अपने घर के आंगन में भी खेलना रोका जा सकता है? कल की ही बात है उत्तर प्रदेश की महिला आयोग की अध्यक्ष ने एक अटपटा और बहुत खराब बयान दिया कि लड़कियों को मोबाइल फोन देना बंद करना चाहिए क्योंकि पहले वे लडक़ों से फोन पर लंबी लंबी बातें करती हैं और उसके बाद उनके साथ भाग जाती हैं। अब महिला आयोग की अध्यक्ष की अगर ऐसी सोच है तो उस प्रदेश में महिलाओं के अधिकार और महिलाओं की सुरक्षा मर्दों की मर्जी और रहम पर ही हो सकती है, किसी अधिकार के तहत नहीं हो सकती। एक मोबाइल फोन किसी लडक़ी या महिला को उसके बुनियादी अधिकार पाने का मौका देता है, और अगर ऐसी बुनियादी सहूलियत के लिए भी लडक़ी होने की वजह से उसे इससे दूर रखा जाए, तो फिर ऐसे समाज को लड़कियों को पाने का हक ही नहीं है।
क्लिक करें और यह भी पढ़ें : नाबालिग से 4 नाबालिगों ने किया सामूहिक बलात्कार
जैसा हरियाणा के सामूहिक बलात्कार की घटना को लेकर आज हम यह बात लिख रहे हैं, उस हरियाणा का हाल यह है कि कन्या भ्रूण हत्याओं के चलते हुए वहां पर लड़कियों का अनुपात लडक़ों के मुकाबले देश में सबसे कम है। हरियाणा के बारे में यह कहा जाता है कि वहां बहू लाने के लिए लोग दूसरे कई प्रदेशों में जाकर वहां से लड़कियां लेकर आते हैं क्योंकि उनके अपने प्रदेश में लडक़ों के मुकाबले लड़कियां कम रह गई हैं। ऐसा प्रदेश लड़कियों पर जिस तरह के जुल्म देख रहा है, उसमें किसी मां-बाप की लडक़ी को बड़े करने की हिम्मत भी जवाब दे रही होगी। और उत्तर प्रदेश में एक संवैधानिक पद पर बैठी हुई महिला लड़कियों को फोन से दूर रखने की बात कर रही है।
दरअसल हिंदुस्तान में लड़कियों को छेडऩा उनसे बलात्कार करना, इसमें कोई बुराई नहीं मानी जा रही है। और ऐसा होने पर भारत की न्याय प्रक्रिया कसूरवार को सजा दिलाने में बहुत बुरी तरह नाकामयाब भी रहती है। बलात्कार के मामलों में बड़ी संख्या में पुलिस, थाने में ही समझौता कराकर लडक़ी को डराकर समाज में बदनामी का खौफ दिखाकर वापस भेजने की पूरी कोशिश करती है, और इसके एवज में जाहिर है कि बलात्कारी से उगाही भी करती ही होगी। अब इसके बाद भी अगर लडक़ी या महिला अपनी शिकायत पर डटी रहें तो अदालत में बरसों तक उनका और अपमान होता है। कोर्ट के बरामदे से लेकर अदालत के कटघरे तक लोग अपनी नजरों से उनके साथ और बलात्कार करते हैं, और बलात्कारी को सजा मिलने के पहले तक और उसके बाद भी उसकी शिकार लगातार सजा पाते ही रहती है। ऐसे देश में अगर 10-12 बरस के बच्चे भी गिरोह बनाकर सामूहिक बलात्कार कर रहे हैं और उसकी वीडियो रिकॉर्डिंग भी कर रहे हैं तो इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह जो हमें सूझती है, वह यह है कि इन लडक़ों को इनके परिवारों में लडक़ी की इज्जत होते कभी दिखी नहीं होगी, मां बाप ने कभी लडक़ी या महिला का सम्मान सिखाया नहीं होगा। यह एक बहुत ही जटिल स्थिति है और समाज इससे कैसे उबरेगा इसका कोई आसान रास्ता हमारे पास नहीं है, लेकिन इस मुद्दे पर सबका सूचना जरूरी है, अपने अपने घर के लडक़ों को संभालना और उन्हें समझाना जरूरी है इस नाते हम इस मुद्दे पर यहां लिख रहे हैं।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
टेक्नोलॉजी किस तरह जिंदगी बदलती है इसे देखना हो तो इन दिनों हिंदुस्तान के छोटे-छोटे शहर-कस्बों तक पहुंच चुके बैटरी से चलने वाले ऑटो रिक्शा देखने चाहिए। लॉकडाउन में जब बाजार बंद थे और फेरी वालों को सभी इलाकों में जाकर सब्जी और दूसरे सामान बेचने की छूट थी, तो उस दौरान ऐसे बैटरी ऑटो रिक्शा सब्जियों और फलों से लदे हुए घर-घर पहुंचते थे और बिना किसी शोर के, बिना किसी धुएं के आना-जाना करते थे। डीजल से चलने वाले ऑटो रिक्शा इस बुरी तरह आवाज करते हैं कि उन पर चलने वाली सवारियां तो इस शोर से थक ही जाती हैं, उनके ड्राइवर तो सुनने की ताकत धीरे-धीरे खोने लगते हैं, क्योंकि उन्हें पूरे वक्त ऑटो के उसी शोर में रहना पड़ता है। अब अगर इन दोनों किस्म के ऑटो के खर्च का फर्क देखें तो बैटरी का ऑटो रिक्शा हर बरस बदली जाने वाली बैटरी और रोजाना बिजली से उसकी चार्जिंग के बाद भी हर दिन सौ रुपये में 80 किलोमीटर चल जाते हैं, मतलब करीब-करीब एक रुपए में एक किलोमीटर। धुआं गायब, शोर गायब, ऑटो रिक्शा पर चलने वाले लोग इंसान की तरह चैन से बैठ सकते हैं। जिन लोगों को अभी तक बैटरी से चलने वाले ऑटो रिक्शा की अर्थव्यवस्था समझ नहीं आई है, उन्हें कुछ ऑटो चालकों से इस बात को समझना चाहिए और चौराहे पर जब रुकना पड़ता है तब इस फर्क को महसूस करना चाहिए कि आसपास अगर डीजल से चलने वाले आधा दर्जन ऑटो हैं तो क्या हालत होती है, और अगर आधा दर्जन बैटरी वाले ऑटो हैं तो कितनी कम दिक्कत होती है।
टेक्नोलॉजी ने दुनिया में बर्बादी भी कम नहीं लाई है लेकिन यही टेक्नोलॉजी इस बर्बादी को घटाने की ताकत भी रखती है। दुनिया के विकसित देशों में बड़ी-बड़ी गाडिय़ां रोजाना सैकड़ों किलोमीटर का सफर बैटरी से कर रही हैं, और बाकी देशों तक भी ऐसी गाडिय़ां पहुंच रही हैं। एक तरफ तो गाडिय़ों में बैटरी से चलने की टेक्नोलॉजी लगातार सुधर रही है और दूसरी तरफ बैटरी की क्षमता में सुधार भी लगातार किया जा रहा है। इससे जुड़ी हुई एक और बात बाकी है कि बैटरी को बिजली से चार्ज करने के बजाए सौर ऊर्जा से चार्ज करने की तकनीक भी विकसित होते चल रही है, और हो सकता है कि वह किसी दिन बिजली से चार्ज होने के बजाय सौर ऊर्जा से चार्ज होना अधिक सस्ता और आसान होने लगे। आज भी दुनिया के कई देशों में यह इंतजाम चल रहा है कि बैटरी से चलने वाली गाडिय़ां चार्जिंग स्टेशन पर जाकर सीधे बैटरी या बदल लेती हैं, चार्ज करने के लिए इंतजार नहीं करना पड़ता। इस तरह यह नए सेंटर चार्जिंग स्टेशन के बजाय बैटरी बदलने के सेंटर बन गए हैं।
अब हिंदुस्तान में यह बात अधिक फैली तो नहीं है, लेकिन हो सकता है कि चुनिंदा शहरों से इसकी शुरुआत हो सके वहां जगह-जगह चार्जिंग स्टेशन लग सके, और बैटरी बदलने के सेंटर भी बदल सकें। जिस तरह गाडिय़ों में बैटरी डीजल और पेट्रोल के एक बेहतर रूप में सामने आई है उसी तरह जिंदगी के और बहुत से दायरों को भी देखने की जरूरत है कि वहां के परंपरागत सामानों से बेहतर और कम ऊर्जा खपत वाले दूसरे कौन से सामान आ सकते हैं जिन्हें बनाने में और इस्तेमाल करने में कार्बन फुटप्रिंट कम बढ़ता हो। जिस रफ्तार से इंसान ने धरती को बर्बाद करना शुरू किया, पहले तो ऐसी वैकल्पिक तकनीक से बर्बादी बढऩे की रफ्तार कम हो सकती है, और फिर धीरे-धीरे बर्बादी ही कम हो सकती है।
पर्यावरण दिवस तो निकल गया है लेकिन ऐसी तो कोई बात नहीं है कि उसके बाद पर्यावरण की फिक्र न की जाए, हम तो लॉकडाउन के इस पूरे दौर में आसपास जिस तरह बैटरी के ऑटो रिक्शा का चलन बढ़ते देख रहे हैं और गली मोहल्लों तक जाकर उनको बिक्री करते देख रहे हैं उसे इस मुद्दे पर लिखना सूझा और यह एक अलग बात है कि इससे पर्यावरण का बचाव होगा और ऐसी गाडिय़ां चलाने वाले लोग एक बेहतर जिंदगी भी पा सकेंगे। इसके साथ-साथ यह भी है कि डीजल-पेट्रोल का बैटरी-विकल्प आज भी सस्ता है और जैसे-जैसे बैटरी सस्ती होती जाएगी, वैसे-वैसे और सस्ता होते जाएगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
उत्तर प्रदेश से सांसद रहे और यूपीए सरकार में मंत्री रहे जतिन प्रसाद आज कांग्रेस छोडक़र भाजपा में चले गए। यह दलबदल उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के खासे पहले हुआ है, इसलिए इसे चुनाव के समय लिया गया फैसला नहीं कहा जा सकता, और न ही यह बंगाल, असम, केरल के चुनावों के ठीक पहले लिया गया है जिसे कि पार्टी, चुनाव में नुकसान पहुंचाने की बात कहे। अब दलबदल कोई बड़ा मुद्दा नहीं रहा और खासकर दूसरी पार्टियां छोडक़र भाजपा में जाने वाले इतने अधिक हो गए हैं कि बहुत से लोग मजाक में कहते हैं कि देश तो कांग्रेसमुक्त होते चल रहा है लेकिन भाजपा उसी रफ्तार से कांग्रेसयुक्त होते चल रही है। भाजपा में दूसरी पार्टियों से इतने अधिक लोग शामिल हुए हैं कि उनके प्रभाव क्षेत्र में भाजपा के पुराने परंपरागत नेता और कार्यकर्ता निराश होकर किनारे भी बैठने लगे हैं।
लेकिन दलबदल का एक दूसरा नजारा बंगाल में देखने मिल रहा है, जहां पर तृणमूल कांग्रेस छोडक़र भाजपा में जाने वाले लोग अब सत्ता पर लौटने वाली ममता बनर्जी के बिना जीना मुश्किल है कहते हुए घरवापिसी की कतार में लगे हुए हैं। कुछ नेताओं के तो ऐसे बयान आए हैं कि वे ममता बनर्जी बिना जिंदा नहीं रह सकेंगे। आज अगर ममता पार्टी के दरवाजे खोल दे तो भाजपा विधायक दल का एक बड़ा हिस्सा तृणमूल कांग्रेस में लौट सकता है। लेकिन अभी अगले बरस उत्तर प्रदेश सहित दूसरे कई राज्यों में चुनाव होने हैं और उन चुनावों को लोकसभा के अगले चुनावों के पहले का रुझान भी माना जाएगा इसलिए ऐसी उम्मीद है कि चुनावी प्रदेशों में बड़ी संख्या में दलबदल होगा। और फिर जिस उत्तर प्रदेश के लिए आज दलबदल हुआ है, उस उत्तर प्रदेश में तो मायावती ने बसपा से इतने लोगों को पार्टी से निकाल दिया है कि भाजपा उनका भी शिकार कर सकती है।
कांग्रेस के लोग तो अपनी पार्टी से थक-हारकर और निराश होकर अगर भाजपा या किसी दूसरी पार्टी में जाते हैं, तो वह कोई हैरान करने वाली बात नहीं होगी। इस पार्टी ने अपने जो तौर तरीके बना लिए हैं, उनके चलते हुए बहुत से लोग इसे छोड़ सकते हैं फिर चाहे उन्हें भाजपा या किसी और पार्टी से कुछ मिलने की उम्मीद हो या ना हो। आज मुद्दा भाजपा के करवाए हुए दलबदल का नहीं है, आज मुद्दा है कि कांग्रेस पार्टी अपने लोगों को संभाल कर रखने लायक क्यों नहीं रह गई है? पार्टी के दो दर्जन बड़े नेताओं ने पिछले बरस पार्टी के नियमित अध्यक्ष बनाने की मांग के साथ-साथ पार्टी के तौर-तरीके सुधारने की मांग भी की थी, लेकिन पार्टी ने उसके बाद वक्त गँवाने, लोग और सीट-वोट खोने के अलावा कुछ नहीं किया। बंगाल विधानसभा में आज कांग्रेस का चुनाव चिन्ह हाथ भी सिर्फ दूसरे विधायकों के बदन के हिस्से की तरह रह गया है, एक भी पंजा छाप विधायक उस राज्य में नहीं रह गया जहां किसी वक्त कांग्रेस का राज हुआ करता था।
कांग्रेस की बेहतरी चाहने वाले नेताओं की चिट्ठी को भी शायद साल भर होने आ रहा होगा या कुछ समय में साल पूरा हो जाएगा। पार्टी कितने विधानसभा चुनाव बिना किसी अध्यक्ष के, महज़ कार्यकारी अध्यक्ष के तहत लडक़र हार चुकी है। अभी भी पार्टी के अगले अध्यक्ष को चुनने का कोई ठिकाना नहीं दिख रहा है। पिछले महीने ऐसी खबर आई कि जून के अंत में पार्टी अध्यक्ष का चुनाव होगा और कुछ मिनटों में ही यह खबर आ गई कि कोरोना के चलते यह चुनाव नहीं होगा। यह पूरा सिलसिला कांग्रेस के बहुत से लोगों को निराश कर रहा है क्योंकि अगर पार्टी की लीडरशिप वाला परिवार ही देश के ऐसे नाजुक मौके पर अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी से कतरा रहा है, न खुद अध्यक्ष बन रहा है न किसी और को निर्वाचित होने दे रहा है, तो ऐसे में कांग्रेस के बहुत से नेता देश के हित में और अपने हित में अपनी राजनीति को तय करने पर मजबूर तो होंगे ही।
दरअसल राजनीति में एक बार आने के बाद उससे संन्यास लेना शायद ही किसी से हो पाता है। इसलिए कांग्रेस अगर आज अपनी लीडरशिप का सवाल हल नहीं कर पा रही है, तो उसके बहुत से नेताओं को अपने भविष्य का सवाल हल करना पड़ेगा। जतिन प्रसाद अगले बरस के विधानसभा चुनावों के पहले के एक संकेत की तरह हैं। कांग्रेस पार्टी को अपने घर को सुधारना चाहिए क्योंकि आज उसकी जो हालत है उसमें उस पार्टी में बने रहने वाले लोगों को लेकर यह हैरानी हो सकती है कि वे अब भी किस उम्मीद से वहां पर हैं? आज सवाल भाजपा का किसी का शिकार करके ले जाने का नहीं है, आज तो सवाल यह है कि कांग्रेस में बचे हुए लोग किस उम्मीद से वहाँ बचे हुए हैं? और देश के लोकतंत्र की आज की इस नौबत में देश की यह ऐतिहासिक पार्टी अपनी जिम्मेदारी से क्यों कतरा रही है? कांग्रेस के अध्यक्ष रहे हुए राहुल गांधी के ही दोबारा अध्यक्ष बनने की चर्चा उनके इस्तीफे के समय से लगातार चल रही है, लेकिन राहुल अपना इरादा साफ ही नहीं कर रहे हैं। इस परिवार में तीन लोग हैं और अगर परिवार से ही लीडरशिप तय होनी है तो उसे घर बैठकर तय कर लेना चाहिए। इतने बड़े देश में इतने चुनावों के आते-जाते हुए भी अगर कांग्रेस पार्टी और यह परिवार इस तरह जिम्मेदारी से कतरा रहे हैं तो इससे लोकतंत्र का नुकसान अधिक बड़ा है, कांग्रेस के पास तो शायद अब नुकसान के लायक कुछ बचा नहीं है। देखें आगे क्या होता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दुनिया में लोग किसी के बारे में राय तय करते हुए उसके परिवार को बड़ा वजन देते हैं कि वे किस परिवार के हैं। अब ऐसे में आज की एक खबर दिल को थोड़ी सी तकलीफ देती है कि दक्षिण अफ्रीका में एक अदालत ने महात्मा गांधी की पड़पोती को एक कारोबारी धोखाधड़ी के मामले में 7 साल की कैद सुनाई है। गांधी के किसी वंशज को किसी जुर्म में सजा सुनाई जाए, यह बात गांधी का सम्मान करने वाले लोगों को तकलीफ तो पहुंचाती है, लेकिन गांधी की आत्मा भी अपने बाद की तीसरी-चौथी पीढ़ी तक लोगों की नीयत और उनके कामकाज पर काबू तो नहीं रख सकती। फिर यह भी है कि गांधी का डीएनए होने से लोगों के ऊपर वैसे भी उम्मीदों का बहुत बोझ रहता है, जिन्हें ढोते हुए जीना मुश्किल रहता है, ऐसे में अगर वंशज थक-हारकर उसकी फिक्र करना छोड़ दें, गांधी की विरासत की साख की फिक्र करना छोड़ दें, और आम इंसान जिस तरह रहते हैं, उस तरह जीने लगें, तो उसमें भी कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए। बहुत से लोग बड़ी ऊंची साख वाली विरासत से परे कुछ ऐसे काम कर बैठते हैं जो यह बात साबित करते हैं कि डीएनए कुछ भी नहीं होता। लोग अपनी मर्जी से काम करते हैं, और देखने वाले उन्हें उनके पुरखों की साख से जोडक़र देखने की कोशिश करते हैं, जो कोशिश हर बार कोई नतीजा पेश नहीं कर पाती।
दुनिया के तमाम लोकतंत्रों में कानून तकरीबन सभी लोगों के लिए एक सरीखे रहते हैं। महात्मा गांधी बहुत महान थे लेकिन उनके नाम की कोई रियायत उनके वंशजों को उनके काम के लिए देना भी नाजायज और अलोकतांत्रिक होगा। खुद गांधी ऐसी किसी रियायत के खिलाफ अनशन पर बैठ जाएंगे। इसलिए लोगों को साख का वारिस मानना सिरे से ही गलत बात है। लोग दौलत के वारिस हो सकते हैं, डॉक्टर और वकील जैसे पेशे में आने वाली पीढ़ी अपने मां-बाप के पेशेवर कामकाज की वारिस भी हो सकती है, लेकिन साख की वारिस नहीं हो सकती। गांधी के बहुत से वंशज दक्षिण अफ्रीका में बसे हुए हैं जहां पर गांधी का एक वकील से महात्मा बनने का सफर शुरू हुआ था, जब उन्हें एक ट्रेन सफर से लात मारकर उतार दिया गया था। उस देश में गांधी के कई वंशज उसी वक्त से अभी तक चले आ रहे हैं, और जैसा कि जाहिर है गांधी विरासत में कोई कारोबार तो छोड़ नहीं गए थे कि जिस पर वंशज जिंदा रह सकें, इसलिए वंशजों ने अपने-अपने हिसाब से सामाजिक काम किए, और कारोबारी काम भी।
साख की विरासत बड़ा मुश्किल काम है। देश के एक सबसे बड़े लोकतांत्रिक नेता जवाहरलाल नेहरू के नाती संजय गांधी जवाहर की पार्टी के ही सर्वेसर्वा थे, और जवाहर की बेटी के राजनीतिक वारिस भी थे। लेकिन इंदिरा गांधी का भावनात्मक दोहन करके संजय गांधी ने हिंदुस्तानी इतिहास की सबसे अधिक लोकतांत्रिक बात इमरजेंसी लागू करवाई थी, और फिर उस पूरे दौर में जो कुछ किया था, वह इंदिरा को अपने नाम पर कलंक लगा हो या ना लगा हो, वह कांग्रेस पार्टी और नेहरू के नाम पर बहुत बड़ा कलंक था क्योंकि परिवार तो नेहरू का ही गिना जाता था। और नतीजा यह निकला कि नेहरू के नाती की बददिमागी ने नेहरू की बेटी का राजनीतिक भविष्य चौपट कर दिया, इंदिरा गांधी पूरे देश में अपनी पार्टी और सरकार की संभावनाओं को खो बैठीं। संजय गांधी की मौत एक हवाई हादसे में हुई थी और उसका नतीजा यह निकला कि उनके बड़े भाई राजीव गांधी को पायलट की नौकरी छोडक़र राजनीति में आना पड़ा। अब यह कल्पना करना कुछ मुश्किल है कि अगर वह हवाई हादसा नहीं हुआ होता, तो आज कांग्रेस पार्टी का, और इस देश का क्या हुआ होता?
