विचार/लेख
-सुदीप ठाकुर
उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों का अभियान तेज हो गया है। इसका पता इससे भी चलता है कि मुख्यमंत्री, मंत्री और सांसद वगैरह दलितों या अनुसूचित जाति के लोगों के घरों में जाकर जमीन पर बैठकर उनके साथ भोजन कर रहे हैं।
हालांकि यह सब बेहद प्रतीकात्मक और ढोंग के अलावा कुछ नहीं है, यह सबको पता है। हैरत इस पर होनी चाहिए कि जो देश आजादी की पचहत्तरवीं वर्षगांठ मना रहा है, उसके आबादी के लिहाज से सबसे बड़े सूबे के मुख्यमंत्री को ऐन चुनाव के समय सामाजिक संरचना के उत्पीडि़त लोगों के घर पर जाकर भोजन करते हुए अपनी तस्वीर क्यों प्रचारित करनी पड़ रही है! आखिर एक योगी को यह दिखावा क्यों करना पड़ रहा है, उसे तो ऐसे दिखावे से दूर रहना चाहिए?
यह सब हमारी सामाजिक संरचना की अंतर्निहित बुराइयों को ही उजागर कर रहे हैं। कुछ महीने पहले पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव के दौरान केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह की ऐसी ही तस्वीरें सामने आ रही थीं। राजनीतिक रूप से पश्चिम बंगाल में प्रभावशाली मतुआ समाज को लुभाने के लिए वह इस समुदाय के घरों में जाकर भोजन कर रहे थे। हालांकि चुनाव के नतीजे बताते हैं कि उनकी यह सामाजिक-सांस्कृतिक यात्रा कारगर साबित नहीं हुई।
भारतीय समाज की संरचना में इतनी गहराई से जातियों की ऊंच-नीच समाई हुई है कि एक दिन किसी वंचित तबके के घर में भोजन करने से कोई चमत्कार नहीं हो जाने वाला है। फिर यह बात भी सामने आ चुकी है कि अतीत में उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति से संबंध रखने वाले लोगों के घरों में भोजन के ऐसे ही कार्यक्रम से पहले अधिकारियों ने उन्हें साबुन वगैरह दिए थे, ताकि वे नहा-धोकर साफ-सुथरे नजर आएं। यह भी सामने आया कि ऐसे अभियान में भोजन बाहर से लाया गया था।
मुझे मेरे गृह नगर राजनांदगांव के मेरे मोहल्ले में होने वाले एक कार्यक्रम की याद आ रही है। वहां एक श्री रामायण प्रचारक समिति है। 78 वर्ष पूर्व इसकी स्थापना हुई थी और तबसे वहां रोजाना दिन में कम से कम एक बार रामायण का पाठ होता है। श्री रामायण प्रचारक समिति तुलसी जयंती के मौके पर कई दिनों तक कई तरह के कार्यक्रम आयोजित करती है, जिनमें प्रबुद्ध लोगों के व्याख्यान भी शामिल होते हैं। मेरे अग्रज और रामायण प्रचारक समिति के सचिव विनोद कुमार शुक्ला ने बताया कि समिति अब भी तुलसी जयंती मनाती है और वहां अब भी कई तरह के कार्यक्रम होते हैं।
कई दशक पूर्व श्री रामायण प्रचारक समिति ने तुलसी जयंती के मौके पर होने वाले अपने व्याख्यान का विषय रखा था, ‘रामायण की महिला पात्र’! विभिन्न वक्ताओं को सीता, उर्मिला, कौशल्या, कैकेयी और शबरी इत्यादि महिला पात्रों के बारे में बोलना था। वक्ताओं में राजनांदगांव के पूर्व विधायक जॉर्ज पीटर लियो फ्रांसिस यानी हम सबके जेपीएल फ्रांसिस या फ्रांसिस साहब भी थे।
थोड़ा फ्रांसिस साहब के बारे में पहले जान लीजिए। जेपीएल फ्रांसिस 1940-50 के दशक में राजनांदगांव स्थित बंगाल नागपुर कॉटन मिल्स में श्रमिक थे और समाजवादी रुझान के श्रमिक नेता। श्रमिक नेता रहते ही 1957 में उन्होंने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से राजनांदगांव विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीता था।
फ्रांसिस साहब ने श्री रामायण प्रचारक समिति के व्याख्यान के लिए रामायण की जिस महिला पात्र को चुना वह थीं, शबरी। वही शबरी जो बेर चखकर श्रीराम को खिलाती हैं। फ्रांसिस साहब ने अयोध्या के युवराज राम और एक वंचित महिला शबरी के रिश्ते की बहुत खूबसूरती से सांस्कृतिक ही नहीं, समाजशास्त्रीय दृष्टि से भी व्याख्या कर डाली।
