संपादकीय
अभी देश के कुछ राज्य चक्रवाती तूफान का सामना कर ही रहे हैं, और जिस वक्त हम यह लिख रहे हैं, उस वक्त भी बंगाल, उड़ीसा जैसी जगहों पर लोगों को बचाने का काम चल रहा है। लेकिन पिछले 2 बरस से तूफानों का सामना करने वाले बंगाल की त्रासदी यह भी है कि उसके इन 2 वर्षों के बजट का 25 फीसदी हिस्सा चक्रवाती तूफानों से हुए नुकसान में निकल गया। ऐसा भी नहीं कि इनका अंदाज लगाकर कोई राज्य इनके लिए पर्याप्त इंतजाम बजट में कर सकता है. बंगाल ने प्राकृतिक विपदाओं के लिए 12 सौ करोड़ से अधिक बजट में रखा भी था, लेकिन 2 वर्षों में इन तूफानों से बंगाल में 58 हजार करोड़ से अधिक का नुकसान हुआ है जो कि बजट प्रावधान के करीब 50 गुना है। अब सवाल यह उठता है कि देश का कौन सा राज्य ऐसा है जो अपने एक चौथाई बजट को ऐसे तूफानों के लिए या ऐसी प्राकृतिक विपदाओं के लिए रख सके? और ऐसे ही मौकों पर यह केंद्र सरकार की जिम्मेदारी आती है कि वह प्राकृतिक विपदा से प्रभावित राज्यों को उबरने में मदद करें। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अभी तूफान प्रभावित गुजरात के हवाई दौरे पर गए भी थे और उन्होंने गुजरात के लिए 1000 करोड़ रुपए मंजूर भी किए थे। इसी वक्त देश के कुछ और प्रदेश भी तूफानों का सामना कर रहे हैं, उसका नुकसान झेल रहे हैं और यह नुकसान इतना बड़ा है कि उसमें अगर केंद्र सरकार से गुजरात की तरह हजार करोड़ रुपए की कोई मदद मिलती भी है, तो भी वह मदद बिल्कुल ही नाकाफी रहेगी।
ना सिर्फ बंगाल और उड़ीसा, बल्कि कुछ और राज्य इस तूफान से प्रभावित हैं, और हर बरस कुछ राज्य बाढ़ से भी प्रभावित होते हैं। उनका नुकसान छोटा नहीं होता है। ऐसे में देश में केंद्र सरकार की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है क्योंकि अकाल, बाढ़, भूकंप, या तूफान, यह सब राष्ट्रीय स्तर की प्राकृतिक आपदाएं हैं, जिन पर किसी राज्य सरकार का कोई बस नहीं चलता और इनसे अगर बड़ा नुकसान होता है, तो किसी राज्य सरकार के हाथ में इतनी ताकत भी नहीं रहती कि वह अपने लोगों की भरपाई कर सकें। ऐसे में केंद्र सरकार को ही अपने बड़े संसाधनों में से ऐसे राज्य सरकारों को नुकसान से उबरने की मदद करनी चाहिए और भारत में या लंबी परंपरा रही भी है। अब आज केंद्र सरकार कोरोना के वैक्सीन को लेकर राज्य सरकारों के साथ जिस तरह का बर्ताव कर रही है उसे देखते हुए प्राकृतिक विपदा में उससे बड़ी मदद की उम्मीद करना पता नहीं सही होगा या नहीं। यह भी जरूरी नहीं है कि आने वाले वर्षों में मोदी सरकार या कोई और केंद्र सरकार राज्यों की मुसीबत के वक्त उनके साथ खड़े रहे। इसलिए जब तक भारत के संघीय ढांचे में केंद्र के ऊपर अधिक निर्भर रहने की गारंटी ना लगे, राज्यों को अपने साधनों को बचा कर रखना चाहिए। ना अकाल पर किसी का बस रहेगा, ना जरूरत से अधिक बारिश में फसल के डूब जाने पर, और ना ही बाढ़ या तूफान पर।
हम राज्यों को पहले भी यह सुझाव देते आये हैं कि उन्हें अपने खर्चे घटाने चाहिए और अधिक किफायत बरतनी चाहिए। अब पश्चिम बंगाल की है ताजा मिसाल सामने हैं कि किस तरह 2 बरस के बजट का एक चौथाई हिस्सा केवल तूफान के नुकसान में निकल गया। बाकी राज्यों को भी यह सोचना चाहिए कि कोई ऐसी प्राकृतिक विपदा आए तो क्या होगा? और प्राकृतिक विपदा की ही बात नहीं है, सेहत की जो मुसीबत आज आई हुई है और कोरोना ने जिस तरह राज्यों की कमर तोड़ी है, तो अभी तो राज्य सरकारें सिर्फ मौतों को रोकने में लगी हुई हैं, लाशों को जलाने के इंतजाम में लगी हुई हैं, वैक्सीन के इंतजाम में लगी हुई है। उनके पास अभी अपने राज्य के बजट में क्या बचा है, क्या डूबा है, यह देखने का समय भी नहीं है। लेकिन बंद कमरों में बैठकर जो फाइनेंस विभाग काम करते हैं, उनकी रातों की नींद हराम हुई होगी कि जब लॉकडाउन से कारोबार बंद है टेक्स आ नहीं रहा है और उसी वक्त इलाज, बचाव और दीगर चीजों पर जितना खर्च हो रहा है, वह आएगा कहां से?
इसलिए लोगों को सबक लेना चाहिए कि राज्य सरकारों के पास जो बजट है उसमें अप्रत्याशित खर्चों के लिए इंतजाम बढ़ाएं। आज कोरोना वायरस है, कल हो सकता है कोई कंप्यूटर वायरस आए, और फिर किसी और किस्म की संक्रामक बीमारी फैले, या फसलों में कोई बीमारी लग जाए, या सूखा पड़ जाए। बहुत किस्म से मुसीबत आ सकती हैं। बंगाल में तो पहले चुनाव की मुसीबत आई, उसके बाद कोरोनावायरस, और उस बीच ही आज तूफान की यह मुसीबत आई है। तमाम राज्य सरकारों को अपने बलबूते मुसीबतों को झेलने की तैयारी के हिसाब से अगला बजट बनाना चाहिए और उसमें शायद एक चौथाई हिस्सा अप्रत्याशित मद में रखना समझदारी होगी।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिंदुस्तान की इन दिनों की खबरों में रामदेव अचानक धूमकेतु की तरह आया और छा गया। पिछले महीनों में कभी-कभी रामदेव के उटपटांग दावे, फर्जी बातें, और अपनी दवाओं के बाजार बढ़ाने की दिखती हुई हरकतें ऐसी थीं, जिन्होंने कई दिनों तक खबरों पर कब्जा करके रखा। लेकिन अब बात उससे आगे बढ़ गई। अब रामदेव ने आयुर्वेद और एलोपैथी के बीच बहस छिड़वा दी है। यह शास्त्रार्थ कुछ अधिक बड़ा हो गया है, और इसमें एलोपैथी डॉक्टरों का देश का सबसे बड़ा संगठन इंडियन मेडिकल एसोसिएशन भी सामने आया है जिसके डॉक्टर आए दिन देश में कहीं ना कहीं कोरोना मरीजों का इलाज करते हुए मारे जा रहे हैं।
खबरें जो कि ऑक्सीजन की कमी, वैक्सीन की कमी, इंजेक्शनों की कमी, तमाम चीजों की कालाबाजारी, दुनिया के छोटे-छोटे कमजोर और गरीब देशों से भारत को आ रही मदद से भरी हुई थीं, और गंगा तट पर रेत में दफनाए गए हजारों लोगों की तस्वीरें दिल दहला रही थीं। ऐसे में खबरों को एक रामदेव ने पूरी तरह अपनी तरफ मोड़ लिया और देश के लोगों के बीच हिंदूवादी, राष्ट्रवादी, भगवावादी लोग आयुर्वेद के रामदेव ब्रांड के साथ एकजुट हो गए हैं। रामदेव की कंपनी का मालिक बालकृष्ण इसे रामदेव की नहीं, बल्कि आयुर्वेद की आलोचना करार देते हुए देश में एलोपैथी के रास्ते ईसाईकरण का आरोप लगाने लगा। तो अब यह एक नया विवाद जुड़ गया है कि क्या एलोपैथी हिंदुस्तानियों को ईसाई बनाने का षडय़ंत्र है? इसके हिसाब से तो एलोपैथी के कैंसर सर्जन प्रवीण तोगडिय़ा को भी विश्व हिंदू परिषद का काम करने के बजाए किसी ईसाई मिशनरी का काम करना था क्योंकि वे तो पेशेवर एलोपैथिक सर्जन रहे, और उन्होंने भी कभी यह आरोप नहीं लगाया कि एलोपैथी लोगों को ईसाई बना रही है। फिर देश के तकरीबन हर बच्चे ने पोलियो ड्रॉप लिए हुए हैं जो कि एलोपैथी के मार्फत बनी हुई वैक्सीन है, और उस हिसाब से तो हिंदुस्तान में कोई हिंदू आबादी बचना ही नहीं था और हर बच्चे को ईसाई हो जाना था, लेकिन वह भी नहीं हुआ। अब सवाल यह है कि खबरों का सैलाब जिन मुद्दों को लेकर चल रहा था उन मुद्दों को एकदम से मटियामेट करते हुए जो नया एजेंडा मीडिया को थमा दिया गया है और टीवी की तमाम बहसों में पर्दे का आधा हिस्सा भगवा हो गया है और बाकी आधे हिस्से में दूसरे डॉक्टर आ गए हैं। हिंदुस्तान की हजारों बरस पहले की आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति आज रामदेव के हाथों में थमा दी गई है, कि मानो रामदेव ने ही पतंजलि के कारखाने में इस चिकित्सा पद्धति का आविष्कार किया है। चिकित्सा पद्धति को धर्म से जोड़ देना धर्म को राष्ट्रीयता से जोड़ देना राष्ट्रीयता को एक रंग दे देना और कुल मिलाकर यह साबित करने का एक सिलसिला चल रहा है कि जो-जो रामदेव को पसंद नहीं कर रहे हैं वह सब गद्दार देश को ईसाई बनाने पर आमादा हैं, वे हिंदुस्तान की संस्कृति, इतिहास, और गौरव का अपमान करने में लगे हुए लोग हैं।
सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने इस बात को लिखा है कि यह सब कुछ बहुत अनायास नहीं हो रहा है, इसे सोच-समझ कर किया जा रहा है और देश के बुनियादी मुद्दों की तरफ से ध्यान को भटकाने के लिए, चर्चा को दूसरी तरफ मोडऩे के लिए किया जा रहा है। अब अगर देखें तो हकीकत में कुछ ऐसा ही होते दिख रहा है, आज देश भर के टीकाकरण केंद्र सूख गए हैं, किसी के लिए कोई टीके बचे नहीं हैं, न सरकारों के पास, न बाजार में, न कारखानों में। और जिन विदेशी वैक्सीन कंपनियों की तरफ केंद्र सरकार ने हिंदुस्तानी प्रदेशों को धकेल दिया है, उन्होंने राज्य सरकारों से सौदा करने से मना कर दिया है। ऐसी भी बात नहीं कि केंद्र सरकार के जानकार अफसरों को पहले से इस बात की जानकारी नहीं थी, लेकिन ग्लोबल टेंडर बुलाकर, कंपनियों से बात करके, इस जानकारी को उन कंपनियों से पाने में राज्य सरकारों का एक-दो महीने का वक्त तो निकल ही गया, जो बात पहले से केंद्र सरकार की फाइलों में दर्ज थी । बात महज वक्त की रहती है, जब लोगों की भावनाएं भडक़ी हुई हैं, लोग उत्तेजित हैं, लोगों के मन में सरकार के खिलाफ आक्रोश है, उस वक्त लोगों को कभी कंगना थमा दिया जाए, तो कभी रामदेव की बूटी से राष्ट्रवाद का आत्मगौरव खड़ा कर दिया जाए, और अब तो सबसे चार कदम आगे बढक़र तथाकथित आचार्य बालकृष्ण ने एक नया आविष्कार किया है कि एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति हिंदुस्तानियों को ईसाई बनाने की साजिश है। अभी इतनी बड़ी साजिश को देखते हुए जो धर्मालु हिंदू लोग हैं, उनको तो इस महामारी के बीच भी एलोपैथी का इस्तेमाल बंद कर देना चाहिए, क्योंकि इससे तो उनका धर्म ही खतरे में पड़ जाएगा। और यह बात भी बड़ी अजीब है कि आजादी के बाद के इन 70-75 वर्षों में यह पहला ही मौका है जब हिंदू इतने अधिक खतरे में हैं। जब ईसाई महिला से शादी करने वाले राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, और ईसाई महिला को बहू मंजूर करने वाली इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं, तब भी देश के हिंदू इतने खतरे में नहीं थे कि तकरीबन पूरी आबादी के ईसाई हो जाने का एक खतरा रहा हो। लेकिन आज तो हालात बहुत भयानक हैं, आज तो देश की पूरी हिंदू आबादी खतरे में हैं क्योंकि पूरी हिंदू आबादी को कोरोना वैक्सीन लगाने की बात की जा रही है, जो कि एलोपैथी ने बनाई है, कोरोना का इलाज जो चल रहा है वह भी एलोपैथी से ही हो रहा है, केंद्र सरकार के तमाम अस्पताल, राज्य सरकारों के सारे अस्पताल केवल एलोपैथी का इस्तेमाल कर रहे हैं। तो बकौल तथाकथित आचार्य बालकृष्ण इस देश और इसके प्रदेशों की सारी सरकारें लोगों के ईसाईकरण की साजिशों में लग गई हैं ! इतने खतरे में तो हिंदू इसके पहले कभी नहीं थे।
आज इस किस्म की जो चर्चाएं खबरों और सोशल मीडिया के ऊपर खूब सारे भगवा पतंजलि गोबर की तरह फ़ैलकर बिखर गई हैं कि नीचे न वैक्सीन की कमी के आंकड़े दिख रहे, न रेत में दबी लाशें दिख रहीं। यह पूरा सिलसिला जनधारणा को बुनियादी मुद्दों से हटाकर पाखंडी मुद्दों की ओर ले जा रहा है, उन्हीं में उलझाकर रख रहा है और उसके अलावा किसी और को बात पर सोचने के लिए लोगों को मजबूर करना इसे बंद ही कर दिया है। अब यह लोगों को सोचना है कि सरकार की हर परेशानी के वक्त पर ऐसे मुद्दे निकलकर क्यों आते हैं? क्यों टूलकिट जैसा मुद्दा आता है? क्यों देश भर में यह संदेश फैलता है कि यह टूलकिट मोदी सरकार के खिलाफ कांग्रेस की बनाई हुई है, या कांग्रेस को बदनाम करने के लिए मोदी सरकार के मंत्रियों की यह साजिश है? हर दो-चार दिन के भीतर कोई ना कोई ऐसा एक मुद्दा आ रहा है जो दो-चार दिन छा रहा है. कल से सोशल मीडियाजीवी लोग दहशत में हैं कि क्या ट्विटर, फेसबुक हिंदुस्तान में बंद हो रहे हैं! अब यह लोगों को सोचना है कि उनकी बुनियादी जरूरत क्या है उन पर कौन से बुनियादी खतरे छाए हुए हैं, यह उन्हें सोचना है।
यह बात तय है कि रामदेव के खड़े किए हुए विवादों की और उसके खड़े किए हुए दावों की जिंदगी आसमान से गिरते धूमकेतु से अधिक नहीं होती। रामदेव के दावे शीघ्रपतन के शिकार रहते हैं, और इसका इलाज वह अपनी तमाम दवाओं से भी नहीं कर पाया है. यह वही आदमी है जो 35 रुपये लीटर में पेट्रोल दिलवाने वाला था, 35 रुपये में डॉलर दिलवाने वाला था, हर खाते में विदेश से लाए गए काले धन से 15 लाख रुपए दिलवाने वाला था, और यह तमाम बातें इसने रजत शर्मा की अदालत में हलफनामे पर कही थी, जिसके वीडियो अभी भी चारों तरफ फैले हुए हैं। तो ऐसा व्यक्ति आज आयुर्वेद को लेकर दावे कर रहा है, ऐसा व्यक्ति बिना किसी भी पद्धति का चिकित्सक रहे हुए हिंदुस्तान की सबसे अधिक प्रचलित, इस्तेमाल में आ रही, और जान बचाने वाली एलोपैथिक पद्धति के ऊपर सवाल खड़े कर रहा है। लोगों को यह सोचना है कि क्या एक पाखंडी कारोबारी अपने दम पर इतना कुछ कर रहा है या इस मौके पर उसकी इस बकवास के पीछे कोई और ताकतें हैं और इस बकवास से वह कुछ लोगों की मदद कर रहा है? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अभी छत्तीसगढ़ में एक आईएएस अफसर ने लॉकडाउन लागू करवाने के दौरान एक बेकसूर राह चलते नौजवान को पीटा और पिटवाया, इसे लेकर जब बवाल बहुत अधिक हुआ तो इस राज्य के आईएएस अफसरों के संगठन ने इस अफसर को समझाईश दी, इसे उसे युवक का तोड़ा गया मोबाइल बदल कर देने और उसके परिवार से बात करने के लिए कहा। लेकिन अफसरों के इस बड़े एसोसिएशन के पास इसके आगे कुछ नहीं था। अपने सदस्य की इस आपराधिक हरकत पर एसोसिएशन चुप रहा, उसने उस आम नौजवान के कानूनी अधिकारों के बारे में कुछ नहीं कहा। और महज एक समझाईश देकर अपनी जिम्मेदारी खत्म कर ली। नतीजा यह निकला कि एक जुर्म अपने सहकर्मियों के एसोसिएशन में एक चुप्पी के रास्ते माफी पा गया। एसोसिएशन ने जुर्म पर चुप्पी ली।
लेकिन यह संगठन ऐसा अकेला संगठन नहीं है। हिंदुस्तान में कोई राजनीतिक दल हो, कोई धार्मिक संगठन हो, किसी जाति का कोई संगठन हो, या किसी भी दूसरे पेशे का कोई संगठन हो, उनका हाल तकरीबन इसी किस्म का रहता है। वे अपने सदस्य को बचाने का काम करते हैं, और उनका मकसद यहीं पर पूरा हो जाता है। व्यापारियों के संगठन अपने मेंबरों के नकली सामान बेचने पर कुछ नहीं कहते, टैक्स चोरी पर कुछ नहीं कहते, मिलावटी सामान बेचने पर कुछ नहीं कहते। पत्रकारों के संगठन अपने बीच के ब्लैकमेलर उजागर हो जाने के बाद भी उनके बारे में कुछ नहीं कहते, मीडिया के कारोबार के बेजा इस्तेमाल के बारे में कुछ नहीं कहते, लेकिन अपने किसी सदस्य के खिलाफ सरकार या किसी मुजरिम की तरफ से कोई कार्यवाही हो जाए, तो वे अपने सदस्य को बचाने के लिए लग जाते हैं। कुछ ऐसा ही काम डॉक्टरों के संगठन करते हैं, ऐसा ही काम नर्सिंग होम एसोसिएशन करता है, और जहां कहीं कोई संगठन या संघ है, उसकी प्राथमिक बुनियादी और अकेली जिम्मेदारी अपने लोगों के हर सही और गलत काम को बचाना रह जाती है। नतीजा यह होता है कि किसी संगठन की कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं रह जाती, पेशे के लिए कोई ईमानदारी नहीं रह जाती, और हर संगठन एक बाहुबली के अंदाज में काम करने लगता है, और आमतौर पर बेइंसाफी का मददगार हो जाता है।
सच तो यह है कि अगर लोग सही काम करें तो उन्हें किसी संगठन की ऐसी जरूरत भी नहीं रहती है। लेकिन जब काम गलत रहते हैं उस वक्त अपने इर्द-गिर्द अपने तबके के लोगों की भीड़ जुटा लेना एक किस्म की आत्मरक्षा है और इसकी बहुत ही खराब मिसालें हिंदुस्तान में जगह-जगह देखने मिलती हैं. जम्मू में एक छोटी सी खानाबदोश बच्ची के साथ एक मंदिर में पुजारी समेत आधा दर्जन से अधिक लोगों ने बार-बार सामूहिक बलात्कार किया, और उस दौरान वह बच्ची मर गई, उसे मार डाला, और जब यह पूरा मामला सबूतों सहित उजागर हो गया, तो जम्मू के हिंदुओं की फौज इन बलात्कारियों को बचाने के लिए तिरंगे झंडे लेकर जुलूस निकालने लगी। उस भीड़ की फिक्र यह थी कि एक गरीब मुस्लिम और खानाबदोश बच्ची के बलात्कार और कत्ल में ऐसा क्या है कि उसमें इतने हिंदुओं को सजा दिलाने की बात की जाए? इस बच्ची की तरफ से जो हिंदू महिला वकील केस लड़ रही थी उसे तरह-तरह से हिंसक धमकियां दी गई, उसके खिलाफ अनर्गल बातें की गई, लेकिन वह डटी रही और पुजारी सहित तमाम बलात्कारियों को सजा हुई। बलात्कारियों के हिंदू होने की वजह से हिंदू एकजुट हो गए, और उन्होंने देश के तिरंगे झंडे की आड़ में बलात्कारियों को बचाने की कोशिश भी की। लोगों को याद होगा कि इन्हीं बलात्कारियों को बचाते हुए उस वक्त के जम्मू-कश्मीर मंत्रिमंडल के एक या दो हिंदू मंत्रियों को भी इस्तीफा देने की नौबत आई थी और वहां पर भाजपा भी इनको बचाने के लिए जुट गई थी।
देश में जगह-जगह ऐसा देखने को मिलता है, कहीं पर जाति के आधार पर, कहीं धर्म के आधार पर मुजरिम को बचाने की कोशिश होती है। मुजरिमों से उनकी जाति और उनके धर्म के लोगों को इतनी मोहब्बत होती है कि बहुत से राजनीतिक दल अपने इलाके में दबदबा रखने वाले मुजरिमों को टिकट देते हैं, चुनाव लड़वाते हैं और संसद या विधानसभा में ले जाते हैं, मानो लाखों वोटरों की उस सीट पर उस पार्टी को कोई एक भी शरीफ ना दिख रहा हो। ऐसा ही काम कर्मचारी संगठन करते हैं जिनके बीच का कोई कामचोर या भ्रष्ट कर्मचारी कभी कोई नोटिस पा जाए, तो उस नोटिस के खिलाफ, सरकार या संस्था के खिलाफ, कर्मचारी संघ झंडा-डंडा लेकर टूट पड़ते हैं। लेकिन क्या किसी ने कोई ऐसा कर्मचारी संघ देखा है जिसने अपने सदस्यों के गलत काम पर उन्हें नोटिस दिया हो कि उनकी संस्था का सदस्य रहते हुए इस तरह का काम बर्दाश्त नहीं किया जाएगा ?
हिंदुस्तान में बहुत से कर्मचारी संघ राजनीतिक दलों से जुड़े हुए हैं, उनकी प्रतिबद्धता और अधिक रहती है और अपनी पार्टी की सरकार रहने पर वह मुंह बंद करके बैठे रहते हैं। सरकार के खिलाफ कुछ नहीं बोलते, ठीक उसी तरह जिस तरह कि वे अपने सदस्य के खिलाफ कुछ नहीं बोलते। अब सवाल यह है कि किसी तबके के लोग अपने तबके के दूसरे लोगों के गलत कामों पर भी अगर मुंह नहीं खोलेंगे, महज उन्हें बचाने का काम करेंगे, तो फिर ऐसे तबकों की कोई इज्जत क्यों की जाए चाहे वे आईएएस अफसरों के संगठन हों, चाहे पत्रकारों के संगठन हों, या फिर डॉक्टरों के संगठन हों ? और तो और कड़वी हकीकत यह है कि इस देश में अपने लोगों के जुर्म को अनदेखा करने वाले संगठनों से मीडिया के लोग भी यह सवाल नहीं करते कि वे इसे अनदेखा कैसे कर सकते हैं? और क्या किसी संगठन की जिम्मेदारी सिर्फ अपने सदस्य को बचाना है या कि अपने सदस्य से देश को भी बचाना है?
