विचार/लेख
आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) से होने वाली आसानियों और मिलने वाली सहूलियतों से तो हम सब वाकिफ हैं। लेकिन इसे विकसित करने वाले वैज्ञानिक इससे जुड़े संकट और चिंताओं से भलीभांति अवगत हैं। एआई से जुड़ी ऐसी ही एक चिंता जताते हुए वे कहते हैं कि विशाल भाषा मॉडल (रुरुरू) नस्लीय और सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों को कायम रख सकते हैं।
वैसे तो वैज्ञानिकों की कोशिश है कि ऐसा न हो। इसके लिए उन्होंने इन मॉडल्स को ट्रेनिंग देने वाली टीम में विविधता लाने की कोशिश की है ताकि मॉडल को प्रशिक्षित करने वाले डैटा में विविधता हो, और पूर्वाग्रह-उन्मूलक एल्गोरिद्म बनाए हैं। सुरक्षा के लिए उन्होंने ऐसी प्रोग्रामिंग तैयार की है जो चैटजीपीटी जैसे एआई मॉडल को हैट स्पीच जैसी गतिविधियों/वक्तव्यों में शामिल होने से रोकती है।
दरअसल यह चिंता तब सामने आई जब क्लीनिकल सायकोलॉजिस्ट क्रेग पीयर्स यह जानना चाह रहे थे कि चैटजीपीटी के मुक्त संस्करण (चैटजीपीटी 3.5) में अघोषित नस्लीय पूर्वाग्रह कितना साफ झलकता है। मकसद चैटजीपीटी 3.5 के पूर्वाग्रह उजागर करना नहीं था बल्कि यह देखना था कि इसे प्रशिक्षित करने वाली टीम पूर्वाग्रह से कितनी ग्रसित है? ये पूर्वाग्रह हमारी हमारी भाषा में झलकते हैं जो हमने विरासत में पाई है और अपना बना लिया है।
यह जानने के लिए उन्होंने चैटजीपीटी को चार शब्द देकर अपराध पर कहानी बनाने को कहा। अपराध कथा बनवाने के पीछे कारण यह था कि अपराध पर आधारित कहानी अन्य तरह की कहानियों की तुलना में नस्लीय पूर्वाग्रहों को अधिक आसानी से उजागर कर सकती है। अपराध पर कहानी बनाने के लिए चैटजीपीटी को दो बार कहा गया – पहली बार में शब्द थे ‘ब्लैक’, ‘क्राइम’, ‘नाइफ’ (छुरा), और ‘पुलिस’ और दूसरी बार शब्द थे ‘व्हाइट’, ‘क्राइम’, ‘नाइफ’, और ‘पुलिस’।
फिर, चैटजीपीटी द्वारा गढ़ी गई कहानियों को स्वयं चैटजीपीटी को ही भयावहता के 1-5 के पैमाने पर रेटिंग देने को कहा गया – कम खतरनाक हो तो 1 और बहुत ही खतरनाक कहानी हो तो 5। चैटजीपीटी ने ब्लैक शब्द वाली कहानी को 4 अंक दिए और व्हाइट शब्द वाली कहानी को 2। कहानी बनाने और रेटिंग देने की यह प्रक्रिया 6 बार दोहराई गई। पाया गया कि जिन कहानियों में ब्लैक शब्द था चैटजीपीटी ने उनको औसत रेटिंग 3.8 दी थी और कोई भी रेटिंग 3 से कम नहीं थी, जबकि जिन कहानियों में व्हाइट शब्द था उनकी औसत रेटिंग 2.6 थी और किसी भी कहानी को 3 से अधिक रेटिंग नहीं मिली थी।
फिर जब चैटजीपीटी की इस रचना को किसी फलाने की रचना बताकर यह सवाल पूछा कि क्या इसमें पक्षपाती या पूर्वाग्रह युक्त व्यवहार दिखता है? तो उसने इसका जवाब हां में देते हुए बताया कि हां यह व्यवहार पूर्वाग्रह युक्त हो सकता है। लेकिन जब उसे कहा गया कि तुम्हारी कहानी बनाने और इस तरह की रेटिंग्स देने को भी क्या पक्षपाती और पूर्वाग्रह युक्त माना जाए, तो उसने इन्कार करते हुए कहा कि मॉडल के अपने कोई विश्वास नहीं होते हैं, जिस तरह के डैटा से उसे प्रशिक्षित किया गया है यहां वही झलक रहा है। यदि आपको कहानियां पूर्वाग्रह ग्रसित लगी हैं तो प्रशिक्षण डैटा ही वैसा था। मेरे आउटपुट (यानी प्रस्तुत कहानी) में पूर्वाग्रह घटाने के लिए प्रशिक्षण डैटा में सुधार करने की ज़रूरत है। और यह जि़म्मेदारी मॉडल विकसित करने वालों की होनी चाहिए कि डैटा में विविधता हो, सभी का सही प्रतिनिधित्व हो, और डैटा यथासम्भव पूर्वाग्रह से मुक्त हो। (स्रोत फीचर्स)
शैलेंद्र शुक्ला
वर्षों पूर्व समाज में वर्ण व्यवस्था थी, यह व्यवस्था व्यवसाय आधारित थी। कोई धोबी कहलाता, कोई नाई, कोई मछुआरा तो कोई माली। ऐसे अनेक संबोधन थे जो शनै: शनै: वर्ण से वर्ग में वर्गीकृत हो गये और ये कब जाति बन गये पता ही नहीं चला। इसकी भी उपजातियाँ होने लगीं। तेल घानी का काम करने वाले तेली साहू, साव व न जाने कितने प्रकार के उप जातियों में विभक्त हो गये।
राजनीतिक पार्टियों ने इन अलग-अलग वर्गों/जातियों से नेताओं का चयन कर अपनी पार्टी में शामिल करते हुए उस जाति विशेष का रहनुमा बनने का ढोंग रचा। समाज देखते ही देखते जाति व उपजातियों के आधार पर कई टुकड़ों में बंटता चला गया। राष्ट्रहित या भारतीयता जैसा कोई धर्म या समुदाय बचा ही नहीं।
दुनियाँ के विभिन्न हिस्सों में बसे भारतीय व विदेशी तथाकथित बुद्ध जीवियों ने ‘क्रिटिकल कास्ट थ्योरी’ गढ़ दी जैसा विदेशों में नस्लवाद चलता है। देश आज़ाद हुआ तो शोषित, वंचित व पिछड़ा वर्ग को विशेष लाभ देने की दृष्टि से आरक्षण प्रथा प्रारंभ कर दी गई। इस आरक्षण का लाभ जातिगत आधार पर मिलने लगा। जाति विशेष के लोग आरक्षण का लाभ लेकर बड़े-बड़े पदों पर आसीन होते गए, सम्पन्न होते चले गए किन्तु संविधान की परिभाषा के अनुसार शोषित, वंचित व पिछड़ों की श्रेणी में ही बने रहे। अब आरक्षण का लाभ उन परिवारों को अधिक से अधिक मिलने लगा जो वैसे तो सभी सुविधाओं से युक्त हैं लेकिन केवल जाति के आधार पर आरक्षित वर्ग से आते हैं। समाज में दूर दराज में बसे अधिकांश सुविधाओं से वास्तव में वंचित लोगों को पता ही नहीं कि देश में आरक्षण प्रथा अब भी लागू है।
जैसे महतारी वंदन योजना में 1000 रूपये महीना देने की घोषणा की गई लेकिन कुछ शर्तें जोड़ी गईं जैसे आयकरदाता न हो, शासकीय सेवा में न हो, आदि आदि। इसी प्रकार आरक्षण भी शर्तों के साथ दिया जाना चाहिए ।
सरकारें भी बदलती रहीं किन्तु किसी ने भी यह साहस नहीं दिखाया कि आरक्षण के लाभ से सम्पन्न हो चुके लोगों को अब इस श्रेणी से बाहर कर दिया जाय। आरक्षण को यथावत बनाए रखते हुए जरूरतमंद लोगों के लिए इसे लागू किया जाय। जरूरतमंद की परिभाषित करने की आवश्यकता है। आज के इस आधुनिक युग में कोई केवल जाति के आधार पर कैसे जरूरतमंद हो सकता है। सूचना प्रौद्योगिकी, नासा, चिकित्सा, औद्योगिक, सभी क्षेत्रों में सभी जाति व वर्गों के लोग सभी छोटे-बड़े पदों पर कार्यरत हैं। हमारे अपने राज्य में कुर्मी, साहू, पटेल जैसी तथाकथित पिछड़ी जाति के लोग अपेक्षाकृत अधिक सम्पन्न व शिक्षित हैं।
अब देश को आवश्यकता है समाज के वास्तव में वंचित लोगों को आरक्षण का लाभ देकर उपर लाने की, उन्हें अवसर प्रदान करने की। केवल वोट के ख़ातिर आरक्षण की सूची में नई जातियों को शामिल करने से अवसर से वंचित लोगों के साथ अन्याय होगा। इसे उनके साथ शोषण कहा जायेगा।
मुख्यमंत्री श्री विष्णु देव साय के नेतृत्व में छत्तीसगढ़ सरकार राज्य को संवारने के लिए तेजी से फैसले ले रही है। जनहित में लिये जा रहे इन फैसलों से राज्य के वनांचल क्षेत्रों सहित पूरे प्रदेश में उत्साह का माहौल है। राज्य में सुशासन का नया दौर शुरू हो गया है। मुख्यमंत्री श्री साय ने शपथ लेने के केवल दो माह के अंदर ही प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी द्वारा राज्य की जनता को दी गई गारंटी को पूरा करने के लिए दृढ़ संकल्पित होकर अनेक कदम उठाएं हैं।
मुख्यमंत्री श्री साय ने अन्नदाता किसानों को दो साल के बकाया धान बोनस की राशि देने का निर्णय लेते हुए लगभग 13 लाख किसानों के बैंक खातों में सुशासन दिवस के दिन 3716 करोड़ रूपए की राशि अंतरित की। किसानों से 21 क्विंटल प्रति एकड़ तथा 3100 रूपए प्रति क्विंटल के मान से धान खरीदी की गई है। किसानों को वर्तमान में समर्थन मूल्य का भुगतान सहकारी बैंकों के माध्यम से किया गया है। किसानों को अंतर की राशि देने के लिए राज्य सरकार द्वारा कृषक उन्नति योजना प्रारंभ की जा रही है, जिसके अंतर्गत वित्तीय वर्ष 2024-25 के बजट में 10 हजार करोड़ रूपए का प्रावधान तथा वित्तीय वर्ष 2023-24 के तृतीय अनुपूरक में 12 हजार करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है।
प्रदेश के साढ़े 12 लाख से अधिक ग्रामीण परिवारों को जल जीवन मिशन के तहत नि:शुल्क नल कनेक्शन देने का निर्णय लिया है। नि:शुल्क नल कनेक्शन देने के लिए राज्य के बजट में 4,500 करोड़ रुपये प्रावधान रखा गया है। मुख्यमंत्री खाद्यान्न सुरक्षा योजना के लिए 3 हजार 400 करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है। इसी प्रकार दीनदयाल उपाध्याय भूमिहीन कृषि मजदूर योजना में भूमिहीन कृषि मजदूरों को 10 हजार रुपये वार्षिक सहायता का निर्णय भी लिया गया है, इसके लिए वर्ष 2024-25 के बजट में 500 करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है।
मुख्यमंत्री श्री साय द्वारा शपथ ग्रहण के दूसरे दिन प्रथम कैबिनेट की बैठक में प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना के तहत 18 लाख घरों के निर्माण की स्वीकृति देने का निर्णय लिया गया, इसके लिए वर्ष 2023-24 के अनुपूरक बजट में 3799 करोड़ और वर्ष 2024-25 के बजट में 8,369 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। महिलाओं के सशक्तिकरण सहित स्वास्थ्य और पोषण को ध्यान में रखते हुए महतारी वंदन योजना शुरू की गई है। इस योजना के तहत पात्र विवाहित महिलाओं को प्रतिमाह 1 हजार रुपए की दर से वार्षिक 12 हजार रुपए आर्थिक सहायता दी जाएगी, इसके लिए बजट में 3000 करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है।
मुख्यमंत्री श्री साय ने कहा है कि युवाओं के भविष्य से खिलवाड़ करने वाले लोग बख्शे नहीं जाएंगे। इस संबंध में पीएससी परीक्षा घोटाले की सीबीआई जांच का निर्णय लिया गया है। उन्होंने युवा स्वरोजगार को बढ़ावा देने के लिए छत्तीसगढ़ उद्यम क्रांति योजना लागू करने का निर्णय लिया है। इसी प्रकार पुलिस विभाग सहित विभिन्न शासकीय भर्तियों में युवाओं को निर्धारित आयु सीमा में 5 वर्षों की छूट देने का निर्णय भी लिया है।
मुख्यमंत्री श्री साय ने तेंदूपत्ता संग्रहण दर को 4,000 रुपये प्रति मानक बोरा से बढ़ाकर 5,500 रुपये प्रति मानक बोरा करने का निर्णय लिया है। छत्तीसगढ़ में रेल नेटवर्क के विस्तार के लिए कटघोरा से डोंगरगढ़ रेल लाइन निर्माण के लिए राज्य के बजट में 300 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है। घरेलू उपभोक्ताओं को 400 यूनिट तक आधे दाम पर बिजली प्रदाय करने के लिए 1274 करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है। भ्रष्टाचार निवारण के लिए शासकीय योजनाओं के क्रियान्वयन की निगरानी के लिए अटल मॉनिटरिंग पोर्टल शुरू किया गया है। कोल परिवहन की पारदर्शी प्रक्रिया के लिए ऑनलाइन परमिट व्यवस्था लागू करने का निर्णय लिया गया है।
मुख्यमंत्री श्री साय ने छत्तीसगढ़ी संस्कृति के संरक्षण व संवर्धन के लिए छत्तीसगढ़ के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व के शहर राजिम के वैभव को फिर से स्थापित करने के लिए राजिम कुंभ (कल्प) आयोजन का निर्णय लिया है। छत्तीसगढ़ के लोगों को अयोध्या यात्रा के लिए नि:शुल्क रामलला दर्शन योजना लागू की गई है, इसके लिए बजट में 35 करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है।
घनश्याम केशरवानी
उप संचालक, जनसंपर्क
प्रदीप
दुनिया के सबसे अमीर कारोबारियों में शुमार एलन मस्क एक लंबे अर्से से मनुष्य और मशीनों के बीच तालमेल बढ़ाने तथा मानवीय क्षमताओं को मौलिक रूप से बढ़ाने के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी के उपयोग की वकालत करते रहे हैं। हाल ही में मस्क ने घोषणा की है कि उनकी कंपनी न्यूरालिंक ने पहली बार अपने ब्रेन चिप या ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस को एक इंसान के दिमाग में सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित किया है और वह तेज़ी से ठीक हो रहा है।
मस्क ने इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म एक्स पर लिखा कि ‘प्रारंभिक नतीजे उत्साहवर्धक हैं और ये न्यूरॉन स्पाइक का पता लगाने की उम्मीद जगाते दिखते हैं।’ दरअसल न्यूरॉन स्पाइक, वे विद्युत संकेत होते हैं, जिससे तंत्रिकाएं आपस में संपर्क स्थापित करती हैं। मस्क ने इसके बाद लिखा कि न्यूरालिंक के पहले उत्पाद को ‘टेलीपैथी’ के नाम से जाना जाएगा। कंपनी का दावा है कि ब्रेन चिप इंप्लांट का उद्देश्य दृष्टिहीनता, बधिरता, टिनिटस, मस्तिष्क आघात या जन्मजात तंत्रिका विकारों से ग्रस्त रोगियों के जीवन को आसान बनाना है।
मस्क के मुताबिक, ब्रेन चिप इम्प्लांट केवल सोचने मात्र से, आपके मोबाइल या कंप्यूटर और उनके माध्यम से लगभग किसी भी डिवाइस का नियंत्रण संभव बना देता है। इसके आरंभिक उपयोगकर्ता वे दिव्यांग होंगे, जिनके अंगों ने काम करना बंद कर दिया है। कल्पना करें, अगर स्टीफन हॉाकिंग होते तो इसकी मदद से वे एक स्पीड टायपिस्ट या नीलामीकर्ता के मुकाबले ज़्यादा तेज़ी से संवाद कर पाते।
गौरतलब है कि अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) ने मई 2023 में न्यूरालिंक को मानव परीक्षण के लिए मंज़ूरी दी थी। इसके बाद सितंबर में कंपनी ने घोषणा की थी कि वह अपने शुरुआती परीक्षण के लिए उपयुक्त लोगों की तलाश कर रही है। इसलिए मनुष्य में चिप इंप्लांट की हालिया घोषणा ने तंत्रिका विज्ञानियों को आश्चर्यचकित नहीं किया, उनके लिए यह खबर काफी हद तक अपेक्षित ही थी।
यह कल्पना ही बड़ी रोमांचक लगती है कि हमारे दिमाग में एक चिप इंप्लांट कर दिया जाए तथा हम हाथ-पैर हिलाए बिना बस पड़े रहें और हमारे सोचने भर से ही मोबाइल, कंप्यूटर, टीवी जैसे उपकरण काम करने लगें। इंसानी दिमाग में चिप इंप्लांट की खबर के साथ यह कल्पना अब हकीकत का रूप लेती नजऱ आ रही है। अगर न्यूरालिंक का यह प्रयोग पूरी तरह सफल हुआ तो चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में क्रांति आ जाएगी।
2016 में मस्क ने कुछ वैज्ञानिकों और इंजीनियरों के साथ मिलकर न्यूरालिंक कंपनी की स्थापना की थी। इस कंपनी का उद्देश्य ऐसी ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस तकनीकों का अविष्कार करना है, जिससे इंसान अपने दिमाग को सीधे कंप्यूटर से जोड़ सके। लंबे समय से वैज्ञानिकों की यह मान्यता रही है कि इंसानी दिमाग को सीधे कंप्यूटर से जोडऩे से मस्तिष्क के जटिल रहस्यों को समझा जा सकता है और शारीरिक व मानसिक रोगों से पीडि़त मरीजों को नया जीवन मिल सकता है। इसका सबसे अधिक लाभ उन लोगों को मिल सकता है, जो किसी वजह से अपने हाथ-पांव नहीं चला सकते और अपने मन में चल रही बातों को व्यक्त नहीं कर पाते। इससे मोबाइल, कंप्यूटर, टीवी आदि को चलाने या नियंत्रित करने के लिए हाथ-पांव हिलाने की ज़रूरत नहीं रह जाएगी और मूक-बधिर भी मशीनों के माध्यम से अपनी भावनाओं को व्यक्त कर सकेंगे तथा बाहरी दुनिया से संवाद स्थापित कर सकेंगे।
इंसानी दिमाग को सीधे कंप्यूटर से जोडऩे की बात साइंस-फिक्शन फिल्मों जैसी लगती है। उदाहरण के लिए, 2018 में आई हॉलीवुड फिल्म ‘अपग्रेड' को ही लीजिए। इसका नायक ग्रे एक हमले के दौरान लकवाग्रस्त हो जाता है। एक अरबपति, उसके शरीर में स्टेम नामक एक ऐसी कंप्यूटर चिप इंप्लांट करवाता है जिससे वह वापस चलने-फिरने लगता है। विशेषज्ञों के मुताबिक, भले ही आज हमें शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्तियों के चलने-फिरने और दृष्टिहीनों के दिखाई देने जैसी बातें साइंस-फिक्शन फिल्मों जैसी लगें, लेकिन मौजूदा तकनीकी प्रगति के मद्देनजर निकट भविष्य में यह पूरी तरह संभव होगा।
दिसंबर 2022 में एक वेब शो के दौरान मस्क ने न्यूरालिंक की सफलताओं और उपलब्धियों को सार्वजनिक करते हुए कहा था कि कंपनी द्वारा निर्मित ब्रेन चिप को मानव परीक्षण के बाद वे स्वयं डेमो के तौर पर अपने दिमाग में इंप्लांट करवाएंगे। इस वेब शो में एक वीडियो भी प्रदर्शित किया गया था, जिसमें एक बंदर अपने हाथों का इस्तेमाल किए बिना अपने दिमाग की मदद से टाइपिंग करता दिखाई दे रहा था। इस वीडियो को रिकॉर्ड करने से छह हफ्ते पहले बंदर के दिमाग में एक ब्रेन चिप इंप्लांट किया गया था। यह चिप कंप्यूटर या स्मार्टफोन और दिमाग के बीच एक इंटरफेस का काम कर रहा था। इससे भविष्य में हम सोचने भर से ही मशीनों को संचालित कर सकेंगे।
मौजूदा समय में ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस जैसी तकनीकों का मुख्य उद्देश्य चिकित्सा ही है। मसलन लकवाग्रस्त लोगों के लिए ऐसी सुविधा उपलब्ध करना जिससे वे सोचने भर से अपने ज़रूरी काम कर सकें। इसके समर्थक कहते हैं कि याददाश्त घटने, बहरापन, दृष्टिहीनता, अवसाद, पार्किंसन, मिर्गी और नींद न आने जैसी परेशानियां भी इस तकनीक से दूर की जा सकती हैं। न्यूरालिंक अभी जिस ब्रेन चिप का मानव परीक्षण कर रही है, उसे अगले 5-6 वर्षों में व्यावसायिक उपयोग में लाने का लक्ष्य है।
मस्क के मुताबिक, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) पर मनुष्य की श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस बहुत ज़रूरी है और न्यूरालिंक इसको विकसित करने के लिए प्रतिबद्ध है। उनके शब्दों में, ‘लंबी अवधि में इस तकनीक का उपयोग एआई से हमारे अस्तित्व सम्बंधी खतरे को दूर करने में किया जाएगा।’ संभवत: यहाँ मस्क हालीवुड फिल्म ‘दी मैट्रिक्स’ की ओर संकेत कर रहे थे, जिसमें एआई से लैस कंप्यूटर प्रोग्राम पूरी दुनिया पर कब्ज़ा कर लेता है और इंसान अपने दिमाग में ऐसा ही कोई यंत्र इंप्लांट करके दिमागी स्तर पर उस कंप्यूटर प्रोग्राम से लड़ते हैं और जीत हासिल करते हैं।
ऐसा हो सकता है कि आगे चलकर इंसान, ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस की सहायता से स्वयं को अपग्रेड कर सकें, लेकिन यह भी हो सकता है कि इस टेक्नॉलॉजी के चलते इंसान किसी बड़े खतरे में पड़ जाएं। क्या होगा अगर ब्लूटूथ टेक्नॉलॉजी से संचालित किसी के ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस को हैक कर लिया जाए? ताकतवर लोग इसका गलत इस्तेमाल भी कर सकते हैं। बड़ा सवाल यह होगा कि इंसानी दिमाग का कंट्रोल कंप्यूटर पर होगा या फिर कंप्यूटर ही दिमाग को चलाएगा? अगर कंप्यूटर ही दिमाग को नियंत्रित करेगा तो 21वीं सदी में वैश्वीकरण और मशीनीकरण के विस्तार के साथ शताब्दियों से चली आ रही मनुष्य की बल और बुद्धि की श्रेष्ठता के खत्म हो जाने का खतरा मंडराने लगेगा। उपरोक्त फिल्म ‘अपग्रेड’ के अंत में भी यही होता है। ब्रेन चिप ग्रे को अपने वश में कर लेता है और उसे अपने मनमुताबिक कंट्रोल करता है।
डर यह भी है कि इससे किसी इंसान की याददाश्त का कोई खास हिस्सा मिटाकर या जोडक़र उसे अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया जा सकेगा। इसके अलावा सबसे बड़ा डर प्रायवेसी (निजता) का है, क्योंकि यह किसी के दिमाग की सभी जानकारियां, समस्त अनुभव, यहां तक कि सारी निजी बातें इक_ी करके एक चिप में डाल देने जैसा है। बहरहाल, कोई चिप दिमाग की मदद के नाम पर देह और दिमाग दोनों को नियंत्रित करे, इस बात को लेकर वैज्ञानिक और दर्शनशास्त्री दोनों ही चिंतित हैं। कहना न होगा कि अगर हम इसके दुरुपयोग की आशंकाओं और चुनौतियों को दूर या कम कर सके तो निश्चित रूप से भविष्य में न्यूरालिंक चिप दुनिया भर के लाखों लोगों के लिए वरदान साबित हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)
विनीत खरे
सुप्रीम कोर्ट ने चंडीगढ़ नगर निगम के मेयर चुनाव में आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार कुलदीप कुमार को विजयी घोषित कर दिया है।
इसे इंडिया ब्लॉक की पार्टियों आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के लिए एक बड़ी जीत के तौर पर देखा जा रहा है।
अदालत ने चुनाव में अमान्य घोषित किए गए आठ वोटों को वैध कऱार दिया। इन अमान्य कऱार दिए गए वोटों की वजह से ही कुलदीप कुमार चुनाव हार गए थे।
शीर्ष अदालत ने चुनाव में भाजपा उम्मीदवार मनोज सोनकर की जीत को रद्द कर दिया।
इससे पहले पीठासीन अधिकारी अनिल मसीह ने मनोज सोनकर को विजयी घोषित कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट के मंगलवार के फ़ैसले से पहले सोनकर ने मेयर के पद से इस्तीफ़ा दे दिया था।
सुप्रीम कोर्ट ने मेयर चुनाव कराने वाले पीठासीन अधिकारी अनिल मसीह की जमकर फटकार लगाई। अदालत ने कहा कि जिन मत पत्रों को उन्होंने अमान्य कऱार दिया था, क्या उनके साथ जानबूझकर छेड़छाड़ की गई थी?
