विचार/लेख
दिनेश श्रीनेत
क्रिस्टोफर नोलन की फिल्म ‘ओपनहाइमर’ एक लंबे मुकदमे की कहानी है। फिल्म के दौरान पूरे समय आप बहुत बारीकी से जांच कमेटी की कार्यवाही को देखते हैं। दूसरे विश्वयुद्ध और उसके बाद कई वर्षों तक अमेरिका और यूरेशिया भू-भाग के बीच चले शीत युद्ध ने ऐसी जाने कितनी रोमांचक कहानियों को जन्म दिया था, जिनमें पहचान बदलकर काम करने वाले जासूस थे, डबल एजेंट थे, खुफिया जानकारी पहुँचाने वाली खूबसूरत नर्तकियां थीं।
एटम बम के अविष्कारक जे रॉबर्ट ओपेनहाइमर का जीवन उन तमाम रोमांचक किस्सों से अलग नहीं था। शायद यही वजह रही हो कि जब नोलन ने बीसवीं शताब्दी के इस विवादास्पद वैज्ञानिक के जीवन पर फिल्म बनाने का फैसला किया तो उसे एक नॉयर सिनेमा की शैली दी।
‘नॉन लीनियर’ स्टोरी टेलिंग पसंद करने वाले नोलन सिनेमा के स्क्रीन पर ओपनहाइमर की इस दिलचस्प कहानी को बयान करने के लिए एक जटिल संरचना का इस्तेमाल करते हैं। फिल्म का कुछ हिस्सा ब्लैक एंड व्हाइट है और काफी हिस्सा कलर में।
नोलन ने एक इंटरव्यू में खुद ही यह स्पष्ट कर दिया कि ऐसा उन्होंने फिल्म में सब्जेक्टिव और ऑब्जेक्टिव टोन के संतुलन के लिए किया है। रंगीन हिस्से की पटकथा ‘फस्र्ट परसन’ में लिखी गई है और यह हिस्सा ओपनहाइमर की निजी स्मृतियों, उसके अवसाद, उसके प्रेम संबंधों, वामपंथी राजनीति की ओर झुकाव और क्वांटम फिजिक्स के प्रति उसके ऑब्सेशन से भरा हुआ है।
रंगीन दृश्य क्योंकि ‘फस्र्ट परसन’ में हैं तो वहां पर हम नोलन की फिल्म मेकिंग पर उपन्यासों की चिर-परिचित शैली ‘स्ट्रीम ऑफ कांशसनेस’ का असर भी देख सकते हैं। जैसे हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम बम गिराए जाने के बाद जब पहली बार ओपनहाइमर (सिलियन मर्फी) स्टेज पर जाता है तो हॉल में जोश में भरे लोग खुशी से लकड़ी के फर्श पर अपने पैर पटक रहे होते हैं, जूतों की यह लयबद्ध आवाज इससे पहले भी कई बार सुनाई देती है मगर वह ध्वनि ओपनहाइमर के भीतर गूंज़ रही थी।
इसी तरह ट्रायल के दौरान जब फिल्म के नायक पर मानसिक रूप से गहरा दबाव पड़ता है, तो उसका फिल्मांकन भी देखते बनता है। फिल्म की शुरुआत में शांत जल पर गिरती बूंदे दिखती हैं, जिसे फिर हम बिल्कुल अंत में आइंस्टीन के साथ ओपनहाइमर की मुलाकात में देखते हैं। फिल्म के इस रंगीन हिस्से में कई समानांतर टाइम लाइन चलती है।
बतौर पटकथा लेखक नोलन ने इतनी सफाई से ओपनहाइमर के निजी जीवन, अतीत, बंद कमरे में चल रहे आरोपों की सुनवाई जैसे तमाम हिस्सों में आवाजाही करते हैं और संपादन के दौरान इन्हें इस तरह एक-दूसरे के साथ समानांतर कट से जोड़ा है कि फिल्म सिर्फ एक कहानी नहीं बल्कि एक विचार या फिर कहें कि एक बहस की तरह आगे बढ़ती है।
हालांकि इस तरह की शैली में अगर एक पल के लिए आपका ध्यान स्क्रीन से हटता है तो कहानी के सूत्रों को दोबारा पकडऩे में बहुत मुश्किल हो सकती है। उदाहरण के लिए ओपनहाइमर से आइंस्टीन की मुलाकात, हवा से आइंस्टीन की कैप गिरने और उन दोनों के बीच बातचीत वाला दृश्य फिल्म में दो बार आता है।
शुरुआत में यह दृश्य हम लेविस (रॉबर्ट डाउनी जूनियर) के नजरिये से देख रहे होते हैं और वह सारा हिस्सा ब्लैक एंड व्हाइट में दिखाया गया है, इस दौरान दोनों के बीच क्या बातचीत होती है हम नहीं जान पाते क्योंकि लेविस खुद नहीं जानता कि आइंस्टीन और ओपनहाइमर के बीच क्या बात हुई। फिल्म के क्लाइमेक्स में यही दृश्य दोबारा आता है, इस बार यह दृश्य रंगीन है क्योंकि सिनेमा के नजरिये से यह ओपनहाइमर के ‘प्वाइंट ऑफ व्यू’ है।
यहां पर दोनों के बीच जो संवाद है, उसे एक ‘कन्क्लयूडिंग स्टेटमेंट’ की तरह देखा जा सकता है। हालांकि, खुद नोलन स्वीकार करते हैं कि उन्होंने फिल्म का अंत खुला छोड़ा है, यानी यह ‘ओपन एंडेड’ फिल्म है। इसके बावजूद ‘ओपनहाइमर’ अंतिम निष्कर्ष में यह बात बड़े साफ तरीके से कहती है कि सत्ता देश की प्रतिभाओं का इस्तेमाल ‘पॉलिटिकल प्रॉपगैंडा’ के लिए करती है, लेकिन अगर उन प्रतिभाओं में से कोई सत्ता के लिए तकलीफ का सबब बनता है तो बड़ी आसानी से उसे ठिकाने भी लगा देती हैं।
फिल्म बड़ी खूबसूरती से ओपनहाइमर के निजी और सार्वजनिक जीवन में आवाजाही करती है और ठीक इसी तरह से वह उसके भय, अवसाद, प्रेम और असुरक्षा को भी दिखाती चलती है। नोलन इस फि़ल्म के बहाने में हमें जिस बहस में ले जाते हैं, उसमें बहुत सारे सवाल खुलते हैं। अमेरिका को सुपर पॉवर बनाने वाला ओपनहाइमर देखते-देखते एंटीनेशनल कैसे हो गया? एटम बम का अविष्कार करने वाला व्यक्ति उस देश में चल रहे हाइड्रोजन बम प्रोजेक्ट के खिलाफ क्यों हो गया था?
बतौर निर्देशक क्रिस्टोफर नोलन के पॉलीटिकल स्टेटमेंट बहुत स्पष्ट हैं। फिल्म दिखाती है कि कैसे दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिका और रशिया के बीच चल रहे शीत युद्ध के दौरान अमेरिका में उदारवादी सोच पर हमले शुरु हो गए थे। एटॉमिक विस्फोट तक सब ठीक था, मगर हिरोशिमा और नागासाकी पर बम गिरने के बाद ओपनहाइमर भीतर से दरकने लगता है, समय बीतता है और अमेरिका को परमाणु ऊर्जा की ताकत देने वाला व्यक्ति ही एटॉमिक एनर्जी की पॉलिसी की आलोचना शुरू कर देता है।
सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों को इससे दिक्कत होने लगती है। फिल्म के ब्लैक एंड व्हाइट हिस्से में हम अमेरिका की एटॉमिक एनर्जी कमीशन (एईसी) के चीफ लेविस स्ट्रास और ओपनहाइमर के आरोपों की सुनवाई को देखते हैं। सन् 1954 की सुरक्षा मंजूरी की सुनवाई में ओपनहाइमर पर यह आरोप लगा कि उसका जुड़ा कम्यूनिस्ट पार्टी से था और वह देश के राजनीतिक शत्रुओं के साथ उठता-बैठता था।
ओपनहाइमर बतौर वैज्ञानिक किसी एक राजनीतिक विचारधारा पर आस्था नहीं रखते थे। लेकिन 1930 के दशक में कई युवा बुद्धिजीवियों की तरह, ओपेनहाइमर सामाजिक बदलाव के समर्थक थे। जिसे फिल्म उनके समाजवादी विचारों की तरफ झुकाव में देखती है। फिल्म में अमेरिकी सिनेटर जोसेफ मैक्कार्थी के समय की झलक बहुत बेहतरीन तरीके से दिखाई गई है, जब अमेरिकी सरकार वामपंथी विचारधारा से जुड़े लोगों की जासूसी करती थी।
फिल्म में ओपनहाइमर को स्पेनिश गृहयुद्ध और वामपंथी संगठनों की मदद करते हुए दिखाया गया है। वास्तविकता यह थी कि ओपनहाइमर ने भले कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य होने से इनकार किया हो, वे साम्यवादी सिद्धांतों से सहमति रखते थे। हालांकि उन्होंने कभी किसी पार्टी के आदेशों का आँख बंद करके पालन नहीं किया।
फिल्म में गीता के एक श्लोक ‘कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्त:’ का भी जिक्र है। इस श्लोक का जिक्र ओपनहाइमर अपने एक साक्षात्कार में भी करते हैं, जिसे देखा जा सकता है लेकिन फिल्म में नायक इस श्लोक को अपनी वामपंथी प्रेमिका जीन टैटलॉक के साथ के अंतरंग पलों में पढ़ता है।
फिल्म का एक और बहुत ही उल्लेखनीय दृश्य है जब ओपेनहाइमर अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति ट्रूमैन से मिलते हैं। बातचीत के दौरान वे कहते हैं कि उन्हें लगता है कि उनके ‘हाथों पर खून लगा है’। इस टिप्पणी से ट्रूमैन असहज हो जाते हैं और जेब से रुमाल निकालकर ओपनहाइमर की तरफ बढ़ा देते हैं। यह कई जगह दर्ज है कि ट्रूमैन ने ओपनहाइमर को ‘क्राइ बेबी साइंटिस्ट’ और ‘सन ऑफ अ बिच’ कहा था।
‘ओपेनहाइमर’ को देखते हुए डेविड लीन की ‘डॉक्टर जिवागो’ याद आती है। उसकी तरह यह एक भव्य ‘एपिक ड्रामा’ तो है, मगर इससे भी आगे यह एक वैचारिक फिल्म है। फिल्म देखते हुए आप बंधे तो रहते हैं मगर लगातार सोचते भी रहते हैं। नोलन ओपनहाइमर को क्लीन चिट नहीं देते। वे उसके कमजोर पलों को भी दिखाते हैं। यह फिल्म बुद्धिजीवी और राजनीति के रिश्तों, राष्ट्रवाद, राज्य के नियंत्रण जैसे मुद्दों पर सोचने के लिए आपको खुला छोड़ती है।
आज जब हम हम सारी दुनिया में कट्टरपंथ और राष्ट्रवाद का उभार देख रहे हैं तो यह फिल्म और भी ज्यादा प्रासंगिक हो जाती है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद एक नई दुनिया उभर कर सामने आई थी, जिसमें वैज्ञानिकों, लेखकों और बुद्धिजीवियों ने अपनी पक्षधरता तय की और यह समझा कि इस बदली हुई दुनिया में उनकी भूमिका सिर्फ अपने काम तक सीमित नहीं रहेगी। अल्बर्ट आइंस्टीन, बर्ट्रेड रसेल, ओपनहाइमर और टीएस एलिएट जैसे लोगों ने युद्ध के खिलाफ आवाज उठाई। वे उन संभावित खतरों को लेकर भी चिंतित थे जो वैज्ञानिक आविष्कार भावी मानवता के लिए पैदा कर सकते थे।
हर तकनीक नई आशंकाएं लेकर आती है। आर्टिफीशियल इंटैलिजेंस नई चिंताओं को जन्म रहा है। आने वाली दुनिया बहुत से बदलावों से होकर गुजरेगी। ये बदलाव बहुत कुछ देकर जाएंगे और बहुत कुछ हमसे खो भी जाएगा। तीन घंटे की इस फिल्म को देखते हुए बार-बार मन में यह सवाल उठता है कि क्या सभ्यताएं इतिहास से कोई सबक नहीं लेतीं?
पाकिस्तान में आसिफा भुट्टो जरदारी देश की फस्र्ट लेडी बनाए जाने के कारण सुर्खियों में हैं।
आम तौर पर फर्स्ट लेडी किसी देश के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री की पत्नी को माना जाता है।
मगर पाकिस्तान में राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने ऐतिहासिक एलान करते हुए कहा कि उनकी बेटी आसिफा मुल्क की फस्र्ट लेडी होंगी।
आसिफ अली जरदारी की पत्नी और पाकिस्तान की पूर्व पीएम बेनजीर भुट्टो की साल 2007 में हत्या कर दी गई थी।
आसिफा भुट्टो तब महज 14 साल की थीं। बेनज़ीर भुट्टो इस्लामिक देश पाकिस्तान की पहली महिला प्रधानमंत्री थीं और 1998 में पीएम बनने के बाद ही वह तीन बच्चों की माँ बनी थीं।
जऱदारी पहली बार 2008 में राष्ट्रपति बने थे और 2007 में बेनजीर भुट्टो की हत्या हो गई थी। तब आधिकारिक रूप से किसी को फस्र्ट लेडी के रूप में नियुक्त नहीं किया गया था। जरदारी 2013 तक पाकिस्तान के राष्ट्रपति रहे थे।
मगर इस बार जब पाकिस्तान में नई सरकार बनी और इसके बाद आसिफ अली जरदारी ने देश के 14वें राष्ट्रपति के तौर पर बीते रविवार को शपथ ली तो फस्र्ट लेडी पद पर अपनी छोटी बेटी आसिफा के नाम का ऐलान किया गया। अभी आसिफा 31 साल की हैं।
जरदारी के इस एलान पर पाकिस्तान में सवाल उठ रहे हैं कि आखिर बेटी को फस्र्ट लेडी कैसे बनाया जा सकता है?
2020 से राजनीति में सक्रिय हैं आसिफा
बख़्तावर भुट्टो जरदारी आसिफ़ा की बड़ी बहन हैं।
बख़्तावर भुट्टो ने रविवार को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा, ‘आसिफा अली जरदारी-जेल से रिहाई के लिए कोर्ट की सुनवाइयों के दौरान आसिफ अली जरदारी के साथ मौजूद रहने से लेकर पाकिस्तान की फस्र्ट लेडी बनने तक।’
आसिफा अली जऱदारी को फस्र्ट लेडी को मिलने वाली सुविधाएं भी मिलेंगी।
आसिफा पाकिस्तान में सबसे कम उम्र की फर्स्ट लेडी बनी हैं।
वो पाकिस्तान पीपल्स पार्टी यानी पीपीपी के चुनावी अभियान के दौरान सक्रिय रही थीं।
आसिफा ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत नवंबर 2020 में पीपीपी की रैली से की थी।
ऐसे में जब पाकिस्तान की फस्र्ट लेडी बनाने का फैसला हुआ तो इस पर सवाल भी उठे।
कानून के जानकार क्या कह रहे हैं
पाकिस्तान के अंग्रेजी अखबार द एक्सप्रेस ट्रिब्यून ने कानून के जानकारों से बात की है।
इन जानकारों का कहना है कि राष्ट्रपति के पास ये अधिकार है कि वो अपने परिवार की किसी महिला सदस्य को फर्स्ट लेडी का पद दे सकता है।
इन जानकारों का कहना है कि कानून में इसे लेकर कोई बाध्यता नहीं है। 1975 के कानून में राष्ट्रपति को मिले अधिकारों में फस्र्ट लेडी का कोई जिक्र नहीं है। गृह मंत्रालय के जारी दस्तावेज़ों में भी फस्र्ट लेडी या फस्र्ट हसबैंड का जिक्र नहीं मिलता है।
संविधान और कानून के तहत राष्ट्रपति को मिलने वाली सुविधाएं परिवार के सदस्यों, बच्चों को भी मिलती हैं। कानून के तहत राष्ट्रपति के परिवार के सदस्य सरकारी आवास, एयरक्रॉफ्ट का इस्तेमाल कर सकते हैं।
जियो टीवी की वेबसाइट की खबर के मुताबिक, सैन्य शासन के दौरान राष्ट्रपति बनने के बाद साल 1958 में अयूब खान ने भी अपनी बेटी नसीम औरंगजेब को फस्र्ट लेडी बनाने का एलान किया था। तब अयूब खान की पत्नी जीवित थीं।
मोहम्मद अली जिन्ना की बहन फातिमा जिन्ना भी अपने भाई के साथ कई मौकों पर साथ नजर आती थीं।
अतीत में दूसरे कई देशों में ऐसे मामले देखने को मिले थे, जिसमें पत्नी के ना होने पर राष्ट्रपतियों ने अपनी बेटियों, बहनों को फस्र्ट लेडी बनाने के लिए कहा था।
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति एंड्रू जैक्शन की पत्नी नहीं थी। उन्होंने अपनी भांजी एमिली डोनेल्सन को फस्र्ट लेडी बनाने के लिए कहा था।
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक़, दो और अमेरिकी राष्ट्रपतियों चेस्टर आर्थर और ग्रोवर क्लीवलेंड ने अपनी बहनों को फस्र्ट लेडी के तौर पर अपनी सेवाएं देने के लिए कहा था।
पाकिस्तान में राष्ट्रपति के साथ रहने के अलावा फस्र्ट लेडी स्वास्थ्य और समाजिक कार्यक्रमों में भी शामिल होती हैं।
हालांकि पाकिस्तान के मामले में कुछ फस्र्ट लेडी राजनीति में भी सक्रिय रह चुकी हैं।
आसिफा की दादी नुसरत भुट्टो, जिय़ा उल हक की पत्नी शफीक जिया फस्र्ट लेडी होने के साथ-साथ राजनीति में भी सक्रिय थीं।
आसिफा के बारे में कुछ बातें
आसिफा पाकिस्तान के विदेश मंत्री रह चुके बिलावल भुट्टो की बहन हैं। आसिफा अपने पिता के साथ ज़्यादा नजर आती रही हैं।
आसिफा ने ऑक्सफर्ड ब्रुक्स यूनिवर्सिटी से समाज और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई की है। आसिफा ने 21 साल की उम्र में ऑक्सफर्ड यूनियन में भाषण दिया था।
आसिफा समाजिक कार्यों में भी सक्रिय नजर आई हैं।
जब आसिफ अली जरदारी अपना इलाज करवा रहीं मलाला यूसुफजई से मिलने बर्मिंगम गए थे, तब आसिफा भी उनके साथ गई थीं।
आसिफा सोशल मीडिया पर भी सक्रिय नजऱ आती हैं।
पाकिस्तान पोलियो की समस्या से अब तक जूझ रहा है और वहां पोलियो की दवा बच्चों को पिलाना एक चुनौती है।
आसिफा पोलियो से जुड़े अभियानों में भी काफी सक्रिय रही थीं।
भाई बिलावल की शख्सियत
27 दिसंबर, 2007 में बिलावल भुट्टो को माँ बेनजीर भुट्टो की हत्या के बाद पाकिस्तान पीपल्स पार्टी का उत्तराधिकार घोषित किया गया था।
तब बिलावल महज 19 साल के थे और ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के क्राइस्ट कॉलेज में इतिहास से ग्रैजुएशन कर रहे थे। अब बिलावल जब 33 साल के हैं तो उन्हें पाकिस्तान का विदेश मंत्री बना दिया गया है।
2009 में बिलावल को अमेरिका-पाकिस्तान-अफग़़ानिस्तान के एक समिट में पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा बनाया गया था। तब बिलावल 21 साल के थे और उनके पिता आसिफ़ अली जरदारी पाकिस्तान के राष्ट्रपति। कहा जाता है कि इस अंतरराष्ट्रीय प्रतिनिधिमंडल के अलावा कूटनीतिक मामलों में बिलावल के पास कोई अनुभव नहीं है। (bbc.com/hindi)
कांग्रेस नेता राहुल गांधी बीते दिनों ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ के दौरान देश के अलग-अलग हिस्सों में ओबीसी की भागीदारी पर बात करते दिख रहे हैं।
राहुल गांधी ने ब्यूरोक्रेसी में भी ओबीसी अधिकारियों की संख्या का मुद्दा संसद में उठाया था।
लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस बीजेपी को इस संबंध में घेरती हुई नजर आती रही है।
दूसरी तरफ बीजेपी ने हरियाणा में मंगलवार को अहम फैसला लिया।
मनोहर लाल खट्टर के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़े के बाद जाटों के दबदबे वाले हरियाणा में बीजेपी ने अपने ओबीसी चेहरे नायब सिंह सैनी को मुख्यमंत्री बनाया है।
इससे पहले मध्य प्रदेश में भी मोहन यादव को सीएम बनाया गया था। वो भी ओबीसी समुदाय से आते हैं।
खट्टर के इस्तीफा देते ही साढ़े चार साल पुराना बीजेपी और जननायक जनता पार्टी यानी जेजेपी का सरकार में गठबंधन में खत्म हो गया।
ऐसे में सवाल पूछा जा रहा है कि लोकसभा चुनावों से ठीक पहले आखिर बीजेपी ने खट्टर को सीएम पद से क्यों हटाया और नायब सैनी को सीएम क्यों बनाया?
चुनाव से पहले चेहरे बदलना बीजेपी की रणनीति का हिस्सा
चुनाव से पहले राज्यों में मुख्यमंत्री बदलना बीजेपी की परखी हुई रणनीति है।
इसकी शुरुआत 2021 में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय रूपाणी के इस्तीफे से होती है। विजय रूपाणी के इस्तीफे के बाद पहली बार विधायक बने भूपेंद्र पटेल को बीजेपी ने गुजरात का मुख्यमंत्री बना दिया था।
अगले साल ही यानी 2022 में गुजरात में विधानसभा चुनाव होना था। रूपाणी की पूरी कैबिनेट ने इस्तीफ़ा दे दिया था और रातोंरात मुख्यमंत्री से लेकर गुजरात का पूरा मंत्रिमंडल नया हो गया था।
एक साल बाद गुजरात में चुनाव हुआ और बीजेपी ऐतिहासिक बहुमत के साथ सातवीं बार सत्ता में लौटी थी।
बीजेपी ने गुजरात के बाद कर्नाटक, उत्तराखंड और त्रिपुरा में भी मुख्यमंत्रियों को बदल दिया था। कर्नाटक को छोड़ दें तो मुख्यमंत्री बदलने की रणनीति बीजेपी के हक़ में गई थी।
हरियाणा में मुख्यमंत्री बदलने की रणनीति को बीजेपी की ओबीसी केंद्रित राजनीति के आईने में देखा जा रहा है।
बीजेपी संदेश देना चाहती है कि कांग्रेस भले ओबीसी की बात कर रही है लेकिन वो हकीकत में इसे करके दिखा रही है।
77 सदस्यों वाले मोदी मंत्रिमंडल में सबसे ज़्यादा 27 मंत्री ओबीसी हैं। बीजेपी के 303 लोकसभा सांसदों में 85 ओबीसी हैं।
हरियाणा में जाति का आंकड़ा
हरियाणा में कऱीब 44 फ़ीसदी आबादी ओबीसी है। माना जा रहा है कि पार्टी सैनी को सीएम बनाकर ओबीसी मतदाताओं को लुभाना चाहती है।
हरियाणा में बीजेपी के एक तबके का कहना है कि खट्टर को बदलने की पहल एक साल से हो रही थी, पार्टी कोशिश कर रही थी कि ज़्यादा दलित, ओबीसी चेहरों को सामने लाया जाए।
इसके अलावा फरवरी 2024 में खट्टर के खिलाफ कांग्रेस अविश्वास प्रस्ताव लाई थी। हालांकि ये प्रस्ताव गिर गया था। मगर खट्टर के कार्यकाल में लाया गया ये दूसरा अविश्वास प्रस्ताव था।
कहा जा रहा है कि खट्टर के प्रति अविश्वास की स्थिति बीजेपी के अंदर भी थी। पार्टी कार्यकर्ताओं में खट्टर को लेकर नाराजग़ी थी।
ऐसे में खट्टर को हटाकर बीजेपी की कोशिश है कि चुनावों में नए चेहरे के साथ उतरा जाए।
द टेलीग्राफ अखबार से एक बीजेपी नेता ने कहा, ‘खट्टर और पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच कटाव सा था। काम तो अच्छा ही कर रहे थे।’
बीजेपी के कई नेताओं ने कहा कि खट्टर के बारे में पार्टी को फीडबैक दिया गया था।
कुछ महीने पहले हरियाणा के पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष अशोक तंवर ने बीजेपी का हाथ थामा था। तंवर के रूप में बीजेपी को राज्य में दलित चेहरा मिला, जिनकी हरियाणा की आबादी में हिस्सेदारी 20 फीसदी है।
बीजेपी की कोशिश है कि ओबीसी-दलित चेहरों की बदौलत जाटों की नाराजग़ी से हो सकने वाले नुकसान की भरपाई की जा सके।
हरियाणा की 90 सीटों में से 40 सीटों पर जाटों का दबदबा रहता है। कहा जा रहा है कि बीते साल अक्तूबर में जाट ओपी धनखड़ को अध्यक्ष पद से हटाए जाने से नाखुश हैं।
खट्टर और धनखड़ के बीच पार्टी और सरकार में मतभेद थे।
बीजेपी के लोगों की मानें तो खट्टर पीएम मोदी के ख़ास हैं और लोकसभा चुनावों में उन्हें करनाल से टिकट दी जा सकती है। वहीं तंवर को कुरुक्षेत्र से टिकट दी जा सकती है। नायब सैनी कुरुक्षेत्र सीट से सांसद थे।
जाट वोट और खट्टर के इस्तीफे की वजह
हरियाणा की राजनीति जाट और गैर-जाट वोट के इर्द-गिर्द घूमती है।
इकोनॉमिक टाइम्स की रिपोर्ट में कहा गया है कि सैनी को सीएम बनाकर बीजेपी पिछड़ी मानी जाने वाली जातियों के वोट हासिल करना चाहती है क्योंकि बीजेपी ब्राह्मण, पंजाबी, बनिया और राजपूत वोटों को लेकर आश्वस्त है।
बीजेपी ने पार्टी सर्वे में ये पाया कि किसान आंदोलन और महिला पहलवानों के प्रदर्शन के कारण खट्टर के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर है।
बीजेपी के लिए हरियाणा में जाट वोट चुनौती की तरह हैं।
2019 लोकसभा चुनावों में राज्य की 10 सीटें बीजेपी जीतने में सफल रही थी। इन चुनावों में बीजेपी को 58 फ़ीसदी वोट मिले थे और इसमें जाटों ने अहम भूमिका अदा की थी।
2019 लोकसभा चुनाव बालाकोट एयरस्ट्राइक के बाद हुए थे और बीजेपी की जीत में जानकार इस घटना को भी अहम मानते हैं।
वहीं जब विधानसभा चुनाव हुए तो बीजेपी का वोट शेयर घटकर 36 फीसदी हो गया था।
बीजेपी हरियाणा में बदलाव करके आगामी चुनावों में ख़ुद को मजबूत करना चाहती है।
दुष्यंत चौटाला बीजेपी के लिए कितने ज़रूरी?