जिन लोगों को आपातकाल लगाने का फैसला याद है और आपातकाल की ज्यादतियां याद हैं, उस दौर में संजय गांधी के गिरोह की तानाशाही और मनमानी याद है, वे भी आसानी से यह कल्पना नहीं कर सकते कि अगर संजय गांधी एक हादसे के शिकार होकर भारतीय राजनीति से मिट न गए होते तो क्या हुआ होता? और यह बात सोचना जरूरी इसलिए है कि संजय के रहते-रहते भी इंदिरा गांधी 1980 में सत्ता में आ गई थीं। आपातकाल के बाद इंदिरा को शिकस्त देने वाली जनता पार्टी की सरकार कार्यकाल भी पूरा नहीं कर पाई थी। और यह भी याद रखने की जरूरत है कि जब कांग्रेस की यह वापसी हुई, उस वक्त संजय गांधी कांग्रेस के एक सबसे बड़े और सबसे ताकतवर नेता तो थे ही, वे इंदिरा गांधी के राजनीतिक वारिस भी समझे जा रहे थे। लेकिन एक वारिस की हरकतें और करतूतें ऐसी थीं कि हादसे का शिकार होने वाले संजय गांधी को भी आज कांग्रेस पार्टी याद करने की हिम्मत नहीं करती। कांग्रेस के कार्यक्रमों में और बहुत से लोगों के लिए तो श्रद्धांजलि के कार्यक्रम हो जाते हैं, लेकिन हम छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में देखते हैं कि नालियों के बीच में एक बहुत खराब जगह पर बिठा दी गई संजय गांधी की आधी प्रतिमा को खुद कांग्रेसी देखने नहीं जाते।
इसलिए साख की कोई ऐसी विरासत नहीं होती कि आने वाली पीढिय़ां उस साख की हकदार बनाई जा सकें, जिसे उनके पुरखों ने मेहनत से हासिल किया था। चुनावी राजनीति में जरूर कुछ लोग अपने पुरखों की साख दुहने की कोशिश कर लेते हैं, लेकिन पुरखों की साख किसी के जुर्म में रियायत पाने का सामान नहीं बन पाती, बल्कि समाज ऐसे लोगों की सजा तय करते हुए कुछ अधिक ही कडक़ बन जाता है कि इन्होंने पुरखों का नाम डुबा दिया। इसलिए गांधी की पड़पोती को एक कारोबारी जालसाजी के लिए 7 वर्ष की कैद होना गांधी को हॅंसी का सामान नहीं बनाता। नाथूराम गोडसे के पिता को यह मालूम नहीं था कि उनका बेटा देश का सबसे बड़ा हत्यारा बन जाएगा, अगर ऐसा एहसास रहता तो शायद वे औलाद पैदा करने से परहेज ही करते। इसलिए गांधी का नाम डुबाने वाले दिखते हुए उनके वंशज असल में उनका नाम नहीं डुबा रहे, अपना खुद का नाम डूबा रहे हैं। पुरखों का नाम तो बनाने और बिगडऩे से परे हो जाता है। तीसरी-चौथी पीढ़ी में किसी के किए हुए काम से ना तो पुरखों का नाम रोशन होता और ना पुरखों के नाम पर कालिख पुतती।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
मशहूर फिल्म अभिनेता दिलीप कुमार अस्पताल में भर्ती हैं और पिछले बरसों में भी हर कुछ महीनों में अस्पताल जाते हैं, और ठीक होकर घर लौटते हैं। उम्र भी इतनी हो गई है कि बीमारी पीछा ही नहीं छोड़ती है। और उन्हें चाहने वाले इतने हैं कि वे भी पीछा नहीं छोड़ते हैं। एक से अधिक बार उनके गुजर जाने की अफवाहें फैलीं। लोगों ने सोशल मीडिया की मेहरबानी से एक की पोस्ट को आगे बढ़ाते हुए दिलीप कुमार के गुजरने के पोस्टर तक बना लिए, और उन्हें लोगों ने सोशल मीडिया और व्हाट्सएप जैसे मैसेंजर की मेहरबानी से खूब आगे बढ़ा दिया। अब उनके परिवार की तरफ से लोगों से अपील की गई है कि उनकी तबीयत के बारे में ट्विटर पर पोस्ट किया जाएगा, और लोग अपने मन से गलत जानकारी आगे न बढ़ाएं।
यह बात महज़ दिलीप कुमार के साथ हो रही हो ऐसा नहीं है, सोशल मीडिया ने लोगों को यह ताकत दे दी है कि वे पल भर में ही किसी का पोस्ट किया हुआ सच या झूठ अपने एक भी शब्द को जोडऩे की जहमत उठाए बिना आगे बढ़ा सकते हैं, और फिर मजे से बैठकर यह देख सकते हैं कि कितने लोग उन्हें रीपोस्ट कर रहे हैं, कितने लोग उनके पोस्ट पर कुछ लिख रहे हैं। लोग आज वैसे भी कारोबार और काम के बिना पिछले एक बरस से थके हुए से घर बैठे हैं, या बहुत कम काम कर रहे हैं, और ऐसे में सोशल मीडिया उनके लिए बड़ा सहारा है। फिर बहुत से ऐसे लोग हैं जो कि कुछ मौलिक नहीं लिख पाते, 2 वाक्य भी सही नहीं लिख पाते, ऐसे में उन्हें दूसरों के पोस्ट किए हुए को आगे बढ़ाकर अपने सोशल मीडिया पेज पर कुछ न कुछ पेश करना एक अलग किस्म की उपलब्धि लगती है। ऐसे लोग बड़ी तेजी से झूठी खबर, सनसनीखेज बातें, गढ़ी गई तस्वीर या गढ़े गए वीडियो आगे बढ़ाते हैं। मनोविज्ञान की मामूली समझ कहती है कि घर में जिनकी कोई नहीं सुनते होंगे, वे सोशल मीडिया पर अधिक सुनाते होंगे।
सोशल मीडिया ने हर किसी को ऐसा लोकतांत्रिक अधिकार दिया है कि वे मनचाही बातों को तब तक पोस्ट कर सकते हैं जब तक कि देश का कानून उन्हें जुर्म के लेबल के साथ ब्लॉक करवाने की कार्यवाही शुरु ना करें, इसके पहले आमतौर पर उन्हें कोई ब्लॉक नहीं करते। हाल के महीनों में फेसबुक ने जरूर कुछ किस्म की बातों को ब्लॉक करना शुरू किया है, लेकिन शायद उसकी हिंदी भाषा की समझ कम है, या उसका कंप्यूटर हिंदी के शब्दों के गलत मतलब समझता है, और बहुत सी मासूम बातें भी ब्लॉक कर दी जा रही हैं। लेकिन इनके मुकाबले गलत और झूठ को आगे बढ़ाने वाले लोग लाख गुना हैं। बहुत से जानकार लोग बतलाते हैं कि कुछ राजनीतिक दल अपने भाड़े पर रखे गए साइबर सैनिकों से रात-दिन मनचाही पोस्ट करवाते हैं, किसी को धमकियों से कुचलवा देते हैं, तो किसी को भगवान बना देते हैं। अब किसी को भगवान बनाने पर न तो कानूनी रोक है, और न ही सोशल मीडिया के कंप्यूटरों को उससे कोई दिक्कत होती है। लेकिन जिम्मेदार लोगों को सोशल मीडिया पर न सिर्फ अपने स्तर पर सावधानी बरतनी चाहिए बल्कि जहां कहीं किसी झूठी बात को, गलत जानकारी को देखें, उसका सार्वजनिक रूप से विरोध भी करना चाहिए।
हो सकता है कि कुछ लोग बिना सही जानकारी के और बिना किसी बदनीयत के भी गलत बातें पोस्ट करते हों, लेकिन उनको भी चौकन्ना करना इसलिए जरूरी है कि किस दिन वे ऐसी बेवकूफी या मासूमियत के साथ भी जेल चले जाएं, इसका कोई ठिकाना नहीं है। अखबारों में छपने का जमाना लद गया, मानहानि के कानून बहुत धीमी रफ्तार से चलने वाली अदालतों में बरसों चलते थे, और सजा के ठीक पहले आमतौर पर समझौता भी हो जाता था, लेकिन सूचना तकनीक जितनी तेज रफ्तार है, उसके लिए कानून भी उतना ही कड़ा बना है। बात की बात में किसी के खिलाफ जुर्म दर्ज हो जाता है, और इन दिनों तो लोगों की धार्मिक भावनाएं, राजनीतिक भावनाएं, सामाजिक भावनाएं, सब बहुत तेजी से भडक़ रही हैं। ये सब भावनाएं पेट्रोल बन चुकी हैं और उनमें तेजी से आग लग जाती है। इसलिए आज लोगों को न केवल खुद सावधान रहना चाहिए बल्कि अपने शुभचिंतकों को सावधान करना भी चाहिए कि वे लापरवाही से कुछ भी पोस्ट न करें क्योंकि अदालत ऐसी किसी मासूमियत पर कोई भरोसा नहीं करती, अदालत में तो लोग अपने लिखे और पोस्ट किए हुए के लिए पूरी तरह से जवाबदेह रहते हैं।
लोगों को सोशल मीडिया पर कुछ न कुछ पोस्ट करने की हड़बड़ी से बचना चाहिए। ऐसी कोई बंदिश किसी पर नहीं रहती कि अगर वे हर दिन दो-चार चीजें पोस्ट नहीं करेंगे तो उनका अकाउंट बंद हो जाएगा। इसलिए लोगों को बहुत सावधानी से सोशल मीडिया का इस्तेमाल करना चाहिए, वहां वे ना सिर्फ जुर्म के शिकार हो सकते हैं बल्कि अपनी बेवकूफी में किसी जुर्म के भागीदार भी हो सकते हैं। किसी और ने कोई गलत बात पोस्ट की है, इसलिए आप भी उसे आगे बढ़ा सकते हैं, कानून ऐसा बिल्कुल नहीं है। इसलिए सोशल मीडिया के इस्तेमाल जितना ही यह भी सीख लेना चाहिए कि किसी बात को इंटरनेट पर ही कैसे ढूंढ लिया जाए कि वह सच है या नहीं। हम हर दिन ऐसे दर्जनों बड़े जानकार और समझदार लोगों को देखते हैं जो किसी झूठ को सच समझकर उसे आगे बढ़ाते रहते हैं। लोग कुछ वक्त लगाकर सीखें कि कैसे हर बात को परखा जा सकता है कि वह सच है या झूठ। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दिल्ली के एक प्रमुख सरकारी अस्पताल गोविंद बल्लभ पंत इंस्टीट्यूट आफ पोस्टग्रेजुएट मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च ने अभी एक नया विवाद खड़ा कर दिया, जब उसके नर्सिंग सुपरिटेंडेंट की तरफ से नर्सों के लिए एक आदेश जारी हुआ कि वे ड्यूटी पर रहते हुए सिर्फ हिंदी या अंग्रेजी में बात करें. उनके खिलाफ किसी मरीज ने शिकायत की थी कि वे आपस में मलयालम में बात करती हैं और इससे दूसरे सहकर्मियों को और मरीजों को असुविधा महसूस होती है और वह अपने को असहाय महसूस करते हैं क्योंकि वह इस भाषा को नहीं जानते। क्योंकि नर्सों में बड़ी संख्या मलयालम बोलने वाली नर्सों की है, इसलिए यह नौबत आती है, और दिल्ली में अधिकतर मरीज और बहुत से दूसरे अस्पताल कर्मचारी इस भाषा को नहीं जानते। इस पर तुरंत ही केरल से लोकसभा सदस्य बने राहुल गांधी ने विरोध किया और केरल की राजधानी के लोकसभा सदस्य शशि थरूर ने भी ट्विटर पर इस चिट्ठी को डालकर इसके खिलाफ लिखा। यह नाराजगी देखते हुए अस्पताल प्रशासन ने इस आदेश को वापस ले लिया और यह भी साफ किया कि यह आदेश नीचे के स्तर पर निकाल दिया गया था, और अस्पताल के प्रमुख प्रशासन को इसकी जानकारी भी नहीं थी।
अब यह मामला एक किस्म से खत्म हो चुका है क्योंकि यह आदेश वापस लिया जा चुका है, लेकिन एक दूसरे हिसाब से इस पर चर्चा होनी चाहिए कि अस्पताल में मरीजों के बीच डॉक्टरों और कर्मचारियों को किस जुबान में बात करनी चाहिए। दिल्ली क्योंकि देश की राजधानी है इसलिए वहां पर तो देश के हर हिस्से से आए हुए लोग रहते हैं और जरूरत होने पर अस्पताल में भर्ती भी होते हैं, इसलिए हर मरीज की समझ में आने वाली जुबान में बात करना तो मुमकिन नहीं है, लेकिन दिल्ली वह जगह है जहां पर अस्पतालों के बहुत से दूसरे कर्मचारी और बहुत से दूसरे डॉक्टर हिंदी या अंग्रेजी में बात करते होंगे, उनमें से कुछ लोग दिल्ली की अपनी स्थानीय जुबान पंजाबी में भी बात करते होंगे। यह बात सही है कि अस्पताल के बहुत से कर्मचारियों और अधिकतर मरीजों के लिए मलयालम को जरा भी समझ पाना मुमकिन नहीं है। इसलिए अगर किसी स्तर पर यह तय किया गया कि ड्यूटी पर रहते हुए नर्सें हिंदी या अंग्रेजी में ही बात करें, तो उसके पीछे के तर्क को भी समझने की कोशिश करनी चाहिए।
अस्पताल में जब मरीज भर्ती रहते हैं तो वह एक अलग किस्म की दहशत में रहते हैं, और पिछले डेढ़ बरस से तो कोरोना से न सिर्फ मरीज, बल्कि घर बैठे हुए सेहतमंद लोग भी दहशत में हैं और बड़ी खराब मानसिक हालत से गुजर रहे हैं। ऐसे में अगर अस्पताल के बिस्तर पर मरीज को आसपास नर्सों को एक ऐसी जुबान में बात करते देखना सुनना पड़े जिसे कि वे ना समझ सके, तो इससे उनकी बेचैनी बढऩा बहुत स्वाभाविक है। फिर यह भी है कि अस्पताल में ड्यूटी पर मौजूद नर्सों को उस दौरान एक-दूसरे से जो बात करनी है वह अधिकतर तो मरीजों के बारे में या अस्पताल की दूसरी बातों के बारे में ही रहेंगी, निजी बातें तो बहुत ही कम होंगी। इसलिए अगर किसी इलाके में आम प्रचलित भाषा में बात करने की उम्मीद अगर किसी से की जाती है तो उसे उनकी अपनी मातृभाषा के अपमान के रूप में देखना गलत होगा। अगर केरल के किसी अस्पताल में पंजाब की आधा दर्जन नर्सें हों, और वे वहां पंजाबी में बात करने लगें, तो वहां भर्ती सिर्फ मलयालम या अंग्रेजी जानने वाले मरीजों का मन बेचैनी और आशंका से भर जाएगा कि वह जाने क्या बात कर रही हैं. अस्पताल में भर्ती मरीजों के लिए सिर्फ दवाइयां ही इलाज नहीं होतीं, डॉक्टर और नर्सों का व्यवहार भी इलाज होता है. मेडिकल साइंस में यह सिखाया भी जाता है कि मरीजों की बेचैनी कम करना किस तरह डॉक्टरों और नर्सों की जिम्मेदारी है।
