विचार/लेख
- डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी
जब भी आम चुनाव नजदीक आते हैं या उत्तर प्रदेश अथवा हिन्दी पट्टी के चुनाव की घोषणा होती है, तब तमाम चुनाव पर्यवेक्षक और कथित विशेषज्ञ मतदाताओं की जाति पर जरूर कोई न कोई टिप्पणी करते हैं। अखबारों की रिपोर्टिंग और टेलीविजन चैनलों की बहस में भी यह बात साफ दिखाई देती है। क्या सचमुच में भारत में चुनाव जाति के आधार पर होते हैं? क्या लोग जाति के आधार पर ही अपना प्रतिनिधि चुनते हैं? चुनाव के बाद भी जिस तरह की समीक्षाएं आती हैं उसमें यही बात कही जाती है कि इस इलाके में फलां जाति के लोगों का बहुमत है और इस जाति के लोगों ने इस उम्मीदवार को वोट दिया होगा, इसलिए इस जाति के उम्मीदवार उम्मीदवार विजयी हुए हैं। यह बात कितनी सच है और कितनी गलत, यह तो कहा नहीं जा सकता।
पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं और चुनाव को लेकर इस बार भी इसी तरह की समीक्षाएं आ रही हैं। इस इलाके में फलां जाति के मतदाताओं का वर्चस्व है तो इस इलाके में इस जाति के मतदाता ज्यादा सक्रिय हैं। हाल ही में जब कुछ नेताओं ने दलबदल किया, तब उनकी जाति को लेकर भी ऐसी ही तरह-तरह की चर्चाएं चल पड़ी। ऐसा लगता है मानो टेलीविजन चैनलों के पैनलिस्ट्स और राजनीतिक पर्यवेक्षकों को अपनी बातें बनाने के लिए कोई मुद्दा मिल गया है। भारत में लोग जाति को देखकर वोट देते हैं, इस बारे में लोगों की अलग-अलग राय हो सकती है लेकिन इस बारे में प्रसिद्ध समाजशास्त्री प्रो. दीपांकर गुप्ता की बात बहुत सही लगती है जिन्होंने एक बहुत दिलचस्प किताब लिखी है- ‘इंटैरोगेटिंग कास्ट’। दीपांकर गुप्ता का यह अनुभव रहा कि चुनावी सर्वेक्षणों पर विश्वास नहीं किया जा सकता। ऐसा लगता है कि चुनावी सर्वेक्षण और टेलीविजन चैनलों पर पैनलिस्ट्स की बातें आमतौर पर वक्त काटने का ज़रिया होती हैं।
प्रो. गुप्ता का यह कहना है कि यह बात सही है कि भारत में जाति व्यवस्था का अपना महत्व है। ज़्यादातर लोग शादी-ब्याह में जातियां देख कर ही वर-वधू चुनते हैं, पर यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय समाज बड़ा ही अलग और अनूठा समाज है। यहां लोग शादियां करते हैं भारतीय या हिन्दू तिथि के अनुसार; लेकिन शादी की सालगिरह मनाते हैं हमेशा अंग्रेजी तिथि के अनुसार। हिन्दू पंचांग को लेकर लोगों के मन में इस तरह का कोई बहुत गंभीर या पूर्वाग्रह नहीं है। उनका कहना है कि भारत में लोग न तो जाति देखकर दोस्ती करते हैं और ना ही जाति देखकर वोट देते हैं। हां, यह बात सही है कि तमाम राजनीतिक दल जब अपने उम्मीदवार का चुनाव करते हैं तब इस बात पर बहुत ध्यान देते हैं कि उनकी पार्टी का प्रत्याशी किस जाति का हो। पार्टियां यह भी समीक्षा करती हैं कि किस क्षेत्र में किस जाति के कितने मतदाता हैं। अनुमान लगाने की कोशिश होती है कि वह उम्मीदवार अपनी जाति या समाज के कितने लोगों से वह वोट खींच पायेगा। आम तौर पर ऐसे अनुमान सही नहीं होते और इसके बहुत सारे उदाहरण हैं कि लोग जाति के आधार पर वोट नहीं देते।
दीपांकर गुप्ता का कहना है कि महाराष्ट्र में लगभग एक तिहाई मतदाता मराठा है। जब पार्टियां वहां टिकट का वितरण करती है तब यह बात ज़रूर देखती है कि उस क्षेत्र में मराठा उम्मीदवार को ही अवसर दिया जाए। जब चुनाव की नौबत आती है तब एकाधिक पार्टियां मराठा व्यक्ति को ही अपने पार्टी की तरफ से चुनाव में खड़ा कर देती है। एक ही जगह एकाधिक उम्मीदवारों के होने से मराठा मतदाताओं के वोट भी बंट जाते हैं और चुनाव के नतीजों पर उम्मीदवार के जाति कोई बहुत असर नहीं दिखा पाती।
प्रो. गुप्ता का कहना है कि लोग जाति के आधार पर वोट देते हैं, यह मतदान का विश्लेषण करने का सरलीकरण है। व्यवस्था उस तरह से काम नहीं करती। लोगों का मानना है कि पश्चिम उत्तर प्रदेश में जाटों का बहुमत है, लेकिन यह ग़लत है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों की संख्या दस प्रतिशत के आसपास है। लेकिन यह अवधारणा बनी है कि इस इलाके में जाट बहुत ज्यादा हैं इसलिए यहां से किसी जाट को ही उम्मीदवार बनाया जाना चाहिए। मधेपुरा में करीब बीस प्रतिशत ही यादव हैं। चुनाव में एक से अधिक पार्टियां यादव को टिकट दे देती है और यादवों के वोट कट जाते हैं।जिस व्यक्ति को दूसरी जातियों के वोट ज्यादा मिलते हैं, वह चुनाव में जीत जाता है।
जाति की भूमिका टिकट देने में तो है ही, पार्टियों के पदाधिकारी चुनने में भी होती है। यह राजनीतिक दलों का सरलीकरण है कि अगर किसी राज्य में मुख्यमंत्री एक जाति का है तो दूसरी जाति का व्यक्ति पार्टी का अध्यक्ष बना दिया जाए। जब चुनाव होता है और राजनीतिक दलों को अपने चुनाव एजेंट चुनने होते हैं, तब भी वे दल यह देखते हैं कि उनका पोलिंग एजेंट किस जाति का है। वास्तव में वहां वोट देने वाले को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि पार्टी जो पोलिंग एजेंट वहां बैठा है, वह किस जाति का है। ग्राम पंचायत के चुनाव में अवश्य जाति के आधार पर वोट पड़ते हैं, क्योंकि वहां मतदान की यूनिट छोटी होती है।
‘इंटैरोगेटिंग कास्ट’ पुस्तक के एक अध्याय में दीपांकर गुप्ता ने लिखा है, 2007 में उत्तर प्रदेश के चुनाव में मायावती की बहुजन समाज पार्टी बहुत शानदार तरीके से जीती थी। बहुजन समाज पार्टी को 36. 27 प्रतिशत वोट मिले थे। 403 सीटों में से उसे 206 सीटों का पूर्ण बहुमत मिला था। जिन-जिन सीटों पर मायावती की बहुजन समाज पार्टी जीती, उन सभी में अनुसूचित जाति का बहुमत नहीं था। 2012 में बहुजन समाज पार्टी को 80 सीटें ही मिलीं। गत चुनाव में मिली सीटों का 40 प्रतिशत से भी कम। 2019 के लोकसभा चुनाव में मायावती और उनकी पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली, जबकि 2009 में उसे 21 सीटें मिली थीं।
प्रो. गुप्ता ने 1990 के दशक में हुए लोकसभा के तीन चुनाव और बिहार, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के चुनाव का गहन अध्ययन किया। इस अध्ययन में उन्होंने पाया कि चुनाव के नतीजों का मतदाताओं की जाति से कोई ताल्लुक नहीं है। अनेक चुनाव क्षेत्रों में कुछ जातियों का बड़ा बोलबाला होता है, लेकिन उनके मतदाताओं की संख्या 20 प्रतिशत से ज्यादा नहीं। हमारे जाति समाज में अजा और अजजा में भी उप जातियों का बोलबाला है। वहां भी अनेक जगह पर एक जाति के लोग दूसरी उप जाति के लोगों से बेटी-रोटी के रिश्ते नहीं रखते।
पूरे देश में अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग जातियों के लोगों का बोलबाला है। किसी एक इलाके में ठाकुरों का वर्चस्व है तो किसी दूसरे इलाके में ब्राह्मणों का प्रभाव बहुत ज्यादा है। कई इलाकों में अनेक प्रभावशाली पदों पर एक ही जाति के लोग होते हैं। जिस जाति का कलेक्टर, उसी जाति का एसपी, उसी जाति के विधायक वगैरह, वगैरह। ऐसे में यह मानना कि वे दूसरी जातियों के लोगों से नफरत करते हैं और उनको कभी वोट नहीं देंगे, सही नहीं है। हां, वे अपने समाज और जाति के व्यक्ति की सलाह लेने ज़रूर जाते हैं। जैसे कि हम अपने बच्चों को किस तरह की पढ़ाई की तरफ आगे बढ़ाएं?अपने कारोबार का किस तरह से विस्तार करें, आदि। यह सब बातें समाज के प्रभावशाली लोग अपने जाति के लोगों को बताते हैं लेकिन अगर वे यह कहने लगे कि इस चुनाव में इस विशेष उम्मीदवार को ही वोट दीजिए तो वे उसे वोट देंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है। जाहिर है कि इस तरह की बातें उनके लिए बचकानी है।
याद कीजिए, जब अकाली दल पंजाब में जीतकर सरकार बना रहा था तब किसी को इस बात का अंदाजा नहीं था। जब उत्तर प्रदेश में कहा गया था कि गठबंधन की सरकार बनेगी, लेकिन गठबंधन की सरकार नहीं बनी। आमतौर पर टेलीविजन चैनलों में पैनलिस्ट के रूप में बैठने वाले लोग और अखबारों में समीक्षा लिखने वाले लोग जाति के आधार पर उम्मीदवारों की हार-जीत की घोषणा कर डालते हैं और जब नतीजे आते हैं तो वह एकदम अलग ही निकलते हैं। टीवी चैनलों पर बहस करने वाले बुद्धिजीवी भूल जाते हैं कि जिस तरीके से वे जाति के आधार पर विवेचना करते हैं उसका समाज पर कोई असर नहीं। हां, यह बहस लोगों का मनोरंजन करने और समय काटने के लिए बहुत अच्छा जरिया होती है।
-संजय श्रमण
हम यह मानकर चलते हैं कि धर्म का नाश जरूरी है। कई लोग इसे संभव मानते भी हैं। लेकिन भारतीय लोगों के मनोविज्ञान का अध्ययन करें तो भारत के लिये कम से कम यह संभव नहीं है।
धर्म का नाश न तो संभव है और ना ही जरूरी है। हाँ ईश्वर, आत्मा और पुनर्जन्म जैसे तीन महत्वपूर्ण अंधविश्वासों का नाश हो सकता है, होना भी चाहिए लेकिन धर्म किसी न किसी रूप मे बना रहेगा, बना रहना भी चाहिए। ईश्वर के या अदृश्य के नाम पर जो गलत होता आया है उससे धर्म को अनिवार्य रूप से जोडऩा गलत है।
भारत में बौद्ध, आजीवक, जैन और अन्य प्राचीन धर्म ईश्वर के बिना ही नहीं बल्कि ईश्वर के नकार पर खड़े थे। बौद्ध धर्म तो ईश्वर ही नहीं बल्कि आत्मा को भी नहीं मानता।
ईश्वर को हटा दिया जाए तब भी एक धर्म होता है जिसमे नैतिकता सर्वोपरि हो सकती है। धर्म का नाश और ईश्वर का नाश दो भिन्न बातें हैं। ईश्वर के साथ और ईश्वर के बाद भी धर्म होता है क्योंकि धर्म असल में समाज के जीवन की व्यवस्था का नाम है। उसे धर्म का नाम न भी दिया जाए तब भी समाज कोई न कोई व्यवस्था खोजेगा ही। इस तरह समाज को किसी न किसी महा-कथा या महा-सिद्धांत की जरूरत हमेशा बनी रहेगी।
भारत ही नहीं दुनिया में सभी समाजों और समुदायों को किसी न किसी महाकथा या महा-सिद्धांत या ग्रैंड नेरेटिव की जरूरत होती है, वह ग्रैंड नेरेटिव धर्म के रूप में सबसे आकर्षक ढंग से हमारे सामने आता है।
कम से कम भारत के बहुजन इस ग्रैंड नेरेटिव की शक्ति का उपयोग करने से स्वयं को दूर नहीं रख सकते। धर्म को नकारने की सभी रणनीतियाँ ब्राह्मणवाद को ही मजबूत करती हैं। धर्म के विरुद्ध लड़ाई कम से कम बहुजनों के लिए एक अन्य ही विशेष अर्थ रखती है।
ग्लोबल नास्तिकता के प्रोजेक्ट मे जो पोजीशन ग्लोबल एलिट या ग्लोबल वंचित या यूरोपीय वंचित ले सकते हैं वह उनकी अपनी जगह ठीक हो सकती है लेकिन ग्लोबल एलीट/वंचित और भारतीय बहुजनों के बीच कोई अनिवार्य साम्य नहीं है।
इसीलिए नास्तिकता का ग्लोबल प्रोजेक्ट और बहुजनों की मुक्ति का भारतीय प्रोजेक्ट दो भिन्न बाते हैं।
इन दो प्रोजेक्ट्स को एक या साझे प्रोजेक्ट की तरह देखना गलत है। इससे बड़ा कन्फ्यूजन पैदा हुआ है। इस कन्फ्यूजन में भारतीय बहुजनों का काफी नुकसान हो चुका है।
अब भारत के बहुजनों को अपनी विशिष्ठ समस्या के अनुरूप अपनी विशिष्ट भारतीय संदर्भ की वैचारिकी और रणनीति को पृथक करते हुए उसकी घोषणा करनी होगी।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
क्या आपको यह जानकर आनंद नहीं होगा कि दुनिया के सबसे ज्यादा शुद्ध शाकाहारी लोग भारत में ही रहते हैं। ऐसे लोगों की संख्या 40 करोड़ से ज्यादा है। ये लोग मांस, मछली और अंडा वगैरह बिल्कुल नहीं खाते। यूरोप, अमेरिका, चीन, जापान और मुस्लिम देशों में मुझे कई बार यह वाक्य सुनने को मिला कि ‘हमने ऐसा आदमी जीवन में पहली बार देखा, जिसने कभी मांस खाया ही नहीं।’ दुनिया के सभी देशों में लोग प्राय: मांसाहार और शाकाहार दोनों ही करते हैं। लेकिन एक ताजा खबर के अनुसार ब्रिटेन में इस साल 80 लाख लोग शुद्ध शाकाहारी बनने वाले हैं।
वे अपने आप को ‘वीगन’ कहते हैं। अर्थात वे मांस, मछली, अंडे के अलावा दूध, दही, मक्खन, घी आदि का भी सेवन नहीं करते। वे सिर्फ अनाज, सब्जी और फल खाते हैं। इसका कारण यह नहीं है कि वे पशु-पक्षी की हिंसा में विश्वास नहीं करते। वे भारत के जैन, अग्रवाल, वैष्णव और कुछ ब्राह्मणों की तरह इसे अपना धार्मिक कर्तव्य मानकर नहीं अपनाए हुए हैं। इसे वे अपने स्वास्थ्य के खातिर मानने लगे हैं। न तो उनका परिवार और न ही उनका मजहब उन्हें मांसाहार से रोकता है लेकिन वे इसलिए शाकाहारी हो रहे हैं कि वे स्वस्थ और चुस्त-दुरुस्त दिखना चाहते हैं।
मुंबई के कई ऐसे फिल्म अभिनेता मेरे परिचित हैं, जिन्होंने ‘वीगन’ बनकर अपना वजन 40-40 किलो तक कम किया है। वे अधिक स्वस्थ और अधिक युवा दिखाई पड़ते हैं। सच्चाई तो यह है कि शुद्ध शाकाहारी भोजन आपको मोटापे से ही नहीं, डायबिटीज, ब्लड प्रेशर और हृदय रोगों से भी बचाता है। इसे किसी धर्म-विशेष के आधार पर विधि-निषेध की श्रेणी में रखना भी जरा कठिन है, क्योंकि सब धर्मों के कई महानायक आपको मांसाहारी मिल सकते हैं।
वैसे किसी भी मजहबी ग्रंथ में यह नहीं लिखा है कि जो मांस नहीं खाएगा, वह घटिया हिंदू या घटिया मुसलमान या घटिया ईसाई माना जाएगा। वास्तव में दुनिया में मांसाहार बंद हो जाए तो प्राकृतिक संसाधनों की भारी बचत हो जाएगी और प्रदूषण भी बहुत हद तक घट जाएगा। इन विषयों पर पश्चिमी देशों में कई नए शोध-कार्य हो रहे हैं और भारत में भी शाकाहार के विविध लाभों पर कई ग्रंथ लिखे गए हैं। दूध, दही, मक्खन और घी आदि के त्याग पर कई लोगों का मतभेद हो सकता है। यदि वे ‘वीगन’ न होना चाहें तो भी खुद शाकाहारी होकर और लाखों-करोड़ों लोगों को प्रेरित करके एक उच्चतर मानवीय जीवन-पद्धति का शुभारंभ कर सकते हैं। अब शाकाहार अकेले भारत की बपौती नहीं है। यह विश्वव्यापी हो रहा है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-जसिंता केरकेट्टा
आदिवासी समाज के भीतर कोई पुरुष भ्रष्टाचारी निकल जाय, बलात्कारी निकल जाय, हिंसक निकल आए, हत्यारा निकल आए तो भी मैंने ऐसे लोगों के खिलाफ़ इतनी ताकत से उनका विरोध करते किसी आदिवासी समुदाय को नहीं देखा, जितनी ताकत वे एक स्त्री के खिलाफ़ लगाते हैं. अगर मुखर स्त्री किसी नौकरी में हो तो सबसे पहले उसे आर्थिक रूप से तोड़ना इनका मूल मकसद हो जाता है. और क्या हो जो कोई नौकरी न करती हो? तो उसकी हत्या या मोब लिंचिंग करने से भी यह समाज पीछे नहीं हटेगा.
मेरा पूरा बचपन संताल समाज के बीच बीता है. गांव-गांव, गली-गली कूचा-कूचा. इस समाज के भीतर स्त्रियों की स्थिति क्या है? समाज की अपनी ताक़त और कमियां क्या है? यह उदाहरण और प्रमाण के साथ दिए जा सकते हैं. और यह भी कि आदिवासी समाज के भीतर पितृसत्ता किस तरह काम करती है. परंपराओं को समाज के लोग ही बनाते हैं और यह कोई न बदलने वाली चीज़ नहीं है. परंपराएं कितनी मानवीय रह गईं हैं? उसमें कौन सी बातें घुस गईं हैं? इसपर अपनी बात रखने का अधिकार उस समाज के स्त्री/ पुरुष सभी को है. विचार/ मंथन करने का काम भी समाज का है.
सहायक प्रो. रजनी मुर्मू अपने समाज की कमियों को लेकर हमेशा मुखर रहीं हैं. हाल के दिनों में उन्होंने सोहराय पर्व को लेकर फेसबुक पर कोई छोटी टिप्पणी लिखी. अगर यह टिप्पणी कोई पुरुष लिखता तो सम्भवतः कोई इतना ध्यान भी नहीं देता. लेकिन उनकी टिप्पणी पितृसत्तात्मक समाज को चुभ गई है. संताल समाज के युवा छात्र नेता चाहते हैं कि रजनी मुर्मू जैसी कोई स्त्री फिर कभी आलोचना करने की हिम्मत न कर सके इसलिए वे उन्हें नौकरी से हटाए जाने की पुरजोर मांग कर रहे हैं. यह हर उस स्त्री की बात है जिसके पास अपना एक नजरिया है और जो अपनी बात कहना चाहती है.
