विचार/लेख
-डॉ. परिवेश मिश्रा
सन् 1897 में अपने पिता बिहारीलाल की उंगली पकड़े पांच वर्षीय बालक पालूराम ने हरियाणा के धनाना गांव से निकल कर रायगढ़ में पैर रखे। पास के गांव लोहारी से उनकी बुआ के बेटे किरोड़ीमल कलकत्ता पहुंच गये। इसके लगभग तीस वर्षों के बाद इन मामा-बुआ के बेटों ने मिलकर रायगढ़ के पहले उद्योग की नींव रखी। तब तक सेठ पालूराम धनानिया रायगढ़ में अपने पिता के शुरू किये धान के कारोबार में जम चुके थे। उधर सेठ किरोड़ीमल कलकत्ता में अनुभव, नाम और पैसा कमा चुके थे।
(कलकत्ता के होने के बाद भी सेठ किरोड़ीमल के दान और नाम के निशान देश के कई स्थानों पर मिलते हैं। दिल्ली के पहाडग़ंज इलाके में एक निर्मला कॉलेज था। इसे अमेरिकन जेसुइस्ट नामक संस्था ने शुरू किया था लेकिन 1951 आते तक यह बंद होने की कगार पर पहुंच गया था। सेठ किरोड़ीमल स्वयं तो अपने नाम के अलावा कुछ लिखना नहीं जानते थे पर शिक्षा का महत्व समझते थे। उन्होंने इस बंद होते कॉलेज को खरीद लिया और तीन साल के बाद नॉर्थ कैम्पस में शिफ्ट कर दिया। अब यह किरोड़ीमल कॉलेज के नाम से जाना जाता है। अमिताभ बच्चन, गिरिजा प्रसाद कोईराला (नेपाल के पूर्व प्रधान मंत्री) मदनलाल खुराना (दिल्ली के पूर्व मुख्य मंत्री), कुलभूषण खरबंदा जैसे अनेक लोग यहां पढ़े और पढ़ा रहे हैं।)
देश में उनके धर्मार्थ कामों का सबसे बड़ा लाभार्थी स्थान रहा रायगढ़। यहां उन्होंने एक व्यावसायिक काम भी किया जो था सन् 1928 में जूटमिल की स्थापना। तेईस वर्षीय राजा चक्रधर सिंह ने अपने राज्य में लगभग चालीस एकड़ भूमि इस मिल के लिए उपलब्ध कराई थी।
सारंगढ़, रायगढ़ और उदयपुर (धर्मजयगढ़) राज्यों के इलाकों में पटसन की पैदावार काफी थी। हालांकि इतनी भी नहीं थी कि मिल की सतत् आवश्यकता पूरी कर सके। किन्तु एक फ़ैक्टर और था। पूरे मध्य तथा उत्तर-मध्य भारत में उन दिनों कोई जूट मिल नहीं थी। जबकि बारदाने की आवश्यकता सबको थी। इसलिए यदि कुछ अतिरिक्त पटसन बंगाल (तब बांग्लादेश का हिस्सा भी भारत में था) से आयात किया जाता तो भी सौदा मुनाफ़े का ही बैठता था। सोच में कोई खामी नहीं थी।
किन्तु मिल चल नहीं पाई। कहते हैं इतिहास से सबक न लेने पर इतिहास अपने आपको दोहराता है। इतिहास बना था असम में और दोहराया गया रायगढ़ में।
सन् 1820 के दशक में ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधिकारी रॉबर्ट ब्रूस ने असम के ऊपरी ब्रह्मपुत्र घाटी में स्वाभाविक रूप से उपजे हुए चाय के पौधे देखे। यह तब की बात है जब चीन से अफ़ीम के बदले चाय लेकर इंग्लैंड और योरोप भेजते हुए कई दशक बीत चुके थे। उधर ब्रिटेनवासियों को चाय की लत लग गयी और इधर चीन ने अंग्रेजों से अफीम के स्थान पर नगद की मांग रख दी। चाय अंग्रेजों के लिए अचानक बहुत महंगी हो गयी। रॉबर्ट ब्रूस की खोज की खबर से उत्साहित ईस्ट इंडिया कम्पनी ने चाय के व्यवसायिक उत्पादन का फैसला कर लिया। चाय बागान शुरू कर दिया गया।
लेकिन प्रयोग असफल हो गया। श्रमिक आधारित इस प्रोजेक्ट की योजना बनाते समय कम्पनी मानकर चली थी कि स्थानीय श्रमिक आसानी से उपलब्ध हो जायेगा। और चूंकि स्थानीय होगा सो अपने रहने खाने की व्यवस्था भी स्वयं कर ही लेगा। हकीकत कुछ और साबित हुई। असमिया ग्रामीण सदियों से चली आ रही अपनी जीवनशैली में रातोंरात परिवर्तित लाने के लिए बिल्कुल उत्सुक नहीं थे। दूसरों के नियंत्रण में उन्होंने कभी काम नहीं किया था। कुछ लोगों ने काम शुरू भी किया तो हर दूसरे दिन उन्हें घर और खेत की याद सताती। चार दिन की छुट्टी लेकर जाते तो चौदह दिन में लौटते। अनेक लौटते ही नहीं।
अंत में आजिज़ आकर ईस्ट इंडिया कम्पनी ने हाथ उठा दिये। इसके बाद दो बातें हुईं। 1839 में चाय उत्पादन का काम नये मालिक ‘असम कम्पनी’ के हाथों में सौंपा गया। पिछले मालिक के अनुभवों से सबक लेकर जो काम असम कम्पनी ने सबसे पहले किया वह था श्रमिकों को बाहर से लाकर बसाने का। श्रमिक सप्लाय करने के लिये ठेकेदारों को नियुक्त किया गया। यहीं से शुरुआत होती है छत्तीसगढ़, झारखण्ड, छोटा नागपुर, और आंध्र प्रदेश जैसे इलाकों से ले जाये गये श्रमिकों की कहानी। कालांतर में ये ‘टी-ट्राईब’ के नाम से जाने गये।
‘टी-ट्राईब’ के पहुंचने के बाद नित नये फैलते बागानों को स्थायी मजदूर मिले। अपनी जड़ों से उखडक़र गये लोग पूर्णकालिक श्रमिक बने और बागान मालिकों के लिए जरूरी हो गया कि इनके रहने-खाने आदि की व्यवस्था करें। और चाय बागान का कारोबार चल निकला।
अब वापस चलें रायगढ़ की जूटमिल पर। सेठ-द्वय किरोड़ीमल जी और पालूराम जी ने नई और महंगी मशीनें लगवाकर मिल खड़ी की, बाजार ढूंढ़ा और बढ़ाया, लेकिन श्रमिकों की उपलब्धता की जिस आश्वस्ति पर यह सब किया था वह गलत साबित हुई। किसी औद्योगिक इकाई में कार्य करने का पूर्वानुभव न होने के चलते स्थानीय श्रमिकों में कार्य-अनुशासन नहीं था। स्थानीय किसानों को पटसन की पैदावार बढ़ाने की ओर प्रेरित करने के प्रयास भी सफल नहीं हुए। लागत बढऩा और मुनाफे पर चोट पडऩा स्वाभाविक था। हो सकता है और भी कारण रहे हों।
1935 में रायगढ़ की जूट मिल बिक गई। खरीदने वाले थे कलकत्ता के सेठ सूरजमल जालान और सेठ नागरमल बजौरिया। आगे चलकर रायगढ़ जूट मिल एक बार और बिकी। इस बार भी खरीददार मारवाड़ी ही थे (श्री पवन कुमार अग्रवाल) और वे भी कलकत्ते के ही रहने वाले थे।
कलकत्ता और मारवाडिय़ों का जूट और जूट मिलों से पुराना संबंध रहा है। पूर्वी भारत, विशेषकर जो हिस्सा अब बांग्लादेश है, पारम्परिक रूप से पटसन पैदा करता रहा है। लेकिन भारत में इस पटसन से जूट बनाने की कोई मिल नहीं थी। सारा जूट ब्रिटेन से आयात होता था। ब्रिटेन की सारी जूट मिलों का कच्चा माल रूस से आता था। 1850 के आसपास एक युद्ध हुआ (क्रायमियन वॉर) जिसमें एक ओर रूस था और दूसरी ओर ब्रिटेन समेत दूसरे देश। स्वाभाविक था इस परिस्थिति में पटसन और अलसी के बीज का ब्रिटेन पहुंचना बंद हो गया।
अब भारतीय पटसन की पूछ बढ़ी। कलकत्ते के पास एक गांव था/है रिशरा। मुगलों के जमाने में यहां के हिन्दू बुनकरों के हाथों बना सूती कपड़ा और मुस्लिम बुनकरों का बुना रेशम मशहूर था। इसी स्थान पर वॉरेन हेस्टिंग्स ने बहुत बड़े बगीचे के साथ अपना निजी महल-नुमा घर बनाया था जो उनके जाने के बाद से वीरान पड़ा था। सन् 1855 में इसी जगह पर भारत की पहली जूट मिल शुरू हुई। इसे एक अंग्रेज ने स्थापित किया था।
उस समय तक मारवाड़ी कलकत्ता पहुंच चुके थे। 1860 से पहले उनमें से अनेक ने अफीम, जूट, कपास, अनाज और चांदी के सट्टा बाजार में अपार मुनाफा कमाया था। जूट और अफीम के सट्टा बाज़ार पर तो इनका एकाधिकार था। राजस्थान के शेखावती इलाके में बारिश होने की संभावना पर सट्टा लगाने की पुश्तैनी आदत साथ ले कर ये लोग बंगाल पहुंचे थे। फतेहपुर के रामदयाल नेवटिया और गजराज सिंघानिया, रामगढ़ के जोखीराम रुईया और नाथूराम पोद्दार, बीकानेर के पनयचंद सिंघी के साथ साथ रतनगढ़ (चुरू) के सूरजमल नागरमल ने भी इस दौरान बहुत धन कमाया था। रामप्रताप चामडिय़ा ने तो उस जमाने में करोड़ों रुपये अफीम के सट्टा में कमाये थे। अनेक फर्म और व्यक्ति अपना सब कुछ लुटा कर बर्बाद भी हो चुके थे। सट्टे को ये आपसी बातचीत में फटका कहते थे। मारवाडिय़ों में एक उक्ति प्रसिद्ध थी-
कर दे बेटा फटको, घर को रहेगो ना घाट को
कर दे बेटा फटको पीयो दूध खायो भात को
सट्टा खेलो। या तो आसमान पर पहुंचोगे या बिल्कुल नीचे जमीन पर, बर्बादी पर।
रायगढ़ जूट मिल के नये मालिक भी दानशीलता में अपना नाम दर्ज करा चुके थे। रतनगढ़ में रेल्वे स्टेशन, सडक़ें, अस्पताल, कॉलेज जैसी अनेक संस्थाओं के साथ इनका नाम दानदाताओं के रुप में जुड़ा रहा है।
सेठ किरोड़ीमल और सेठ सूरजमल नागरमल के कलकत्ता पहुंचने के काल में यह शहर भारत की आर्थिक राजधानी हुआ करता था। कारोबार में अधिकतर मालिक अंग्रेज़ थे पर काम संभालने वाले मारवाड़ी थे और ये कम्पनी में ‘बनिया’ के औपचारिक पदनाम से जाने जाते थे। जैसे ओंकार मल जटिया ‘ऐन्ड्रयू-यूल’ के बनिया थे, ताराचंद घनश्याम दास ‘शॉ-वॉलेस’ के, रामनारायण रुईया ‘ससून जे. डेविड’ के बनिया थे। इनमें से कई इन कम्पनियों के कमीशन एजेन्ट बने। इन सब से प्राप्त मोटे मुनार्फ से मारवाडिय़ों के पास अच्छी खासी पूंजी इक_ा होने लगी थी।
बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में मिलों, कम्पनियों और फर्मों के मालिकों के बीच खरीद बिक्री की उथल पुथल रही थी। इसका एक कारण था 1913 से प्रभाव में आया कम्पनी एक्ट। हालांकि तब तक ज़्यादातर फर्म ट्रेडिंग का काम ही करती थी। मैनुफैक्चरिंग में कम लोग थे। इन दशकों में मारवाडिय़ों ने अंग्रेजों के आधिपत्य में रहा बहुत सा कारोबार खरीदा और बढ़ाया। इनमें ट्रेडिंग फर्मों के साथ साथ अनेक जूट मिल, कोयला खदान, तेल मिल आदि भी शामिल थीं।
इस दौर में मारवाडिय़ों के हाथों नयी जूट मिलों की स्थापना भी खूब हुई। सेठ किरोड़ीमल का 1928 का उपक्रम भी इनमें शामिल था।
1938 में सेठ सूरजमल की मृत्यु हो गयी (सेठ नागरमल की पहले हो गयी थी)। उन्हीं दिनों दूसरा विश्वयुद्ध भी शुरू हो गया और रायगढ़ में काम ढंग से शुरू करना आगे टलता रहा। नयी व्यवस्था में सूरजमल के बड़े बेटे मोहनलाल जालान ने अपने भाईयों बंशीधर, बैजनाथ तथा सेठ नागरमल के बेटों के साथ काम संभाला था। रायगढ़ जूट मिल बाद में मोहन जूटमिल के नाम से जानी गयी।
उन्होंने स्थानीय प्रबंधन के लिए सेठ मांगीलाल भंडारी को एजेन्ट और सेठ सरावगी को मैनेजर नियुक्त किया। श्रमिक उपलब्धता का समाधान उनके पास पहले से था। कलकत्ता की इनकी मिलों में गोरखपुर के श्री रामसुभग सिंह इस काम के प्रभारी थे और ‘बड़े- सरदार’ कहलाते थे। उनके साथ कलकत्ता में काम कर रहे गोरखपुर और आजमगढ़ के अलावा बिहार के छपरा के मजदूर रायगढ़ लाये गये (और फिर वे यहीं रच-बस गये)।
आजादी के शुरुआती सालों में कांग्रेसी सरकार को मध्यप्रदेश की इस इकलौती जूटमिल की उपयोगिता का अहसास था। श्रम मंत्री रहे श्री गंगाराम तिवारी और श्री वी.वी. द्रविड़, दोनों को इंदौर की मिलों में श्रमिक नेता के रूप में काम करने का अनुभव था और स्थानीय मंत्री राजा नरेशचन्द्र सिंह के साथ इनका अच्छा तालमेल था। इन सबकी निगरानी में मजदूरों के लिए घर बने, सब घरों को बिजली, पानी, शौचालय की सुविधा मिली। अन्य हितों की व्यवस्था हुई।
1950 के दशक में मिल में काम करने की इच्छा से आये हुए अनुभवी मजदूर थे। देश और प्रदेश में संवेदनशील सरकारें थीं। सरकार में मजदूर और मिल मालिक के बीच बैलेंस बनाने में सक्षम मंत्री और विधायक थे। रायगढ़ के एकमात्र उद्योग की गाड़ी चल निकली।
(यही मिल आगे चलकर रायगढ़ में नये उद्योगों की स्थापना में कैसे रोड़ा बन गई, अगले हिस्से में)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय ने भरोसा दिलाया था कि वह संसद के भंग होने के सवाल पर तुरंत फैसला करेगा लेकिन दो दिन के बावजूद उसने इसे मंगलवार तक के लिए टाल दिया है। उसने इसे क्यों टाला होगा? उसने पीपीपी के रवैए की इस मांग को पहले रद्द किया कि इस मामले को अदालत की पूरी बेंच निपटाए। जजों ने पूछा कि पांच जजों की इस बेंच पर आपको भरोसा क्यों नहीं है? जज इतने गुस्से में आ गए कि उन्होंने कहा कि अगर आपको हमारी निष्पक्षता में विश्वास नहीं है तो हम सब इस्तीफा देने को तैयार हैं। अदालत का फैसला क्या होगा, कहना मुश्किल है। हो सकता है कि वह संसद के भंग करने को जायज ठहरा दे और चुनाव के द्वारा नई सरकार बनवाने का समर्थन कर दे। पाकिस्तान के लिए यही भला है। इमरान सरकार और फौज के संबंध काफी कठिन हो गए हैं। ऐसे में उस सरकार का इस्लामाबाद में चलते रहना बड़ा मुश्किल है।
इमरान सरकार की दूसरी बड़ी दिक्कत यह है कि उसके अपने सांसद उससे टूट गए हैं। उन्होंने विपक्षियों से हाथ मिला लिया है। अब वह अल्पमत की सरकार भर रह गई है। उसकी तीसरी मुसीबत यह है कि उसकी सरकार का गठबंधन तो टूटा ही, सारे विपक्षी दल एकजुट हो गए। सबसे बड़ी बात तो यह कि इमरान ने आशाएँ खूब जगाईं और सपने खूब दिखाए लेकिन महामारी से निपटने में और अंतरराष्ट्रीय राजनीति में उनके पासे उल्टे पड़ गए। उनकी रूस-यात्रा ने भी पाकिस्तान की फौज को परेशान कर दिया। इन सब कारणों के रहते उनकी सरकार का ढह जाना स्वाभाविक था लेकिन उनकी जगह अगर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के कारण यदि अभी विरोधी गठबंधन की सरकार बन गई तो यह सवाल बहुत तीखे रूप में उठ खड़ा होगा कि यह गठबंधन या यह सरकार कहां तक लोकमत के समर्थन की दावेदार है?