यह भी समझने की जरूरत है कि जब लोगों को ना समझने वाली किसी भाषा के बीच अधिक समय तक रहना पड़ता है, तो इससे उनके बीच, उनके मन में एक थकान आने लगती है। जब चीनी भाषा ना समझने वाले लोग चीन के दौरे पर रहते हैं और वहां सार्वजनिक जगहों पर दूसरे लोगों को सिर्फ चीनी भाषा में बात करते देखते हैं तो पर्यटकों के बीच एक, लैंग्वेज फटीग, थकान आने लगती है। और फिर पर्यटक तो एक दिलचस्प और मजेदार मकसद से गए हुए लोग रहते हैं, इसलिए वे एकदम से किसी आशंका से नहीं भर जाते, लेकिन अस्पताल में भर्ती मरीज तो अपनी खुद की सेहत के लिए भर्ती रहते हैं और जब आसपास नर्सेज मलयालम में बात करें तो उस भाषा को ना समझने वाले मरीज यही समझते रहेंगे कि उनके बारे में जाने क्या बात हो रही है।
हम किसी एक भाषा के हिमायती नहीं हैं, और अगर हिंदुस्तान में अपने प्रदेशों से बाहर गए हुए लोग टूटी-फूटी भाषा में भी कोई दूसरी भाषा या बोली बोलते हैं तो भी वह काफी है, उनसे लोग बहुत शुद्ध व्याकरण की उम्मीद भी नहीं करते। इतना जरूर है कि जिस जगह पर काम करना है, उस जगह की प्रचलन की भाषा को सीख लेना एक अतिरिक्त फायदे का काम होता है। क्योंकि मलयालम बोलने वाली नर्सें अंग्रेजी बोल सकती हैं, इसलिए अगर अस्पताल ने उनसे अंग्रेजी या हिंदी में बात करने की उम्मीद की है, तो यह मरीजों के हित में देखने की जरूरत है, न कि इसे मलयालम के विरोध के रूप में देखने की. हम तो हिंदुस्तान के किसी भी कोने में दूसरे प्रदेशों से गए हुए डॉक्टरों और गई हुई नर्सों के बारे में इसी तर्क को सही मानेंगे कि वह मरीजों और दूसरे जुबान वाले सहकर्मियों के बीच ऐसी आम भाषा में बोले जिसे सब जानते हैं या अधिकतर लोग जानते हैं।
इसकी एक दूसरी मिसाल यह भी है कि बहुत से परिवारों में कुछ लोग एक अलग किस्म की जुबान विकसित कर लेते हैं और वे हर शब्द के आगे-पीछे कुछ अक्षर लगाकर बोलते हैं जिन्हें समझने वाले ही समझ पाते हैं। ऐसे परिवारों में जो लोग ऐसी अनोखी जुबान नहीं समझते वे अपने-आपको उपेक्षित और अपमानित पाते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि उनकी मौजूदगी में लोग ऐसी बातें कर रहे हैं जो उन्हें बताना नहीं चाहते हैं। यह सिलसिला किसी का विश्वास जीतने में मदद नहीं कर सकता, यह सिलसिला लोगों के विश्वास को खोने का है, दिल्ली के अस्पताल ने चाहे जो समझ कर अपना फैसला वापस लिया हो, हम किसी भी प्रदेश में बाहर से आकर काम करने वाले दूसरी जुबान के लोगों से यह उम्मीद करेंगे कि वे लंबे समय तक अगर काम कर रहे हैं तो वह आपस में भी स्थानीय जुबान को समझने और बोलने की कोशिश करें और अगर ऐसा नहीं हो पाता है तो हिंदुस्तान के किसी भी प्रदेश में आम प्रचलन की हिंदी और अंग्रेजी से काम चलाएं। जहां लोगों को अपने काम के दौरान दूसरों से मिलना रहता है, उनके बीच रहना है, वहां उनका विश्वास जीतने में कोई बुराई नहीं है, और जो लोग थोड़ी-बहुत अंग्रेजी या हिंदी बोल सकते हैं, उन्हें मरीजों, या सहकर्मियों की मौजूदगी में आपस में ऐसी भाषा नहीं बोलनी चाहिए जिसे दूसरे न समझ सके। मलयालम भाषा बोलने वाले लोगों का पूरे देश में भरपूर सम्मान होता है, और इस व्यावहारिक उम्मीद को उस भाषा के आत्मगौरव से जोडऩा सही नहीं है।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आज पर्यावरण दिवस पर पूरे देश में जगह-जगह पर्यावरण को बचाने की चर्चा की जाएगी। पर्यावरण को बचाने की यह सोच बुनियादी रूप से गलत बात है क्योंकि बचाना तो इंसानों को खुद को है, पर्यावरण का क्या है। इंसान खत्म हो जाएंगे तो हजार-दो हजार साल में पर्यावरण अपने-आप बेहतर हो जाएगा। इंसानों को धरती को बचाने के लिए पर्यावरण नहीं बचाना है, उनको अपने-आपको बचाने के लिए पर्यावरण बचाना है, वरना धरती बचे रहेगी, इंसान ही चल बसेंगे। आज पर्यावरण के साथ दिक्कत सबसे बड़ी यह हो गई है कि इसे बचाने की तकरीबन पूरी ही जिम्मेदारी सरकारों ने अपने पर ओढ़ ली है। सरकारें अपने देश के कारोबार पर काबू तय करती हैं या ढील तय करती हैं, और जिस तरह के भ्रष्टाचार से नेता सत्ता पर आते हैं, उससे जाहिर है कि उनका काम महज ढील तय करना रहता है, किसी तरह का काबू उनकी प्राथमिकता में नहीं रहता। और यह बात हम अमेरिका से लेकर हिंदुस्तान की सरकार तक जगह-जगह देख रहे हैं कि पर्यावरण बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट से अलग हिंदुस्तान में जिस तरह ग्रीन ट्रिब्यूनल बनाया गया है, तो वैसी जगह पर ऐसे ही लोगों को भेजा जाता है जो कि ढील की बात कर सकें।
खैर ऐसे माहौल में आज पर्यावरण दिवस मनाया जा रहा है और तमाम बड़े लोग इस मौके पर कई जगहों पर कुछ बोलेंगे और क्योंकि कोरोना की दहशत अभी जारी ही है इसलिए अधिक लोग वेबीनार पर बयान देंगे कि पर्यावरण को बचाना कितना जरूरी है और उसके तुरंत बाद से अपने बड़े-बड़े काफिले इस्तेमाल करना शुरू कर देंगे, बड़े-बड़े बंगले, बड़े-बड़े दफ्तर, और उनमें लगे हुए अनगिनत एयर कंडीशनर। धरती पर अगर इंसानों को अपने-आपको बचाना है तो उसका अकेला जरिया अब यह रह गया है कि सरकारों से परे लोग अपने ऐसे समूह तैयार करें जो कि हर लोकतांत्रिक औजार और हथियार का इस्तेमाल करके सरकारों और अदालतों को बेबस करें कि वे धरती को बर्बाद करने की कारोबारी कोशिशों को, सरकारी कोशिशों को खत्म करें।
आज इस मौके पर यह भी याद करने की जरूरत है कि जिन लोगों को धरती की बढ़ती हुई आबादी धरती पर बोझ लगती है और यह लगता है कि यह आबादी पर्यावरण को बर्बाद करके ही छोड़ेगी, उन लोगों को यह समझ लेना चाहिए कि आबादी का सबसे गरीब हिस्सा वह है जो कि गिनती में तो ज्यादा है, लेकिन जिसकी प्रति व्यक्ति खपत सबसे ही कम है। हिंदुस्तान में भी सबसे गरीब की प्रति व्यक्ति अनाज की खपत, बिजली की खपत, पेट्रोलियम की खपत, या कांक्रीट की खपत सबसे ही कम है। वह सबसे ही कम प्लास्टिक का कचरा पैदा करते हैं, और वह जितना खाते हैं खर्च करते हैं, उससे कहीं अधिक वे अपने बदन की ऊर्जा से धरती पर काम करते हैं। आज अगर मजदूरों की, ठेले और रिक्शे वालों की, किसी भी किस्म का मेहनत का रोजगार करने वालों की दिन भर की ऊर्जा को देखें, तो यह बात साफ है कि वे जितनी चीजों का इस्तेमाल करते हैं उससे अधिक ऊर्जा के लायक काम रोज करते हैं। इसलिए आज के दिन लोगों को अपनी इस गलतफहमी को दूर कर लेना चाहिए कि धरती पर बढ़ती हुई आबादी धरती पर बोझ है। एक हजार सबसे गरीब लोग मिलकर जितनी खपत नहीं करते हैं, उससे कहीं अधिक खपत 10 रईस लोग करते हैं। इसलिए यह बिल्कुल नहीं सोचना चाहिए कि पर्यावरण की बर्बादी का बढ़ती आबादी से कोई रिश्ता है। दूसरी बात यह यह कि बढ़ती हुई आबादी मेहनत और मजदूरी की संभावनाएं लेकर पैदा होती है। इन संभावनाओं को खत्म करने के लिए सरकार और कारोबार मिलकर जितने किस्म का मशीनीकरण कर रही हैं, उस मशीनीकरण से पर्यावरण की अधिक बर्बादी हो रही है, न कि बढ़ती हुई आबादी की वजह से।
दूसरी बात जो हिंदुस्तान के आम शहरों से देखने मिल रही है कि सफाई के नाम पर स्थानीय म्युनिसिपल जिस अंधाधुंध रफ्तार से खर्च करती हैं, और अपने नागरिकों को खुश रखने के लिए उन्हें मनमाना कचरा पैदा करने देती हैं, और उन पर सफाई का कोई जिम्मा नहीं डालती, यह शहरी पर्यावरण की बर्बादी का एक बड़ा कारण है. दक्षिण भारत के कुछ एक छोटे शहरों ने यह मिसाल कायम की है कि किस तरह म्युनिसिपल सफाई पर एक धेला भी खर्च किए बिना, लोगों को जिम्मेदार बनाकर कचरे से कमाई कर सकती हैं। लेकिन जब स्थानीय संस्थाओं के निर्वाचित नेता वोटरों की चापलूसी में लगे रहते हैं तो वे उन्हें किसी तरह की जिम्मेदारी सिखाने का कड़वा काम नहीं करते। जिन स्थानीय संस्थाओं को नागरिकों को सिखाना चाहिए कि वे अपने घर पर ही कचरे को किस तरह से अलग करें ताकि बाद में उसकी छंटाई में खर्च ना हो और वह कचरा काम आ सके। म्युनिसिपल खर्च बढ़ाकर, गाडिय़ां बढ़ाकर, कर्मचारी बढ़ाकर अपनी शान दिखाने में लगे रहती हैं। हिंदुस्तान में लोग दूसरे प्रदेशों से सीखना तो दूर रहा। अपने प्रदेश से भी नहीं सीखते। छत्तीसगढ़ में ही अंबिकापुर में एक कलेक्टर और म्युनिसिपल कमिश्नर ने जिस तरह महिलाओं से समूह बनाकर कचरे को छंटवाकर उसकी बिक्री से कमाई शुरू करवाई थी, उसमें कमाई महत्वपूर्ण नहीं थी, कचरे की रीसाइकिलिंग महत्वपूर्ण थी, लेकिन इस राज्य के बाकी शहरों ने इससे भी कुछ नहीं सीखा।
दुनिया भर में कारखानों को तो पर्यावरण तबाह करने के लिए कोसा ही जाता है, लेकिन सम्पन्न शहरी लोग जऱा खुद भी आइना देख लें इसलिए इन पहलुओं पर हम लिख रहे हैं।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिंदुस्तानी सडक़ों पर देखें तो लोग जब तक किसी पुलिस वाले को ना देखें, तब तक सीट बेल्ट लगाना उन्हें जरूरी नहीं लगता, न ही हेलमेट लगाना। हेलमेट लगा भी लें तो उसके नीचे का बेल्ट लगाना लोगों को अपनी तौहीन लगती है। किसी हादसे की नौबत आने पर बिना बेल्ट लगा ऐसा सिर पर महज धरा गया हेलमेट सबसे पहले उडक़र दूर जाकर गिरेगा। जो लोग सीट बेल्ट वाली महंगी गाडिय़ां खरीदते हैं, और जिनकी गाडिय़ों में हादसे की हालत में बचाने के लिए एयरबैग्स भी लगे रहते हैं, वे भी अधिक दाम तो दे देते हैं, लेकिन यह सीट बेल्ट लगाने की जहमत यह जानकर भी नहीं उठाते कि अगर सीट बेल्ट नहीं लगाया तो शायद हादसे की हालत में एयर बैग भी नहीं खुलेगा। यह सिलसिला हिंदुस्तान में इतना आम है कि किसी को हेलमेट या सीटबेल्ट की याद दिलाई जाए तो वे हैरान होकर पूछते हैं कि क्या पुलिस यहां जांच करती है? यमराज की जांच की किसी को परवाह नहीं रहती, मौत की किसी को परवाह नहीं रहती, बस पुलिस से चालान ना हो जाए, बाकी तो सब ठीक है। जब लोग अपने खुद के शरीर के जिंदा रखने के लिए इस हद तक गैरजिम्मेदार हैं, तो उनसे यह उम्मीद करना कुछ ज्यादा ही बड़ी बात होगी कि वे दूसरों के अधिकारों का सम्मान करेंगे। नतीजा यह होता है कि जो लोग सार्वजनिक जीवन में जिम्मेदार बने रहते हैं, वे लगातार एक भड़ास में भी जीते हैं, और कई ऐसे मौके आते हैं जब उन्हें लगता है कि क्या सारी सार्वजनिक जिम्मेदारी सिर्फ उन्हीं की है ?