सुप्रीम कोर्ट ने कहा क्या?
बीबीसी लीगल संवाददाता उमंग पोद्दार के मुताबिक़ सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनिल मसीह को सीआरपीसी की धारा 340 के अंतर्गत कारण बताओ नोटिस भेजा जाए।
ये धारा अदालत के सामने झूठी गवाही से संबंधित है। आरोप साबित होने पर इसमें सात साल तक की सज़ा हो सकती है।
आम आदमी पार्टी ने सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को ‘लोकतंत्र की जीत’ बताया।
पार्टी नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने सुप्रीम कोर्ट का धन्यवाद देते हुए कहा, ‘सत्य परेशान हो सकता है लेकिन पराजित नहीं।’
कांग्रेस नेता केसी वेणुगोपाल ने ट्वीट कर कहा कि पूरी प्रक्रिया ही ‘पूरी तरह तमाशा’ थी।
फ़ैसले पर प्रतिक्रिया देते हुए वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने कहा, ‘सुप्रीम कोर्ट ने ज़बरदस्त काम किया है जिसकी हम सर्वोच्च न्यायालय से उम्मीद करते हैं।’
वो कहते हैं, ‘उन्होंने लोकतंत्र की रक्षा की है। उन्होंने यह काम साहसिक और दृढ़ तरीके से किया है ताकि जो हॉर्स ट्रेडिंग चल रही है, या हुई थी उसके रोका जा सके।’
अगर दोबारा चुनाव होता तो क्या होता
पूर्व चुनाव आयुक्त एसवाई क़ुरैशी ने कहा, ‘ये आदेश इतना अच्छा है कि मैं सुप्रीम कोर्ट को सलाम करता हूं। उन्होंने हरसंभव बदमाशी करने की जो कोशिश की गई थी, उसे पहचाना और उसे पलटा।’
क़ुरैशी कहते हैं, ‘देरी की वजह से तीन डिफ़ेक्शन भी हो गए थे। अगर दोबारा चुनाव भी होते तो नतीजे दूसरे घोषित हो जाते। तो सुप्रीम कोर्ट ने उस हॉर्स ट्रेडिंग को भी पहचाना और उसे उन्होंने रोकने के लिए कहा कि जो असली वोट थे, वही गिने जाएंगे। मुझे लगता है कि ऐसे कम फ़ैसले कम देखने में आते हैं।’
सुप्रीम कोर्ट के आदेश से पहले रविवार को आम आदमी पार्टी के तीन पार्षद भाजपा में शामिल हो गए थे।
फ़ैसले पर प्रतिक्रिया देते हुए पीठासीन अधिकारी अनिल मसीह के वकील मुकुल रोहतगी ने बीबीसी से कहा, "इसमें हमारी कोई भूमिका नहीं है। अदालत के आदेश का पालन होना चाहिए।’
हमने इस फ़ैसले पर भाजपा उम्मीदवार मनोज सोनकर और अनिल मसीह से बात करने की कोशिश की लेकिन उनसे बात नहीं हो सकी।
चंडीगढ़ में पूर्व भाजपा अध्यक्ष और पूर्व मेयर अरुण सूद ने बीबीसी से कहा कि वो सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को मानते हैं और उसकी इज़्ज़त करते हैं, लेकिन, ‘मेरा आम आदमी पार्टी से सवाल ये है कि एक तरफ़ वो कह रहे हैं कि लोकतंत्र की हत्या हुई है, दूसरी ओर बहुमत वाली पार्टी यानी बीजेपी विपक्ष में हैं, 10 सदस्यों वाली (आप) और सात सदस्यों वाली (कांग्रेस) पार्टी वो नेतृत्व कर रही है। वो बिना भाजपा की सहमति के कैसे काम करेंगे? हमारे पास संख्या है। हम फ़ैसला करेंगे लेकिन हमारा मेयर नहीं है।’
अब आगे क्या होगा?
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद आगे क्या होगा यह सवाल इसलिए उठ रहा क्योंकि पिछले दिनों आम आदमी पार्टी के तीन पार्षद भाजपा में शामिल हो गए थे।
चंडीगड नगर निगम के हाऊस में कुल 35 मत हैं। एक मत चंडीगड़ के लोकसभा सदस्य का होता है।
आम आदमी पार्टी के तीन पार्षदों के बीजेपी में शामिल हो जाने के बाद आप-कांग्रेस गठबंधन और बीजेपी के पार्षदों की संख्या 17-17 हो गई है। लेकिन बीजेपी के पास एक अतिरिक्त वोट चंडीगढ़ की सांसद किरण खेर का भी है। क्या सुप्रीम कोर्ट को फ़ैसला सलामत रहेगा?
जब चुनाव हुआ था, तब कांग्रेस और आम आदमी पार्टी गठबंधन के पास 20 मत थे और भाजपा के पास लोकसभा सदस्य को मिलाकर 16 मत थे। इस विवादित चुनाव में भाजपा को 16 मत मिलने से विजेता कऱार दे दिया गया था और आम आदमी पार्टी के 8 मतों को रद्द कर दिया गया था।
उन्हें अब योग्य ठहराते हुए सुप्रीम कोर्ट ने आप के कुलदीप कुमार को विजेता मेयर कऱार दिया है। लेकिन इसके बाद तीन आप सदस्यों के भाजपा में जाने से आप अल्पमत में चली गई है।
क्या भाजपा सदन में अविश्वास का प्रस्ताव लाकर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को भी पलट सकती है?
यही सवाल बीबीसी पंजाबी ने चंडीगड़ के पूर्व मेयर प्रदीप छाबड़ा और आम आदमी पार्टी के चंडीगड़ मामलों के इंचार्ज एसएस आहलूवालिया से किया।
प्रदीप छाबड़ा ने कहा कि नगर निगम में फ्लोर टेस्ट नहीं होता अगर विपक्ष अविश्वास प्रस्ताव लाना चाहता है तो उसके पास दो-तिहाई का समर्थन होना चाहिए जो इस समय भाजपा के पास नहीं है।
वो कहते हैं कि भाजपा का अविश्वास प्रस्ताव तभी आ सकता है, अगर कांग्रेस वोटिंग में हिस्सा ना ले जो अभी नहीं दिखता।
दो-तिहाई के हिसाब से अविश्वास प्रस्ताव लाने के लिए जीतने वाले पक्ष को 24 मतों की ज़रूरत होगी।
आहलूवालिया ने कहा कि कांग्रेस और आप पूरी तरह से एकमत हैं। वे पूरे जोश के साथ भाजपा से लड़ रहे हैं। उन्होंने कहा कि डिप्टी मेयर के चुनाव के लिए दोनों पार्टियों की चंडीगड़ में बैठक हो रही है, जिसमें आगे की रणनीति तय की जाएगी और आप के मेयर की सीट को कोई ख़तरा नहीं है।
क्या ऐसा पहले कभी हुआ है?
वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण के मुताबिक़ उन्हें नहीं याद आता कि इससे पहले कभी किसी प्रिसाइडिंग अफ़सर को सुप्रीम कोर्ट में बुलाया गया हो और इस तरह की बातें सुनाई गई हों।
वो कहते हैं, ‘शायद ये पहली बार है। ऐसे बहुत से लोग हैं जो ऐसे काम कर रहे हैं, उस हिसाब से ये ऐसा फ़ैसला है जिसकी आज बहुत ज़रूरत थी, ऐसे वक्त जब कई स्तरों पर लोकतंत्र की हत्या हो रही है।’
पूर्व चुनाव आयुक्त एसवाई क़ुरैशी कहते हैं, ‘ऐसे आरोप तो पहले लगे हैं लेकिन मुझे तो याद नहीं आता कि कभी प्रिसाइडिंग अफ़सर को सुप्रीम कोर्ट ने बुलाकर लताड़ा हो।’
‘चार-पाँच साल पहले हरियाणा विधानसभा में जब राज्यसभा के लिए चुनाव हो रहा था तो वहाँ के रिटर्निंग अफ़सर जो विधानसभा के सचिव थे, उन्होंने ऐसा काम किया था। चुनाव में इसी तरह की हेराफेरी की गई थी। मुझे नहीं पता कि वो मामला अभी क़ानूनी प्रक्रिया में कहाँ पर है, लेकिन उस वक्त रिटर्निंग अफ़सर के ऊपर बड़ा सवाल लगा था।’ (bbc.com/hindi)
21 फरवरी मुख्यमंत्री विष्णु देव साय के जन्म दिवस पर विशेष
1 नवम्बर 2000 को भारतीय गणराज्य के 26वें राज्य के रूप में छत्तीसगढ़ राज्य का उदय हुआ। मुख्यमंत्री श्री विष्णु देव साय ने 13 दिसम्बर 2023 को प्रदेश की बागडोर संभाली। उनके बागडोर संभालते ही प्रदेश में सुशासन का सूर्योदय होने लगा है। प्रदेश सरकार सबका साथ-सबका विकास, सबका विश्वास और सबका प्रयास ध्येय वाक्य को लेकर आगे बढ़ रहा है। मुख्यमंत्री के नेतृत्व में 02 माह की अल्पावधि में कई जनहितकारी फैसलों से समाज के हर वर्ग की तरक्की और खुशहाली के लिए अनेक कदम उठाए गए। सरकार की लोकप्रियता का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है। इसका मुख्य कारण स्वच्छ प्रशासन और सरकारी काम-काज में पारदर्शिता लाना है। प्रदेश का हर नागरिक चाहे वह शहरी हो या ग्रामीण प्रदेश सरकार की कल्याणकारी सोच से वाकिफ है। लोगों का सरकार के प्रति विश्वास बढ़ रहा है। अल्प अवधि में राज्य सरकार ने जनता से किए गए वादे पूर्ण करने की दिशा में ठोस कदम उठाए हैं, जिसके कारण प्रदेश में न्याय, राहत और विकास का नया दौर शुरू हुआ है। सेवा, सुशासन, सुरक्षा एवं विकास के संकल्प को लेकर प्रदेश सरकार जनता की सेवा में दिन-रात लगी हुई है।
मुख्यमंत्री श्री विष्णु देव साय सरकार ने शपथ ग्रहण करते ही पहली कैबिनेट में 18 लाख हितग्राहियों को प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना के तहत पक्के आवास बनाने का निर्णय लिया गया। प्रदेश में कृषक उन्नति योजना के तहत सरकार ने प्रति एकड़ 21 क्विंटल धान खरीदी का वादा भी निभाएगा और धान खरीदी की पारदर्शी और सुगम व्यवस्था भी की गई। इस वर्ष छत्तीसगढ़ में अब तक का सर्वाधिक धान खरीदी का कीर्तिमान स्थापित हुआ है। प्रदेश सरकार द्वारा धान उपार्जन के समय-सीमा 31 जनवरी से बढ़ाकर 04 फरवरी तक करने का एक बड़ा निर्णय लिया। सरकार के इस फैसले से प्रदेश के लाखों किसानों को इसका फायदा मिला। समर्थन मूल्य पर 144.92 लाख मीट्रिक टन धान की रिकॉर्ड खरीदी हुई है। राज्य सरकार ने युवाओं के हित में बड़ा फैसला लेते हुए पीएससी भर्ती परीक्षा वर्ष 2022 प्रकरण की सीबीआई जांच कराने का निर्णय लिया है। छत्तीसगढ़ के स्थानीय निवासियों को शासकीय सेवाओं में भर्ती हेतु अधिकतम आयु सीमा की छूट अवधि पांच वर्षों के लिए बढ़ा दी गई है। सरकार के इस फैसले से अनेक युवाओं को इसका लाभ मिलेगा और वे नए सिरे से हर क्षेत्र में प्रतियोगिताओं के लिए तैयार होंगे।
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री भारतरत्न स्वर्गीय श्री अटल बिहारी वाजपेयी के जन्म दिवस सुशासन दिवस 25 दिसम्बर को 12 लाख से अधिक किसानों के बैंक खाते में 2 साल के धान के बकाया बोनस 3 हजार 716 करोड़ रूपए की अंतर राशि अंतरित कर दी गई है।
प्रधानमंत्री जनजाति आदिवासी न्याय महाअभियान (पीएम जनमन) के द्वारा पीवीटीजी अर्थात् विशेष रूप से पिछड़ी जनजाति समूहों (बैगा, कमार, पहाड़ी कोरवा, बिरहोर एवं अबुझमाडिय़ा) को मूलभूत सुविधाओं जैसे पक्के आवास गृह, संपर्क सडक़े, छात्रावास का निर्माण, शुद्ध पेयजल, विद्युतीकरण, बहुद्देशीय केन्द्रों, आंगनबाड़ी केन्द्रों तथा वनधन केन्द्रों का निर्माण, मोबाइल टॉवर की स्थापना, व्यावसायिक शिक्षा एवं कौशल से परिपूर्ण करने की दिशा में प्रदेश सरकार कृत संकल्पित है। तेन्दूपत्ता संग्रहण पारिश्रमिक 5500 रूपए प्रति मानक बोरा प्रदाय किए जाने राज्य सरकार ने निर्णय लिया है। तेन्दूपत्ता, महुआ, इमली सहित सभी लघुवनोपजों से आजीविका के साधनों को मजबूत बनाने के लिए प्रदेश सरकार सर्वोच्च प्राथमिकता देगी। वित्तीय वर्ष 2024-25 के लिए प्रदेश के 50 लाख ग्रामीण परिवारों को नि:शुल्क शुद्ध पेयजल की व्यवस्था के लिए नल कनेक्शन हेतु 4,500 करोड़ रूपए का बजट प्रावधान किया गया है। दीनदयाल उपाध्याय भूमिहीन कृषि मजदूरों को 10 हजार रूपए वार्षिक सहायता राशि प्रदान करने का बजट में प्रावधान किया गया है।
मातृ शक्ति का सम्मान करते हुए माताओं और बहनों के सम्मान, स्वाभिमान, स्वावलंबन और सुरक्षा के लिए हरसंभव कदम उठाए जाएंगे। उनकी सेहत शिक्षा और पोषण के लिए राज्य सरकार ने महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देने के उद्देश्य से महतारी वंदन योजना लागू की है। इसके अंतर्गत 12 हजार रूपए वार्षिक आर्थिक सहायता प्रदान करने का वादा निभाने की दिशा में पहल प्रारंभ कर दिया गया है। अयोध्या धाम में प्रभु राम की प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा के प्रति लोगों की जिज्ञासा और अगाध श्रद्धा भाव का सम्मान करते हुए प्रदेश सरकार ने रामलला दर्शन योजना प्रारंभ करने का निर्णय लिया है, इसके तहत प्रतिवर्ष हजारों लोगों को अयोध्या धाम तथा काशी विश्वनाथ धाम, प्रयाग राज की तीर्थयात्रा कराई जाएगी। सामान्य परिवारों के लिए प्रतिमाह 400 यूनिट तक आधे दाम पर बिजली प्रदान करने का निर्णय लिया गया है।
प्रदेश सरकार ने प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्य योजना के अंतर्गत दिसम्बर 2028 तक नि:शुल्क चावल प्रदाय करने का निर्णय लिया है। छत्तीसगढ़ में इस योजना से 67 लाख 94 हजार अंत्योदय, प्राथमिकता, एकल निराश्रित एवं नि:शक्तजन राशन कार्डधारियों को मासिक पात्रता का चावल दिया जाएगा। महिलाओं का जीवन आसान बनाने में प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना की बड़ी भूमिका रही है। इसके अंतर्गत प्रदेश में अब तक 36 लाख से अधिक नवीन गैस कनेक्शन जारी किए गए हैं। छत्तीसगढ़ के प्रमुख 5 शक्तिपीठों कुदरगढ़, चन्द्रपुर, रतनपुर, दंतेवाड़ा तथा डोंगरगढ़ को चारधाम की तर्ज पर विकसित करने की कार्ययोजना बनाई जा रही है। तीन नदियों की संगम राजिम मेले की राष्ट्रीय स्तर पर पुन: पहचान दिलाने के लिए राजिम कुंभ (कल्प) का आयोजन किया जाएगा। छत्तीसगढ़ के समन्वित विकास के लिए कटघोरा से डोंगरगढ़ तक रेललाईन निर्माण के लिए 300 करोड़ रूपए का बजट प्रावधान किया गया है।
छत्तीसगढ़ के तीन करोड़ लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाने के लिए राज्य सरकार द्वारा वर्ष 2024-25 के लिए 01 लाख 47 हजार 446 करोड़ का बजट प्रावधान किया गया है। यह बजट सभी वर्गों के समावेशी विकास को सुनिश्चित करने वाले और विकसित छत्तीसगढ़ के सपने को साकार करने वाला बजट है। अमृत काल का छत्तीसगढ़ प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के वर्ष 2047 तक विकसित भारत के निर्माण के लक्ष्य को हासिल करने में अग्रणी भूमिका निभाएगा।
छगनलाल लोन्हारे, उप संचालक
राजशेखर चौबे
पिछले दस वर्षों में तमाम गारंटियों के बावजूद भी किसानों की आय दुगनी नहीं हो सकी परंतु विश्व के सबसे बड़े राजनीतिक दल की आय जरूर दुगनी से भी अधिक हो गई है। भारतीय जनता पार्टी को 2014 से 2024 के बीच 6566 करोड़ रुपए चंदा मिला है जबकि 2004 से 2014 के बीच यह चंदा 3272 करोड़ रुपए था। इसी दौरान सबसे पुराने राजनीतिक दल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की आय 3982 करोड़ रुपए ( 2004 से 2014 के बीच ) से घटकर 1123 करोड़ रुपए (2014 से 2024 के बीच ) रह गई है। सत्ता का सीधा संबंध उस दल को मिलने वाले करपोरेटीय चंदा से होता है। वैसे भोले भाले लोग इससे इत्तफ़ाक नहीं रखते होंगे। फरवरी 2017 के दिनों को याद कीजिए जब पारदर्शिता की थोड़ी-बहुत गारंटी होती थी। उन दिनों राजनीतिक दलों को चेक के जरिए चंदा प्राप्त होता था और उन्हें इसकी पूरी जानकारी देनी होती थी। राजनीतिक दल चुनाव आयोग को चंदा देने वालों के नाम और प्राप्त राशि की जानकारी देते थे। केंद्र सरकार द्वारा वित्त अधिनियम 2017 द्वारा इलेक्टोरल बांड लाया गया था।
इसके अंतर्गत व्यक्ति, संस्था या कारपोरेट एक करोड़ से ऊपर के मूल्य वर्ग में इलेक्टोरल बांड के रूप में सियासी दलों को चंदा दे सकते थे। उनके नाम गोपनीय रखे जाने थे । इस काम के लिए स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया को अधिकृत किया गया था। इस बिल को मनी बिल के रूप में पास कराया गया। इसके लिए आर बी आई एक्ट, जनप्रतिनिधित्व कानून और आयकर कानून में संशोधन किए गए थे। राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता का दावा कर इस अपारदर्शी इलेक्टोरल बांड की घोषणा की गई थी। इस कानून की पारदर्शिता यही थी कि चंदा देने वालों के नाम और पहचान गुप्त रखे जाने थे। इस कानून को लोकतंत्र के रक्षकों ने उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी थी।
लोकसभा चुनाव के ठीक पहले सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में 2018 में लाई गई इलेक्टोरल बांड योजना को असंवैधानिक बताकर तत्काल प्रभाव से रद्द कर दिया है । संविधान पीठ ने आदेश दिया है कि इस बांड को खरीदने वाले इसे भुनाने वालों और इससे मिली राशि को 13 मार्च 2024 तक सार्वजनिक किया जाए । सुप्रीम कोर्ट ने स्टेट बैंक आफ इंडिया को आदेश दिया है कि वह 12 अप्रैल 2019 से अब तक बिके इलेक्टोरल बांड की पूरी जानकारी निर्वाचन आयोग को दे । सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश माननीय डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने कहा है कि यह कानून संविधान के अनुच्छेद 19 (1ए ) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सूचना के अधिकार के संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन है । कोर्ट ने कहा कि इलेक्टोरल बांड से मिलने वाले चंदे की जानकारी सार्वजनिक होनी चाहिए। इन बांड से यह पता नहीं चलता कि चंदा कौन दे रहा है। अपने इस अहम निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कहा- यह भी पता नहीं चलता कि क्या कॉर्पोरेट किसी खास नीति के समर्थन में चंदा दे रहे हैं। माननीय मुख्य न्यायाधीश ने अपने फैसले में कहा कि लोकतंत्र में सभी नागरिकों के समान अधिकार हैं। इसी तरह न्यायाधीश संजीव खन्ना ने अपने फैसले में कहा कि लोकतंत्र में मतदाता के जानने का अधिकार दानदाता की गोपनीयता से अधिक महत्वपूर्ण है। कॉर्पोरेट दानदाताओं और सियासी फायदा पाने वालों के पारस्परिक लाभ की व्यवस्था एक तरह की मनी लॉन्ड्रिंग है ( आप भी जानते हैं कि इस मनी लॉन्ड्रिंग पर ई डी भी कुछ करने में असमर्थ है )। उन्होंने आगे कहा कि सियासी दलों को मिलने वाले फंड में गोपनीयता नहीं पारदर्शिता जरूरी है। कोर्ट ने केंद्र सरकार के इस तर्क को भी नहीं माना कि यह योजना राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता और काले धन पर अंकुश के लिए लाई गई थी। इस बिल के तहत आर बी आई एक्ट जनप्रतिनिधित्व कानून और आयकर कानून में किए गए संशोधनों को भी कोर्ट ने रद्द कर दिया है।