लोकसभा चुनाव से कुछ हफ्ते पहले और हरियाणा विधानसभा चुनाव से सात महीने पहले प्रदेश में इस परिवर्तन के कई संदेश हैं।
2019 में हरियाणा विधानसभा चुनाव के बाद बीजेपी और जेजेपी में हुआ गठबंधन अब भी संदिग्ध बना हुआ है। दुष्यंत चौटाला की पार्टी जेजेपी के 10 विधायक हैं और इसी के दम पर वह उपमुख्यमंत्री बने थे।
खट्टर के इस्तीफे के बाद वह भी हरियाणा की सरकार से बाहर हो गए हैं। लेकिन बीजेपी और जेजेपी दोनों की ओर से स्पष्ट तौर पर गठबंधन टूटने पर कुछ नहीं कहा गया।
दोनों तरफ़ के नेता इस पर चुप हैं।
कहा जा रहा है कि हरियाणा बीजेपी में यह मांग ज़ोर पकड़ रही थी कि लोकसभा चुनाव में उसे बिना किसी गठबंधन के अकेले जाना चाहिए।
लेकिन ये स्पष्ट है कि लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी ने जेजेपी को छोड़ दिया है।
90 सदस्यों वाली हरियाणा विधानसभा में बीजेपी के 41 विधायक हैं और उसे सात निर्दलीय विधायकों समर्थन मिला है। 48 सदस्यों के साथ बीजेपी को हरियाणा विधानसभा में स्पष्ट बहुमत मिल गया है। ऐसे में बीजेपी को जेजेपी की जरूरत भी नहीं थी।
जेजेपी 2018 में बनी थी जब अजय चौटाला अपने पिता और इंडियन नेशनल लोकदल की सुप्रीमो ओम प्रकाश चौटाला से अलग होने का फ़ैसला किया था। 2019 के हरियाणा विधानसभा चुनाव में आईएनएलडी एक सीट ही जीत पाई थी जबकि जेजेपी 10 सीट जीतकर किंगमेकर बन गई थी।
दुष्यंत चौटाला की मुश्किलें
मंगलवार को खट्टर के इस्तीफे और सैनी के सीएम बनते ही दुष्यंत चौटाला ने सोशल मीडिया पर दो पोस्ट लिखी।
दुष्यंत चौटाला ने लिखा, ‘सीमित समय और सीमित संख्या के साथ हमने दिन रात हरियाणा के हितों की रक्षा के लिए लगाए हैं। हमने हरियाणा के हर वर्ग और हर क्षेत्र के काम सरकार में करवाए हैं। हमारे मुश्किल और संघर्ष के दौर में आपने हम पर जो भरोसा लगातार जताया है और जो साथ हमेशा दिया है उसके लिए मैं आपका सदैव आभारी रहूँगा।’
नायब सैनी को बधाई देते हुए दुष्यंत चौटाला ने लिखा, ‘मुझे पूरा विश्वास है कि गरीब, किसान और प्रदेश के विकास की जिन योजनाओं को हमने लागू किया, आप उन्हें आगे बढ़ाते हुए जन-हितैषी सरकार चलाएंगे। मुझे पूरी उम्मीद है कि जनता की सुनवाई के लिए आपके निवास के द्वार हमेशा खुले रहेंगे।’
चौटाला ने हरियाणा में हुए सियासी फेरबदल के बाद मंगलवार को विधायकों की बैठक बुलाई थी।
द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक़, इस बैठक में पांच विधायक शामिल नहीं हुए। इसके बाद ये कयास लगाए जा रहे हैं कि जेजेपी के अंदर भी टूट हो सकती है।
पार्टी बैठक के बाद जब जेजेपी के हरियाणा प्रमुख निशान सिंह ने बैठक में मौजूद विधायकों की संख्या नहीं बताई और कहा कि बैठक की बातचीत के बारे में बुधवार को हिसार रैली में बताया जाएगा।
जेजेपी के चार विधायक नई सरकार के शपथग्रहण समारोह में भी दिखे थे।
द हिंदू ने सूत्रों के हवाले से लिखा है कि सोमवार को दुष्यंत चौटाला ने अमित शाह से मुलाकात की थी और 2024 चुनावों के लिए दो लोकसभा सीटों की मांग की थी।
मगर 2024 चुनावों में बीजेपी हरियाणा में अकेले मैदान में उतरने का सोच रही है।
जशपुर जिले के ग्राम बगिया के विष्णुदेव साय छत्तीसगढ़ मुख्यमंत्री पद की शपथ 13 दिसंबर 2023 को ली थी। आदिवासी सरगुजा संभाग, जशपुर जिले के यह पहले व्यक्ति है, जो छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री बने। विष्णु देव साय ने महज नब्बे दिनों में तीन करोड़ से अधिक प्रदेशवासियों के जीवन में खुशहाली बिखेरने में सफलता अर्जित की है।
ईमानदार प्रयास नया मिसाल
वैसे तो किसी भी सरकार के लिए तीन माह का कार्यकाल बहुत ही कम होते हैं। लेकिन मुख्यमंत्री श्री साय ने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद ग्रामीणों के हित में कई निर्णय लिए। प्रधानमंत्री आवास योजना (ग्रामीण) के तहत प्रदेश के 18 लाख से अधिक आवासहीनों को पक्का मकान देने के निर्णय ने इन लाखों गरीबों के चेहरे में खुशियां बिखेर दीं। प्रदेश के करीब 68 लाख अंत्योदय एवं प्राथमिकता राशनकार्डधारी परिवारों को अगले पांच वर्ष तक नि:शुल्क खाद्यान्न देने के फैसले से इन परिवारों को भरपेट भोजन भी मिलेगा।
युवाओं के भविष्य सुरक्षित
प्रदेश के युवाओं के भविष्य को सुरक्षा प्रदान करते हुए छत्तीसगढ़ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित परीक्षा-2021 की शिकायतों की जांच सीबीआई से जांच कराने व यूपीएससी की तर्ज पर परीक्षा प्रणाली लागू करने जैसे महत्वपूर्ण निर्णय लिए। बेरोजगारों के हित में फैसला लेते हुए शासकीय सेवा में भर्ती हेतु स्थानीय निवासियों को अधिकतम आयु सीमा में दिसंबर 2028 तक छूट दी गई है।
किसानों के पीड़ा को किया दूर
मुख्यमंत्री श्री विष्णुदेव साय दूरस्थ आदिवासी अंचल से होने के साथ एक मंजे हुए किसान पुत्र भी हैं, इसीलिए किसानों की पीड़ा को वे बेहतर समझते हैं। पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिन 25 दिसंबर को सुशासन दिवस के अवसर पर राज्य के किसानों को दो साल के बकाया धान बोनस के भुगतान की गारंटी को पूरा करते हुए 13 लाख किसानों को 3 हजार 716 करोड़ रूपए का भुगतान की गई।
सबसे बड़ी राशि किसानों के खातों में
अपने वादे के अनुरूप किसानों के हित में खरीफ वर्ष 2023-24 में समर्थन मूल्य पर प्रदेश के किसानों से प्रति एकड़ 21 क्विंटल धान खरीदी की गई, 24 लाख 72 हजार किसानों से 144.92 लाख मीट्रिक टन रिकॉर्ड धान खरीदी की गई और अन्नदाताओं को 31 हजार 914 करोड़ रूपए का भुगतान भी किया गया तो 12 मार्च को ‘‘कृषक उन्नति योजना‘‘ के तहत समर्थन मूल्य की अंतर राशि 13 हजार 320 करोड़ रूपए अन्नदाताओं के खाते में प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री विष्णुदेव ने डीबीटी के माध्यम से पहुँचाने का काम किया है ।
आदिवासियों के हित में बड़ा निर्णय
प्रदेश के लाखों आदिवासी भाई-बहनों को आर्थिक रूप से सशक्त करने के लिए तेंदूपत्ता संग्राहकों को संग्रहण पारिश्रमिक दर 4 हजार रूपए प्रतिमानक बोरा से बढ़ाकर 5 हजार 500 रूपए किया गया साथ ही तेंदूपत्ता संग्राहक सामाजिक सुरक्षा हेतु नवीन योजना संचालित किए जाने का निर्णय भी लिए हैं।
आस्था-विश्वास व भावनाओं का रखा ध्यान
प्रदेशवासियों के विश्वास व आस्था की भावनाओं को सम्मान देते हुए विष्णु देव सरकार ने रामलला दर्शन (अयोध्या धाम) योजना शुरू की। इस योजना के तहत प्रदेश के 18 से 75 आयु वर्ग के पात्र हितग्राहियों को अयोध्या धाम दर्शन के लिए विशेष ट्रेन शुरू की है, वहीं छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक धरोहर नगरी राजिम के वैभव को फिर से स्थापित करने के लिए राजिम कुंभ (कल्प) की शुरूआत भी की।
मातृ शक्ति का किया वंदन
डबल इंजन वाली विष्णु देव सरकार ने मोदी की गारंटी पर मुहर लगाते हुए महतारी वन्दन योजना के तहत प्रदेश के 70 लाख से अधिक विवाहित महिलाओं के खाते में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बाबा विश्वनाथ की धरती काशी से शुभारंभ किए और प्रथम किस्त की राशि करीब 700 करोड़ रुपए इन महिलाओं के खाते में अंतरित हुई।
विष्णुदेव साय सरकार ने एक अहम फैसले लेते हुए छत्तीसगढ़ आबकारी नीति वित्तीय वर्ष 2024-25 का अनुमोदन किया है। साथ ही प्रदेश की आधी आबादी यानी माताओं एवं बहनों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए निर्णय लिया है कि कोई भी नई मदिरा दुकान नहीं खोली जाएगी। मुख्यमंत्री श्री साय ने लोकतंत्र सेनानियों (मीसाबंदियों) की भावनाओं का सम्मान करते हुए 430 लोकतंत्र सेनानियों-आश्रितों को सम्मान निधि देने का निर्णय लिया।
एल.डी.मानिकपुरी
(सहायक जनसम्पर्क अधिकारी, कोरिया)
भारत ने चार यूरोपीय देशों के साथ एक मुक्त व्यापार समझौता किया है। कहा जा रहा है कि इस समझौते से अगले 15 सालों में 10 लाख नौकरियां पैदा होंगी।
देश के वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने समझौते के बारे में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर बताया कि भारत में ये चार यूरोपीय देश 100 अरब डॉलर का निवेश करेंगे।
इन यूरोपीय देशों में स्विट्जऱलैंड, नॉर्वे, आइसलैंड और लिनसेस्टाइन शामिल हैं। ये चारों ही देश यूरोपीय संघ का हिस्सा नहीं है।
इस ट्रेड समझौते लिए साल 2008 में बातचीत शुरू की गई थी और फिर नवंबर 2018 में ये बातचीत रुक गई थी। इसके बाद अक्टूबर 2016 में फिर इस पर चर्चा शुरू हुई।
समझौते पर फाइनल मुहर लगने से पहले कुल 21 दौर की बातचीत हुई। अब इस समझौते पर हस्ताक्षर हो चुका है।
ये समझौता एफ़टीए (फ्री टेड असोसिएशन) के लिहाज से एक बड़ा समझौता है क्योंकि इसमें निवेश को अनिवार्य किया गया है।
इस समझौते के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बयान जारी कर कहा कि इस ऐतिहासिक समझौते से देश के युवाओं के लिए नौकरियां पैदा होंगी।
समझौते पर नॉर्वे के व्यापार मंत्री जेन क्रिस्टियन वस्त्रे ने कहा, ‘भारत और नॉर्वे के संबंध अब तक के सबसे अच्छे दौर में हैं।’
इस सौदे से जहाँ भारत को बड़ा निवेश मिलेगा वहीं बदले में यूरोपीय देशों के प्रॉसेस्ड फूड, ब्रेवरेज और इलेक्ट्रॉनिक मशीनरी को दुनिया की सबसे तेज़ गति से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में से एक भारत के 140 करोड़ लोगों के बाज़ार तक आसान पहुँच मिलेगी।
ऐतिहासिक समझौते
पीयूष गोयल ने इस समझौते पर कहा कि इससे फार्मा, मेडिकल उपकरण, फूड, रिसर्च एंड डिवेलपमेंट जैसे बिजनेस को बड़ा फ़ायदा होगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने बयान में इस समझौते को भारत और ईएफ़टीए देशों के बीच द्विपक्षीय रिश्तों के लिहाज से एक ऐतिहासिक पल बताया है।
उन्होंने अपने बयान में कहा, ‘10 मार्च 2024 भारत और ईएफटीए देशों के बीच रिश्ते का एक ऐतिहासिक क्षण है।’
‘कई पहलुओं में संरचनात्मक विविधताओं के बावजूद, हमारी अर्थव्यवस्थाओं में समनताएं हैं, जो सभी देशों के लिए फायदेमंद स्थिति पैदा करेंगी।’
पीएम मोदी वे कहा, ‘चारों देश अलग-अलग मामलों में वैश्विक लीडर है। वित्तीय सेवा, बैंकिंग, ट्रांसपोर्ट, लॉजिस्टिक, फार्मा, मशीनरी सहित अलग-अलग क्षेत्रों में इन देशों के अग्रणी होने से हमारे लिए सहयोग के नए दरवाजे खुलेंगे।’
नॉर्वे के व्यापार मंत्री जेन क्रिस्टियन वस्त्रे ने प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान कहा, ‘आज का दिन ऐतिहासिक है’- ये बात उन्होंने हिंदी में कही।
वस्त्रे ने कहा, ‘ये वास्तव में इतिहास की किताबों में दर्ज होने वाला दिन है। ये टिकाऊ व्यापार करने का नया तरीक़ा है। निवेश बढ़ाना और नौकरियों का सृजन करना हमारी प्रतिबद्धता है ताकि हम इस समझौते के तय उद्देश्यों को हासिल कर सकें।’
भारत को क्या फ़ायदा होगा
जिन चार देशों के साथा समझौते हुए हैं, उसमें से स्विट्जरलैंड भारत का सबसे बड़ा कारोबारी साझेदार है।
साल 2022-23 में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार 17.14 अरब डॉलर का रहा जबकि इन चारों देशों के साथ मिला कर व्यापार 18.66 अरब डॉलर का था।
स्विस सरकार ने समझौते को ‘मील का पत्थर’ कहा है।
इस समझौते के बाद भारत कुछ समय के लिए उच्च गुणवत्ता वाले स्विस उत्पादों जैसे स्विस घड़ी, चॉकलेट, बिस्कुट जैसी चीजों पर कस्टम ड्यूटी हटा देगा।
डील के अनुसार, भारत सोने को छोडक़र, स्विट्जरलैंड से लगभग 95त्न औद्योगिक आयात पर कस्टम ड्यूटी तुरंत या समय के साथ हटा देगा।
इससे सीफूड जैसे टूना, सॉलमन, कॉफ़ी, तरह-तरह के तेल, कई तरह की मिठाइयां और प्रोसेस्ड फूड की कीमत भारत में कम होगी।
इसके अलावा स्मार्टफोन, साइकिल के सामान, मेडिकल के उपकरण, डाई, कपड़ा, स्टील के सामान और मशीनरी भी सस्ते होंगे।
ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव के प्रमुख अजय श्रीवास्तव ने समाचार एजेंसी पीटीआई से कहा, ‘भारत में स्विट्जरलैंड के सामानों की क़ीमत सस्ती होने वाली है क्योंकि इन पर लगने वाले टैरिफ हटा दिए जाएंगे। वाइन जो पाँच डॉलर से 15 डॉलर के बीच की कीमत की हैं, इन पर लगभग 150 फीसदी से घटा कर ड्यूटी 100 फीसदी कर दी जाएगी।’
श्रीवास्तव के अनुसार, आने वाले सालों में में कट-पॉलिस डायमंड पर पाँच फीसदी की ड्यूटी घटा कर 2.5 फीसदी कर दी जाएगी।
निवेश और नौकरियों को लेकर कितनी प्रतिबद्धता
इस समझौते को ऐतिहासिक इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि आने वाले 15 सालों में ये चार देश 100 अरब डॉलर का निवेश भारत में करेंगे और 10 लाख नौकरियां पैदा की जाएंगी। इन देशों ने इसे लेकर प्रतिबद्धता जतायी है।
द हिंदू को दिए गए एक इंटरव्यू में स्विट्जऱलैंड की आर्थिक मामलों की मंत्री हेलेन बडलिगर अर्टिडा ने बताया है, ‘मैं आपको बता सकती हूं कि स्विट्जरलैंड की कंपनियों और जिन अन्य कंपनियों से हमने बात की है, उनकी भारत में व्यापक रुचि है।’
‘हम एक अनुमान के ज़रिए 100 अरब डॉलर के आँकड़े पर पहुंचे हैं। इसके लिए हमने 2022 में एफडीआई का आँकड़ा देखा है, जो 10.7 अरब अमेरिकी डॉलर है और भारत के जीडीपी अनुमान और यहाँ का बड़ा बाज़ार हमारे इस निवेश की राशि पर पहुँचने का आधार है।’
‘ईएफटीए ब्लॉक हमारे यूरोपीय पड़ोसी (ईयू) से पहले ही इस सौदे पर मुहर लगाने में कामयाब रहा, जिससे भारत में बाकियों की रुचि और बढ़ गई है। लेकिन मैं बहुत स्पष्ट तौर पर ये बताना चाहती हूँ कि यह निवेश स्विस सरकार नहीं है करेगी बल्कि प्राइवेट कंपनियां करेंगी।’
‘अगर हम किन्हीं कारणों से 100 अरब डॉलर के निवेश नहीं कर सके तो हम वापस चले जाएंगे।’
समझौते पर स्विट्जरलैंड के अर्थव्यवस्था मंत्री गाइ पार्मेलिन ने कहा, भारत ‘व्यापार और निवेश के लिए अपार अवसर’ देने वाला देश है। इस सौदे से भारत की तकनीक तक पहुँच होगी।
इस समझौते से फार्मा और मेडिकल डिवाइस के क्षेत्र में भी फायदा होगा। भारतीय निर्यातकों को इन देशों के बाजार में भी अच्छी पहुँच मिलेगी।
इस समझौते में कुल 14 चैप्टर हैं, जिसमें सरकारी खरीद, निवेश प्रोत्साहन और सहयोग, व्यापार में छूट, इंटलेक्चुअल प्रॉपर्टी की सुरक्षा शामिल हैं।
इस समझौते के प्रभावी होने के दो साल बाद इसकी समीक्षा का प्रावधान है। पहली समीक्षा के बाद, दोनों पक्ष, ईएफटीए और भारत इस सौदे की हर दो साल में समीक्षा करेंगे।
ये समझौता प्रभावी कब से होगा?
इस सवाल के जवाब में अर्टिडा ने द हिंदू को बताया, ‘हर देश का अलग-अलग समय है। स्विट्जरलैंड में हम ऑटम सेशन में संसद पेश करेंगे।उम्मीद है कि इस साल के अंत तक इसे लागू किया जा सकेगा। मुझे लगता है कि बाकी के ईएफटीए देश भी तब तक अपनी प्रक्रियाएं पूरी कर लेंगे।’ (bbc.com/hindi)
डॉ. आर.के. पालीवाल
राजनीति में विचारधारा का जैसा विचलन इधर देखने में आ रहा है उससे लगता है कि राजनीति से विचार और सेवा तत्व लगभग नदारद हो गया है और राजनीति मात्र सत्ता की असीमित शक्ति और ऐशो आराम की जिंदगी जीने का सर्वोत्तम माध्यम बन गई है।सबसे ज्यादा ताज्जुब तो तब होता है जब इस जमात के वरिष्ठ नेता तीन सौ साठ डिग्री टर्न लेकर अपनी धुर विरोधी विचारधारा वाले राजनीतिक दल की शरणागत होकर अचानक नए दल के उन नेताओं के स्तुति गान गाने लगते हैं जिन्हें वे कई साल से पानी पी पीकर बुरी तरह गलियाते रहते थे।
दुर्भाग्य से हमारा संविधान, केन्द्रीय चुनाव आयोग और जन प्रतिनिधि कानून इस तरह के स्वार्थी और विचार रहित नेताओं पर लगाम कसने में अक्षम हैं। इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह है कि इन महा स्वार्थी नेताओं को विरोधी राजनीतिक दल चुनाव मे टिकट भी दे देते हैं और राज्य सभा के उच्च सदन में पहुंचाकर माननीय भी बनाते हैं।जाति और धर्म के नाम पर बंटे हुए नागारिक भी इन्हें सर आंखों पर बिठाकर अपना प्रतिनिधि चुन लेते हैं। निश्चित रूप से इन नेताओं की राजनीतिक दुकान चलवाने के लिए सबसे बड़ा दोष तो मतदाताओं का ही है क्योंकि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में नागरिकों को शासन चलाने के लिए वैसे ही शासक मिलते हैं जैसे वे खुद हैं।
कभी हरियाणा में भजनलाल से राजनीति में आयाराम गयाराम की शुरुआत हुई थी जिसे हमारे समय में नीतीश कुमार ने और आगे बढ़ाकर वैचारिक राजनीति को गर्त मे पहुंचाया है। नीतीश कुमार की वर्तमान छवि जोड़ तोड़ से सरकार बनाने के पितामह की बन गई है। अमूमन हर राज्य में उनकी तरह के नेताओं का एक ऐसा बड़ा वर्ग पैदा गया है जो ज्यादा दिन सत्ता से दूर नहीं रह सकते। यह देखने में आया है कि इन नेताओं के परिवार के विविध व्यापारिक हित भी होते हैं और आर्थिक घोटालों के काले कारनामें भी होते हैं जिसकी वजह से ये जांच एजेंसियों के रडार से बचने के लिए सत्ता के आसपास मंडराते रहते हैं।
महाराष्ट्र से अशोक चव्हाण और उत्तर प्रदेश से स्वामी प्रसाद मौर्य और मध्य प्रदेश के ज्योतिरादित्य सिंधिया और सुरेश पचौरी आदि नेता इसी वर्ग में आते हैं। ऐसे नेताओं को लुभाकर अपना अश्वमेध अजेय रखने के लिए सत्ता पक्ष भी जीजान से जुटता है और विपक्ष भी उन पर सवार होकर सत्ता पाने के लिए लालायित रहता है।2024 के लोकसभा चुनाव में जहां कांग्रेस भारत जोड़ो यात्रा के माध्यम से अपनी खोई हुई जमीन वापिस हासिल करने की कोशिश कर रही है वहीं भाजपा नई रणनीति के तहद इस चुनाव को कांग्रेस मुक्त चुनाव बनाने में लगी है।हाल ही में गृह मंत्री अमित शाह का एक बयान प्रमुखता से अखबारों में प्रकाशित हुआ है जिसमें उन्होंने स्थनीय नेताओं से कांग्रेस के बूथ स्तर के कार्यकर्ताओं को भाजपा में लाने का निर्देश दिया है और कहा है कि सांसदों और विधायकों को भाजपा में शामिल कराने का काम भाजपा हाई कमान करेगा।
ऐसे में विपक्ष का यह आरोप सही लगता है कि भाजपा खुद को लॉन्ड्री मशीन मानती है जिसमे घुसकर दागी नेता साफ हो जाते हैं। इसका प्रमाण हाल ही में कांग्रेस से भाजपा में आए महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण हैं जिन पर भाजपा ने आदर्श घोटाले में खूब कीचड़ उछाली थी। हाल ही में भाजपा में शामिल होने पर उन्हें राज्य सभा के उच्च सदन में प्रतिष्ठित किया गया है। इसके पहले यही घटनाक्रम मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ घटित हुआ था।महाराष्ट्र में अजीत पवार को उप मुख्यमंत्री बनाकर भी यही संदेश दिया गया था कि भाजपा के साथ आने से जांच एजेंसियों के एंटीना का रुख आपकी पूर्व की संदिग्ध गतिविधियों पर नहीं रहेगा। लोकतंत्र के लिए यह स्थिति अत्यन्त घातक है। अंतिम उम्मीद की किरण मतदाता ही हैं। मतदाताओं की जागरूकता के बगैर लोकतंत्र निरंतर भोंथरा होता जाएगा।
रियाज सोहैल
‘राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार तारिक अजीज ने मुझे बताया है कि वह (तारिक) पिछले चार दिनों के दौरान आसिफ जरदारी से दो बार मुलाकात कर चुके हैं।’
विकीलीक्स की ओर से उजागर किए जाने वाले कूटनीतिक दस्तावेजों के अनुसार यह बात अमेरिकी राजदूत एन पीटरसन ने 16 फरवरी 2008 को अमेरिकी सरकार को भेजे अपने पत्र में लिखी थी।