जिस तरह अभी कोरोना के मामले में हुआ कि दुनिया के कई देशों में लोगों को हाइजीन फटीक होने लगी, कि साफ-सफाई और सावधान रहने का सिलसिला कब तक चलेगा, और थककर लोग लापरवाह होने लगे, ठीक वैसा ही उन शहरों में होता है जहां सार्वजनिक जगहों पर सिगरेट या शराब पीने पर कोई रोकने वाले नहीं रहते, बिना सीट बेल्ट और हेलमेट चलने वालों का चालान नहीं होता, और जहां पर नशा करके गाड़ी चलाने पर कभी कोई कार्यवाही नहीं होती। चारों तरफ ऐसी अराजकता देख-देखकर नियम कायदे मानने वाले लोग भी थक जाते हैं और धीरे-धीरे वे भी गैर जिम्मेदार होने लगते हैं। यह सिलसिला कुछ वैसा ही रहता है जैसा कि बैठकों में हमेशा वक्त पर पहुंचने वालों को हमेशा ही देर तक लापरवाह और लेट-लतीफ लोगों का इंतजार करना पड़ता है, और धीरे-धीरे लोगों को लगता है कि बैठक में वक्त पर पहुंचना अपने-आपको तकलीफ देने के अलावा और कुछ नहीं है, और थके हुए पाबंद लोग धीरे धीरे खुद भी लेट पहुंचने लगते हैं।
आज चारों तरफ फैले हुए कोरोना की वजह से लोगों को संक्रामक रोग शब्द से बार-बार वास्ता पड़ रहा है। लेकिन अच्छी और बुरी दोनों किस्म की बातें और आदतें भी संक्रामक होती हैं, अच्छी बातों का संक्रमण बहुत कम और बहुत देर से होता है। नियम-कानून मानकर चलने वाले लोगों की देखा-देखी, जल्दी संक्रमण नहीं होता, दूसरी तरफ जो लोग नियमों को तोडक़र चलते हैं उनका संक्रमण जल्दी होता है। जिम्मेदार लोग अधिक वक्त तक असुविधा झेलते हुए जिम्मेदार नहीं रह पाते। इसलिए किसी भी सभ्य समाज को यह भी सोचना चाहिए कि उसके अराजक लोग ना सिर्फ दूसरों के लिए खतरा रहते हैं, ना सिर्फ दूसरों की जिंदगी को खराब करते हैं, बल्कि अपनी खराब आदतों का संक्रमण दूसरों तक फैलाने का एक खतरा भी रखते हैं और ऐसा संक्रमण फैलता ही है। यही वजह है कि बहुत से लोग यह मनाते हैं कि अगला जन्म किसी सभ्य देश में मिले। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
फिनलैंड की प्रधानमंत्री सना मरीन के खिलाफ पुलिस ने जांच शुरू की है कि क्या उन्होंने अपने सरकारी निवास पर बाहर की एक कैटरिंग कंपनी द्वारा परोसे गए नाश्ते के हर महीने का भुगतान पाने के लिए कहीं नियमों को तोड़ा है? यह डेढ़ बरस के नाश्ते के बिल का मामला है, जो कि कुल मिलाकर प्रधानमंत्री के एक महीने के वेतन से काम का है। और प्रधानमंत्री ने अपनी ओर से यह घोषणा भी कर दी है कि उनके पहले के प्रधानमंत्रियों द्वारा लिया जाता रहा यह भत्ता उन्होंने भी अपने अफसरों की राय पर लिया था, लेकिन इस भत्ते को तय करने में उनका कोई हाथ नहीं था, और ना उन्होंने इसे मांगा था, फिर भी उन्होंने अपनी तरफ से यह घोषणा कर दी है कि प्रधानमंत्री के जिम्मे और भी बहुत से काम रहते हैं, इसलिए वे इस विवाद की रकम का भुगतान अपने निजी खाते से कर रही हैं, और जांच के बाद अगर यह पता लगता है कि उन्हें पात्रता थी भी, तो भी वे इसका इस्तेमाल नहीं करेंगी। फिनलैंड एक ऐसा देश माना जाता है यहां पर सत्ता और जनता के बीच फासला दुनिया में सबसे कम है, और वहां पर जनता अपने नेताओं के इस किस्म के किसी भी गैरबराबरी के हक़ के बेजा इस्तेमाल के सख्त खिलाफ रहती है। फिनलैंड के जीवन स्तर के मुताबिक यह रकम बहुत बड़ी नहीं है, लेकिन एक अखबार की रिपोर्ट के आधार पर पुलिस ने यह जांच शुरू कर दी है और प्रधानमंत्री कार्यालय के अफसरों से पूछताछ चल रही है कि यह खर्च किसने मंजूर किया था।
हिंदुस्तान में लोग इस बात को लेकर हैरान हो सकते हैं कि क्या किसी देश की प्रधानमंत्री के नाश्ते के ऐसे खर्च को लेकर इस किस्म की जांच की जा सकती है, क्योंकि दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दावा करने वाले देश का हाल यह है कि सरकारी रेस्ट हाउस और सर्किट हाउस या दूसरे किस्म के विभागीय विश्राम गृह बनते ही इसीलिए हैं कि वहां पर नेता और अफसर जाकर मुफ्तखोरी कर सकें, और उनके मुफ्त खाने-पीने का इंतजाम विभागीय अधिकारी करें। जब-जब मंत्रियों या उनसे बड़े लोगों के दौरे किसी शहर में होते हैं, तो विश्राम गृह या सर्किट हाउस में चरने वाले लोगों की संख्या कई गुना बढ़ जाती है, और उनके पास आने वाले उनके परिचित, रिश्तेदार, मीडिया के लोग, पार्टी के लोग वहां मुफ्त में खाते-पीते हैं और शायद ही किसी मामले में इसका कोई बिल किसी नेता या अफसर को दिया जाता है। यह मान लिया जाता है कि यह शिष्टाचार कुछ कुर्सियों पर तैनात अफसरों का अघोषित जिम्मा है। आमतौर पर सर्किट हाउस में मंत्रियों के खर्चे का सरकारी भुगतान के लिए छोटा सा बिल बनता है, या नहीं भी बनता है, लेकिन उससे 25-50 गुना अधिक खाने वाले लोगों का कोई भुगतान सरकार की तरफ से नहीं किया जाता, न मंत्री की तरफ से किया जाता, और भुगतान का जिम्मा तहसीलदार का मान लिया जाता है। इसी तरह वन विभाग के खासे अतिथि सत्कार दिखाने वाले रेस्ट हाउस में स्थानीय रेंज ऑफिसर के मत्थे खर्च पड़ता है, और इसके एवज में उसे यह रियायत मिलती है कि उसे अपनी काली कमाई का कुछ हिस्सा ऊपर तक नहीं पहुंचाना पड़ता और उसे मेहमाननवाजी के खाते में मान लिया जाता है। बहुत से मंत्री और अफसर तो इस बात के लिए जाने जाते हैं कि उनके पहुंचने पर खाने की मेज पर और कमरे में बड़े-बड़े मर्तबान मेवा भरकर रखे जाते हैं और वे अपने जाने के पहले अपनी गाड़ी में साथ लेकर चल रहे बड़े पीपों में उनको खाली करवाते चलते हैं।
हिंदुस्तान में कभी इस बात की कल्पना नहीं की जा सकती कि किसी मंत्री, या मुख्यमंत्री, या प्रधानमंत्री के सरकारी निवास पर होने वाले सरकारी खर्च का कोई ऐसा बारीक हिसाब रखा जाता होगा। लेकिन फिर भी कम से कम दुनिया में कहीं ईमानदारी जिंदा है इसका एहसास करने के लिए किस्से कहानी की तरह ऐसे कुछ देशों के असल हाल को जान लेना भी अच्छा है ताकि अपने छोटे बच्चों को यह बतलाया जा सके कि दुनिया भी में ऐसे भी देश हैं। आज विश्व साइकिल दिवस भी है और यूरोप के कुछ देश ऐसे भी हैं जहां के प्रधानमंत्री साइकिलों पर चलते हैं। अधिक दूर क्यों जाएं भारत के बगल में भूटान के प्रधानमंत्री लगातार साइकिल पर चलते थे और राह चलते रुक कर कभी मजदूरों के साथ मिट्टी खोदने लगते थे, तो कभी खेतों में काम करने लगते थे। उनका फेसबुक पेज उनकी साइकिल सवारी से यूरोप के कुछ देशों के प्रधानमंत्रियों की तस्वीरों की तरह भरा रहता था।
हिंदुस्तान जैसे देश में जहां जरूरत ना रहने पर भी गाडिय़ों का बड़ा काफिला नेताओं के साथ चलता है, वहां पर किसी सादगी की कल्पना असंभव सी है। लेकिन जो सच में ही विकसित देश हैं, और जहां पर लोकतंत्र परिपक्व है, ऐसे बहुत से देशों में इस तरह की सादगी लगातार दिखती हैं, जो किसी अपवाद के रूप में नहीं है, जो सचमुच ही वहां पर एक परंपरा है। अब क्या आज हिंदुस्तान में कोई ऐसी कल्पना कर सकते हैं कि यहां प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री या किसी मंत्री के नाश्ते के बिल के भुगतान को लेकर पुलिस की जांच शुरू हो सके? ऐसे पदों पर बैठे हुए लोगों के खाने-पीने के बिल का भुगतान करने की अगर कहीं नौबत आती भी होगी तो आसपास खड़े हुए पुलिस अफसर खुशी-खुशी उस भुगतान के लिए तैयार रहते होंगे। इसलिए फिलहाल फिनलैंड की इस सच्ची घटना को एक कहानी की तरह अपने बच्चों को जरूर सुनाएं कि दुनिया में ऐसे भी देश हैं जहां प्रधानमंत्री और आम लोगों के बीच अधिकारों को लेकर किसी तरह का कोई फासला नहीं है, और मामूली सी चूक होने पर भी उन्हें अपनी जेब से ना केवल भरपाई करनी पड़ती है, बल्कि उसकी पुलिस जांच भी चल रही है।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
किसी एक से मिलते-जुलते मुद्दे पर लगातार लिखना ठीक नहीं रहता लेकिन इन दिनों हिंदुस्तान में कोरोना और कोर्ट का हाल कुछ ऐसा है कि उन पर लिखने के मौके तकरीबन रोज खड़े रहते हैं। कल ही हमने यह बात लिखी कि मद्रास हाई कोर्ट के जज ने समलैंगिकता के एक मुद्दे पर अपनी समझ को नाकाफी बताते हुए कहा कि वे मनोचिकित्सक से समय लेकर उनसे इस मुद्दे को बेहतर समझना चाहते हैं, ताकि जब वे इस पर फैसला दें तो वह दिमाग से निकला हुआ न रहे, दिल से निकला हुआ भी रहे। उसमें हमने यह लिखा था कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के बड़े-बड़े जजों को मुद्दों की समझ के लिए प्रशिक्षण प्राप्त करना चाहिए, उन्हें जानकार लोगों को बुलाकर खुद छात्र-छात्रा बनकर क्लास में बैठना चाहिए, और अपनी सारी जिज्ञासाओं को शांत करना चाहिए, इससे वे बेहतर जज बन पाएंगे।
अब कल जब हमने यह लिखा होगा, उसी समय दिल्ली हाईकोर्ट में एक जज जस्टिस विपिन सांघी कोरोना वैक्सीन मामले की सुनवाई करते हुए अपनी एक निजी राय भी वकीलों के सामने रख रहे थे। जज की जुबानी राय की वैसे तो कोई कीमत नहीं होती, और जो अदालत के लिखित आदेश में आखिर में सामने आता है, वही मायने रखता है, लेकिन ऐसी जुबानी राय से कम से कम जज की सोच के बारे में भी कुछ पता लगता है। कई बार होता यह है कि सबूतों और गवाहों की बुनियाद पर जो फैसले आते हैं, उनमें जो बातें जज नहीं लिख पाते, उन बातों को भी सुनवाई के दौरान कह सकते हैं। जस्टिस सांघी ने केंद्र सरकार की वैक्सीन तैयारी और वैक्सीन नीति को लेकर तो उसकी जमकर खिंचाई की ही है, लेकिन यह कोई नई बात नहीं रही। जिस-जिस अदालत ने भारत में वैक्सीन के इंतजाम को लेकर बात की, उन सबने केंद्र सरकार को कटघरे में खड़ा किया ही है, लेकिन इन्होंने एक दूसरी बात कही जो कि सोचने लायक है, और इस मुद्दे पर भी कुछ हफ्ते पहले हम लिख भी चुके हैं।
जस्टिस सांघी ने कहा कि वे अपनी खुद की राय रख रहे हैं कि जब केंद्र सरकार ने 18 से 44 बरस के लोगों को वैक्सीन लगाने की घोषणा की और सरकार के पास वैक्सीन थी नहीं, तो ऐसी घोषणा क्यों की? उन्होंने कहा कि भारत में 60 वर्ष से ऊपर के लोगों को कोरोना वैक्सीन लगाने में प्राथमिकता दी गई जबकि नौजवानों को वैक्सीन लगाने में प्राथमिकता देनी चाहिए थी, क्योंकि 60 वर्ष के ऊपर के लोग तो अपनी जिंदगी जी चुके हैं, और यह नौजवान पीढ़ी है जो कि देश का भविष्य है। उन्होंने अपने आपको 60 वर्ष से ऊपर के बुजुर्ग तबके में गिनते हुए यह कहा कि हम तो अब जिंदगी की ढलान पर हैं, लेकिन नौजवान पीढ़ी से इस देश का भविष्य बनना है। उन्होंने कहा कि 80 बरस के लोग तो अपनी उम्र जी चुके हैं, और अब वह देश को कहीं आगे नहीं ले जा सकते, ऐसे में अगर वैक्सीन सीमित संख्या में थी तो नौजवान पीढ़ी को प्राथमिकता देनी चाहिए थी। उन्होंने कहा कि आदर्श स्थिति तो यह होती कि हर किसी को टीका मिलता, लेकिन जब हर किसी के लिए है नहीं, तो कम से कम नौजवान पीढ़ी को पहले मिलना चाहिए था। उन्होंने भारत सरकार के वकील से कहा कि आप ऐसे फैसले से शर्मा क्यों रहे हैं, यह तो सरकार की जिम्मेदारी है कि वह आगे का रास्ता तय करे, दूसरे देशों ने ऐसा किया है, इटली ने अपने बुजुर्ग लोगों से माफी मांग ली थी कि हमारे पास अस्पतालों में आपके लिए पर्याप्त बिस्तर नहीं हैं।
पाठकों को याद होगा कि हमने कुछ दिन पहले ही इसी पन्ने पर लिखा था कि किस तरह जापान में अकाल पडऩे पर जब लोगों के पास खाने को नहीं रहता था तो वे अपने परिवार के बुजुर्गों को एक पहाड़ी पर ईश्वर के दर्शन कराने के नाम पर ले जाते थे और वहां से नीचे फेंक देते थे। यह फिल्म इसी पर केंद्रित थी। लेकिन 1-2 सदी पहले की यह कहानी कल दिल्ली हाईकोर्ट में फिर दोहराई जाएगी इसका अंदाज हमें नहीं था। 21वीं सदी के 21वें बरस की देश की राजधानी की एक सबसे बड़ी अदालत जज की इस राय की गवाह बनी कि बुजुर्गों के जिंदा रहने का हक जवानों के मुकाबले कम माना जाना चाहिए। यह खबर पढ़ते ही पल भर को ऐसा लगा कि इस अदालत की दुनिया 1-2 सदी पहले चली गई है। अब सवाल यह उठता है कि जज की बात से मन पर पड़ती हुई लात के दर्द को कुछ देर के लिए अलग कर दें, तो यह एक कड़वी हकीकत है कि धरती के लिए बुजुर्गों के मुकाबले जवान अधिक उत्पादक हैं। लेकिन एक सवाल यह भी उठता है कि सभ्यता का विकास पिछले हजारों वर्षों में क्या हमें इस मोड़ पर ले आया है कि जहां पर किसी इंसान की उत्पादकता ही उसके जिंदा रहने के हक का सबसे बड़ा सुबूत हो? यह तो जंगल की सोच रहती है, जंगली जानवरों की सोच रहती है जो कि सबसे ताकतवर के सबसे आखिर तक जिंदा रहने की हिमायती रहती है। जंगल में जिसकी उत्पादकता नहीं रह जाती, उसे जिंदा रहने का हक भी नहीं रह जाता। उसी प्रजाति के जानवर भी अपने ही बीमार या जख्मी साथी को खा जाते हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह कि एक बर्फीली पहाड़ी पर गिरे हुए विमान के मुसाफिरों ने आखिर में अपने बीच के मरने वाले लोगों को खाना शुरू कर दिया था। कल जस्टिस सांघी की बातें कुछ उसी किस्म की लगने लगीं कि क्या हम एक बार फिर सबसे ताकतवर के जीने की सबसे अधिक संभावना वाली नौबत में पहुंचे हुए हैं या ऐसी नौबत इन हजारों-लाखों बरसों में कहीं गई ही नहीं थी, और वह, सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट, हमारे ही बीच अनबोले बिनलिखे शब्दों में दिल-दिमाग में चली ही आ रही थी?