यह लोक-समर्थन नहीं बल्कि दल-बदल और पार्टियों के दल-दल से मिलकर बनेगी। इसमें कितना नैतिक बल होगा? परस्पर विरोधी दल कब तक एक साथ टिके रहेंगे? और यह सरकार टिक भी गई तो डेढ़ साल बाद तो इसे चुनाव करवाने ही होंगे। ऐसे में लगता है कि पाकिस्तान अधर में लटका रहेगा। उसकी डगमगाती अर्थ-व्यवस्था इस बीच चौपट भी हो सकती है। इस नए गठबंधन के सर्वोच्च नेताओं से फौज के अत्यंत कटु संबंध रहे हैं। फौज ने पीपीपी और मुस्लिम लीग (न) के नेताओं के तख्ता-पलट कई बार किए हैं। अब जन-समर्थन के बिना सत्तारुढ़ हुए इन दोनों दलों को क्या फौज बर्दाश्त कर लेगी? यदि पाकिस्तान का सर्वोच्च न्यायालय उक्त विश्लेषण को ध्यान में रखेगा तो वह संसद को भंग करने और चुनाव करवाने के फैसलों पर मुहर भी लगा सकता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इमरान खान ने वही किया, जिसकी संभावना इस लेख में परसों व्यक्त की गई थी। उन्होंने विपक्षियों द्वारा लाया हुआ अविश्वास प्रस्ताव रद्द करवा दिया, राष्ट्रीय सभा (संसद) भंग करवा दी और चुनावों की घोषणा करवा दी। अब पाकिस्तान के चुनाव 90 दिन बाद होंगे, ऐसा मानकर चला जा सकता है। इमरान ठीक कहते थे कि उन्होंने बाजी हारी नहीं है। उनके पास एक तुरुप का पत्ता है। अब वह उन्होंने चल दिया है। उनके खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में कई याचिका दायर हो जाएंगी। लेकिन अदालत अब क्या कर सकती है? संसद के उपाध्यक्ष ने अविश्वास प्रस्ताव को रद्द कर दिया और राष्ट्रपति ने संसद को भंग करके चुनाव की घोषणा कर दी है। ऐसे में यदि फौज उल्टा रास्ता पकड़ ले तो ही इमरान की गाड़ी उलट सकती है। पाकिस्तान की असली मालिक फौज ही है। फौज चाहे तो राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, संसद, सरकार और न्यायपालिका सभी को भंग कर सकती है लेकिन फौज इतनी हिम्मत करेगी, इसमें मुझे संदेह है, क्योंकि सेनापति कमर बाजवा सर्वशक्तिशाली व्यक्ति होते हुए भी मर्यादित बर्ताव करते हैं। उन्होंने कल ही एक समारोह में कहा कि वे कश्मीर की समस्या का हल बातचीत से करना चाहते हैं।
यदि भारत तैयार हो तो वे देरी नहीं करेंगे। इमरान के सवाल पर वे जो चाहते हैं, वह तो हो ही रहा है। अब इमरान कार्यवाहक प्रधानमंत्री भर रह गए हैं। कई मुद्दों पर फैसले लेने के अधिकार से वे वंचित हो गए हैं। उन्होंने पाकिस्तान के नौजवानों के नाम संदेश जारी करके कहा था कि वे लाखों की संख्या में इक_े होकर संसद को घेर लें। विपक्षियों का आरोप है कि वे विरोधी दलों के सांसदों को संसद भवन में घुसने ही नहीं देना चाहते थे। लेकिन इमरान को अब संसद घेरने की जरुरत ही नहीं पड़ी है। उनके एक मंत्री का दावा है कि विपक्ष के लोग इमरान की हत्या करवाना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि पाकिस्तान की जनता अगले चुनाव में दल-बदलुओं और विपक्ष के अनैतिक गठबंधन को हराकर ही दम लेगी। इस तर्क में कुछ दम जरुर है लेकिन पाकिस्तान की जनता मंहगाई और महामारी के कारण इतनी परेशान रही है कि वह इमरान से ऊबने लगी है।
इमरान की स्पष्टवादिता भी उन्हें मंहगी पड़ सकती है। एक बार मंहगाई के सवाल पर वे इतने चिढ़ गए थे कि उन्होंने कह दिया कि प्रधानमंत्री का काम टमाटर और गाजर के भाव तय करना नहीं है। उन्होंने भारतीय विदेश नीति की दो बार खुले-आम तारीफ करके मुसीबत मोल ले ली है। पाकिस्तान और भारत में नेतागीरी का जलवा चमकाने के लिए एक-दूसरे के खिलाफ लगातार गोलंदाजी करना बहुत जरुरी होता है। इमरान ने पिछले दो-तीन दिनों में अपनी फौज की तटस्थता का भी जिक्र किया है लेकिन फौज उनके साथ होती तो चुनाव की नौबत ही क्यों आती? पाकिस्तान की यह बदकिस्मती है कि उसकी राजनीति में कभी स्थिरता दिखाई नहीं पड़ती। आज की विषम परिस्थिति में खड़ा हुआ यह राजनीतिक संकट ऐसा है, जिसे ‘गरीबी में आटा गीला’ होना कहा जाता है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इमरान खान के इस दावे पर उनके विरोधी हंस रहे हैं कि अमेरिका उन्हें उनके प्रधानमंत्री पद से हटाने की कोशिश कर रहा है लेकिन यह सच है कि अमेरिका दुनिया के सभी देशों पर दबाव डाल रहा है कि वे रूस-विरोधी रवैया अपनाएं। इसका सबसे पुख्ता प्रमाण तो अमेरिका के उप-राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार दलीपसिंह की भारत-यात्रा है। भारतीय मूल के इस अधिकारी को दिल्ली क्यों भेजा गया है? इसीलिए कि वह भारत सरकार पर दबाव डाले यूक्रेन के मामले में! उसने कोई कसर नहीं छोड़ी।
उसने हमारे विदेश मंत्री जयशंकर को कह दिया कि यदि आप अमेरिका का समर्थन नहीं करेंगे तो उसके दुष्परिणाम होंगे। उसने यह डर भी दिखाया कि अगर चीन ने भारत पर हमला कर दिया तो रूस बचाने वाला नहीं है। जयशंकर को चाहिए था कि वे दलीपसिंह से पूछते कि क्या अमेरिका यूक्रेन को बचा रहा है? उसे अमेरिका ने पानी पर चढ़ाकर अकेले मरने को छोड़ रखा है। अमेरिका ने पाकिस्तान को अपना दुमछल्ला बनाकर कई दशकों तक अधर में लटकाए रखा। उसे सोवियत संघ और भारत के खिलाफ भडक़ाता रहा लेकिन क्या 1965, 1971 और कारगिल के युद्धों में उसने पाकिस्तान का साथ दिया? बिल्कुल नहीं।
इसी बात को ध्यान में रखकर इमरान ने बिल्कुल ठीक कहा कि भारत की विदेश नीति एकदम सही रास्ते पर चल रही है और वे भी उसे स्वतंत्र रास्ते पर चलाना चाहते हैं। वे पाकिस्तान को किसी महाशक्ति का पायदान नहीं बनने देना चाहते हैं। उनके रूस जाने पर अमेरिका का भडक़ना बिल्कुल अनुचित है। उनकी रूस-यात्रा यूक्रेन-विवाद के पहले ही तय हो चुकी थी। उन्होंने भी भारत की तरह न रूस का विरोध किया और न ही समर्थन ! इस रवैए से अमेरिका का नाराज़ होना स्वाभाविक है।
इसीलिए वाशिंगटन स्थित पाकिस्तानी राजदूत को एक अमेरिकी अफसर ने काफी जोर से हडक़ाया। इस्लामाबाद में अमेरिकी राजदूत ने भी इमरान को कोई चि_ी लिखी है। अब इमरान कह रहे हैं कि वे अमेरिकी साजिश की तहत हटाए जा रहे हैं। इस कथन में ज्यादा दम नहीं है। उन्हें अपने दल की बगावत के कारण यह मुसीबत झेलना पड़ रही है लेकिन पाकिस्तान के इतिहास की यह अविस्मरणीय घटना बन गई है कि उसके प्रधानमंत्री ने भारतीय विदेश नीति की खुले-आम तारीफ की है।
इमरान का भविष्य चाहे जो भी हो, क्या इस घटना से पाकिस्तान कोई सबक लेगा या नहीं? भारत ने जहां अमेरिका के दबाव को रद्द किया है, वहीं उसने रूसी विदेश मंत्री सर्गेइ लावरोव को भी कह दिया है कि वह किसी भी राष्ट्र की संप्रभुता, स्वतंत्रता और क्षेत्रीय सुरक्षा को अक्षुण्ण मानता है। यदि पाकिस्तान भी शुरु से इसी नीति पर चलता तो दुनिया में उसकी इज्जत कहीं ज्यादा होती। (नया इंडिया की अनुमति से)
-रमेश अनुपम
बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की यह अंतिम कड़ी है। छत्तीसगढ़ एक खोज सीरीज की यह सबसे लंबी कड़ी सिद्ध हुई है। इस कड़ी को मिलाकर अब तक इसकी 21 कड़ियां लिखी जा चुकी हैं।
बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव से संबंधित कुछ और भी पुष्ट जानकारियां और सामग्रियां मुझे मिलती जा रही हैं , जिसका उपयोग मैं बाद में एक किताब के रूप में करूंगा।
फिलहाल बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव पर केंद्रित कड़ियों को मैं यहीं विराम देना चाहूंगा।
बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव पर लिखने और कहने के लिए बहुत कुछ है। बहुत कुछ ऐसा भी है जो इस कड़ी में आने से रह गया है।
बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव पर लिखते हुए मैने हर संभव यह प्रयास किया है कि अतिशय भावुकता से बचते हुए मैं उपलब्ध लिखित और प्रामाणिक तथ्यों के साथ इसे आप सभी के सामने ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर सकूं। इसमें कितना सफल या असफल हुआ इसे इसके पाठक ही तय करेंगे।
इसी संदर्भ में मैने दो बार बस्तर की यात्रा भी की। जिसमे कुछ नए तथ्य मेरे हाथ भी लगे जिनका मैने अपनी इस कड़ी में इस्तेमाल भी किया। इस यात्रा में कुछ ऐसे दुर्लभ व्यक्तियों से भी मिलने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ जिन्होंने बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव को निकट से देखा और जाना था।
इस बीच के.एल. पांडेय कमीशन की जांच रिपोर्ट भी मुझे देखने को मिली जो कि किसी भी सरकारी जांच रिपोर्ट की तरह केवल एक खाना पूर्ति भर है।
बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की अंतिम पोस्ट मार्टम रिपोर्ट भी मुझे देखने को मिली। जिसमें उनके शरीर में 17 गोलियों के निशान तथा चाकू के अनगिनत घाव पाए जाने का स्पष्ट रूप से उल्लेख है।
इतनी क्रूरतापूर्वक हत्या के विषय में क्या कहा जाए ? यह मेरी समझ से परे है । मेरी कलम इसे लिख पाने में असमर्थ है।
इतनी जघन्य हत्या तो किसी क्रूरतम अपराधी की भी नहीं की जाती है । जबकि प्रवीर चंद्र भंजदेव एक संवेदनशील और विद्वान व्यक्ति थे।
मैने अपनी बस्तर यात्रा के दरम्यान उनके संपर्क में रहे जिन कुछ लोगों से मुलाकात की थी उन्होंने मुझे बताया था कि वे अत्यंत आकर्षक और सुंदर व्यक्तित्व के धनी थे। आदिवासियों के प्रति बेहद संवेदनशील और अध्ययनशील प्रवृति के थे। राजमहल में उनकी एक विशाल लाइब्रेरी हुआ करती थी। जिसमें अंग्रेजी, हिंदी की किताबों का अद्भुत संग्रह था।
ऐसे महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव किसी का क्या बिगाड़ सकते थे ? केवल तीर धनुषधारी आदिवासियों के साथ सत्ता के खिलाफ कैसे विद्रोह कर सकते थे ? केवल आदिवासियों के शोषण के खिलाफ आवाज उठाना किसी राजद्रोह की श्रेणी में भला कैसे आ सकता है ?
महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की जिस समय हत्या हुई उस समय उनकी आयु मात्र 37 वर्ष की थी। एक तरह से अभी उनका पूरा जीवन शेष था।
वे देश के अन्य राजाओं की तरह अगर सत्ता पर आसीन राजनीतिज्ञों के आगे पीछे होते रहते , उनकी हर साजिश और षड्यंत्र में हिस्सेदार बने होते, बस्तर के आदिवासियों के दुख दर्द और शोषण को अनदेखा कर देते, राज सुख को ही सर्वोपरि मान लेते तो संभवतः वे भी सत्ता पर आसीन राजनीतिज्ञों के हमराज़ और हमराह होते।
कम से कम तब उनकी इस क्रूरता के साथ हत्या तो नहीं की जाती और वे भी अन्य राजा महाराजाओं की तरह विधायक ,सांसद या केंद्र में मंत्री पद को सुशोभित कर रहे होते।
पर इसी धरा पर कुछ लोग अपने जीवन में कुछ असाधारण कार्य करने के लिए भी जन्म लेते हैं और मनुष्यता की एक नई मिसाल पेश करते हैं।
सच कहूं तो वे सम्पूर्ण अर्थ में एक मसीहा होते हैं, एक देव पुरुष। बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव भी इसी तरह की एक अनमोल शख्सियत थे।
वे सही अर्थों में एक मसीहा थे। एक देव पुरुष थे। जिन्हें हम ठीक से नहीं समझ पाए थे। जिनका सटीक मूल्यांकन हम समय रहते नहीं कर पाए थे।
यह अकारण नहीं है कि बस्तर के आदिवासी आज भी अपने इस देव पुरुष की तस्वीर अपनी देवगुड़ी में अपने आराध्य देवों के साथ रख कर उनकी पूजा करते हैं । उन्हें दंतेश्वरी देवी का प्रथम या प्रमुख पुजारी भी कहा जाता है।
काकतीय राजा प्रवीर चंद्र भंजदेव के बिना बस्तर का इतिहास लिखा जाना कभी संभव नहीं होगा।
शायद आने वाले समय में उनका और बेहतर मूल्यांकन संभव हो सके। इसी प्रत्याशा के साथ बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की श्रृंखला यहीं समाप्त होती है।
इसी के साथ ही छत्तीसगढ़ एक खोज से भी कुछ दिनों के लिए मैं विश्राम लेना चाहता हूं। 62 वीं कड़ी लिखने के बाद आगे की तैयारी के लिए मुझे भी कुछ वक्त चाहिए।
छत्तीसगढ़ एक खोज एक तरह से मेरे लिए एक शोध कार्य की तरह है, जिसका ध्येय कुछ नए तथ्यों का अनुसंधान करना है। अब तक लिखे गए तथ्यों की प्रामाणिक जांच तथा के साथ ही नए नए तथ्यों का उद्घाटन करना है।
महात्मा गांधी के छत्तीसगढ़ प्रवास , सुंदर लाल शर्मा, नारायण सिंह, गुंडाधुर, हबीब तनवीर, पंडित सत्य दुबे तथा छत्तीसगढ़ की कुछ अन्य विभूतियों पर कुछ ठोस सामग्रियों और तथ्यों के साथ लिखने के लिए मुझे वक्त की जरूरत तो होगी ही।
तो फिलहाल कुछ दिनों के लिए अलविदा
-अपूर्व गर्ग
हर दूसरा आदमी किसी न किसी बीमारी से जूझ रहा। हर तीसरा-चौथा व्यक्ति की जीवनशैली रोगों की चपेट में है। आपातकालीन संकट तो पूछिए ही नहीं!
पांच करोड़ से ज्यादा लोग कोरोना के शिकार हुए और इन्हें बचाते हजारों डॉक्टर शहीद हुए। और सुनिए, प्रतिदिन 67,385 बच्चे पैदा होते हैं। इनके पैदा होने से पहले और इनके पैदा होने के बाद तक प्रतिदिन डॉ. अर्चना शर्मा की तरह महिला रोग विशेषज्ञ इनकी जिंदगियाँ बचाती हैं, जो कभी खबर नहीं बनती।
जान बचाना तो डॉक्टर का पेशा है न! क्यों ख़बर बने?
हाँ जान जाये तो लाइव ही लाइव। अच्छे पत्रकार तो सबका पक्ष रखते हैं पर उत्तेजना के घोड़े पर सवार लोगों को कहाँ होश रहता है या समझ होती है कि आखिर केस का मेडिकल पक्ष क्या है?
ईमानदारी से सोचिये आज कितने मीडिया संस्थान अपने उन पत्रकारों को जो मेडिकल बीट कवर करते हैं, मेडिकल ज्ञान प्रदान करवाने ट्रेनिंग देते हैं?
आज दवाइयों के दाम में कमरतोड़ वृद्धि हुई है, जरा पूछिए दवा नीति के बारे में इनसे?
पूछिए स्वास्थ्य नीति के बारे में इन मीडिया संस्थानों से?
पूछिए कि आईडीपीएल, एचएएल, बीआई जैसे सार्वजनिक क्षेत्रों के बाद दवाई की दुनिया का क्या हश्र हुआ?
अब उस जनता की बात करें जो हर अवैज्ञानिक काम में सबसे आगे रहती है पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना ही नहीं चाहती।
इन्हे कैसे बताएँगे कि 66.4 प्रतिशत महिलाएं एनेमिक हैं और जब ये गर्भधारण करती हैं तब डॉक्टर के पास जाती हैं।
एनीमिया को यथासंभव ठीक कर उपचार और अच्छी डाइट की सलाह देकर डॉक्टर इनका उपचार करती हैं। डिलीवरी सफल तो कोई बात नहीं असफल तो उँगलियाँ उठाओ!
क्या कभी उस व्यवस्था पर ऊँगली उठाते हो भाई जो महिला के अंदर खून की कमी और प्रोटीन-विटामिन की कमी के लिए दोषी है?
उनसे सवाल करते हो जो कानूनी मातृत्व अवकाश 26 सप्ताह तो दूर दस दिन देने से कतराते हैं?
बड़ा तबका निजी क्षेत्र में कार्यरत है। इस देश में कितने निजी क्षेत्र ‘मैटरनिटी लीव’ कानून का पालन कर रहे?