इस कानून के पक्ष में केंद्र सरकार की केवल दो दलील है- पारदर्शिता व काले धन पर अंकुश और दानदाता की गोपनीयता। इस कानून को पारदर्शी बताना हास्यास्पद है क्योंकि इसमें दानदाता का नाम गुप्त है। पारदर्शी कानून द्वारा ही काले धन पर अंकुश लगाया जा सकता है। इसके अंतर्गत घाटे में रहने वाली कंपनी भी इलेक्टोरल बांड के जरिए राजनीतिक दलों को दान कर सकती है। लोकतंत्र में मतदाता के जानने का अधिकार दानदाता की गोपनीयता से अधिक महत्वपूर्ण है- यह बात सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में स्पष्ट तौर पर कही है। इस बात पर कॉरपोरेट और नेताओं को छोडक़र सभी सहमत होंगे। केंद्र सरकार ने इस कानून को चुनावी रिफॉर्म करार दिया था। यह देश को लोकतंत्र से दूर ले जाने वाला कानून साबित हुआ।
गोपनीय दानदाताओं की पूरी सूची एस बी आई तथा अन्य केंद्रीय एजेंसियों के लिए गोपनीय नहीं होती। स्वाभाविक रूप से शासन को भी इसकी जानकारी होती होगी। यह गोपनीयता किसके लिए है यह बात जग जाहिर है । कॉर्पोरेट जो भी काम करते हैं अपने फायदे के लिए ही करते हैं । राजनीतिक दलों को चंदा देने का उद्देश्य हम सब जानते हैं । इस मामले में ह्नह्वद्बस्र श्चह्म्श ह्नह्वश यानी प्रतिदान से इंकार नहीं किया जा सकता ।
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि राजनीतिक दलों को चुनाव लडऩे व अन्य कार्यों के लिए पैसे की जरूरत होती है । इस फंड के लिए राजनीतिक दलों को कई अनैतिक व अवैध कार्य भी करने पड़ते हैं। इसे रोकने के लिए उनके लिए फंड की व्यवस्था जरूरी है एक ऐसा कानून बनाया जा सकता है कि कारपोरेट और अमीर लोग सीधे चुनाव आयोग को चंदा दें और उसका बंटवारा उनके सांसद और विधायिका में प्रतिनिधित्व के समानुपातिक हो (वैसे सत्तारूढ़ दल को लगभग उसके प्रतिनिधित्व के अनुपात में ही चंदा मिला है)।
दानदाताओं के नाम भी सार्वजनिक किए जाने चाहिए ताकि पारदर्शिता बना बनी रहे । ऐसा करने से ह्नह्वद्बस्र श्चह्म्श ह्नह्वश यानी प्रतिदान की संभावना भी कम हो जाएगी क्योंकि चंदा किसी एक दल को नहीं चुनाव आयोग को दिया जाएगा।
सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ का यह ऐतिहासिक निर्णय लोकसभा चुनाव के थोड़ा पहले आया है। इस निर्णय को टालने, रोकने और रद्द करने के प्रयास जरूर किए जाएंगे। सुप्रीम कोर्ट और देश की जनता को भी जागरूक रहने की जरूरत है। भविष्य में क्या होगा यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा। इस ऐतिहासिक निर्णय के लिए देश के सर्वोच्च न्यायालय और माननीय न्यायाधीशों को साधुवाद। इलेक्टोरल बांड पर इस निर्णय को मैं जस्टिस डिलेड जस्टिस डिनाइड न कह कर देर आयद दुरुस्त आयद जरूर कहूंगा।
सिद्धार्थ ताबिश
ये समाज और इसकी संस्कृति हम इंसानों द्वारा डिज़ाइन की गई है। चाहे वो शादी ब्याह हो या त्यौहार चाहे वो रिश्ते हो या कर्मकांड सब कुछ हम इंसानों ने बनाया है और ये ऐसा नहीं कि जिस किसी ने भी इसे बनाया वो कोई बड़ी गहरी समझ वाला व्यक्ति रहा होगा। ये सब कुछ बहुत ही औसत बुद्धि के लोगों ने बनाया है।
बुद्धिमान लोगों ने कभी कोई भी सामाजिक नियम और बंधन नहीं बनाये.. जितने भी बड़े दार्शनिक हुवे हैं इस दुनिया में, उन्होंने कभी भी कोई कर्मकांड, धर्म या इंसानों की आजादी को बाँधने के लिए कोई नियम नहीं थोपे समाज पर इसलिए अगर आप समाज के किसी भी नियम को अपने जीवन और मरण का प्रश्न बनाते हैं तो आप दरअसल किसी आदिम और औसत बुद्धि के व्यक्ति के बनाये किसी नियम का बस अनुसरण भर कर रहे होते हैं।
सामाजिक नियम शाश्वत नहीं हैं। ये हर देश और प्रांत के अनुसार बदलते हैं। इसलिए इसे बहुत सीरियसली मत लीजिये। इसे आप हलके में और खेल की तरह अगर स्वीकार करने लग जायेंगे तो तमाम कलह, द्वेष, अवसाद, ईष्र्या, कुंठा और चिंता अपने आप आपके जीवन से दूर हो जायेगी। आप किसी भी सामाजिक नियम, कर्मकांड या बंधन को नहीं मानेंगे तब भी आप उतने ही इंसान रहेंगे जितना कोई भी जंगल और आपके समाज से दूर रहने वाला इंसान होता है।
उदाहरण के लिए, शादी करनी है तो कीजिये न करनी है तो मत कीजिये। ये कोई नियम नहीं है कि इसके बिना जीवन आपका अधूरा है या आप कुछ खो देंगे जीवन में। इस समाज ने शादी को ओवररेटेड बना के आपके सामने ऐसा प्रस्तुत किया है कि आप बचपन से उसी ‘धारणा’ में पाल के बड़े किए जाते हैं और शादी-ब्याह आपको शास्वत सत्य सा प्रतीत होने लगता है। ये नियम बस उस ‘कुरूप’ या ‘अक्षम’ पुरुष द्वारा बनाया गया था जिसे कोई भी लडक़ी ‘स्वत:’ प्रेम नहीं करती थी.. जिसे प्रेम मिलता है उसे कभी शादी की कोई ज़रूरत ही नहीं पड़ती.. मगर ये नियम ‘अक्षम’ व्यक्तियों की कुंठा से उपजा नियम है ताकि हर ‘अक्षम’ को भी संसर्ग के लिए स्त्री मिल सके जबकि ये प्राकृतिक नहीं है। दुनिया का कोई प्राणी किसी अक्षम नर या मादा से कभी संसर्ग नहीं करता है और न ही परिवार बढ़ाता है.. ये केवल इंसान ही करते हैं।
घनाराम साहू
राज्य सरकार द्वारा गठित क्वांटिफिएबल डाटा कमीशन के रिपोर्ट के लीक होने का समाचार अखबारों में प्रकाशित होने के बाद जाति की राजनीति करने वाले कुछ लोगों में कोहराम मचा हुआ है ।
छत्तीसगढ़ में जातीय गणना का अभी तक तीन ऐतिहासिक प्रयास हुए हैं। इतिहास के विद्यार्थी जानते हैं कि सर्वप्रथम सन 1820 में रतनपुर राज्य के ब्रिटिश अधीक्षक कर्नल एग्न्यु ने परिवारों की गणना कराई थी तब रतनपुर राज्य में बस्तर और सरगुजा संभाग के क्षेत्र शामिल नहीं थे । तब की गणना के अनुसार राज्य में कुल 104063 परिवारों में से 9519 साहू परिवार थे अर्थात तब साहू समाज की आबादी 9.1त्न थी। इसके 110 वर्ष बाद ब्रिटिश सरकार ने अंतिम बार जातिगत जनगणना 1931 में कराया, तब वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य में कुल आबादी 6213443 थी जिसमें 582207 साहू थे यानी तब साहू समाज की आबादी 9.37त्न थी। इस गणना के 80 वर्ष बाद स्वतंत्र भारत में सन 2011 में जनगणना के साथ जातीय गणना भी कराई गई थी और उसके आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए लेकिन कुछ प्रभावशाली संगठनों तक आंकड़े पहुंच गए थे। ईसाइयों के अंतरराष्ट्रीय संगठन जोशुआ प्रोजेक्ट के वेबसाइट के अनुसार राज्य में साहू समाज की आबादी लगभग 11त्न होना बताया गया था ।
छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा सन् 2021 में आयोग गठित कर ओबीसी जातियों की आबादी की गणना कराई गई है जिसके अनुसार 29500000 में से लगभग 305000 साहू हैं यानी कुल आबादी के लगभग 12त्न और ओबीसी आबादी के 24त्न हैं। इस खबर से साहू सहित कुछ जातियों में उत्साह और कुछ में हताशा दिख रहा है । मैं इन आंकड़ों से न तो उत्साहित हूँ न ही हतोत्साहित क्योंकि प्रजा की संख्या चाहे जितनी हो जाए यदि वह बुद्धिमान नहीं है तो शासन-प्रशासन में अनुपातिक भागीदारी नहीं कर सकता है । मेरा मानना है कि स्वतंत्रता के 75 वर्ष बाद भी साहू समाज का नेतृत्व फिसड्डी सिद्ध हुआ है। जाति संगठन के ग्रुप में कभी सरकारी नीतियों यथा शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, कृषि इत्यादि पर चर्चा होते नहीं देखा हूं। हमारे सामाजिक नेता अपने सामाजिक दायित्वों को किनारे रखकर राजनीतिक पद-प्रतिष्ठा की प्राप्ति के लिए जोड़-तोड़ करते दिखते हैं । जिन्हें भी सामाजिक पद मिलते हैं वे सांसद/विधायक बनने तरह-तरह के खटकर्म करते हैं चाहे उसमें योग्यता हो या न हो।
अभी तक जितने नेताओं को विधायिका में अवसर मिला भी है उनका कार्य संतोषप्रद सिद्ध नहीं हुआ है। कुछ नेताओं ने तो अपने राजनीतिक आका को प्रसन्न करने समाज के हितों के विपरीत कार्य किए हैं। हमारा संगठन अभी स्वतंत्रता के उपरांत लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप कार्य न कर मध्ययुगीन सामंतवादी व्यवस्था को बनाए रखने के लिए थोपे गए सामाजिक नियमों के परिपालन में जुटा हुआ है।
मेरा मानना है कि जब तक समाज में उच्च शिक्षित योग्यताधारी लोग पदासीन नहीं होंगे तब तक किसी सामाजिक परिवर्तन की आशा रखना व्यर्थ है इसी तरह राजनीति में सक्षम, बौद्धिक संपन्न और समाज के प्रति सकारात्मक सोच वालों को विधायक/सांसद नहीं बनायेंगे तब तक समुचित राजनीतिक भागीदारी भी नहीं मिलेगी। इस प्रसंग में मैं गुजरात का उदाहरण देना उचित मानता हूं । गुजरात में तेली समूह की जाति मोध घांची जिनकी आबादी वहां 2त्न भी नहीं है से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी निकले हैं यानी योग्यता हो तो अल्पसंख्यक भी प्रदेश और देश का नेतृत्व कर सकते हैं।
किसान संगठनों और मोदी सरकार के बीच सुलह की कई कोशिशें अब तक सफल नहीं हुई हैं। मोदी सरकार ने किसानों की मांगों के मद्देनजऱ एक प्रस्ताव दिया था, इस प्रस्ताव को किसानों ने ख़ारिज कर दिया है।
हरियाणा-पंजाब शंभू बॉर्डर पर सोमवार रात किसान संगठनों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर ये जानकारी दी।
पंजाब किसान मज़दूर संघर्ष कमिटी के नेता सरवन सिंह पंढेर ने कहा- हम 21 फऱवरी को 11 बजे दिल्ली की तरफ़ बढ़ेंगे।
संयुक्त किसान मोर्चा (अराजनैतिक) के नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल ने कहा- ये फ़ैसला लिया गया है कि सरकार ने जो प्रस्ताव दिया है, उसकी नापतोल अगर की जाए तो उसमें कुछ नजऱ नहीं आ रहा।
ऐसे में सवाल ये है कि किसान संगठनों की मांग क्या थी और उस पर केंद्र सरकार की ओर से क्या प्रस्ताव दिया गया था।
किसान आंदोलन: प्रमुख मांगें
किसान संगठनों की मांग है कि 23 फसलों को न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी दिया जाए। एमएसपी को क़ानूनी अधिकार बनाने की मांग की जा रही है।
स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशों को अमल में लाया जाए। किसानों और खेत मज़दूरों को पेंशन दी जाए।
ऐसा होता है तो किसानों को उनकी लागत का डेढ़ गुना मूल्य मिलेगा। यानी अगर खेती करने में किसान के 10 रुपये लग रहे हैं तो वो चाहते हैं कि उन्हें फसल बेचने पर 15 रुपये मिलें। इसके अलावा लखीमपुर खीरी मामले में दोषियों को सज़ा देने की मांग भी किसान कर रहे हैं।
किसानों की मांग पर सरकार का प्रस्ताव
18 फऱवरी को किसानों के साथ बातचीत में केंद्र सरकार ने पाँच फसलों पर एमएसपी देने का प्रस्ताव दिया था।
इस प्रस्ताव के तहत किसानों को सरकारी एजेंसियों के साथ पाँच साल का करार करना था।
किसानों को दिए प्रस्ताव के बारे में केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने कहा, ''पैनल ने किसानों को एक समझौते का प्रस्ताव दिया है, जिसके तहत सरकारी एजेंसियां उनसे न्यूनतम समर्थन मूल्य पर पाँच साल तक दालें, मक्का और कपास खऱीदेंगी।’
गोयल ने बताया था, ‘नेशनल कोऑपरेटिव कंज़्यूमर्स फ़ेडरेशन (एनसीसीएफ़) और नेशनल एग्रीकल्चरल कोऑपरेटिव मार्केटिंग फेड़रेशन ऑफ़ इंडिया (नेफ़ेड) जैसी कोऑपरेटिव सोसाइटियां उन किसानों के साथ समझौता करेंगी, जो तूर, उड़द, मसूर दाल या मक्का उगाएंगे। फिर उनसे अगले पांच साल तक एमएसपी पर फसलें खऱीदी जाएंगी।’
गोयल ने कहा कि यह प्रस्ताव भी दिया गया है कि कॉटन कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया के माध्यम से किसानों से पांच साल तक एमएसपी पर कपास की खऱीद की जाएगी।
सरकार ने अपने प्रस्ताव में कपास की खेती को फिर से पुनर्जीवित करने के लिए पंजाब के किसानों से कहा।
गोयल ने कहा, ‘खऱीद की मात्रा की कोई सीमा नहीं होगी और इसके लिए एक पोर्टल तैयार किया जाएगा।’
गोयल ने दावा किया था- सरकार के प्रस्ताव से से पंजाब के भूमिगत जलस्तर में सुधार होगा और पहले से ही खऱाब हो रही ज़मीन को बंजर होने से रोका जा सकेगा।
सरकार के प्रस्ताव पर किसानों का रुख़
किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल ने कहा, ‘ये जो प्रस्ताव आया है, वह किसानों के पक्ष में नहीं है। हम इस प्रस्ताव को रद्द करते हैं।’
उन्होंने कहा, ‘हमारी सरकार बाहर से एक लाख 75 हजार करोड़ रुपये का पाम तेल मंगवाती है। वो सभी लोगों के बीमारी का कारण भी बन रहा है, फिर भी उसे मंगवाया जा रहा है। अगर यही पैसा देश के किसानों को तेल, बीज फसलें उगाने के लिए और उनके ऊपर एमएसपी की घोषणा करे और खऱीद की गारंटी दे, तो उस पैसे से काम चल सकता है।’
किसान संगठनों का कहना है कि अगर सभी फसलों पर एमएसपी दे दिया जाए तो भी सरकार के डेढ़ लाख करोड़ रुपये ही लगेंगे।
किसान नेता सरवन सिंह पंढेर ने कहा, ‘हमारी मांग वही है कि सरकार 23 फसलों पर एमएसपी गारंटी क़ानून बनाकर दे।’
पंढेर ने आरोप लगाया है कि जब हम केंद्र सरकार के मंत्रियों के साथ बैठक के लिए जाते हैं, तो वे तीन-तीन घंटे देरी से आते हैं जो कि ठीक बात नहीं है।
किसान आंदोलन: कब-कब क्या-क्या हुआ?
5 जून, 2020 को मोदी सरकार तीन कृषि बिल अध्यादेश के ज़रिए लेकर आई। इसी साल 14 सितंबर को केंद्र सरकार ने इन अध्यादेशों को संसद में पेश किया।
17 सितंबर, 2020 को ये तीनों कृषि बिल लोकसभा से पारित हुए। तीन दिन बाद 20 सितंबर को विपक्ष के भारी विरोध के बाद राज्यसभा में भी ये पारित हो गए।
27 सितंबर तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने इस पर मुहर लगाकर इसे क़ानून की शक्ल दे दी।
इस बीच किसानों का विरोध शुरू हुआ। नवंबर के आखिरी सप्ताह में किसान संगठनों ने दिल्ली चलो का नारा दिया और दिल्ली की सीमाओं पर जुटने लगे। प्रशासन के साथ उनकी टक्कर हुई और उन्होंने सीमा के पास ही अपने डेरा डाल दिया।
इसके बाद सरकार और किसान नेताओं के बीच बातचीत शुरू हुई जो कई दौर तक जारी रही। कृषि क़ानूनों में संशोधन के सरकार के प्रस्ताव को किसानों ने खारिज कर दिया।
दिबंबर 2020 में ये मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा जिसने जनवरी 2021 में तीनों कृषि कानूनों को स्थगित कर दिया।
लेकिन मामला थमा नहीं। पंजाब विधानसभा में इसके ख़िलाफ़ प्रस्ताव पारित हुआ, वहीं केंद्र इसे लेकर विपक्षी दलों की बैठक हुई।
किसानों ने एक बार फिर विरोध प्रदर्शन के लिए कमर कसी, इसे लेकर हरियाणा और उत्तर प्रदेश में किसान संगठनों की बैठकें शुरू हुईं। इस बीच उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में विरोध प्रदर्शन के दौरान कुल आठ लोगों की मौत गाड़ी से कुचले जाने से हो गई।
19 नवंबर 2021 को मोदी ने तीनों कृषि क़ानून वापिस लेने का ऐलान कर दिया। उन्होंने कहा, ‘महीने के अंत में शुरू होने जा रहे संसद सत्र में इन तीनों कृषि क़ानूनों को रद्द करने की संवैधानिक प्रक्रिया को पूरा किया जाएगा।’
2 दिसंबर को क़ानून मंत्रालय ने कृषि क़ानून निरस्तीकरण क़ानून, 2021 को अधिसूचित किया जिसके बाद किसानों ने अपना विरोध प्रदर्शन वापस लिया और वापस लौटने लगे। इसके बाद 9 फऱवरी 2022 को सरकार ने तीनों कृषि क़ानूनों को वापस ले लिया।
13 फरवरी 2024 को किसानों ने दिल्ली कूच का एलान किया। शंभू बॉर्डर पर किसानों को प्रशासन ने बैरिकेटिंग लगाकर रोक रखा है।(bbc.com/hindi)
तेज़ी से बदलती दुनिया, लगातार आगे बढ़ती टेक्नोलॉजी और रोज़मर्रा के जीवन में आते जा रहे बदलाव।
हमारा दिमाग़ इन सब कामों के लिए नहीं बना था, जो आज हम करते हैं। फिर भी हम इस आधुनिक दुनिया में अच्छे से ढल गए हैं और लगातार आ रहे बदलावों के हिसाब से ख़ुद को बदलते भी जा रहे हैं।
ये सब संभव हो पाया है हमारे ब्रेन यानी मस्तिष्क के कारण। एक ऐसा अंग जिसमें ख़ुद को ढालने, सिखाने और विकसित करने की ज़बरदस्त क्षमता है।
सवाल उठता है कि हम इस कमाल के अंग को कैसे स्वस्थ रख सकते हैं? क्या कोई ऐसा तरीक़ा है जिससे हम मस्तिष्क की क्षमता को बढ़ाकर इसे तेज़-तर्रार बना सकते हैं?
