विचार/लेख
-रजनीश कुमार
34 साल के जयेश का होम टाउन पोरबंदर है। वह अहमदाबाद में रहते हैं। उनकी शिकायत है कि पोरबंदर अब भी विकास से कोसों दूर है। जयेश सुबह-सुबह अपने दोस्त मनोज के साथ समंदर में नहाने आए हैं। उनसे पूछा कि पिछले 27 सालों से बीजेपी यहाँ चुनाव जीत रही है, यह पोरबंदर के लिए कैसा रहा?
जयेश कहते हैं, ‘मेरे परिवार में आधे से ज़्यादा लोग ब्रिटेन में रहते हैं। मैं उनसे पूछता हूँ कि वे भारत कब आएँगे? उनका जवाब होता है कि हम वहाँ आकर क्या करेंगे? दस साल पहले सडक़ों पर जो गड्ढे थे, अब भी नहीं भरे हैं। न तो वहाँ कुछ बदल रहा है और न ही विकास हो रहा है।’
वो कहते हैं, ‘वैसे मेरा वर्कटाउन अहमदाबाद है। मुझे जब छुट्टी मिलती है तो पोरबंदर आता हूँ। अहमदाबाद में मेट्रो आ गई है। लेकिन पोरबंदर गांधी जी की जन्मस्थली के बावजूद बहुत पिछड़ा हुआ है। नरेंद्र मोदी को पोरबंदर की तरफ भी देखना चाहिए, क्योंकि यहाँ के विधायक और सांसद भी बीजेपी के ही हैं। मोदी ने काम किया है लेकिन कुछ गिने-चुने शहरों में ही किया है। पोरबंदर में तो कुछ हुआ ही नहीं है।’
चालीस साल के धर्मेश पटेल शेयर ब्रोकर का काम करते हैं। उनका कहना है कि मोदी ने अहमदाबाद का कायाकल्प कर दिया है, लेकिन पोरबंदर में कुछ नहीं हुआ है। वह कहते हैं, ‘यहाँ जो भी इंडस्ट्री थी, वो बंद हो गई। इन्हें फिर से शुरू नहीं किया गया। पोरबंदर का कुछ भी नहीं हुआ है।’
पोरबंदर पहली नजर में देखने पर भारत का बाकी के शहरों की तरह ही लगता है। यहाँ ज्यादातर पुरानी इमारते हैं। पुरानी इमारतों को देखते हुए बनारस की याद आती है।
‘पोरबंदर में विकास कम लेकिन
इसमें मोदी की गलती नहीं’
पैंतालीस साल के न_ा भाई स्विमिंग कोच हैं।
उनसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, ‘यहाँ कांग्रेस लंबे समय तक रही। 1995 से यहाँ बीजेपी का राज है लेकिन पोरबंदर का कुछ नहीं किया। गांधी की जन्मस्थली है, यहाँ कुछ तो खास होना चाहिए था। इन्होंने समुद्र तट को ठीक कर दिया। रिवर फ्रंट बना दिया। घूमने के लिए तो ठीक है लेकिन रोजी-रोटी के लिए कुछ नहीं किया।
वो कहते हैं, ‘पहले यहाँ कितनी इंडस्ट्री थी लेकिन सब बंद हो गई। लोगों को रोजी-रोटी चाहिए लेकिन यहाँ काम के लिए कुछ नहीं है। मछुआरे भी तकलीफ में हैं।’
जिग्नेश पटेल पोरबंदर में पैथोलॉजी लैब चलाते हैं। वे अपनी पत्नी किंजल पटेल के साथ चौपाटी (समुद्र तट) पर आए हैं। उनसे पूछा कि वह पीएम मोदी के बारे में क्या सोचते हैं?
जिग्नेश पटेल ने कहा, ‘मैं सरदार पटेल और मोदी को आदर देता हूँ। सरदार पटेल ने रियासतों को एक किया। यह बड़ा काम था। मोदी के आने के बाद भी पूरे देश में काम हुआ है। यह केवल गुजरात की बात नहीं है। पोरबंदर में पैसा भेजा जाता है, लेकिन पैसे कहाँ चला जाता है, इसे देखना चाहिए।
वो कहते हैं, ‘पोरबंदर में विकास कम हुआ है, लेकिन इसमें मोदी की ग़लती नहीं है। मोदी ने पटेल की इतनी ऊंची मूर्ति बनाई है। इससे हमारा मान बढ़ा है।’
60 साल के अशोक सिंह ऑटो चलाते हैं। वे कहते हैं कि सरकार को पोरबंदर पर भी ध्यान देना चाहिए, क्योंकि यहाँ रोजी-रोटी को लेकर बहुत कुछ करने की जरूरत है। अशोक सिंह कहते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी गांधी की विरासत को लेकर पोरबंदर में काम करें, ताकि बापू को समझने और पढऩे में मदद मिले।
पोरबंदर में बीजेपी और कांग्रेस
को ‘आप’ से चुनौती
पोरबंदर में 2012 से विधानसभा चुनाव बीजेपी के बाबूभाई भीमाभाई बोखरिया जीत रहे हैं।
वे कांग्रेस के अर्जुन मोढ़वाडिय़ा को पिछले दो विधानसभा से चुनाव हरा रहे हैं। दोनो मेर जाति के हैं। मेर ख़ुद को राजपूत बताते हैं। मेर जाति यहाँ ओबीसी में है। जातीय समीकरण के हिसाब से देखें तो यहाँ मेर जाति का वोट सबसे ज़्यादा है।
बाबूभाई बोखरिया कहते हैं कि यहाँ मेर जाति का वोट 74 हजार है। इसके बाद ब्राह्मणों का वोट 32 हजार और 26 वोट के साथ तीसरे नंबर पर मछुआरे हैं।
आम आदमी पार्टी ने मछुआरे जाति से ताल्लुक रखने वाले जीवन जंग को यहाँ से मैदान में उतारा है। कांग्रेस और बीजेपी दोनों इस बात से चिंतित हैं कि कहीं आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार के कारण उन्हें हार का सामना न करना पड़े।
क्यों रास आ रही है हिंदुत्व की विचारधारा?
यहाँ के आम लोगों में बीजेपी और पीएम मोदी को लेकर शिकायतें हैं, लेकिन फिर भी ये कहते हैं कि बीजेपी ही सत्ता में आएगी।
आखिर ऐसा क्या हुआ कि गांधी की विचारधारा में पले-बढ़े लोगों को हिन्दुत्व की विचारधारा रास आने लगी?
कई लोगों का मानना है कि गुजरात में गांधी के बाद नॉलेज ट्रेडिशन पूरी तरह से ग़ायब है। जाने-माने समाज विज्ञानी अच्युग याग्निक इसे बौद्धिक गरीबी कहते हैं। वह पोरबंदर में बीजेपी की जीत को इसी बौद्धिक गरीबी से जोड़ते हैं।
वे कहते हैं- 1960 में गुजरात एक अलग राज्य बना था। इससे पहले बॉम्बे से शासित होता था। गुजरात के गठन से लेकर कांग्रेस पार्टी के आने तक आरएसएस कुछ नहीं कर पाया। गुजरात में कई दंगे हुए हैं। एक 1969 में हुआ। तब कांग्रेस की ही सरकार थी और हितेंद्र देसाई मुख्यमंत्री थे।
दूसरा दंगा 1985 में हुआ, तीसरा 1992 में हुआ और उसके बाद 2002 में हुआ। आरक्षण विरोधी आंदोलन भी हुए। एक 1981 में और दूसरा 1985 में।
वरिष्ठ पत्रकार राजीव शाह मानते हैं कि इन दंगों और आरक्षण विरोधी आंदोलन से बीजेपी का परचम पूरे गुजरात में लहराया।
हालाँकि गुजरात में 2002 के दंगे का असर पोरबंदर में उस तरह से नहीं पड़ा था। 2002 में दंगों के कारण गुजरात विधानसभा चुनाव में धार्मिक ध्रुवीकरण की बात कही जाती है लेकिन तब भी पोरबंदर से कांग्रेस के अर्जुन मोढ़वाडिय़ा ही जीते थे।
‘मोदी हिंदुत्व की राजनीति
की वजह से लोकप्रिय’
भानूभाई ओडादरा पोरबंदर जि़ला कोर्ट में वकील हैं।
वो कहते हैं, ‘मोदी हिन्दुत्व की राजनीति के कारण यहाँ लोकप्रिय हैं। यहाँ के ब्राह्मण और मछुआरे बीजेपी के साथ जाते हैं। मछुआरे गरीब हैं और उन्हें बीजेपी कहती है कि वोट नहीं दोगे तो पाकिस्तान वाले बोट जब्त कर लेंगे और कोई फिर छुड़ा नहीं पाएगा।’
वो कहते हैं, ‘पाकिस्तान से बचना है तो बीजेपी को जिताओ। मछुआरों को यह बात अपील करती है। लेकिन इस बार आम आदमी पार्टी ने मछुआरे को ही टिकट दिया है इसलिए बीजेपी को नुक़सान हो सकता है।’
2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से चुनावी राजनीति में बीजेपी को वहाँ भी जीत मिली, जहाँ अतिवादी वामपंथियों का केंद्र रहा या फिर गांधीवादियों का। वो चाहे पश्चिम बंगाल का माटीगरा-नक्सलबाड़ी इलाक़ा हो या गांधी की जन्मस्थली पोरबंदर। (www.bbc.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कर्नाटक और गुजरात के मेडिकल कॉलेजों ने गजब कर दिया है। उन्होंने अपने छात्रों की फीस बढ़ाकर लगभग दो लाख रु. प्रति मास कर दी है। याने हर छात्र और छात्रा को डाक्टर बनने के लिए लगभग 25 लाख रु. हर साल जमा करवाने पड़ेंगे। यदि डाक्टरी की पढ़ाई पांच साल की है तो उन्हें सवा करोड़ रु. भरने पड़ेंगे। आप ही बताइए कि देश में कितने लोग ऐसे हैं, जो सवा करोड़ रु. खर्च कर सकते हैं?
लेकिन चाहे जो हो, उन्हें बच्चों को डाक्टर तो बनाना ही है। तो वे क्या करेंगे? बैंकों, निजी संस्थाओं, सेठों और अपने रिश्तेदारों से कर्ज लेंगे, उसका ब्याज भी भरेंगे और बच्चों को किसी तरह डॉक्टर की डिग्री दिला देंगे। फिर वे अपना कर्ज कैसे उतारेंगे? या तो वे कई गैर-कानूनी हथकंडों का सहारा लेंगे या उनका सबसे सादा तरीका यह होगा कि वे अपने डॉक्टर बने बच्चों से कहेंगे कि तुम मरीजों को ठगो। उनका खून चूसो और कर्ज चुकाओ। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए आजकल निजी अस्पतालों में जबर्दस्त लूट-पाट मची हुई है।
उनके कमरे पांच सितारा होटलों के कमरों से भी ज्यादा सजे-धजे होते हैं। किसी मरीज की एक बीमारी के कारण का पता करने के लिए डॉक्टर लोग दर्जनों ‘टेस्ट’ करवा देते हैं। और फिर दवाइयां भी ऐसी बता देते हैं, जिससे रोगी का रोग द्रौपदी का चीर बन जाए ताकि उससे मोटी राशि वसूली जा सके। हमारे डॉक्टर अपना धंधा शुरु करने के पहले यूनानी दार्शनिक के नाम से चली ‘हिप्पोक्रेटिक शपथ’ लेते हैं, जिसमें आदर्श और नैतिक आचरण की ढेरों प्रतिज्ञाएं हैं।
क्या वे उनका पालन सच्चे मन से कभी करते हैं? उनके उल्लंघन से ही उनका पालन ज्यादातर डॉक्टर करते हैं। उन डॉक्टरों की पढ़ाई की यह लाखों रु. फीस इस उल्लंघन का सबसे पहला कारण है। हमारे सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर घोर आपत्ति की है। उसने एक याचिका पर अपना फैसला देते हुए कहा है कि जिन कॉलेजों ने अपनी फीस में कई गुना वृद्धि कर दी है, यह शुद्ध लालच का प्रमाण है। यह कॉलेज के प्रवेश और फीस-निर्णायक नियमों का सरासर उल्लंघन है।
इस तरह की फीस के दम पर बने डॉक्टरों से सेवा की उम्मीद करना निरर्थक है। इसका एक गंभीर दुष्परिणाम यह भी होगा कि गरीब, ग्रामीण और मेहनतकश तबकों के बच्चे डॉक्टरी शिक्षा से वंचित रह जाएंगे। वे इतनी मोटी फीस कैसे भरेंगे? नतीजा यह होगा कि हमारे डॉक्टरों में ज्यादा वही होंगे, जिनके माता-पिता ऊँची जातियों के होंगे, मालदार होंगे, शहरी होंगे और शिक्षित होंगे। इस तरह के वर्गों से आनेवाले युवा डॉक्टरों में सेवा का विनम्र भाव कितना होगा, इसका अंदाज आप स्वयं लगा सकते हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
बलात्कार और हत्या के अपराधियों को जिस तरह हमारे सर्वोच्च न्यायालय ने बरी कर दिया है, उनके इस फैसले ने हमारी न्याय-व्यवस्था, शासन-प्रशासन और देश की इज्जत को काफी हद तक नुकसान पहुंचाया है। 2012 में दिल्ली के छावला क्षेत्र में एक 19 वर्षीय लडक़ी के साथ तीन लोगों ने मिलकर बलात्कार किया, पीट-पीटकर उसके अंग-भंग किए और उसकी लाश को ठिकाने लगा दिया। वे पकड़े गए। निचली अदालत और दिल्ली उच्च-न्यायालय ने उन्हें मौत की सजा सुनाई।
पिछले लगभग नौ साल से वे जेल काट रहे थे, क्योंकि उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में अपनी याचिका लगा रखी थी। सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें यह कहकर बरी कर दिया है कि उनके विरुद्ध न तो पुलिस ने पर्याप्त प्रमाण जुटाए हैं और न ही निचली अदालतों में गवाहों की परीक्षा ठीक से की गई है। निचली अदालतों के फैसलों को रद्द करने का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय को जरुर है लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के लगभग आधा दर्जन ऐसे फैसलों की जानकारी मुझे है, जिन्हें बाद में इसी न्यायालय ने रद्द कर दिया है।
इसीलिए इस मामले में इस फैसले को अंतिम और उत्तम मान लेने का कोई कारण नहीं है। इस पर देश के प्रबुद्ध लोगों को सवाल जरुर उठाने चाहिए। पहला सवाल तो यही है कि इस फैसले का निष्कर्ष क्या है? क्या इसका निष्कर्ष यह है कि जब कोई दोषी ही नहीं है तो दोष हुआ है, यह कैसे माना जाए? याने बलात्कार और हत्या जैसे कुकर्म हुए ही नहीं हैं तो क्या उस लडक़ी को उसके माँ-बाप ने खुद ही मारकर आग के हवाले कर दिया था? क्या उस लडक़ी ने अपने अंगों और गुप्तांगों को खुद ही भंग कर लिया था? क्या उसने अपनी हत्या भी खुद ही कर ली थी?
यदि यह सही है तो फिर पिछले नौ साल से जेलखाने में सड़ रहे उन तीनों सज्जनों की पीड़ा के लिए जिम्मेदार कौन है? उन पुलिसवालों और उन जजों को कौनसी सजा दी गई है, जिन्होंने उनके खिलाफ झूठी जांच की है और गलत फैसला दिया है? क्या सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले ने भारत की पुलिस और न्यायपालिका की भद्द पीटकर नहीं रख दी है? 10 साल तक कोई मुकदमा चलता रहे और संभावित मुजरिम जेल में मुफ्त के मेहमान बने रहें, क्या यह देश के करदाताओं पर जुल्म नहीं है?