ध्यान रहे कि पाकिस्तान में आम चुनाव 18 फरवरी 2008 को होने वाले थे। विकीलीक्स की ओर से उजागर दस्तावेजों के अनुसार इस चुनाव से पहले आसिफ जरदारी ने पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के सलाहकार तारिक के साथ इस बात की चर्चा की थी कि अगर पीपुल्स पार्टी चुनाव जीत गई तो किसे प्रधानमंत्री बनाया जाए।
उन दस्तावेज़ों के अनुसार तारिक़ अज़ीज़ और उस समय के आईएसआई प्रमुख जनरल नदीम ताज आसिफ़ जऱदारी को यह समझाने की कोशिश कर रहे थे कि वह प्रधानमंत्री न बनें और पार्टी के वरिष्ठ उपाध्यक्ष मखदूम अमीन फहीम का इस पद के लिए समर्थन करें।
एन पीटरसन की ओर से 7 फऱवरी 2008 को लिखे गए एक और पत्र के अनुसार राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार तारिक़ अज़ीज़ ने उन्हें (पीटरसन को) बताया कि राष्ट्रपति मुशर्रफ़ ने आसिफ़ जऱदारी को प्रधानमंत्री बनाए जाने के प्रस्ताव को सख़्ती से ठुकरा दिया है।
उस पत्र के अनुसार तारिक़ अज़ीज़ का कहना था कि जिस डील के नतीजे में बेनज़ीर भुट्टो की वापसी हुई थी उसी के ज़रिए आसिफ़ जऱदारी के प्रधानमंत्री बनने से राष्ट्रपति मुशर्रफ की साख प्रभावित हो सकती है।
पत्र के अनुसार, ‘तारिक अजीज ने कहा कि जरदारी अगर पर्दे के पीछे रहें और अपनी पार्टी का नेतृत्व करें तो उनका समर्थन किया जाएगा। अजीज ने कहा कि यह स्थिति वर्तमान (सैनिक) नेतृत्व के लिए बेहतर होगी क्योंकि बेनजीर भुट्टो की तुलना में जरदारी के साथ मामले तय करना अधिक आसान है।’
लगभग डेढ़ दशक पहले विकीलीक्स के ज़रिए उजागर होने वाले इन अमेरिकी कूटनीतिक दस्तावेजों और उनमें लिखी गई घटनाओं के बारे में पूर्व राष्ट्रपति जरदारी या पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने कभी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है।
हालांकि यह सच्चाई है कि 2008 के चुनाव के बाद आसिफ जरदारी प्रधानमंत्री नहीं बल्कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति बने थे।
शनिवार को हुए राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे में उन्हें सफल घोषित किया गया है। अब वह पाकिस्तान के पहले ऐसे राजनेता बन गए हैं जो दो बार राष्ट्रपति पद पर आसीन होंगे।
इस रिपोर्ट में हमने आसिफ अली जरदारी के राजनीतिक जीवन के बारे में जानने की कोशिश की है। तो चलिए शुरू करते हैं काउंसलर के उस चुनाव से जिसमें आसिफ अली जरदारी को हार का सामना करना पड़ा था।
जब आसिफ जरदारी काउंसलर का चुनाव हार गए
सन् 1955 में पैदा होने वाले आसिफ अली जरदारी अपने माता-पिता के इकलौते बेटे हैं और उनकी तीन बहनें हैं।
आसिफ जरदारी ने शुरुआती शिक्षा सेंट पैट्रिक स्कूल से ली। इसके बाद वह सिंध के पिटारो स्थित कैडेट कॉलेज चले गए। उनकी अधिकृत जीवनी के अनुसार उन्होंने लंदन से बिजनेस में ग्रेजुएशन की है।
आसिफ अली जरदारी के पिता हाकिम अली जरदारी जमींदारी के अलावा कराची में सिनेमाघरों और कंस्ट्रक्शन के काम से जुड़े थे। किसी जमाने में वह शेख मुजीब की अवामी नेशनल पार्टी का हिस्सा भी रहे थे। पाकिस्तान चुनाव आयोग के रिकॉर्ड के अनुसार हाकिम जऱदारी सन 1985 में जनरल जिय़ाउल हक़ के दौर में नवाबशाह से राष्ट्रीय असेंबली का चुनाव लड़े लेकिन हार गए। वह चुनाव गैर-दलीय हुआ था।
अपने पिता से पहले आसिफ़ अली जऱदारी नवाबशाह की जि़ला काउंसिल के चुनाव में हिस्सा ले चुके थे। इसमें उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। सन 1983 का यह वह दौर था जब सिंध में लोकतंत्र बहाल करने का आंदोलन जोरों पर था। इस साल नवाबशाह के शहर सकरंड के पास ‘पिन्हल चांडियू’ गांव में सेना की ़ायरिंग में पीपुल्स पार्टी के सोलह कार्यकर्ता मारे गए और लगभग पचास घायल हो गए थे।
देश-विदेश के मीडिया में आसिफ जरदारी को घाघ नेता बताया जाता है।
पाकिस्तान के लोग सन 1987 से पहले आसिफ जरदारी का नाम नहीं जानते थे। जब दिसंबर 1987 में उनकी शादी पूर्व प्रधानमंत्री ज़ुल्फिकार अली भुट्टो की बेटी और पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो से हुई तो उनका नाम देशभर में जाना पहचाना बन गया।
उस शादी के अगले ही साल ही यानी 1988 में होने वाले आम चुनाव में भुट्टो की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने बहुमत प्राप्त किया और बेनजीर भुट्टो देश की पहली महिला प्रधानमंत्री बन गईं। बेनजीर अपने साथ अपने पति को भी प्राइम मिनिस्टर हाउस ले आईं। यही वह वक्त था जबसे आसिफ जरदारी की राजनीति, उनसे जुड़े विवाद और कथित भ्रष्टाचार के मुकदमों की शुरुआत हुई।
‘मिस्टर टेन पर्सेंट’ की छाप
राष्ट्रपति ग़ुलाम इसहाक खान ने बेनजीर भुट्टो की सरकार को चुने जाने के दो साल के अंदर ही बर्खास्त कर दिया और असेंबलियों को भंग कर दिया। असेंबली को भंग करने और देश में नवाज शरीफ की मुस्लिम लीग की सरकार आने के कुछ ही समय बाद 10 अक्टूबर 1990 को आसिफ जरदारी पहली बार गिरफ्तार हुए। जब नवाज शरीफ की सरकार बर्खास्त हुई तो फरवरी 1993 में उन्हें रिहाई मिली।
आसिफ जरदारी पर आर्थिक भ्रष्टाचार, अपहरण और अधिकारों के दुरुपयोग जैसे आरोप लगाए गए थे जो कभी अदालतों में साबित नहीं हो पाए।
1990 के दशक का यही वह दौर था जब कथित तौर पर सरकारी ठेकों में करप्शन जैसे आरोप के कारण उनके नाम के साथ ‘मिस्टर टेन पर्सेंट’ का ठप्पा लग गया जिसने कई दशकों तक उनका पीछा किया। यह भी वह आरोप था जो कभी अदालत में साबित नहीं हुआ।
साल 1993 में हुए आम चुनाव में पीपुल्स पार्टी ने एक बार फिर कामयाबी हासिल की और बेनजीर भुट्टो दूसरी बार प्रधानमंत्री बनीं। लेकिन यह सरकार भी अपनी संवैधानिक अवधि पूरी न कर सकी और नवंबर 1996 में उन्हें हटा दिया गया।
बेनजीर के दूसरे कार्यकाल में आसिफ जरदारी पर राजनीतिक जोड़-तोड़ और भ्रष्टाचार जैसे आरोप लगाए गए। बेनजीर की दूसरी सरकार को हटाए जाने से पहले आसिफ जरदारी दुबई में थे और दुबई से पाकिस्तान वापसी पर अगले ही दिन उन्हें एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया।
सबसे लंबी क़ैद
दूसरी बार होने वाली उनकी गिरफ़्तारी लंबी थी। आसिफ़ जऱदारी की क़ैद के दौरान पाकिस्तान में दो सरकारें बदलीं। पहले नवाज़ शरीफ़ की सरकार आई और उसके बाद जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ का मार्शल लॉ आया। हालांकि उस समय के पीपुल्स पार्टी के नेतृत्व की राय थी कि सरकार बदलने से जरदारी की रिहाई हो पाएगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
आसिफ जरदारी पर भ्रष्टाचार, मनी लॉन्ड्रिंग और हत्या जैसे गंभीर आरोप लगे थे। उन पर बेनजीर भुट्टो के भाई मुर्तजा भुट्टो की हत्या का आरोप भी था लेकिन बाद में उन्हें इस आरोप से बरी कर दिया गया।
आसिफ जरदारी की सन 2004 में रिहाई उस वक़्त तक नहीं हुई जब तक जनरल परवेज मुशर्रफ ने एनआरओ (नेशनल रिकॉन्सिलिएशन ऑर्डिनेंस) जारी नहीं किया। एनआरओ के तहत उन पर दायर मुकदमे स्थगित हुए और बाद में उन मुक़दमों में अदालतों ने उन्हें बरी कर दिया।
लंबी क़ैद की वजह से वह पाकिस्तान में हाल में जेल में सबसे ज़्यादा वक़्त गुज़ारने वाले नेता बन गए। बाद में दिए गए अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने यह बात मानी कि उन्होंने जेल में बहुत कुछ सीखा है। उनकी अनुपस्थिति में बच्चों की परवरिश की पूरी जि़म्मेदारी बेनज़ीर भुट्टो ने निभाई।
कैद के दौरान ब्रितानी अखबार ‘गार्डियन’ को दिए गए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि वह अपने बच्चों को बड़े होते हुए देखने की ख़ुशी से महरूम हैं। उन्होंने कहा था कि वह बाग में चहलकदमी करने, अपने क्षेत्र नवाबशाह की धूल और गर्मी, अपने क़बीले के लोगों और अपने राजनीतिक साथियों से मुलाकातों और अपने दोस्तों के साथ गपशप करने और ठहाके लगाने और पोलो मैच में भाग लेने से वंचित हैं। रिहाई के बाद वह पहले दुबई और बाद में अमेरिका चले गए।
बेनजीर भुट्टो ने जब 18 अक्टूबर 2007 को स्व-निर्वासन खत्म करके पाकिस्तान वापस आने का फैसला किया तो आसिफ जरदारी अपने बच्चों के साथ दुबई में मौजूद रहे।
रावलपिंडी के लियाकत बाग में 27 दिसंबर 2007 को हुए एक आत्मघाती हमले में बेनज़ीर भुट्टो की मौत के बाद वह पाकिस्तान वापस आए। बेनज़ीर भुट्टो को दफनाए जाने के बाद जब गुस्साए लोगों की ओर से ‘न खपे पाकिस्तान’ (नहीं चाहिए पाकिस्तान) का नारा लगाया गया तो जरदारी ने अपनी पहली जनसभा में ‘पाकिस्तान खपे’ (पाकिस्तान चाहिए) का नारा दिया। यह नारा बाद में उनकी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और खुद आसिफ जरदारी की राजनीति का नारा बनकर सामने आया।
पीपुल्स पार्टी का नेतृत्व अपने पास रखने की बजाय उन्होंने इसे उस समय शिक्षा प्राप्त कर रहे अपने युवा बेटे बिलावल भुट्टो को सुपुर्द कर दिया। उन्होंने उनका नाम बिलावल जरदारी से बदलकर बिलावल भुट्टो जऱदारी के रूप में दुनिया के सामने पेश किया। यह एक बेहतर रणनीति साबित हुई। इस तरह उन्हें पार्टी में किसी विरोध का सामना नहीं करना पड़ा। असल में पार्टी जरदारी संभाल रहे थे लेकिन नेतृत्व बिलावल के पास था।
सन् 2008 के चुनाव में पीपुल्स पार्टी ने सफलता प्राप्त की और प्रधानमंत्री के लिए यूसुफ़ रज़ा गिलानी को उम्मीदवार बनाया गया। हालांकि इससे पहले आम राय यह थी कि यह पद सिंध से संबंध रखने वाले पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के सीनियर नेता मखदूम अमीन फ़हीम को मिलेगा। लेकिन यह पहली बार हुआ कि पीपुल्स पार्टी का प्रधानमंत्री सिंध से नहीं बल्कि पंजाब से बन रहा था।
पीपुल्स पार्टी की सरकार का शुरुआत में मुस्लिम लीग (नवाज) ने भी साथ दिया लेकिन यह गठबंधन देर तक नहीं चला। जनरल परवेज मुशर्रफ की ओर से अपदस्थ किए गए चीफ जस्टिस इफ्तिखार मोहम्मद चौधरी और दूसरे जजों की बहाली के मामले पर दोनों दलों में मतभेद सामने आए।
राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ पर महाभियोग लगाने के मामले पर भी दोनों की सहमति थी, लेकिन इसी दौरान जरदारी का यह बयान भी सामने आया कि अगर मुशर्रफ इस्तीफा दे दें तो उन्हें ‘सुरक्षित रास्ता’ दिया जा सकता है। इसके बाद मुशर्रफ ने इस्तीफा दे दिया और जरदारी राष्ट्रपति पद के लिए ख़ुद उम्मीदवार बन गए।
एमक्यूएम (मुत्तहिदा क़ौमी मूवमेंट), एएनपी (अवामी नेशनल पार्टी), जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम, आफ़ताब शेरपाओ और मुस्लिम लीग (क़ायद-ए-आज़म) के फ़ारवर्ड ब्लॉक ने जऱदारी को राष्ट्रपति पद के लिए समर्थन दिया। मुस्लिम लीग (नवाज़) और मुस्लिम लीग (क़ायद-ए-आज़म) ने अपना उम्मीदवार खड़ा किया लेकिन उनका उम्मीदवार हार गया।
कार्यकाल पूरा करने वाले पहले राष्ट्रपति
आसिफ जरदारी 2008 से 2013 तक पाकिस्तान के राष्ट्रपति रहे। वह पहले नागरिक राष्ट्रपति थे जिन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया। राष्ट्रपति के रूप में उनके उल्लेखनीय फैसलों में असेंबली को भंग करने का अधिकार संसद को वापस करना, 18वें संवैधानिक संशोधन के जरिए राज्यों की स्वायत्तता बहाल करना और फाटा (फेडरली एडमिनिस्टर्ड ट्राइबल एरियाज) के सुधार प्रमुख थे।
इसके अलावा उनके फैसलों में सूबा-ए-सरहद को खैबर पख़्तूनख़्वा नाम देना, गिलगित बल्तिस्तान को स्वायत्तता देना और बलूचिस्तान को अधिकार देने का पैकेज भी शामिल है।
इस्टैब्लिशमेंट से टकराव न लेने की नीति
जनरल परवेज मुशर्रफ के पाकिस्तान पर आठ साल के शासनकाल के बाद आसिफ जरदारी ने जब नागरिक राष्ट्रपति के तौर पर पद संभाला तो उन्होंने इस्टैब्लिशमेंट के साथ संबंध में संतुलन बनाने की कोशिश की।
विकीलीक्स में उजागर किए गए कूटनीतिक दस्तावेजों के अनुसार अमेरिकी राजदूत पीटरसन ने अपनी सरकार को लिखे एक पत्र में कहा कि अशफाक कयानी (पूर्व आर्मी चीफ़) यह इशारा कर चुके हैं कि वह जऱदारी को हटाना चाहते हैं। लेकिन उन्हीं दिनों आसिफ जरदारी का यह बयान भी सामने आया था कि वह ‘राष्ट्रपति भवन से एंबुलेंस में बाहर निकलेंगे।’
पाकिस्तानी फौजी इस्टैब्लिशमेंट से टकराने वाले नेताओं की आमतौर पर दोबारा सत्ता में वापसी कठिन हो जाती है, लेकिन आसिफ अली जरदारी दूसरी बार राष्ट्रपति बन रहे हैं तो यह सवाल पैदा हुआ कि परवेज मुशर्रफ और अशफाक परवेज कयानी समेत सेना प्रमुखों की नापसंदीदगी के बावजूद वह सत्ता में कैसे आ जाते हैं?
विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार सोहैल वड़ैच कहते हैं, ‘जब से पीपुल्स पार्टी का नेतृत्व जऱदारी के पास आया है, उन्होंने कोशिश की है कि पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की सेना विरोधी राजनीति की छवि को बदला जाए। यही वजह है कि उन्होंने आज तक कोई आंदोलन नहीं चलाया और अगर इस्टैब्लिशमेंट से कोई शिकायत हुई भी तो उसको तुरंत दूर कर लिया।’
‘जब वह राष्ट्रपति भवन में थे तो मेमो गेट स्कैंडल आया। एक बार उनका जनरल राहिल शरीफ़ के साथ विवाद भी हुआ लेकिन उन्होंने इसको हल कर लिया था। वह ख़ुद और अपनी पार्टी को दोनों विवादों से बाहर निकलने में कामयाब हुए। उनके नेतृत्व में अब शायद यही रणनीति है कि अब हमें न जेल जाना है और न कोड़े खाने हैं। शायद यही सोच है कि जब मुश्किल वक़्त आता भी है तो वह उससे निपट कर आगे बढ़ जाते हैं।’
शहीद जुल्फिकार अली भुट्टो इंस्टीट्यूट आफ साइंस ऐंड टेक्नोलॉजी के प्रोफ़ेसर डॉक्टर रियाज शेख कहते हैं कि आसिफ जरदारी में राजनीतिक तौर पर लचक ज़्यादा है जो उनके प्रतिद्वंद्वी नेताओं नवाज शरीफ और इमरान खान में कम नजर आती है।
डॉक्टर रियाज़ के अनुसार आसिफ़ जऱदारी के पहले राष्ट्रपति काल में चार-पांच मौक़े ऐसे आए जब पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी का इस्टैब्लिशमेंट के साथ टकराव हो सकता था लेकिन उन्होंने कामयाबी के साथ इससे बचकर इस्टैब्लिशमेंट की बात भी मानी और मामले को सुलझा लिया।
डॉक्टर रियाज़ के अनुसार पहला मामला मुंबई हमलों का था। ‘आसिफ जरदारी जैसे ही सत्ता में आए तो उस समय मुंबई हमले हो चुके थे और आसिफ जरदारी को इस मामले की गंभीरता का शायद बहुत अंदाज़ा नहीं था। उन्होंने अपने तौर पर यह कह दिया कि भारत आरोप लगा रहा है तो ‘हमारा डीजी, आईएसआई भारत चला जाए और बातचीत करके समस्या को हल करे क्योंकि हमारे हाथ साफ हैं।’ सेना ने उनके बयान पर आपत्ति की तो उन्होंने एक और बयान में कह दिया कि डीजी, आईएसआई नहीं जाएगा।
‘उन्होंने इस बात को प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाया और इस्टैब्लिशमेंट की बात मान ली। इसकी तुलना में अगर इमरान खान का विश्लेषण किया जाए तो जनरल फैज हमीद के मामले में उन्होंने अहम् दिखाया जिससे एक नया विवाद खड़ा हो गया। इसी तरह नवाज शरीफ का जहांगीर करामात के साथ उस समय टकराव हुआ जब उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा काउंसिल बनाने की बात की थी और नवाज शरीफ नहीं माने थे। इसके अलावा करगिल के मामले पर उनका मुशर्रफ के साथ विवाद हुआ। लेकिन आसिफ जरदारी ने इसके उलट किसी समय भी टकराव की नीति नहीं अपनाई।’
डॉक्टर रियाज़ शेख़ एक और घटना के बारे में बताते हैं जो आसिफ़ जऱदारी के राष्ट्रपति काल के दौरान घटी। उनके अनुसार कैबिनेट ने फ़ैसला लिया था कि इंटेलिजेंस ब्यूरो और आईएसआई केंद्रीय गृह मंत्रालय के मातहत रहेंगे। इसका नोटिफिक़ेशन भी जारी हो गया मगर इस फैसले पर इस्टैब्लिशमेंट की तीखी प्रतिक्रिया सामने आई और सरकार को नोटिफिक़ेशन वापस लेना पड़ा।
डॉक्टर रियाज़ के अनुसार इसी तरह अमेरिकी नागरिक रेमंड डेविस की गिरफ़्तारी का मामला हो या एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन की मौत की कहानी, जऱदारी ने वही स्टैंड लिया जो इस्टैब्लिशमेंट का था। ‘यह लचक ही है जिसकी वजह से वह सुरक्षित रहे हैं।’
‘लम्स’ (लाहौर यूनिवर्सिटी ऑफ़ मैनेजमेंट साइंसेज़) के प्रोफेसर और ‘पॉलिटिकल कनफ़्िलक्ट ऑफ़ पाकिस्तान’ नाम की किताब के लेखक मोहम्मद वसीम कहते हैं कि आसिफ जरदारी इस्टैब्लिशमेंट के लिए कभी ख़तरा नहीं रहे।
प्रोफेसर वसीम के अनुसार ज़ुल्फिक़़ार अली भुट्टो और बेनज़ीर भुट्टो के उलट आसिफ़ अली जऱदारी कभी करिश्माई व्यक्तित्व के मालिक नहीं रहे, वह सीधे कभी जनता में नहीं गए और न ही जनता को कभी इस्टैब्लिशमेंट के खिलाफ किया।
आसिफ जरदारी ने दूसरी बार राष्ट्रपति पद क्यों संभाला
आसिफ अली जरदारी ने 2008 में राष्ट्रपति चुनाव मुस्लिम लीग (नवाज़) के उम्मीदवार के खिलाफ लड़ा लेकिन इस बार वह पीपुल्स पार्टी और मुस्लिम लीग (नवाज़) के साझा उम्मीदवार थे। बिलावल भुट्टो ने कुछ दिन पहले कहा था कि हालांकि पीपुल्स पार्टी केंद्र सरकार का हिस्सा नहीं बनेगी लेकिन उनकी इच्छा है कि उनके पिता देश के राष्ट्रपति बनें।
तो सवाल यह है कि आखिर आसिफ अली जऱदारी ने राष्ट्रपति पद का ही चुनाव क्यों किया?
डॉक्टर रियाज शेख कहते हैं कि राष्ट्रपति को संवैधानिक तौर पर छूट मिली होती है। पाकिस्तान के संविधान और कानून के अनुसार जब तक राष्ट्रपति अपने पद पर होते हैं उनके खि़लाफ़ कोई कार्रवाई नहीं हो सकती और न ही कोई मुक़दमा दायर हो सकता है।
‘पाकिस्तान एक संसदीय प्रणाली है जिसमें असल अधिकार प्रधानमंत्री के पास होता है। तो आसिफ़ जऱदारी यह जताएंगे कि जो काम हो रहा है वह तो मुस्लिम लीग की सरकार और उसका प्रधानमंत्री कर रहा है। और 18वें संवैधानिक संशोधन के बाद तो राष्ट्रपति के अधिकार कुछ ख़ास हैं ही नहीं। इसलिए सरकारी फ़ैसलों का दोष पीपुल्स पार्टी को नहीं दिया जा सकता।’
डॉक्टर रियाज़ शेख़ की राय में दूसरी बात यह होगी कि जब मुस्लिम लीग (नवाज़) की सरकार निजीकरण और दूसरे इसी तरह के कड़े फैसले लेगी तो हर क़ानून को राष्ट्रपति के पास से गुजऱना होगा। वह सरकार के प्रस्ताव को वापस भेज सकते हैं या उसका विरोध कर सकते हैं, मगर इसके बावजूद कुछ समय के बाद संसद से पास होने वाले बिल स्वत: क़ानून बन जाएंगे। दूसरी ओर संभावित तौर पर राष्ट्रपति को लोकप्रियता मिलेगी कि उन्होंने ‘जन विरोधी’ बिल पर हस्ताक्षर नहीं किए और ‘जनता के एजेंडे’ पर बात की।
‘इस स्थिति में बदनामी मुस्लिम लीग (नवाज़) की सरकार की होगी जबकि राष्ट्रपति अपना काम करके जनता की सहानुभूति भी लेंगे और राष्ट्रपति का काम भी चलता रहेगा।’
लेकिन प्रोफ़ेसर मोहम्मद वसीम आसिफ जरदारी की ओर से राष्ट्रपति पद संभालने के फैसले को ‘कमजोर फैसला’ बताते हैं।
उनकी राय है कि पीपुल्स पार्टी की यह सोच है कि यह सरकार अधिक दिन तक नहीं चलेगी क्योंकि सरकार को बहुत से आर्थिक और सुरक्षा के गंभीर मामलों का सामना करना होगा, इसलिए इस समय कोई बड़ी जिम्मेदारी न ली जाए।
‘अगर पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी सरकार का हिस्सा बनती है तो जि़म्मेदारी लेनी पड़ेगी इसलिए केवल संवैधानिक पद लिए जाएं, जिसका मतलब गवर्नर और राष्ट्रपति के पद हैं जो पांच साल तक चल सकते हैं।’
आसिफ जरदारी के लिए चुनौती क्या होगी?