आदिवासी समाज कहने को तो सामूहिकता और संवाद पर यकीन रखता है. लेकिन इसके भीतर जाकर देखें तो यह सामूहिकता दरअसल एक ऐसी भीड़ है जहां व्यक्ति को बोलने, आगे बढ़ने की आजादी नहीं है. सामूहिकता के नाम पर लोग मिलकर एक दूसरे की टांग खींचकर उन्हें बर्बाद करने की जुगत में रहते हैं. जहां तक संवाद की बात है. संवाद तभी संभव है जब कोई दूसरे को सुन रहा हो.
आदिवासी समाज के भीतर ऐसे संगठन तैयार हुए हैं जो किसी को बर्दाश्त नहीं कर सकते. सुन नहीं सकते. आलोचनाएं और शिकायत को ठीक से सुनने वाले लोग और समाज किसी के बोलने/ आलोचना करने/ शिकायत करने के मकसद को देखते हैं. आलोचनाओं के पीछे बहुतों का मकसद बुरा नहीं होता. कुछ भड़ास निकालने के लिए शिकायत करते हैं तो कुछ के शिकायतों के पीछे सुधार की प्रबल इच्छा काम करती है. शिकायतों को उन मकसदों के आधार पर देखना चाहिए.
आदिवासी समाज शिकायतों को सुनना नहीं सीख पाया है. संताल समाज के ऐसे छात्र नेताओं के दबाव में अगर सहायक प्रो.रजनी मुर्मू को नौकरी से निकालने की अनुमति दी जाती है तो इससे बुरा उदाहरण और कुछ नहीं होगा. मैं समाज के प्रबुद्ध लोगों से अपील करती हूं कि जिस तरह भी बन पड़े आप उनकी मदद करें.
-सरोज सिंह
पंजाब चुनाव को लेकर सियासी हलचल एक बार फिर तेज है। आम आदमी पार्टी ने मंगलवार को अपने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर भगवंत मान के नाम की घोषणा कर दी है। वहीं कांग्रेस के ट्विटर हैंडल से एक दिन पहले एक वीडियो ट्वीट किया गया।
वीडियो में अभिनेता सोनू सूद पंजाब का सीएम कैसा हो, ये कहते दिखाई दे रहे हैं और आखऱि में सोनू सूद की आवाज के ऊपर मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी का वीडियो रोल करने लगता है। इस वीडियो को पंजाब कांग्रेस ने भी री-ट्वीट किया है। इसके बाद कयास लगाए जा रहे हैं कि पंजाब में कांग्रेस का सीएम चेहरा चन्नी ही होंगे। हालांकि आधिकारिक तौर पर कांग्रेस की तरफ से इसकी कोई पुष्टि नहीं हुई है।
लेकिन जिस हिसाब से कांग्रेस ने पिछले साल कैप्टन अमरिंदर सिंह को हटाकर चरणजीत सिंह चन्नी को सीएम की कुर्सी पर बिठाया था और उनके दलित होने को एक बड़ा ‘यूएसपी’ करार दिया था, उससे इस कयास को सिरे से ख़ारिज भी नहीं किया जा सकता है।
पंजाब चुनाव क्या ‘चन्नी
बनाम मान’ होगा?
ऐसे में पंजाब चुनाव अगर ‘चन्नी बनाम मान’ हुआ तो क्या बातें होंगी जो मायने रखेंगी?
इस सवाल का जवाब जानने से पहले ये जानना ज़रूरी है कि इस बार पंजाब चुनाव में कौन से बड़े प्लेयर हैं जो मैदान में हैं?
कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के अलावा, बीजेपी से नाता तोड़ कर अकाली दल और बीएसपी गठबंधन मैदान में है। वही पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने बीजेपी के साथ गठबंधन किया है। इतना ही नहीं किसान आंदोलन में शामिल रहे 22 संगठनों ने भी संयुक्त समाज मोर्चा (एसएसएम) के बैनर तले चुनाव लडऩे का फैसला किया है।
इस आधार पर पंजाब के इंस्टीट्यूट ऑफ़ डेवलपमेंट एंड कम्यूनिकेशन के निदेशक डॉक्टर प्रमोद कुमार कहते हैं कि इस बार विधानसभा चुनाव में पाँच पार्टियों की लड़ाई है। अकाली दल, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी तो पिछला चुनाव भी लड़े थे, लेकिन कैप्टन अमरिंदर सिंह और किसानों की पार्टी ने मुक़ाबले को और पेचीदा बना दिया है।
डॉक्टर प्रमोद कुमार ये भी कहते हैं कि हाल के दिनों में आम आदमी पार्टी की लोकप्रियता कम हुई है क्योंकि भगवंत मान को मुख्यमंत्री बनाने के लिए महज़ 21 लाख लोगों ने वोट डाले जबकि पिछले चुनाव में आम आदमी पार्टी के लिए 36 लाख लोगों ने वोट किया था। अगर उनकी लोकप्रियता बढ़ी होती तो 36 लाख से ज़्यादा लोगों को मुख्यमंत्री के नाम पर मुहर लगाने के लिए हुए वोट में हिस्सा लेना चाहिए था।
वहीं पंजाब यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर डॉक्टर आशुतोष कुमार मानते हैं कि पंजाब में मुक़ाबला दो पार्टियों, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच है। बीजेपी और कैप्टन अमरिंदर सिंह के गठबंधन या फिर अकाली दल को वह रेस में नहीं मानते।
अकाली दल के बारे में वह कहते हैं कि पंजाब की जनता के बीच अब एक भाव है कि अकाली दल एक ही परिवार की पार्टी बन कर रह गई है। वहाँ नेतृत्व की दिक़्क़त है। लेकिन साथ में इतना ज़रूर जोड़ते हैं कि कुछ सीटों पर संयुक्त समाज मोर्चा (एसएसएम) आम आदमी पार्टी का खेल बिगाड़ सकता है। पिछली विधानसभा में कई ऐसी सीटें थीं जहाँ जीत का अंतर 500-1000 वोट का था। इसलिए वह इस चुनाव को ‘चन्नी बनाम मान’ मान रहे हैं।
कांग्रेस के दलित कार्ड का विपक्षी पार्टियों के पास क्या है जवाब?
पंजाब में वैसे तो दलित वोट 32-34 फीसद के आसपास है। जबकि जाट सिखों की आबादी 25 फीसद के आसपास की ही है। चरणजीत सिंह चन्नी की पहचान दलित सिख की है और भगवंत मान की जाट सिख की। इन आँकड़ों के लिहाज से एक नजऱ में लगता है कि चन्नी, मान पर भारी पड़ सकते हैं। लेकिन पंजाब की राजनीति इतनी आसान नहीं है।
डॉक्टर प्रमोद कुमार और प्रोफेसर आशुतोष दोनों का मानना है कि धर्म और जाति के आधार पर पंजाब वोट नहीं करता। यहां की राजनीति उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति से अलग है।
पंजाब की दलित पॉलिटिक्स पर बात करते हुए डॉक्टर प्रमोद कुमार कहते हैं, ‘पंजाब में दलित, एक एक्सक्लूसिव वोट बैंक नहीं हैं। इसके दो बड़े कारण हैं। पहली वजह ये कि सिख धर्म जिसने दलित को जाति के तौर पर कमज़ोर किया, और दूसरी वजह है आर्य समाज जिसने पंजाब के हिंदुओं में भी कास्ट सिस्टम को कमज़ोर किया। इस वजह से पंजाब में दलित वोट बैंक के तौर पर एकजुट नहीं हो पाए। हर विधानसभा चुनाव में दलितों का वोट लगभग हर पार्टी को मिलता है।’
वह आगे कहते हैं, ‘यही वजह है कि बहुजन समाज पार्टी जो पंजाब में दलित वोट बैंक अपने साथ करने आई थी वो कभी कामयाब नहीं हो पाई। पंजाब से जो पार्टी बनी उसे उत्तर प्रदेश में जाकर शरण लेनी पड़ी।’
पंजाब में बीएसपी का सबसे अच्छा प्रदर्शन 1992 में रहा था जब उन्हें 9 प्रतिशत वोट मिले थे। उसके बाद से उनका ग्राफ पंजाब में नीचे जाता रहा है। पिछले विधानसभा चुनाव में उन्हें दो फीसद से भी कम वोट मिले थे। पिछले चार विधानसभा चुनाव से बीएसपी, पंजाब में एक भी सीट नहीं जीत पाई है।
इस वजह से प्रमोद कुमार कहते हैं कि कांग्रेस अगर मुख्यमंत्री का चेहरा चरणजीत सिंह चन्नी को बनाती है, तो ‘साइकोलॉजिकल स्पिन’ हो सकता है, लेकिन ‘दलित वोट बैंक’ एजेंडा नहीं बन सकता।
प्रोफेसर आशुतोष का कहना है, ‘पंजाब में सिख भी बंटे हुए हैं। सिख हिंदू भी हैं, सिख दलित भी हैं, सिख ईसाई भी हैं। इसके अलावा डेरा और जत्थे भी होते हैं। उनके बाबा और गुरुओं के अपने अनुयायी होते हैं। दलितों ने कभी एकजुट होकर दलित वोट बैंक के तौर पर वोट नहीं किया है।’
प्रोफेसर आशुतोष मशहूर समाजशास्त्री पॉल ब्रास की बात को याद करते हैं जिन्होंने कहा था- ‘पंजाब की राजनीति प्याज़ की तरह है, जिसमें कई परतें हैं।’
प्रोफेसर आशुतोष ‘लोक-नीति-सीएसडीएस’ के सर्वे भी पंजाब में कराते आए हैं।
उस सर्वे के आधार पर वह कहते हैं कि पंजाब के दलित सिख आमतौर पर अकाली दल के साथ नजऱ आते हैं और हिंदू दलित कांग्रेस के साथ नजऱ आते हैं। 2017 में भी इसी पैटर्न पर वोट हुआ था। हालांकि 2012 में हिंदू दलितों ने अकालियों का साथ दिया था। इस वजह से माना जा रहा है कि चरणजीत सिंह चन्नी को अगर कांग्रेस आधिकारिक तौर पर मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करती है, तो उनको थोड़ा फायदा मिल सकता है।
पंजाब वोट किस आधार
पर करता है?
लेकिन किसी पार्टी का मुख्यमंत्री चेहरा दलित नहीं होगा तो क्या कोई खास फर्क पड़ेगा?
इस सवाल का जवाब जानने के लिए ये समझना ज़रूरी है कि आखिर पंजाब की जनता वोट कैसे करती है?
प्रोफेसर आशुतोष कहते हैं, पंजाब में वोटिंग के मुख्यत: दो आधार हैं।
‘पहला है, ‘दिल माँगे मोर’ का फंडा। यानी हर पार्टी अपनी अपनी तरफ से मुफ्त योजनाओं और वादों की झड़ी लगा देती है। जैसे इस बार आम आदमी पार्टी ने महिलाओं को हर महीने 1000 रुपये देने का वादा किया है तो कांग्रेस ने 2000 रुपये देने का वादा कर दिया। दूसरा है, ‘आइडेंटिटी पॉलिटिक्स’। पंजाब में जाटों का जितना दबदबा है, उतना कहीं नहीं है। यहां हिंदू या दलित होना अहम नहीं है, लेकिन जाट होना अहम है।’
इस खांचे में आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री उम्मीदवार फिट बैठते हैं। चूंकि बाकी दलों ने अपने मुख्यमंत्री के चेहरे की घोषणा नहीं की है, इसलिए उनके बारे में नहीं कहा जा सकता।
पंजाब के वोटिंग पैटर्न पर बात करते हुए डॉक्टर प्रमोद कुमार कहते हैं, ‘पंजाब में ना तो दलित, दलित की तरह वोट करता है और ना हिंदू, हिंदुत्व पर वोट करता है। अगर ऐसा होता तो अरुण जेटली कभी पंजाब से चुनाव नहीं हारते। बीजेपी अकेले भी जब पंजाब में लड़ती थी, तब भी वोट बैंक छह फ़ीसद से ज़्यादा नहीं ला पाई। पंजाब, भारत की सबसे सेक्युलर सोसाइटी में से एक है। यहां मुद्दों पर चुनाव लड़े जाते हैं, जहाँ बेरोजगारी से लेकर खेती, किसानी और बेअदबी का मुद्दा भी बनता है, लेकिन जाति और धर्म मुख्य मुद्दे नहीं होते।’
हालांकि वह मानते हैं राजनीतिक दलों द्वारा जाति और धर्म को मुद्दा बनाने की कोशिश होती रहती है पर जनता में हिंदू बनाम सिख जैसा ध्रुवीकरण नहीं होता है।
(bbc.com/hindi)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कोरोना की महामारी ने सारी दुनिया की अर्थ-व्यवस्था पर बुरा असर डाला है, लेकिन जो देश सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं, उनमें भारत अग्रणी है। यों तो भारत सरकार और हमारे अर्थशास्त्री जो आंकड़े बघारते रहते हैं, उनसे लगता है कि हमारी अर्थव्यवस्था की सेहत बड़ी तेजी से सुधर रही है और हमें निराश होने की जरुरत नहीं है लेकिन स्विटजरलैंड में चल रहे वर्ल्ड इकानॉमिक फोरम में आक्सफोम की जो रपट जारी की गई, वह भारतीयों के लिए काफी चिंता का विषय है।
भारत में मार्च 2020 से नवंबर 2021 तक लगभग साढ़े चार करोड़ लोग गरीबी की सीढ़ी से भी नीचे याने घोर दरिद्रता के पायदान पर जा बैठे हैं। अर्थात ये वे लोग हैं, जिनके पास खाने, पहनने और रहने के लिए न्यूनतम सुविधाएं भी नहीं हैं। इसका सरल शब्दों में अर्थ यह है कि भारत के करोड़ों लोग भूखे हैं, नंगे हैं और सडक़ों पर सोते हैं। उनकी चिकित्सा का भी कुछ ठिकाना नहीं है। जो अत्यंत दरिद्र नहीं हैं, ऐसे लोगों की संख्या उनसे कई गुना ज्यादा है।
वे भी किसी तरह जिंदा है। उनका गुजारा भी रो-पीटकर होता रहता है। 40 प्रतिशत लोग मध्यम वर्ग के माने जाते हैं। ये भी बेरोजगारी और मंहगाई के शिकार हो रहे हैं। ये राष्ट्रीय आय के सिर्फ 30 प्रतिशत पर गुजारा कर रहे हैं। निम्न मध्यम वर्ग के 50 प्रतिशत लोग सिर्फ 13 प्रतिशत राष्ट्रीय आय पर किसी तरह अपनी गाड़ी खींच रहे हैं। देश के सिर्फ 10 प्रतिशत अमीर लोग कुल राष्ट्रीय आय के 57 प्रतिशत पैसे पर मजे लूट रहे हैं। उनमें भी मु_ीभर अति अमीर लोग उस 57 में से 22 प्रतिशत पर हाथ साफ कर रहे हैं।
देश में अरबपतियों की संख्या में 40 नए अरबपति जुड़ गए हैं। इतने अरबपति तो यूरोप में भी नहीं हैं। उनकी कुल संपत्ति 53 लाख करोड़ रु. है। देश के सिर्फ 10 अमीरों की संपत्ति इतनी बढ़ी है कि उस पैसे से देश के सारे स्कूल-कालेज बिना फीस के 25 साल तक मुफ्त चलाए जा सकते हैं। देश के हर जिले और बड़े शहर में बढिय़ा अस्पताल और दवाखाने खोले जा सकते हैं।
इसमें शक नहीं है कि हमारे पूंजीपति अपने अथक परिश्रम और व्यावसायिक मेधा का इस्तेमाल करके भारत की संपदा बढ़ा रहे हैं लेकिन हमारी सरकारों का दायित्व है कि इस बढ़ती हुई संपदा का लाभ आम जनता तक पहुंचे। यदि सरकार इस सर्वोच्च सत्य पर ध्यान नहीं देगी तो यह अमीरी और गरीबी की खाई इतनी गहरी होती चली जाएगी कि देश किसी भी दिन अराजकता में डूब सकता है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ. लखन चौधरी
पिछले दिनों जयपुर कांग्रेस रैली में राहुल गांधी जिस अडाणी को कोस रहे थे, राजस्थान की गहलोत सरकार ने उन्हें 1600 हेक्टेयर जमीन देने का निर्णय केबिनेट में ले लिया है। अडाणी ग्रुप और राजस्थान सरकार ने सोलर पार्क के लिए जॉइंट वेंचर कंपनी बनाई है। उसी कंपनी को जमीन आवंटन की मंजूरी दी गई है।
उल्लेखनीय है कि राहुल गांधी ने अडाणी-अंबानी को फायदा पहुंचाने के मुद्दे पर केंद्र सरकार को निशाने पर लेते हुए रैली में कहा था कि ‘पीएम सुबह उठते ही कहते हैं, अडाणी-अंबानी को क्या दें ? एयरपोर्ट, कोल मांइस, सुपर मार्केट ? जहां देखो वहां दो ही लोग दिखेंगे। चलो आज एयरपोर्ट दे देते हैं। आज किसानों के खेत दे देते हैं, खान दे देते हैं।’
कुछ दिनों पहले अडानी कोलकाता में ममता बेनर्जी के साथ चर्चाओं में थे। उस ममता बेनर्जी के साथ, जिन्होनें कुछ सालों पहले टाटा समूह को नैनो ड्रीम प्रोजेक्ट के लिए जमीन देने से इंकार करते हुए देशभर में पूंजीवादी ताकतों के खिलाफ अपनी मजबूत विचारधारा की छवि बनाते हुए सुर्खियां बटोरी थीं। बाद में टाटा समूह को गुजरात की यही मोदी सरकार ने न केवल जमीन दिया बल्कि तमाम तरह की रियायतें एवं छूट देकर वाहवाही लूटी थी। यह अलग मामला है कि भारतीयों के सपनों के लिए लाई गई नैनो ड्रीम प्रोजेक्ट बुरी तरह असफल हो गई, और टाटा समूह को नैनो कार बंद करने का निर्णय लेना पड़ा। कुछ दिनों या कुछ महिनों पहले इसी तरह की सुर्खियां छत्तीसगढ़ में भी देखने को मिली थी। बस्तर से लेकर कोरबा-सरगुजा तक के कई महत्वपूर्णं खदानों एवं परियोजनाओं के संबंध एवं संदर्भ में भूपेश बघेल एवं अडानी के अंर्तसंबंधों की बातें सामने आईं थीं। जिनकों लेकर छत्तीसगढ़ सरकार के भीतर ही मतभेद की खबरों की चर्चाएं थीं।
बहरहाल मुद्दे की बात यह है कि क्यों ऐसा होता है कि जिन बातों एवं विचारधाराओं की बातें राजनीतिक दलों के मुखिया करते हैं, उन्हीं की सरकारें उसे नहीं मानती हैं? राजनीतिक दलों के नेताओं के रैलियों एवं भाषणों में जिस तरह की सोच एवं नैतिकता दिखलाई देती है, या दिखलाई जाती है; हकीकत उस तरह की होती क्यों नहीं है? योजनाओं, घोषणाओं, कार्यक्रमों में नीतियों को जिस तरह से दिखाया, बताया जाता है, इसके परिणाम उसी तरह क्यों नहीं होते हैं ? सवाल यह भी उठता है, या उठना या उठाना लाजिमी है कि क्या बड़े कार्पोरेट घरानों की सहायता के बगैर सरकार चलाना असंभव या नामुमकिन है ?
गुजरात की मोदी सरकार या केन्द्र की मोदी सरकार के बारे में तो बातें साफ एवं स्पष्ट रहीं हैं या रहती हैं। भाजपा की विचारधारा के बारे में भी स्थितियां लगभग साफ होती हैं, लेकिन ममता बेनर्जी, गहलोत या भूपेश सरकार के बारे में इस तरह की चर्चाएं क्यों होती हैं? महत्वपूर्णं सवाल कि क्या कांग्रेस या विपक्ष इसी तरह की दोमुंही विचारधारा से भाजपा का मुकाबला करेगें ? क्या कांग्रेस या विपक्ष इसी तरह मोदी सरकार या भाजपा को 2024 या उससे आगे चुनौती देगें?क्या कांग्रेस या विपक्ष इसी तरह दोहरी नीतियों को लेकर जनता के पास वोट मांगने जायेंगे?