यह मामला इतना गंभीर है कि इसकी दुबारा जांच की जानी चाहिए और अदालत को इस पर दुबारा विचार करना चाहिए, जैसे कि जेसिका लाल की हत्या के बारे में हुआ था। इस मुकदमे ने यह बुनियादी सवाल भी हमारे देश के नेताओं के सामने खड़ा कर दिया है कि भारत में कानून की पढ़ाई और अदालती फैसले क्या उसी तरह से अब भी होते रहेंगे, जैसे कि वे गुलामी के ब्रिटिश ज़माने में होते रहे थे? हमें अपनी मौलिक और स्वतंत्र न्याय-व्यवस्था खड़ी करनी होगी, जिसमें फैसले तुरंत हो और सचमुच न्यायपूर्ण हों।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-राजेश जोशी
7 नवम्बर अंतिम मुग़ल बादशाह ख़ुद्दार बहादुरशाह ज़फ़र की पुण्य-तिथि थी। इसी दिन 1862 में उन्होंने वतन से दूर अंग्रेज़ों की क़ैद में रंगून में आख़िरी सांस ली थी।
कितना बदनसीब है ज़फ़र दफ़्न के लिए,
दो ग़ज़ ज़मीन भी न मिली कू ए यार में
1857 की असफल क्रांति के बाद अंग्रेज़ सेनानायक हडसन ने हुमायूँ के मक़बरे से शाही ख़ानदान के 16 सदस्यों के साथ 87 साल के बूढ़े क़ैदी और भारतीय क्रांतिकारियों के कमांडर बहादुर शाह ज़फ़र को गिरफ़्तार किया था।
स्वयं हडसन ने उनके दो जवान बेटों मिर्ज़ा मुग़ल, मिर्ज़ा ख़िज़्र सुल्तान और किशोर पोते मिर्ज़ा अबूबख़्त को अपनी कोल्ट पिस्तौल से पॉइंट ब्लेक शूट किया और उनकी सर कटी लगभग वस्त्रहीन लाश चाँदनी चौक की एक कोतवाली पर तीन दिन तक लटका रखी ताकि लोगों में दहशत फैले।
हडसन ने जो स्वयं कुछ-कुछ उर्दू जानता था शायर और बुज़ुर्ग बादशाह को गिरफ़्तार करते हुए कहा-
"दमदमे में दम नहीं अब ख़ैर मांगो जान की, ऐ ज़फ़र ठंडी हुई तेग़ हिंदुस्तान की।।
ख़ुद्दार वतनपरस्त बूढ़े बादशाह ज़फ़र ने जवाब दिया-
'ग़ाज़ियों में बू रहेगी जब तलक़ ईमान की,
तख़्ते लंदन तक चलेगी तेग़ हिन्दोस्तान की।।'
बुज़ुर्ग बादशाह के गर्वीले जवाब से आगबबूला हडसन ने तीनों मुग़ल शहज़ादों के कटे हुए सर सुर्ख़ कपड़े से ढंके एक थाल में बादशाह को भेंट करते हुए कहा-सरकार बहादुर ने आपके लिए तोहफ़ा भेजा है।
ज़फ़र ने थाल के ऊपर ढँका कपड़ा हटा कर देखा। उसमें उसके दो जवान बेटों और एक पोते के खून से सने कटे हुए सर रखे थे।
दिल थाम कर सुनिए साहेबान
वयोवृद्ध ज़फर ने आहिस्ता से उसे वापस ढँका और हडसन की आँखों में आँखें डालकर कहा-"मुग़ल शहज़ादे इसी तरह सुर्ख़रू होकर अपने वालिद के सामने आते हैं।"
टाइम्स ऑफ़ इंडिया की 2005 की रिपोर्ट के अनुसार उनके वारिस कोलकाता के हावड़ा में एक गन्दी बस्ती में गुज़र-बसर करते पाए गए।
बहादुर शाह ज़फ़र और मुग़ल ख़ानदान चाहता तो अंग्रेज़ों के सामने गिड़गिड़ाकर माफ़ी मांग सकता था और ऐश करता रह सकता था जैसे दूसरे करते रहे। आज भी कर रहे।
बाक़ी जिनको देशभक्त मुग़लों को गाली देकर अपना मुँह ख़राब करना हो करते रहें। मुग़लों और उनके वतनपरस्त वंशजों को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।
अफ़सोस राष्ट्रवाद का दम भरने वाले किसी संगठन, किसी लीडर, किसी एंकर ने उन्हें आज पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि देना मुनासिब नहीं समझा।
ज़फर आपकी ख़ुद्दारी, आपकी वतनपरस्ती पर देशभक्त करोड़ों हिंदुस्तानियों को हमेशा गर्व रहेगा।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले का कौन स्वागत नहीं करेगा कि सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में 10 प्रतिशत आरक्षण का आधार सिर्फ गरीबी होगी। यह 10 प्रतिशत आरक्षण अतिरिक्त है। याने पहले से चले आ रहे 50 प्रतिशत आरक्षण में कोई कटौती नहीं की गई है। फिर भी पांच में से दो जजों ने इस आरक्षण के विरूद्ध फैसला दिया है और तमिलनाडु की सरकार ने भी इसका विरोध किया है। जिन दो जजों ने इसके विरुद्ध फैसला दिया है, उनके तर्कों में दम नहीं है।
उनका कहना है कि 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण देना संविधान का उल्लंघन करना है। संविधान की किसी धारा में आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत निश्चित नहीं की गई है। तो मान ली गई हैं, 1992 में सर्वोच्च न्यायालय में आए इंदिरा साहनी मामले के कारण! अब सर्वोच्च न्यायालय क्या वहीं बैठा रहे, जहां वह 30 साल पहले बैठा हुआ था? उसी समय नरसिंहराव-सरकार ने गरीबी के आधार पर लोगों को आरक्षण देने की घोषणा की थी। उसी घोषणा को 2019 में भाजपा सरकार ने संविधान का अंग बना दिया।
अब कांग्रेस और भाजपा दोनों इसका श्रेय लूटने की प्रतिस्पर्धा में हैं लेकिन मैं तो जन्म के आधार पर दिए गए सारे आरक्षणों के एकदम विरुद्ध हूं, चाहे वह अनुसूचितों या पिछड़ों या तथाकथित अल्पसंख्यकों को दिया जाए। मेरी राय में आरक्षण जन्म के आधार पर नहीं, जरुरत के आधार पर दिया जाना चाहिए। मुझे खुशी थी कि नरसिंहराव और मनमोहनसिंह सरकार ने उस दिशा में कदम बढ़ाए और मोदी बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने इस मामले में ठोस निर्णय का साहस दिखाया। लेकिन यह काम अभी भी अधूरा है।
संसद में 2019 में जब गरीबी को आरक्षण का आधार बनाकर सरकार विधेयक लाई थी, तब 323 सांसदों ने उसका समर्थन किया था और सिर्फ 3 सांसदों ने विरोध। लेकिन किसी नेता या पार्टी की आज हिम्मत नहीं है कि वह डॉ. आंबेडकर की इच्छा को मूर्त रूप दे सके। उन्होंने कहा था कि जन्म के आधार पर दिया गया आरक्षण दस साल के लिए काफी है। अब तो इसको पैदा हुए दर्जनों साल हो गए हैं। यह देश में अयोग्यता, अकर्मण्यता, भेदभाव, जातिवाद और मलाईदार वर्ग को प्रोत्साहित करने का साधन बन गया है।
इसी कारण देश की सारी सरकारें रेवड़ी-संस्कृति की शिकार हो रही हैं। थोक वोट का लालच याने कुर्सी का लोभ हमारे सारे नेताओं के लिए इतना प्रगाढ़ हो गया है कि उन्होंने राष्ट्रहित को दरी के नीचे सरका दिया है। यदि नौकरियों के बजाय शिक्षा और चिकित्सा में आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया गया होता तो सरकारी भीख पर कौन जिंदा रहना चाहता? गरीबी के आधार पर दिया गया आरक्षण जातीय और सांप्रदायिक आरक्षण से कहीं बेहतर सिद्ध होता।
वह भारत में एकता और समानता का मूलाधार बनता और 75 साल में भारत की गिनती दुनिया के महासंपन्न और महाशक्तिशाली राष्ट्रों में हो जाती। सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय एक अधूरी लेकिन बहुत सराहनीय शुरुआत है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-ध्रुव गुप्त
उर्दू को ऐसे ही मुहब्बत की भाषा नहीं कहा गया है। सचमुच ही यह ऐसी भाषा है जिसे सुनते ही दिलों में नाज़ुकी और हवा में ख़ुशबू तैर जाती है। जो तहज़ीब, जो बांकपन और दिलों में उतर जाने की अदा उर्दू में है, वह और कहीं नहीं। मेरा दुर्भाग्य रहा कि मैं कभी शुद्ध-शुद्ध उर्दू का उच्चारण नहीं कर सका। ज़ुबां में वैसी लोच ही नहीं आ पाई।
दोस्तों को खूबसूरत अंदाज़ में उर्दू बोलते सुनकर मुझे ईर्ष्या होती है। एक दफ़ा उर्दू के एक बड़े उस्ताद शायर को मैंने कहा- मैंने बहुत-बहुत कोशिश की उस्ताद, लेकिन मेरी ज़बान से आपलोगों जैसी उर्दू निकलती ही नहीं। उनका कहना था- 'बस मुहब्बत कर लीजिए ज़नाब, उर्दू अपने आप आ जाएगी।' आज यह देखकर अफ़सोस होता है कि एक ही भाषा से जन्मी और हिन्दी की सगी बहन कही जाने वाली मुहब्बत की यह भाषा अपने ही वतन में उपेक्षा झेल रही है।
हिंदी को हिंदुओं की और उर्दू को मुसलमानों की भाषा कहा जाने लगा है। नतीज़तन उर्दू बोलने वालों और इसकी क़द्र करने वाले लोगों की संख्या में लगातार कमी आ रही है। यह बेहद अफ़सोसनाक तो है, लेकिन इसमें ताज़्ज़ुब की कोई बात नहीं। मुहब्बत और मुहब्बत की ज़बान ने आख़िर इतिहास के किस दौर में उपेक्षा और बदसलूकी नहीं झेली है ?
आज विश्व उर्दू दिवस पर उर्दू प्रेमी दोस्तों को बधाई, बशीर बद्र साहब के इस शेर के साथ - वो इत्र-दान सा लहजा मिरे बुज़ुर्गों का / रची-बसी हुई उर्दू ज़बान की ख़ुश्बू !
-Sudiep Shrivastava
INTRODUCTION & DEMOGRAPHY :
On 29th October, the last date for withdrawal of nominations in Himachal Pradesh, 413 candidates remain in the fray for 68 seats.
The BJP and Congress are the front runners for the seat of power in Shimla, the elections look evenly poised.
The State has a tradition to vote out the incumbent Government. That pervading feeling and tradition is the biggest strength of the Congress Party which is lacking a towering leader like Veer Bhadra Singh.
On the other hand the BJP is also facing a leadership crunch but of a different kind. Chief Minister Jairam Thakur is not perceived to be a strong administrator as his predecessors and is thus more dependent on the Central Leadership to sail them through.
DEMOGRAPHY:
The State has 32% Thakur/Rajput population. Except BJP’s Shantakumar, all other former CMs came from this community. Another 18% is Bramhins. HP is an upper caste majority State.
The Dalits/SC are 27% but they are divided into 40 odd different sub-castes and do not form a cohesive vote block.
The OBC and STs are 13 and 6 percent respectively. They too are divided into many sub-castes. Except Kangra Region and some areas like Sirmour where HATI (Please specify) community fought for ST status- a demand which was acceded to by the central government- caste is not a sole dominating factor and remain in underplay here unlike UP and Bihar where the same is most prevalent reason in any election.
THE INFIGHTING : While Congress is used to facing such revolt, this time BJP will also face the burnt
There are 7 rebel candidates contesting from Congress fold whereas BJP has had to grapple with double that number.
The Rebel factor will affect the prospects of both the parties.
The notable Congress rebels are Subhash Chandra Manglet of Chopal, Gangu Ram Musafir of Pachchhad, whereas the BJP is not able to manage Hiteshwar Singh in Banjar, Abhishek Singh Thakur in Sundar Nagar and Praveen Sharma in Mandi Sadar seat.
What is more important is that all these three seats lie in the area from where sitting CM Jairam Thakur comes.
It is true that both Congress and BJP have been able to convince some of the rebels. For instance, Congress persuaded former Minister Kuldeep Kumar in Chintpurni and BJP convinced Maheshwar Singh from Kullu.
However, that may not be enough and the outcome of the election is likely to be affected in a big way by this rebellion in which BJP appears to be on a weaker wicket.
THE CM POST TUSSLE :
While before ticket announcement, leaders like Pratibha Singh, Mukesh Agnihotri and Sukhvinder Sukhu and many more were claimants for the top post.
The groupism in the Congress has permeated to block and even village level which may result in loss of some 2 to 5 thousands votes in every seat. This is a significant number in a State which has most of the assemblies with 70 to 80 thousand voters.
The Union Minister of State Anurag Thakur, son of former CM Prem Kumar Dhumal has also not been able to secure tickets in the desired numbers for his followers. The BJP has somehow consoled him by accommodating Ravinder Ravi. HOWEVER Dhumal Senior is still believed to be very angry for being sidelining JP Nadda. This may generate sizable dissent amongst the BJP cadres which the top leadership may find difficult to overcome. 11 MLAs of BJP have been denied tickets may silently work to ensure the defeat of the person who has been preferred by the party over them.
ISSUES :
The main issues of the Himachal Election is the question of Change like previous elections. The BJP is trying hard to convince the voters that it would be able to buck this trend.
Whereas the Congress is focusing on the issues like UnEmployment and Inflation as that will limit the capacity of the Prime Minister Modi to attract voters especially Women and Youths. The OPS Old Pension Scheme is also a big issue as out of total families of the Himachal, more than 15% are directly related to Government Jobs. The AgniVeer scheme has added insult to the injury of unemployment and youths and their parents are especially angry.
DEVELOPMENT DONE MAY NOT BE ENOUGH :
In the last five years some Big Ticket Development projects have been commenced/inaugurated by the BJP leadership like IIT at Mandi, IIM at Solan, AIIMS at Bilaspur, resumption of Air Services at Shimla, New Airport Project at Mandi however that may not be enough to overcome the anti-incumbency generated against the MLAs and the State Government. The Rural Road is still a big question whereas not providing new employment is also an issue. The Apple farming area is also hit by imposition of GST on all packing cartons. The GST on the food items have not gone down well whereas 3 free LPG Cylinders is negated by the price rise of that very cylinder.
WELFARE MEASURES :
The major achievement of the State Government is considered to be HIMCARE Scheme which is for health issue money assistance. 50% reduction of Bus Fare to women is also being welcomed while Critically ill patients also get special assistance under the Sahara scheme. However, the continuation of these schemes is being put under question as the BJP Central Government is opposing the concept of Freebies and calling them “Revadi”. On the other hand Congress is giving an offer of “Ten Guarantees'' which includes soaps for different sectors including for Employment and Old Pension Scheme and 300 Unit free power per month to every household.
SABOTAGE CONTROL–ELECTION MANAGEMENT – X FACTOR AAP
The aforesaid averments clearly points out that the Himachal 2022 is not going to be A Cake Walk for any of the Party. Here AAP is not putting as much effort as it is putting in Gujarat yet a sizable 5-6 % voters are blindly following Arvind Kejariwal model of Governance. Those votes are coming from both Congress and BJP fold. However it’s a thumb rule that any third party divides Anti Government Votes and in that sense it will cut more votes of Congress than BJP. This factor is also going to be viewed in the coming Himachal Election.
A political party which would be more able to control sabotage effectively and keep its flock together has a better chance in the Himachal Pradesh to win the election. Congress though has lost it in 2017 but its vote share was well above 41% which is a crucial factor in any bipolar State. The BJP has touched a high of 49% votes in the 2017 Election and is bound to come down a bit. Though the BJP has denied tickets to 11 of its MLAs so far, its 30 plus MLAs are still in fray with sizable anti-incumbency against many of them. The Bye Elections of 2021 results were also not very positive for BJP yet the strength of its Election Machinery and zeal to win each and every election put it in an equal position like Congress. Congress on the other hand has to ensure coordinated campaign and least number of rebel candidates against its official candidates. It also requires keeping an eye on the AAP candidate and its support base in any particular constituency to ensure that the damage caused by AAP would not result in the win of a BJP candidate who is otherwise likely to lose.
(Writer is a practicing lawyer in Chhattisgarh High Court, and a regular political analyst on national news channels)
-सहर बलोच
पाकिस्तान की राजनीति में सिविल-मिलिट्री संबंध हमेशा से बहस का मुद्दा रहा है और हर दौर में राजनीतिक नेतृत्व व सैन्य प्रशासन के संबंध में उतार-चढ़ाव आते रहे हैं।
पिछले एक दशक से राष्ट्रीय राजनीति में सिविल-मिलिट्री के इस ‘लव एंड हेट’ रिलेशन में एक और शब्दावली ‘एक पेज पर’ होने का इस्तेमाल चर्चा में आई।
पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान के दल पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ ने इस ‘सेम पेज’ यानी ‘एक साथ, एक राय’ की शब्दावली को बहुत अधिक इस्तेमाल किया।
साल 2011 में मीनार-ए-पाकिस्तान में पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ की जनसभा के दृश्य कुछ लोगों को याद होंगे। उस जनसभा को राष्ट्रीय राजनीति के क्षितिज पर पीटीआई के उत्कर्ष की शुरुआत भी कहा जाता है।
उस जनसभा के बाद राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा भी आम हुई थी कि इमरान खान को सेना का आशीर्वाद प्राप्त हो गया है।
साल 2018 के आम चुनाव में पीटीआई (पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ) के खैबर पख़्तूनखवा और पंजाब में सरकार बनाने में सफलता के बाद जब इमरान खान प्रधानमंत्री चुने गए तो पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के चेयरमैन बिलावल भुट्टो ने उनको ‘सेलेक्टेड’ की उपमा दी जिसका मतलब यह था कि उनको जनता ने नहीं बल्कि सेना ने चुना है।
बिलावल का इशारा फौज की ओर था। अगले तीन साल के दौरान प्रधानमंत्री इमरान खान ने कई बार सेना के साथ अच्छे संबंध का दावा भी किया और उसका बचाव भी।
इमरान खान और उनकी पार्टी ने खुलकर सेना को समर्थन का इज़हार किया और मीडिया व खबरों में सिविल व मिलिट्री नेतृत्व को ‘एक पेज पर’ बताया जाता रहा।
इमरान और फौज के संबंधों में ‘दरार’
राष्ट्रीय सियासी इतिहास पर नजर दौड़ाएं तो फ़ौज का जो समर्थन पीटीआई के हिस्से में आया, ऐसा किसी और दल को कभी नहीं मिला और इस बात का दावा शुक्रवार को प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान भी किया।
मगर पीटीआई और फौज के ‘एक पेज पर’ होने के दावे में परिवर्तन के संकेत पिछले साल के अंत में उस समय सामने आने शुरू हुए जब उस वक्त के डीजी आईएसआई लेफ्टिनेंट जनरल फैज हमीद की जगह नए मुखिया की तैनाती का मामला सामने आया।
और ‘एक पेज पर’ होने के दावे में दरार पैदा होती गई और फिर यह मामला इस साल अप्रैल मैं प्रधानमंत्री इमरान खान के सत्ता से बाहर होने पर आकर रुका।
इस परिस्थिति में पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान ने पहले दबे शब्दों में और फिर खुलेआम फ़ौज के शीर्ष नेतृत्व को इस राजनीतिक झटके में शामिल बताया।
कभी ‘न्यूट्रल’ तो कभी किसी और शब्द का सहारा लेकर इमरान खान ने संस्था को आलोचना का निशाना बनाना शुरू किया तो यह स्पष्ट हो चुका था कि अब वह ‘एक पेज पर’ होने का दावा बाकी नहीं रहा।
हालात ‘टकराव’ तक पहुंचे कैसे?
हाल ही में पीटीआई चेयरमैन इमरान खान और दूसरे नेताओं की ओर से शीर्ष फौजी अफसरों के नाम लेकर उन पर गंभीर आरोप लगाया जाना और इसकी प्रतिक्रिया में असाधारण तौर पर आईएसआई के मुखिया की ओर से एक प्रेस कॉन्फ्रेंस ने इस मामले पर मुहर लगा दी।
लेकिन यहां कुछ सवाल उभरते हैं कि वही इमरान खान जो कुछ समय पहले तक आर्मी चीफ जनरल कमर जावेद बाजवा के लोकतंत्र प्रेम पर लट्टू थे और उनका दल संस्था के साथ होने का दम भरते नहीं थकता था, आखिर क्यों इस हद तक नाराज हुए?
इन सवालों के जवाब जानने के लिए बीबीसी ने कुछ वरिष्ठ पत्रकारों और विश्लेषकों से बात की है।
वरिष्ठ पत्रकार व विश्लेषक नुसरत जावेद के अनुसार, ‘हालात इस हद तक ऐसे पहुंचे कि इमरान खान की सरकार के दौरान आम जनता निराशा प्रकट कर रही थी, आर्थिक स्थिति बदतर होती जा रही थी और बात नेतृत्व पर आ गई। इमरान खान को इस दौरान पूरी तरह यह मालूम था कि उनके बारे में सैन्य नेतृत्व क्या कह रहा है और क्या कर रहा है।’
उनका कहना था, ‘इसकी एक कड़ी जुड़ती है मार्च 2021 से जब पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के यूसुफ रज़ा गिलानी मुल्तान से चुनाव जीत गए थे। चुनाव आयोग ने 2021 के सीनेट चुनाव के लिए गिलानी के नामांकन पत्र को मंज़ूर करते हुए सत्तारूढ़ दल की ओर से उठाई गई आपत्तियों को रद्द कर दिया था।’
उच्च सदन में गिलानी की जीत पर प्रधानमंत्री इमरान खान ने आरोप लगाया था कि ‘सीनेट चुनाव में पैसा चला है’ क्योंकि चुनाव से कुछ दिन पहले ही एक वीडियो सामने आया था जिसमें यूसुफ रजा गिलानी के पुत्र अली हैदर गिलानी कथित तौर पर पीटीआई सदस्यों को वोट रद्द करवाने का तरीका बता रहे थे।’
नुसरत जावेद कहते हैं, ‘इमरान खान को समझ आ गया था कि यह सैन्य नेतृत्व की ओर से किया गया है।’
‘पाकिस्तान की राजनीति में सिर्फ एक बॉस है’
पत्रकार सिरिल अल्मीडा कहते हैं, ‘पाकिस्तान में नागरिक और सैन्य नेतृत्व के बीच होने वाली झड़पों की बुनियाद एक ही है कि राजनीति में एक समय में एक ही बॉस हो सकता है। देर सवेर इस बात का अंदाजा सभी राजनीतिज्ञों को हो जाता है और ऐसा ही कुछ इमरान खान के मामले में भी हुआ है।’
उन्होंने टिप्पणी करते हुए कहा, ‘ऊपरी तौर पर तो इमरान खान और फौज के बीच विवाद डीजी आईएसआई की तैनाती पर हुआ, लेकिन वास्तव में इसका संबंध इस बात से भी है कि अगला आर्मी चीफ कौन होगा?’