डॉक्टर रियाज शेख का कहना है कि आसिफ़ जऱदारी जिस राजनीतिक माहौल में राष्ट्रपति भवन में बैठेंगे उसमें उन्हें संतुलन के साथ चलना होगा।
‘एक ओर ख़ैबर पख़्तूनख़्वा में इमरान ख़ान की सरकार होगी, कई ऐसी बातें हैं जिसमें वह केंद्र सरकार से संपर्क करेंगे और जब जवाब नहीं मिलेगा तो वह फिर राष्ट्रपति से संपर्क कर सकते हैं। इसके अलावा पंजाब सरकार को भी बैलेंस करके चलना पड़ेगा।’
विश्लेषक सोहैल वड़ैच कहते हैं, ‘राष्ट्रपति का पद संवैधानिक पद है, इसे प्रशासनिक फैसले तो नहीं करने होते। वह सरकार और प्रशासन के बीच एक पुल हैं और राज्यों के बीच भी। वह संघीय शासन के प्रतीक हैं। ऐसे में उनके लिए कोई विशेष चुनौती नहीं होगी। इसलिए उन्हें चाहिए कि सरकार को चलने दें। राज्यों के साथ सामंजस्य बनाए रखने की कोशिश करें और फैसले लेने में सकारात्मक रवैया अपनाएं।’
सोहैल वड़ैच के अनुसार मुस्लिम लीग (नवाज) को विश्वास है कि वह रुकावट नहीं बनेंगे। ‘इसीलिए ख़ुशी-ख़ुशी राष्ट्रपति पद पर सहमति जता दी। अगर उन्हें शक होता कि कोई मुश्किल पैदा करेंगे तो यह मामला इतनी आसानी से तय नहीं हो पता।’
प्रो. मोहम्मद वसीम कहते हैं कि नवाज लीग में शहबाज शरीफ की राजनीतिक शैली आसिफ जरदारी की राजनीतिक शैली से मेल खाती है यानी समझौते की राजनीति। ‘दोनों इस्टैब्लिशमेंट के साथ मामला निभाने में माहिर हैं। इसलिए इस बार शायद तकरार जल्दी न हो।’ (bbc.com/hindi)
डॉ. आर.के. पालीवाल
हमारे संविधान निर्माताओं ने जब आजाद देश के लिए नया संविधान गढ़ा था तब उन्होंने सपनों में भी यह कल्पना नहीं की होगी कि सेवा के लिए राजनीति में आने वाले नेता आज़ादी के कुछ साल बाद मेवा के लिए राजनीति में आने लगेंगे और राजनीति अपराधी तत्वों के लिए सबसे सुरक्षित पनाहगाह बन जाएगी। संविधान निर्माताओं ने संसद और विधानसभाओं को लोकतंत्र के सबसे पवित्र सेवास्थल मानते हुए ही यह प्रावधान किए होंगे कि सासंद और विधायक जब इन पूजा स्थलों में प्रादेशिक और राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर चर्चा करेंगे तो संसद और विधानसभाओं के अंदर होने वाली अप्रिय गतिविधियों को भी अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जाएगा। इसी का फायदा उठाकर अपराधी प्रवृत्ति के सासंद और विधायक संसद और विधानसभाओं में गाली गलौज, एक दूसरे पर अनर्गल आरोप और मारपीट तक कर लेने के बावजूद सजा पाने से बच जाते हैं।
1998 में सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय बैंच ने तीन दो के बहुमत से यह फैसला दिया था कि घूस लेकर संसद में सरकार के पक्ष मे वोट देना भी सांसदों के विशेष अधिकार में आता है इसलिए उन्हें सजा नहीं दी जा सकती। यह फैसला तर्क संगत नहीं लगता था।अब सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली सात सदस्यीय बैंच ने सर्वसम्मति से इस फैसले को पलट दिया है। यह अजीब सा लगता है कि नरसिंह राव और लालकृष्ण आडवानी को इस वर्ष भारत रत्न से नवाजा गया है। विगत में इन दोनों की भूमिका अपराधी सांसदों को बचाने की रही है। नरसिंह राव तो सांसदों की खरीद फरोख्त के सबसे बड़े लाभार्थी थे। लाल कृष्ण आडवाणी उन सांसदों के निष्कासन को बडी सजा बता रहे थे जिन्हें पैसा लेकर संसद में प्रश्न पूछने पर निष्कासित किया गया था। वे ऐसे सांसदों के पक्ष मे सदन से वाक आउट कर रहे थे जब कोबरा के स्टिंग ऑपरेशन में कई दलों के सासंद फंसे थे। हाल ही में तृणमूल कांग्रेस की महुआ मोइत्रा पर इसी तरह के आरोप लगे हैं। सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय उनके लिए भी मुसीबत का पहाड़ साबित हो सकता है। हालांकि उनके मामले में तकनीकी कारण से यह राहत मिल सकती है कि उनकी घटना इस फैसले से आने के पहले की है।
सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में कुछ महत्त्वपूर्ण टिप्पणियां भी की हैं जिनसे निष्कर्ष निकलता है कि जन प्रतिनिधियों को अपने संविधानिक दायित्वों के निर्वहन के दौरान किए गए किसी भी तरह के भ्रष्ट आचरण को संसदीय संरक्षण की आड़ में माफ नहीं किया जा सकता। उम्मीद की जानी चाहिए कि अब घूस लेकर संसद और विधानसभाओं में प्रश्न पूछने, मोटी रकम लेकर दल बदल कर चुनी हुई सरकार गिराने या अल्पमत की सरकार बनवाने वाले भ्रष्ट जन प्रतिनिधि ऐसा करके बच नहीं पाएंगे और संबंधित राजनीतिक दल ऐसे नेताओं के खिलाफ कड़ी कार्यवाही कर सकेंगे।
यह बात भी गौरतलब है कि दो दशक पहले जब सर्वोच्च न्यायालय ने सांसदों और विधायकों के पक्ष मे निर्णय दिया था तब पांच सदस्यीय पीठ में दो न्यायधीश उस निर्णय के पक्ष मे नहीं थे। नए फैसले में सात न्यायाधीशों ने सर्व सम्मति से भ्रष्ट जन प्रतिनिधियों के खिलाफ फैसला दिया है। इसका एक बड़ा कारण यह भी लगता है कि विगत कुछ वर्षों में सरकारों को बनाने और गिराने की उठापटक के कई मामले अखबारों की सुर्खियां बने हैं और याचिकाओं के रुप में विभिन्न उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के सामने भी आए हैं जिससे न्यायपालिका को भी यह अहसास हुआ कि जन प्रतिनिधियों में बढ़ता भ्रष्ट आचरण लोकतंत्र को खोखला कर रहा है।
सिद्धार्थ ताबिश
अगर आप चालीस या पैंतालीस के हो चुके हैं तो जान लीजिये कि अब ये समय आपके लिए नयी यात्रा शुरू करने वाला है। पुरानी सारी यात्राएं, सारे पुराने ढर्रे, पुराने रीति रिवाज और पुराने सब कुछ सीखे हुवे को पीछे छोडक़र आपको बिल्कुल नए तरीके से अब आगे बढऩा है.. वो आपको इसलिए करना है ताकि मरते समय आप वो हो सकें जिसके लिए आप यहाँ जीने आये हैं। यानि ‘स्वयं’ हो सकें।
उसके लिए सबसे पहला काम ये करना है कि अगर आप बड़े हैं तो आपको लोगों यानि इंसानों को ‘कण्ट्रोल’ यानि ‘नियंत्रित’ करना बंद करना होगा.. पूरी तरह से.. वो चाहे आपका बेटा हो, पत्नी हो, भाई हो या बहन हो, आपको हर किसी पर से अपना ‘नियंत्रण’ हटाना होगा। इसे धीरे धीरे शुरू करना होगा। ये स्वीकार करना होगा कि कोई कुछ भी कर रहा है उस से आप ‘प्रभावित’ नहीं होंगे.. किसी अन्य द्वारा किया गया कोई भी कार्य जो उसने अपने लिए किया है वो आपको ‘प्रभावित’ नहीं करेगा। उदाहरण के लिए आपका बेटा स्कूल में फेल हो गया तो वो आपको प्रभावित नहीं करेगा, दुखी नहीं करेगा, और आपको पागल नहीं बनाएगा। और आपको उसके लिए अपना जी जान अब नहीं लगाना है। आप सिर्फ लोगों को रास्ता दिखा देंगे, उनको समझा देंगे और अगर वो मार्गदर्शन मांगते हैं तो उन्हें देंगे। वरना नहीं.. बिना मांगे किसी को कोई मार्गदर्शन आपको नहीं देना है, चाहे वो आपका अपना बेटा ही क्यूँ न हो.. आपको लगता है कि आप ये सब कुछ नहीं संभालेंगे तो बर्बाद हो जाएगा। नहीं.. ऐसा कहीं नहीं होता है.. इस मानसिकता से बाहर आ जाइए। अपना नियंत्रण पूरी तरह से खोना शुरू कर दीजिये
बड़ी उम्र के लोगों की सबसे बड़ी समस्या यही होती है.. वो अपने हिसाब से अपना घर, खानपान, रहन सहन, पढ़ाई-लिखाई, सब का जीना और मरना नियंत्रित करने में लगे रहते हैं। भारत में हर घर में आपको यही हाल मिलता है.. और ये नियंत्रित करने वाले व्यस्क और बूढ़े कभी ये समझ ही नहीं पाते हैं कि जिन्हें वो नियंत्रित करने में फंसे हैं, वो दरअसल भीतर से उनके मरने का इंतजार कर रहे हैं। जैसे ही वो मरेंगे, पूरा घर अपने हिसाब से जीना शुरू कर देगा।
आप लोगों को अपने हिसाब से जीने ही नहीं दे रहे हो और आप अपने ‘नियंत्रण के पागलपन’ को अपना धर्म, संस्कृति, परंपरा और जाने क्या क्या बोलकर जस्टिफाई किया करते हो।
जिस दिन आपने लोगों पर नियंत्रण छोड़ दिया। आप आजाद हो जाते हैं और आप जैसे ही दूसरों को आजाद करते हैं, आप अपने आप ही आजाद हो जाते हैं जो ये कहता है कि उसे जीने की आजादी नहीं मिल रही है वो दरअसल दूसरों को नियंत्रित करने में फंसा रहता है। इसलिए अपनी आजादी चाहते हो और स्वयं का साक्षात्कार करना चाहते हो तो नियंत्रण करना छोड़ो.. लोगों से दूरी बनाकर उन्हें ऐसे देखना शुरू करो जैसे तुम मर चुके हो.. और ये जो भी कर रहे हैं सब तुम्हारे मरने के बाद कर रहे हैं। उन्हें जीने दो अपने हिसाब से.. फिर वो भी तुम्हें जीने देंगे तुम्हारे हिसाब से।
दयानिधि
दुनिया भर के कई हिस्सों में जारी अल नीनो की घटना के कारण जून 2024 तक सतही हवा का तापमान रिकॉर्ड पर पहुंचने की आशंका जताई गई है। अध्ययन के मॉडलिंग से पता चलता है कि मध्यम या शक्तिशाली अल नीनो के कारण समान अवधि के दौरान वैश्विक औसत सतही तापमान के चरम को छूने के 90 फीसदी आसार हैं।
यहां बताते चलें कि दुनिया भर के कई हिस्सों, जिनमें बंगाल की खाड़ी, फिलीपींस और कैरेबियन सागर में अल नीनो की घटना जारी है।
अध्ययन में कहा गया है कि अल नीनो-दक्षिणी दोलन, जो उष्णकटिबंधीय प्रशांत क्षेत्र में केंद्रित है, दुनिया भर में जलवायु में बदलाव का एक प्रमुख कारण है। इसका गर्म चरण, अल नीनो और ठंडा चरण, ला नीना, दोनों मौसम में बदलाव करने के लिए जाने जाते हैं। अल नीनो के दौरान पश्चिमी प्रशांत महासागर से वायुमंडल में जारी गर्मी के कारण वार्षिक वैश्विक औसत सतही तापमान (जीएमएसटी) में तेजी से वृद्धि होती है।
वार्षिक वैश्विक औसत सतही तापमान (जीएमएसटी) में मामूली वृद्धि क्षेत्रीय आधार पर अत्यधिक तापमान की घटनाओं के दौरान सतह के हवा के तापमान में भारी वृद्धि से जुड़ी हुई है। यह अध्ययन साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित हुआ है।
अध्ययन के मुताबिक, अध्ययनकर्ता कांगवेन झू और उनके सहयोगियों ने जुलाई 2023 से जून 2024 के बीच 1951 से 1980 के औसत सतही हवा के तापमान में क्षेत्रीय भिन्नता पर 2023-24 में अल नीनो के प्रभावों का मॉडल तैयार किया। उन्होंने इस अवधि का उपयोग यह सुनिश्चित करने के लिए किया कि अल नीनो की चरम पर होने का समय यानी नवंबर और जनवरी के बीच की घटना को हमेशा शामिल किया।
अध्ययनकर्ताओं ने पाया कि मध्यम अल नीनो परिदृश्य के तहत, बंगाल की खाड़ी और फिलीपींस में इस अवधि के दौरान रिकॉर्ड-तोड़ औसत सतही हवा के तापमान होने का पूर्वानुमान लगाया गया।
एक शक्तिशाली अल नीनो के तहत, कैरेबियन सागर, दक्षिण चीन सागर और अमेजन और अलास्का के क्षेत्रों में भी औसत सतही हवा के तापमान के रिकॉर्ड-तोड़ होने का पूर्वानुमान लगाया गया था।
अध्ययनकर्ताओं ने इसी अवधि में वार्षिक वैश्विक औसत सतही तापमान (जीएमएसटी) पर अल नीनो के प्रभावों का भी मॉडल तैयार किया और पाया कि मध्यम या शक्तिशाली अल नीनो के तहत, 90 फीसदी तक के आसार थे कि जीएमएसटी ऐतिहासिक रिकॉर्ड तोड़ देगा।
मध्यम परिदृश्य में, अध्ययनकर्ताओं ने अनुमान लगाया कि 2023-24 जीएमएसटी 1951-1980 के बेंचमार्क औसत से 1.03-1.10 डिग्री सेल्सियस ऊपर है, जबकि मजबूत परिदृश्य के तहत, उन्होंने अनुमान लगाया कि जीएमएसटी उस औसत से 1.06-1.20 डिग्री सेल्सियस ऊपर है।
अध्ययनकर्ताओं ने चेतावनी देते हुए कहा है कि रिकॉर्ड तोडऩे वाला औसत तापमान हो सकता है अतिरिक्त गर्मी के परिणामों से निपटने के लिए उन इलाकों की मौजूदा क्षमता को चुनौती देगा।
उन्होंने इस बात पर भी गौर किया कि सतही हवा का तापमान बहुत अधिक होने से चरम मौसम की घटनाओं में भारी वृद्धि होने की आशंका है। इन घटनाओं में जंगल की आग, उष्णकटिबंधीय चक्रवात और लू या हीटवेव की घटनाएं शामिल हैं। ये घटनाएं समुद्री और तटीय क्षेत्रों में जहां समुद्र में बढ़ती गर्मी के कारण यह जलवायु परिस्थितियों को जन्म दता है और इस तरह यह लंबे समय तक बना रह सकता है।
(डाऊन टू अर्थ)
भारत ने चार यूरोपीय देशों के साथ एक मुक्त व्यापार समझौता किया है। कहा जा रहा है कि इस समझौते से अगले 15 सालों में 10 लाख नौकरियां पैदा होंगी।
देश के वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने समझौते के बारे में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर बताया कि भारत में ये चार यूरोपीय देश 100 अरब डॉलर का निवेश करेंगे।
इन यूरोपीय देशों में स्विट्जऱलैंड, नॉर्वे, आइसलैंड और लिनसेस्टाइन शामिल हैं। ये चारों ही देश यूरोपीय संघ का हिस्सा नहीं है।
इस ट्रेड समझौते लिए साल 2008 में बातचीत शुरू की गई थी और फिर नवंबर 2018 में ये बातचीत रुक गई थी। इसके बाद अक्टूबर 2016 में फिर इस पर चर्चा शुरू हुई।
समझौते पर फाइनल मुहर लगने से पहले कुल 21 दौर की बातचीत हुई। अब इस समझौते पर हस्ताक्षर हो चुका है।
ये समझौता एफ़टीए (फ्री टेड असोसिएशन) के लिहाज से एक बड़ा समझौता है क्योंकि इसमें निवेश को अनिवार्य किया गया है।
इस समझौते के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बयान जारी कर कहा कि इस ऐतिहासिक समझौते से देश के युवाओं के लिए नौकरियां पैदा होंगी।
समझौते पर नॉर्वे के व्यापार मंत्री जेन क्रिस्टियन वस्त्रे ने कहा, ‘भारत और नॉर्वे के संबंध अब तक के सबसे अच्छे दौर में हैं।’
इस सौदे से जहाँ भारत को बड़ा निवेश मिलेगा वहीं बदले में यूरोपीय देशों के प्रॉसेस्ड फूड, ब्रेवरेज और इलेक्ट्रॉनिक मशीनरी को दुनिया की सबसे तेज़ गति से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में से एक भारत के 140 करोड़ लोगों के बाज़ार तक आसान पहुँच मिलेगी।
ऐतिहासिक समझौते
पीयूष गोयल ने इस समझौते पर कहा कि इससे फार्मा, मेडिकल उपकरण, फूड, रिसर्च एंड डिवेलपमेंट जैसे बिजनेस को बड़ा फ़ायदा होगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने बयान में इस समझौते को भारत और ईएफ़टीए देशों के बीच द्विपक्षीय रिश्तों के लिहाज से एक ऐतिहासिक पल बताया है।
उन्होंने अपने बयान में कहा, ‘10 मार्च 2024 भारत और ईएफटीए देशों के बीच रिश्ते का एक ऐतिहासिक क्षण है।’
‘कई पहलुओं में संरचनात्मक विविधताओं के बावजूद, हमारी अर्थव्यवस्थाओं में समनताएं हैं, जो सभी देशों के लिए फायदेमंद स्थिति पैदा करेंगी।’
पीएम मोदी वे कहा, ‘चारों देश अलग-अलग मामलों में वैश्विक लीडर है। वित्तीय सेवा, बैंकिंग, ट्रांसपोर्ट, लॉजिस्टिक, फार्मा, मशीनरी सहित अलग-अलग क्षेत्रों में इन देशों के अग्रणी होने से हमारे लिए सहयोग के नए दरवाजे खुलेंगे।’
नॉर्वे के व्यापार मंत्री जेन क्रिस्टियन वस्त्रे ने प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान कहा, ‘आज का दिन ऐतिहासिक है’- ये बात उन्होंने हिंदी में कही।
वस्त्रे ने कहा, ‘ये वास्तव में इतिहास की किताबों में दर्ज होने वाला दिन है। ये टिकाऊ व्यापार करने का नया तरीक़ा है। निवेश बढ़ाना और नौकरियों का सृजन करना हमारी प्रतिबद्धता है ताकि हम इस समझौते के तय उद्देश्यों को हासिल कर सकें।’
भारत को क्या फ़ायदा होगा
जिन चार देशों के साथा समझौते हुए हैं, उसमें से स्विट्जरलैंड भारत का सबसे बड़ा कारोबारी साझेदार है।
साल 2022-23 में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार 17.14 अरब डॉलर का रहा जबकि इन चारों देशों के साथ मिला कर व्यापार 18.66 अरब डॉलर का था।
स्विस सरकार ने समझौते को ‘मील का पत्थर’ कहा है।
इस समझौते के बाद भारत कुछ समय के लिए उच्च गुणवत्ता वाले स्विस उत्पादों जैसे स्विस घड़ी, चॉकलेट, बिस्कुट जैसी चीजों पर कस्टम ड्यूटी हटा देगा।
डील के अनुसार, भारत सोने को छोडक़र, स्विट्जरलैंड से लगभग 95त्न औद्योगिक आयात पर कस्टम ड्यूटी तुरंत या समय के साथ हटा देगा।
इससे सीफूड जैसे टूना, सॉलमन, कॉफ़ी, तरह-तरह के तेल, कई तरह की मिठाइयां और प्रोसेस्ड फूड की कीमत भारत में कम होगी।
इसके अलावा स्मार्टफोन, साइकिल के सामान, मेडिकल के उपकरण, डाई, कपड़ा, स्टील के सामान और मशीनरी भी सस्ते होंगे।
ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव के प्रमुख अजय श्रीवास्तव ने समाचार एजेंसी पीटीआई से कहा, ‘भारत में स्विट्जरलैंड के सामानों की क़ीमत सस्ती होने वाली है क्योंकि इन पर लगने वाले टैरिफ हटा दिए जाएंगे। वाइन जो पाँच डॉलर से 15 डॉलर के बीच की कीमत की हैं, इन पर लगभग 150 फीसदी से घटा कर ड्यूटी 100 फीसदी कर दी जाएगी।’
श्रीवास्तव के अनुसार, आने वाले सालों में में कट-पॉलिस डायमंड पर पाँच फीसदी की ड्यूटी घटा कर 2.5 फीसदी कर दी जाएगी।
निवेश और नौकरियों को लेकर कितनी प्रतिबद्धता
इस समझौते को ऐतिहासिक इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि आने वाले 15 सालों में ये चार देश 100 अरब डॉलर का निवेश भारत में करेंगे और 10 लाख नौकरियां पैदा की जाएंगी। इन देशों ने इसे लेकर प्रतिबद्धता जतायी है।
द हिंदू को दिए गए एक इंटरव्यू में स्विट्जऱलैंड की आर्थिक मामलों की मंत्री हेलेन बडलिगर अर्टिडा ने बताया है, ‘मैं आपको बता सकती हूं कि स्विट्जरलैंड की कंपनियों और जिन अन्य कंपनियों से हमने बात की है, उनकी भारत में व्यापक रुचि है।’
‘हम एक अनुमान के ज़रिए 100 अरब डॉलर के आँकड़े पर पहुंचे हैं। इसके लिए हमने 2022 में एफडीआई का आँकड़ा देखा है, जो 10.7 अरब अमेरिकी डॉलर है और भारत के जीडीपी अनुमान और यहाँ का बड़ा बाज़ार हमारे इस निवेश की राशि पर पहुँचने का आधार है।’
‘ईएफटीए ब्लॉक हमारे यूरोपीय पड़ोसी (ईयू) से पहले ही इस सौदे पर मुहर लगाने में कामयाब रहा, जिससे भारत में बाकियों की रुचि और बढ़ गई है। लेकिन मैं बहुत स्पष्ट तौर पर ये बताना चाहती हूँ कि यह निवेश स्विस सरकार नहीं है करेगी बल्कि प्राइवेट कंपनियां करेंगी।’
‘अगर हम किन्हीं कारणों से 100 अरब डॉलर के निवेश नहीं कर सके तो हम वापस चले जाएंगे।’
समझौते पर स्विट्जरलैंड के अर्थव्यवस्था मंत्री गाइ पार्मेलिन ने कहा, भारत ‘व्यापार और निवेश के लिए अपार अवसर’ देने वाला देश है। इस सौदे से भारत की तकनीक तक पहुँच होगी।
इस समझौते से फार्मा और मेडिकल डिवाइस के क्षेत्र में भी फायदा होगा। भारतीय निर्यातकों को इन देशों के बाजार में भी अच्छी पहुँच मिलेगी।
इस समझौते में कुल 14 चैप्टर हैं, जिसमें सरकारी खरीद, निवेश प्रोत्साहन और सहयोग, व्यापार में छूट, इंटलेक्चुअल प्रॉपर्टी की सुरक्षा शामिल हैं।
इस समझौते के प्रभावी होने के दो साल बाद इसकी समीक्षा का प्रावधान है। पहली समीक्षा के बाद, दोनों पक्ष, ईएफटीए और भारत इस सौदे की हर दो साल में समीक्षा करेंगे।
ये समझौता प्रभावी कब से होगा?
इस सवाल के जवाब में अर्टिडा ने द हिंदू को बताया, ‘हर देश का अलग-अलग समय है। स्विट्जरलैंड में हम ऑटम सेशन में संसद पेश करेंगे।उम्मीद है कि इस साल के अंत तक इसे लागू किया जा सकेगा। मुझे लगता है कि बाकी के ईएफटीए देश भी तब तक अपनी प्रक्रियाएं पूरी कर लेंगे।’ (bbc.com/hindi)
इस साल यूरोप में एक बड़ा बदलाव हो रहा है, यह बदलाव दिखाई दे रहा है यूरोपीय देशों में शिशुओं की संख्या में। पिछले साल फ्रांस में छह लाख 78 हजार बच्चों का जन्म हुआ। दूसरे महायुद्ध के बाद से पहली बार देश में एक साल में इतने कम बच्चे पैदा हुए हैं।
देश में घटती जन्म दर की समस्या केवल फ्ऱांस में ही नहीं बल्कि इटली, स्पेन और पुर्तगाल में भी है, जहां दशकों से जन्म दर घटती जा रही है।
यूरोप के कई अन्य देशों में भी जन्म दर में रिकॉर्ड गिरावट आ रही है। वहां कि सरकारों को चिंता है कि अगर इस समस्या का हल नहीं निकाला गया तो भविष्य में अर्थव्यवस्था को पटरी पर रखना मुश्किल हो जाएगा।
कई यूरोपीय देशों की आबादी बूढ़ी हो रही है। इस समस्या को सुलझाने के लिए यूरोपीय सरकारों ने आबादी बढ़ाने के लिए अरबों यूरो का निवेश भी किया है लेकिन अभी तक उसका कोई फल नजर नहीं आ रहा क्योंकि स्थिति में कोई खास फर्क नहीं आया है।
इस सप्ताह हम दुनिया जहान में यही जानने की कोशिश करेंगे कि क्या यूरोप अपनी गिरती प्रजनन दर को दोबारा बढ़ा सकता है?
प्रेगनेंसी पॉज
फिनलैंड की पॉप्यूलेशन रिसर्च इंस्टिट्यूट की शोध निदेशक एना रोथकेर बताती हैं कि सदी की शुरुआत में फिनलैंड की प्रजनन दर ऊंची थी और बढ़ रही थी।
लेकिन आगे बढऩे से पहले कुछ परिभाषाओं को समझना ज़रूरी है। प्रजनन दर का मतलब है- सैद्धांतिक रूप से प्रति महिला औसत शिशु जन्म दर, बशर्ते कि वह उस समय तक जीवित रहे जब तक वह गर्भधारण कर सकती है। यूरोपीय संघ की औसत प्रजनन दर 1.53 है।
एना रोथकेर कहती हैं, ‘2011 में फिऩलैंड में प्रजनन दर 1.9 थी जो फिऩलैंड के हिसाब से काफी अच्छी दर थी लेकिन 2023 में वो घट कर 1.3 से भी कम हो गई है। यानि प्रजनन दर में 32 फीसद की गिरावट आयी है।’
जन्म दर का अर्थ है प्रति एक हज़ार लोगों के हिसाब से औसतन कितने बच्चे जन्म लेते हैं। तो जन्म दर में भी भारी गिरावट देखी गई। एना रोथकेर कहती हैं कि 2010 के बाद से फिनलैंड, नॉर्वे, आइसलैंड और डेनमार्क जैसे दूसरे नॉर्डिक देशों में जन्म दर में गिरावट आना शुरू हो गया था। वह कहती हैं हालांकि यहां शिशु और माताओं के स्वास्थ्य की बेहतरीन सुविधाएं हैं और अच्छी परिवार कल्याण योजनाएं हैं जो कि नॉर्डिक देशों की विशेषता है, मगर उसके बावजूद प्रजनन दर गिर रही है। ऐसे में इसके क्या कारण हो सकते हैं?
एना रोथकेर ने कहा, ‘बेरोजग़ारी और साथी ढूंढने में दिक्कत का भी गर्भधारण पर प्रभाव पड़ता है। इसके अलावा समाज और संस्कृति में आ रहे परिवर्तन का भी इस पर असर पड़ रहा है।’
एना रोथकेर के अनुसार फिनलैंड में सरकारी संस्थाओं द्वारा किए गए सर्वेक्षणों में पाया गया कि सर्वेक्षणों में भाग लेने वालों में पंद्रह फीसद लोग बच्चे पैदा करना नहीं चाहते क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे उनके रहन-सहन में बड़ा बदलाव आएगा। इस शोध के दौरान लोगों की माता-पिता बनने से जुड़ी कई धारणाएं भी सामने आईं जिनमें कुछ सकारात्मक थीं और कुछ नकारात्मक।
एना रोथकेर कहती हैं, ‘जो लोग बच्चे पैदा करना नहीं चाहते उन्होंने यह वजह बताई कि मां-बाप बनने से वह कम सो पाएंगे और कम आराम कर पाएंगे। या करियर को आगे बढ़ाने में दिक्कत आएगी। और जो लोग बच्चे पैदा करना चाहते हैं वो इसके सकारात्मक पहलू को देखते हैं।’
‘वैसे देखा जाए तो नॉर्डिक देशों में लोगों की आय अच्छी है, उनके पास पैसे भी हैं और समय भी। और वह बच्चों और परिवार की जिम्मेदारी आसानी से निभा सकते हैं। लेकिन शायद उन्हें यह बात सही तरीके से समझाई नहीं गई है।’
यह एक कारण है जिससे इन देशों में प्रेगनेंसी पॉज आ गया है यानि महिलाओं में गर्भधारण बहुत कम हो गया है। कई महिलाओं के सामने यह समस्या है कि जब तक वह मां बनने का फैसला करें तब तक समय निकल जाता है या उम्र बढऩे से उसमें दिक्कतें पेश आती हैं।
मगर क्या यह ट्रेंड बदलने के कोई आसार दिखाई दे रहे हैं? एना रोथकेर कहती हैं कि कोविड की महामारी के दौरान 2021 में कुछ समय के लिए नॉर्डिक देशों में जन्म दर बढ़ गई थी लेकिन 2022 में वह फिर नीचे आ गई। इस दौरान कुछ समय के लिए जन्मदर स्थिर भी हुई। लेकिन पिछले कई सालों में प्रजनन दर में जिस प्रकार की गिरावट आई है उसकी किसी को अपेक्षा नहीं थी।
प्रजनन दर में लगातार गिरावट
संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष में अर्थशास्त्र और जनसांख्यिकी यानि डेमोग्राफिक्स के वरिष्ठ सलाहकार माइकेल हर्मन की राय है कि अगर प्रजनन दर बहुत नीचे आ जाए तो उसे दोबारा बढ़ाना बहुत मुश्किल होता है।
यह संस्था विश्वभर में जनसंख्या से जुड़े मामलों पर काम करती है। माइकेल हर्मन ने बताया कि यूरोप में इटली, पुर्तगाल, ग्रीस, सर्बिया और दक्षिण पूर्वी यूरोपीय देशों में प्रजनन दर 1।3 के करीब आ गई है। हम कह सकते हैं कि यूरोपीय देश दुनिया को डेमोग्राफिक्स में आ रहे नए बदलाव की दिशा में ले जा रहे हैं। इससे पहले हमने कभी जनसंख्या में इस प्रकार लगातार गिरावट नहीं देखी है।
दुनिया में सबसे कम प्रजनन दर दक्षिण कोरिया में है। साथ ही ईरान, मॉरिशस और लातिन अमेरिका के कुछ गऱीब देशों में भी पिछले कुछ सालों में प्रजनन दर घटी है।
कुछ देशों में प्रजनन दर घटने के विशेष कारण रहे हैं। मिसाल के तौर पर चीन में जहां जनसंख्या नियंत्रण के लिए 1979 में प्रति दंपत्ति केवल एक बच्चे का नियम लागू कर दिया गया था जिसे अभी नौ साल पहले ही रद्द किया गया।
माइकेल हर्मन ने कहा, ‘इस ट्रेंड को बदल कर प्रजनन दर बढ़ाना बहुत मुश्किल होता है। चीन में भी यही हो रहा है। दरअसल काम और घरेलू जीवन के बीच संतुलन बनाने में आने वाली दिक्कत भी इसका एक कारण है। वहीं बच्चों की देखभाल के लिए पर्याप्त आर्थिक सहायता नहीं मिल पाती। इस वजह से फिलहाल चीन में कई लोग दो या तीन बच्चे पैदा नहीं करना चाहते।’
माइकेल हर्मन कहते हैं कि जन सर्वेक्षणों के अनुसार कई देशों में लोगों के बच्चे पैदा ना करने के अन्य कारण भी हैं। जैसे कि कुछ लोग बिगड़ते पर्यावरण की वजह से या अपने देश की बदहाल राजनीतिक स्थिति की वजह से भी बच्चे पैदा करना नहीं चाहते। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि आर्थिक और सामाजिक स्थितियों में सुधार आने से प्रजनन दर बढ़ जाएगी। यह मसला काफी पेचिदा है।
माइकेल हर्मन ने कहा, ‘जापान, कोरिया और यूरोप कई देश प्रजनन दर बढ़ाने के लिए अरबों डॉलर खर्च कर रहे हैं। हम कह सकते हैं कि इस दिशा में हंगरी को इसमें सफलता जरूर मिली है। 2010 से 2022 के बीच हंगरी की कुल प्रजनन दर में 25 फीसद वृद्धि हुई है।’
हंगरी की राष्ट्रवादी सरकार ने प्रवासन यानि इमीग्रेशन के बजाय प्रजनन को प्राथमिकता देने की नीति अपनाई हुई है। सरकार लोगों को बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए टैक्स में भारी छूट देती है। जो विवाहित लोग बच्चे पैदा करना चाहते हैं, उन्हें मकान खरीदने के लिए आर्थिक सहायता दे रही है। मगर समलैंगिक जोड़ों को यह सहायता नहीं दी जाती। अफ्रीका में प्रजनन दर ऊंची है लेकिन वहां भी कई देशों में वह कम है।
माइकेल हर्मन के अनुसार पचास साल पहले अफ्ऱीका में औसत प्रजनन दर 6.5 थी। अब वह घट कर 4.1 हो गई है। अनुमान है कि साठ साल बाद यह घट कर 2.1 रह जाएगी। मगर एरिट्रिया में प्रजनन दर 6.5 है जो कि काफी ऊंची है।
विश्व की आबादी बढ़ रही है। संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के अनुसार दुनिया की आबादी 2022 में आठ अरब के ऊपर चली गई है। लेकिन अनुमान है कि गिरती प्रजनन दर की वजह से भविष्य में आबादी की वृद्धि दर धीमी हो जाएगी। अब लोगों की अधिक अपेक्षित आयु बढ़ रही है। कई देशों की सरकारों के सामने समस्या है कि बूढ़ी आबादी के पेंशन का खर्च कैसे उठाया जाए क्योंकि जन्म दर के घटने से बाजार में नए श्रमिकों की किल्लत बढ़ती जा रही है। इसका सीधा असर देशों की उत्पादकता पर पड़ रहा है। प्रजनन दर बढ़ भी जाए तब भी इसके जरिए श्रमिकों की कमी को पूरा करने में कई दशक लग जाएंगे।
प्रजनन संबंधी सरकारी नीतियां
इटली के मिलान शहर की बोकोनी यूनिवर्सिटी के पॉलिटिकल साइंस सेंटर में डेमोग्राफ़ी यानि जनसांख्यिकी के प्रोफेसर एमस्टेन आसेव की राय है कि जिन देशों में महिला और बाल कल्याण की अच्छी योजनाएं कायम रही हैं जिसके तहत महिलाओं को मैटरनिटी लीव या छुट्टी और बच्चों की देखभाल के लिए बेहतर सुविधाएं और आर्थिक सहायता मिलती रही है, वहां प्रजनन दर अच्छी रही है। उसमें गिरावट कम आई है।
‘महिलाओं और परिवार संबंधी नीतियां प्रजनन दर बढ़ाने के उद्देश्य से नहीं बल्कि महिलाओं को समान अवसर उपलब्ध कराने के लिए बनायी गयी थीं। लेकिन इससे प्रजनन दर बढऩे में भी मदद मिली। इसका मतलब है कि प्रजनन दर बढ़ाने के लिए नीतियां बनाते समय हमें कई और बातों के बारे में सोचना चाहिए क्योंकि हो सकता है कि केवल प्रजनन दर को बढ़ाने के उद्देश्य से बनाई गई नीतियां संभवत: उतनी सफल ना हों।’
जो संदेह एमस्टेन आसेव जता रहे हैं वैसी ही बात फ्रांस में भी देखी जा रही है, जहां इन नीतियों के जरिए लोगों को बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहित करने में दिक्कत आ रही है।
एमस्टेन आसेव कहते हैं, ‘फ्रांस उन देशों में है जिसकी परिवार संबंधी नीतियों को काफ़ी बेहतर माना जाता रहा है। यूरोप के अन्य देशों की तुलना में फ्ऱांस की प्रजनन दर हमेशा अच्छी रही है। इसमें पिछले कुछ सालों में जो गिरावट आई है वो भविष्य में भी जारी रहेगी या नहीं यह कहना मुश्किल है। दूसरा उदाहरण जर्मनी का है जहां कुछ सालों पहले घटती प्रजनन दर को लेकर काफ़ी चिंता थी लेकिन उसने नॉर्डिक देशों की तजऱ् पर परिवार कल्याण संबंधी नीतियां लागू कीं और परिवारों को बच्चों की परवरिश के लिए सहायता देना शुरू किया। यह नीति काफ़ी हद तक सफल भी हुई है क्योंकि जर्मनी के प्रजनन दर में वृद्धि हुई है।’
मगर यूरोप के कई देश कई पीढिय़ों से प्रजनन दर बढऩे का इंतजार कर रहे हैं।
एमस्टेन आसेव के अनुसार इटली और स्पेन में पिछले करीब 30 सालों से प्रजनन दर कम रही है। ऐसा नहीं है कि वहां प्रजनन दर घटती गई है बल्कि वह कम ही रही है। जाहिर सी बात है कि उन सरकारों के लिए यह चिंता का विषय है।
इटली की प्रधानमंत्री जॉर्जिया मेलोनी ने हाल में कहा था कि देश में जन्मदर बढ़ाना उनकी सरकार की प्राथमिकता होगी। वहीं 2022 में इटली में 18 से 35 वर्ष की आयु के सत्तर फीसद लोग अपने माता पिता के साथ ही रह रहे थे। यानि उनमें से कई लोग आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं हैं। ऐसे में उनके लिए बच्चे पैदा करने का फ़ैसला करना मुश्किल हो जाता है।
एमस्टेन आसेव का मानना है कि युवाओं को सहायता देने से लाभ हो सकता है मगर इसके लिए यह भी ज़रूरी है कि सरकार की नीतियों में निरंतरता बनी रहे ताकि लोग आश्वस्त हो सकें कि बच्चे पैदा करने के बाद भी सहायता जारी रहेगी।
प्रजनन दर और कितनी गिर सकती है?