सोचिये निजी क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाएं जब गर्भ धारण करती हैं तो कितने खतरे उठती हैं?
इन्हें ‘मैटरनिटी लीव’ तो दूर मिनिमम वेज भी नहीं मिलता...पर इस समाज को गुस्सा नहीं आता!
सारे अवैज्ञानिक ढकोसले ये करेंगे पर बच्चे के जन्म से जुड़े ज्ञान-विज्ञान को ये समझना ही नहीं चाहते।
गर्भवती महिला का ब्लड प्रेशर जिसे पीआईएच या प्रीक्लैंप्सिया कहा जाता है बढ़ता है। जब बच्चे के आसपास के अमीनोटिक तरल बहुत कम होता है तो आलिगोहाइड्राम्निओस स्थिति बनती है।
ऐसी कई जटिलताएं हैं जिसे आज के डॉक्टरों ने लगातार शोध कर काफी नियंत्रित किया है और हमें एक सुंदर सी दुनिया उपहार में दी है।
क्या कभी हमने समझने की कोशिश की, कि बड़ी-बड़ी जटिलताओं के बावजूद सफल डिलीवरी हो रही, सफल सर्जरी हो रही।
चलिए, आप कहेंगे कि काफी बड़ी आबादी की समझ उतनी नहीं है...मान लिया!
जब समझ नहीं तो व्हाटस ऐप विश्विद्यालय की खबरों के आधार पर बवाल क्यों?
अच्छा, ये तो समझते हैं कि कम उम्र में विवाह न किया जाए?
ये तो समझते हैं कि महिला के स्वस्थ होने पर ही बच्चा पैदा करने का निर्णय लें?
ये तो समझते हैं कि ‘खुशहाल जच्चा, सुरक्षित बच्चा’?
तो ये बताइये कि जच्चा को खुशहाल रखने के लिए जो जरूरतें हैं उसके लिए कभी मुँह खोला?
बढ़ती भयानक महंगाई आपके लिए चौतरफा संकट बढ़ाएगी, ऐसे में जच्चा खुशहाल तो दूर सुरक्षित ही नहीं रह सकती। ऐसे में संतुलित पौष्टिक आहार की क्या चर्चा करूँ?
और इस पर भी आप अपनी अज्ञानता, अवैज्ञानिकता से अंधे होकर जो समाज बना रहे, ऐसे भविष्य पर कुछ भी लिखते मेरे हाथ कांपते हैं।
मेरा दिल काँप रहा है, रो रहा है उस डॉक्टर के लिए जिसने इस समाज के साथ जीना मंजूर नहीं किया।
सुनिए, डॉ. अर्चना शर्मा की घटना से इस देश के चिकित्सा जगत को गहरा सदमा पहुंचा है।
महसूस करिये, समझिये और इससे पहले देर हो, जागिये।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप
केंद्र सरकार ने असम, नगालैंड और मणिपुर के ज्यादातर क्षेत्रों से अफ्सपा याने ‘आर्म्ड फोर्सेज़ स्पेशल पावर्स एक्ट’ को हटाकर सराहनीय कदम उठाया है। 1958 में यह कानून नेहरु सरकार को इसलिए बनाना पड़ा था कि भारत के इन पूर्वी सीमा के प्रांतों में काफी अराजकता फैली हुई थी। कई बागी संगठनों ने इन प्रांतों को भारत से तोडऩे का बीड़ा उठा रखा था। उन्हें ईसाइयत के प्रचार के नाम पर पश्चिमी मुल्क भरपूर सहायता दे रहे थे और चीन समेत कुछ पड़ौसी देश भी उनकी सक्रिय मदद कर रहे थे। इसीलिए इस कानून के तहत भारतीय फौज को असाधारण अधिकार प्रदान कर दिए गए थे। इन क्षेत्रों में नियुक्त फौजियों को अधिकार दिया गया था कि वे किसी भी व्यक्ति पर जऱा भी शक होने पर उसे गिरफ्तार कर सकते थे, उसकी जांच कर सकते थे और उसे कोई भी सजा दे सकते थे। उन्हें किसी वारंट या एफआईआर की जरुरत नहीं थी। इन फौजियों के खिलाफ न तो कोई रपट लिखवा सकते थे और न ही उन पर कोई मुकदमा चल सकता था। दूसरे शब्दों में इन क्षेत्रों की जनता ‘मार्शल लॉ’ के तहत जीवन गुजार रही थी।
कई निर्दोष और निरपराध लोग भी इस कानून की चपेट में आते रहे हैं। लगभग इन सभी राज्यों की सरकारें इस कानून को हटाने की मांग करती रही हैं। इस कानून को हटाने की मांग को लेकर मणिपुर से इरोम शर्मिला नामक महिला ने 16 वर्ष तक लगातार अनशन किया। यह विश्व का सबसे लंबा और अहिंसक अनशन था। हालांकि यह कानून अभी हर क्षेत्र से पूरी तरह नहीं हटाया गया है, फिर भी 60 प्रतिशत क्षेत्र इससे मुक्त कर दिए गए हैं। पिछले 7-8 सालों में उग्रवादी हिंसक घटनाओं में 74 प्रतिशत की कमी हुई है। सैनिकों की मौत में 60 प्रतिशत और नागरिकों की मौत में 84 प्रतिशत कमी हो गई है। पिछले साल 4 दिसंबर को नगालैंड के मोन जिले में फौज के अंधाधुंध गोलीबार से 14 लोगों की मौत हो गई थी। इस दुर्घटना ने उक्त कानून की वापसी की मांग को काफी तेज कर दिया था। सच्चाई तो यह है कि पूर्वी सीमांत के इन इलाकों में इस तरह का कानून और पुलिस का निरंकुश बर्ताव अंग्रेजों के जमाने से चल रहा था।
केंद्र की विभिन्न सरकारों ने समय-समय पर इस कानून में थोड़ी-बहुत ढील तो दी थी लेकिन अब केंद्र सरकार ने इसे पूरी तरह से हटाने का रास्ता खोल दिया है। पिछले कुछ वर्षों में इन इलाकों के लगभग 70,000 उग्रवादियों ने आत्म-समर्पण किया है। लगभग सभी राज्यों में भाजपा या उसकी समर्थक सरकारें हैं याने केंद्र और राज्यों के समीकरण उत्तम है। 2020 का बोदो समझौता और 2021 का कर्बी-आंगलोंग पेक्ट भी शांति की इस प्रक्रिया को आगे बढ़ा रहे हैं। गृहमंत्री अमित शाह खुद इन क्षेत्रों के नेताओं के बीच काफी सक्रिय हैं। यही प्रक्रिया चलती रही तो अगले कुछ ही वर्षों में ये सीमांत के क्षेत्र भी दिल्ली और मुंबई की तरह संपन्न हो सकेंगे। (नया इंडिया की अनुमति से)
बिसाहू दास महंत (1 अप्रैल 1924- 23 जुलाई 1978)
-गणेश कछवाहा
स्व. बिसाहू दास महंत का जन्म 01 अप्रैल 1924 को छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा जिले के ग्राम सारागांव में हुआ था। उनका जन्म छोटे किसान परिवार में हुआ था। जीवन संगिनी धर्मपत्नी जानकी देवी, दो पुत्र चरण दास महंत और राजेश महंत तथा चार बेटियों सहित संस्कारिक सुखी व समृद्ध परिवारिक विरासत थी। संत शिरोमणी कबीर साहेबजी के अनन्य अनुयायी रहे। जिसका गहरा प्रभाव उनके जीवन पर पड़ा। शिक्षा और संस्कार पर विशेष ध्यान और जोर देते थे। पढऩे और लिखने का काफी शौक था। 1942 और 1947 के बीच अपने कॉलेज जीवन में उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी और इस वजह से सरकार ने उनके खिलाफ कार्रवाई की और उनकी छात्रवृत्ति को भी खारिज कर दिया था।
सामाजिक सरोकार उनके स्वभाव व जीवन का एक अभिन्न हिस्सा था-लोगों से मिलना-जुलना उनके दु:ख-सुख में शामिल होना अपने आसपास के लोगों की यथायोग्य मदद करना, अन्याय का सामूहिक ग्रामीण जन शक्ति के साथ विरोध करना, सामाजिक सरोकार को जीना उनके स्वभाव व जीवन का एक अभिन्न हिस्सा था। देश के स्वतंत्रता आंदोलन में महात्मा गांधी उनके आदर्श रहे। राष्ट्रीय स्वतंत्रता और समाजिक सरोकार से जुड़े विषयों पर लेखन, चिंतन, विमर्श और चर्चा दैनिक जीवनचर्या थी। गांव और आसपास के लोग उनके व्यवहार, सदाचरण, सोच, बुद्धिमत्ता और सेवाभाव से बहुत प्रभावित थे। यही आचरण और व्यवहार ने बिसाहू दास महंत को उनका (ग्रामीण जनों का) एक स्वाभाविक जन नेता बना दिया था।
‘ज्यों कीं त्यों धर दीन्हीं चदरिया’
बिसाहूदास महंत की राजनीति में कोई विशेष रुचि नहीं थी। लेकिन उनके व्यक्तित्व ने कांग्रेस के तत्कालीन नेतृत्व को बहुत प्रभावित किया और देश की आजादी के बाद सन् 1952 में पहलीबार नया बाराद्वार क्षेत्र से विधायक चुने गए। तब से आजीवन 1978 तक विधायक और सम्माननीय मंत्री रहे। सन् 1967 से 1978 तक उनका चुनाव क्षेत्र चांपा रहा। 23 जुलाई 1978 को लगभग 54 वर्ष की उम्र में गृहनिवास सारागांव जिला जांजगीर चांपा में दीर्घ अस्वस्थता एवं हृदयाघात से निधन हो गया। सांसारिक जीवन को अलविदा कह गए। संत कबीर की वाणी को आत्म सात करते हुए बहुत ही शांत मुद्रा में अपनी करनी-रहनी को यहीं संसार में निर्लेप भाव से छोडक़र बिना किसी वाद-विवाद, दाग या बुराई के ‘ज्यों कीं त्यों धर दीन्हीं चदरिया।’
लेकिन आज भी उनका व्यक्तित्व और कृतित्व राजनीति व सामाजिक जगत के लिए पथ-प्रदर्शक है। गौरवशाली धरोहर और विरासत है।
विरासत-स्मृति शेष बिसाहूदास महंतजी की विरासत को उनके सुपुत्र डॉ. चरणदास महंतजी पूरी निष्ठा से आगे बढ़ा रहे हैं और उसे समृद्ध कर रहे हैं। शांत, सरल, और शालीन स्वभाव के चरणदास महंतजी पर अपने पूज्य पिताश्री के राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने की जवाबदारी और जिम्मेदारी अचानक आ पड़ी। पिता के संस्कार, आदर्श, अनुशासन, आध्यात्मिक ज्ञान, गुरू संत शिरोमणी श्री कबीर साहेब जी के प्रति संपूर्ण समर्पण, सामाजिक सरोकार,लेखन, पठन, और छोटे-बड़े सभी के प्रति समान आदर भाव, ‘न काहू से दोस्ती न काहू से बैर’ (कोई विरोधी नहीं, कोई शत्रु नहीं) सभी के प्रति मित्रवत व्यवहार उन्हें अतिशीघ्र एक आदर्श और सफल राजनेता के रूप स्थापित कर दिया। इसी सदाचरण और व्यवहार से लोग उनमें उनके पूज्य पिताश्री स्व. बिसाहूदास महंत की छवि देख सुखद स्मृतियों का अहसास करते हैं। संप्रति डॉ. चरण दास महंत छत्तीसगढ़ विधान सभा के अध्यक्ष पद पर आसीन हैं। कुलवधु श्रीमती ज्योत्सना महंत सांसद हैं।
स्व. बिसाहू दास महंत स्मृति पुरस्कार
छत्तीसगढ भूपेश सरकार ने हर साल राज्य के श्रेष्ठ बुनकरों को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्व. बिसाहू दास महंत स्मृति पुरस्कार से सम्मानित करने का सराहनीय निर्णय लिया है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने स्व. महंत की पुण्यतिथि पर आयोजित कार्यक्रम में यह घोषणा की थी।
अशेष स्मृतियां सदैव पथ प्रदर्शन करते रहेंगी
मैं उस दृश्य को विस्मृत नहीं कर पाता हूं। शायद सन 1997 में जब अविभाजित मध्यप्रदेश में डॉ. चरणदास महंत गृहमंत्री थे और उन्होंने रविंद्र भवन भोपाल में संत कबीर पर ‘ढाई आखर’ के नाम पर एक कार्यक्रम आयोजित किया था। जिसका मंच संचालन मैने (गणेश कछवाहा) किया था। जगदीश मेहर, मनहरण सिंह ठाकुर और हमारी परिकल्पना से
रविन्द्र भवन भोपाल को कबीर कुटीर में तब्दील कर दिया गया था। जिसमें तत्कालीन मुख्यमंत्री माननीय दिग्विजय सिंह सहित पूरा मंत्रिमंडल और प्रबुद्ध गणमान्य विद्वत जनों से पूरा हाल खचाखच भरा हुआ था। कई महत्वपूर्ण लोगों को बैठने की जगह भी नहीं मिली पाई थी। यह प्रभाव था संत कबीर के साथ उनके अनुयायी बिसाहूदास महंत के व्यक्तित्व का। यह आयोजन संत कबीर के ताने बाने को समझने और बुनने की एक कोशिश थी।
वर्तमान जटिल और विषम राजनैतिक परिदृश्य में स्मृति शेष बिसाहू दास महंत की अशेष स्मृतियां, शुचिता एवं सदभाव पूर्ण और जन हितैषी राजनैतिक विचारधारा सदैव पथ-प्रदर्शन करते रहेंगी
आज 1 अप्रैल 2022 को उनकी 96वीं पुण्य जयंती पर श्रद्धावनत सादर नमन् ।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अब पाकिस्तान में इमरान सरकार का बचना मुश्किल है। कल पाकिस्तान के सेनापति कमर बाजवा और आईएसआई के मुखिया जनरल नदीम अंजुम से इमरान की काफी लंबी भेंट हुई। ये दोनों इमरान से नाराज हैं। यदि इमरान ने इन दोनों को पटा लिया हो तो हो सकता है कि इमरान हारी हुई बाजी जीत जाएं, क्योंकि पाकिस्तान की राजनीति की असली धुरी फौज ही है। पाकिस्तान के जो राजनीतिक दल इमरान की पार्टी पीटीआई को समर्थन दे रहे थे और उसकी अल्पमत की सरकार को जिंदा रखे हुए थे, वे भी फौज का बदला हुआ रवैया देखकर अब इमरान का साथ छोड़ रहे हैं।
इमरान के अपने लगभग दो दर्जन सांसदों ने बगावत का झंडा थाम रखा है। यदि इमरान उन्हें भी किसी तरह जोड़े रखें तो भी अब मुत्ताहिदा कौमी मूवमेंट के 7 सांसद विरोधी खेमे में शामिल हो गए हैं। इमरान की गठबंधन सरकार सिर्फ 5 सदस्यों के बहुमत से चलती जा रही थी। वह अब अल्पमत में चली गई है। इमरान अब भी इस्तीफा नहीं दे रहे हैं। वे कहते हैं कि अभी भी उनके पास ‘तुरुप का पत्ता’ है।
उन्होंने पंजाब के मुख्यमंत्री पद से अपनी पार्टी के मुख्यमंत्री का इस्तीफा करवाकर मुस्लिम लीग (क़ा) के परवेज इलाही को मुख्यमंत्री बनवा दिया है ताकि इस पार्टी के 7 सांसद टूटे नहीं। समझ में नहीं आता कि इमरान अब कौनसा तुरुप का पत्ता चलने वाले हैं? क्या वह अपनी जगह अपने बागियों में से किसी को प्रधानमंत्री बनाकर अपनी सरकार बचा लेंगे? सभी विरोधी दल मांग कर रहे हैं कि 3 अप्रैल को अविश्वास प्रस्ताव के पहले ही इमरान इस्तीफा दे दें लेकिन इमरान तो इतिहास बनाने पर तुले हुए हैं।
1957 में सिर्फ दो माह तक प्रधानमंत्री रहनेवाले इब्राहिम चुंदरीगर ही ऐसे एक मात्र प्रधानमंत्री हुए हैं, जिन्हें संसद में अविश्वास प्रस्ताव के कारण अपना पद छोडऩा पड़ा था। इमरान उन्हीं की राह पर हैं। आज तक पाकिस्तान में एक भी प्रधानमंत्री ऐसा नहीं हुआ है, जो पूरे पांच साल तक अपनी कुर्सी में टिका रहा हो। यह तथ्य ही बताता है कि पाकिस्तानी लोकतंत्र कितना दुर्दशाग्रस्त है। उसके प्रधानमंत्री को कभी फौज उलटती रही, कभी राष्ट्रपति पलटते रहे और कभी उनकी हत्या हो गई।
अब जो सरकार बनेगी, उसके प्रधानमंत्री बनने की संभावना शाहबाज शरीफ की है। वे तीन बार पंजाब के मुख्यमंत्री रह चुके हैं और आजकल सबसे बड़े विरोधी दल के नेता हैं। उनके बड़े भाई मियां नवाज़ शरीफ और फौज के रिश्ते कितने कटु हैं, सबको पता है। अब पता नहीं कि शाहबाज को फौज कब तक और कैसे बर्दाश्त करेगी? यह हो सकता है कि प्रधानमंत्री शाहबाज शीघ्र ही आम चुनाव की घोषणा कर दें। अर्थात पाकिस्तान हमेशा की तरह अस्थिरता के एक नए दौर में प्रवेश कर जाएगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-दिनेश चौधरी
हिंदी में लेखक-प्रकाशक रॉयल्टी विवाद की अपार सफलता के बाद यह फुटकर विमर्श भी इसी मंच पर दिखाई पड़ रहा है कि दर्शकों को नाटक मुफ्त में नहीं दिखाना चाहिए। बिल्कुल नहीं दिखाना चाहिए और जरूरत पडऩे पर मुफ्तखोरों को रोकने के लिए बाउंसर्स तैनात कर देना चाहिए। लेकिन ऐसा करते हुए खुद के गिरहबान में झांककर यह देख लेना चाहिए कि अपने सहयोगी कलाकारों-लेखकों के प्रति अपना रवैया कितना व्यावसायिक है। व्यावसायिकता आधी-अधूरी नहीं होनी चाहिए।
एक पुराना प्रसंग दोहरा रहा हूँ, जो मुझे अजय भाई ने सुनाया था। रायगढ़ इप्टा के अजय भाई को पिछले दिनों कोरोना ने हमसे छीन लिया। किसी मराठी नाटक के उन्होंने कुछ शो किए। नाटक लोगों को खूब पसंद आया। अपने यहाँ नाटककार की कमाई यही होती है कि नाटक लोगों को पसंद आ जाए। लेखक यही सोचकर धन्य होता है कि उसका लिखा नाटक कोई खेल रहा है। पैसे-धेले का कोई जुगाड़ नहीं होता। अजय भाई ने नाटककार को खुशी-खुशी चिठ्ठी लिखी कि आपके इतने शो हमने किए। मस्त रहे। लौटती डाक से उन्होंने बिल भेज दिया। अजय भाई अवाक! कहा, ‘हमारे यहाँ कॉपीराइट का चलन नहीं है।’ उन्होंने कहा कि, ‘दरी-तम्बू वाले को देते हो, माइक-लाइट वाले को देते हो, हलवाई को देते हो...लेखक को क्यों छोड़ दिया?’