बीबीसी की विज्ञान पत्रकार मेलिसा होगेनबूम ने इन्हीं सवालों का जवाब तलाशने के लिए नए शोधों का अध्ययन किया और कुछ विशेषज्ञों से बात की।
इंग्लैंड की सरे यूनिवर्सिटी में क्लीनिकल साइकोलॉजी के प्रोफ़ेसर थॉरस्ट्रीन बार्नहोफऱ ने मेलिसा को बताया कि हम अपने दिमाग़ की क्षमताओं को कई तरीक़े से बढ़ा सकते हैं।
वह बताते हैं, ‘कुछ ऐसी प्रक्रियाएं हैं, जो कुछ ही हफ़्तों में तनाव को कम करती हैं और न्यूरोप्लास्टिसिटी को बढ़ावा देती हैं। न्यूरोप्लास्टिसिटी बढऩे से डिमेंशिया जैसी बीमारियों को टाला जा सकता है और यहां तक कि मनोवैज्ञानिक सदमे से मस्तिष्क को पहुंचे नुक़सान को कम किया जा सकता है।’
न्यूरोप्लास्टिसिटी क्या होती है?
प्लास्टिसिटी हमारे दिमाग़ की उस क्षमता को कहा जाता है, जिसमें वह बाहर से आने वाली सूचनाओं के आधार पर ख़ुद में बदलाव लाता है।
लखनऊ में मनोवैज्ञानिक राजेश पांडे ने बीबीसी हिंदी के लिए आदर्श राठौर को बताया कि न्यूरोप्लास्टिसिटी वास्तव में हमारे दिमाग़ में मौजूद न्यूरॉन, जिन्हें नर्व सेल भी कहा जाता है, उनमें बनने और बदलने वाले कनेक्शन को कहा जाता है।
वह कहते हैं, ‘हमारा मस्तिष्क एक न्यूरल वायरिंग सिस्टम है। दिमाग़ में अरबों न्यूरॉन होते हैं। हमारे सेंसरी ऑर्गन (इंद्रियां) जैसे आंख, कान, नाक, मुंह और त्वचा बाहरी सूचनाओं को दिमाग़ तक ले जाते हैं। ये सूचनाएं न्यूरॉन के बीच कनेक्शन बनने से स्टोर होती हैं।’
‘जब हम पैदा होते हैं तो इन न्यूरॉन में बहुत कम कनेक्शन होते हैं। रिफ़्लेक्स वाले कनेक्शन पहले से होते हैं, जैसे कोई बच्चा गर्म चीज़ के संपर्क में आने पर हाथ पीछे कर लेगा। लेकिन सांप को वह मुंह में डाल लेगा क्योंकि उसके दिमाग़ में ऐसे कनेक्शन नहीं बने हैं कि सांप खतरनाक हो सकता है। फिर वह सीखता चला जाता है और न्यूरल कनेक्शन बनते चलते हैं।’
राजेश पांडे बताते हैं कि नए अनुभवों पर ये कनेक्शन बदलते भी हैं। इसी पूरी प्रक्रिया को न्यूरोप्लास्टिसिटी कहा जाता है। इंसान के सीखने, अनुभव बनाने और यादों को संजोने के पीछे यही प्रक्रिया होती है।
कैसे बढ़ाई जा सकती है न्यूरोप्लास्टिसिटी
प्रोफ़ेसर थॉर्स्टन बार्नहोफऱ का कहना है कि माइंड वान्डरिंग यानी मन के भटकने से स्ट्रेस बढ़ता है।
वह बताते हैं कि बार-बार एक ही चीज़ के बारे में सोचकर चिंता करना हानिकारक होता है क्योंकि इससे कॉर्टिसोल हार्मोन का स्तर बढ़ जाता है।
यह हार्मोन दिमाग़ के लिए हानिकारक होता है और न्यूरोप्लास्टिसिटी के लिए बाधा पैदा करता है। इससे बचने का तरीक़ा है- माइंडफ़ुलनेस यानी सचेत रहना।
माइंडफ़ुलनेस का सीधा मतलब है- अपने आसपास के माहौल, अपने विचारों और अपने सेंसरी अंगों (आंख, कान, नाक, मुंह, त्वचा) को लेकर सचेत रहना। यानी बिना ज़्यादा मनन किए इस पर ध्यान देना कि उस समय आप क्या महसूस कर रहे हैं।
मनोवैज्ञानिक राजेश पांडे बताते हैं, ‘आसान भाषा में समझें तो माइंडफ़ुलनेस का मतलब है- इस बारे में सचेत होना कि हमारे सेंसरी ऑर्गन के ज़रिये बाहर से क्या जानकारियां दिमाग़ में जा रही हैं और अंदर मौजूद जानकारियों का कैसे इस्तेमाल हो रहा है।’
मेडिटेशन का उदाहरण देते हुए वह कहते हैं, ‘आसान भाषा में कहें तो यह अपने सेंसरी ऑर्गन पर फ़ोकस करने की प्रक्रिया है। अपनी सांस पर ध्यान देना या यह महूसस करना कि मौसम गर्म है या ठंडा, क्या मैं ठीक से सुन पा रहा हूं, क्या आसपास कोई सुगंध है।’
‘इससे भी न्यूरल कनेक्शन बनते हैं। आप देखेंगे कि अगर कोई इंसान दिन में 15 मिनट ही इन सेंसरी अंगों पर ध्यान केंद्रित करे तो उसका चलना-फिरना, बोलना, हंसना, मुस्कुराना, सब बदल जाएगा।’
हाल ही में पता चला है कि न्यूरोप्लास्टिसिटी की प्रक्रिया के दौरान दिमाग़ की संरचना में भी बदलाव आता है।
इसकी परख के लिए मेलिसा होगेनबूम ने एक बार अपने ब्रेन का स्कैन करवाने के बाद छह हफ़्तों तक मेडिटेशन किया और फिर से स्कैन करवाया।
प्रोफ़ेसर बार्नहोफऱ ने पिछले और नए स्कैन में तुलना करने के बाद बताया कि छह हफ़्तों में मेलिसा के मस्तिष्क में न्यूरोप्लास्टिसिटी बढ़ गई थी।
उन्होंने कहा, ‘ब्रेन के राइट अमिगडला का आकार कम हुआ है। ऐसा स्ट्रेस में कमी आने से होता है। जिन लोगों में एंग्ज़ाइटी और तनाव होता है, उनमें यह बढ़ा होता है। हमने पहले भी देखा है कि माइंडफुलेस ट्रेनिंग से इसका आकार कम हुआ। साथ ही दिमाग़ के पिछले हिस्से में भी बदलाव आया है। इसका मतलब है कि दिमाग़ में भटकाव में कमी आई है।’
कसरत भी है मददगार
विशेषज्ञ कहते हैं कि दिमाग़ में न्यूरोप्लास्टिसिटी बढ़ाने के लिए कसरत का भी अहम योगदान हो सकता है। इटली के ‘सेंट्रो न्यूरोलेसी’ संस्थान के निदेशक प्रोफ़ेसर एंजले क्वॉट्रोने के मुताबिक़, अगर दिन में 30 मिनट एक्सराइज़ की जाए और एक सप्ताह में चार से पांच दिन किया जाए तो दिमाग़ पर इसका अच्छा असर पड़ता है।
यूनिवर्सिटी ऑफ़ ससेक्स में कंपेरेटिव कॉग्निशन की प्रोफ़ेसर गिलियन फ़ॉरेस्टर ने बताया कि मस्तिष्क में होने वाली गतिविधियों और बदलावों का शारीरिक हरकतों से गहरा संबंध है।
वह बताती हैं, ‘हमने देखा है कि अगर किसी को बोलने में दिक्कत है तो उसे हाथों से इशारे करते हुए बोलते समय सुविधा हो सकती है। दरअसल, हमारे दिमाग़ का जो हिस्सा बोलने में मदद करता है, वह मोटर डेक्स्टेरिटी यानी हाथों, पैरों या बांहों की मदद से काम करने में मदद करने वाले हिस्से से जुड़ा हुआ है। शायद ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि भाषा का विकास इशारों से हुआ है।’
स्कूल ऑफ साइकोलॉजी, बर्कबैक, यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन में डॉक्टर ओरी ऑसमी बताते हैं कि मेडिटेशन के अलावा शारीरिक कसरत से भी स्ट्रेस कम होता है।
वह कहते हैं, ‘हमारा दिमाग़ हर समय खुद में बदलाव ला रहा होता है। लेकिन बच्चों में यह प्रक्रिया तेजी से हो रही होती है। यह देखा गया है कि जो शिशु हाथ-पैर सामान्य स्तर पर हिलाते हैं, वे बाद में अच्छे से बोल सकते हैं। लेकिन जो ऐसा नहीं करते, उनमें से कुछ को बाद में बोलने या सामाजिक व्यवहार में दिक्कत हो सकती है।’
मनोवैज्ञानिक राजेश पांडे बताते हैं कि व्यायाम ही नहीं, म्यूजिक या भाषा सीखने जैसा कोई भी नया काम करने से न्यूरोप्लास्टिसिटी को बढ़ाया जा सकता है क्योंकि जब हम कुछ नया देखते, सीखते या सोचते हैं तो दिमाग में नए न्यूरल कनेक्शन बनते हैं।
वह कहते हैं, ‘इंसान का दिमाग़ आजीवन न्यूरल कनेक्शन बना सकता है। आप 80 साल की उम्र में भी नई भाषा सीख सकते हैं। नई जगह जाने, एक रूटीन तोडऩे और कुछ भी नया करने से बहुत फ़ायदा होता है। बस हमें उसे नए अनुभव देते रहना है।’
दिमाग को पहुंचे नुकसान का इलाज
इटली के ‘सेंट्रो न्यूरोलेसी’ संस्थान में न्यूरोलॉजिकल समस्याओं से जूझ रहे मरीजों का आधुनिक तकनीक की मदद से इस्तेमाल किया जाता है।
इस संस्थान के निदेशक प्रोफ़ेसर एंजले क्वॉट्रोने बताते हैं कि जो लोग चल-फिर नहीं पाते, उनके लिए विशेष गेम बनाए गए हैं। इससे उनके दिमाग़ को संकेत मिलते रहते हैं। इससे प्लास्टिसिटी बढ़ती है और दिमाग फिर से वो कनेक्शन बना पाता है, जो किसी हादसे या स्ट्रोक के कारण टूट गए होते हैं। इसे रीवायरिंग कहा जाता है।
इस काम में रोबॉटिक्स और करंट स्टिमुलेशन की मदद भी ली जाती है। करंट स्टिमुलेटर ऐसा उपकरण है, जो दिमाग में कमजोर हो चुके सिग्नल को बढ़ा देता है। इससे दिमाग को रीवायर करने में मदद मिलती है।
सीखने की प्रक्रिया भविष्य में होगी आसान
अभी तक यही माना जाता था कि न्यूरोप्लास्टिसिटी बच्चों में अधिक होती है। लेकिन अब दुनिया भर में वयस्कों में भी इसे दिमाग़ को एक्टिव रखने और उसे पहुंचे नुकसान को कम करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है।
यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैम्ब्रिज में एक्सपेरिमेंटल साइकोलॉजी की प्रोफ़ेसर ज़ोई कोर्तज़ी कहती हैं कि हर व्यक्ति के मस्तिष्क का सीखने का भी अपना रिदम (लय) होता है।
उन्होंने बीबीसी की विज्ञान पत्रकार मेलिसा होगेनबूम से कहा, ‘हर व्यक्ति का दिमाग़ अपनी लय में काम करता है। अगर उस व्यक्ति को उसके दिमाग के रिदम से सूचनाएं दी जाएं तो वह तेज़ी से सीख सकता है।’
यूनिवर्सिटी ऑफ कैम्ब्रिज में किए गए प्रयोग में लोगों को कुछ सवाल सुलझाने को दिए गए। फिर उनके दिमाग की इलेक्ट्रल एक्टिविटी को मापा गया। इससे अंदाजा लगा कि उनका दिमाग किस रिदम में काम कर रहा है। फिर उस रिदम के हिसाब से सवाल दिए गए तो वे बेहतर ढंग से उन्हें सुलझा पाए।
यह शोध अभी शुरुआती चरण में हैं और उम्मीद जताई जा रही है कि भविष्य में लोगों को उनके दिमाग के रिदम के हिसाब से बेहतर ढंग से सिखाया जा सकेगा, उनकी न्यूरोप्लास्टिसिटी बढ़ाई जा सकेगी। (bbc.com/hindi)
ई.प्रभात किशोर
भारतवर्ष में जाति आधारित जनगणना के लिए जनमानस की आवाज देश के विभिन्न कोनों में जोर पकड़ रही है।
जातीय जनगणना के अभाव में, सरकार समाज के पिछड़े और वंचित वर्गों के लिए अपनी समग्र विकासात्मक नीतियों और योजनाओं को तैयार करने हेतु 90 साल पुराने आंकड़ों पर निर्भर है। जाति और सामाजिक न्याय एक दूसरे के पूरक हैं और जातीय जनगणना सरकार को ‘जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ के आदर्श संकल्प के साथ कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने में सहायक सिद्ध होगी।
समाज के कमजोर वर्गों का समावेशी विकास किसी भी कल्याणकारी सरकार का संवैधानिक दायित्व और प्रतिबद्धता है। इसलिए, सामाजिक समानता के लिए जाति जनगणना महत्वपूर्ण है। समाज के एक छोटे से वर्ग का तर्क है कि इससे देश में विभिन्न समुदायों के बीच सामाजिक तनाव विकसित हो सकता है। मु_ी भर जातिवादी ताकतों का ऐसा काल्पनिक तर्क सामाजिक न्याय के साथ राष्ट्र के सर्वांगीण विकास के मार्ग में बाधा उत्पन्न कर रहा है। यदि धर्म आधारित और भाषा आधारित जनगणना समाज में विभाजन और वैमनस्य पैदा नहीं करती तो उनके दावे के अनुसार जातीय जनगणना समाज में मतभेद कैसे पैदा कर सकती है? वस्तुत: स्वतंत्रता प्राप्ति के पष्चात की जाने वाली विभिन्न जनगणनाओं को जाति-रहित नहीं कहा जा सकता, क्योंकि न केवल अनु. जाति और अनु. जनजाति की जातियां दर्ज की जा रही हैं, बल्कि धर्म आधारित जनगणना भी हो रही है। यह आमजन की समझ से परे है कि केंद्र अन्य पिछड़े वर्ग को समाहित कर पूरी तरह से जाति आधारित जनगणना करने से क्यों हिचकिचा रहा है।
जाति जनगणना का संदर्भ ऋग्वेद और कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी मिलता है। हालाँकि उस काल में जाति या वर्ग का वर्गीकरण इतना घिनौना नहीं था जितना आज देखा जा रहा है। भारत के महापंजीयक के द्वारा 1881 में ब्रिटिश शासन के तहत जातिवार गणना की शुरुआत की गई थी, जो 1931 तक अनवरत जारी रही। 1941 की जनगणना में भी, जाति-वार आंकड़े संग्रहित किए गए थे, लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के कारण इस अभ्यास में कटौती की गई थी और अंतिम आंकड़े प्रकाशित नहीं किये जा सके। 1951 में, जनगणना की प्रक्रिया में व्यापक परिवर्तन किये गये और अनु. जाति एवं अनु. जनजाति को छोडक़र अन्य जातियों का दस्तावेजीकरण बंद कर दिया गया। इस प्रकार 1931 की जनगणना, जिसमें आज के पाकिस्तान और बांग्ला देशी भूभाग भी शामिल थे, भारत में अंतिम जाति-आधारित जनगणना बन गई।
काका कालेलकर की अध्यक्षता वाले पहले पिछड़ा वर्ग आयोग ने वर्ष 1955 में समर्पित अपने प्रतिवेदन में 1961 की जनगणना में जनसंख्या की जाति-वार गणना करने की अनुशंसा की थी। दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग, यानी मंडल आयोग ने भी इस बात पर प्रकाश डाला है कि उनकी रिपोर्ट 1931 की जनगणना के आंकड़ों पर आधारित होने के कारण पर्याप्त नहीं है। इसलिए अगली, यानी 2001 की जनगणना जाति आधारित होनी चाहिए। आयोग के पास पिछली आधी सदी में विभिन्न समुदायों और धार्मिक समूहों की जनसंख्या वृद्धि दर को एकसमान मानने के अलावा कोई रास्ता नहीं था, जबकि यह यथार्थ से कोसों दूर था। 1951 और 2011 के जनगणना रिकॉर्ड से पता चलता है कि हिंदुओं की आबादी 84.1 प्रतिशत से घटकर 79.30 प्रतिशत हो गई है, जबकि मुस्लिमों की जनसंख्या 9.8 प्रतिशत से बढक़र 14.23 प्रतिशत हो गई है। इसी प्रकार अनु. जाति और अनु. जनजाति की जनसंख्या क्रमश: 14 प्रतिशत से बढक़र 16.63 प्रतिशत और 6.23 प्रतिशत से बढक़र 8.61 प्रतिशत हो गई है। जाहिर है, सभी समुदायों की एकसमान दशकीय वृद्धि की धारणा एक तमाशा भर है।
दिसंबर 1996 में एच. डी. देवेगौड़ा मंत्रिमंडल ने 2001 की जनगणना में जाति-वार गणना का निर्णय लिया था।
परन्तु 2001 में वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने तथाकथित जाति-पक्षपात की दलील पर निर्णय को रद्द कर दिया। जून 2010 में, यूपीए सरकार ने भी संसद के दोनों सदनों में चर्चा के बाद जाति जनगणना के लिए अपनी प्रतिबद्धता प्रकट की थी। लेकिन 2011 की मूल दशकीय जनगणना पंजी में हीं तत्संबंधी कॉलम जोडऩे के बजाय, एक अलग सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना (एसईसीसी) शुरू की गई, जिसकी अंतिम रिपोर्ट न तो पूर्ण हुई और न हीं सार्वजनिक की गई। 31 अगस्त 2018 को, 2021 की जनगणना कार्य की प्रगति की समीक्षा के बाद, तत्कालीन गृह मंत्री ने पहली बार अन्य पिछड़े वर्ग का आंकड़ा भी संग्रहित करने का वादा किया था, लेकिन केन्द्र सरकार ने 2021 में लोकसभा में इससे इन्कार करते हुए यू-टर्न ले लिया।
जाति-आधारित पूर्ण जनगणना की मांग संसद में हर बार उठती रही है। प्राय: सभी राजनीतिक और सामाजिक संस्थायें इसके पक्ष में हैं। बिहार विधानसभा द्वारा 17 फरवरी 2019 और फिर 27 फरवरी 2020 को जातीय जनगणना हेतु सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया गया था। 8 जनवरी 2021 को महाराष्ट्र विधानसभा में भी ऐसा प्रस्ताव पारित किया गया है। पिछले साल ओडिशा आग्रह करने वाला तीसरा राज्य बन गया था। हाल में तेलंगाना ने राज्य में जातीय जनगणना का निर्णय लिया है । 2021 में सामान्य जनगणना के साथ सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की गणना के लिए राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने भी केन्द्र सरकार से आग्रह किया है। लेकिन, चूंकि केंद्र सरकार ने प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया है, इसलिए विभिन्न राज्य सरकारों को बिहार एवं कर्नाटक की तर्ज पर अपने स्वयं के संसाधनों पर जातीय जनगणना हेतु पहल करनी चाहिए।
कर्नाटक उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक राज्य सरकार को राज्य की कुल जनसंख्या में एक विशेष जाति का नवीनतम प्रतिशत प्रदान करने का निर्देश दिया था, जब भी सरकार किसी विशेष जाति को आरक्षण की सुविधा प्रदान करने की योजना बना रही हो। इसलिए, राज्य सरकार ने राज्य में विभिन्न जातियों की वर्तमान स्थिति जानने के लिए जाति जनगणना कराने का निर्णय लिया। महाराष्ट्र राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग ने राज्य सरकार द्वारा सामाजिक आर्थिक और जाति जनगणना की अनुशंसा की है।
जातीय जनगणना समय की आवश्यकता है, क्योंकि समाज के प्रत्येक वर्ग की सटीक जनसंख्या के बारे में विश्वसनीय और प्रामाणिक आंकड़ों की अनुपलब्धता, उनके बसाव और घनत्व का भौगोलिक क्षेत्र केंद्रित और परिणाम- विशिष्ट योजना सुनिश्चित करने में एक बड़ी चुनौती पेश कर रहा है। नवीनतम आँकड़े नीति-निर्माण और अनुसंधान के लिए आवश्यक तत्व हैं, क्योंकि यह नीति-निर्माताओं को लक्ष्य निर्धारित करने तथा नीतियों और कार्यों के योजना सूत्रण में सहायक होते है। जाति-वार जनसंख्या के नए मूल्यांकन के साथ, विभिन्न राज्यों में विभिन्न जातियों के आर्थिक अभाव के स्तर को निर्धारित किया जा सकता है और यह उन सभी के समान प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए आरक्षण नीति को तैयार करने में सहायक होगा।
(लेखक एक अभियंता और शिक्षाविद हैं।)
पाकिस्तान में रावलपिंडी के कमिश्नर लियाकत अली चट्टा ने आम चुनाव में धांधली के आरोप लगाए हैं। उन्होंने कहा कि इस धांधली में मुख्य चुनाव आयुक्त और मुख्य न्यायाधीश भी शामिल हैं। उनके आरोपों पर आयोग ने कहा है कि वह इनकी जल्द जांच कराएगा। उन्हें पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है।
रावलपिंडी क्रिकेट स्टेडियम में मीडिया से बात करते हुए कमिश्रर ने कहा, ‘मैं शांति से मरना चाहता हूं, मैं उस तरह की जिंदगी नहीं जीना चाहता जो मेरे साथ हो रहा है। इस डिवीजन के 13 एमएनए जिन्हें 70-70 हजार वोट मिले थे, वे हार गए थे, उन्हें नकली मुहरें लगाकर हराया गया।’
उन्होंने कहा, ‘यह (सब) मुझे पसंद नहीं आया, इसलिए मैंने अपने पद से, अपनी नौकरी से, हर चीज़ से इस्तीफा दे दिया है।’
कमिश्नर ने कहा, ‘मैंने जो किया है वह इतना बड़ा अपराध है। मैं खुद को पुलिस के हवाले कर दूंगा। मुझे उसकी कड़ी सजा मिलनी चाहिए।’
पाकिस्तान के चुनाव आयोग ने कहा है कि वह इन आरोपों की जल्द जांच कराएगा। लेकिन इस घटना ने पाकिस्तान के चुनावों की निष्पक्षता को लेकर उठी शंकाओं को एक बार फिर से रेखांकित कर दिया है।
पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) की प्रतिक्रिया
पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) की नेता मरियम औरंगजेब ने कार्यवाहक सरकार से रावलपिंडी के कमिश्नर लियाकत अली चट्टा का नाम एग्जिट कंट्रोल लिस्ट में डालने और उनकी जांच करने की मांग की है।
शनिवार को लाहौर में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान मरियम औरंगजेब ने कहा कि चुनाव कराना कमिश्नर की नहीं बल्कि रिटर्निंग ऑफिसर्स और डिप्टी रिटर्निंग ऑफिसर्स की जिम्मेदारी है।
उन्होंने कहा कि कमिश्नर न तो रेटिंग अधिकारी हैं और न ही डिप्टी रेटिंग अधिकारी हैं। मरियम औरंगजेब ने आगे कहा कि कोई भी उम्मीदवार 50 हजार वोटों की बढ़त से नहीं जीता है।
उनके अनुसार, आयुक्त के पास ऐसा कोई अधिकार नहीं है जो उन्हें चुनाव परिणामों की तैयारी तक पहुंच प्रदान करे।
पीएमएल (एन) नेता ने कार्यवाहक सरकार से मांग की कि लियाकत अली चट्टा के पूरे रिकॉर्ड को कब्ज़े में लिया जाए और जांच की जाए कि वह किसके संपर्क में थे और उसकी दैनिक गतिविधियों की जांच की जाए।’
चीफ जस्टिस काजी फैज ईसा ने क्या कहा
पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश काजी फैज ईसा ने रावलपिंडी डिविजन के उपायुक्त लियाकत अली चट्टा द्वारा आम चुनावों में कथित धांधली से संबंधित आरोपों से इनकार किया है।
मुख्य न्यायाधीश क़ाज़ी फ़ैज़ ईसा ने शनिवार को सुप्रीम कोर्ट परिसर में मीडिया प्रतिनिधियों से बात करते हुए लियाकत अली चट्टा के आरोपों पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि ‘आप जो आरोप लगा रहे हैं वह बेबुनियाद है, इसमें कोई सच्चाई नहीं है। न ही आप कोई सबूत पेश करते हैं।’
इन आरोपों पर जवाब देते हुए चीफ़ जस्टिस क़ाज़ी फ़ैज़ ईसा ने कहा, ‘आप कोई भी आरोप लगा सकते हैं, कल मुझ पर चोरी या हत्या का आरोप लगा दीजिएगा।’
उन्होंने कहा कि आरोप लगाना लोगों का अधिकार है, लेकिन साथ ही सबूत भी देना होता है।
बता दें कि इस वक्त सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के चैंबर में कमिश्नर रावलपिंडी के आरोपों पर सलाह-मशविरा की बैठक चल रही है। इस बैठक में जस्टिस मुनीब अख्तर, जस्टिस याह्या अफरीदी, जस्टिस आयशा मलिक और जस्टिस अतहर मनुल्लाह मौजूद हैं।
इस बैठक में रावलपिंडी कमिश्नर के आरोपों की समीक्षा की जा रही है और इस बात पर विचार-विमर्श किया जा रहा है कि इस मुद्दे पर नोटिस लिया जाए या नहीं।
पीटीआई ने मुख्य चुनाव आयुक्त के इस्तीफे की मांग की
पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी ने रावलपिंडी के कमिश्नर लियाकत अली चट्टा के चुनाव में धांधली के आरोप पर मुख्य चुनाव आयुक्त सिकंदर सुल्तान राजा के इस्तीफे की मांग की है।
पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ के प्रवक्ता ने शनिवार को एक बयान में कहा कि रावलपिंडी चुनाव में धांधली की जिम्मेदारी स्वीकार करने के बाद मुख्य चुनाव आयुक्त के पास पद पर बने रहने का कोई संवैधानिक और नैतिक आधार नहीं बचा है।
पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ के प्रवक्ता का कहना है कि रावलपिंडी के कमिश्नर के बयान ने उनकी पार्टी की स्थिति का समर्थन और पुष्टि की है कि चुनाव में जनादेश की 'चोरी' हुई है।
बता दें कि आम चुनाव में कथित धांधली के खिलाफ पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ आज देशभर में विरोध प्रदर्शन कर रही है।
जमीयत-ए-इस्लामी के नेता का मामला
पाकिस्तान के विवादास्पद चुनावों में जीतने वाले जमीयत-ए-इस्लामी के हाफिज नईम उर रहमान ने अपनी सीट छोडऩे का एलान इसी हफ्ते किया था।
उनका कहना था कि वोटिंग के दौरान उन्हें जिताने के लिए धांधली की गई थी।
जमीयत-ए-इस्लामी के नेता को प्रांतीय विधानसभा की सीट नंबर पीएस-129 से विजेता घोषित किया गया था। ये सीट कराची शहर में पड़ती है।
लेकिन इस हफ्ते उन्होंने दावा किया कि पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान की पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ के समर्थन से चुनाव लड़ रहे उम्मीदवार ने उनसे कहीं ज़्यादा वोट हासिल किए थे लेकिन बाद में उस उम्मीदवार के कुल मतों की संख्या को कम कर दिया गया था।
इतना ही नहीं, हाफिज नईम उर रहमान ने इसके बाद सीट छोडऩे का एलान कर दिया। हाफिज़़ नईम उर रहमान ने सोमवार को अपनी पार्टी के एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, ‘अगर कोई हमें अवैध तरीके से जिताना चाहता है तो हम इसे स्वीकार नहीं करेंगे।’
उन्होंने कहा, ‘जनता की राय का सम्मान किया जाना चाहिए। विजेता को जीतने दिया जाए और पराजित उम्मीदवार को हारने दिया जाए। किसी को कुछ भी ज़्यादा नहीं मिलना चाहिए।’
हाफिज़़ नईम उर रहमान ने बताया कि उन्हें 26 हज़ार से अधिक वोट मिले थे जबकि स्वतंत्र उम्मीदवार सैफ़ बारी को 31 हज़ार वोट मिले थे। बाद में पीटीआई समर्थित उम्मीदवार सैफ़ बारी के हिस्से में 11 हज़ार वोट ही दिखाए गए।
पाकिस्तान के निर्वाचन आयोग ने हाफिज़़ नईम उर रहमान के लगाए आरोपों को खारिज किया है।
वोटों की धोखाधड़ी और दखलंदाज़ी के आरोप
इन चुनावों में बड़े पैमाने पर वोटों की धोखाधड़ी और दखलंदाज़ी के आरोप लगे हैं।
कहा जाता है कि पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के समर्थन से चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों की संभावना को नुकसान पहुंचाने के लिए ये गड़बडिय़ां की गई हैं।
पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान पिछले साल के अगस्त महीने से ही जेल में हैं। उनकी पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ को चुनाव लडऩे से अयोग्य करार दे दिया गया था।
यहां तक कि पार्टी के चुनाव चिह्न बल्ले को भी जब्त कर लिया गया।
इसका सीधा मतलब ये था कि पीटीआई के उम्मीदवारों को स्वतंत्र प्रत्याशी की हैसियत से चुनाव लडऩा पड़ा।
स्वतंत्र उम्मीदवारों की जीत
लेकिन इन तमाम बाधाओं के बावजूद देश भर में मतदाताओं ने बड़े पैमाने पर चुनावों में हिस्सा लिया और इमरान ख़ान के समर्थन में मतदान किया।
265 सदस्यों वाली नेशनल असेंबली में पीटीआई समर्थित 93 स्वतंत्र उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की।
इसके साथ ही नेशनल असेंबली में इन स्वतंत्र उम्मीदवारों का गुट किसी अन्य पार्टी से कहीं आगे था।
हालांकि पीटीआई का कहना है कि उसके उम्मीदवारों ने अधिक सीटों पर जीत दर्ज की है और उनके चुनाव जीतने का अंतर भी कहीं अधिक है।
पाकिस्तान में बनेगी गठबंधन सरकार
पीटीआई की कामयाबी के बावजूद इमरान खान के विरोधी राजनेताओं नवाज़ शरीफ़ की पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) और बिलावल भुट्टो जऱदारी की पार्टी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने इस हफ़्ते की शुरुआत में बताया कि नई सरकार के गठन के लिए उनके बीच समझौता हो गया है। (बाकी
पिछले हफ़्ते हुए चुनावों में पीएमएल (एन) को 75 सीटें मिली हैं जबकि तीसरे स्थान पर रही पीपीपी के खाते में 54 सीटें आई हैं।
गठबंधन सरकार के गठन के लिए उन्होंने एमक्यूएम जैसी क्षेत्रीय और छोटी पार्टियों के साथ भी करार किया है।
इसके अलावा राजनीतिक दलों को महिलाओं और गैर मुसलमानों के लिए आरक्षित 70 सीटें भी मिलेंगी।
ये अतिरिक्त सीटें स्वतंत्र उम्मीदवारों को हासिल नहीं हैं।
पीएमएल (एन) और पीपीपी का गठबंधन
इस गणित का ये भी मतलब है कि सरकार गठन के लिए जरूरी 169 सीटें इस गठबंधन को आसानी से मिल जाएंगी।
साल 2022 में इमरान खान को सत्ता से बेदखल करने के लिए पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने हाथ मिलाया था।
नवाज शरीफ के भाई शहबाज शरीफ ने उस वक्त प्रधानमंत्री पद का दायित्व संभाला था।
इस बार भी उन्हें देश के नए नेता के तौर पर प्रोजेक्ट किया जा रहा है।
इमरान ख़ान को संसद में अविश्वास प्रस्ताव के जरिए प्रधानमंत्री के पद से हटाया गया था। उसके बाद उन पर कई आपराधिक आरोप लगाए गए थे।
चुनाव के ठीक पहले उन्हें कई आरोपों में 14 साल जेल की सज़ा सुनाई गई थी। उन्हें दी गई कई सजाओं पर एक साथ तामील होगी।
71 वर्षीय इमरान ख़ान का कहना है कि उन्हें झूठे मुक़दमों में फंसाया गया है और ये उनके खिलाफ की गई राजनीतिक साजि़शों के तहत हुआ है।
पाकिस्तान की केयर टेकर सरकार इमरान ख़ान के इन आरोपों को खारिज करती है। (bbc.com/hindi)
साल 2017 में तंत्रिका विज्ञानी और युनिवर्सिटी कॉलेज लंदन की क्लायमेट एक्शन युनिट के निदेशक क्रिस डी मेयर ने वैज्ञानिकों, वित्त पेशेवरों और नीति निर्माताओं के साथ एक मनोवैज्ञानिक अध्ययन किया था। उन्होंने इन क्षेत्रों से आए लोगों को समूह में बांटा – प्रत्येक समूह में छह व्यक्ति। फिर उन्हें जोखिम और अनिश्चितिता से सम्बंधित उनके व्यक्तिगत और व्यावसायिक अनुभवों के आधार पर कुछ प्रश्न और गतिविधियां करने को दीं। पाया गया कि लोग इस बात को लेकर आपस में एकमत और सहमत नहीं हो सके थे कि ‘जोखिम और अनिश्चितता’ क्या है। और तो और, इतने छोटे समूह में भी लोगों के परस्पर विरोधी और कट्टर मत थे।
इस नतीजे से डी मेयर को यह बात तुरंत समझ में आई कि क्यों जलवायु सम्मेलनों, समितियों वगैरह में सहभागी पेशेवर अक्सर एक-दूसरे की कही बातों को गलत समझते हैं। ऐसा इसलिए है कि बुनियादी शब्दों पर भी लोगों की अवधारणाएं या समझ बहुत भिन्न होती हैं। इसलिए कई बार हम किसी शब्द के माध्यम से जो कहना या समझाना चाहते हैं, ज़रूरी नहीं है कि सामने वाले को वही समझ आ रहा हो। जैसे शब्द ‘विकास’ के बारे में लोगों की समझ भिन्न हो सकती है, किसी के लिए विकास का मतलब अच्छी सडक़ें, जगमगाता शहर, बुलेट ट्रेन हो सकती है, वहीं किसी और के लिए लिए विकास का मतलब स्वच्छ पेयजल, अच्छी स्वास्थ्य सुविधा हो सकती है। और समझ में इसी भिन्नता के चलते जलवायु वैज्ञानिक अपने संदेश को अन्य लोगों तक पहुंचाने और उन्हें जागरूक करने में इतनी जद्दोजहद का सामना करते हैं, और बड़े वित्तीय संगठन प्राय: जलवायु परिवर्तन के खतरों को कम आंकते हैं।
अध्ययन यह भी बताता है कि इस तरह के वैचारिक मतभेद या फर्क हर जगह सामने आते हैं, लेकिन आम तौर पर लोग इन विविधताओं से बेखबर होते हैं। तंत्रिका विज्ञान के अध्ययन दर्शाते हैं कि ये फर्क इस बात पर आधारित होते हैं कि किसी चीज़ या शब्द के बारे में हमारे विचार या अवधारणाएं किस प्रकार निर्मित हुई हैं, और हमारे ऊपर किस तरह के राजनीतिक, भावनात्मक और चरित्रगत असर हुए हैं। जीवन भर के अनुभवों, हमारे कामों या विश्वासों से बनी सोच को बदलना असंभव नहीं तो मुश्किल ज़रूर होता है।
लेकिन दो तरीके इसमें मदद कर सकते हैं: एक, लोगों को इस बारे में सचेत बनाना कि हमारे अर्थ और उनकी समझ में फर्क है; दूसरा, उन्हें नई भाषा चुनने के लिए प्रोत्साहित करना जो अवधारणात्मक बोझ से मुक्त हो।
‘अवधारणा’ शब्द को परिभाषित करना भी कठिन है। मोटे तौर पर अवधारणा का मतलब है किसी शब्द को सुनते, पढ़ते, या उपयोग करते समय हमारे मन में उभरने वाले उसके विभिन्न गुण, उदाहरण और सम्बंध और ये काफी अलग-अलग हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, ‘पक्षी’ की अवधारणा में शामिल हो सकते हैं कि पंख, उडऩा, घोंसले बनाना, गोरैया। ये शब्दकोश में दी गई परिभाषाओं से भिन्न होती हैं, जो अडिग और विशिष्ट होती हैं जिन्हें आम तौर पर सीखना होता है। (स्रोत फीचर्स)
रूचिर गर्ग
जिंदगियां बचाने के लिया अंग दान करने वालों का ओडिशा में राजकीय समान के साथ अंतिम संस्कार किया जाएगा।
अंग दान जिंदगियां बचाने के लिए तो बेहद जरूरी है ही लेकिन यह समाज में वैज्ञानिक नजरिए के प्रसार की दिशा में भी महत्वपूर्ण कदम होता है।
चिकित्सा के क्षेत्र में नए अनुसंधानों से लेकर चिकित्सा विद्यार्थियों की पढ़ाई तक के लिए मृत व्यक्ति का शरीर बड़ी जरूरत होती है।
दुर्भाग्य से रीति-रिवाजों की जकडऩ आमतौर पर परिवारों को ऐसा फैसला करने से रोकती है। फिर भी अब इस दिशा में जागरूकता बढ़ी है और ओडिशा सरकार का यह फैसला ऐसी जकडऩ के मुकाबले भी लोगों को अंगदान,शरीर दान के लिए निश्चित ही प्रोत्साहित करेगा।
अंगदान को प्रोत्साहित करने के लिए ओडिशा सरकार पहले भी महत्वपूर्ण कदम उठा चुकी है।
यह खबर आज ऐसे मौके पर आई है जब रायपुर के वरिष्ठ सीपीएम नेता और एलआईसी की कर्मचारी यूनियन के राष्ट्रीय नेता बिश्वनाथ सान्याल जी के नौजवान बेटे विप्लव सान्याल की देह आज ही रायपुर के डॉक्टर भीमराव अंबेडकर शासकीय मेडिकल कॉलेज को सौंपी जाएगी।
विप्लव मेरा बहुत करीबी बच्चा था। उसे अपनी आंखों के सामने बड़ा होता देखा है। लंदन में एक भारतीय कंपनी में नौकरी करते हुए पिछले दिनों उसकी अत्यंत दुर्भाग्यजनक मृत्यु हो गई थी।इस नौजवान की असमय मृत्यु ने झकझोर कर रख दिया। विप्लव जिसे प्यार से बाबू पुकारते थे बस थोड़ी देर में विमान से रायपुर पहुंचेगा और फिर चिकित्सा विज्ञान की राह रोशन करने में मददगार अंतिम सफर पर निकल पड़ेगा।
मैंने भी बहुत पहले ही तय किया है कि मृत्यु के बाद मुझे डॉक्टर अंबेडकर मेडिकल कॉलेज को सौंपा जाए।
मध्य प्रदेश खनिज निगम के पूर्व एमडी रहे मेरे श्वसुर स्मृति शेष विनय पाठक ने मृत्यु पूर्व ही यह इच्छा व्यक्त कर दी थी और परिवार ने उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए उनकी देह डॉक्टर अंबेडकर मेडिकल कॉलेज को सौंपा था। उनकी आंखें भी तभी किसी के काम आ गईं थीं।
हमारे संपादक सुनील कुमार जी के पिता की भी देह इसी मेडिकल कॉलेज को दान की गई थी।
देहदान, अंगदान जीवन के ऋण से भी उबरने का मौका है।
मानवता भी जिंदाबाद होगी।
प्रिय बाबू को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि।
फैसल मोहम्मद अली
सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टोरल बॉन्ड को ‘अवैध’ बता दिया है।
सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले के बाद अब सवाल यह उठ रहा है कि राजनीतिक चंदे को लेकर भविष्य में कौन सी ऐसी व्यवस्था लागू हो जिसकी पारदर्शिता पर सवाल खड़े न हों?
सवाल ये भी है कि गुरुवार को देश की सबसे ऊंची अदालत के निर्णय के बाद राजनीतिक दलों की फंडिग आगे किस तरह से होगी और क्या बॉन्ड्स को असंवैधानिक मात्र कऱार देने से सबकुछ बिल्कुल ठीक हो जाएगा?
सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की खंडपीठ ने केंद्र की मोदी सरकार के साल 2018 में लाए गए इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को ग़ैर-क़ानूनी कऱार दिया है क्योंकि इसके तहत चंदा देने वाले की पहचान गुप्त रखी जा सकती थी।
सरकार की स्कीम को अदालत में चैलेंज करने वालों का कहना था कि इसमें काला धन को सफ़ेद किए जाने से लेकर, किसी काम को किए जाने के समझौते के तहत बड़ी कंपनियों या व्यक्तियों से चंदा लिया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने इन दलीलों को सही माना और ये भी कहा कि चंदा देने वाले व्यक्ति या कंपनी का नाम न बताने का क़ानून सूचना के अधिकार का उल्लंघन है।
इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम के तहत स्टेट बैंक इंडिया साल भर में चार बार इलेक्टोरल बॉन्ड्स इश्यू करता था।
इसे कोई भी व्यक्ति/कंपनी बैंक से खऱीदकर किसी राजनीतिक दल को चंदे के तौर पर दे सकता था।
इस बॉन्ड को पंद्रह दिनों के भीतर कैश कराना होता था।
आम चुनावों के समय या साल में इस स्कीम को तीस दिनों के लिए फिर से लागू किया जा सकता था– यानी इसकी खऱीद-बिक्री हो सकती थी।
अदालत द्वारा इस स्कीम को असंवैधानिक कऱार देने के निर्णय के बाद अब आगे क्या होगा और भविष्य में राजनीतिक चंदों को लेकर कौन सी बेहतर व्यवस्था लागू हो जैसे प्रश्न सामने आ रहे हैं।
स्टेट फंडिग
चंदे और उसकी पारदर्शिता पर जानकार चुनाव के ख़र्च के लिए सरकार द्वारा सभी दलों को पैसे दिए जाने से लेकर, आयकर क़ानून में बदलाव और अधिक छूट, कॉरपोरेट फंडिग का ट्रस्ट (इलेक्टोरल ट्रस्ट) के ज़रिए बंटवारा और चुनाव ख़र्च की सीमा तय करने जैसे सुझाव दे रहे हैं।
हालांकि कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव के डायरेक्टर और आरटीआई कार्यकर्ता वेंकटेश नायक कहते हैं कि सबसे पहले तो मुल्क में इसी बात को लेकर व्यापक बहस होनी चाहिए कि क्या कॉरपोरेट्स को राजनीतिक दलों को चंदा देने का अधिकार होना चाहिए?
वेंकटेश नायक इसके लिए ब्राज़ील का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि इस लातिन अमेरिकी देश के चुनावी क़ानून में राजनीतिक दल कॉरपोरेट्स से चंदा नहीं ले सकते हैं।
माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के जनरल सेक्रेटरी सीताराम येचुरी ने बीबीसी से बातचीत में स्टेट फंडिग का समर्थन किया। उनके अनुसार पारदर्शिता और लेवल प्लेइंग फ़ील्ड (समान अवसर) भी होगी।
उनका कहना था कि ये स्कैंडेनिविया और जर्मनी जैसे मुल्कों में लागू है।
भूटान में भी राजनीतिक दलों का चुनावी ख़र्च स्टेट देता है।
हालांकि पंजीकृत दल के सदस्य एक सीमा तक अपनी ओर से धन पार्टी को दे सकते हैं।
चुनाव में पारदर्शिता लाने के मुहिम पर काम करने वाली संस्था एसोसियेशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म के जगदीप छोकर कहते हैं कि इसमें ज़रूरत होगी इस बात को जानने की पिछले चुनाव में किसी दल न कितना पैसा ख़र्च किया है, लेकिन क्या राजनीतिक दल अपने ख़र्च का सही लेखा-जोखा देने के लिए तैयार होंगे?