महत्वपूर्णं सवाल कि आखिर राहुल गांधी की बातों, निर्णयों को उन्हीं की कांग्रेस सरकारें मानती क्यों नहीं हैं? एक तरह कांग्रेस का ही एक वर्ग राहुल गांधी को नेतृत्व देना चाहता है, तो दूसरा धड़ा इससे सहमत नहीं होता, दिखता है। कई बार स्वयं राहुल गांधी नेतृत्व करने से भागते दिखते हैं। अनेक मामलों में कांग्रेस नेतृत्व को लेकर कांग्रेस ही राहुल गांधी की सोच एवं विचारधारा की विरोधी दिखती एवं बयानबाजी करती है। जब कांग्रेस नेतृत्व को लेकर राहुल गांधी ने ही गांधी परिवार के बाहर के किसी व्यक्ति को नेतृत्व देने की बात की थी, तो कांग्रेस के ही एक धड़े ने इसे सिरे से खारिज कर दिया था। अब ऐसी खबरें दिखाई जाती हैं कि गांधी परिवार के बाहर कांग्रेस का अस्तित्व नहीं है। पूंजीवादी सोच एवं ताकतों के खिलाफ कांग्रेस कितनी तैयार है ?
क्या इस तरह की विरोधाभासों एवं दोहरी सोच से कांग्रेस 2024 में मोदी-भाजपा की बहुमत वाली मजबूत सरकार का मुकाबला कर पायेगी? क्या इस तरह की नीतियों एवं निर्णयों से कांग्रेस या राहुल गांधी को देष की जनता अपना जनमत देगी? क्या इस तरह की दोहरी मानसिकताओं से कांग्रेस मोदी सरकार को सत्ता से उखाड़ बाहर कर सकती है? बहुत जरूरी सवाल बनता है कि क्या कांग्रेस 2024 के चुनाव में इसी तरह की विरोधाभासी नीतियों से चुनाव के लिए तैयार हो रही है?
इस बात में कोई दो मत या दो राय नहीं है कि कोरोना कालखण्ड में मोदी सरकार की गैर जरूरी नीतियों एवं निर्णयों से देष को जनजीवन से लेकर अर्थव्यवस्था तक अनेक समस्याओं एवं परेषानियों का सामना करना पड़ा। रोजगार, विकासदर, मौतें सभी मसलों में सरकार की अव्यवस्थाएं उजागर हुईं हैं। असंगठित क्षेत्र के करोड़ो लोगों की नौकरियां चली गईं। सडक़ों, अस्पतालों में हजारों लोगों की जानें गई हैं। महामारी से निपटने में सरकार असफल रही है। कोरोना कालखण्ड की तमाम अव्यवस्थाओं, नाकामियों एवं असफलताओं के बावजूद सरकार के विरूद्ध जनमत तैयार करने में कांग्रेस एवं विपक्ष असफल रहे हैं। यह भी एक सच्चाई है, जिसको कांग्रेस को ध्यान में रखकर आगे की नीतियां बनाने की जरूरत है।
बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार, सार्वजनिक क्षेत्रों के निजीकरण जैसे अनेकों ज्वलंत मुद्दे हैं, जिनकों लेकर आमजनता के बीच मोदी सरकार के प्रति नाराजगी है। मोदी-भाजपा के समर्थकों का एक बड़ा वर्ग है जो मोदी सरकार की इन नीतियों से इत्तफाक नहीं रखता है, नाखुश है। इसके बावजूद इन अहम मसलों को लेकर कांग्रेस एवं विपक्ष मोदी सरकार के विरोध में बड़ा जन आंदोलन खड़ा करने में आखिर असफल क्यों हो रही है ? या बेबस क्यों दिखती, लगती है ? सडक़ों पर कभी-कभार उतरने, लडऩे, आवाज उठाने के बावजूद कांग्रेस को लोगों का जन समर्थन क्यों नहीं मिल रहा है ? कांग्रेस के पक्ष में जनमत दिखता क्यों नहीं है ?
कांग्रेस, जब तक इस तरह के सवालों पर चिंतन-मंथन नहीं करेगी, तब तक केन्द्र की सत्ता में आने की सोचना भी कठिन है। पूंजीवादी सोच और ताकतों के विरूद्ध केवल रैलियों एवं भाषणों में बयानबाजी करने से जनसमर्थन मिलेगा, ऐसा सोचना बेवकूफी होगी। कांग्रेस को यदि 2024 या उससे आगे सत्ता चाहिए तो अब विरोधाभासी नीतियों एवं निर्णयों से उपर उठना होगा। आज भी देश में कांग्रेस का एक बड़ा समर्थक वर्ग है जो चाहता है कि केन्द्र में इस बार सत्ता परिवर्तन होना चाहिए। सवाल है कि क्या कांग्रेस स्वयं इसके लिए तैयार है ?
-अरविंद छाबड़ा
पंजाब विधानसभा चुनाव के लिए मतदान अब 14 फरवरी की जगह 20 फरवरी को होगा। एक ओर जहां मतदान की नई तारीख़ का एलान हो चुका है वहीं राजनीतिक दल भी अपनी ओर से कोई कसर बाकी नहीं छोडऩा चाहते। पंजाब में सियासत की लड़ाई यूं भी कांटे की होती है, लेकिन इस बार हो रहा ये चुनाव कई मायनों में खास बन गया है। जहां एक ओर सत्तारूढ़ कांग्रेस सत्ता में लौटने के लिए हर कोशिश कर रही है, वहीं दूसरी तरफ अकाली दल और बहुजन समाज पार्टी अपने गठबंधन के साथ सत्ता हासिल करने के प्रयास में कोई कसर नहीं छोडऩा चाहते।
पिछले विधानसभा चुनाव में मुख्य विपक्षी पार्टी के तौर पर उभरी आम आदमी पार्टी इस बार पहले से अधिक आक्रामक नजर आ रही है।
वहीं कांग्रेस छोडक़र जाने वाले पूर्व सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह की नई राजनीतिक पार्टी पंजाब लोक कांग्रेस पर भी सबकी निगाहें हैं, जो भारतीय जनता पार्टी और पूर्व केंद्रीय मंत्री सुखदेव सिंह ढींढसा की शिरोमणि अकाली दल (संयुक्त) के साथ मिल कर चुनावी मैदान में उतर रही है।
इसके अलावा एक नई पार्टी जिसे किसान आंदोलन में शामिल 22 किसान संगठनों ने मिलकर बनाया है, वो भी मैदान में है।
लेकिन कांग्रेस पार्टी के लिए यह चुनाव ख़ुद को साबित करने वाली लड़ाई है। पहली वजह तो यही है कि एक समय में कांग्रेस आलाकमान के विश्वसनीय रहे कैप्टन अमरिंदर सिंह इस बार विरोधी खेमे में हैं और दूसरी कि पार्टी ने कुछ ही महीने पहले एक नया मुख्यमंत्री बनाया है, जो बहुत चर्चित चेहरा नहीं था। ऐसे में सत्ता में वापसी करना कांग्रेस के लिए एक बड़ी चुनौती है।
पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू से बीबीसी संवाददाता अरविंद छाबड़ा ने आगामी चुनाव, सीएम कैंडिडेट, मुख्यमंत्री चन्नी और विपक्षी दलों से जुड़े कई अहम सवाल पूछे।
पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष के जवाब-
सवाल-अकाली दल अपने सीएम पद के चेहरे की घोषणा कर चुकी है। आने वाले दिनों में आम आदमी पार्टी भी अपने सीएम फ़ेस की घोषणा कर देगी, लेकिन आने वाले विधानसभा चुनावों से पहले क्या कांग्रेस अपने सीएम पद के उम्मीदवार की घोषणा करेगी?
जवाब- देखिए, 70 साल जिन्होंने पार्टी चलाई, जिन्होंने देश को आज़ादी दिलाई, जिन्होंने इस देश के संविधान निर्माताओं को जन्म दिया, वो पार्टी कोई कच्चा फल नहीं है। वह पका हुआ फल है। उसमें बीज भी है और रस भी है। उसमें फ्यूचरिस्टिक इन्वेस्टमेंट भी है। इसलिए वे सयाने हैं। वो बेहतर जानते हैं कि कब क्या करना है। बतौर पार्टी हमें अनुशासित सैनिकों की तरह काम करना होता है। जो अनुशासन पालेगा, वही शासन पा लेगा।
सवाल- लेकिन क्या कांग्रेस पार्टी सीएम पद का उम्मीदवार घोषित करने में देर नहीं कर रही, बाकी पार्टियाँ कर चुकी हैं, अकाली दल भी घोषणा कर चुकी है।
जवाब- धरती पर डायनासोर दोबारा जन्म ले सकते हैं, लेकिन अकाली दल दोबारा नहीं आ सकती है। उसका क्या महत्व है। चौदह सीटें मिली थीं पिछले चुनाव में। गुरु की बेअदबी कराने वाले लोग, खुले सांडों की तरह घूम रहे हैं। यह एक सिस्टम को चेंज करने की लड़ाई है। हाँ, ये ठीक है कि आम आदमी पार्टी पहले भी रेस में थी। लेकिन वो पिछली बार भी कहा करते थे कि 110 सीटें आएंगी लेकिन कितनी सीटें आईं। ये जो सर्वे हैं, पचास-पचास लाख रुपये देकर, सोशल मीडिया पर पैसे देकर, बूस्टिंग करवाकर, ये सब बकवास चीजें हैं। लोग बहुत सयाने हैं।
सवाल- क्या आप कांग्रेस पार्टी के सीएम कैंडिडेट होंगे?
जवाब- मेरी सिर्फ एक ही तमन्ना है कि मैं पंजाब में सिस्टम को बदलने का एक जरिया बनूँ। एक नए सिस्टम के निर्माण का जरिया बनूं। जो सिस्टम पंजाब के रिसोर्सेज़ की चोरी करके उसे निजी जेबों में डाल रहा है, उसे उन जेबों से निकालकर पंजाब के खजाने में डालूं। वो तीस हज़ार करोड़ रुपये सरकारी खजाने में आएं। टैक्सेस की कम्प्लाएंसेंस को बढ़ाकर सेंटर की स्कीम में डालिए, जैसे बड़े बड़े राज्य आत्मनिर्भर होने के लिए करते हैं, तो पंजाब खड़ा हो सकता है। लेकिन अगर कर्ज लेकर कर्ज वापिस करोगे और स्टेट के रिसोर्सेज़ को खाते रहोगे तो सोने का अंडा देने वाली मुर्गी भी मर जाएगी।
क्या आपने कोई ऐसा घर देखा है जो दस करोड़ का हो और सौ करोड़ का उस पर कर्ज हो क्या बर्तन बेचकर आप घर चलाएँगे। उचित को जानकर उस पर अमल नहीं करना, ये कायरता का आभास है। सयाना आदमी वो है जो बादलों को देखकर जामा पहनता है। प्रीवेंटिव मैकेनिज्म चाहिए। सूबा कैसे चलेगा, जब तक आप चोरी नहीं बंद करेंगे। तब तक आप एक नए सिस्टम का निर्माण नहीं कर पाएंगे।
सवाल- कैप्टन अमरिंदर सिंह के कांग्रेस छोडऩे के पीछे आपकी भूमिका की बात कही जाती है...
जवाब- (सवाल को बीच में ही काटते हुए) मैंने नहीं हटवाया उन्हें। कांग्रेस की सीएलपी की मीटिंग हुई थी और उसमें 78 विधायकों ने उनके खिलाफ वोट किया और हटाया।
सवाल- कैप्टन अमरिंदर सिंह के हटने के बाद चन्नी को मुख्यमंत्री बनाया गया। जिस तरह से चन्नी काम कर रहे हैं क्या आप उससे संतुष्ट हैं?
जवाब- संतुष्टि मेरी नहीं, पंजाब के लोगों की चाहिए। अगर पंजाब के लोग संतुष्ट होंगे तो सरकार दोबारा बन सकती है और अगर लोग संतुष्ट ना हुए और वो विश्वसनीयता, वो भरोसा, वो टूटा हुआ भरोसा हम वापस हासिल नहीं कर सके तो मैं यह मानता हूँ कि फिर बहुत बड़ा नुकसान हो जाएगा।
सवाल- जिस तरह से आप चीज़ें चाहते थे क्या अब मौजूदा सरकार में उस तरह से चीज़ें हो रही हैं?
जवाब- देखिए, कोई मुकम्मल नहीं है। हाँ ये है कि हम बेहतर करने का प्रयास करें। कहीं ना कहीं लोगों में एक आस और उम्मीद जगी है और आस-विश्वास की राजनीति से बड़ी दुनिया में कोई ताकत नहीं। लोगों के बीच अच्छा किरदार लेकर जाएं और वो विश्वसनीयता पाएं। अमरिंदर सिंह के राज में कांग्रेस वो विश्वसनीयता खो चुकी थी। 10 प्रतिशत सेवा थी और 90 फीसदी मेवा था। पहले पहुँच नहीं थी, आज वो सब कुछ है।
सवाल- पहले आप कैप्टन अमरिंदर सिंह की आलोचना करते थे और अब आप मुख्यमंत्री चन्नी की योजनाओं पर बोलते हैं।
जवाब- (सवाल को बीच में ही काटते हुए) मैं बिल्कुल भी ऐसा नहीं करता हूँ। बिल्कुल भी ऐसी बात नहीं है। मैं ये कहता हूँ कि धरती पर उतरना चाहिए और वो बजट आवंटन से आएगा, घोषणाएँ कर देने से नहीं आएगा। मैं ये कहता हूँ कि पॉलीसीज से लोगों का उत्थान होना चाहिए। गंभीरता से की गई रिसर्च से लोगों का उत्थान होना चाहिए। सिर्फ घोषणाओं से कुछ नहीं होगा।
सवाल- फिर वो आपकी बात सुनते क्यों नहीं हैं?
जवाब- वो मुख्यमंत्री हैं। वो प्रशासनिक प्रमुख हैं। जिसे एडमिनिस्ट्रेशन की ताकत मिल जाती है, मुख्यमंत्री के पास पूरी ताकत है, तो वो अपने तरीके से काम करेगा। लेकिन मैं कोई नहीं जज करने या परखने वाला। ये लोगों के ऊपर है कि वो देखें। आदमी जब मुख्यमंत्री बन जाता है तो उसे हर निर्णय लेने की छूट होती है और जज करने की ताकत पंजाब के लोगों के पास है। इसमें मैं कहीं नहीं आता हूँ।
सवाल- अमरिंदर सिंह सरकार के दौर के कुछ मंत्री, अभी भी मंत्री हैं और वे चुनाव भी लडऩे वाले हैं। उनके बारे में आप क्या सोचते हैं?
जवाब- अगर आप सिस्टम में एक ईमानदार शख्स को ऊपर बिठा देंगे तो पापी तो नहीं मरेंगे, लेकिन पाप जरूर मर जाएगा। एक नए सिस्टम के साथ काम करना पड़ेगा। ये सिस्टम करप्ट है। ये सिस्टम लोगों से पाप करवाता है। मैंने तो कहा है कि पंजाब के लॉ एंड ऑर्डर को छोडक़र पंजाब की हर समस्या का हल इनकम है। इस इनकम को सुलझा लो, हर गुत्थी सुलझ जाएगी।
सवाल- आने वाले चुनावों में कांग्रेस को कहां खड़ा देखते हैं?
जवाब- मैं चुनावों के मद्देनजर कांग्रेस को एक बहुत प्रॉमिस लेकर आने वाली पार्टी के रूप में देखता हूँ। कांग्रेस पॉलिसी में बदलाव लेकर आएगी। एक हजार वादे नहीं 10-12 वादे और अगर वो भरोसे योग्य हुए, अगर वो साधारण लेकिन लोगों के मन को छूने वाले हुए तो कांग्रेस दोबारा ताकत में आ सकती है और आज उस कगार पर खड़ी है।
सवाल- आम आदमी पार्टी ने कुछ दिनों पहले घोषणा की है कि उनका सीएम कैंडिडेट लोग तय करेंगे। आप की क्या टिप्पणी है?
जवाब- तो क्या जब अरविंद केजरीवाल दिल्ली के सीएम बने थे तो लोगों ने तय किया था पहले? लोगों ने वोट किया वो सही है, लेकिन वो तो खुद ही घोड़ी पर चढ़ गए थे। ये ड्रामा क्यों? पिछली बार लोगों से क्यों नहीं तय करवायाज्इस बार क्यों कहा जा रहा है कि हम नहीं अनाउंस करेंगे। वो ख़ुद मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं। आप देखेंगे कि पिछली बार आम आदमी पार्टी हारी ही इस वजह से थी। तब क्यों नहीं लोगों की सूझी। तब क्यों रिमोट कंट्रोल से दिल्ली से चलाना था।
सवाल- लेकिन वो तो कह चुके हैं कि वो रेस में नहीं हैंज्
जवाब- वो तो पिछली बार भी यही कहते थे लेकिन सब लोग कहते थे कि वही रेस में हैं। कुमार विश्वास ने उनका भंडा फोड़ा कि नहीं फोड़ा। ये आदमी इतना असुरक्षित है कि वो किसी अच्छे लीडर को ऊपर आने ही नहीं देना चाहता है।
सवाल- प्रधानमंत्री की सुरक्षा में चूक पर आप क्या सोचते हैं?