ऐसा नहीं है कि नाटक करने वाले लोग बेईमान हैं और लेखक की रॉयल्टी दबाना चाहते हैं। मसला सिर्फ लेखक का नहीं है। व्यावसायिकता की बात करें तो सहयोगी कलाकारों -अभिनेताओं के मेहनताने या फीस का सवाल भी आता है। संगीतकारों-गायकों का भी। नाट्य-दल को किसी चित्रकार की कृति भेंट कर रहे हों तो चित्रकार की फीस और आखिर में टिकिट बेचना हो तो मनोरंजन कर। हिंदी पट्टी में टिकिट बेचकर आप यह सब कर लेंगे? जब हफ्तों पहले आमंत्रण-पत्र देने के और आखिरी घण्टे तक व्हाट्सएप मैसेज भेजने के बाद भी थिएटर हॉल पथराई आँखों से दर्शकों की बाट जोहते हों।
ऐसा तो नहीं है कि लोगों को पहले कभी नाटक देखने की आदत नहीं रही। नाचा-नौटंकी लोग देखते ही थे और टिकिट लेकर देखते थे। ठीक है कि आगे चलकर सिनेमा, टीवी और मोबाइल का हमला हुआ तो इन हमलों से जूझने के लिए क्या कोई रणनीति बन सकी? यह सवाल मैं किसी पर आक्षेप के लिए नहीं बल्कि खुद से पूछ रहा हूँ। हिंदी में नाटकों का कमोबेश वही हश्र हुआ तो नई कविता का। कविता पाठकों से कटती चली गयी और नाटक दर्शकों से। कविता आलोचकों के लिए लिखी जाने लगी और नाटक समीक्षकों के लिए। नाटकों में प्रयोग अच्छी बात है। प्रयोग किसी घटना या प्रसंग को सरल करने के लिए या व्याख्यायित करने के लिए हो तो वह ग्राह्य हो जाता है। प्रयोग का प्रयोजन दर्शकों को आतंकित करने का रहा। निर्देशक खुद को साबित करने के फेर में लगे रहे। कला और संस्कृति की समझ के हल्ले में कोई नया दर्शक नाटक देखने आया तो दोबारा उस दिशा में फटका भी नहीं। इस पर भी तो आत्मचिंतन होना चाहिए कि आपने कविता से रस, कहानी से कहानीपन और नाटकों से नाटकीयता को बेदखल कर दिया। किसी ने आपकी आलोचना की तो उसे कला, बौद्धिकता और समझ की धमकी देकर चुप करा दिया। वह आपसे बहस नहीं कर सकता इसलिए उसने आपको बहिष्कृत कर दिया।
अपनी इप्टा इकाई की रजत जयंती के सिलसिले में हम लोक-कलाकारों को आमंत्रित करने छत्तीसगढ़ के छोटे से गाँव मे गए। दो हजार की भी आबादी नहीं रही होगी। बरगद के एक पेड़ में नाचा दल की तख्ती लगी थी। सम्पर्क नम्बर था और नीचे लिखा हुआ था -मैनेजर! यह च्मैनेजरज् बड़े -बड़े शहरों के नामी नाट्य-दलों में भी नहीं पाया जाता। यहाँ निर्देशक होते हैं, संगीत निर्देशक होते हैं, प्रॉपर्टी इंचार्ज होते हैं, मेकअप मेन होते हैं पर कोई च्मैनेजरज् नहीं होता। बहरहाल, नाचा दल के मैनेजर से हमने कलाकारों को सम्मानित करने की बात कही तो उसने पूछा कि सम्मान करने के कितने पैसे दोगे? यह जानकारी भी मिली कि वे कलाकारों से एग्रीमेंट साइन करवाते हैं और रिहर्सल या शो में अनुपस्थित होने पर अर्थ-दण्ड देते हैं। आय की राशि वरिष्ठता के क्रम में बांट दी जाती है। जाहिर है कि यह काम भी हिंदी पट्टी में ही हो रहा है, पर इसलिए हो पा रहा है कि मेले-मड़ई में उनकी भारी माँग होती है। यह घटना ज्यादा नहीं, कोई चार-पांच साल ही पुरानी है। अभी के हालात क्या हैं, कह नहीं सकता।
हिंदी पट्टी में लेखकों-कलाकारों की दुर्दशा पर पोथियाँ रची जा सकती है। हमारा समाज इन्हें किस निगाह से देखता है, यह बताने की जरूरत नहीं है। कला-संस्कृति तो बहुत दूर की बात है वह तो रोज का भोजन भी सेहत को ध्यान में रखते हुए नहीं करता। यह उसकी प्राथमिकता में नहीं आता। अगर ऑर्गेनिक टमाटर दस रूपये किलो मिले तो वह 5 रुपये वाले रासायनिक खाद वाले टमाटर को प्राथमिकता देता है भले ही मॉल में वह सौ रुपए का पॉपकॉर्न खरीद ले। कला-संस्कृति में उसकी सुरुचि-सम्पन्नता देखनी हो तो विवाह समारोह में चले जाएँ। वह भकोस कर प्लेट-भर खाता है और कानफोडू डीजे में संगीत का आनंद लेता है। उसके घर में किताब के नाम पर सिर्फ कोर्स-बुक या एक-दो धार्मिक किताबें होती हैं। ऐसे समाज से आप उम्मीद करते हैं कि वह टिकिट लेकर नाटक देखे तो आप बहुत मासूम है। इस समाज को नाटक की जरूरत नहीं है। यह आपकी अपनी जरूरत है। नाटक करना आपको अच्छा लगता है। करते रहें। कोई उम्मीद पालेंगे तो फ्रस्टेशन के शिकार होंगे। यथास्थिति बनाए रखें।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
ऐसा लगता है कि तुर्की में चल रहा रूस-यूक्रेन संवाद शीघ्र ही उनका युद्ध बंद करवा देगा लेकिन इस मौके पर भारतीय विदेश नीति की कमजोरी साफ़-साफ़ उभर कर सामने आ रही है। जो काम भारत को करना चाहिए था, वह तुर्की कर रहा है। यह ठीक है कि तुर्की के अमेरिका और रूस दोनों से अच्छे संबंध हैं और वह नाटो का सदस्य भी है लेकिन इस समय अमेरिका और रूस के भारत के साथ जितने घनिष्ट संबंध हैं, किसी देश के नहीं हैं।
इसका प्रमाण तो यह ही है कि दोनों के विदेश मंत्री भारत आ रहे हैं, दोनों देशों के राष्ट्रपति भारतीय प्रधानमंत्री से बात कर रहे हैं और दोनों महाशक्तियां भरपूर कोशिश कर रही हैं कि वे भारत को अपनी तरफ झुका लें लेकिन भारत अपनी तटस्थता की टेक पर मजबूती से टिका हुआ है। संयुक्तराष्ट्र संघ में जब भी मतदान हुआ है, उसने न तो रूस के समर्थन में वोट डाला और न ही अमेरिका के समर्थन में। लेकिन दुर्भाग्य है कि इसी साहस का परिचय उसने युद्ध बंद करवाने में नहीं दिया। फिर भी इस समय विदेश नीति के क्षेत्र में भारत काफी सक्रिय है।
हर सप्ताह के दो-तीन दिन कोई न कोई विदेशी मेहमान भारत जरुर आ रहा है और भारतीय विदेश मंत्री जयशंकर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित दोभाल भी विदेश यात्राएं कर रहे हैं। रूसी विदेश मंत्री सर्गेइ लावरोव यदि नई दिल्ली आ रहे हैं तो अमेरिका ने अपने उप-सुरक्षा सलाहकार दलीपसिंह को भारत भेज दिया है ताकि भारत सरकार लावरोव के भुलावे में न फंस जाए।
अमेरिका और नाटो राष्ट्रों की भरसक कोशिश है कि भारत किसी न किसी रुप में रूस की भर्त्सना करे और उस पर प्रतिबंधों को भी लागू करे लेकिन रूसी व्यापारिक प्रतिनिधि आजकल दिल्ली में बैठकर यह कोशिश कर रहे हैं कि भारत को बड़ी मात्रा में तेल कैसे बेचा जाए। इस्राइली प्रधानमंत्री नफ्ताली बेनेट भी भारत आनेवाले थे लेकिन अस्वस्थता के कारण उनकी यात्रा अभी टल गई है।
इस बीच बिम्सटेक की बैठक के लिए जयशंकर श्रीलंका पहुंचे हुए हैं। बिम्सटेक के सात देशों की बैठक को हमारे प्रधानमंत्री भी संबोधित कर रहे हैं। ये सात देश अपना घोषणा पत्र तैयार कर रहे हैं और आपसी सहयोग का महत्वपूर्ण समझौता भी कर रहे हैं। दक्षेस के निष्क्रिय होने पर बिम्सटेक की सक्रियता विशेष स्वागत योग्य है।
इस समय जयशंकर की यह श्रीलंका-यात्रा बहुत सार्थक और सामयिक सिद्ध हो रही है, क्योंकि श्रीलंका के अपूर्व आर्थिक संकट में भारत ने सीधी मदद की घोषणा की है और जफना में चीनियों के प्रस्तावित तीन सौर-केंद्रों को अब भारत चलाएगा। श्रीलंका के साथ दो रक्षा-समझौते भी हुए हैं। इस मौके पर मिली भारतीय सहायता श्रीलंका को चीन का चंगुल ढीला करने का साहस भी प्रदान करेगी। (नया इंडिया की अनुमति से)
-अशोक पांडे
अपने जीवन के आख़िरी सत्तर दिनों में विन्सेंट ने सत्तर पेंटिंग्स बनाईं. उन दिनों वह वह किस तरह की ऊर्जा और जिद से भरा हुआ होगा इसकी कल्पना करनी हो तो इनमें से कुछ पेंटिंग्स को गौर से देखना होगा. जैतून के पेड़ों के एक चित्र में एक कीड़े के रेंग चुकने के निशान स्पष्ट दीखते हैं. इसी सीरीज की एक और पेंटिंग में तो एक टिड्डे की समूची खोपड़ी और पिछली टांगें रंगों के साथ चिपक कर अमर हो चुकी चीजें बन गयी हैं. आउटडोर पेंटिंग करते समय गीले पेंट पर ऐसी चीजें हो जाना सामान्य है. उस्ताद कलाकार स्टूडियो में लौट कर इस खामियों को दुरुस्त करते हैं. वान गॉग के पास इतना समय न था. एक चित्र में तो उसकी उँगलियों की छापें तक लगी हुई हैं. पेंटिंग की दुनिया में इस बात को अक्षम्य माना जाता है.
विन्सेन्ट वान गॉग ने एक ख़त में दर्ज किया था - "दुनिया में काम करने के लिए आदमी को अपने ही भीतर मरना पड़ता है. आदमी इस दुनिया में सिर्फ़ ख़ुश होने नहीं आया है. वह ऐसे ही ईमानदार बनने को भी नहीं आया है. वह पूरी मानवता के लिए महान चीज़ें बनाने के लिए आया है. वह उदारता प्राप्त करने को आया है. वह उस बेहूदगी को पार करने आया है जिस में ज़्यादातर लोगों का अस्तित्व घिसटता रहता है."
पूरी जिन्दगी निराशा, शराबखोरी, गुरबत, पागलपन, वेश्याओं की सोहबत और खराब स्वास्थ्य से जूझने को मजबूर बना दिए गए, एक ग्रामीण पादरी के नालायक समझ लिए गए इस विकट प्रतिभावान बेटे को जब आखिरकार जब उसका मेहनताना मिला, उसे मरे हुए कई बरस हो चुके थे.
सारी जिन्दगी जिसकी एक भी पेंटिंग नहीं बिक सकी, उसके बनाए एक डॉक्टर के पोर्ट्रेट को छः अरब रुपयों में खरीदा गया.
हताशा के चरम पर पहुँचने के बावजूद उसने इस बात को अपना फ़र्ज़ जाना कि उसके भीतर जो महानतम है उसे हर हाल में अगली पुश्तों के लिए सौंप कर जाना है. वह कुल सैंतीस साल तीन महीने उनतीस दिन जिया.
हर दिन थोड़ा-थोड़ा उजड़ते और अजनबी बनते जा रहे हमारे संसार में जब तक विन्सेन्ट के लिए जगह रहेगी, चंद्रमा का इंतज़ार कर रहे सूरजमुखी के फूल उसकी याद दिलाते रहेंगे. उम्मीद ख़त्म नहीं होगी!
1853 के साल वह आज, 30 मार्च ही के दिन जन्मा था.
(चित्र फिलहाल लिस्बन में रह रहे ईरानी कलाकार अली रज़ा करीमी का बनाया हुआ है जिन्होंने पिछले कुछ वर्षों से विन्सेन्ट को अपनी डिजिटल पेंटिंग्स का नायक बनाया हुआ है और सैकड़ों चित्र रचे हैं.)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत सरकार अपराधियों की पहचान के लिए एक नया कानून बनाना चाहती है। उसने संसद में जो विधेयक पेश किया है, उसके तहत अब पुलिस उन सभी लोगों की पहचान के नए तरीके अपनाएगी, जो या तो गिरफ्तार हुए हैं या जिन्हें सजा हुई है या जो नजरबंद किए गए हैं। ऐसे लोगों की पहचान का पुराना सिलसिला 1920 में बने कानून के तहत अभी तक चल रहा है। 100 साल पुराने इस कानून के मुताबिक उक्त श्रेणियों के लोगों की उंगलियों, हथेलियों और पगथलियों के छापे ले लिये जाते हैं लेकिन अब इस नए कानून के मुताबिक उक्त तीनों के अलावा उनके फोटो, आंख की पुतलियों के चित्र, शारीरिक और जैविक तत्वों, उनके हस्ताक्षर आदि के पहचान-प्रमाण भी पुलिस अपने पास संभालकर रखेगी। ये प्रमाण 75 वर्ष तक रखे जाएंगे। इस विधेयक के संसद में पेश होते ही विपक्षी सांसदों ने इस पर हमला बोल दिया है।
उनका कहना है कि इस तरह के पहचान-प्रमाण इक_े करना मानव अधिकारों का हनन है। यह लोगों की गोपनीयता का सरासर उल्लंघन है। ऐसे लोगों की भी गोपनीयता इस कानून से भंग होती रहेगी, जिन्हें फर्जी आरोपों में गिरफ्तार और नजरबंद कर लिया गया होगा। पुलिस तो उन सरकार-विरोधी प्रदर्शनकारियों को पकडक़र उनके सारी निजी और गोपनीय जानकारियां भी इक_ी कर लेगी, जिनका अपराध से दूर-दूर का भी कोई संबंध नहीं है। विपक्षी सदस्यों का आरोप था कि यह विधेयक न केवल भारतीय संविधान बल्कि संयुक्तराष्ट्र संघ घोषणा-पत्र का भी उल्लंघन करता है। उन्हें यह इतना आपत्तिजनक लगा कि यह विधेयक पेश किया जाए या नहीं, इस मुद्दे पर भी मतदान करवाना पड़ गया। विधेयक पेश तो हो गया है, लेकिन मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है कि हमारे नेता लोग अपनी गोपनीयता को इतना ज्यादा महत्व क्यों देते हैं?