प्रसंगवश यह भी जान लीजिए कि श्री रामायण प्रचारक समिति सिर्फ हिंदुओं तक सीमित नहीं है, जैसा कि फ्रांसिस साहब के व्याख्यान से अंदाजा लगाया जा सकता है। विनोद कुमार शुक्ला जी बताते हैं कि समिति विभिन्न धर्मों के विद्वानों को व्याख्यान के लिए आमंत्रित करती है, इसमें कोई बंधन नहीं है, ताकि सामाजिक सौहार्द मजबूत हो।
वस्तुत: जरूरत सामाजिक और जातिगत पदानुक्रम को तोडऩे की है। सिर्फ चुनावी मौसम में अनुसूचित जाति या जनजाति से जुड़े परिवारों के घरों में भोजन करने से यह पदानुक्रम नहीं टूटेगा।
मुझे कुछ दशक पूर्व की राजनांदगांव जिले के आदिवासी अंचलों मानपुर, मोहला और आंधी की यात्राओं की भी याद आ रही है। समाजवादी नेता, पूर्व विधायक मेरे चाचा (दिवंगत) विद्याभूषण ठाकुर को अक्सर वहां जाना पड़ता था। कई मौकों पर मैं और उनके बड़े पुत्र और मेरे मित्र जैसे भाई (दिवंगत) अक्षय भी साथ होते थे। कई ऐसे मौके भी होते थे, जब चाचा का सारथी बनकर मैं उन्हें मोटरसाइकिल से मानपुर-मोहला या छुरिया में होने वाली बैठकों के लिए ले जाया करता था। यह बैठकेंकई बार बड़ी और कई बार बहुत छोटी होती थीं। बिना किसी औपचारिकता के सुंदर सिंह मंडावी, नोहर, लाल मोहम्मद जैसे चाचा के सहयोगियों और कार्यकर्ताओं के घरों में भोजन होता था। जमीन पर बोरा बिछा दिया जाता था और अक्सर भात और मुर्गा परोसा जाता था या कभी-कभी लौकी जैसी हरी सब्जी। कहीं कोई दिखावा नहीं होता था। यह भोजन साहचर्य का हिस्सा था।
सचमुच राजनीति कितनी बदलती जा रही है। एक मुख्यमंत्री को अपने ही सूबे के एक नागरिक के घर भोजन करने के बाद तस्वीर प्रचारित करनी पड़ती है!
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
चीन के विदेश मंत्री वांग यी पिछले दिनों कुछ अफ्रीकी देशों के साथ-साथ श्रीलंका भी गए। वहां उन्होंने भारत का नाम तो नहीं लिया लेकिन जो बयान दिया, उसमें उन्होंने साफ-साफ कहा कि चीन-श्रीलंका संबंधों में किसी तीसरे देश को टांग नहीं अड़ानी चाहिए। यही बात उनके राजदूतावास ने उनके कोलंबो पहुंचने के पहले अपने एक बयान में कही थी। श्रीलंका किसी भी राष्ट्र के साथ अपने संबंध अच्छे बनाए, इसमें भारत को क्या आपत्ति हो सकती है लेकिन चीन की नीति यह रही है कि वह भारत के आस-पड़ौस में जितने भी राष्ट्र हैं, उनमें भारत-विरोध भडक़ाए।
उसकी हरचंद कोशिश होती है कि वह भारत का कूटनीतिक घेराव कर ले। उसने पाकिस्तान के साथ इसीलिए ‘इस्पाती दोस्ती’ की घोषणा कर दी है। भारत के अन्य पड़ौसी राष्ट्र पाकिस्तान के रास्ते पर तो नहीं चल रहे हैं लेकिन उनकी भी कोशिश रहती है कि भारत-चीन प्रतिस्पर्धा को वे अपने लिए जितना दुह सकते हैं, दुहें। श्रीलंका इसका सबसे ठोस उदाहरण है। श्रीलंका के अनुरोध पर उसके आतंकवादियों से लडऩे के लिए भारत ने अपनी सेना वहां भेजी थी। हमारे लगभग 200 सिपाही भी कुरबान हुए थे। लेकिन श्रीलंका के वर्तमान राष्ट्रपति गोटाबया राजपक्ष और उनके भाई और पूर्व राष्ट्रपति महिंद राजपक्ष ने सत्तारुढ़ होते ही चीन के साथ इतनी पींगे बढ़ा लीं कि अब श्रीलंका चीन का उपनिवेश बनता जा रहा है।
चीन की रेशम महापथ की महत्वाकांक्षी योजना का श्रीलंका अभिन्न अंग बन गया है। उसने अपने सुदूर दक्षिण के हंबनटोटा नामक बंदरगाह को अब चीन के हवाले ही कर दिया है, क्योंकि उसके लिए उधार लिये गए चीनी पैसे को वह चुका नहीं पा रहा था। चीनी विदेश मंत्री ने अपनी इस यात्रा के दौरान समुद्री तटों पर बसे देशों के एक क्षेत्रीय संगठन का आह्वान किया है। इसका उद्देश्य भारत द्वारा शुरु किए गए ‘सागर’ नामक क्षेत्रीय संगठन को टक्कर देना है।