पत्रकार सिरिल अल्मीडा का कहना है, ‘इमरान खान और सेना अध्यक्ष जनरल कमर जावेद बाजवा के बीच इस बात पर सहमति थी कि जनरल बाजवा इमरान खान को प्रधानमंत्री बनवाएंगे और इमरान खान बदले में जनरल बाजवा को सेवा विस्तार देंगे और ऐसे ही चलता रहेगा।’
वह कहते हैं कि इस तरह के समझौतों में हुआ ये कि, ‘क्योंकि इमरान खान भविष्य का सोचते हैं तो उन्होंने अपने आने वाले पांच साल की तैयारी करनी शुरू कर दी और इस दौरान आर्मी चीफ इमरान के लिए गैर जरूरी हो गए और उन्हें किसी और साझीदार की जरूरत पड़ गई, जिसके बाद से चीजें खराब होनी शुरू हो गईं।’
वह टिप्पणी करते हुए कहते हैं, ‘अगर डीजी आईएसआई की तैनाती पर होने वाले विवाद की बात करें तो इमरान ख़ान नहीं चाहते थे कि लेफ़्िटनेंट जनरल फैज हमीद का तबादला किया जाए, इस बात को वह खुलकर स्वीकार भी कर चुके हैं, लेकिन उनका तबादला हो गया। यह विवाद सार्वजनिक होने के बाद विपक्ष को अपने लिए अवसर नजर आया।’
‘
जूनियर बाजवा कहलाना कैसा लगता था?’
सिरिल अल्मीडा का कहना है, ‘बहुत से लोगों को और मुझे भी इस बात की जिज्ञासा थी कि इमरान खान हर दिन जनरल बाजवा के जूनियर पार्टनर के नाम से बुलाए जाने के बारे में क्या सोचते थे या महसूस करते थे, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से ऐसा नहीं था।’
‘समय के साथ इमरान खान को अपने कार्यालय की शक्ति और बतौर प्रधानमंत्री अपने अधिकारों का एहसास हुआ, जिसके बाद उन्होंने इस शक्ति का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया, चाहे वह अंतरराष्ट्रीय मामले हों या फिर राष्ट्रीय सुरक्षा के, और यहीं से इमरान खान के लिए कठिनाइयों की शुरुआत हुई।’
वह कहते हैं, ‘यहां यह बात स्पष्ट करना भी आवश्यक है कि पाकिस्तान की सेना ने पहली बार एक लोकप्रियतावादी के साथ समझौता किया और इमरान ख़ान का समर्थक, सेना के राजनीतिक समर्थक से बहुत अलग है।
इमरान खान के बारे में यह कहा जाता है कि 2018 के चुनाव के बाद उनको सेना की ओर से लाया गया था, लेकिन इमरान खान के समर्थक सिर्फ इमरान खान की सुनते हैं, वे फौज के मातहत नहीं।’
मगर पत्रकार नुसरत जावेद की राय इससे कुछ अलग है।
उनका कहना है, ‘यह एक ऐसा समय है जब इमरान खान काफी अतिवाद दिखा रहे हैं। इमरान खान की लोकप्रियता इस हद तक नहीं है कि लोग उनके लिए सैन्य नेतृत्व पर हमलावर हो जाएंगे। पाकिस्तान की लोकतांत्रिक व्यवस्था इतनी सुदृढ़ नहीं कि फ़ौज के साथ टकराव को बर्दाश्त कर सके। इमरान खान पर हमले के बाद उनको समय मिल गया है और इस समय उन्हें चुप्पी साध लेनी चाहिए।’
अब आगे क्या हो सकता है?
पूर्व आईएसआई मुखिया असद दुर्रानी ने बीबीसी से बात करते हुए कहा, ‘फौज और इमरान खान के बीच मनमुटाव तो बाद में हुआ, लेकिन इमरान ने पहले ही शोर मचाना शुरू कर दिया था।’
उन्होंने यह भी कहा, ‘फौज को यह मान लेना चाहिए कि राजनीतिक इंजीनियरिंग गलत हो गई है और हो जाती है। इसको मानने में कोई हर्ज नहीं है।’
असद दुर्रानी इस बारे में कहते हैं, ‘राजनीति में कोई भी लड़ाई सदा के लिए नहीं होती। अगले छह महीनों में यही लोग चुनाव की तैयारी करते नजर आएंगे।’
जबकि पत्रकार सिरिल अल्मीडा के अनुसार, ‘अगर कल चुनाव होते हैं तो इमरान खान की पार्टी सबसे लोकप्रिय पार्टी होने के साथ-साथ संसद में सबसे बड़ी पार्टी बनकर आएगी।
अब वह साधारण बहुमत के साथ आएगी या भारी बहुमत के साथ आएगी, यह अलग सवाल है, लेकिन एक बात तय है कि इमरान खान को अगले चुनाव के लिए फौज की जरूरत नहीं पड़ेगी।’
उन्होंने कहा कि आने वाले सैन्य नेतृत्व के लिए सवाल होगा कि वह इमरान खान के साथ चल सकते हैं या नहीं। उनके साथ समझौता करना चाहते हैं या नहीं और वह तभी पता चलेगा जब नया आर्मी चीफ तैनात होगा।’ (bbc.com/hindi)
-ध्रुव गुप्त
आज कार्तिक पूर्णिमा से शुरू होने वाले बिहार के सोनपुर का हरिहर क्षेत्र मेला एशिया का सबसे बड़ा पशु और ग्रामीण मेला माना जाता है। मेले में बिहार के कोने-कोने से आए लाखों लोग पवित्र गंडक और गंगा के संगम में स्नान कर हरिहर नाथ मंदिर में पूजा-अर्चना करते हैं। मेले की पृष्ठभूमि में पौराणिक कथा यह है कि प्राचीन काल में यहां गज और ग्राह के बीच बड़ी लंबी लड़ाई चली थी। संकट में फंसे हाथी की फरियाद पर विष्णु अर्थात हरि और शिव अर्थात हर ने बीच-बचाव कर इस लड़ाई का अंत कराया था। कथा प्रतीकात्मक है। प्राचीन भारत वैष्णवों और शैव भक्तों के बीच सदियों चलने वाली लड़ाई का साक्षी रहा था। अपने-अपने आराध्यों की श्रेष्ठता स्थापित करने के इस संघर्ष ने हजारों लोगों की बलि ली थी। इस विवाद की समाप्ति के लिए गुप्त वंश के शासन काल में कार्तिक पूर्णिमा को वैष्णव और शैव आचार्यों का एक विराट सम्मेलन सोनपुर के गंडक तट पर आयोजित किया गया। यह सम्मेलन दोनों संप्रदायों के बीच समन्वय की विराट कोशिश थी जिसमें विष्णु और शिव दोनों को ईश्वर के ही दो रूप मानकर विवाद का सदा के लिए अंत कर दिया गया। उसी दिन की स्मृति में यहां देश में पहली बार विष्णु और शिव की संयुक्त मूर्तियों के साथ हरिहर नाथ मंदिर की स्थापना हुई थी। तब से हिंदुओं द्वारा हर साल कार्तिक पूर्णिमा को नदियों के संगम में स्नान कर हरिहर नाथ मंदिर में श्रद्धा निवेदित करने की परंपरा चली आ रही है।
लगभग महीने भर चलने वाले इस मेले में बिहार की ग्रामीण संस्कृति सांस लेती है। शहरों की मॉल और ऑनलाइन संस्कृति में पले-बढ़े लोगों के लिए ऐसे मेलों की प्रासंगिकता अब नहीं रही। मगर एक मामले में इनकी उपादेयता हमेशा बनी रहेगी। कुछ देर के लिए आप मन से आभिजात्य की धूल झाडक़र अपनी जड़ों की ओर लौटना चाहते हैं तो ऐसे किसी मेले के चक्कर लगा आईए! किसी फुटपाथी दुकान में खड़े-खड़े मुढ़ी-पकौड़ी और गरमागरम जलेबियां खाईए! बीवी के लिए चोटी, रिबन, चूडिय़ां, टिकुली-सिंदूर और बच्चों के लिए हवा मिठाई खरीद लीजिए ! किसी थिएटर में नौटंकी और नाच-गाने देखिए! दिल के मरीज नहीं हैं तो आसमानी झूले में थोड़ा-सा ऊपर-नीचे हो लीजिए! आस्तिक हैं तो मंदिर में प्रणाम कर प्रसाद ग्रहण कीजिए! यह बिल्कुल मत सोचिए कि आपको ऐसा करते देख कोई आप भद्र पुरुष या महिला को गंवार कह देगा। हम सब जन्म से गंवार ही होते हैं। भद्रता हमारा ओढ़ा हुआ चरित्र है। मानसिक स्वास्थ्य के लिए इस आरोपित भद्रता से गाहे-बगाहे मुक्ति की दरकार होती है। ये मेले जीवन की समस्याओं और जटिलताओं से मुक्ति के आदिम और कारगर तरीके हैं। अपनी मिट्टी का असर। अपनी सांस्कृतिक जड़ों में प्रवेश का सुख।
बिहार की संस्कृति और लोकजीवन को देखना और महसूस करना हो तो आईए कभी सोनपुर मेले में !
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भाजपा राज्यों की सरकारें एक के बाद एक घोषणा कर रही हैं कि वे समान आचार संहिता अपने-अपने राज्यों में लागू करने वाली हैं। यह घोषणा उत्तराखंड, हिमाचल और गुजरात की सरकारों ने की हैं। अन्य राज्यों की भाजपा सरकारें भी ऐसी घोषणाएं कर सकती हैं लेकिन वहां अभी चुनाव नहीं हो रहे हैं। जहां-जहां चुनाव होते हैं, वहां-वहां इस तरह की घोषणाएं कर दी जाती हैं। क्यों कर दी जाती हैं? क्योंकि हिंदुओं के थोक वोट कबाडऩे में आसानी हो जाती है और मुसलमान औरतों को भी कहा जाता है कि तुम्हें डेढ़ हजार साल पुराने अरबी कानूनों से हम मुक्ति दिला देंगे।
यह बात सुनने में तो बहुत अच्छी लगती है और इतनी तर्कसंगत भी लगती है कि कोई पार्टी या नेता इसका विरोध नहीं कर पाता। हाँ, कुछ कट्टर धर्मध्वजी लोग इसका विरोध जरूर करते हैं, क्योंकि उनकी मान्यता है कि यह उनके धार्मिक कानून-कायदों का उल्लंघन है। यों भी संविधान सभा में सबके लिए समान कानून की धारणा को व्यापक समर्थन मिला था लेकिन क्या वजह है कि आजादी को आए 75 साल बीत रहे हैं और देश में हर तरह की सरकारें बन चुकी हैं, फिर भी किसी सरकार की आज तक हिम्मत नहीं हुई कि वह देश के सभी नागरिकों के लिए व्यक्तिगत और पारिवारिक मामलों में एक तरह का कानून बना सके?
संविधान की धारा 44 में कहा गया है कि राज्य की कोशिश होगी कि सारे देश के नागरिकों के लिए एक-जैसा कानून बने। इसके बावजूद सबके लिए एक-जैसा कानून इसलिए नहीं बना कि भारत विभिन्न धर्मों, संप्रदायों, जातियों, कबीलों और परंपराओं का देश है। सारे हिंदू, सारे मुसलमान, सारे आदिवासी, सारे ईसाई भी शादी-विवाह और निजी संपत्ति के मामलों में अपनी-अपनी अलग-अलग परंपराओं को मानते हैं।
जब एक तबके में ही एका नहीं है तो सब तबकों के लिए एक-जैसा कानून कैसे बन सकता है? जैसे आंध्र के हिंदुओं में मामा-भानजी के बीच शादी हो जाती है और जम्मू-कश्मीर के मुसलमानों पर शरीयत-कानून लागू नहीं होता। गोआ का अपना कानून है। वह सबके लिए एक जैसा है। हर सरकार दुविधा में पड़ी रहती है कि समान आचार संहिता लागू करें या न करें।
भाजपा के लिए तो यह बड़ा सिरदर्द है, क्योंकि यह उसका मूलभूत चुनावी मुद्दा रहा है। भाजपा सरकार ने 2016 में विधि आयोग से भी इस मुद्दे पर राय मांगी थी। लेकिन उसकी राय भी यही है कि बिल्कुल एक-जैसा कानून सब पर नहीं थोपा जा सकता है लेकिन कई निजी कानूनों में काफी सुधार किया जा सकता है ताकि लोगों को सम्मानपूर्ण जीवन का अधिकार मिल सके और भारत के लोग अपनी सांप्रदायिक परंपराओं के अत्याचारों से मुक्त हो सकें। भारत सरकार को चाहिए कि देश के विधिवेत्ताओं, धर्मध्वजियों और विभिन्न परंपराओं के प्रामाणिक प्रतिनिधियों का एक संयुक्त आयोग स्थापित करे और उससे कहे कि वह 2024 के पहले अपनी संपूर्ण रपट राष्ट्र के विचारार्थ प्रस्तुत करे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हाल के सालों में इजराइल में जितनी फुर्ती से सरकारें बनती और बिगड़ती रही हैं, दुनिया के किसी अन्य लोकतंत्र में ऐसे दृश्य देखने को नहीं मिलते। बेंजामिन नेतन्याहू लगभग डेढ़ साल बाद फिर दुबारा प्रधानमंत्री बन गए। उनका यह पुनरोदय असाधारण हैं। वे इजराइल के ऐसे पहले प्रधानमंत्री हैं, जो वहीं पैदा हुए हैं। उनसे पहले जो भी प्रधानमंत्री बने हैं, वे बाहर के किन्हीं देशों से आए हुए थे। जब 1948 में इजराइल का जन्म हुआ था, तब जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन और अमेरिका आदि कई देशों के गोरे यहूदी लोग वहां आकर बस गए थे।
उन्हीं में से एक का बेटा जो 1949 में जन्मा था, अब इजराइल का ऐसा प्रधानमंत्री है, जिससे ज्यादा लंबे काल तक कोई भी प्रधानमंत्री नहीं रहा। 47 साल की उम्र में इजराइल के प्रधानमंत्री बनने वाले वे सबसे कम उम्र के व्यक्ति थे। वे कई बार हारे और जीते। उन्हें दक्षिणपंथी माना जाता है। वे फौज के सिपाही होने के नाते 1967 के अरब-इजराइल युद्ध में अपनी बहादुरी दिखा चुके थे।
यह वह वक्त था, जब इजराइल ने डंडे के जोर पर सीरिया से गोलान की पहाडिय़ां, जोर्डन का पश्चिमी किनारा, गाजा पट्टी और पूर्वी यरूशलम पर कब्जा कर लिया था। उस आक्रामक संस्कार से मंडित नेतन्याहू ने जब इजराइली राजनीति में प्रवेश किया तो वे अरब-विरोधियों के प्रवक्ता बन गए। नरमपंथी प्रधानमंत्री यित्जाक राबिन की हत्या के बाद 1996 में हुए चुनाव में इजराइल की जनता ने घनघोर अरब-विरोधी नेतन्याहू को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बिठा दिया।
नेतन्याहू उस ‘ओस्लो एकार्ड’ के विरोधी थे, जो इजराइल और फलिस्तीन के दो राज्यों को मान्यता दे रहा था। दो राज्यों का यह समाधान आतंकवाद की भेंट चढ़ गया और नेतन्याहू ने उस समझौते की धुर्रियां बिखेर दीं। उन्होंने इजराइल द्वारा कब्जाए गए इलाकों को खाली करने से मना कर दिया, अरबों को इजराइल से निकाल बाहर करने की मुहिम चलाई और फलिस्तनियों से समझौते के सारे रास्ते बंद कर दिए। नेतन्याहू ने अमेरिका से नजदीकी बढ़ाई और ईरान के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय अभियान छेड़ दिया।
उन्होंने ओबामा-काल में ईरान के साथ हुए परमाणु-समझौते का विरोध किया और ईरान के विरुद्ध परमाणु शस्त्रास्त्रों के प्रयोग की धमकी भी दी। उनके ईरान-विरोध ने अरब देशों के सुन्नी शासकों को इजराइल के नजदीक ला दिया। अब इजराइल के मिस्र, सउदी अरब, जोर्डन, यूएई, बहरीन, मोरक्को, सूडान आदि राष्ट्रों से भी ठीक-ठाक संबंध बन गए हैं। भारत और रूस के साथ भी इजराइल के संबंध पहले से बेहतर बनाने में नेतन्याहू का विशेष योगदान है।
उन्हीं के प्रयत्न के फलस्वरूप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इजराइल गए थे और वे खुद दो बार भारत आ चुके हैं। भारत के साथ इजराइल के सामरिक, व्यापारिक और कूटनीतिक संबंध पहले से भी ज्यादा घनिष्ट होने की संभावना है लेकिन फलस्तीन का मामला अब ज्यादा उलझ सकता है, क्योंकि नेतन्याहू की सरकार में यहूदी उग्रवाद के प्रवक्ता भी शामिल हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
खगोलविदों ने एक नया ब्लैकहोल खोजा है जो अब तक का धरती के सबसे करीब मिला ब्लैकहोल है. यह पृथ्वी से मात्र 1,610 प्रकाश-वर्ष दूर है.
डॉयचे वैले पर विवेक कुमार की रिपोर्ट-
खगोलशास्त्रियों को धरती के एकदम बगल में एक ब्लैकहोल मिला है. अब तक इतने करीब कोई ब्लैकहोल नहीं मिला था. यह पृथ्वी से 1,610 प्रकाश-वर्ष दूर है. एक प्रकाश-वर्ष लगभग 94.6 खरब किलोमीटर का होता है. इससे पहले जो प्रकाश-वर्ष धरती के सबसे करीबी होने का तमगा रखता था, वह 3,000 प्रकाश-वर्ष दूर मोनोसेरोस तारामंडल में है.
पिछले हफ्ते वैज्ञानिकों ने बताया कि यह प्रकाश-वर्ष हमारे सूर्य से 10 गुना ज्यादा बड़ा है. इसका पता उन तारों की गति से लगा, जो इसका चक्कर लगाते हैं. वे तारे इस ब्लैकहोल से उतने ही दूर हैं, जितनी दूर पृथ्वी अपने सूर्य से है.
गाया बीएच1
हार्वर्ड-स्मिथसोनियन सेंटर फॉर एस्ट्रोफिजिक्स के करीम अल-बादरी ने बताया कि इस ब्लैकहोल की खोज यूरोपीय स्पेस एजेंसी के गाया अंतरिक्ष यान ने की. अल बादरी और उनकी टीम ने अपनी खोज को पुष्ट करने के लिए डेटा को अमेरिका के हवाई स्थित जेमिनी ऑब्जर्वेटरी को भेजा. इस खोज को रॉयल एस्ट्रोनॉमिकल सोसायटी के मासिक नोटिस में प्रकाशित किया गया है.
नए मिले ब्लैकहोल को गाया बीएच1 नाम दिया गया है. यह ओफाशस तारामंडल में स्थित है. वैज्ञानिक अभी भी इस बारे में कोई पुख्ता जानकारी नहीं दे पाए हैं कि मिल्की वे या आकाश गंगा में यह ब्लैकहोल सिस्टम कैसे बना.