उनका जीवन और नागरिकों का जीवन खुली किताब की तरह क्यों नहीं होना चाहिए? आप कोई बात या काम छिपाना चाहते हैं, इसका मतलब क्या यह नहीं हुआ कि आप कोई न कोई गलत काम कर रहे हैं? इसके अलावा अब अपराध करने के बहुत-से नए तरीके अपनाए जाने लगे हैं तो उनको पकडऩे के 100 साल पुराने तरीकों से आप क्यों चिपके रहना चाहते हैं? अब ऐसे तरीके पुलिस को क्यों नहीं अपनाना चाहिए, जिनसे अपराधियों की पहचान तुरंत हो सके और उनका जांच से बच निकलना भी मुश्किल हो। इस कानून में एक सराहनीय प्रावधान यह भी है कि यदि किसी ऐसे व्यक्ति के पहचान-प्रमाण पुलिस ने इक_े किए हैं, जिसने पहले कभी कोई अपराध नहीं किया हो और वर्तमान मुकदमे में अदालत ने जिसे निर्दोष पाया हो, उसके सारे पहचान-प्रमाण नष्ट कर दिए जाएंगे। अर्थात इस कानून का मूल उद्देश्य अपराधियों को तुरंत पकडऩा है न कि निर्दोष लोगों की निजता या गोपनीयता भंग करना। (नया इंडिया की अनुमति से)
पेट्रोल-डीजल के दाम इतने बढ़ जाएंगे कि घर से दफ्तर और दफ्तर से घर तक का सफर दौड़ते हुए ही पूरा करना पड़ेगा
-सोरित गुप्तो
बहुत दिन पहले वह शुक्रवार की आधी रात थी। गांव-देहात के अंधेरे-गरीबी और लाचारी से हजारों किलोमीटर दूर रौशनी से लबरेज मेट्रो सिटी के नागरिकों के लिए वीकेंड बस शुरू होने को ही था। वीकेंड शुरू होते ही शहर भर के लोग होटल और रेस्टोरेंट पर बावलों की तरह टूट पडऩे वाले थे।
अचानक लोगों ने एक युवक को तेजी से दौड़ता हुआ देखा। इस युवक ने एक निकर और टीशर्ट पहनी थी और कंधे पर एक बैग था। इस दौड़ते हुए युवक ने लोगों में सनसनी फैला दी। लोगों में अनुमान लगाने की होड़ सी मच गई कि आखिर वीकेंड के इस शुभ मुहूर्त में युवक क्यों दौड़ रहा है?
इसी भीड़ में एक प्रोफेसर साहब थे जिन्होंने ‘एंटायर-पॉलिटिकल-साइंस’ में एमए किया था। प्रोफेसर साहब बोले, ‘इस युवक के कपड़ों को देखकर मैं दावे के साथ बता सकता हूं कि यह युवक अस्सी फीसदी की कैटिगरी में आता है। अस्सी फीसदी कैटिगरी के लोग आज खतरे में हैं और इसी खतरे के डर से युवक भागा जा रहा है। मित्रों इसकी मदद कीजिए।’
भीड़ में एक टीवी एंकर मौजूद था। मौके की नजाकत को समझते हुए उसने कहा, ‘नेशन वांट्स तो नो कि आखिर यह युवक क्यों दौड़ रहा है और देश के बुद्धिजीवी इस पर खामोश क्यों हैं?’
उसी भीड़ में व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के कुछ मेधावी छात्र उपस्थित थे जिन्होंने तुरंत एक दूसरे को मैसेज करना शुरू कर दिया जिसका लब्बोलुआब था, ‘वह युवक नेहरू की गलत नीतियों का शिकार है जिसके चलते वह भागा जा रहा है।’
भीड़ में खड़े एक व्यक्ति ने कहा, ‘मेरे पास पूरी जानकारी है। यह युवक यूक्रेन में डाक्टरी की पढ़ाई करने गया था और रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते फंस गया था। भारत आने की फ्लाइट न मिलने पर उसने तय किया कि कीव से दिल्ली तक की दूरी दौड़ कर तय करेगा।’
बात से बात बढ़ी और जल्द ही इस घटना का खबरिया चैनल पर सीधा प्रसारण होने लगा। आगे-आगे युवक दौड़ रहा था और उसके पीछे-पीछे ओवी वैन की भीड़ चल रही थी। पुराने जमाने में कभी किसी हेमलिन शहर में ऐसा ही कुछ हुआ था जब एक बांसुरी वाले की धुन पर पहले शहर भर के चूहे और बाद में बच्चे बांसुरी वाले पीछे-पीछे चल पड़े थे।
पर इस बात का अब भी किसी के पास कोई जवाब नहीं था कि आखिर यह युवक दौड़ क्यों रहा था? बात मुंबई फिल्म इंडस्ट्री तक जा पहुंची और एक निर्देशक आनन-फानन में अपने क्रू के साथ घटनास्थल आ पहुंचा और अपनी कार लेकर युवक के साथ-साथ चलने लगा। उसने युवक को कहा, ‘आजा मेरी गाड़ी में बैठ जा।’
पर युवक उसकी बातों को अनसुना कर दौड़ता रहा। निर्देशक ने कहा, ‘कहो तो मैं तुम्हारी फाइल, मेरा मतलब है कि बायोपिक बना दूं। कसम कैमरे की, हमकू भी 100 करोड़ कमाने वाला निर्देशक बनना मांगता। साइनिंग अमाउंट नकद लोगे या पनामा से ट्रांसफर कर दूं?’
एक तरफ निर्देशक साहब युवक को ऑफर पर ऑफर दिए जा रहे थे वहीं दूसरी तरफ युवक पर उनकी किसी बात का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था। थोड़ी ही देर में युवक को पत्रकारों, ओवी वैन और वीकेंड मनाने के लिए निकली भीड़ ने घेर लिया। भीड़ ने पूछा, ‘भाई तू आखिर दौड़ क्यों रहा है?’
युवक ने हंसते हुए कहा, ‘विधानसभा चुनाव अभी हाल ही में खत्म हुए हैं। चुनावों के चलते सरकार पेट्रोल-डीजल के दाम नहीं बढ़ा रही थी। जल्द ही पेट्रोल और डीजल के दाम इतने बढ़ जाएंगे कि आप पेट्रोल खरीदने लायक नहीं रहोगे। ऐसे में घर से दफ्तर और दफ्तर से घर तक का सफर दौड़ते हुए ही पूरा करना पड़ेगा। इसीलिए मैं अभी से दौडऩे की प्रैक्टिस कर रहा हूं! मेरी मानो तो आप भी दौडऩे की प्रैक्टिस शुरू कर दो।’
इतना कहकर वह युवक दौड़ता हुआ आगे निकल गया। (downtoearth.org.in)
-डॉ. राजेश अवस्थी
आखिरकार आज छत्तीसगढ़ की सरकार ने विश्वविद्यालय की परीक्षाएं ऑनलाइन लिए जाने का आदेश जारी कर दिया। आदेश जारी होते ही सोशल मीडिया में शिक्षाविदों ने पोस्ट डालने शुरू कर दिए।
कहा जा रहा है कि ‘ऑनलाइन परीक्षा के बजाय सीधे जनरल प्रमोशन ही क्यों न दे दिया जाय।’ कुछ को दुख है कि ‘इससे शिक्षा की गुणवत्ता पर असर पड़ेगा।’
‘ऑनलाइन परीक्षा से सिर्फ डिग्री मिलेगी ज्ञान नहीं’
आदेश अभी शाम को जारी हुआ है। अभी बहुत से ज्ञानवान लोग ऐसे और सवाल पूछेंगे।
इस पर बात करने से पहले ये पूछना चाहूंगा कि छत्तीसगढ़ के निजी विश्वविद्यालयों में क्या हो रहा, क्या इस पर ज्ञानियों की नजर नहीं पड़ रही?
या जानबूझ कर आंख बंद किएबैठे हैं
निजी विश्वविद्यालयों में तो परीक्षा न ऑनलाइन न ऑफलाइन सीधे पैसे दो डिग्री लो। धन्नासेठों और खद्दर धारी लोगों की निकम्मी औलादों के लिए चल रहे इन निजी विश्वविद्यालयों में सिर्फ एडमिशन लेना है। न पढऩा है, न परीक्षा देना है।
धन्नासेठों और खद्दरधारी नेताओं के हर जाहिल संतान के पास निजी विश्वविद्यालय की भारी-भरकम परसेंट वाली मार्कशीट है। इनके बारे में अगर आप सवाल नहीं खड़े करते तो आपकी ईमानदारी, आपकी शिक्षा की गुणवत्ता पर सवाल खड़ा होता है।
जाहिर है सवाल तो सिर्फ गरीबों के बच्चों की डिग्री पर उठेगा। रईसों के खिलाफ बोलने से पहले अपने नफा-नुकसान का भी ख्याल रखना होता है।
हमारे समाज की समझ पर बाबा नागार्जुन ने सटीक लिखा है-
‘...बड़ी मुसीबत हो जाती, गर कंगले होते पास’
पूरी कविता कुछ ऐसी है
‘खून पसीना किया आपने एक,
जुटाई फीस
आंखें, पढ़-पढ़ धस गई
नंबर आये तीस
शिक्षा मंत्री ने सीनेट से कहा
अजी शाबाश
बहुत मुसीबत हो जाती
गर कंगले होते पास
फेल पुत्र का बाप दुखी है
सिर धुनती है माता
जनगणमन अधिनायक जय हे
भारत भाग्य विधाता’
गरीब बच्चों के सरकारी विश्विद्यालयों की ऑनलाइन परीक्षा होगी तो सरमायेदारों के ढिंढोरची, तबलची खूब राग भैरवी बजायेंगे।
निजी विश्वविद्यालय तो इनकी नजर में आइंस्टीन पैदा कर रहे।
अब ऑनलाइन परीक्षा पर छात्र क्या मांग रहे थे
1. यूजीसी मापदंडों के अनुरूप 180 दिनों के पूरे सत्र की पढ़ाई हो उसके बाद परीक्षाएं हों।
2. अगर पूरे सत्र की पढ़ाई नहीं हो सकती तो ‘जैसी पढ़ाई वैसी परीक्षा’ हो याने ऑनलाइन पढ़ाई तो ऑनलाइन परीक्षा।
3. परीक्षाएं लेने की हड़बड़ी क्यों है,180 दिन की पढ़ाई पूरी कराओ फिर जून में ऑफलाइन परीक्षा ले लो अप्रेल में ही परीक्षा लेने की जिद क्यों?
4. सीएसवीटीयू में अभी ऑनलाइन (्रञ्ज्यञ्ज) परीक्षाएं चल रही फिर सीएसवीटीयू और बाकी यूनिवर्सिटी के लिए अलग-अलग मापदंड क्यों?
5. रविशंकर विश्वविद्यालय की प्रायोगिक परीक्षाएं अभी कल या परसों ही शुरू हुई है। 19 तारीख से ही थ्योरी की परीक्षाएं कराने की जिद क्यों (आज तक सभी प्रायोगिक परीक्षाओं के बाह्य परीक्षकों के नाम तक तय नहीं कर पाई है यूनिवर्सिटी। लेकिन 19 से ही थ्योरी की परिक्षा की जिद क्यों)
दरअसल, सच्चाई ये है कि सभी (लगभग) निजी कॉलेजों ने कोरोना काल में अपने शिक्षकों को निकाल दिया है। ये निजी महाविद्यालय इस सत्र में पढ़ाई पूरी करा ही नहीं सकते।
ये चाहते हैं कि इस सत्र को किसी भी तरह पूरा कर जुलाई-अगस्त में नए सत्र की शुरुआत हो जाये ताकि पैसा आये।
निजी महाविद्यालय, विश्वविद्यालय प्रशासन पर जल्दी परीक्षा लेने दबाव बनाए हुए हैं और विश्वविद्यालय प्रशासन छात्रों के हित में सोचने के बजाय निजी कॉलेजों की दलाली में लगा है।
एमएचआरडी की गाइड लाइन थी कि कोरोना काल में सिलेबस में कटौती की जाय और 60 प्रतिशत सिलेबस की परीक्षा ली जाय।
विश्वविद्यालय सो रहा था सिलेबस कमेटी की मीटिंग तक नहीं की गई।
अभी कल ही कुछ कॉलेजों में प्रायोगिक परीक्षाएं हुईं एक ही दिन दो-दो विषयो की प्रायोगिक परीक्षाएं ली जा रहीं।
क्या ये ठीक हो रहा है?
सिलेबस के अनुसार फिजिक्स प्रैक्टिकल की परीक्षा 4 घंटे की और कंप्यूटर प्रेक्टिकल की परीक्षा भी 4 घंटे की होने चाहिए। 3 घंटे में ही दोनों विषयो की प्रैक्टिकल की परीक्षाएं लेकर क्या खूब ऑफ लाइन गुणवत्तापूर्ण परीक्षा हो रही थी।
सवाल यह भी उठाया जा रहा है कि जब स्कूल के छात्र ऑफ लाइन परीक्षा दे सकते हंै तो कॉलेज के छात्र क्यों नही दे सकते?
सवाल फिर वही पढ़ाई नहीं हो पाई है, स्कूल के छात्रों की पढ़ाई में विराम नहीं लगा, लॉकडाउन के समय में भी नहीं।
राज्य शासन ने बुलठू के बोल, पढ़ाई तुंहर दुवार, मोहल्लाक्लास, लाउड स्पीकर कक्षाएं जैसी अनोखी योजनाएं बनाई, सिर जमीन पर उतारा, पढ़ाई बंद नहीं होने दी, योजनाओं का विश्लेषण और मूल्यांकन किया सकारात्मक नतीजे आये। तब जाकर ऑफ लाइन परीक्षाएं करवाई।
विश्वविद्यालयों ने क्या किया, पूरे समय सोते रहे, बस परीक्षा अपने समय पर लेना है, वो भी पूरे पाठ्यक्रम की।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इधर सर्वोच्च न्यायालय में एक बड़ी मजेदार याचिका पेश की गई है, अश्विनी उपाध्याय के द्वारा! उन्होंने अपनी याचिका में तर्क दिया है कि अल्पसंख्यकता के नाम पर कई राज्यों में बड़े पैमाने पर ठगी चल रही है। जिन राज्यों में जो लोग बहुसंख्यक हैं, वे यह कहते हैं कि हम लोग अखिल भारतीय स्तर पर अल्पसंख्यक हैं, इसलिए हमें अल्पसंख्यकों की सब सुविधाएं अपने राज्य में भी मिलनी चाहिए। जैसे जम्मू-कश्मीर में मुसलमान बहुसंख्यक हैं लेकिन उन्हें इसके बावजूद वहां अल्पसंख्यकों की सारी सुविधाएं मिलती हैं। लेकिन जम्मू-कश्मीर के हिंदुओं, यहूदियों और बहाईयों को, जो वास्तव में वहां अल्पसंख्यक हैं, उन्हें अल्पसंख्यकों की कोई सुविधा नहीं मिलती। यही हाल मिजोरम, नागालैंड, अरुणाचल, लक्षद्वीप, मणिपुर और पंजाब का है।
इन राज्यों में रहनेवाले धार्मिक बहुसंख्यकों को भी अल्पसंख्यक मानकर सारी विशेष सुविधाएं दी जाती हैं। उपाध्याय ने अपनी याचिका में अदालत से मांग की है कि अल्पसंख्यकता का निर्णय राज्यों के स्तर पर भी होना चाहिए ताकि वहां के अल्पसंख्यकों को भी न्याय मिले। तर्क की दृष्टि से उपाध्याय बिल्कुल ठीक हैं लेकिन बेहतर तो यह हो कि देश में से मजहब, भाषा और जाति के आधार पर समूहों को बांटा न जाए। राष्ट्रीय एकता के लिए यह बेहद जरुरी है। दूसरे शब्दों में संख्या के आधार पर बना यह विशेष दर्जा राज्य स्तरों पर तो खत्म होना ही चाहिए, यह भी जरुरी है कि इसे अखिल भारतीय स्तर पर भी खत्म किया जाए।
1947 में भारत का बंटवारा इसी मजहबी संख्यावाद के कारण हुआ और अब देश के चुनाव और राजनीति का आधार यही जातीय संख्यावाद बन गया है। यही क्रम आगे चलता रहा तो 1947 में भारत के सिर्फ दो टुकड़े हुए थे लेकिन 2047 में भारत के सौ टुकड़े भी हो सकते हैं। यह बेहद खतरनाक प्रक्रिया है। महाराष्ट्र और कर्नाटक ने संविधान के ढीले-ढाले प्रावधानों का सहारा लेकर मज़हबी और भाषाई आधार पर अपने नागरिकों को बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक वर्गों में बांट रखा है। हमारी केंद्र सरकार ने उक्त याचिका का समर्थन करते हुए संवैधानिक प्रावधान का हवाला भी दे दिया है। संविधान में ऐसा करने की छूट है। लेकिन किसी भी राष्ट्रवादी सरकार को हिम्मत करनी चाहिए कि वह इस राष्ट्रभंजक संवैधानिक प्रावधान को खत्म करवाए और देश के सभी नागरिकों को उनकी जरुरत के मुताबिक (जाति और धर्म के आधार पर नहीं) आवश्यक विशेष सुविधाएं अवश्य दी जाएं। (नया इंडिया की अनुमति से)
-प्रकाश दुबे
द्वापर युग में मुरली वाले युद्ध टालने के लिए द्वारका चल दिए। रणछोड़दास कहलाए। टकराव टालकर रणछोड़दास बनने अब कोई राजी नहीं होता। सुदामा के एक तांदुल यानी चावल पर द्वारकाधीश फिदा हो गए थे। तांदुल खरीदी की मनाही करा प्रधानमंत्री ने तेलंगाना के मुख्यमंत्री की हेकड़ी निकाल दी है। खाद्य मंत्री पीयूष गोयल तेलंगाना के मंत्रियों से मिले तक नहीं। मंत्री दिल्ली में डेरा डाले रहे। संसद के गलियारे में तेलंगाना राष्ट्र समिति सांसद केशवराव को टरकाते हुए कहा-अभी समय नहीं है। खबर करेंगे। संसद में मनाही जवाब दिया-सरकार तेलंगाना के चावल की खरीदी नहीं करेगी। अनदेखी से उबलकर चंद्रशेखर राव ने पार्टी सांसदों को सोमवार को संसद में भिडऩे के लिए छू कर दिया। दर्जनों विधायक दिल्ली पहुंचकर अन्य दलों के साथ धूम मचाएंगे। उबले चावल की गुणवत्ता पर केन्द्र सरकार ने सवाल उठाया है। सरकार के पास बहाना है। भारतीय खाद्य निगम चाहेगा तब खरीदी की जाएगी। मंत्री अन्य राज्य में तेलंगाना तांदुल खाने वाले तलाश कर बेच दें!