आज देश भर में बहुत से संगठन ऐसे हैं जिनके लोग दवाइयों की कालाबाजारी करते अभी पकड़ाए हैं, नकली दवाइयां बनाकर बेचते हुए पकड़ाए हैं, लेकिन उनकी जाति के संगठनों ने, उनके धर्म के संगठनों ने, उनके कारोबार के संगठनों ने, उनके खिलाफ कुछ नहीं किया, बल्कि उन्हें बचाने के लिए आगे आए। ऐसा लगता है कि देश के अधिकतर संगठन समाज के प्रति जवाबदेह संस्था के बजाय एक गिरोह की तरह काम करते हैं जो कि अपने सदस्य के हर गलत काम को हिफाजत देकर अपने अस्तित्व को बचा कर रखते हैं, ताकि बाकी सदस्यों को यह पता रहे कि उनकी मुसीबत के वक्त उनका संगठन सही-गलत को नहीं तौलेगा बल्कि उनके साथ खड़ा रहेगा। यह सिलसिला बहुत ही खराब है और समाज के भीतर न सिर्फ लोगों की व्यक्तिगत जवाबदेही को लेकर सवाल होने चाहिए, बल्कि संस्थाओं और संगठनों की जवाबदेही को लेकर भी सवाल होने चाहिए। वरना एक मुजरिम अकेले जितना ताकतवर हो सकता है, एक संगठन के सदस्य के रूप में वह उससे बहुत अधिक ताकतवर होता है। जिस दिन देश के सबसे बड़े मुजरिमों को धर्म के आधार पर, जाति के आधार पर बचाने का काम होने लगता है, उस दिन इंसाफ के जिंदा रहने की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती क्योंकि संगठनों की ताकत अपने सदस्य मुजरिमों की ताकत के साथ मिलकर किसी को भी कुचलने का बाहुबल रखती हैं, इस सिलसिले के खिलाफ सार्वजनिक चर्चा होनी चाहिए और यह सिलसिला खत्म होना चाहिए।
इस मुद्दे पर लिखने की आज जरूरत इसलिए लग रही है कि पिछले कई हफ़्तों से देश का एक सबसे बड़ा पाखंडी, बाबा कहलाने वाला रामदेव, जिस तरह से देश में विज्ञान के खिलाफ अविश्वास फैलाने में लगा हुआ है, जिस तरह चिकित्सा विज्ञान की आधुनिक पद्धति पर लोगों का विश्वास खत्म करने में लगा हुआ है, और उसके खिलाफ कोई आयुर्वेदिक डॉक्टर कुछ बोलने को तैयार नहीं हैं, जबकि वह आयुर्वेद की साख चौपट कर रहा है। यह रामदेव ना तो आयुर्वेदिक डॉक्टर है, ना आयुर्वेद का ज्ञाता है, वह केवल एक कारोबारी-कारखानेदार है और आयुर्वेद का नाम लेकर, उग्र राष्ट्रवाद भडक़ाकर, देशभक्ति का फतवा देकर, लोगों को खतरे में धकेल रहा है। इस महामारी के बीच में लोगों को महामारी से मरने के लिए तैयार कर रहा है, और उसके खिलाफ न तो कोई योग वाले संगठन कुछ बोल रहे, न आयुर्वेद चिकित्सक उसके खिलाफ कुछ बोल रहे, और न ही वह भाजपा-शासित केंद्र सरकार कुछ बोल रही जिसे इस रामदेव से हर चुनाव के वक्त समर्थन मिलता ही है। ऐसा हिन्दू क्या महामारी एक्ट के तहत जुर्म करने के बाद भी बचाने के लायक है कि वह हिन्दू है? अरे उसके झांसे में बिना वैक्सीन, बिना एलोपैथिक दवाओं के जो लोग मरेंगे, उनमें अधिकतर बचने लायक हिन्दू ही होंगे जो झांसे में मारे जायेंगे। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ के बिलासपुर हाईकोर्ट ने आज राज्य सरकार को एक आदेश दिया है जिसमें आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं द्वारा दायर की गई एक याचिका पर दो महीने के भीतर निपटारा करने कहा है। दरअसल छत्तीसगढ़ की आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को सरकार ने यह निर्देश दिए हैं कि वे अपने मोबाइल पर सरकार के कुछ एप्लीकेशन डाउनलोड करके रखें और उसके मार्फत डाटा भेजें। ऐसा न करने पर उनका मानदेय रोक भी दिया जाएगा। बहुत कम मानदेय पाने वाली आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं और उनकी सहायिकाओं का कहना है कि न तो उनके लिए नया मोबाइल स्मार्टफोन खरीद नामुमकिन है, और न ही इंटरनेट के लिए मोबाइल का रिचार्ज कराना संभव है. उनका यह भी कहना है कि आंगनबाड़ी कार्यकर्ता बहुत दूर-दूर के गांवों में जाकर भी काम करती हैं, जहां पर नेटवर्क की समस्या रहती है। उन्होंने सरकार के इस आदेश को महिला विरोधी और अव्यवहारिक बताया है।
सरकार का यह अकेला आदेश या फैसला ऐसा नहीं है जो कि डिजिटल तकनीक पर जरूरत से अधिक भरोसा करने वाला, और अपने कर्मचारियों, छात्र-छात्राओं, और आम लोगों को डिजिटल तकनीक पर आश्रित करने वाला है। आज जब लॉकडाउन होता है, तो देश के बहुत सारे राज्य एक जिले से दूसरे जिले तक जाने के लिए ई-पास लागू कर रहे हैं, जिसके लिए स्मार्टफोन पर ही आवेदन करना है, अर्जी भेजना है, और स्मार्टफोन पर ही ई-पास आता है जिसे जिले की सरहद पर दिखाना है। अगर किसी को कोरोना हुआ है और उसे घर पर आइसोलेट किया जा रहा है तो उसे स्मार्टफोन के एक एप्लीकेशन पर अपने को रजिस्टर करना है, उसमें दिन में 4 बार अपना तापमान भेजना है, अपनी ऑक्सीजन की रीडिंग भेजनी है, और जब आइसोलेशन और क्वॉरंटीन पूरा होता है तब उन्हें डिजिटल सर्टिफिकेट भी स्मार्ट फोन पर आता है। आज लोगों को छोटे-छोटे से काम के लिए निजी डिजिटल उपकरणों पर निर्भर कर दिया गया है, उनके पास ऐसे उपकरण भी होना चाहिए, और इंटरनेट वाला कनेक्शन भी होना चाहिए। जब किसी प्रदेश में एक महीने तक लगातार लॉकडाउन चल रहा है, तो लोग कहां से ऐसे फोन खरीद सकते हैं, कैसे उन फोन को चार्ज करवा सकते हैं, और कैसे इंटरनेट पैकेज खरीद सकते हैं यह सोचने की बात है? आज तो हालत यह है कि अगर आपके पास स्मार्टफोन और इंटरनेट नहीं है, तो आप कोरोना वैक्सीन की कतार में भी नहीं लग सकते।
परिवारों में अगर एक स्मार्टफोन है, तो घर के कामकाजी व्यक्ति से उसका दफ्तर, या उसका मालिक, उम्मीद करता है कि वह व्हाट्सएप पर भेजे गए हुकुम देखे हैं और मानते चले। घर में अगर एक से अधिक बच्चे पढऩे वाले हैं तो उनकी ऑनलाइन क्लास चलती है, और अब तो ऑनलाइन पढ़ाई के साथ-साथ ऑनलाइन डांट-फटकार भी चलने लगी है। मामूली परिवारों के बच्चे इन सारी तकनीक की कमी से वैसे भी हीनभावना से घिरकर चल रहे हैं, और परिवार के भीतर एक तनाव भी खड़ा हो रहा है कि फोन कब किसके पास रहे। गरीब परिवारों के भीतर भी मोबाइल फोन को लेकर अलग-अलग सदस्यों के बीच एक निजता बनाए रखने की कोशिश होती है लेकिन वह भी फोन के ऐसे पारिवारिक या सामुदायिक इस्तेमाल से खत्म हुई जा रही है। अब विश्वविद्यालयों से लेकर कई परीक्षा बोर्ड तक इस चक्कर में लगे हैं कि कैसे ऑनलाइन परीक्षा ली जाए। जाहिर है कि ऐसे में जिन बच्चों के पास तेज रफ्तार इंटरनेट कनेक्शन नहीं है, जिनके पास खुद का कम्प्यूटर नहीं है, जिनके पास अपने लिखे हुए स्कैन करने की सहूलियत नहीं है, उनका बहुत अधिक समय बर्बाद होगा। और जिनके पास ये सारी सहूलियत हैं, उनका काम बेहतर होगा, जल्दी होगा।
यह एक डिजिटल खाई इस देश में पहले से चले आ रहे संपन्न और विपन्न के बीच, संचित और वंचित के बीच, और बढ़ा दी गई है, स्मार्टफोन वाले लोग स्मार्ट साबित होंगे और जिनके पास स्मार्टफोन नहीं हैं वे शायद भोंदू गिने जाएंगे। जिनके पास तेज रफ्तार इंटरनेट कनेक्शन है वे बेहतर नंबर लाने की अधिक काबिलियत रखेंगे, जैसे कि राजस्थान के कोटा में जाकर दाखिला इम्तिहान की तैयारी करने वाले लोग हो गए हैं। सरकारों ने संक्रमण से बचने के लिए और लॉकडाउन के वक्त का इस्तेमाल करने के लिए पढ़ाई से लेकर जनता के दूसरे कामकाज तक और अपने खुद के अमले के भीतर के कामकाज तक स्मार्टफोन कम्प्यूटर और इंटरनेट का इस्तेमाल तो बढ़ा दिया है, लेकिन आज देश की आधी आबादी के पास न यह सहूलियत है, और न ही वह फटेहाली और भुखमरी के इस दौर में यह नई सहूलियत जुटा सकती।
इसलिए आज सरकार में बैठे हुए बड़े-बड़े अफसर अपने मंत्रियों को यह समझाने में कामयाब हो जाते हैं कि डिजिटल तकनीक ऐसे बहुत से लोगों का भला होगा और उनका वक्त बर्बाद होने से बचेगा, तो जनता से जुड़े हुए मंत्रियों को कम से कम यह भी समझना चाहिए कि इससे आबादी के एक हिस्से का तो वक्त बचेगा, लेकिन आबादी के एक बड़े हिस्से का उससे इतना नुकसान होगा कि वह दूसरों के मुकाबले पिछड़ जाएगा। यह डिजिटल डिवाइड ऐसे देश में एक बड़ी चौड़ी और गहरी खाई पैदा कर रही है और सरकारें जब कभी स्कूल-कॉलेज के बच्चों को, आम लोगों को, और अपने छोटे कर्मचारियों को ऐसी डिजिटल तकनीक पर जाने को मजबूर करते हैं तो उनके पास की सहूलियतों के बारे में भी सोचना चाहिए।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ के एक सरहदी जिले सूरजपुर में कल जब कलेक्टर ने सड़क पर दवा लेने जाते हुए पर्ची सहित मास्क लगाए एक नौजवान को खुद पीटा, उसका फोन उठाकर तोड़ दिया, और अपने पुलिस सिपाहियों से उसे पिटवाया, उसके खिलाफ एफआईआर दर्ज करने को कहा, तो यह एक कलेक्टर की एक बहुत ही स्वाभाविक हरकत थी। हिंदुस्तान में आईएएस अफसर अधिकतर इसी ख़ुशफ़हमी में जीते हैं कि देश में ताकत तीन ही हाथों में होती है, पीएम, सीएम, और डीएम। डीएम यानी डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट। अंग्रेजों के वक्त के ढाले गए इस ओहदे के हाथ में दो अधिकार होते हैं, एक तो मामूली सरकारी अफसर के अघोषित गैरमामूली अधिकार और दूसरे मजिस्ट्रेट के अधिकार। इन दोनों को जब मिलाकर देखा जाए तो अधिकतर अफसर इन जगहों पर रहते हुए नीम पर चढ़े हुए करेले की तरह बर्ताव करते हैं. हालांकि यह बात नीम और करेले दोनों के लिए अपमानजनक है और हम इसे महज एक कहावत या मुहावरे की तरह बेजा इस्तेमाल कर रहे हैं।
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यह तो किसी के मोबाइल फोन के वीडियो कैमरे की मेहरबानी थी कि कई अलग-अलग एंगल से ना सिर्फ इस कलेक्टर को इस बेकसूर नौजवान को पीटते हुए रिकॉर्ड कर लिया गया बल्कि पिटवाते हुए भी रिकॉर्ड किया और उसके खिलाफ एफआईआर दर्ज करने के लिए कहते हुए भी रिकॉर्ड कर लिया। अगर इतने सुबूत नहीं होते तो इस कलेक्टर के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं हो सकती थी। और यह कार्रवाई भी कल से सोशल मीडिया पर इस वीडियो के साथ लगातार चल रही लोगों की प्रतिक्रिया के बाद आज सुबह हुई है, जब यह मामला ठंडा ही होते नहीं दिखा। इस पर देश की आईएएस एसोसिएशन ने कलेक्टर के बर्ताव की भर्त्सना कड़ी भर्त्सना की है, और अफसोस जाहिर किया है। छत्तीसगढ़ के आईएएस एसोसिएशन ने भी इसे गलत बर्ताव बताया है और कलेक्टर से कहा है कि वह अपने निजी खर्चे से इस मोबाइल को सुधरवाए और उस बेकसूर नौजवान के मां-बाप से बात भी करे। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने सुबह-सुबह ही इस घटना पर कड़ी नाराजगी जाहिर करते हुए परिवार से अफ़सोस जाहिर किया, सोशल मीडिया पर ही इस अफसर को हटाने की घोषणा की और मिनटों में ही एक नए अफसर को कलेक्टर बना दिया गया। लेकिन जो नहीं हुआ वह यह कि इस हिंसक कलेक्टर के खिलाफ जुर्म कायम करने, उसे गिरफ्तार करने का हुक्म नहीं हुआ। क्या इस मुल्क का कानून आईएएस पर लागू नहीं होता? इससे कम में कोई इन्साफ नहीं सकता।
अब सवाल यह उठता है कि अफसरों की यह बददिमागी लोकतंत्र में निर्वाचित नेता क्यों और किस हद तक जारी रखते हैं? हम मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों, और बाकी तकरीबन पूरे देश में भी, लंबे समय से देखते आए हैं कि चाहे किसी पार्टी के कोई मुख्यमंत्री रहें, वे राज्य का प्रशासन सीधे कलेक्टरों पर नियंत्रण करके उनके मार्फत चलाते हैं और कलेक्टरी का यह ओहदा मानो नियम-कायदे से पर एक असंवैधानिक सत्ताकेंद्र रहता है. जो लोग कानूनी भाषा समझते हैं वे इस बात को समझेंगे कि इस ओहदे के साथ बहुत से और अलिखित असंवैधानिक अधिकार परंपरागत रूप से जुड़े चले आ रहे हैं जो कि कलेक्टरों को बहुत ही अधिक बददिमाग बना कर रख देते हैं। हमारे पाठकों को याद होगा कि हमने हर कुछ वर्षों में इस मुद्दे पर लिखा है कि इस ओहदे के नाम को बदलने की जरूरत है। कलेक्टर का ओहदा आमतौर पर हिंदी में जिलाधीश या जिलाधिकारी लिखा जाता है और अलग-अलग राज्यों में इसमें थोड़ा बहुत फेरबदल भी होता है। फिर भी अफसरों के बीच इस ओहदे को सबसे महत्वपूर्ण भी माना जाता है और यह माना जाता है कि यह मुख्यमंत्री के एकदम विश्वस्त लोगों को ही हासिल होता है। जब ऐसी नौबत है तो ऐसे लोगों के बर्ताव के लिए मुख्यमंत्री खुद ही सीधे जवाबदेह रहते हैं, जैसा कि आज सुबह भूपेश बघेल ने साबित किया है। लेकिन ऐसे वीडियो बनने के बाद अगर ऐसी कार्रवाई हो सकती है तो ऐसे वीडियो के बिना भला ऐसी कोई कार्यवाही कैसे हो सकती थी और आज जब सोशल मीडिया का एक दबाव सरकार पर बना हुआ है, और मुख्यधारा के मीडिया पर भी बना हुआ है, उस वक्त ही ऐसी कार्रवाई हो पाई है, वरना इसकी गुंजाइश नहीं रहती कि किसी कलेक्टर पर किसी राह चलते की शिकायत पर कोई कार्यवाही हो सके। छत्तीसगढ़ के जिन अखबारनवीसों ने इस हिंसक कलेक्टर से बीती शाम बात की और इसके बारे में जानना चाहा, उन सबसे इस कलेक्टर ने कहा कि वीडियो में वे नहीं हैं, उनका तहसीलदार पीट रहा है, किसी से कुछ कहा, किसी से कुछ। यह तो एक टेक्नोलॉजी है जो लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों को कुछ हद तक जिंदा रहने में मदद कर रही है।
हम फिर अपनी पुरानी सलाह को दुहराना चाहेंगे कि जिलाधीश, कलेक्टर, या जिलाधिकारी पदनाम को बदलकर जिला जनसेवक करना चाहिए, ताकि इस पर बैठे लोगों को रात-दिन उनका असली काम याद रहे, अपनी औक़ात याद रहे। लोकतंत्र में तंत्र को इतना तानाशाह नहीं होने देना चाहिए कि वह जन को कुचलकर रख दे। किसी डीएम ने ही यह बददिमाग बात शुरू की होगी की देश में ताकत तीन ही हाथों में रहती है, पीएम, सीएम, और डीएम !
हिंदुस्तान में कोरोना वैक्सीन बनाने वाली सबसे बड़ी कंपनी सिरम इंस्टीट्यूट आफ इंडिया ने केंद्र सरकार पर सीधे-सीधे यह तोहमत लगाई है कि उसने वैक्सीन की उपलब्धता देखे बिना अधिक आबादी को वैक्सीन लगाने की एकतरफा घोषणा कर दी। सिरम इंस्टीट्यूट के एक वरिष्ठ डायरेक्टर ने सार्वजनिक रूप से यह कहा कि केंद्र सरकार ने ना तो वैक्सीन के स्टॉक के बारे में जाना, न ही विश्व स्वास्थ्य संगठन की गाइडलाइन पर विचार किया, और इसके बिना ही कई आयु वर्ग के लोगों के टीकाकरण की घोषणा कर दी। इस अधिकारी ने स्वास्थ्य से संबंधित एक ऑनलाइन सम्मेलन में यह बात कही और कहा कि शुरुआत में हिंदुस्तान में 30 करोड़ लोगों को टीका लगाना था जिसके लिए 60 करोड़ खुराक की जरूरत थी, लेकिन इस लक्ष्य तक पहुंचने के पहले ही केंद्र सरकार ने पहले 45 साल से ऊपर के लोगों के लिए, और फिर 18 साल से ऊपर के सभी लोगों के लिए टीका लगाने की घोषणा कर दी।
हिंदुस्तान की जमीन पर काम कर रही एक निजी कंपनी की तरफ से अधिकृत रूप से इतनी बड़ी बात कहना केंद्र सरकार पर राज्य सरकारों की तरफ से लगाए जा रहे आरोपों को सही ठहराने वाली बात है। उल्लेखनीय है कि 19 अप्रैल को मोदी सरकार की तरफ से 18 वर्ष से ऊपर के हर किसी को वैक्सीन लगाने की घोषणा की गई थी। साथ ही यह घोषणा भी की गई थी राज्य अपने बूते इन वैक्सीन को खरीदने का काम करेंगे और इसका भुगतान भी करेंगे। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हमने 20 अप्रेल को ही केंद्र सरकार की इस नीति के खिलाफ एक कड़ा संपादकीय लिखा था कि केंद्र सरकार जिस चीज का भुगतान नहीं कर रही है, जिस चीज की सप्लाई को सुनिश्चित नहीं कर रही है, जिसका सारा इंतजाम राज्यों को खुद अपने दम पर करना है, और जो बाजार में उपलब्ध भी नहीं है, उसके लिए 60 करोड़ आबादी को कतर में लगाने का केंद्र को क्या हक़ है? उसके लिए केंद्र सरकार ने जिस तरह से एक साथ 18 से 44 बरस की देश की करीब 60 करोड़ आबादी के लिए टीकाकरण खोल दिया था उससे मचने वाली बदअमनी का कौन जिम्मेदार होगा? हमने कई तरह से इस बात को उठाया था कि केंद्र सरकार को ऐसा करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं था और इस बात को राज्यों के ऊपर ही छोड़ा जाना चाहिए था कि वे धीरे-धीरे किस आयुवर्ग, आयवर्ग, या पेशे के लोगों को प्राथमिकता से टीका लगाने की अपनी क्षमता का इस्तेमाल कर सकते हैं और कितने टीके खरीद सकते हैं, कितने टीके उसे बाजार में मिल सकते हैं। हमने केंद्र सरकार की घोषणा के अगले ही दिन इस बात की आलोचना की थी कि केंद्र सरकार ने राज्यों के अधिकार क्षेत्र में दखल देकर उनके किए जाने वाले इंतजाम के लिए अपनी तरफ से शर्तें तय कर दीं, जब देशभर में इतनी बड़ी आबादी वैक्सीन लगवाने के लिए टीकाकरण केंद्रों पर इक_ा हो जाएगी तो उस दिन बदइंतजामी के लिए कौन जिम्मेदार रहेंगे?
आज सिरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, जो कि हिंदुस्तान में वैक्सीन बनाने वाली सबसे बड़ी कंपनी है, ने देश में वैक्सीन को लेकर मचे हाहाकार के लिए खुलकर केंद्र सरकार को जिम्मेदार बताते हुए तोहमत का घड़ा मोदी सरकार के सिर पर फोड़ा है। और इस बात को समझने के लिए किसी रॉकेट साइंस का जानकार होने की जरूरत नहीं थी हमारे जैसी मामूली समझ रखने वाले लोग भी इस बात को समझ सकते थे कि 18 से 44 बरस की सारी आबादी को एक साथ टीके के लिए कतार में लगा देने के क्या खतरे हो सकते हैं? और यह बात तो हिंदुस्तान के संघीय ढांचे में केंद्र-राज्य संबंधों में बहुत साफ है कि राज्यों के हिस्से के फैसले केंद्र सरकार को नहीं लेना चाहिए। कोरोना बीमारी के संक्रमण को रोकने के लिए केंद्र सरकार ने महामारी एक्ट के तहत राज्यों के ऊपर अपने तमाम फैसले लादे और राज्यों ने बिना किसी विवाद के उन फैसलों को मान भी लिया। लेकिन अब जब टीकाकरण का काम इस महामारी एक्ट से परे, राज्यों को अपने बूते, अपने दम पर, अपने खर्चे से पूरा करना है, तो ऐसी कोई वजह नहीं थी कि मोदी सरकार राज्यों के ऊपर एक बदइंतजामी लादकर उनकी दिक्कत और बदनामी का सामान खड़ा करती। यह मामला कुछ उसी किस्म का था कि राज्यों के घर बारात लगनी थी और राज्यों के इंतजाम के बारे में किसी तरह की जानकारी के बिना, केंद्र सरकार ने अपनी पसंद के 60 करोड़ मेहमानों को न्योता बांट दिया। यही वजह थी कि जब देश में आज कहीं वैक्सीन नहीं बची है, लोगों की नाराजगी अपनी राज्य सरकारों पर बुरी तरह से उतर रही है, एक के बाद एक राज्य सरकारें केंद्र सरकार को जिम्मेदार ठहरा रही हैं, तब सोशल मीडिया पर केंद्र सरकार को लेकर ये लतीफे बन रहे हैं कि अगर मोदी सरकार को भंडारा लगाने का इतना ही शौक था तो पहले रसोई की रसद को तो देख लेते और रसोइए को देख लेते जो कि लंदन जाकर बैठा है।
आज सिरम इंस्टीट्यूट ने जो बात कही है, वह बात उसके कहे बिना भी हमारे जैसे लोगों को पहले से समझ में आ रही थी, और इस देश में एक कारोबारी पर टीके सप्लाई के लिए दबाव इतना बढ़ते चले गया कि उसने फिलहाल हिंदुस्तान छोडक़र लंदन में जाकर रहने का फैसला लिया है। सिरम इंस्टीट्यूट आफ इंडिया के मुखिया अदर पूनावाला ने सार्वजनिक रूप से यह कहा है कि उन पर इतने ताकतवर लोगों के इतने दबाव थे और उनकी जिंदगी को खतरा सरीखा था इसलिए वे देश छोडक़र बाहर आ गए। परिवार सहित कोई कारोबारी देश छोडक़र जा रहा है और उस देश में वैक्सीन बनाने का नया कारखाना शुरू करने की तैयारी कर रहा है, उसकी मुनादी कर रहा है, तो इस बारे में भारत सरकार को यह सोचना चाहिए कि उसने कौन-कौन से गलत काम किए जिसकी वजह से यह नौबत आई। लोगों को अच्छी तरह याद होगा कि जब तक भारत सरकार ने राज्यों को वैक्सीन भेजने की जिम्मेदारी खुद अपने हाथ में रखी थी तब तक कोई बदअमनी नहीं फैली थी और राज्यों ने केंद्र से कोई नाजायज मांग भी नहीं की थी। जिस दिन केंद्र सरकार ने इस सप्लाई से अपना हाथ खींचा और देश के 60 करोड़ लोगों का बोझ रातों-रात राज्यों पर डाल दिया, और इसके साथ है ही वैक्सीन खरीदने, उसका भुगतान करने, मोलभाव करने जैसी तमाम जिम्मेदारियों के काम राज्य सरकारों पर डाल दिए, उस दिन यह समझ पड़ गया था कि केंद्र सरकार ने एक बहुत गलत काम किया है। कल की खबरें बताती हैं कि भारत के जिन राज्यों ने वैक्सीन खरीदने के लिए ग्लोबल टेंडर किये हैं उन्हें मनमाने रेट आ रहे हैं, जो कि वैक्सीन के हिंदुस्तानी बाजार भाव से कई गुना ज्यादा हैं। दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री मनीष सिसोदिया ने मोदी सरकार के बारे में कहा कि उसे देश के लोगों से माफी मांगनी चाहिए कि उसने हिंदुस्तान की राज्य सरकारों को अंतर्राष्ट्रीय बाजार में एक दूसरे के खिलाफ बोली लगाते खड़ा कर दिया है।
जब एक अकेली भारत सरकार दो कंपनियों से मोलभाव करके, आज के बाजार भाव से काफी कम रेट पर वैक्सीन पा रही थी, और राज्य केंद्र सरकार से उसे पाकर अपने लोगों को लगा रहे थे, उस अच्छे-भले चलते हुए इंतजाम से अपना हाथ खींचने के लिए मोदी सरकार ने यह बहुत ही नाजायज काम किया था कि पल भर में उसने जिम्मा तो राज्यों के सिर पर डाल दिया और उसके बारीक फैसले खुद लेकर देश के लोगों के सामने घोषित कर दिए. इस एक अकेले फैसले का नुकसान हिंदुस्तान की जनता कब तक झेलेगी इसका कोई ठिकाना नहीं है, और राज्य मोदी सरकार के इस फैसले का कितना बड़ा दाम चुकाएंगे, इसका भी कोई ठिकाना नहीं है। जिस दिन हिंदुस्तान के किसी भी मुख्यमंत्री ने मोदी सरकार के 18 वर्ष से ऊपर के लोगों को टीकाकरण की एक साथ की गई घोषणा का विरोध नहीं किया था, उस दिन भी हमने इस बात को जोर से लिखा था कि यह फैसला गलत है। और अब उस दिन से लेकर आज तक राज्यों के जिम्मे डाले गए टीकाकरण की जितनी जानकारी सामने आ रही हैं, वे सब बता रही हैं कि इस फैसले ने महामारी से मौतों के बीच देश में टीकाकरण में तबाही खड़ी कर दी है।
