विचार/लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार से दो-टूक शब्दों में अनुरोध किया है कि वह लोगों की अंधाधुंध गिरफ्तारी पर रोक लगाए। भारत की जेलों में बंद लगभग 5 लाख कैदियों में से लगभग 4 लाख ऐसे हैं, जिनके अपराध अभी तक सिद्ध नहीं हुए हैं। अदालत ने उन्हें अपराधी घोषित नहीं किया है। उन पर मुकदमे अगले 5-10 साल तक चलते रहते हैं और उनमें से ज्यादातर लोग बरी हो जाते हैं।
हमारी अदालतों में करोड़ों मामले बरसों झूलते रहते हैं और लोगों को न्याय की जगह अन्याय मिलता रहता है। अंग्रेजों के जमाने में गुलाम भारत पर जो कानून लादे गए थे, वे अब तक चले आ रहे हैं। स्वतंत्र भारत की सरकारों ने कुछ कानून जरुर बदले हैं लेकिन अब भी पुलिसवाले चाहे जिसको गिरफ्तार कर लेते हैं। बस उसके खिलाफ एक एफआईआर लिखी होनी चाहिए जबकि कानून के अनुसार सिर्फ उन्हीं लोगों को गिरफ्तार किया जाना चाहिए जिनके अपराध पर सात साल से ज्यादा की सजा हो।
याने मामूली अपराधों का संदेह होने पर किसी को पकडक़र जेल में डालने का मतलब तो यह हुआ कि देश में कानून का नहीं, पुलिस का राज है। इसी ‘पुलिस राज’ की कड़ी आलोचना जजों ने दो-टूक शब्दों में की है। इस ‘पुलिस राज’ में कई लोग निर्दोष होते हुए भी बरसों जेल में सड़ते रहते हैं। सरकार भी इन कैदियों पर करोड़ों रु. रोज खर्च करती रहती है। इन्हें जमानत तुरंत मिलनी चाहिए।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 कहती है कि किसी भी दोषी व्यक्ति को पुलिस बिना वारंट गिरफ्तार कर सकती है लेकिन हमारी अदालतें कई बार कह चुकी हैं कि किसी व्यक्ति को तभी गिरफ्तार किया जाना चाहिए जबकि यह शक हो कि वह भाग खड़ा होगा या गवाहों को बिदका देगा या प्रमाणों को नष्ट करवा देगा। इस वक्त तो कई पत्रकारों, नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं को सरकारों के इशारे पर हमारी जेलों में ठूंस दिया जाता है। वे जब अपने मुकदमों में बरी होते हैं तो उनके यातना-काल का हर्जाना उन्हें गिरफ्तार करवानेवा लों से क्यों नहीं वसूला जाता?
अंग्रेजी राज के ये अत्याचारी कानून सत्ताधारियों के लिए ब्रह्मास्त्र का काम करते हैं, क्योंकि गिरफ्तार होनेवालों की बदनामी का माहौल एकदम तैयार हो जाता है। बाद में चाहे वे निर्दोष ही साबित क्यों न हो जाएं? जमानत के ऐसे कई मामले आज भी अधर में लटके हुए हैं, जिन्हें बरसों हो गए हैं। दुनिया के अन्य लोकतंत्रों जैसे अमेरिका और ब्रिटेन में अदालतें और जांच अधिकारी यह मानकर चलते हैं कि जब तक किसी का अपराध सिद्ध न हो जाए, उसे अपराधी मानकर उसके साथ दुर्व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए।
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और दुनिया की सबसे प्राचीन न्याय-प्रणाली हमारी ही है। हमारे कानूनों में अविलंब संशोधन होना चाहिए ताकि नागरिक स्वतंत्रता की सच्चे अर्थों में रक्षा हो सके। कानूनी संशोधन के साथ-साथ यह भी जरुरी है कि देश में से ‘पुलिस राज’ को अलविदा कहा जाए। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
ग्यारह जुलाई को विश्व जनसंख्या दिवस मनाया जाता है। ऐसे अवसरों पर लोग उत्सव करते हैं, लेकिन इस विश्व दिवस पर लोग चिंता में पड़ गए हैं। उन्हें चिंता यह है कि दुनिया की आबादी इसी रफ्तार से बढ़ती रही तो अगले 30 साल में दुनिया की कुल आबादी लगभग 10 अरब हो जाएगी। इतने लोगों के लिए भोजन, कपड़े, निवास और रोजगार की क्या व्यवस्था होगी? क्या यह पृथ्वी इंसान के रहने लायक बचेगी? पृथ्वी का क्षेत्रफल तो बढऩा नहीं है और अंतरिक्ष के दूसरों ग्रहों में इंसान को जाकर बसना नहीं है।
ऐसे में क्या यह पृथ्वी नरक नहीं बन जाएगी? बढ़ता हुआ प्रदूषण क्या मनुष्यों को जिंदा रहने लायक छोड़ेगा? ये ऐसे प्रश्न हैं, जो हर साल जमकर उठाए जा रहे हैं। ये सवाल हमारे दिमाग में काफी निराशा और चिंता पैदा करते हैं लेकिन अगर हम थोड़े ठंडे दिमाग से सोचें तो मुझे लगता है कि मनुष्य जाति इतनी महान है कि वह इन मुसीबतों का भी कोई न कोई हल निकाल लेगी। जैसे अब से लगभग 70 साल पहले दुनिया की आबादी सिर्फ ढाई अरब थी लेकिन अब वह लगभग 8 अरब हो गई है।
क्या इस बढ़ी हुई आबादी को कमोबेश सभी सुविधाएं नहीं मिल रही हैं? नए-नए आविष्कारों, यांत्रिक विकासों और आपसी सहकारों के कारण दुनिया के देशों में जबर्दस्त विकास हुआ है। इन्हीं की वजह से लोगों के स्वास्थ्य में सुधार हुआ है और पिछले 40 साल में लोगों की औसत आयु में 20 साल की वृद्धि हो गई है। जो लोग पहले 50 साल की आयु पाते थे, वे अब 70 साल तक जीवित रहते हैं। जनसंख्या-वृद्धि का यही मूल कारण भी है। परिवार नियोजन तो लगभग सभी देशों में प्रचलित है।
जापान और चीन में यह चिंता का विषय बन गया है। वहां जनसंख्या घटने की संभावना बढ़ रही है। यदि दुनिया की आबादी 10-12 अरब भी हो जाए तो उसका प्रबंध असंभव नहीं है। खेती की उपज बढ़ाने, प्रदूषण घटाने, पानी की बचत करने, शाकाहार बढ़ाने और जूठन न छोडऩे के अभियान यदि सभी सरकारें और जनता निष्ठापूर्वक चलाएं तो मानव जाति को कोई खतरा नहीं हो सकता।
मुश्किल यही है कि इस समय सारे संसार में उपभोक्तावाद की लहर आई हुई है। हर आदमी हर चीज जरुरत से ज्यादा इस्तेमाल करना चाहता है। इस दुर्दांत इच्छा-पूर्ति के लिए यदि प्राकृतिक साधन दस गुना ज्यादा भी उपलब्ध हों तो भी वे कम पड़ जाएंगे। ऐसी हालत में पूंजीवादी और साम्यवादी विचारधाराओं के मुकाबले भारत की त्यागवादी विचारधारा सारे संसार के लिए बहुत लाभदायक सिद्ध हो सकती है।
जिस संयुक्त राष्ट्र संघ ने 11 जुलाई 1989 को इस विश्व जनसंख्या दिवस को मनाने की परंपरा डाली है, उसके कर्त्ता—धर्त्ताओं से मैं निवेदन करुंगा कि वे ईशोपनिषद् के इस मंत्र को सारे संसार का प्रेरणा-वाक्य बनाएं कि ‘त्येन त्यक्तेन भुंजीथा’ याने ‘त्याग के साथ उपभोग करें’ तो आबादी का भावी संकट या उसकी चिंता का निराकरण अपने आप हो जाएगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
-रोहित देवेन्द्र
स्कूल के दिनों में टीवी पर देखी फिल्म का एक सीन अब भी याद है। गोविंदा की कोई फिल्म थी। गोविंदा गांव से मुंबई आते हैं। आंख उठाकर वह ऊंची-ऊंची इमारतें चौंकने के अंदाज से देख रहे होते हैं कि तभी सडक़ पर उन्हें भगवान शंकर की तरह दिखने वाला एक इंसान दिखता है। गोविंदा उसके पैरों में गिर जाते हैं। भगवाननुमा वह आदमी उन्हें उठाता है। आशीर्वाद देने के साथ पूछता है कि ‘एक बीड़ी है क्या बच्चा?’ सीन के उसी हिस्से में भगवान के गेटअप वाले कुछ और किरदार बीड़ी-सिगरेट जैसा कुछ पी रहे होते हैं। कुछ चाय पी रहे होते हैं। मुझे फिल्म याद नहीं। वह उम्र निर्देशक याद करने की थी नहीं।
यह याद है कि इस सीन पर हम हॅंसे थे। हम बच्चे थे पर हमें पता था कि कॉस्ट्यूम पहने यह व्यक्ति भगवान शंकर नहीं बल्कि उनका किरदार करने वाला एक आर्टिस्ट है। बेशक, भगवान के बीड़ी पीने के अब तक कोई साक्ष्य नहीं हैं लेकिन उनकी वेशभूषा पहने हुए व्यक्ति तो ऐसा कर ही सकता है। हमें इससे ऐतराज नहीं था। तब तक हमने रामायण-महाभारत देख ली थी और मालूम चल गया था कि अरुण गोविल राम नहीं हैं और नितीश भारद्वाज कृष्ण नहीं। भले ही अरुण गोविल बने राम वाले पोस्टर शिवरात्रि और कार्तिक पूर्णिमा के मेलों में बिकने लगे थे।
हिंदी फिल्मों में ही शोले का वह सीन हम सबको याद है जिसमें धर्मेंद्र मंदिर के पीछे छिपकर भगवान की आवाज में हेमा मालिनी को बेवकूफ बना रहे थे। हेमा मालिनी उस आवाज को भगवान शंकर की आवाज समझकर जैसा वो कहें करने के लिए कह रही हैं। हम इस सीन पर भी हॅंसे थे। हमने यह लोड नहीं लिया था कि भगवान शिव के मुंह से हल्की-फुल्की बातें निकाली जा रही थीं। हम तब भी तैश में नहीं आए थे जब हमें यह पता चला था कि धर्मेंद्र मुसलमान बन गए हैं।
कुछ सालों पहले दिलीप कुमार की 50 के दशक में रिलीज हुई एक फिल्म दाग देखी। दाग फिल्म में दिलीप एक शराबी का रोल करते हैं। जो एक रात शराब के नशे में आकर भगवान की मूर्ति को यह कहकर फेंक देते हैं कि ‘भगवान सिर्फ सेठों का है, गरीबों का नहीं’ मुझे उस सीन पर कोई दिक्कत नहीं हुई थी। जाहिर है कि जब यह फिल्म रिलीज हुई होगी तब भी लोगों को दिक्कत नहीं हुई होगी। जबकि उस समय देश में ताजा-ताजा बंटवारा हुआ था और संसार जानता है कि दिलीप कुमार पाकिस्तान से आए मुसलमान थे। ?
कुछ सालों पहले आई पीके में भगवान शिव के गेटअप वाले आदमी के साथ आमिर खान का बाथरुम सीन तो अभी ताजा-ताजा है। हम उस पर भी हॅंसे थे। ऐसी कोई फिल्म याद नहीं है जो भगवान या उनके कॉस्टयूम को पहने व्यक्ति पर हल्का-फुल्का मजाक करे और घर आकर भगवान के प्रति आपकी आस्था में तोला भर का अंतर भी आ जाए।
मुझे नहीं पता कि काली फिल्म के पोस्टर को उसकी निर्देशक ने किस सोच के साथ बनाया है। लेकिन मैं इतना जानता हूं कि दुर्गा या उसके अन्य स्वरुपों में आस्था रखने वाले किसी भी व्यक्ति की आस्था में इस पोस्टर की वजह से कोई तब्दीली नहीं आई होगी। हां, हमारी प्रतिक्रियाएं राजनीतिक जरूर हो सकती हैं, इधर से भी और उधर से भी।
काली के पोस्टर बस इतना ही कहना था...
-डॉ. परिवेश मिश्रा
शाकाहार और मांसाहार के चक्कर में एक समय ऐसा आ चुका है जब छत्तीसगढ़ में गरीबी रेखा (बी.पी.एल.) से नीचे रहने वालों की संख्या में एक झटके में भारी गिरावट दर्ज हो गयी थी।
यह सन् 1999-2000 की बात है। देश का योजना आयोग समय समय पर देश में बी.पी.एल. वालों की संख्या की गिनती करता रहा है। गरीबी नापने के नियमों और तरीकों में भी समय समय पर बदलाव होते रहे हैं। जैसे कभी आर्थिक आमदनी के आधार पर गरीबी नापी गई, कभी क्रय-शक्ति के आधार पर, आदि।
सन् 1999-2000 में देश में हुए सर्वे में ‘कैलोरी’ को आधार बनाया गया था। तय किया गया कि एक परिवार अपने खानपान में कितनी ‘कैलोरी’ की खपत करता है इसका सर्वे हो। जो भी उत्तर प्राप्त होता, उसकी कैलोरिक वैल्यू की गणना करने की व्यवस्था कम्प्यूटर में की गयी थी।
फॉर्म छापे गये। उनमें प्रश्न तो छपे ही थे, साथ में संभावित उत्तर भी छापे गये थे जो कि आमतौर पर हां और ना में थे। स्कूल के सरकारी शिक्षकों को ट्रेनिंग दी गई, फॉर्म के साथ पेन्सिल दी गइ और सर्वे के लिए रवाना कर दिया गया। उनका काम था गांव गांव और घर घर जाकर प्रश्न पूछना और संभावित उत्तरों में से जो उत्तर प्राप्त हो उस पर निशान लगाना।
गुरुजी लोगों ने सवाल शुरू किये।
प्रतिदिन भोजन करते हो ?
दिन में कितनी बार ?
इसके आगे प्रश्न था ‘शाकाहारी हो या मांसाहारी?’
प्रश्न को सरल और बोधगम्य बनाने के लिए छत्तीसगढ़ में शिक्षक जो आमतौर पर पूछते थे वह था ‘मांस-मच्छी खाथस का?’