वफा करके हम तो
भविष्यवक्ता चकित हैं। उत्तर प्रदेश में उनकी मनशा सचमुच भविष्यवाणी बनकर खरी उतर गई। नवाबों का शहर लखनऊ आनंदोत्सव में मग्न था। सुदूर श्रीनगर के राजभवन में जिगर पर हाथ रखकर उन्होंने फरमाया-मुहब्बत में ये क्या मकाम आ रहे हैं? कि मंजिल पर हैं और चले जा रहे हैं। जिगर मुरादाबादी को याद करने वाले शख्स जम्मू कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा ने आह भरकर कहा-जफा करने वालों को क्या हो गया है? वफा करके भी हम तो शरमा रहे हैं। (जफा यानी विश्वासघात।) दर्दे दिल ने पुकारा- कोई नई जमीन हो, नया आसमां हो। अय दिल उसके पास चलें वह जहां भी हो। राज्य नहीं, विधानसभा नहीं। बजट तो है। सो केन्द्र सरकार ने जम्मू कश्मीर का बजट पारित किया और उपराज्यपाल ने शायरी दोहराई-महबूब वह कि सर से कदम तक खुलूस हो। आशिक वही जो इश्क से कुछ बेगुमां भी हो। (खुलूस मतलब निष्कपट)। उप राज्यपाल मनोज सिन्हा बीएचयू के स्वर्ण पदक विजेता इंजीनियर हैं। धरती के स्वर्ग के बजट में लपेट कर जिगर मुरादाबादी की शायरी सुनाए जा रहे हैं।
फ्री नहीं, टेक्स फ्री
एक विवेक वह, जिसने प्रधानमंत्री की भूमिका निभाई। न फिल्म चली और न विवेक ओबेराय के राजनीति या फिल्मों में पैर जमे। फाइल यज्ञ में विवेक का अग्निहोत्र सफल रहा। पत्रकारिता की पाठशालाओं और राज्य सरकारों में विवेक को न्योता देने की होड़ जारी है। भारतीय जनसंचार संस्थान में पढ़े विवेक की सहपाठी गौरी लंकेश की परमपिता से मुलाकात करा दी। मुलाकात वालों की फाइल विवेक ने नहीं देखी। दूसरी सहपाठी बरखा दत्त कश्मीर फाइल से नाखुश हैं। मध्यप्रदेशी विवेक को भोपाली कहलाना नापसंद है। अग्निहोत्री मकबूल फिदा हुसैन के खास चहेते रहे हैं। महान चित्रकार की उकेरी राम कथा के नहीं। देवी देवताओं की दिगम्बर चित्रकारी करने पर अनेक विचारशील लोगों ने आलोचना की। हुसैन की हिमायत में तब फाइल खोलू खिलाड़ी विवेक सीना तानकर खड़े हुए थे। मेकिंग ऑफ महात्मा फिल्म की कस्तूरबा पल्लवी जोशी तब तक विवेक की संगिनी हो चुकी थी। अब दोनों दुनियादारी जानते हैं। हरियाणवी विधायक ने मुफ्त फिल्म दिखाने की पेशकश की। घबराए विवेक ने मुख्यमंत्री मनोहर लाल तक गुहार लगाई-मैंने फिल्म को टेक्स फ्री करने कहा है। मुफ्त दिखाने नहीं।
अभिनेत्री और अभिनेत्री
आसनसोल में शत्रुघ्न को लोकसभा जाने से रोकने के लिए केन्द्रीय मंत्री, मुख्यमंत्रियों सहित सेना तैनात की गई है। मंत्री जो कभी बहू थी, स्मृति ईरानी, मुख्यमंत्री हिमांत विश्व शर्मा जो कभी कांग्रेसी थे। अर्जुन मुंडा, भाजपा के सोशल मीडिया का चक्रव्यूह तैयार करने वाले अमित मालवीय। शत्रुघ्न को लोकसभा चुनाव में पटना में पटखनी लगाने वाले रविशंकर प्रसाद प्रचार करने पहुंचेंगे। त्रिपुरा में तृणमूल नेताओं को सभा न करने देने वाले मुख्यमंत्री बिप्लव देव आसनसोल में उतरेंगे। बाहुबल के बूते पहले तृणमूल और भाजपा की राजनीति करने वाले सांसद अर्जुन सिंह को सदल बल पहुंचने का आदेश जारी किया। पत्नी पूनम को साथ लेकर पहुंचे शत्रुघ्न ने पहली सभा में वादा किया कि सोनाक्षी प्रचार करने जरूर आएगी। अचरज इस बात का है कि सांसद लाकेट चटर्जी का भाजपा की प्रचार सूची से नाम हटा दिया गया। सिने अभिनेत्री लाकेट पश्चिम बंगाल भाजपा महिला शाखा की अध्यक्ष हैं। उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव की प्रभारी थीं। दक्षिणेश्वर के पुरोहित की बिटिया लाकेट के पति हिंदू अखबार में काम करते थे। फिर भी गैरजरूरी साबित कर दी गई।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
-कनक तिवारी
हर राजनीतिक पार्टी गांधी के जाप से ही सियासती बिस्मिल्लाह करती है। बैरिस्टर गांधी ने आदर्श राजनीतिक व्यवस्था के लिए ‘हिन्द स्वराज’ नाम की छोटी सी लेकिन अमर किताब 1909 में लिखी। गांधी कहते मैंने आज जो कहा, यदि बीत गए कल उससे उलट कहा हो, तो मेरा ताजा बयान ही मेरा फलसफा होगा। ‘हिन्द स्वराज’ से आसक्ति दिखाते केजरीवाल ने अपना राजनीतिक टेस्टामेंट ‘स्वराज’ के नाम से 2012 में प्रकाशक हार्पर कॉलिंस पब्लिशर्स इंडिया और इंडिया टुडे गु्रप नई दिल्ली के द्वारा संयुक्त रूप से प्रकाशित किया।
किताब का मर्म स्वराज पाने का अहसास ही है। बीच बीच में आकर्षक कार्टूननुमा रेखाचित्र भी हैं। यदि स्कूली पाठ्यक्रम में किताबों को शामिल कर लिया जाए तो केजरीवाल की पहुंच घर घर हो सके। ‘स्वराज’ की भूमिका में खुद को दूसरा गांधी प्रचारित करते, समझते अन्ना हजारे ने बड़बोलापन किया कि देश की जनता में जो जोश अभी है। अगर कायम रहा तो अगले दस बरस में देश का कायापलट हो जाएगा। जनता में जोश क्या हताशा भी कायम रही लेकर हालत तो बद से बदतर हो गई। अन्ना ने यहां तक कह दिया केजरीवाल की किताब में जो लिखा है, वह आगे के भारत का घोषणा पत्र है।
कई सरकारी अधिनियमों, कानूनों, परियोजनाओं, प्रयोगों और सरकारी फैसलों को लेकर केजरीवाल ने अनोखा तर्कशास्त्र खड़ा किया है। केजरीवाल किताबी कीड़े या अकादेमिक नहीं हैं। केन्द्र शासन की सेवा में चयनित और नियुक्त प्रथम श्रेणी के अधिकारी रहे। दिल्ली की संवैधानिक व्यवस्थाओं के कारण ग्रामीण अर्थशास्त्र की गांधी का सपना गूंथने की कोशिश संभव नहीं हुई। पंजाब में पूर्ण विधानसभा है। पंजाब की अर्थव्यवस्था, राजनीति और नागरिक चेतना का मुख्य स्त्रोत किसान और किसान आंदोलन है तथा देश की औसत से ज़्यादा उत्पादित होने वाली फसलें हैं।
विधानसभा को संविधान के अनुच्छेद 7 की राज्य अनुसूची के तहत 66 विषयों के लिए कानून बनाने का दायित्व है। उनमें से कई दायित्व संविधान की 11 वीं और 12 वीं सूची बनाकर पंचायतों और नगरपालिक संस्थाओं को सौंपे गये हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य और स्वच्छता, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, गरीबी उन्मूलन, पेयजल, ग्रामीण विद्युतीकरण वगैरह को स्वायत्तशासी संस्थाओं को सौंपा गया है। केजरीवाल की पार्टी फकत स्कूल, अस्पताल, सडक़, सफाई, बिजली आदि के मुद्दों को राष्ट्रीय सफलता का प्रतिमान बनाना चाहती है। लोकतंत्र में नागरिकों के मूल अधिकारों का संवर्धन और पोषण करना लोकप्रिय सरकारों का काम है। उससे केजरीवाल अक्सर कन्नी काटते रहते हैं। राजनीति का गैरराजनीतिकीकरण करना लोकतंत्र के भविष्य के लिए सवाल खड़े करता है। अजीब है कि भारत के नागरिक और उसमें से भी दिल्ली के निवासी प्राथमिक सुविधाओं में बढ़ोतरी होने से इतने खुश हैं मानो एक पार्टी लोकतंत्र को उसके मुकाम तक पहुंचा चुकी हो, जबकि हकीकत ऐसी नहीं है। केजरीवाल थीसिस के अनुसार इक्कीसवीं सदी में भी सरकारें लोकतांत्रिक मूल्यों के संवर्धन के बदले केवल मैनेजमेंट करेंगी और जनता कृतकृत्य महसूस करने गाफिल रखी जाएगी।
‘जनता का तिलक करो’ नाम का परिच्छेद बहुत दिलचस्प है। केजरीवाल कहते हैं उनका गुस्सा सरकारी कर्मचारियों पर सबसे ज़्यादा है। डॉक्टर, अध्यापक और थानेदार जैसे लोग गांव में अपना काम नहीं करें तो तनख्वाह रोक ली जाए। तनख्वाहें रोक लेने से गांव में थानेदार, अध्यापक और डॉक्टर आदि लोगों की अपेक्षा के अनुसार काम करने लगेंगे। केजरीवाल बीपीएल परिवारों की परिभाषा तय करने का काम भी गांव के लोगों को देना चाहते हैं लेकिन नहीं बताते कि संविधान और कानून के किस प्रावधान के तहत राज्य सरकार ऐसा कर सकती है। थानेदार, डॉक्टर और शिक्षक जैसे लोकसेवकों को दंडित करने का काम ग्राम सभाओं को मिले। इसके लिए सेवा नियमों में परिवर्तन करना होगा। क्या वे पंजाब और दिल्ली की विधानसभाओं में लोकसेवकों की सेवा शर्तों में ऐसे परिवर्तन कर पाएंगे जो वे अपनी किताब ‘स्वराज’ में बार बार रेखांकित करते हैं? उन्हें संविधानसम्मत माना भी जाएगा?
केजरीवाल कहते हैं गांव का समाज तय करेगा कि अमुक व्यक्ति के पास रहने को घर नहीं है तो उसको हम घर देंगे। इस पृष्ठभूमि में केन्द्रीय बजट, नीति आयोग, आर्थिक संरचना, बैंकों की कारगुजारियां और जनअधिकार संबंधी व्यवस्थाएं सब कैसे हल या हासिल की जाएंगी? वे कहते हैं अगर कोई रोजगार या खेती करना चाहता है तो उसे ग्राम सभा से कर्ज या हो सके, तो मुफ्त फंड भी मिलेगा। कितने गरीब रोजगार करना चाहते हैं? उसके लिए धन कहां से आएगा? इन बातों की सांख्यिकीय या ब्यौरा केजरीवाल नहीं देते। मोदी के मित्र गौतम अडानी ने लाखों टन अनाज उदरस्थ करने के लिए आधुनिक गोडाउन पहले ही बना लिए। केजरीवाल ने खुलकर केन्द्र सरकार का विरोध नहीं किया।
संविधान का केजरीवाल ने अपनी किताब में सार्थक उल्लेख तक नहीं किया। हर नागरिक को मूल अधिकार अनुच्छेद 19 और 21 में अभिव्यक्ति की आज़ादी और जीवन के अधिकार के बाबत मिले हैं। दिल्ली में नागरिकता विवाद संबंधी आंदोलन हो रहा था। जामिया मिलिया तथा जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय सहित भारत के कई विश्वविद्यालयों के भी छात्र आंदोलन करते पिट रहे थे। केजरीवाल की पार्टी ने उससे किनाराकशी कर ली। मोदी सरकार ने कश्मीर का अवमूल्यन कर दिया। आम आदमी पार्टी को उससे कोई सरोकार नहीं रहा। दुनिया के इतिहास का सबसे बड़ा एक साल चलने वाला किसान आंदोलन भारत में हुआ। केजरीवाल और आम आदमी पार्टी उससे लुका-छिपी करते रहे। लखीमपुर-खीरी में किसानों को मोटरगाडिय़ों से रौंद दिया गया। उसे लेकर भी केवल जमा ही जमा खर्च किया गया।
गांधी ने लोकजीवन में असाधारण नया प्रयोग सदियों से पीडि़त, शोषित और पस्तहिम्मत जनता को सत्याग्रह के नए मूल्यों से संपृक्त करते किया। दीनदयाल उपाध्याय ने भी बहुत महत्वपूर्ण बात कही कि लोकतंत्र में जनता की राजनीतिक समझ में परिष्कार करना चाहिए। बड़े नेता नियामक मूल्यों को गढ़ते समय रोज ब रोज के पचड़े में नहीं पड़ते क्योंकि वे काम नौकरशाही के काम हैं। उसे भी केजरीवाल ने राज्य सरकार के लिए बुनियादी काम समझ लिया है। वे राजनीति की मूल्य नियामकता की बातें नहीं करते याने जनता के जो संवैधानिक मूल्य और अधिकार हैं।
गांधी ने स्वैच्छिक गरीबी, स्वैच्छिक सादगी और स्वैच्छिक धीमी गति के सिद्धांत दिए थे। पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान का शपथ ग्रहण समारोह जनता के करोड़ों रुपए खर्च कर होता है। तो गांधी की तस्वीर को मुख्यमंत्री के सिर के पीछे से तो क्या दिमाग से भी हटा देना चाहिए। करोड़ों रुपए खर्च करके भाजपा के उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ एक भोगी समारोह में शपथ ग्रहण करते हैं। तो ठीक ही नरेन्द्र मोदी ने गांधी को स्वच्छता के नाम पर शौचालय का ब्रांड अम्बेसडर बना दिया है। इस मामले में भाजपा और आम आदमी पार्टी ने गांधी के साथ समान सलूक करने में सहमति बना ली है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कल रात ही मैं दुबई पहुंचा और आज सुबह मैंने यह खुश खबर पढ़ी कि दुबई की कुल 160 सेवाओं में से भारत के लिए 100 सेवाओं के द्वार खोल दिए गए हैं। कुछ दिन पहले हमारे व्यापार मंत्री पीयूष गोयल संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) आए थे और उन्होंने यहां के नेताओं से बातचीत करके यह समझौता किया था। अब यहां भारतीय नर्सों, इंजीनियरों, सूचना-विशेषज्ञों आदि तरह-तरह के व्यावसायिक विशेषज्ञों को काम करने की सुविधा मिलेगी। इसका नतीजा यह होगा कि भारत के लाखों सुयोग्य नौजवानों को अपनी योग्यता को परखाने का मौका मिलेगा। यदि वे दुबई और अबू धाबी में अपना सिक्का जमाएंगे तो उसकी खनक सारे अरब और अफ्रीकी देशों में भी होगी।
इस समय भारत के माल को अरब और अफ्रीका के देशों में खपाने का सबसे बड़ा केंद्र यूएई ही है। भारत की कोशिश है कि ‘गल्फ कोऑपरेशन कौंसिल’ के साथ भी वह कुछ इसी तरह के समझौते कर ले तो सउदी अरब, ओमान, बहरीन, कुवैत और क़तर जैसे देशों के साथ उसके व्यापारिक और आर्थिक संबंध घनिष्ट हो सकते हैं। इस समय यूएई के साथ भारत का व्यापार 60 बिलियन डॉलर का है। अगले पांच वर्षों में यह दुगुना हो सकता है। दुबई से भारतीय माल बड़े पैमाने पर पाकिस्तान को भेजा जाता है। भारत-पाक व्यापार आजकल लगभग ठप्प है लेकिन पाकिस्तान के गांवों में भी यदि आप चले जाएं तो भारतीय चीजें वहां दनदनाती हुई दिखाई पड़ती हैं। दुबई को भारत से आनेवाला माल लगभग करमुक्त हो जाएगा। संयुक्त अरब अमीरात में आप कहीं भी चले जाइए, आपको ऐसा लगेगा कि आप भारत में ही हैं।
यहां लगभग 35 लाख भारतीय रहते हैं। इस देश की एक तिहाई आबादी इसके बाजारों, अस्पतालों और होटलों में भारतीयों की ही दिखाई पड़ती है। अब दोनों देशों के संबंध इतने घनिष्ट होते जा रहे हैं कि ये द्विपक्षीय संबंध दुनिया के सारे मुस्लिम देशों से आगे निकल गए हैं। कश्मीर में पैसा लगाने की पहल यूएई कर रहा है। यदि कश्मीर में एक इस्लामी देश का विनिवेश बढ़ेगा तो क्या यह पाकिस्तान के घावों पर नमक छिडक़ना सिद्ध नहीं होगा? लेकिन हमारे कश्मीरियों के लिए यह विनिवेश शहद से भी ज्यादा मीठा होगा। यहां मैं जिस भारत-यूएई सम्मेलन की आज अध्यक्ष करुंगा, उसमें दोनों देशों के सैकड़ों नेता, उद्योगपति, पत्रकार आदि भाग लेंगे। यूएई एक आदर्श और आधुनिक इस्लाम राष्ट्र बनता जा रहा है। भारत के साथ उसकी दोस्ती इस्लाम की छवि को सारी दुनिया में चमकाने का काम करेगी। (नया इंडिया की अनुमति से)
ऐसा मान लेना ठीक नहीं होगा कि लगभग 183 अरब रुपए की हैसियत वाली मुंबई की फ़िल्म इंडस्ट्री में जो कुछ बड़े लोग इस वक्त डरे हुए हैं उनमें आमिर खान भी एक हो सकते हैं। वैसे लोगों की जानकारी में है कि फ़िल्म ‘पीके’ में अपने न्यूड पोस्टर और कथित तौर पर देवी-देवताओं का मखौल उड़ाने के कारण जब से आमिर खान कट्टरपंथियों के निशाने पर आए हैं वे तब से काफ़ी सोच-समझकर ही बात करने लगे हैं। याद किया जा सकता है कि ‘तारे ज़मीन पर ‘ फ़ेम अभिनेता ने कोई सात साल पहले यह तक कह दिया था कि असहिष्णुता के माहौल के चलते उनकी पत्नी(अब पूर्व) को भारत में रहने में डर लगता है और वह बच्चों को लेकर देश छोड़ना चाहतीं हैं।उनके इस कथन को लेकर तब बवाल मच गया था।
यहाँ आमिर खान का उल्लेख ‘द कश्मीर फाइल्स’ ने ज़रूरी बनाया है। आमिर ने कहा है कि : 'वे इस फ़िल्म को ज़रूर देखेंगे क्योंकि वह हमारे इतिहास का एक ऐसा हिस्सा है जिससे हमारा दिल दुखा है। जो कश्मीर में हुआ पंडितों के साथ वो हक़ीक़त बहुत दुख की बात है। एक ऐसी फ़िल्म बनी है उस टॉपिक पर वह यकीनन हर हिंदुस्तानी को देखनी चाहिए। हर हिंदुस्तानी को यह याद करना चाहिए कि एक इंसान पर जब अत्याचार होता है तो कैसा लगता है।’
चीजें अचानक से बदल रहीं हैं। जो आमिर खान ‘पीके’ फ़िल्म में पीठ की तरफ़ से न्यूड नज़र आ रहे थे हो सकता है शूटिंग के दौरान सामने की तरफ़ से वैसे न रहे हों, ।सामने के दृश्य की दर्शकों ने मन से कल्पना कर ली हो। फ़िल्म का कैमरा आमिर खान की पीठ का ही पीछा कर रहा था ,पेट का नहीं! सितारों की पीठ के निशान तो दिख जाते हैं उनके पेट में क्या होता है ठीक से पता नहीं चल पाता।
बहस का विषय यह है कि जो बहुचर्चित फ़िल्म इस समय हमारी आँखों के सामने तैर रही है उसे आज़ादी (या विभाजन) की किसी नई लड़ाई की शुरुआत माना जाए या उसका समापन मान लिया जाए? इस सवाल का निपटारा इसलिए ज़रूरी है कि बड़ी संख्या में ऐसे लोग भी हैं जो बत्तीस साल पहले के घटनाक्रम पर संताप करने से ज़्यादा इस कल्पना से सिहरे हुए हैं कि अब आगे क्या होने वाला है ! दूसरे शब्दों में बयान करना हो तो सभी प्रकार के वंचितों और पीड़ितों को न्याय दिलाने की दिशा में इसे पहली फ़िल्म माना जाए या अंतिम फ़िल्म?इसमें आमिर खान से पूछे जा सकने वाले इस सवाल को भी जोड़ा जा सकता है कि इसी तरह के कथानक और दृश्यों वाली किसी और फ़िल्म में वे काम करना पसंद करेंगे या नहीं?