19 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बैठक ली और उस बैठक के तुरंत बाद 18 वर्ष से ऊपर के तमाम लोगों के लिए 1 मई से टीकाकरण शुरू करने की घोषणा कर दी गई। अब इस दिलचस्प बात को समझने की जरूरत है कि उस वक्त देशभर में कोरोना मोर्चे पर केंद्र सरकार की नाकामयाबी को लेकर खबरें आना शुरू हो गई थी। दूसरी तरफ बंगाल में इस तारीख के बाद तीन अलग-अलग दिनों के मतदान बाकी थे, 22 अप्रैल 26 अप्रैल और 29 अप्रैल को, 38 फीसदी सीटों पर मतदान होने थे। और मतदान की 18 बरस की उम्र से जोडक़र अगर इसे देखा जाए तो ऐसा लगता है कि नौजवान मतदाताओं के एक बड़े तबके को प्रभावित करने के लिए यह फैसला आनन-फानन घोषित किया गया। इसे आनन-फानन कहना इसलिए ठीक है कि भारत में टीकाकरण पर केंद्र सरकार की बनाई गई सर्वोच्च कमिटी, नेशनल टेक्निकल एडवाइजरी ग्रुप के अध्यक्ष एन के अरोरा ने अभी इकनॉमिक टाईम्स को यह कहा कि उनके ग्रुप ने ऐसी कोई सिफारिश नहीं की थी, और उनकी सिफारिशें केवल 45 वर्ष से ऊपर के लोगों के टीकाकरण की थी। उनका कहना है कि कोरोना की वजह से 45+ उम्र के लोगों को अस्पताल में अधिक भर्ती करना पड़ रहा था और इसी उम्र में सबसे अधिक मौतें भी हो रही थी। उन्होंने कहा कि 45 से नीचे के लोग प्राथमिकता सूची में आते ही नहीं थे। उन्होंने यह भी कहा कि देश में अभी भी टीकाकरण की प्राथमिकता 45 वर्ष से ऊपर के लोग होना चाहिए और उनके ग्रुप ने यही सलाह भी दी थी। इस ग्रुप के करीबी सूत्रों का यह कहना है कि 18 से 44 बरस के आयु वर्ग के लिए टीके खोल देने का फैसला किसी तकनीकी राय पर आधारित नहीं था, बल्कि राजनीतिक था. अब यह समझने की जरूरत है कि जिस 19 अप्रैल के सामने पश्चिम बंगाल के तीन अलग-अलग मतदान दिन खड़े हुए थे उस दिन यह फैसला क्यों घोषित किया गया। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आज हिंदुस्तान एक अभूतपूर्व संकट और खतरे से गुजर रहा है, और केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकारों तक, और स्थानीय संस्थाओं तक को बहुत सी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। कोरोना से बचाव, उसके इलाज, और इलाज कारगर न रहने पर मौत के बाद के इंतजाम के लिए सरकारों की क्षमता खत्म होते दिख रही है। अभी कोई भी सरकार लोगों की जिंदगियां बचाते हुए खर्च की सीमा की बात नहीं कर रही हैं, तमाम सरकारें वैक्सीन खरीदने या इलाज करने के इंतजाम में अपने-आपको झोंककर चल रही हैं। ऐसे में जब देश-प्रदेश की सरकारों का बजट पूरा ही चौपट हो चुका है, और अंधाधुंध खर्च किया जा रहा है, दूसरे मद का पैसा कोरोना के मद में खर्च किया जा रहा है, तब सरकारों को इस खर्च की जवाबदेही का भी एक इंतजाम करना चाहिए। इसके साथ-साथ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अभी कोरोना की कोई तीसरी लहर भी आना बताया जा रहा है, तो अगर ऐसी कोई नौबत आती है, तो आज सरकार के खर्च किए हुए इलाज के ढांचे का इतना रखरखाव और इंतजाम होना चाहिए कि वह आगे भी काम आ सके। आज इस देश और इसके प्रदेशों में यह भी समझ पड़ रहा है कि सरकारों की कमियां क्या हैं और उनकी खामियां क्या हैं। ऐसे में अगर कोई जिम्मेदार और समझदार सरकार रहे तो वह अपने ढांचे के बाहर के विशेषज्ञ जानकार नियुक्त करके इन कमियों और खामियों को दूर करने की कोशिश कर सकती हैं क्योंकि ऐसी कोई गारंटी तो है नहीं कि कोरोना का कोई और हमला नहीं होगा। हिंदुस्तान में आज तकरीबन तमाम राज्य सरकारों को कोरोना के मोर्चे पर ठोकर तो लगी है, लेकिन इस चोट से अगर सबक नहीं लिया जाएगा, तो ऐसे राज्य और इस देश की सरकारें अगली ठोकर के लिए अपने-आपको फिर पेश करती दिखेंगी।
आज देश भर में यह दिख रहा है कि अस्पताल के ढांचे, डॉक्टरों और स्वास्थ्य कर्मचारियों के ढांचे, एंबुलेंस और शव वाहन के ढांचे, श्मशान और कब्रिस्तान के ढांचे में क्या क्या कमी है। यह एक मौका हो सकता है जब बिजली या गैस से चलने वाले श्मशान बनाए जा सकते हैं ताकि अगली बार लाशों की ऐसी कतार लगने पर लोगों को कई-कई दिन उन कतारों पर ना रहना पड़े। इसी तरह दवाइयों का ढांचा, वैक्सीन का ढांचा, ऐसा लचर साबित हुआ कि जीवन रक्षक दवाइयां न सिर्फ ब्लैक हो रही थीं, बल्कि उनको नकली बना-बनाकर भी उनकी कालाबाजारी की जा रही थी। हिंदुस्तान का इतना बड़ा दवा उद्योग और इतना बड़ा वैक्सीन उद्योग भी इसलिए आज वक्त की जरूरत को पूरा नहीं कर पा रहा है कि देश की सरकार ने समय रहते खतरे का अंदाज नहीं लगाया था और उसकी तैयारी नहीं की थी, जबकि दुनिया की तमाम जिम्मेदार सरकारें साल भर पहले से इस तैयारी में लग चुकी थी।
हिंदुस्तान चम्मच से थाली बजाने, शंख बजाने, और दिया-मोमबत्ती जलाने के भरोसे इतनी तसल्ली से बैठा हुआ था कि जब कोरोना लौटकर आया तो मानो उसे कतार लगाकर बैठे हुए लोग मिले और उसे दो शिकारों के बीच दो कदम भी नहीं चलना पड़ा। हिंदुस्तान में महज सरकारों की बात नहीं है, सरकारों से परे भी आम जनता ने यह साबित किया है कि वह कोरोना के दौर के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं है, और बिल्कुल भी जिम्मेदार नहीं है। अब सरकार और समाज मिलकर किस तरह लोगों को सावधान और चौकन्ना कर सकते हैं यह भी एक बहुत बड़ी चुनौती है, क्योंकि ऐसी सावधानी को बाजार में किसी रेट पर खरीदा नहीं जा सकता, इसे लोगों के बीच पैदा करना वेंटिलेटर खरीदने से अधिक मुश्किल काम है। यह साबित हुआ है कि लोगों ने जो लापरवाही दिखाई उसकी वजह से भी कोरोना को इस बार फैलने में मदद मिली और अगली बार फिर कोरोना या किसी दूसरे संक्रमण को फैलने में मदद मिलेगी। हिंदुस्तान और उसके प्रदेशों को ऐसे तीसरे और चौथे दौर के लिए भी तैयार रहना चाहिए और किसी दूसरे किस्म के संक्रमण के लिए भी तैयार रहना चाहिए क्योंकि वायरस का हमला दुनिया के लिए एक बेकाबू हमला साबित हुआ है।
इसके साथ-साथ यह भी देखने की जरूरत है कि ऐसी नौबत अगर अगली बार आएगी तो उसमें लोगों के कामकाज किस तरह से चलाए जा सकते हैं, किस तरह से डॉक्टरी नसीहत को मानते हुए भी लोग रोजी-रोटी चला सकते हैं। आज तो हिंदुस्तान के नेताओं और अफसरों ने यह साबित किया है कि उनकी जमीनी समझ कमजोर हो चुकी है। आज देश भर में कई प्रदेशों में जहां कारोबार को थोड़ा सा शुरू करने की इजाजत मिली है वहां पर बड़े कारोबार को छूट मिल गई है और छोटे कारोबार को बंद रखा गया है। छत्तीसगढ़ में ही तमाम शहरों में बड़े रेस्तरां और बड़े ब्रांड को तो खाना पैक करके बेचने या लोगों के घरों तक पहुंचाने की छूट दी गई है, लेकिन सडक़ किनारे ठेलों पर खाने के सामान बनाने और बेचने वालों को यह छूट नहीं दी गई है कि वे भी अपने सामान पैक कर के बेच सकें। यह समझने की जरूरत है कि बड़े ब्रांड और बड़े-बड़े रेस्तरां के लिए कारोबार जितना जरूरी है, उतना ही फुटपाथ के छोटे कारोबारियों के लिए भी है, दूसरी तरफ यह बात भी है कि बड़े ब्रांड के खरीदने वाले सीमित लोग रहते हैं, और अधिकतर आबादी छोटे फुटपाथी सामान ही खरीद सकती हैं। इस समाज के लिए भी हमको लगता है कि सरकार के बाहर के कुछ लोगों की जरूरत है क्योंकि सरकार ऐसी बारीकियों पर जा नहीं रही है और वह अंधाधुंध प्रतिबंध की अफसरी सलाह पर चलती है जिनकी नजरों में छोटे और गरीब कारोबारियों की कोई अधिक अहमियत नहीं है। किसी भी जगह के निर्वाचित नेताओं को भी ऐसे फर्क को समझना चाहिए क्योंकि वे तो गरीब वोटों की बहुतायत से ही जीत कर आते हैं, फुटपाथ के एक ठेले वाले के घर पर भी 4 वोट होते हैं और एक रेस्त्रां मालिक के घर पर भी 4 वोट ही होते हैं।
कुल मिलाकर हम आज योजना बनाने से लेकर तैयारी तक की बहुत सी बातों के बारे में सरकारों का ध्यान खींचना चाहते हैं कि इस बार जैसी हड़बड़ी मची है और जैसी भगदड़ फैली है, ऐसी नौबत दोबारा ना आए। और आज सरकार का जो अंधाधुंध खर्च हुआ है, उसकी उत्पादकता सुनिश्चित की जाए और उसे लंबे समय तक संभाल कर रखने की तैयारी की जाए। आज पूरी दुनिया में अर्थव्यवस्था कारोबार और रोजगार को लेकर एक नई सोच और नई तैयारी की जरूरत है क्योंकि पिछले एक बरस में गरीब और मंझले लोगों का जो हाल हुआ है, वह दोबारा ना हो यह तमाम सरकारों की जिम्मेदारी है। इसके लिए रोजगार-कारोबार पर बिल्कुल मौलिक और नई सोच से तैयारी की जरूरत है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आज दुनिया के एक सबसे कामयाब और लोकप्रिय लेखक युवाल नोआह हरारी को सुनना भी उतना ही दिलचस्प रहता है, जितना कि उनकी किसी किताब को पढऩा। अभी एक अमेरिकी प्रकाशन फाइनेंशियल टाइम्स को एक ऑनलाइन इंटरव्यू में उन्होंने एक दिलचस्प बात कही कि 2020 के बरस को राजनीति या देशों की सरकारों की नाकामयाबी की शक्ल में देखा जाएगा और वैज्ञानिकों की कामयाबी की शक्ल में। उन्होंने कोरोना के इस दौर से जुड़े हुए बहुत से सवालों के जवाब दिए, लेकिन उसमें जो एक बात हमें यहां पर आगे बढ़ाने लायक लगती है वह यह है कि वैज्ञानिकों ने पिछले एक बरस में निराश नहीं किया है और सरकारों ने निराश ही निराश किया है, कुछ ने कम, कुछ ने अधिक। कुछ ने महज अपनी सरहदों के भीतर निराश किया है तो कुछ ने दुनिया की अपनी सामूहिक जिम्मेदारी से मुंह मोड़ कर निराश किया है।
आज दिक्कत यह हो गई है कि इस नौबत में वैज्ञानिक कामयाबी, सरकारी नाकामयाबी के साथ चलते हुए जब इलाज और टीके लिए हुए लोगों तक पहुंच रही है तो वह एक दूसरे की साख का भुगतान भी कर रही हैं। सरकारों के नेता हैं जो कि वैज्ञानिकों की कामयाबी और उनकी साख को भुनाने में लगे हुए हैं, और कुछ ऐसा माहौल पैदा कर रहे हैं कि मानो टीके बनाने में उनका भी योगदान रहा है। दूसरी तरफ सरकारों ने, और खासकर हिंदुस्तान जैसे देश में सरकारों ने जिस तरह की नाकामयाबी साबित की है, उनकी खराब साख का असर भी वैक्सीन की साख पर पड़ते दिखता है। आमतौर पर वैज्ञानिकों और डॉक्टरों की सलाह पर आंख मूंदकर वैक्सीन या दवा लेने वाले लोग भी आज उनसे बिदक रहे हैं। इन बातों को कहने वाले नेताओं की लोगों के बीच में जो खराब तस्वीर है, वह विज्ञान की विश्वसनीयता के आडे भी आ रही है। यह साल एक बहुत ही अनोखा और अटपटा साल है जब दो बिल्कुल ही अलग-अलग तबकों के लोग एक दूसरे की साख को बढ़ा या घटा रहे हैं। और लोगों का हाल यह है कि वे भारत जैसे लोकतंत्र के बीच इस बात पर भी असमंजस में चल रहे हैं कि आज की उनकी दिक्कतें, आज उनके ऊपर मंडराता हुआ खतरा, केंद्र सरकार का लाया हुआ है या राज्य सरकारों का, और क्या निजी अस्पताल उन्हें अधिक लूट रहे हैं, या सरकारों ने उन्हें सडक़ों पर छोड़ दिया है, खुद इलाज करवाने, मरने, और खुद जलने, या बह जाने के लिए? इसलिए यह एक बहुत ही मिली-जुली साख का बाजार बन गया है, यहां किसी एक की साख से दूसरों की साख जुड़ गई है।
लोगों के बीच चीजों को अलग-अलग करके देखने की क्षमता बड़ी सीमित रहती है। लोग जब किसी सांसद से बात करते हैं तो भी वे उससे उसके इलाके में पडऩे वाले किसी विधानसभा क्षेत्र की छोटी-छोटी दिक्कतों की बात करते हैं, और अगर सांसद से बात करने की अधिक आजादी मिल गई तो वे अपने वार्ड के पार्षद के जिम्मेदारी की बातें भी सांसद से करने लगते हैं कि कहां पर काम ठीक नहीं हो रहा है और कहां पर नाली में कचरा फंसा हुआ है। लोगों के बीच इस बात की बारीक समझ आज खत्म हो गई है कि सांसद और विधायक और पार्षद की जिम्मेदारियां अलग-अलग बंटी हुई रहती हैं, और हर जिम्मेदारी को कहीं न कहीं जाकर रोकना पड़ता है, वरना तो फिर इस देश में राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री ही हर बात के लिए जिम्मेदार ठहराए जा सकते हैं। लेकिन जनता का राजनीतिक शिक्षण सोच समझकर कमजोर किया गया है और हिंदुस्तान जैसे देश में पिछले वर्षों में हमने देखा है कि उसकी लोकतांत्रिक समझ को मानो एक हथोड़ा मार-मारकर टीन के एक डिब्बे की तरह चपटा कर दिया गया है कि वह किसी काम की ना रह जाए। उसकी वैज्ञानिक समझ को पीट-पीटकर चपटा कर दिया गया है कि वह भी कहीं राह का रोड़ा ना बने। नतीजा यह होता है कि बिना लोकतांत्रिक समझ और बिना विज्ञान वैज्ञानिक समझ के लोग बातों का विश्लेषण नहीं कर पाते, और वे किसी रॉकेट के अंतरिक्ष में जाने की वाहवाही किसी नेता को देने लगते हैं, और कोई दूसरे नेता आकर वैक्सीन विकसित करने की वाहवाही खुद अपने सीने पर तमगे की तरह टांग लेते हैं।
जब लोगों की राजनीति की समझ बूझ कमजोर हो जाती है, तो लोकतंत्र इसी तरह कमजोर होता है। लोगों को 5 वर्ष तो दूर 5 बरस पुरानी बातें भी याद नहीं रहती और जब टीवी के स्क्रीन पर झांसा देने की तस्वीरें आती हैं, तो लोगों को यह भी याद नहीं रह जाता कि 5 दिन पहले उन्होंने इससे ठीक अलग कौन सी चीजें देखी थीं। कमजोर याददाश्त झांसा देने के लिए एक सहूलियत की बात रहती है, वरना बैंक के खातों को लेकर आने वाले फर्जी टेलीफोन से लोग आज भी ठगी के शिकार नहीं होते, जबकि वे तकरीबन हर दिन ऐसी ठगी की खबरें पढ़ते हैं। लोगों की याददाश्त बहुत ही कम रहती है, लोगों को यह भी याद नहीं रह गया है कि आज उनके बच्चों को चेचक का खतरा अगर नहीं है तो वह किसी नेता की वजह से कम नहीं हुआ है, वह वैज्ञानिकों के बनाए हुए टीके की वजह से कम हुआ है, अगर आज उनके बच्चों को पोलियो का खतरा नहीं है तो यह किसी सरकार की वजह से कम नहीं हुआ है यह वैज्ञानिकों के बनाए हुए टीके की वजह से कम हुआ है या तकरीबन खत्म हुआ है। और अगर जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर एक बम को गिरा कर लाखों जिंदगियों को खत्म किया गया था, तो उस तकनीक को तो वैज्ञानिकों ने बनाया था लेकिन उसको बम बनाकर उसे इंसानों पर गिराने का फैसला नेताओं का था। इसलिए लोकतंत्र में जब जनता की समझ कम रह जाती है तो वह वैज्ञानिक कामयाबी की वाहवाही सरकार या नेता को दे देते हैं और सरकार की खामी और कमजोरी की नाकामयाबी की तोहमत डॉक्टरों या वैज्ञानिकों को दे देते हैं। ऐसे में समाज के जिम्मेदार तबके की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे जहां कहीं मौका सोशल मीडिया पर या असल जिंदगी में लोगों को सिखाने और समझाने का काम करें, उन्हें हकीकत बताएं।
जिस केरल में सत्तारूढ़ वाम मोर्चे का चुनाव जीतकर वापस आना एक हैरान करने वाली बात थी, क्योंकि वहां 5 बरस बाद सत्ता पलट देने का मिजाज लोगों का रहा है। लोगों का नतीजों को देखकर यह अंदाजा था कि पिछले 1 बरस में वहां की स्वास्थ्य मंत्री शैलजा टीचर ने जिस खूबी और मेहनत के साथ कोरोना के मोर्चे पर इंतजाम किए थे और महामारी से निपटने में जुटी हुई थी, वह एक बड़ी वजह थी कि सत्तारूढ़ गठबंधन जीतकर, लौटकर आया। लेकिन नए मंत्रिमंडल के नाम आए तो लोग यह देखकर हैरान रह गए कि उसी स्वास्थ्य मंत्री शैलजा टीचर का नाम लिस्ट में नहीं था। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने इस मुद्दे से अपना हाथ धो लिया है और अधिकृत बयान जारी किया है कि मंत्रियों के नाम राज्य के पार्टी संगठन ने तय किए हैं, और उसे ही यह अधिकार था। राष्ट्रीय संगठन ने यह साफ कह दिया है कि इस बारे में जो सवाल करने हैं वे प्रदेश संगठन से किए जाएं। इस बयान के रुख से ऐसा लगता है कि सीपीएम का राष्ट्रीय संगठन भी प्रदेश के इस फैसले से इत्तेफाक नहीं रखता है कि दुनिया भर में जिस स्वास्थ्य मंत्री के काम को वाहवाही मिली, उसे महामारी के इस दौर में हटा दिया जाए या कि दोबारा न लिया जाए। दूसरी बात यह कि अगर तमाम मंत्रियों को हटा देने की बात थी, तो फिर मुख्यमंत्री बने क्यों रह गए? इस पैमाने पर तो मुख्यमंत्री को भी बदल दिया जाना चाहिए था। पार्टी ने अपने अखबार में यह लिखा था यह जीत किसी एक व्यक्ति की जीत नहीं है यह व्यक्तिगत और सामूहिक सभी किस्म की मेहनत की मिली जुली जीत है। ऐसा लगता है कि पार्टी के राष्ट्रीय संगठन और उसके केरल के स्थानीय संगठन के बीच तालमेल की कोई कमी है या कोई वैचारिक असहमति है।
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लेकिन सीपीएम के आंतरिक फैसले को लेकर भी उसके मित्र संगठनों के बीच और हमख्याल पार्टियों के बीच एक नाराजगी खड़ी हुई है और आम लोगों के बीच भी एक निराशा पैदा हुई है कि आज 21वीं सदी में आकर भी अगर कोई पार्टी अपनी सरकार में सबसे अच्छा काम करने वाली महिला मंत्री को जारी नहीं रख सकती है, तो वह महिलाओं को क्या बढ़ावा दे सकेगी? और यह बात उस वक्त और बड़ी निराशा की हो जाती है जब मुख्यमंत्री अपने दामाद को मंत्रिमंडल में शामिल करते हैं और सीपीएम के राज्य सचिव अपनी बीवी को। इस किस्म की घरेलू कैबिनेट बनाकर और प्रदेश की एक सबसे काबिल साबित हुई मंत्री को हटाकर केरल की वाममोर्चा सरकार जाने कौन सा पैमाना साबित कर रही है। हमें केरल की अंदरूनी राजनीति से अधिक लेना-देना नहीं है, और न ही सीपीएम अपना घर कैसे चलाता है इससे हमें कोई फर्क पड़ता, लेकिन आज देश के सामने कोरोना के लेकर जो चुनौती है, उसके बीच में अगर किसी एक महिला मंत्री ने लाजवाब काम किया था, तो उसे हटाकर मुख्यमंत्री या वहां का सत्तारूढ़ संगठन एक अहंकार साबित कर रहा है, और एक ऐसे पैमाने को थोपने की कोशिश कर रहा है जो सिवाय एक बड़ी बेइंसाफी के और कुछ नहीं है। अगर केरल में मंत्रिमंडल के लिए कोई पैमाना बनना था तो पहला पैमाना तो यही बनना था कि वहां के बड़े नेताओं के घरों के लोग कैबिनेट में ना लिए जाएं।
यह चर्चा करते हुए छत्तीसगढ़ का पिछला लोकसभा चुनाव याद पड़ता है। विधानसभा चुनाव में जब छत्तीसगढ़ में भाजपा मटियामेट हो गई थी, और सत्तारूढ़ पार्टी के 15 बरस के बाद वह 15 सीटों पर सिमट गई थी, तब उस वक्त के भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने भरी नाराजगी के साथ एक पैमाना तय किया था कि छत्तीसगढ़ की 11 लोकसभा सीटों में से किसी पर भी किसी पुराने व्यक्ति को दोबारा खड़ा नहीं किया जाएगा, न पहले के जीते हुए को, न पहले के हारे हुए को, और न ही किसी भी नेता के रिश्तेदार को टिकट दी जाएगी। और इसका नतीजा यह निकला था कि 11 में से 9 सीटें भाजपा ने जीती थी। तो पैमाने तो इस तरह के होते हैं, ना कि इस तरह के कि प्रदेश की सबसे काबिल मंत्री को निकाल दिया जाए, और दो रिश्तेदारों को मंत्री बना दिया जाए। केरल का यह मुद्दा है तो सीपीएम के अपने घर का मामला, लेकिन वामपंथियों के साथ एक बात है कि वे अपने साथी संगठनों के घरेलू मामलों पर भी सार्वजनिक रूप से अपनी राय रखते हैं। सीपीआईएमएल के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य और सीपीआईएमएल की पोलित ब्यूरो मेंबर कविता कृष्णन ने केरल के इस फैसले पर असहमति और हैरानी दोनों जाहिर की हैं, और सार्वजनिक रूप से इस पर लिखा है।
यह भी याद रखने की जरूरत है कि पश्चिम बंगाल के चुनावी नतीजों में जब वाममोर्चा बंगाल के नक्शे से ही साफ हो गया, उस वक्त भी नतीजों के बाद दीपंकर और कविता कृष्णन ने बयान जारी करके बंगाल के चुनाव की स्थितियों का खुलासा किया था और यह लिखा था कि बहुत से प्रगतिशील संगठनों ने वहां पर मतदाताओं का यह आव्हान किया था कि जो कोई भी भाजपा को हराने की हालत में है उसे वोट देकर जिताएं। यह मामला वामपंथी पार्टियों का एक दूसरे के साथ साथ ना देने जैसा था, लेकिन वामपंथी विचारधारा के व्यापक हित में सीपीआईएमएल ने बंगाल में यह किया और उसने वहां के वाममोर्चा की बाकी पार्टियों की एक किस्म से आलोचना भी की। बंगाल में पूरी तरह खत्म हो जाने के बाद भी जो वाममोर्चा केरल की सत्ता में दोबारा जीत कर आया है उसकी ऐसी मनमानी बहुत निराश करने वाली है, और यह भारत की राजनीति में महिला के हक को मारने वाली भी है। एक सबसे काबिल महिला को इस महामारी के बीच में भी उसके काम से हटाकर मुख्यमंत्री ने या कि पार्टी संगठन ने एक बददिमागी दिखाई है। सीपीएम को यह समझ लेना चाहिए कि आज उसके पास सिर्फ एक ही राज्य की सत्ता में भागीदारी बची है, और नेता, या विचारधारा या संगठन का ऐसा अहंकार उसे यहां से भी खत्म कर देगा तो कोई हैरानी नहीं होगी। सीपीएम के राज्य संगठन की नजरों में शैलजा टीचर का कोई महत्व हो या ना हो, पूरी-पूरी दुनिया में उनके काम के महत्व को सराहा गया है, और सीपीएम अपनी बददिमागी के चलते एक नुकसान झेलेगी।