ऑस्ट्रियन एकेडमी ऑफ साइंसेज की विएना इंस्टिट्यूट ऑफ़ डेमोग्राफ़ी के उपनिदेशक टोमस सोबोत्का मानते हैं कि कई देशों में प्रजनन दर रिकॉर्ड स्तर तक नीचे आ गयी है और वह यह अनुमान लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि यह और कितना गिर सकती है।
‘प्रजनन दर जितना नीचे गिरेगी उतना ही भविष्य में उसे बढ़ाना मुश्किल होगा। कई देशों को इसके गंभीर परिणामों का सामना करना पड़ेगा।’
यह भी एक गंभीर प्रश्न है कि नीति निर्माताओं को किस हद तक लोगों के प्रजनन संबंधी फ़ैसलों को प्रभावित करना चाहिए या लोगों के परिवार संबंधी फ़ैसलों में किस हद तक दख़ल देना चाहिए।
टोमस सोबोत्का का कहना है, ‘हम समाज कल्याण पर आधारित देशों में रहते हैं जिस वजह से इस क्षेत्र में सरकार का दख़ल तो हमेशा से रहा है। मगर हमने इतिहास में यह भी देखा है कि प्रजनन दर बढ़ाने की इस प्रकार की सरकारी नीतियों से लंबे समय में उतनी सफलता नहीं मिलती।’
लोग बच्चे पैदा करें या नहीं और कितने बच्चे पैदा करें इस बारे में लोगों के रूख़ को बदलने के बजाय उसे स्वीकार कर लेना और कम होती आबादी के हिसाब से अपनी अर्थव्यवस्था को ढालना भी क्या सही विकल्प हो सकता है? यह इस बात पर निर्भर करता है किसी देश में प्रजनन दर कितनी तेजी से कम हो रही है।
टोमस सोबोत्का का मानना है कि जिन देशों में जनसंख्या लंबे समय के दौरान धीमी गति से कम हो रही है, वहां की अर्थव्यवस्था और लेबर मार्केट अपने आपको उस स्थिति के अनुसार ढाल सकते हैं। लेकिन जहां जनसंख्या प्रतिवर्ष लगभग एक फीसद से घट रही है, वहां इस समस्या से जूझना चुनौतिपूर्ण होगा क्योंकि लेबर मार्केट में नए श्रमिकों की कमी का असर ढांचागत व्यवस्थाओं पर पड़ेगा। संचार और परिवहन से लेकर सरकारी तंत्र को चलाने के लिए भी लोगों की किल्लत होगी जिसके चलते वो सुचारू तरीके से नहीं चल पाएंगे।
कनाडा जैसे कुछ देश इस समस्या के समाधान के लिए दूसरे देशों से प्रवासियों को लाकर अपने देश में बसाने का रास्ता अपना रहे हैं। लेकिन कई देशों में प्रवासन या इमिग्रेशन के मुद्दे को लेकर ध्रुवीकरण हो रहा है।
टोमस सोबोत्का का कहना है कि घटती प्रजनन दर को एक अवसर के रूप में भी देखा जा सकता है। यानि जिन देशों में कम बच्चे पैदा हो रहे हैं वहां उन्हें बेहतर शिक्षा और सामाजिक सुविधाएं दी जा सकती हैं जो देश की उत्पादकता बढ़ाने में मददगार होगी और जब यह बच्चे बड़े होंगे तो वहां प्रतिस्पर्धा कम होगी और उन्हें अच्छी तनख़्वाह मिल सकती है।
इसके साथ ही आबादी के घटने से मकानों की उपलब्धता की समस्या भी कम होगी और युवाओं को बेहतर जीवन प्राप्त होगा। तो क्या यूरोप अपनी गिरती प्रजनन दर को दोबारा बढ़ा सकता है? जैसा कि हमने उत्तर यूरोपीय यानि नॉर्डिक देशों में देखा कि लोगों को बच्चे पैदा करने के लिए उदार आर्थिक सहायता देने की नीति कुछ खास कामयाब नहीं रही है।
ऐसे में सरकार की सामाजिक नीतियों में स्थिरता और निरंतरता बनी रहे तो उसके सफल होने की संभावना अधिक है। पहले जैसी ऊंची प्रजनन दर तक पहुंचना अत्यंत चुनौतिपूर्ण होगा। ऐसे में यूरोपीय देशों के लिए सबसे बेहतर विकल्प यह होगा की वो प्रजनन दर को तेज़ी से गिरने से रोकने पर ध्यान केंद्रित करें। (bbc.com/hindi)
बिना खर्च की शादी करके उत्तर दे सकते हो क्या?
लेकिन क्या तुम्हारे भीतर एक अंबानी सेठ नहीं बैठा है?
*वह दूल्हा जिसने घोड़े को दस मीटर दूर से देखा होता है वह उस दिन घुड़सवार होगा!
*वह दूल्हा जो किसी किसी तरह नये कपड़े पहनता है वह विवाह के दिन लाखों की शेरवानी पहनेगा!
*घर की पुताई रोक कर दिन बिताने वाले लोग होटल या रिसोर्ट की ओर भागते हैं और
*दाल भात तरकारी के लिए तरसने वाले भी छप्पन भोग की आकांक्षा लेकर बारात में जाते हैं!
*दुल्हन के लिए उधार के गहने और लाखों की साडिय़ां खरीदने वाले माँ बाप अगले अनेक साल जोड़ गाँठ से बकाया चढ़ाते हैं!
*न हुआ बड़ा बैंड तो क्या कोई स्थानीय गवैया तो आना ही चाहिए!
*बुआ फूफा चाचा ताऊ जीजा आदि पुराने जूते पहन कर आने में लज्जित होते हैं, आखिर लोग क्या कहेंगे!
*रात भर भयानक तेज संगीत पर नाचना किस विधान में लिखा है, लेकिन नाचना है और वह सब करना है जो सेठ कर रहा है!
*वैसे बस में चलने के लिए किराए पर विचार होगा लेकिन बारात में जाने के बाद एसी कार न हुई तो जन्म जन्मांतर तक लडक़ी वालों को गाली देंगे! और घीसू माधव की तरह पिछली किसी शादी या भोज की स्मृति में विलमते रहेंगे! और विवाह वाले वर कन्या पक्ष इसी में मरता रहता है कि लोग क्या कहेंगे!
फिल्म मदर इण्डिया में सारी समस्या उधार लेकर सैकड़ों बैलगाड़ी से गई बारात है!
याद करिए उन लोगों को जो आय और गाँठ के मूल धन से कई गुना अधिक खर्च करने को ही जीवन का सर्वोत्तम पल मान लेते हैं! वे भी यथार्थ समझे रहे होते हैं लेकिन लोग क्या कहेंगे के फंदे से बाहर झांके तो कैसे!
सारी समस्या लोग क्या कहेंगे में है! जेब क्या कह रही है उसकी रुकी हुई रुलाई अनसुनी करके लोग सेठ की नकल पर पागल होते रहते हैं!
भाड़े की कार पर चिपके फूल की तरह का वैभव लेकर लोग घर लौटते हैं और खुशी की जगह कर्ज और खर्च का विशद विषाद रिटर्न गिफ्ट में लाते हैं!
तो सोच और विचार में औकात हो तो सादा आ मिलन जुलन का आयोजन करो! जो हर दिन खाते हो उससे बेहतर खाओ विवाह में जो हर दिन पहनते हो उससे बेहतर पहनो लेकिन अपने को गिरवी रखकर या सेठ का ताम झाम देखकर कुछ मत करो तो सेठ के खर्चे पर सवाल करो!
-बोधिसत्व
ऋतु तिवारी
आज महिला दिवस पर बधाइयों के बीच मुझे वो दिन याद आ रहा है जिस दिन मैं कोलकाता के सोनागाछी गई थी सेक्स वर्कर्स से मिलने और जानने और समझने कि सोनागाछी के बारे में शहर से लेकर देश -विदेश में जो मिथक हैं उनमें कितनी सच्चाई है और जिन पर फिल्में बनाकर फिल्मकारों ने जाने कितने अवार्ड बटोरे।
सबसे पहला संघर्ष रहा उस गली तक पहुँचना जो उन तक जाती थी।उनके संगठन के ऑफि़स तक पहुँचने में कोई मुश्किल नहीं हुई और संगठन के सेक्रेटरी से बात करने के बाद जब उन्हें संतोष हुआ कि हम किसी गलत नीयत से नहीं आये हैं, एक रास्ता खुला कि उन तक पहुँचा जा सके।
पर वहाँ उस गली में पहुँचते पहुँचते जाने कितनी बार हम पर शक किया गया..पर हम ये बताने में सफल रहे कि हम उनलोगों में से नहीं हैं जिनसे उन्हें डर है। (हमसे डरने का कारण उन्होंने बताया, जिसकी चर्चा एथिक्स के हिसाब से गलत होगा।)
आखिरकार शहर के एक आम रास्ते से होते हुए हम उस गली में पहुँच ही गये जिसके हर मकान की खिडक़ी को बाहर से गुजरने वाला एक ऐसी नजऱ से देखता है मानो उस खिडक़ी के पार दुनिया की सबसे खराब औरत रहती है।
जब हम एक मकान के भीतर घुसे तो दृश्य बिल्कुल वैसा था जैसा सिनेमा में आप सबने देखा होगा कि रात को शरीर बेचने वाली भी दिन में बैठकर बालों में तेल लगा रही है, कोई बच्चे को खाना खिला रही है।जिस बात ने सबसे पहले मुझे चोट पहुँचाई वो ये कि एक अजीब सी हिकारत से हमें देखा गोया हम बाहरी उनकी दुनिया में इतनी आसानी से कैसे घुस आये।
धीरे-धीरे उनके बीच हमने विश्वास कायम किया और उन्होंने हमसे बातचीत शुरू की।
आश्चर्य होगा आप सबको ये जानकर कि उनके बीच जब हम थे तो हमपर बाहर से कुछ युवक नजर रखे हुए थे और बीच बीच में आकर तस्दीक करते थे कि कहीं कुछ संदेहास्पद तो नहीं।
लेकिन अंतत: हम पर भरोसा किया गया और फिर जो सुना, उनकी आँखों से देखा और समझा उसकी बात एक साथ लिखते हुए फोन हैंग हो जायेगा।
पर इतना जरूर देखा हमने कि उन्होंने हमारी आँखों में आँखें डाल कर जिस तरह बात की,बयान किया..हम शर्मिंदा थे..हमारी आँखें नीची थी और उनकी आत्मा पर लगे घाव हम सिर्फ महसूस करने की कोशिश कर रहे थे।
कितना अद्भुत संयोग है कि हम जिसको प्यार करते हैं उसे बाबू कहकर पुकारते हैं, उनके बाबू वो हैं जो उनके लिये ग्राहक लाकर देते हैं।
कितने ही अनुभव उन क्षणों में हमने सुना, उनके दर्द को सुना (हम समझने का दावा कर लें पर ये आसान नहीं तो मैं खुद को नहीं छल सकती।)लेकिन सबसे ऊपर रहा उनके अपने आत्मसम्मान की भावना जिसको बयान किया ही नहीं जा सकता।
वो तो सिर्फ ‘धंधा’ करती हैं कि कोई अपनी अपाहिज बच्ची का इलाज करा सके या कोई अपनी बहन-भाई को पढ़ा सके या फिर किसी के पति ने उसे छोड़ दिया और उसके पास अपने बच्चों को जीवन देने के लिये इसके अलावा कोई रास्ता नहीं दिखा जो उसकी जरूरत पूरी कर पाये।
फिर हमारे लौटने का वक्त हुआ तो एक उम्रदराज ‘बाबू’ ने मुझे अपना नम्बर देते हुए सिफ$ इतना कहा कि मेरा नम्बर रख लें। शायद आप किसी की कोई भला करना चाहेंगी तो मैं मदद कर सकता हूँ।
इस दुनिया में सेक्स वर्क होम का होना किसी महिला का नहीं बल्कि पुरुषों का चरित्र प्रमाणपत्र है।
संजय ढकाल
नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्प कमल दाहाल प्रचंड ने एक बार फिर से पाला बदल लिया है।
सोमवार को प्रचंड की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी सेंटर) ने नेपाली कांग्रेस से गठबंधन तोड़ नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के साथ गठबंधन बना लिया है।
प्रचंड के इस हालिया फ़ैसले से नेपाली संसद में सबसे ज़्यादा 88 सीटें जीतने वाली नेपाली कांग्रेस पार्टी विपक्ष में हो गई है।
प्रचंड और ओली की पार्टी का कहना है कि दोनों के बीच सरकार को लेकर नया समझौता हो गया है। एक साल से कुछ ही ज़्यादा समय हुआ है कि एक बार फिर से नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टियों का गठबंधन तैयार हुआ है।
प्रचंड और ओली की पार्टी के बीच बने गठबंधन में राष्ट्रीय स्वतंत्र पार्टी (आरएसपी) और जनता समाजवादी पार्टी भी शामिल हैं। सोमवार की शाम प्रचंड ने अपने सभी मंत्रियों को हटा दिया था और अपनी पार्टी, ओली की पार्टी के अलावा आरएसपी से एक-एक नए मंत्रियों को शामिल किया था। प्रचंड ने बाकी के सभी 25 मंत्रालय अपने पास रखे हैं।
नेपाल में 2022 के आम चुनाव में नेपाली कांग्रेस और प्रचंड की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी सेंटर) के बीच गठबंधन था। लेकिन चुनाव बाद प्रचंड ने ओली की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (एकीकृत माक्र्सवादी-लेनिनवादी) से गठबंधन कर लिया था।
फिर से साथ आए ओली और प्रचंड
ओली की पार्टी नेपाल में 78 सीटों के साथ दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है। नेपाली कांग्रेस ने 25 दिसंबर 2022 को प्रचंड की उस मांग को खारिज कर दिया था, जिसमें वह तीसरी बड़ी पार्टी (32 सीटें) होने के बावजूद प्रधानमंत्री बनना चाहते थे।
लेकिन पिछले साल फऱवरी में ही ओली की पार्टी ने प्रचंड से गठबंधन तोड़ लिया था। प्रचंड की पार्टी ने नेपाल के राष्ट्रपति चुनाव में नेपाली कांग्रेस के नेता रामचंद्र पौडेल का समर्थन किया था।
ओली चाहते थे कि प्रचंड राष्ट्रपति चुनाव में उनकी पार्टी के उम्मीदवार का समर्थन करें। रामचंद्र पौडेल के राष्ट्रपति बनने के बाद नेपाली कांग्रेस ने एक बार फिर से प्रचंड से हाथ मिला था। लेकिन एक साल से कुछ ही ज़्यादा वक्त हुआ है और प्रचंड ने नेपाली कांग्रेस से खुद को अलग कर लिया।
नेपाली कांग्रेस और प्रचंड की पार्टी के बीच सरकार में कई मुद्दों पर मतभेद खुलकर सामने आ रहे थे। लेकिन नेशनल एसेंबली के अध्यक्ष को लेकर सबसे ज़्यादा कलह थी। नेपाली कांग्रेस नहीं चाहती थी कि नेशनल एसेंबली के अध्यक्ष का पद प्रचंड की पार्टी के पास जाए।
नेपाली कांग्रेस से मतभेद
नेपाल की नेशनल एसेंबली के अध्यक्ष का पद अहम होता है क्योंकि संवैधानिक निकायों में सदस्यों की नियुक्तियां उसी की सिफारिश से होती हैं।
12 मार्च को नेपाल में नेशनल एसेंबली के अध्यक्ष के लिए चुनाव है। नेपाल में बार-बार नई सरकार का बनना कोई नई बात नहीं है। 2008 में नेपाल में राजशाही ख़त्म होने के बाद से 11 सरकारें बन चुकी हैं।
नेपाल की चुनावी व्यवस्था में किसी भी पार्टी के लिए अपने बहुमत पर सरकार बनाना संभव नहीं है। 275 सदस्यों वाली नेपाल की प्रतिनिधि सभा में 165 सदस्यों को सीधे जनता अपने मतों से चुनती है और बाक़ी 110 सदस्यों का चुनाव समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रक्रिया से होता है।
2018 में ओली और प्रचंड ने अपनी पार्टियों का विलय कर बड़ा कम्युनिस्ट फोर्स नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी बनाई थी लेकिन दोनों के बीच सत्ता संघर्ष इस कदर बढ़ा कि 2021 में अलग हो गए और नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी टूट गई थी। इसके बाद दोनों ने अपनी-अपनी पार्टी बना ली थी।
कहा जाता है कि नेपाल में कम्युनिस्ट पार्टियों की एकता को चीन हमेशा से पसंद करता रहा है। वहीं भारत के बारे में कहा जाता है कि वह नेपाली कांग्रेस को सत्ता में किसी ने किसी रूप में हिस्सेदार देखना चाहता है।
भारत के हक में नहीं
विश्लेषकों का कहना है कि नेपाल में नया सत्ता समीकरण बनने के बाद काठमांडू के प्रति उसके पड़ोसी देशों भारत और चीन की राय बदल सकती है।
करीब 13 महीने पहले नेपाली कांग्रेस और प्रचंड की पार्टी के बीच गठबंधन से भारत सहज था।
कहा जाता था कि उससे पहले जब वामपंथी दल एक साथ आए तो चीन इससे सहज था।
तो, क्या अब फिर चीन ख़ुश हो गया है और दिल्ली उस नए गठबंधन को लेकर चिंतित है, जिस पर कम्युनिस्टों का वर्चस्व होगा?
विश्लेषकों के मुताबिक, इससे देश की बुनियादी विदेश नीति तो नहीं बदलेगी लेकिन नेपाल के प्रति धारणा बदल सकती है।
नेपाल की विदेश नीति
नेपाल के वरिष्ठ पत्रकार युवराज घिमिरे कहते हैं कि चूंकि नेपाल का संविधान गुटनिरपेक्ष विदेश नीति को अपनाता है, इसलिए भले ही सरकार बदल जाए, एक ‘संतुलित’ विदेश नीति रखी जाएगी। ख़ासकर पड़ोसियों के मामले में ऐसा ही होगा।
घिमिरे कहते हैं, ‘हालांकि, यह सच है कि अतीत में, जब कम्युनिस्ट एकजुट हुए थे तो चीन ने सकारात्मक प्रतिक्रिया दी थी।’
उन्होंने कहा, ‘इसलिए, चीन के साथ बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव यानी बीआरआई समझौते अमल में लाना भविष्य में प्राथमिकता बन सकता है।’
पूर्व मंत्री राम कार्की के मुताबिक, नए गठबंधन से नेपाल की विदेश नीति ‘अधिक संतुलित’ होगी।
उन्होंने कहा, ‘नेपाल को विदेशी मामलों में अपनी तटस्थता को अधिक मजबूत तरीके से दिखानी होगी।’
जब पुराना गठबंधन था तो क्या वह तटस्थ नहीं था? इस सवाल के जवाब में कार्की ने कहा, ‘यह ऐसी बात है, जिसे हर कोई जानता है।’
पिछले कुछ समय से कुछ समूह नेपाल में हिंदू राष्ट्र की वापसी की मांग कर रहे हैं। नेपाली कांग्रेस के अंदर भी एक गुट यह मांग उठाता रहा है।
यह सवाल भी उठाया जाता रहा है कि अगर हिंदू राष्ट्र का एजेंडा- जो भारत की मौजूदा सत्ता के लिए रुचिकर हो सकता है- एक नया गठबंधन बन गया तो क्या होगा।
हालांकि भारत ने नेपाल में हिंदू राष्ट्र या संघीय शासन या गणतंत्र के बहस पर औपचारिक रूप से प्रतिक्रिया नहीं दी है या कोई रुचि व्यक्त नहीं की है।
पत्रकार घिमिरे ने कहते हैं, ‘देश के भीतर भी, मुझे नहीं लगता कि इन मुद्दों को बड़ी पार्टियों ने ईमानदारी से उठाया है।’
‘विश्वसनीयता का नुकसान’
नेपाल में सत्ता गठबंधन बदलना सामान्य बात हो गई है।
पिछले आम चुनाव के डेढ़ साल से भी कम समय में, सिंह दरबार पर शासन करने वाला सत्ता गठबंधन तीन बार बदल चुका है।
लेकिन हर बार संसद में तीसरी ताकत माओवादी पार्टी के अध्यक्ष पुष्प कमल दाहाल ‘प्रचंड’ प्रधानमंत्री बनने में सफल रहे हैं।
प्रचंड के नेतृत्व वाली पिछली गठबंधन सरकार के दौरान जिसमें उदारवादी मानी जाने वाली नेपाली कांग्रेस मुख्य भागीदार थी, यह टिप्पणी की गई थी कि चीन के साथ बीआरआई समझौते के तहत परियोजनाएं आगे नहीं बढ़ीं।
लेकिन इसी अवधि में भारत के साथ नज़दीकियां बढ़ीं और ऊर्जा व्यापार पर एक महत्वपूर्ण समझौता भी हुआ, जबकि अमेरिका के साथ मिलेनियम चैलेंज कॉर्पोरेशन के तहत एमसीसी नामक कॉम्पैक्ट समझौते को मंजूरी दी गई।
नेपाल मुद्दे पर भारत के टिप्पणीकार भी कह रहे थे कि प्रचंड और नेपाली कांग्रेस के बीच गठबंधन दिल्ली के लिए ‘अच्छा’ है। लेकिन देश के अंदर कुछ विश्लेषक गठबंधन का झुकाव दिल्ली की ओर अधिक होने की आलोचना करते रहे हैं।
पिछले चुनाव में, नेपाली कांग्रेस ने संसद के निचले सदन में 88 सीटें जीतीं, नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) ने 78 सीटें जीतीं और नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी सेंटर) ने 32 सीटें जीतीं। बाकी सीटें अन्य पार्टियों ने जीतीं।
संविधान के मुताबिक सरकार बनाने के लिए 275 सीटों में से 138 सीटों की जरूरत होती है।
नेपाल के पूर्व राजनयिक दिनेश भट्टराई ने कहा कि जब सत्ता गठबंधन में बार-बार बदलाव होंगे तो देश के अंदर और बाहर ‘विश्वसनीयता में कमी’ आएगी।
भट्टराई, जो अतीत में नेपाली कांग्रेस के प्रधानमंत्रियों के विदेशी मामलों के सलाहकार भी रह चुके हैं, कहते हैं, ‘नेपाल के भीतर सत्ता के लिए हाथापाई बाहरी शक्तियों को अपनी चालें चलने के लिए प्रोत्साहित करेगी।’
‘नेपाल की भू-राजनीति चीन और भारत जैसे बड़े देशों के बीच होने के कारण बहुत संवेदनशील मानी जाती है। इसलिए, यहां की अस्थिरता को लेकर बाहर भी दिलचस्पी और चिंता है।’
क्या कहते हैं प्रचंड?