यह सोचना बड़ा तकलीफदेह होता है, और हमने खुद इसी सवाल को कुछ वक्त पहले उठाया था कि जब लोगों के सामने तय करने का यह बहुत बड़ा संकट आकर खड़ा हो जाएगा कि वे अपने को जन्म देने वाले मां-बाप को बचाएं, या अपने पैदा किए हुए अपने बच्चों को बचाएं, या अपनी पीढ़ी के लोगों को बचाएं, तो उस वक्त समझ पड़ेगा कि लोगों की प्राथमिकता क्या है? कल दिल्ली हाईकोर्ट के जज ने जो सवाल उठाया है, उस सवाल को पहली नजर में खारिज कर देना तो बहुत आसान है, लेकिन उसके बारे में जितना ज्यादा सोचें उतना ही ज्यादा मन दुविधा से बाहर निकलने लगता है, और दिल के किसी एक कोने से यह आवाज उठने लगती है कि वे गलत क्या कह रहे हैं? यह बात उस वक्त तो अधिक गलत लग सकती है जब देश की सरकार की जिम्मेदारी हर किसी को वैक्सीन जुटाकर देना थी, लेकिन उस जिम्मेदारी का वक्त तो चले गया, अब वैक्सीन कहीं है नहीं, सरकार का कोई इंतजाम है नहीं, तो ऐसे में जो है उससे किसकी जिंदगी बचाई जाए ? जवान जिंदगी बचाई जाए या बुजुर्ग जिंदगी बचाई जाए? इस बारे में अपने आसपास अपने परिवार के लोगों की कल्पना करके असल नाम भरकर, असल चेहरे भरकर, अगर इस पहेली को सुलझाने की कोशिश करें, तो लगता है कि हमारे भीतर भी एक जस्टिस सांघी दिखने लगेगा!(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
मद्रास हाईकोर्ट के एक जज ने कुछ हफ्ते पहले यह घोषणा की कि वे समलैंगिकता से जुड़े एक मामले पर कोई फैसला या आदेश देने के पहले खुद मनोचिकित्सक से मिलेंगे ताकि वे समलैंगिकता को बेहतर तरीके से समझ सके। उन्होंने अदालत में खुलकर यह बात कही और उन्होंने यह साफ किया कि वे अभी अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं है और इस विषय की उन्हें अच्छी समझ नहीं है, ऐसे में अगर वे कोई फैसला देंगे तो वह उनके दिमाग से निकला हुआ होगा, और वे चाहते हैं कि फैसला उनके दिल से निकला हुआ हो। उन्होंने खुद होकर कहा कि वह एक मनोवैज्ञानिक शिक्षा पाना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि वे अपने खुद के पूर्वाग्रहों को तोडऩे की कोशिश कर रहे हैं और खुद की सोच के विकास की कोशिश भी कर रहे हैं। तमिलनाडु का यह मामला दो युवतियों का है जो कि पूरी जिंदगी जीवनसाथी बनकर एक दूसरे के साथ रहना चाहती हैं लेकिन दोनों के परिवार इसका विरोध कर रहे हैं। जज ने इन दोनों युवतियों के अलावा इन दोनों के परिवारों को भी एक ऐसे परामर्शदाता के पास भेजा, जो कि समलैंगिक मुद्दों को जानने समझने की समझबूझ रखते हैं। परामर्शदाता ने इन दोनों युवतियों और इनके परिवारों से बातचीत करके अदालत को सीलबंद रिपोर्ट दी जिसमें इन सबकी इस मुद्दे पर समझ के बारे में उसका निष्कर्ष था।
इस मामले पर कुछ हफ्ते बाद भी लिखने की जरूरत अभी इसलिए पड़ रही है कि गोवा की एक अदालत ने एक बहुत चर्चित सेक्स शोषण मामले पर अपना फैसला देते हुए आरोप लगाने वाली युवती के खिलाफ जितने किस्म की टिप्पणियां की हैं, वे दिल दहलाने वाली हैं। इस जज के अलावा पहले भी कुछ दूसरे प्रदेशों में कुछ ऐसे जज रहे हैं जिन्होंने देह शोषण के मामलों में महिलाओं के खिलाफ बहुत ही अवांछित और नाजायज टिप्पणियां की हैं जिनसे यह पता लगता है कि उनकी महिलाओं की मानसिकता की समझ शून्य से भी गई गुजरी है, वे महिलाविरोधी पूर्वाग्रहों से लदे हैं। इस अखबार से जुड़े हुए एक फेसबुक पेज पर आजकल में ही लिखा गया है कि हिंदुस्तान में किसी को जज बनाने के पहले बलात्कार की शिकार महिलाओं के बारे में उनसे खुलकर बातचीत करके उनकी समझ का अंदाज लगाना चाहिए, और इस मुद्दे के अलावा भी सामाजिक न्याय से जुड़े दूसरे मुद्दों पर उनकी सोच पर उनसे बात करनी चाहिए, इसके बाद ही उनकी नियुक्ति होनी चाहिए।
हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि इस अखबार में हम अपने इस कॉलम में ऐसी चर्चा में पहले भी कई बार लिख चुके हैं कि जिस तरह अमेरिका में किसी को जज बनाने के पहले उससे लंबी चौड़ी पूछताछ होती है, और सुप्रीम कोर्ट का जज बनाने के पहले अमेरिकी संसद की एक कमेटी वैसे संभावित जजों से लंबी-लंबी बैठकें करती हैं और देश में जलते-सुलगते तमाम मुद्दों पर उनकी सोच का पता लगाती है. ऐसी संसदीय सुनवाई वहां की संवैधानिक अनिवार्यता रहती है। ऐसी सुनवाई का मतलब ही यह होता है कि उनके पूर्वाग्रहों का अंदाज लगा लेना और उसके बाद यह तय करना कि ऐसे पूर्वाग्रहों वाले लोगों को जज बनाना ठीक होगा या नहीं। हिंदुस्तान में भी न सिर्फ महिलाओं से जुड़े हुए मुद्दे बल्कि दलित और आदिवासी लोगों से जुड़े हुए मुद्दे, गरीब और मजदूरों से जुड़े हुए मुद्दे, ऐसे हैं जिनकी समझ बहुत से जजों में बहुत कम दिखाई पड़ती है। पिछले बरस जब कोरोना के बाद देश भर में एक साथ लॉकडाउन लगाया गया उस वक्त हजार-हजार मील पैदल चलकर जिंदा या मुर्दा घर लौटने वाले मजदूरों के हक में जब कुछ लोग अदालत पहुंचे, तो जजों ने इस मुद्दे को समझने से ही इंकार कर दिया। हमारा मानना है कि मजदूरों को इंसाफ नहीं मिला जबकि वे करोड़ों की संख्या में थे, और जाहिर तौर पर तकलीफ में थे, और सरकार के पास उस नौबत का कोई जवाब नहीं था, उन लोगों की तकलीफ का कोई समाधान नहीं था, लेकिन अदालत के पास भी वह नजर नहीं थी जो कि सबसे गरीब लोगों की इस सबसे बड़ी त्रासदी को देखकर समझ सकती। इसलिए आज जब मद्रास हाईकोर्ट के एक जज खुलकर इस बात को मंजूर कर रहे हैं कि अपने पूर्वाग्रहों से उबरने के लिए और इस मुद्दे को बेहतर समझने के लिए वे अपने मनोवैज्ञानिक शिक्षण के लिए जा रहे हैं, ताकि यह फैसला देते समय कानूनी नुक़्तों के आधार पर दिमाग से फैसला निकलने के बजाय वह दिल से निकल सके, तो उनकी बात से और जजों को भी कुछ सीखना चाहिए। हिंदुस्तान की बहुत सी दूसरी अदालतों के बहुत से दूसरे बड़े-बड़े जजों को ऐसी समझ की जरूरत है। आज अधिक से अधिक होता है यह है कि बड़े जज अपनी अदालतों में काम करने वाले अच्छे वकीलों में से किसी को छांटकर उन्हें न्याय मित्र बना कर किसी मामले में नियुक्त करते हैं ताकि वे उस मामले की बारीकियां जजों को समझा सकें। लेकिन ऐसे में एक खतरा यह भी रहता है कि यह न्याय मित्र जजों को समझाते हुए खुद ही अपने पूर्वाग्रह से मुक्त ना हो सके, और इसलिए जजों का ऐसा समझना पूरी तरह से खतरे से खाली भी नहीं है। मद्रास हाई कोर्ट के जज ने एक बेहतर राह दिखाई है जिसमें वह ऐसे मामलों के जानकार किसी मनोचिकित्सक या किसी परामर्शदाता से समझ लेने वाले हैं।
हाल के वर्षों में छोटी और बड़ी बहुत सी अदालतों के जजों ने सामाजिक न्याय की अपनी कमजोर समझ का आक्रामक प्रदर्शन किया है। उन्होंने अपने महिला विरोधी नजरिए को सिर पर मुकुट की तरह सजा कर फैसले सुनाए हैं, उन्होंने बहुत सी अवांछित और नाजायज बातें फैसलों में लिखी हैं, कुछ मामले तो ऐसे भी रहे जिनमें जजों की टिप्पणियों के खिलाफ अदालती अपील होने के पहले ही लोगों को सुप्रीम कोर्ट तक जाना पड़ा और ऐसी टिप्पणियों को रुकवाना पड़ा। हिंदुस्तान एक बहुत ही दकियानूसी और पाखंडी देश है जहां पर मिट्टी और पत्थर की बनी देवियों की तो पूजा की जाती है, लेकिन जीती जागती महिला को जलाकर मारना, उससे बलात्कार करना, उसे अपमानित करना, उसे सोशल मीडिया पर हजार-हजार अकाउंट्स से बलात्कार की धमकी दिलवाना, उसके बच्चों को बलात्कार की धमकी दिलवाना। यह देश कुछ इस किस्म का देश है, इसलिए जज भी इसी समाज से निकल कर आते हैं, इसी समाज में जीते हैं, और महिलाओं को लेकर उनकी समझ अगर पूरी तरह बेइंसाफी से भरी हुई है, तो उसमें हमें जरा भी हैरानी नहीं होती। ऐसा करने वाले केवल पुरुष जज नहीं होते, ऐसे फैसले देने वाली महिला जज भी होती हैं, जिनकी खुद की मानसिक परिपक्वता पुरुषप्रधान समाज में दबे कुचले तरीके से हुई रहती है। यह उसी किस्म की महिलाओं जैसी रहती हैं जो किसी अफसर को या नेता को कमजोर कायर दब्बू नाकामयाब साबित करने के लिए उसे चूडिय़ां भेंट करने जाती हैं मानो चूडिय़ां किसी कमजोरी का सुबूत हैं। इसलिए इस देश में महिलाओं जैसे तमाम कमजोर तबकों, जिनमें सेक्स की अलग पसंद वाले समूह भी शामिल हैं, उन्हें लेकर जजों की एक क्लास लगनी चाहिए, जिसमें वे खुलकर अपने अज्ञान को उजागर करते हुए सवाल करें, और उनके अज्ञान को दूर करने का रास्ता अलग-अलग विषयों के विशेषज्ञ निकालें। सुप्रीम कोर्ट तक के बहुत से जजों ने समय-समय पर समाज के कमजोर तबकों के अधिकारों को समझने से इसलिए नाकामयाबी दिखाई है क्योंकि उन तबकों की उन्हें समझ नहीं रह गई। हमारा तो यह मानना है कि किसी मनोवैज्ञानिक या मनोचिकित्सक या परामर्शदाता से मुद्दों को समझने की तरह ही सामाजिक हक़ीक़त के बहुत से मुद्दों को समझने के लिए जजों को समाज के कमजोर तबकों की गहरी समझ रखने वाले विशेषज्ञ जानकार लोगों को आमंत्रित करके उनकी क्लास अटेंड करनी चाहिए।
केंद्र सरकार की वैक्सीन पॉलिसी पर चल रही सुनवाई के दौरान आज सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार के लिए असुविधाजनक कई सवाल खड़े किए और सरकार से पूछा कि अलग-अलग राज्यों को विदेशी वैक्सीन खरीदने के लिए अलग-अलग ग्लोबल टेंडर निकालने पड़ रहे हैं, क्या यह केंद्र सरकार की नीति है? और सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने यह भी पूछा कि जब केंद्र सरकार के पास मौजूदा कानून के तहत देश के भीतर बनने वाली वैक्सीन के रेट तय करने के लिए व्यापक शक्तियां हैं, तो अलग-अलग कीमत तय करने का काम वैक्सीन निर्माताओं पर क्यों छोड़ दिया गया? सुप्रीम कोर्ट ने यह सवाल इसलिए भी पूछा कि केंद्र सरकार ने 45 वर्ष से अधिक के लोगों के लिए वैक्सीन मुफ्त देने का कार्यक्रम चलाया हुआ है, और उससे नीचे उम्र के लोगों से इसकी कीमत वसूली जा रही है, यह कीमत या तो राज्य सरकार दे रही हैं, या निजी अस्पतालों में लोग खुद ही दे रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी सवाल किया कि यदि केंद्र सरकार 45 वर्ष से अधिक के लोगों के लिए टीके खरीद रही है तो 45 वर्ष से कम के लोगों के लिए टीके क्यों नहीं खरीद रही क्यों राज्य सरकार के ऊपर यह जिम्मेदारी डाली जा रही है?
यह पूरा सिलसिला बड़ा दिलचस्प है इसलिए है कि हमारे पाठकों को याद होगा कि मोदी सरकार ने जब से 45 बरस से नीचे के लोगों के लिए वैक्सीन की अपनी नीति घोषित की है, तबसे हम लगातार इस पर सवाल उठाते आ रहे हैं। लेकिन हमारे सवाल सुप्रीम कोर्ट की अभी सुनवाई से आगे बढक़र भी रहे हैं, जिसमें उम्र की सीमा तय करना, राज्यों के हिस्से के फैसले खुद लेना, और राज्यों पर वैक्सीन खरीदने का जिम्मा छोडऩा, जैसे बहुत से पहलू हैं। सुप्रीम कोर्ट की आज की सुनवाई वैक्सीन के रेट को लेकर थी और केंद्र सरकार की जिम्मेदारियों को लेकर थी कि वैक्सीन के ग्लोबल टेंडर की जरूरत अलग-अलग राज्यों को क्यों पड़ रही है, और केंद्र सरकार ने यह काम क्यों नहीं किया ? देश की वैक्सीन कंपनियों के उत्पादन का दाम केंद्र सरकार ने क्यों तय नहीं किया जबकि उसके पास ऐसा करने के लिए पर्याप्त अधिकार हैं? सुप्रीम कोर्ट ने एक बुनियादी सवाल भी उठाया है जिसे हमने इसके पहले नहीं लिखा था कि जब वह 45 वर्ष से अधिक के लोगों को वैक्सीन मुफ्त दे रही है, तो 45 वर्ष से नीचे के लोगों के लिए वैक्सीन का खर्चा लोगों को या राज्य सरकारों को क्यों उठाना पड़ रहा है?