करोना वैसे तो एक वायरस है, लेकिन यह भारत में कई चीजों को परखने के लिए एक बड़ी कसौटी की तरह भी सामने आया है, और इनमें से एक बात है केंद्र और राज्य के संबंध। बहुत से मामलों में केंद्र और राज्य के संबंध कोरोना ऐसे एक बार फिर चर्चा में आ रहे हैं और उनकी बारीकियों पर लोग बात कर रहे हैं। अभी जब यह खबर आई कि सिंगापुर में कोरोना का एक कोई नया वेरिएंट आ गया है और वहां की स्कूलों को उसकी वजह से बंद किया जा रहा है, तो दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने ट्वीट करके कहा कि 'सिंगापुर में आया कोरोना का नया रूप बच्चों के लिए बेहद ख़तरनाक बताया जा रहा है, भारत में ये तीसरी लहर के रूप में आ सकता है। सिंगापुर से हिंदुस्तान की हवाई सेवा बंद कर देनी चाहिए', इस बात को लेकर भारत के विदेश मंत्री केजरीवाल पर भड़क गए हैं और भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने यह कहा कि सिंगापुर सरकार ने वहां पर भारतीय उच्चायुक्त को बुलाकर दिल्ली के मुख्यमंत्री के ट्वीट पर नाराजगी जाहिर की है। भारतीय विदेश मंत्रालय ने कहा है कि उन्होंने सिंगापुर सरकार को बताया कि अरविंद केजरीवाल कोरोना के वेरिएंट और सिविल एविएशन नीति पर बोलने का अधिकार नहीं रखते। यह बात विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने ट्विटर पर सार्वजनिक रूप से लिखी और सिंगापुर सरकार को अपनी कही हुई बात भी लिखी। प्रवक्ता के ट्वीट को विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भी रीट्वीट किया यानी वे भी इस बात से सहमत हैं. उन्होंने यह भी लिखा कि सिंगापुर और भारत कोरोना के खिलाफ लड़ाई में मजबूत साझेदार हैं और कोरोना के भारत को सामान की आवाजाही में मदद मिल रही है और सिंगापुर में अपने फौजी विमान भी भारत भेजे हैं जिससे पता चलता है कि हमारे संबंध कितने खास हैं। जयशंकर ने यह भी लिखा है कि गैर जिम्मेदार बयान देने वालों को पता होना चाहिए कि उनकी इस तरह की टिप्पणी से लंबे समय की साझेदारी वाली दोस्ती को नुकसान पहुंच सकता है। उन्होंने कहा कि वे यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि दिल्ली के मुख्यमंत्री का बयान भारत का बयान नहीं है।
आज कोरोना ने ही यह नौबत ला दी है कि भारत में केंद्र और राज्य के संबंध इस तरह से सोशल मीडिया पर खुलासे कर रहे हैं और विदेश मंत्रालय का एक प्रवक्ता भारत के एक निर्वाचित मुख्यमंत्री की इस तरह से खुली आलोचना कर रहा है। यह आलोचना उसी सरकार का प्रवक्ता कर रहा है जिस सरकार ने अभी कुछ हफ्ते पहले प्रधानमंत्री के साथ एक बैठक में केजरीवाल द्वारा प्रोटोकॉल तोड़ने की तोहमत लगाते हुए उनकी जमकर आलोचना की थी. सरकारों के बीच के प्रोटोकॉल में यह बात भी शामिल है कि एक निर्वाचित प्रतिनिधि के खिलाफ किसी सरकार का एक अफसर या प्रवक्ता इस तरह का कोई बयान ना दे।
अब हम मुद्दे की बात पर आएं क्योंकि प्रोटोकॉल तो दूसरे दर्जे की बात है, और उसे निभाना या न निभाना लोगों की अपनी सभ्यता, या शिष्टाचार की उनकी समझ पर भी निर्भर करता है। आज बात जरूरी यह है कि देश की राजधानी का मुख्यमंत्री इस तरह का कोई बयान देने का अधिकार रखता है, या नहीं रखता है? यह बात बहुत साफ है कि विदेशों से आने वाले लोगों से हिंदुस्तान में कोरोना की मार उन शहरों या प्रदेशों पर अधिक हुई जहां पर अंतरराष्ट्रीय उड़ानें आती हैं। दिल्ली में कोरोना की हालत पर केंद्र सरकार की सत्तारूढ़ पार्टी और केंद्र सरकार के मंत्री लगातार केजरीवाल सरकार पर हमले करते हैं। कांग्रेस पार्टी भी केजरीवाल पर कोरोना की बदइंतजामी की तोहमत लगाती है। ऐसे में क्या एक राज्य के मुख्यमंत्री को अपने राज्य को किसी देश से आने वाले खतरे के बारे में चर्चा करने का अधिकार भी नहीं है? केजरीवाल ने सिंगापुर के साथ संबंध तोड़ने की बात नहीं कही है, केजरीवाल ने महज सिंगापुर से उड़ानों का आना रोकने के लिए कहा है, जो कि किसी भी एक राज्य के मुख्यमंत्री का अपना अधिकार है। इस बात को सिंगापुर के खिलाफ मानकर और एक मित्र राष्ट्र से संबंध खराब होने का खतरा मानकर जिस तरह से केंद्र सरकार का विदेश मंत्रालय केजरीवाल पर झपटा है वह पूरी तरह नाजायज बात है। आज पूरी दुनिया के देश जिन देशों से आने वाले लोगों को लेकर उन्हें खतरा लगता है, उनकी उड़ानें रोक रहे हैं. खुद हिंदुस्तान से आज बहुत से देशों देशों के लिए उड़ानें नहीं जा सकतीं। ऐसे में अगर भारत का एक निर्वाचित मुख्यमंत्री केंद्र सरकार से यह मांग कर रहा है तो यह मांग पूरी तरह से घरेलू मांग है, और उसे सार्वजनिक रूप से भी इस बात को कहने का हक है। केजरीवाल ने यह बात सिंगापुर सरकार से नहीं कही है कि यह विदेश नीति में दखल मानी जाए. यह बात एक राज्य ने केंद्र सरकार से कही है जिसे कि उसका पूरा हक है।
इसके पहले भी तमिलनाडु के बहुत से मुख्यमंत्री श्रीलंका के तमिलों को लेकर भारत सरकार से कई किस्मों की पहल करने की मांग करते रहे हैं जो कि इसके मुकाबले कई गुना अधिक गंभीर दखल थी, लेकिन भारत के किसी राज्य को केंद्र सरकार के सामने अपनी सोच रखने का हक है। कश्मीर और पंजाब के कितने ही मुख्यमंत्री समय-समय पर भारत सरकार से पाकिस्तान को लेकर तरह-तरह की बात रखते आए हैं। आज केंद्र में जिस एनडीए की सरकार है, उसी एनडीए की सरकार जब कश्मीर में भी थी, तब उस सरकार की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने कई बार पाकिस्तान से बातचीत करने की सलाह भारत सरकार को दी थी । वह तो सीधे-सीधे भारत सरकार की विदेश नीति को लेकर एक सलाह थी वह तो किसी महामारी के खतरे को घटाने के लिए नहीं थी। आज तो केजरीवाल की यह राय महामारी के खतरे को देखते हुए है. दिल्ली आज हिंदुस्तान में सबसे खतरनाक जगह बनी हुई है, ऐसे में अगर केजरीवाल ने एक बहुत जायज सी वजह से यह मांग की है तो भारत सरकार को इतनी समझ होनी चाहिए कि वह सिंगापुर को यह समझा सके कि भारत के संघीय ढांचे में अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग विचारधाराओं की सरकारें हैं, और वहां के मुख्यमंत्रियों को, वहां की निर्वाचित सरकारों को, अपनी-अपनी राय सामने रखने का अधिकार है, लेकिन उस पर अंतिम फैसला लेने और विदेश नीति के हिसाब से देश की प्रतिरक्षा नीति के हिसाब से कुछ तय करने का अधिकार भारत सरकार को ही है। यह पूरी तरह से भारत का एक घरेलू मामला है और सिंगापुर भी इस बात को अच्छी तरह जानता है कि भारत का एक प्रदेश किसी देश से आने वाली उड़ानों को नहीं रोक सकता। ऐसे में उसकी प्रतिक्रिया भी भारत सरकार से बंद कमरे की प्रतिक्रिया होनी चाहिए थी और उस बात को खुद भारत सरकार का विदेश मंत्रालय जिस तरह खुलासे के साथ, जिस अंदाज़ में लोगों के सामने रख रहा है, और सरकार का एक नौकरीपेशा प्रवक्ता एक निर्वाचित मुख्यमंत्री के लिए अपमानजनक बात कह रहा है, वह अधिक खराब बात है।
हमारा मानना है कि केजरीवाल को अपने प्रदेश को महामारी से बचाने के लिए ऐसी राय अपने देश की सरकार को देने का पूरा हक है। अगर केजरीवाल ने यह बात सिंगापुर को लिखी होती तो उस पर कोई आपत्ति हो सकती थी। केंद्र में सत्तारूढ़ गठबंधन का अगर केजरीवाल सरकार से कोई राजनीतिक हिसाब चुकता करना है, तो वह विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता के मार्फत नहीं होना चाहिए, सिंगापुर के रास्ते नहीं होना चाहिए। भारत की सत्तारूढ़ भाजपा ही केजरीवाल की मांग का जवाब दे सकती थी। केंद्र सरकार के विदेश मंत्रालय का ऐसा रुख भारत की मौजूदा केंद्र सरकार के मन में राज्यों के लिए हिकारत का एक सुबूत है। किसी भी जिम्मेदार केंद्र सरकार को इससे बचना चाहिए।
-सुनील कुमार
आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने भी सिवाय इसके कोई चारा नहीं रह गया है कि वे देश में कोरोना के भयानक खतरे को मंजूर करें। उन्होंने आज गांव तक कोरोना वायरस पहुँचने पर फिक्र जाहिर करते हुए कलेक्टरों का नाम लिया है कि वही इसे रोक सकते हैं। भारत की प्रशासनिक व्यवस्था में जिलों की सारी कमान कलेक्टरों के हाथ में देने का रिवाज अंग्रेजों के वक्त से चले आ रहा है, और वहीं पर सारे अधिकार केंद्रित रहते हैं, इसलिए मोदी ने अगर ऐसा कहा है तो उसमें हैरानी की कोई बात नहीं है। लेकिन सवाल यह है कि क्या कलेक्टर देश की आम जनता के बीच में छाए हुए अंधविश्वास को अपने दम पर खत्म कर सकते हैं, या उसमें प्रधानमंत्री से लेकर उनके केंद्रीय मंत्रियों तक, उनके मुख्यमंत्रियों और उनके सांसदों-विधायकों तक को हाथ नहीं बंटाना चाहिए ? यह बात करना जरूरी इसलिए लग रहा है कि एक तरफ तो प्रधानमंत्री यह मान रहे हैं कि गांवों तक कोरोना के फैलने का खतरा बहुत बड़ा है, और वह सामने खड़ा भी है। और ऐसे में उनकी पार्टी की नाथूराम गोडसेप्रेमी सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर सार्वजनिक मंच और माइक पर बोल रही हैं कि उन्हें कोरोना नहीं होने वाला क्योंकि वह हर दिन गोमूत्र पीती हैं। उनकी पार्टी के बहुत से लोग इस तरह के बयान देते आए हैं और सार्वजनिक रूप से गोमूत्र पीने का प्रदर्शन भी करते आए हैं। उनकी पार्टी के बड़े-बड़े पदों पर बैठे हुए लोग लगातार ऐसी बातें कहते आए हैं कि गाय ऑक्सीजन छोड़ती है। नरेंद्र मोदी जिस गुजरात के मुख्यमंत्री थे, और जहां आज भी उनकी पार्टी की सरकार चल रही है, वहां पर कोरोना मरीजों के इलाज के लिए गोबर और गोमूत्र से एक हॉस्पिटल चल रहा है, जहां की डरावनी तस्वीरें सामने आ रही हैं, और लोगों के जत्थे एक साथ अपने बदन पर गोबर पोत रहे हैं और शायद गोमूत्र पी भी रहे हैं। इसे कोरोना का पर्याप्त है इलाज मान लिया गया है। आज जब हिंदुस्तान ब्लैक फंगस नाम की एक अलग ही भयानक बीमारी का शिकार हो रहा है, उस वक्त फंगल इन्फेक्शन का खतरा बढ़ाने वाली यह गोबर चिकित्सा बाकी समाज के लिए भी जानलेवा साबित हो सकती है।
इससे परे उनके केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री से लेकर केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री तक लगातार रामदेव की फर्जी दावों वाली दवाइयों के मॉडल बने घूम रहे हैं। अभी जब कल प्रतिरक्षा मंत्रालय के तहत डीआरडीओ ने कोरोना के मरीजों के लिए एक वैज्ञानिक दवाई पेश की, तो उस मौके पर प्रतिरक्षा मंत्री के अलावा स्वास्थ्य मंत्री की मौजूदगी ने उस दवाई की साख को घटा दिया, क्योंकि यही स्वास्थ्य मंत्री फर्जी दावों वाली रामदेवीय दवाइयों को भी इसी तरह मंच पर पेश करते आए हैं। बेहतर यही होता कि इसे प्रतिरक्षा मंत्रालय के मातहत संस्थान के वैज्ञानिकों की मौजूदगी में पेश किया जाता ताकि जनता के बीच इसका कोई भरोसा भी बैठता। अभी कल ही एक खबर आई है कि किस तरह केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री रमेश पोखरियाल ने अपने चुनाव क्षेत्र के लोगों के बीच रामदेव की तथाकथित कोरोना दवा बांटने के लिए पतंजलि से अपील की है, और लोगों से कहा है कि वे जो दवा ले रहे हैं, उसके साथ-साथ इसे भी लें। जब भारत के चिकित्सा वैज्ञानिक रामदेव की दवाई का कोई परीक्षण नहीं कर पा रहे, कोई जांच नहीं कर पा रहे, तो उस वक्त इस ब्रांड को इस तरह सर्वोच्च स्तर पर बढ़ावा देने का क्या मतलब है?
आज हिंदुस्तान में जिस तरह गोबर और गोमूत्र से कोरोना के इलाज के दावे किए जा रहे हैं और उसके लिए कैंप या अस्पताल बनाकर लोगों की जिंदगी को वहां खतरे में डाला जा रहा है, क्या ऐसे लोगों पर महामारी एक्ट लागू नहीं होता कि वे पूरी की पूरी आबादी को कोरोना के बाद खतरे में डाल रहे हैं। भारत की पारंपरिक चिकित्सा पद्धति कहकर किसी भी बात को गैरवैज्ञानिक तरीके से इस महामारी के दौर में इस तरह से बढ़ावा देना न केवल उन कमअक्ल लोगों की जिंदगी को खतरे में डालना है जो इस झांसे में आ रहे हैं बल्कि बाकी तमाम लोगों की जिंदगी को भी खतरे में डालना है जिनके बीच में यह लोग लौटेंगे और जिन्हें मौत की तरफ धकेल लेंगे। हमारा ख्याल है कि बिना राजनीतिक प्रतिबद्धता की फिक्र किए हुए प्रधानमंत्री के स्तर से ही इस देश में वैज्ञानिक बातें करने की जरूरत है। यह जरूरत इसलिए भी है कि उनकी पार्टी के बड़े-बड़े नेता अवैज्ञानिक बातें कर रहे हैं तो ऐसे में उनके स्तर से वैज्ञानिक बातें करने के अलावा और दूसरी बातों का कोई असर होते दिखता नहीं है। आज इस देश में कोरोना के लिए या आने वाली किसी भी और महामारी से बचाव के लिए लोगों के बीच एक वैज्ञानिक समझ विकसित करने की जरूरत है, वरना प्रधानमंत्री के स्तर से मुख्यमंत्रियों से चाहे जितने बार वीडियो पर बात कर ली जाए, चाहे जितने बार जिलों के कलेक्टरों से बात कर ली जाए उसका कोई फायदा नहीं होना है।
जब देश में हिंदू धर्म, हिंदू संस्कृति, भारतीय चिकित्सा पद्धति, प्राकृतिक चिकित्सा और आयुर्वेदिक चिकित्सा का नाम लेकर तमाम किस्म की फर्जी बातें प्रचलित की जा रही हैं, और आज की वैज्ञानिक जरूरत के खिलाफ लोगों को भडक़ाया जा रहा है, लोगों को उकसाया जा रहा है, तो उस वक्त महामारी एक्ट के तहत ऐसी बकवास करने वाले तमाम लोगों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही करने की जरूरत है और अगर राजनीतिक दलों की प्रतिबद्धता के चलते हुए ऐसा नहीं किया जा रहा है, तो कुछ राज्य जहां पर ऐसी प्रतिबद्धता से जुड़ी हुई सरकारें नहीं है वे राज्य अपने स्तर पर भी कार्रवाई कर सकते हैं क्योंकि महामारी एक्ट के तहत ऐसी कार्यवाही करना उनका अधिकार ही नहीं है उनकी जिम्मेदारी भी है। आज जब कोरोना के फैलाव को रोकने की सारी जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डाल दी गई है, और देश भर में फैलाए गए अंधविश्वास के चलते बहुत से लोग टीके लगवाने से भी कतरा रहे हैं, ऐसे में अंधविश्वास फैलाने वालों के खिलाफ महामारी एक्ट के तहत कड़ी कार्यवाही की जानी चाहिए। अब गाय खुद तो उसे लेकर किये जा रहे फर्जी दावों के खिलाफ केस कर नहीं सकती। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आज हिंदुस्तान में कोरोना के खतरे को लेकर केंद्र सरकार की जितने किस्म की आलोचना हो रही है उसमें एक बात ऐसी भी जुड़ गई है जिसका कोरोना वायरस से कोई लेना-देना नहीं है। दिल्ली में 22 हजार करोड़ से जो नया संसद भवन, नया प्रधानमंत्री निवास, और कुछ नए दफ्तरों का परिसर, सेंट्रल विस्ता नाम से बनाया जा रहा है, उसे लोग गैर जरूरी भी मान रहे हैं और यह भी मान रहे हैं कि कई ऐतिहासिक पुरानी इमारतों को तोडक़र इसे बनाना नाजायज है। लेकिन जैसा कि लोकतंत्र में हर आलोचना और विरोध की एक सीमा है, विरोध करने वाले लोग सुप्रीम कोर्ट तक जाकर जनहित याचिका हार चुके हैं और देश की सबसे बड़ी अदालत ने यह आखिरी फैसला दिया है कि सरकार को ऐसा करने का हक है और वह उसे नहीं रोक सकती। सरकार को हक तो बहुत किस्म का रहता है लेकिन लोकतंत्र हकों के साथ-साथ जिम्मेदारियों का भी नाम रहता है, इसलिए आज जब केंद्र सरकार कोरोना के टीकों का खर्च खुद उठाने के बजाय उसे राज्य सरकारों पर डाल रही है तो लोगों के मन में यह बात आ रही है कि 22 हजार करोड़ की फिजूलखर्ची करते हुए यह सरकार किस मुंह से राज्यों को खर्च उठाने के लिए कह रही है, जो पिछले एक बरस से लॉकडाउन और कोरोना की वजह से वैसे ही बदहाली से गुजर रहे हैं। दूसरी बात यह भी चल रही है कि जब दुनिया भर के देशों से भारत सरकार मदद की उम्मीद कर रही है, और दर्जनों देशों से आ रही मदद को मंजूर भी कर रही है, तो ऐसे वक्त क्या उसे यह शोभा देता है कि वह इतनी बड़ी रकम एक ऐसे काम पर खर्च करे जिसके बिना 70 बरस से देश चल रहा था, और संसद की जिस इमारत के अगले 75 वर्ष तक न बिगडऩे की तकनीकी उम्मीद जताई जा रही थी।
इसी सिलसिले में छत्तीसगढ़ सरकार ने नया रायपुर नाम की राज्य की राजधानी में मुख्यमंत्री निवास और नए विधानसभा भवन जैसे कई निर्माण कार्य रोक दिए हैं और शायद 1000 करोड़ रुपए की लागत के काम फिलहाल टाल दिए हैं। यह करना ठीक इसलिए भी रहा कि कोरोना और लॉकडाउन के नुकसान की भरपाई कब तक हो सकेगी, किस कीमत पर हो सकेगी, कब तक लोगों की जिंदगी की रफ्तार पटरी पर लौट सकेगी, आज इनमें से किसी बात का कोई ठिकाना नहीं है। सरकार की टैक्स वसूली भी खतरे में है और आम जनता की जिंदगी तो बहुत ही तकलीफ देह हो ही चुकी है। ऐसे में नेताओं को और बड़े लोगों को कोई भी फिजूलखर्ची नहीं करनी चाहिए, और जो विधानसभा आज छत्तीसगढ़ में 20 बरस से बिना किसी दिक्कत के चल रही है, उसे सैकड़ों करोड़ की लागत से नई बनाने का भी कोई मतलब ऐसे माहौल में नहीं है, जब लोगों के पास खाने को नहीं बच रहा है, और मुफ्त के राशन से वे जिंदा हैं।
हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि पिछले एक-डेढ़ बरस में ही हमने लगातार इस बारे में लिखा है कि सरकारों को इस दौर में बहुत ही किफायत बरतनी चाहिए क्योंकि मौजूदा मुसीबत कब तक जारी रहेगी और देश को, प्रदेश को किस बदहाली में ले जाकर छोड़ेगी, इसका कोई ठिकाना नहीं है। इसके अलावा भी हर देश-प्रदेश को इस बात के लिए तैयार रहना चाहिए कि कई किस्म की प्राकृतिक एवं मानव निर्मित विपदा उसके सामने आ सकती हैं और उससे उबर पाना हर बार आसान या मुमकिन नहीं रहेगा।
अविभाजित मध्यप्रदेश के समय की बात अगर लोगों को याद हो तो भोपाल में यूनियन कार्बाइड कारखाने से जहरीली गैस लीक हुई थी जिसमें हजारों लोग मारे गए थे और लाखों लोगों की सेहत उनकी बाकी पूरी जिंदगी के लिए बर्बाद हो गई थी वे जिंदा लाश की तरह रह गए थे। वह पूरा का पूरा खर्च आर्थिक रूप से भी प्रदेश या केंद्र सरकार के ऊपर बहुत भारी पड़ा था, और जो सरकारें कर्ज लेकर अपना बजट बनाती हैं, वह जाहिर हैं कि ऐसी किसी मुसीबत के लिए तैयार भी नहीं रहतीं। अभी कुछ बरस पहले उत्तराखंड में जिस तरह से बाढ़ आई और जिस तरह से केदारनाथ जैसे बड़े तीर्थ स्थानों से लेकर हरिद्वार तक के कई हिस्से बर्बाद हुए, हजारों लोगों से अधिक की मौत हुई, और सरकारी और निजी संपत्ति सबकी बहुत तबाही हुई, तो क्या वे राज्य या केंद्र सरकार ऐसी किसी नौबत के लिए तैयार थे? कर्ज लेकर घी पीना बहुत समझदारी की बात नहीं है, ना सिर्फ सरकारों के लिए, बल्कि निजी कारोबारियों के लिए भी, और निजी परिवारों के लिए भी। कर्ज लेकर फिजूलखर्ची बर्बाद करके छोड़ती है। आज हमारा ख्याल है कि एक डेढ़ बरस से अभी जारी मुसीबत पूरे देश को, खासकर उसके मजदूर तबके को, उसके मध्यमवर्ग को, तबाही की कगार पर ले जाकर छोड़ रही है। ऐसे में केंद्र और राज्य सरकारों को तमाम फिजूलखर्ची छोडक़र सिर्फ यह देखना चाहिए कि अपनी पूरी आर्थिक क्षमता से वे अपने मजदूरों और मध्यम वर्ग के लोगों के जिंदा रहने का जरिया किस तरह जुटा कर दे सकती हैं।