जवाब- वो सुरक्षा में चूक नहीं थी। पीएम की रैली में लोग नहीं इक_ा हुए थे। वो बीजेपी की विफलता थी। वो बीजेपी की सहयोगी पार्टी की विफलता थी। तो उसको ढकने के लिए ये स्वाँग रचा गया। वरना पीएम के पास एसपीजी सुरक्षा होती है और दसियों हज़ार लोग ऐसे हैं जो पंजाब पुलिस पर निर्भर नहीं हैं। उनका हेलिकॉप्टर अगर वहाँ उड़ता तो इतिहास हो जाता कि 70,000 कुर्सियों पर सात सौ लोगों को पीएम कैसे संबोधित करते। दिल्ली की सीमा पर किसान डेढ़ साल तक रहे किसी ने उफ्फ तक नहीं की। उन्हें खालिस्तानी कहा गया, मवाली कहा गया, लेकिन किसी ने उफ तक नहीं की। विरोध तो हो सकता है लेकिन जान को खतरा, वाली बात को मैं बिल्कुल भी मानने को तैयार नहीं हूँ। वो हमारे पीएम हैं, इज्जतदार हैं, उनका सम्मान होना चाहिए। हर जगह होना चाहिए। लेकिन क्योंकि पतली गली से निकलना था तो कोई बहाना चाहिए था इसलिए ये सुरक्षा में चूक का स्वाँग रचा गया। (bbc.com/hindi)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका में एक ऐसी आतंकी घटना हुई है, जिसके कारण पाकिस्तान फिर से सारी दुनिया में बदनाम हो रहा है। सारी दुनिया के अखबारों और टीवी चैनलों पर इस खबर को प्रमुख स्थान मिला है। खबर यह है कि मलिक फैज़ल अकरम नामक एक आदमी ने टेक्सास के एक यहूदी मंदिर (साइनोगॉग) में घुसकर चार लोगों को बंदूक के दम पर बंधक बनाए रखा। यह आतंकी दृश्य इंटरनेट के जरिए सारा अमेरिका देख रहा था। अमेरिकी पुलिस ने आखिरकार इस आतंकी को मार गिराया।
यह आतंकी यों तो ब्रिटिश नागरिक था लेकिन वह पाकिस्तानी मूल का था। उसने साइनेगॉग पर इसलिए हमला बोला कि वह अमेरिकी जेल में बंद आफिया सिद्दिकी नामक महिला की रिहाई की मांग कर रहा था। आफिया मूलत: पाकिस्तानी है और वह अमेरिकी जेल में 86 साल की सजा काट रही है। उसे ‘लेडी अलकायदा’ भी कहा जाता है। आफिया को इसलिए 2010 में गिरफ्तार करके उस पर न्यूयार्क में मुदकमा चलाया गया था कि उसे अफगानिस्तान में कुछ अमेरिकी फौजी अफसरों की हत्या के लिए जिम्मेदार माना गया था।
आफिया सिद्दीकी पाकिस्तानी तो थी ही, वह पाकिस्तानी नेताओं की नजऱ में महानायिका भी थी। उसकी रिहाई के लिए पाकिस्तान के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री ने खुली अपीलें भी की थीं। उसे ‘राष्ट्रपुत्री’ का खिताब भी दिया गया था। उसके पक्ष में दर्जनों प्रदर्शन भी हुए थे। आतंकी मलिक अकरम ने टेक्सास के साइनेगॉग में बंदूक और विस्फोटकों के धमाकों के बीच दावा किया था कि वह आफिया का भाई है। लेकिन यह गलत था। अभी तक कोई ऐसा प्रमाण सामने नहीं आया है, जिसके आधार पर कहा जा सके कि इस आतंकी घटना में पाकिस्तान की सरकार या फौज का कोई हाथ है लेकिन अब पाकिस्तान में मलिक फैजल अकरम को कुछ लोग ‘शहीद’ की उपाधि देकर महानायक बनाने की कोशिश कर रहे हैं।
अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन और उप-राष्ट्रपति कमला हैरिस ने इस आतंकी घटना की घोर भर्त्सना की है और अमेरिकी जनता में, खासकर यहूदियों में इसकी सख्त प्रतिक्रिया हुई है। इस्राइली प्रधानमंत्री और अन्य यहूदी नेताओं ने पाकिस्तान को काफी आड़े हाथों लिया है। पाकिस्तान को पहले से ही अमेरिका ने लगभग अछूत बना रखा है, अब इस घटना ने उसकी मुसीबतें और भी ज्यादा बढ़ा दी हैं। पाकिस्तान के नेताओं, फौजियों और आम जनता के लिए इस दुखद घटना का सबक क्या है? क्या यह नहीं कि आतंकी तौर-तरीकों से किसी समस्या का हल नहीं हो सकता? उसके कारण खून-खराबा तो होता ही है, पाकिस्तान की बदनामी भी होती है। इस घटना के कारण पाकिस्तान के खिलाफ पहले से चल रहे अंतरराष्ट्रीय आर्थिक दबाव अब और भी ज्यादा बढ़ जाएंगे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ. संजय शुक्ला
उत्तरप्रदेश, पंजाब सहित पांच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में मतदाताओं को रिझाने और साधने के लिए राजनीतिक दलों ने हर चुनाव की भांति मुफ्त वादों और सुविधाओं का पिटारा फिर से खोल दिया है। पार्टियों ने इन राज्यों के मतदाताओं को लुभाने करने के लिए मुफ्त बिजली और पानी सहित लैपटॉप, स्मार्टफोन बांटने का पांसा फेंका है। इसके अलावा महिलाओं को प्रभावित करने के लिए इस चुनाव में 40 फीसदी टिकट सहित नौकरी व रोजगार में आरक्षण, स्कूटी, मुफ्त शिक्षा, फ्री बस सेवा सहित मुफ्त गैस सिलेंडर बांटने जैसे वादे भी किए जा रहे हैं विचारणीय है कि राजनीतिक दलों द्वारा मतदाताओं के बीच मुफ्तखोरी को बढ़ावा देकर सत्ता हासिल करने की प्रवृत्ति दिनों-दिन बढ़ती जा रही है।
पार्टियों की ओर से चुनाव लोकसभा या विधानसभा का हों अथवा नगरीय निकायों का हर चुनाव में वोटरों को लुभाने के लिए खैरात बांटी जा रही है। ऐनकेन प्रकारेण सत्ता हासिल करने के लिए मुफ्तखोरी की राजनीति में पक्ष और विपक्ष दोनों एक हैं। दरअसल चुनावों में मुफ्तखोरी के राजनीति की शुरुआत 1967 में तमिलनाडु में विधानसभा चुनाव से हुई। इस चुनाव में वहाँ की क्षेत्रीय पार्टी द्रमुक ने जनता को एक रुपये में डेढ़ किलो चांवल देने का वादा किया, यह वादा तब किया गया जब देश आकाल की विभीषिका के कारण खाद्यान्न संकट और भुखमरी से जूझ रहा था। द्रमुक के इस वादे को वोटर्स ने हाथों-हाथ लिया और कांग्रेस को सत्ता से रूखसत कर दिया।
सत्ता हासिल करने के लिए तमिलनाडु से शुरू हुआ सिलसिला अब हर चुनाव में गेम चेंजर साबित होने लगा है लेकिन इसका खामियाजा देश की बड़ी आबादी को चुकाना पड़ रहा है। वर्तमान चुनावी रणनीति अमूमन सभी दलों में खैरात बांटने की प्रतिस्पर्धा लगातार बढ़ती जा रही है। राजनीतिक दल चुनाव अभियानों में सत्ता हासिल करने के लिए मुफ्त बिजली और पानी, किसानों के ऋण माफी, फसल बोनस, नगद पैसा, मुफ्त या रियायती अनाज, गैस सिलेंडर, महिलाओं और बेरोजगारों को पेंशन, घर, टीवी, पंखा, सायकिल, स्कूटी, मोबाइल फोन, लैपटॉप, टैबलेट, फ्री इंटरनेट डेटा, मुफ्त शिक्षा व उपचार सहित कोरोना वैक्सीन भी खैरात में बांटने का वादा कर रहे हैं। गौरतलब है कि सियासी दल मुफ्त के वादे तो बकायदा अपने चुनाव घोषणा पत्र में कर रहे हैं। घोषणा पत्र के अलावा पार्टियों से जुड़े उम्मीदवार मतदान के पहले गुपचुप तरीके से वोटरों को शराब, पैसा, कंबल, कुकर सहित अन्य चीजें बांटकर उनका वोट हथियाने की जुगत में लगे रहते हैं।
चुनावों में वोटरों के वोट हथियाने के लिए किए जा रहे मुफ्तखोरी के वादे और हथकंडे देश के सामने अनेक सवाल पैदा कर रहे हैं। यह सवाल हमारे राजनेताओं और सियासी दलों से भी है और मुफ्तखोरी के लोभ में फंसकर अपने वोट देने वाले वोटर्स से भी है।सवाल राजनेताओं और सियासी दलों से कि क्या सत्ता हासिल करने के लिये वोटरों से किया जा रहा मुफ्त वादा लोकतंत्र और स्वतंत्र चुनाव के लिहाज से आदर्श आचरण है? क्या पार्टियों के पास खैराती योजनाओं के घोषणा के पहले योजनाओं के क्रियान्वयन पर सरकारी कोष पर पडऩे वाले वित्तीय भार और फंड की व्यवस्था का खाखा उपलब्ध रहता है? क्या सरकारी कोष में इन खैराती योजनाओं के लिए पर्याप्त फंड रहता है? वह भी तब जब सरकारों के बजट घाटे के कारण टैक्स बढ़ाया जा रहा है। शायद ही किसी दल के पास ऐसी ठोस योजना होती है कि अगर वे सत्ता में आए तो विकास कार्यों के इतर इस तरह के वायदों को कैसे पूरा किया जाएगा और इन पर कितना पैसा खर्च होगा? परंतु सत्ता हासिल करने के लिए मुफ्त सुविधाओं के वादे बदस्तूर जारी है।
असल में सत्तारूढ़ दल बाद में इन खैराती योजनाओं को लागू करने के लिए या तो विकास योजनाओं पर ताला लगा देतीं हैं या फिर टैक्स बढ़ाती हैं। सरकारों द्वारा टैक्स बढ़ाने और इसमें कोई रियायत नहीं देने के कारण महंगाई बढ़ती है जिसका भार आम उपभोक्ताओं पर पड़ता है। मुफ्त योजनाओं पर खर्च के कारण सरकार की प्राथमिकता से विकास और रोजगार जैसी योजनाएं हाशिये पर धकेल दी जाती हैं।
विचारणीय है कि मुफ्तखोरी की राजनीति का परिणाम यह हो रहा है कि आम लोगों को शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं से समझौता करना पड़ रहा है। टैक्स में बढ़ोतरी के बाद बढ़ती महंगाई के बीच मध्यम आयवर्गीय परिवारों को अपनी थाली में कटौती कर अपने जेब से खर्च कर शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों को पूरा करना पड़ता है।
दूसरी ओर सरकारों द्वारा मुफ्तखोरी की योजनाओं पर धन लुटाने का परिणाम यह होता है कि सरकार को अपने स्थापना खर्च, वेतन-भत्तों के लिए रिजर्व बैंक से लोन लेना पड़ता है जिसका असर भी राजकोष पर पड़ता है। सुप्रीम कोर्ट ने साल 2013 में अपने एक फैसले में चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों द्वारा अपने-अपने घोषणा पत्र में मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए मुफ्त रेवडिय़ां बांटने की प्रवृत्ति को उचित नहीं माना था। शीर्ष अदालत ने फैसले में कहा था मुफ्त बांटने की घोषणाओं से चुनाव की स्वतंत्रता और निष्पक्षता प्रभावित होती है, कोर्ट ने चुनाव आयोग से इस संबंध में आवश्यक आचार संहिता बनाने का सुझाव दिया था। इस फैसले के बाद चुनाव आयोग ने 2014 में आदर्श आचार संहिता में नया प्रावधान जोड़ते हुए मुफ्त योजनाओं को मतदाताओं को प्रलोभन देने वाला बताते हुए कुछ दलों को नोटिस दिया था। अलबत्ता सात सालों बाद भी मुफ्त योजनाओं पर सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग के दखल का नतीजा सिफर है। बहरहाल चुनाव के दौरान वोट हासिल करने के लिए किए जाने वाले लोकलुभावन घोषणाएं किसी भी लिहाज से जनहित में नहीं है, इस पर सख्त कानून की दरकार है।
चुनावों के दौरान बेलगाम होते खैराती घोषणाओं के बीच अहम सवाल मतदाताओं से भी यह क्या उन्होंने अपने मताधिकार के कर्तव्यों के प्रति चिंतन किया है? आम जनता महंगाई, बेरोजगारी और बुनियादी सुविधाओं की समस्याओं से जूझ रहा है लेकिन मतदाता मुफ्तखोरी जैसे तात्कालिक लाभ के लिए इन समस्याओं के प्रति आंखें मूंद कर वोट दे रहा है। चुनाव लोकतंत्र का महापर्व होता है जिसमें हम लोकतंत्र के मंदिर के लिए अपना प्रतिनिधि चुनते हैं। क्या यह उचित है कि हम नेताओं और सियासी दलों के चिकनी-चुपड़ी बातों और चंद खैरात के लोभ में आकर अपना वोट रुपी ईमान बेच दें? कई बार सरकारें राजस्व या पैसों की कमी के कारण अपने चुनावी वादे को पूरा नहीं करती यानि जनता छली जाती है।
बहरहाल मुफ्त और कर्ज माफी की राजनीति से जहाँ बेरोजगारी बढ़ती है वहीं ऐसी योजनाएं लोगों को निकम्मा भी बनाती हैं। मुफ्त योजनाओं का नकारात्मक प्रभाव समाज में बढ़ती शराबखोरी और नशाखोरी के रूप में सामने है जिसका दुष्प्रभाव महिलाओं और बच्चों पर घरेलू हिंसा के रूप में हो रहा है। राजनीतिक दलों को सोचना चाहिए कि सरकार किसी की भी हो उसे सामाजिक-आर्थिक उन्नति, आम जनता के जीवन की गुणवत्ता सुधारने, सामाजिक समरसता और सतत विकास के बारे में सोचना चाहिए ताकि लोग अपनी बुनियादी जरूरतों का खर्च खुद वहन कर सकें। मतदाताओं का भी यह कर्तव्य है कि वह चुनावों के दौरान फ्री बांटने के हथकंडों का त्याग करें और सियासी दलों व प्रत्याशियों से शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी, महंगाई , पर्यावरण और आंतरिक शांति पर सवाल खड़ा करें। ऐसे सवालों से ही मुफ्तखोरी की राजनीति चमकाने वाले सियासी दलों और राजनेताओं पर अंकुश लगेगा और चुनाव की स्वतंत्रता , पवित्रता और निष्पक्षता बरकरार रहेगी।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हमारे गणतंत्र दिवस पर यों तो सरकारें तीन दिन का उत्सव मनाती रही हैं लेकिन इस बार 23 जनवरी को भी जोडक़र इस उत्सव को चार-दिवसीय बना दिया गया है। 23 जनवरी इसलिए कि यह सुभाषचंद्र बोस का जन्म दिवस होता है। सुभाष-जयंति पर इससे बढिय़ा श्रद्धांजलि उनको क्या हो सकती है? भारत के स्वातंत्र्य-संग्राम में जिन दो महापुरुषों के नाम सबसे अग्रणी हैं, वे हैं— महात्मा गांधी और सुभाषचंद्र बोस। 1938 में कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में गांधी और नेहरु के उम्मीदवार पट्टाभि सीतारम्मय्या को सुभाष बाबू ने हराकर इतिहास कायम किया था।
वे मानते थे कि भारत से अंग्रेजों को बेदखल करने के लिए फौजी कार्रवाई भी जरुरी है। उन्होंने जापान जाकर आजाद हिंद फौज का निर्माण किया, जिसमें भारत के हिंदू, मुसलमान, ईसाई, सिख और सभी जातियों के लोग शामिल थे। उस फौज के कई अफसरों और सिपाहियों से पिछले 65-70 साल में मेरा कई बार संपर्क हुआ हैं। उनका राष्ट्रप्रेम और त्याग अद्भुत रहा है। कई मामलों में गांधीजी के अहिंसक सत्याग्रहियों से भी ज्यादा! मैं सोचता हूं कि यदि सुभाष बाबू 1945 की हवाई दुर्घटना में बच जाते और आजादी के बाद भारत आ जाते तो जवाहरलाल नेहरु का प्रधानमंत्री बने रहना काफी मुश्किल में पड़ जाता। लेकिन नेहरु का बड़प्पन देखिए कि अब से 65 साल पहले वे सुभाष बाबू की बेटी अनिता शेंकल को लगातार 6000 रु. प्रतिवर्ष भिजवाते रहे, जो कि आज के हिसाब से लाखों रु. होता है।
इंदिरा गांधी ने सुभाष बाबू के सम्मान में डाक-टिकिट जारी किया, फिल्म बनवाई, राष्ट्रीय छुट्टी रखी, कई सडक़ों और भवनों के नाम उन पर रखे। 1969 में जब इंदिराजी काबुल गईं तो मेरे अनुरोध पर उन्होंने ‘हिंदू गूजर’ नामक मोहल्ले के उस कमरे में जाना स्वीकार किया, जिसमें सुभाष बाबू छद्म वेष में रहा करते थे लेकिन अफगान विदेश मंत्री डॉ. खान फरहादी ने मुझसे कहा कि इंदिराजी को वहां नहीं जाने की सलाह हमने भेजी है, क्योंकि वह जगह सुरक्षित और स्वच्छ नहीं है। जो भी हो, मैंने काबुल के उस कमरे में एक छोटा-सा उत्सव-जैसा करके सुभाष बाबू का चित्र प्रतिष्ठित कर दिया था।
मैं अब भाई नरेंद्र मोदी को बधाई देता हूं कि उन्होंने सुभाष बाबू के जन्म-दिवस को मनाने का इतना सुंदर प्रबंध कर दिया है। मैं तो उनसे अनुरोध करता हूं कि सुभाष बाबू वियना (आस्ट्रिया) और जापान में जहां भी रहते थे, उन स्थानों को वे स्मारक का रुप देने का कष्ट करें और वह पत्र भी पढ़ें, जो 24 जनवरी 1938 को महान स्वातंत्र्य-सेनानी रासबिहारी बोस ने सुभाष बाबू को लिखा था, ‘‘अगली महत्वपूर्ण बात है, हिंदुओं को संगठित करना! भारत के मुसलमान वास्तव में हिंदू ही हैं।ज् उनकी धार्मिक प्रवृत्तियां और रीति-रिवाज तुर्की, ईरान और अफगानिस्तान के मुसलमानों से अलग हैं। हिंदुत्व में बड़ा लचीलापन है।’’
(नया इंडिया की अनुमति से)
-राजकुमार मेहरा
यह फिल्म फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ की कहानी ‘मारे गये गुल्फाम’ पर आधारित है । राज कपूर ने अपने जीवन का सबसे अधिक संवेदनशील रोल इसी फिल्म में किया है।
यह देखा गया है कि अक्सर फिल्म बनाने वाले बेहतर कहानी के साथ न्याय नहीं कर पाते। पर तीसरी कसम के साथ ऐसा नहीं हुआ। स्वयं रेणु लिखते हैं—फिल्म कहानी से ज्यादा अच्छी बनी।
तीसरी कसम शैलेन्द्र का शाहकार है इसमें उन्होंने अपना सब कुछ लगा दिया। फिल्म नहीं चली। शैलेन्द्र टूट गए। अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। वे कुल 43 बरस के थे।
भारत के स्वाधीनता संग्राम में शैलेन्द्रजी और रेणु जी दोनों जेल गये थे। प्रसिद्ध नारा ‘हर जोर जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है’ शैलेन्द्रजी ने ही दिया था। जावेद अख्तर कहते हैं: शैलेन्द्र कबीर, मीरा और खुसरो की परंपरा से आते हैं। शैलेन्द्र को तीसरी कसम के लिये सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फिल्मफेयर अवार्ड प्राप्त हुआ था।
तीसरी कसम के निर्देशक बासु भट्टाचार्य हैं। सिनेमेटोग्राफी सुब्रत मित्रा की है जो सत्यजित रे के भी सिनेमेटोग्राफर थे। स्क्रीनप्ले नबेन्दु घोष का है जो बिमल राय के लिए लिखते थे। फिल्म की स्क्रिप्ट और संवाद स्वयं रेणु के हैं। फिल्म को बेस्ट फीचर फिल्म के लिये राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
फिल्म की कहानी में नौटंकी की पृष्ठभूमि है इसलिये नृत्य तो होने ही हैं। नृत्य संरचना लच्छू महाराज की है और कुशल भरतनाट्यम नर्तकी वहीदा रहमान जी ने सभी नृत्य प्रस्तुति दी हैं।
तीसरी कसम में 9 गीत हैं, सभी एक से बढक़र एक! मधुर हिट संगीत शंकर जयकिशन का है।
मुकेश ने 3 गीत गाये हैं-
1. सजनवा बैरी हो गये हमार
2. सजन रे झूठ मत बोलो
3. दुनिया बनाने वाले
सजनवा बैरी... बिहार की लोक विधा ‘छोकरा नाच’ पर आधारित है। चलत मुसाफिर मोह लियो रे... में ‘चैती’ के स्वर हैं। हारमोनियम, ढोलक और झांझ का इससे अच्छा प्रयोग मैंने नहीं सुना।
हसरत जयपुरी साहब के गीत ‘दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समायी’ में समस्त उपनिषदों के दर्शन का सार देखने को मिलता है।
‘सजनवा बैरी हो गये हमार’ सुनते समय भिखारी ठाकुर के ‘बिदेसिया’ की विरहनि की याद आ जाती है और आँखें बरबस ही भर आती हैं।
-सुदीप ठाकुर
उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों का अभियान तेज हो गया है। इसका पता इससे भी चलता है कि मुख्यमंत्री, मंत्री और सांसद वगैरह दलितों या अनुसूचित जाति के लोगों के घरों में जाकर जमीन पर बैठकर उनके साथ भोजन कर रहे हैं।
हालांकि यह सब बेहद प्रतीकात्मक और ढोंग के अलावा कुछ नहीं है, यह सबको पता है। हैरत इस पर होनी चाहिए कि जो देश आजादी की पचहत्तरवीं वर्षगांठ मना रहा है, उसके आबादी के लिहाज से सबसे बड़े सूबे के मुख्यमंत्री को ऐन चुनाव के समय सामाजिक संरचना के उत्पीडि़त लोगों के घर पर जाकर भोजन करते हुए अपनी तस्वीर क्यों प्रचारित करनी पड़ रही है! आखिर एक योगी को यह दिखावा क्यों करना पड़ रहा है, उसे तो ऐसे दिखावे से दूर रहना चाहिए?