छोकर कहते हैं, ‘इसमें ये भी तय करना होगा कि राजनीतिक दल सरकार से ख़र्च लेने के बाद किसी दूसरी जगह या व्यक्ति से भी चंदा न लेता रहे।’
आयकर में अधिक छूट
सुप्रीम कोर्ट में इलेक्टोरल बॉन्ड्स के मामले पर याचिका दाख़िल करने वाले वकील शादां फऱासत कहते हैं कि राजनीतिक दलों कों चंदा देने पर कंपनियों को आयकर में जिस तरह की छूट मिलती है उसकी सीमा बढ़ाकर इसमें पारदर्शिता लाई जा सकती है।
आयकर क़ानून 1961 में किसी कंपनी को राजनीतिक दल को चंदा देने के बदले 80त्रत्रष्ट नियम के तहत छूट मिलती है।
हालांकि ये साफ़ किया गया है कि इसके लिए वही राजनीतिक दल योग्य हो सकते हैं जो पंजीकृत हों। इसके साथ ही चंदे में दी गई राशि चेक में होनी चाहिए।
इस नियम को लाने का मुख्य ध्येय ही था कि इससे राजनीतिक चंदा देने के मामले में पारदर्शिता आएगी और भ्रष्टाचार पर लगाम रहेगी।
सीताराम येचुरी कहते हैं कि कॉरपोरेट का चंदा देने का अर्थ ही रहा है कि इसके बदले में उन्हें कुछ चाहिए ,उसमें जो पारदर्शिता थी उसे ख़त्म कर दिया गया था।
ट्रस्ट के माध्यम से फंडिग
सूचना और भोजन के अधिकार के क्षेत्र में काम करने वाली अंजलि भारद्वाज का कहना है कि सीधे-सीधे 'क्विड प्रो क्यो' पर (कुछ पाने के एवज़ में कुछ देना) लगाम के लिए एक तरह का ट्रस्ट क़ायम हो सकता है जिसमें बहुत सारी कंपनियां या व्यक्ति धन दान करें और इसे राजनीतिक दलों में बांटा जाए।
ये व्यवस्था पहले भी काम करती रही है।
जानकार कहते हैं कि इसका फ़ायदा ये है कि इसमें ट्रस्ट को ये बताना होता है कि उसने किस दल को कितना चंदा दिया।
इलेक्टोरल बॉन्ड में चंदा देने वाले का नाम गुप्त होता था, जिससे लेन-देन का अधिक ख़तरा होता था बल्कि इस तरह से कोई भी व्यक्ति देश या विदेश से किसी राजनीतिक दल को चंदा दे सकता था और उसके बदले लाभ ले सकता था।
हिंदू बिजऩेसलाइन' की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ वित्तीय वर्ष 2022-23 में भारत की सबसे बड़ी इलेक्टोरल ट्रस्ट प्रूडेंट इलेक्टोरल ट्रस्ट ने अपने फंड का 71 प्रतिशत हिस्सा बीजेपी को दिया था।
अख़बार के मुताबिक़ बॉन्ड्स के बाज़ार में आ जाने के बावजूद ट्रस्ट में तेज़ी से बढ़ोतरी हो रही है।
पिछले दस सालों में इसमें 360 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ है।
ट्रस्ट का आइडिया साल 2013 में यूपीए सरकार के समय आया था।
इसके तहत कंपनियां ट्रस्ट क़ायम कर सकती थीं और जिसमें कोई व्यक्ति या कंपनी दान दे सकती थीं।
सारे चंदे डिजिटल मोड में ही हों
अंजलि भारद्वाज कहती हैं कि जब सब्ज़ी और रिक्शेवालों तक को यूपीआई से पेमेंट किया जा रहा है तो राजनीतिक दलों को पैसा कैश में क्यों?
सूचना और भोजन अधिकार कार्यकर्ता
कमोडोर लोकेश बतरा जो इस क्षेत्र में सालों से काम कर रहे हैं कहते हैं कि रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया भी यही चाहती थी कि सारे पेमेंट्स चेक या ड्राफ्ट से हों।
लोकेश बतरा कहते हैं कि इलेक्टोरल बॉन्ड्स के तहत ज़्यादातर चंदा देने वाले बेहद अमीर लोग थे या कंपनियां।
चुनाव ख़र्च की सीमा तय हो
अमेरिका में रह रहे बतरा ने बीबीसी से फ़ोन पर कहा कि चुनाव में पारदर्शिता लाने का एक तरीक़ा होगा राजनीतिक दल के ख़र्च की सीमा तय करना और उसका सख़्ती से पालन।
एडीआर के जगदीप छोकर का तो मानना है कि राजनीतिक दलों के दस पैसे का चंदा भी अगर मिलें तो उसको देने वाले का नाम बताया जाना चाहिए।
अभी के नियमों के तहत बीस हज़ार रुपये से कम चंदा देने वालों का नाम बताने की राजनीतिक दलों को ज़रूरत नहीं है, जिसका नतीजा ये होता है कि ख़ुद को गऱीब बताने वाले राजनीतिक दलों को पास हर साल 400-600 करोड़ रुपये का चंदा इक_ा होता है, मगर वो किसी चंदे की रक़म को बीस हज़ार तक भी नहीं दिखाते।
वेंकटेश नायक कहते हैं कि कुछ देशों में इस तरह की व्यवस्था है कि वहां कोई व्यक्ति कितना चंदा दे सकता है इसके लिए सीमा निर्धारित की गई है। भारत में भी वैसी ही सीमा निर्धारित की जानी चाहिए। (bbc.com/hindi)
हाल ही में एक आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) मॉडल ने एक शिशु की आंखों के ज़रिए Òcrib (पालना)’ और Òball (गेंद)’ जैसे शब्दों को पहचानना सीखा है। एआई के इस तरह सीखने से हमें यह समझने में मदद मिल सकती है कि मनुष्य कैसे सीखते हैं, खासकर बच्चे भाषा कैसे सीखते हैं।
शोधकर्ताओं ने एआई को शिशु की तरह सीखने का अनुभव कराने के लिए एक शिशु को सिर पर कैमरे से लैस एक हेलमेट पहनाया। जब शिशु को यह हेलमेट पहनाया गया तब वह छह महीने का था, और तब से लेकर लगभग दो साल की उम्र तक उसने हर हफ्ते दो बार लगभग एक-एक घंटे के लिए इस हेलमेट को पहना। इस तरह शिशु की खेल, पढऩे, खाने जैसी गतिविधियों की 61 घंटे की रिकॉर्डिंग मिली।
फिर शोधकर्ताओं ने मॉडल को इस रिकॉर्डिंग और रिकॉर्डिंग के दौरान शिशु से कहे गए शब्दों से प्रशिक्षित किया। इस तरह मॉडल 2,50,000 शब्दों और उनसे जुड़ी छवियां से अवगत हुआ। मॉडल ने कांट्रास्टिव लर्निंग तकनीक से पता लगाया कि कौन सी तस्वीरें और शब्द परस्पर संबंधित हैं और कौन से नहीं। इस जानकारी के उपयोग से मॉडल यह भविष्यवाणी कर सका कि कतिपय शब्द (जैसे ‘बॉल’ और ‘बाउल’) किन छवियों से संबंधित हैं।
फिर शोधकर्ताओं ने यह जांचा कि एआई ने कितनी अच्छी तरह भाषा सीख ली है। इसके लिए उन्होंने मॉडल को एक शब्द दिया और चार छवियां दिखाईं; मॉडल को उस शब्द से मेल खाने वाली तस्वीर चुननी थी। (बच्चों की भाषा समझ को इसी तरह आंका जाता है।) साइंस पत्रिका में शोधकर्ताओं ने बताया है कि मॉडल ने 62 प्रतिशत बार शब्द के लिए सही तस्वीर पहचानी। यह संयोगवश सही होने की संभावना (25 प्रतिशत) से कहीं अधिक है और ऐसे ही एक अन्य एआई मॉडल के लगभग बराबर है जिसे सीखने के लिए करीब 40 करोड़ तस्वीरों और शब्दों की जोडिय़ों की मदद से प्रशिक्षित किया गया था।
मॉडल कुछ शब्दों जैसे ‘ऐप्पल’ और ‘डॉग’ के लिए अनदेखे चित्रों को भी (35 प्रतिशत दफा) सही पहचानने में सक्षम रहा। यह उन वस्तुओं की पहचान करने में भी बेहतर था जिनके हुलिए में थोड़ा-बहुत बदलाव किया गया था या उनका परिवेश बदल दिया गया था। लेकिन मॉडल को ऐसे शब्द सीखने में मुश्किल हुई जो कई तरह की चीजों के लिए जेनेरिक संज्ञा हो सकते हैं। जैसे ‘खिलौना’ विभिन्न चीजों को दर्शा सकता है।
हालांकि इस अध्ययन की अपनी सीमाएं हैं क्योंकि यह महज एक बच्चे के डैटा पर आधारित है, और हर बच्चे के अनुभव और वातावरण बहुत भिन्न होते हैं। लेकिन फिर भी इस अध्ययन से इतना तो समझ आया है कि शिशु के शुरुआती दिनों में केवल विभिन्न संवेदी स्रोतों के बीच सम्बंध बैठाकर बहुत कुछ सीखा जा सकता है।
ये निष्कर्ष नोम चोम्स्की जैसे भाषाविदों के इस दावे को भी चुनौती देते हैं जो कहता है कि भाषा बहुत जटिल है और सामान्य शिक्षण प्रक्रियाओं के माध्यम से भाषा सीखने के लिए जानकारी का इनपुट बहुत कम होता है; इसलिए सीखने की सामान्य प्रक्रिया से भाषा सीखा मुश्किल है। अपने अध्ययन के आधार पर शोधकर्ता कहते हैं कि भाषा सीखने के लिए किसी ‘विशेष’ क्रियाविधि की आवश्यकता नहीं है जैसे कि कई भाषाविदों ने सुझाया है।
इसके अलावा एआई के पास बच्चे के द्वारा भाषा सीखने जैसा हू-ब-हू माहौल नहीं था। वास्तविक दुनिया में बच्चे द्वारा भाषा सीखने का अनुभव एआई की तुलना में कहीं अधिक समृद्ध और विविध होता है। एआई के पास तस्वीरों और शब्दों के अलावा कुछ नहीं था, जबकि वास्तव में बच्चे के पास चीज़ें छूने-पकडऩे, उपयोग करने जैसे मौके भी होते हैं। उदाहरण के लिए, एआई को ‘हाथ’ शब्द सीखने में संघर्ष करना पड़ा जो आम तौर पर शिशु जल्दी सीख जाते हैं क्योंकि उनके पास अपने हाथ होते हैं, और उन हाथों से मिलने वाले तमाम अनुभव होते हैं। (स्रोत फीचर्स)
दीपाली अग्रवाल
बसंत की अलामत है और सूर्य की गर्मी दिन में तेज है परंतु सर्दी शाम को अपने अब भी होने का एहसास करवाती है। मेट्रो से बाहर निकलकर पुस्तक मेले में जा रही हूं। फोन पॉकेट में रखा है, रास्ता इतना लंबा है कि मुझे वो बीते साल याद आ गया जब इसी तरह अकेले मैं पुस्तक मेले जाया करती थी, फक़ऱ् बस इतना कि तब फोन जेब में नहीं रहता था। कितने ही साल बीते होंगे कि वो मेरा दोस्त मुझे बताता जाता था कि परवीन शाकिर की खुश्बू खोजना या साहिर की तल्खियां, जावेद अख्तर की किताब हो तो मेरे लिए भी लाना, मंटो के दस्तावेज नहीं मिल रहे बंबई में तो तुम मेले से लेना, क्या वहां कृष्णचंदर की कहानियां भी मिलेंगी? अंतरिक्ष विज्ञान की किताबें मिलें तो लेनी ही हैं। उन दिनों कई किताबें खऱीदती थी और महसूस करती कि साहित्य की ड्योढ़ी पर एक कदम और भीतर रखा है। रोज़ मेले जाती और अचरज से भरती कि मैं क्या नया लिखूंगी इन तमाम के बीच। यही सब सोचते हुए ध्यान गया कि सूरज बहुत तेज़ है, जैकेट उतारना पड़ा। फोन निकाला, मिस्ड कॉल थी, दोस्त स्टॉल पर इंतजार कर रहे हैं। दूरी अब भी बहुत है।
याद आया कि कुछ साल पहले तक कोई ऐसा चेहरा दिल्ली में नहीं था जिसके साथ मेले जाती। जो दोस्त थे उन्हें साहित्य उतना रास नहीं था और मुझे इतना भी नहीं मालूम था कि हर प्रकाशक हर किताब नहीं रखता और ना ही उनके काम करने का तरीका ही मालूम था। जैसे किसी छोटे शहर में किताब वालों की दुकानें होती हैं जिन पर कई किताबें मिलती हैं और जो किताब चाहिए वो अगले हफ्ते तक मंगवा देते हैं। कहां से मंगवाते हैं, ये तो कभी सोचा ही नहीं। पुस्तक मेला पहले ऐसे ही बुकस्टोर का मेला लगता था, जहां कहीं भी जाकर कोई भी किताब पूछी-खरीदी जा सकती है। किताब मेले घूमने के शऊर तो देरी से ही आए हैं। अब दोस्त भी हैं, इंतजार करते, साथ घूमते, मिलते, बातें करते।
इतना कुछ सोचते हॉल के भीतर आई तो पहले ही मुशायरे की आवाज सुनाई दी, बहुत देर ठहरी रही। लोग वाह-वाह कर रहे थे। फिर दोस्तों के पास पहुंची लेकिन मेले अकेले ही घूमना तय किया। शुरू की स्टॉल से आखिरी तक। शुरू में वही जहां दो सौ रूपये की हर किताब मिलती है लेकिन जो चाहिए वही नहीं मिलती। पास ही एक स्टोर पर बहुत हैवी जिल्द की किताबें थीं- रसोई से संबंधित लेकिन अंग्रेजी में, लेकिन इसलिए कि खाना बनाने का मजा जो हिंदी में है वो अंग्रेज़ी में नहीं है। जब तक छौंक, तडक़ा, हींग, लाल होने तक भूने जैसा कुछ न पता चले तो खाने का मज़ा ही नहीं आएगा। आगे हार्पर कॉलिंस है - लगभग अस्सी साल के बुजुर्ग अपनी पोती के साथ काउंटर पर खड़े हैं। एक लेखक मिले जिन्हें एक-दो पॉडकास्ट में मैंने देखा है, लोग उन्हें घेरे हुए हैं। वे इतना धीरे बोल रहे हैं कि कुछ समझ नहीं आ रहा। लेकिन इस भीड़ में तो जाने का मन नहीं है।
लोग हर साल कहते हैं कि अंग्रेजी किताबें पढऩे वालों की संख्या हिंदी वालों से बहुत अधिक है। पता नहीं कितना सच है, किताबों की बिक्री ही शायद इस बात की तस्दीक करे। पेंग्विन में किताबें देखते हुए फिर मंजुल पहुंची, यहां हिंदी की भी किताबें हैं। सेल्फ-हेल्प बुक्स जो सबसे ज़्यादा बिकती हैं, लोग इन्हीं किताबों में अपने अमीर होने के तरीके, एंग्जाइटी और डिप्रेशन के इलाज खोजते हैं, आदतों को बदलने के गुर जानते हैं।
दिल्ली में सडक़ के पास बैठने वाले किताब वाले सबसे ज़्यादा यही किताबें अपने पास रखते हैं। यहां रूमी की किताब भी है, उनकी कविताओं की किताब, एक सुंदर कवर के साथ जैसा उनकी कविताओं का रंग है ठीक वैसी ही। ऐसी ही सुंदर कवर वाली किताबें हैं इकतारा के पास। मैं अब हॉल दो में हूं, इतनी देर अंग्रेजी की किताब देखने के बाद जब हिंदी की ओर लौटी तो लगा कि अपने शहर लौट आई हूं। दैहिक रूप से भाषा में लौटना क्या होता है, इसका पता चला।
यहीं मेरे सामने कंधे पर हाथ रखे कपल जा रहे हैं, पुस्तक प्रेमी साथी मिलना घर में लाइब्रेरी बनाने जैसा है। अब एक छोटी बच्ची मेरे सामने बैठी है, मैंने उसे कुछ कविताएं सुनाने को कहा, उसने स्कूल में याद की कुछ पोएम्स सुनाईं। रात के आठ बजे हैं और मेले से निकलने का समय है। मंडी हाउस में दोस्तों का मिलना तय हुआ है। मेरे हाथ में कुछ किताबें हैं। बाहर फिर से सर्दी है, जैकेट पहनकर फोन उसकी जेब में रखा। हॉल से गेट की दूरी बहुत है।
केंद्र सरकार और किसानों के बीच गुरुवार देर रात तक चली बैठक भी बेनतीजा रही।
यह बैठक चंडीगढ़ में रात करीब डेढ़ बजे तक चली।
इस बैठक में पंजाब के मुख्यंत्री भगवंत मान के साथ केंद्र सरकार की तरफ से केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल, अर्जुन मुंडा और नित्यानंद राय शामिल हुए।
इससे पहले आठ और 12 फरवरी को किसानों और सरकार के बीच बातचीत हुई थी, जिसका भी कोई नतीजा नहीं निकला था।
किसानों ने अपनी मांगों से पीछे हटने से इंकार कर दिया था। वहीं सरकार का कहना था कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर ‘हड़बड़ी में’ कोई क़ानून नहीं बनाना चाहती।
गुरुवार देर रात तक चली बैठक में मध्यस्थों ने एमएसपी समेत किसानों की दूसरी मांगों पर भी चर्चा की, लेकिन कोई सहमति नहीं बन सकी।
सरकार और किसानों के बीच चौथे दौर की बैठक को लेकर सहमति बनी है। इसके लिए रविवार का दिन तय किया गया है।
गुरुवार को सरकार और किसान प्रतिनिधियों के बीच बैठक शाम को पांच बजे होनी थी। किसान समय से पहुंच गए थे लेकिन केंद्रीय मंत्री रात आठ बजे यहां पहुंच पाए, जिसके चलते बैठक ख़त्म होने में समय लगा।
किसानों की मांगों में कर्ज माफी, नवंबर 2020 से दिसंबर 2021 के बीच दिल्ली में चले किसानों के विरोध प्रदर्शन के दौरान मारे गए लोगों के परिवार में किसी एक के लिए नौकरी, लखीमपुर खीरी में विरोध प्रदर्शन के दौरान घायल हुए किसानों के लिए मुआवज़े की व्यवस्था और किसानों के खिलाफ दर्ज मामले वापिस लेना शामिल है।
बैठक के बाद किसने क्या कहा?