दुनिया के अलग-अलग देशों ने अपनी अर्थव्यवस्था के मुताबिक व्यापार को भी मदद की है, उद्योगों को भी मदद की है, और मजदूरों को तो सीधी मदद की है। लेकिन फिर भी जो असंगठित क्षेत्र के निजी क्षेत्र के नौकरीपेशा लोग हैं, वे हिंदुस्तान में करोड़ों की संख्या में नौकरी खो बैठे हैं, और उन्हें कोई दूसरी नौकरी मिलने के जल्द आसार भी नहीं दिखते। ऐसे में सरकारों को ऐसी तरकीबें सोचना चाहिए कि अर्थव्यवस्था, कारोबार, और उद्योग धंधे फिर से चल सकें ताकि वहां पर काम कर रहे लोग फिर नौकरी पा सकें या मजदूरी कर सकें। ऐसे माहौल में जब दुनिया भर से मदद पाकर हिंदुस्तान अपने मरते हुए लोगों को ऑक्सीजन दे पा रहा है, इंजेक्शन और दवा दे पा रहा है, ऐसे माहौल में सरकार का अपने ऊपर खर्च करना अपने शौक के लिए खर्च करना अपनी अधिक सहूलियतों के लिए खर्च करना एक आपराधिक गैरजिम्मेदारी के अलावा कुछ नहीं गिना जाएगा। केंद्र सरकार से लेकर स्थानीय म्युनिसिपलों तक तमाम लोगों को खर्च को रोकना चाहिए और इस रकम को उत्पादक इस्तेमाल के लिए बचा कर रखना चाहिए।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पश्चिम बंगाल में चुनाव के पहले से सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस और सत्ता पर आने की महत्वाकांक्षी भाजपा के बीच हिंसक टकराव चल रहे थे। दस बरस से मुख्यमंत्री चली आ रहीं ममता बनर्जी सरकार के खिलाफ जनता के बीच स्वाभाविक रूप से पनपने वाले असंतोष की शिकार भी हो सकती थीं, और सत्ता से बाहर जा सकती थीं, और ऐसी ही उम्मीद में भाजपा ने वहां पर सरकार बनाने के दावे भी किए थे। इन दावों के बीच वहां चुनाव के पहले से लगातार जो हिंसा चल रही थी वह चुनाव के बाद भी जारी रही। अब इस हिंसा के लिए कौन सा राजनीतिक दल कितना जिम्मेदार था, राज्य की सरकार कितनी जिम्मेदार थी, उस वक्त चुनाव आचार संहिता लागू थी, और राज्य का सारा प्रशासन चुनाव आयोग के हाथों में था, इसलिए यह एक धुंधली तस्वीर है कि उस वक्त हालात काबू में करने में कौन नाकामयाब रहे, और कौन सी पार्टी कितनी हिंसक रही। राज्यपाल ने जाहिर तौर पर ममता बनर्जी की सरकार की खासी आलोचना की और भाजपा पर हुए लोगों के हमले पर फिक्र जाहिर की। वे केंद्र सरकार के नुमाइंदे हैं और उन्होंने अपनी जिम्मेदारी पूरी की। एक असामान्य बात मतगणना के बाद इस हिंसा के सिलसिले में यह हुई कि कोलकाता हाईकोर्ट ने खुद होकर हिंसा की सुनवाई शुरू की और पहले ही दिन से एक संविधान पीठ इसके लिए गठित कर दी। उसके सामने राज्य सरकार ने जब अपनी रिपोर्ट पेश की तो उसके बाद अदालत ने उसमें और कुछ करने जैसा शायद नहीं पाया है। लेकिन आज इस मुद्दे पर लिखने की एक जरूरत इसलिए हो रही है कि केंद्र सरकार ने यह तय किया है कि पश्चिम बंगाल के सभी 77 भाजपा विधायकों को केंद्रीय पैरामिलिट्री द्वारा सुरक्षा दी जाएगी। इन सबके साथ सीआईएसएफ की कमांडो यूनिट लगाई जाएगी और इस फैसले से यह जाहिर होता है कि राज्य के भाजपा विधायकों से कहीं अधिक केंद्र की भाजपा अगुवाई वाली मोदी सरकार का अविश्वास पश्चिम बंगाल सरकार पर है कि वह भाजपा विधायकों की सुरक्षा या तो कर नहीं पाएगी या उसकी ऐसी नीयत नहीं है। यह नौबत इस मायने में खराब है कि यह केंद्र और एक राज्य के संबंध में तनातनी का एक नया स्तर बताती है। आमतौर पर ऐसा कहीं भी देखा नहीं गया है कि केंद्र सरकार किसी एक राज्य की किसी एक पार्टी के सारे विधायकों को केंद्रीय सुरक्षा बल की सुरक्षा देना तय करे। शायद यह भारत के केंद्र-राज्य संबंधों में पहली ऐसी घटना है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के आलोचक इस मुद्दे को केंद्र और राज्य की तनातनी का एक बहुत बुरा पतन बतला रहे हैं और उनका मानना है कि केंद्र सरकार को कुछ और पहल करनी चाहिए थी, राज्य के ऊपर इतना अधिक अविश्वास ठीक नहीं है और भारत जैसे संघीय ढांचे में केंद्र और राज्य के संबंध इतने खराब होना ठीक नहीं है और जैसा कि किन्हीं भी दो पक्षों के बीच होता है, संबंधों में सुधार की अधिक जिम्मेदारी बड़े की होती है, जो कि इस मामले में केंद्र सरकार की होनी चाहिए थी। लेकिन एक दूसरा सवाल यह उठता है कि बंगाल में अगर लगातार हिंसा चल रही थी जिसमें भाजपा के लोगों पर अधिक हमले हुए उनकी अधिक मौतें हुई तो ऐसी नौबत में इन निर्वाचित विधायकों या दूसरे भाजपा नेताओं की सुरक्षा अधिक जरूरी है। फिर अगर राज्य सरकार पर केंद्र का भरोसा नहीं रह गया है तो केंद्र को यह अधिकार है कि वह ऐसे नेताओं की हिफाजत करवाएं। यह एक अलग बात है कि आगे इससे कई किस्म के टकराव की नौबत का खतरा बने रहेगा। लेकिन हम संबंधों में किसी टकराव के चलते हुए लोगों की जिंदगी खतरे में डालने के खिलाफ हैं, और जिस तरह भी हो सके लोगों की हिफाजत करनी चाहिए, और संबंधों में सुधार के लिए तो बंद कमरों में बाद में भी बातचीत हो सकती है। जो लोग मोदी के आलोचक हैं, और जिन्हें लग रहा है कि ममता सरकार के हक कुचले जा रहे हैं, उनकी याददाश्त को थोड़ा सा ताजा करना बेहतर होगा। जब ममता बनर्जी केंद्र में एनडीए सरकार के तहत प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की रेल मंत्री थी तो उस पूरे दौर में जब भी बंगाल आती थीं, वे वाममोर्चा सरकार की पुलिस की हिफाजत नहीं लेती थीं, और वे आरपीएफ के जवानों के घेरे में चलती थी। रेलवे प्रोटेक्शन फोर्स को पूरे देश में काम करने का एक विशेष अधिकार इसलिए दिया गया है कि रेलवे संपत्ति की चोरी या लूट होने पर उसके लिए राज्य कि पुलिस पर निर्भर रहने की जरूरत ना हो और आरपीएफ खुद भी जाकर कार्रवाई कर सके। पूरे देश में यही एक फ़ोर्स ऐसी है जो किसी भी राज्य में किसी भी जगह जाकर कार्रवाई कर सकती है और इसलिए ममता बनर्जी ने वाममोर्चा सरकार के राज्य में भी इसी फोर्स की हिफाजत पर भरोसा किया था. जबकि यह फ़ोर्स संपत्ति की सुरक्षा के लिए बनी थी और इसे वीआईपी सुरक्षा की कोई ट्रेनिंग नहीं थी। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती है इस बारे में जरा सी और तलाश की जाए तो बड़ी दिलचस्प खबरें निकलती हैं।
जब वाममोर्चा के 33 वर्षों की सरकार को हराकर ममता बनर्जी मुख्यमंत्री बनी थीं, तो उन्होंने एक असाधारण फैसला लिया था। उन्होंने अपनी यानी मुख्यमंत्री की सारी सुरक्षा व्यवस्था रेल मंत्री के दिनों की तरह आरपीएफ के ही हवाले रखी और यह बंगाल पुलिस की एक बहुत बड़ी बेइज्जती हुई थी कि उसकी अपनी मुख्यमंत्री अपनी हिफाजत के लिए उस पर भरोसा नहीं कर रही है. यह फैसला भी असाधारण था, देश के किसी मुख्यमंत्री ने ऐसा कभी नहीं किया था। ममता बनर्जी ने अपने कार्यकाल के 103 दिन के बाद जाकर आरपीएफ को वापस भेजा था और राज्य की पुलिस को मुख्यमंत्री की हिफाजत का जिम्मा लौटाया था। यह सिलसिला बहुत खराब था और यह एक मुख्यमंत्री का अपनी ही पुलिस पर अविश्वास का एक असाधारण सुबूत था। इसमें कहीं भी केंद्र और राज्य संबंधों की तनातनी नहीं थी, इसमें राज्य के मुख्यमंत्री और उसकी अपनी पुलिस के बीच की तनातनी थी. उस वक्त कुछ लोगों का यह भी कहना था कि 103 दिन के बाद ममता बनर्जी ने अनमने ढंग से आरपीएफ को लौटाया था क्योंकि आरपीएफ ने उन्हें लंबा चौड़ा बिल दे दिया था।
अब सवाल यह उठता है कि बंगाल में ऐसी तनातनी की एक परंपरा ममता बनर्जी ने ही शुरू की, मुख्यमंत्री बनने के बाद भी उन्होंने अपनी पुलिस पर भरोसा नहीं किया, इसलिए आज जब केंद्र सरकार भाजपा के विधायकों की हिफाजत को लेकर बंगाल की पुलिस पर भरोसा नहीं कर रही है तो ममता बनर्जी केंद्र राज्य संबंधों का कोई बड़ा हवाला देने का नैतिक अधिकार भी नहीं रखतीं। लेकिन एक दूसरा बड़ा सवाल जो यहां खड़ा होता है वह यह है कि चुनाव निकल जाने के बाद अगले 5 बरस तक इस राज्य में केंद्र और राज्य दोनों सरकारों की जरूरत है, राज्य इन दोनों की ही जिम्मेदारी है, और ऐसी तनातनी से इस राज्य का सबसे बड़ा नुकसान होगा। यह केंद्र के लिए भी अशोभनीय नौबत है कि एक राज्य के साथ उसके संबंध इतने खराब हो गए हैं कि बातचीत के भी संबंध नहीं बचे. अभी यह बात साफ नहीं है कि केंद्र सरकार ने भाजपा विधायकों की हिफाजत को लेकर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से कोई चर्चा की थी या नहीं, या उसने खुद ही यह तय कर लिया कि उसके विधायकों की सुरक्षा केंद्रीय सुरक्षा बल करेंगे। जो भी हो यह नौबत इस नाते खराब है कि आज भी भारत में न्यायपालिका भी है, और राज्यपाल नाम की संस्था भी है जो कि केंद्र सरकार के अधीन काम करती है। पश्चिम बंगाल में राज्यपाल पर्याप्त सक्रिय हैं, ममता के पर्याप्त आलोचक हैं, और वे भाजपा विधायकों के पर्याप्त हमदर्द भी हैं। इन सबके रहते हुए केंद्र सरकार का सुरक्षा का यह एकतरफा फैसला दिल्ली के बंगाल से रिश्तों के खराब होने का एक बिल्कुल ही नया स्तर है, जो कि निराशा की बात है। अब इसके बाद केंद्र और बंगाल की तनातनी, मोदी-शाह और ममता की तनातनी और किस निचले स्तर पर जा सकती है? इसके बाद क्या दिल्ली पश्चिम बंगाल में अपना राजदूत तैनात करेगी?(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिंदुस्तान में लोगों की सोच धर्म और जाति के दायरे में कैद रहती है। अधिकतर लोगों से बात करें तो धर्म और जाति के उनके पूर्वाग्रह, उनकी सोच और उनकी बातचीत पर, उनके फैसलों पर हावी रहते हैं। कहीं भी बैठकर लोग बातें करते रहते हैं तो अगर उस भीड़ में मौजूद किसी के हुलिए और उसके नाम से उसके धर्म, या खासकर उसकी जाति, का अंदाज ना लगे तो बहुत से लोग बड़ी असुविधा महसूस करते हैं कि उसे किस जाति का मान कर बात की जाए। और बातचीत इससे भी तय होती है कि वहां मौजूद लोगों में किन जातियों के लोग हैं और किन जातियों के लोग नहीं हैं। इसके अलावा धर्म तो है ही, कि अगर किसी धर्म के लोग मौजूद हैं, तो ही उसके खिलाफ ना बोला जाए और अगर किसी धर्म के लोग नहीं हैं तो उस धर्म की बुराइयां याद करके या गढक़र चर्चा में लाई जाए। ऐसे में अभी एक बड़ा दिलचस्प मामला सामने आया है। पहली पहली नजर में तो ऐसा लगा कि मानो किसी ने कुछ गलत जानकारियां जोड़-घटा कर व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी की एक पोस्ट तैयार की है, लेकिन फिर एक-एक नाम को परखा गया तो यह समझ आया कि यह तो बहुत ही दुर्लभ केस मामला है।
हिंदुस्तान में आज जिस वैक्सीन की सबसे अधिक मांग है, और जो सबसे अधिक चर्चा है, उस वैक्सीन को बनाने वाले के नाम की चर्चा तो कुछ अधिक ही हो चुकी है और लोगों को यह मालूम है कि कोवीशील्ड नाम की वैक्सीन बनाने वाली सिरम इंस्टीट्यूट नाम की कंपनी का मालिक एक पारसी नौजवान अदर पूनावाला है। अब इस वैक्सीन के लिए एक खास किस्म के कांच की शीशी भी लगती है और इस शीशी को बनाने वाली कंपनी का मालिक एक और पारसी है, ऋषभ दादाचानजी। पूनावाला भी पारसी और दादाचानजी भी पारसी। अब इसके बाद इन वैक्सीन का ट्रांसपोर्ट करने के लिए जो खास ट्रकें बनाई गई जो कि एक फ्रिज की तरह वैक्सीन को बहुत ही कम टेंपरेचर पर लेकर एक शहर से दूसरे शहर जा सकें वे ट्रकें देश और दुनिया के सबसे मशहूर पारसी, टाटा की बनाई हुई हैं। इन्हें कोल्ड स्टोरेज की तरह का बना कर टाटा ने आनन-फानन देश में उतार दिया। अब यह देखें कि वैक्सीन एक बार पहुंच गईं तो उन्हें कैसे और कहां रखा जाए, तो इसकी तैयारी इस देश में एक और मशहूर पारसी परिवार, गोदरेज की कंपनी गोदरेज अप्लायंसेज के बनाए हुए मेडिकल फ्रीजर वैक्सीन रखने के काम आ रहे हैं। अब बात यहीं पर खत्म नहीं होती है, इन वैक्सीन को सूखी बर्फ के जिन बक्सों में रखा जाता है वे बक्से किसने बनाएं? ये बक्से एक और पारसी फारुख दादाभाई की कंपनी के बनाए हुए हैं। और फिर इन वैक्सीन को कारखाने से लेकर अलग-अलग शहरों तक कौन सी कंपनी मुफ्त में लेकर जा रही है, यह अगर देखें तो गो एयर नाम की कंपनी एक और पारसी की कंपनी है, इसके मालिक वाडिया ने वैक्सीन के मुफ्त ट्रांसपोर्टेशन का काम शुरू किया और जारी रखा है। अब पारसियों में बहुत से लोग अपना नाम मराठी लोगों की तरह शहर के नाम पर रख लेते हैं जैसे अदर पूनावाला। इसी तरह पारसियों में बहुत से लोग अपना नाम अपने पेशे के साथ जोड़ लेते हैं जैसे जरीवाला, बैटरीवाला, बॉटलीवाला, दारूवाला या कोई और काम वाला। पारसियों के सरनेम का मजाक करने वाले, एक सरनेम अपनी कल्पना से बनाकर बीच-बीच में लिखते थे सोडावाटरबॉटलओपनरवाला। लेकिन अगर देखें कि पेशे के हिसाब से सरनेम बनाना है तो अभी जितने सरनेम हमने गिनाए हैं जो कि वैक्सीन बनाने से लेकर पहुंचाने और रखने तक का काम कर रहे हैं, उनकी आने वाली पीढिय़ां अपना सरनेम वैक्सीनवाला भी रख सकती हैं।
यह तो हो गई एक अच्छी बात लेकिन धर्म और जाति को लेकर चर्चा करें तो जरूरी नहीं है कि तमाम चर्चाएं अच्छी बातों के इर्द-गिर्द ही रहें। पिछले दिनों लगातार इस देश में जीवनरक्षक इंजेक्शनों की कालाबाजारी करते हुए लोग गिरफ्तार हुए। दिलचस्प बात यह है कि इस देश में तमाम किस्म के जुर्म करने के लिए जिस जाति को सबसे बदनाम करार देने की कोशिश होती है, उस धर्म या जाति के शायद कोई भी व्यक्ति जिंदगी की इस कालाबाजारी में शामिल नहीं थे, क्योंकि गिरफ्तार होने वाले तमाम लोगों के नाम भी सामने आ रहे थे इसलिए यह बात भी हक्का-बक्का करने वाली थी कि एक सवर्ण कारोबारी जाति के इतने लोग इंजेक्शनों की कालाबाजारी में लगे हुए थे! लेकिन बात यहीं पर नहीं टिकती, जब यह बात निकली कि उत्तर प्रदेश की पुलिस ने एक ऐसे गिरोह को गिरफ्तार किया है जो कि कोरोना मृतकों के शव पर से कपड़े और कफन चोरी करके उनको बाजार में बेचता था, तो उसमें भी ऐसी ही सवर्ण उच्च समझी जाने वाली जातियों के लोगों की भीड़ थी और शायद नमूने के लिए उसमें एक अल्पसंख्यक धर्म का व्यक्ति भी था। इसके बाद देखें तो दिल्ली के जिस खान चाचा नाम के रेस्तरां में सैकड़ों ऑक्सीजन कंसंट्रेटर पकड़ाए, और जिसे खबर में देखते ही देश का एक बड़ा हमलावर तबका खान चाचा की गिरफ्तारी के लिए टूट पड़ा, उसको मुंह की खानी पड़ी, जब पता लगा कि यह नाम केवल रेस्तरां का है, इसका मालिक तो एक पंजाबी है, और पंजाबियों में भी उच्च जाति का माना जाने वाला है, तो फिर खान चाचा नाम को छोड़ देना ही लोगों को ठीक लगा। लेकिन सवाल यह उठता है कि देश भर में जगह-जगह न सिर्फ इंजेक्शनों की कालाबाजारी बल्कि जीवन रक्षक इंजेक्शन नकली तैयार करके उनको बेचने का धंधा जिन लोगों ने किया था उनमें से कोई भी किसी नीची कही जाने वाली जाति के नहीं थे, वे सब के सब ऊंची कही जाने वाली कारोबारी जाति के लोग थे, और गुजरात से लेकर मध्यप्रदेश के इंदौर तक और दिल्ली से लेकर जाने कहां-कहां तक इस कालाबाजारी में लगे हुए थे। नकली इंजेक्शन बनाकर बेचना तो जिंदगी बेचने से कम कुछ नहीं है। अब हैरानी यह है कि जो जातियां अपने आप में बहुत संगठित हैं, जो जातियां अपने आपमें बहुत धर्मालु हैं उन जातियों के लोग जब ऐसे तमाम धंधों में शामिल दिखते हैं, तो फिर वैक्सीन के कारोबार में कदम-कदम पर जुड़े हुए पारसी लोग भी दिखते हैं। दिलचस्प बात यह है कि हिंदुस्तान में पारसियों की कुल आबादी 70 हजार से भी कम है, जिन पर आज 133 करोड़ हिन्दुस्तानियों के टीके टिके हुए हैं!(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
देश के बहुत से प्रदेशों में वैक्सीन को लेकर हंगामा चल रहा है कि टीकाकरण केंद्रों पर टीके बचे नहीं हैं और लोग नाराजगी जाहिर करके वापिस जा रहे हैं। अब यह जाहिर है कि उनकी नजरों के सामने केंद्र सरकार तो सीधे-सीधे है नहीं, इसलिए वे राज्य सरकारों को कोस रहे हैं, जो कि खुद पैसे लेकर बाजार में खड़ी हैं लेकिन जिन्हें टीके देने के लिए किसी कंपनी की ताकत, या नीयत नहीं बची है। दूसरी तरफ आज की एक अलग खबर है कि 13 राज्यों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वैक्सीन खरीदी के लिए ग्लोबल टेंडर जारी किए हैं. एक अलग खबर यह भी है कि केंद्र सरकार ने यह भरोसा दिलाया है कि इस वर्ष दिसंबर तक हिंदुस्तान की 18 बरस से अधिक की तमाम आबादी को टीके लग चुके होंगे, और केंद्र सरकार ने आंकड़े जारी किए हैं कि अगस्त के महीने तक 50 करोड़ वैक्सीन भारत आ जाएंगी। अब इनसे परे वैक्सीन के मोर्चे पर कुछ और खबरें भी आ रही हैं कि रूसी वैक्सीन जिसे कि भारत में इजाजत मिली है, वह कितने की मिलने वाली है, और दूसरी कौन-कौन सी और वैक्सीन हिंदुस्तान आ सकती हैं, कब तक आ सकती हैं। कल ही राजस्थान के कांग्रेसी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का यह बयान सामने आया था कि वैक्सीन की अंतरराष्ट्रीय स्तर की खरीदी का काम केंद्र सरकार को करना चाहिए था। अब जब मोदी सरकार ने यह तय कर ही लिया है कि 18 से 44 वर्ष उम्र के लोगों को टीके लगाने का खर्च राज्य सरकारों को करना है, तो राज्यों ने टीके खरीद कर लगाने भी शुरू कर दिए हैं, तो यह बात साफ है कि राज्य सरकारें अपनी जनता का खर्च खुद उठाने के लिए, चाहे कितनी ही मजबूरी में क्यों ना हो, तैयार हो चुकी हैं क्योंकि केंद्र सरकार ने ना सिर्फ राज्य सरकारों को बल्कि देश की जनता को भी एक ऐसी मँझधार में ले जाकर बिना चप्पू की नाँव में छोड़ दिया है, जहां कि धार में कोरोना का भँवर भी खतरनाक अंदाज में दिख रहा है।
तालाब जब गर्मियों में सूख जाते हैं तो उनके बीच में बच गई थोड़ी सी कीचड़ में बहुत से लोग उतरते हैं और हाथों से कीचड़ को टटोल-टटोलकर वे मछलियां पकडऩे की कोशिश करते हैं। उतने कीचड़ में मछलियां तैर कर भाग भी नहीं पाती हैं और पकडऩे वालों के हाथ आ जाती हैं। लेकिन इस कीचड़ में दिखता कुछ नहीं है, हाथ को हाथ नहीं सूझता, आंखों से तो कुछ भी नहीं दिखता, और जो होता है वह हाथों से टटोलकर होता है। हिंदुस्तान में आज वैक्सीन के मोर्चे पर हालत कुछ ऐसी ही है। केंद्र सरकार ने पूरे देश को रौंदे हुए कीचड़ में हाथों से मिला दिए गए मिट्टी-पानी की तरह का हाल बना दिया है जिसमें किसी को कुछ सूझ नहीं रहा है. राज्य सरकारें बिना कुछ दिखते हुए कीचड़ में हाथ धंसाए हुए वैक्सीन ढूंढ रही हैं कि कुछ मिल जाए तो अपने प्रदेश की जनता को लगा दिया जाए।
मीडिया के बहुत से लोग वैक्सीन के मोर्चे पर अंतहीन कतारों में लगे हुए लोगों की नाराजगी दिखा रहे हैं। यह नाराजगी जायज इसलिए है कि हर किसी के सिर पर कोरोना से मौत का खतरा मंडरा रहा है और लोगों को बेचैनी है कि उन्हें वैक्सीन कब लगेगी। लेकिन सवाल यह है कि हिंदुस्तान की राज्य सरकारें किसी सुपर बाजार में जाकर यह वैक्सीन नहीं खरीद सकतीं और न ही अमेजॉन जैसे किसी ऑनलाइन स्टोर पर इसे आर्डर कर सकती हैं। कुछ राज्यों ने और दर्जन भर से अधिक राज्यों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वैक्सीन की खरीदी के लिए प्रक्रिया शुरू की है लेकिन वह कब कहां से कितने में मिलकर लोगों को लगना शुरू हो पाएगी यह अंदाज लगाना भी बड़ा मुश्किल है। दूसरी तरफ जब बाकी के राज्य इस तरह से विदेशों से वैक्सीन खरीदी की दौड़ में लगते, उसके पहले आज केंद्र सरकार के आज कहे गए आंकड़े यह बता रहे हैं कि अगस्त तक उसकी आर्डर की हुई 50 करोड़ वैक्सीन आ जाएंगी और दिसंबर तक पूरे देश की वयस्क आबादी को वैक्सीन लग जाएगी। उसने 95 करोड़ आबादी के लिए 216 करोड़ टीके खरीदने की अपनी तैयारी आज बताई है। केंद्र सरकार की पेश की गयी इस नई जानकारी के बाद राज्य सरकारें क्या करें? अगर वे महंगे दामों पर कहीं से वैक्सीन खरीद लें तो उन्हें इस तोहमत के लिए तैयार रहना होगा कि केंद्र सरकार की इस घोषणा के बाद भी उन्होंने इतनी वैक्सीन क्यों खरीदी? और भारत के दो वैक्सीन निर्माता कंपनियों में से एक ने आज यहां कहा है कि वह दूसरी दवा कंपनियों के साथ इस वैक्सीन का फार्मूला बांटने के लिए तैयार है ताकि वे भी इसे बना सकें। तो ऐसे में राज्य सरकारें क्या समझें ? जिस कंपनी ने यह घोषणा की है उसने यह वैक्सीन भारत सरकार के संगठन आईसीएमआर की मदद से विकसित की थी और जाहिर है कि सरकार की खर्च में भागीदारी थी और सरकार का इस पर कोई हक भी है। लेकिन यह सब केंद्र सरकार के रहस्य की बातें हैं जिस पर केंद्र सरकार आसमान से बिजली की तरह कडक़ कर अपनी बात कहती है लेकिन जिससे किसी राज्य को कुछ पूछने का हक हासिल नहीं है।
कुल मिलाकर पिछले 1 महीने में वैक्सीन को लेकर इस देश में जो धुंध छाई है वैसे तो सर्दियों में भी प्रदूषित दिल्ली में नहीं छाती। अब अपने-अपने प्रदेशों में जनता की नाराजगी झेलती हुई राज्य सरकारें क्या करें? केंद्र सरकार से वैक्सीन मांगने का कोई असर नहीं है, केंद्र सरकार को इंपोर्ट करने के लिए कहने का कोई हक नहीं है, और देश के भीतर कब और कंपनियां बनाने लगेंगी, किस रफ्तार से वैक्सीन मिलेगी, इसका कोई ठिकाना नहीं है. ऐसे में हजारों करोड़ खर्च के इस काम को राज्य सरकारें किस तरह आगे बढ़ाएं यह एक बहुत दुविधा का फैसला है। आज देश की जनता अपने को टीका लगने को लेकर जिस तरह अंधेरे में हैं, उसी तरह राज्य सरकारें भी अंधेरे में हैं कि केंद्र से क्या मिलेगा, बाजार से क्या मिलेगा. केंद्र जो घरेलू खरीद या इंपोर्ट करने की बात कह रहा है, क्या वह उसे राज्यों को बेचेगा या मुफ्त में मिलेगा? बारिश आने के पहले सूखते हुए तालाब, या डबरे में बच गए कीचड़ में मछली पकड़ते हुए लोगों की भीड़ जिस तरह मिट्टी और पानी को मता देती है, कुछ वैसा ही हाल आज देश में टीकाकरण को लेकर केंद्र सरकार ने कर रखा है। कीचड़ जितनी पारदर्शिता !(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
फ्रांस की एक विख्यात कार्टून और व्यंग्य की पत्रिका है चार्ली एब्दो, जिसने दुनिया के मुस्लिमों को नाराज करते हुए मोहम्मद पर कुछ कार्टून बनाए थे, और वह मामला बढ़ते -बढ़ते इतना बढ़ गया था कि फ्रांस में उस पत्रिका के दफ्तर पर आतंकी हमला हुआ और शायद दर्जन भर से अधिक लोग मारे गए थे। लेकिन उस वक्त फ्रांस की सरकार और इस पत्रिका के लोग इस बात पर डटे रहे कि वे अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को किसी आतंक के सामने कमजोर नहीं होने देंगे। हालत यह है कि उन्हीं कार्टूनों को लेकर अभी कुछ हफ्ते पहले पाकिस्तान से फ्रांस के राजदूत को निकाल देना के बारे में एक प्रस्ताव पाकिस्तान की संसद में लाया गया, और इस तनाव के पीछे भी चार्ली एब्दो के वे कार्टून ही थे। उस वक्त हिंदुस्तान सहित दुनिया के मुस्लिम विरोधी लोगों ने खूब जश्न मनाया था और इस पत्रिका की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की हिमायत की थी। हिंदुस्तान में तो कई लोगों के बीच इस पत्रिका के लिए हमदर्दी देखकर लग रहा था कि वे बिना फ्रेंच सीखे भी इसे खरीदना शुरू कर देंग। आज उस पत्रिका का एक कार्टून सामने आया है जिसमें हिंदुस्तान में ऑक्सीजन की कमी से मरते हिंदुस्तानी दिख रहे हैं और यह सवाल किया गया है कि जिस देश में 33 करोड़ देवी देवता हैं क्या उनमें से एक भी ऑक्सीजन पैदा करने की ताकत नहीं रखते? कार्टूनिस्ट ने 33 करोड़ की जगह 33 मिलियन लिख दिया है लेकिन उससे मुद्दे की बात पर कोई फर्क नहीं पड़ता।