पहले कहा जा रहा था कि कांग्रेस और अन्य छोटी पार्टियों के साथ मिलकर माओवादियों का बनाया गठबंधन पाँच साल तक सरकार चलाएगा।
अनौपचारिक रूप से यह भी कहा गया था कि पहले दो साल के लिए प्रचंड प्रधानमंत्री होंगे और उसके बाद नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष शेर बहादुर देउबा और कुछ समय के लिए नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (यूनिफाइड सोशलिस्ट) के अध्यक्ष माधव कुमार नेपाल सत्ता का नेतृत्व करने वाले थे।
लेकिन सोमवार को प्रचंड ने जो नई राजनीतिक चाल चली उसके बाद वो सभी समझौते टूट गए हैं।
लगातार राजनीतिक समीकरण बदल कर सत्ता में बने रहने में कामयाब रहे प्रचंड इसे स्वाभाविक मानते हैं।
सोमवार को राजनीतिक तनाव के बीच राजधानी काठमांडू में प्रचंड ने कहा, ‘जब तक मैं मर नहीं जाऊंगा, देश में उथल-पुथल मची रहेगी।’
उन्होंने यह भी कहा कि वह ‘बड़ी वामपंथी एकता की शुरुआत’ कर रहे हैं।
बैठक में उन्होंने अपनी विदेश नीति के बारे में भी बताया।
नेपाल की भौगोलिक स्थिति की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा, ‘अगर हम एक उचित, वैज्ञानिक, स्वतंत्र और गुटनिरपेक्ष विदेश नीति अपनाने में विफल रहते हैं और अगर हम नेपाली लोगों के साथ एकजुट होने में विफल रहते हैं, तो नेपाल किसी भी समय कठिन स्थिति में जा सकता है।’ (bbc.com/hindi)
ध्रुव गुप्त
‘महिला दिवस’ पर एक बार फिर से स्त्री-शक्ति के गुणगान का सिलसिला शुरू हो गया है। हर तरफ शोर मचा है कि स्त्रियां मां है, देवी हैं, शक्तिस्वरूपा हैं, पूजनीया हैं। यह बात कम ही लोग कहेंगे कि वे पुरुषों के जैसी ही हाड़-मांस की बनी व्यक्ति हैं जिनकी अपनी स्वतंत्र चेतना होती हैं,सोच होती है, इच्छाएं होती हैं, उडऩे की चाहत होती है। किसी न किसी बहाने स्त्रियों का महिमामंडन उनको बेवकूफ बनाने का सदियों पुराना और आजमाया हुआ नुस्खा है। झूठी तारीफें कर हजारों सालों तक धर्म और संस्कृति के नाम पर पुरुषों ने योजनाबद्ध तरीके से उनकी मानसिक कंडीशनिंग की है। इतना कि अपनी बेडिय़ां भी उन्हें आभूषण नजर आने लगे। सदियों तक स्त्रियों ने यह सवाल नहीं पूछा कि किसी भी धर्म अथवा संस्कृति में पुरूष धर्मगुरु और नीतिकार ही आजतक क्यों तय करते रहे हैं कि स्त्रियां कैसे रहें, कैसे हंसे-बोले, क्या पहने-ओढ़े, किससे बोलें- बतियाएं और मर्दों को खुश रखने के लिए क्या-क्या करें? उन्होंने तो यहां तक तय कर रखा है कि मर जाने के बाद किसी दूसरी दुनिया में उनकी क्या भूमिका होने वाली है। स्वर्ग या जन्नत पहुंचकर भी उन्हें अप्सरा या हूरों के रूप में पुरूषों का दिल ही बहलाना है। स्त्रियों के संदर्भ में आजतक गढ़ी गई तमाम नीतियां, मर्यादाएं और आचारसंहिताएं उनके व्यक्तित्व और स्वतंत्र सोच को नष्ट करने के पुरुष-निर्मित औज़ार हैं। भोलेपन में उन्हें अपनी गरिमा मानकर स्त्रियों ने स्वीकार किया और अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व तथा स्वतंत्र चेतना की बलि दे दी।
शिक्षा के प्रसार और कानूनी संरक्षण के विस्तार के साथ अब उन्हें बहुत हद तक समझ आने लगा है कि दुनिया की आधी और श्रेष्ठतर आबादी को अपने इशारों पर चलाने की मर्दों की शातिर चाल उन्हें कहां ले आई है। आज की पढ़ी-लिखी स्त्रियों ने रूढिय़ों से लडक़र अपने लिए थोड़ी आर्थिक आत्मनिर्भरता भी हासिल की है, आत्मविश्वास भी और थोड़ी-सी आज़ादी भी। इस प्रक्रिया में उन्हें शिक्षित और विवेकवान पुरुषों का सहयोग भी मिला है। मगर दुर्भाग्य से ऐसी स्त्रियों और पुरुषों की संख्या अधिक नहीं है। ज्यादातर पुरुष अपनी सोच में आज भी रूढि़वादी हैं और ज्यादातर स्त्रियां आज भी पितृसत्ता की बेडिय़ों में जकड़ी हुई। ग्रामीण क्षेत्रों में अथवा अशिक्षित या अर्धशिक्षित आबादी के बीच स्त्रियों की मुक्ति की खिड़कियां कम ही खुल पाई हैं। पितृसत्ता की जकडऩ से मुक्ति के लिए स्त्रियों को किसी खास दिन या किसी की दया और कृपा की नहीं, बहुत सारी स्वतंत्र सोच के साथ थोड़ी आक्रामकता की जरुरत है। उन्हें देवत्व नहीं, मनुष्यत्व चाहिए। उनकी जिन्दगी क्या और कैसी हो, इसे उनके सिवा किसी और को तय करने का अधिकार नहीं।
शुभेच्छाओं के साथ सभी स्त्रियों को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की शुभकामनाएं !
तमिलनाडु के सत्तारूढ़ दल द्रविड़ मुनेत्र कडग़म (डीएमके) के नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री ए राजा के बयान पर जमकर विवाद हो रहा है। ए राजा की टिप्पणी से कांग्रेस की अगुआई वाला इंडिया गठबंधन भी बैकफुट पर दिख रहा है।
पिछले हफ्ते ए राजा ने कहा था कि भारत पारंपरिक दृष्टि से एक भाषा, एक संस्कृति वाला देश नहीं है।
उन्होंने कहा था कि भारत यह एक देश नहीं, बल्कि एक उपमहाद्वीप है।
एक मार्च को कोयंबटूर में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के जन्मदिन के आयोजन में राजा ने कहा था, ‘एक देश का मतलब है एक भाषा, एक संस्कृति, एक परंपरा। भारत एक देश नहीं बल्कि एक उपमहाद्वीप था। यहाँ तमिलनाडु एक देश है, जिसकी एक भाषा और एक संस्कृति है। मलयालम एक अन्य भाषा और संस्कृति है। इन सभी के एक साथ आने से ही भारत बना है - इसलिए भारत एक उपमहाद्वीप बनता है, एक देश नहीं।’
तमिल में दिया गया ए राजा के इस भाषण का वीडियो क्लिप अंग्रेजी सबटाइटल के साथ सोशल मीडिया पर पिछले दो दिन से वायरल हो रहा है। बीजेपी इसे लेकर इंडिया गठबंधन और कांग्रेस को आड़े हाथों ले रही है।
ए राजा ने और क्या कहा था?
ए राजा ने बिलकिस बानो गैंग रेप केस में दोषियों की रिहाई पर कथित रूप से लगाए गए ‘जय श्री राम’ और ‘भारत माता की जय’ के नारे जि़क्र करते हुए कहा कि ‘हम ऐसे लोगों के ‘जय श्री राम’ और ‘भारत माता’ क़तई स्वीकार नहीं करेंगे। तमिलनाडु ये कभी स्वीकार नहीं करेगा। अपने लोगों को जाकर कह दीजिए कि हम राम के दुश्मन हैं।’
ए राजा ने हाल के दिनों में दिए गए प्रधानमंत्री के उस बयान का भी जिक्र किया, जिसमें उन्होंने कहा था कि चुनाव के बाद डीएमके पार्टी खत्म हो जाएगी।
इस बयान पर राजा ने कहा कि डीएमके तब तक रहेगा जब तक भारत रहेगा।
ए राजा ने कहा था, ‘आपने कहा है कि चुनाव के बाद डीएमके का अस्तित्व नहीं रहेगा। यदि चुनाव के बाद डीएमके नहीं होगा तो भारत भी नहीं होगा, इसे याद रखिए! आप क्या शब्दों से खेल रहे हैं?’
अपने इस बयान को विस्तार देते हुए ए राजा ने संविधान के प्रस्तावना की बात की थी और कहा था, ‘मैं क्यों कह रहा हूं कि भारत नहीं रहेगा? क्योंकि अगर आप सत्ता में फिर आए तो भारतीय संविधान ही नहीं होगा तो भारत नहीं होगा। यदि भारत का अस्तित्व नहीं रहा तो तमिलनाडु एक अलग इकाई बन जाएगा। क्या हम उस परिदृश्य की कामना करते हैं?’
ए राजा ने कहा था कि भारत विविधताओं और कई संस्कृतियों का देश है।
‘अगर आप तमिलनाडु आएं तो वहां एक ही संस्कृति है। केरल की एक अलग, दिल्ली और ओडिशा की एक अलग संस्कृति है। मणिपुरी लोग कुत्ते का मांस खाते हैं, यह एक अलग संस्कृति है। ये उनकी संस्कृति है।’
ए राजा ने कहा था, ‘पानी की एक टंकी से पानी आता है। यही पानी रसोई और शौचालय में जाता है। हम रसोई के लिए शौचालय से पानी नहीं लेते। क्यों? इसी तरह हम अंतर को स्वीकार करते हैं। आपसी अंतर और विविधताओं को स्वीकर करना चाहिए। आपकी (बीजेपी-आरएसएस) समस्या क्या है? क्या आपसे किसी ने गोमांस खाने के लिए कहा? इसलिए विविधता में एकता ही भारत के लिए मायने रखती है। इस देश में विविधताओं को स्वीकार करें।’
ए राजा ने कहा था, ‘क्या मेरे नाक और कान हूबहू दूसरे व्यक्ति के जैसे हैं? नहीं। यह सबके लिए समान क्यों होना चाहिए? हर एक को वैसे ही स्वीकार करना जैसे वे हैं, समझदारी इसी में है। अगर आप सभी को एक जैसा बनाने की कोशिश करेंगे तो क्या होगा? यही खतरा अब आ गया है।’
कांग्रेस और आरडेजी ने बयान के किया किनारा
ए राजा के इस बयान की ना सिर्फ बीजेपी बल्कि उनके अपने गठबंधन के सहयोगी भी आलोचना कर रहे हैं। केंद्रीय मंत्री और बीजेपी नेता गिरिराज सिंह ने कहा है कि ऐसे लोग ‘सनातन संस्कृति बर्बाद करना चाहते हैं।’
आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने कहा है कि ‘ये बयान ए राजा के व्यक्तिगत विचार हैं और ये गठबंधन की सोच नहीं है।’
कांग्रेस प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत ने भी इस पर कहा है कि कांग्रेस इस बयान से पूरी तरह असहमत है। उन्होंने कहा कि राम सबके हैं।
बीजेपी आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय ने एक्स पर लिखा, ‘डीएमके की हेट स्पीच लगातार जारी है। उदयनिधि स्टालिन के सनातन धर्म को नष्ट करने के आह्वान के बाद, अब यह एक राजा हैं जो भारत के विभाजन का आह्वान कर रहे हैं। भगवान राम का उपहास कर रहे हैं, मणिपुरियों पर अपमानजनक टिप्पणी कर रहे हैं और एक राष्ट्र के रूप में भारत के विचार पर सवाल उठा रहे हैं।’
कांग्रेस प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत ने कहा है कि कांग्रेस ए राजा के बयान की निंदा करती है।
उन्होंने कहा, ‘मैं उनके बयान से 100 फीसदी असहमत हूँ। मैं इस मंच से ऐसे बयान की निंदा करती हूँ। मेरा मानना है कि राम सबके हैं और सर्वव्यापी हैं। मेरा मानना है कि राम जिन्हें इमाम-ए-हिंद कहा जाता था वो समुदायों, धर्मों और जातियों से ऊपर हैं। राम जीवन जीने के आदर्श हैं। राम मर्यादा हैं, राम नीति हैं, राम प्रेम हैं।’
‘मैं इस बयान की पूरी तरह से निंदा करता हूं, ये उनका ( ए राजा का) बयान हो सकता है, मैं इसका समर्थन नहीं करती। मैं इसकी निंदा करती हूं और मुझे लगता है कि लोगों को बात करते समय संयम बरतना चाहिए।’
उदयनिधि ने सनातन धर्म पर क्या कहा था
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के बेटे और राज्य सरकार में मंत्री उदयनिधि स्टालिन ने बीते साल दो सितंबर को तमिलनाडु में आयोजित एक कार्यक्रम में सनातन धर्म को कई ‘सामाजिक बुराइयों के लिए जि़म्मेदार ठहराते हुए इसे समाज से खत्म करने की बात कही थी।
उन्होंने कहा था, ‘सनातन धर्म लोगों को जाति और धर्म के नाम पर बाँटने वाला विचार है। इसे ख़त्म करना मानवता और समानता को बढ़ावा देना है।’
उदयनिधि ने कहा था, ‘जिस तरह हम मच्छर,डेंगू, मलेरिया और कोरोना को खत्म करते हैं, उसी तरह सिर्फ सनातन धर्म का विरोध करना ही काफी नहीं है। इसे समाज से पूरी तरह ख़त्म कर देना चाहिए।’
इस बयान पर आरएसएस, बीजेपी और दक्षिणपंथी खेमे से काफी तीखी प्रतिक्रिया आई है।
बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कहा था, ‘ये हमारे धर्म पर हमला है।’
हालांकि बयान पर विवाद के बाद भी उदयनिधि ने कहा था कि हम अपने बयान पर कायम हैं।
उन्होंने बोला था कि हमने समाज के सताए हुए और हाशिये पर डाल दिए गए लोगों की आवाज उठाई है, जो सनातन धर्म की वजह से तकलीफ झेल रहे हैं।
उदयनिधि ने कहा था, ‘हम अपनी बात पर कायम हैं और किसी भी कानूनी चुनौती का सामना करने के लिए तैयार हैं। हम द्रविड़ भूमि से सनातन धर्म को हटाने के लिए प्रतिबद्ध हैं और इससे एक इंच भी पीछे नहीं हटने वाले।’
उदयनिधि की इस टिप्पणी के खिलाफ मामला सुप्रीम कोर्ट में गया और सर्वोच्च अदालत ने सोमवार को उन्हें सख़्त हिदायत दी।
सोमवार को सुप्रीम कोर्ट उदयनिधि स्टालिन की एक अपील पर सुनवाई कर रहा था, जिसमें उन्होंने मांग की थी कि महाराष्ट, बिहार उत्तर प्रदेश और कर्नाटक में उनके खिलाफ दर्ज एफआईआर को एक साथ जोड़ दिया जाए।
इस मामले पर सुनवाई करते हुए जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस दीपांकर दत्ता की बेंच ने कहा कि एक मंत्री होने के नाते उदयनिधि स्टालिन को अपने बयानों में सावधानी बरतनी चाहिए थी और उनके संभावित परिणामों के प्रति सचेत रहना चाहिए।
कोर्ट ने कहा, ‘आप अनुच्छेद 19(1)(ए) (अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार) के तहत अपने अधिकार का दुरुपयोग कर रहे हैं। आप अनुच्छेद 25 (विवेक की आज़ादी, धर्म को मानने और उसका प्रचार करने की स्वतंत्रता) के तहत अपने अधिकार का दुरुपयोग कर रहे हैं। अब आप अनुच्छेद 32 के तहत अपने अधिकार (सीधे सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने का अधिकार) का इस्तेमाल कर रहे हैं। क्या आप नहीं जानते कि आपने जो कहा उसका परिणाम क्या होगा? आप आम आदमी नहीं हैं। आप मंत्री हैं। आपको परिणाम जानना चाहिए। ’ (bbc.com/hindi)
कंवल भारती
रैदास साहेब की राज्य की अवधारणा आज इसलिए प्रासंगिक है, क्योंकि आज आरएसएस और भाजपा एक ऐसे हिंदू राज्य का निर्माण कर रहे हैं, जिसमें वर्णव्यवस्था को लागू करने का गुप्त एजेंडा निहित है। इस सरकार की जनविरोधी नीतियों और विनिवेश की योजनाओं ने करोड़ों लोगों का रोजगार खत्म करके उन्हें भूखों मरने के लिए असहाय छोड़ दिया है। बता रहे हैं कंवल भारती
एक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा-
ऐसा चाहूँ राज मैं जहाँ मिलै सबन को अन्न।
छोट बड़ो सभ सम बसै रैदास रहे प्रसन्न।।*
-संत रैदास
हिंदू राज्य की स्थापना पर डॉ. आंबेडकर की चेतावनी-
यदि हिंदू राज की स्थापना सच में हो जाती है, तो निस्संदेह यह इस देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य होगा। चाहे हिंदू कुछ भी कहें, हिंदूधर्म स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लिए एक खतरा है। यह लोकतंत्र के लिए असंगत है। किसी भी कीमत पर हिंदू राज को स्थापित होने से रोका जाना चाहिए।
-डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर
रैदास साहेब की उपर्युक्त साखी में एक ऐसे कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना निहित है, जो 600 साल के बाद भी प्रासंगिक है। यह परिकल्पना उस दौर में की गई थी, जब भारत में राजशाही थी। समाज में असमानता और अमीरी-गरीबी अपने चरम पर थी। कबीर के शब्दों में कोई महलों में पलंग-निवाड़ी पर सोता था, तो एक बड़ी आबादी को छप्पर और पुआल का बिछौना भी नसीब नहीं था। किसी के द्वार पर हाथी बंधा होता था, तो बहुत से गरीब लोग अपने बाल-बच्चों तक को बेचकर गुजारा कर रहे थे।
भारत में कानूनन स्वतंत्रता और समानता आने में अभी चार सदियों की देर थी। लेकिन भारत में वैदिक काल से ही स्वतंत्रता और समानता की पक्षधर विचारधारा का अस्तित्व रहा है। कबीर और रैदास उसी परंपरा के अनुयायी थे, जिन्होंने पूरी निडरता और साहस के साथ हर तरह की विषमता और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई थी, और परिवर्तन के लिए जनता को जागरूक किया था।
यह रैदास साहेब की मानवीय चेतना थी, जो उन्होंने एक कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना पंद्रहवीं शताब्दी में ही कर ली थी। ऐसी परिकल्पना वही व्यक्ति कर सकता है, जो अपने समय की राज्य-व्यवस्था से पीडि़त समुदाय का द्रष्टा और भोक्ता दोनों हो, या उस वर्ग से आता हो, जो राज्य की सुविधाओं से वंचित हो। तुलसीदास सोलहवीं शताब्दी में भी ऐसे कल्याणकारी राज्य की कल्पना नहीं कर सके थे, जबकि वह खुद भी दर-दर के भिखारी थे। तुलसी के समय में भी लोगों को दिन-रात मेहनत करने के बावजूद भरपेट खाना नहीं मिलता था। लेकिन तुलसी ने वर्णव्यवस्था को ही आदर्श व्यवस्था माना और सुख-दुख, अमीरी-गरीबी और ऊंच-नीच को पूर्वजन्म के कर्मों का परिणाम कहा। अगर एक-तिहाई आबादी को भरपेट रोटी नहीं मिल रही थी, तो यह तुलसी जैसों की नजर में राज्य-व्यवस्था का दोष नहीं था, बल्कि लोगों के पूर्वजन्म के कर्मों का दोष था। इसलिए एक समावेशी कल्याणकारी राज्य की कल्पना उनके लिए असंभव थी। यहां तक कि वर्णव्यवस्था के विरुद्ध शूद्रों की शिक्षा और बगावत को भी वह कलियुग का दुष्प्रभाव मानते थे।
लेकिन वर्णव्यवस्था का खंडन करने वाले रैदास साहेब ने तुलसी से भी सौ साल पहले यह बता दिया था कि अमीरी-गरीबी और सुख-दुख पूर्वजन्मों का कर्मफल नहीं, बल्कि उसके लिए राज्य की कुव्यवस्था जिम्मेदार है। अगर लोगों को भरपेट खाना नहीं मिल रहा है, तो इसलिए कि राज्य की व्यवस्था कल्याणकारी नहीं है। राज्य की कृपा दीनदुखियों और गरीबों पर नहीं है।
इसलिए रैदास का यह सुचिंतित प्रश्न है कि एक राज्य को कैसा होना चाहिए? उन्होंने कहा कि राज्य ऐसा होना चाहिए, जिसमें राज्य का कोई भी प्राणी भूखा न मरे। यह तभी होगा, जब राज्य अपनी समस्त प्रजा के लिए अन्न की व्यवस्था करेगा। अगर राज्य के सभी लोगों को अन्न सुलभ नहीं हो पा रहा है, तो वह राज्य कल्याणकारी राज्य नहीं हो सकता, वरन प्रजा पर अत्याचार करने वाला राज्य होगा।
सर्वसुलभ का मतलब यह नहीं है कि राज्य जनता को मुफ्त अनाज वितरण करे, बल्कि इसका मतलब यह है कि राज्य के लोगों की आय इतनी होनी चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति आसानी से अनाज खरीद सके। अगर अन्न प्राप्त करने की सामर्थ्य केवल धनी लोगों तक ही सीमित होगी, तो शेष प्रजा अभावग्रस्त ही रहेगी और अपना पेट नहीं भर सकेगी।
रैदास जी की राज्य की अवधारणा में केवल यही नहीं है कि सबके लिए अनाज सुलभ हो, बल्कि यह भी है कि राज्य में छोटे-बड़े के बीच किसी तरह का कोई भेदभाव न हो – न सामाजिक और न आर्थिक। वे सम बसें, अर्थात पूरी समानता के साथ रहें। यह भेदभाव न हो कि जो बड़े लोग हैं, उनको विशेषाधिकार प्राप्त हों, और जो छोटे लोग हैं, उनका दमन हो और उन्हें सम्मान भी प्राप्त न हो।
रैदास साहेब की राज्य की यह अवधारणा इतनी क्रांतिकारी है कि इसमें स्वतंत्रता और समानता के उन मूलभूत अधिकारों की पैरवी की गई है, जिसकी व्याख्या हमें पश्चिम के लोकतंत्र-प्रणाली में मिलती है। हालाँकि वह राजनीतिक पराधीनता का दौर था, किंतु पराधीनता के दौर में भी उच्च वर्गों के लोग स्वाधीन और आत्मनिर्भर थे, जबकि मेहनत करके कमाने-खाने वाले किसान, चर्मकार, कुम्हार, तेली, लुहार आदि उत्पादक लोग न स्वाधीन थे और न आत्मनिर्भर। वे इस कदर पराधीन और गुलाम थे कि वे अपनी बदहाली के खिलाफ फरियाद भी नहीं कर सकते थे। उन्हें न सम्मान मिलता था और ना ही प्यार। ऐसे लोगों को सभी नीच समझते थे। इन शोषित लोगों के प्रति रैदास साहेब के अंदर गहरी सहानुभूति थी। उन्होंने कहा-
पराधीन का दीन क्या, पराधीन बेदीन।
रैदास पराधीन को, सभ ही समझें हीन।
बहुत ही मार्मिक बात रैदास जी ने इस साखी में कही है। वे सिर्फ यही नहीं कहते कि जो पराधीन है, उसका कोई धर्म नहीं है, क्योंकि धर्म स्वाधीनों का ही होता है, बल्कि वे यह भी कहते हैं कि जो पराधीन हैं, उन्हीं को लोग नीच समझते हैं। रैदास साहेब का यह विचार राजनीतिक पराधीनता को लेकर नहीं है, बल्कि आर्थिक पराधीनता को लेकर है। राजनीतिक रूप से पूरा देश पराधीन था। पर सामाजिक और खासतौर से आर्थिक रूप से निम्न वर्गों के मेहनतकश लोग ही पराधीन थे। वस्तुत: रैदास ने इस साखी में वर्णव्यवस्था पर प्रहार किया है, जिसने शूद्र वर्ग को द्विजों के अधीन करके रखा था। इन्हीं पराधीनों को रैदास ने ‘बेदीन’ कहा है। अर्थात वे लोग, जो धर्म-रहित या बेधरम हैं। चूंकि वे लोग बेदीन थे, इसीलिए उन्हें स्वतंत्रता और समानता के अधिकारों से वंचित रखा गया।
रैदास साहेब की राज्य की अवधारणा आज इसलिए प्रासंगिक है, क्योंकि आज आरएसएस और भाजपा एक ऐसे हिंदू राज्य का निर्माण कर रहे हैं, जिसमें वर्णव्यवस्था को लागू करने का गुप्त एजेंडा निहित है। इस सरकार की जनविरोधी नीतियों और विनिवेश की योजनाओं ने करोड़ों लोगों का रोजगार खत्म करके उन्हें भूखों मरने के लिए असहाय छोड़ दिया है। इस सरकार में लोगों की पहुंच से सिर्फ शिक्षा, दवाइयां और न्याय ही बाहर नहीं हो गए हैं, बल्कि दाल-रोटी भी पहुंच से दूर हो गई है। हिंदू राज्य भारत के लोकतंत्र के लिए, स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व के सिद्धांतों के लिए न केवल खतरनाक है, बल्कि देश की एकता के लिए भी घातक है। डॉ. आंबेडकर ने 1940 में ही इस खतरे को महसूस कर लिया था, इसलिए उन्होंने देशवासियों को चेतावनी दी थी कि एक कल्याणकारी राज्य के हित में हिंदू राज्य को स्थापित होने से रोकना होगा। (फॉरवर्डप्रेस)
ऋत्विक दत्ता
हम साल 2024 में हैं। कई क्षेत्रों में महिलाओं की प्रगति के बावजूद ये सवाल कायम है कि स्वास्थ्य, कार्यस्थल, कारोबार और राजनीति में महिलाओं की मौजूदा स्थिति क्या है?