यह सब हमारी सामाजिक संरचना की अंतर्निहित बुराइयों को ही उजागर कर रहे हैं। कुछ महीने पहले पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव के दौरान केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह की ऐसी ही तस्वीरें सामने आ रही थीं। राजनीतिक रूप से पश्चिम बंगाल में प्रभावशाली मतुआ समाज को लुभाने के लिए वह इस समुदाय के घरों में जाकर भोजन कर रहे थे। हालांकि चुनाव के नतीजे बताते हैं कि उनकी यह सामाजिक-सांस्कृतिक यात्रा कारगर साबित नहीं हुई।
भारतीय समाज की संरचना में इतनी गहराई से जातियों की ऊंच-नीच समाई हुई है कि एक दिन किसी वंचित तबके के घर में भोजन करने से कोई चमत्कार नहीं हो जाने वाला है। फिर यह बात भी सामने आ चुकी है कि अतीत में उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति से संबंध रखने वाले लोगों के घरों में भोजन के ऐसे ही कार्यक्रम से पहले अधिकारियों ने उन्हें साबुन वगैरह दिए थे, ताकि वे नहा-धोकर साफ-सुथरे नजर आएं। यह भी सामने आया कि ऐसे अभियान में भोजन बाहर से लाया गया था।
मुझे मेरे गृह नगर राजनांदगांव के मेरे मोहल्ले में होने वाले एक कार्यक्रम की याद आ रही है। वहां एक श्री रामायण प्रचारक समिति है। 78 वर्ष पूर्व इसकी स्थापना हुई थी और तबसे वहां रोजाना दिन में कम से कम एक बार रामायण का पाठ होता है। श्री रामायण प्रचारक समिति तुलसी जयंती के मौके पर कई दिनों तक कई तरह के कार्यक्रम आयोजित करती है, जिनमें प्रबुद्ध लोगों के व्याख्यान भी शामिल होते हैं। मेरे अग्रज और रामायण प्रचारक समिति के सचिव विनोद कुमार शुक्ला ने बताया कि समिति अब भी तुलसी जयंती मनाती है और वहां अब भी कई तरह के कार्यक्रम होते हैं।
कई दशक पूर्व श्री रामायण प्रचारक समिति ने तुलसी जयंती के मौके पर होने वाले अपने व्याख्यान का विषय रखा था, ‘रामायण की महिला पात्र’! विभिन्न वक्ताओं को सीता, उर्मिला, कौशल्या, कैकेयी और शबरी इत्यादि महिला पात्रों के बारे में बोलना था। वक्ताओं में राजनांदगांव के पूर्व विधायक जॉर्ज पीटर लियो फ्रांसिस यानी हम सबके जेपीएल फ्रांसिस या फ्रांसिस साहब भी थे।
थोड़ा फ्रांसिस साहब के बारे में पहले जान लीजिए। जेपीएल फ्रांसिस 1940-50 के दशक में राजनांदगांव स्थित बंगाल नागपुर कॉटन मिल्स में श्रमिक थे और समाजवादी रुझान के श्रमिक नेता। श्रमिक नेता रहते ही 1957 में उन्होंने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से राजनांदगांव विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीता था।
फ्रांसिस साहब ने श्री रामायण प्रचारक समिति के व्याख्यान के लिए रामायण की जिस महिला पात्र को चुना वह थीं, शबरी। वही शबरी जो बेर चखकर श्रीराम को खिलाती हैं। फ्रांसिस साहब ने अयोध्या के युवराज राम और एक वंचित महिला शबरी के रिश्ते की बहुत खूबसूरती से सांस्कृतिक ही नहीं, समाजशास्त्रीय दृष्टि से भी व्याख्या कर डाली।
प्रसंगवश यह भी जान लीजिए कि श्री रामायण प्रचारक समिति सिर्फ हिंदुओं तक सीमित नहीं है, जैसा कि फ्रांसिस साहब के व्याख्यान से अंदाजा लगाया जा सकता है। विनोद कुमार शुक्ला जी बताते हैं कि समिति विभिन्न धर्मों के विद्वानों को व्याख्यान के लिए आमंत्रित करती है, इसमें कोई बंधन नहीं है, ताकि सामाजिक सौहार्द मजबूत हो।
वस्तुत: जरूरत सामाजिक और जातिगत पदानुक्रम को तोडऩे की है। सिर्फ चुनावी मौसम में अनुसूचित जाति या जनजाति से जुड़े परिवारों के घरों में भोजन करने से यह पदानुक्रम नहीं टूटेगा।
मुझे कुछ दशक पूर्व की राजनांदगांव जिले के आदिवासी अंचलों मानपुर, मोहला और आंधी की यात्राओं की भी याद आ रही है। समाजवादी नेता, पूर्व विधायक मेरे चाचा (दिवंगत) विद्याभूषण ठाकुर को अक्सर वहां जाना पड़ता था। कई मौकों पर मैं और उनके बड़े पुत्र और मेरे मित्र जैसे भाई (दिवंगत) अक्षय भी साथ होते थे। कई ऐसे मौके भी होते थे, जब चाचा का सारथी बनकर मैं उन्हें मोटरसाइकिल से मानपुर-मोहला या छुरिया में होने वाली बैठकों के लिए ले जाया करता था। यह बैठकेंकई बार बड़ी और कई बार बहुत छोटी होती थीं। बिना किसी औपचारिकता के सुंदर सिंह मंडावी, नोहर, लाल मोहम्मद जैसे चाचा के सहयोगियों और कार्यकर्ताओं के घरों में भोजन होता था। जमीन पर बोरा बिछा दिया जाता था और अक्सर भात और मुर्गा परोसा जाता था या कभी-कभी लौकी जैसी हरी सब्जी। कहीं कोई दिखावा नहीं होता था। यह भोजन साहचर्य का हिस्सा था।
सचमुच राजनीति कितनी बदलती जा रही है। एक मुख्यमंत्री को अपने ही सूबे के एक नागरिक के घर भोजन करने के बाद तस्वीर प्रचारित करनी पड़ती है!
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
चीन के विदेश मंत्री वांग यी पिछले दिनों कुछ अफ्रीकी देशों के साथ-साथ श्रीलंका भी गए। वहां उन्होंने भारत का नाम तो नहीं लिया लेकिन जो बयान दिया, उसमें उन्होंने साफ-साफ कहा कि चीन-श्रीलंका संबंधों में किसी तीसरे देश को टांग नहीं अड़ानी चाहिए। यही बात उनके राजदूतावास ने उनके कोलंबो पहुंचने के पहले अपने एक बयान में कही थी। श्रीलंका किसी भी राष्ट्र के साथ अपने संबंध अच्छे बनाए, इसमें भारत को क्या आपत्ति हो सकती है लेकिन चीन की नीति यह रही है कि वह भारत के आस-पड़ौस में जितने भी राष्ट्र हैं, उनमें भारत-विरोध भडक़ाए।
उसकी हरचंद कोशिश होती है कि वह भारत का कूटनीतिक घेराव कर ले। उसने पाकिस्तान के साथ इसीलिए ‘इस्पाती दोस्ती’ की घोषणा कर दी है। भारत के अन्य पड़ौसी राष्ट्र पाकिस्तान के रास्ते पर तो नहीं चल रहे हैं लेकिन उनकी भी कोशिश रहती है कि भारत-चीन प्रतिस्पर्धा को वे अपने लिए जितना दुह सकते हैं, दुहें। श्रीलंका इसका सबसे ठोस उदाहरण है। श्रीलंका के अनुरोध पर उसके आतंकवादियों से लडऩे के लिए भारत ने अपनी सेना वहां भेजी थी। हमारे लगभग 200 सिपाही भी कुरबान हुए थे। लेकिन श्रीलंका के वर्तमान राष्ट्रपति गोटाबया राजपक्ष और उनके भाई और पूर्व राष्ट्रपति महिंद राजपक्ष ने सत्तारुढ़ होते ही चीन के साथ इतनी पींगे बढ़ा लीं कि अब श्रीलंका चीन का उपनिवेश बनता जा रहा है।
चीन की रेशम महापथ की महत्वाकांक्षी योजना का श्रीलंका अभिन्न अंग बन गया है। उसने अपने सुदूर दक्षिण के हंबनटोटा नामक बंदरगाह को अब चीन के हवाले ही कर दिया है, क्योंकि उसके लिए उधार लिये गए चीनी पैसे को वह चुका नहीं पा रहा था। चीनी विदेश मंत्री ने अपनी इस यात्रा के दौरान समुद्री तटों पर बसे देशों के एक क्षेत्रीय संगठन का आह्वान किया है। इसका उद्देश्य भारत द्वारा शुरु किए गए ‘सागर’ नामक क्षेत्रीय संगठन को टक्कर देना है।
कोई आश्चर्य नहीं कि इस खेल में श्रीलंका को चीन अपना मोहरा बना लेगा। इस समय श्रीलंका की आर्थिक स्थिति दक्षिण एशिया में सबसे ज्यादा खराब है। चीनी संसद में विपक्ष के नेता डि सिल्वा ने कहा है कि श्रीलंका बिल्कुल दिवालिया हो गया है। अकेले अमेरिका का उसे 7 अरब डालर का कर्ज चुकाना है। चीन के सवा तीन बिलियन डॉलर के कर्जे में दबे श्रीलंका ने अपनी कई लंबी-चौड़ी जमीनें चीन के हवाले कर दी हैं। वह उसे ब्याज भी ठीक से नहीं दे पा रहा है।
भारत से कई गुना ज्यादा पैसा चीन वहां खपा रहा है। वांग यी से राष्ट्रपति गोटबाया ने खुले-आम रियायतें मांगी हैं। चीन की सैन्य मदद भी कई रुपों में श्रीलंका को मिल रही है। हथियार, पनडुब्बियां, प्रशिक्षण आदि क्या-क्या है, जो चीन नहीं दे रहा है। 20-20 लाख चीनी नागरिक हर साल श्रीलंका-यात्रा करते हैं। प्राचीन बौद्ध-संपर्क का फायदा दोनों देश उठाना चाहते हैं।
भारतीय विदेश मंत्रालय इन सब प्रवृत्तियों से सतर्क है लेकिन उसे यह भी पता है कि चीन की तरह वह भारत का पैसा अंधाधुंध तरीके से लुटा नहीं सकता। श्रीलंका को भारत का आभारी होना चाहिए कि भारत के डर के मारे ही उसे चीन की इतनी मदद मिल रही है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-हिमांशु कुमार
मुझे वर्ष 2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगों के बाद वहां काम करने का मौका मिला था। मैंने करीब 6 महीने वहां रहकर राहत, पुनर्वास, कानूनी मदद और चिकित्सा शिविर लगाया था। दंगे के दौरान वहां मुसलमानों की करीब 80 हजार आबादी को बेघर कर दिया गया था। मुजफ्फरनगर में जिनके ऊपर हमला किया गया, वह मुसलमानों की पसमांदा जातियां थीं।
महत्वपूर्ण यह कि उनके ऊपर हमला करने वालों में जाट, काछी और वाल्मीकि समुदायों के थे। दंगे के दौरान जो मारे गए और बाद में जो जेल गए, वह सभी बहुजन थे। यदि ध्यान से देखा जाए तो यह आपस में लडऩे वाले सभी लोग बहुजन थे। इन सभी को आपस में लड़वाकर सत्ता किसके हाथ में आई?
वर्ष 2017 में उत्तर प्रदेश में भाजपा को प्रचंड बहुमत की प्राप्ति हुई। एक तरह से सत्ता ब्राह्मणवादी हिंदुत्ववादी सवर्ण शक्तियों के हाथ में चली गई।
दरअसल, शूद्र-अतिशूद्र और आदिवासी समुदाय के साथ-साथ अन्य वंचित लोग, जो दूसरे धार्मिक विश्वासों की शरण में बराबरी की तलाश में गये, उन्हें मिलाकर भारत का बहुजन बनता है। इसमें पसमांदा मुसलमान और दलित ईसाई भी शामिल हैं। ये पूरे भारत की आबादी के 85 फीसदी हैं।
ये वे समुदाय हैं, जो परम्परागत रूप से मेहनतकश हैं। इसी मेहनतकश तबके को भारत के गैर मेहनतकश सवर्ण तबके ने नीच, अछूत और शूद्र घोषित किया था।
भारत में जो जातिवाद है, वह असल में नस्लवाद है।
जैसे दुनिया में काली नस्ल का गोरी नस्ल द्वारा शोषण और भेदभाव होता रहा है और आज भी उसके खिलाफ मुहिम जारी है। उसी तरह भारत में जो जातियां हैं, उनकी बुनियाद में भी अलग-अलग नस्लों का नस्लवाद ही है।
भारत में मूल निवासियों पर बाहरी नस्लों द्वारा हमले किए गए। हारने वाली नस्लों को गुलाम बनाया गया। उनकी जमीनों पर कब्जा कर लिया गया। हारे हुई नस्लों की बस्तियां अलग बना दी गईं। इसीलिए आज भी भारत के 80 प्रतिशत दलित भूमिहीन हैं और उनकी अलग बस्तियां हैं।
वर्ण व्यवस्था की ब्राह्मणवादी व्याख्या है कि समाज में अलग-अलग योग्यता के आधार पर पहले से ही वर्ण तय होते थे। जैसे कि ज्ञान में रूचि रखने वाला ब्राह्मण, वीर वृत्ति वाला क्षत्रिय, आर्थिक उपार्जन में रूचि वाला वैश्य और इन सभी की सेवा के लिए शूद्र।
आज आरएसएस के द्वारा कहा जा रहा है कि भारत में रहने वाले सभी भारतीय हैं तो इसकी पोल तो इसी बात से खुल जाती है कि अगर ऐसा था तो शूद्रों की अलग बस्तियां कैसे बनी?
अगर यह एक ही परिवारों के और एक ही समुदायों के लोग थे, तो शूद्रों के प्रति इतनी घृणा कैसे आ गई कि अगर कोई शूद्र युवक सवर्ण कन्या से प्रेम कर ले तो उसकी हत्या कर दी जाती थी? आज भी इस तरह की घटनाएं प्रकाश में आती रहती हैं।
यह बहुजन तबका सदियों से अन्याय और शोषण का शिकार है। सबसे ज्यादा मेहनत करने वाला यह तबका आज भी गरीब है। जबकि इसी तबके ने देश में उत्पादन को संभाल रखा है।
मतलब यह कि इसी तबके के लोग गाडियां चलाते हैं, कारखानों में काम करते हैं, खेतों में बुवाई, निराई और कटाई करते हैं। यही तबका मकान, कपड़े और जूते आदि बनाता है। लेकिन इसी से सबसे ज्यादा नफरत की जाती है।
यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि श्रमिक वर्ग को नीच की संज्ञा दी गई है और इसे सत्ता से दूर रखने की साजिशें की जाती हैं। इसे ही सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक अन्याय के रूप में पहचाना गया।
डॉ. आंबेडकर के साथ अन्य राष्ट्रीय नेताओं ने इस सदियों से चले आ रहे अन्याय को मिटाना आजाद भारत के लिए सबसे पहली प्राथमिकता माना और इसके लिए संविधान को न्याय और बराबरी के दो खंभों पर खड़ा किया गया।
लेकिन यह लक्ष्य इतना आसान नहीं रहा। आज भी भारत का बहुजन उसी सदियों पुराने सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक दमन और शोषण का शिकार हो रहा है।
वक्त के साथ ही उनके सामने अब नई चुनौतियां भी आ गई हैं। बहुजन समाज को बांटने के लिए उसे हिन्दू, मुसलमान और ईसाई के रूप में तोडऩे का हथकंडा अपनाया गया है। इसमें बंटकर बहुसंख्य बहुजन अपनी लड़ाई भूलकर अपना हक़ छीनने वाले समुदाय और वर्ग के हाथों में खेलकर अपने ही हितों को नुकसान पहुंचाते हैं।
बहुजन समुदाय अपने अधिकार और बराबरी के लिए लडऩा छोडक़र आपस में ही लड़े, यह वर्चस्ववादी समुदाय के लिए बहुत जरूरी है, जो स्वयं मेहनत नहीं करता है, लेकिन सारी आर्थिक ताकत उसकी तिजोरी में है। ये वे हैं जो ना मकान बनाते हैं और कपड़े। और ना ही ये अनाज उगातें हैं। लेकिन सबसे बढिय़ा अनाज, फल, रेशम, सोना और मकान इनके उपभोग के लिए ही जन्मना आरक्षित है। इन्हें सामाजिक न्याय पसंद नहीं है। ये जानते हैं कि अगर सभी मेहनतकश एकजुट हो जाएं और सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय की स्थापना कर दी गयी तो यह वर्ग जो मेहनत करेगा, उसका फल उसे ही मिलेगा।
इसे सामाजिक अर्थशास्त्र कहा गया है। इसमें लोग जातियों के आधार पर अमीर और गरीब बन जाते हैं।
यह ऐतिहासिक तौर पर किया गया अन्याय है। इसलिए कहा जाता है कि भारत में वर्ण ही वर्ग भी है। इस प्रकार माक्र्सवादी विचारधारा जिस आर्थिक वर्ग की बात करती है, वह तो भारत में सैंकड़ों सालों से वर्ण के आधार पर चलती आ रही है।
माक्र्सवादी चिंतकों ने दशकों तक इस वर्ण के आधार पर बने हुए वर्ग विभाजन को अपने अध्ययन और अपनी चिंता का विषय नहीं समझा।
दूसरी ओर अपने आर्थिक सामाजिक और राजनैतिक विशेषाधिकार को बचा कर रखने के लिए शासक वर्ग ने आज़ादी के पहले ही भारत के समानता आंदोलन को बांटने के लिए अपनी कोशिशें शुरू कर दी थीं। बहुजनों को ही अपने बीच के बहुजनों से लडऩे के लिए खड़ा किया गया। उन्हें हिन्दू, मुसलमान और ईसाई के रूप में बांटा गया।
हिन्दू महासभा, मुस्लिम लीग और आरएसएस का गठन इन्हीं सवर्ण विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों व वर्णों के लोगों ने अंग्रेजों की मदद से किया था। एक तरफ ये वर्ग-वर्ण अंग्रेजों के राज को भारत में रखना चाहते थे, वहीं दूसरी तरफ ये बहुजनों को आपस में लड़ाकर बराबरी की तरफ बढऩे वाले आंदोलनों को तोडऩे में लगे हुए थे।
आजादी मिलते ही इस वर्ग बाबरी मस्जिद में मूर्तियां रख दीं और मुस्लिम पसमांदा, हिन्दू दलित व ओबीसी को आपस में लड़वाने का प्रोजेक्ट लागू करने में जुट गई। इसका परिणाम यह हुआ कि आज ऐसे ही स्वनामधन्य हिंदूवादी भारत की गद्दी पर काबिज हैं।
इसका क्या परिणाम हुआ है, यह जानना इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि इसे समझे बिना इसे तोडऩे का रास्ता नहीं मिलेगा। कहने की आवश्यकता नहीं कि भारत का संगठित और असंगठित क्षेत्र का पूरा मजदूर वर्ग बहुजन समुदाय से आता है।
इन श्रमिकों को कुछ कानूनी अधिकार मिले हुए थे। यह अधिकार इन्हें लंबी लड़ाइयों के कारण मिले थे। फिर चाहे वह काम के आठ घंटे का अधिकार हो, सप्ताह में छह दिन काम का अधिकार हो, चाहे एक साप्ताहिक छुट्टी का अधिकार हो या फिर ओवर टाइम का अधिकार हो।
आज इन कानूनों को शिथिल किया जा रहा है। अब मजूरों से बारह बारह घंटे काम लिया जा रहा है। उन्हें हफ्ते में सातों दिन काम करना पड़ता है। हफ्ते में एक भी छुट्टी का पैसा काट लिया जाता है। न्यूनतम वेतन सुनिश्चित करने वाला कोई विभाग अब कोई हस्तक्षेप नहीं करता है।
एक तरह से कहा जाय तो मजदूरों को खुले बाज़ार में आर्थिक मगरमच्छों के जबड़े में मरने के लिए छोड़ दिया गया है। लेकिन जिन्होनें मंडल कमीशन की सिफारिशों के खिलाफ आत्मदाह और तोड़-फोड़ के आंदोलन चलाये थे, आज वही कार्पोरेट समर्थित हिन्दुत्ववादी सवर्ण ताकतें सत्ता में बैठी हैं।
इसी तरह आदिवासियों को उनके गावों से विस्थापित करके उनकी जमीनों जंगलों को छीन कर बड़ी कंपनियों को देने का काम जारी है।
इस दौरान बड़ी संख्या में आदिवासियों के उपर जुल्म ढाहा गया। आदिवासियों की जमीनों में छिपे हुए खनिजों पर कब्जा करने के लिए इनके इलाकों में अद्र्धसैनिक बलों को तैनात कर दिया गया है।
जहां रोज-ब-रोज आदिवासियों और सैन्य बलों के बीच संघर्ष चल रहा है। बड़े पैमाने पर मानवाधिकारों का हनन हो रहा है। लेकिन यहां कोई सुनने वाला और कार्यवाही करने वाला कोई नहीं है।
जाहिर तौर पर शासक वर्ग के निशाने पर बहुजन हैं। उसका आरक्षण, श्रम और संसाधन है।
अब सवाल उठता है कि क्या बहुजन इस हमले को समझ रहे हैं? हो यह रहा है कि आज साम्प्रदायिकता फ़ैलाने वाले संगठनों में चुन-चुनकर दलितों और ओबीसी को जोड़ा जा रहा है और उन्हें अपनों के खिलाफ ही खड़ा किया जा रहा है।
ऐसे में बहुजन चिन्तकों और सामाजिक न्याय के लिए काम करने वाले लोगों को सोचना होगा कि वे कैसे इस चुनौती का सामना करेंगे और बहुजन एकता को वास्तविकता बनाने के लिए कौन सा कार्यक्रम शुरू करेंगे, जो साम्प्रदायिक षडय़ंत्र का सामना कर सके और बहुजनों के आर्थिक सामाजिक और राजनैतिक न्याय के लक्ष्य को हासिल कर सके, जिसका सपना आजादी से पहले देखा गया था। (फारवर्ड प्रेस)
(संपादन-नवल/अनिल)
भारतीय संस्कृति का सबसे बड़ा सपना और ऐतिहासिक है और पौराणिक भी। अवाम पर सबसे ज्यादा असर राम का है। अनगिनत हिन्दुओं ने मौत के बाद खुद को राम के हवाले कर दिया है। इतिहास के सबसे एकनिष्ठ पति राम का सीता के निर्वासन के कारण औरतें माफ नहीं कर पा रहीं। उन्होंने पत्नी, बच्चे, मां-बाप, राजपाट, भाई बहन, परिवार, नगर, समाज या जीवन का समन्वित सुख सब खोया। राम राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा उच्चतम न्यायालय भी थे। उन्होंने लोकनीति और न्यायिक निष्कपटता सुनिश्चित की। राम ने उस अंतिम व्यक्ति का सम्मान किया जिसे रस्किन ने गांधी की चिन्ता के खाते में डाला।
राम सदियों से देश के काम आ रहे हैं। देश उनके काम कब आएगा? लोग आपस में मिलते ‘राम राम‘ कहते हैं। वीभत्स दृष्य या दुखभरी खबर मिले तो मुंह से ‘राम राम‘ निकल पड़ता है। अब भी ‘जयरामजी‘ कहने की परंपरा है। मेघालय की पान बीड़ा बेचने वाली स्नातक छात्रा ने स्मरणीय टिप्पणी की थी इस देश के लोग ‘जयराम‘ कहने के बदले ‘जयसीताराम‘ क्यों नहीं कहते।
अकबर के समकालीन गोस्वामी तुलसीदास की रामचरित मानस के कारण लाखों घरों की सांसों में राम ने पैठ जमा ली। मौका मोहनदास करमचंद गांधी ने सबसे मौलिक ढंग से पाया। आजादी के युद्ध में अंगरेज से लड़ने, हिंदू मुसलमान एका करने, धर्म को राजनीति की ताकत बनाने, आंदोलन में नैतिक संस्कार भरने, कांग्रेस पार्टी बल्कि देश को तकरीबन रामसेना की तरह ढालने और उपेक्षित वर्ग को गले लगाते राम का मर्म गांधी ने दुनिया को परोस दिया।
गांधी की उत्तराधिकारी कांग्रेस ने राम को फकत हिन्दुओं का सरगना समझा। आज इतिहास दंड दे रहा है। संघ परिवार में उच्च वर्गों की जय है। संघ परिवार ने गांधी के ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम‘ को ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं,‘ ‘भारत में यदि रहना होगा, वंदेमातरम कहना होगा‘ और ‘जयश्रीराम‘ में रंग दिया।
वाल्मीकि और तुलसी के राम जुदाजुदा होकर भी चरित्र के गुलदान में गुलाब की तरह खुंसे हैं। लोकतंत्र का थर्मामीटर और मर्यादा का बैरोमीटर रहते कुतुबनुमा हैं। जिधर राम हैं उधर ही उत्तर है। उनको लेकर चलाई गई साम्प्रदायिक बहसें ठीक अयोध्या में दम तोड़ती नज़र आ रही हैं। राम को जांचना लोकतंत्रीय चुनौती है। उनका अक्स समझे बिना मजहबी दृष्टिकोण से लडा़ई नहीं जीती जा सकती। साम्प्रदायिक कठमुल्लापन हिन्दू और मुसलमान दोनों में है।
राम मंदिर में धार्मिक मुखौटे के सिर झुकाते नेता सहयोगियों को ‘यसमैन‘ बनाकर खुद को महिमामंडित करते हैं। राम परिवारवादी नहीं थे। लक्ष्मण और सीता को छोड़ लंका विजय तक कोई रिश्तेदार साथ नहीं था। उन्होंने दलितों, आदिवासियों, वंचितों को लोकतंत्र के युद्ध का साहसिक पुर्जा बनाया। यह सदी ये बुनियादी सवाल अपनी छाती पर कब छितराएगी?