मैंने कुछ ऐसे ग़ैर-पंडित कश्मीरी लोगों से बात की जो स्वयं तो देश के दूसरे हिस्सों में काम कर रहे हैं पर उनके सगे-सम्बन्धी घाटी में ही हैं। जब जानना चाहा कि फ़िल्म को लेकर जो चल रहा है उस पर घाटी में किस तरह की प्रतिक्रिया है तो उन्होंने कहा कि फ़िल्म कश्मीर घाटी में तो अभी देखी नहीं गई है, पर लोगों ने आपसी बातचीत में दो प्रकार की प्रतिक्रियाएँ दीं हैं :
पहली तो यह कि पंडितों के पलायन के मुद्दे को अब एक राजनीतिक हथियार बनाकर लम्बे समय तक जीवित रखा जाएगा। दूसरी यह कि अगर फ़िल्म को घाटी छोड़कर गए पंडितों का भी सत्तारूढ़ दल के लोगों की तरह ही समर्थन हासिल है तो फिर मान लिया जाना चाहिए कि वे अपने ख़ाली पड़े हुए घरों में लौटना ही नहीं चाहते हैं। मुमकिन है कि पिछले तीन दशकों के दौरान कुछ तो अपनी मेहनत और बाक़ी में सरकारी मदद के ज़रिए उन्होंने इतना कुछ प्राप्त कर लिया है कि अब घाटी में लौटकर नए सिरे से ज़िंदगी प्रारम्भ करना उन्हें ज़्यादा जोखिम का काम लगे।उनका यह भी कहना है कि जो पंडित इस वक्त घाटी में ही रह रहे हैं उनकी फ़िल्म को देखने में कोई रुचि है ऐसा ज़ाहिर नहीं होता।
भाजपा संसदीय बोर्ड की पिछले दिनों हुई बैठक में प्रधानमंत्री ने फ़िल्म को लेकर दो महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ कीं थीं।एक तो यह कि :’पहली बार किसी ने जब महात्मा गांधी पर फ़िल्म बनाई और पुरस्कार पर पुरस्कार मिले तो दुनिया को पता चला कि महात्मा गांधी कितने महान थे।’ उनकी दूसरी टिप्पणी यह कि :’बहुत से लोग फ़्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन की बात तो करते हैं लेकिन आपने देखा होगा कि इमर्जेन्सी पर कोई फ़िल्म नहीं बना पाया क्योंकि सत्य को लगातार दबाने का प्रयास होता रहा।भारत विभाजन पर जब हमने 14 अगस्त को एक ‘हॉरर डे’ के रूप में याद करने के लिए तय किया तो बहुत से लोगों को बड़ी दिक़्क़त हो गई।’
‘द कश्मीर फ़ाइल्स’ के संबंध में संसदीय बोर्ड में कहे गए प्रधानमंत्री के कथन को उनके द्वारा पिछले साल पंद्रह अगस्त के दिन लाल क़िले से दिए गए भाषण के प्रकाश में देखें तो चीजें ज़्यादा साफ़ नज़र आने लगेंगी। उन्होंने कहा था :’देश के बँटवारे के दर्द को कभी भुलाया नहीं जा सकता। नफ़रत और हिंसा की वजह से हमारे लाखों बहनों और भाइयों को विस्थापित होना पड़ा और अपनी जान तक गंवानी पड़ी। उन लोगों के संघर्ष और बलिदान की याद में।14 अगस्त को ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ के तौर पर मनाने का निर्णय लिया गया है।’
सच्चाई यह है कि डर अब ‘द कश्मीर फ़ाइल्स’ देखने को लेकर नहीं बल्कि इस बात पर सोचने से ज़्यादा लग रहा है कि अब अगर विभाजन की ‘वास्तविकता’ पर फ़िल्में बनाईं गईं तो वे कैसी होंगी? क्या विभाजन की त्रासदी पर ( ‘तमस’ सहित )अब तक बनाई गईं तमाम फ़िल्में ‘वास्तविकताओं’ से एकदम दूर थीं या फिर उनमें उस हिंदू राष्ट्रवाद का अभाव था जिसे कि इस समय सबसे ज़्यादा ज़रूरी समझा जा रहा है? अगर यही सच है तो बहुत सम्भव है विभाजन की वास्तविकता का बखान करने वाली फ़िल्मों के कथानकों पर काम भी शुरू कर हो गया हो।
पाकिस्तान स्थित सिखों के पवित्र तीर्थ स्थल करतारपर साहिब की यात्रा के लिए तब पंजाब में बन रहे कॉरिडोर को लेकर प्रधानमंत्री ने कोई पाँच साल पहले गुरु पर्व पर भावना व्यक्त की थी कि अगर बर्लिन की दीवार गिर सकती है तो यह दीवार क्यों नहीं? प्रधानमंत्री का इशारा करतारपुर कॉरिडोर के लिए पाकिस्तान के साथ सीमा को खोलने को लेकर था पर उसका व्यापक अर्थ दोनों देशों के बीच विभाजन के कारण खड़ी हुई दीवार को गिराने की भावना से भी लिया गया था। विभाजन की वास्तविकताओं के घावों को सिनेमाई परदों पर दिखाने का मतलब अब यही समझा जाएगा कि केवल सीमाओं पर ही नहीं घरों के बीच भी लाखों-करोड़ों नई दीवारें खड़ी हो सकतीं हैं।
अंत में : साल 1947 की प्रमुख घटनाओं में भारत को आज़ादी का मिलना तो सर्वज्ञात है पर एक अन्य घटना यह है कि दुनिया के सबसे घातक हथियार AK47 की पहली किस्त उसके आविष्कारक मिख़ाइल क्लाशनिकोव ने रूसी सेना को अपने हथियारों में शामिल करने के लिए सौंपी थी।अपने आविष्कार पर आजीवन गर्व करने वाले क्लाशनिकोव का जीवन के अंतिम दिनों (निधन 2013) में हृदय परिवर्तन हुआ और उन्होंने रूसी ऑर्थोडॉक्स चर्च के प्रमुख को लिखे पत्र में कहा :’ मेरी आत्मा की पीड़ा असहनीय हो गई है।मैं बार-बार अपने आपसे अनुत्तरित सवाल पूछता हूँ: मेरे द्वारा बनाई गई असाल्ट राइफ़ल से लोगों की जानें गई ,इसका मतलब है उनकी मौतों के लिए मैं ज़िम्मेदार हूँ।’
साल 2022 के पंद्रह अगस्त का दिन भी बस आने ही वाला है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
चीनी विदेश मंत्री वांग यी की भारत-यात्रा बड़ी रहस्यमय है। इसका अर्थ निकालना आसान नहीं है। वे हमारे विदेश मंत्री जयशंकर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित दोभाल से मिल चुके हैं। वे भारत अपनी मर्जी से आए हैं। उनको बुलावा नहीं दिया गया था। उन्होंने अपनी भारत-यात्रा की घोषणा भी नहीं की थी। वे इसी तरह काबुल भी पहुंच गए थे। काबुल में तालिबान के विदेश मंत्री और अफसरों से तो उनकी बात हुई ही, रूसी प्रतिनिधि काबुलोव से भी उनकी गिटपिट हुई।
अब वे श्रीलंका भी जाएंगे। ऐसा लगता है कि इस वक्त चीन अपनी छवि सुधारने में लगा हुआ है। कोरोना महामारी सारे संसार में फैलाने का जो दोष उसके माथे मढ़ा गया है, वह उसकी सफाई में जुटा हुआ है और अपनी महाशक्ति की छवि को चमकाने के लिए कृतसंकल्प है। वांग यी भारत इसलिए नहीं आए हैं कि भारत-चीन सीमांत विवाद शांत हो जाए। यदि वे इसलिए आए होते तो उस मुद्दे पर कोई ठोस प्रस्ताव लेकर आते लेकिन दोभाल और जयशंकर से हुई उनकी बातचीत से लगता है कि उनके भारत आने का खास उद्देश्य यही है कि ‘ब्रिक्स’ की अगली बैठक का कहीं हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बहिष्कार नहीं कर दें।
यदि मोदी ने बहिष्कार कर दिया तो चीन की नाक कट सकती है। इसीलिए जब जयशंकर और दोभाल ने सीमा का मुद्दा उठाया और कहा कि उसे हल किए बिना दोनों देशों के संबंध सहज नहीं हो सकते तो वांग ने कह दिया कि वे सहमत हैं और वे इस मुद्दे पर संवाद जारी रखेंगे। उन्होंने दोभाल को चीन आने का निमंत्रण भी दे दिया। यूक्रेन के मुद्दे पर चीन पूरी तरह से अमेरिका के विरोध में है लेकिन भारत की तरह वह तटस्थता का दिखावा भी कर रहा है।
ऐसा लगता है कि अब रूस और चीन का एक गुट तथा अमेरिका, नाटो, आकुस और क्वाड का दूसरा गुट बनने जा रहा है। लेकिन भारत को काफी सावधान रहना है। उसे अमेरिका की फिसलपट्टी पर झेलेंस्की की तरह फिसल नहीं जाना है। उसे अपने पांव पर खड़े रहना है। इसीलिए दोनों विदेश मंत्रियों ने युद्ध को रोकने और राष्ट्रीय संप्रभुताओं की रक्षा की बात को दोहराया।
वांग यी ने इस्लामाबाद में कश्मीर पर जो कुछ कहा, उस पर भी आपत्ति की गई लेकिन वांग ने कहा कि दुनिया की ज्यादातर समस्याओं पर भारत और चीन का नजरिया एक-जैसा है। यदि वे मिलकर परस्पर सहयोग करें तो दोनों देशों के लिए यह बहुत लाभदायक होगा। चीनी राष्ट्रपति शी चिन फिंग और वांग यी जो कह रहे हैं, यदि वे सचमुच उसका पालन करें तो यह सदी एशिया की सदी बन सकती है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-बादल सरोज
एक स्टुपिड, मीडियाकर, उथला व्यक्ति भोपाल के बारे में कोई भी झाड़ूमार बयान झाड़ दे, यह बेहूदगी है, यह उसका अज्ञान और मूर्खों की संगत से हासिल बड़े वाला ओवरकॉन्फीडेंस है। विवेक रंजन अग्निहोत्री का भोपाल के बारे में बोला गया कथन कि "भोपाल समलैंगिकों का शहर है" सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए दिया गया बयान है। मगर उसे लेकर जो प्रतिक्रियाएं आ रही हैं वह भी कम नहीं हैं। वे ठीक वैसी ही हैं, जैसे "उसने मेरी थाली में टिंडे खाये, तो हम उसकी थाली में गोबर खाएंगे।" या जैसे "कुछ कर नहीं सकते, तो चूड़ियाँ पहन लो" बोला जाता है।
प्रेम और यौनिकता, लव और सेक्सुअलिटी मानवीय अनुभूति और जैविक स्वाभाविकता का मामला है। यह चुना नहीं जाता -- यह होता है। प्रेम की अभिव्यक्ति के तरीके, लगाव के रूप-स्वरूप को गाली की तरह इस्तेमाल करना ठीक वही काम करना है, जो विवेकहीन विवेक ने अपनी रंजन भोपाल फाइल्स में किया है। इस भाड़े के भांड़ की आलोचना की जानी चाहिए, मगर व्यक्तियों के निजी स्वभावों, प्राथमिकताओं को लांछित करके उसी की सड़ांध मारती मानसिकता को प्रतिबिम्बित करते हुए नहीं, समलैंगिकता को गाली मानकर नहीं, -- मनुष्य बनकर!!