मिल्की वे में अब तक लगभग 20 ब्लैकहोल मिल चुके हैं लेकिन गाया बीएच1 की अहमियत एक तो उसकी पृथ्वी से नजदीकी की वजह से है और दूसरा उसका अलग स्वभाव है, जो वैज्ञानिकों को हैरान कर रहा है. आमतौर पर ब्लैकहोल अपने आसपास वाले तारों को निगल जाते हैं लेकिन बीएच1 ऐसा नहीं कर रहा है. असल में यह कुछ भी नहीं कर रहा है. वैज्ञानिक बताते हैं कि यह एकदम स्थिर और शांत खाली जगह है, जहां ना कुछ है और ना कुछ हो रहा है.
क्यों अद्भुत हैं ब्लैकहोल?
आइनस्टाइन के प्रपेक्षता के सिद्धांत के मुताबिक ब्लैकहोल सर्वाधिक घना क्षेत्र होता है जहां से प्रकाश तक गुजर नहीं सकता. यही वजह है कि वे मनुष्य के लिए प्रकृति में घट रही सबसे उत्सुकतापूर्ण और हिंसक घटना रही हैं. वे अपने आसपास की हर चीज को निगल जाते हैं और उसके बाद वे चीजें कहां जाती हैं, इसकी अब तक कोई जानकारी नहीं है.
वैज्ञानिक नहीं जानते कि ये ब्लैकहोल आते कहां से हैं. एक अनुमान के मुताबिक सिर्फ हमारी आकाश गंगा में दस करोड़ से ज्यादा ब्लैकहोल मौजूद हैं लेकिन यह सिर्फ एक अनुमान है. कई ब्लैकहोल तो इतने बड़े होते हैं कि वे हमारे सूर्य से करोड़ों गुना बड़े भी हो सकते हैं. छोटे ब्लैकहोल बनने के बारे में एक सिद्धांत यह है कि वे तारों से बनते हैं. तारे जब अपनी उम्र पूरी कर लते हैं तो वे बुझ जाते हैं और ब्लैकहोल में बदल जाते हैं. (dw.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दिल्ली, पंजाब, हरियाणा और उ.प्र. के सीमांत क्षेत्रों में प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि इन प्रांतों ने तरह-तरह के प्रतिबंधों और सावधानियों की घोषणा कर दी है। जैसे बच्चों की पाठशालाएं बंद कर दी हैं, पुरानी कारें सडक़ों पर नहीं चलेंगी, बाहरी ट्रक दिल्ली में नहीं घुस पाएंगे, सरकारी कर्मचारी ज्यादातर काम घर से ही करेंगे। लोगों से कहा गया है कि वे मुखपट्टी का इस्तेमाल बढ़ाएं, घर के खिडक़ी-दरवाजे प्राय: बंद ही रखें और बहुत जरुरी होने पर ही बाहर निकलें।
ये सब बातें तो ठीक हैं और मौत का डर ऐसा है कि इन सब निर्देशों का पालन लोग-बाग सहर्ष करेंगे ही लेकिन क्या प्रदूषण की समस्या इससे हल हो जाएगी? ऐसा नहीं है कि खेती सिर्फ भारत में ही होती है और खटारा ट्रक और मोटरें भारत में ही चलती हैं। भारत से ज्यादा ये अमेरिका, यूरोप और चीन में चलती हैं। वहां हमसे ज्यादा प्रदूषण हो सकता है लेकिन वहाँ क्यों नहीं होता? क्योंकि वहां की जनता और सरकार दोनों सजग हैं और सावधान हैं।
चीन ने पिछले कुछ साल में 40 प्रतिशत प्रदूषण कम किया है और हमारी दिल्ली प्रदूषण के रेकार्ड तोड़ रही है। इसकी गिनती दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में होती है। दिल्ली में दो सरकारें हैं। वे निढाल साबित हो रही हैं। अब कुछ लोग सर्वोच्च न्यायालय की शरण में जा रहे हैं। प्रदूषण रोकने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया जाए, क्या यह बात किसी भी सरकार और जनता के लिए शोभनीय है?
सरकारों ने इस दिशा में कुछ कोशिश जरुर की है। उन्होंने हजारों करोड़ रु. की सहायता करके किसानों को मशीने दिलवाई हैं ताकि वे पराली का चूरा करके उसे खेतों में दबा सकें लेकिन हमारे किसान भाई अपने घिसे-पिटे तरीकों से चिपटे हुए हैं। उनकी मशीनें पड़ी-पड़ी जंग खाती रहती हैं। पंजाब और हरियाणा में पिछले 15 दिनों में पराली जलाने के कई हजार मामले सामने आए हैं लेकिन उनको दंडित करनेवाला कोई आंकड़ा कहीं प्रकट नहीं हो रहा है। सभी पार्टियां एक-दूसरे की टांग खींचने में मुस्तैदी दिखा रही हैं लेकिन वोट के लालच में फंसकर वे लाचार हैं।
यदि पराली जलाने वाले दस-बीस दोषियों को भी दंडित किया गया होता तो हजारों किसान उनसे सबक सीखते। हमारे किसान लोग बहुत भले हैं। उनमें अद्भुत परंपरा प्रेम होता है। सरकारों, समाजसेवियों और धर्मध्वजियों को चाहिए कि वे हमारे किसानों को प्रदूषण-मुक्ति के लिए प्रेरित करें। उनकी प्रेरणा का महत्व सरकारी कानूनों से कहीं ज्यादा उपयोगी सिद्ध होगा।
यदि हम भारतीय लोग इस दिशा में कुछ ठोस काम करके दिखा सकें तो मुझे पूर्ण विश्वास है कि लाहौर और काठमांडो जैसे पड़ौसी देशों के शहर भी प्रदूषण-मुक्त हो सकेंगे। प्रदूषित या स्वच्छ हवा को आप शासकीय और राष्ट्रीय सीमा में बांधकर नहीं रख सकते। उसके एक देश से दूसरे देश में जाने के लिए पासपोर्ट और वीजा की जरुरत नहीं होती। (नया इंडिया की अनुमति से)
1971-80 के दशक की पांच घटनाएं चुनकर युवा पत्रकार सुदीप ठाकुर ने करीब 200 पृष्ठों में एक वृत्तांत समेकित किया है। वह जानकारियों, सूचनाओं, सांख्यिकी, इंटरव्यू, रिपोर्ताज वगैरह से लकदक होकर कई अव्यक्त इशारे भी करता है जिनमें से उभरकर वस्तुपरक सच किसी भी तटस्थ लेकिन सक्रिय व्यक्ति को झिंझोड़ सकता है। पुस्तक जब सुदीप ने भेजी, तो अंदाज नहीं था कि वह तुरतफुरत पढ़ लेने के लिए आग्रह के बदले मजबूर कर देगी। उसमें लेखकीय विनम्रता, आत्ममुग्धविहीनता, भाषा की कसावट और समुद्र की लहरों की तरह तर्कों का उछाल सराबोर कर देगा। पूरा पढ़ लेने के बाद संतोष और अनुतोष हासिल होकर इस बात के लिए कुरेदेगा कि या तो इसमें से बहुत कुछ मालूम नहीं था क्योंकि हालिया इतिहास के ज्ञान को लेकर एक नैतिक अहम्मन्यता अंदर ही अंदर गर्वोन्मत्त हो रही थी। अथवा जो भूल गए को याद दिला दे और अपनी अनोखी नजर पाठक के हवाले कर दे। वह अहसास भी किताब की सफलता का एक पैमाना हो गया लगता है। किताब को पिछले पृष्ठों से पढ़ेे ंतो खुद सुदीप के अनुसार 1971-80 के दशक में हुई कुछ घटनाएं मसलन गर्भपात को वैधता (1971), बांग्लादेश मुक्ति युद्ध (1971), चिपको आंदोलन (1973), पहला परमाणु परीक्षण (1974), सिक्किम का विलय (1965), आर्यभट्ट का प्रक्षेपण (1975), दूरदर्शन की स्थापना और असम आंदोलन (1979) पर विस्तार से नहीं लिखा गया है। यह लेखक की समझ है कि उसने गरीबी, प्रिवीपर्स समाप्ति, कोयला-कथा, परिवार-नियोजन और आपातकाल जैसे पांच विषयों को चुनकर उन्हें विस्तारित, व्याख्यायित और सिलसिलेवार तार्किक किया है। पांचों मुद्दे लेखक के अनुसार आज तक कमोबेष अपनी अनुगूंज में कहीं न कहीं और कभी न कभी कुलबुला रहे हैं। ये लोकतंत्र की बुनियाद में पैठ गए हैं कि चाल चरित्र और चेहरे के त्रिभुज में रहते इनकी धडक़न सुनी, देखी और महसूस की जा सकती है।
आज कॉरपोरेट की गिरफ्त में हिन्दुस्तान है। तब सीधे सीधे उनकी गिरफ्त में नहीं था, क्योंकि अंगरेज भारतीयों की छाती पर चढ़े बैठे थे। एक बड़ेे भौगोलिक हिन्दुस्तान की सरहदों के अंदर सैकड़ों छोटे बड़े राजे रजवाड़े हुकूमतगाह थे। वहां रियाया दोहरे अन्याय का शिकार थी। फेबियन समाजवाद से ज्यादा प्रभावित आजादी के बाद देष बचाने के सबसे बड़ेे सूरमा जवाहरलाल को राजे रजवाड़ेे देख, सूंघकर लगता रहा जैसे नाक पर मक्खी बैठ जाने के बोध से होता है। नेहरू ने अपने यूरोप प्रवास में रूस सहित कई देशोंं के हालात का रूबरू जायजा लिया। संकुल परिस्थतियों मेंं भी जमींदारी प्रथा का उन्मूलन किया। नेहरू के बाद उनकी बेटी के प्रधानमंत्री काल की सबसे बुनियादी समस्याओं को लेकर सुदीप ने अपनी सुगठित किताब लिखी है। इंदिरा गांधी नेहरू की तरह फेबियन या माक्र्सवादी अध्ययन के कारण समाजवादी नहीं थीं। उनकी राजनीतिक समझ ने नेहरू के वैचारिक गर्भगृह से जन्म नहीं लेकर महात्मा गांधी, फिरोज गांधी, कृष्ण मेनन, जयप्रकाश नारायण, लोहिया, मोहन कुमार मंगलम और कई नौकरशाहों, जिनमें से ज्यादातर कश्मीरी रहे हैं, समाजवाद को दार्शनिक उपपत्ति से कहीं ज्यादा राजनीतिक अस्तित्व बनाए रखने के हथियार के रूप में इस्तेमाल की है। राजशाही और इजारेदारी के धाकड़ों ने मिलकर लोकतंत्र को दूध की हांडी और इंदिरा को मक्खी समझना शुरू किया। तब जवाहरलाल की बेटी ने पलटवार किया। संवैधानिक, कानूनी और राजनीतिक औपचारिकताओं को धता बताकर इंदिरा ने राजशाही का अंत किया और प्रिवी पर्स भी बंद कर दिए।
इस संदर्भ में सुदीप ने सुप्रीम कोर्ट के तीन चार बड़ेे फैसलों का हवाला दिया है। उनके अनुसार ज्यादातर चुनौतियां कांग्रेस के अंदरखाने से कुछ राजे रजवाड़ों ने ही उठाई थीं। उनमें माधवराव सिंधिया का नाम प्रमुख रहा। सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को निष्प्रभ कर देना हो, तो नए और चतुर संशोधन किए जा सकते हैं, बशर्ते संसद में दो तिहाई बहुमत हो। इस हथियार का इस्तेमाल करते इंदिरा ने सियासी फतह हासिल कर ली, लेकिन उसका ताजा प्रतिफलन यह भी हुआ कि नरेन्द्र मोदी की हुकूमत के सामने सुप्रीम कोर्ट को मालूम है कि भलाई इसी में है कि सहयोजन और समायोजन के शब्दों के शब्दार्थ नहीं फलितार्थ ढूंढे जाएं। बड़ेे दिलचस्प बयान हैं सुदीप की किताब में राजाओं की राजमहली बेचैनी को लेकर। कई समाजवादी नेताओं का जिक्र है जिनमें इंदिरा के खिलाफ चुनाव याचिका दाखिल करने वाले राजनारायण का उल्लेख है। कई राजाओं, रानियों के नाम हैं। सरदार पटेल और व्ही. पी. मेनन की हिकमतों का बयान है। यह पढक़र मुझे अच्छा लगा कि राजशाही और प्रिवीपर्स के खात्मे को लेकर दमदार तकरीर कम्युनिस्ट सदस्य भूपेश गुप्त ने की। संसदीय राजनीति में कई धनुर्धर हुए हैं जो निर्दलीय या छोटी पार्टियों के सदस्य रहे हों लेकिन उनकी आवाज इतिहास में प्रतिध्वनि की तरह गूंज रही है।
काले रंग का कोयला खदानों में दबा दबा आखिर हीरा भी बन जाता है। इतिहास में भी कई घटनाएं मनुष्य की उत्पत्ति और हैसियत का अनिवार्य चरित्र बन जाती हैं। कोयला भारतीय राजनीति और आर्थिक जीवन में एक तरह की भूमध्य रेखा की तरह संतुलन की तुला पर डंडी भी मारता है। लेखक या शोधकर्ता बहुत गंभीर या धैर्यवान नहीं है तो कोयले को अपने सामाजिक चिंतन की भूमिका में बुनियादी महत्व का नहीं मानेगा। वही कोयला इंदिरा गांधी के कार्यकाल मे कई गफलतें कर रहा था। कोयला उत्पादक बिहार के क्षेत्र में राजनीतिक गुंडागर्दी, अपराध और हेकड़बाजी को लेकर उजले कपड़ों वाले सियासतदां अपनी नीयत और दिल में लगातार कोयला मल रहे थे। कोयले का राष्ट्रीयकरण इंदिरा गांधी के कारण एक बड़ी राष्ट्रीय घटना हुई। आपातकाल के अभिषापों में अब यह स्वीकृत है कि संजय गांधी के हस्तक्षेप के कारण अत्याचार जनता पर नसबंदी और परिवार नियोजन को लेकर हुए हैं। वह इंदिरा गांधी के राजनीतिक पतन का बड़ा कारण रहा है। किताब में बहुत विस्तार से उन सब घटनाओं, परिदृष्यों, राजनीतिक उठापटक और नेपथ्य की हरकतों का हवाला है, जो आमतौर पर उजागर नहीं हो पाते। आपातकाल के वक्त अभिव्यक्ति पर ही पहरा था। संजय गांधी को उनकी मां इंदिरा गांधी की विवशता के संदभ में अकेला खलनायक भी बना दिया गया था। पूरी इंदिरा मंत्रिपरिषद के सदस्य तक संजय गांधी की गैरसंवैधानिक मंत्रिपरिषद की टीम के सदस्य थे।
इसी बीच गुजरात के छात्रों की ओर से एक जलजला पैदा किया गया। असंतोष, आक्रोश और जोष के पूरे माहौल में वर्षो से शांत अलग थलग और उपेक्षित लगते बीते जमाने का एक पौरुषपूर्ण किरदार मैदान में आकर बागडोर संभालने अपनी भूमिका से बेरुख नहीं रह सका। यह किरदार था अतीत के राजनीतिक नायक जयप्रकाश नारायण का। कभी उन्हें गांधी ने लोहिया के साथ भारत की आत्मा कहा था। जवाहरलाल नेहरू ने इंदिरा गांधी को नहीं जयप्रकाश नारायण को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी कहा था। जेपी के नाम से मशहूर चर्चित किरदार ने लेकिन अज्ञात और अनसुलझे हालातों में जनसंघर्ष का मोर्चा छोडक़र विनोबा भावे के भूदान आंदोलन जैसे ‘बोनलेस चिकन चिली’ कहलाते प्रकल्प से खुद को जोड़ लिया। देश के नौजवानों की चुनौतियों से बेखबर या अनजान होकर जयप्रकाश ने डाकुओं को आत्मसमपज़्ण कराना अपने एजेंडा में रखा।
अब उत्तरप्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने भी आबादी नियोजन को लेकर कई फैसले किए हैं। उनमें क्या लक्ष्य हैं और क्या हासिल होगा-यह तो फिलहाल कोई नहीं बता सकता। एक त्रासदायक और अवांछित तल्खी बार बार इषारा करती है कि मानो मुसलमान इस देश में बहुविवाह की मजहबी प्रथा के चलते आबादी में बहुत इजाफा कर रहे हैं। इस मजहब के लोगों पर इसी कारण बहुसंख्यक लोग षाब्दिक, षारीरिक और सियासी हमले करते ही रहते हैं। भारत सरकार की ताजा विष्वसनीय रिपोटांज़्े के अनुसार हिन्दुओं की आबादी के बढऩे की दर मुस्लिमोंं की आबादी बढऩे की दर से किसी कदर कम नहीं है। 19-20 का फकज़् हो सकता है। यह भी लेकिन दुखद सच है कि सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद मर्द अपनी नसबंदी कराने से किसी न किसी जुगत के सहारे अगल बगल हो लेते हैं। स्त्रियों की सामाजिक, कौटुंबिक और आर्थिक लाचारी परिवार नियोजन को लेकर भी एक नया विमषज़् हर वक्त मांगती है। बड़ेे-बड़ेे स्त्री समर्थक तीसमार खां अपने निजी जीवन में लेकिन घाघ दकियानूस जैसा आचरण करते हैं।
इसी परिच्छेद में नागरिक आज़ादी को लेकर सरकार की तरफ से किए जा रहे हमलों को तथ्यपरक किया गया है। आज जो पाटीज़् देष में हुकूमत कर रही है। दरअसल उसका गर्भगृह आपातकाल की घोषणा में है। यह बात किताब में पूरी तौर पर नहीं आ सकती थी क्योंकि उसका इतिहास वृत्त बीसवीं सदी का सातवां दशक है। घटनाएं काल परीक्षित होती हैं। काल प्रतिबंधित नहीं होतीं। यह अलग बात है कि 1977 की जनता पार्टी की सफलता और इंदिरा की भयानक हार के बाद 1979, 80, 1984, 1991, 2004 और 2009 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी के बार बार सत्तामूलक जीत के कारण कब तक यह फतवा कायम रखा जाएगा कि जेपी के कारण आज भाजपा सरकार में हैं। भारतीय लोकतंत्र को उसके संविधान के प्रावधानोंं के कारण राजनीतिक विवेक की चुनौतियां मिलीं। उनका तरतीब के साथ किताब में बयान है। पूरी किताब सरसरी तौर पर पढऩे से भी एक तात्कालिक प्रतिक्रिया मांगती है। यादों की गुमशुदगी भी होती है। यह पुस्तक एक तरह से यादध्यानी या रिफ्रेंस की भी है। इसे गजेटियर की तरह भी पढ़ा जा सकता है। बीसवीं सदी के सातवें दषक का केवल भारतीय परिप्रेक्ष्य में नहीं, भारत पर असर डालने वाली दुनियावी परिस्थितियों और घटनाओं का लेखा जोखा करना किताब भूलती नहीं है। सुदीप ठाकुर ने इतनी ज्यादा किताबों, फाइलों और पत्रिकाओं को खंगाला है, जो परिशिष्ट में संदर्भित है। यह भी दिलचस्प है कि उन्होंंने नई तकनॉलॉजी का फायदा उठाते हुए कई नामचीन लोगों तक की खोजखबर जज्ब की। ई मेल भेजे। टेलीफोन किया। रूबरू भी मिले और इस तरह अपनी किताब की प्रामाणिकता और विश्वसनीयता को लेकर लोगों से केवल विशेषणों की गिफ्ट नहीं मांगी। उनसे कई मुद्दों पर अहसमति भी व्यक्त की। कुछ पेचीदे सवाल भी पूछे और लेखन को औपचारिक नहीं बनाया। मुझे लगता है कि दस वर्ष का प्रामाणिक विवरण ब्यौरेवार प्रस्तुत करने में सुदीप ने कम से कम वर्षों का समय भी लगाया होगा।