रामनाम का मजहबनामा
राम को संघ परिवार उस पार्टी से उठा ले गया जिसके मसीहा ने छाती पर गोली खाने के बाद ‘हे राम‘ कहा था। कांग्रेस सम्मेलन में गांधी की आश्रम भजनावली का उच्चारण नहीं होता। प्रभात फेरी, खादी, मद्य निशेध, अहिंसा गायब हैं। लोकतंत्र की रक्षा के लिए राम से बड़ी कुर्बानी इतिहास में किसी ने नहीं की। एकाकी रहे राम को भीड़ के नारों की लहरों पर बिठाया जाता है।
‘जयश्रीराम‘ के उत्तेजक नारे वाला आदमी भी हिन्दू विश्वास में बहता है कि आखिरी यात्रा पर चलेगा तब पीछे ‘राम नाम सत्य है‘ का नारा अवष्य गूंजेगा। दिल्ली के तख्तेताउस पर एक पार्टी राम की बैसाखी लेकर बैठी है। दूसरी ‘हे राम‘ कहने वाले सबसे बड़े सेनापति को भुलाए बैठी है। उसके ही पूर्व प्रधानमंत्री ने राम मन्दिर का ताला खुलवाया था। वह राम को धर्मनिरपेक्षता का ब्रांड एम्बेसडर नहीं बना पाती। गांधी ने ही कहा था ‘ईश्वर, अल्लाह राम के ही नाम हैं।‘ राम क्या केवल अयोध्या नगर निगम के मतदाता हैं?
संसद और राष्ट्रपति भवन में जय श्रीराम का नारा गूंजा है। गूंजते रहने की लगातार गुजाइशें हैं। करोड़ों ग्रामीण राम की नसीहतों के मुताबिक संवैधानिक आचरण कर रहे हैं। एक हुकूमत सड़कों पर स्त्री के शील से खेलते एंटी रोमियों स्कवाड बनकर नपुंसक शेखी बघारती है। राम की पुलिस के लिए तो उनका नाम ही अनुशासन पर्व था।
कोई राम के चेहरे पर भगवा रंग भरे तो मुकाबले के लिए उनको ही ढूंढना होगा। विदेशों से पढ़कर आए हैं। हजारों साल से चली आ रही भारतीय समझ की खिल्ली उड़ाते हैं। परोपकारी अर्थ में धर्म हिंदुस्तान का अस्तित्व है। धर्म की हेठी औसत भारतीय को कुबूल नहीं। विचारों की लड़ाई में जीतना है तो राम चरित्र घर घर बताने वाली पार्टी ही केन्द्रीय हो सकती है।
राम को ‘चुनाव आयोग‘, ‘हाथ का पंजा‘, ‘कमल निशान‘, ‘हाथी‘ ‘साइकिल‘ जैसी बहुत सी तस्वीरें चौराहों पर लटकी मिलीं। लोग मिले। उन्होंने राम को विदेशी मुद्रा दिखाई। बताया इसी से धर्म युद्ध के हथियार खरीदे जाते हैं। इसी से धर्माचार्यों के आश्रम चलते हैं। इसी से चुनाव होता है। अचरज और राम एक दूसरे को घूरते हैं। इत्तिहाद, अदमतशद्दुद, मजहब, ज़मीर, सुकून जैसे शब्दों का हिन्दी में अनुवाद नहीं हो रहा है। भारत, भारतीयता, भारतीयकरण जैसे शब्दों का पेटेन्ट दाढ़ी मूंछ धारियों के हाथों में है जो मुस्टन्डे अखाड़ों में दंड पेलते उन्हें आश्रम कहते हैं। ‘मदरसा‘ शब्द का पर्याय ‘गंडासा‘ पढ़ाया जा रहा है।
राम के नाम पर
राजनेता संविधान की उद्देशिकाओं की कसम खाते हैं। वह राम की शब्दावली में है। इसके बावजूद मंत्री अपने खिलाफ प्रथम दृष्टि में स्थापित विधि की प्रकिया के अनुसार तथ्यपरक जांच रिपोर्ट खुद ही बांचते हैं कि वे अपनी दृष्टि में दोषी नहीं हैं।
राम के लिए बेकार मध्यवर्गीय नवयुवकों की भीड़ के द्वारा धोबी के मकान पर हमला कराने के बाद जिन्दाबाद के नारे लगवा लेना कठिन नहीं था। अपना यश सुरक्षित रखने के बदले राम ने नियमों और मर्यादाओं के लिए दाम्पत्य जीवन, पुत्रमोह, परिवार सुख और सत्ता की बलि चढ़ा दी। शिकायत करने का सार्वजनिक अधिकार आज राम की वजह से जिन्दा है। हर मुसीबतजदा, अन्यायग्रस्त, व्यवस्थापीड़ित व्यक्ति के दिल में साहस का दीपक जलता है। उसमें राम की बाती है।
राजनेता अपने परिवारजनों के कारण मारे जा रहे हैं। लगातार जीतने का रेकार्ड बनाकर भी शराबी पुत्र के कुलक्षणों पर पर्दा डालने, सरकारी जंगलों की लकड़ी कटाई के आरोपों को लेकर नेता सांसत में हैं। सत्ताधीश खुद के खर्च से प्रायोजित मौसमी संस्थाओं की नकली उपाधियों से विभूषित अपनी रामलीला में रमे हैं। बुद्धिजीवियों को बीन बीनकर राज्य व्यवस्था बाहर कर रही है। मुलजिम न्याय सिंहासन पर काबिज हैं। विद्वानों की जगह नवरत्नों की शक्लों में रिटायर्ड, बर्खास्तशुदा और इस्तीफाग्रस्त नौकरशाही ले चुकी है। वे राज्य को लोकसेवा नहीं, शासन का अहंकार बनाते हैं।
आर्य बनाम म्लेच्छ युद्ध में राम विजय पुरस्कार की ट्रॉफी बने इतिहास की खूंटी पर टांग दिए गए हैं। देश गुंडों, मवालियों, खलनायकों, हत्यारों, दंगाइयों के हवाले है। राम का लोकतंत्रीय आचरण पाठ्यक्रम से हटा दिया गया है। शबरी, जटायु, त्रिजटा, सुग्रीव जैसे चरित्र सांस्कृतिक हाशिये पर धकेले गए हैं। रावण, कुम्भकर्ण, मेघनाद वगैरह ने तख्ते ताऊस पर कब्जा कर रखा है। काल दहाड़ें मारकर रो रहा है। सदी बेवा की तरह चीख रही है। परम्पराएं मवाद से भर गई हैं।
-रमेश अनुपम
18 मार्च के पश्चात स्थिति बिगड़ती ही चली गई। आदिवासियों का असंतोष बढ़ता ही चला गया जो किसी तरह रुकने का नाम नहीं ले रहा था। महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की गुहार हमेशा की तरह इस बार भी अनसुनी ही रह गई। शासन-प्रशासन इस सबसे हमेशा की भांति उदासीन ही बना रहा।
इस बीच 22 मार्च को कमिश्नर वीरभद्र सिंह जगदलपुर आए। सर्किट हॉउस में रविशंकर वाजपेयी नागरिकों के एक शिष्टमंडल के साथ मिले और उन्हें वस्तु स्थिति की जानकारी दी।
कमिश्नर वीरभद्र सिंह ने नागरिकों के शिष्टमंडल को यह आश्वासन दिया की एस.ए.एफ की बटालियन अगले 10 दिनों तक गांव में पेट्रोलिंग नहीं करेगी। इसके बाद कमिश्नर बीजापुर के लिए रवाना हो गए।
स्थानीय प्रशासन ने कमिश्नर की इस बात को भी गंभीरता से नहीं लिया। एस.ए.एफ के जवानो की पेट्रोलिंग नहीं रुकी।
आदिवासियों का असंतोष बढ़ता ही चला जा रहा था। 24 मार्च को बड़ी संख्या में आदिवासी राजमहल पहुंचने लगे थे।
25 मार्च सन् 1966 की सुबह जगदलपुर में होने वाली एक सामान्य सुबह ही थी। इंद्रावती धीरे-धीरे बह रही थी। पूर्व दिशा में सूर्य इंद्रावती की जल राशि को निहारता हुआ नीले बादलों के बीच से मुस्कुराता हुआ उदित हो रहा था। सागौन और साल के वृक्षों पर बैठी हुई वनपाखियां अपना आलस छोडक़र उन्मुक्त नभ में उडऩे के लिए बेकरार हो रही थीं।
इधर राजमहल में एकत्र आदिवासी अपने-अपने ईटों के चूल्हों पर कोदों रांध रहे थे। कुछ आदिवासी आपस में बैठकर अपने गांव घर की बातें कर रहे थे। कुछ ही देर में घटित होने वाली दारुण विपदा से बेखबर आदिवासियों का हुजूम राजमहल के बाहर और भीतर अपने सामान्य दिनचर्या के कामों में मशगूल था।
राजमहल के भीतर संचालित होने वाले महाविद्यालय और स्कूल में शिक्षक और छात्र-छात्राएं रोज की भांति पढ़ाई-लिखाई में व्यस्त थे।
सुबह धीरे-धीरे राजमहल की मुंडेरों पर खिसकने लगी थी। घड़ी का कांटा धीरे-धीरे सरकता हुआ दस की ओर बढ़ रहा था। तभी जैसे राजमहल में एक भूचाल सा आ गया।
सुरक्षा बल के जवान भारी संख्या में राजमहल के भीतर घुस आए थे। आदिवासियों के ईंटों पर पकने वाले भोजन को लाठियों से गिराने लगे थे।आदिवासियों को सरेआम पीटने लगे थे। राजमहल के भीतर बिना किसी चेतावनी के अश्रु गैस के गोले फेंके जाने लगे। चारों ओर अफरा-तफरी मच गई थी।
महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव स्वयं स्कूल पहुंचकर बच्चों और शिक्षकों को राजमहल के पीछे के दरवाजे से जो दलपत सागर की ओर खुलता था, उससे बाहर निकालने में लग गए थे।
इधर आदिवासी पुलिस जवानों द्वारा अचानक किए जाने वाले लाठी चार्ज और अश्रु गैस से क्रोधित हो उठे थे। उन्होंने अपने-अपने तीर धनुष उठा लिए थे। पुलिस के जवानों को मौका मिल गया था उन्होंने आदिवासियों पर ताबड़तोड़ फायरिंग शुरू कर दी थी।
अपरान्ह 10. 45 को जगदलपुर शहर में धारा 144 लगाए जाने की घोषणा लाउडस्पीकर द्वारा की जाने लगी।
राजमहल के भीतर से धमाकों की आवाज आने लगी थी। राजमहल की दीवारें धमाकों और गोलियों की आवाज से थरथराने लगी थीं।
आसपास के पेड़ों पर बैठी हुई वनपाखियां इन धमाकों के डर से न जाने कब की उड़ चुकी थीं। सारे शहर की सडक़ें इन धमाकों और गोलियों की ताबड़तोड़ फायरिंग से गूंजने लगी थीं।
लोग अपने-अपने घरों में दुबक कर बैठ गए थे। सबने घर के भीतर की सांकल चढ़ा रखी थी।
धमाकों और फायरिंग की आवाजों से दलपत सागर के पानी में कंपकपी सी फैल गई थी। इंद्रावती की जलराशि भी जैसे बैचेन होकर ठहर गई थी।
25 मार्च सन् 1966 को इस मनहूस तारीख को न दलपत सागर कभी भूला सकता है और न इंद्रावती नदी ही। इस काली तारीख को कभी भूलाया नहीं जा सकता।
25 मार्च को अपरान्ह 11 बजे से शुरू हुई पुलिस फायरिंग 26 मार्च की सुबह 4 बजे तक चलती रही।
उस रात कोई परिंदा अपने घोसलों में ठीक से नहीं सो सका था और न ही जगदलपुर के लोग ही उस रात चैन से सो पाए थे।
25 मार्च को सारा शहर गोलियों की आवाज से कांप रहा था। 26 मार्च की सुबह इंद्रावती नदी ने सबसे पहले देखा कि आज का सूर्य पहले से कुछ बदला हुआ सा है और आसपास के पेड़ों से सवाल किया कि आज का सूर्य इतना रक्तिम क्यों है?
(बाकी अगले हफ्ते)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान जब से पैदा हुआ है, वह सिर के बल खड़ा रहा है लेकिन इमरान खान ने उसे पांव के बल खड़ा करने की घोषणा की है। उन्होंने पाकिस्तान के इतिहास में पहली बार ऐसी नीति की घोषणा की है, जो न केवल भारत के साथ उसके रिश्तों को सुधार देगी बल्कि दुनिया में पाकिस्तान की हैसियत को ही बदल देगी। अब तक पाकिस्तान दुनिया के शक्तिशाली और मालदार राष्ट्रों के आगे अपनी झोली फैलाए खड़ा रहता रहा है और उनका फौजी पिछलग्गू बना रहता रहा है। इसका एक मात्र कारण है— भारत के साथ उसकी दुश्मनी !
यह दुश्मनी पाकिस्तान को बहुत मंहगी पड़ी है। उसने तीन-तीन युद्ध लड़े, आतंकवाद की पीठ ठोकी और जिन्ना के देश के दो टुकड़े करा लिये। कभी उसे अमेरिका का चरणदास बनना पड़ा तो कभी चीन का! इतना ही नहीं, पाकिस्तान के स्वाभिमानी और आजाद तबियत के लोगों को फौज की गुलामी भी करनी पड़ रही है।
पिछले सात वर्षों से तैयार हो रही पाकिस्तान की सुरक्षा और अर्थ नीति की घोषणा अब इमरान सरकार ने की है। इसका प्रारंभ प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के मार्गदर्शक मियां सरताज अजीज ने किया था। जाहिर है कि इमरान सरकार अपनी फौज की हरी झंडी के बिना इसकी घोषणा नहीं कर सकती थी। इसमें कहा गया है कि भारत के साथ अगले सौ साल तक किसी प्रकार की दुश्मनी नहीं रखी जाएगी और अपने पड़ौसियों के साथ पाकिस्तान शांति की नीति का पालन करेगा। भारत के साथ व्यापारिक और आर्थिक संबंध भी सहज रुप धारण करेंगे। इस प्रक्रिया में कश्मीर बाधा नहीं बनेगा।
इसी दस्तावेज में एक बहुत ही सूक्ष्म बात भी कही गई है जिस पर भारत के अखबारों और टीवी चैनलों का ध्यान नहीं गया है। वह यह कि वह किसी महाशक्ति का दुमछल्ला नहीं बनेगा। वह सामरिक से भी ज्यादा अपनी आर्थिक रणनीति पर ध्यान केंद्रित करेगा। यदि सचमुच पाकिस्तान अपनी कथनी को करनी में बदल सके तो पूरे दक्षिण एशिया का भविष्य ही चमक उठेगा लेकिन यह साफ है कि यह अंतिम फैसला पाकिस्तान की फौज के हाथ में है।
माना जा रहा है कि यह विलक्षण घोषणा फौज की सहमति से हुई है। यदि ऐसा है तो अफगान-संकट पर भारत द्वारा आयोजित बैठक का पाकिस्तान ने चीन के साथ मिलकर बहिष्कार क्यों किया? अफगानिस्तान को भेजे जानेवाला 50 हजार टन गेहूं अभी तक क्यों नहीं वहां ले जाने दिया जा रहा है? कश्मीर के सवाल को बार-बार संयुक्तराष्ट्र के मंचों पर क्यों घसीटा जा रहा है? इमरान सरकार भारत से बात करने की पहल क्यों नहीं करती है?