इन दिनों हिंदुस्तान में कार्टूनिस्टों से लेकर कॉमेडियन तक केंद्र सरकार पर जिस तरह से बोल रहे हैं उससे लगता है कि लोगों की धडक़ थोड़ी खुल रही है। कुछ एक टीवी चैनल अपनी बहसों में सत्तारूढ़ गठबंधन के प्रवक्ताओं से कुछ सवाल करने का हौसला सा कुछ दिखा रहे हैं, और लोगों को यह समझ नहीं आ रहा है कि यह सचमुच वापिस आया हुआ हौसले का कोई टुकड़ा है या कि सरकार अपनी साख खत्म हो जाने के बाद कम से कम उस मीडिया की साख बचने देना चाहती है, जो मीडिया आगे चलकर सरकार की साख बचाने का असर बचाकर रख सके। सोशल मीडिया की मेहरबानी से देश के चर्चित और गिने-चुने राजनीतिक विश्लेषकों की बंधी-बंधाई सोच और राय तक सीमित नहीं रहना पड़ता और बहुत से नए नए लोग बिल्कुल ताजा तर्कों के साथ सोशल मीडिया पर नई राय सामने रखते हैं। जो कार्टूनिस्ट कहीं नहीं भी छपते हैं, वे भी दमदार काम करके सोशल मीडिया पर इन दिनों पोस्ट कर रहे हैं। ऐसे में जब एक घनघोर और कट्टर मोदीभक्त फिल्म कलाकार अनुपम खेर मोदी सरकार को देश की आज की नाकामी के लिए जिम्मेदार मानते हुए उससे सवाल करने को जायज मान रहे हैं, तो इससे उन्हीं का एक पुराना टीवी कार्यक्रम याद पड़ता है जिसमें वह बार-बार कहते हैं कि कुछ भी हो सकता है, कार्यक्रम का नाम भी शायद वही था। ऐसा लगता है कि वह ‘कुछ भी’ अभी हो गया है, क्योंकि अभी एक पखवाड़ा ही हुआ है जब एक पत्रकार शेखर गुप्ता के एक ट्वीट के जवाब में देश में गिरती लाशों की चर्चा में अनुपम खेर ने बेमौके की बेतुकी बात ट्विटर पर पोस्ट की थी कि जीतेगा तो मोदी ही। खैर उसके लिए सोशल मीडिया पर उन्हें इतनी धिक्कार मिली कि उन्होंने उसकी कल्पना भी नहीं की होगी। और जो लोग सोशल मीडिया पर हर नौबत में जीतेगा तो मोदी ही पोस्ट करने के लिए रखे गए हैं, वे लोग भी अनुपम खेर के कुछ काम नहीं आ सके थे। ऐसे में आज जब अनुपम खेर कड़े शब्दों में मोदी सरकार की आलोचना कर रहे हैं, और उसे जिम्मेदार ठहरा रहे हैं, तो इस सरकार के लोगों को यह समझ लेना चाहिए कि ऐसा समर्पित कार्यकर्ता भी आज साथ नहीं रह गया है।
दरअसल हिंदुस्तान में पिछले वर्षों में मोदी सरकार ने विपक्ष को सुनना, आलोचकों को सुनना, और मीडिया के जिम्मेदार तबके को सुनना, जिस हद तक बंद और खत्म कर दिया था, वही वजह थी कि देश में नौबत बिगड़ती चली गई, और सरकार के लोगों ने यह मान लिया था कि आलोचना का तेवर रखने वाले विपक्षी नेता, सामाजिक कार्यकर्ता, मीडिया या दूसरे लेखक कलाकारों की कोई बात तो सुनना ही नहीं है, क्योंकि ये सारे ही लोग टुकड़ा-टुकड़ा गैंग हैं और देश के दुश्मन हैं, गद्दार हैं, पाकिस्तान भेज दिए जाने के लायक हैं। जब आप देश के इतने बड़े सोचने-विचारने वाले, जिम्मेदार, देशभक्त, और समाज में समरसता चाहने वाले तबके को गद्दार कहकर खारिज कर देते हैं और उसकी किसी भी बात को नहीं सुनते हैं, तो आपके सिर पर आसमान से जब बिजली गिरते रहती है तो भी इस तबके की कही गई सावधानी सुनाई नहीं पड़ती है।
दरअसल लोकतंत्र में तमाम लोगों को सुनना बंद कर देना अच्छी बात इसलिए नहीं है कि अगर संसदीय बाहुबल ऐसा करने की छूट भी देता है तो भी सरकार सबको अनसुना करके सिवाय गलतियां करने और सिवाय गड्ढे में गिरने के और कुछ नहीं कर पाती। इसी सरकार की यह बात नहीं है जो भी ऐसी सरकार हो जो कि आलोचना को बिल्कुल भी बर्दाश्त ना कर सके, वह अपनी मनमानी ताकत से मनमाने काम जरूर कर सकती है, लेकिन न मुसीबत से बच सकती है और न किसी खतरे से। भारत में आज नौबत यही है।
आज यही विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा है कि हिंदुस्तान में कोरोना के इस दूसरी लहर के पीछे इस देश में राजनीतिक और धार्मिक जमघट भी जिम्मेदार हैं जिनमें लोगों को बड़ी संख्या में संक्रमण फैला। अब देश का एक तबका ऐसा है जो कि विश्व स्वास्थ्य संगठन की राय को भी एक विदेशी, भारत विरोधी संगठन करार देते हुए खारिज कर सकता है, लेकिन यह वही तबका होगा जो कल तक मोहम्मद पर बनाए गए कार्टूनों पर खुशी मना रहा था, और आज 33 करोड़ हिंदू देवी देवताओं की नाकामी पर बनाए गए इस कार्टून पर जिसके पास कहने को कुछ नहीं है। आज हम किसी एक मुद्दे पर बात नहीं कर रहे हैं बल्कि देश और दुनिया के अलग-अलग तबकों की कही हुई बातों को सुनने की सरकार की लोकतांत्रिक जिम्मेदारी पर बात करना चाहते हैं कि कितने भी बहुमत से चुनकर आई हुई कोई सरकार, लोगों के बहुत बड़े तबके की बातों को पूरी तरह अनसुना करके कहीं से लोकतांत्रिक काम नहीं कर सकती। उसे मनमाना सरकारी काम करने का जनादेश तो चुनाव में मिला है, लेकिन कोई चुनावी-जनादेश सरकार को लोकतंत्र के प्रति, जनता के प्रति, जवाबदेही खत्म करने का कोई अधिकार नहीं देता है। आज हिंदुस्तान में केंद्र सरकार को यह आत्ममंथन करना चाहिए कि आज जब उसके खुद के अनुपम खेर किस्म के घरेलू लोग हालात को इतना नकारात्मक बता रहे हैं, तो अब इस हालात को सकारात्मक दिखने की और कोशिश करना ठीक नहीं होगा। हम अनुपम खेर के शब्दों को ही दोहराना चाहेंगे जिसमें उन्होंने कहा है, सरकार के लिए अपनी छवि बचाने से ज्यादा जरूरी लोगों की जान बचाना होना चाहिए, उन्होंने कहा है कि इमेज बनाने के अलावा जिंदगी में और भी बहुत कुछ है, उन्होंने यह भी कहा है कि जिस काम के लिए चुना गया है वही काम करे सरकार। हम इन तीनों बातों को देश के तीन प्रमुख अखबारों की सुर्खियों से लेकर यहां लिख रहे हैं, भीतर की खबर में उन्होंने बहुत कुछ और कहा है, और क्योंकि यह एक टीवी इंटरव्यू में कहा है इसलिए इससे मुकरने का कोई खतरा हमें नहीं दिखता। अनुपम खेर की बात को सुनकर इस सरकार को अब वही करना चाहिए जो किसी एक घरेलू शुभचिंतक की कही हुई बात पर करना चाहिए। हमारे कम लिखे को सरकार अधिक पढ़े, और अनुपम खेर की कही बातों को बार-बार पढ़े।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दुनिया के विकसित देशों के कुछ वीडियो बीच-बीच में सोशल मीडिया पर चलते हैं जिनमें किसी रेस्तरां, फूड कॉर्नर, कॉफी शॉप में लोग जाते हैं, काउंटर पर भुगतान करते हैं और कहते हैं, दो कॉफी, एक सस्पेंडेड। ऐसे वीडियो बतलाते हैं कि कुछ देर बाद कोई गरीब, बेघर या जरूरतमंद दिखते हुए लोग वहां पहुंचते हैं, और काउंटर पर पूछते हैं कि क्या कोई सस्पेंडेड कॉफी है ? और काउंटर से उन्हें या तो कुछ देर इंतजार करने कहा जाता है, या तुरंत उन्हें कॉफी या कोई दूसरा नाश्ता दिया जाता है। यह पूरा सिलसिला बड़ा दिलचस्प है और यह यूरोप के कुछ देशों से शुरू हुआ है। वहां पर कई लोग जब खाने पीने का सामान लेने जाते हैं तो जरूरतमंदों की मदद करने के लिए अपने खरीदे सामान से अधिक का भुगतान करके आते हैं, और वहां आर्डर देते समय ही बता देते हैं कि कितना सामान उन्हें ले जाना है और कितने सस्पेंडेड सामान का भी भुगतान करके जा रहे हैं। इन रेस्त्रां के कारोबारी भी ऐसी समाजसेवा को बढ़ावा देते हैं क्योंकि इससे उनकी खुद की एक सामाजिक जिम्मेदारी पूरी होती है, वे गरीब जरूरतमंद की मदद में एक जरिया बन जाते हैं और फिर उनका खुद का कारोबार तो इससे बढ़ता ही है। लेकिन यह वीडियो सिर्फ पश्चिमी देशों का हो ऐसा भी नहीं है। हिंदुस्तान में ही मुंबई में मुस्लिम बस्तियों में निकलें तो फुटपाथ पर रेस्तरां के सामने बहुत से गरीब लोग एक कतार में एक उकडू बैठे हुए दिखते हैं। इन्हें रेस्तरां के काउंटर पर बैठा आदमी गिनती बताकर बुलाता है और भीतर बिठाकर खिलाता है। इस बारे में पता लगता है कि कोई रहमदिल दानदाता अपनी मर्जी की गिनती के लोगों के लायक खाने के पैसे जमा कर जाते हैं, और फिर रेस्त्रां मालिक किस्तों में ऐसे लोगों को बुलाकर, बिठाकर खिला देते हैं।
लोगों की मदद करने के बहुत से तरीके होते हैं, हिंदुस्तान में बहुत बड़े हिस्से में यह भी प्रचलन में हैं कि खाना बनना शुरू हो तो पहली रोटी गाय की बनती है और आखिरी रोटी कुत्ते की। इसके बाद ऐसा भी कहा जाता है कि कामयाब रसोई वही होती है जिसमें घर के लोगों के खाने के बाद भी अचानक आ गए मेहमान, या भूखे के लायक भी खाने के लिए बचा रहना चाहिए। बहुत से लोग अभी लॉकडाउन के बीच में अपने दुपहिए पर या अपनी कार में जानवरों के खाने की तरह-तरह की चीजें लेकर निकलते हैं, कहीं गाय-कुत्ते को रोटी डालते हैं, तो कहीं किसी और जानवर को किसी तरह की सब्जी खिलाते हैं। ऐसा इसलिए भी कर रहे हैं कि इन दिनों सभी तरह के होटल, ढाबे, रेस्तरां बंद हैं और वहां से इन जानवरों को खाने जो मिल जाता था वह अभी बंद हो चुका है। इसलिए लोग जरूरतमंदों की मदद के बहुत से तरीके सोचते हैं और काम करते हैं।
आज कोरोना की बीमारी के इस खतरे के बीच भी बहुत से ऐसे सामाजिक संगठन है जो बीमारों को अस्पताल पहुंचाने से लेकर अस्पताल से लाश घर पहुंचाने तक के काम में जुटे हुए हैं, और अगर किसी के पास भुगतान करने की ताकत है तो वह भुगतान कर दें, और ताकत नहीं है तो उसे मुफ्त भी पहुंचा कर आते हैं। कल ही सोशल मीडिया पर एक ऐसे डॉक्टर की तस्वीर आई है जिसकी बीपी की मशीन और स्टेथोस्कोप टेबल पर है, और उसने नोटिस लगा रखा है कि जब तक लॉकडाउन चल रहा है, दवा के दाम अपने हिसाब से दें। मतलब यही है कि जिसके पास भुगतान की ताकत नहीं है, वह भुगतान न करें। बहुत से शहरों में मामूली ऑटो रिक्शा वाले ऐसा ही कर रहे हैं और उन्होंने नोटिस लगा रखा है कि मरीज को अस्पताल ले जाने का कोई किराया नहीं लिया जाएगा। कुछ ऑटो रिक्शा महिलाओं से किराया नहीं ले रहे हैं, कुछ बुजुर्गों से किराया नहीं ले रहे हैं। यह पूरा सिलसिला बताता है कि बहुत आम लोगों के मन में भी दूसरों के लिए बहुत कुछ करने का जज्बा है। और जाहिर है कि बहुत से ताकतवर लोग ऐसे हैं जो कि कुछ भी नहीं कर रहे हैं या इतना कर रहे हैं जो कि उनकी छोटी उंगली के कटे हुए नाखून से भी कम है। अभी एक भरोसेमंद खबर आई थी कि किस तरह देश के एक कारोबारी अजीम प्रेमजी ने पिछले एक बरस में करीब 8 हजार करोड़ रुपए का दान दिया है, यानी हर दिन 22 करोड़ ! यह रकम छोटी नहीं होती है, खासकर तब जब इसे मुकेश अंबानी के 100 करोड़ के दान के साथ रखकर देखा जाए। यह वक्त ऐसा है जिसमें बहुत अनपढ़ और मजदूर सरीखे काम करने वाले दानदाता भी अपनी आज की बदहाली के बीच भी किसी के काम आ रहे हैं, और जिनके पास दौलत के पहाड़ हैं वे किस तरह उसमें से पत्थर का एक छोटा सा टुकड़ा उठाकर दुनिया पर एहसान करने के अंदाज में दे रहे हैं।
आज यहां पर इस मुद्दे पर लिखने का एक मकसद यह भी है कि लोगों को अपने-अपने दायरे के भीतर भी दूसरों की मदद के बारे में सोचना चाहिए। और इसकी शुरुआत लोगों को अपने खुद के दायरे से करनी चाहिए कि उनके साथ में काम करने वाले जिन लोगों को उन्हें लॉकडाउन के कारण या बीमारी के डर के कारण, या सचमुच बीमार हो जाने पर छुट्टी देनी पड़ी है, उन्हें वह कम से कम पूरी तनख्वाह तो दे सकते हैं। आज लोगों को अपने निजी काम करने वाले घरेलू कर्मचारियों की तनख्वाह काटने के पहले यह भी सोचना चाहिए कि वे किस तरह जी सकेंगे? अगर उन्होंने खुद होकर छुट्टी नहीं ली है और लॉक डाउन की वजह से वे काम पर नहीं आ सके हैं, या मालिक के घर पर किसी के कोरोनाग्रस्त होने से उन्हें रोका गया या उनके खुद के घर पर किसी के कोरोनाग्रस्त होने से उन्होंने काम पर आना बेहतर नहीं समझा, तो ऐसे में उन्हें तो जिंदा रहने के लिए मदद करना हर सक्षम व्यक्ति की जिम्मेदारी होनी चाहिए। जब इस दायरे में जिम्मेदारी लोग निभा लें, तो उसके बाद उन्हें दूर के लोगों के बारे में भी सोचना चाहिए कि वह किसके लिए क्या कर सकते हैं. बहुत से घरों में बीमारी के दौरान बहुत से ऐसे मेडिकल सामान इकट्ठा हो जाते हैं जो बात में काम के नहीं रहते, ऐसे वक्त पर किसी सामाजिक संस्था के माध्यम से उन्हें जरूरतमंद लोगों तक तुरंत पहुंचा देना चाहिए। आज हजार-पांच सौ का ऑक्सीमीटर लेना हर किसी के बस की बात नहीं है, और हर कोई तो थर्मामीटर भी नहीं ले पाते। इसलिए आज खाने-पीने के सामान से लेकर दवा और मेडिकल उपकरण तक, अस्पताल पहुंचाने या अंतिम संस्कार में मदद तक, कई किस्म से आप लोगों के काम आ सकते हैं। लोगों को न केवल खुद ऐसा करना चाहिए बल्कि आसपास के दूसरे लोगों को भी मददगार बनने की प्रेरणा देना चाहिए। आज की यह बहुत बड़ी जरूरत है और अगले साल-दो साल तक बीमारी और बेरोजगारी से देश और दुनिया का जो हाल रहना है उसमें यह जरूरत बने रहेगी, लोगों को दूसरों के काम आना सीखना चाहिए।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
इन दिनों हिंदुस्तान में पार्टियों को चुनाव लडऩे के लिए दूसरे देशों में जाकर प्रचार करना भी समझ आने लगा है। कर्नाटक के चुनाव के वक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नेपाल के मंदिरों का दिनभर दौरा करके भारत के चुनाव आयोग के शिकंजे से बाहर भी थे, और हिंदुस्तान के हर टीवी चैनल पर भी दिनभर छाए हुए थे। अभी जब बंगाल में चुनाव चल रहा था तो मतदान के वक्त नरेंद्र मोदी बांग्लादेश के मंदिरों में घूम रहे थे और चुनाव आयोग का कोई शिकंजा उन पर नहीं था। नरेंद्र मोदी ने ही यह सिलसिला शुरू किया कि देश के बाहर बसे हुए प्रवासी भारतीयों के बीच चुनाव प्रचार या चंदा अभियान के लिए अमेरिका तक जाकर विशाल कार्यक्रम करना। जब देश में प्रशांत किशोर जैसे पेशेवर चुनावी रणनीतिकार लोकतांत्रिक चुनाव मैनेज करते हैं, और ममता बनर्जी को इतनी बड़ी जीत दिलाने में मददगार रहते हैं, पता नहीं चुनाव में क्या-क्या तरीके आजमाए जाने लगे हैं । ऐसे में चुनावों के बीच में भी कई किस्म के तरीकों का इस्तेमाल दिखता है, जो दिखता तो है लेकिन समझ में आसानी से नहीं आता है।
अब जब कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आलोचनाओं से कुछ अधिक घिरते दिखते हैं तो अचानक केंद्र सरकार के कोई मंत्री कोई ऐसा बयान जारी करते हैं कि हल्के-फुल्के मीडिया का खासा वक्त उसी की आलोचना में निकल जाए या उसकी चर्चा में निकल जाए। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन जो कि आज हिंदुस्तान पर छाए हुए सबसे बड़े खतरे और हिंदुस्तान को सबसे बड़ा नुकसान पहुंचा रहे कोरोना से जूझने के लिए अकेले जिम्मेदार मंत्री रहने चाहिए, आए दिन मसखरी की बातें करके खबरों को अपनी तरफ खींचते हैं, और कोरोना के असली खतरे की तरफ से, सरकार की असली नाकामयाबी की तरफ से ध्यान बंटवा लेते हैं। पिछली बार उन्होंने लॉकडाउन और कोरोना के बीच मटर छीलते हुए अपनी तस्वीर पोस्ट की थी, और तबसे लेकर अब तक बीमारी और बचाव को लेकर बहुत ऐसे गैरगंभीर बयान दिए हैं जिससे वह तो खबरों में बने रहे और लोगों का गुस्सा भी ऐसे स्वास्थ्य मंत्री पर निकलते रहा। कुछ ही हफ्ते हुए हैं कि उन्होंने देश के सबसे घाघ कारोबारी रामदेव के फज़ऱ्ी मेडिकल दावों के साथ लांच की गई फज़ऱ्ी दवाओं को सर्टिफिकेट देते हुए मंच से उनका प्रचार किया था। लेकिन क्या वह अनायास ऐसा करते हैं या यह किसी प्रशांत किशोर जैसे रणनीतिकार की सोची हुई हरकत रहती है कि प्रधानमंत्री को आलोचना से बचाने के लिए दूसरे लोगों को आलोचना के घेरे में लाया जाए और खबरों को उस तरफ मोड़ा जाए?
अभी इसी स्वास्थ्यमंत्री हर्षवर्धन का ताजा बयान है कि कोरोना संबंधित तनाव दूर करने के लिए लोगों को 70 फ़ीसदी कोको कंटेंट वाली डार्क चॉकलेट खाना चाहिए। आज जहां इस देश में लोगों के रोजगार छिन गए हैं, लोग बिना तनख्वाह, बिना मजदूरी घर पर बैठने को मजबूर हैं, जहां केंद्र और राज्य सरकार के दिए हुए बहुत सस्ते या मुफ्त अनाज की वजह से लोग भूखे मरने से बच रहे हैं, वैसे में इस देश का स्वास्थ्य मंत्री लोगों को डार्क चॉकलेट खाने के लिए कह रहा है, ताकि वे कोरोना के तनाव से बच जाएँ! इस देश की 90 फ़ीसदी आबादी ऐसी महंगी चीज खरीदने की ताकत से परे है, और इस देश की 99 फ़ीसदी आबादी ने कभी डार्क चॉकलेट का नाम भी नहीं सुना होगा। यह कुछ उसी किस्म की बात है कि लोगों को प्रदूषण से बचने के लिए घरों को एसी करवा लेने और महंगे एयर क्लीनर लगवा लेने, और एयरकंडीशंड कार में चलने की नसीहत दे दी जाए। कई बार यह भी लगता है कि क्या कोई केंद्रीय मंत्री सचमुच इतना बेवकूफ हो सकता है कि वह ऐसी संवेदनाशून्य बातें करे? या फिर उसे बेवकूफी की ऐसी स्क्रिप्ट तैयार करके दी जाती है कि लोगों का ध्यान उसी की तरफ चले जाए? यह समझ पाना हमारे लिए नामुमकिन है क्योंकि इन दिनों जिस तरह से कोई राजनीतिक दल लाखों लोगों को सोशल मीडिया पर अपने भाड़े के मजदूरों की तरह इस्तेमाल कर सकता है, कर रहा है, वैसी बातें 10 बरस पहले तक किसने सोची थीं ? इसलिए आज जब देश के मीडिया का अधिकतर हिस्सा सत्ता का गोदी मीडिया होने का सार्वजनिक का तमगा पाकर भी उस कामयाबी पर खुश है, गौरवान्वित है, तब फिर ऐसे मीडिया की मदद से किसी गढे हुए बयान को इस्तेमाल करके आलोचनाओं को दूसरी तरफ मोडऩा एक सोचा-समझा काम भी हो सकता है?
आज हम महज इसी एक मुद्दे पर शायद नहीं लिखते, लेकिन बिहार से एक दूसरा मामला सामने आया है जिसमें वहां के भाजपा सांसद राजीव प्रताप रूडी खबरों के घेरे में हैं कि किस तरह उन्होंने अपनी सांसद निधि से खरीदी हुई दर्जनों एंबुलेंस बिना ड्राइवरों के खड़ी रखी हैं। बिहार के ही एक दूसरे बाहुबली यादव नेता पप्पू यादव ने इस मुद्दे को जोरों से उठाया, और आज बिहार सरकार ने कोरोना मरीजों के लिए दौड़-दौडक़र घूम-घूमकर काम करते हुए पप्पू यादव को गिरफ्तार कर लिया कि वे लॉकडाउन के नियम तोड़ रहे हैं। अब बिहार के कुछ लोगों का यह मानना है कि नीतीश कुमार ने ऐसा करके एक तरफ तो राज्य के सत्तारूढ़ गठबंधन एनडीए के एक भाजपाई नेता राजीव प्रताप रूडी को परेशानी में डाल दिया है क्योंकि पप्पू यादव का मामला जितना उठेगा उतना ही रूडी का निकम्मापन दिखेगा। दूसरी तरफ लालू यादव के जेल से बाहर आते ही उन्हें हीरो की तरह खड़े होने का मौका न देकर एक दूसरे यादव को गिरफ्तार करके उसे हीरो बनाया जा रहा है तो क्या यह भी नीतीश कुमार की एक और चाल है ? और क्या वे एक तीर से दो निशाने साध रहे हैं? बिहार के कुछ पत्रकारों ने इस किस्म की अटकल लिखी है जिसका कोई सुबूत तो हो नहीं सकता है लेकिन राजनीतिक अटकलें तो ऐसी ही लगती हैं। अब अगर नीतीश के इस काम को देखें जो कि जाहिर तौर पर अटपटा लग रहा है कि लॉकडाउन में रात-दिन लोगों की मदद करते पप्पू यादव को गिरफ्तार किया गया है, और दूसरी तरफ हर्षवर्धन इस बीमार देश की बेरोजगार और गरीब जनता को देश की सबसे महंगी आयातित डार्क चॉकलेट खाने का सुझाव देने की मसखरी कर रहे हैं । अब इसे क्या कहा जाए क्या नेता सचमुच इतने बेवकूफ हो सकते हैं कि घर में चावल ना हो तो बादाम खाकर पेट भरने की सलाह दे दे? यह देश की जनता पर भी है कि वह सोचे कि आज के हालात के जिम्मेदार कौन लोग हैं, कटघरे में किसे होना चाहिए, और उनकी तरफ नजरें ना जाएं इसलिए कुछ दूसरे लोग फुटपाथ पर खड़े होकर मदारी की तरह हरकतें कर रहे हैं, तिलिस्मी ताबीज बेचने जैसी हरकतें कर रहे हैं। यह सिलसिला मासूम लगता तो नहीं है, आगे प्रशांत किशोर जैसे किसी पेशेवर को हकीकत मालूम होगी।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आज देश के बहुत से प्रदेशों में 18 वर्ष से ऊपर वालों को लग रहे टीकों का नजारा सामने आया है जिसे देखकर दिल दहल रहा है। यह समझ नहीं पड़ रहा है कि ये टीके कोरोना से बचाव के लिए लग रहे हैं, या इन टीकों को लगाने के नाम पर लोगों के बीच कोरोना और फैलाया जा रहा है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से लेकर उत्तरप्रदेश और बिहार के बहुत से केंद्रों तक के वीडियो और फोटो सामने आ रहे हैं कि कैसे उनमें लोगों की कतारों में जमकर धक्का-मुक्की हो रही है। छत्तीसगढ़ में तो फिर भी आय वर्ग के हिसाब से तीन-चार अलग-अलग काउंटर बना दिए हैं, इसलिए यहां भीड़ थोड़ी सी बँटी है लेकिन उत्तरप्रदेश और बिहार में तो हाल भयानक है, और वहां मौजूद लोगों में मारपीट चल रही है, उसके वीडियो पोस्ट किए जा रहे हैं। लोग सोशल मीडिया पर लगातार लिख रहे हैं और मौके पर पहुंचे हुए समाचार एजेंसियों के लोगों को बता भी रहे हैं कि किसी तरह का कोई इंतजाम नहीं है, और पूरी की पूरी भीड़ एक दूसरे से धक्का-मुक्की में लगी हुई है।