छत्तीसगढ़ में, विशेषकर उन इलाकों में जो राजाओं के प्रभाव वाले रहे हैं, पारम्परिक रूप से देवी भक्ति/शक्ति उपासना का बहुत जोर रहा है। विजयदशमी/नवरात्र/दशहरा आदि के अवसरों पर बलि प्रथा सामान्य बात रही है। इसके अलावा इच्छापूर्ति के लिए मंदिरों में या देवी के ‘चरणों’ में बकरे का प्रसाद अर्पित करने का संकल्प भी आम बात रही है। ऐसा संकल्प (मन्नत) आमतौर पर अपेक्षाकृत सम्पन्न लोग लेते हैं।
ऐसे अवसरों पर बाकी ग्रामीण ‘प्रसाद’ ग्रहण करने के लिए सदैव तत्पर और उपलब्ध रहे हैं। सामाजिक जीवनशैली के महत्वपूर्ण हिस्से की तरह। गांव में बड़े किसान की मन्नत पूरी होने पर ‘प्रसाद’ प्राप्ति के लिए सारे गांव वालों का उसके ट्रैक्टर-ट्रॉली में भर कर साथ जाना ‘पैकेज’ का अविभाज्य अंग माना जाता है।
छत्तीसगढ़ तालाबों का इलाका भी है। सन् 1999-2000 में यहां छह हजार वर्ग किलोमीटर से अधिक की जलसतह थी। कलकत्ता यहां से रात भर की दूरी है और मछली का निर्यात छत्तीसगढ़ की आर्थिक जीवनशैली का दूसरा महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। जिस ग्रामीण के कच्चे घर के पास तालाब या नाला हो, उसके भोजन में अक्सर मछली का समावेश होना सामान्य बात रही है। नदी, नालों और तालाब के साथ साथ पानी भरे खेतों की मेढ़ पर ‘गरी’ लेकर मछली की प्रतीक्षा में बैठना लोकप्रिय ‘पास-टाईम’ रहा है। उंगली से छोटी मछलियां भी यदि मु_ी भर मिल जाएं तो उन्हें नमक और हल्के तेल में भून/तल कर भोजन में शामिल करना प्याज-टमाटर जैसी सब्जियां खरीद कर खाने से सस्ता पड़ता है।
सर्वे वाले शिक्षकों ने जैसे ही सवाल पूछा ‘मांस-मच्छी खाथस का?’, आमतौर पर उत्तर मिला ‘हां’।
और ‘हां’ वाले बॉक्स में पेन्सिल का निशान लग गया। कम्प्यूटर के पास जो जानकारी फीड थी उसमें मांस और मछली की कैलोरी-वैल्यू सब्जियों से अधिक थी।
इस सर्वे के आधार पर जब तक योजना आयोग ने आंकड़े सार्वजनिक किये तब तक मध्यप्रदेश का विभाजन हो चुका था। नये बने राज्य छत्तीसगढ़ के हिस्से में तालाबों का अनुपात बढ़ गया। नक्सली और कुष्ठ रोगियों का अनुपात भी बढ़ गया। किन्तु सरकारी रिकॉर्ड वाले गरीबों का अनुपात कम हो गया।
(यदि प्रश्न के उत्तर में किसी सम्पन्न व्यक्ति ने कहा कि मैं तो न केवल शाकाहारी हूं बल्कि सप्ताह में कुछ दिन उपवास भी रखता हूं, तो उसके ‘गरीब’ गिने जाने की संभावना कम से कम तकनीकी रूप से तो अधिक थी ही।)
गिरिविलास पैलेस सारंगढ़ (छत्तीसगढ़)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
श्रीलंका में वह हो रहा है, जो हमारे दक्षिण एशिया के किसी भी राष्ट्र में आज तक कभी नहीं हुआ। जनता के डर के मारे राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भागकर कहीं छिप जाना पड़े, ऐसा इस भारतीय उप-महाद्वीप के किसी देश में कभी हुआ है क्या? हमारे कई पड़ौसी देशों में फौजी तख्ता-पलट, अंदरुनी बगावत और संवैधानिक संकट के कारण सत्ता परिवर्तन हुए हैं लेकिन श्रीलंका में हजारों लोग राष्ट्रपति भवन में घुस गए और प्रधानमंत्री के निजी निवास को उन्होंने आग के हवाले कर दिया।
राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्ष और प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघ को अपने इस्तीफों की घोषणा करनी पड़ी। श्रीलंका की जनता तो जनता, फौज और पुलिस ने भी इन नेताओं का साथ छोड़ दिया। दोनों ने न तो प्रधानमंत्री के जलते हुए घर को बचाने के लिए गोलियां चलाईं और न ही राष्ट्रपति के जूते और चड्डियां हवा में उछालने वालों पर लाठियां बरसाईं। ये हजारों लोग राजधानी कोलंबो और उसके बाहर से भी आकर जुटे थे।
जब श्रीलंका में पेट्रोल का अभाव है और निजी वाहन नहीं चल पा रहे हैं तो ये लोग आए कैसे? ये लोग दर्जनों मील पैदल चलकर राष्ट्रपति भवन पहुंचे हैं। उनके गुस्से का अंदाज सत्ताधारियों को पहले ही हो चुका था। पिछले तीन महिने से श्रीलंका अपूर्व संकट में फंसा हुआ है। मंहगाई और बेरोजगारी आसमान छू रही थीं। सिर्फ सवा दो करोड़ लोगों का यह देश अरबों-खरबों डालर के कर्ज में डूब रहा है। 75 प्रतिशत लोगों को रोजमर्रा का खाना भी पूरा नसीब नहीं हो पा रहा है।
जो भाग सकते थे, वे नावों में बैठकर भाग निकले। जो नेता याने महिंद राजपक्ष श्रीलंका का महानायक बन चुका था, इसलिए कि उसे तमिल आतंकवाद को नष्ट करने का श्रेय था, उसे प्रधानमंत्री के पद से 9 मई को इस्तीफा देना पड़ा और अब उसके भाई गोटाबाया ने अपना इस्तीफा 13 जुलाई को देने की घोषणा की है। इस सरकार में राजपक्षे परिवार के पांच सदस्य उच्च पदों पर रहकर पारिवारिक तानाशाही चला रहे थे। ऐसी पारिवारिक तानाशाही किसी भी लोकतांत्रिक देश में सुनने में नहीं आई।
उन्होंने बिना व्यापक विचार-विमर्श किए ही कई अत्यंत गंभीर आर्थिक और राजनीतिक फैसले कर डाले। विरोधियों की चेतावनियों पर भी कोई कान नहीं दिए। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं की चेतावनियों को भी उन्होंने दरी के नीचे सरका दिया। उन्होंने प्रधानमंत्री बदला और कई मंत्री भी बदल दिए। लेकिन यह बदलाव भी किसी काम नहीं आया। अब सर्वदलीय सरकार यदि बन भी गई तो वह क्या कर लेगी?
इस समय श्रीलंका को जबर्दस्त आर्थिक टेके की जरुरत है। भारत चाहे तो संकट की इस घड़ी में कुछ समय के लिए वह अपने इस पड़ौसी देश को गोद ले सकता है। यह देश भारत के किसी छोटे से प्रांत के बराबर ही है। श्रीलंका की बौद्ध और तमिल जनता भारत के इस अहसान को सदियों तक याद रखेगी। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जापान के पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो एबे की हत्या पर संसार के नेताओं ने जैसी मार्मिक प्रतिक्रियाएं की हैं, वैसी कम ही की जाती हैं। भारत ने तो शनिवार को राष्ट्रीय शोक दिवस घोषित किया है। अब तक कई विदेशी राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों की हत्या की खबरें आती रही हैं लेकिन एबे की हत्या पर भारत की प्रतिक्रिया असाधारण है। इसके कई कारण हैं। एबे ऐसे पहले जापानी प्रधानमंत्री हैं, जो भारत चार बार आए हैं।
उनके दादा प्रधानमंत्री नोबुशुके किशी 1957 में प्रधानमंत्री नेहरु के निमंत्रण पर भारत आए थे। एबे ने ही पहली बार सुदूर पूर्व या पूर्व एशिया क्षेत्र को भारत-प्रशांत क्षेत्र कहा था। यह बात उन्होंने अपनी 2007 की भारत-यात्रा के दौरान हमारी संसद में भाषण देते हुए कही थी। जब वे दुबारा प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने ही पहल करके इस नई और मौलिक धारणा को अमली जामा पहनाया। अमेरिका, भारत, जापान और आस्ट्रेलिया का जो चौगुटा बना है, वह उन्हीं की देन है।
भारत और जापान के व्यापारिक, सामरिक और सांस्कृतिक संबंध जितने प्रगाढ़ एबे के शासन-काल में बने हैं, पहले कभी नहीं बने। भारत और जापान के रिश्ते कभी तनावपूर्ण नहीं रहे लेकिन घनिष्टता के बीच एक दीवार थी, उसको पोला करने का श्रेय एबे और अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों को भी है। शीतयुद्ध काल के दौरान जापान तो अमेरिकी गुट का सक्रिय सदस्य रहा है और भारत को सोवियत गुट का अनौपचारिक साथी माना जाता था। इस संकरी गली से हमारे द्विपक्षीय संबंधों को शिंजो एबे ने ही बाहर निकाला।
जापान के साथ भारत के संबंध घनिष्ट होते जा रहे हैं। जापानी कंपनियों का भारत में निवेश तीव्र गति से बढ़ रहा है। जापान की मदद से ही भारत की सबसे तेज चलनेवाली रेल बन रही है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और एबे के बीच व्यक्तिगत संबंध इतने आत्मीय हो गए थे कि दोनों एक-दूसरे के देशों और शहरों में भी कई बार आए और गए। यों भी एबे जापानी प्रधानमंत्रियों में अभूतपूर्व और विलक्षण थे। उनके दादा प्रधानमंत्री थे तो उनके पिता विदेश मंत्री रहे हैं। वे स्वयं दो बार प्रधानमंत्री चुने गए।
उन्होंने पहली बार 2006 से 2007 तक और दूसरी बार 2012 से 2020 तक प्रधानमंत्री पद को सुशोभित किया था। इतने लंबे समय तक कोई जापानी नेता इस पद पर नहीं रह सका। उनका सबसे बड़ा योगदान जापान को सच्चा स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र बनाने की इच्छा में था। द्वितीय महायुद्ध की ज्यादतियों के कारण जापानी संविधान पर मित्र-राष्ट्रों ने जो सैन्य-बंधन लगाए थे, उन्हें तुड़वाने की सबसे ताकतवर गुहार एबे ने ही लगाई थी।
इस काम में उन्हें पूरी सफलता नहीं मिल पाई लेकिन अन्य राष्ट्रों के साथ सैन्य-सहयोग के कई नए आयाम उन्होंने पहली बार खोल दिए। वे 1904 में बिगड़े जापान-रूसी संबंधों को भी सुधारना चाहते थे। उन्होंने चीन की आक्रामकता के विरुद्ध जबर्दस्त मोर्चेबंदी की लेकिन उसके साथ ही वे चीन और जापान के आपसी संबंधों को मर्यादित बनाए रखने में सफल रहे। ऐसे भारत के परम मित्र को हार्दिक श्रद्धांजलि! (नया इंडिया की अनुमति से)
लाहौर, 9 जुलाई| पाकिस्तान की कप्तान बिस्माह मारूफ ने शनिवार को जोर देकर कहा कि उनकी टीम 2022 राष्ट्रमंडल खेलों में महिला क्रिकेट आयोजन के दौरान बड़ी टीमों को हराने और जीत के लक्ष्य के साथ आगे बढ़ेंगी। पाकिस्तान को पूल ए में महिला टी20 विश्व कप विजेता ऑस्ट्रेलिया, भारत और बारबाडोस के साथ रखा गया है। वे अपने टूर्नामेंट की शुरूआत 29 जुलाई को बमिर्ंघम के एजबेस्टन में बारबाडोस के खिलाफ, 31 जुलाई को भारत और 3 अगस्त को ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ करेंगी।
कप्तान ने बताया, "हमारे पास तुबा हसन, आयशा नसीम और फातिमा सना जैसी युवा खिलाड़ियों के साथ एक अच्छा टीम संयोजन है जो वास्तविक ऊर्जा, कौशल और प्रतिभा प्रदान करता है।"
पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड (पीसीबी) की एक विज्ञप्ति में बिस्माह ने कहा, "राष्ट्रमंडल खेलों में हम विरोधियों के साथ खेलने की चुनौती का सामना करेंगे, इसलिए वहां सफल होने के लिए हमें बड़ी टीमों को हराना होगा। हमारा लक्ष्य जीत हासिल करना है।"
राष्ट्रमंडल खेलों में खेलने से पहले पाकिस्तान महिला टीम ऑस्ट्रेलिया और मेजबान आयरलैंड के साथ ब्रेडी क्रिकेट क्लब में 16 जुलाई से त्रिकोणीय श्रृंखला में भिड़ेंगी।
बिस्माह ने कहा, "लगातार बारिश के कारण हमारी तैयारियों को थोड़ा नुकसान हुआ है क्योंकि हम अभ्यास मैच नहीं खेल सके, इसलिए हमें फिटनेस पर और अधिक ध्यान केंद्रित करना पड़ा। हमने जो इनडोर सुविधा प्रदान की थी, उसका अधिक से अधिक उपयोग करने की कोशिश की। आयरलैंड में त्रिकोणीय सीरीज हमें राष्ट्रमंडल खेलों से पहले परिस्थितियों के अनुकूल होने का एक अच्छा अवसर प्रदान करती है।"
पाकिस्तान टीम : बिस्माह मरूफ (कप्तान), एमेन अनवर, आलिया रियाज, अनम अमीन, आयशा नसीम, डायना बेग, फातिमा सना, गुल फिरोजा (विकेटकीपर), इरम जावेद, कायनात इम्तियाज, मुनीबा अली सिद्दीकी (विकेटकीपर), निदा डार, ओमैमा सोहेल, सादिया इकबाल और तुबा हसन। (आईएएनएस)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
वाराणसी में अखिल भारतीय शिक्षा समागम में बोलते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अंग्रेजों की औपनिवेशिक शिक्षा प्रणाली की दो-टूक आलोचना की और देश भर के शिक्षाशास्त्रियों से अनुरोध किया कि वे भारतीय शिक्षा प्रणाली को शोधमूलक बनाएं ताकि देश का आर्थिक और सामाजिक विकास तीव्र गति से हो सके। जहां तक कहने की बात है, प्रधानमंत्री ने ठीक ही बात कही है लेकिन वर्तमान प्रधानमंत्री और पिछले सभी प्रधानमंत्रियों से कोई पूछे कि उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में कौनसे आवश्यक और क्रांतिकारी परिवर्तन किए हैं?
पिछले 75 साल में भारत में शिक्षा का ढांचा वही है, जो लगभग 200 साल पहले अंग्रेजों ने भारत पर थोप दिया था। उनकी शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ जी-हुजूर बाबुओं की जमात खड़ी करना था। आज भी वही हो रहा है। हमारे सुशिक्षित नेता लोग उसके साक्षात ज्वलंत प्रमाण हैं। देश के कितने नेता सिर्फ डिग्रीधारी हैं और कितने सचमुच पढ़े-लिखे और बुद्धिजीवी है? इसीलिए वे नौकरशाहों की नौकरी करने के लिए मजबूर होते हैं।
हमारे नौकरशाह भी अंग्रेज की टकसाल के ही सिक्के हैं। वे सेवा नहीं, हुकूमत के लिए कुर्सी पकड़ते हैं। यही कारण है कि भारत में औपचारिक लोकतंत्र तो कायम है लेकिन असलियत में औपनिवेशिकता हमारे अंग-प्रत्यंग में रमी हुई है। प्रधानमंत्री गर्व से कह रहे हैं कि उनके राज में अस्पतालों की संख्या 70 प्रतिशत बढ़ गई है लेकिन उनसे कोई पूछे कि इन अस्पतालों की हालत क्या है और इनमें किन लोगों को इलाज की सुविधा है? अंग्रेज की बनाई इस चिकित्सा-पद्धति को, यदि वह लाभप्रद है तो स्वीकार जरुर किया जाना चाहिए लेकिन कोई यह बताए कि आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा, होम्योपेथी, हकीमी-यूनानी चिकित्सा-पद्धतियों का 75 साल में कितना विकास हुआ है?