यह किताब अकादेमिक नस्ल और तेवर की भी है। यह भी लिखने की शैली है कि यदि उद्धरण दिए जाएं तो उनका प्रमाण भी संलग्न किया जाए। सुदीप की किताब सुनी सुनाई या भूलती सी पढ़ी पढ़ाई बातों का खटराग नहीं बने। इसका ख्याल रखा गया है। उन्होंने तमाम उद्धरण प्रत्येक परिच्छेद के अंत में सूचीबद्ध किए हैं। कई महत्वपूर्ण व्यक्तियों से उनकी बात हुई। ई मेल के माध्यम से संवाद हुआ है या टेलीफोन के माध्यम से। मसलन पुपुल जयकर, रामचंद्र गुहा, जयराम रमेश, पी. चिदंबरम्, कौशिक बसु, नीलांजन मुखोपाध्याय और ज्यां द्रेज पहले ही परिच्छेद में हैं। आगे बढ़ें तो दूसरे परिच्छेद में भी वी. पी. मेनन की किताब और दीवान जर्मनी दास की और राजमोहन गांधी तथा डॉ. कणज़्सिंह से बातचीत का हवाला दर्ज है। परिच्छेद दर परिच्छेद संदर्भ दिए गए हैं। डब्ल्यू डब्ल्यू हंटर, विवेक देबराय वगैरह, दिलीप सिनीयन, महालेखाकार रहे विनोद रॉय, पूर्व केबिनेट सचिव बी. के. चतुर्वेदी, लोकसभा के वादविवाद भी साथ हैं। यह देखना दिलचस्प है कि इसी परिच्छेद में सुदीप ने इस्को के सहायक जनसंपर्क अधिकारी बनखंडी मिश्र को चासनाला कोयला खदान की भयानक त्रासदी के संदर्भ में एक मजबूत गवाह के रूप में उल्लिखित कर पत्रकारिता और लेखन की प्रामाणिकता का सम्मान किया है। अगले पड़ाव पर और कई स्त्रोतों के अतिरिक्त प्रसिद्ध पत्रिका ‘इंडिया टुडे‘ और डा. कणज़्सिंह का विषेष उल्लेख है, जो विश्वसनीयता पैदा करने के लिए अध्यवसायी लेखन का जागरूक लक्षण है। मैंने पन्ने पलटकर देखे तो आखिरी परिच्छेद में तो महत्वपूर्ण नामों की भरमार है। विनोद मेहता, कुलदीप नैयर, बिपनचंद्र, डॉ. सुब्रमण्यम, स्वामी, जियोफे्र ओस्टरगार्ड, लालू प्रसाद यादव, जयप्रकाश, राजनारायण, भोला चटजीज़्, प्रो आनंद कुमार, पी एन दर, मार्कटुली, अजय बोस, मधु लिमये और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक बाला साहब देवरस के हवाले से तमाम प्रासंगिक विवरण को ख्ंागाला जाना आष्वस्त करता है। यह किताब आकर्षक होने और 299 रुपये कीमत होने से पढऩे के लिए उद्वेलित करती है लेकिन उत्सुकता के लिहाज से पाठक को 99 के फेर में नहीं डालती।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान की राजनीति अब एक तूफानी दौर में प्रवेश कर रही है। इमरान खान पर हुए जानलेवा हमले ने शाहबाज शरीफ की सरकार के खिलाफ उसी तरह का गुस्सा पैदा कर दिया है, जैसा कि 2007 में बेनजीर भुट्टो की हत्या के समय हुआ था। मुझे लगता है कि इस वक़्त का गुस्सा उस गुस्से से भी अधिक भयंकर है, क्योंकि उस समय पाकिस्तान में जनरल मुशर्रफ की फौजी सरकार थी लेकिन इस वक्त सरकार मुस्लिम लीग (नवाज़) के नेता शाहबाज शरीफ की है।
इमरान ने शाहबाज शरीफ, उनके गृहमंत्री राणा सनाउल्लाह और आईएसआई के उच्चाधिकारी फैजल नसीर पर इस षडय़ंत्र का इल्जाम लगाया है। शाहबाज के गृहमंत्री और उनके कई पार्टी नेताओं ने इमरान को बलूचिस्तान की मिर्ची जेल में डालने का इरादा जताया था और इमरान तथा उनकी पार्टी के नेताओं ने यह आशंका भी व्यक्त की थी कि इस रैली के दौरान इमरान की हत्या भी हो सकती है।
हत्या की इस नाकाम कोशिश का नतीजा यह हुआ है कि पाकिस्तान के शहरों और गांव-गांव में सरकार के विरुद्ध लोग सडक़ों पर उतर आए हैं और यह असंभव नहीं कि पाकिस्तान में लगभग गृह युद्ध की स्थिति बन जाए और मौत की कई खबरें और आने लगें। शाहबाज-सरकार की सिर्फ भर्त्सना ही नहीं हो रही है, लोग खुले-आम पाकिस्तान की फौज को भी कोस रहे हैं। यह पाकिस्तान के इतिहास में पहली बार हो रहा है। यों भी इमरान के सवाल पर पाकिस्तान की फौज भी दो-फाड़ हो गई है। ऊँचे अफसर जनरल कमर बाजवा की हाँ में हाँ मिला रहे हैं और शेष अफसर व जवान इमरान का पक्ष ले रहे हैं।
यदि फौज इमरान और शाहबाज के बीच वैसा ही समझौता नहीं करवा सकी, जैसा कि 1993 में राष्ट्रपति गुलाम इशाक खान और तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ के बीच सेनापति जनरल वहीद कक्कड़ ने करवाया था और तुरंत चुनाव नहीं हुए तो हो सकता है कि पाकिस्तान की राजनीति से फौज का वर्चस्व सदा के लिए खत्म हो जाए। यदि ऐसा हो गया तो भारत और पाकिस्तान के संबंधों को मधुर होने में जरा भी देर नहीं लगेगी।
मुझे तो आश्चर्य है कि भारत सरकार अब तक गूंगी क्यों बनी हुई है? उसने इमरान पर हुए हमले की तत्काल भर्त्सना क्यों नहीं की? अमेरिका, चीन, तुर्की, सउदी अरब तथा अन्य दर्जनों देशों के शीर्ष नेताओं ने कल शाम को ही बयान जारी कर दिए थे। जाहिर है कि पाकिस्तान की फौज और विरोधी नेता अब इमरान को प्रधानमंत्री बनने से रोक नहीं सकते। अब चुनाव जब भी होंगे, मुझे विश्वास है कि इमरान अपूर्व और प्रचंड बहुमत से जीतेंगे।
पाकिस्तान में पिछले दिनों हुए विधानसभा चुनावों में इमरान और उनकी सहयोगी पार्टियों ने सत्तारुढ़ दलों का लगभग सफाया कर दिया था और खुद इमरान सात सीटों पर लड़े, उनमें से छह सीटों पर जीत गए। इस समय पाकिस्तान के सबसे बड़े प्रांत पंजाब में और पठानों के पख्तूनख्वाह में इमरानभक्तों की सरकारें बनी हुई हैं। सिंध में पीपीपी की भुट्टो-सरकार है लेकिन कुछ पता नहीं कि इस जानलेवा हमले के बाद बेनजीर के बेटे बिलावल भुट्टो और पति आसिफ जरदारी का रवैया शाहबाज शरीफ के साथ टिके रहने का बना रहेगा या बदलेगा? फौज ने दोनों को सता रखा था। जब वे दोनों कट्टर विरोधी मिल सकते थे तो बिलावल और इमरान क्यों नहीं मिल सकते? अगर वे मिल जाएँ तो पाकिस्तान में शायद भारत-जैसे लोकतंत्र की शुरुआत हो जाए। फौज पीछे हटे और जन-प्रतिनिधि सच्चे शासक बनें। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत में शिक्षा की कितनी दुर्दशा है, इसका पता यूनेस्को की एक ताजा रपट से चल रहा है। 75 साल की आजादी के बावजूद एशिया के छोटे-मोटे देशों के मुकाबले भारत क्यों पिछड़ा हुआ है, इसका मूल कारण यह है कि हमारी सरकारों ने शिक्षा और चिकित्सा पर कभी समुचित ध्यान दिया ही नहीं। इसीलिए देश के मु_ीभर लोग अपने बच्चों को प्रायवेट स्कूलों में पढ़ाते हैं और निजी अस्पतालों में अपना इलाज करवाते हैं। देश के 100 करोड़ से भी ज्यादा लोगों के बच्चे उचित शिक्षा-दीक्षा से और वे लोग पर्याप्त चिकित्सा से वंचित रहते हैं। यूनेस्को ने भारत में खोज-पड़ताल करके बताया है कि देश के 73 प्रतिशत माता-पिता अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाना पसंद नहीं करते हैं, क्योंकि वहां पढ़ाई का स्तर घटिया होता है। वहां से पढ़े हुए बच्चों को ऊँची नौकरियां नहीं मिलती हैं, क्योंकि उनका अंग्रेजी ज्ञान कमजोर होता है।
हमारी सरकारों के निकम्मेपन के कारण आज तक सरकारी नौकरियों में अंग्रेजी अनिवार्य है। अंग्रेजी माध्यम से पढ़े हुए बच्चे बड़े होकर या तो सरकारी नौकरियां हथियाने या फिर अमेरिका और कनाडा भागने के लिए आतुर रहते हैं। गैर-सरकारी स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों की फीस 50-50 हजार रु. महिना तक है। आजकल अस्पताल और ये शिक्षा-संस्थाएं देश में ठगी के सबसे क्रूर ठिकाने बन गए हैं। देश के गरीब, ग्रामीण, पिछड़े और आदिवासी लोग समुचित शिक्षा और चिकित्सा के बिना ही अपना जीवन गुजारते रहते हैं। सरकारी स्कूल और अस्पताल भी उनकी सेवा सरल भाव से नहीं करते। देश के 90 प्रतिशत स्कूल फीस-वसूली के दम पर जिन्दा रहते हैं। देश में 29600 स्कूल ऐसे हैं, जिन्हें मान्यता प्राप्त नहीं है।
4 हजार से ज्यादा मदरसे भी इसी श्रेणी में आते हैं। इन स्कूलों से निकलनेवाले छात्र क्या नए भारत के निर्माण में कोई उल्लेखनीय योगदान कर सकते हैं? यदि हम शिक्षा के मामले में भारत की तुलना दक्षेस के हमारे पड़ौसी सातों देशों से करें तो उक्त पैमाने पर वह अफगानिस्तान के सबसे करीब है लेकिन वह श्रीलंका, भूटान और पाकिस्तान से भी बहुत पिछड़ा हुआ है। दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा राष्ट्र भारत है। प्राचीन भारत की शिक्षा-व्यवस्था जगत्प्रसिद्ध रही है। चीन, जापान और यूनान से सदियों पहले लोग भारत इसीलिए आया करते थे कि यहां की शिक्षा-प्रणाली उन्हें सर्वश्रेष्ठ लगा करती थी। आज अमेरिका दुनिया की सर्वोच्च महाशक्ति अपनी शिक्षा के दम पर बना है लेकिन भारत मैकाले की गुलामी में ही गुलछर्रे उड़ा रहा है। पता नहीं, आजादी के सौ साल तक भी इस सड़ी हुई शिक्षा-व्यवस्था को बदलनेवाला कोई नेतृत्व भारत में पैदा होगा या नहीं? (नया इंडिया की अनुमति से)
-रमेश अनुपम
हंसा अकेला ही दूर किसी अनंत में उड़ गया है, केवल उनकी निर्मल और मोहक छवि तथा उनकी कलम से निकले हजारों लाखों शब्द आज हमारे बीच उपस्थित हैं।
रमेश नैयर हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारिता में एक ऐसे हंसा की तरह थे जो अपने स्वविवेक से नीर और क्षीर में अंतर करना जानते थे और हमेशा क्षीर का चुनाव करना ही उन्हें पसंद था। उनकी भाषा असहज नहीं सहज थी, पर विचारों की लौ में हमेशा जगर-मगर। कहीं कोई भाषा में पैबंद नहीं, लाख ढूंढने पर भी भाषा में कहीं कोई लिथड़ापन नहीं, जो है अगर-मगर में नहीं, सीधे-सीधे है।
‘देशबंधु’ से अपनी हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत करने वाले रमेश नैयर बाद में ‘नवभारत’, ‘क्रॉनिकल’, ‘ट्रिब्यून’, ‘संडे ऑब्जर्वर’, ‘दैनिक भास्कर’ में हिंदी और अंग्रेजी पत्रकारिता को एक साथ साधते रहे। छत्तीसगढ़ में ही नहीं चंडीगढ़ और देश की राजधानी दिल्ली में भी अपनी हिंदी पत्रकारिता का परचम शान से लहराते रहे। निराभिमान इस पत्रकार की लेखनी पर ऐसा कौन है, जो कुर्बान न हो जाए।
‘ट्रिब्यून’ और चंडीगढ़ उनकी आत्मा में बसे हुए थे। ‘ट्रिब्यून’ में प्रेम भाटिया का सत्संग और चंडीगढ़ की पंजाबी तहजीब रमेश नैयर को भा गए थे। अर्जुन सिंह उन दिनों चंडीगढ़ में ही राज्यपाल थे और सुदीप बनर्जी उनके सचिव। रमेश नैयर जैसे विचारवान पत्रकार की जरूरत उन्हें भी कम नहीं थी और ऊपर से वे उनकी प्रतिभा के भी कम कायल नहीं थे, सो भाभी को भी प्रतिनियुक्ति पर मध्यप्रदेश से सीधे चंडीगढ़ बुलवा लिया गया। राजीव गांधी और संत लोंगोवाल के ऐतिहासिक समझौते में रमेश नैयर और प्रेम भाटिया के अथक प्रयासों को भी जरूर याद किया जाना चाहिए।
‘दिनमान’ से लेकर देश की अनेक प्रतिष्ठित समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में रमेश नैयर ने खूब लिखा है। रघुवीर सहाय जो उन दिनों ‘दिनमान’ के संपादक थे रमेश नैयर से लिखवा ही लेते थे। सन 1966 में बस्तर गोली कांड की रिपोर्ट के लिए उन्होंने रमेश नैयर को बस्तर भेजा था। वे जैसे-तैसे किसी जीप में जगदलपुर पहुंचे थे। इस तरह प्रवीर चंद्र भंजदेव गोली कांड की रिपोर्ट ‘दिनमान’ में प्रकाशित हुई जिसे देश भर में खूब सराहना भी मिली। रमेश नैयर एक बेहद सतर्क और जागरूक पत्रकार थे।
मेरी धारावाहिक सीरीज ‘छत्तीसगढ़ एक खोज’ के वे नियमित पाठक थे। सांध्य दैनिक ‘छत्तीसगढ़’ में वे पढक़र न केवल फोन करते थे वरन मेरा हौसला आफजाई भी किया करते थे।
उनके और राजेंद्र यादव के साथ बार नवापारा की यात्रा मुझे आज भी याद है। रात में राजेंद्र यादव और रमेश नैयर के साथ एक खुली जीप में बैठकर की गई जंगल की यात्रा भी। राजेंद्र यादव से जब भी फोन पर बातें होती रमेश नैयर के बारे में जरूर पूछ लेते थे।
रमेश नैयर अपनी पीढ़ी के अकेले ऐसे खबरनवीस थे जिनका हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू और गुरुमुखी भाषा में असाधारण अधिकार था। उर्दू जैसे उनकी रूह में बसी हुई थी, पंजाबी उनके दिल में और हिंदी और अंग्रेजी जुबान उनके होठों और कलम में थिरकती रहती थी। उर्दू अदब उन्हें पसंद था, उर्दू की कई नज्म और शेर उनकी जुबान पर जुंबिश लेती हुई दिखाई देती थी।
रमेश नैयर का हिंदी और अंग्रेजी में अध्ययन भी खूब था। किताबों से उनकी आशनाई थी। पत्रकारिता से लेकर साहित्य तक की किताबें वे खूब पढ़ते थे।
छत्तीसगढ़ में नवगठित छत्तीसगढ़ राज्य हिंदी ग्रंथ अकादमी के वे संस्थापक संचालक थे। जनवरी सन 2006 से अक्टूबर 2016 तक वे इस पद को सुशोभित करते रहे। अपने कार्यकाल में उन्होंने हिंदी ग्रंथ अकादमी में चुन-चुनकर किताबें प्रकाशित की है।
रमेश नैयर के पत्रकार स्वरूप से हम सब भली-भांति परिचित है पर उनकी शख्सियत का एक और पहलू है जिससे हम कुछ गाफिल हैं।
छत्तीसगढ़ के कथाकारों की कहानियों को लेकर उन्होंने दो जिल्दों में ‘कथा यात्रा’ और ‘उत्तर कथा’ नामक ग्रंथों का संपादन किया है, जो प्रभात प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित है। छत्तीसगढ़ के प्रारंभिक कथाकारों से लेकर अब तक के कथाकारों की चुनी हुई कहानियों का सुंदर संपादन रमेश नैयर ने किया है।
वी.एस.नायपाल के एक अंग्रेजी किताब का हिंदी तर्जुमा उन्होंने प्रभात प्रकाशन दिल्ली के लिए किया था। इसी तरह अरेबियन नाईटस का भी उन्होंने हिंदी में अनुवाद किया है।
रमेश नैयर ने अनेक विदेशी कविताओं का उन्होंने हिंदी तर्जुमा किया है जो पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित है। मैं उन्हें उन कविताओं को जब-तब ढूंढकर एक संग्रह के रूप में प्रकाशित करवाने की निरर्थक जिद में उसी तरह लगा रहता था जिस तरह पाकिस्तान की उनकी स्मृतियों को लेकर उनसे एक मुकम्मल किताब लिखवाने की अपनी पुरानी जिद में।
वे मुझसे वादा करते थे कि अगले पंद्रह दिनों में वे मुझे इस किताब का एक चैप्टर लिख कर जरूर दिखाएंगे। कई बार भाभी भी इस बात की गवाह बनी पर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था।
रमेश नैयर अविभाजित भारत के गुजरात जिले के अपने पैतृक गांव कुंजह को कभी भूला नहीं पाए।
इसी तरह जिस मां ने उन्हें दूध पिलाया, पाला-पोसा उस मुस्लिम मां जैनब को भी, जो बचपन में उन्हें बुल्ला कहकर पुकारा करती थी। बुल्ला याने पाकिस्तान के संत और फकीर कवि बुल्ले शाह।
बुल्ले शाह का प्रतिरूप यह हंसा अब अकेले ही अपने डैने पसार कर सुदूर अंतरिक्ष की ओर अपनी उड़ान भर चुका है। हम सबको शोक विहल छोडक़र।
क्या कोई हंसा इस तरह से सबको छोडक़र अचानक अकेले ही उड़ जाता है।
पंडित कुमार गंधर्व के इस गीत को आज बार-बार सुनने का मन क्यों हो रहा है :
उड़ जायेगा हंसा अकेला
जीवन जग दर्शन का मेला
गांधी, स्त्री और सामूहिकता के समुच्चय का जाना
स्मृति शेष..1933-2022
-अनिल अश्विनी शर्मा
इला भट्ट नहीं रहीं। यह खबर सुनते ही दिमाग में बात आई सेवा वाली इला भट्ट। एक स्त्री की अस्थि-मज्जा जब गांधीमय हो जाती है तो उसका नाम इला भट्ट ही हो सकता है। महात्मा गांधी और कस्तूरबा गांधी ने सामुदायिकता के सेनानी तैयार करने का जो वैचारिक स्कूल खड़ा किया था इला भट्ट को उसकी अव्वल विद्यार्थी माना जा सकता है। बा और बापू सामुदायिकता के जरिए भारतीय अर्थव्यवस्था को जो रूप देना चाहते थे इला भट्ट ने अपने स्तर पर उसे सेल्फ एंप्लायड वूमेन एसोसिएशन के रूप में खड़ा किया जिसे सेवा के रूप में पहचान मिली।
इला भट्ट से वो मुलाकात खासी जीवंत थी। आईआईटी मद्रास के परिसर में मैं उस नाम से अपनी पहचान बताने में हिचक रहा था। लग रहा था कि इतने बड़े कार्यक्रम में शिरकत कर रही मेहमान से अचानक से बातचीत कैसे शुरू कर दूं। उन्होंने मेरी तरफ देखा। वो इला भट्ट थीं। मैंने उन्हें अपने पत्रकार होने का परिचय देते हुए कहा कि क्या वो कार्यक्रम के बाद दो मिनट मुझसे बात करने के लिए वक्त निकाल लेंगी। उन्होंने कहा कि जरूर।
कार्यक्रम की आयोजक को मेरा उनसे साक्षात्कार लेना पसंद नहीं आया और वे बीच में हस्तपक्षेप करने लगीं। इससे नाराज होकर इला भट्ट ने आयोजक से कहा कि यह ठीक है कि आपने मुझे यहां बुलाया है, लेकिन आपके मेहमान होने के बाद मैं और मेरे विचार आपके बंधक नहीं हो गए हैं। आपके यहां कुल जमा बीस श्रोता थे और वे उच्च अकादमिक पृष्ठभूमि के हैं। मेरी बातें उनके लिए कितने महत्त्व की हैं ये तो नहीं पता, लेकिन इस क्षेत्रीय अखबार में, क्षेत्रीय भाषा में छपी मेरी बात को बहुत लोग पढ़ भी लेंगे और समझ भी लेंगे। इसके बाद उन्होंने मेरी ओर प्यार से देखते हुए और हल्की सी झिडक़ी देते हुए कहा कि जैसा मैं बोल रही हूं, वैसा ही लिखना, तोड़-मरोड़ मत देना। मैंने सफाई देते हुए कहा कि मैं आपकी बात को रिकार्ड कर रहा हूं ताकि गलती की कोई गुंजाइश नहीं रहे। इस पर वे जोर से हंसने लगीं।
मैंने इला भट्ट से पूछा कि क्या आपको अपने सेवा-कार्य को और विस्तार देने की जरूरत नहीं है? इस पर उन्होंने कहा-इसके लिए संसाधन भी चाहिए। अब तक तो हम देश के 18 राज्यों में काम कर ही रहे हैं। मेरा दूसरा सवाल था कि आप एक गांधीवादी हैं, देश में लाखों ऐसे लोग हैं जो गांधी को मानते हैं लेकिन उनका काम जमीन पर क्यों नहीं दिखता? महात्मा गांधी ने तो आजादी के आंदोलन में पूरी भारत की महिलाओं को जोड़ लिया था लेकिन आज सक्रिय गांधीवादी महिलाओं की संख्या बहुत कम क्यों है?