कोई आश्चर्य नहीं कि इस खेल में श्रीलंका को चीन अपना मोहरा बना लेगा। इस समय श्रीलंका की आर्थिक स्थिति दक्षिण एशिया में सबसे ज्यादा खराब है। चीनी संसद में विपक्ष के नेता डि सिल्वा ने कहा है कि श्रीलंका बिल्कुल दिवालिया हो गया है। अकेले अमेरिका का उसे 7 अरब डालर का कर्ज चुकाना है। चीन के सवा तीन बिलियन डॉलर के कर्जे में दबे श्रीलंका ने अपनी कई लंबी-चौड़ी जमीनें चीन के हवाले कर दी हैं। वह उसे ब्याज भी ठीक से नहीं दे पा रहा है।
भारत से कई गुना ज्यादा पैसा चीन वहां खपा रहा है। वांग यी से राष्ट्रपति गोटबाया ने खुले-आम रियायतें मांगी हैं। चीन की सैन्य मदद भी कई रुपों में श्रीलंका को मिल रही है। हथियार, पनडुब्बियां, प्रशिक्षण आदि क्या-क्या है, जो चीन नहीं दे रहा है। 20-20 लाख चीनी नागरिक हर साल श्रीलंका-यात्रा करते हैं। प्राचीन बौद्ध-संपर्क का फायदा दोनों देश उठाना चाहते हैं।
भारतीय विदेश मंत्रालय इन सब प्रवृत्तियों से सतर्क है लेकिन उसे यह भी पता है कि चीन की तरह वह भारत का पैसा अंधाधुंध तरीके से लुटा नहीं सकता। श्रीलंका को भारत का आभारी होना चाहिए कि भारत के डर के मारे ही उसे चीन की इतनी मदद मिल रही है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-हिमांशु कुमार
मुझे वर्ष 2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगों के बाद वहां काम करने का मौका मिला था। मैंने करीब 6 महीने वहां रहकर राहत, पुनर्वास, कानूनी मदद और चिकित्सा शिविर लगाया था। दंगे के दौरान वहां मुसलमानों की करीब 80 हजार आबादी को बेघर कर दिया गया था। मुजफ्फरनगर में जिनके ऊपर हमला किया गया, वह मुसलमानों की पसमांदा जातियां थीं।
महत्वपूर्ण यह कि उनके ऊपर हमला करने वालों में जाट, काछी और वाल्मीकि समुदायों के थे। दंगे के दौरान जो मारे गए और बाद में जो जेल गए, वह सभी बहुजन थे। यदि ध्यान से देखा जाए तो यह आपस में लडऩे वाले सभी लोग बहुजन थे। इन सभी को आपस में लड़वाकर सत्ता किसके हाथ में आई?
वर्ष 2017 में उत्तर प्रदेश में भाजपा को प्रचंड बहुमत की प्राप्ति हुई। एक तरह से सत्ता ब्राह्मणवादी हिंदुत्ववादी सवर्ण शक्तियों के हाथ में चली गई।
दरअसल, शूद्र-अतिशूद्र और आदिवासी समुदाय के साथ-साथ अन्य वंचित लोग, जो दूसरे धार्मिक विश्वासों की शरण में बराबरी की तलाश में गये, उन्हें मिलाकर भारत का बहुजन बनता है। इसमें पसमांदा मुसलमान और दलित ईसाई भी शामिल हैं। ये पूरे भारत की आबादी के 85 फीसदी हैं।
ये वे समुदाय हैं, जो परम्परागत रूप से मेहनतकश हैं। इसी मेहनतकश तबके को भारत के गैर मेहनतकश सवर्ण तबके ने नीच, अछूत और शूद्र घोषित किया था।
भारत में जो जातिवाद है, वह असल में नस्लवाद है।
जैसे दुनिया में काली नस्ल का गोरी नस्ल द्वारा शोषण और भेदभाव होता रहा है और आज भी उसके खिलाफ मुहिम जारी है। उसी तरह भारत में जो जातियां हैं, उनकी बुनियाद में भी अलग-अलग नस्लों का नस्लवाद ही है।
भारत में मूल निवासियों पर बाहरी नस्लों द्वारा हमले किए गए। हारने वाली नस्लों को गुलाम बनाया गया। उनकी जमीनों पर कब्जा कर लिया गया। हारे हुई नस्लों की बस्तियां अलग बना दी गईं। इसीलिए आज भी भारत के 80 प्रतिशत दलित भूमिहीन हैं और उनकी अलग बस्तियां हैं।
वर्ण व्यवस्था की ब्राह्मणवादी व्याख्या है कि समाज में अलग-अलग योग्यता के आधार पर पहले से ही वर्ण तय होते थे। जैसे कि ज्ञान में रूचि रखने वाला ब्राह्मण, वीर वृत्ति वाला क्षत्रिय, आर्थिक उपार्जन में रूचि वाला वैश्य और इन सभी की सेवा के लिए शूद्र।
आज आरएसएस के द्वारा कहा जा रहा है कि भारत में रहने वाले सभी भारतीय हैं तो इसकी पोल तो इसी बात से खुल जाती है कि अगर ऐसा था तो शूद्रों की अलग बस्तियां कैसे बनी?