उनमें अनुसंधान करने और उनकी प्रयोगशालाओं पर सरकार ने कितना ध्यान दिया है? पिछले सौ साल में पश्चिमी एलोपेथी ने अनुसंधान के जरिए अपने आपको बहुत आगे बढ़ा लिया है और उनकी तुलना में सारी पारंपरिक चिकित्साएं फिसड्डी हो गई हैं। यदि हमारी सरकारें शिक्षा और चिकित्सा के अनुसंधान पर ज्यादा ध्यान दें और इन दोनों बुनियादी कामों को स्वभाषा के माध्यम से संपन्न करें तो अगले कुछ ही वर्षों में भारत दुनिया के उन्नत राष्ट्रों की टक्कर में सीना तानकर खड़ा हो सकता है।
यदि शिक्षा और चिकित्सा, दोनों सस्ती और सुलभ हों तो देश के करोड़ों लोग रोजमर्रा की ठगी से तो बचेंगे ही, भारत शीघ्र ही महाशक्ति और महासंपन्न भी बन सकेगा। दुनिया में जो भी 8-10 राष्ट्र शक्तिशाली और संपन्न माने जाते हैं, यदि बारीकी से आप उनका अध्ययन करें तो आपको पता चलेगा कि पिछले 100 वर्षों में ही वे वैसे बने हैं, क्योंकि उन्होंने अपनी शिक्षा और चिकित्सा पर सबसे ज्यादा ध्यान केंद्रित किया है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-कविता कृष्णपल्लवी
ये जो हिन्दी के युवा कवियों-लेखकों की एक जमात इस फासिस्ट समय के आततायी अँधेरे में कलात्मक चकल्लसबाजी करते हुए कभी अज्ञेय की मानस संतति शेखर का नया संस्करण रचने लगती है, कभी भुवनेश्वर तो कभी राजकमल चौधरी का कुर्ता -पजामा फिर से धुलाकर और प्रेस कराकर पहनकर घूमने लगती है, कभी वात्स्यायन वर्णित संभोगासनों और कामकला का संधान करते हुए जड़ीभूत संस्कारों और सौन्दर्याभिरुचियों की दुनिया में तोडफ़ोड़ करने लगती है, कभी अकविता काल के अघोरियों के मंत्र पढ़ते हुए शवसाधना करने लगती है, कभी स्त्रियों के वस्तुकरण की नयी-नयी जादुई तकनीक ढूँढ़ते हुए रूढि़भंजन की आड़ में रीतिकालीन छलनाओं और कामदग्ध बंगाली जादूगरनी टाइप स्त्रियों की रहस्यमयी तांत्रिक छवियाँ उकेरने लगती है, कभी जब मानवतावाद का भूत सवार होता है तो निर्मल वर्मा, कुँवरनारायण से लेकर विनोद कुमार शुक्ल आदि के घर के पिछवाड़े जाकर चीथड़े बीनने लगती है, कभी किसी सूफ़ी की मजार पर जाकर हाथ में मोरपंखी लिए लोबान सुलगाने लगती है, कभी लकां, फूको और देरिदा से कुछ नुस्खे ऑनलाइन मँगवाने लगती है, कभी उत्तर-सत्य का संधान करने लगती है, कभी छद्म-प्रगतिशीलों, लिबरलों और सोशल डेमोक्रेटिक मदारियों के कुकर्मों और धंधों का हवाला देकर वामपंथ और मार्क्सवाद के प्रति ही विरक्ति और जुगुत्सा प्रदर्शित करने लगती है , ये दरअसल जानती ही नहीं कि ये क्या कर रही है!
ये पीले बीमार चेहरे वाले युवा अंधे कुत्तों की तरह सामाजिक-सांस्कृतिक-वैचारिक परिघटनाओं को सूँघते हुए आसमान में सिर उठाकर भूँकते और रोते रहते हैं और विचार और साहित्य के वृक्षों पर इधर-उधर शाखामृगों की तरह कूदते रहते हैं। ये रुग्ण देश-काल की रुग्ण मानस - संततियाँ हैं। इनमें से कुछ तो बेहिसाब दारूखोरी, गाँजा, नशे की गोलियों और व्यभिचार के अड्डों के भी शरणागत हो चुके हैं !
इनमें से कुछ डिप्रेशन के मरीज़ होकर मनश्चिकित्सकों और दवाओं के सहारे जीवन काटेंगे, कुछ को पागलखानों में भर्ती होना पड़ेगा, कुछ आत्महत्या कर लेंगे और कुछ कालान्तर में घुटे हुए मक्कार और धूर्त बुद्धिजीवी बनकर मीडिया, एकेडमिया या सत्ता और पूँजी घरानों के कला-साहित्य-संस्कृति प्रतिष्ठानों में व्यवस्थित हो जायेंगे और अपने बाल-बच्चे पालते हुए कभी-कभी नास्टैल्जिक होकर नये लोगों को बताया करेंगे कि बेट्टा, हम भी अपने ज़माने में गजब के विद्रोही हुआ करते थे!
-श्रवण गर्ग
भंवरलाल और कन्हैयालाल दो अलग-अलग इंसान नहीं हैं। दोनों एक जैसे ही हाड़-मांस के जीव थे। दोनों के दिल एक जैसे ही धडक़ते थे। उनके रहने के ठिकाने भी एक दूसरे से ज़्यादा दूर नहीं थे। दोनों को ही मार डाला गया।सिफऱ् दोनों को मारने वाले और उनके तरीक़े ही अलग थे। राजस्थान के उदयपुर में कन्हैयालाल को जिस बर्बरता से मारा गया उसने हमारी आत्माओं को हिला दिया। हम कन्हैयालाल को मारे जाने से ज़्यादा विचलित और भयभीत हैं। हमने अपने को टटोलकर नहीं देखा कि भंवरलाल को जब मध्यप्रदेश के नीमच शहर में मारा गया तब हमारी प्रतिक्रिया उतनी तीव्र और उत्तेजनापूर्ण क्यों नहीं थी ? यह भी हो सकता है कि हम भंवरलाल की हत्या को अब तक भूल ही गए हों।
नागरिकों की दहशत भरी याददाश्त में या तो व्यक्तियों को मारे जाने का तरीक़ा होता है या हमलावर और मृतक की धार्मिक पहचान या फिर दोनों ही। एक तीसरी स्थिति अख़लाक़ जैसी भी हो सकती है जिसके प्रति बहुसंख्यक प्रतिक्रिया संवेदनशून्यता की थी यानी पूर्व में उल्लेखित दोनों स्थितियों से भिन्न। हम कई बार तय ही नहीं कर पाते हैं कि अमानवीय और नृशंस तरीक़ों से अंजाम दी जाने वाली मौतों के बीच किस एक को लेकर कम या ज़्यादा भयभीत होना चाहिए। नागरिक भी ऐसे अवसरों पर हुकूमतों की तरह ही बहुरूपिये बन जाते हैं।
कारणों को पता करने की कभी कोशिश नहीं की गई कि भंवरलाल की मौत ने व्यवस्था और नागरिकों को अंदर से उतना क्यों नहीं झकझोरा जितना उदयपुर को लेकर महसूस किया या करवाया जा रहा है ! भंवरलाल को घर से बाहर निकलते वक्त रत्ती भर भी अन्दाज़ नहीं रहा होगा कि वह कभी मारा भी जा सकता है। हरेक आदमी भंवरलाल की तरह ही रोज़ घर से बाहर निकलता है। इसके विपरीत, कन्हैयालाल को अपनी सिलाई की दुकान पर काम करते हुए भय या आशंका बनी रहती थी कि उसके साथ कुछ अप्रिय घट सकता है।
भाजपा की निलम्बित प्रवक्ता नूपुर शर्मा द्वारा की गई टिप्पणी से कन्हैयालाल का सम्बंध जाने-अनजाने या असावधानी से जुड़ गया था। उसने अपने को असुरक्षित महसूस करते हुए पुलिस से सुरक्षा की माँग भी की थी। सुरक्षा प्राप्त होना संदेहास्पद भी था। सरकारें प्रत्येक नागरिक को सुरक्षा नहीं प्रदान कर सकतीं पर प्रत्येक नागरिक से अपने लिए सुरक्षा की माँग अवश्य कर सकतीं हैं। भंवरलाल पूरी तरह से बेफि़क्र था। न तो उसका संबंध किसी आपत्तिजनक टिप्पणी से था और न ही उसने किसी तरह की सुरक्षा की माँग की थी। वह फिर भी मारा गया। आश्चर्यजनक यह है कि दोनों ही हत्याओं के वीडियो बनाकर जारी किए गए।
हुकूमतों के कथित पक्षपात के विपरीत मेरी आत्मा भंवरलाल और कन्हैयालाल दोनों के साथ बराबरी से जुड़ी है। उसके पीछे कारण भी हैं। मैं दोनों हत्याओं की नृशंसता के बीच एक सामान्य नागरिक की हैसियत से कोई फक़ऱ् नहीं करना चाहता हूँ। उदयपुर मेरे पिता और पुरखों का शहर है। पिता की अंगुली पकडक़र बचपन में उदयपुर घूमता रहा हूँ। वहाँ अब भी जाता रहता हूँ। नीमच मेरे ननिहाल से जुड़ा हुआ शहर है। माँ के साथ वहाँ जाता रहता था। अब अकेला जाता हूँ। उदयपुर और नीमच के बीच सिफऱ् सवा सौ किलोमीटर की दूरी है।
मैं अनुमान लगा सकता हूँ कि भंवरलाल और कन्हैयालाल एक जैसे नेक इंसान रहे होंगे। दोनों को ही दो अलग-अलग जगहों पर एक जैसी नजऱ आने वाली परिस्थितियों का शिकार होना पड़ा। कन्हैयालाल के चले जाने का दु:ख मनाते हुए भंवरलाल को इसलिए विस्मृत नहीं होने देना चाहिए कि अगर चीजें नहीं बदली गईं तो सडक़ पर चलने वाला कोई भी व्यक्ति उसी तरह की मौत को प्राप्त हो सकता है और फिर हत्यारे के द्वारा जारी किए जाने वाले वीडियो से ही उसकी शिनाख्त हो पाएगी।
कन्हैयालाल, भंवरलाल या इन दोनों के पहले हुईं मौतों के लिए असली जि़म्मेदार किसे माना जाना चाहिए ? क्या नूपुर शर्मा को ही देश की सारी तकलीफ़ों का एकमात्र कारण और गुनाहगार बताते हुए उन तमाम धार्मिक नेताओं, मंत्रियों, सांसदों, विधायकों, आदि को बरी कर दिया जाना चाहिए जो धार्मिक उन्माद और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के ज़रिए सत्ता की राजनीति करना चाहते हैं? हमने गौर नहीं किया होगा : अचानक ऐसा क्या हो गया है कि धार्मिक विध्वंस फैलाने वाली तमाम आवाज़ें एकदम से धीमी पड़ गईं हैं। क्या नागरिक नहीं बल्कि कोई केंद्रीय शक्ति इस बात को नियंत्रित करती है कि देश में कब किस तरह का माहौल बनना या नहीं बना रहना चाहिए ?
देश के अलग-अलग भागों में अपने ख़िलाफ़ दर्ज हुए प्रकरणों को दिल्ली स्थानांतरित करने सम्बन्धी नूपुर शर्मा की याचिका को रद्द करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने तल्ख़ टिप्पणी की थी कि :ज्जिस तरह से उन्होंने पूरे देश की भावनाओं को आग लगा दी है, देश में फि़लहाल जो हो रहा है उसके लिए यह महिला अकेली जि़म्मेदार है।’
सुप्रीम कोर्ट का ऐसा कहना क्या पूरी तरह से सही मान लिया जाए ?
धार्मिक नगरी हरिद्वार में पिछले साल दिसम्बर में हुई साधु-संतों की ‘धर्म संसद’ में अत्यंत उत्तेजना के साथ हिंदू बहुसंख्यक समुदाय का आह्वान किया गया था कि उसे अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ शस्त्र उठाना होगा। हरिद्वार की इस विवादास्पद ‘धर्म संसद’ के बाद एक बड़ी संख्या में बुद्धिजीवियों, न्यायविदों, सेवानिवृत अफ़सरों, पूर्व सैन्य अधिकारियों, आदि ने चिंता व्यक्त करते हुए प्रधानमंत्री से अपील की थी कि वे अपनी चुप्पी तोड़ें। यह आशंका भी ज़ाहिर की गई थी कि देश को गृह-युद्ध की आग में धकेला जा रहा है। न तो प्रधानमंत्री, आरएसएस के किसी नेता, अथवा सत्तारूढ़ दल के मंत्री-मुख्यमंत्री ने ही हरिद्वार और उसके बाद अन्य स्थानों पर उगले गए धार्मिक ज़हर की निंदा की।
इसी साल जनवरी में वरिष्ठ पत्रकार क़ुर्बान अली और पटना हाई कोर्ट की पूर्व जज अंजना प्रकाश ने सुप्रीम कोर्ट का ध्यान देश के विभिन्न स्थानों पर आयोजित होने वाले धार्मिक जमावड़ों के ज़रिए फैलाए जा रहे साम्प्रदायिक विद्वेष की ओर आकर्षित किया था पर याचिकाओं की सुनवाई के दौरान किसी भी स्तर पर उस तरह की टिप्पणी नहीं की गई जैसी नूपुर शर्मा की याचिका को निरस्त करते हुए की गईं । क़ुर्बान अली-अंजना प्रकाश की याचिकाओं पर अगली (या अंतिम )सुनवाई माह के अंत में सम्भावित है।
भंवरलाल और कन्हैयालाल की हत्याओं को सत्ता की राजनीति के लिए धार्मिक उन्माद का शोषण करने की बेलगाम प्रवृत्ति की हिंसक परिणति के रूप में भी देखा जा सकता है। नूपुर शर्मा की टिप्पणियाँ भी हरिद्वार जैसे धार्मिक जमावड़ों और सत्ता में आसीन लोगों के मौन से पैदा होने वाले उन्माद की ही उपज हैं। निर्दोष लोगों की हत्याओं और देश की भावनाओं को आग लगाने वाले असली दोषियों के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी आना अभी बाक़ी हैं। धर्मनिरपेक्ष नागरिक उसकी उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आजकल हमारे टीवी चैनलों और कुछ नेताओं को पता नहीं क्या हो गया है? वे ऐसे विषयों को तूल देने लगे हैं, जो देश की उन्नति और समृद्धि में कोई योगदान नहीं कर सकते। जैसे भाजपा प्रवक्ता के द्वारा पैगंबर मोहम्मद के बारे में दिया बयान और अब कनाडा में बनी फिल्म ‘काली’ को लेकर देश का कितना समय बर्बाद हो रहा है। हमारे लगभग सभी टीवी चैनल दिन भर इसी तरह के मुद्दों पर पार्टी-प्रवक्ताओं और बड़बोले सतही वक्ताओं को बुलाकर उनका दंगल दिखाते रहते हैं।
इन बहसों का एकमात्र लक्ष्य यही होता है कि टीवी चैनल अपनी दर्शक-संख्या (टीआरपी) में वृद्धि करें। इन बहसों में शामिल लोग एक-दूसरे की बात काटने के लिए अनर्गल भाषा का इस्तेमाल करते हैं, एक-दूसरे पर गंभीर आरोप लगाते हैं और ऐसी बातें नहीं कहते हैं, जिनसे करोड़ों दर्शकों का ज्ञानवर्द्धन हो। देश के अनेक विचारशील और गंभीर स्वभाव के लोग इन बहसों को देखकर दुखी होते हैं और उनमें से बहुत-से लोग टीवी देखना ही टालते रहते हैं।
वे मानते हैं कि इन बहसों को देखना अपना समय नष्ट करना है। लेकिन आम आदमियों पर ऐसी बहसों का कुप्रभाव आजकल हम जोरों से देख रहे हैं। कभी उन्हें लगता है कि फलां वक्ता ने शिवजी का अपमान कर दिया है, फलां ने पैगंबर के बारे में घोर आपत्तिजनक बात कह दी है और फलां ने काली माता की छवि चौपट कर दी है। यदि ऐसा किसी विधर्मी के द्वारा हुआ है तो फिर आप क्या पूछते हैं? सारे देश में प्रदर्शनों, जुलूसों और हिंसा का माहौल बन जाता है।
हमारी सभी पार्टियों के नेताओं की गोटियां गरम होने लगती हैं। वे एक-दूसरे के विरुद्ध न सिर्फ तेजाबी बयान जारी करते रहते हैं बल्कि पुलिस थानों में रपटें लिखवाते हैं, अदालतों में मुकदमे दायर कर देते हैं और कुछ सिरफिरे लोग हत्या व आगजनी पर भी उतारु हो जाते हैं। वे यह क्यों नहीं समझते कि उनके धर्मों के देवी-देवताओं या महापुरुषों की महिमा क्या इतनी छुई-मुई है कि उनके खिलाफ कही गई कुछ ऊटपटांग बातों के कारण उनकी प्रतिष्ठा धूमिल हो सकती है?