भारत की पहली महिला हाईकोर्ट मुख्य न्यायाधीशा लीला सेठ ने कहा था कि "जीवन को जो सार्थक बनाता है, वह प्यार है। जो अधिकार हमें मनुष्य बनाता है, वह प्यार करने का अधिकार है। इस अधिकार को आपराधिक - क्रिमिनल - बनाना घोर क्रूर और अमानवीय है।" जस्टिस लीला जी अंगरेजी के सिद्धहस्त लेखक, उपन्यासकार विक्रम सेठ की माँ हैं। अविवेकी विवेक अग्निहोत्री प्रेम, लगाव और उससे बने रिश्तों को हीनता और धिक्कार के रूप में दागते हैं और उनकी इस फूहड़ अतिरंजना के प्रत्युत्तर में जो कहा जाता है, उसका भाव भी कमोबेश लज्जा और ग्लानि, तिरस्कार और नकार का होता है।
भारत में सुप्रीम कोर्ट की पांच-सदस्यीय संविधान पीठ ने 6 सितम्बर, 2018 को इस मामले पर सारी अविवेकपूर्ण समझदारियों और धारणाओं को साफ़ करते हुए इस पूरी बहस को विराम दे दिया है। इस पीठ ने प्रेम अधिकारों के प्रति असंवेदनशील मानसिकता पर प्रहार करते हुए, दमन के औजार धारा 377 को खत्म किया और ऐसा करके उसने "दो वयस्कों के बीच सहमति के साथ स्थापित यौन संबंधों" को न सिर्फ स्वीकार्य और उचित ठहराया था, बल्कि कई गलत मान्यताओं और समझदारियों को दुरुस्त भी किया था। पाँचों जजों के फैसले, खासकर जस्टिस चंद्रचूड़ और जस्टिस श्रीमती इंदु मल्होत्रा के निर्णय पढ़े जाने योग्य हैं।
जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था कि "समलैंगिगता कोई मानसिक विकार नहीं है।" और यह भी कि "यौन प्राथमिकता जैविक (बायोलॉजिकल) तथा प्राकृतिक है। इसमें किसी भी तरह का भेदभाव मौलिक अधिकारों का हनन होगा।" उन्होंने कहा, "अंतरंगता और निजता किसी की भी व्यक्तिगत पसंद होती है। दो वयस्कों के बीच आपसी सहमति से बने यौन संबंध पर भारतीय दण्ड संहिता (आईपीसी) की धारा 377 संविधान के समानता के अधिकार, यानी अनुच्छेद 14 का हनन करती है।"
जस्टिस श्रीमती इन्दु मल्होत्रा ने अपने फैसले में लिखा कि "यौनिक रुझान किसी भी व्यक्ति की सहज, स्वाभाविक, लाक्षणिक विशेषता होते हैं, इन्हे बदला नहीं जा सकता। यौनिक झुकाव पसंद का मामला नहीं है, यह किशोरावस्था से ही दिखने लगते हैं। समलैंगिकता मानवीय यौनिकता - सेक्सुअलिटी - का प्राकृतिक रूप (नेचुरल वैरिएंट) है। उन्होंने कहा, अंतरंगता और निजता किसी की भी व्यक्तिगत पसंद होती है। दो वयस्कों के बीच आपसी सहमति से बने यौन संबंध पर आईपीसी की धारा 377 संविधान के समानता के अधिकार, यानी अनुच्छेद 14 का हनन करती है।" इसी बात को आगे बढ़ाते हुए जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि यौन प्राथमिकताओं को 377 के जरिए निशाना बनाया गया है और एलजीबीटी (LGBT : लेस्बियन, गे, बाईसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर) समुदाय को भी दूसरों की तरह समान अधिकार है।"
सभी जजों ने सरकार को फटकारते हुए पूछा कि "लोगों के निजी जीवन में टाँग अड़ाने वाली वह कौन होती है।" और निर्देश दिया कि "एलजीबीटी समुदाय को बिना किसी कलंक के तौर पर देखना चाहिए। सरकार को इसके लिए प्रचार करना चाहिए। अफसरों को सेंसिटाइज करना चाहिये। "
इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि "एलजीबीटी समुदाय के लोगों और उनके परिवारों से सदियों से चले आ रहे कलंक और समाज से बहिष्करण के बर्ताब और उन्हें इन्साफ में इतनी ज्यादा देर के लिए इतिहास को उनसे माफी मांगनी चाहिए।" जस्टिस मिश्रा ने कहा कि "(भारत का) संविधान भारतीय समाज को रूपांतरित करने, अच्छा बनाने, की शपथ लेता है, वादा करता है। संवैधानिक अदालतों का दायित्व है कि वे संविधान के विकासमान स्वभाव को महसूस करें और उसे उस दिशा में ले जाएँ।" संविधान पीठ में मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, जस्टिस रोहिंटन नरीमन, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा शामिल थे।
कुल मिलाकर यह कि जानबूझकर ऊबड़-खाबड़ बनाई जा रही पिच पर 'नो बॉल' को हिट करने की विवेकहीनता में अपने विवेक का विकेट गिराने की क्या जरूरत है? आलोचना, निंदा, भर्त्सना सब होना चाहिए -- किन्तु उसी के रूपक को प्रामाणिकता देते हुए नहीं।
जिन सुधी जनों/जनियों को यह बात अभी भी समझ में नहीं आयी है, उन्हें - और उन्मादी फिल्म बनाकर नफरतियों के टेसू बने विवेक रंजन अग्निहोत्री को भी - सलाह है कि वे पहली फुरसत में ताजी फिल्म "बधाई दो" अवश्य देखें। समलैंगिकता के विषय पर यह अनूठी फिल्म है, जो मुद्दे को सींग से पकड़ती है। यह नंदिता दास - शबाना की फिल्म 'फायर' से आगे की ज्यादा खरी बात करती है और मनोज बाजपेयी की अलीगढ की तरह ग्रे नहीं है, अपनी सहज कॉमेडी से गुदगुदाती भी है।
"बधाई दो" हर्षवर्धन कुलकर्णी द्वारा निर्देशित और उनके तथा सुमन अधिकारी एवं अक्षत घिडियाल द्वारा लिखी गयी एक निहायत सुन्दर फिल्म है। विनीत जैन इसके निर्माता हैं और राजकुमार राव तथा भूमि पेंढणेकर ने मुख्य भूमिकाओं में कमाल का सहज अभिनय किया है। नवोदित अभिनेत्री चुम दारांग (Chum Darang) और गुलशन देवैया (Gulshan Devaiah) का अभिनय भी शानदार है - मगर अभिनय के श्रेष्ठतम की मिसाल हैं शीबा चड्ढा जी!!
(लेखक 'लोकजतन' के संपादक तथा अ. भा. किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)
- रमेश अनुपम
यह मेरे लिए अद्भुत संयोग है कि कल 25 मार्च को बस्तर महाराजा स्वर्गीय प्रवीर चंद्र भंजदेव की 56 वीं पुण्यतिथि के अवसर पर मैं जगदलपुर में मौजूद था। कल जगदलपुर में राजमहल के निकट एक सर्वदलीय सभा में सभी राजनैतिक दलों और विभिन्न आदिवासी समुदायों के नेताओं ने बस्तर महाराजा स्वर्गीय प्रवीर चंद्र भंजदेव का स्मरण किया। उनकी और बस्तर गोली कांड में मारे गए सैकड़ों आदिवासियों की पुलिस द्वारा की गई नृशंस हत्या की सभी वक्ताओं द्वारा निंदा की गई।
इस अवसर पर 31 मार्च 1961 को हुए लोहंडीगुड़ा गोली कांड की चर्चा भी विस्तार से की गई। सभी ने इसे दुर्भाग्यपूर्ण घटना बताया जिसे टाला जा सकता था।
वर्तमान में बस्तर में चल रहे विभिन्न आदिवासी आंदोलनों की चर्चा और आदिवासियों में व्याप्त असंतोष की भी व्यापक रूप से चर्चा की गई।
बस्तर महाराजा स्वर्गीय प्रवीर चंद्र भंजदेव की हत्या को सभी वक्ताओं ने एक स्वर में एक गहरी साजिश का हिस्सा निरूपित किया।
बस्तर के दूर-दूर के इलाकों से बड़ी संख्या में आदिवासी पुरुष और महिलाएं इस सभा में सम्मिलित होने आए हुए थे। अपने प्रिय महराजा को अपनी ओर से श्रद्धा सुमन अर्पित करने। उनकी 56 वीं पुण्यतिथि पर उन्हें नमन करने।
बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की पुण्यतिथि पर पहली बार कल इतना बड़ा आयोजन जगदलपुर में संपन्न हुआ। एक तरह से यह बस्तर के इतिहास में एक यादगार आयोजन सिद्ध हुआ।
मैं 'छत्तीसगढ़ एक खोज' के अंतर्गत प्रवीर चंद्र भंजदेव : एक अभिशप्त नायक या आदिवासियों के देवपुरुष की अब तक उन्नीस कड़ियां लिख चुका हूं। बकौल रमेश नैयर जो इस सीरीज के उत्सुक पाठक ही नहीं प्रशंसक भी हैं उनका मानना है कि स्वर्गीय महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की आत्मा जैसे मेरे आस-पास ही कहीं मंडरा रही है।
इसलिए इस बीसवीं कड़ी के लिखे जाने के ठीक एक दिन पहले 25 मार्च को महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की 56 वीं पुण्यतिथि पर आयोजित इस समारोह में सम्मिलित होना मेरे लिए एक अपूर्व अनुभव था।
श्रद्धांजलि सभा के पश्चात वक्ताओं सहित नगर के गणमान्य नागरिकों के लिए राजमहल में दोपहर भोज का प्रबंध था। पहली बार मुझे राजमहल के भीतर प्रवेश करने का अवसर मिल रहा था। इससे पहले इसे दूर से ही निहार कर मुझे संतुष्ट हो जाना पड़ता था।
मुख्य द्वार पर स्थित महाराजा की आराध्य देवी दंतेश्वरी का मंदिर है उसके बाद ही राजमहल है।
राजमहल की आठ सीढियां चढ़ने के बाद ही राजमहल में प्रवेश संभव होता है। 25 मार्च 1966 में हुए गोली कांड के साक्षात गवाह इस राजमहल के भीतर प्रवेश करना मुझे रोमांचित और उद्वेलित करने के लिए पर्याप्त था।
राजमहल के भीतर प्रवेश करते ही सामने बस्तर महाराजा स्वर्गीय प्रवीर चंद्र भंजदेव की एक विशाल तस्वीर दिखाई देती है और उसके ठीक सामने वह सिंहासन रखी हुई है जिस पर महाराजा आसीन होते थे।
अगल-बगल की दीवारों में स्वर्गीय महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की दुर्लभ पारिवारिक तस्वीरें और वनभैंसा और बारहसिंगा के सिर कलात्मक अभिरुचि के साथ लगाए गए हैं। संभवत: ये तस्वीरें महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव के जमाने से हों।
25 मार्च 1966 को जब बंदूक लेकर पुलिस बल राजमहल के भीतर घुसा होगा तो वनभैंसा और बारहसिंगा ने क्या कोई प्रतिवाद नहीं किया होगा ?
क्या राजमहल की खामोश दीवारों ने चीख-चीख कर इस बर्बरता का कोई प्रतिकार नहीं किया होगा ?
राजमहल के इन दीवारों पर से भले ही गोलियों और खून के दाग़ मिटा दिए गए हों, उसके जिस्म से भले ही उन घावों को नोच कर, खुरच कर मिटाने की कोशिशें की गई हों पर क्या उसकी आत्मा में लगे हुए घावों को भी कभी मिटाया जा सकता है?
राजमहल में प्रवीर चंद्र भंजदेव के वंशज कमल चंद्र भंजदेव तथा राजमाता अतिथियों के आत्मीय स्वागत सत्कार में व्यस्त थीं।
मैं राजमहल के दरवाजों, खिड़कियों और दीवारों से बात करने में लग जाता हूं।
मैं उनसे पूछता हूं कि अब भी उस वीभत्स गोली कांड की टीस को क्यों नहीं भूला पा रहे हो ? क्यों उन सभी हत्यारों को अब भी भूला पाना उनके लिए कठिन है ?
एक वक्ता ने तो अपने उद्बोधन में यहां तक कहा था कि बस्तर महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की नृशंस हत्या के लिए जो लोग भी दोषी थे उनका अंत उतना ही दुखद था।
मैं बहुत ध्यान से उनकी आवाज को सुनने की कोशिश करता हूं। क्या खिड़कियां और दरवाजे भी कभी बोलते हैं ?
जी हां वे भी बोलते हैं अगर आपमें उन्हें सुनने और समझने का धैर्य हो। उनसे एक आत्मीय राग जोड़ना आता हो। वे आपसे सब कुछ शेयर कर सकते हैं बशर्ते आप उनसे संवाद करने के लिए उत्सुक हों।
शेष अगले सप्ताह...
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत की विदेश नीति से सीधा संबंध रखने वाली कई घटनाएं इधर एक साथ हो गई हैं और हो रही हैं। चीन के विदेश मंत्री वांग यी भारत पहुंच चुके हैं। संयुक्तराष्ट्र सुरक्षा परिषद में रूस ने यूक्रेन की मदद के लिए जो प्रस्ताव रखा है, उसका समर्थन सिर्फ चीन ने किया है। भारत उसमें भी तटस्थ रहा है। अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन यूरोप पहुंच चुके हैं। यूरोपीय राष्ट्रों के नई दिल्ली स्थित राजदूतों ने रूस के विरोध में एक संयुक्त लेख छपवाया है। यह काम वे पहले ही इस्लामाबाद में भी कर चुके हैं।
जी-7 देशों के समूह ने रूस पर कुछ नए प्रतिबंध थोप दिए हैं। हमारे विदेश मंत्री जयशंकर ने संसद में भारत की यूक्रेन-नीति की व्याख्या करते हुए कई तर्क पेश किए हैं। यूक्रेनी राष्ट्रपति झेलेंस्की ने नाटो की सदस्यता की बात तो छोड़ दी है लेकिन यूरोपीय संघ की सदस्यता की मांग जोरों से की है। एक माह-बीत गया लेकिन रूस-यूक्रेन युद्ध रुकने का नाम नहीं ले रहा है। यूक्रेनी लोग बड़ी बहादुरी से लड़ रहे हैं। यूक्रेन के कई शहर ध्वस्त हो गए हैं और लगभग 80 लाख लोग देश छोडक़र बाहर भाग गए हैं। उधर रूस के भी 15-20 हजार सैनिकों के मारे जाने और हवाई जहाजों के नष्ट होने की खबरें हैं।
परमाणु-युद्ध की धमकियां भी यूरोप पर मंडरा रही हैं लेकिन झेलेंस्की के निवेदन के बावजूद व्लादिमीर पूतिन बात करने को तैयार नहीं हैं। इस समय यह समझना मुश्किल हो रहा है कि यह युद्ध कैसे खत्म होगा? यह भी थोड़ा आश्चर्यजनक है कि झेलेंस्की अभी तक सुरक्षित कैसे हैं? हो सकता है कि पूतिन उन्हें जिंदा ही पकडऩा चाहते हों। वरना, रूस के पास ऐसे फौजी शस्त्रास्त्र पर्याप्त मात्रा में है, जिनसे वे झेलेंस्की के ठिकाने पर हमला बोल सकें। रूस ने सुरक्षा परिषद में यूक्रेन को सहायता पहुंचाने का जो प्रस्ताव रखा है, उससे बड़ा क्रूर मजाक क्या हो सकता है?
यदि रूस हमला नहीं करता या अब भी उसे बंद कर दे तो यह अपने आप में उसकी बड़ी कृपा होगी। रूस ने यूक्रेन को इतना गहरा धक्का पहुंचाया है, जितना उसे द्वितीय महायुद्ध में भी नहीं पहुंचा था। रूस ने सारी दुनिया में जबर्दस्त बदनामी मोल ले ली है। भारत को अब सोचना पड़ेगा कि वह रूस का समर्थन कब तक करता रहेगा? चीन ने रूसी मदद के ताजा प्रस्ताव का समर्थन करके रूस के इस्पाती मित्र और संरक्षक का दर्जा तो हासिल कर लिया है लेकिन यूक्रेन के सवाल पर उसने सिद्ध कर दिया है कि वह भारत की तरह तटस्थ और निष्पक्ष नहीं है।
यूक्रेन के सवाल पर भारत और चीन के रवैयों में तो फर्क साफ़ दिखाई पड़ ही रहा है, लेकिन इस्लामाबाद में वांग यी ने कश्मीर पर पाकिस्तान-समर्थक बयान देकर अपनी भारत-यात्रा को बेस्वाद कर दिया है। उनका और रूसी प्रतिनिधि का अचानक काबुल जाना यह बताता है कि वे अब अफगानिस्तान को भी पाकिस्तान की तरह अपना मोहरा बनाना चाहते हैं। ये सब घटनाएं भारतीय विदेश मंत्रालय को अपनी अब तक नीतियों पर पुनर्विचार के लिए मजबूर करेंगी। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के लिए यह खुश खबर है कि इस साल भारत का निर्यात 400 बिलियन डालर से भी ज्यादा का हो गया है। भारत के अंतरराष्ट्रीय व्यापार का यह अब तक का सर्वोच्च प्रतिमान है। भारत ने इतना निर्यात पहले कभी नहीं किया। निर्यात का यह आंकड़ा सरकार ने तय जरुर किया था लेकिन उनको भी विश्वास नहीं था कि भारत इस ऊँचाई तक पहुंच जाएगा। इसके दो कारण थे। एक तो कोरोना महामारी और दूसरा विश्व बाजारों की शिथिलता। लेकिन इसके बावजूद भारत के माल को सारी दुनिया के बाजारों में पसंद किया गया और उन्हें जमकर खरीदा गया।
यूरोप में चल रहे रूस और यूक्रेन का युद्ध भी हमारे निर्यात की बढ़ोतरी में आड़े नहीं आया। 2018-19 के पिछले साल में भारत का निर्यात 330 बिलियन डॉलर का था। उसमें 21 प्रतिशत की वृद्धि हो गई। केंद्रीय व्यापार मंत्री पीयूष गोयल ने भारत के व्यापार-उद्योग में लगे लोगों की कार्यकुशलता, प्रामाणिकता और परिश्रम की जो प्रशंसा की है, वह उचित ही है। ठंडे बाजार और महामारी की वजह से अंतरराष्ट्रीय बाजारों में कई चीजों की कीमतें घट गईं तो उनकी मात्रा बढ़ गई। बढ़ी हुई मात्रा ने पैसों की आवक भी बढ़ाई और मुनाफा भी। यह भी हुआ कि बाजारों और उत्पादन की विश्व-व्यापी शिथिलता के कारण कई चीजों की कमी हो गई तो उनकी कीमतें बढ़ गईं।
जैसे मोटर के कल-पुर्जो, अनाज से बनी वस्तुएं, चावल, गलीचों और फलों के रस से भारत की आमदनी बढ़ गई। हमारा इंजीनियरी सामान सारी दुनिया में पसंद किया जाता है। उसकी बिक्री दुगुनी हो गई। बिजली के सामान का निर्यात 42 प्रतिशत बढ़ गया। जेवरात का निर्यात कूदकर 57.3 प्रतिशत बढ़ गया। पेट्रोलियम चीजें 147.6 प्रतिशत बढ़ गई। याने भारत चाहे तो अगले कुछ वर्षों में इन्हीं चीजों का निर्यात इतने बड़े पैमाने पर कर सकता है कि वह अमेरिका और चीन के नजदीक पहुंच सकता है।
अमेरिका और चीन से आगे निकलना तो आज असंभव लगता है। ये दुनिया के दो सबसे बड़े निर्यातक देश हैं। इनका निर्यात का आंकड़ा भारत से कई गुना बड़ा है। दोनों देश लगभग 2500 बिलियन डॉलर का निर्यात करते हैं। उनका आयात भी कहीं ज्यादा है। मंहगा बेचना और सस्ता खरीदना- यही उनकी समृद्धि का रहस्य है। भारत के लाखों प्रतिभाशाली लोग अमेरिका और यूरोपीय देशों को आर्थिक दृष्टि से समृद्ध बना रहे हैं।
यदि भारत की प्रतिभा और परिश्रम का सही इस्तेमाल हो सके तो भारत की गिनती भी दुनिया के सबसे बड़े निर्यातकों में हो सकती है। दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र को उस श्रेणी में लाने के लिए सरकार के साथ-साथ उद्योगपतियों और व्यापारियों को भी कृतसंकल्प होना पड़ेगा। चौका तो हमने लगा दिया। अब छक्का कब लगाएंगे? (नया इंडिया की अनुमति से)