सुप्रीम कोर्ट के सवाल बहुत पीछे हैं और हमारा मानना यह है कि ये सारे सवाल जायज हैं. अब देखना यह है कि केंद्र सरकार इसका क्या जवाब दे सकती है क्योंकि केंद्र राज्य संबंधों में केंद्र सरकार को अगर कुछ फैसले लेने का अधिकार भी है, और मनमाने फैसले लेने का भी अधिकार है, तो भी उन मनमाने फैसलों को अदालत में कोई चुनौती मिलने पर अदालत के सामने सरकार को उन्हें न्यायोचित तो ठहराना ही होगा और आज सरकारी वकील से सुप्रीम कोर्ट के जजों ने जो सवाल किए हैं, वे जनहित के सवाल हैं और वे राज्यों के अधिकार के सवाल हैं। दिक्कत एक छोटी सी यह है कि राज्यों ने अपने अधिकारों को लेकर केंद्र सरकार से पर्याप्त सवाल नहीं किए उर्मिला इसके पीछे की वजह शायद यह भी हो सकती है कि कोई राज्य सरकार कोरोना के खतरे के बीच, गिरती हुई लाशों के बीच, ऐसी दिखना नहीं चाहती है कि वह केंद्र सरकार के लिए कोई असुविधा खड़ी कर रही है. शायद इसलिए देश के तकरीबन तमाम राज्यों ने केंद्र सरकार के मनमानी हुक्म और फैसले ज्यों के त्यों मान लिए और वैक्सीन को लेकर तमाम किस्म की दिक्कतें खुद झेली हैं और झेलते चले जा रहे हैं।
केंद्र सरकार की टीकाकरण नीति और राज्यों के ऊपर उसके मनमाने फैसलों को थोपने का सिलसिला शुरू से ही बड़ा नाजायज चले आ रहा था। हमने इसी जगह यह लिखा था कि जब केंद्र सरकार अपने और राज्य सरकारों की खरीदी के लिए देश के छोटे-छोटे से सामान, स्कूटर, मोटरसाइकिल, फ्रिज और पंखे-एसी तक के रेट पूरे देश की कंपनियों से तय करके उन्हें घोषित करती है, और राज्य सरकारें उन्हें दोबारा टेंडर बुलाए बिना उस रेट पर खरीद सकती हैं, तो वैक्सीन के लिए ऐसा क्यों नहीं किया गया जो कि एक जीवनरक्षक सामान भी है, और जिसके लिए पूरे देश की जनता जनता बेचैन भी है। यह सवाल पूरी तरह अनसुना रहा क्योंकि केंद्र सरकार ने देश में किसी के सवालों का जवाब देना अपना जिम्मा मानना छोड़ ही दिया है। हमने यह सवाल भी उठाया था कि केंद्र सरकार ने खुद तो कम रेट पर वैक्सीन खरीदी और इसके बाद वैक्सीन कंपनियों को यह खुली छूट दे दी कि वे राज्य सरकारों से मोलभाव करें और राज्य सरकारें अपने हिसाब से उन्हें लें। यह फैसला केंद्र सरकार ने उस दिन किया जिस दिन इस देश में कुल 2 वैक्सीन कंपनियां काम कर रही थीं, बाहर से कोई वैक्सीन आयी भी नहीं थी और राज्य सरकारों की यह मजबूरी थी कि इन दो कंपनियों के एकाधिकारवादी इंतजाम के बीच इन्हीं से मोलभाव करें और खरीदें।
लोगों को याद होगा कि दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री मनीष सिसोदिया ने कैमरे के सामने दिए एक बयान में इस बात को लेकर केंद्र सरकार को घेरा था कि उसने दुनिया की मंडी में भारत के राज्यों को धकेल दिया है कि वे वहां एक दूसरे से मुकाबला करके अधिक बोली लगाकर वैक्सीन हासिल करें, और अपने प्रदेश के लोगों को लगाएं। मनीष सिसोदिया ने केंद्र सरकार से यह मांग की थी कि वह देश की जनता से इस नौबत के लिए माफी मांगे क्योंकि आज भारत की राज्य सरकारें दुनिया के बाजार में खड़े होकर एक दूसरे से अधिक बोली लगाकर पहले वैक्सीन पाने की कोशिश कर रही है जबकि यह काम केंद्र सरकार को करना चाहिए था। और दुनिया की कंपनियों ने ही यह साफ कर दिया कि वह हिंदुस्तान के किसी राज्य के साथ कोई सौदा नहीं करेंगी और वह सिर्फ केंद्र सरकार के साथ सौदा करेंगी क्योंकि अंतरराष्ट्रीय सौदों में कई किस्म की राष्ट्रीय गारंटी की जरूरत पड़ती है जिसे देने का अधिकार किसी राज्य सरकार का नहीं है और सिर्फ केंद्र सरकार ही ऐसा कर सकती है। कुल मिलाकर यह एक बहुत ही बुरी नौबत देश के सामने है जब लोग वैक्सीन लगवाने के लिए तरस रहे हैं, जब देश के बड़े-बड़े होटल वैक्सीन पैकेज के इश्तहार छपवा रहे हैं कि कितने हजार रुपए देकर उनके होटल में आकर रुकें, तीन वक्त खाना खाएं, और वैक्सीन लगवाएं। ऐसे में देश के गरीब लोग कहां जाएं, जिनके लिए न केंद्र सरकार वैक्सीन भेज रही है ना उनकी राज्य सरकारों को बाजार में वैक्सीन मिल रही है ?उनकी राज्य सरकारें दुनिया से कहीं से आयात नहीं कर पा रही हैं और लोगों के सिर पर खतरा बना हुआ है.
भारत सरकार की वैक्सीन नीति से गरीब और अमीर के बीच इस जीवनरक्षक वैक्सीन को लेकर इतनी बड़ी खाई खोद दी गई है कि पैसे वाले तो बड़े अस्पतालों में जाकर, होटलों में जाकर, यह वैक्सीन लगवा सकते हैं, लेकिन गरीबों में जो तबका बहुत अधिक खतरा झेल रहा है, वह तबका भी इस वैक्सीन को पहले नहीं पा सकता, क्योंकि ना केंद्र भेज रही है, न उनका राज्य खरीद पा रहा है। अब सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के बारे में इस किस्म का जुबानी कड़ा रुख पिछले वर्षों में कई बार, कई मामलों में दिखाया है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट का फैसला जब आता है तब लोगों को लगता है कि वह रुख और अदालत की जुबानी टिप्पणी उनमें से नदारद रहती हैं। ऐसे में लोग इंतजार करेंगे कि सुप्रीम कोर्ट के जज आज इतनी कड़ी जुबान बोल रहे हैं, आज जितने इंसाफ की बात कर रहे हैं, जब केंद्र सरकार की टीकाकरण नीति और कार्यक्रम पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आएगा, तो उस फैसले में भी अदालत का यह रुख झलकेगा। अदालत का फैसला महज फैसला नहीं रहना चाहिए वह इंसाफ भी होना चाहिए और अगर यह इंसाफ होगा तो पिछले महीनों में हमारी लिखी हुई तमाम बातें सही साबित होंगी और केंद्र और राज्य सरकार के संबंधों को लेकर सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला बहुत सारी नई परिभाषाएं गढ़ सकता है जो कि मौजूदा केंद्र सरकार के लिए दिक्कत की हो सकती हैं। अभी अदालत की सुनवाई की जितनी खबरें हम देख रहे हैं, उनमें राज्य सरकारों की कोई दखल नहीं दिख रही है, जबकि यह राज्यों को सीधे प्रभावित करने वाले मुद्दे पर चल रही सुनवाई है. आगे देखते हैं कि राज्य अपने अधिकारों के लिए सुप्रीम कोर्ट के इस मामले में दखल देते हैं या नहीं।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
जब लिखने को कोई महत्वपूर्ण मुद्दा ना सूझे तो महिलाओं के मुद्दों पर एक नजर डालने से एक से अधिक महत्वपूर्ण बातें लिखने लायक सामने आ जाती हैं। सोशल मीडिया पर बहुत सी ऐसी महिलाएं सक्रिय रहती हैं, जो उनकी जिंदगी के असल मुद्दों पर लिखती हैं, और मर्दों की भीड़ उन्हें खुलकर गालियां देने में जुटी रहती हैं। औरतों के खिलाफ गालियां बनाना आसान भी रहता है। उनके बदन के कुछ हिस्सों के नाम लेकर, मर्दों की कुछ अधूरी हसरतों को मिला दिया जाए, तो महिलाओं को देने के लिए गालियां ही गालियां बन जाती हैं। सोशल मीडिया पर महिलाओं के हक की, या किसी भी गंभीर मुद्दे पर समझदारी की, जरा सी बात करने वाली महिला को भी उसके बदन के ढंके हुए अंगों के लिए हजार-हजार गालियां आसानी से मिल जाती हैं। कुछ महिलाएं डरकर और/या थककर सोशल मीडिया पर लिखना छोड़ देती हैं और कुछ महिलाएं उन पर फेंके गए इन पत्थरों को चबूतरे की तरह जमाकर, उन पर खड़े रहकर, और जोरों से बोलती हैं। कुल मिलाकर सोशल मीडिया ने जिस तरह दुनिया के हर कमजोर तबके को बोलने का मौका दिया है, एक नई जुबान दी है, एक नया लोकतांत्रिक हक दिया है, उसी तरह का हक महिलाओं को भी यहां पर मिला है और वे बहुत से नए पहलुओं पर लिख रही हैं जिनके बारे में आदमियों ने शायद कभी सोचा नहीं होगा। मर्दों में जो लोग अपने को औरत-मर्द की बराबरी के बड़े हिमायती मानते हैं, उन्हें भी महिलाओं की लिखी बातों को पढक़र कई बार एक नई सोच का पता लगता है जिसे कि उन्होंने कभी खुद होकर सोचा नहीं था।
ऐसा ही मुद्दा अभी सामने आया कि किसी एक आदमी को किडनी की जरूरत पड़ी। डॉक्टरों ने जवाब दे दिया कि अब मौजूदा किडनी और अधिक साथ नहीं देगी, और ट्रांसप्लांट तो करना ही पड़ेगा, अगर और जिंदा रहना है। जैसा कि आमतौर पर होता है, आदमी लौटकर घर पहुंचा, और बीवी को तैयार करने लगा कि वह उसे किडनी दे। यह बात बोलने की भी जरूरत नहीं रहती है क्योंकि हिंदुस्तान जैसे देश में कोई भी महिला अपने सुहाग के लिए कुछ भी करने को तैयार रहती है, और अपने पति को जिंदा रखने के लिए महिलाएं जाने क्या-क्या करती हैं। और पति को जिंदा रखने की बात ही नहीं है, पति की जिंदगी में बने रहने के लिए भी बहुत सी महिलाएं पूरी-पूरी जिंदगी को एक बोझ की तरह ढोते चलती हैं, और कभी उफ नहीं करतीं। लेकिन यह महिला जानती थी कि उसके पति की जिंदगी में और भी बहुत सी महिलाएं हैं, और ऐसे नाजुक मौके पर जब वह लौटकर सिर्फ बीवी का मोहताज रह गया है, क्योंकि बाहर की कोई प्रेमिका तो किडनी देने से रही, तो इस महिला ने भी अकेले जाकर डॉक्टर से मिलकर यह साफ कर दिया कि वह किडनी देना नहीं चाहती है। डॉक्टर भी मददगार निकला और उसने जांच में ही कुछ इस तरह की जटिलता बता दी कि इस महिला की किडनी काम नहीं आएगी। यह कहानी सच भी हो सकती है और किसी की गढ़ी हुई भी हो सकती है, लेकिन सच तो यह है कि असल जिंदगी में ऐसे मामलों की गुंजाइश कम नहीं है।
इसी तरह एक दूसरी नौबत बहुत सारे मामलों में सामने आती है जिनमें हिंदुस्तान से लेकर पश्चिम के बड़े-बड़े देशों के आधुनिक परिवार भी एक सरीखे दिखते हैं। जब किसी आदमी पर बलात्कार या किसी के देह शोषण का आरोप लगता है, या कि बिल क्लिंटन की तरह, अपनी एक मातहत प्रशिक्षणार्थी के शोषण का आरोप लगता है तो ऐसे तमाम मामलों में ऐसे लोगों की बीवियां सार्वजनिक जगहों पर, अदालत के भीतर और अदालत की सीढिय़ों पर, उनके साथ चट्टान की तरह खड़ी दिखती हैं, क्योंकि ऐसे नाजुक मौके पर अगर वे अपने बदचलन पति का साथ छोड़ें तो वह पल भर में डूब ही जाएगा। इसलिए हिंदुस्तान की दुखी-हारी बीवियों से लेकर, अमेरिका और ब्रिटेन की बीवियां तक अधिकतर मामलों में अपने बलात्कारी पति के साथ खड़े रहकर उसे संदेह का कुछ लाभ दिलाने की कोशिश करती हैं। एक बार अदालती मामला पूरा हो जाये, तो फिर चाहे उसे छोड़ दें, लेकिन मुसीबत के बीच नहीं छोड़तीं।
सोशल मीडिया ने महिलाओं को बोलने और सोचने का जो हक दिया है वह अभूतपूर्व है। इसके पहले तक महिला आंदोलनों के कुछ सार्वजनिक मंचों पर ही कुछ प्रमुख महिलाओं को यह मौका मिलता था और कुछ पत्रिकाओं में लिखने की क्षमता रखने वाली अच्छी लेखिकाओं को अपनी बात कहने का मौका मिलता था। लेकिन आज सोशल मीडिया की मेहरबानी से ना तो भाषा पर किसी काबू की जरूरत है, न ही नामी-गिरामी होने की जरूरत है, और बहुत आम महिलाएं भी अपनी जिंदगी के कुछ बहुत जटिल मुद्दों पर खुलकर लिख रही हैं, जिन पर खुलकर चर्चा हो रही है, और उन महिलाओं को खुलकर, जमकर गालियां दी जा रही हैं। हमारा तो यह मानना है कि ऐसी गालियां देने वाले उन महिलाओं का कोई अपमान नहीं कर पाते हैं, बल्कि वे अपने-आपके चाल-चलन का, अपने संस्कारों का, भंडाफोड़ करते हैं, और खुद अपने-आपको बेइज्जत करके लोगों के बीच उजागर कर देते हैं। यह पूरा सिलसिला समाज के भीतर महिलाओं को बोलने का हक मिलने का एक बिल्कुल ही अभूतपूर्व नजारा है जो कि अभी 10.15 बरस पहले तक कहीं नजर नहीं आता था।
आज इससे एक दूसरा फायदा भी हो रहा है। आदमियों में से वे लोग जो कि सचमुच ही महिलाओं के मुद्दों को समझने के लिए एक खुला दिल-दिमाग रखते हैं, उनके सामने भी महिलाओं से जुड़े हुए मुद्दे इतनी बारीकी से खुलकर सामने आ रहे हैं, उन मुद्दों पर इतने किस्म के लोगों की प्रतिक्रिया भी पढऩे मिल रही है, बहस इतनी आगे भी बढ़ रही है कि सोचने को तैयार लोगों को सोचने का बहुत सा सामान भी मिल रहा है। इसके पहले तक महिलाओं के मुद्दे महिलाओं की पत्रिकाओं तक सीमित थे जिनमें आदमियों की दिलचस्पी लिखे और छपे शब्दों में नहीं रहती थी, महिलाओं की उघड़ी तस्वीरों में रहती थी। आज धीरे-धीरे आदमियों का एक तबका ऐसा बढ़ भी रहा है जो महिलाओं के मुद्दों को, उनकी देह में अपनी दिलचस्पी के अलावा, सोच के स्तर पर भी समझने की कोशिश कर रहा है। सोशल मीडिया को बहुत किस्म की गंदगी के लिए और बुरे असर के लिए रात-दिन कोसा जाता है, लेकिन यह हकीकत अपनी जगह कायम है कि इस सोशल मीडिया ने ही समाज के सबसे कमजोर तबकों को एक जुबान दी है, और उनकी बातों को दूसरों की नजरों के सामने रखने का एक मौका भी जुटा कर दिया है। सोशल मीडिया पर जो लोग हैं उन्हें महज त्योहारों की शुभकामनाएं और जन्मदिन की बधाई तक फंसकर नहीं रहना चाहिए, और अपने से असहमत लोगों की बात भी देखना चाहिए, जिसके बिना कोई भी विचारधारा न विकसित हो सकती न जिंदा रह सकती। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पिछले करीब 12 हजार बरस से इंसान पशुओं को पालतू बनाकर अपने साथ रखते आए हैं। इंसानों का इतिहास यही बताता है कि उसके पहले वे जंगली जानवरों का शिकार करते थे लेकिन धीरे-धीरे वे उनमें से कुछ काम के जानवरों को खेती के लिए या चौकीदारी के लिए, या शिकार में मदद करने के लिए, अपने साथ रखने लगे। इंसान इन पशुओं को गोश्त के लिए, दूध के लिए, और उनकी खाल से अपने लिए गर्म कपड़े बनाने के लिए भी, पालने लगे थे। अब आधुनिक दुनिया में ऐसी किसी जरूरत के बिना भी लोग अपने शौक से अधिकतर कुत्ते-बिल्लियां पालते हैं, बहुत से लोग तरह-तरह के पंछी और मछलियां पालते हैं, और जिन देशों में कुछ और नस्लों के जंगली जानवरों को पालने की इजाजत है वहां पर लोग और खतरनाक समझे जाने वाले जानवरों को भी पालते हैं। अब चीन से जब कोरोना फैलना शुरू हुआ तो ऐसा माना गया कि वहां के एक शहर का जो पशु बाजार है जहां बड़ी संख्या में अलग-अलग बहुत सी प्रजातियां के पशु-पक्षी बेचे जाते हैं वहां से यह बीमारी फैली और एक मान्यता यह है कि वह चमगादड़ों से इंसानों में आई। अब यह भी जांच का मुद्दा है, और यह बात पूरी तरह से साबित नहीं हुई है, लेकिन पशु-पक्षियों को लेकर इंसान थोड़े से चौकन्ने तो हुए हैं। ऐसे में जब एक खबर एक पुरानी जांच रिपोर्ट पर अभी आती है कि मलेशिया में बहुत से ऐसे इंसान ऐसे भी मिले थे जिन्हें कोरोना वायरस कुत्तों से मिला था, तो यह लोगों को चौंकाने और हड़बड़वाने वाली बात है। हालाँकि ये मामले तीन चार बरस पहले के हैं और उसके बाद से ऐसे मामले कहीं सामने नहीं आए और ना ही यह साबित हुआ कि इंसानों में कुत्तों से आने वाले कोरोना वायरस की वजह से ही किसी की मौत हुई। लेकिन आज जब चारों तरफ सावधानी बरतने की बात हो रही है, जब लोग यह देख रहे हैं कि कोरोना वायरस के कितने और दौर आ सकते हैं और उनके लिए क्या-क्या सावधानी बरती जानी चाहिए, तब यह बात महत्वपूर्ण हो जाती है कि क्या किसी दिन ऐसी नौबत आ सकती है कि पालतू या कारोबारी जानवरों से इंसानों में कोई दूसरा वायरस आने लगे, और वैसे में क्या होगा?