क्या उनके प्रति सदियों से चली आ रही श्रद्धा और भक्ति की परंपरा इन चलताऊ टिप्पणियों के कारण नष्ट हो सकती है? मैं तो सोचता हूं कि बहस का जवाब बंदूक से नहीं, बहस से दिया जाना चाहिए। सभी धर्मों के महापुरुषों का व्यक्ति के रूप में पूर्ण सम्मान किया जाना चाहिए लेकिन उनके व्यक्तित्वों और सिद्धांतों पर खुली बहस होनी चाहिए। यदि हमारे देश में खुली बहस पर प्रतिबंध लग गया तो यह विश्व-गुरु विश्व-चेला बनने लायक भी नहीं रहेगा।
भारत तो हजारों वर्षों से ‘शास्त्रार्थों’ और खुली बहसों के लिए जाना जाता रहा है। सन्मति और सहमति के निर्माण में तर्क-वितर्क और बहस-मुबाहिसा तो चलते ही रहना चाहिए। जर्मन दार्शनिक हीगल और कार्ल मार्क्स भी वाद-प्रतिवाद और समन्वयवाद के समर्थक थे। मनुष्यों में मतभेद तो रहता ही है, बस कोशिश यह होनी चाहिए कि मनभेद न रहे। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सोशल मीडिया की प्रसिद्ध कंपनी, ट्विटर, ने यह कहकर अदालत की शरण ली है कि भारत सरकार अपने अधिकारों का दुरुपयोग कर रही है, क्योंकि वह चाहती है कि ट्विटर पर जाने वाले कई संदेशों को रोक दिया जाए या हटा दिया जाए। उसने गत वर्ष किसान आंदोलन के दौरान जब ऐसी मांग की थी, तब कई संदेशों को हटा लिया गया था। लेकिन ट्विटर ने कई नेताओं और पत्रकारों के बयानों को हटाने से मना कर दिया था। जून 2022 में सरकार ने फिर कुछ संदेशों को लेकर उसी तरह के आदेश जारी किए हैं लेकिन अभी यह ठीक-ठीक पता नहीं चला है कि वे आपत्तिजनक संदेश कौन-कौन से हैं?
क्या वे न्यायाधीशों की मनमानी टिप्पणियां हैं या नेताओं के निरंकुश बयान हैं या साधारण लोगों के अनाप-शनाप अभिमत हैं? सरकारी आपत्तियों को ट्विटर कंपनी ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन बताया है। उसका कहना है कि ज्यादातर आपत्तियां विपक्षी नेताओं के बयानों पर है। केंद्रीय सूचना तकनीक मंत्री अश्विनी वैष्णव का कहना है कि सरकार ऐसे सब संदेशों को हटवाना चाहती है, जो समाज में बैर-भाव फैलाते हैं, लोगों में गलतफहमियां फैलाते हैं और उन्हें हिंसा के लिए भडक़ाते हैं।
पता नहीं कर्नाटक का उच्च न्यायालय इस मामले में क्या फैसला देगा लेकिन सैद्धांतिक तौर पर वैष्णव की बात सही लगती है परंतु असली प्रश्न यह है कि सरकार अकेली कैसे तय करेगी कि कौनसा संदेश सही है और कौनसा गलत? अफसरों की एक समिति को यह अधिकार दिया गया है लेकिन ऐसे कितने अफसर हैं, जो मंत्रियों के निर्देशों को स्वविवेक की तुला पर तोलने की हिम्मत रखते हैं? इस बात की पूरी संभावना है कि वे हर संदेश की निष्पक्ष जांच करेंगे लेकिन अंतिम फैसला करने का अधिकार उसी कमेटी को होना चाहिए, जिस पर पक्ष और विपक्ष, सबको भरोसा हो।
इसमें शक नहीं है कि सामाजिक मीडिया जहां सारे विश्व के लोगों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ है, वहीं उसके निरंकुश संदेशों ने बड़े-बड़े कोहराम भी मचाए हैं। आजकल भारत में चल रहा पैगंबर-विवाद और हत्याकांड उसी के वजह से हुए हैं। जरुरी यह है कि समस्त इंटरनेट संदेशों और टीवी चैनलों पर कड़ी निगरानी रखी जाए ताकि लक्ष्मण-रेखा का उल्लंघन कोई भी नहीं कर सके। सामाजिक मीडिया और टीवी चैनलों पर चलनेवाले अमर्यादित संदेशों की वजह से आज भारत जितना परेशान है, उससे कहीं ज्यादा यूरोप उद्वेलित है।
इसीलिए यूरेापीय संघ की संसद ने कल ही दो ऐसे कानून पारित किए हैं, जिनके तहत गूगल, एमेजान, एप्पल, फेसबुक और माइक्रोसॉफ्ट जैसे कंपनियां यदि अपने मंचों से मर्यादा भंग करें तो उनकी कुल सालाना आय की 10 प्रतिशत राशि तक का जुर्माना उन पर ठोका जा सकता है। यूरोपीय संघ के कानून उन सब उल्लंघनों पर लागू होंगे, जो धर्म, रंग, जाति और राजनीति आदि को लेकर होते हैं। भारत सरकार को भी चाहिए कि वह इससे भी सख्त कानून बनाए लेकिन उसे लागू करने की व्यवस्था ठीक से करे। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मद्रास उच्च न्यायालय ने अभी-अभी एक फैसला दिया है, जिसका स्वागत और पालन सभी धर्मों के लोगों को क्यों नहीं करना चाहिए? यदि कोई व्यक्ति अपने धर्म के अलावा किसी धर्म के मंदिर, मस्जिद, गिरजे या गुरुद्वारे में जाना चाहे तो उसे क्यों रोका जाना चाहिए? मद्रास उच्च न्यायालय ने उस याचिका को रद्द कर दिया है, जिसमें मांग की गई थी कि कन्याकुमारी के एक मंदिर में उन लोगों को न जाने दिया जाए, जो हिंदू नहीं हैं। इस आदिकेशव पेरुमल मंदिर में 6 जुलाई को कुंभाभिषेक समारोह संपन्न होना है। याचिकाकर्ता का आग्रह था कि यदि इस अवसर पर गैर-हिंदुओं को मंदिर में जाने दिया गया तो उस समारोह की पवित्रता नष्ट हो जाएगी।
दो न्यायाधीशों, पी.एन. प्रकाश और आर. हेमलता ने उसकी याचिका रद्द करते हुए यह सबल तर्क दिया कि कई हिंदू नागोर दरगाह और वेलंकन्नी गिरजे में अक्सर जाते हैं या नहीं? हिंदू मंदिरों में के.जी. येसुदास के भजन गाए जाते हैं या नहीं? उन जजों ने ये तो एक-दो उदाहरण दिए हैं। देश में ऐसे सैकड़ों-हजारों मंदिर और तीर्थ आदि हैं, जहां सभी धर्मों के लोग बराबर जाते रहते हैं। मेरा कहना यह है कि यदि ईश्वर सभी मनुष्यों का एक ही पिता है तो यह भेदभाव कैसा? मैंने तो भारत में ही नहीं, दुनिया के कई ईसाई, मुस्लिम और बौद्ध राष्ट्रों में देखा है कि उनके पूजा-स्थल सबके लिए खुले होते हैं।
काबुल के लोकप्रिय सांसद बबरक कारमल, जो बाद में राष्ट्रपति बने, वे आग्रहपूर्वक मुझे दक्षिण एशिया के सबसे प्राचीन मंदिर ‘आसामाई’ में ले गए थे। 1969 में जनसंघ के बड़े नेता श्री जगनाथराव जोशी और दिल्ली के महापौर श्री हंसराज गुप्त मुझे भाषण देने के लिए लंदन के एक बड़े चर्च में ले गए थे। वहां आरएसएस की शाखा लगा करती थी। रोम, पेरिस और वाशिंगटन के गिरजाघरों में मुझे जाने से किसी ने कभी रोका नहीं। वेटिकन और वाशिंगटन के गिरजों में पादरियों ने आग्रहपूर्वक मेरे भाषण भी करवाए।
राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के मेहमान के तौर पर हम जब बगदाद पहुंचे तो पीर गैलानी की प्रसिद्ध दरगाह में जाने से किसी अरब सज्जन ने मुझे रोका नहीं। हां, दिल्ली के एक इमाम जो वहां थे, उन्होंने मुझसे जरुर पूछा कि आप उस दरगाह में क्या कर रहे थे? मैंने कहा आप अरबी में इबादत कर रहे थे और मैं संस्कृत में मंत्रपाठ कर रहा था। दोनों में कोई अंतर नहीं है। इसी तरह चीन और जापान के बौद्ध मंदिरों में जाने से मुझे किसी ने रोका नहीं।
सूरिनाम, गयाना, मोरिशस और अपने अंडमान-निकोबार में मैंने ऐसे कई परिवार देखे हैं, जिनमें पति तो पूजा करता है और उसकी पत्नी नमाज़ पढ़ती है या ‘प्रेयर’ करती है। ये लोग सच्चे आस्तिक हैं लेकिन जो भेदभाव करते हैं, वे जितने आस्तिक हैं, उससे ज्यादा राजनीतिक हैं। वे दूसरों के तो क्या, अपने ही मजहब में अपना संप्रदाय अलग खड़ा कर लेते हैं और उसके जरिए अंधभक्तों को अपने जाल में फंसाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं।
ये मजहब के दावेदार, साधु-संत और पादरी भगवान, अल्लाह और गॉड की बजाय खुद को पुजवाने में ज्यादा चतुराई दिखाते हैं। यूरोप में लगभग एक हजार साल तक इनका ऐश्वर्य और रूतबा बादशाहों से भी ज्यादा रहा है। कुछ इस्लामी देशों में अब भी प्रधानमंत्रियों से ज्यादा ताकतवर उनके इमाम और आयतुल्लाह आदि होते हैं। खैर है, कि भारत में ऐसा बहुत कम हुआ है। (नया इंडिया की अनुमति से)
-प्रकाश दुबे
द्रौपदी मुर्मू का गांव विश्वगुरु भारत की राष्ट्रपति बनने से पहले बिजली से जगमगा गया। इससे ही बड़ा चमत्कार काला पानी में हुआ। छोटे-बड़े 572 द्वीप-टापुओं को मिलाकर बने अंडमान निकोबार में महिलाओं के लिए जरूरी सेनिटरी नैपकिन बनने लगे हैं। चार लाख से कम जनसंख्या वाले द्वीप समूह में एक लाख 80 हजार के आसपास महिलाएं हैं। ग्रामीण बैंक ने मेरा पैड, मेरा अधिकार योजना के अंतर्गत उपेक्षित क्षेत्र में सहकारी बैंक के सहयोग से उत्पादन शुरु किया। राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक यानी नाबार्ड ने स्वयं सहायता समूह के साथ मिलकर पहल की। सागर की गोद का प्रतिनिधित्व करने वाले लोकसभा सदस्य कुलदीप राय शर्मा ने दौड़-भाग को नरेन्द्र तोमर के कृषि मंत्रालय का सहयोग मिला। देश भर में दर्जन भर नैपकिन उत्पादक इकाइयां शुरू की गई हैं। सांसद चाहते हैं कि दूरदराज के कुछ द्वीपों में इस बहाने महिलाओं को रोजगार मिले। विश्वगुरु देश के द्वीपों में महिलाओं के लिए शौचालय नहीं हैं। उन्हें सांसद निधि से बनाया जा रहा है।
इक रुपहली लकीर
जगनमोहन रेड्डी
आंध्रप्रदेश में जिले का नामकरण डॉ. भीमराव बाबा साहब अम्बेडकर करने पर कुछ दिन पहले हिंसा हुई। मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी ने निर्णय नहीं बदला। मुख्यमंत्री किसी भी योजना के लिए करोड़ों रुपयों का ऐलान करते हैं। विरोधी उपहास करते हैं। शौचालय के अभाव में दूरदराज इलाकों में स्कूली बालिकाएं पढ़ाई छोड़ देती हैं। बालिकाओं और महिलाओं के लिए प्रसाधन की व्यवस्था करने का ऐलान करने वाले देश-दुलारों की भरमार है। जगन ने हर विद्यार्थी के नाम पर एक हजार रुपए जमा करने की योजना लागू की है। अम्मा वोदि नाम की योजना की रकम प्रसाधन रख-रखाव कोष में जमा होगी। रकम आबंटन मात्र से काम होने की गारंटी नहीं होती। इसका ध्यान रखते हुए स्कूल और प्रसाधन सुविधाओं की रकम और काम पर निगरानी रखने की निगरानी पालक समितियों की महिलाओं को सौंपी गई है। पिछले साल महामारी के कारण अनोखा तरीका नाकामयाब रहा। इंक्यावन हजार विद्यार्थियों को अम्मा वोदि का लाभ नहीं मिल सका। सरकारी योजना का लाभ लेने के लिए पाठशाला में 75 प्रतिशत उपस्थिति नहीं थी।
एक आवाज-ए-हक
विजय कुमार पुलिस महानिरीक्षक
बाबा अमरनाथ की यात्रा कश्मीर और केन्द्र शासन के लिए किसी भी चुनावी परीक्षा से अधिक महत्वपूर्ण है। दो बरस के अंतराल के बाद शुरू हुई यात्रा के लिए सबकी जिम्मेदारियां बांटी गई हैं। गुफा की रक्षा के लिए सेना के कमांडो तैनात किए गए हैं। केन्द्रीय रिजर्व पुलिस, सीमा सुरक्षा बल, भारत-तिब्बत सीमा पुलिस, एसएसबी, एसडीआरएफ के सिवाय खास-खास जगह एनडीआरएफ तैनात है। यात्रा शुरू होने से पहले तकरीबन रोज कश्मीर रेंज के पुलिस महानिरीक्षक विजय कुमार सेना और अर्धसैनिक बलों के अधिकारियों के साथ बैठकें कर रहे थे। बाबा अमरनाथ की गुफा में प्रवेश करने वाले पहले व्यक्ति विजय कुमार थे। यात्रा आरंभ होने से पहले उन्होंने गुफा के अंदर जाकर चप्पे-चप्पे का मुआयना किया। वहां लगे ड्रोन कैमरों की जांच-पड़ताल की। छत्तीसगढ़ में माओवादियों को दुरुस्त करने के बाद कश्मीर घाटी में आतंकवाद को ध्वस्त करने भेजे गए विजय कुमार की हालत राखीबंद भाई जैसी है। उनकी 43 दिन की परीक्षा है। 11 अगस्त यानी रक्षाबंधन तक सब ठीक रहा तो केन्द्र सरकार चुनाव का डंका बजाएगी।
नबी की तरह!