इला भट्ट ने कहा-हमारी बहनों को मुझसे अलग क्यों कर रहे हैं। इस देश में मेरी जैसी लगभग 21 लाख गांधीवादी महिलाएं कार्यशील हैं। एक महिला दूसरी महिला को अपना कौशल हस्तांतरित कर रही है। मैंने महात्मा गांधी से यही तो सीखा कि केवल अपने लिए काम मत करो। तुम्हारे काम का दायरा ऐसा हो जो कइयों का भला कर सके। हमारी गांधीवादी बहनें इसी ध्येय से काम कर रही हैं कि एक-दूसरे का भला करने की इस कड़ी का अपार विस्तार हो।
आप अपने गांधीवादी कार्यक्षेत्र की सबसे बड़ी ताकत क्या मानती हैं? मेरे इस सवाल पर इला भट्ट थोड़ा रुक कर सोचने लगीं। फिर कहा-मैं अपने काम का आकलन खुद कैसे कर सकती हूं। दक्षिण अफ्रीका के गांधीवादी राष्ट्रवादी नेल्सन मंडेला जिन्होंने गांधी के सत्याग्रह की ताकत को महसूसा था और उसे स्थापित करने की कोशिश की थी, उन्होंने मुझसे कहा था कि आपके संगठन सेवा की सबसे बड़ी ताकत इसकी स्वायत्ता और साहस है। यह समूह सच को साहसपूर्वक बोल सकता है।
अमेरिका की पूर्व विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने आपको अपनी आदर्श स्त्री यानी नायिका के रूप में देखा था...मेरा सवाल पूरा होते ही इला भट्ट ने कहा कि वास्तव में वे कह रही थीं कि सेवा के साथ काम कर रहीं 21 लाख महिलाएं उनकी नायिका हैं। इतना बोलने के बाद वो कुर्सी से उठीं तो मुझे लगा कि अब वे बातचीत बंद करना चाहती हैं तो मैंने अपना रिकार्डर भी बंद कर दिया। उन्होंने हंसते हुए कहा कि आपके सवाल खत्म हो गए? मेरे रिकार्डर फिर से शुरू करने की प्रक्रिया देखते हुए उन्होंने कहा कि जब आपको लिखने की मुसीबत नहीं है तो चलिए हम कैंपस में टहल कर बातचीत करते हैं। टहलते हुए मैंने उन्हें रेमन मैग्सेसे, राइट लाइवलीहुड, गांधी शांति पुरस्कार और पद्म पुरस्कार से सम्मानित किए जाने के बाबत पूछा तो उन्होंने कहा-ये पुरस्कार मुझे अकेले नहीं मिले बल्कि सेवा से जुड़ी सभी गांधीवादी बहनों को मिले हैं। मैंने पूछा, सेवा की स्थापना आपने 1972 में की थी लेकिन आपका दिमाग कबसे इसके लिए तैयार होने लगा था। इस पर उन्होंने मुझसे प्रतिप्रश्न किया-गांधी को मानते हो? मैंने कहा, मैं गांधीवादी नहीं हूं लेकिन मैंने गांधी को खूब पढ़ा है। अपने पत्रकारीय जीवन की सबसे बड़ी रिपोर्ट सेवाग्राम जाकर ही लिखी थी।
मेरा जवाब सुनने के बाद इला भट्ट ने कहा-कुछ करने के पहले आपको अपने अंदर की क्षमता को पहचानना जरूरी होता है। मेरे पैदा होने से लेकर मेरे शादी होने तक मेरे आसपास का वातावरण मुझे ऐसा ही काम करने के लिए गढ़ रहा था। महात्मा गांधी की ही बात करूं तो यह सोचा कि मेरे काम से किस वर्ग को सबसे ज्यादा फायदा हो सकता है जो अभी सबसे कमतर है। फिर मुझे अपने सामने का पूरा महिला समाज दिखा। बस एक महिला, महिलाओं के साथ गांधीवादी समाज बनाने के लिए जुट गई। गांधी की सीख के साथ हम सब एक-दूसरे को गढ़ती गईं। बा और बापू की बनाई राह मेरे सामने थी।
अब मेरा उनसे आखिरी सवाल था। भारत जैसे देश में सामाजिक समानता के लिए सहकारी समितियां अचूक नुस्खा हैं। फिर भी अब ऐसी समितियां गिनती की बची रह गई हैं, और जो हैं भी उसका उतना व्यापक असर नहीं हो रहा है। इसकी क्या वजह है? इला भट्ट ने कहा कि सहकारी समित के बनाने के मूल में स्त्री ही है। स्त्री बचत करती है, स्त्री पुरुषों की तुलना में ज्याद सहिष्णु होती है। स्त्री सामूहिकता की बुनियाद है। देश की महिलाओं को सशक्त करने के लिए सहकारी आंदोलन को बढ़ाना ही होगा। स्त्री सशक्तिकरण के लिए सहकारी समिति से श्रेष्ठ ढांचा और कोई नहीं हो सकता।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
न्यूयॉर्क टाइम्स ने अपने मुखपृष्ठ पर एक खबर छापी है कि अमेरिका में कई आदमी अब औरतों का वेश धारण करने लगे हैं और औरतें तो पहले से ही वहां आदमियों की वेशभूषा पहनते रही हैं। उनका कहना है कि कपड़ों में भी औरत-मर्द का भेद क्या करना? वह जमाना लद गया जब औरतों के लिए खास तरह की वेशभूषा, जेवर और जूते-चप्पल पहनना अनिवार्य हुआ करता था। उन्हें घर से बाहर निकलने की अनुमति नहीं होती थी। घूंघट और बुर्का लादना आवश्यक माना जाता था।
हमारे संस्कृत नाटकों को देखें तो कालिदास और भवभूति जैसे महान लेखकों की रचनाओं में उनकी महिला पात्राएं संस्कृत में नहीं, प्राकृत में संवाद करती थीं। महिलाओं को पुरुषों के समान न हवन करने का अधिकार था और न ही जनेऊ धारण करने का! वेदपाठ करना तो उनके लिए असंभव ही था। आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानंद सरस्वती की कृपा से भारतीय स्त्रियों को इन बंधनों से मुक्ति मिली लेकिन यूरोपीय इतिहास की लगभग एक हजार साल की अवधि को वहाँ अंधकार-युग कहा जाता है।
उस युग में पोप लीला के कारण औरतों पर अत्याचार की हद हो रखी थी लेकिन अब इसी ईसाई यूरोप और अमेरिका में आधुनिकता की ऐसी लहर चली है कि आदमी लोग औरतों की तरह लंबे-लंबे बाल रखने लगे हैं, स्कर्ट ब्लाउज पहनने लगे हैं और उनके पारंपरिक जेवर भी अपने शरीर पर सजाने लगे हैं। इसे वे लिंग-भेद का निराकरण कहते हैं लेकिन वास्तव में औरत-औरत होती है और आदमी-आदमी।
हमारे यहां तो भाषा और व्याकरण में भी वह भेद प्रतिबिंबित होता है। उसे सिर्फ वेशभूषा बदलने से नहीं मिटाया जा सकता है। कई देशों में उनके पुरुष भी अपना अधोवस्त्र स्त्रियों-जैसा ही सदियों से पहनते आ रहे हैं। जब पहली बार अपने राष्ट्रपति भवन में भूटान नरेश से लगभग 30 साल पहले मेरी भेंट हुई तो मैं उन्हें स्कर्ट-जैसा अधोवस्त्र पहने देखकर दंग रह गया।
पचास साल पहले जब मैं लंदन में पढ़ता था तो मुझे स्काटलैंड के छात्रों को देखकर भ्रम हो जाया करता था, क्योंकि उनमें से कुछ स्कर्ट पहने रहते थे। दुनिया के दर्जनों देश हैं, जिनमें लोगों की वेशभूषा अपने तरह की अनूठी होती है। इसीलिए यदि अब अमेरिका की कुछ नामी-गिरामी कंपनियां ऐसी वेशभूषा बनाने लगी हैं, जो अब तक स्त्रियों की मानी जाती थीं, लेकिन अब उन्हें पुरुष भी पहनने लगे हैं तो इसमें बुराई क्या है? यह नर-नारी समता का नया युग शुरु हो रहा है। इसे हम ऊपरी या बाहरी एकरुपता कहें तो बेहतर होगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
इस समाज के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग लोग, अलग-अलग संस्थाएं संकटग्रस्त कृषि क्षेत्र के लिए उपचार की औषधि खोजने में जुटी हुई हैं। कई जगहों पर इसके बेहतरीन परिणाम भी आए हैं। इन्हीं में एक है सहज आहारम। यह किसी क्रांति से कम नहीं है।
-जयदीप हार्दिकर
किसानों की आय में गिरावट, उन पर लगातार बढ़ता कर्ज, गांवों से मौसमी पलायन और जलवायु परिवर्तन ने पिछले दो दशकों से भारत के कृषि क्षेत्र को संकट में डाल रखा है। जाहिर है, ऐसे देश में जहां बड़ी आबादी कृषि पर आधारित है, इस क्षेत्र के संकट में आने के सामाजिक-आर्थिक आयाम भी हैं। यह एक बड़ी चुनौती है और इसका सामना सरकार और समाज- दोनों को मिल-जुलकर, एक-दूसरे से सीखते हुए करना होगा।
इस सिलसिले में सबसे बड़ी भूमिका सरकार की है जो नीतियां तयकर समस्या से संस्थागत तरीके से जूझती है। जाहिर है, इसमें कहीं कुछ कमी है जिसकी वजह से नतीजा वैसा नहीं आया, जैसा आना चाहिए था। इसलिए समाज की ओर रुख करना चाहिए जिसमें विभिन्न इलाकों में विभिन्न लोग, संस्थाएं अपनी तरह से कृषि संकट से निकलने के उपाय कर रही हैं। अगर कागज पर नीतियां बनाने वाले जमीन पर धूल-मिट्टी से सने अनुभवों को भी ध्यान में रखें तो शायद बेहतर परिणाम मिल सके।
इस संदर्भ में बात ‘सहज आहारम’ की। ‘सहज आहारम’ कृषि पर जलवायु परिवर्तन के असर और आर्थिक-सामाजिक संकट से अपने तरीके से निपटने की कोशिश कर रहा है। ‘सहज आहारम’ ऐसा ब्रांड है जो आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में सक्रिय है और इसका मूल मंत्र है स्थानीय स्तर पर प्राकृतिक आहार उपलब्ध कराना। इसका मानना है कि हमें ऐसी व्यवस्था की कल्पना करनी चाहिए जो स्थानीय हो, उपज और खपत की श्रृंखला छोटी हो और यह प्रकृति अनुकूल हो।
आइए चलते हैं 47 साल की महिला किसान वी. मल्लेश्वरम्मा के पास। हैदराबाद से करीब 450 किलोमीटर दूर कडपा जिले में उनका गांव है मुसलिरेड्डीगरीपल्ली। वह अपने गांव में महिला किसानों की सहकारिता- गायत्री महिला रायथुला मुचुअली एडेड कोऑपरेटिव सोसाइटी- की मुखिया हैं। उनकी सहकारी समिति में सभी जाति-धर्म और आयु-वर्ग की करीब 250 महिला किसान हैं। आधे एकड़ के फार्म को दिखाते हुए मल्लेश्वरम्मा कहती हैं, ‘हमारे यहां सबकुछ स्थानीय, यानी देसी है।’ इस फार्म में तरह-तरह के पेड़-पौधे हैं- अंजीर, अमरूद, आम, जंगली जामुन से लेकर फूल और सब्जियां। मल्लेश्वरम्मा इसे पोषण उद्यान कहती हैं। जाहिर है, उनके पास व्यावहारिक जानकारी है और वह शायद तमाम विशेषज्ञों की तुलना में वनस्पति विज्ञान और कृषि विज्ञान के बारे में ज्यादा जानती हैं।
एक ओर एक छोटा-सा मौसम स्टेशन और सौर खाद्य ड्रायर भी है। इस ड्रायर से नहीं बिकी या ज्यादा हो गई हरी सब्जियों को सुखाकर रख लिया जाता है और इस तरह उसकी शेल्फ लाइफ बढ़ जाती है। पास ही मल्लेश्वरम्मा का अपना खेत है जहां वह वैसे अनाजों की खेती करती हैं जो अब लोग कम ही उगाते हैं जैसे लाल चना, बाजरा वगैरह।
यह मानसून का समय है। इस गांव में ज्यादातर किसान 1-3 हेक्टेयर की छोटी जोत वाले हैं और खरीफ के मौसम में कृषि कार्यों में व्यस्त हैं। मल्लेश्वरम्मा की पहल से यहां के तमाम किसानों की जिंदगी बदल गई है। पेट पालने के लिए कभी एक दिहाड़ी मजदूर के तौर पर काम करने वाली मल्लेश्वरम्मा आज एक सफल जैविक किसान उद्यमी हैं और कर्ज के बोझ तले उस दौर से आज तक की अपनी यात्रा के बारे में बताते हुए वह बार-बार कुछ खास शब्दों का इस्तेमाल करती हैं- वेरायटी, डायवर्सिटी, केमिकल-फ्री और कलेक्टिव। इन चार शब्दों में मल्लेश्वरम्मा की पूरी सोच छिपी है। वह उन महिलाओं में से हैं जिन्होंने किसानों को एकजुट करके जैविक अन्न और साग-सब्जी का उत्पादन किया और सफलता की नई कहानी लिखी।
वह कहती हैं, ‘मुझे पिता की यह बात हमेशा याद रहती है कि अपने हित के बारे में सोचना तो ठीक है लेकिन गरीबों और वंचितों के हितों को नहीं देखना ठीक नहीं।’ वह कहती हैं कि सामूहिक ताकत एक साथ खड़े होने, एक साथ सीखने और एक साथ आगे बढ़ने में है। वह यह कहते हुए चुटकी लेती हैं कि बाजार में अकेले आपके लिए कोई जगह नहीं लेकिन अगर आप एक समूह में हैं तो बिल्कुल है। वह बताती हैं कि आज हम सब मिलकर आगे बढ़ रहे हैं लेकिन बमुश्किल दो दशक पहले ऐसा नहीं था। हम सब कर्जदार थे, गरीब थे और ऐसे संघर्ष का सामना कर रहे थे जिसका कोई अंत नजर नहीं आता था। उनके घर में ही सहकारी समिति का ऑफिस भी है। वहां सुंदर ढंग से सजाए गए मिट्टी के बर्तनों में तमाम बीज रखे होते हैं जिन्हें समिति मुफ्त में गांवों में बांटती है। मल्लेश्वरम्मा कहती हैं, ‘यह हमारे स्थानीय भोजन का उत्सव है’। समूह के ज्यादातर सदस्य छोटे-सीमांत किसान हैं, गंगादेवी की तरह, जिसके पास तीन एकड़ जमीन है और उस पर वह कपास, बाजरा की खेती करती है। उसका नींबू का एक छोटा बाग भी है।
जैविक खेती में तमाम चीजों का ध्यान रखना होता है। मिट्टी की गुणवत्ता बनाए रखनी होती है और खाद भी जैविक ही इस्तेमाल की जाती है। निश्चित रूप से इसमें अधिक मेहनत होती है लेकिन यह सब करके उन्हें खुशी मिलती है और इसके दूसरे भी मायने हैं। मल्लेश्वरम्मा कहती हैं कि जैविक उपज का उत्पादन और उसकी बिक्री तो एक बात है लेकिन हम महिलाओं की जिंदगी में इसके जरिये और भी बहुत कुछ आ रहा है। सबसे बड़ी बात यह है कि महिलाएं अब आत्मनिर्भर हैं, उन्हें खुद पर भरोसा है और वे महिला किसानों के बारे में लोगों के नजरिये में बुनियादी बदलाव ला सकी हैं।
हैदराबाद के एक स्टोर में हमारी मुलाकात नियमित ग्राहकों के एक समूह से होती है। यह स्टोर करीब दर्जन भर सहकारी संघों और समूहों द्वारा चलाया जाता है जिसमें मल्लेश्वरम्मा की अगुवाई वाला सहज आहारम कंपनी लिमिटेड भी थी। इसकी अलमारियों पर हरे और पीले रंग में रंगे लगभग 150 अलग-अलग सामान रखे हुए थे जिनमें चावल से लेकर मूंगफली, बाजरा से लेकर गुड़ और डेयरी उत्पादों से लेकर स्नैक्स तक के पैकेट थे। साथ ही टोकरे में रखे ताजी कटी हुई साग भी थी।
आउटलेट से सटे एक छोटे से कमरे में दो महिलाएं बाजरे के स्नैक्स तलने में व्यस्त थीं जिसे स्टोर 50/100 ग्राम के पैकेट में बेचता है। स्टोर-कीपर संध्या कहती हैं, ‘यह सब ऑर्गेनिक है, जहर मुक्त।’ पास ही खड़े एक ग्राहक एन. किशोर ने कहा, ‘यह स्वास्थ्यवर्धक है, और किसी भी अन्य भोजन की तुलना में बेहतर है, और बड़ी आसानी से उपलब्ध है।’ सहज आहारम के सीईओ टी.पी. प्रसन्ना कुमार कहते हैं कि हमारे स्टोर में आने वाले लोग पूछते हैं कि उनके लिए ये सब उपजाता कौन है। प्रसन्ना ने कहा कि वे लोग ग्राहकों को बतातें हैं कि उनके लिए जो खाने का सामान तैयार होता है, उसका पर्यावरण पर क्या असर पड़ता है और सहज आहारम कैसे उपज का उत्पादन करता है।