इमरान खान, नवाज शरीफ, जनरल मुशर्रफ, बेनज़ीर भुट्टो और जनरल जिय़ा से जब भी मेरी भेंट हुई है, मैंने उनको कहा है कि जुल्फिकार अली भुट्टो भारत से एक हजार साल तक लडक़र कश्मीर छीनने की बात करते थे, यह बात बिल्कुल बेमानी है। कश्मीर का हल लात से नहीं बात से हो सकता है। लेकिन अब भी इस नए दस्तावेज के 100 पृष्ठों में से 50 तो छिपाकर रखे गए हैं। क्यों ? क्या इमरान की दाल में कुछ काला है?
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत का अगला बजट कुछ ही हफ्तों में आने वाला है। वह कैसा हो, इस बारे में कई विशेषज्ञ और प्रभावित लोग अपने सुझाव देने लगे हैं। अब से लगभग 30-35 साल पहले श्री वसंत साठे और मैंने सोचा था कि भारत से आयकर खत्म करने का अभियान चलाया जाए, क्योंकि आयकर की मार से बचने के लिए करदाताओं को काफी भ्रष्टाचार का सहारा लेना पड़ता है और आयकर भरने की प्रक्रिया भी अपने आप में बड़ा सिरदर्द है। अब भी यह जरुरी है कि आयकर की जगह व्ययकर या जायकर लगाया जाए।
जायकर मतलब उस पैसे पर कर लगाया जाए जो नागरिक की जेब से बाहर जाता है। आने वाला पैसा करमुक्त हो और जाने वाला करयुक्त हो। खर्च पर यदि टैक्स लगेगा तो लोग फिजूलखर्ची कम करेंगे। आमदनी में जो पैसा बढ़ेगा, उसे लोग बैंकों में रखेंगे। वह पैसा काम-धंधों में लगेगा। उससे देश में उत्पादन और रोजगार बढ़ेगा। टैक्स का हिसाब देने में जो मगजपच्ची और रिश्वत आदि के खर्च होते हैं, उनसे भी राहत मिलेगी। लगभग साढ़े छह करोड़ लोग, जो हर साल टैक्स भरते हैं, वे सरकार के आभारी होंगे।
लाखों सरकारी कर्मचारियों को भी राहत मिलेगी, जिन्हें कर-गणना करनी पड़ती है या टैक्स-चोरों पर निगरानी रखनी पड़ती है। नौकरीपेशा और दुकानदारों को भी टैक्स बचाने के लिए तरह-तरह के दांव-पेच नहीं करने होंगे। मोटी आमदनी पर टैक्स देने वालों की संख्या लगभग 1.5 करोड़ है। बाकी 5 करोड़ लोगों को बहुत कम या शून्य टैक्स देना होता है। उनके सिर पर फिजूल तलवार लटकी रहती है। ऐसे लोगों में छोटे व्यापारी और वेतनभोगी लोग ही ज्यादा होते हैं। उन्हें वे दांव-पेंच करना भी नहीं आता, जिनसे टैक्स बचाया जाता है।
बड़े किसान, नेता लोग और बड़े उद्योगपति टैक्स-चोरी की कला के महापंडित होते हैं। वे अपने करोड़ों-अरबों रु. फर्जी खातों या विदेशी बैंकों में छिपाए रखते हैं। नोटबंदी इसी भावना से लाई गई थी कि वह इन प्रवृत्तियों को काबू करेगी लेकिन वह विफल हो गई। काला धन बढ़ता ही गया। यदि आयकर की प्रथा समाप्त कर दी जाए तो कोई काला धन पैदा होगा ही नहीं।
इस समय दुनिया के दर्जन भर से ज्यादा देशों में व्यक्तिगत आयकर है ही नहीं। इनमें सउदी अरब, यूएई, ओमान, कुवैत, बहरीन और मालदीव- जैसे मुस्लिम देश भी शामिल हैं। इन देशों में विक्रय कर या सेल्स टैक्स या हमारे जीएसटी की तरह खर्चकर याने जायकर तो है लेकिन आयकर नहीं। उनकी अर्थ-व्यवस्थाएं मजे में चल रही हैं।
जायकर याने खर्च पर कर लगाने के लिए हमारे अफसरों और विशेषज्ञों को अपना दिमाग लगाकर सभी पहलुओं पर सांगोपांग विचार करना होगा। आम लोगों से भी सुझाव मांगने होंगे। जायकर में भी चोरी और चालाकी की अनंत संभावनाएं रहेंगी लेकिन आयकर के मुकाबले वे बहुत कम होंगी। यदि भारत-जैसा बड़ा देश इसे लागू करेगा तो अपने पड़ौसी देशों में भी इसका अनुकरण तो अपने आप हो जाएगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के सर्वोच्च न्यायालय का यह कदम बिल्कुल सही है कि उसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सुरक्षा के मामले को अपने हाथ में ले लिया है। केंद्र सरकार और पंजाब सरकार, दोनों ने यह मालूम करने के लिए जांच बिठा दी थी कि मोदी का रास्ता रोकने के लिए कौन जिम्मेदार है? पंजाब की पुलिस या केंद्र का विशेष सुरक्षा दस्ता (एसपीजी)? मोदी को भारत-पाक सीमा के पास स्थित हुसैनीवाला में जाना था, जो सरदार भगतसिंह का बलिदान-स्थल हैं। मौसम की खराबी से उन्होंने अपनी विमान-यात्रा को पथ-यात्रा में बदल दिया, जो कि बिल्कुल ठीक था लेकिन उन्हें फिरोजपुर के पास एक पुल पर लगभग 20 मिनिट इंतजार करना पड़ा, क्योंकि आगे जाने के रास्ते को किसान प्रदर्शनकारियों ने घेर रखा था।
प्रधानमंत्री की सुरक्षा का मामला बहुत गंभीर है, क्योंकि सरकारी लापरवाही के कारण ही हमें महात्मा गांधी, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी को खोना पड़ा है। कायदे के मुताबिक जिस मार्ग से प्रधानमंत्री को गुजरना होता है, उसे पूरी तरह से निष्कटंक बनाए रखना उस राज्य सरकार की जिम्मेदारी होती है। मोदी का रास्ता रोका गया, यह अपने आप में गंभीर घटना है लेकिन सुरक्षित लौटने के बावजूद मोदी का यह बयान कि (मुख्यमंत्री) चन्नी को धन्यवाद कि मैं भटिंडा से जिंदा लौट आया हूँ, जबर्दस्त विवाद और मजाक का विषय बन गया है।
कांग्रेसी कह रहे हैं कि आप भीड़ से बहुत दूर थे। आप पर न किसी ने पत्थर फेंके, न तलवार या गोली चलाई और न ही धक्का-मुक्की तो आप बचे किससे? भीड़ ने आपको और आपने भीड़ को देखा तक नहीं तो यह बात आपने कैसे कह दी? आपके बीच में ही लौट आने का कारण तो यह था कि आपके समारोह-स्थल पर 700 लोग भी नहीं आए थे जबकि आपकी सुरक्षा के लिए 10 हजार सुरक्षाकर्मी तैनात थे। निराशावश जब आपको लौटना पड़ा तो आपने अपना रास्ता रोकने की नौटंकी-लीला छेड़ दी। इसका उद्देश्य पंजाब सरकार को बदनाम करना और चुनावी पैंतरा मारना था।
इन कांग्रेसी बयानों का भाजपा ने भी मुंहतोड़ जवाब देने की कोशिश की। भाजपाइयों ने सिख आतंकियों की राष्ट्रविरोधी प्रवृत्ति का मसला उठा दिया। पंजाब सरकार के सिर सारा दोष मढ़ते हुए भाजपाइयों ने आरोप लगाया कि पंजाब की सरकार ने भयंकर लापरवाही बरती है। उसने हवाई मार्ग के वैकल्पिक थल-मार्ग को एकदम खाली क्यों नहीं रखा? उसने कायदे का उल्लंघन किया है। उसने जान-बूझकर हुसैनीवाला की बड़ी जनसभा पर पानी फेरने का षडय़ंत्र रचा था। उसे डर था कि मोदी की यह सभा चुनावी हवा को पल्टा खिला देगी।
कुल मिलाकर हुआ यह कि केंद्र और पंजाब, दोनों सरकारों ने अपनी-अपनी जांच बिठा दी। केंद्र सरकार ने पंजाबी अधिकारियों को अपनी सफाई देने के लिए नोटिस भी जारी कर दिए। सर्वोच्च न्यायालय ने दोनों जांचों पर रोक लगा दी है और अपनी स्वतंत्र जांच बैठा दी है। यह जांच समिति पता करेगी कि असली दोष किसका है? पंजाब की पुलिस का है या प्रधानमंत्री के विशेष सुरक्षा दस्ते का? नतीजा जो भी हो, प्रधानमंत्री की सुरक्षा अत्यंत महत्वपूर्ण विषय है। इस विषय पर घटिया राजनीति उचित नहीं है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आज 10 जनवरी को विश्व हिंदी दिवस मनाया जाता है। पहली बार यह 1975 में नागपुर में हुआ था। इसका आयोजन श्री अनंत गोपाल शेबड़े और श्री लल्लनप्रसाद व्यास ने किया था। इसका उदघाटन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने किया था। उस समय मैंने ‘नवभारत टाइम्स’ में जो संपादकीय लिखा था, उसका शीर्षक था, ‘हिंदी मेला: आगे क्या?’ इस संपादकीय की बहुत चर्चा हुई थी, क्योंकि न.भा.टा. उस समय देश का सबसे बड़ा अखबार था और मुझे हिंदीयोद्धा के नाम से सारा देश जानने लगा था। मैंने उस संपादकीय में जो प्रश्न उठाए थे, वे आज 46 साल बाद भी देश के सामने जस के तस खड़े हैं। ये सम्मेलन भारत समेत दुनिया के कई देशों में संपन्न हो चुके हैं लेकिन नतीजा वही है। नौ दिन चले और ढाई कोस !
इसके आयोजन पर हर बार करोड़ों रु. खर्च होते हैं। सैकड़ों भारतीय सरकारी अधिकारियों, हिंदी साहित्यकारों, अध्यापकों और पत्रकारों तथा तथाकथित हिंदीकर्मियों की चांदी हो जाती है। जिनके लिए भारत में भी अपने पैसों से पर्यटन करना कठिन होता है, वे मुफ्त में विदेश-यात्राओं का आनंद लेते हैं। मुझे इन सम्मेलनों के निमंत्रण कभी हिंदी और कभी अंग्रेजी में भी आते रहे हैं। मैं 2003 में सूरिनाम में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में गया, वह भी भारत और सूरिनाम के प्रधानमंत्रियों के व्यक्तिगत आग्रह पर! वहां मैंने मेरे कई साहित्यकार, पत्रकार और सांसद मित्रों के समर्थन से हिंदी को संयुक्तराष्ट्र संघ की भाषा मान्य करवाने का प्रस्ताव पारित करवाया लेकिन आज तक क्या हुआ? कुछ भी नहीं। श्रीमती सुषमा स्वराज जब विदेश मंत्री बनीं तो मैंने उन्हें बार-बार प्रेरित किया। उन्होंने काफी प्रयत्न किया लेकिन संयुक्तराष्ट्र संघ में हिंदी अभी तक मान्य नहीं हुई है। लेकिन वे छह भाषाएं वहां मान्य हैं, जिनके बोलनेवालों की संख्या दुनिया के हिंदीभाषियों से बहुत कम है। चीनी भाषा (मेंडारिन) के बोलनेवालों की संख्या भी विश्व के हिंदीभाषियों के मुकाबले काफी कम है।
यह बात चीन में दर्जनों बार गांव-गांव घूमकर मैंने जानी है। यदि सं.रा. में अरबी, अंग्रेजी, हिस्पानी, रूसी, फ्रांसीसी और चीनी मान्य हो सकती हैं तो हिंदी को तो उनसे भी पहले मान्य होना चाहिए था लेकिन जब हमारी सरकार और नौकरशाही ने भारत में ही हिंदी को नौकरानी बना रखा है तो इसे विश्वमंच पर महारानियों के बीच कौन बिठाएगा? हम महाशक्तियों की तरह सुरक्षा परिषद में घुसने के लिए बेताब हैं लेकिन पहले उनकी भाषाओं के बराबर रुतबा तो हम हासिल करें। यह सराहनीय है कि अटलजी और नरेंद्र मोदी ने सं. रा. में अपने भाषण हिंदी में दिए। 1999 में संयुक्तराष्ट्र में भारतीय प्रतिनिधि के नाते मैं अपना भाषण हिंदी में देना चाहता था लेकिन मुझे मजबूरन अंग्रेजी में बोलना पड़ा, क्योंकि वहां कोई अनुवादक नहीं था। संस्कृत की पुत्री होने और दर्जनों एशियाई भाषाओं के साथ घुलने-मिलने के कारण हिंदी का शब्द-भंडार दुनिया में सबसे बड़ा है। यदि हिंदी संयुक्तराष्ट्र की भाषा बन जाए तो वह दुनिया की सभी भाषाओं को अपने शब्द-भंडार से भर देगी। यदि हिंदी को संयुक्तराष्ट्र संघ में मान्यता मिलेगी तो भारत में से अंग्रेजी की गुलामी भी घटेगी। उसका फायदा यह होगा कि दुनिया के चार-पांच अंग्रेजीभाषी देशों के अलावा सभी देशों के साथ व्यापार और कूटनीति में हमारा सीधा संवाद कायम हो सकेगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-राजू पाण्डेय
चुनावों से पहले फिर एक बार देश और हमारे पीएम की सुरक्षा संकट में है। हो सकता है चुनावों के बाद प्रधानमंत्री की सुरक्षा में चूक का मामला उन असंख्य चुनावी मुद्दों की तरह महत्वहीन बन जाए जिन्हें मीडिया चुनावों के दौरान जीवन मरण का प्रश्न बना देता है। संभव है कि हमेशा की तरह इस बार भी मतदाता सालों बाद यह समझे कि यह मामला केवल चुनावों के लिए गढ़ा गया था और भावनाओं में बहकर मतदान करना एक बड़ी चूक थी।
इस पूरे दौर में सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्री के समर्थकों की सक्रियता देखते ही बनती है। सोशल मीडिया पर तैरती अनेक पोस्ट्स बार बार हमसे टकराती हैं। एक पोस्ट कुछ इस प्रकार है- ‘असली पीएम तो मैं इंदिरा गाँधी को मानता हूं. यदि उनके साथ यदि ऐसा होता जो मोदी जी के साथ हुआ तो अभी तक वहाँ(पंजाब में) राष्ट्रपति शासन लागू हो चुका होता. ऐसे निडर पीएम(श्रीमती इंदिरा गांधी) को मेरा नमन।’
एक अन्य सोशल मीडिया पोस्ट कहती है- ‘बड़ा फैसला लेना पड़ेगा नहीं तो दूसरा आघात देश को दशकों पीछे ले जाएगा।’ पोस्ट के साथ स्वर्गीय बिपिन रावत और प्रधानमंत्री जी के चित्र हैं।
एक सोशल मीडिया पोस्ट में कहा गया है- ‘जिन्हें भी मोदी जी सिर्फ भाजपा के नेता दिख रहे है वो याद कर लें मोदी जी भारत देश के प्रधानमंत्री है यदि वो असुरक्षित हैं मतलब देश की सुरक्षा पर प्रश्न चिन्ह है।’
एक किंचित विस्तृत सोशल मीडिया पोस्ट के अनुसार ‘जेएनयू एएमयू और जामिया में छात्र आंदोलन के नाम पर राष्ट्रद्रोही गतिविधियां, पालघर में पुलिस की उपस्थिति में साधुओं की निर्मम हत्या, शाहीन बाग में आंदोलन की आड़ में अराजकता, आतंकवाद और दंगे, किसान आंदोलन के नाम पर अराजकता और दिल्ली को बंधक बनाने की कवायद, लाल किले में खालिस्तानी तांडव, पंजाब में रिलायंस मोबाइल टावर्स की तोड़-फोड़, बंगाल में चुनावों के पहले और चुनावों के बाद भाजपाई कार्यकर्ताओं की निर्मम हत्या, सिंघु बॉर्डर के खालिस्तानी टेंट्स में बलात्कार और निर्मम हत्याएं, पंजाब में भाजपाई विधायकों की कपड़ा फाड़ पिटाई, केरल में भाजपाई कार्यकर्ताओं और संघ के स्वयंसेवकों की निर्मम हत्याएं, बेअदबी के आरोप मढक़र गुरुद्वारा परिसर में लोगों की नृशंस हत्याएं-आदरणीय नरेंद्र मोदी जी, इन प्रकरणों पर आपकी सॉफ्ट-पॉस्चरिंग के बाद इस सत्य को कब तलक नकार पाएंगे हम प्रशंसक, कि सख्त प्रशासक की आपकी छवि को अपने सतत षड्यंत्री प्रहारों से ध्वस्त कर देने में कामयाब हो चुके हैं राहुल गांधी।’ पोस्ट आगे कहती है-‘ये तो स्पष्ट है कि आपकी नजर में कुछेक पार्टी कार्यकर्ताओं और चंद नागरिकों के जीवन की कोई खास अहमियत नहीं। अपने परिजनों को भी त्याग देने वाला आप जैसा निर्मोही खुद के मान-अपमान से भी शायद ही विचलित होता हो अब। पर कल जो घटित हुआ है, वो आपका व्यक्तिगत अपमान भर नहीं है।देश के सर्वोच्च जनतांत्रिक पद को आंखें तरेरी गई हैं। लोकतांत्रिक अस्मिता का चीरहरण हुआ है कल। अब भी अकर्मण्य बने रहे तो मखौल बन कर रह जाएंगे आप। अपनी न सही, देश के प्रधानमंत्री के पद की गरिमा के लिए तो उठाइये कड़े कदम..!’