चंद्रशेखर राव
दक्खन के पठार में ऐसी लड़ाई इतिहास में पहले दर्ज नहीं हुईं। दिल्ली की सल्तनत और तेलंगाना के निजाम के दिलचस्प दांवपेंच हैं। राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सभास्थल की भारतीय जनता पार्टी ने वेदमंत्रों के साथ पूजा की। विधायक राजा सिंह की मौजूदगी खास थी। नूपुरनुमा बयानों के पड़दादा राजा सिंह को गूगल तक याद कर चुका है। प्रधानमंत्री की अगवानी करने तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव एक बार फिर नहीं पहुंचे। उसी वक्त विपक्ष के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा को हैदराबाद बुलाया। गोलचक्कर, चौराहों से लेकर अखबारों तक में बेहतर और बड़ी चमक के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और चंद्रशेखर राव की होड़ थी। भाजपा कई पन्नों पर पसरी थी परंतु पहले पेज पर राव डटे थे। पूर्व प्रधानमंत्री पामुलपर्ति वेंकट नरसिंह राव की बेटी को तेलंगाना राष्ट्र्र समिति ने विधान परिषद सदस्य बनाया। तेलुगुबिड्डा नरसिंहराव की 101वीं जयंती के पीवी ज्ञानभूमि में अनेक कार्यक्रम हुए। नरसिंहराव को कांग्रेस भुला चुकी है। अयोध्या विवाद के दौरान राव का गौरव करने वाली भाजपा भी इस बार नरसिंह राव को भूल गई। (लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
(सारे शीर्षक मखदूम मोइनुद्दीन की नज़्म से साभार)
-बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हैदराबाद में भाजपा की कार्यसमिति की बैठक काफी धूम-धड़ाके से संपन्न हो गई लेकिन अभी तक यह पता नहीं चला है कि भाजपा की सरकारों और पार्टी ने कौन-कौन-से कार्य करने का संकल्प लिया है लेकिन उसमें शामिल हुए नेताओं के भाषणों में से कुछ उल्लेखनीय बिंदु जरुर उभरे हैं। जैसे अल्पसंख्यकों के कमजोर वर्गो (पसमांदा) की भलाई का आह्वान, राजनीति में परिवारवाद का उन्मूलन और अगले 25-30 साल तक भाजपा-शासन के चलते रहने की आशा!
जहां तक अल्पसंख्यकों याने मुसलमानों के कमजोर वर्ग का सवाल है, इसमें शक नहीं कि उनके 80-90 प्रतिशत लोग ऐसे ही वर्गों से आते हैं। ये सब लोग पहले हिंदू ही थे। ये लोग गरीब हैं, मेहनतकश हैं, पिछड़ी जातियों के हैं और ज्यादातर अशिक्षित हैं। इनके मुसलमान बनने का एक बड़ा कारण यह भी रहा है। विदेशी हुक्मरानों के इन कृपाकांक्षी लोगों का उद्धार करने में वे शासक भी असमर्थ रहे। 1947 में भारत-विभाजन के कारण इनकी हालत पहले से भी ज्यादा बदतर हो गई।
कुछ मुट्ठीभर चतुर-चालाक लोगों ने अपने अल्पसंख्यक होने का फायदा जरुर उठाया लेकिन ज्यादातर मुसलमानों की आर्थिक, शैक्षणिक और जातीय हैसियत आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई है। राजनीति के दांव-पेचों ने इनके अलगाववाद को मजबूत ही किया है। यदि इनकी तरफ भाजपा विशेष ध्यान देगी तो देश का भला ही होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इनके तुष्टिकरण नहीं, तृप्तिकरण की बात सही कही है।
सरसंघचालक मोहन भागवत तो पहले ही कह चुके हैं कि भारत के हिंदुओं और मुसलमानों का डीएनए एक ही है। यह संतोष का विषय है कि उदयपुर और अमरावती की घटनाओं को भाजपा तूल नहीं दे रही है, वरना भारत में अराजकता फैल सकती थी। यह भाजपा के नेतृत्व की दूरंदेशी का परिचायक है। जहां तक परिवारवाद का सवाल है, उसके खिलाफ मैं बराबर लिखता रहा हूं लेकिन दुनिया में लोकतंत्र को खतरा सिर्फ परिवारवाद से ही नहीं है, नेताओं और कार्यकर्त्ताओं के अहंकारवाद से भी है।
नेपोलियन, हिटलर, मुसोलिनी, स्तालिन, माओ त्से तुंग आदि क्या परिवारवाद के कारण सत्तारुढ़ हुए थे? उन्होंने अपने दम पर ही लोकतंत्र की जड़ों को मट्ठा पिला रखा था। यदि भाजपा-सरकार की नीतियां दिखावटी नहीं, सच्ची लोकहितकारी रहीं तो वह अगले 25-30 साल क्या, और भी ज्यादा वर्षों तक राज करती रह सकती है लेकिन डर यही है कि भाजपा के नेता लगातार निरंकुश न होते चले जाएं, जैसे कि इंदिरा गांधी हो गई थीं।
इसमें शक नहीं कि भारत का विपक्ष इस वक्त डांवाडोल है। उसके पास न कोई ठोस नीति है, न नेता है लेकिन यह भी सच है कि किसी भी लोकतंत्र में विपक्ष को जिंदा रखना भी बेहद जरुरी है। सरकार को ऊंघने से बचाने के लिए एक कानफोड़ू विपक्ष की जरुरत तो हमेशा रहती ही है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-नताशा बधवार
जो लोग अपने परिवार के व्हाट्सऐप ग्रुप्स में अपने संबंधियों के कट्टर, बेकार, घिनौने, अवैज्ञानिक, अतार्किक और महिला-विरोधी पोस्ट्स के चलते भयानक तनाव से गुजर रहे हैं, उनसे मुझे एक बात कहनी है।
आप में से कुछ लोग अब तक इतने परेशान हो चुके हैं कि योग, ध्यान, आयुर्वेद और हर्बल चाय की महिमा बताने वाली पोस्ट फॉरवर्ड किए जाने से भी आपके हाथ-पांव ढीले पडऩे लगते हैं।
कृपया ग्रुप छोड़ दें। सेटिंग्स में जाकर एग्जिट दबाएं।
जो भी स्मार्टफोन आपके पास हो, किसी व्हाट्सऐप ग्रुप से एग्जिट करने में आपको ज्यादा से ज़्यादा एक उंगली के दो या तीन हल्के टैप्स की जरूरत होती है।
यकीन करें, जैसा आक्रोश और कन्फ्यूजन आपको महसूस हो रहा है, उसमें आपकी कोई गलती नहीं है।
गलती तो उनकी भी नहीं है जो चीजों को बिना पढ़े ही फॉरवर्ड कर देते हैं। हवा ही खराब है। जिस समय में हम जी रहे हैं, उसमें कोई चीज सड़ गई है, और यह सिर्फ म्यूटेट करता हुआ कोविड-19 नाम वाला वायरस नहीं है।
आप कहेंगे, ‘नहीं, नहीं, फैमिली ग्रुप छोडऩा संभव नहीं है। रिश्तेदारों का दिल दुखेगा।’
परिवार में भरोसा रखें। अपने खानदान पर भरोसा रखें। आप फैमिली ग्रुप भले छोड़ दें, फैमिली आपको कभी नहीं छोड़ेगी।
वे आपके बारे में पहले से भी ज़्यादा सोचेंगे। जो मैसेज आपके लिए काम के हैं, उन्हें वे अलग से आपको भेजेंगे।
दिल कड़ा करें, वे आपको फोन भी कर सकते हैं। शादी, बर्थडे, पिकनिक और दूसरे आयोजनों में आपको न्यौता भेजना वे कभी नहीं भूलेंगे।
आप इन अवसरों पर उपस्थित न हो सकें तो भी मिठाई का डब्बा वे आपको भेज ही देंगे।
आपकी मां आपको बताएंगी कि उनमें से हर कोई आपकी गैर-मौजूदगी में आपके बारे में क्या कह रहा था। इसमें से कुछ बातें आपको अच्छी भी लगेंगी।
रिश्तों को जिंदा करना अपने हाथ में
एक बार आप अपने विस्तारित परिवार द्वारा फॉरवर्ड किए गए वॉट्सऐप मैसेजेज से अपने हाथ खींच लेंगे, फिर अपने हर अलग-अलग संबंधी से अपने रिश्ते को दोबारा जिंदा करना आपके हाथ में होगा।
परिवार के वैज्ञानिक द्वारा भेजी गयी किसी अवैज्ञानिक पोस्ट, जिसमें मोमबत्तियों की सामूहिक ऊर्जा से कोरोना वायरस को परास्त कर देने वाली बात लिखी होती है, उसको आप भूल जाएंगे।
अपने भाई-बहन की फॉरवर्ड की हुई घृणा में डूबी किसी पोस्ट को याद रखना आपके लिए जरूरी नहीं रह जाएगा।
धीरे-धीरे आप यह भी भूल जाएंगे कि आपके जो चाचा, मामा, मौसा बचपन में आपके हीरो हुआ करते थे, उन्हें झांसे में लेना कितना आसान है।
बिल्कुल संभव है कि आपके पिता ने अमिताभ बच्चन द्वारा ट्विटर पर डाली गई कोई फर्जी वैज्ञानिक पोस्ट शेयर की हो। लेकिन जैसे हम धुंधले पड़ चुके किसी सुपरस्टार को माफ कर देते हैं, वैसे ही हम यह भी भूल जाएंगे।
अगर कोई सार्वजनिक रूप से अपनी खिल्ली उड़वा रहा होता है, तो आप उसकी अनदेखी कर जाते हैं। उसकी फिसलन के लिए आप उसको दोष नहीं देना चाहते। हमेशा क्रोध में जलकर कोयला हो जाना भी आप नहीं चाहते। यही रिश्तेदार अगर फेसबुक पर हों तो उन्हें अनफ्रेंड कर दीजिए।
कुछ संबंधियों को ब्लॉक भी कर सकते हैं। वे कभी इसका विरोध करने नहीं आएंगे। मेरा यकीन करें। मैं अपने तजुर्बे से बोल रही हूं। मैंने कई को ब्लॉक कर रखा है।
फेक न्यूज का दौर
हमारे चारों तरफ ऐसे कई सारे लोग, जिन्हें हम प्यार करते रहे हैं, जिनकी इज्जत करते रहे हैं और जिनसे काफी कुछ सीखा है, डिसइनफॉर्मेशन के इस युग ने उनका अंगभंग कर दिया है।
उन्होंने फेक न्यूज और हेट पोस्ट की सूनामी को अपनी कल्पना के साथ अत्याचार करने की इजाजत दे दी है।
फैमिली वॉट्सऐप ग्रुप छोडऩा प्यार में किया जाने वाला काम है।
मैंने अभी-अभी अपने आखिरी फैमिली ग्रुप्स में से एक को अलविदा कहा है, और इस बारे में अपनी मिली-जुली भावनाओं को समेटने की कोशिश कर रही हूं।
अंकल लोग थोड़ी-थोड़ी देर पर क्या चीजें फॉरवर्ड कर रहे हैं और क्या सलाह दे रहे हैं, यह बात मुझे इस ग्रुप में कम परेशान कर रही थी। बाकी सबकी चुप्पियों ने मुझे ज़्यादा तबाह किया।
एक ऐसे दौर में, जब हमारा हर चयन राजनीतिक है, तब ख़ुद को अराजनीतिक दिखाने का पाखंड। एक-दूसरे की धर्मांधता का जिक्र करने में डरपोकपन दिखाना। अपने इर्द-गिर्द के करोड़ों लोगों का जीवन जब तहस-नहस कर दिया गया हो तब अपने वर्ग और जाति से मिलने वाली सुविधाओं की छांव में चैन महसूस करते हुए नाक चढ़ाए घूमना।
खैर, इस ग्रुप को मैंने बड़े सुकून से छोड़ा। मुझे अब गुस्सा नहीं आ रहा। छोडऩे का मतलब है, मैं अपने रिश्तों में चुनाव कर सकती हूं और अपनी अनुभूतियां किसी पर थोपे बगैर उनको महसूस कर सकती हूं।
इसका अर्थ यह है कि मैं ख़ुद के लिए स्पेस बना रही हूं। अपनी हताशा को अपने ही लोगों के खिलाफ क्रोध में बदलने के सहज लोभ से मैंने अपने आपको बचा लिया है। अपनी ऊर्जा को ऐसी जगहों पर बिखरने से बचा लिया है, जहां यह किसी समस्या का समाधान नहीं करेगी, कुछ बेकार के मुद्दे जरूर खड़े कर देगी।
सोशल मीडिया से चिपकने की प्रवृति
मेरा यह करना उचित था, क्योंकि लोग उस चीज से कहीं ज्यादा बड़े हैं, जिसे वे सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हैं।
एक माध्यम के रूप में व्हाट्सऐप ग्रुप आपसे किस तरह चिपक जाता है, यह देखकर मैं चकित हूं। हम इसकी शिकायत करते हैं लेकिन ग्रुप नहीं छोड़ते।
हमारे ज्यादातर बुज़ुर्ग इस तरह की चीजों को खारिज भी नहीं करते।
ग्रुप एडमिन किसी ग्रुप का शुरुआती मकसद पूरा होने के बाद भी ग्रुप को डिलीट नहीं करते। आभासी दुनिया में हम इस तरह एक-दूसरे पर क्यों लटके हुए हैं।
इतना सारा खुला स्पेस मौजूद है, फिर भी हम बंद कमरों में घुटे जा रहे हैं।
महामारी के दिनों के हमारे तजुर्बे ने हमें याद दिलाया है कि जि़ंदगी छोटी है। संगीत सीखना है, ब्रिस्क वॉक पर जाना है। पौधों की देख-रेख करनी है, जानवरों को खाना खिलाना है।
कविताओं की तह में घुसना है। दीवारों पर नारे लिखने हैं और जरूरी कामों के लिए चंदा जुटाना है। जिन चीजों से आपका लगाव है, उनकी प्राथमिकता सूची बनाएं और उन बातों से दोस्ती करें, जिनसे आपको लगाव है।
फैमिली व्हाट्सऐप ग्रुप्स के भुलावे में न आएं। वास्तविक जीवन में अपना रास्ता खुद बनाने के लिए आपने कड़ी मशक्कत की है। इस उथले नए माध्यम के आगे घुटने न टेकें, जो हर मायने में विस्तृत परिवारों की उदास, विषैली हायरार्की की ही नकल करता है।
बाहर निकलें, अभी निकलें।
हम ऐसे समय में जी रहे हैं, जिसमें आपका जिंदा रहना आपके अलग होने पर ही निर्भर करता है। नाकामी और नामंजूरी से न डरें।
इन दोनों चीजों की जरूरत हमें भारी मात्रा में है। इनमें से कुछ भी स्थायी नहीं है। यही वे मौके हैं जो हमें सोचने और जीने के नए तरीके की ओर ले जा सकते हैं। वह मिसाल बनें, जिसको देखने की जरूरत हर किसी को है।
अपनी वह उंगली इस्तेमाल करें। व्हाट्सऐप ग्रुप्स से बाहर आने वाले पहले इंसान बनें। ऐसे हर ग्रुप से बाहर निकल आएं, जो आपको परेशान कर रहा हो। आप पाएंगे कि लंबे समय में आपने कुछ भी खोया नहीं है। आपने अपना सुकून हासिल किया है। (bbc.com/hindi)
- अशोक पांडेय
1940 के आते-आते प्राग शहर में रह रहे यहूदियों को न अपना पता बदलने की इजाजत थी न शहर छोडऩे की। एक साल बाद उन्हें प्राग के चारों तरफ फैले जंगलों में टहलने पर भी मनाही हो गई। वे बसों, ट्रेनों में सफर नहीं कर सकते थे। यहूदियों के धंधे जब्त कर लिए गए। तमाम यहूदी नौकरियों से और उनके बच्चे स्कूलों से निकाल दिए गए। उनके घरों से टेलीफोन उखाड़ लिए गए और उन्हें सार्वजनिक टेलीफोन इस्तेमाल करने की इजाजत भी नहीं थी। अपमान, विद्वेष और घृणा का यह दौर दूसरे विश्वयुद्ध के समाप्त होने तक चला। उनके साथ ऐसी अमानवीय कत्लोगारत हुई कि समूचे चेकोस्लोवाकिया में रहने वाले कुल यहूदियों की आबादी साढ़े तीन लाख से घटकर चौदह हजार रह गई।
युद्ध शुरू होने के सोलह साल पहले फ्रान्ज काफ्का की टीबी से मौत हो चुकी थी जिसके बाद वह बीसवीं सदी के सबसे बड़े लेखक के तौर पर स्थापित हो चुका था। 1938-39 में प्राग पर कब्जा करने के बाद हिटलर की सत्ता ने पहले काफ्का की किताबों को केवल यहूदी पाठकों तक सीमित किया। उसके बाद उन्हें सभी के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया। काफ्का के प्रकाशक शॉकेन को से भाग कर तेल अवीव जाना पड़ा।
1883 में प्राग में जन्मे काफ्का की अगर अल्पायु में मृत्यु न हुई होती तो वह नाजी हत्यारों की बंदूकों का शिकार बनता या किसी गैस चैंबर में दम घुटने से मर गया होता। मालूम नहीं उसे मरने से पहले अपनी तीन बहनों-ओतला, वाली और एली-के बारे में कोई समाचार मिलता भी या नहीं।
वह तीनों से प्यार करता था। ओतला से सबसे ज्यादा क्योंकि जब-जब वह बीमारी से परेशान होता, वही उसे अपने घर में ले कर आती थी और उसका खयाल रखती थी। अपनी कुछ महत्वपूर्ण कहानियां उसने ओतला के घर पर रह कर ही लिखी थीं।
कल्पना करता हूँ अगर काफ्का सन् 1943 तक जीवित रह गया होता तो हमें उसकी लिखी कुछ और किताबें नसीब होतीं। दुनिया ठीकठाक चली होती तो शायद उसे नोबेल भी मिल गया होता। लेकिन यह कल्पना करना नामुमकिन है कि पहले ही दु:ख और कुंठाओं से अटे उसके जीवन में तब तक कैसा अकल्पनीय दु:ख भर गया होता।
कभी प्राग का इत्तफाक बने तो वहां के जिजकोव इलाके में मौजूद यहूदियों के नए कब्रिस्तान में उसकी कब्र देखने अवश्य जाएं। उसकी कब्र की बगल में काले संगमरमर की एक प्लेट रखी रहती है। वह उसकी बहनों का स्मृतिचिन्ह है। ओतला, वाली और एली-तीनों को 1941 से 1943 के बीच नाजी यंत्रणा शिविरों में मौत के घाट उतार दिया गया था।
दुनिया के साहित्य में भगवान का दर्ज रखने वाला फ्रांज काफ्का 3 जुलाई के दिन पैदा हुआ था। काफ्का को वयस्कों के संसार से नफरत की हद तक भय लगता था। एक दफा उसने अपने सबसे पक्के दोस्त मैक्स ब्रॉड से कहा था- ‘बच्चे से मैं सीधा बूढ़ा बन जाऊंगा- सफेद बालों वाला बूढ़ा।’
वयस्कों के संसार से आपको भी भय लगता है?