लोगों को याद होगा कि 19 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बैठक की और उसके तुरंत बाद यह घोषणा कर दी गई कि 1 मई से पूरे देश में 18 से 44 वर्ष उम्र के लोगों को टीके लगाए जाएंगे, और इसका इंतजाम राज्य सरकार खुद करेंगी, वही इसकी खरीदी करेंगी, वही इसका भुगतान करेंगी, वही इसको लगाएंगी। केंद्र सरकार ने केवल इस आयु वर्ग की घोषणा कर दी और तारीख की घोषणा कर दी। आज नतीजा यह है कि देश की करीब आधी आबादी 18 से 44 बरस उम्र की है और वह टीके लगवाने के लिए एक साथ पहुंचने की हकदार हो गई हैं। कहने के लिए तो केंद्र सरकार ने एक मोबाइल एप्लीकेशन बना दिया है जिससे कि लोग अपना रजिस्ट्रेशन कर सकते हैं, लेकिन आबादी का एक बड़ा तबका ऐसा है जो न स्मार्टफोन रखता और ना रजिस्ट्रेशन करा सकता, इसलिए वह तबका तो मौके पर ही पहुंच रहा है। टीकाकरण केंद्रों पर जो अंधाधुंध भीड़ दिख रही है और जितनी धक्का-मुक्की चल रही उससे एक बात तो है कि कोरोना टीकों से थमे या नहीं, कोरोना का फैलना तो आज ही तय हो गया है। लोगों को याद होगा कि 20 अप्रैल को हमने इस मुद्दे पर इसी जगह सम्पादकीय लिखा था कि जब तमाम काम राज्यों को ही करने हैं तो केंद्र सरकार कौन होती है जो यह तय करे कि 18 से 44 बरस के लोगों को टीके लगना 1 मई से शुरू होगा? आज न बाजार में टीके हैं, और न ही कंपनियां राज्यों को देने की हालत में हैं। जब मोदी सरकार को खुद को टीके देने थे तो कई किस्म के दर्जे बना दिए गए थे, पहले 60 बरस के ऊपर के लोग, फिर दूसरा दर्जा बना स्वास्थ्य कर्मचारी और फ्रंटलाइन वर्कर, फिर तीसरा दर्जा बना 45 वर्ष से ऊपर के दूसरी बीमारियों के शिकार लोग, और यह दर्जे अभी चल ही रहे हैं। जनवरी से अब तक केंद्र सरकार इन्हीं के लिए राज्यों को पूरी तरह से टीके नहीं दे पाई है। ऐसे में देश की आधी आबादी को 1 मई की तारीख बताकर टीकाकरण के लिए झोंक देना एक बहुत बड़ी गैरजिम्मेदारी का काम था जो कि मोदी सरकार ने अपने पहले के कुछ दूसरे कामों की तरह ही किया। जिस तरह बिना तैयारी के नोटबंदी की गई, बिना तैयारी के जीएसटी लागू किया गया, बिना तैयारी के लॉकडाउन किया गया, उसी तरह बिना किसी तैयारी के 1 मई से इतनी बड़ी आबादी के टीकाकरण की घोषणा कर दी गई। जब राज्यों को सब कुछ अपने ही दम पर करना था तो इस बात को भी राज्यों पर छोडऩा था और राज्य अपने हिसाब से तय करते कि वे पांच-पांच बरस आयु वर्ग के अलग-अलग समूह बनाकर उन्हें अलग-अलग तारीखों पर बुलाते और इस तरह का मजमा लगने की नौबत नहीं आने देते।
इस काम के लिए तो केंद्र सरकार के बड़े-बड़े जानकारों की जरूरत ही नहीं थी यह तो गूगल करके पता लगाया जा सकता था कि इस आयु वर्ग में कितनी आबादी आएगी और क्या उतनी आबादी को एक किसी तारीख को एक साथ टीकाकरण शुरू करना मुमकिन काम है? केंद्र सरकार ने राज्यों को एक बहुत मुसीबत में और देश की आबादी को एक बहुत बड़े खतरे में धकेल दिया है। आज देश में टीका सप्लाई की जो हालत है उसके चलते हो सकता है कि एक-दो बरस तक भी तमाम आबादी को टीके ना लग सके और यह भी हो सकता है कि एक बरस में जितने लोगों को टीके लगें उनको एक बरस के बाद फिर से इसका डोज देने की नौबत आने लगे। ऐसी हालत में लोगों को धक्का-मुक्की के लिए टीकाकरण केंद्रों पर इस तरह छोड़ दिया गया है। इसके तमाम खतरे हमने 20 अप्रैल के संपादकीय में ही गिनाये थे। और आज जगह-जगह से वैसा नजारा देखने मिल रहा है। पता नहीं इससे कोरोना थमेगा अधिक या फैलेगा अधिक। कोई हैरानी नहीं कि सोशल मीडिया पर लोग लिख रहे हैं कि देश भर में भंडारा खोलने की मुनादी के पहले प्रधानमंत्री को यह तो देखना था कि आटा-तेल बाजार में है या नहीं, और हलवाई है या नहीं? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
देश के अलग-अलग राज्यों में सरकारें कोरोना के खतरे को देखते हुए शादी जैसे पारिवारिक समारोह, या अंतिम संस्कार जैसे सामाजिक कार्यक्रमों पर भी अलग-अलग रोक लगा चुकी हैं। आज किसी भी राज्य में शादी में 10-20 लोगों से अधिक की मौजूदगी की इजाजत नहीं है और मौत होने पर भी ऐसे ही गिनती के लोगों को जाने की छूट है। लेकिन सोशल मीडिया पर बड़े दिलचस्प वीडियो सामने आ रहे हैं, किसी में बैंड पार्टी ना होने पर कोई दूल्हा खुद ही नगाड़ा बजाते दिख रहा है, किसी वीडियो में एक दूल्हा घोड़ी वाले के साथ घोड़ी पर सवार शादी के लिए अकेले ही चले जा रहा है। कल ऐसी खबर आई कि एक दूल्हा कार चलाकर खुद ही चले गया और शादी करके दुल्हन को ले आया। दूसरी तरफ उत्तर भारत की ऐसी कई खबरें हैं जिनमें 20 लोगों की इजाजत मिली और 200 लोगों की दावत चल रही थी जिस पर छापा मारकर लोगों को गिरफ्तार किया गया। एक कार्यक्रम तो खबर में ऐसा आया जिसमें शादी की दावत चल रही थी और खाने वालों में झगड़ा हुआ, गोली चली तो एक मेहमान की मौत हो गई, और बाकी वहां से भाग निकले।
पिछले बरस जब कोरोना मामूली फैला हुआ था और लॉकडाउन लगा हुआ था, उस वक्त हमने लोगों के लिए यह नसीहत इसी जगह पर लिखी थी कि लोगों को अभी बच्चे पैदा करने का सिलसिला शुरू नहीं करना चाहिए क्योंकि इस बात का कोई ठिकाना नहीं है कि आने वाला वक्त कैसा रहेगा और यह बीमारी कब तक चलेगी। उस वक्त भी हमने लोगों को शादी से बचने को भी कहा था लेकिन तब दुनिया इतनी बड़ी बर्बादी नहीं देख रही थी जैसी कि आज देख रही है। आज तो हालत यह है कि घर में किसी एक को कोरोना हो रहा है तो बाकी लोग भी उस संक्रमण के शिकार हो रहे हैं। ऐसे में शादी के लिए लडक़ी के घर जाना और फिर दुल्हन को ससुराल लेकर आना, इस फेर में दर्जनों लोगों का तो एक-दूसरे से सामना होता ही होगा, साथ में खाना या खिलाना होता होगा, और सबके लिए खतरा बढ़ता होगा। यह वक्त सिवाय अंतिम संस्कार के और किसी भी निजी कार्यक्रम का नहीं है। बिहार के कुछ जिम्मेदार पत्रकारों ने सोशल मीडिया पर अपने प्रदेश के लोगों से हाथ जोडक़र प्रार्थना की है कि वे मुंडन, जनेऊ संस्कार, और बाकी किसी भी किस्म के पारिवारिक समारोहों से बचें, जिनके लिए बाद में बहुत वक्त रहेगा। एक बार महामारी की मार कम हो तो उसके बाद ऐसे कार्यक्रम करते रहें। आज इन कार्यक्रमों में मौजूद लोगों, घर के लोगों, और रिश्तेदारों को खतरे में डालने के साथ-साथ सार्वजनिक स्तर पर भी बीमारी बढ़ाने का काम भी इससे हो रहा है।
लेकिन हिंदुस्तान की हकीकत यह है कि जब बड़े-बड़े नेता लाखों की भीड़ वाली आमसभा को देखकर खुश होते हैं और यह कहते हैं कि जहां तक नजर जा रही है वहां तक लोग ही लोग दिख रहे हैं, और जहां चुनावी रैली में, रोड शो में, लोगों के रेले में, धक्का-मुक्की होते रहती है, और कोई भी मास्क नहीं दिखता, वहां तो लोगों के सामने कोई ऐसी मिसाल पेश नहीं होती है कि देश खतरे में है, लोगों की जिंदगी खतरे में हैं, और लोगों को बचकर घर में रहना चाहिए, किसी कार्यक्रम से बचना चाहिए। जब चुनाव प्रचार जैसे गैरजरूरी कार्यक्रमों में और कुंभ जैसे निहायत जरूरी कार्यक्रम में दसियों लाख की भीड़ जुटती है तो आम लोगों को 100-200 लोगों की भीड़ से कैसे रोका जा सकता है ? नतीजा यह होता है कि देश के नेताओं के स्तर से जो पैमाने तय होते हैं, नीचे तक वे ही चलते जाते हैं और खतरा बढ़ता ही जाता है।
आज यहां पर इस बारे में लिखने का मकसद यह है कि हम लोगों को एक बार फिर याद दिलाना चाहते हैं कि यह बीमारी कब तक रहेगी इसका कोई ठिकाना नहीं है और लोगों को आज शादी-ब्याह को जहां तक टाल सकें टालना चाहिए, किसी सगाई वगैरह को भी टालना चाहिए क्योंकि जिंदगी का ठिकाना तो है नहीं और इस बार कोरोना जवान लोगों को भी शिकार बना रहा है, तो ऐसे में क्या फायदा कि जहां रिश्ता तय किया जाए वहां कोई मौत हो जाए और फिर लोगों के मन में एक संदेह बना रहे कि रिश्ता होने की वजह से ऐसा हुआ है। फिर जो शादीशुदा लोग हैं और जिनके बच्चे की गुंजाइश है जिनकी तैयारी है, उन्हें भी बहुत सावधान रहना चाहिए क्योंकि आज के समय में महिला को कोई सुरक्षित अस्पताल मिले या ना मिले, और वहां पर संक्रमण के खतरे के बिना इंतजाम हो सके या नहीं। ऐसी नौबत को देखते हुए आज लोगों को अपनी भावनाओं पर काबू पाना चाहिए और नए रिश्ते बनाने से, परिवार में नए लोगों को लाने से, खुद नए परिवारों में आने-जाने से, और बच्चे पैदा करने से अपने को रोकना चाहिए। आज जब जिंदगी का कोई ठिकाना नहीं है तो इस बात का क्या मतलब है कैसी शादी की जाए जिसमें कुछ ही दिनों में किसी एक की मौत हो जाए और दूसरे के लिए पहाड़ सी बाकी जिंदगी अकेले के सामने खड़ी रहे। अभी कई ऐसी खबरें आई है कि शादी के दो-चार दिन के भीतर ही किसी एक को कोरोना हो गया, मौत हो गई। इसलिए आज का वक्त बहुत सावधानी से रहने का है, यह ना किसी समारोह का वक्त है, ना लापरवाही से खाना खिलाने का है, और जिंदगी भर के रिश्ते बनाने का वक्त तो बिल्कुल ही नहीं है, साथ ही अगले एक बरस तक लोगों को बच्चे पैदा करने के बारे में भी नहीं सोचना चाहिए।
बिहार में वहां के एक बाहुबली नेता पप्पू यादव ने अभी एक भंडाफोड़ किया कि आज जब कोरोना मरीजों को अस्पताल ले जाने के लिए और लाशों को वापस लाने के लिए कहीं एंबुलेंस नहीं मिल रही है, लोगों को बहुत मोटी रकम देनी पड़ रही है, वैसे में छपरा के किसी अहाते में 30 एंबुलेंस गाडिय़ां खड़ी हुई हैं, जिन्हें ढंककर रख दिया गया है और इन्हें भाजपा सांसद राजीव प्रताप रूड़ी की सांसद निधि से लिया गया था ऐसा उन पर लिखा हुआ भी है। अब कल जब यह वीडियो चारों तरफ फैला और पप्पू यादव ने यह सवाल किया कि एंबुलेंस की जरूरत के समय एंबुलेंस ढंक कर रख दी गई हैं, और उनका कहना है कि ऐसी 100 गाडिय़ां हैं जिन्हें सांसद निधि से खरीदा गया जो कि जाहिर तौर पर जनता का ही पैसा होता है और वे एंबुलेंस इधर-उधर कर दी गई हैं, वे चल नहीं रही है। दूसरी तरफ केंद्रीय मंत्री रहे हुए आज के भाजपा सांसद राजीव प्रताप रूड़ी का यह कहना है कि एंबुलेंस के लिए ड्राइवर नहीं मिले इसलिए इन्हें ढंककर रखा गया है। इस पर पप्पू यादव ने दिलचस्प जवाब दिया है कि 2016 में छपरा में केंद्रीय मंत्री की हैसियत से रूड़ी ने नितिन गडकरी और सुशील मोदी की मौजूदगी में प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना के तहत ड्राइविंग प्रशिक्षण संस्था का उद्घाटन करवाया था। ऐसी संस्था जिस लोकसभा क्षेत्र में शुरू की गई, वहां पर आज सरकारी एंबुलेंस के लिए भी ड्राइवर नसीब नहीं हो रहे, इस पर अफसोस करते हुए पप्पू यादव ने अपनी तरफ से दर्जनों ड्राइवर खड़े कर दिए और कहा कि ये एंबुलेंस चलाएंगे।
यह बात जाहिर है कि पिछले एक महीने से अधिक वक्त हो चुका है जब देश में कोरोना उफान पर है, और चारों तरफ यह चर्चा पहले से चली आ रही थी कि दूसरी लहर पहले से अधिक खतरनाक रहने वाली है। ऐसे में केंद्र और बहुत से राज्यों की सरकारों ने जिस तरह लापरवाही दिखाई और कोई तैयारी नहीं की, यह उसकी एक मिसाल है। राजीव प्रताप रूड़ी केंद्र सरकार में वजन रखने वाले भाजपा सांसद हैं और बिहार में उनकी पार्टी सत्तारूढ़ गठबंधन में हैं। ऐसे में अगर जनता के पैसों से खरीदी गई एंबुलेंस चलाने के लिए ड्राइवर नसीब नहीं हो रहे हैं तो पप्पू यादव का यह सवाल तो जायज है कि ऐसे ड्राइविंग प्रशिक्षण संस्थान का क्या फायदा हुआ अगर बिहार जैसे बेरोजगारी से भरे हुए राज्य में कुछ ड्राइवर भी तैयार नहीं हो सके। लेकिन यह हाल अलग-अलग सरकारों में अलग-अलग प्रदेशों में कई जगह देखने मिल रहा है कि जब तक सिर पर से पानी निकल नहीं जाता तब तक सरकारें जागती नहीं हैं।
इस देश में लंबे समय से प्रधानमंत्री राहत कोष नाम से एक फंड चले आ रहा था जिसका ऑडिट सीएजी करता था जो पूरी तरह से पारदर्शी था, लेकिन पिछले बरस के कोरोना और लॉक डाउन के वक्त से एक नया फंड बनाया गया जिसे पीएम केयर्स फंड का नाम दिया गया और जिसे सीएजी के ऑडिट से बाहर रखा गया। इस फंड को मिलने वाले दान पर टैक्स की छूट तो वैसी ही रखी गई है जैसी कि किसी भी दूसरे सरकारी फंड की होती है, लेकिन इसे सीएजी की नजरों से बाहर रखने का रहस्य आज तक लोगों के समझ नहीं आया है, और ना ही इस फंड से क्या खर्च हो रहा है यह लोगों के सामने रखा गया है। इसलिए आज जब यह बात उठती है कि देशभर में इस फंड से ऑक्सीजन प्लांट मंजूर किए गए थे लेकिन वे लगे नहीं हैं, उनमें से बहुत गिने-चुने लगे हैं, तो सवाल यह उठता है कि एक पारदर्शी फंड रहता जिससे जुड़ी हुई तमाम बातें इसकी वेबसाइट पर मौजूद रहतीं तो लोग पहले से इसे लेकर सवाल करते कि इसके तहत दी गई मंजूरी से क्या काम हुआ है, कितनी रकम किस चीज पर खर्च हुई है। लेकिन लोकतंत्र में जहां किसी चीज को ढँककर रखा जाता है वहां उसमें सड़ांध आने लगती है।
लेकिन आज का हमारा मकसद पीएम केयर्स फंड को लेकर अधिक चर्चा करने का नहीं है, चर्चा की बात यह है कि इस फंड से देश भर में जहां-जहां वेंटिलेटर भेजे गए उनमें बड़ी संख्या में वेंटिलेटर खराब निकले, डॉक्टरों ने जगह-जगह उसके इस्तेमाल से मना कर दिया कि उससे मरीजों की जान को खतरा हो सकता है क्योंकि वह चलते चलते कभी भी रुक जाते हैं। आज सरकारी ढांचा इस किस्म का है कि खर्च करने की हड़बड़ी रहती है, उस खर्च से आए हुए सामान के रखरखाव की हड़बड़ी नहीं रहती, उसे चलाने के लिए कर्मचारियों को रखने की हड़बड़ी नहीं रहती। बिहार में जिस तरह एंबुलेंस खाली खड़ी हुई है, उसी तरह छत्तीसगढ़ सहित दूसरे बहुत से प्रदेशों में वेंटिलेटर जैसी जीवन रक्षक मशीनें खाली रखी हुई हैं और उन्हें चलाने का प्रशिक्षण किसी को नहीं दिया गया है। हजारों कर्मचारियों का सरकारी अमला है लेकिन ऐसी महंगी और जान बचाने वाली मशीनों को चलाने की ट्रेनिंग उन्हें नहीं दी गई। इसके पहले भी पिछली भाजपा सरकार के समय छत्तीसगढ़ में एक बहुत ही बदनाम स्वास्थ्य सचिव के रहते हुए सोनोग्राफी की ऐसी नकली मशीनें खरीद ली गई थीं जो कि किसी काम की नहीं थीं, और मंत्रालय में बैठे अफसरों ने सप्लायर के साथ मिलकर उन्हें प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों तक भिजवा भी दिया गया था जहां पर उन मशीनों को चलाने वाले कोई कर्मचारी नहीं थे। वे मशीनें चलने लायक नहीं थीं, उसकी रिपोर्ट को समझने वाले डॉक्टर वहां नहीं थे। सरकारी खरीदी में भारी गड़बड़ी की जाती है जैसे कि बिहार की इन एंबुलेंस की खरीदी में की गई होगी, लेकिन बाद में उनका इस्तेमाल हो रहा है या नहीं यह कैसी हालत में है इसकी फिक्र तो आज उस मुसीबत के समय भी नहीं की जा रही जब जब चारों तरफ तबाही फैली हुई है।
आज ही आंध्र के श्रीकाकुलम जिले का एक ऐसा वीडियो सामने आया है जिसमें कोरोना से मरी हुई मां को मोटरसाइकिल पर बीच में बिठाकर दो भाई शहर के अस्पताल से गांव ले जा रहे हैं। इनमें से कोई भी पीपीई सूट पहने हुए नहीं है क्योंकि शायद इन्हें नसीब भी नहीं रहा होगा, इन्हें एंबुलेंस नहीं मिली, इसलिए यह अपनी जान खतरे में डालकर माँ की लाश बीच में बिठाकर इस तरह से जा रहे हैं। और ऐसे वक्त पर बिहार में दर्जनों दर्जनों एंबुलेंस इस तरह से ढंककर रख दी गई हैं। लोकतंत्र में यह बात बिल्कुल साफ समझ लेनी चाहिए कि सरकारी खर्च की कोई भी जवाबदेही तभी हो सकती है जब सरकारी तंत्र खुद होकर इंटरनेट पर सार्वजनिक रूप से अपने खर्चों को डाले। उन्हें देखकर ही मीडिया और सामाजिक कार्यकर्ता सवाल कर सकते हैं और ऐसे सवालों से ही सरकारी भ्रष्टाचार थम सकता है। हमने यहां पर राजीव प्रताप रूड़ी की लोकसभा सीट का यह एक हाल महज नमूने के तौर पर पेश किया है देशभर में जगह-जगह केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की ऐसी बर्बादी बिखरी हुई होगी और सामाजिक कार्यकर्ताओं को उनकी पड़ताल करके उन्हें उठाना चाहिए। दूसरी तरफ इस देश में सरकार द्वारा इकट्ठा किया गया कोई भी पैसा, सरकार द्वारा टैक्स पर छूट दिया गया कोई भी दान, जनता की नजरों से परे नहीं रहना चाहिए, सरकारी ऑडिट से परे नहीं रहना चाहिए। वह प्रधानमंत्री के स्तर पर हो या किसी और स्तर पर, वह बिना संदेह के नहीं रहता और लोकतंत्र में सरकार के तमाम काम संदेह से परे रहने चाहिए।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिंदुस्तान जैसे लोकतंत्र में किसी आम चुनाव के बाद बहुमत से आई हुई किसी पार्टी या गठबंधन की सरकार के सामने यह आजादी रहती है कि वह संसद में अपने बाहुबल के अनुपात में जो-जो फैसले लेना चाहे वे लेती रहे, और कमजोर हो चुके विपक्ष को जितना अनसुना करना है उतना करती रहे, लेकिन आजादी का ऐसा इस्तेमाल लोकतंत्र नहीं कहलाता। लोकतंत्र तो बाहुबल के बावजूद विपक्ष को सुनना, देश के मीडिया को सुनना, देश के मुखर तबके की बातों को सुनना, इसे लोकतंत्र कहते हैं। लेकिन मोदी सरकार के साथ दिक्कत यह है कि उसे पहले तो लोकसभा में जिस तरह का स्पष्ट बहुमत एनडीए गठबंधन के अलावा भी भारतीय जनता पार्टी के स्तर पर हासिल था, वह अभूतपूर्व था और उसने मानो मोदी सरकार को अपने मन का सब कुछ करने की एक आजादी दे दी थी। अब धीरे-धीरे एक-एक राज्य जीतते हुए एनडीए के पास राज्यसभा में भी इतना बहुमत हो गया है कि वह अपने अधिकतर कानूनों को वहां भी पास करवा सकती है। नतीजा यह निकला कि पिछले बरस तीन ऐसे किसान कानून ध्वनिमत से पास करा दिए गए जिन्हें लेकर विपक्ष का बहुत विरोध आखिरी तक जारी था। जिसे लेकर देश के इतिहास का एक सबसे मजबूत किसान आंदोलन चल रहा था और आज भी चल रहा है। ऐसे में कुछ एक खबरें हक्का-बक्का करती हैं।
पिछले बरस यह खबर आई कि साढ़े आठ हजार करोड़ रुपयों से एक ऐसा विमान खरीदा गया है जिससे प्रधानमंत्री का सफर अधिक असुरक्षित और अधिक आरामदेह हो जाएगा। इस खर्च में मौजूदा विमान को आधुनिक बनाना भी शामिल है। ऐसा भी नहीं कि प्रधानमंत्री को अभी किसी खराब विमान में चलना पड़ता है, या इतने महंगे विमान के बिना भारतीय प्रधानमंत्री का काम नहीं चल सकता था। इसके बाद अभी जब पूरे देश में ऑक्सीजन की कमी से, वैक्सीन की कमी से, दवाइयों की कमी से, अस्पतालों की कमी से, और हर किस्म की कमी से, बड़ी संख्या में लोग बेमौत मारे जा रहे हैं, उस बीच यह खबर आती है कि प्रधानमंत्री के लिए अगले बरस एक नया बंगला बनकर तैयार हो रहा है और केंद्र सरकार ने उसके लिए 2022 की समय सीमा तय कर दी है। जहां देश के लोगों को सांस नहीं मिल रही वहां प्रधानमंत्री के बंगले के लिए समय सीमा तय हो रही है और इसे घोषित किया जा रहा है! यह सब इस अंदाज में हो रहा है मानो प्रधानमंत्री का आज का बंगला असुविधा का था और उनके लिए या उनके मोर के लिए यह बंगला छोटा पड़ रहा था, या वहां हिफाजत की कोई कमी थी। यह खबर ऐसे वक्त पर आई है जब दिल्ली में सेंट्रल विस्ता नाम का 22 हजार करोड़ का एक ऐसा प्रोजेक्ट चल रहा है जिसमें संसद को नई इमारत मिलने जा रही है और प्रधानमंत्री को यह नया बंगला! अभी तो कुछ महीनों के लिए इस खाली जमीन पर निर्माण के बजाय इसे श्मशान बना देना था, ताकि लोग ठीक से जल तो सकें !
देश के बहुत सारे लोगों के साथ-साथ बंगाल में फिर से लौटकर आई आज की सबसे कामयाब नेता ममता बनर्जी ने चुनाव जीतने के तुरंत बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक चिट्ठी लिखकर कहा है कि आज जब पूरे देश में लोगों को वैक्सीन की सबसे ज्यादा जरूरत है, जब केंद्र सरकार को 30000 करोड़ रुपए वैक्सीन के लिए निकालने चाहिए, उस वक्त यह सरकार संसद की नई इमारत बनाने के लिए 20000 करोड़ रुपए खर्च कर रही है? आज देश बहुत ही तकलीफ में है, एक-एक करके कई मुख्यमंत्रियों ने ऐसे असुविधा के सवाल प्रधानमंत्री के सामने रखे हैं कि जब देश के लोगों को मुफ्त में वैक्सीन देनी चाहिए उस वक्त यह सरकार सेंट्रल विस्ता नाम के निहायत गैरजरूरी प्रोजेक्ट पर इतना बड़ा खर्च करने जा रही है। देश के लोगों ने सुप्रीम कोर्ट तक दौड़ लगाकर देख ली है और वहां से पिछले मुख्य न्यायाधीशों के कार्यकाल में ऐसी तमाम अपील खारिज कर दी गई हैं और केंद्र सरकार को सेंट्रल विस्ता प्रोजेक्ट को बनाने की छूट दी गई।
आज हालत यह है कि गरीब भूखे मर रहे हैं, लोगों के पास काम नहीं है, बाजार बंद हैं, कंस्ट्रक्शन बंद हैं, लेकिन इस सेंट्रल विस्ता प्रोजेक्ट को आवश्यक सेवा घोषित करते हुए उस पर काम जारी रखा गया है। जब पूरे देश में तमाम काम चल रहे थे उस वक्त भी संसद-सत्र को खारिज करवा दिया गया था कि कोरोना के खतरे को देखते हुए संसद का सत्र ठीक नहीं होगा। उस वक्त तो देश में छोटे-छोटे से काम भी चल रहे थे, लेकिन संसद को गैरजरूरी मान लिया गया था। संसद का सत्र गैरजरूरी है लेकिन संसद की अच्छी भली बिल्डिंग की जगह 20000 करोड़ रुपए की नई इमारत का प्रोजेक्ट जरूरी है, यह बात ही लोगों को हक्का-बक्का कर देती है। आज जब देश में ऑक्सीजन की कमी है, दवाई नहीं है, अस्पताल नहीं है, जब दुनिया के दर्जनों देश हिंदुस्तान की मदद के लिए सामान भेज रहे हैं, और तो और पाकिस्तान जैसे बदहाल देश भी अपनी तरफ से पूरी मेडिकल मदद करने का प्रस्ताव भारत को भेज चुके हैं, पाकिस्तान के आम लोग भारत के आम लोगों को शुभकामनाएं भेज रहे हैं, उस वक्त अगर सरकार प्रधानमंत्री के हवाई जहाज, प्रधानमंत्री के बंगले, प्रधानमंत्री के गृहप्रदेश में तीन हजार करोड़ रुपए से सरदार पटेल की प्रतिमा बनवाने के बाद, 20 हजार करोड़ रुपए से नया संसद भवन वगैरह बनाने में लगी है तो लोग हक्का-बक्का हैं कि केंद्र सरकार को इस देश की जनता ने सरकार चलाने के लिए वोट दिया है या ऐसी बेरहमी करने के लिए वोट दिया है?