अगर यह एक ही परिवारों के और एक ही समुदायों के लोग थे, तो शूद्रों के प्रति इतनी घृणा कैसे आ गई कि अगर कोई शूद्र युवक सवर्ण कन्या से प्रेम कर ले तो उसकी हत्या कर दी जाती थी? आज भी इस तरह की घटनाएं प्रकाश में आती रहती हैं।
यह बहुजन तबका सदियों से अन्याय और शोषण का शिकार है। सबसे ज्यादा मेहनत करने वाला यह तबका आज भी गरीब है। जबकि इसी तबके ने देश में उत्पादन को संभाल रखा है।
मतलब यह कि इसी तबके के लोग गाडियां चलाते हैं, कारखानों में काम करते हैं, खेतों में बुवाई, निराई और कटाई करते हैं। यही तबका मकान, कपड़े और जूते आदि बनाता है। लेकिन इसी से सबसे ज्यादा नफरत की जाती है।
यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि श्रमिक वर्ग को नीच की संज्ञा दी गई है और इसे सत्ता से दूर रखने की साजिशें की जाती हैं। इसे ही सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक अन्याय के रूप में पहचाना गया।
डॉ. आंबेडकर के साथ अन्य राष्ट्रीय नेताओं ने इस सदियों से चले आ रहे अन्याय को मिटाना आजाद भारत के लिए सबसे पहली प्राथमिकता माना और इसके लिए संविधान को न्याय और बराबरी के दो खंभों पर खड़ा किया गया।
लेकिन यह लक्ष्य इतना आसान नहीं रहा। आज भी भारत का बहुजन उसी सदियों पुराने सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक दमन और शोषण का शिकार हो रहा है।
वक्त के साथ ही उनके सामने अब नई चुनौतियां भी आ गई हैं। बहुजन समाज को बांटने के लिए उसे हिन्दू, मुसलमान और ईसाई के रूप में तोडऩे का हथकंडा अपनाया गया है। इसमें बंटकर बहुसंख्य बहुजन अपनी लड़ाई भूलकर अपना हक़ छीनने वाले समुदाय और वर्ग के हाथों में खेलकर अपने ही हितों को नुकसान पहुंचाते हैं।
बहुजन समुदाय अपने अधिकार और बराबरी के लिए लडऩा छोडक़र आपस में ही लड़े, यह वर्चस्ववादी समुदाय के लिए बहुत जरूरी है, जो स्वयं मेहनत नहीं करता है, लेकिन सारी आर्थिक ताकत उसकी तिजोरी में है। ये वे हैं जो ना मकान बनाते हैं और कपड़े। और ना ही ये अनाज उगातें हैं। लेकिन सबसे बढिय़ा अनाज, फल, रेशम, सोना और मकान इनके उपभोग के लिए ही जन्मना आरक्षित है। इन्हें सामाजिक न्याय पसंद नहीं है। ये जानते हैं कि अगर सभी मेहनतकश एकजुट हो जाएं और सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय की स्थापना कर दी गयी तो यह वर्ग जो मेहनत करेगा, उसका फल उसे ही मिलेगा।
इसे सामाजिक अर्थशास्त्र कहा गया है। इसमें लोग जातियों के आधार पर अमीर और गरीब बन जाते हैं।
यह ऐतिहासिक तौर पर किया गया अन्याय है। इसलिए कहा जाता है कि भारत में वर्ण ही वर्ग भी है। इस प्रकार माक्र्सवादी विचारधारा जिस आर्थिक वर्ग की बात करती है, वह तो भारत में सैंकड़ों सालों से वर्ण के आधार पर चलती आ रही है।
माक्र्सवादी चिंतकों ने दशकों तक इस वर्ण के आधार पर बने हुए वर्ग विभाजन को अपने अध्ययन और अपनी चिंता का विषय नहीं समझा।
दूसरी ओर अपने आर्थिक सामाजिक और राजनैतिक विशेषाधिकार को बचा कर रखने के लिए शासक वर्ग ने आज़ादी के पहले ही भारत के समानता आंदोलन को बांटने के लिए अपनी कोशिशें शुरू कर दी थीं। बहुजनों को ही अपने बीच के बहुजनों से लडऩे के लिए खड़ा किया गया। उन्हें हिन्दू, मुसलमान और ईसाई के रूप में बांटा गया।