पिछले वक्त की तुलना में भारत की महिलाएं प्रगति कर पा रही हैं या नहीं, ये जानने और हमने उभरते हुए ट्रेंड को समझने के लिए भारत सरकार के डेटा का विश्लेषण किया।
अगर हम अलग-अलग क्षेत्रों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की बात करें तो भारत सरकार के डेटा से ये पता चलता है कि पिछले कुछ सालों की तुलना में इसमें सुधार हुआ है।
हालांकि, विश्लेषक मानते हैं कि अगर करीब से इस पर नजर रखी जाए तो अभी भी सुधार की गुंजाइश है।
हमने कुछ क्षेत्रों में महिलाओं की मौजूदगी की समीक्षा की ताकि विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं के प्रतनिधित्व को समझा जा सके।
श्रमशक्ति में महिलाएं
सरकार नियमित समय पर श्रमिकों का सर्वे कराती है। इसके डेटा से ये पता चलता है कि श्रमशक्ति में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ा है।
साल 2017-18 में श्रमिकों में महिलाओं की हिस्सेदारी 23.3 प्रतिशत थी जो साल 2020-21 में बढक़र 32.5 प्रतिशत हो गई है।
भारत में श्रमिक महिलाओं की संख्या बढ़ी है लेकिन ये चुनौतियों के बीच एक उम्मीद की तरह ही नजऱ आती है।
बढ़ी हुई संख्या के बावजूद, हज़ारों महिलाएं ऐसी हैं, जिन्होंने कोविड के दौरान और बाद में काम छोड़ दिया। आबादी के अनुपात में पुरुषों की बराबरी में पहुंचने के लिए महिला श्रमिक अब भी संघर्ष कर रही हैं।
आंबेडकर यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर दीपा सिन्हा असंगठित क्षेत्र में श्रमिकों से जुड़े सटीक डेटा की कमी को रेखांकित करते हुए कहती हैं कि इसी वजह से श्रमिकों के लैंगिग अनुपात को समझना और भी जटिल हो जाता है।
शिक्षा पूरी करने के बावजूद बच्चों को जन्म देने, मातृत्व अवकाश और बराबर वेतन जैसी चुनौतियों की वजह से कर्मचारियों में महिलाओं की मौजूदगी अब भी चुनौतीपूर्ण बनी हुई है।
डॉ. सिन्हा ज़ोर देकर कहती हैं, ‘बहुत सी महिलाएं या तो अपनी मर्जी से या फिर दबाव में शिक्षा और काम छोड़ देती हैं और इसी वजह से नेतृत्व वालों पदों पर उनका प्रतिनिधित्व और कम हो जाता है।’
वो कहती हैं कि निर्णय लेने वालों पदों में बदलाव रातोरात नहीं हो पाएगा लेकिन कार्यस्थलों पर लैंगिक बराबरी के साथ बेहतर और सुरक्षित माहौल बनाना ज़्यादा महत्वपूर्ण है।
एसटीईएम में पुरुषों से आगे निकली महिलाएं
उच्च शिक्षा पर अखिल भारतीय सर्वे के सबसे ताज़ा डेटा से पता चला है कि शैक्षणिक वर्ष 2020-21 में भारत में 29 लाख से अधिक महिलाओं ने एसटीईएम (विज्ञान, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग और गणित) विषयों में दाखिला लिया है। ये संख्या पुरुषों से अधिक है। इसी दौरान 26 लाख पुरुषों ने इन विषयों में दाखिला लिया।
2016-17 में एसटीईएम विषयों में दाखिले के मामले में महिलाएं पुरुषों से पीछे थीं। हालांकि साल 2017-18 में इन विषयों में महिलाओं की संख्या बढ़ी और अगले ही साल यानी 2018-19 में महिलाओं ने इन विषयों में दाखिला लेने के मामले में पुरुषों को पीछे छोड़ दिया।
ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट के मुताबिक भारत में कुल एसटीईएम कर्मचारियों में महिलाएं 27 प्रतिशत हैं। हालांकि अब भी पुरुषों और महिलाओं के वेतन में गैर बराबरी बहुत ज़्यादा है।
लैंगिग वेतन असामनता के मामले में भारत 146 देशों की सूची में 127वें नंबर पर है।
प्रोफेसर दीपा सिन्हा कहती हैं कि एसटीईएम विषयों में लैब तक पहुंच और प्रयोग करना बेहद अहम होता है।
दीपा सिन्हा ज़ोर देकर कहती हैं कि ऐसे संसाधनों तक महिलाओं की पहुंच इस क्षेत्र में महिलाओं की प्रगति को बनाये रखती है।
इस सेक्टर में देर रात तक कार्यस्थलों पर सुरक्षा चिंताओं पर ध्यान दिया जाना चाहिए और नीति निर्माताओं को और अधिक जि़म्मेदार होना चाहिए।
संसद में प्रतिनिधित्व
भारतीय संसद के निचले सदन लोकसभा में साल 1999 में 48 महिला सदस्य थीं जिनकी तादाद साल 2019 में बढक़र 78 पहुंच गई। इसके बाद हुए कुछ स्थानीय चुनावों और उपचुनावों की वजह से ये संख्या और भी बढ़ गई है।
राज्यसभा में भी ऐसा ही ट्रेंड देखने को मिल रहा है। राज्यसभा के लिए नामित होने वाली महिलाओं की संख्या साल 2012 में 9.8 प्रतिशत से बढक़र साल 2021 में 12.4 प्रतिशत तक पहुंच गई।
हालांकि इससे राजनीति में महिलाओं का प्रतिनिधित्व भले ही बढ़ता हुआ दिख रहा है लेकिन पुरुषों की तुलना में ये भी भी बहुत कम ही है।
इकोनॉमिक फ़ोरम की जेंडर पे गैप रिपोर्ट के मुताबिक़ महिलाओं के राजनीतिक सशक्तीकरण के मामले में भारत 146 देशों की सूची में 56वें नंबर पर है।
ग़ौरतलब है कि बांग्लादेश ने महिलाओं के राजनीतिक सशक्तीकरण में भारत को पीछे छोड़ते हुए शीर्ष दस देशों में स्थान हासिल किया है।
बिजनेस स्टैंडर्ड की कंसल्टिंग एडिटर और वरिष्ठ पत्रकार राधिका सामाशेषन कहती हैं कि देश में हुए पहले चुनाव से लेकर अब तक राजनीति में महिलाओं की मौजूदगी में इजाफा हुआ है हालांकि अब भी भारत में महिलाओं को अपनी आबादी के हिसाब से संसद में प्रतिनिधित्व नहीं मिला है।
रामाशेषन कहती हैं कि ये सिर्फ किसी एक राजनीतिक दल तक ही सीमित नहीं हैं। साथ ही, महिला आरक्षण विधेयक अब भी क़ानून नहीं बना है और इसी वजह से राजनीतिक दलों में अभी ये लागू नहीं हो सका है।
स्वास्थ्य
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के ताजा डेटा के मुताबिक़ भारत में अब 18 प्रतिशत महिलाओं का बीएमआई (बॉडी मास इंडेक्स ) अभी कम है। हालांकि साल 2015-16 में ये 22.9 प्रतिशत था।
हालांकि, कम वजऩ वाली महिलाओं की संख्या भले ही कम हुई है लेकिन मोटापा पुरुषों के मुकाबले में महिलाओं में अधिक प्रचलित है। सर्वे से पता चलता है कि भारत में 24 प्रतिशत महिलाएं मोटापे का शिकार हैं जबकि पुरुषों में ये संख्या 22.9 प्रतिशत है।
पोषण से जुड़ी चिंताओं के साथ-साथ, डेटा से पता चलता है कि महिलाओं के सभी आयु वर्गों में एनीमिया लगातार बढ़ रहा है।
भारत में 15-49 आयु वर्ग की 57।2 प्रतिशत महिलाएं एनीमिक हैं, ये साल 2015-16 में 53.2 प्रतिशत था। इसी आयु वर्ग की गर्भवती महिलाओं में आयरन की कमी दिखाई देती है।
सेंटर फॉर सोशल मेडिसिन एंड कम्यूनिटी हेल्थ से जुड़ी डॉ। स्वाति एचआईवी फिज़़ीशियन हैं। डॉ। स्वाति कहती हैं कि चिकित्सा शिक्षा को सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से कुछ स्वास्थ्य मुद्दों को देखने में अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।
भारत जैसे देश में जहां खाद्य ज़रूरतें पूरा करने के मामले में पुरुषों को प्राथमिकता दी जाती है, एनीमिया पोषण की कमी और गऱीबी की वजह से भी होता है। इसकी वजह से महिलाएं सभी ज़रूरी पोषक तत्व हासिल नहीं कर पाती हैं और एनीमिया और कुपोषण की शिकार महिलाओं की तादाद बढ़ जाती है। (bbc.com/hindi)
नाजिया खान
आप बहुत टैलेंटेड हैं, इंटेलिजेंट हैं, बढिय़ा प्रेज़ेंस ऑफ माइंड है, सेंस ऑफ ह्यूमर है, पॉपुलर हैं, ख़ूबसूरत हैं, मिलनसार हैं, स्ट्रेटफॉर्वर्ड हैं, डिप्लोमेटिक हैं, कूटनीतिज्ञ हैं, सक्सेसफुल हैं, वेल-सेटल्ड हैं, स्ट्रेटेजिक हैं, सीधे-सादे हैं, हुनरमंद हैं...
इनमें से एक या अनेक, जो भी क्वालिटीज़ आपमें मौजूद है, लोग जिनकी वजह से आपकी ओर आकर्षित होते हैं, आपको दूर से विस्मय से निहारते रहते हैं, आपके प्रशंसक बन जाते हैं, आपके कऱीब आना चाहते हैं। अगर उनको आपने अपने पर्सनल स्पेस में थोड़ी भी जगह दे दी, तो फिर वे फैलने लगते हैं, कब्ज़ा जमाने लगते हैं। कालांतर में, आपकी उन्हीं विशेषताओं से चिढऩे-कुढऩे लगते हैं, जिनसे आकृष्ट होकर आपकी ओर बढ़े थे। आप बाउंड्री सेट करने की कोशिश करेंगे तो फिर वे आपको चोट पहुँचाने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ेंगे, आपकी रेप्यूटेशन, आपकी मेंटल हेल्थ सब चौपट करना चाहेंगे।
वहीं दूसरी ओर जब आप किसी से प्रभावित होकर उसकी तरफ़ बढ़ते हैं और उसे जानने-समझने की कोशिश करते हैं और पाते हैं कि वह वैसा है ही नहीं, जैसा आपने सोचा था या जैसा उसने ख़ुद को प्रेज़ेंट किया हुआ है, जो आभामंडल उसके इर्द-गिर्द बना है, नक़ली है, तब भी आप ठगा सा महसूस करते हैं। लोगों की प्रोफेशनल लाइफ, पर्सनल लाइफ से अलग होती है। कथनी और करनी जैसे ही लेखनी और करनी में भी फक़ऱ् होता है। बड़ी-बड़ी बातें करने वाले,असल में उतने बड़े होते नहीं। किसी से बहुत जल्दी प्रभावित मत होइए। चकाचौंध और भेड़चाल में अंधे मत होइए। फैन हैं किसी के तो उससे सेफ डिस्टेंस मेंटेन रखिये, बहुत घुसने की कोशिश मत कीजिये ताकि फैनडम बरकऱार रहे। बन्द मुट्ठी लाख की, खुल गई तो ख़ाक की।
चन्द्रशेखर गंगराड़े
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस
प्रत्येक वर्ष पूरी दुनिया में 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है. इस अवसर पर विश्व की समस्त नारी शक्ति को बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएँ। आधिकारिक रूप से इसकी शुरूआत वर्ष 1921 में हुई लेकिन इसकी अनौपचारिक शुरूआत वर्ष 1909 में ही 28 फरवरी को न्यूयॉर्क में हो गई थी. वर्ष 1910 में इंटरनेशनल सोशलिस्ट कांग्रेस द्वारा महिला दिवस को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मनाने का निर्णय किया गया. 19 मार्च, 1911 को पहला अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस आयोजित किया गया बाद में 1921 में 19 मार्च के स्थान पर 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का आयोजन किया जाने लगा। इसके साथ ही संयुक्त राष्ट्र की आम सभा द्वारा भी वर्ष 1975 से 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाने की शुरूआत की गई।
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के आयोजन एवं इसे मनाने का मुख्य उद्देश्य, महिलाओं के अधिकारों का संरक्षण, समाज में उनको समानता का अवसर देना तथा उनके प्रति सम्मान प्रकट करना है. एक पुरूष होने के नाते भी मुझे यहां यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि न केवल विश्व में, अपितु भारत में भी महिलाओं की जनसंख्या लगभग आधी है लेकिन पूर्व में उन्हें पुरूषों के समक्ष, अधिकारों, समानता एवं सम्मान से वंचित रखा गया और यही कारण है कि महिलाओं को अपना अधिकार पाने के लिए आंदोलन करना पड़ा, तब जाकर उन्हें अनेक क्षेत्रों में उनके अधिकार प्राप्त हुए और समानता का अवसर भी मिला. हालांकि अभी-भी इस क्षेत्र में काफी कुछ किया जाना है.
भारतीय प्राचीन संस्कृति में महिलाओं के महत्व का काफी उल्लेख मिलता है और हमारे वेदों में यहां तक उल्लेख किया गया है कि- ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता:’ अर्थात् जहां नारियों की पूजा होती है, वहां देवताओं का वास होता है। सनातन धर्म में भी बुद्धि, लक्ष्मी और शक्ति की प्रतीक देवियां ही हैं. जिनकी हम आराधना कर उनसे बल, बुद्धि एवं ऐश्वर्य प्राप्ति की प्रार्थना करते हैं।
समाज ने जैसे-जैसे महिलाओं की भागीदारी एवं उनकी महत्ता का अनुभव किया, राज्य सरकारों एवं केंद्र सरकार ने भी महिलाओं पर केंद्रित विभिन्न योजनाओं को लागू करना प्रारंभ किया जिससे महिलायें आर्थिक रूप से सुरक्षित रहें और जब महिलायें आर्थिक रूप से सुरक्षित एवं आत्मनिर्भर रहेंगी, तब उनका समाज में आदर एवं सम्मान भी रहेगा. महिलाओं की शक्ति को समझते हुए देर से ही सही भारत सरकार ने भी संसद एवं विधान सभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत स्थान आरक्षित करने का विधेयक पास कर दिया है, जिसके वर्ष 2029 में प्रभावशील होने की संभावना है। समाज के सर्वांगीण विकास में महिलाओं के योगदान को देखते हुए ही वर्ष 2024 में मनाये जाने वाले अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की थीम-
‘इन्वेस्ट इन वुमन : एक्सीलेरेट प्रोग्रेस’
अर्थात् महिलाओं में निवेश करें : प्रगति में तेजी लायें।
इस ध्येय वाक्य से ही महिलाओं की महत्ता स्थापित हो जाती है जिसका आशय है कि यदि किसी राष्ट्र को तरक्की करना है तो महिलाओं की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। भारतीय संस्कृति एवं समाज में महिलाओं का जो योगदान रहा है, उसकी महत्ता से इंकार नहीं किया जा सकता। महिलायें जिस कुशलता से अपने घर-परिवार की देखभाल करती हैं और बच्चों को जो संस्कार देती हैं, इससे वे अप्रत्यक्ष रूप से देश के भविष्य के निर्माण में अपना योगदान देती हैं।
गृह-कार्य में उनके प्रबंधन को जो स्तर रहता है, उसका सीधा प्रभाव यदि वे राजनीतिक एवं प्रशासनिक क्षेत्र में कार्यरत हैं तो उनकी कार्य संस्कृति में परिलक्षित होता है एवं राजनीतिक तथा प्रशासनिक क्षेत्र में भी शुचिता परिलक्षित होती है जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव देश के आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक विकास पर पड़ता है।
यद्यपि शासकीय सेवाओं में महिलाओं के लिए स्थान राज्य सरकारों द्वारा आरक्षित किए गए हैं और स्थानीय प्रशासन अर्थात् ग्राम-पंचायत, नगर-पंचायत, नगर-पालिका एवं नगर-निगमों में भी महिलाओं के लिए स्थान आरक्षित हैं लेकिन लोक सभा एवं विधान सभाओं में स्थान आरक्षित न होने के बावजूद, महिलाओं ने राजनैतिक क्षेत्र में अपनी जो अच्छी-खासी उपस्थिति दर्ज की है, यह उनके संघर्ष, साहस तथा आत्मविश्वास का द्योतक है। और मुझे विश्वास है कि जिस देश में महिलाओं को सम्मान मिलेगा और जिस देश की महिलायें जागरूक और आत्मनिर्भर होंगी वह देश विकास के पथ पर सदैव अग्रसर रहेगा।
पूर्व प्रमुख सचिव
छत्तीसगढ़ विधानसभा
साल 2006 में शांति का नोबेल पुरस्कार जीतने वाले प्रोफेसर मोहम्मद यूनुस को लगता है कि 2007 में बांग्लादेश में सैन्य समर्थित कार्यवाहक सरकार के दौरान एक राजनीतिक पार्टी बनाने की उनकी पहल एक ग़लती थी।
प्रोफेसर यूनुस को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ‘गरीबों के बैंकर’ के तौर पर जाना जाता है। बीबीसी बांग्ला को दिए एक इंटरव्यू में प्रोफेसर यूनुस ने दावा किया कि उस समय सेना समर्थित सरकार के अनुरोध के बावजूद उन्होंने सरकार का मुखिया बनना स्वीकार नहीं किया था। बाद में सबके अनुरोध पर उन्होंने राजनीतिक पार्टी बनाने की पहल की थी। लेकिन इस पहल के दस सप्ताह के भीतर ही वो पीछे हट गए थे।
बीबीसी बांग्ला से बातचीत में उन्होंने सवाल किया कि क्या दस सप्ताह के उस घटनाक्रम का खामियाजा उन्हें जिंदगीभर भुगतना होगा?
प्रोफेसर यूनुस ने उस समय ‘नागरिक शक्ति’ नामक राजनीतिक पार्टी बनाने की पहल की थी।
बीबीसी बांग्ला के संपादक मीर शब्बीर के साथ कऱीब एक घंटे की बातचीत के दौरान इस नोबेल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री ने अपने खिलाफ चलने वाले मामलों, अपनी संस्था पर जबरन कब्जे के आरोप, बांग्लादेश चुनाव और लोकतांत्रिक व्यवस्था के अलावा पद्मा सेतु की फंडिंग रोकने की घटना समेत तमाम मुद्दों पर खुलकर जवाब दिया।
प्रोफेसर ने बताया कि उनके खिलाफ सौ से ज़्यादा मामले चल रहे हैं। उनमें सजा हुई है। एक मामले में वो जमानत पर हैं। इसका असर उनके निजी जीवन पर भी पड़ा है।
वह कहते हैं, ‘निजी जीवन में सब कुछ तहस-नहस हो गया है। मेरी पत्नी डिमेंशिया की मरीज़ है। वह मेरे अलावा किसी को नहीं पहचानती। उसकी देखभाल का पूरा जिम्मा मुझ पर है। इस परिस्थिति में अगर जेल में रहना पड़ा तो उनकी क्या हालत होगी?’
मामले और जेल की सजा
प्रोफेसर यूनुस और उनकी संस्था के ख़िलाफ़ श्रम कानूनों के उल्लंघन और भ्रष्टाचार निरोधक आयोग के समक्ष मनी लॉन्ड्रिंग समेत जो सौ से ज़्यादा मामले हैं उनमें से एक में छह महीने की सजा हुई है। कई मामलों की अब भी सुनवाई चल रही है।
इन मामलों के कारण उनको क़ानूनी लड़ाई में बहुत समय देना पड़ता है। उन्होंने बीबीसी बांग्ला से कहा, ‘मैं किसी योजना का कार्यक्रम तैयार नहीं कर पाता। मेरे और मुझसे जुड़े लोगों के जीवन में एक तरह की अनिश्चितता पैदा हो गई है।’
बांग्लादेश के ग्रामीण बैंक के संस्थापक
प्रोफेसर बताते हैं कि ग्रामीण के संस्थानों से वह कोई वेतन-भत्ता नहीं लेते, वह अवैतनिक रूप से वहां काम करते हैं।
वह कहते हैं, ‘इन संस्थानों को तैयार करने में ही मेरा जीवन बीत गया। मेरा परिवार ख़त्म हो गया। मेरे पुत्र-पुत्रियों का भविष्य नष्ट हो गया। अब लोग मुझसे डरते हैं। मैं एक सजायाफ्ता हूं।’
संस्थान पर क़ब्ज़ा?
प्रोफेसर यूनुस ने इस साल फऱवरी में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में अपने संस्थान ग्रामीण टेलीकॉम और ग्रामीण कल्याण समेत आठ संस्थानों पर जबरन कब्ज़े करने का आरोप लगाया था। यह तमाम संस्थान ढाका के मीरपुर में चिडिय़ाखाना रोड पर स्थित टेलीकॉम भवन में थे।
लेकिन अब उन संस्थानों की क्या स्थिति है? इस सवाल पर उनका कहना था, ‘फिलहाल हम लोग यहां हैं। लेकिन यह नहीं पता कि भविष्य में क्या होगा। अचानक कुछ लोग वहां पहुंचे और शोरगुल करने लगे। नियम कानून की परवाह किए बिना वो सबको आदेश देने लगे।’
वो बताते हैं कि उन लोगों ने ग्रामीण बैंक से चि_ी लाने का दावा कर चेयरमैन से लेकर सब कुछ बदलने की बात कह कर अधिकारियों और कर्मचारियों को डरा दिया था। इसके जरिए उन्होंने एक डरावना माहौल भले बना दिया, लेकिन अब कब्जा करने के लिए आने वाले लोग इस संस्थान में नजर नहीं आते।
क्या अब जबरन दखल का मामला ख़त्म हो गया है? इस सवाल पर प्रोफेसर यूनुस ने बताया, ‘फिलहाल ऐसा कुछ हमें नजर नहीं आ रहा है। भीतर-भीतर हो भी सकता है। हमें तो यह भी नहीं पता कि कल क्या होगा।’
ग्रामीण बैंक से प्रतिद्वंद्विता क्यों?
प्रोफेसर मोहम्मद यूनुस और ग्रामीण बैंक को साल 2006 में संयुक्त रूप से नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। नोबेल विजेता संगठन और नोबेल विजेता व्यक्ति के बीच शत्रुतापूर्ण संबंध कैसे बने?
इसके जवाब में नोबेल विजेता अर्थशास्त्री ने कहा, ‘क्या यह एक अनूठा मामला नहीं है? इसे एक मजबूत संबंध होना चाहिए था। अब उसी संस्थान का नाम लेकर उग्र रूप से हमला करने आ रहे हैं। ऐसा क्यों हो रहा है?’
मोहम्मद यूनुस ने साल 2011 में ग्रामीण बैंक की जिम्मेदारी छोड़ दी थी। इसके कऱीब 13 साल बाद बीती फरवरी में एक गुट ने उसी ग्रामीण बैंक पर कब्जे का प्रयास किया।
प्रोफेसर यूनुस बीबीसी बांग्ला को दिए इंटरव्यू में कहते हैं, ‘बांग्लादेश में नोबेल पुरस्कार आया। सबके मन में बेहद खुशी थी। लोगों में लंबे समय तक यह खुशी बनी रही। इसकी याद बांग्लादेश के लोगों के मन में गहराई तक बसी हुई है।’
उनका कहना था कि नोबेल तो कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसकी खोज मैंने की है, यह पूरी दुनिया में स्वीकार्य है।
क्या इस शत्रुतापूर्ण रिश्ते को सुधारने के लिए कोई पहल की गई थी? इस सवाल पर उनका कहना था, ‘नहीं, मेरे साथ कोई संपर्क नहीं किया गया। हमारी ओर से रिश्ते में कोई दरार नहीं पैदा की गई है।’
‘अब कौन किसका ख़ून चूस रहा है?’
ग्रामीण बैंक ने माइक्रो क्रेडिट की अवधारणा के माध्यम से पूरी दुनिया में असर छोड़ा था। प्रोफ़ेसर यूनुस की इस अवधारणा के कारण ही उनको और ग्रामीण बैंक को साल 2006 शांति का नोबेल मिला था। लेकिन उसके बाद सत्तारूढ़ अवामी लीग और प्रधानमंत्री ने कथित रूप से कई बार यूनुस को ‘सूदखोर’ कहा था, अलग-अलग समय पर मीडिया में ऐसी खबरें छपती रही हैं।
प्रोफेसर यूनुस ने इस मुद्दे पर भी अपनी बात रखी। वह कहते हैं, ‘हम खून चूसने वाले हैं। ठीक है, हम यही सही। जब हमने माइक्रो क्रेडिट के मुद्दे पर काम शुरू किया तब लोग हमें खून चूसने वाला कहते थे। अब तो सब लोग यही व्यापार कर रहे हैं। सरकार नियम नीति बना कर पैसे दे रही है। अब कौन किसका खून चूस रहा है?’
उनका कहना था, ‘मुझे कई बार सूदखोर कहा गया है। सुनकर तकलीफ़ होती है। जो व्यक्ति बांग्लादेश के लिए नोबेल पुरस्कार ले आया, उसे प्रधानमंत्री ऐसे अपमानित करेंगी, यह तो किसी को अच्छा नहीं लगेगा। यह तो देश को लोगों को भी पसंद नहीं आना चाहिए।’
‘अगर आप एक बात बार-बार कहेंगे तो वह लोगों के मन में बैठ जाएगी। लोगों को लगेगा कि यह अच्छा आदमी नहीं हैं। देश का नुकसान कर रहे हैं। लोग तो मेरी ओर देखकर कहते हैं कि यह सूदखोर है, इसे पकड़ो।’
मोहम्मद यूनुस अफसोस जताते हुए कहते हैं, ‘मुझे भी यह जानने की इच्छा होती है कि वह लोग ऐसी बातें क्यों कहते हैं। मुझे लोगों को अपमानित करने के अलावा इसका दूसरा कोई उद्देश्य नजर नहीं आता।’
उन्होंने दूसरे बैंकों के साथ ग्रामीण बैंक की ब्याज दर के अंतर का भी जिक्र किया। वह कहते हैं, ‘ग्रामीण बैंक का 75 प्रतिशत मालिकाना हक सदस्यों के पास है। तो अगर ब्याज खाते भी हैं तो गऱीब और महिलाएं ही खा रही हैं। लेकिन बीच में मैं सूदखोर हो गया? मुझे निजी तौर पर सूदखोर क्यों कहा जा रहा है? ग्रामीण बैंक के ब्याज की दर सबसे कम है। ब्याज की दर नियंत्रित करने का अधिकार माइक्रो क्रेडिट अथॉरिटी के पास है जो सरकारी संस्था है।’
वन इलेवन की घटना पर सवाल
साल 2007 में वन इलेवन के बाद सेना के समर्थन वाली कार्यवाहक सरकार के कार्यकाल में मोहम्मद यूनुस बांग्लादेश की राजनीति में काफ़ी अहम हो गए थे। तब पूर्व प्रधानमंत्री बेगम ख़ालिदा जिय़ा और मौजूदा प्रधानमंत्री शेख़ हसीना से इतर एक राजनीति की कोशिश हो रही थी। उस समय प्रोफ़ेसर यूनुस के नेतृत्व में एक राजनीतिक पार्टी बनाने की चर्चा भी जोरों पर थी।
प्रोफेसर यूनुस ने इस मुद्दे पर कहा, ‘उस समय सेना तो मेरे पास ही आई थी। उसने मुझे सरकार का मुखिया बनने का प्रस्ताव दिया था। कहा था कि आप बांग्लादेश की सत्ता संभालिए। मैंने इससे मना कर दिया। मैं तो राजनीति नहीं करता। मैं राजनीति का आदमी नहीं हूं।’
उन्होंने ऐसी परिस्थिति में नागरिक शक्ति नामक एक पार्टी बनाने की पहल करने की बात कही।
उनका कहना था, ‘मुझे कई तरह के दबाव में डाला गया। तब मैंने सबको पत्र भेजा और सबसे राय लेता रहा। इसके समर्थन और विरोध में कई प्रस्ताव मिले। पार्टी के नाम पर कौतूहल था। तब मैंने नागरिक शक्ति नाम दिया। बाद में मैंने कह दिया कि अब और राजनीति में नहीं रहूंगा, मैं राजनीति नहीं करना चाहता।’ (बाकी पेज 8 पर)
अब मोहम्मद यूनुस मानते हैं कि राजनीतिक पार्टी बनाने का फैसला गलत था।
बांग्लादेश चुनाव और लोकतंत्र
बांग्लादेश का बारहवां राष्ट्रीय चुनाव हाल में संपन्न हुआ है। अवामी लीग ने लगातार चौथी बार जीत हासिल कर सरकार का गठन किया है। लेकिन उस चुनाव से पहले यूनुस के हवाले कार्यवाहक सरकार के सत्ता में आने की बात भी सुनने में आ रही थी। लेकिन उनका कहना था कि वह सब अफवाह थी।
चुनाव के बाद सरकार के गठन के बावजूद उनको लगता है कि देश में अब भी लोकतंत्र पर एक तरह का संकट है।
उन्होंने बीबीसी बांग्ला से कहा, ‘हम फिलहाल लोकतंत्रविहीन स्थिति में हैं। मैंने वोट नहीं डाला। कइयों ने वोट नहीं दिया। मैं तो मतदान में हिस्सा नहीं ले सका। कई अन्य लोग भी ऐसा नहीं कर सके। अगर मैं वोट नहीं डाल सका और मतदान में हिस्सा नहीं ले सकता तो यह कैसा लोकतंत्र है?’
पद्मा सेतु की फंडिंग में किसने बाधा पहुंचाई थी?