यह सिलसिला पूरी तरह से संवेदना शून्य है, और इतिहास इसे बुरी तरह दर्ज करके रखेगा। वैसे भी लोग इस बात को खुलकर लिख रहे हैं और आपस में इसकी चर्चा कर रहे हैं कि सरदार पटेल की प्रतिमा की जगह कितने नए एम्स बन सकते थे, कितने वेंटिलेटर आ सकते थे, कितनी जिंदगियों को बचाया जा सकता था, ऐसी तमाम तुलना लोग कर रहे हैं और ऐसे तमाम हिसाब लोग लगा रहे हैं। वैसे तो भारतीय संसदीय लोकतंत्र में एक बार जिसे बहुमत देकर संसद में भेज दिया गया, उसका सब कुछ बर्दाश्त करना संवैधानिक मजबूरी है, लेकिन यह लोकतांत्रिक मजबूरी बिल्कुल नहीं है। लोकतंत्र तो चुनाव प्रणाली से या संसदीय व्यवस्था से बहुत ऊपर की एक चीज होती है जिसमें जनमत का सम्मान भी एक बात होती है, और आज जब यह देश दूसरे देशों से आ रही ऑक्सीजन से अपने लोगों की सांसें जारी रखने पर मजबूर हुआ है, उस वक्त यह देश 20000 करोड़ रुपए का यह शान-शौकत वाला प्रोजेक्ट जबरदस्ती जारी रखकर दानदाता देशों को क्या दिखाना चाह रहा है? अगर इस देश के पास सचमुच संसद की एक निहायत गैरजरूरी इमारत के लिए और उसके आसपास की दूसरी इमारतों के लिए 20000 करोड़ रुपए की फिजूल की रकम है, तो फिर उसे दूसरे छोटे-छोटे देशों से मदद क्यों लेनी चाहिए? मदद देने और लेने में कोई दिक्कत नहीं होना चाहिए लेकिन जो देश आज दूसरे देशों से मदद ले रहा है उसे अपनी फिजूलखर्ची पर तो काबू पाना चाहिए? आज जहां लाशों को जलने के लिए जगह नहीं मिल रही, जहां कब्रिस्तानों में दफन होने के लिए 2 गज जमीन नहीं मिल रही, वहां पर कई बंगलों के अहाते में अकेले रहने वाले प्रधानमंत्री, एक और अधिक शान शौकत वाले नए बंगले में रहने जाएं, इससे किसका कलेजा ठंडा होगा? अगर प्रधानमंत्री निवास के मोर से भी पूछा जाए वह भी इससे खुश नहीं होगा।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिंदुस्तान भर में चल रहे कोरोना के खतरे के बीच उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अफसरों को एक गौरक्षा हेल्पडेस्क बनाने का आदेश दिया है जिसमें सरकार की तरफ से नीचे तक यह आदेश चले गया है कि कोरोना वायरस की सक्रियता को देखते हुए सभी गौशालाओं में कोरोना प्रोटोकॉल का सख्ती से पालन कराया जाए, साथ ही मास्क लगाया जाए और बार-बार थर्मल स्क्रीनिंग की जाए। इस आदेश में यह सख्त हिदायत दी गई है कि गौशाला में गायों और अन्य जानवरों के लिए सभी चिकित्सा उपकरण हर समय उपलब्ध रहें ताकि उनकी सेहत का ख्याल रखा जा सके। योगी सरकार की यह बहुत अच्छी बात है कि उसने महामारी की मार के बीच गायों का इतना ख्याल रखा है। खासकर उस वक्त जब यूपी का हाईकोर्ट लगातार यूपी सरकार को कोरोना मोर्चे की बदइन्तजामी को लेकर लताड़ लगा रहा है। ऐसे वक्त गायों का इतना ख्याल रखना कोई छोटी बात नहीं है और हिंदुस्तान में यह रिवाज चले आ रहा है कि जिस किसी बच्चे को पिटाई पडऩे की नौबत आए तो वह माँ-माँ कर कर दौडऩे लगता है, ठीक उसी तरह हिंदुस्तान में कुछ पार्टियां, उनकी सरकारें, और उनके नेता कभी गाय की आड़ में जाकर अपने को बचाते हैं, कभी भारतमाता की आड़ लेते हैं उसके पल्लू के पीछे छुपते हैं, कभी वे देश के तिरंगे झंडे की आड़ लेते हैं, फिर पश्चिम बंगाल जैसा कोई चुनाव रहे तो वे जय श्री राम के पीछे से प्रचार करते हैं। इसलिए आज जब योगी ने गायों की फिक्र की है, तो वह बहुत अच्छी बात दो हिसाब से है कि जिन लोगों को उत्तर प्रदेश में ठीक से इलाज नहीं मिल रहा है उन्हें कम से कम इतनी दिमागी राहत तो रहेगी कि उन्हें ना सही गौमाता को अच्छी तरह इलाज मिल रहा है, और गौमाता के इलाज से बढक़र इंसान का अपना खुद का इलाज थोड़ी हो सकता है? बस यही है कि बाबा रामदेव से लेकर भाजपा के कई मंत्रियों और सांसदों-विधायकों तक की कही हुई बात आज थोड़ी सी अटपटी लगती है कि गाय ऑक्सीजन छोड़ती हैं, गोबर और गोमूत्र के बीच कोई रोग जिन्दा नहीं रह सकता, और गोबर और गोमूत्र लेप लेने से कोरोनावायरस नहीं आता। अब इसके बाद अगर योगी सरकार प्रदेशभर की गौशालाओं में सख्त आदेश निकालकर ऑक्सीजन परखने की मशीन और इलाज की मशीन, बुखार नापने के थर्मामीटर सबका इंतजाम कर रही है, तो भी कोई बात नहीं। वैसे तो गाय भाजपा नेताओं के मुताबिक पर्याप्त ऑक्सीजन पैदा करती है, फिर भी वह मां है इसलिए उसकी सेहत के लिए यह इंतजाम तो होना ही चाहिए।
हिंदुस्तान में दिक्कत यह है कि जब कभी देश की कोई वैज्ञानिक जरूरत रहती है जो कि सरकार पूरी नहीं कर पाती, तो उसके जवाब में इस तरह के धार्मिक, आध्यात्मिक, तथाकथित आयुर्वेदिक, और तथाकथित वैदिक इलाज लागू कर दिए जाते हैं, उन्हें बढ़ावा दिया जाता है। क्योंकि वैज्ञानिक इलाज का इंतजाम करना तो खासी तैयारी मांगता है, लंबी योजना मांगता है, और खर्च भी मांगता है। इसलिए उसकी जगह पर अगर जय श्री राम, भारतमाता, गौ माता, और तिरंगे झंडे से इलाज किया जा सकता है तो वह देसी जुगाड़ सबसे ही अच्छा है। जब लोगों के दिमाग से वैज्ञानिक सोच खत्म कर दी जाए, वे गोमूत्र में सोना देखने लगते हैं, गोबर में हर बीमारी का इलाज देखने लगते हैं और अगर हमारी याददाश्त ठीक साथ दे रही है, तो किसी एक नेता ने तो यह आविष्कार भी पिछले वर्षों में सामने रखा था कि अगर गोबर को बदन पर लेप लिया जाए तो कोई परमाणु प्रदूषण भी बदन को प्रभावित नहीं कर सकता ! अब यह एक अलग बात है कि जिस समय अमेरिकी फौज ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर बम गिराए थे जापानियों के पास उस वक्त गोबर था नहीं, और लाखों जापानी परमाणु विकिरण और प्रदूषण में ही मारे गए थे। इसलिए भारत में गोबर और गोमूत्र की यह तैयारी चीन और पाकिस्तान से किसी परमाणु युद्ध के खतरे की नौबत में भी काम आएगी। और हमारा ख्याल है कि उत्तर प्रदेश के हाई कोर्ट में जहां कल तक योगी सरकार को जजों की फटकार का जवाब देते नहीं बन रहा था, वहां आज सरकार के पास गौशालाओं के लिए की गई है तैयारी एक बहुत बड़ा कानूनी बचाव रहेगी।
इस देश का स्वास्थ्य मंत्री सार्वजनिक मंच पर आकर रामदेव नाम के एक पाखंडी की दवा की साख स्थापित करने का काम करता है जिसके मंच पर किए हुए दावों को ही 24 घंटों के भीतर अमेरिका से विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुख्यालय को झूठा करार देना पड़ता है। सरकार का पूरा नजरिया और भाजपा के बहुत सारे नेताओं और मंत्रियों, सांसदों और विधायकों का नजरिया, वैज्ञानिक जरूरत के जवाब में पाखंड को खड़ा करने का है, और दिलचस्प बात यह भी है कि इस पाखंड को हिंदुस्तान के इतिहास के एक अनदेखे और बिनलिखे अध्याय से भी जोड़ दिया जाता है, उसे गौरवशाली भी करार दे दिया जाता है और यह मान लिया जाता है हिंदुस्तान का विज्ञान पूरी दुनिया में सबसे आगे था और दुनिया यहीं से विज्ञान को लूट कर ले गई थी। जब अपने देश की जनता एक नामौजूद रहे इतिहास पर गर्व करने से अपना पेट भरने लगे, तो फिर सरकार को और चाहिए क्या। इसलिए जैस उत्तर प्रदेश में बिना ऑक्सीजन, बिना इलाज, बिना दवा लोग मर रहे हैं, और सुप्रीम कोर्ट से लेकर यूपी हाईकोर्ट तक के जज बौखलाए हुए हैं, वहां पर गायों को कोरोना से बचाने की यह फि़क्र कमाल की है, और योगी सरकार की इस कल्पनाशीलता की तारीफ करनी चाहिए जो कि इस देश की अदालत में वैधानिक बचाव के लिए फौलादी ढाल की तरह उसके काम आएगी। अदालत में भी जब जज सुनेंगे कि गौशाला की गायों के लिए इतना इंतजाम किया गया है, तो वे मान लेंगे कि इसके बाद ऐसी गौमाताओं की इंसानी औलादों की फिक्र करने और उनके लिए इंतजाम करने की जरूरत क्या है?
हिंदी भाषा जानने वालों के बीच कुछ ऐसे शब्द भी प्रचलित रहते हैं जिनका उन्हें मतलब ठीक से नहीं मालूम रहता, और ना ही वे उसकी तस्वीर की कल्पना कर पाते, जैसे भट्ठा बैठ गया। अब यह भट्ठा कैसा होता है जो कि बैठ जाता है, और क्या बाकी वक्त खड़े रहता है, यह कल्पना कुछ मुश्किल रहती है कि यह आखिर होता क्या है! लेकिन जिन लोगों ने ईंट के भट्ठे देखे हैं, वे कल्पना कर सकते हैं कि बड़ी मेहनत से कच्ची ईंटों को एक के ऊपर एक लगाकर जिस तरह से जमाया जाता है और फिर भीतर भट्टी सुलगाकर ईंट भट्ठा लगाया जाता है, वह अगर बैठ जाए, यानी ध्वस्त हो जाए, अंग्रेजी में कहें तो कोलैप्स हो जाए, तो कुछ ऐसा ही हाल पिछले एक पखवाड़े से सुप्रीम कोर्ट और दिल्ली हाईकोर्ट में केंद्र सरकार का दिख रहा है। ऐसा लगता है कि सरकार का भट्ठा बैठ चुका है। सुप्रीम कोर्ट अपने सवाल केंद्र सरकार को ठीक से समझा नहीं पा रही है क्योंकि केंद्र सरकार समझते हुए अनजान बनना चाहती है। और जो चाहकर अनजान बने, उसे कोई जानकार क्या बना सकते हैं, फिर चाहे वे सुप्रीम कोर्ट हो, या फिर दिल्ली हाईकोर्ट हो।
कुछ दिन पहले दिल्ली हाईकोर्ट ने ऑक्सीजन की डिमांड और सप्लाई को लेकर जितने सवाल किये, और उनके जवाब हलफनामे पर मांगे, तो केंद्र सरकार के वकील ने अदालत से गुजारिश की इन जवाबों को हलफनामे पर ना मांगा जाए। यह बहुत हैरानी की बात है कि आंकड़ों और तथ्यों को अगर देश एक बड़ी अदालत जानना चाह रही है तो केंद्र सरकार उसे हलफनामे पर देने से कतरा रही है। कोई सरकार जब ऐसा करती है तो एक सामान्य समझ बूझ से भी हमें यह शंका होती है कि सच इतना असुविधाजनक है कि सरकार उसे अदालत को बताना नहीं चाहती है. वरना और कौन सी वजह हो सकती है कि केंद्र सरकार पीनाज मसानी की तरह यह गजल गाने लगे कि ऐसी बातें पूछते नहीं हैं जो बताने के काबिल नहीं हैं। केंद्र सरकार का यह रुख जरा भी हैरान नहीं करता है क्योंकि वह सच बताने की हालत में नहीं है। काफी देर से, मानो दिन निकलने के घंटों बाद दोपहर को सोकर अदालत उठी हो, और देर से नींद टूटने के बाद वह हड़बड़ाहट में केंद्र सरकार से सवाल-जवाब कर रही हो. वक्त बहुत बर्बाद हो चुका है लेकिन फिर भी अदालत तो अदालत है और सुप्रीम कोर्ट तो शाम को भी सो कर उठे तो भी वह उस मुल्क के लिए सुबह कहलाएगी और इसलिए अब रोज सरकार अदालत में जवाब तलब की जा रही है, और वहां जानकारियां देने के बजाय जानकारियां न देने में अधिक दिलचस्पी रख रही है। केंद्र सरकार का यह हाल कुछ नया नहीं है, वह एकतरफा काम करने की आदी रही है। उसे अधिक सवाल-जवाब पसंद नहीं है, मुख्यमंत्रियों या राज्यों की तरफ से किए गए सवाल ही उसे पसंद नहीं हैं, अपनी नजरों में वह इतनी काबिल है कि उसे कोई सलाह भी पसंद नहीं, लेकिन अब अदालतों का दुस्साहस है कि वे केंद्र सरकार से सवाल कर रही हैं ! वह भी इस केंद्र सरकार से!
आज इस तरह की जानकारी दिल्ली हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को लेनी पड़ रही है, उत्तर प्रदेश और मद्रास जैसे हाई कोर्ट को छोटे-छोटे मामलों में केंद्र और राज्य सरकार से जवाब मांगना पड़ रहा है, हुक्म देना पड़ रहा है और लॉक डाउन लगाने का फैसला भी खुद ही लेना पड़ रहा है, ऐसी नौबत देश के अलग-अलग राज्यों में कई जगहों पर है। और शायद यह पहला मौका है जब देशभर में आपस में जुड़ा हुआ कोरोनावायरस खतरा सभी राज्यों को कहीं ना कहीं जोडक़र चल रहा है, लेकिन फिर भी सुप्रीम कोर्ट यह मान रहा है कि इस मामले में अलग-अलग राज्य के हाई कोर्ट अगर अपने अपने प्रदेश के मामलों की सुनवाई कर रहे हैं तो सुप्रीम कोर्ट उनमें दखल देना नहीं चाहता है, क्योंकि वे हाईकोर्ट अपने राज्य को बेहतर समझते हैं। अब तक किसी राज्य के हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का कोई बड़ा टकराव नहीं हुआ है और उत्तर प्रदेश में लॉकडाउन का हुक्म देने वाले हाईकोर्ट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट ने रोक जरूर दिया है, लेकिन हाईकोर्ट की खुद होकर शुरू की गई सुनवाई को नहीं रोका है और फिर चाहे कितनी ही देर से क्यों ना सही सुप्रीम कोर्ट ने खुद होकर ऑक्सीजन के मामले में, वैक्सीन के मामले में, केंद्र सरकार से जवाब तलब शुरू किया है। और दिल्ली में तो हाल यह है कि हाईकोर्ट ऑक्सीजन सप्लायर के कारोबार को अपनी निगरानी में लेने की बात कर रहा है।
यह पूरा सिलसिला अभूतपूर्व है, और भारतीय लोकतंत्र की व्यवस्था में कार्यपालिका की इतनी छोटी-छोटी बातों को जब न्यायपालिका को देखना पड़ रहा है, तो उसके बारे में महज यही कहा जा सकता है कि कार्यपालिका यानी सरकार का भ_ा बैठ गया है। और यह बात हम अदालत के रुख को देखकर ही नहीं कर रहे हैं, हमारे नियमित पाठक यह देख रहे हैं कि हम लगातार किस तरह सरकार की नाकामी, सरकार की निष्क्रियता, सरकार की बदइंतजामी के बारे में लिखते आ रहे हैं, और सरकार की नीयत और उसकी क्षमता दोनों पर काफी शक हम जाहिर कर चुके हैं। यह सिलसिला आज देश में महज एक वजह से जारी है कि देश में निर्वाचित सरकार को वापस बुलाने का कोई संवैधानिक प्रावधान संविधान बनाते हुए रखा नहीं गया था। और फिर यह भी है कि आज की केंद्र सरकार लोगों की भावनात्मक लुभावनी लहरों पर सवार, शोहरत के आसमान पर है, उसे भला कौन हिला सकता है?
ऐसे में लोगों को अपनी सोच बनाते हुए सुप्रीम कोर्ट की कही बातों को भी देखना चाहिए जो कि वह सरकार के बारे में कह रहा है। हो सकता है कि इस मामले का फैसला आए और उस फैसले में सरकार के खिलाफ कुछ भी ना रहे जैसा कि पिछले वर्षों में सुप्रीम कोर्ट के बहुत से मामलों में दिखाई देता रहा है कि सरकार की आलोचना महज जजों की जुबानी जमाखर्च में दिखती है, फैसलों में वह नदारद रहती है। वैसा ही कुछ अभी भी हो सकता है। लेकिन देश की जनता को अपने राजनीतिक शिक्षण के लिए अपनी राजनीतिक जागरूकता के लिए अदालत में चल रही बहस को भी सुनना चाहिए, जजों की बात को भी सुनना चाहिए, और जिस वकील के अदालत में हार जाने का खतरा अधिक है, उसके तर्कों को भी सुनना चाहिए। हारे हुए के अधिक तर्क तो अदालत के फैसले में भी नहीं आते, इसलिए उसकी बात को अभी यहीं सुन लेना चाहिए। यह नहीं मानना चाहिए कि अदालत इंसाफ लिखने जा रही है, बहुत से मामलों में अदालत इंसाफ नहीं लिखती, महज एक फैसला लिखती है। इसलिए जिन लोगों की पहुंच अदालती कार्यवाही की खबरों तक है, उन्हें अदालत के सवाल-जवाब, अदालत की बहस, इन सबको पढऩा चाहिए और उसके बाद अदालत के फैसले से परे अपनी सामान्य समझबूझ से, प्राकृतिक न्याय की अपनी बुनियादी समझ से, फैसला करके देखना चाहिए कि क्या वह अदालत के फैसले से मेल खाता है?
जब देश में न्यायपालिका पर लोगों का पूरा पूरा भरोसा बच नहीं गया है और हमारे जैसे लोकतांत्रिक लोग भी जब अदालत के रुख, रवैये, और उसके निष्कर्षों पर हैरान होते रहते हैं, तो जनता को तो इसके बारे में सोचना ही चाहिए। लेकिन जनता को केंद्र सरकार के बारे में भी यह सोचना चाहिए कि आखिर इस सरकार को राज्यों की ऑक्सीजन की जरूरत, देश में ऑक्सीजन के उत्पादन और ऑक्सीजन के बंटवारे के बारे में पूछे गए आंकड़ों को हलफनामे पर देने में क्या दिक्कत हो रही है क्योंकि अदालत में किसी बात को हलफनामे पर कहने में दिक्कत केवल यह होती है कि वह अगर गलत निकल जाए तो हलफनामा देने वाले एक सजा के हकदार हो सकते हैं। आज केंद्र सरकार के सामने क्या इस तरह का कोई खतरा मंडरा रहा है ? क्या इस तरह का खतरा मंडरा रहा है कि उसने ऑक्सीजन पहुंचाने में चूक की है, राज्यों के साथ भेदभाव किया है, आखिर किस्सा क्या है? यह सवाल इसलिए भी उठता है कि इसी वक्त के आसपास जब सुप्रीम कोर्ट में कोरोना की वैक्सीन के मोल भाव को लेकर बहस चल रही थी, और वकीलों के बीच नहीं चल रही थी, सुप्रीम कोर्ट के जज और केंद्र सरकार के वकील के बीच चल रही थी, जब जज यह जानना चाहते थे कि वैक्सीन के इतने तरह के रेट क्यों रखे गए हैं? केंद्र सरकार पेटेंट कानून के तहत इस रेट पर काबू क्यों नहीं कर सकती है, तो यह सवाल भी ऑक्सीजन के सवाल के साथ मिलकर एक बड़ी तस्वीर पेश करता है कि भट्ठा किस तरह बैठ गया है। ईंट का भट्ठा पकने के पहले अगर बैठ जाए तो वह बहुत बड़ी तबाही होता है कबाड़ बन चुकी, ढेर बन चुकी, वैसे कच्ची ईंट न ईंट रह जाती, और ना ही मिट्टी रह जाती। आज देश में सरकारी इंतजाम का हाल कुछ इसी तरह का दिख रहा है जब वह मुर्दों से उम्मीद की जा रही है कि वे आत्मनिर्भर हो जाएं, और खुद इंतजाम कर लें अपने जलने का, जब बीमारों से उम्मीद की जा रही है कि वे कम ऑक्सीजन लें, और अधिक ऑक्सीजन लेकर देश पर बोझ न बनें, तो यह बैठ चुके भट्ठे की हालत दिखती है, किसी चलते हुए कारोबार का हाल नहीं दिखता।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कोरोना के मोर्चे पर हिंदुस्तान में अब एक नई बहस शुरू हो गई है कि क्या कोरोना वायरस उतार पर है और यह भी कि किन-किन राज्यों में हालत सुधर रही है। एक ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने एक वक्त कहा था कि दुनिया में झूठ 3 किस्म के होते हैं, झूठ, सफेद झूठ, और आंकड़े। हिंदुस्तान में यही आंकड़ों का खेल चल रहा है. हम सरकारों की नीयत को संदेह का लाभ देते हुए इसे झूठ नहीं कह रहे, लेकिन इसे अपने आपको धोखा देने के लिए दिया गया झांसा जरूर मानते हैं कि कोरोना उतार पर है। कल जब केंद्र सरकार ने यह गिनाया कि किन-किन प्रदेशों में कोरोना के आंकड़े कम हो रहे हैं, तो देश के विशेषज्ञों ने सरकार के ऐसे दावों को पूरी तरह से खारिज कर दिया। उन्होंने कहा कि अभी कोई गिरावट नहीं आ रही है, और कोरोना का पीक 15 जून तक आ सकता है, 15 जून यानी अभी से करीब 6 हफ्ते और !
जिस तरह आज कई दिनों के बाद देश में पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़े हैं, क्योंकि चुनावी मतगणना पूरी हो गई है, उसी तरह देश में अब धीरे-धीरे कुछ राज्यों में कोरोना की सच्ची जांच होने लगेगी, जांच के आंकड़े बढ़ेंगे, और उसके साथ ही यह हकीकत पता लगेगी कि वहां पर कोरोना की हालत कितनी खराब है, कितनी भयानक है. जिन राज्यों में चुनाव नहीं था और जिन राज्यों की छवि बचा कर रखने की एनडीए के पास कोई खास वजह नहीं थी, ऐसे कुछ राज्यों ने तो ईमानदारी से जांच की और महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में कोरोना के आंकड़े बहुत अंधाधुंध बढे हुए दिखाई पड़े। लेकिन क्या हिंदुस्तान में ऐसी कोई वजह हो सकती है कि बिहार और यूपी के चारों तरफ के राज्यों में कोरोना का भयानक प्रकोप हो और ये दोनों लापरवाह राज्य कोरोना से इतने बचे हुए रहें, जबकि उनकी आबादी छत्तीसगढ़ जैसे राज्य से 5-10 गुना अधिक है? इसलिए जब देश के बहुत से लोग यह कहते हैं कि कुछ राज्य सोच-समझ कर कोरोना जांच कम कर रहे हैं, कुछ राज्य गुजरात की तरह सोच-समझकर ऐसी किसी मौत को कोरोना मौत दर्ज नहीं कर रहे जिसमें मृतक को कोई भी और बीमारी रही हो, तो ऐसी नौबत में आंकड़े जो हैं, वे कहीं लोगों का अहंकार पूरा करने के काम आ रहे हैं, कहीं लोगों की इज्जत बचाने के काम आ रहे हैं, लेकिन ये हकीकत दिखाने के काम में नहीं आ रहे हैं. हिंदुस्तान के बाहर की बहुत सी एजेंसियों का, बहुत से विशेषज्ञों का, यह मानना है कि हिंदुस्तान में कोरोनाग्रस्त लोगों के जो आंकड़े बताए जा रहे हैं, हकीकत उनसे 10-20 गुना अधिक बुरी भी हो सकती है।
आज एक और किस्म की हकीकत है जिसे समझने की जरूरत है। पिछले 4 हफ्तों में देश के अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग किस्म के लॉकडाउन रहे, कहीं रात का कफ्र्यू रहा, कहीं दिन का, और जिंदगी की रफ्तार को धीमा किया गया. यह भी तब जबकि पिछले एक महीने के पहले साल-छह महीने से लगातार स्कूल-कॉलेज बंद चल रहे हैं, बीच के कुछ हफ्तों को छोडक़र सिनेमाघर बंद चल रहे हैं, मॉल बंद चल रहे हैं, बीच के कुछ महीनों को छोडक़र रेस्तरां बंद चल रहे हैं, और पिछले महीने भर से तो अधिकतर जगहों पर बाजार सीमित समय के लिए खुल रहे हैं. बहुत सारी चीजें बंद हैं, सरकारी दफ्तर बंद हैं, छत्तीसगढ़ में लॉकडाउन को 3 हफ्ते या उससे अधिक समय हो चुका है, तो इस तरह से जिंदगी की रफ्तार को नियंत्रित किया गया है. इसकी वजह से भी आज ऐसे सभी प्रदेशों में प्रतिबंधों के अनुपात में ही कोरोना संक्रमण कम होते दिख रहा है, कहीं-कहीं पर मौतें भी कम होते दिख रही हैं, लेकिन अगर कोई यह कहे कि इन प्रदेशों की सरकारों ने कोरोना को काबू में कर लिया है तो यह निहायत फिजूल की बात होगी। यह नियंत्रण आज किसी भी तरह से कोरोना पर नहीं, यह नियंत्रण आज अपने प्रदेश की जनता की जिंदगी पर हुआ है, उसकी आवाजाही, उसका कामकाज, उसका उठना-बैठना उसके सामाजिक अंतरसंबंध, इन पर नियंत्रण हुआ है. सरकार की कोई रोक-टोक, सरकार के कोई प्रतिबंध, जिलों के लगाए हुए कोई लॉकडाउन, कोरोना पर लागू नहीं हैं, इंसानों पर लागू हुए हैं, कारोबार पर लागू हुए हैं, सरकारी कामकाज पर लागू हुए हैं. इसलिए आज कोरोना में अगर कहीं पर बढ़ोतरी थमी हुई दिख रही है या गिरावट दिख रही है तो इस बात को अच्छी तरह से समझ लेने की जरूरत है कि किसी सरकार ने कोरोना पर काबू नहीं पाया है, सरकारों ने केवल अपने लोगों की जिंदगी पर काबू पाया है जिससे कि कोरोना और फैलने का खतरा था।
आज तो यह इंसान की जिंदगी को अस्थाई रूप से निलंबित करके कोरोना के संक्रमण को बढऩे से रोकने जितनी बात ही हुई है, आज अगर कोई यह सोचे कि किसी प्रदेश में कोरोना के आंकड़े 3 हफ्ते पहले के आंकड़ों तक आ गए हैं तो यह अपने को झांसा देना होगा। आज नियंत्रित जिंदगी में कोरोना, पहले की अनियंत्रित जिंदगी जितना घट भर गया है. आज फिर से लॉकडाउन खुलेगा तो शायद उसकी वजह से संक्रमण बढऩा फिर शुरू हो सकता है. आज देश में ना संक्रमण काबू में दिख रहा है, ना टीकाकरण बढ़ते हुए दिख रहा है, ना इलाज और अस्पताल की क्षमता में बढ़ोतरी दिख रही है, और न अस्पतालों में भीड़ में कोई कमी आ रही है।
आज भारत में कोरोना के आंकड़ों को घटता हुआ देखकर जिन लोगों को यह लग रहा है कि जिंदगी बहुत जल्दी अपने स्वाभाविक रफ्तार में आ जाएगी यह उनकी जरूरत से अधिक आशावादी सोच है. कोरोना इतनी जल्दी लोगों को इतना नहीं छोड़ रहा है कि जिंदगी पहले की तरह चलने लगे. हमने बंगाल में लाखों लोगों की चुनावी आमसभाओं की भीड़ को देखा है और उसकी वजह से कोरोना के आंकड़े अब वहां सामने आना शुरू होंगे, दूसरी तरफ उत्तराखंड जैसे राज्य में कुंभ के मेले में एक-एक दिन में 10-10, 20-20 लाख लोगों के गंगा में डुबकी लगाने की वजह से जो कोरोना प्रसाद की तरह बंटा है, वह देश भर में गांव-गांव और गली-गली तक पहुंचना शुरू हो चुका है इसलिए किसी को भी यह नहीं मानना चाहिए कि कोरोना का बढऩा एकदम से थम गया है. एकदम से थमी है बस जिंदगी।
यह सरकारों को देखना है कि जिन-जिन लोगों की रोजी-रोटी छिन रही है उसकी भरपाई कैसे हो सकेगी, लोग जिंदा कैसे रह सकेंगे। इसको केंद्र और राज्य सरकारों को सोचना पड़ेगा लेकिन लॉकडाउन एक कड़वी दवा है जिसे पिए बिना कोरोना से उबरना नामुमकिन नहीं हो पाएगा। आज हम तीनों से बहुत दूर हैं, इलाज की क्षमता से बहुत दूर हैं, दवा से बहुत दूर हैं, वैक्सीन से बहुत दूर हैं. आज हमारे देश के डॉक्टर, स्वास्थ्य कर्मचारी, और फ्रंटलाइन वर्कर मौत झेल रहे हैं और लोगों को ऐसे में अपने घरों में सुरक्षित रहना चाहिए और अगर सरकारों को लंबा लॉकडाउन लगाने की जरूरत पड़ती है तो उसके लिए तैयार भी रहना चाहिए। जिंदगी रहेगी, तो काम किसी ना किसी तरह से आगे चल निकलेगा, और आज तो हिंदुस्तान में केंद्र सरकार और राज्य सरकारों ने मिलकर लोगों के लिए खाने का इतना इंतजाम किया हुआ है कि एक भी हिंदुस्तानी के भूखे मरने की नौबत नहीं आएगी। आज लोगों को इसी बात को बहुत मानकर चलना चाहिए कि वे भूखे नहीं मर रहे हैं। क्योंकि सरकारों की ताकत कोरोना से एकाएक जीतने की नहीं है, एकाएक टीके पैदा नहीं हो रहे हैं, जिस वक्त हिंदुस्तान में भारत सरकार को जागरूक रहकर इसका इंतजाम करना था, उसने कुछ किया नहीं और आज सारा ठीकरा राज्यों के सिर पर फोड़ दिया गया है। इसलिए लोगों को अपने-अपने राज्य की सरकारों का साथ देना चाहिए। उससे सवाल करने चाहिए, उसकी नाकामयाबी या गलतियों पर लिखना चाहिए, लेकिन उसका साथ भी देना चाहिए। सरकारों के लिए भी लॉकडाउन जनता के मुकाबले कोई कम तकलीफ का नहीं है, सरकारी खजाने में टैक्स का आना खत्म सा हो गया है. और ऐसे में प्रदेश को चलाना किसी के लिए भी बहुत मुश्किल बात है, फिर मोदी सरकार की मेहरबानी से तो आज हर प्रदेश को अपने लोगों के लिए टीके भी खरीदना है, तो इन हालात में अपने-अपने प्रदेश की सरकार के तय किये लॉकडाउन के लिए लोग तैयार रहें।
आखिर में एक बात, इस देश के जिस एक नेता राहुल गाँधी की कोरोना के बारे में कही हर बात सही साबित हुई है, उसने अभी 3 घंटे पहले ट्वीट किया है कि अब लॉकडाउन ही अकेला रास्ता बचा है।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)