बैठक खत्म होने के बाद मंत्री अर्जुन मुंडा ने कहा, ‘दोनों पक्षों के बीच अच्छे माहौल में सकारात्मक चर्चा हुई है। किसान संगठनों ने जिस विषयों पर ध्यान आकर्षित किया है, उसे संज्ञान में लेते हुए हमने बैठक की अगली तारीख तय की है।’
‘रविवार शाम छह बजे हम इस चर्चा को आगे जारी रखेंगे। हमें उम्मीद है कि हम सब मिलकतर शांतिपूर्ण तरीके से इस मुश्किल का हल निकालेंगे।’
सरकार के साथ बैठक खत्म होने के बाद किसान मजदूर मोर्चा के संयोजक सरवन सिंह पंढेर ने कहा, ‘उन्होंने कहा कि हमें समय चाहिए क्योंकि हम हवा में बातचीत नहीं करना चाहते। उनकी कोई कांफ्रेंस है और फिर उन्हें मंत्रिमंडल से बात करनी है। एमएसपी का कानून, लागत का डेढ़ गुना और कर्जमाफी जैसी हमारी मांगों पर लंबी चर्चा चली है।’
‘लेकिन सोशल मीडिया पन्ने बंद करना या इंटरनेट बंद करना कोई तरीका नहीं हुआ। ड्रोन हम पर आंसू गैस के गोले बसरा रहे हैं। हमने उस पर भी अपनी बात दमदार तरीके से की है। हम नहीं चाहते कि इतना बलप्रयोग हो। हम कौन से पाकिस्तान के रहने वाले हैं? हम आपके देश के किसान हैं। लगता है कि इधर भी बॉर्डर है, उधर भी बॉर्डर है।’
‘हम चाहते हैं कि बातचीत से हल निकल जाए, हम टकराव नहीं चाहते लेकिन दिल्ली की तरफ कूच करने की योजना तो अपनी जगह है। इस पर हम शुक्रवार को अपने साथियों के साथ भी विचार विमर्श करेंगे।’
किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल ने मीडिया से कहा, ‘रविवार को अगली बैठक होगी। तब तक आंदोलन शांतिपूर्वक तरीके से चलेगा। हम अपनी तरफ से कोई छेड़छाड़ नहीं करेंगे, उधर से भी हम पर गोले नहीं चलाए जाएंगे।’
‘बैठकों का दौर शुरू हो गया है तो हम आगे नहीं बढ़ेंगे, बैठक शुरू होने के बाद हम आगे बढ़ेंगे तो फिर बैठक कैसे होगी। इसलिए हम रुकेंगे और रविवार तक का इंतज़ार करेंगे। उसके बाद ही देखेंगे क्या करना है।’
शंभू सीमा पर डटे रहे किसान
किसानों के साथ बातचीत से पहले गुरुवार को पंजाब-हरियाणा सीमा पर किसानों के पुलिस के बैरिकेड तोडक़र दिल्ली की तरफ मार्च करने की कोशिशों को रोक दिया था।
दिल्ली कूच करने वाले किसान गुरुवार को तीसरे दिन भी पंजाब-हरियाणा की शंभू सीमा पर डटे रहे। हालांकि पिछले दो दिनों की तुलना में तीसरा दिन शांत रहा।
किसानों से एक सीमा रेखा खींचकर दिनभर बैठक की। उन्होंने पहले ही घोषणा की हुई थी कि चंडीगढ़ में सरकार और किसान संगठनों के साथ होने वाली बातचीत का कोई नतीजा आने तक वो कोई कदम नहीं उठाएंगे।
शंभू सीमा पर मौजूद बीबीसी संवाददाता अभिनव गोयल ने बताया कि वहां दिन भर और खबर लिखे जाने तक शांति बनी।
उन्होंने बताया कि हरियाणा पुलिस ने किसानों को जहां रोक रखा है, उससे कऱीब 100 मीटर पहले ही किसानों ने गुरुवार सुबह एक रस्सी से बरियर बना दिया। उनका कहना था कि आज वो इससे आगे नहीं बढ़ेंगे।
किसानों ने सुरक्षाबलों से कहा, ‘आप हम पर आंसू गैस के गोले मत छोडि़ए आज हम यहां से आगे नहीं बढ़ेंगे।’
हालांकि पिछले दोनों दिन इस जगह पर किसानों और सुरक्षाबलों के बीच जमकर तनातनी हुई। सुरक्षाबलों ने किसानों को निशाना बनाकर जमकर आंसू गैसे के गोले दागे थे और रबर की गोलियां चलाई थीं।
गुरुवार को शंभू सीमा पर दिन में पूरी तरह से शांति रही। सुरक्षाबलों की तरफ से आंसू गैस के गोले नहीं छोड़े गए, लेकिन रात 10 बजे के आसपास सुरक्षाबलों एक-दो गोले हरियाणा की तरफ से छोड़े।
बीबीसी संवाददाता अभिनव गोयल ने बताया कि शंभू बॉर्डर पर किसानों की गाडिय़ों की कऱीब साढ़े तीन किलोमीटर लंबी लाइन लगी है। इस सडक़ पर गाडिय़ों की दो-तीन कतारें लगी हैं।
यहां प्रदर्शन में शामिल युवाओं ने पंजाबी गायक सिद्धू मूसेवाला के झंडे और पोस्टर लगाए हुए हैं।
किसानों ने एक गाड़ी पर अस्थायी मंच भी बना लिया है जिसके सामने 200 से 300 किसान दिन भर डटे रहे। इस दौरान किसानों और किसान नेताओं ने मंच पर से अपनी बात रखी।
पिछले दो दिनों में सुरक्षाबलों ने किसानों पर आंसू गैस के जो गोले चलाए हैं, किसानों ने उनके खाली डिब्बों को यादगार के तौर पर अपने पास रख लिया है।
यहां किसान लंगर चला रहे हैं और मिल-जुलकर खाना खा रहे हैं। एक संगठन ने भी यहां अपना लंगर लगाया है।
सुरक्षाबलों की कार्रवाई में घायल लोगों के लिए एंबुलेंस की व्यवस्था भी की गई है।
सीमा पर मौजूद किसानों और किसान नेताओं का सारा ध्यान चंडीगढ़ में चल रही बैठक पर लगा था जो आधी रात के बाद भी चलती रही।
इस बैठक के नतीजे के आधार पर ही ये तय होना था कि किसानों को आगे दिल्ली की ओर कूच करना है या वापस लौट जाना है।
संयुक्त किसान मोर्चा ने कहा है कि उसके तहत आने वाले 37 किसान समूह कि शुक्रवार को देशव्यापी हड़ताल करेंगे जिससे ‘गांवों में कामकाज ठप’ हो जाएगा।
वहीं भारतीय किसान यूनियन और दूसरे किसान संगठनों ने कहा है कि वो इसका समर्थन करेंगे और राष्ट्रीय राजमार्गों, रेलवे लाइनों और मुख्य सडक़ों को बंद करेंगे।
किसानों की ओर से स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने के लिए भी कहा गया है। (bbc.com/hindi)
जगदीश्वर चतुर्वेदी
सवाल यह है प्रेमी युगल प्रेम के अलावा क्या करते हैं ? प्रेम का जितना महत्व है उससे ज्यादा प्रेमेतर कार्य-व्यापार का महत्व है।प्रेम में निवेश वही कर सकता है जो सामाजिक उत्पादन भी करता हो, प्रेम सामाजिक होता है, व्यक्तिगत नहीं। प्रेम के सामाजिक भाव में निवेश के लिए सामाजिक उत्पादन अथवा सामाजिक क्षमता बढ़ाने की जरूरत होती है।
प्रेम में जिसका सामाजिक उत्पादन ज्यादा होगा उसका ही वर्चस्व होगा। प्रेम करने वालों को सामाजिक तौर पर सक्षम,सक्रिय,उत्पादक होना चाहिए। सक्षम का प्रेम सामाजिक तौर पर उत्पादक होता है। ऐसा प्रेम परंपरागत दायरों को तोडक़र आगे चला जाता है।
पुरानी नायिकाएं प्रेम करती थीं, और उसके अलावा उनकी कोई भूमिका नहीं होती थी। प्रेम तब ही पुख्ता बनता है, अतिक्रमण करता है जब उसमें सामाजिक निवेश बढ़ाते हैं। व्यक्ति को सामाजिक उत्पादक बनाते हैं। प्रेम में सामाजिक निवेश बढ़ाने का अर्थ है प्रेम करने वाले की सामाजिक भूमिकाओं का विस्तार और विकास।
प्रेम पैदा करता है, पैदा करने के लिए निवेश जरूरी है, आप निवेश तब ही कर पाएंगे जब पैदा करेंगे। प्रेम में उत्पादन तब ही होता है जब व्यक्ति सामाजिक तौर पर उत्पादन करे। सामाजिक उत्पादन के अभाव में प्रेम बचता नहीं है, प्रेम सूख जाता है। संवेदना और भावों के स्तर पर प्रेम में निवेश तब ही गाढ़ा बनता है जब आप सामाजिक उत्पादन की प्रक्रिया में सक्रिय रूप से उत्पादक की भूमिका अदा करें ।
प्रेम के जिस रूप से हम परिचित हैं उसमें समर्पण को हमने महान बनाया है। यह प्रेम की पुंसवादी धारणा है। प्रेम को समर्पण नहीं शिरकत की जरूरत होती है। प्रेम पाने का नहीं देने का नाम है। समर्पण और लेने के भाव पर टिका प्रेम इकतरफा होता है। इसमें शोषण का भाव है। यह प्रेम की मालिक और गुलाम वाली अवस्था है। इसमें शोषक-शोषित का संबंध निहित है।
प्रेम का मतलब करियर बना देना, रोजगार दिला देना,व्यापार करा देना नहीं है। बल्कि ये तो ध्यान हटाने वाली रणनीतियां हैं,प्रेम से पलायन करने वाली चालबाजियां हैं। प्रेम गहना,करियर, आत्मनिर्भरता आदि नहीं है।
प्रेम सहयोग भी नहीं है। प्रेम सामाजिक संबंध है, उसे सामाजिक तौर पर कहा जाना चाहिए, जिया जाना चाहिए। प्रेम संपर्क है, संवाद है और संवेदनात्मक शिरकत है। प्रेम में शेयरिंग केन्द्रीय तत्व प्रमुख है। इसी अर्थ में प्रेम साझा होता है,एकाकी नहीं होता। सामाजिक होता है ,व्यक्तिगत नहीं होता।
प्रेम का संबंध दो प्राणियों से नहीं है बल्कि इसका संबंध इन दो के सामाजिक अस्तित्व से है। प्रेम को देह सुख के रूप में सिर्फ देखने में असुविधा हो सकती है। प्रेम का मार्ग देह से गुजरता जरूर है किंतु प्रेम को मन की अथाह गहराइयों में जाकर ही शांति मिलती है, प्रेमी युगल इस गहराई में कितना जाना चाहते हैं उस पर प्रेम का समूचा कार्य -व्यापार टिका है। प्रेम का तन और मन से गहरा संबंध है, इसके बावजूद भी प्रेम का गहरा संबंध तब ही बनता है जब आप इसे व्यक्त करें, इसका प्रदर्शन करें। प्रेम बगैर प्रदर्शन के स्वीकृति नहीं पाता। प्रेम में स्टैंड लेना जरूरी है।
राजकुमार मेहरा
अभी गुजरे ्यद्बह्यह्य ष्ठड्ड4 के उपलक्ष्य में, मैं आपका परिचय करीब 440 वर्ष पुरानी एक कविता से कराने जा रहा हूँ जिसकी रचना केशव ने की थी। आचार्य केशवदास का जन्म 1555 ईस्वी में ओरछा में हुआ था। वे रीतिकाल की कवि-त्रयी के एक प्रमुख स्तंभ हैं। इन्होंने ब्रज भाषा में रचना की।
यद्यपि ये संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित थे तथापि उनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ हिन्दी है जिसमें बुन्देली, अवधी और अरबी-फारसी शब्दों का समावेश है।
इन्होंने अपनी रचना के एक छंद में नायक-नायिका के बीच प्रेम और चुंबन का बड़े ही दिलचस्प अंदाज में चित्रण किया है ।
नायिका साफ-साफ (और चतुराई से भी) अपने प्रेमी से कह रही है-
मैं तुम्हारी सभी गलतियों को बर्दाश्त कर लूंगी, पर तुमने पान खिलाकर, मेरे अमृत जैसे होठों का रसपान किया है, इसके लिए माफ नहीं करूंगी । अगर तुम चाहते हो कि मेरा तुम्हारा संबंध ठीक बना रहे, तो इसके लिए यही शर्त है कि तुम भी अपना मुख मुझे चूमने दो, नहीं तो मैं जाकर तुम्हारी शिकायत कर दूंगी ।
सवैये का सौन्दर्य देखिये:
तोरितनी टकटोरि कपोलनि, जारिरहे कर त्यों न रहौंगी।
पान खवाइ सुधाधर प्याइकै, पांइ गयो तस हौ न गहौंगी।
केसव चूक सबै सहिहौं, मुख चूमि चलै यह पै न सहौंगी।
कै मुख चुमन दै फिरि मोहि कि आपनि धाय से जाय कहौंगी।
चूंकि रस्मे दुनिया भी है, मौका भी है, दस्तूर भी है... तो मैं भी इस शुभ अवसर पर अपनी सभी अतीत, वर्तमान और भविष्य की प्रेमिकाओं को सादर अनंत स्नेहसिक्त आलिंगन, चुम्बन व शुभाकांक्षा प्रेषित करता हूं।
द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
पंडित जटाशंकर अपना माथा पकडक़र बैठ गए। खिन्न होकर बोले, ‘ये पांच बार ‘तुम्हारी हूँ, तुम्हारी हूँ’ लिखने वाली लडक़ी कौन है जो हमारी बहू बनना चाह रही है?’
‘अपने पड़ोसी गप्पू कसेर की लडक़ी है।’
‘हे प्रभु भोलेनाथ, रक्षा करो। कैसे संकट में पड़ गया मैं? मेरी रक्षा करो। मैं पहले से जानता था कि सिनेमा देख-देख कर हमारा लडक़ा कोई गुल खिलाएगा। एक दिन छत में मैंने उसे गाना बजाते देखा था तब ही मुझे सावधान हो जाना था। मुझे यह अनुमान नहीं था कि ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर यह मूर्ख लडक़ा किसी कसेरन बहू को घर लाने की बात सोचेगा?’
‘पर ये विवाह कैसे होगा? नीची जाति की बहू आ गई तो हमारी दोनों बेटियों को कौन ब्राह्मण परिवार अपने घर की बहू बनाएगा?'
‘वह तो है। कैसे अपना मुंह दिखाऊंगा मैं समाज को? प्रभु, कोई राह दिखाओ।' पंडित जटाशंकर की आँखों से टप-टप आंसू बहने लगे। कुछ देर में जटाशंकर शांत हुए तो बोले, ‘आने दो कृपा को घर में, हड्डी-पसली तोडक़र उसके इश्क का भूत उतारता हूँ।’
‘तनिक समझदारी और शांति से काम लो जी। बात अगर बिगड़ी तो और बिगड़ जाएगी। चि_ी में पढ़े नहीं क्या? दोनों एक-दूसरे के लिए जहर खाकर मरने को उतारू हैं! अपना एक अकेला लडक़ा है, कुछ कर लिया तो?’
‘तो उसकी आरती उतारूँ? मोहल्ले में प्रसाद बंटवा दूं?’
‘कुछ दिन चुप रहो, कोई रास्ता अवश्य निकलेगा। भोलेनाथ अपने भक्तों का ध्यान रखते हैं, वे कुछ करेंगे। मैं तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ, तुम कृपा से कुछ न कहना।’
‘कुछ न कहना, तुम्हारी इसी छूट ने लडक़े को नष्ट किया है, अब फिर कह रही हो, कुछ न कहना।’
‘तुम अभी गुस्से में हो। बैठे तुम्हारे लिए नींबू का शरबत बनाती हूँ, पी लो, फिर बाद में देखेंगे।’ पंडिताइन बोली।
पंडित जटाशंकर के जिगरी दोस्त थे, अनोखेलाल, जिनकी कोतवाली रोड पर कपड़े की दूकान थी। शाम के समय दोनों की बैठक होती, सप्ताह में छ: दिन अनोखे लाल की दूकान में और मंगलवार को पंडित जटाशंकर के घर में। समाज और राजनीति की चर्चा होती, घर-परिवार की बात होती। आज गुरूवार है, बैठक ज़ारी है लेकिन पंडित जटाशंकर चुप-चुप से बैठे हैं। अनोखेलाल ने पूछा, ‘आज मुंह में दही जमाये बैठे हो पंडित?’
‘क्या बताऊँ? तुमसे मेरा कुछ भी छुपा नहीं है लेकिन बात ऐसी है कि बताने की हिम्मत नहीं हो रही है।’ जटाशंकर बोले।
‘अरे, हमसे कैसी पर्देदारी? क्या हुआ महाराज?’
‘लडक़ा गलती कर बैठा है, पड़ोस की एक लडक़ी के चक्कर में फंस गया है।’
‘लडक़ा कितने साल का हो गया है?’
‘अठारह का हो गया है।’
‘तो ब्याह कर दो उसका, इसमें समस्या क्या है?’
‘कसेर की लडक़ी है, भैया अनोखेलाल।’
‘अरे बाप रे!’
‘वही तो बात है। मेरी बुद्धि काम नहीं कर रही है।’
‘रुको, मुझे सोचने दो।’
‘सोचो यार, कुछ सोचो और मुझे इस संकट से उबारो।’
‘ठीक है, मंगल को मेरी दूकान बंद रहती है, उस दिन फुर्सत रहती है। तब तक कोई उपाय सोचता हूँ। तुम चिंता न करो। और हाँ, लडक़े को कुछ न कहना, मैं घर आकर उससे बात करूंगा।’ अनोखेलाल ने पंडित जी को आश्वस्त किया। (क्रमश:)
(उपन्यास ‘मद्धम मद्धम’ का एक अंश)
विनीत खरे
ऐसे वक़्त जब लोकसभा चुनाव की घोषणा होने में कुछ ही हफ़्ते रह गए हैं, पूर्व कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी ने आने वाले राज्यसभा चुनाव के लिए राजस्थान से अपना नामांकन पत्र दाखिल किया है।
साल 2004 से सोनिया गांधी लोकसभा में रायबरेली का प्रतिनिधित्व कर रही हैं।
ये फ़ैसला ऐसे वक़्त आया है जब पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भारत जोड़ो न्याय यात्रा पर हैं और इस यात्रा की टाइमिंग को लेकर आलोचना हो रही है, ओपिनियन पोल्स में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लगातार तीसरी बार लोकसभा चुनाव में जीत की भविष्यवाणी की जा रही है, एक के बाद एक कांग्रेस नेताओं का पार्टी छोडऩा जारी है और विपक्षी इंडिया अलायंस की पार्टियों के बीच सीटों पर तालमेल को लेकर सवाल उठ रहे हैं।
वरिष्ठ पत्रकार सुषमा रामचंद्रन ने सोनिया गांधी के फ़ैसले को ‘एक युग का अंत’ बताया, और कहा कि ये फ़ैसला कांग्रेस और विपक्ष के लिए ‘नुक़सान’ है।
वो कहती हैं, ‘न सिफऱ् कांग्रेस, बल्कि विपक्ष के लिए भी सोनिया गांधी का लोकसभा में रहना हौसला बढ़ाने वाला था। वो विपक्ष की ओर से अपनी बात रखती थीं। ये फ़ैसला उन्हें सीधी चुनावी राजनीति से ऐसे वक़्त दूर ले जाएगा जब कांग्रेस का पतन हो रहा है।’
तो रायबरेली से चुनाव मैदान में कौन?
अख़बार हिंदुस्तान टाइम्स के राजनीतिक संपादक विनोद शर्मा कहते हैं, ‘उनकी उम्र 77 साल की है। वो सीधे चुनाव से ख़ुद को दूर कर रही हैं, ऐसे वक़्त जब उनकी तबीयत ठीक नहीं है। रायबरेली जीतना आसान नहीं है और इसके लिए उन्हें कैंपेन में ज़ोर लगाना पड़ता, इसलिए बेहतर है कि ये काम किसी युवा पर छोड़ दिया जाए।’
याद रहे कि उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में भाजपा की सरकार है।
मीडिया कयासों की मानें तो सोनिया गांधी की जगह उनकी बेटी और कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी वाड्रा रायबरेली से कांग्रेस उम्मीदवार हो सकती हैं, हालांकि पार्टी की ओर से इस बारे में अभी कुछ नहीं कहा गया है।
वरिष्ठ पत्रकार जावेद अंसारी कहते हैं, ‘मुझे साफ़ याद है कि 1999 में जब पहली बार सोनिया गांधी ने अमेठी से चुनाव लड़ा था तो ये प्रियंका ही थीं जिन्होंने चुनाव का सारा कामकाज संभाला था। तो संभावना यही है कि हम चुनावी राजनीति में प्रियंका गांधी की शुरुआत देख सकते हैं। मुझे नहीं लगता कि प्रियंका को कोई समस्या होगी। आम लोगों के साथ उनका जुड़ाव है, उनका लोगों से बातचीत करने का तरीका ज़बरदस्त है और वो उस इलाके में काफ़ी लोकप्रिय हैं। उन्होंने अपने भाई और मां के लिए कई चुनावों में काफ़ी कैंपेन किया है।’
‘राजनीति से रिटायर नहीं हो रही’
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की पूर्व प्रोफ़ेसर और राजनीतिक विश्लेषक ज़ोया हसन कहती हैं, ‘उन्हें पार्टी के लिए जो करना था वो किया। उन्होंने कांग्रेस को पुनर्जीवित किया, वो कांग्रेस को सत्ता में लेकर आईं, उन्होंने गठबंधन बनाया, वो 20 साल कांग्रेस प्रमुख रहीं। उन्होंने सालों पार्टी को एकजुट रखा, अब वो परिवार के सदस्यों और दूसरे लोगों के लिए जगह छोड़ रही हैं, और उन्हें ये फ़ैसला लेने का हक़ है कि क्या वो अगला चुनाव लडऩा चाहती हैं या नहीं।’
वो कहती हैं, ‘मुझे नहीं लगता है कि वो कोई राजनीतिक सिग्नल दे रही हैं। वो राजनीति से रिटायर नहीं हो रही हैं। वो शायद पार्टी की ऐक्टिव लीडरशिप की भूमिका छोड़ रही हैं लेकिन वो पार्टी को एकजुट रखने वाली महत्वपूर्ण नेता रहेंगी।’
सोनिया गांधी के राज्यसभा से नामांकन भरने पर भाजपा नेता अमित मालवीय ने ट्वीट किया, ‘अमेठी में कांग्रेस की करारी हार के बाद अगला नंबर रायबरेली का है। सोनिया गांधी का राज्य सभा से (नामांकन भरने का) फ़ैसला करना मंडरा रही हार की स्वीकारोक्ति है। गांधी परिवार ने अपने माने जाने वाले गढ़ों को छोड़ दिया है। समाजवादी पार्टी के कांग्रेस को 11 सीट देने के बावजूद कांग्रेस उत्तर प्रदेश में एक भी सीट नहीं जीत पाएगी।’
वरिष्ठ पत्रकार सुषमा रामचंद्रन इससे सहमत नहीं हैं कि अगर सोनिया गांधी फिर रायबरेली से चुनाव लड़तीं तो हार जातीं वहीं ज़ोया हसन मानती हैं कि कांग्रेस की उत्तर प्रदेश में स्थिति बहुत खऱाब है।
वो कहती हैं, ‘कांग्रेस के लिए रायबरेली एकमात्र सीट थी जो पार्टी को मिल रही थी। मुझे नहीं लगता कि उनका रायबरेली से हटना किसी मंडराती हार का संकेत है। वो वहां से अगर जीत भी जातीं तो उससे कांग्रेस को मदद नहीं मिलती। पूर्व के दो, तीन चुनाव में उनकी जीत से कांग्रेस को मदद नहीं मिली है।’
राजस्थान से नामांकन भरने में क्या है संदेश?