हर कुछ वर्षों में यह देखने मिलता है कि कहीं गायों में, तो कहीं मुर्गियों में, और कहीं पालतू सूअर में कोई संक्रामक बीमारी फैल जाती है, और किसी देश-प्रदेश में या किसी शहर में उन्हें बड़ी संख्या में मारना पड़ता है, और मारकर एक साथ जलाना भी पड़ता है ताकि उनसे संक्रमण दूसरे जानवरों तक ना पहुंचे, और इंसानों तक ना पहुंचे। अब ऐसी नौबत की कल्पना आज थोड़ी सी मुश्किल हो सकती है कि अगर हिंदुस्तान जैसे देश में करोड़ों गाय हैं, इसमें ऐसी कोई बीमारी फैल जाए तो क्या होगा? क्योंकि बहुत सी जगहों पर लोग घरों में ही 1-2 गाय भैंस पाल लेते हैं जिनसे उनकी रोजी-रोटी भी चलती है और बच्चों को दूध भी मिलता है। अब अगर इनके बीच कोई बड़ी बीमारी फैल जाए तो क्या होगा? हिंदुस्तान जैसे देश में आज मुर्गीपालन एक बड़ा संगठित कारोबार हो गया है और अगर बीच-बीच में जिस तरह के संक्रामक रोग पोल्ट्री उद्योग झेलता है वह अगर अधिक भयानक हो गया तो क्या होगा? सूअर और भेड़-बकरियां भी अलग-अलग इलाकों में पाले जाते हैं और इंसान इनके गोश्त का कारोबार के लिए भी इस्तेमाल करते हैं और अपने घर के लिए भी, इनके बारे में भी ऐसी सावधानी की बात तो सोचने की जरूरत है।
लेकिन इन सबसे परे जो सच में घरेलू जानवर माने जाते हैं, और कुत्ते-बिल्लियों को जिस तरह लोग अपने घर में, अपने कमरों के भीतर रखते हैं, उनके बारे में यह सोचने की जरूरत है कि अगर उनके बीच कोई बीमारी फैली और उनसे इंसानों तक बीमारी फैलने का खतरा हो, तो इंसान क्या करेंगे? और क्या ऐसी किसी नौबत के खतरे की तैयारी के हिसाब से लोगों को अब पालतू जानवर रखना कम कर देना चाहिए? हम यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि बहुत से लोगों के लिए यह सवाल भी बहुत तकलीफदेह रहेगा और लोग हैरान होंगे कि कोई ऐसा सोच भी कैसे सकते हैं। लेकिन जब कोरोना से संक्रामक रोग के चलते आज हिंदुस्तान में जगह-जगह यह नौबत आई है कि लोगों ने अपने परिवार के लोगों की लाशों को जलाने और दफनाने से मना कर दिया क्योंकि उन्हें खुद को संक्रमण का खतरा था, और समाज सेवकों या सरकारी कर्मचारियों ने बड़ी संख्या में अंतिम संस्कार किए हैं, जब अपने मां-बाप, अपने भाई-बहन के अंतिम संस्कार, उन्हें आखिरी बार देखने से भी लोग कतराने लगे हैं, तो ऐसे में किसी जानवर से संक्रमण होने पर उस जानवर का क्या किया जाएगा? और दुनिया में आज कोरोना कहां से आया, कैसे फैला, किस पशु-पक्षी से आया, इनमें से किसी बात के पुख्ता सुबूत वैज्ञानिकों को नहीं मिल पाए हैं, ऐसे में यह एक खुला खतरा है कि वायरस कहीं से भी आया हुआ हो सकता है। बहुत से लोगों का यह मानना है कि यह किसी प्रयोगशाला में वैज्ञानिकों का बनाया हुआ वायरस भी हो सकता है जो कि किसी प्रयोग की तरह या किसी हमले की शक्ल में, या दवाओं, चिकित्सा उपकरणों, और वैक्सीन के बाजार को दुहने के लिए फैलाया गया हो। अभी क्योंकि कोरोना वायरस की कुछ भी जानकारी नहीं है कि वह कहां से शुरू हुआ, इसलिए अगले ऐसे किसी खतरे के बारे में सोचना भी मुमकिन नहीं है जो कि कारोबारी या फालतू या घरेलू जानवरों के बीच फैल सकते हैं, फैलाये जा सकते हैं, और वहां से इंसानों के बीच आ सकते हैं। लेकिन कुछ विज्ञान कथाओं को पढक़र लोगों को भविष्य में झांकने का एक मौका मिलता है और आज वर्तमान की तमाम चीजें ऐसी हैं जिनको भूतकाल में किसी न किसी विज्ञान लेखक ने किसी शक्ल में सोचा हुआ था। इसलिए आज यह जरूरी है कि लोग जानवरों से इंसानों में ऐसी बीमारी फैलने के खतरे के बारे में सोचें और यह भी सोचें कि ऐसी नौबत आने पर वह क्या करेंगे?
आज जिन लोगों को पालतू जानवर परिवार के सदस्यों की तरह लगते हैं वह यह भी देख लें कि इंसानी परिवारों के सदस्यों को आखिरी के कई दिन केवल डॉक्टर-नर्स को देखते हुए गुजारने पड़े और उसके बाद सीधे पुलिस के कर्मचारियों ने या समाज सेवकों ने उनका अंतिम संस्कार किया, घरवाले बहुत से मामलों में तो आखरी के कई दिन भी अपने सदस्य को नहीं देख पाए, आखरी बार चेहरा भी नहीं देख पाए, और खुद अंतिम संस्कार भी नहीं कर पाए। ऐसी इंसानी बेबसी के बारे में सोचते हुए लोगों को पालतू जानवरों का भी सोचना चाहिए।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
एक विश्वसनीय अंतरराष्ट्रीय संगठन की लिविंग प्लेनेट-2020 रिपोर्ट में यह कहा गया था कि दुनिया में 68 फीसदी जैव विविधता पिछले महज 50 वर्षों में खत्म हुई है। दुनिया ने ऐसी बर्बादी इतिहास में इसके पहले कभी नहीं देखी थी। जो जैव विविधता खत्म हुई है उसमें से 70 फीसदी, जमीन को खेती के लायक बनाने के चक्कर में हुई है, जहां से दूसरे पेड़-पौधे, वनस्पति, और जीव-जंतु खत्म दिए गए। जंगलों की पेड़ों वाली जमीनों को खेत बनाने के लिए जिस तरह से पेड़ गिराए गए उससे यह नुकसान हुआ है। और इस नुकसान में से 19 लाख वर्ग किलोमीटर जंगली और अविकसित भूमि ऐसी है जिसे वर्ष 2000 के बाद ही खेती की जमीन में तब्दील किया गया है। जैव विविधता को इंसान जिस रफ्तार से खत्म कर रहे हैं वह भयानक है। विश्व वन्य कोष ने लिविंग प्लैनेट-2020 रिपोर्ट में यह लिखा था कि 1970 से 2016 के बीच 68 फीसदी स्तनधारी, जानवर, पंछी, मछलियां, पौधे, और कीड़े मकोड़े खत्म हो चुके हैं। इंसान जिस रफ्तार से कुदरत को खत्म करने पर आमादा है, और उसमें कामयाब भी है, वह अभूतपूर्व है। इसके पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था इस रिपोर्ट में कहा गया है कि धरती का जो हिस्सा बर्फ से लदा हुआ नहीं है, उसके 75 फीसदी हिस्से में तब्दीली लाई जा चुकी है, और अधिकतर समंदर बुरी तरह से प्रदूषित किए जा चुके हैं, धरती की 85 फीसदी से अधिक गीली जमीन खत्म की जा चुकी है। और जिस रफ्तार से इंसान खाने और ईंधन की अपनी जरूरतों को पूरा करने में लगे हैं, उससे कुदरत पर पडऩे वाला तनाव अंधाधुंध बढ़ चुका है।
इस मुद्दे पर लिखना आज इसलिए जरूरी लग रहा है कि मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र से ऐसी खबर है कि वहां के जंगलों में 20-25 साल पुराने पेड़ों में रसायन के ऐसे इंजेक्शन लगाए जा रहे हैं जिनसे उन पेड़ों से मिलने वाले गोंद में बढ़ोत्तरी हो जाए। कुछ नस्लों के पेड़ों में गोंद पैदा होता है और उन इलाकों के आदिवासी उन्हें इक_ा करके, बेचकर कुछ कमाई करते आए हैं। लेकिन परंपरागत आदिवासी समुदाय ने कभी पेड़ों को ऐसा नुकसान नहीं पहुंचाया था, जैसा कि अभी शहरी कारोबारियों के झांसे में आकर वे भी कर रहे हैं। एक रिपोर्ट में अभी यह पता लगा है कि मध्यप्रदेश के जंगलों में एक समय 18 प्रजाति के पेड़ों से गोंद मिलता था जो अब घटकर कुल 7 प्रजाति के पेड़ों तक रह गया है क्योंकि बाकी प्रजातियों में रसायनों के इंजेक्शन लगा-लगा कर उन्हें दुहकर उन्हें खत्म कर दिया गया है और उन पेड़ों से अब कुछ नहीं मिलता।
लोगों को अच्छी तरह मालूम है कि किस तरह डेयरी के जानवरों में, गाय और भैंसों में, हार्मोन के इंजेक्शन लगाकर उनका दूध बढ़ाया जाता है। और इस दूध के चक्कर में गांव-गांव के अनपढ़ मवेशी पालक भी इनका इस्तेमाल सीख लेते हैं, और यह हार्मोन दूध के साथ लोगों के पेट तक भी पहुंच रहा है, उन्हें बर्बाद कर रहा है। मध्यप्रदेश की अभी की रिपोर्ट बताती है कि इस तरह के गोंद से लोगों को किस किस्म का नुकसान पहुंच रहा है क्योंकि रसायनों के इंजेक्शनों से गोंद तो दो-तीन गुना अधिक मिलने लगता है, लेकिन उस गोंद का इस्तेमाल गर्भवती महिलाओं के लड्डू में करने पर वह इसका नुकसान झेलती हैं। खेती में फसलों से लेकर सब्जियों तक लगातार जिस किस्म से कीटनाशकों का उपयोग बढ़ रहा है, फसल बढ़ाने वाली दूसरी दवाइयों का इस्तेमाल बढ़ रहा है, वह अपने आप में भयानक है, और वह पंजाब जैसे राज्य में कुछ इलाकों में कैंसर में कई गुना बढ़ोत्तरी की शक्ल में सामने आ भी चुका है। बहुत सी ऐसी रिपोर्ट आई हैं जिनमें पंजाब के एक इलाके से राजस्थान के किसी कैंसर अस्पताल में जाने वाले मरीजों की भीड़ की वजह से उस ट्रेन को ही कैंसर एक्सप्रेस कहा जाने लगा है।
अगर धरती के और मानव जाति के इतिहास को देखें तो हाल ही में बहुत चर्चा में आई कुछ बड़ी जानकार किताबें बतलाती हैं कि किस तरह पिछले 100 बरस में ही धरती की इतनी अधिक तबाही की गई है जितनी कि उसके पहले के 5-10 लाख बरस में भी नहीं हुई थी। और दुनिया की सरकारें आज इस पर बात भी करना नहीं चाहतीं, खासकर जो सबसे ताकतवर, सबसे विकसित, सबसे संपन्न, और सबसे अधिक भौतिक संसाधनों वाले देश हैं, वह तो इस बारे में बिल्कुल भी बात करना नहीं चाहते। पिछले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने तो पेरिस क्लाइमेट समिट से अमेरिका को बाहर ही कर दिया था। मौजूदा अमेरिकी राष्ट्रपति ने थोड़ा सा नरम रुख दिखाया है लेकिन सवाल यह उठता है कि दुनिया में सामानों की प्रति व्यक्ति खपत में जो अमरीका सबसे अधिक आगे है, क्या उस देश में कोई भी अमेरिकी राष्ट्रपति खपत को घटाकर एक गांधीवादी किफायत की बात भी कर सकता है? कैसी अजीब बात है कि गांधी को गांधी और महात्मा बने हुए अभी कोई सौ-डेढ़ सौ बरस ही हुए हैं। और इन्हीं सौ-डेढ़ सौ बरसों में गांधी की किफायत की, कमखर्च की, सादगी की, और स्थानीय तकनीक, ग्रामीण रोजगार, कुटीर उद्योग जैसी तमाम नसीहतों को अनसुना करके दुनिया जिस रफ्तार से शहरीकरण और चीजों की खपत की तरफ बढ़ी है उसने धरती को इस हद तक तबाह किया है। सच तो यह है कि गांधी ने जब से किफायत की बात शुरू की है उसके बाद की तबाही ही सबसे बड़ी तबाही है, गांधी को अनसुना करना ही तबाही की शुरुआत रही। अभी तक गांधी को सालाना जलसों में तो याद किया जाता है, लेकिन इन सालाना जलसों से परे गांधीवाद की कोई जगह नहीं रह गई है।
सरकारें और समाज, व्यक्ति और परिवार, इनमें से किसी में भी अपनी खपत को कम करने की कोई चाह नहीं है, खपत को कम करने की बात के लिए कोई बर्दाश्त भी नहीं है। लोग ऐसी हड़बड़ी में हैं कि जरा सी कमाई बढ़ाने के लिए वे धरती के उन पेड़ों को खत्म कर दे रहे हैं, जिन पेड़ों ने इंसानों को जिंदा रखा हुआ है। और अमेरिका से लेकर हिंदुस्तान तक, और हिंदुस्तान के प्रदेशों तक, अधिकतर सरकारों का हाल यह है कि उन्हें 5 साल के या 4 साल के अपने कार्यकाल से अधिक की कोई फिक्र नहीं है, उन्हें अगर यह लगता है कि जैव विविधता, धरती, पर्यावरण, या कुदरत की तबाही से अगले चुनाव के पहले कोई फर्क नहीं पडऩे वाला है तो भला उन्हें इसकी फिक्र क्यों करना? दूध का जहर अब पेड़ों तक चले गया, गोंद के साथ वह गर्भवती महिलाओं तक आ रहा है, और जैव विविधता इस रफ्तार से खत्म हो रही है कि वह धरती पर दोबारा लौटने वाली नहीं है। लोगों को अपने बच्चों को तरह-तरह के कीट पतंग भी दिखा देना चाहिए क्योंकि हो सकता है कि उनके बड़े होने तक वे नस्लें खत्म ही हो जाएं और महज तस्वीरों में रह जाएं।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अभी देश के कुछ राज्य चक्रवाती तूफान का सामना कर ही रहे हैं, और जिस वक्त हम यह लिख रहे हैं, उस वक्त भी बंगाल, उड़ीसा जैसी जगहों पर लोगों को बचाने का काम चल रहा है। लेकिन पिछले 2 बरस से तूफानों का सामना करने वाले बंगाल की त्रासदी यह भी है कि उसके इन 2 वर्षों के बजट का 25 फीसदी हिस्सा चक्रवाती तूफानों से हुए नुकसान में निकल गया। ऐसा भी नहीं कि इनका अंदाज लगाकर कोई राज्य इनके लिए पर्याप्त इंतजाम बजट में कर सकता है. बंगाल ने प्राकृतिक विपदाओं के लिए 12 सौ करोड़ से अधिक बजट में रखा भी था, लेकिन 2 वर्षों में इन तूफानों से बंगाल में 58 हजार करोड़ से अधिक का नुकसान हुआ है जो कि बजट प्रावधान के करीब 50 गुना है। अब सवाल यह उठता है कि देश का कौन सा राज्य ऐसा है जो अपने एक चौथाई बजट को ऐसे तूफानों के लिए या ऐसी प्राकृतिक विपदाओं के लिए रख सके? और ऐसे ही मौकों पर यह केंद्र सरकार की जिम्मेदारी आती है कि वह प्राकृतिक विपदा से प्रभावित राज्यों को उबरने में मदद करें। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अभी तूफान प्रभावित गुजरात के हवाई दौरे पर गए भी थे और उन्होंने गुजरात के लिए 1000 करोड़ रुपए मंजूर भी किए थे। इसी वक्त देश के कुछ और प्रदेश भी तूफानों का सामना कर रहे हैं, उसका नुकसान झेल रहे हैं और यह नुकसान इतना बड़ा है कि उसमें अगर केंद्र सरकार से गुजरात की तरह हजार करोड़ रुपए की कोई मदद मिलती भी है, तो भी वह मदद बिल्कुल ही नाकाफी रहेगी।