-टिफ़नी टर्नबुल
ऑस्ट्रेलिया में नई जनगणना के आँकड़ों से पता चलता है कि देश की आबादी में कुछ बड़े बदलाव हो रहे हैं. इनमें हिंदू धर्म और वहाँ रह रहे भारतीयों की स्थिति को लेकर भी नई जानकारियाँ सामने आई हैं.
ऑस्ट्रेलिया में हर पाँच साल पर जनगणना होती है. ताज़ा जनगणना 2021 में हुई जिसके आँकड़े पिछले सप्ताह जारी किए गए.
नई जनगणना के अनुसार ऑस्ट्रेलिया की आबादी ढाई करोड़ से ज़्यादा हो गई है. वहाँ की आबादी अब दो करोड़ 55 लाख हो गई है, जो 2016 में दो करोड़ 34 लाख थी.
यानी पिछले पाँच सालों में वहाँ की आबादी में 21 लाख की वृद्धि हुई है. वहीं देश की औसत आमदनी भी थोड़ी बढ़ी है.
जनगणना के आँकड़ों से आने वाले वक़्त में देश को आकार देने में मदद करने वाली प्रवृत्तियों का भी पता चलता है. ऐसे पाँच बदलाव इस तरह हैं:
1. हिंदू और इस्लाम सबसे तेज़ी से बढ़ता धर्म
ऑस्ट्रेलिया में पहली बार ऐसा हुआ है कि देश में ख़ुद को ईसाई बताने वालों की संख्या 50 फ़ीसदी से कम हो गई है.
ऑस्ट्रेलिया ब्यूरो ऑफ़ स्टैटिस्टिक्स (एबीएस) के अनुसार, अब ऑस्ट्रेलिया में केवल 44 फ़ीसदी ईसाई रह गए हैं.
वहीं लगभग 50 साल पहले ईसाइयों की आबादी क़रीब 90 फ़ीसदी थी.
हालांकि देश में ईसाई धर्म को मानने वालों की तादाद अभी भी सबसे ज़्यादा है, लेकिन उसके बाद दूसरे नंबर पर ऐसे लोगों की संख्या है जो किसी भी धर्म को नहीं मानते हैं.
देश में किसी भी धर्म को नहीं मानने वाले लोगों की संख्या बढ़कर अब 39 फ़ीसदी हो गई है और इस तरह "नो रिलीजन" वाले लोगों की तादाद में 9 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.
हिंदू और इस्लाम अब ऑस्ट्रेलिया के सबसे तेज़ी से बढ़ते धर्म हैं.
हालांकि इन दोनों धर्मों को मानने वाले लोगों की संख्या 3-3 ही प्रतिशत है.
मगर पिछली बार की जनगणना से तुलना करने पर पता चलता है कि दोनों धर्मों के लोगों की संख्या बढ़ रही है.
2016 में ऑस्ट्रेलिया में हिंदू आबादी (1.9%) और मुस्लिम आबादी (2.6%) थी.
2. बढ़ रही है देश की विविधता
ऑस्ट्रेलिया अब पहले से कहीं ज़्यादा विविध बन रहा है. आधुनिक ऑस्ट्रेलिया का निर्माण आप्रवासन (बाहर से आकर बसना) से हुआ है. हालांकि इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि देश की आधी से ज़्यादा आबादी या तो विदेशों में पैदा हुई है या उनके माता पिता विदेशों में पैदा हुए हैं.
कोरोना महामारी के दौरान आप्रवासन की दर धीमी हुई, लेकिन पिछले पांच सालों के दौरान देश में 10 लाख से ज़्यादा लोग दूसरे देशों से आ चुके हैं. इनमें से क़रीब एक चौथाई लोग भारत से वहां पहुंचे हैं.
नई जनसंख्या में वहाँ रहनेवाले ऐसे लोग जिनका जन्म किसी और देश में हुआ है, वहाँ भारत के लोगों ने चीन और न्यूज़ीलैंड को पीछे छोड़ दिया है. भारत वहाँ तीसरे नंबर पर है.
ऑस्ट्रेलिया में अभी सबसे ज़्यादा संख्या ऐसे लोगों की है जिनका जन्म ऑस्ट्रेलिया में ही हुआ है, उसके बाद ऐसे लोग हैं जिनका जन्म इंग्लैंड में हुआ है. इन दोनों देशों के बाद तीसरा नंबर ऐसे लोगों का है जिनका जन्म भारत में हुआ है.
ऑस्ट्रेलिया में 20 फ़ीसदी से ज़्यादा लोग अपने घरों में अंग्रेज़ी से इतर कोई और भाषा बोलते हैं. 2016 से ऐसे लोगों की तादाद में क़रीब 8 लाख की वृद्धि हुई है. अंग्रेज़ी के इतर बोली जाने वाली भाषाओं में सबसे प्रचलित चीनी या अरबी है.
3. मूल निवासियों की आबादी भी तेज़ी से बढ़ी
ऑस्ट्रेलिया में ख़ुद को देसी या टोरेस स्ट्रेट आइलैंड के वासी बताने वालों की संख्या पिछली जनगणना के मुक़ाबले क़रीब एक चौथाई बढ़ी है.
एबीएस के अनुसार, इसकी वजह न केवल नए लोगों का पैदा होना है, बल्कि इस समुदाय के लोग ख़ुद की देसी पहचान ज़ाहिर करने में अब पहले से ज़्यादा सहज हो रहे हैं.
अब देश के देसी लोगों की संख्या बढ़कर 8,12,728 हो गई है, जो देश की कुल जनसंख्या का 3.2 प्रतिशत है.
आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि देसी या टोरेस स्ट्रेट आइलैंड के बाशिंदों द्वारा बोली जाने वाली सक्रिय भाषाएं 167 हैं, जिन्हें बोलने वालों की संख्या पूरे देश में 78 हज़ार से अधिक है.
1788 में यूरोपीय लोगों के आने के पहले देश में मूल निवासियों की तादाद 3.15 लाख से 10 लाख के बीच होने का अंदाज़ा था.
लेकिन बीमारी, हिंसा, स्थानांतरण और बेदख़ल किए जाने के चलते मूल निवासियों की संख्या में तेज़ी से कमी दर्ज की गई.
4. मिलेनियल ने बेबी बूमर्स को छोड़ा पीछे
जनगणना के ताज़ा आंकड़ों की एक और ख़ासियत है कि देश की पीढ़ी अब बदल गई है.
ऑस्ट्रेलिया में अभी तक 'बेबी बूमर्स' (1946 से 65 के बीच पैदा हुए लोग) की संख्या सबसे अधिक थी.
लेकिन अब 'मिलेनियल' (1981 से 95 के बीच पैदा हुए लोग) की तादाद इनसे थोड़ी ज़्यादा हो चुकी है.
देश की आबादी में इन दोनों ही समूहों का हिस्सा 21.5 प्रतिशत है.
जानकारों का मानना है कि सरकार को अब आवास और बूढ़े लोगों के रहने की सुविधा पर ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत होगी.
5. घर ख़रीदना हुआ मुश्किल
25 साल पहले ऑस्ट्रेलिया में क़रीब एक चौथाई लोग घर ख़रीदते थे, लेकिन अब यहां अपना घर ख़रीदना आसान नहीं रह गया है.
तेज़ी से बहुत महंगा होने के चलते 1996 से अब तक बंधक रखी गई प्रॉपर्टी का हिस्सा बढ़कर दोगुना हो गया है.
2022 में आई एक रिपोर्ट के अनुसार, घर ख़रीदने के लिहाज से अब ऑस्ट्रेलिया के शहर पूरी दुनिया में सबसे ख़राब रैंकिंग में आते हैं.
लेकिन जनगणना के आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि अब लोग रहने के दूसरे विकल्पों का रुख़ कर रहे हैं.
अब देश में कैरावैन रखने वालों की संख्या क़रीब 150 फ़ीसदी बढ़ चुकी है. देश के पर्यटकों के बीच घूमने के लिए कैरावैन बहुत लोकप्रिय है.
अब देश में इसकी संख्या क़रीब 60 हज़ार हो गई है. वहीं हाउस बोट भी लगभग 30 हज़ार हो गए हैं. (bbc.com/hindi)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नुपुर शर्मा के मामले में भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के दो जजों ने बहस के दौरान जो टिप्पणियां की हैं, उन्हें लेकर देश में काफी बहस छिड़ गई है। अनेक लोग उनकी टिप्पणियों पर सख्त नाराजी जाहिर कर रहे हैं। वे पूछ रहे हैं कि उदयपुर में कन्हैयालाल की हत्या के लिए नुपुर को जिम्मेदार ठहराने वाले जजों से कोई पूछे कि उनकी नुपुर-विरोधी टिप्पणियों के कारण यदि नुपुर या किसी अन्य व्यक्ति की हत्या हो जाए तो क्या इन सम्मानीय जजों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है?