सहज आहारम की स्थापना 2014 में हुई थी और इसकी टैग लाइन है- ‘एड हेल्थ टु योर लाइफ’ और आठ साल में न केवल इस ब्रांड ने उपभोक्ताओं का भरोसा जीता है बल्कि जैविक उत्पादों के प्रतिस्पर्धी क्षेत्र में खुद को स्थापित भी किया है। यह एक जैविक ब्रांड की कहानी है जो छोटे और सीमांत किसानों के सामूहिक प्रयासों से साकार हुआ है।
हैदराबाद में गैरलाभकारी संस्था ‘सेंटर फॉर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर’ (सीएसए) के कार्यकारी निदेशक और सरकारी अनुसंधान में काम कर चुके वनस्पति वैज्ञानिक डॉ जीवी रामंजनेयुलु बताते हैं कि उनका संगठन खाद्य उत्पादकों और उपभोक्ताओं के बीच सेतु का काम करता है। रामंजनेयुलु कहते हैं, ‘हम सर्विस प्रोवाइडर की तरह काम करते हैं।’ उनका संगठन उत्पादक समूहों के लिए क्षमता निर्माण करता है, जरूरी सेवाएं देता है और फिर उन्हें बाजार से जोड़ता है और इस तरह ये उत्पाद उन उपभोक्ताओं तक पहुंचते हैं जो रसायन मुक्त भोजन के लिए कुछ अधिक खर्च करने को तैयार हैं।
रामंजनेयुलु कहते हैं कि ‘प्रयास यह है कि उत्पादन और खपत के दोनों सिरों को वैसे जोड़ें कि यह पर्यावरण के अनुकूल हो। इसके लिए हम शहरी उपभोक्ताओं के लिए जागरूकता कार्यक्रम भी चलाते हैं। दूसरी ओर किसानों को जैविक खेती के लिए प्रोत्साहित करते हैं।’ कहावत सरल है: ‘आपूर्ति श्रृंखला जितनी छोटी होगी, पारिस्थितिकी और अर्थव्यवस्था के लिए उतना ही बेहतर होगा; इस श्रृंखला में किसान को भी बेहतर मूल्य मिलेगा।’
मल्लेश्वरम्मा की सहकारी समिति अपने सदस्यों के जैविक उत्पादों को एकत्र करती है, प्राथमिक प्रसंस्करण के बाद उनकी ग्रेडिंग करती है और फिर उन्हें हैदराबाद के सहज गोदाम में भेज देती है। यहां पर पैकेजिंग और लेबलिंग की भी सुविधा है जिससे अगर जरूरत हो तो यहां भी ये काम हो सकें।
रामंजनेयुलु कहते हैं कि सहज जल्दी खराब हो जाने वाली वस्तुओं को बेकार नहीं जाने देता। इसके लिए सौर ड्रायर लगाए गए हैं जिससे जल्दी खराब होने वाले उत्पादों को सुखाया जाता है और फिर उन्हें अलग तरीके से अलग किस्म के खरीददारों को बेच दिया जाता है। सहज सहकारी समिति की हर इकाई अपने आप में अनूठी है। इसकी संरचना और डिजाइन को हर परिस्थितियों के अनुकूल ढाला जा सकता है।
संघ के पास फिलहाल 16 सहकारी समितियां हैं जिनमें सदस्य के तौर पर लगभग 10,000 प्रमाणित जैविक उत्पादक हैं जो 150 से अधिक उत्पादों की आपूर्ति करते हैं। 3 करोड़ रुपये के औसत सालाना कारोबार के हिसाब से इन सहकारी समितियों और उनके संघ का कुल कारोबार लगभग 50 करोड़ रुपये का है। अगले पांच वर्षों में, सहज समूहों में लगभग 50-60 किसान-सहकारिताएं होंगी जिनमें 50,000 सदस्य कम-से-कम 150 विभिन्न जैविक उत्पादों को उगा रहे होंगे।
प्रकृति अनुकूल तरीके को अपनाते हुए लागत को किस तरह कम किया जाए, इस दिशा में सीएसए ने 2004 से ही काम करना शुरू कर दिया था। इसी वजह से गैर-कीटनाशक-प्रबंधन (एनपीएम) का जन्म हुआ। इस मामले में 54 किसान परिवारों का एक छोटा-सा गांव एनेबावी बड़ी चुनौती बनकर उभरा। किसानों को जैविक प्रथाओं के लाभ के बारे में समझाने में पांच साल लग गए। संक्रमण के समय में समय और तमाम तरह के संसाधन की जरूरत पड़ी। प्रशिक्षित कर्मचारियों को जोड़ा गया और खेती की लगातार निगरानी करते हुए किसानों को समझाते रहना पड़ा। गांव किसान सहकारी समिति के पूर्व प्रमुख 50 वर्षीय पोन्नम परमेश्वर कहते हैं, ‘तब से हम से रसायनों की ओर वापस नहीं गए।’
उत्पादकता में शुरुआती गिरावट के बाद, एनेबावी के किसानों ने देखा कि उनकी पैदावार बेहतर हो रही है, मिट्टी को पोषण मिलता है और उनकी उपज की मांग बढ़ जाती है। धान, कपास, हरी सब्जियां और लाल चने (दाल, या तूर) उगाने के अलावा, एनेबावी में एक सामुदायिक डेयरी भी है।
2009 तक एनेबावी पहला पूर्ण जैविक गांव बन गया। उसके बाद के पांच वर्षों के दौरान इस क्षेत्र को गति मिली क्योंकि राज्य सरकारों और दाता एजेंसियों ने धन और संसाधनों के माध्यम से इसका समर्थन शुरू कर दिया। नतीजा यह हुआ कि बड़ी संख्या में किसान जैविक खेती को अपनाने लगे। जब किसान सामूहिक रूप से जैविक खेती करने लगे तो सवाल उठा कि इसे कैसे और कहां बेचें।
सीएसए के मुख्य परिचालन अधिकारी जी. राजशेखर कहते हैं, ‘तब हमने महसूस किया कि केवल उत्पादन लागत कम करने से किसानों को ज्यादा फायदा नहीं होगा। सामूहिक उत्पादन की ओर जाना होगा और इसके साथ ही उत्पादन से लेकर खपत तक की एक पूरी श्रृंखला विकसित करनी होगी। यह एक दुस्साहसी काम जरूर था लेकिन असंभव नहीं।’
अब समस्या यह थी कि सीमित संसाधनों के साथ यह सब कैसे हो। इसका उपाय यह निकाला गया कि 10-15 किसानों के छोटे-छोटे परस्पर लाभकारी समूह बनाए गए ताकि इनका प्रबंधन बेहतर तरीके से हो सके। एक व्यापक आकार को साकार करने के लिए इस तरह के छोटे-छोटे समूहों को एक छतरी के नीचे लाया गया और फिर एक श्रृंखला बन गई। इस तरह गांवों में छोटे-छोटे समूहों का जाल बिछ गया। एकदम नीचे छोटे-छोटे समूह, उसके ऊपर सहकारी समिति जिसमें 300-500 जैविक उत्पादक हैं और फिर उन सभी समितियों के बीच सेवाओं और समन्वय का काम करता ‘सहज’। साझा करना ‘सहज’ के अस्तित्व का सार है। सदस्य एक दूसरे के साथ अपने बीज और अनुभव साझा करते हैं। कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान ‘सहज’ से जुड़ी ज्यादातर सहकारी समितियों ने ताजी सब्जियां और अनाज मंगाकर उन्हें अपने गांवों और आसपास के जरूरतमंद लोगों में वितरित किया।
‘सहज’ आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के 200 से अधिक गांवों में सक्रिय है और इसके तकरीबन चालीस हजार सदस्य हैं। रामंजनेयुलु कहते हैं, सीएसए इन गांवों में किसानों की आत्महत्या को कम करने में सक्षम हुआ है, और यह बहुत बड़ी बात है।
ऑस्ट्रेलिया की मोनाश यूनिवर्सिटी में नेशनल सेंटर फॉर साउथ एशिया स्टडीज की निदेशक प्रोफेसर एंटोनिया मारिका विजियानी कहते हैं, ‘सबसे बड़ी बात यह है कि मार्केटिंग में कोई अनुभव न होने के बाद भी छोटे किसानों ने जैविक उत्पादों के लिए एक बाजार बनाने में सफलता पाई।’ 2016-17 में, उन्होंने और उनके सहयोगी प्रोफेसर जगजीत प्लाहे ने समुदाय-प्रबंधित स्थानीय खाद्य प्रणालियों पर अपने अध्ययन के दौरान ‘सहज’ के मॉडल को देखा-समझा। वह कहती हैं, ‘जैविक उत्पादों का उत्पादन करना एक बात है और मार्केटिंग बिल्कुल अलग। लेकिन ‘सहज’ ने ऐसे समय में बाजार में अपने लिए जगह बनाई जब भारत सरकार भीमकाय बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए खुदरा खाद्य का क्षेत्र खोल रही है।’
‘सहज’ के चार खुदरा स्टोर हैं- तीन हैदराबाद (तेलंगाना) में, एक तटीय शहर विशाखापत्तनम में जहां से इसका लगभग 43 प्रतिशत राजस्व आता है। यह ऑर्गेनिक क्षेत्र से जुड़े अपने सहयोगियों को भी थोक में बिक्री करता है। इसके अलावा, इसके पास मोबाइल वैन भी हैं जो सप्ताह में दो बार जल्दी खराब होने वाले उत्पाद को लेकर आसपास के इलाकों में जाती हैं; ऑनलाइन डिलीवरी भी की जाती है; नियमित उपभोक्ताओं के व्हाट्सएप समूह बनाए गए हैं; और हाल फिलहाल में व्यवसाय करने वालों को भी उत्पाद बेचे जा रहे हैं।
स्टोर और सेल्स को संभालने वाले सहज के 27 वर्षीय मार्केटिंग एग्जिक्यूटिव परदेसी दास कहते हैं, ‘मैं इसे छोड़ना नहीं चाहता क्योंकि मुझे लगता है कि इससे जुड़कर मैं किसी महत्वपूर्ण चीज का हिस्सा हूं।’ दास-जैसे 45 पेशेवरों की एक टीम स्टोर, बैक-एंड संचालन और बिक्री का प्रबंधन करती है।
आगे उनकी योजना क्या है, इसके जवाब में सहज आहारम के सीईओ प्रसन्ना कुमार कहते हैं: ‘हम निर्यात की संभावनाओं पर गौर कर रहे हैं। इसके लिए फ्रेंचाइजी मॉडल के बारे में विचार किया जा रहा है।’ सीएसए लगभग 40 नवगठित किसान उत्पादक कंपनियों को भी सेवाएं दे रहा है और उम्मीद की जाती है कि अगले 3-4 सालों में ये कंपनियां अपने जैविक उत्पादों के साथ बाजार में होंगी। इस कारण भी अभी से निर्यात बाजार में संभावनाओं को टटोला जा रहा है। यह गौर करने वाली बात है कि सीएसए जैविक प्रमाणीकरण के लिए एक मान्यता प्राप्त एजेंसी भी है जिसके पास इस काम के लिए अत्याधुनिक प्रयोगशालाएं हैं।
‘सहज’ से प्रेरित होकर छोटी-छोटी तमाम संस्थाएं भी खुल रही हैं। पिछले साल, हैदराबाद और उसके आसपास महिला किसानों के एक समूह ने 'बे-निशान' नामक अपना सामूहिक उद्यम बनाया, जिसका अर्थ बिना किसी प्रतीक के होता है। वे जैविक रूप से आम उगाते हैं।
सहज उद्यम ने इस मिथक को तोड़ दिया है कि छोटे किसान उद्यमी नहीं हो सकते। इस क्रांति का उद्देश्य कोई विशालकाय कंपनी बनाने का नहीं बल्कि आत्मनिर्भर, आर्थिक रूप से व्यवहार्य और स्थानीय सामाजिक उद्यम बनाने का है।
(जयदीप हार्दीकर नागपुर स्थित पत्रकार हैं और 'रामराव- द स्टोरी ऑफ इंडियाज फार्म क्राइसिस' के लेखक हैं)
(navjivanindia.com)
- अमिता नीरव
90 की शुरुआत में जब देश में उदारीकरण का दौर शुरू हुआ था, कुछ ऐसी चीजें हमारी जिंदगियों में, हमारी जीवनशैली में शामिल हुईं थी, जो पहले नहीं थी। दरअसल उनकी जरूरत भी नहीं थी। ऐसी बहुत सारी चीजें थीं, उन्हीं में एक था खाने से पहले सूप पीना।
जी हाँ, हमारे यहाँ पार्टियों में, होटलों के खाने में खाना खाने से पहले सूप एकाएक दाखिल हो गया था। जाहिर है पश्चिम में सूप उनके खाने का अहम हिस्सा है। उसके बाद हमने भी उसे बिना कारण जाने अपने खाने में शामिल कर लिया।
हमारे यहाँ सूप का चलन कभी था ही नहीं। पता नहीं आपको ऐसा महसूस हुआ हो या नहीं, यहाँ तो सूप पीने के बाद खाने की इच्छा मर जाती है। पहाड़ों पर जब भी गए तब पाया कि वहाँ भूख कम हो जाती है। तब समझा कि दरअसल ठंडी जगहों पर पाचनतंत्र ठीक तरह से काम नहीं करता है, इसलिए भूख कम लगती है। तो जाहिर है एपेटाइजर की जरूरत होगी ही।
लॉकडाउन के दौरान वेब सीरीज देखी जा रही थीं। उसी दौरान स्कैंडेनेविया की एक हिस्टोरिकल सीरीज वाइकिंग्स देखना शुरू की थी। मेरा तो दो-पाँच एपिसोड्स के बाद ही मन उचट गया था, इसलिए मेरा देखना तो छूट गया था। लेकिन क्रड्डद्भद्गह्यद्ध देखा करते थे तो उसके बारे में पता चलता रहता था।
वह स्कैंडेनेविया के एक योद्धा रैगनर लॉथब्रुक के जीवन की कहानी थी। जिसमें गर्मियों में रैगनर अपने साथियों के साथ अभियान पर निकलता था। यह अभियान दूसरे देशों में जाकर लूटपाट करने का हुआ करता था। एक दिन ऐसे ही राजेश बोले, ‘ये एक लुटेरे की दास्तान है, जिसे ग्लोरिफाय किया जा रहा है।’ लेकिन बाद में स्पष्ट हुआ कि उसकी और उसकी पत्नी लगार्था का सपना खेती लायक जमीन पाने और फिर खेती करने का था। मतलब उनके सारे संघर्षों, लड़ाइयों का लक्ष्य खेती करना था। क्योंकि उत्तरी ध्रुव पर खेती करने लायक मौसम नहीं था।
हमने यह जाना है कि ठंडी जगह रहने वालों की त्वचा का रंग सफेद होता है और गर्म जगह रहने वालों की त्वचा का रंग काला होता है। प्रजातिगत वर्गीकरण में आर्यों की शारीरिक बनावट, द्रविड़ों की शारीरिक बनावट से बिल्कुल अलग होती है और यह जलवायु और भूगोल से प्रभावित होती है।
थोड़ी पुरानी बात है। कल्चरल एक्सचेंज के तहत फफांस, जर्मनी और कोलंबिया से लैंग्वेज सिखाने के लिए तीन लडक़े आए थे। हमारा शहर खान-पान के लिए खासा मशहूर है और यहाँ हर तरह के स्वाद के शौकीनों का काम आसानी से चल जाता है। ऐसे में राजेश ने उनसे पूछा कि, यहाँ कैसा लग रहा है!
तो फ्रेंच और जर्मन लडक़े ने शिकायत की कि ‘खाने की बहुत दिक्कत आ रही है। यहाँ खाने में बहुत मिर्च होती है।’
यह जानकर हमेशा ही आश्चर्य हुआ है कि यूरोप में अधिकतर देशों में मसालों का उपयोग नहीं किया जाता है। हमने यह जाना है कि सर्दी के मौसम में हमें स्पाइसी और गरिष्ठ खाने की तलब लगती है, लेकिन पहाड़ों में स्थिति एकदम उलट होती है। हम जब पहली बार पहाड़ पर गए तो एकदम सादा खाना देखकर चौंक गए। दो-तीन बार जाने पर पता चला कि पहाड़ों पर भूख कम लगती है।
धीरे-धीरे समझ आया कि चूँकि पहाड़ों की जलवायु ठंडी होती है, और वहाँ खाना जल्दी नहीं पचता है, इसलिए वहाँ भूख कम लगती है शायद इसीलिए वहाँ चटपटा खाने की क्रेविंग नहीं होती है। बाद में गौर किया तो पाया कि गर्म जगहों पर बहुत चटपटा खाया जाता है, राजस्थान इसका उदाहरण है। इसी तरह दक्षिण भारत तो अपने गरम मसालों के लिए मशहूर है ही।
कुछ साल पहले हम गंगटोक गए थे। हम जिस गेस्ट हाउस में रुके थे उसे कलकत्ता की माँ-बेटी चलाती थीं। उन्होंने पूछा, ‘आप भेज हैं?’
‘भेज...!’ हम दोनों ने उनकी शक्ल देखी, फिर मेरे भेजे में आया कि बंगाली हैं तो वेज को भेज कहती होगीं।
‘जी हम वेजिटेरियन हैं।’
‘मछली तो चलती होगी?’
मन किया जोर से हँस दें, ‘वेजिटेरियन है तो मछली कैसे चलेगी भई?’