अंत में एक और सोशल मीडिया पोस्ट का उल्लेख जिसमें महाभारत युद्ध और अर्जुन की दुविधा की चर्चा करते हुए कहा गया है कि ‘ऐसे ही मोदी नहीं लड़ पा रहे हैं तो किसी को तो श्रीकृष्ण बनकर उन्हें रास्ता दिखाना पड़ेगा। जनता से किसी को आगे आना पड़ेगा।’
ऐसी हजारों सोशल मीडिया पोस्ट लाखों लोगों तक पहुंच रही हैं। इन सभी का संदेश स्पष्ट है- प्रधानमंत्री को तानाशाही की ओर अग्रसर होना होगा। उनके समर्थकों का विशाल समुदाय उन्हें एक निर्मम शासक के रूप में देखना चाहता है। एक ऐसा तानाशाह जो अपने विरोधियों और असहमत स्वरों को राष्ट्रद्रोही सिद्ध कर बेरहमी से समाप्त कर देता है। भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने की उम्मीदें केवल मोदी जी पर टिकी हैं। केवल वे ही हैं जो यह असंभव कार्य कर सकते हैं। यही कारण है कि उनका जीवन अत्यंत महत्वपूर्ण है। इन सभी पोस्ट्स में इस बात पर निराशा व्यक्त की गई है कि प्रधानमंत्री अपने हिंसक समर्थकों की उम्मीद पर खरे नहीं उतरे हैं।
संभव है कि हिंसक उन्माद से ग्रस्त मोदी जी के ये दीवाने उन्हें एक अलोकतांत्रिक और दमनकारी शासक के रूप में देखना चाहते हों और एक निर्वाचित जननेता से आत्ममुग्ध तानाशाह में मोदी जी के रूपांतरण की धीमी गति उन्हें अधीर कर रही हो। लेकिन यदि इन समर्थकों के माध्यम से मोदी जी देश को यह संदेश दे रहे हैं कि आने वाले समय में हमारे सेकुलर संघात्मक बहुलवादी लोकतंत्र का स्वरूप जबरन बदल दिया जाएगा और बहुसंख्यक वर्चस्व पर आधारित धार्मिक राष्ट्र की स्थापना में जो कोई भी बाधा डालेगा उसे बेरहमी से कुचला जाएगा तो यह हमारे लोकतंत्र के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं।
अपने विरोधियों से, अपने विरुद्ध चल रहे धरने-प्रदर्शन-आंदोलन-घेराव से निपटने के राजनेताओं के अपने अपने तरीके होते हैं। कुछ राजनेता प्रदर्शनकारियों के बीच जाकर सीधे संवाद करते हैं तो कुछ इनका सीधा सामना करने से बचने की कोशिश करते हैं। किंतु अपने ही देश की जनता को षडय़ंत्रकारी शत्रु के रूप में देखने की प्रवृत्ति अलोकप्रिय तानाशाहों का सहज गुण होती है किसी निर्वाचित प्रधानमंत्री का नहीं। यदि प्रधानमंत्री जी ने वहाँ उपस्थित पंजाब के वित्त मंत्री या अधिकारियों से यह कहा कि अपने सीएम को धन्यवाद दे दें कि मैं बठिंडा जिंदा वापस लौट आया तो उनके इस कथन पर दु:ख और अचरज ही व्यक्त किया जा सकता है। वे देश के प्रधानमंत्री हैं, पंजाब देश का एक सूबा है। पंजाब की जनता और वहां का मुख्यमंत्री भी उनके अपने ही हैं। केंद्र-राज्य संबंधों में तनाव होना कोई असाधारण परिघटना नहीं है किंतु देश के प्रधानमंत्री द्वारा इस तनाव की ऐसी भाषा में सार्वजनिक अभिव्यक्ति अवश्य चिंताजनक रूप से असाधारण है।
बहरहाल मोदी जी ने अपनी सुरक्षा को चुनावी मुद्दा बनाकर बहुत बड़ा जुआ खेला है। जब मोदी जी की लोकप्रियता शिखर पर थी तब शायद स्वयं को विरोधियों द्वारा अपमानित-लांछित मासूम जननेता के रूप में प्रस्तुत करने की रणनीति उन्हें चुनाव जिता सकती थी। किंतु वर्तमान में जब वे अपनी लोकप्रियता के निम्नतम स्तर पर हैं तब यह सहानुभूति कार्ड कितना काम करेगा कहना कठिन है- विशेषकर तब जब इस प्रकरण में ऐसा कहीं नहीं लगा कि उनकी सुरक्षा को कोई प्रत्यक्ष खतरा है।
इस प्रकरण के माध्यम से मोदी जी को आसन्न विधानसभा चुनाव के केंद्र में लाने का प्रयास किया गया है। शायद उनके चुनावी रणनीतिकार यह मानते हों कि मोदी जी में इतना करिश्मा शेष है कि बदहाल अर्थव्यवस्था, बढ़ती बेरोजगारी, महंगाई की मार, कोरोना से निपटने में नाकामी तथा किसानों के असंतोष जैसे मुद्दों पर यह मुद्दा भारी पड़ेगा। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यह प्रकरण विमर्श को मोदी पर केंद्रित करने में कामयाब रहा है। उनके समर्थन और विरोध का दौर चल निकला है। अब परीक्षा मतदाता की परिपच्ता की है। देखना होगा कि क्या उसे इतनी आसानी से भरमाया जा सकता है।
यह घटनाक्रम पंजाब का था लेकिन ऐसा नहीं लगता कि इसका प्रभाव पंजाब विधानसभा चुनाव के नतीजों पर पड़ेगा जहां बीजेपी की अलोकप्रियता इतनी अधिक है कि वह सत्ता की दौड़ में ही नहीं है। इसके माध्यम से उत्तरप्रदेश के उस मतदाता को लक्ष्य किया जा रहा है जिसे सरकारी राष्ट्रवाद के अंध समर्थन के लिए प्रशिक्षित किया गया है।
पुलवामा आतंकी हमले व जवाबी बालाकोट एयर स्ट्राइक आदि के जरिए राष्ट्रीय सुरक्षा पर संकट का मुद्दा पिछले चुनावों में खूब उठा और भाजपा ने इसे जमकर भुनाया भी। यद्यपि यदि राष्ट्रीय सुरक्षा पर कोई संकट था तो इसके लिए सर्वाधिक जिम्मेदार केंद्र सरकार ही थी। पुलवामा हमले में हुई सुरक्षा चूकों का सच जनता शायद कभी न जान पाएगी। अब राष्ट्रीय सुरक्षा और प्रधानमंत्री की सुरक्षा की समेकित बूस्टर खुराक मतदाताओं को दी जा रही है।
पंजाब के मुख्यमंत्री चन्नी यदि प्रथमदृष्टया प्रधानमंत्री की सुरक्षा के विषय में लापरवाही बरतने के दोषी नहीं है तब भी उन्हें इस विषय में अतिरिक्त सतर्कता न बरतने का दोषी तो मानना ही होगा। उन्होंने हताश भाजपा को एक ऐसा मुद्दा प्रदान कर दिया है जिसका उपयोग वह उन सारे राज्यों में कर सकती है जहाँ अगले कुछ दिनों में विधान सभा चुनाव होने वाले हैं।
प्रधानमंत्री की सुरक्षा में केंद्र और राज्य की अनेक एजेंसियां आपसी तालमेल से कार्य करती हैं। इसलिए ऐसी किसी भी चूक की जिम्मेदारी तय करते समय किसी एक एजेंसी, व्यक्ति या सरकार को दोषी सिद्ध करना कठिन है। किसी एक की भूल, शरारत या षडय़ंत्र को पकडऩे और प्रधानमंत्री की सुरक्षा संबंधी निर्णयों की पड़ताल के लिए सक्षम मैकेनिज्म होता है।
यदि प्रधानमंत्री की सुरक्षा में कोई लापरवाही हुई है तो अवश्य ही इसके दोषियों पर कार्रवाई होनी चाहिए। लेकिन यदि यह मामला थोड़े से हेर फेर के साथ बार बार प्रयुक्त होने वाला कामयाब चुनावी फार्मूला सिद्ध होता है तो जन भावनाओं से खिलवाड़ करने के गुनाहगारों को कौन सजा देगा।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
-प्रकाश दुबे
मकर संक्रांति में महाराष्ट्र में कहा जाता है-तिल गुड़ घ्या आणि गोड़ गोड़ बोला। महाराष्ट्र की राह पर पंजाब चले, जरूरी तो नहीं। इसके बावजूद प्रधानमंत्री ने कुरुक्षेत्र का मैदान पार करते हुए राजधानी इंद्रप्रस्थ पहुंचने से पहले मुख्यमंत्री को धन्यवाद दिया। कुछ लोगों की धारणा है कि प्रधानमंत्री ने लाभार्थी के रूप में धन्यवाद दिया। घटनाक्रम का उन्हें जबर्दस्त लाभ मिला। पतंगबाजी का मौसम है। सोशल मीडिया पर हमेशा आकाश से अधिक पतंगबाजी जारी रहती है। सीमा से सटी 50 किलोमीटर की सीमा की निगरानी केन्द्रीय एजेंसी सीमा सुरक्षा बल को सौंपी जा चुकी है। केन्द्रीय गृहमंत्री तक आरोप के छींटे नहीं पहुंचे। कुछ लोगों ने आस लगा रखी थी कि विपक्ष को इसका लाभ मिलेगा। उनकी पतंग सद्दी से कट गई। पूरी वारदात के असली लाभार्थी कैप्टन अमरिंदर सिंह हैं। सौ से कम लोगों के समुदाय को संबोधित करने में कैप्टन को इन दिनों झिझक नहीं होती। दो बड़ों ने कैप्टन से यह भी नहीं पूछा-महाबली दर्शक सेना कहां दुबक कर रह गई?
उत्तरायण प्रदेश
गुजरात में संक्रांति को उत्तरायण के नाम से जाना जाता है। उत्तरायण को शुभकाल का आरंभ मानते हैं। भला हो, बाबा विश्वनाथ का, जिनकी कृपा से लंबी प्रतीक्षा के बाद काशी हिंदू विश्वविद्यालय को कुलपति मिला। पहले वहां एनी बेसेंट ने सेंट्रल हिंदू स्कूल आरंभ किया था। महामना मालवीय ने साल 1916 में बीएचयू की स्थापना की। दो बड़ों के राज्य तथा केन्द्रीय गृहमंत्री के संसदीय क्षेत्र गांधीनगर में प्रो सुधीर कुमार जैन तीन बार आईआईटी के निदेशक रह चुके हैं। उनकी नियुक्ति राष्ट्रपति ने 13 नवम्बर 2020 को की थी। ग्रहस्थिति ऐसी बनी कि काशी में एक सप्ताह तपस्या करने के बावजूद बिना प्रभार संभाले लौटना पड़ा। चुनाव घोषणा वाले दिन उत्तर प्रदेश के दो अफसरों ने चुनाव लडऩे के लिए नौकरी छोड़ी। एक ईडी वाले दूसरे कानपुर के पुलिस आयुक्त। दो दिन पहले प्रो. जैन ने कुलपति पद संभाला। प्रो. जैन ने अनर्थ टालने वाले शिव की पूजा की। माथे पर चंदन तिलक-त्रिपुंड और गले में माला शोभित थी। वैज्ञानिक कुलपति की मेज पर गंगाजल के बजाय सेनेटाइजर की बोतल अवश्य मौजूद थी।
कानूनन कोताही
विधि और न्याय मंत्री किरण रिजिजू चकित होंगे। चीन उनके राज्य को अपना मानते हुए नामकरण कर रहा है। बिल्कुल बाबा योगी आदित्यनाथ की शैली में नाम बदले जा रहे हैं। प्रधानमंत्री ने खुश होकर पद और मंत्रालय में महत्ता बढ़ा दी। संसद चले या न चले, उनके मंत्रालय के कामकाज में रोक टोंक नहीं हुई। ऊपर वाला छप्पर फाडक़र देने लगता है, तब यही माना जाता है कि ग्रह अनुकूल हैं। किसी ने अब तक अरुण जेटली जैसा तुनुकमिजाज नहीं कहा और न रविशंकर प्रसाद वाली फब्तियां उनके नाम के साथ जोड़ी गईं। सुप्रीम कोर्ट के कई पद भरे गए। चार महिलाएं शीर्ष अदालत में शामिल हैं। देश के हृदय मध्यप्रदेश की हालत भर नहीं सुधरी। मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में 53 न्यायाधीश होने चाहिए। हैं मात्र तीस। जबलपुर में हाइकोर्ट है। इंदौर और ग्वालियर की खंडपीठ में दस दस न्यायाधीश भी उपलब्ध नहीं हैं। दिल और दिमाग में यही अंतर है। मंत्री बनने के लिए संसद जाना हो तो दिल का दरवाजा खुला है। दिमागी फैसले में मध्यप्रदेश पिछड़ा राज्य है।
रपट पड़े तो हर गंगे
रपट पड़े तो हर गंगे उक्ति का मतलब सुविज्ञ पाठक भली भांति जानते हैं। सरल तरीके से उदाहरण समेत समझें। गलत अवसर को भुना लेने का कौशल बिना सीखे आता है। अंगरेजी में कहें तो इनबिल्ट होता है। अखिलेश यादव हमारी राय से असहमत हैं। कम उम्र में मुख्यमंत्री बनने वाले अखिलेश मानते हैं कि कमजोरी छिपाने का लाभ नहीं है। सच स्वीकारो। झारखंड के कोडरमा में अखिलेश चुनाव प्रचार करने गए। घंटे भर की प्रतीक्षा के बावजूद भीड़ नहीं जुटी। आयोजक प्रतीक्षा करने का अनुरोध कर रहे थे। अखिलेश ने आव देखा न ताव। जा पहुंचे सभास्थल। कुल जमा 27 श्रोताओं और बाकी दर्जन भर पार्टीजनों की मौजूदगी में भाषण पेल दिया। उत्तर प्रदेश के चुनाव के दौरान अखिलेश ने यह किस्सा स्वयं बताया। उनकी सभा में इन दिनों भारी भीड़ होती है। ओहदे के मुताबिक प्रधानमंत्री के सत्तर से अखिलेश के 27 और बहुत अधिक हैं।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
9 जनवरी को भारत में भारतीय प्रवासी दिवस मनाया जाता है। लेकिन आज इसे लेकर देश में ज्यादा हलचल नहीं दिखाई दी, क्योंकि एक तो नेता लोग चुनाव-अभियान में व्यस्त हैं और दूसरा कोरोना महामारी की वजह से पिछले साल भी प्रवासी सम्मेलन नहीं हो पाया था। इस महान संस्था की नींव प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने 2003 में रखी थी। प्रसिद्ध विधिवेत्ता और समाजसेवी डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी और राजदूत श्री जगदीश शर्मा के प्रयत्नों से इस संस्था की स्थापना हुई थी। इस काम को श्री बालेश्वर प्रसाद अग्रवाल की स्वायत्त संस्था अन्तरराष्ट्रीय सहयोग परिषद पहले से कर रही थी लेकिन उसे बड़ा और व्यापक रुप देने में अटलजी ने यह उत्तम पहल की थी।
इस समय दुनिया के देशों में भारतीय प्रवासियों की संख्या लगभग सवा तीन करोड़ है। इतनी आबादी तो ज्यादातर देशों की भी नहीं है। ये भारतीय पहले तो मोरिशस, फिजी, सूरिनाम और गयाना- जैसे देशों में ले जाकर इसलिए बसाए गए थे कि क्योंकि इन देशों में अंग्रेज शासकों को मजदूरों की जरुरत थी। इन सभी देशों में हमारे मजदूरों के बेटे, पोते और पड़पोते आज प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति हैं। इनके अलावा दर्जनों देशों में पिछले 100 वर्षों में हजारों-लाखों भारतीय शिक्षा, व्यापार, नौकरी और जीवन-यापन के लिए जाकर बसते रहे हैं। कुछ लोग वहीं पैदा हुए हैं और कुछ लोग यहां से जाकर वहां के नागरिक बन गए हैं। ऐसे सभी प्रवासियों की संख्या सवा तीन करोड़ तो हो ही गई है, इसके साथ-साथ दर्जनों देशों में वे अल्पसंख्या में रहते हुए भी राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री, सांसद आदि पदों पर शोभयमान हो रहे हैं।
अमेरिका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस हैं। ये लोग वहां रहकर ऐसा जीवन जीते हैं, जिसका अनुकरण सभी विदेशी लोग करना चाहते हैं। भारतीयों के पारिवारिक जीवन, उनकी सहजता, सादगी, परिश्रम, ईमानदारी आदि की चर्चा मैंने विदेशियों के मुंह से कई बार सुनी है। विदेशों में रहनेवाले भारतीयों में आप जाति, मजहब, भाषा और ऊँच-नीच का भेदभाव भी नहीं देख पाएंगे। दुनिया का कोई महाद्वीप ऐसा नहीं है, जहां भारतीयों को आप नहीं पाएंगे।
अब से 50-55 साल पहले न्यूयार्क जैसे बड़े शहर में किसी से हिंदी में बात करने के लिए मैं तरस जाता था लेकिन अब जब भी मैं दुबई जाता हूं तो मुझे लगता है कि मैं किसी छोटे-मोटे भारत में ही आ गया हूं। अमेरिका में इस समय लगभग 45 लाख भारतीय मूल के लोग रहते हैं। लगभग सभी प्रवासी भारतीय उन देशों के आम लोगों से अधिक संपन्न, सुशिक्षित और सुखी हैं। उन्होंने भारत को इस साल साढ़े छह लाख करोड़ रु. भेजे हैं। अपने प्रवासियों से धन प्राप्त करनेवाले देशों में भारत का नाम सबसे ऊपर है और ऐसा पिछले 14 साल से हो रहा है।
भारतीयों की खूबी यह है कि विदेशी जीवन-पद्धतियों से ताल-मेल बिठाने के साथ-साथ वे भारतीय मूल्यमानों को भी अपने दैनिक आचरण में गूंथे रखते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि 21 वीं सदी के पूरे होते-होते सारी दुनिया में भारतीय संस्कृति विश्व-संस्कृति के तौर पर स्वीकृत हो जाए।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के पांच राज्यों में चुनाव की घोषणा हो चुकी है। यह चुनाव-प्रक्रिया एक माह की होगी। 10 फरवरी से 10 मार्च तक! ये चुनाव उत्तरप्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में होंगे। इन पांचों राज्यों के चुनाव का महत्व राष्ट्रीय चुनाव की तरह माना जा रहा है, क्योंकि इन चुनावों में जो पार्टी जीतेगी, वह 2024 के लोकसभा चुनाव में भी अपना रंग जमा सकती है। दूसरे शब्दों में ये प्रांतीय चुनाव, राष्ट्रीय चुनाव के पूर्व राग सिद्ध हो सकते हैं। इन पांचों राज्यों में यों तो कुल मिलाकर 690 सीटे हैं, जो कि विधानसभाओं की कुल सीटों का सिर्फ 17 प्रतिशत है लेकिन यदि इन सीटों पर विरोधी दलों को बहुमत मिल गया तो वे अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा के लिए बड़ी चुनौती बन जाएंगे।
चुनाव आयोग ने इन चुनावों की घोषणा करते हुए बड़ी सावधानियों का परिचय दिया है। उसने अभी एक हफ्ते के लिए रैलियों, प्रदर्शनों, सभाओं, जत्थों आदि पर प्रतिबंध लगा दिया है लेकिन मुझे लगता है कि यह प्रतिबंध आगे भी बढ़ेगा, क्योंकि जिस रफ्तार से महामारी फैल रही है, यह चुनाव स्थगित भी हो सकता है। आयोग ने अपने सभी चुनाव कर्मचारियों का टीकाकरण कर दिया है लेकिन करोड़ों मतदाताओं से महामारी-प्रतिबंधों के पालन की आशा करना आकाश में फूल खिलाने जैसी हसरत है। हमने पहले भी बंगाल और बिहार के चुनावों में भीड़ का बर्ताव देखा और पिछले एक- डेढ़ माह से इन राज्यों में भी देख रहे हैं। कहीं ऐसा न हो कि अगले हफ्ते का प्रतिबंध खुलते ही महामारी का दरवाजा भी खुल जाए।
हो सकता है कि प्रतिबंधों को आगे बढ़ाया जाए और राजनीतिक दलों से कहा जाए कि वे लाखों की भीड़ जुटाने की बजाय चुनाव-प्रचार डिजिटल विधि से करें ताकि लोग घर बैठे ही नेताओं के भाषण सुन सकें ! यह सोच तो बहुत अच्छा है लेकिन देश के करोड़ों गरीब, ग्रामीण और अशिक्षित लोग क्या इस डिजिटल विधि का उपयोग कर सकेंगे? यह ठीक है कि इस विधि का प्रयोग उम्मीदवारों का खर्च घटा देगा। सबसे ज्यादा खर्च तो सभाओं, जुलूसों और लोगों को चुनावी लड्डू बांटने में ही होता है। इससे भ्रष्टाचार जरुर घटेगा लेकिन लोकतंत्र की गुणवत्ता भी घटेगी। हो सकता है कि इन चुनावों के बाद डिजिटल प्रचार, डिजीटल मतदान और डिजीटल परिणाम की कुछ बेहतर व्यवस्था का जन्म हो जाए।
चुनाव आयोग यदि इस तथ्य पर भी ध्यान देता तो बेहतर होता कि पार्टियां मतदाताओं को चुनावी रिश्वत नहीं देती। पिछले एक माह में लगभग सभी पार्टियों ने बिजली, पानी, अनाज, नकद आदि रुपों में मतदाताओं के लिए जबर्दस्त थोक रियायतों की घोषणा की है। यह रिश्वत नहीं तो क्या है? जो लोग करदाता हैं, उनकी जेबें काटने में नेताओं को जऱा भी शर्म नहीं आती। आम लोगों को इसी वक्त ये जो चूसनियां बाटी गई हैं या उनके वादे किए गए हैं, आयोग को उस पर भी कुछ कार्रवाई करनी चाहिए थी।
(नया इंडिया की अनुमति से)