ना सिर्फ बंगाल और उड़ीसा, बल्कि कुछ और राज्य इस तूफान से प्रभावित हैं, और हर बरस कुछ राज्य बाढ़ से भी प्रभावित होते हैं। उनका नुकसान छोटा नहीं होता है। ऐसे में देश में केंद्र सरकार की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है क्योंकि अकाल, बाढ़, भूकंप, या तूफान, यह सब राष्ट्रीय स्तर की प्राकृतिक आपदाएं हैं, जिन पर किसी राज्य सरकार का कोई बस नहीं चलता और इनसे अगर बड़ा नुकसान होता है, तो किसी राज्य सरकार के हाथ में इतनी ताकत भी नहीं रहती कि वह अपने लोगों की भरपाई कर सकें। ऐसे में केंद्र सरकार को ही अपने बड़े संसाधनों में से ऐसे राज्य सरकारों को नुकसान से उबरने की मदद करनी चाहिए और भारत में या लंबी परंपरा रही भी है। अब आज केंद्र सरकार कोरोना के वैक्सीन को लेकर राज्य सरकारों के साथ जिस तरह का बर्ताव कर रही है उसे देखते हुए प्राकृतिक विपदा में उससे बड़ी मदद की उम्मीद करना पता नहीं सही होगा या नहीं। यह भी जरूरी नहीं है कि आने वाले वर्षों में मोदी सरकार या कोई और केंद्र सरकार राज्यों की मुसीबत के वक्त उनके साथ खड़े रहे। इसलिए जब तक भारत के संघीय ढांचे में केंद्र के ऊपर अधिक निर्भर रहने की गारंटी ना लगे, राज्यों को अपने साधनों को बचा कर रखना चाहिए। ना अकाल पर किसी का बस रहेगा, ना जरूरत से अधिक बारिश में फसल के डूब जाने पर, और ना ही बाढ़ या तूफान पर।
हम राज्यों को पहले भी यह सुझाव देते आये हैं कि उन्हें अपने खर्चे घटाने चाहिए और अधिक किफायत बरतनी चाहिए। अब पश्चिम बंगाल की है ताजा मिसाल सामने हैं कि किस तरह 2 बरस के बजट का एक चौथाई हिस्सा केवल तूफान के नुकसान में निकल गया। बाकी राज्यों को भी यह सोचना चाहिए कि कोई ऐसी प्राकृतिक विपदा आए तो क्या होगा? और प्राकृतिक विपदा की ही बात नहीं है, सेहत की जो मुसीबत आज आई हुई है और कोरोना ने जिस तरह राज्यों की कमर तोड़ी है, तो अभी तो राज्य सरकारें सिर्फ मौतों को रोकने में लगी हुई हैं, लाशों को जलाने के इंतजाम में लगी हुई हैं, वैक्सीन के इंतजाम में लगी हुई है। उनके पास अभी अपने राज्य के बजट में क्या बचा है, क्या डूबा है, यह देखने का समय भी नहीं है। लेकिन बंद कमरों में बैठकर जो फाइनेंस विभाग काम करते हैं, उनकी रातों की नींद हराम हुई होगी कि जब लॉकडाउन से कारोबार बंद है टेक्स आ नहीं रहा है और उसी वक्त इलाज, बचाव और दीगर चीजों पर जितना खर्च हो रहा है, वह आएगा कहां से?
इसलिए लोगों को सबक लेना चाहिए कि राज्य सरकारों के पास जो बजट है उसमें अप्रत्याशित खर्चों के लिए इंतजाम बढ़ाएं। आज कोरोना वायरस है, कल हो सकता है कोई कंप्यूटर वायरस आए, और फिर किसी और किस्म की संक्रामक बीमारी फैले, या फसलों में कोई बीमारी लग जाए, या सूखा पड़ जाए। बहुत किस्म से मुसीबत आ सकती हैं। बंगाल में तो पहले चुनाव की मुसीबत आई, उसके बाद कोरोनावायरस, और उस बीच ही आज तूफान की यह मुसीबत आई है। तमाम राज्य सरकारों को अपने बलबूते मुसीबतों को झेलने की तैयारी के हिसाब से अगला बजट बनाना चाहिए और उसमें शायद एक चौथाई हिस्सा अप्रत्याशित मद में रखना समझदारी होगी।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिंदुस्तान की इन दिनों की खबरों में रामदेव अचानक धूमकेतु की तरह आया और छा गया। पिछले महीनों में कभी-कभी रामदेव के उटपटांग दावे, फर्जी बातें, और अपनी दवाओं के बाजार बढ़ाने की दिखती हुई हरकतें ऐसी थीं, जिन्होंने कई दिनों तक खबरों पर कब्जा करके रखा। लेकिन अब बात उससे आगे बढ़ गई। अब रामदेव ने आयुर्वेद और एलोपैथी के बीच बहस छिड़वा दी है। यह शास्त्रार्थ कुछ अधिक बड़ा हो गया है, और इसमें एलोपैथी डॉक्टरों का देश का सबसे बड़ा संगठन इंडियन मेडिकल एसोसिएशन भी सामने आया है जिसके डॉक्टर आए दिन देश में कहीं ना कहीं कोरोना मरीजों का इलाज करते हुए मारे जा रहे हैं।
खबरें जो कि ऑक्सीजन की कमी, वैक्सीन की कमी, इंजेक्शनों की कमी, तमाम चीजों की कालाबाजारी, दुनिया के छोटे-छोटे कमजोर और गरीब देशों से भारत को आ रही मदद से भरी हुई थीं, और गंगा तट पर रेत में दफनाए गए हजारों लोगों की तस्वीरें दिल दहला रही थीं। ऐसे में खबरों को एक रामदेव ने पूरी तरह अपनी तरफ मोड़ लिया और देश के लोगों के बीच हिंदूवादी, राष्ट्रवादी, भगवावादी लोग आयुर्वेद के रामदेव ब्रांड के साथ एकजुट हो गए हैं। रामदेव की कंपनी का मालिक बालकृष्ण इसे रामदेव की नहीं, बल्कि आयुर्वेद की आलोचना करार देते हुए देश में एलोपैथी के रास्ते ईसाईकरण का आरोप लगाने लगा। तो अब यह एक नया विवाद जुड़ गया है कि क्या एलोपैथी हिंदुस्तानियों को ईसाई बनाने का षडय़ंत्र है? इसके हिसाब से तो एलोपैथी के कैंसर सर्जन प्रवीण तोगडिय़ा को भी विश्व हिंदू परिषद का काम करने के बजाए किसी ईसाई मिशनरी का काम करना था क्योंकि वे तो पेशेवर एलोपैथिक सर्जन रहे, और उन्होंने भी कभी यह आरोप नहीं लगाया कि एलोपैथी लोगों को ईसाई बना रही है। फिर देश के तकरीबन हर बच्चे ने पोलियो ड्रॉप लिए हुए हैं जो कि एलोपैथी के मार्फत बनी हुई वैक्सीन है, और उस हिसाब से तो हिंदुस्तान में कोई हिंदू आबादी बचना ही नहीं था और हर बच्चे को ईसाई हो जाना था, लेकिन वह भी नहीं हुआ। अब सवाल यह है कि खबरों का सैलाब जिन मुद्दों को लेकर चल रहा था उन मुद्दों को एकदम से मटियामेट करते हुए जो नया एजेंडा मीडिया को थमा दिया गया है और टीवी की तमाम बहसों में पर्दे का आधा हिस्सा भगवा हो गया है और बाकी आधे हिस्से में दूसरे डॉक्टर आ गए हैं। हिंदुस्तान की हजारों बरस पहले की आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति आज रामदेव के हाथों में थमा दी गई है, कि मानो रामदेव ने ही पतंजलि के कारखाने में इस चिकित्सा पद्धति का आविष्कार किया है। चिकित्सा पद्धति को धर्म से जोड़ देना धर्म को राष्ट्रीयता से जोड़ देना राष्ट्रीयता को एक रंग दे देना और कुल मिलाकर यह साबित करने का एक सिलसिला चल रहा है कि जो-जो रामदेव को पसंद नहीं कर रहे हैं वह सब गद्दार देश को ईसाई बनाने पर आमादा हैं, वे हिंदुस्तान की संस्कृति, इतिहास, और गौरव का अपमान करने में लगे हुए लोग हैं।
सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने इस बात को लिखा है कि यह सब कुछ बहुत अनायास नहीं हो रहा है, इसे सोच-समझ कर किया जा रहा है और देश के बुनियादी मुद्दों की तरफ से ध्यान को भटकाने के लिए, चर्चा को दूसरी तरफ मोडऩे के लिए किया जा रहा है। अब अगर देखें तो हकीकत में कुछ ऐसा ही होते दिख रहा है, आज देश भर के टीकाकरण केंद्र सूख गए हैं, किसी के लिए कोई टीके बचे नहीं हैं, न सरकारों के पास, न बाजार में, न कारखानों में। और जिन विदेशी वैक्सीन कंपनियों की तरफ केंद्र सरकार ने हिंदुस्तानी प्रदेशों को धकेल दिया है, उन्होंने राज्य सरकारों से सौदा करने से मना कर दिया है। ऐसी भी बात नहीं कि केंद्र सरकार के जानकार अफसरों को पहले से इस बात की जानकारी नहीं थी, लेकिन ग्लोबल टेंडर बुलाकर, कंपनियों से बात करके, इस जानकारी को उन कंपनियों से पाने में राज्य सरकारों का एक-दो महीने का वक्त तो निकल ही गया, जो बात पहले से केंद्र सरकार की फाइलों में दर्ज थी । बात महज वक्त की रहती है, जब लोगों की भावनाएं भडक़ी हुई हैं, लोग उत्तेजित हैं, लोगों के मन में सरकार के खिलाफ आक्रोश है, उस वक्त लोगों को कभी कंगना थमा दिया जाए, तो कभी रामदेव की बूटी से राष्ट्रवाद का आत्मगौरव खड़ा कर दिया जाए, और अब तो सबसे चार कदम आगे बढक़र तथाकथित आचार्य बालकृष्ण ने एक नया आविष्कार किया है कि एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति हिंदुस्तानियों को ईसाई बनाने की साजिश है। अभी इतनी बड़ी साजिश को देखते हुए जो धर्मालु हिंदू लोग हैं, उनको तो इस महामारी के बीच भी एलोपैथी का इस्तेमाल बंद कर देना चाहिए, क्योंकि इससे तो उनका धर्म ही खतरे में पड़ जाएगा। और यह बात भी बड़ी अजीब है कि आजादी के बाद के इन 70-75 वर्षों में यह पहला ही मौका है जब हिंदू इतने अधिक खतरे में हैं। जब ईसाई महिला से शादी करने वाले राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, और ईसाई महिला को बहू मंजूर करने वाली इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं, तब भी देश के हिंदू इतने खतरे में नहीं थे कि तकरीबन पूरी आबादी के ईसाई हो जाने का एक खतरा रहा हो। लेकिन आज तो हालात बहुत भयानक हैं, आज तो देश की पूरी हिंदू आबादी खतरे में हैं क्योंकि पूरी हिंदू आबादी को कोरोना वैक्सीन लगाने की बात की जा रही है, जो कि एलोपैथी ने बनाई है, कोरोना का इलाज जो चल रहा है वह भी एलोपैथी से ही हो रहा है, केंद्र सरकार के तमाम अस्पताल, राज्य सरकारों के सारे अस्पताल केवल एलोपैथी का इस्तेमाल कर रहे हैं। तो बकौल तथाकथित आचार्य बालकृष्ण इस देश और इसके प्रदेशों की सारी सरकारें लोगों के ईसाईकरण की साजिशों में लग गई हैं ! इतने खतरे में तो हिंदू इसके पहले कभी नहीं थे।
आज इस किस्म की जो चर्चाएं खबरों और सोशल मीडिया के ऊपर खूब सारे भगवा पतंजलि गोबर की तरह फ़ैलकर बिखर गई हैं कि नीचे न वैक्सीन की कमी के आंकड़े दिख रहे, न रेत में दबी लाशें दिख रहीं। यह पूरा सिलसिला जनधारणा को बुनियादी मुद्दों से हटाकर पाखंडी मुद्दों की ओर ले जा रहा है, उन्हीं में उलझाकर रख रहा है और उसके अलावा किसी और को बात पर सोचने के लिए लोगों को मजबूर करना इसे बंद ही कर दिया है। अब यह लोगों को सोचना है कि सरकार की हर परेशानी के वक्त पर ऐसे मुद्दे निकलकर क्यों आते हैं? क्यों टूलकिट जैसा मुद्दा आता है? क्यों देश भर में यह संदेश फैलता है कि यह टूलकिट मोदी सरकार के खिलाफ कांग्रेस की बनाई हुई है, या कांग्रेस को बदनाम करने के लिए मोदी सरकार के मंत्रियों की यह साजिश है? हर दो-चार दिन के भीतर कोई ना कोई ऐसा एक मुद्दा आ रहा है जो दो-चार दिन छा रहा है. कल से सोशल मीडियाजीवी लोग दहशत में हैं कि क्या ट्विटर, फेसबुक हिंदुस्तान में बंद हो रहे हैं! अब यह लोगों को सोचना है कि उनकी बुनियादी जरूरत क्या है उन पर कौन से बुनियादी खतरे छाए हुए हैं, यह उन्हें सोचना है।
यह बात तय है कि रामदेव के खड़े किए हुए विवादों की और उसके खड़े किए हुए दावों की जिंदगी आसमान से गिरते धूमकेतु से अधिक नहीं होती। रामदेव के दावे शीघ्रपतन के शिकार रहते हैं, और इसका इलाज वह अपनी तमाम दवाओं से भी नहीं कर पाया है. यह वही आदमी है जो 35 रुपये लीटर में पेट्रोल दिलवाने वाला था, 35 रुपये में डॉलर दिलवाने वाला था, हर खाते में विदेश से लाए गए काले धन से 15 लाख रुपए दिलवाने वाला था, और यह तमाम बातें इसने रजत शर्मा की अदालत में हलफनामे पर कही थी, जिसके वीडियो अभी भी चारों तरफ फैले हुए हैं। तो ऐसा व्यक्ति आज आयुर्वेद को लेकर दावे कर रहा है, ऐसा व्यक्ति बिना किसी भी पद्धति का चिकित्सक रहे हुए हिंदुस्तान की सबसे अधिक प्रचलित, इस्तेमाल में आ रही, और जान बचाने वाली एलोपैथिक पद्धति के ऊपर सवाल खड़े कर रहा है। लोगों को यह सोचना है कि क्या एक पाखंडी कारोबारी अपने दम पर इतना कुछ कर रहा है या इस मौके पर उसकी इस बकवास के पीछे कोई और ताकतें हैं और इस बकवास से वह कुछ लोगों की मदद कर रहा है? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)