हिन्दू महासभा, मुस्लिम लीग और आरएसएस का गठन इन्हीं सवर्ण विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों व वर्णों के लोगों ने अंग्रेजों की मदद से किया था। एक तरफ ये वर्ग-वर्ण अंग्रेजों के राज को भारत में रखना चाहते थे, वहीं दूसरी तरफ ये बहुजनों को आपस में लड़ाकर बराबरी की तरफ बढऩे वाले आंदोलनों को तोडऩे में लगे हुए थे।
आजादी मिलते ही इस वर्ग बाबरी मस्जिद में मूर्तियां रख दीं और मुस्लिम पसमांदा, हिन्दू दलित व ओबीसी को आपस में लड़वाने का प्रोजेक्ट लागू करने में जुट गई। इसका परिणाम यह हुआ कि आज ऐसे ही स्वनामधन्य हिंदूवादी भारत की गद्दी पर काबिज हैं।
इसका क्या परिणाम हुआ है, यह जानना इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि इसे समझे बिना इसे तोडऩे का रास्ता नहीं मिलेगा। कहने की आवश्यकता नहीं कि भारत का संगठित और असंगठित क्षेत्र का पूरा मजदूर वर्ग बहुजन समुदाय से आता है।
इन श्रमिकों को कुछ कानूनी अधिकार मिले हुए थे। यह अधिकार इन्हें लंबी लड़ाइयों के कारण मिले थे। फिर चाहे वह काम के आठ घंटे का अधिकार हो, सप्ताह में छह दिन काम का अधिकार हो, चाहे एक साप्ताहिक छुट्टी का अधिकार हो या फिर ओवर टाइम का अधिकार हो।
आज इन कानूनों को शिथिल किया जा रहा है। अब मजूरों से बारह बारह घंटे काम लिया जा रहा है। उन्हें हफ्ते में सातों दिन काम करना पड़ता है। हफ्ते में एक भी छुट्टी का पैसा काट लिया जाता है। न्यूनतम वेतन सुनिश्चित करने वाला कोई विभाग अब कोई हस्तक्षेप नहीं करता है।
एक तरह से कहा जाय तो मजदूरों को खुले बाज़ार में आर्थिक मगरमच्छों के जबड़े में मरने के लिए छोड़ दिया गया है। लेकिन जिन्होनें मंडल कमीशन की सिफारिशों के खिलाफ आत्मदाह और तोड़-फोड़ के आंदोलन चलाये थे, आज वही कार्पोरेट समर्थित हिन्दुत्ववादी सवर्ण ताकतें सत्ता में बैठी हैं।
इसी तरह आदिवासियों को उनके गावों से विस्थापित करके उनकी जमीनों जंगलों को छीन कर बड़ी कंपनियों को देने का काम जारी है।
इस दौरान बड़ी संख्या में आदिवासियों के उपर जुल्म ढाहा गया। आदिवासियों की जमीनों में छिपे हुए खनिजों पर कब्जा करने के लिए इनके इलाकों में अद्र्धसैनिक बलों को तैनात कर दिया गया है।
जहां रोज-ब-रोज आदिवासियों और सैन्य बलों के बीच संघर्ष चल रहा है। बड़े पैमाने पर मानवाधिकारों का हनन हो रहा है। लेकिन यहां कोई सुनने वाला और कार्यवाही करने वाला कोई नहीं है।
जाहिर तौर पर शासक वर्ग के निशाने पर बहुजन हैं। उसका आरक्षण, श्रम और संसाधन है।
अब सवाल उठता है कि क्या बहुजन इस हमले को समझ रहे हैं? हो यह रहा है कि आज साम्प्रदायिकता फ़ैलाने वाले संगठनों में चुन-चुनकर दलितों और ओबीसी को जोड़ा जा रहा है और उन्हें अपनों के खिलाफ ही खड़ा किया जा रहा है।