वे बोलीं, ‘हम भी भेज हैं, लेकिन मछली चलती है।’
हम चकित हुए... फिर धीरे-धीरे जाना कि पूर्व में मछली को वेज ही माना जाता है। बिहार से आईं हमारी एक साथी ने बताया कि वहाँ मछली को ‘जलफल’ कहा जाता है।
कहने का मतलब यह है कि भूगोल न सिर्फ हमारी शारीरिक संरचना को बल्कि हमारी सांस्कृतिक विशिष्टता और आर्थिक संरचना का भी निर्धारण करता है। यहाँ तक तो शायद ही किसी को संदेह हो, लेकिन इन कुछ दिनों में मुझे यह लगने लगा है कि दरअसल यही भूगोल हमारे इतिहास को भी प्रभावित करता है।
दुनिया के जिन हिस्सों में खेती के लायक जमीन, पानी औऱ जलवायु नहीं होती है, इतिहास में उन हिस्सों में संघर्ष ज्यादा हुए हैं। उन समाजों में योद्धा के लिए अतिरिक्त सम्मान होता है औऱ युद्ध में विजय सबसे बड़ा सांस्कृतिक मूल्य होता है। उन्हीं समाजों में दुनिया को जीतने की महत्वाकांक्षा जन्मती है और फलती-फूलती है।
इतिहास की प्राचीन सभ्यताओं के भूगोल को देखेंगे तो पता चलेगा कि सारी प्राचीन सभ्यताएँ जिन भूभागों में विकसित हुईं वहाँ खेती के लायक जमीन थी, पानी की प्रचुरता थी और खेती के लिए अनुकूल जलवायु भी थी।
संघर्षरत भू-भागों की संस्कृति युद्धों के इर्दगिर्द ही विकसित होती रही। जहाँ जीने की सहूलियतें अपेक्षाकृत ज्यादा रहीं उनकी संस्कृतियाँ अलग-अलग दिशा में समृद्ध रहीं।
यदि हम ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की बात कर पाते हैं तो इसलिए नहीं कि हम शांतिपूर्ण सहअस्तित्व को समझते हैं, बल्कि इसलिए कि प्रकृति ने हमें जीने के लिए जरूरी साधन खुले हाथों से दिए हैं। हमने जिंदा रहने के लिए दूसरों की तुलना में कम संघर्ष किए हैं।
‘भूगोल, इतिहास को समझने की कुंजी है।’
अक्सर, जब मैं एक बैठक से दूसरी बैठक , एक जगह से दूसरी जगह , लोगों से मिलने के लिये जाता था, तो अपने श्रोताओं को हमारे इस इंडिया, इस हिंदुस्तान, जिसका नाम भारत भी है के बारे में बताता था। भारत, यह नाम हमारे समाज के पौराणिक पूर्वज के नाम पर रखा गया है। मैं शहरों में ऐसा कदाचित ही करता होउंगा, कारण साधारण है क्योंकि शहरों के लोग कुछ ज़्यादा सयाने होते हैं और दुसरे ही किस्म की बातें सुनना पसंद करते हैं। पर हमारी ग्रामीण जनता का देखने का दायरा थोड़ा सीमित होता है। उन्हें मैं अपने इस महान देश के बारे में, जिसकी स्वतंत्रता के लिये हम लड़ रहे हैं, बताता हूँ। उन्हें बताता हूँ कि कैसे इसका हर हिस्सा अलग है , फिर भी यह सारा भारत है। पूर्व से पश्चिम तक, उत्तर से दक्षिण तक, यहाँ के किसानों की समस्याएं एक जैसी हैं। उन्हें स्वराज की बात बताता हूँ, जो सबके लिये होगा, हर हिस्से के लिये होगा7 मैं उन्हें बताता हूँ कि खैबर दर्रे से लेकर कन्याकुमारी तक की यात्राओं में हमारे किसान मुझसे एक जैसे सवाल पूछते हैं। उनकी परेशानियां एक जैसी हैं। गरीबी, कर्जे, निहित स्वार्थ, सूदखोर, भारी लगान और करों की दरें, पुलिस की ज्यादती, यह सब उस ढाँचे में समाया हुआ है जो विदेशी सत्ता द्वारा हमारे ऊपर थोपा हुआ है और जिससे सबको छुटकारा मिलना ही चाहिये7 मेरी कोशिश रहती है की वे भारत को संपूर्णता में समझें। कुछ अंशों में वे सारी दुनिया को भी समझें, जिसका हम हिस्सा हैं।
अरुण कान्त शुक्ला
देश एक ज़मीन का टुकड़ा ही नहीं है। कोई भी इलाका, कितना भी, खूबसूरत और हराभरा हो अगर वह वीराना है तो देश कैसा? देश बनता है उसके नागरिकों से। पर नागरिकों की भीड़ से नहीं। एक सुगठित, सुव्यवस्थित, स्वस्थ, सानन्द और सुखी समाज से। एक उन्नत, प्रगतिशील और सुखी समाज, एक उदात्त चिंतन परम्परा और समरस की भावना से ही गढ़ा जा सकता है । देश को अगर मातृ रूप में हम स्वीकार करते है, तो नि:संदेह, हम सब उस माँ की संताने हैं। स्वाधीनता संग्राम के ज्ञात अज्ञात नायकों ने न केवल एक ब्रिटिश मुक्त आज़ाद भारत की कल्पना की थी, बल्कि उन्होंने एक ऐसे भारत का सपना भी देखा था, जिसमे हम ज्ञान विज्ञान के सभी अंगों में प्रगति करते हुये, एक स्वस्थ और सुखी समाज के रूप में विकसित हों। इन नायकों की कल्पना और आज की जमीनी हकीकत का आत्मावलोकन कर खुद ही हम देखें कि हम कहां पहुंच गए हैं और किस ओर जा रहे हैं। भारत माता की जय बोलने के पहले यह याद रखा जाना जरूरी है कि, दुनिया मे कोई माँ, अपने दीन हीन, विपन्न, और झगड़ते हुए संतानों को देखकर सुखी नही रह सकती है। इस मायने में नेहरु की दृष्टि में भारतमाता की छवि एकदम साफ़ थी। भारत की विविधता को, उसमें कितने वर्ग, धर्म, वंश, जातियां, कौमें हैं और कितनी सांस्कृतिक विकास की धारायें और चरण हैं, नेहरु ने इसे बहुत गहराई से समझा था। प्रस्तुत है उनके आलेखों की माला ‘भारत एक खोज’ से एक अंश कि ‘भारत माता’ से नेहरु क्या आशय रखते थे।
मैं चीन, स्पेन, अबीसीनिया, मध्य यूरोप, मिस्र और पश्चिम एशिया के मुल्कों में चल रहे संघर्षों की बात करता हूं. मैं उन्हें रूस और अमेरिका में हुए परिवर्तनों की बात बताता हूं. यह काम आसान नहीं है, पर इतना मुश्किल भी नहीं हैं जितना मुश्किल मैं समझ रहा था. हमारे प्राचीन महाकाव्यों, हमारी पौराणिक कथाओं और किंवदंतियों से वे भली भांति परिचित हैं और इसके माध्यम से वे अपने देश को जानते समझते हैं7 हर जगह मुझे ऐसे लोग भी मिले जो तीर्थयात्रा के लिये देश के चारो कोनों तक जा चुके थे। या उनमें पुराने सैनिक भी थे जिन्होंने प्रथम विश्व युद्ध या अन्य अभियानों में विदेशी भागों में सेवा की थी। यहां तक कि विदेशों के बारे में मेरे संदर्भों से भी उन्हें 'तीस के दशक' के महान मंदी के परिणामों की याद आई जिसने उन्हें घर वापस लाई थी।
कभी ऐसा भी होता कि जब मैं किसी जलसे में पहुंचता, तो मेरा स्वागत ‘भारत माता की जय’ नारे के साथ किया जाता। मैं लोगों से पूछ बैठता कि इस नारे से उनका क्या मतलब है? यह भारत माता कौन है जिसकी वे जय चाहते हैं। मेरे सवाल से उन्हें कुतूहल और ताज्जुब होता और कुछ जवाब न सूझने पर वे एक दूसरे की तरफ या मेरी तरफ देखने लग जाते। आखिर एक हट्टे कट्टे जाट किसान ने जवाब दिया कि भारत माता से मतलब धरती से है। कौन सी धरती? उनके गांव की, जिले की या सूबे की या सारे हिंदुस्तान की?
इस तरह सवाल जवाब पर वे उकताकर कहते कि मैं ही बताउं। मैं इसकी कोशिश करता कि हिंदुस्तान वह सब कुछ है, जिसे उन्होंने समझ रखा है। लेकिन वह इससे भी बहुत ज्यादा है। हिंदुस्तान के नदी और पहाड़, जंगल और खेत, जो हमें अन्न देते हैं, ये सभी हमें अजीज हैं। लेकिन आखिरकार जिनकी गिनती है, वे हैं हिंदुस्तान के लोग, उनके और मेरे जैसे लोग, जो इस सारे देश में फैले हुए हैं। भारत माता दरअसल यही करोड़ों लोग हैं और भारत माता की जय से मतलब हुआ इन लोगों की जय। मैं उनसे कहता कि तुम इस भारत माता के अंश हो, एक तरह से तुम ही भारत माता हो और जैसे जैसे ये विचार उनके मन में बैठते, उनकी आंखों में चमक आ जाती, इस तरह मानो उन्होंने कोई बड़ी खोज कर ली हो।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अपनी ‘भारत जोड़ो’ यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने ‘भारत तोड़ो’ का नारा दे दिया है। उन्होंने कहा है कि भारत में जातीय जनगणना फिर से शुरु की जानी चाहिए। 2011 में कांग्रेस पार्टी ने जातीय जन-गणना करवाई थी लेकिन भाजपा सरकार ने उस पर पानी फेर दिया। उसे सार्वजनिक ही नहीं होने दिया और अब 2021 से जो जन-गणना शुरु होनी थी, उसमें भी जातीय जन-गणना का कोई स्थान नहीं है। राहुल गांधी इस वक्त जो कुछ कह रहे हैं, वह शुद्ध थोक वोट की राजनीति का परिणाम है।
वे चाहते हैं कि इसके बहाने वे पिछड़ी जातियों के वोट आसानी से पटा लेंगे। लेकिन यदि राहुल गांधी को कांग्रेस के इतिहास का थोड़ा-बहुत भी ज्ञान होता तो वह ऐसा कभी नहीं कहते। क्या मैं राहुल को बताऊँ कि अंग्रेज सरकार ने भारत में जातीय जन-गणना इसलिए चालू करवाई थी कि वे भारत के लोगों की एकता को तोडऩा चाहते थे। क्यों तोडऩा चाहते थे? क्योंकि 1857 के स्वातंत्र्य-संग्राम में भारत के हिंदुओं और मुसलमानों ने मिलकर अंग्रेज सरकार की जड़ें हिला दी थीं।
पहले इन दो आबादियों को तोडऩा और फिर जातियों के नाम पर भारत के सैकड़ों-हजारों दिमागी टुकड़े कर देना ही इस जातीय जनगणना का उद्देश्य था। इसीलिए 1871 से अंग्रेज ने जातीय-जनगणना शुरु करवा दी थी। कांग्रेस ने इसका डटकर विरोध किया था। महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरु ने जातीय जनगणना के विरोध में सारे भारत में जनसभाएं और प्रदर्शन आयोजित किए थे। इसी का परिणाम था कि 1931 में ‘सेंसस कमिश्नर’ जे.एच.हट्टन ने जातीय जनगणना पर प्रतिबंध लगा दिया।
इस तरह की गणना कितनी गलत, कितनी अशुद्ध और कितनी अप्रामाणिक होती है, यह उन्होंने सिद्ध किया लेकिन कांग्रेस की मनमोहन-सरकार ने थोक वोटों के लालच में 2011 में इसे फिर से करवाना शुरु कर दिया। किसी भी पार्टी ने इसका विरोध नहीं किया, क्योंकि सभी पार्टियां थोक वोट पटाने की फिराक में रहती हैं। इसके विरोध का झंडा अकेले मैंने उठाया। मैंने ‘मेरी जाति हिंदुस्तानी आंदोलन’ शुरु किया। उस आंदोलन का विरोध करने की हिम्मत किसी नेता की नहीं पड़ी। यहां तक कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी भी मुझे फोन कर के सहयोग देते रहे।
बाद में जो लोग देश के सर्वोच्च पदों पर नियुक्त हुए, वे भी उस समय झंडा उठाकर मेरे साथ चलते रहे। मैं सोनिया गांधी को धन्यवाद दूंगा कि जैसे ही वे न्यूयार्क में अपनी माताजी के इलाज के बाद दिल्ली लौटीं, उन्होंने सारी जानकारी मुझसे मांगी और उन्होंने तत्काल जातीय जनगणना को बीच में ही रूकवा दिया। मोदी को इस बात का श्रेय है कि प्रधानमंत्री बनने पर उन्होंने जातीय जनगणना के जितने अधूरे आंकड़े इक_े किए गए थे, उन्हें भी सार्वजनिक नहीं होने दिया। काश, उक्त बयान देने के पहले राहुल गांधी अपनी माँ सोनियाजी से तो सलाह कर लेते! (नया इंडिया की अनुमति से)
-गोपा सान्याल
भारतीय संस्कृति का एक प्रमुख पर्व है गोपाष्टमी। माना जाता है आज के दिन ही नन्द नन्दन भगवान श्री कृष्ण ने अपने गोचारण की लीला आरम्भ की थी जिससे उनका नाम "गोपाल" पड़ा। गोमाता विश्व की माता है जो माँ की तरह सबका पोषण करती है। गोमाता से प्राप्त पञ्चगव्य का शास्त्रों में ही नहीं बल्कि आयुर्वेद में भी बड़ा महत्व है।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 80 किमी दूर खैरागढ़ में स्थित है कामधेनु मंदिर। गोमाता के संरक्षण के लिए यहाँ संचालित मनोहर गौशाला अच्छी पहल कर रहा है। यहाँ एक अनोखी गोमाता है जिसका नाम है सौम्या। सौम्या का नाम गोल्डन बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज है। प्रबंधन के सदस्यों ने बताया कि सौम्या की पूंछ सर्वाधिक लंबी करीब 54 इंच तक है जो कि धरती को स्पर्श करती है और इसकी लंबाई अन्य गायों की तुलना में भीअधिक है। जानकारों के मुताबिक इसके शरीर में शास्त्रों के अनुसार कुछ ऐसे प्रतीक चिन्ह हैं जो कि कामधेनु गाय में होती है। इनके दर्शन के लिए लोग श्रद्धा से यहाँ आते हैं और मनौती मांगते हैं। मनोकामना पूरी होने पर चढ़ावा भी चढ़ाते है। सौम्या को मिले इन्ही चढ़ावे से यहाँ मौजूद करीब 300 अशक्त गायें पल रही हैं।यहाँ कई दृष्टिहीन बछड़े अशक्त गायें हैं जिन्हें सौम्या दूध भी पिलाती है। इस गोशाला में गोअर्क के साथ-साथ गोमूत्र से औषधि भी बनाई जाती है। गोरक्षा के लिए यह गोशाला एक मिसाल है।
-विष्णु नागर
कुछ गुण- अवगुण व्यक्ति में नैसर्गिक रूप से होते हैं। इसका बहुत तीव्र एहसास मुझे अपने बड़े पोते के कारण हुआ। यह बात तब की है, जब जनाब तीन-चार साल के रहे होंगे। एक दिन हमारा पूरा परिवार- बड़ा बेटा, उसकी पत्नी, बड़ा पोता (तब छोटे पोते का जन्म नहीं हुआ था), पत्नी, मैं और हमारा छोटा बेटा- सब समुद्र की तरफ जा रहे थे। तब बेटे का परिवार एक फ्लैट में रहा करता था। हम सब लिफ्ट से नीचे उतर रहे थे। अचानक मेरे पोते जी ने कहा- 'दादाजी, आपके पास यह जो चटाई है, इसे आप दादी को दे दो।' हमने दे दी। तब उन्होंने कहा, 'और ये जो थैला है आपके पास, यह चाचा जी को दे दो।' वह भी दे दिया। मैं बहुत खुश हुआ कि इतना छोटा सा मेरा पोता, मेरा इतना ज्यादा ख्याल रख रहा है!
जैसे ही मैंने यह सब दिया, नीचे खड़े उन पोते जी ने कहा -'अब आप मुझे गोद में उठा लीजिए।' तो जनाब की यह डिप्लोमेसी थी, कूटनीति थी, जिसे हममें से कोई पहले समझ नहीं पाया था।
उनकी डिप्लोमेसी का यह अकेला उदाहरण नहीं है। इस घटना का गवाह मैं नहीं हूं मगर यह किस्सा उसकी मां ने सुनाया था और यह भी लगभग उसी समय का है। इनका पूरा परिवार, हमारी बहू के एक सहयोगी के घर भोजन पर आमंत्रित थे। बात होने लगी।किसी प्रसंग में शायद इन्हीं जनाब ने कहा कि ये अंकल मुझे बहुत अच्छे लगते हैं। उनकी एक विदेशी दोस्त उस समय आई हुई थीं। उससे ये सब पहले भी मिलते रहे थे। उन्होंने पूछा - 'और मैं, कैसी लगती हूं?' जाहिर है कि वह इसे उतनी पसंद नहीं थी, जितने कि वे अंकल या शायद पसंद नहीं थीं। अब यह बात कैसे कही जाए तो जनाब ने बड़ा कूटनीतिक जवाब दिया -'सारी दुनिया के लोग ही मुझे बहुत पसू हैं।' यह जवाब सुनकर सब बहुत देर तक आनंदित हुए -इनकी डिप्लोमेटिक सूझबूझ पर।
इनके ये कूटनीति दांवपेंच घर में भी खूब चलते रहते हैं। कभी-कभी इनका अपनी अम्मा से किसी बात पर झगड़ा हो जाता है। वह कोई चीज मांगता है या कुछ करने की इजाज़त अम्मा से चाहता है और मां किसी कारण से अनुमति देने से मना कर देती है।तो वह भी गरम जाता है और उसकी मां भी। दोनों में बोलचाल बंद हो जाती है। थोड़ी देर तक यह नाराज़गी चलती है। बातचीत बंद रहती है।कुछ ही देर में उसे समझ में आ जाता है कि यह ठीक नहीं हुआ। अम्मा ही तो घर में मेरी शक्ति का मुख्य स्रोत है।वह दो- चार दिन नाराज हो गई तो आगे के दिनों का खेल बिगड़ जाएगा।उसे जो भी चाहिए होगा, उसकी अनुमति तो मां ही देगी। वह तुरंत नाराज मां के गले में हाथ डालकर उनसे झूम जाता है। मां झिड़केगी तो भी बुरा नहीं मानता। बहुत मीठी-मीठी बातें करने लगता है। मां का गुस्सा भी नकली होता है तो थोड़ी देर में वह खुश हो जाती है।मामला हल हो जाता है।वह वायदा करवा लेता है कि उसकी यह मांग आज तो पूरी नहीं होगी मगर फला दिन होगी। इतना काफी है। वह सब भूल जाएगा मगर मां से जो वायदा उसने करवाया था, कभी नहीं भूलेगा।
हमारे छोटे पोते साहब वैसे तो अपने बड़े भाई के बड़े भारी मुरीद हैं मगर वह डिप्लोमेसी नहीं जानते। एकदम सीधी-सच्ची बात करते हैं। वह अपनी अदाओं से, अपनी हाजिरजवाबी से, शैतान हरकतों से, सबके दिल पर कब्जा जमाते हैं। जब भी उनकी दादी उनके पास होती है तो समझो, दादी का मोबाइल उनका अपना होता है। दादी कहीं भी छुपाकर रखें, वह ढूंढ लेते हैं। वापिस दिल्ली आने के कुछ दिन बाद उनकी दादी ने उनसे पूछा- 'क्या तुम्हें दादी की याद आती है? 'थोड़ी देर उसने सोचा,क्या वाकई आती है? फिर सीधा- सच्चा जवाब दिया- 'आपके मोबाइल की याद आती है दादी।'