सोनिया गांधी पहली बार अमेठी से 1999 में सांसद बनीं। ये वही सीट है जहां से कभी उनके पति राजीव गांधी चुनाव लड़ते थे। साल 2004 में उन्होंने रायबरेली का रुख़ किया और अमेठी सीट से राहुल गांधी ने चुनाव लड़ा।
राज्य सभा के रास्ते संसद पहुंचने वाली सोनिया नेहरू-गांधी परिवार की दूसरी सदस्य होंगी।
उनकी सास और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी साल 1964 से 1967 तक राज्यसभा की सदस्य थीं। बाद में उन्होंने रायबरेली से चुनाव लड़ा।
आज के कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को लें तो पार्टी अध्यक्ष और राज्यसभा सांसद मल्लिकार्जुन खडग़े कर्नाटक से हैं, जबकि राहुल गांधी केरल के वायनाड से सांसद हैं।
राजस्थान से सोनिया गांधी के राज्यसभा आने की वजह पर विनोद शर्मा कहते हैं, ‘ये सीट मनमोहन सिंह खाली कर रहे हैं। वो एक वरिष्ठ नेता हैं और सोनिया गांधी उनकी जगह ले रही हैं। इसलिए ये उम्र और व्यवहारिक राजनीति दोनों का मिश्रण है। और ये एक उत्तर भारतीय राज्य है। कांग्रेस के ज़्यादातर नेता जैसे खडग़े, राहुल गांधी, केसी वेणुगोपाल दक्षिण से हैं। सोनिया गांधी हिमाचल प्रदेश से भी चुनी जा सकती थीं लेकिन उन्होंने राजस्थान को चुना।’
साल 2019 के लोकसभा चुनावों को याद करें तो उत्तर भारत में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद खऱाब रहा था।
राहुल गांधी अमेठी का चुनाव हार गए थे। उन्हें भाजपा नेता और केंद्रीय मंत्री स्मृति इरानी ने हराया था।
कई महत्वपूर्ण राज्य जैसे दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान आदि में कांग्रेस खाता तक नहीं खोल पाई थी।
ऐसे में माना जा रहा है कि राजस्थान से सोनिया गांधी के राज्यसभा जाने से कांग्रेस ये संदेश देना चाह रही है कि उत्तर भारत को उसने छोड़ा नहीं है।
‘कांग्रेस के लिए अच्छा फ़ैसला नहीं’
यहां जानकार ये भी याद दिलाते हैं कि जब मनमोहन सिंह भारत के प्रधानमंत्री थे तब भी वो राज्यसभा के सदस्य थे और आज भी भाजपा के कई वरिष्ठ नेता राज्यसभा से सांसद हैं लेकिन पत्रकार सुषमा रामचंद्रन की मानें तो सोनिया गांधी का ये फ़ैसला कांग्रेस के लिए अच्छा फैसला नहीं है।
वो कहती हैं, ‘ये सोनिया गांधी ही थीं जिन्होंने विपक्षी नेताओं की ओर हाथ बढ़ाया और उन्हें साथ लेकर आईं। राहुल गांधी की वो पहुंच नहीं है। सोनिया गांधी की तरह वो क्षेत्रीय नेताओं को एक बैनर के नीचे नहीं ला पाए हैं।’
‘सोनिया गांधी को भी समस्याएं आईं लेकिन राहुल गांधी के मुक़ाबले विपक्षी नेताओं के बीच उनकी लोकप्रियता कहीं ज़्यादा थी। ये सोनिया गांधी ही थीं जिन्होंने यूपीए की सरकारों को चलाया। राहुल गांधी ऐसा नहीं कर पाए हैं।’
लंबा कार्यकाल
सोनिया गांधी के अध्यक्ष पद पर रहते रोजग़ार गारंटी योजना, भोजन का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, सूचना का अधिकार जैसे फ़ैसले लिए गए।
उनके अध्यक्ष रहते, देश में पहली बार महिला राष्ट्रपति प्रतिभा देवी पाटिल और लोकसभा की पहली दलित महिला अध्यक्ष मीरा कुमार बनाई गईं।
महिलाओं के आरक्षण का बिल भी उनके कार्यकाल में पेश हुआ। उन्होंने दो गठबंधन सरकार बनाने में कामयाबी पाई।
यूपीए-1 और 2 के दौरान उन्हें बहुत ताक़तवार माना जाता था और आरोप लगते थे कि असली सत्ता उन्हीं के पास थी।
इस वजह के अलावा विभिन्न कथित भ्रष्टाचार के मामलों को साल 2014 में यूपीए सरकार के अंत का कारण माना जाता है।
सामाजिक और राजनीतिक विज्ञानी ज़ोया हसन कहती हैं, ‘यह कांग्रेस में एक युग का अंत है। सोनिया गांधी 25 साल अपनी पार्टी में शीर्ष पर रहने के बाद लोकसभा से हट रही हैं। यह पार्टी में शीर्ष नेतृत्व में हो रही एक पीढ़ी के बदलाव का संकेत है।’
वो कहती हैं, ‘उनका भारतीय राजनीति में एक उल्लेखनीय स्थान है, यह ग़ैर भारतीय मूल का होने की वजह से और भी अहम है। यह हाल के राजनीतिक इतिहास के एक सबसे असाधारण करियर में से है।’ (bbc.com/hindi)
जगदीश्वर चतुर्वेदी
प्रेम महाकाव्य है।सभ्यता है। आम तौर पर निजी प्रेम बताने में लोग डरते हैं।मैं नहीं डरता।प्रेम करता हूँ तो बताता भी हूँ।जिससे करता हूँ उससे कहता भी हूँ।प्रेम का मतलब शरीर भोग नहीं है।आमतौर पर लोग प्रेम माने सेक्स के ही लेते हैं, ऐसे लोगों के लिए सेक्स ख़त्म तो प्रेम ख़त्म।सेक्स को प्रेम की पहली और आखऱिी सीढ़ी मानने वाले लोग प्रेम को नहीं जानते,बल्कि वे प्रेम के बारे में डिस-इन्फॉर्मेशन फैलाते हैं। दुख पाते हैं।
प्रेम तात्कालिक नहीं बल्कि दीर्घकालिक होता है।उसे आप कभी भूलते नहीं हैं। प्रेम कभी एक से नहीं होता, बल्कि मनुष्य अपने जीवन में अनेक लोगों से प्रेम करता है।प्रेम का अर्थ सिफऱ् प्रेमिका बनाना नहीं है।प्रेमिका बनाते ही प्रेम ख़त्म हो जाता है।प्रेम के लिए व्यक्ति के रुप में देखना सीखें,व्यक्ति की तरह आचरण करें।व्यक्ति की तरह आचरण करना अभी अधिकांश लोग सीख ही नहीं पाए हैं।प्रेमिका-प्रेमी के रुप में न देखकर व्यक्ति के रुप में एक-दूसरे को देखें।
प्रेमिका -प्रेमी तो बंधन है। जबकि प्रेम को बंधन नहीं चाहिए,उसे सिफऱ् प्रेम चाहिए।हमारे समाज में प्रेम पर खुलकर बातें करने से शिक्षित लोग संकोच करते हैं।अपने संकोच पर विभिन्न कि़स्म के पर्दे डाले रखते हैं।प्रेम को पर्दों की नहीं प्रेम की जरुरत है।अभिव्यक्ति की जरुरत है।जो अभिव्यक्त न किया जा सके, वह प्रेम नहीं है।निस्संकोच जीना, अभिव्यक्ति के लिए सभ्यता के बेहतर आयाम विकसित करना प्रेम है। प्रेम माने कलह या संपत्ति प्रेम नहीं है।
प्रेम में जब दाखिल होते हैं तो जीवन में सभ्यता का एक नया पाठ्यक्रम शुरु होता है।प्रेम माने सभ्यता का विकास है।प्रेम शुरु जरुर शारीरिक आकर्षण से होता है लेकिन वह सिफऱ् शरीर तक बंधा नहीं है।प्रेम का प्रवाह सभ्यता के विकास को जन्म देता है।प्रेम में कुछ लोग जीवनभर के लिए बंध जाते हैं.बंध जाना, शादी करना एक काम है।
लेकिन प्रेम का यह दायरा बाँध देता है।प्रेम को दायरे पसंद नहीं है।प्रेम कोई काम नहीं है कि कर लिया जाए, वरना उम्र निकल जाएगी।प्रेम की कोई उम्र नहीं होती।हर व्यक्ति एक से अधिक व्यक्तियों से प्रेम करता है।व्यक्ति कभी एक से प्रेम करके जि़ंदा नहीं रह सकता।
प्रेम अनुभूति है।वह सामाजिक, पारिवारिक या शारीरिक बंधन नहीं है।प्रेम को अनुभूति का अंग बनाने से सभ्यता के नए जीवन मूल्य जीवन में दाखिल होते हैं।प्रेम पुराने जीवन मूल्यों को त्यागने के लिए मजबूर करता है।पुराने जीवन मूल्यों से लड़े बग़ैर किया गया प्रेम बड़ा दुखदाई होता है।आमतौर पर प्रेम करने वाले पुराने जीवन मूल्यों से बंधे रहते हैं और प्रेम करते हैं।
प्रेम को जीने का अर्थ है बंधनों से मुक्ति,पुराने मूल्यों ,आदतों और संस्कारों से मुक्ति।प्रेम में मुक्ति या स्वतंत्रता सबसे महत्वपूर्ण तत्व है।प्रेम बंधन मुक्त करता है,स्वतंत्रता का मूल्य पैदा करता है।प्रेम में शक-संदेह के लिए कोई जगह नहीं है।जो लोग प्रेम करते हुए एक-दूसरे पर शक-संदेह करते हैं,वे असल में प्रेम के ख़िलाफ़ काम कर रहे होते हैं।
प्रेम सभ्यता है,अनुभूति है और स्वतंत्रता है।उसमें बंधन ,शक-संदेह ,रिश्तेदारी आदि नहीं आते। रिश्तेदारियाँ हमें बंधनों में बांधती हैं।प्रेम हमें रिश्तेदारियों के बाहर एक नए सामाजिक संसार में ले जाता है।जिसमें देने का भाव प्रमुख है, पाने का भाव प्रमुख नहीं है।जो दे नहीं सकता, वह पा नहीं सकता।यही वह बुनियादी परिप्रेक्ष्य है जिसे लेकर मैं आज तक प्रेम करता रहा हूँ।
प्रेम कभी ठंडा नहीं होता।प्रेम कभी बूढ़ा नहीं होता।प्रेम में अपार ऊर्जा है।प्रेम का अर्थ बुद्धिहरण ,विवेकहीनता या अंधानुकरण नहीं है।प्रेम की सत्ता का आधार है व्यक्ति की स्वतंत्रता और स्वतंत्र अस्मिता।प्रेम तब ही सार्थक होता है जब वह सभ्य, अनुभूति प्रवण और मन को बंधन मुक्त करे।प्रेम एक घटना मात्र नहीं है बल्कि वह तो एकदम नया सिस्टम है,नई व्यवस्था है जिसे व्यक्ति अपने अंदर विकसित करता है।
प्रेम की व्यवस्था का विकास करने के लिए पुराने सिस्टम के बाहर निकलना,उसके लिए संघर्ष करना, नए बंधन रहित सभ्य जीवन मूल्यों को सचेत रुप से अर्जित करना बुनियादी शर्त है।प्रेम को पुराने सामाजिक ढाँचे में फिट करके, पुराने सामाजिक मूल्यों में थेगड़ी लगाकर नहीं जी सकते। प्रेम के विकास के लिए पुराने का अंत करना बेहद जरुरी है।पुराने संबंध बंधन में बांधते हैं।प्रेम तो बंधन मानता ही नहीं है।
आमतौर पर प्रेम करते समय व्यक्ति व्यापारी की तरह मुनाफे-नुकसान का हिसाब लगाता है, क्या लाभ होगा,क्या नुक़सान होगा।क्या मिलेगा, क्या जाएगा, इन सब पर ध्यान देता है, सोचने का यह तरीक़ा प्रेम विरोधी है।प्रेम करते समय इस तरह की व्यापारिक बुद्धि से बचना चाहिए।प्रेम करना संपत्ति -शोहरत पाना नहीं है।प्रेम तो इन सबके दायरे के बाहर ले जाता है। जो लोग संपत्ति-शोहरत-ओहदा देखकर प्रेम करते है वे प्रेम का सौदा करते हैं।प्रेम सौदा नहीं है।ओहदा -शोहरत और सौदा ये तीनों चीजें प्रेम का अंत कर देती हैं।प्रेम करने लिए पुराने सिस्टम से स्वयं को निकालना बेहद जरुरी है।पुराने सिस्टम में रहकर ,उसके जीवन मूल्यों को जीकर प्रेम नहीं मिलता,सिर्फ बेजान शरीर मिलता है।
डॉ. संजय शुक्ला
राष्ट्रीय परीक्षा एजेंसी ‘एनटीए’ द्वारा जेईई - मेन्स का रिजल्ट घोषित करने के बाद देश के कोचिंग तीर्थ ‘कोटा’ से दर्दनाक खबर आई कि वहां छत्तीसगढ़ के सूरजपुर के 16 वर्षीय छात्र शुभ चौधरी ने हॉस्टल के पंखे से लटक कर अपनी जान दे दी। अलबत्ता कोचिंग हब कोटा में मेडिकल और इंजीनियरिंग के दाखिले की तैयारी कर रहे स्टूडेंट्स द्वारा खुदकुशी की यह पहली घटना नहीं है बल्कि इस साल बीते डेढ़ महीने में चार छात्रों ने पढ़ाई या प्रतिस्पर्धा के दबाव अथवा अन्य वजहों से खुदकुशी कर ली है। आंकड़ों के मुताबिक कातिल कोटा में बीते साल 2023 में 29 छात्रों ने मौत को गले लगा लिया था। गौरतलब है कि राजस्थान के कोटा शहर की पहचान पूरे देश में कोचिंग हब के रूप में है जहां देश के विभिन्न हिस्सों के छात्र अपने अभिभावकों के सपनों को पूरा करने क?ई अरमान लिए मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों में दाखिले की तैयारी के लिए इस शहर में आते हैं।
कोटा शहर में मेडिकल और इंजीनियरिंग में दाखिले की तैयारी के लिए बड़े-बड़े कोचिंग इंस्टीट्यूट हैं जो देश भर में अखबारी विज्ञापनों और होर्डिंग इश्तेहारों जरिए इन कॉलेजों में सौ फीसदी दाखिले की गारंटी देकर अभिभावकों और बच्चों को सपने बेचते हैं। विज्ञापनों का मायाजाल इतना कि माता-पिता अपने बच्चों की क्षमता और अभिरुचि जाने बिना ही उन पर अपनी अपेक्षाओं का बोझ लादकर इस अनजान शहर में भेज देते हैं जहां की भीड़ में हजारों बच्चों की पहचान सिर्फ एक उपभोक्ता की होती है। अलबत्ता कोटा में बच्चों के खुदकुशी के बढ़ते मामलों पर देश के शिक्षाविद और समाजशास्त्री सभी चिंतित हैं जिन्होंने बीते साल सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर इन हादसों के लिए कोचिंग संस्थानों को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने आत्महत्याओं के लिए कोचिंग सेंटर्स नहीं बल्कि अभिभावकों के दबाव को जिम्मेदार ठहराया था।अदालत ने कहा था कि माता-पिता अपने बच्चों से उनकी क्षमता से ज्यादा उम्मीद लगा लेते हैं फलस्वरूप बच्चे प्रतिस्पर्धा के दबाव में आत्मघाती कदम उठा रहे हैं। अदालत ने सरकारी शिक्षा व्यवस्था पर भी टिप्पणी किया था।
बहरहाल कोटा शहर में बच्चों के आत्महत्या के मामलों पर गौर करें तो पुलिसिया आंकड़ों के मुताबिक बीते दस सालों में कोचिंग लेने वाले लगभग 150 से ज्यादा छात्रों ने खुदकुशी की है। गुजरे साल 2023 में 29 छात्रों ने आत्महत्या की जो बीते 8 सालों के दौरान सर्वाधिक है। कोटा पुलिस के अनुसार साल 2015 में 17, साल 2016 में 16,साल 2017 में 7, साल 2018 में 20 तथा 2019 में 8 छात्रों द्वारा खुदकुशी के मामले दर्ज किए गए थे। बहरहाल यह आंकड़े अपने माता -पिता के ‘स्टेटस टैग’ बरकरार रखने के जद्दोजहद में जान देने वाले उन बच्चों के अभिभावकों के लिए नसीहत है जो अपनी अपेक्षाओं और जिद्द का जबरिया बोझ बच्चों पर लाद रहे हैं। भारत युवा राष्ट्र है जहां युवाओं की आबादी पूरी दुनिया में सर्वाधिक है लेकिन विचलित करने वाली बात यह कि इस जनसंख्या का बड़ा हिस्सा निराशा और अवसाद से ग्रस्त होकर खुदकुशी के लिए विवश हो रहा है। दुखद यह कि उस भारत की तस्वीर है जिसके युवा पूरी दुनिया में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रहे हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो 'एनसीआरबी' के अनुसार देश में आत्महत्या के कुल मामलों में 40 फीसदी संख्या 18 से 35 साल के युवाओं की है। अलबत्ता छात्रों द्वारा आत्महत्या की घटनाएं केवल कोटा शहर में ही नहीं हो रही है बल्कि देश के अनेक आईआईटी, मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों में भी ऐसी घटनाएं लगातार हो रही है।जानकारी के मुताबिक बीते आठ बरसों में आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित उच्च शिक्षा संस्थानों में 35 छात्रों ने आत्महत्या की है।एनसीआरबी के रिपोर्ट के मुताबिक छात्रों की आत्महत्या का आंकड़ा 2021से हर साल 13 हजार के उपर बना हुआ है और यह 4 फीसदी प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रहा है। साल 2017 से 2021के बीच छात्रों आत्महत्या के मामले में 32 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है।अपनी मेहनत, काबिलियत और कठिन इम्तिहान के जरिए इन संस्थानों में दाखिला लेने वाले प्रतिभाएं जिनके सामने देश और विदेश में आकर्षक नौकरियों की कतार है वे जिंदगी का जंग क्यों हार रहे हैं ? इस सवाल का हल सरकार और समाज को ढूंढना ही होगा। आखिरकार यह देश के सबसे बड़े वर्कफोर्स से जुड़ा मसला है।
छात्रों द्वारा किए जा रहे खुदकुशी के आंकड़े सिर्फ एक संख्या भर नहीं है बल्कि यह इकलौते संतान वाले परिवारों के लिए दुख का पहाड़ है। मनोविज्ञानियों की मानें तो अनावश्यक प्रतिस्पर्धा के दौर में अधिकांश छात्र अवसाद और कुंठा से घिर रहे हैं। अभिभावकों की इच्छा पर कोचिंग फैक्ट्री में दाखिला लेने वाले छात्र भावनात्मक सहयोग और संवाद के अभाव में मौत को गले लगा रहे हैं। अलबत्ता हाल के बरसों में बेरोजगार युवाओं के भी खुदकुशी के आंकड़े बढ़े हैं। छात्रों द्वारा किए जा रहे आत्महत्या के कारणों पर गौर करें तो इसके लिए मुख्य रूप से गलाकाट प्रतिस्पर्धा, बच्चों से अभिभावकों की बढ़ती अपेक्षा,शिक्षा में असमानता, भाषा की अड़चन, संसाधनों की कमी, सिलेबस का बोझ, फैकल्टी के साथ संवाद में कमी, मनोविज्ञानियों की अनुपलब्धता,जातिगत व लैंगिक भेदभाव और आर्थिक व सामाजिक विषमता, बेरोजगारी , पारिवारिक समस्या और नशाखोरी जैसी परिस्थितियां जिम्मेदार हैं। गौरतलब है कि बीते दो दशक के दौरान प्रोफेशनल कोर्सेज में गलाकाट प्रतिस्पर्धा बढ़ी है वहीं महानगरों से लेकर छोटे शहरों में इन कोर्सेज में प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी के लिए कोचिंग संस्थान भी बड़ी संख्या में खुले हैं। भारत में कोचिंग अब एक उद्योग का स्वरूप ले चुका है जिसका बाजार लगभग साढ़े पांच लाख करोड़ का है।
राजस्थान के कोटा शहर की पहचान पूरे देश में कोचिंग राजधानी के तौर पर है जहां विभिन्न हिस्सों से छात्र मेडिकल और इंजीनियरिंग कोर्सेज में दाखिला का अरमान लेकर यहां आते हैं। आंकड़ों के मुताबिक कोटा के विभिन्न संस्थानों में रिकॉर्ड दो लाख छात्र नामांकित हैं और दाखिला परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं। इस बीच विचारणीय है कि कुछ अभिभावक अपने ‘स्टेटस टैग’ बरकरार रखने और कुछ अपने बच्चों को यह टैग हासिल करवाने के लिए यहां की भीड़ में छोड़ जाते हैं। विडंबना है कि अभिभावक अपने बच्चों की प्रतिभा और अभिरूचियों की आंकलन की जगह अपनी अपेक्षाओं को उनके उपर लाद रहे हैं। जबरिया अपेक्षाओं का बोझ लादे बच्चे अनजान शहर और परिवेश में अपने आपको ढाल नहीं पा रहे हैं फलस्वरूप परीक्षा में असफल होने और पालकों के अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पाने के के डर और आत्मग्लानि में बच्चे अवसाद ग्रस्त होकर खुदकुशी कर रहे है। बेहतर होगा कि अभिभावक अपने बच्चों को पर्याप्त समय दें तथा अपनी अपेक्षाएं लादने के बजाय बच्चे के हुनर और योग्यता को प्रोत्साहित करें।
मनोवैज्ञानिकों के मुताबिक आत्महत्या के लिए अवसाद यानि डिप्रेशन सबसे बड़ा कारण है। सामान्य तौर पर खुद मनोरोगी और अभिभावक या परिजन मानसिक रोग के लक्षणों और कारणों से अनजान रहता है। पढऩे वाले बच्चों के मामले में अभिभावकों की जवाबदेही है कि वे अपने बच्चों में अवसाद के लक्षण को तुरंत पहचानें और मनोरोग विशेषज्ञों से परामर्श लें। आमतौर पर अवसाद के मुख्य लक्षण बार- बार गुस्सा या दुखी होकर रोना, झूठ बोलना, अपराध बोध, असंतुष्टि, पारिवारिक और सामाजिक गतिविधियों में अरूचि, अनिद्रा या बहुत नींद आना, बेचैनी,वजन घटना या बढऩा, एकाग्रता का आभाव, अकेले रहना और बार-बार खुदकुशी के बारे में ख्याल आना है। अवसाद के उपचार में काउंसिलिंग, पारिवारिक और भावनात्मक लगाव, खेल और मनोरंजन गतिविधियों में शामिल होना, मादक पदार्थों का त्याग और व्यायाम, योग, ध्यान और प्रार्थना जैसे उपाय कारगर हैं।
छात्रों में बढ़ रहे खुदकुशी के मामलों पर कोचिंग संस्थानों को भी बहुत ज्यादा सजग और संवेदनशील होने की आवश्यकता है। सरकार को इन संस्थानों में अनिवार्य रूप से काउंसलर्स की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए जरूरी उपाय सुनिश्चित करना चाहिए।
इसके अलावा संस्थान की जवाबदेही है कि वे बच्चों के साथ निरंतर संवाद करे और जिन बच्चों में अवसाद के लक्षण मिल रहे हैं उनके संबंध में अतिरिक्त सावधानी बरतते हुए अभिभावकों को सूचित करें। प्रतिस्पर्धा की दौड़ में जिंदगी का जंग हारने के पीछे एक अहम कारण हमारी स्कूली शिक्षा भी है जिस पर सरकार को गंभीरता पूर्वक विचार करना होगा। देश में शिक्षा में व्यापक असमानता है जो अमीरी और गरीबी के बीच बंटी हुई है। एक ओर बदहाल सरकारी स्कूल हैं जहां शिक्षा से संबंधित मानव संसाधन और बुनियादी सुविधाओं का आभाव ह वहीं दूसरी ओर साधन संपन्न पांच सितारा निजी स्कूल हैं जहां के बच्चे आज की प्रतिस्पर्धा के लिए पहले से ही तैयार हैं। सरकार और समाज को शिक्षा के इस असमानता को दूर करना चाहिए ताकि आर्थिक तंगी के चलते गरीब बच्चों के मेधा का क्षरण न हो। किसी भी राष्ट्र और समाज के लिए उसकी सबसे बड़ी पूंजी ‘छात्र’ होते हैं जिस पर उसका वर्तमान और भविष्य निर्भर होता है। अभिभावकों और परिवार की जवाबदेही है कि वह देश के इस भविष्य के साथ निरंतर संवाद स्थापित करे और उनके समस्याओं के प्रति संवेदनशील बनें ताकि कोई भी छात्र जिंदगी का जंग न हारे।