ऐसे में बहुजन चिन्तकों और सामाजिक न्याय के लिए काम करने वाले लोगों को सोचना होगा कि वे कैसे इस चुनौती का सामना करेंगे और बहुजन एकता को वास्तविकता बनाने के लिए कौन सा कार्यक्रम शुरू करेंगे, जो साम्प्रदायिक षडय़ंत्र का सामना कर सके और बहुजनों के आर्थिक सामाजिक और राजनैतिक न्याय के लक्ष्य को हासिल कर सके, जिसका सपना आजादी से पहले देखा गया था। (फारवर्ड प्रेस)
(संपादन-नवल/अनिल)
भारतीय संस्कृति का सबसे बड़ा सपना और ऐतिहासिक है और पौराणिक भी। अवाम पर सबसे ज्यादा असर राम का है। अनगिनत हिन्दुओं ने मौत के बाद खुद को राम के हवाले कर दिया है। इतिहास के सबसे एकनिष्ठ पति राम का सीता के निर्वासन के कारण औरतें माफ नहीं कर पा रहीं। उन्होंने पत्नी, बच्चे, मां-बाप, राजपाट, भाई बहन, परिवार, नगर, समाज या जीवन का समन्वित सुख सब खोया। राम राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा उच्चतम न्यायालय भी थे। उन्होंने लोकनीति और न्यायिक निष्कपटता सुनिश्चित की। राम ने उस अंतिम व्यक्ति का सम्मान किया जिसे रस्किन ने गांधी की चिन्ता के खाते में डाला।
राम सदियों से देश के काम आ रहे हैं। देश उनके काम कब आएगा? लोग आपस में मिलते ‘राम राम‘ कहते हैं। वीभत्स दृष्य या दुखभरी खबर मिले तो मुंह से ‘राम राम‘ निकल पड़ता है। अब भी ‘जयरामजी‘ कहने की परंपरा है। मेघालय की पान बीड़ा बेचने वाली स्नातक छात्रा ने स्मरणीय टिप्पणी की थी इस देश के लोग ‘जयराम‘ कहने के बदले ‘जयसीताराम‘ क्यों नहीं कहते।
अकबर के समकालीन गोस्वामी तुलसीदास की रामचरित मानस के कारण लाखों घरों की सांसों में राम ने पैठ जमा ली। मौका मोहनदास करमचंद गांधी ने सबसे मौलिक ढंग से पाया। आजादी के युद्ध में अंगरेज से लड़ने, हिंदू मुसलमान एका करने, धर्म को राजनीति की ताकत बनाने, आंदोलन में नैतिक संस्कार भरने, कांग्रेस पार्टी बल्कि देश को तकरीबन रामसेना की तरह ढालने और उपेक्षित वर्ग को गले लगाते राम का मर्म गांधी ने दुनिया को परोस दिया।
गांधी की उत्तराधिकारी कांग्रेस ने राम को फकत हिन्दुओं का सरगना समझा। आज इतिहास दंड दे रहा है। संघ परिवार में उच्च वर्गों की जय है। संघ परिवार ने गांधी के ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम‘ को ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं,‘ ‘भारत में यदि रहना होगा, वंदेमातरम कहना होगा‘ और ‘जयश्रीराम‘ में रंग दिया।
वाल्मीकि और तुलसी के राम जुदाजुदा होकर भी चरित्र के गुलदान में गुलाब की तरह खुंसे हैं। लोकतंत्र का थर्मामीटर और मर्यादा का बैरोमीटर रहते कुतुबनुमा हैं। जिधर राम हैं उधर ही उत्तर है। उनको लेकर चलाई गई साम्प्रदायिक बहसें ठीक अयोध्या में दम तोड़ती नज़र आ रही हैं। राम को जांचना लोकतंत्रीय चुनौती है। उनका अक्स समझे बिना मजहबी दृष्टिकोण से लडा़ई नहीं जीती जा सकती। साम्प्रदायिक कठमुल्लापन हिन्दू और मुसलमान दोनों में है।
राम मंदिर में धार्मिक मुखौटे के सिर झुकाते नेता सहयोगियों को ‘यसमैन‘ बनाकर खुद को महिमामंडित करते हैं। राम परिवारवादी नहीं थे। लक्ष्मण और सीता को छोड़ लंका विजय तक कोई रिश्तेदार साथ नहीं था। उन्होंने दलितों, आदिवासियों, वंचितों को लोकतंत्र के युद्ध का साहसिक पुर्जा बनाया। यह सदी ये बुनियादी सवाल अपनी छाती पर कब छितराएगी?