यह तो सबको पता है कि जजों की टिप्पणियां उनके फैसले का अंग नहीं हैं, इसलिए उनका कोई कानूनी महत्व नहीं है। उन्हें अनदेखा किया जा सकता है और उस याचिका की भी जरुरत दिखाई नहीं पड़ती कि ये जज अपने टिप्पणियां वापिस लें।
इन जजों का यह प्रश्न भी ध्यान देने लायक है कि पत्रकार तो वैसी टिप्पणी कर सकता है लेकिन किसी पार्टी-प्रवक्ता को उत्तेजित होकर वैसी टिप्पणी करनी चाहिए क्या? हमारे राजनीतिक नेता और उनके प्रवक्ता खास तौर से टीवी चैनलों पर काफी निरंकुश टिप्पणियां कर देते हैं। उनको उसका करारा जवाब विरोधी लोग दिए बिना मानते नहीं हैं।
टीवी मालिक तो यही चाहते हैं। यदि तू-तू मैं-मैं जमकर चले तो उनकी दर्शक-संख्या बढ़ेगी लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि इससे देश का कितना नुकसान हो सकता है। ऐसी बहसों को रोकने के लिए टीवी चैनलों पर भी अंकुश लगाया जाना जरुरी है। बेहतर तो यही हो कि इस तरह के विवादास्पद मुद्दों पर जो भी बहस हो, उसे पहले से रेकार्ड और संपादित करके ही जारी किया जाए। वरना जो कुछ उदयपुर और अमरावती में हुआ है, वह बड़े पैमाने पर भी हो सकता है।
स्वतंत्र भारत के लिए इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है। भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन ने अपने दिल का दर्द कल अमेरिका के भारतीय प्रवासियों को संबोधित करते हुए सार्वजनिक कर ही दिया। उन्होंने कहा कि सत्तारुढ़ और विपक्षी नेता, दोनों ही चाहते हैं कि न्यायपालिका उनकी तरफ झुके लेकिन उसका धर्म उसके निष्पक्ष रहने से ही सुरक्षित रह सकता है।
बहुत दुख की बात है कि हमारे प्रमुख राजनीतिक दलों के नेता अपनी-अपनी रोटियां सेंकने से अब भी बाज नहीं आ रहे हैं। क्या उन्हें इस बात का जऱा भी अंदाज नहीं है कि उनकी कारगुजारियों के चलते यह धर्म-निरपेक्ष भारत धर्मयुद्ध का स्थल बन सकता है? (नया इंडिया की अनुमति से)
पंकज चतुर्वेदी
हिंदू बुजुर्ग की अर्थी को मुसलमान परिवार ने कंधा दिया। राम नाम सत्य है का उच्चारण भी किया। पूरे विधि-विधान के साथ अंतिम संस्कार किया गया। पटना के राजाबाजार में हर कोई देखता रह गया।
आजकल देश में जो माहौल है, उसकी वजह से लोगों को आश्चर्य लग रहा था।
मुस्लिम परिवार ने बजाप्ता अर्थी सजा कर हिंदू शख्स को अंतिम संस्कार के लिए राम नाम सत्य बोलते हुए पटना के गंगा घाट तक ले गए।
पटना की यह तस्वीर बताती है कि आम आदमी के दुख-दर्द एक जैसे हैं और इसमें साझीदार केवल अपने लोग ही हैं।
यहां एक मुस्लिम परिवार ने 20 साल से अपनी दुकान में परिवार के सदस्य की तरह नौकरी कर रहे एक हिन्दू शख्स रामदेव की मौत के बाद शव का सनातन पद्धति से अंतिम संस्कार किया।
पटना के समनपुरा इलाके में रहने वाले मुस्लिम परिवार के सदस्य अर्थी पर शव रख अंतिम संस्कार के लिए राम नाम सत्य बोलते हुए गंगा किनारे पटना के गुलबी घाट तक ले गए।
रामदेव, राजा बाजार के समनपुरा में रहने वाले मोहम्मद अरमान की दुकान में 20 साल से अकाउंटेंट थे। वह भटकते हुए राजा बाजार आए थे, काफी भूखे थे। तब उन्हें स्थानीय लोगों ने भोजन कराया था।
बातचीत में उनके पढ़े-लिखे होने का पता चला तो अरमान ने अपनी दुकान में अकाउंटेंट के रूप में रख लिया। तब से वे लगातार उन्हीं के यहां काम कर रहे थे।
शुक्रवार को किराए के घर में अचानक सोये में उनकी मृत्यु हो गई। तब मकान मालिक ने यह जानकारी मो. अरमान व उनके भाई को दी। अर्थी को मो. रिजवान, मो. अरमान, मो. राशिद और मो. इजहार ने कंधा दिया।
नफरतों की काली साजिशों के बीच ऐसे समाचार आशा, उम्मीद और भरोसा जताते हैं। पटना के साथी इन लोगों का जा कर अभिनन्दन जरूर करें।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
प्लास्टिक पर एक जुलाई से सरकार ने प्रतिबंध तो लागू कर दिया है लेकिन उसका असर कितना है? फिलहाल तो वह नाम मात्र का ही है। वह भी इसके बावजूद कि 19 तरह की प्लास्टिक की चीजों में से यदि किसी के पास एक भी पकड़ी गई तो उस पर एक लाख रु. का जुर्माना और पांच साल की सजा हो सकती है। इतनी सख्त धमकी का कोई ठोस असर दिल्ली के बाजारों में कहीं दिखाई नहीं पड़ा है।
अब भी छोटे-मोटे दुकानदार प्लास्टिक की थैलियां, गिलास, चम्मच, काडिय़ा, तश्तरियां आदि हमेशा की तरह बेच रहे हैं। ये सब चीजें खुले-आम खरीदी जा रही हैं। इसका कारण क्या है? यही है कि लोगों को अभी तक पता ही नहीं है कि प्रतिबंध की घोषणा हो चुकी है। सारे नेता लोग अपने राजनीतिक विज्ञापनों पर करोड़ों रुपया रोज खर्च करते हैं। सारे अखबार और टीवी चैनल हमारे इन जन-सेवकों को महानायक बनाकर पेश करने में संकोच नहीं करते लेकिन प्लास्टिक जैसी जानलेवा चीज़ पर प्रतिबंध का प्रचार उन्हें महत्वपूर्ण ही नहीं लगता।
नेताओं ने कानून बनाया, यह तो बहुत अच्छा किया लेकिन ऐसे सैकड़ों कानून ताक पर रखे रह जाते हैं। उन कानूनों की उपयोगिता का भली-भांति प्रचार करने की जिम्मेदारी जितनी सरकार की है, उससे ज्यादा हमारे राजनीतिक दलों और समाजसेवी संगठनों की है। हमारे साधु-संत, मौलाना, पादरी वगैरह भी यदि मुखर हो जाएं तो करोड़ों लोग उनकी बात को कानून से भी ज्यादा मानेंगे।
प्लास्टिक का इस्तेमाल एक ऐसा अपराध है, जिसे हम ‘सामूहिक हत्या’ की संज्ञा दे सकते हैं। इसे रोकना आज कठिन जरुर है लेकिन असंभव नहीं है। सरकार को चाहिए था कि इस प्रतिबंध का प्रचार वह जमकर करती और प्रतिबंध-दिवस के दो-तीन माह पहले से ही 19 प्रकार के प्रतिबंधित प्लास्टिक बनानेवाले कारखानों को बंद करवा देती। उन्हें कुछ विकल्प भी सुझाती ताकि बेकारी नहीं फैलती। ऐसा नहीं है कि लोग प्लास्टिक के बिना नहीं रह पाएंगे। अब से 70-75 साल पहले तक प्लास्टिक की जगह कागज, पत्ते, कपड़े, लकड़ी और मिट्टी के बने सामान सभी लोग इस्तेमाल करते थे।
पत्तों और कागजी चीज़ों के अलावा सभी चीजों का इस्तेमाल बार-बार और लंबे समय तक किया जा सकता है। ये चीजें सस्ती और सुलभ होती हैं और स्वास्थ्य पर इनका उल्टा असर भी नहीं पड़ता है। लेकिन स्वतंत्र भारत में चलनेवाली पश्चिम की अंधी नकल को अब रोकना बहुत जरुरी है। भारत चाहे तो अपने बृहद अभियान के जरिए सारे विश्व को रास्ता दिखा सकता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
महाराष्ट्र की राजनीति भारत के लिए कुछ महासबक दे रही है। सबसे पहला सबक तो यही है कि परिवारवाद की राजनीति पर जो पार्टी टिकी हुई है, वह खुद के लिए और भारतीय लोकतंत्र के लिए भी खतरा है। खुद के लिए वह खतरा है, यह उद्धव ठाकरे की शिवसेना ने सिद्ध कर दिया है। अब जो शिवसेना उद्धव ठाकरे के पास बची हुई है, वह कब तक बची रहेगी या बचेगी या नहीं बचेगी, कुछ पता नहीं।
उसके दो टुकड़े पहले ही हो चुके थे जैसे लालू और मुलायमसिंह की पार्टियों के हुए हैं। ये पार्टियां परिवार के अलग-अलग खंभों पर टिकी होती हैं। कोई पार्टी मां-बेटा पार्टी है तो कोई बाप-बेटा पार्टी है। कोई चाचा-भतीजा पार्टी है तो कोई बुआ-भतीजा पार्टी है। बिहार में तो पति-पत्नी पार्टी भी रही है। अब जैसे कांग्रेस भाई-बहन पार्टी बनती जा रही है, वैसे ही पाकिस्तान में भाई-भाई पार्टी, पति-पत्नी पार्टी और बाप-बेटा पार्टी है।
ये सब पार्टियां अब पार्टियां रहने की बजाय प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां बनती जा रही हैं। न तो इनमें आतंरिक लोकतंत्र होता है, न इनमें आमदनी और खर्च का कोई हिसाब होता है और न ही इनकी कोई विचारधारा होती है। इनका एकमात्र लक्ष्य होता है— सत्ता-प्राप्ति! यदि सेवा से सत्ता मिले और सत्ता से सेवा की जाए तो उसका कोई मुकाबला नहीं लेकिन अब तो सारा खेल सत्ता और पत्ता में सिमट कर रह गया है। सत्ता हथियाओ ताकि नोटों के पत्ते बरसने लगें।
सत्ता से पत्ता और पत्ता से सत्ता— यही हमारे लोकतंत्र की पहचान बन गई है। राजनीति में भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार बन गया है। हमारी राजनीति में आदर्श और विचारधारा अब अंतिम सांसें गिन रही हैं। भारतीय राजनीति के शुद्धिकरण के लिए यह जरुरी है कि सभी पार्टियों में परिवारवाद पर रोक लगाने की कुछ संवैधानिक तजवीज की जाए। महाराष्ट्र की राजनीति का दूसरा सबक यह है कि परिवारवाद उसके नेता को अहंकारी बना देता है। वह अपने पद को अपने बाप की जागीर समझने लगता है। एक बार उस पर बैठ गया तो जिंदगी भर के लिए जम गया।
पार्टी में नेता जो तानाशाही चलाता है, उसे वह सरकार में भी चलाना चाहता है। कभी-कभी ऐसे लोग सरकारों को बहुत प्रभावशाली और नाटकीय ढंग से चलाते हुए दिखाई पड़ते हैं लेकिन जब पाप का घड़ा फूटने को होता है तो उस वक्त आपात्काल थोपना पड़ता है। यदि भारत को हमें लोकतांत्रिक राष्ट्र बनाए रखना है और उसे आपात्कालों से बचाना है तो पार्टियों के आंतरिक लोकतंत्र की रक्षा के लिए कुछ संवैधानिक प्रावधान करने होंगे। (नया इंडिया की अनुमति से)
-प्रकाश दुबे
ऐसी खबर, जो आपकी नजर से संभवत: नहीं गुजरी होगी। बेलगांव-कर्नाटक के लिए बेलगांवी जिले के सुप्रित ईश्वर दिवटे को पुलिस ने हथकड़ी लगाकर अदालत में पेश किया। बेकसूरी के साथ आरोप लगाया कि पुलिस ने हथकड़ी लगाकर प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाई। यदुर गांव के निवासी दिवटे को कर्नाटक उच्च न्यायालय की धारवाड़ खंडपीठ ने दो लाख रुपए मुआवजा देने का आदेश दिया। 5 नवम्बर 2019 को दिवटे को गिरफ्तार किया गया। प्रधानमंत्री ने आपातकाल को याद करते हुए इसी सप्ताह नागरिक स्वतंत्रता सीमित करने की आलोचना की थी। अदालतें कहती हैं कि अभियुक्त को बेडिय़ां पहनाना अनुचित है। निर्देश की बार-बार अनदेखी होती है। कर्नाटक खंडपीठ के न्यायमूर्ति सूरज गोविंदराज ने अदालतों और न्यायाधीशों को भी सजग रहने का संदेश दिया। कहा-अदालतों को अभियुक्त से पूछना चाहिए कि बेडिय़ां तो नहीं पहनाई गई थीं। यदि वह हामी भरता है तब पुलिस से कारण की पूछताछ की जाए ताकि औचित्यका पता लगे। विचाराधीन मामलों के बारे में भी यही प्रक्रिया अपनाई जाए। वाजिब कारण और अनुमति के बगैर हथकड़ी पहनाना पुलिसकर्मी का गैरकानूनी काम है। न्यायाधीश ने कहा-जिम्मेदार पुलिसकर्मी से शासन मुआवजे की राशि वसूल कर सकता है।
मानवाधिकार के नाम पर हर ऐरे गैरे को हथकड़ी से छूट देना? कुछ पुलिसकर्मी इसे अव्यावहारिक मान सकते हैं। पुरानी किसी शिकायत में खोट पाने का अदालत में उल्लेख होते ही पुलिस इन दिनों दूसरे राज्य से व्यक्तियों को पकड़ लाती है। अपने ही सेवानिवृत्त अधिकारी को हिरासत में लेती है। पुलिस के सामने अच्छे अच्छों की नहीं चलती। गाजियाबाद में वकील संजय सिंह के परिवार में शादी की तैयारी के दौरान पुलिस संरक्षण में आए दस्ते ने घर का मुख्य द्वार तोड़ा। पड़ोसी का बेटा हैदराबाद के सरदार वल्लभ भाई पटेल अकादमी में प्रशिक्षु है। वकील ने गाजियाबाद के पुलिस अधिकारी, नगरनिगम आदि से शिकायत की। जाति और वर्तमान सत्ता से निकटता का हवाला दिया। पुलिस अकादमी में प्रशिक्षु अधिकारी की मनमानी की शिकायत की पहुंच तक नहीं मिली। स्थानीय विधायक राज्य में सर्वाधिक वोट से जीता। टूटे गेट को न्याय नहीं मिला। उत्तर प्रदेश में पत्रकार कप्पन सहित अनेक व्यक्तियों की गिरफ्तारी के बाद अब तक जमानत पर रिहाई तक संभव नहीं हुई। पश्चिम बंगाल, बिहार पुलिस के कारनामे सर्वविदित हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति आनंद नारायण मुल्ला ने बरसों पहले पुलिस को अपराधियों का संगठित गिरोह कहा था।
महाराष्ट्र के दर्जनों पल्टीमार विधायकों के पलायन की महाराष्ट्र की खुफिया एजेंसियों को भनक नहीं लगी। पड़ोसी राज्य में होटल से लेकर हवाई अड्डे तक पुलिस मुस्तैद थी।इन दिनों महाराष्ट्र सरकार ही डावांडोल है। महानिदेशक स्तर के संबंधित अधिकारी से पूछताछ कौन करे? वैसे भी संबंधित अधिकारी गृहमंत्री के विधानसभा क्षेत्र के निवासी बताए जाते हैं। कुशलतम प्रशासकों में शामिल दिलीप वलसे पाटील को भी अपनी इस नायाब पसंद पर घोर अफसोस हुआ होगा। बहरहाल इस नतीजे पर पहुंचने की जल्दबाजी न करें कि अधिकारी जानकारी पाने में अक्षम रहा। संभव है अपने वर्तमान से अधिक चमकीले भविष्य की संभावना ने उसका असमंजस तोड़ा हो। अतीत के उदाहरण उठाकर देखिए। अधिकांश ऐसे अफसर जो पुलिस या इससे मिलती जुलती जांच एजेंसियों में जांच, अनुशासन की कार्रवाई या उपेक्षा की आशंका से हैरान थे, उन्होंने नए निजाम से समीकरण बिठाया। पुराने आकाओं को हिरासत में लेने, जांच के नाम पर अदालत की परिक्रमा कराने और बदनाम करने में उत्साह दिखाया। कुछ तो पुरस्कृत होकर निर्वाचित सदनों के आसन की शोभा बढ़ा रहे हैं।