अवामी लीग सरकार ने साल 2009 में सत्ता में आने के बाद पद्मा सेतु के निर्माण की पहल की थी। उस समय विश्व बैंक भी इसके लिए वित्तीय सहायता मुहैया कराने के लिए तैयार हो गया। लेकिन भ्रष्टाचार के आरोप में वह सहायता बीच में ही रुक गई।
इसके बाद प्रधानमंत्री शेख़ हसीना ने विभिन्न सभाओं में आरोप लगाया कि मोहम्मद यूनुस के प्रभावित करने के कारण ही यह फंडिंग रुक गई थी।
इसके जवाब में यूनुस ने कहा, ‘मेरे पास तो इसमें बाधा पहुंचाने की कोई वजह नहीं थी। पद्मा सेतु देश के लोगों का सपना है। इसमें बाधा डालने का सवाल क्यों पैदा हो रहा है? विश्व बैंक तो मेरे प्रभावित करने का इंतजार नहीं कर रहा। उसका कहना है कि भ्रष्टाचार हुआ है।’ (bbc.com/hindi)
तमिलनाडु के सत्तारूढ़ दल द्रविड़ मुनेत्र कडग़म (डीएमके) के नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री ए राजा के बयान पर जमकर विवाद हो रहा है। ए राजा की टिप्पणी से कांग्रेस की अगुआई वाला इंडिया गठबंधन भी बैकफुट पर दिख रहा है।
पिछले हफ्ते ए राजा ने कहा था कि भारत पारंपरिक दृष्टि से एक भाषा, एक संस्कृति वाला देश नहीं है।
उन्होंने कहा था कि भारत यह एक देश नहीं, बल्कि एक उपमहाद्वीप है।
एक मार्च को कोयंबटूर में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के जन्मदिन के आयोजन में राजा ने कहा था, ‘एक देश का मतलब है एक भाषा, एक संस्कृति, एक परंपरा। भारत एक देश नहीं बल्कि एक उपमहाद्वीप था। यहाँ तमिलनाडु एक देश है, जिसकी एक भाषा और एक संस्कृति है। मलयालम एक अन्य भाषा और संस्कृति है। इन सभी के एक साथ आने से ही भारत बना है - इसलिए भारत एक उपमहाद्वीप बनता है, एक देश नहीं।’
तमिल में दिया गया ए राजा के इस भाषण का वीडियो क्लिप अंग्रेजी सबटाइटल के साथ सोशल मीडिया पर पिछले दो दिन से वायरल हो रहा है। बीजेपी इसे लेकर इंडिया गठबंधन और कांग्रेस को आड़े हाथों ले रही है।
ए राजा ने और क्या कहा था?
ए राजा ने बिलकिस बानो गैंग रेप केस में दोषियों की रिहाई पर कथित रूप से लगाए गए ‘जय श्री राम’ और ‘भारत माता की जय’ के नारे जि़क्र करते हुए कहा कि ‘हम ऐसे लोगों के ‘जय श्री राम’ और ‘भारत माता’ क़तई स्वीकार नहीं करेंगे। तमिलनाडु ये कभी स्वीकार नहीं करेगा। अपने लोगों को जाकर कह दीजिए कि हम राम के दुश्मन हैं।’
ए राजा ने हाल के दिनों में दिए गए प्रधानमंत्री के उस बयान का भी जिक्र किया, जिसमें उन्होंने कहा था कि चुनाव के बाद डीएमके पार्टी खत्म हो जाएगी।
इस बयान पर राजा ने कहा कि डीएमके तब तक रहेगा जब तक भारत रहेगा।
ए राजा ने कहा था, ‘आपने कहा है कि चुनाव के बाद डीएमके का अस्तित्व नहीं रहेगा। यदि चुनाव के बाद डीएमके नहीं होगा तो भारत भी नहीं होगा, इसे याद रखिए! आप क्या शब्दों से खेल रहे हैं?’
अपने इस बयान को विस्तार देते हुए ए राजा ने संविधान के प्रस्तावना की बात की थी और कहा था, ‘मैं क्यों कह रहा हूं कि भारत नहीं रहेगा? क्योंकि अगर आप सत्ता में फिर आए तो भारतीय संविधान ही नहीं होगा तो भारत नहीं होगा। यदि भारत का अस्तित्व नहीं रहा तो तमिलनाडु एक अलग इकाई बन जाएगा। क्या हम उस परिदृश्य की कामना करते हैं?’
ए राजा ने कहा था कि भारत विविधताओं और कई संस्कृतियों का देश है।
‘अगर आप तमिलनाडु आएं तो वहां एक ही संस्कृति है। केरल की एक अलग, दिल्ली और ओडिशा की एक अलग संस्कृति है। मणिपुरी लोग कुत्ते का मांस खाते हैं, यह एक अलग संस्कृति है। ये उनकी संस्कृति है।’
ए राजा ने कहा था, ‘पानी की एक टंकी से पानी आता है। यही पानी रसोई और शौचालय में जाता है। हम रसोई के लिए शौचालय से पानी नहीं लेते। क्यों? इसी तरह हम अंतर को स्वीकार करते हैं। आपसी अंतर और विविधताओं को स्वीकर करना चाहिए। आपकी (बीजेपी-आरएसएस) समस्या क्या है? क्या आपसे किसी ने गोमांस खाने के लिए कहा? इसलिए विविधता में एकता ही भारत के लिए मायने रखती है। इस देश में विविधताओं को स्वीकार करें।’
ए राजा ने कहा था, ‘क्या मेरे नाक और कान हूबहू दूसरे व्यक्ति के जैसे हैं? नहीं। यह सबके लिए समान क्यों होना चाहिए? हर एक को वैसे ही स्वीकार करना जैसे वे हैं, समझदारी इसी में है। अगर आप सभी को एक जैसा बनाने की कोशिश करेंगे तो क्या होगा? यही खतरा अब आ गया है।’
कांग्रेस और आरडेजी ने बयान के किया किनारा
ए राजा के इस बयान की ना सिर्फ बीजेपी बल्कि उनके अपने गठबंधन के सहयोगी भी आलोचना कर रहे हैं। केंद्रीय मंत्री और बीजेपी नेता गिरिराज सिंह ने कहा है कि ऐसे लोग ‘सनातन संस्कृति बर्बाद करना चाहते हैं।’
आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने कहा है कि ‘ये बयान ए राजा के व्यक्तिगत विचार हैं और ये गठबंधन की सोच नहीं है।’
कांग्रेस प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत ने भी इस पर कहा है कि कांग्रेस इस बयान से पूरी तरह असहमत है। उन्होंने कहा कि राम सबके हैं।
बीजेपी आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय ने एक्स पर लिखा, ‘डीएमके की हेट स्पीच लगातार जारी है। उदयनिधि स्टालिन के सनातन धर्म को नष्ट करने के आह्वान के बाद, अब यह एक राजा हैं जो भारत के विभाजन का आह्वान कर रहे हैं। भगवान राम का उपहास कर रहे हैं, मणिपुरियों पर अपमानजनक टिप्पणी कर रहे हैं और एक राष्ट्र के रूप में भारत के विचार पर सवाल उठा रहे हैं।’
कांग्रेस प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत ने कहा है कि कांग्रेस ए राजा के बयान की निंदा करती है।
उन्होंने कहा, ‘मैं उनके बयान से 100 फीसदी असहमत हूँ। मैं इस मंच से ऐसे बयान की निंदा करती हूँ। मेरा मानना है कि राम सबके हैं और सर्वव्यापी हैं। मेरा मानना है कि राम जिन्हें इमाम-ए-हिंद कहा जाता था वो समुदायों, धर्मों और जातियों से ऊपर हैं। राम जीवन जीने के आदर्श हैं। राम मर्यादा हैं, राम नीति हैं, राम प्रेम हैं।’
‘मैं इस बयान की पूरी तरह से निंदा करता हूं, ये उनका ( ए राजा का) बयान हो सकता है, मैं इसका समर्थन नहीं करती। मैं इसकी निंदा करती हूं और मुझे लगता है कि लोगों को बात करते समय संयम बरतना चाहिए।’
उदयनिधि ने सनातन धर्म पर क्या कहा था
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के बेटे और राज्य सरकार में मंत्री उदयनिधि स्टालिन ने बीते साल दो सितंबर को तमिलनाडु में आयोजित एक कार्यक्रम में सनातन धर्म को कई ‘सामाजिक बुराइयों के लिए जि़म्मेदार ठहराते हुए इसे समाज से खत्म करने की बात कही थी।
उन्होंने कहा था, ‘सनातन धर्म लोगों को जाति और धर्म के नाम पर बाँटने वाला विचार है। इसे ख़त्म करना मानवता और समानता को बढ़ावा देना है।’
उदयनिधि ने कहा था, ‘जिस तरह हम मच्छर,डेंगू, मलेरिया और कोरोना को खत्म करते हैं, उसी तरह सिर्फ सनातन धर्म का विरोध करना ही काफी नहीं है। इसे समाज से पूरी तरह ख़त्म कर देना चाहिए।’
इस बयान पर आरएसएस, बीजेपी और दक्षिणपंथी खेमे से काफी तीखी प्रतिक्रिया आई है।
बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कहा था, ‘ये हमारे धर्म पर हमला है।’
हालांकि बयान पर विवाद के बाद भी उदयनिधि ने कहा था कि हम अपने बयान पर कायम हैं।
उन्होंने बोला था कि हमने समाज के सताए हुए और हाशिये पर डाल दिए गए लोगों की आवाज उठाई है, जो सनातन धर्म की वजह से तकलीफ झेल रहे हैं।
उदयनिधि ने कहा था, ‘हम अपनी बात पर कायम हैं और किसी भी कानूनी चुनौती का सामना करने के लिए तैयार हैं। हम द्रविड़ भूमि से सनातन धर्म को हटाने के लिए प्रतिबद्ध हैं और इससे एक इंच भी पीछे नहीं हटने वाले।’
उदयनिधि की इस टिप्पणी के खिलाफ मामला सुप्रीम कोर्ट में गया और सर्वोच्च अदालत ने सोमवार को उन्हें सख़्त हिदायत दी।
सोमवार को सुप्रीम कोर्ट उदयनिधि स्टालिन की एक अपील पर सुनवाई कर रहा था, जिसमें उन्होंने मांग की थी कि महाराष्ट, बिहार उत्तर प्रदेश और कर्नाटक में उनके खिलाफ दर्ज एफआईआर को एक साथ जोड़ दिया जाए।
इस मामले पर सुनवाई करते हुए जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस दीपांकर दत्ता की बेंच ने कहा कि एक मंत्री होने के नाते उदयनिधि स्टालिन को अपने बयानों में सावधानी बरतनी चाहिए थी और उनके संभावित परिणामों के प्रति सचेत रहना चाहिए।
कोर्ट ने कहा, ‘आप अनुच्छेद 19(1)(ए) (अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार) के तहत अपने अधिकार का दुरुपयोग कर रहे हैं। आप अनुच्छेद 25 (विवेक की आज़ादी, धर्म को मानने और उसका प्रचार करने की स्वतंत्रता) के तहत अपने अधिकार का दुरुपयोग कर रहे हैं। अब आप अनुच्छेद 32 के तहत अपने अधिकार (सीधे सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने का अधिकार) का इस्तेमाल कर रहे हैं। क्या आप नहीं जानते कि आपने जो कहा उसका परिणाम क्या होगा? आप आम आदमी नहीं हैं। आप मंत्री हैं। आपको परिणाम जानना चाहिए। ’ (bbc.com/hindi)
अंजली
देश के ग्रामीण क्षेत्रों में आय का सबसे सशक्त माध्यम कृषि है। देश की आधी से अधिक ग्रामीण आबादी कृषि पर निर्भर करती है। इसके बाद जिस व्यवसाय पर ग्रामीण सबसे अधिक निर्भर करते हैं वह है पशुपालन। बड़ी संख्या में ग्रामीण भेड़, बकरी और मुर्गी पालन कर इससे आय प्राप्त करते हैं। जम्मू कश्मीर में तो बाकायदा गुजर बकरवाल नाम से एक समुदाय है जो सदियों से भेड़ और बकरी पालन का काम करता आ रहा है। इस समुदाय को जम्मू कश्मीर में अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त है। जम्मू कश्मीर की तरह राजस्थान में भी बड़ी संख्या में ग्रामीण भेड़, बकरी और ऊंट पाल कर आमदनी प्राप्त कर रहे हैं। हालांकि पशुधन जहां आय का प्रमुख जरिया है वहीं इसके पालन और चारा की व्यवस्था एक बड़ी समस्या के रूप में भी रहती है।
राजस्थान के बीकानेर स्थित लूणकरणसर ब्लॉक के कालू गांव के ग्रामीण भी बड़ी संख्या में पशुधन आय का माध्यम बना हुआ है। यह गांव ब्लॉक मुख्यालय से लगभग 20 किमी और जिला मुख्यालय से करीब 92 किमी दूर है। इस गांव की जनसंख्या करीब 10334 है। यहां अनुसूचित जाति की संख्या करीब 14।5 प्रतिशत है। गांव में साक्षरता की दर लगभग 54।7 प्रतिशत है, जिसमें महिलाओं की साक्षरता दर मात्र 22।2 प्रतिशत है। इस गांव में 250 ऐसे घर हैं जो भेड़ बकरियां पालने का काम करते हैं। प्रत्येक परिवार के पास कम से कम 100 भेड़ बकरियाँ और ऊंट अवश्य है। जबकि कुछ परिवार ऐसे भी हैं जिनके पास लगभग 400 से भी अधिक मवेशियाँ हैं। जिन्हें चराने के लिए कई बार पशुपालकों को काफी समस्याओं का सामना करनी पड़ती है। भेड़ बकरियों को चराने के लिए जब वह उन्हें खेत में लेकर जाते हैं तो कई बार खेत के मालिक उन्हें वहां चराने से मना कर देते हैं। वहीं कई बार जब खेतों में चारा खत्म हो जाता है और बारिश नही होती है तो इन्हें अपने मवेशियों को लेकर अन्य स्थानों की ओर पलायन करने पर मजबूर होना पड़ता है।
गांव से कुछ किमी दूर सेना के अभ्यास के लिए फायरिंग रेंज एरिया है, अक्सर ग्रामीण वहां अपने मवेशियों को चराने ले जाते हैं। लेकिन भारतीय सेना के लिए यह स्थान आरक्षित होने के कारण इन्हें वहां अपने जानवरों को चराने में कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। हालांकि ग्रामीणों की इस समस्या को देखते हुए स्थानीय संस्था उर्मुल द्वारा एक सी।एफ।सी सेंटर (कॉमन फैसिलिटी सेंटर) खोला गया है। यह गांव की गोचर भूमि है। जिसे 150 बीघा जमीन में बनवाया गया है। इसमें चारों ओर तारे बंधी हुई हैं। जिसमें चारे की उचित व्यवस्था की गई है। यहां पर पानी की व्यवस्था के लिए 4 कुंड भी बनाए गए हैं। इसके अतिरिक्त इस भूमि पर एक जोहड़ (कुंड) की भी व्यवस्था करवाई गई है जिसमें वर्षा के दिनों में पानी इक_ा करने की व्यवस्था की गई है। इसके अतिरिक्त इस सेंटर में भेड़ों की ऊन कटिंग की व्यवस्था भी की गई है। जहां पशुपालक आधुनिक मशीनों के माध्यम से अपनी अपनी भेड़ों के ऊन उतरवाते हैं। इसके अतिरिक्त यहां मवेशियों वैक्सीन की भी व्यवस्था की गई है, तथा उनके बीमार होने पर इलाज का भी पूरा इंतज़ाम किया गया है। इतना ही नहीं, इस दौरान पशुपालकों के लिए ठहरने के लिए भवन का भी निर्माण किया गया है। इस चारागाह में सालाना कम से कम 1900 से अधिक मवेशी आते हैं।
इस कॉमन फैसिलिटी सेंटर के कारण कालू गांव के पशुपालकों को अपने मवेशियों को चराने की समस्या लगभग समाप्त हो गई है। मवेशियों को पर्याप्त चारा और मेडिकल सुविधा मिलने के कारण जानवर काफी स्वस्थ रहते हैं। जिसका लाभ ग्रामीणों को अधिक आय के रूप में मिलने लगा है। इस संबंध में गांव के निवासी माना राम का कहना कि वर्तमान में मेरे पास 97 भेड़ और 8 बकरियां हैं। जिन्हें बेच कर मुझे एक साल में दस हजार तक की आमदनी हो जाती है। इसके अतिरिक्त एक साल में तीन बार भेड़ और ऊन के बालों की कटिंग भी करते हैं। जो अलग अलग महीनों में अलग अलग दामों पर बिकते हैं। मार्च में जहां भेड़ के बाल 170 रुपए किलो बिकता है वहीं जुलाई में इसकी कीमत 70 से 80 रुपए किलो होती है। हालांकि नवंबर और दिसंबर में यह 50 से 60 रुपए किलो बिकती है। उन्होंने बताया कि एक बार में भेड़ से डेढ़ किलो ऊन प्राप्त हो जाता है। वहीं एक अन्य मवेशी पालक प्रेम का कहना है कि मेरे पास 68 भेड़ें और 17 बकरियां हैं। जिनसे मुझे सालाना 60 से 70 हजार रुपए तक की आमदनी हो जाती है। भेड़ों का ऊन बेचकर जहां काफी लाभ मिलता है। वहीं उनका मीट 350 रुपए किलो बिकता है। प्रेम कहते हैं कि मुझे बकरी का दूध बेचकर भी काफी लाभ मिल जाता है। कई बार बीमारों के लिए लोग ऊंचे दामों में बकरियों का दूध भी खरीदते हैं। जिसकी हमें अच्छी कीमत मिलती है।
वहीं एक अन्य पशुपालक राजू राम कहना है कि मेरे पास 386 भेड़ हैं। हम परिवार के चार लोग साल में आठ महिने घर से बाहर भेड़ों को चराने के लिए ले जाते हैं। इन मवेशियों से मेरे परिवार को सालाना ढाई लाख रुपए की आमदनी हो जाती है। हालांकि इस आमदनी को प्राप्त करने में हमें काफी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। जब हम एक साथ इतनी सारी भेंडो को लेकर गांव से पलायन करते हैं तो कई बार रोड पर एक्सीडेंट से हमारी भेंड़े मर भी जाती हैं। सरकार द्वारा हमारे मवेशियों का कोई बीमा भी नहीं होता है। जिससे मरने वाले जानवरों का कोई मुआवज़ा भी नहीं मिलता है। इससे हमें काफी नुकसान उठाना पड़ता है। इसके अतिरिक्त रास्ते में चारे पानी की भी कोई उचित व्यवस्था नहीं हो पाती है। बीमारी आने पर उन मवेशियों के लिए किसी प्रकार की वैक्सीनेशन की व्यवस्था भी नहीं होता है। इसके कारण हमें जानवरों का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है। गांव में जब हम वापस आते हैं तो इतनी सारी भेड़ो को रखने के लिए उचित स्थान भी नहीं होता है। वहीं आंधी और बारिश के समय भी बहुत से मवेशी मारे जाते हैं। जिसके नुकसान की कोई भरपाई नहीं हो पाती है।
बहरहाल, गांव में कॉमन फैसिलिटी सेंटर की व्यवस्था होने के कारण पहले की तुलना में मवेशी पालकों को काफी सुविधाएं मिलने लगी हैं। लेकिन जानवरों का बीमा नहीं होना इन मवेशी पालकों के लिए आज भी एक समस्या बनी हुई है। ऐसे में सरकार को ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जिससे कि इन्हें धरातल पर सभी सुविधाओं का लाभ मिल सके। ताकि मवेशी पालक अधिक से अधिक मवेशी पालने को प्रोत्साहित हो सकें क्योंकि वर्तमान में कृषि के बाद जिस प्रकार से मवेशी पालन ग्रामीणों की आय का प्रमुख स्रोत बनता जा रहा है, वह न केवल उनके लिए बल्कि भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए भी सकारात्मक संकेत कहे जा सकते हैं। (चरखा फीचर)
देश के ग्रामीण क्षेत्रों में आय का सबसे सशक्त माध्यम कृषि है। देश की आधी से अधिक ग्रामीण आबादी कृषि पर निर्भर करती है। इसके बाद जिस व्यवसाय पर ग्रामीण सबसे अधिक निर्भर करते हैं वह है पशुपालन। बड़ी संख्या में ग्रामीण भेड़, बकरी और मुर्गी पालन कर इससे आय प्राप्त करते हैं। जम्मू कश्मीर में तो बाकायदा गुजर बकरवाल नाम से एक समुदाय है जो सदियों से भेड़ और बकरी पालन का काम करता आ रहा है। इस समुदाय को जम्मू कश्मीर में अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त है। जम्मू कश्मीर की तरह राजस्थान में भी बड़ी संख्या में ग्रामीण भेड़, बकरी और ऊंट पाल कर आमदनी प्राप्त कर रहे हैं। हालांकि पशुधन जहां आय का प्रमुख जरिया है वहीं इसके पालन और चारा की व्यवस्था एक बड़ी समस्या के रूप में भी रहती है।
राजस्थान के बीकानेर स्थित लूणकरणसर ब्लॉक के कालू गांव के ग्रामीण भी बड़ी संख्या में पशुधन आय का माध्यम बना हुआ है। यह गांव ब्लॉक मुख्यालय से लगभग 20 किमी और जिला मुख्यालय से करीब 92 किमी दूर है। इस गांव की जनसंख्या करीब 10334 है। यहां अनुसूचित जाति की संख्या करीब 14।5 प्रतिशत है। गांव में साक्षरता की दर लगभग 54।7 प्रतिशत है, जिसमें महिलाओं की साक्षरता दर मात्र 22।2 प्रतिशत है। इस गांव में 250 ऐसे घर हैं जो भेड़ बकरियां पालने का काम करते हैं। प्रत्येक परिवार के पास कम से कम 100 भेड़ बकरियाँ और ऊंट अवश्य है। जबकि कुछ परिवार ऐसे भी हैं जिनके पास लगभग 400 से भी अधिक मवेशियाँ हैं। जिन्हें चराने के लिए कई बार पशुपालकों को काफी समस्याओं का सामना करनी पड़ती है। भेड़ बकरियों को चराने के लिए जब वह उन्हें खेत में लेकर जाते हैं तो कई बार खेत के मालिक उन्हें वहां चराने से मना कर देते हैं। वहीं कई बार जब खेतों में चारा खत्म हो जाता है और बारिश नही होती है तो इन्हें अपने मवेशियों को लेकर अन्य स्थानों की ओर पलायन करने पर मजबूर होना पड़ता है।
गांव से कुछ किमी दूर सेना के अभ्यास के लिए फायरिंग रेंज एरिया है, अक्सर ग्रामीण वहां अपने मवेशियों को चराने ले जाते हैं। लेकिन भारतीय सेना के लिए यह स्थान आरक्षित होने के कारण इन्हें वहां अपने जानवरों को चराने में कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। हालांकि ग्रामीणों की इस समस्या को देखते हुए स्थानीय संस्था उर्मुल द्वारा एक सी।एफ।सी सेंटर (कॉमन फैसिलिटी सेंटर) खोला गया है। यह गांव की गोचर भूमि है। जिसे 150 बीघा जमीन में बनवाया गया है। इसमें चारों ओर तारे बंधी हुई हैं। जिसमें चारे की उचित व्यवस्था की गई है। यहां पर पानी की व्यवस्था के लिए 4 कुंड भी बनाए गए हैं। इसके अतिरिक्त इस भूमि पर एक जोहड़ (कुंड) की भी व्यवस्था करवाई गई है जिसमें वर्षा के दिनों में पानी इक_ा करने की व्यवस्था की गई है। इसके अतिरिक्त इस सेंटर में भेड़ों की ऊन कटिंग की व्यवस्था भी की गई है। जहां पशुपालक आधुनिक मशीनों के माध्यम से अपनी अपनी भेड़ों के ऊन उतरवाते हैं। इसके अतिरिक्त यहां मवेशियों वैक्सीन की भी व्यवस्था की गई है, तथा उनके बीमार होने पर इलाज का भी पूरा इंतज़ाम किया गया है। इतना ही नहीं, इस दौरान पशुपालकों के लिए ठहरने के लिए भवन का भी निर्माण किया गया है। इस चारागाह में सालाना कम से कम 1900 से अधिक मवेशी आते हैं।
इस कॉमन फैसिलिटी सेंटर के कारण कालू गांव के पशुपालकों को अपने मवेशियों को चराने की समस्या लगभग समाप्त हो गई है। मवेशियों को पर्याप्त चारा और मेडिकल सुविधा मिलने के कारण जानवर काफी स्वस्थ रहते हैं। जिसका लाभ ग्रामीणों को अधिक आय के रूप में मिलने लगा है। इस संबंध में गांव के निवासी माना राम का कहना कि वर्तमान में मेरे पास 97 भेड़ और 8 बकरियां हैं। जिन्हें बेच कर मुझे एक साल में दस हजार तक की आमदनी हो जाती है। इसके अतिरिक्त एक साल में तीन बार भेड़ और ऊन के बालों की कटिंग भी करते हैं। जो अलग अलग महीनों में अलग अलग दामों पर बिकते हैं। मार्च में जहां भेड़ के बाल 170 रुपए किलो बिकता है वहीं जुलाई में इसकी कीमत 70 से 80 रुपए किलो होती है। हालांकि नवंबर और दिसंबर में यह 50 से 60 रुपए किलो बिकती है। उन्होंने बताया कि एक बार में भेड़ से डेढ़ किलो ऊन प्राप्त हो जाता है। वहीं एक अन्य मवेशी पालक प्रेम का कहना है कि मेरे पास 68 भेड़ें और 17 बकरियां हैं। जिनसे मुझे सालाना 60 से 70 हजार रुपए तक की आमदनी हो जाती है। भेड़ों का ऊन बेचकर जहां काफी लाभ मिलता है। वहीं उनका मीट 350 रुपए किलो बिकता है। प्रेम कहते हैं कि मुझे बकरी का दूध बेचकर भी काफी लाभ मिल जाता है। कई बार बीमारों के लिए लोग ऊंचे दामों में बकरियों का दूध भी खरीदते हैं। जिसकी हमें अच्छी कीमत मिलती है।
वहीं एक अन्य पशुपालक राजू राम कहना है कि मेरे पास 386 भेड़ हैं। हम परिवार के चार लोग साल में आठ महिने घर से बाहर भेड़ों को चराने के लिए ले जाते हैं। इन मवेशियों से मेरे परिवार को सालाना ढाई लाख रुपए की आमदनी हो जाती है। हालांकि इस आमदनी को प्राप्त करने में हमें काफी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। जब हम एक साथ इतनी सारी भेंडो को लेकर गांव से पलायन करते हैं तो कई बार रोड पर एक्सीडेंट से हमारी भेंड़े मर भी जाती हैं। सरकार द्वारा हमारे मवेशियों का कोई बीमा भी नहीं होता है। जिससे मरने वाले जानवरों का कोई मुआवज़ा भी नहीं मिलता है। इससे हमें काफी नुकसान उठाना पड़ता है। इसके अतिरिक्त रास्ते में चारे पानी की भी कोई उचित व्यवस्था नहीं हो पाती है। बीमारी आने पर उन मवेशियों के लिए किसी प्रकार की वैक्सीनेशन की व्यवस्था भी नहीं होता है। इसके कारण हमें जानवरों का उचित मूल्य नहीं मिल पाता है। गांव में जब हम वापस आते हैं तो इतनी सारी भेड़ो को रखने के लिए उचित स्थान भी नहीं होता है। वहीं आंधी और बारिश के समय भी बहुत से मवेशी मारे जाते हैं। जिसके नुकसान की कोई भरपाई नहीं हो पाती है।
बहरहाल, गांव में कॉमन फैसिलिटी सेंटर की व्यवस्था होने के कारण पहले की तुलना में मवेशी पालकों को काफी सुविधाएं मिलने लगी हैं। लेकिन जानवरों का बीमा नहीं होना इन मवेशी पालकों के लिए आज भी एक समस्या बनी हुई है। ऐसे में सरकार को ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जिससे कि इन्हें धरातल पर सभी सुविधाओं का लाभ मिल सके। ताकि मवेशी पालक अधिक से अधिक मवेशी पालने को प्रोत्साहित हो सकें क्योंकि वर्तमान में कृषि के बाद जिस प्रकार से मवेशी पालन ग्रामीणों की आय का प्रमुख स्रोत बनता जा रहा है, वह न केवल उनके लिए बल्कि भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए भी सकारात्मक संकेत कहे जा सकते हैं। (चरखा फीचर)