रामनाम का मजहबनामा
राम को संघ परिवार उस पार्टी से उठा ले गया जिसके मसीहा ने छाती पर गोली खाने के बाद ‘हे राम‘ कहा था। कांग्रेस सम्मेलन में गांधी की आश्रम भजनावली का उच्चारण नहीं होता। प्रभात फेरी, खादी, मद्य निशेध, अहिंसा गायब हैं। लोकतंत्र की रक्षा के लिए राम से बड़ी कुर्बानी इतिहास में किसी ने नहीं की। एकाकी रहे राम को भीड़ के नारों की लहरों पर बिठाया जाता है।
‘जयश्रीराम‘ के उत्तेजक नारे वाला आदमी भी हिन्दू विश्वास में बहता है कि आखिरी यात्रा पर चलेगा तब पीछे ‘राम नाम सत्य है‘ का नारा अवष्य गूंजेगा। दिल्ली के तख्तेताउस पर एक पार्टी राम की बैसाखी लेकर बैठी है। दूसरी ‘हे राम‘ कहने वाले सबसे बड़े सेनापति को भुलाए बैठी है। उसके ही पूर्व प्रधानमंत्री ने राम मन्दिर का ताला खुलवाया था। वह राम को धर्मनिरपेक्षता का ब्रांड एम्बेसडर नहीं बना पाती। गांधी ने ही कहा था ‘ईश्वर, अल्लाह राम के ही नाम हैं।‘ राम क्या केवल अयोध्या नगर निगम के मतदाता हैं?
संसद और राष्ट्रपति भवन में जय श्रीराम का नारा गूंजा है। गूंजते रहने की लगातार गुजाइशें हैं। करोड़ों ग्रामीण राम की नसीहतों के मुताबिक संवैधानिक आचरण कर रहे हैं। एक हुकूमत सड़कों पर स्त्री के शील से खेलते एंटी रोमियों स्कवाड बनकर नपुंसक शेखी बघारती है। राम की पुलिस के लिए तो उनका नाम ही अनुशासन पर्व था।
कोई राम के चेहरे पर भगवा रंग भरे तो मुकाबले के लिए उनको ही ढूंढना होगा। विदेशों से पढ़कर आए हैं। हजारों साल से चली आ रही भारतीय समझ की खिल्ली उड़ाते हैं। परोपकारी अर्थ में धर्म हिंदुस्तान का अस्तित्व है। धर्म की हेठी औसत भारतीय को कुबूल नहीं। विचारों की लड़ाई में जीतना है तो राम चरित्र घर घर बताने वाली पार्टी ही केन्द्रीय हो सकती है।
राम को ‘चुनाव आयोग‘, ‘हाथ का पंजा‘, ‘कमल निशान‘, ‘हाथी‘ ‘साइकिल‘ जैसी बहुत सी तस्वीरें चौराहों पर लटकी मिलीं। लोग मिले। उन्होंने राम को विदेशी मुद्रा दिखाई। बताया इसी से धर्म युद्ध के हथियार खरीदे जाते हैं। इसी से धर्माचार्यों के आश्रम चलते हैं। इसी से चुनाव होता है। अचरज और राम एक दूसरे को घूरते हैं। इत्तिहाद, अदमतशद्दुद, मजहब, ज़मीर, सुकून जैसे शब्दों का हिन्दी में अनुवाद नहीं हो रहा है। भारत, भारतीयता, भारतीयकरण जैसे शब्दों का पेटेन्ट दाढ़ी मूंछ धारियों के हाथों में है जो मुस्टन्डे अखाड़ों में दंड पेलते उन्हें आश्रम कहते हैं। ‘मदरसा‘ शब्द का पर्याय ‘गंडासा‘ पढ़ाया जा रहा है।
राम के नाम पर
राजनेता संविधान की उद्देशिकाओं की कसम खाते हैं। वह राम की शब्दावली में है। इसके बावजूद मंत्री अपने खिलाफ प्रथम दृष्टि में स्थापित विधि की प्रकिया के अनुसार तथ्यपरक जांच रिपोर्ट खुद ही बांचते हैं कि वे अपनी दृष्टि में दोषी नहीं हैं।
राम के लिए बेकार मध्यवर्गीय नवयुवकों की भीड़ के द्वारा धोबी के मकान पर हमला कराने के बाद जिन्दाबाद के नारे लगवा लेना कठिन नहीं था। अपना यश सुरक्षित रखने के बदले राम ने नियमों और मर्यादाओं के लिए दाम्पत्य जीवन, पुत्रमोह, परिवार सुख और सत्ता की बलि चढ़ा दी। शिकायत करने का सार्वजनिक अधिकार आज राम की वजह से जिन्दा है। हर मुसीबतजदा, अन्यायग्रस्त, व्यवस्थापीड़ित व्यक्ति के दिल में साहस का दीपक जलता है। उसमें राम की बाती है।