अजीत पवार ने तडक़े शपथ ली, तब भी कानोंकान खबर नहीं लगी। खुफिया पुलिस की कर्णधार रहीं रश्मि शुक्लाने सांसद-विधायकों के फोन टेप किए थे। आजकल वे पुलिस अकादमी में आसीन हैं। रिबैरो और अरविंद इनामदार वाली महाराष्ट्र पुलिस कहीं है? जांच और कार्रवाई के बजाय पुलिस को अब कभी कभार राजनीतिक कारणों में सहभागी होने या न होने के लिए अभय मिलता है। यह धारणा खतरनाक है। पुलिस दल की समस्या पर ध्यान दें। जिनकी वे जांच करते हैं, अकस्मात उनकी सुरक्षा और आदेश पालन की नौबत आ जाती है। क्षेत्रीयता, सत्ता से निकटता जैसे विचार में बंटते पुलिसकर्मी आपसे में भिड़ते हैं। सीबीआई की खींचतान, पंजाब-दिल्ली-हरियाणा पुलिस के आपस में टकराव और अखिल भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों की नियुक्ति में केन्द्र और राज्यों की खींचतान इसी की देन है। प्रधानमंत्री ने राजनीतिक शतरंज के हिसाब से गृह मंत्रालय में मोहरे बिठाए थे। वे तो उत्तर प्रदेश, बिहार,पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में पार्टी की मजबूती के हिसाब से विचार कर रहे थे। लखीमपुर खीरी में किसानों और पत्रकार को कुचलने के बाद राज्य पुलिस को जिस तरह अपनी बदनामी की कीमत पर उठापटक करनी पड़ी, वह अच्छा संकेत नहीं रहा। यह बात और है कि चुनाव में उनके दल को इससे नुकसान नहीं हुआ परंतु दागदार छवि भी सत्ता के प्रभाव को कम करने का कारण बनती है। प्रधानमंत्री को कोई पूर्वाभास नहीं रहा होगा कि दो राज्यमंत्री उनके आभामंडल में इतने छिद्र कर देंगे। इस तरह की स्थिति सिर्फ भाजपा में ही नहीं है। अन्य कई दलों और नेताओं ने जानबूझकर ऐसी परेशानियां आमंत्रित की हैं। कई राज्यों के उदाहरण हैं। निर्वाचित प्रतिनिधियों को पद सौंपकर पुलिस बल को यही संकेत दिया जाता है कि अब तुम्हें पुरातन काल की विवाहिता की तरह परमेश्वर-प्रतिनिधि की सेवा करना है। ऐसे मसले अदालत तक जाते हैं। कुछ ईमानदार अधिकारी न्यायपालिका से उम्मीद रखते हैं। कुछ हताश होने के बाद त्यागपत्र देकर अलग हो जाते हैं। एक दो अपवाद छोडक़र अदालतें इन पचड़ों पर दो टूक निर्णय करना टालती हैं।
समस्या समझने के लिए जांच आयोग बिठाने की जरूरत नहीं है। पुरानी कहावत के मुताबिक (पुलिस का) घोड़ा कमजोर सवार को पटकता है। घोड़ा बाजार में जब दुलत्तीमार बैसाखनंदन बिकने लगते हैं तब उनके घुड़सवार बनने की संभावना प्रबल हो जाती है। यही हो रहा है। आप अवाक होकर मुंह खोले या तो तमाशा देखें या विचार करें। नागरिक होने के नाते अंतत: झेलना आपको है।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
-सुदीप श्रीवास्तव
कल दोपहर बाद महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई में जो कुछ घटा उसने सारे राजनीतिक पंडितों और खबरनवीसों को हतप्रभ कर दिया। 2019 में शिवसेना एवं भाजपा का चुनाव पूर्व गठबंधन महाराष्ट्र विधानसभा में बहुमत लेकर विजयी हुआ था परन्तु सरकार बनाने के समय यह गठबंधन केवल इसी बात पर टूट गया था कि शिवसेना ने पहले ढाई साल अपना मुख्यमंत्री बनाने के जिद की थी। भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व इस बात के लिए बिल्कुल तैयार नहीं था और इस लड़ाई में यह गठबंधन उस वक्त पूरी तरह टूट गया जब देवेन्द्र फडणवीस ने एनसीपी के अजित पवार को साथ लेकर मुख्यमंत्री की शपथ ले ली थी।
बहुत कम लोगों को इस बात का ध्यान है कि 2014 का लोकसभा चुनाव साथ लड़ने के बावजूद 2014 का महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव शिव सेना और भाजपा ने अलग-अलग लड़ा था। उस वक्त अगर एनसीपी और कांग्रेस गठबंधन में चुनाव लड़ते तो शायद उन्हीं का बहुमत आता परन्तु एनसीपी और कांग्रेस के भी अलग-अलग चुनाव लडऩे से बहुकोणीय संघर्ष हुआ और भाजपा 110 से अधिक सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। शिवसेना ने भी 70 सीटें जीतने में सफलता पाई जबकि राज ठाकरे के द्वारा अपनी पार्टी को चुनाव में उतार कर शिवसेना और उद्धव ठाकरे को कमजोर करने की कोशिश की थी। इस सफलता ने बाला साहब ठाकरे की विरासत पूरी तरह उद्धव ठाकरे के पक्ष में साबित कर दी थी।
2014 में सरकार बनाने के लिये लम्बा विचार विमर्श और समय लगा तब भी शिवसेना महाराष्ट्र में गठबंधन का नेतृत्व और मुख्यमंत्री पद मांग रही थी परन्तु अंतत: देवेन्द्र फडणवीस के नेतृत्व में भाजपा-सेना की गठबंधन की सरकार बनी। यह बात उद्धव ठाकरे को लगातार सालती रही और ढाई साल होने के बाद भाजपा नेतृत्व से बात कर सेना का मुख्यमंत्री बनाने की बात भी की गई। जाहिर है कोई नतीजा न निकलने पर उद्धव ठाकरे ने उस वक्त चुप रहना बेहतर समझा। धीरे-धीरे 2019 का लोकसभा चुनाव जब नजदीक आया उस वक्त उद्धव ठाकरे ने गठबंधन बनाये रखने के लिए यह शर्त रख दी कि 2019 विधानसभा चुनाव के बाद ढाई-ढाई साल का मुख्यमंत्री होगा और पहला मौका शिवसेना को दिया जायेगा।
गठबंधन में तनाव की खबरों के बीच गृहमंत्री अमित शाह ने मुंबई का दौरा किया था उद्धव ठाकरे से एक मुलाकात की जिसमें काफी समय दोनों के सिवा कोई नहीं था। कहा जाता है कि इस मुलाकात में उद्धव ठाकरे के द्वारा शिवसेना को मुख्यमंत्री पद का मौका दिया जाने की शर्त रखी थी और उस पर अमित शाह के सहमति के बाद भी गठबंधन में चुनाव लड़ना स्वीकार किया था। यह वो समय था जब भाजपा का शीर्ष नेतृत्व 5 साल के कार्यकाल के दौरान उठाये गए मुद्दों के मद्देनजर लोकसभा चुनाव में बहुमत खोने का कोई मौका नहीं देना चाहता था अत: उसके लिये लोकसभा में शिवसेना से गठबंधन जरूरी था। खासकर यह देखते हुए की एनसीपी और कांग्रेस गठबंधन में ही चुनाव लडऩे वाली थी। जाहिर है उद्धव ठाकरे के द्वारा की गई दबाव की राजनीति को भाजपा शीर्ष नेतृत्व ने अच्छे से नहीं लिया था। यही कारण है कि 2019 विधानसभा साथ में लडक़र जीतने के बाद भी नरेन्द्र मोदी और अमित शाह इस बात पर अड़ गये थे कि मुख्यमंत्री भाजपा का ही होगा और शिव सेना को दर किनार कर अजीत पवार को साथ लेकर भाजपा एनसीपी सरकार भी बना ली गई।
शिवसेना और उद्धव ठाकरे को इस बात ने और अधिक उग्र कर दिया तथा कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर देवेन्द्र फडणवीस की यह सरकार 3 दिन भी नहीं चलने दी। एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार ने भी अपने भतीजे समेत सभी विधायकों को एकजुट रखा। इस घटना के कुछ दिन बाद भी उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में कांग्रेस और एनसीपी के साथ शिवसेना ने महाराष्ट्र में सरकार बना ली। यह पूरा घटनाक्रम भाजपा, केन्द्र सरकार और नरेन्द्र मोदी और अमित शाह को गहरे तक आहत कर गया। पिछले ढाई सालो में कई मामलों में केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग के आरोप लगे और कहा गया कि केन्द्र सरकार महाराष्ट्र सरकार को गिराने का षडय़ंत्र रच रही है। एनसीपी को कमजोर कड़ी मानकर सबसे अधिक कार्यवाही इसी के नेताओं के विरूद्ध देखने में आई फिर भी किसी भी तरह यह सरकार चलती रही।
2022 के राज्य सभा चुनावों और विधान परिषद चुनाव में मामूली संख्या को छोडक़र शिव सेना के बहुसंख्य विधायकों ने उद्धव ठाकरे द्वारा नामित किए गए प्रत्याशियों को ही वोट किया। परन्तु इसके तुरंत बाद 11 विधायकों का एकनाथ शिंदे के साथ सूरत पहुंचना और वहां से गोहाटी चले जाना सभी के लिये एक आश्चर्यजनक खबर थी। उद्धव ठाकरे के कार्य करने के तरीके से शिव सेना विधायक खुश नहीं है यह तो अंदाजा था पर इतने बड़े विद्रोह की कल्पना किसी ने नहीं की थी। गुवाहाटी पहुंचने के बाद एक ही दिन में बागी विधायकों की संख्या 30 के आसपास पहुंच गई और उन पर उद्धव ठाकरे के द्वारा एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बना देने के प्रस्ताव का भी कोई असर नहीं हुआ। बल्कि दिन प्रतिदिन बागी विधायकों की संख्या बढ़ती गई।
आखिर क्या ऐसी बात थी जिसके कारण एकनाथ शिंदे पीछे हटने तैयार नहीं हो रहे थे यह बात भाजपा के द्वारा उनके नेतृत्व में महाराष्ट्र की सरकार बनाने के बाद समझ में आती है। जून के महीने में ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मुंबई के यात्रा पर गये थे और एक कार्यक्रम में उनकी मुलाकात मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे से हुई थी। बहुत सम्भव है कि उस मुलाकात में भी नरेन्द्र मोदी ने उद्धव ठाकरे को एनडीए में वापस आने का कोई न कोई इशारा दिया होगा, जिसे उद्धव ठाकरे ने नहीं माना होगा। इस मुलाकात के बाद भी घटना बहुत तेजी से चला है, 2019 में जो भाजपा शिवसेना को मुख्यमंत्री पद न देने पर अड़ी थी उसी भाजपा ने एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाया वह भी तब जब उसके 106 विधायकों का बहुमत देवेन्द्र फडणवीस को ही मुख्यमंत्री देखना चाहता था। उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री से हटाने की चाहत इतनी बड़ी थी कि उसके लिये भाजपा ने विशेषकर मोदी-शाह ने एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाना स्वीकार कर लिया। 2014 में जब फडणवीस को मुख्यमंत्री बनाया गया था तब यह कहा गया था कि एक ब्राह्मण को मुख्यमंत्री बनाना राजनीतिक भूल है परन्तु 2019 में फिर से 100 से अधिक सीटें जीतकर फडणवीस ने अपनी स्थिति मजबूत कर ली और वो एक बड़े नेता के रूप में स्थापित हो गये। इसके बावजूद इस बार उनको दरकिनार कर शिंदे को मुख्यमंत्री बनाने के पीछे मोदी-शाह की रणनीति साफ दिखाई देती है। पहली बात तो यह है कि वे शिवसेना को एक परिवार की पार्टी नहीं रहने देना चाहती और उसका नेतृत्व किसी और के हाथ देना उनका मकसद है। इस एक काम से ठाकरे परिवार और उसके राजनीतिक वजूद को नुकसान पहुंचाना भी बड़ा उद्देश्य है। एकनाथ शिंदे मराठा हैं जो एनसीपी के प्रभाव को भी कम करने में भी उपयोगी हो सकते हंै। यही कारण है कि उनको नेतृत्व देकर एक सोची समझी राजनीतिक चाल भाजपा ने चली है।
2024 का चुनाव भारतीय जनता पार्टी परिवारवाद को केन्द्र में रखकर लड़ना चाह रही है। उसके सभी प्रमुख प्रतिद्वंदी राजनीतिक पार्टियों पर परिवारवाद की छाप है। यही कारण है कि भाजपा इन सबसे अपने को दूर कर रही है। तेलंगाना में टीआरएस के साथ उसके संबंध बेहतर थे परन्तु भाजपा ने स्वयं उसे निशाने पर ले लिया है। तमिलनाडु में एआईएडीएमके को जयललिता परिवार से दूर करना इसी रणनीति का हिस्सा है। महाराष्ट्र में भाजपा को शिवसेना का साथ तो चाहिए परन्तु वह ठाकरे परिवार को अलग करना चाहती थी। इस हिसाब से देखा जाये तो महाराष्ट्र में पिछले 15 दिन में जो हुआ है उसकी पटकथा पहले ही तैयार कर ली गयी थी। यह अलग बात है कि इसकी भनक कम से कम 2 दिन पहले तक खुद देवेन्द्र फडणवीस समेत महाराष्ट्र के नेताओं को नहीं थी। जबकि एकनाथ शिंदे सूरत से ही इस बात पर आश्वस्त थे कि उनकी स्थिति इतनी मजबूत होने वाली है कि वे शिवसेना से ठाकरे परिवार को बेदखल कर काबिज हो सकते है। यदि शिंदे को मुख्यमंत्री नहीं बनाया जाता तो उनके सांसद पुत्र पराग शिंदे को केन्द्र में मंत्री बनाने का दबाव रहता, ऐसी स्थिति में परिवारवाद की राजनीति से दूरी बनाने का मोदी और शाह का उद्देश्य पूरा नहीं होता। देवेन्द्र फडणवीस को उनकी इच्छा के विरूद्ध उपमुख्यमंत्री बनाकर नरेन्द्र मोदी ने यह भी संदेश दिया है कि वे पार्टी में एकमात्र निर्णय करने का अधिकार रखते हंै। यही कारण है कि पुष्कर सिंह धामी को चुनाव हारने के बावजूद मुख्यमंत्री बना दिया जाता है और महाराष्ट्र में भाजपा को 100 से अधिक सीटें जिताने के बाद भी फडणवीस पिछड़ जाते हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
उदयपुर में एक हिंदू दर्जी की हत्या करने वाले दो मुसलमानों के खिलाफ पूरे देश में भयंकर गुस्सा फैला हुआ है। लेकिन भारत की जनता को सलाम कि उसने प्रतिहिंसा का रास्ता अख्तियार नहीं किया है। अनेक प्रमुख हिंदू और मुसलमान नेताओं ने कड़े शब्दों में इस हत्याकांड की भत्र्सना की है। कई आतिवादी समझे जाने वाले मुस्लिम नेताओं ने उन दोनों हत्यारों को कठोरतम दंड देने की मांग की है। उन दोनों हत्यारों को उन्होंने इंसान नहीं, शैतान बताया है।
यह भी ध्यातव्य है कि अनेक उग्र हिंदूवादी नेताओं ने भी इस मौके पर विलक्षण संयम का परिचय दिया है। इस हत्याकांड ने सारी दुनिया में इस्लाम को तो कलंकित कर दिया है लेकिन भारत की सहनशीलता की छवि सबके हृदय पर अंकित कर दी है। अनेक पश्चिमी और पूर्वी दुनिया के देशों से मेरे मित्रों के फोन आए। उनमें हिंदू, मुसलमान, ईसाई, बौद्ध और यहूदी सभी शामिल हैं। सब ने एक स्वर में इस हत्याकांड की निंदा की है। अरब देशों के कुछ मुस्लिम मित्रों ने मुझे बताया कि जो घृणित काम उदयपुर में हुआ है, उसकी अनुमति किसी मुस्लिम देश में भी नहीं है।
इस्लाम में इस तरह का जघन्य अपराध करने की इजाजत किसी भी शख्स को नहीं है। इन दोनों हत्यारों का संबंध सउदी अरब और पाकिस्तान से भी बताया जा रहा है। ये दोनों हत्यारे इन देशों में जाकर रहे हैं और वहां उन्होंने दावते-इस्लाम और तहरीके-लबायक जैसे उग्रवादी संगठनों से भी सांठ-गांठ की है। इस मामले में सच्चाई क्या है, यह तो जांच से आगे-आगे पता चलेगा, लेकिन इस घटना से भारत और सभी मुस्लिम देशों को यह सबक क्यों नहीं लेना चाहिए कि उन सब संस्थाओं और संगठनों से अपने देशों को मुक्त करें, जो मजहब के नाम पर इतने जघन्य अपराधों के लिए लोगों को प्रेरित करते हैं।
इसी संदर्भ में सभी मदरसों पर भी प्रबुद्ध मुसलमानो को कड़ा नियंत्रण रखना होगा। सभी धर्मों के सर्वोच्च अधिकारियों को या तो अपने-अपने धर्मग्रंथों की ऐसी बातों को छांट देना चाहिए, जो देश और काल के विपरीत हो गई हैं या उनकी व्याख्या इस तरह से करनी चाहिए कि जो देश और काल के अनुकूल हो। जहां तक हमारे राजनीतिक नेताओं का सवाल है, उनकी प्रतिक्रिया तो बहुत ही दुखद है। हत्या-पीडि़त परिवार के लिए सहानुभूति व्यक्त करना तो उचित है लेकिन इस हत्याकांड को लेकर नेतागण एक-दूसरे पर जो कीचड़ उछाल रहे हैं, वह बिल्कुल भी उचित नहीं है।
हमारे नेता इस घटिया राजनीति का सहारा लेने की बजाय यदि भारत की जनता में धार्मिक, सांप्रदायिक और जातीय सहिष्णुता का भाव प्रोत्साहित करें ताकि ऐसे हत्याकांडों की पुनरावृत्ति भारत में कभी हो ही नहीं। सभी दलों के नेताओं को ऐसा प्रयत्न क्यों नहीं करना चाहिए कि इस तरह के हत्यारों को, जो अपने कुकर्म के खुद गवाह हैं, और जिन्होंने अपना वीडियो खुद बनाया है, उन्हें हफ्ते-दो-हफ्ते में ही ऐसी सजा दी जाए कि जिसे देखकर भावी अपराधियों के रोंगटे खड़े हो जाएं। (नया इंडिया की अनुमति से)