राजनेता अपने परिवारजनों के कारण मारे जा रहे हैं। लगातार जीतने का रेकार्ड बनाकर भी शराबी पुत्र के कुलक्षणों पर पर्दा डालने, सरकारी जंगलों की लकड़ी कटाई के आरोपों को लेकर नेता सांसत में हैं। सत्ताधीश खुद के खर्च से प्रायोजित मौसमी संस्थाओं की नकली उपाधियों से विभूषित अपनी रामलीला में रमे हैं। बुद्धिजीवियों को बीन बीनकर राज्य व्यवस्था बाहर कर रही है। मुलजिम न्याय सिंहासन पर काबिज हैं। विद्वानों की जगह नवरत्नों की शक्लों में रिटायर्ड, बर्खास्तशुदा और इस्तीफाग्रस्त नौकरशाही ले चुकी है। वे राज्य को लोकसेवा नहीं, शासन का अहंकार बनाते हैं।
आर्य बनाम म्लेच्छ युद्ध में राम विजय पुरस्कार की ट्रॉफी बने इतिहास की खूंटी पर टांग दिए गए हैं। देश गुंडों, मवालियों, खलनायकों, हत्यारों, दंगाइयों के हवाले है। राम का लोकतंत्रीय आचरण पाठ्यक्रम से हटा दिया गया है। शबरी, जटायु, त्रिजटा, सुग्रीव जैसे चरित्र सांस्कृतिक हाशिये पर धकेले गए हैं। रावण, कुम्भकर्ण, मेघनाद वगैरह ने तख्ते ताऊस पर कब्जा कर रखा है। काल दहाड़ें मारकर रो रहा है। सदी बेवा की तरह चीख रही है। परम्पराएं मवाद से भर गई हैं।
-रमेश अनुपम
18 मार्च के पश्चात स्थिति बिगड़ती ही चली गई। आदिवासियों का असंतोष बढ़ता ही चला गया जो किसी तरह रुकने का नाम नहीं ले रहा था। महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की गुहार हमेशा की तरह इस बार भी अनसुनी ही रह गई। शासन-प्रशासन इस सबसे हमेशा की भांति उदासीन ही बना रहा।
इस बीच 22 मार्च को कमिश्नर वीरभद्र सिंह जगदलपुर आए। सर्किट हॉउस में रविशंकर वाजपेयी नागरिकों के एक शिष्टमंडल के साथ मिले और उन्हें वस्तु स्थिति की जानकारी दी।
कमिश्नर वीरभद्र सिंह ने नागरिकों के शिष्टमंडल को यह आश्वासन दिया की एस.ए.एफ की बटालियन अगले 10 दिनों तक गांव में पेट्रोलिंग नहीं करेगी। इसके बाद कमिश्नर बीजापुर के लिए रवाना हो गए।
स्थानीय प्रशासन ने कमिश्नर की इस बात को भी गंभीरता से नहीं लिया। एस.ए.एफ के जवानो की पेट्रोलिंग नहीं रुकी।
आदिवासियों का असंतोष बढ़ता ही चला जा रहा था। 24 मार्च को बड़ी संख्या में आदिवासी राजमहल पहुंचने लगे थे।
25 मार्च सन् 1966 की सुबह जगदलपुर में होने वाली एक सामान्य सुबह ही थी। इंद्रावती धीरे-धीरे बह रही थी। पूर्व दिशा में सूर्य इंद्रावती की जल राशि को निहारता हुआ नीले बादलों के बीच से मुस्कुराता हुआ उदित हो रहा था। सागौन और साल के वृक्षों पर बैठी हुई वनपाखियां अपना आलस छोडक़र उन्मुक्त नभ में उडऩे के लिए बेकरार हो रही थीं।
इधर राजमहल में एकत्र आदिवासी अपने-अपने ईटों के चूल्हों पर कोदों रांध रहे थे। कुछ आदिवासी आपस में बैठकर अपने गांव घर की बातें कर रहे थे। कुछ ही देर में घटित होने वाली दारुण विपदा से बेखबर आदिवासियों का हुजूम राजमहल के बाहर और भीतर अपने सामान्य दिनचर्या के कामों में मशगूल था।
राजमहल के भीतर संचालित होने वाले महाविद्यालय और स्कूल में शिक्षक और छात्र-छात्राएं रोज की भांति पढ़ाई-लिखाई में व्यस्त थे।
सुबह धीरे-धीरे राजमहल की मुंडेरों पर खिसकने लगी थी। घड़ी का कांटा धीरे-धीरे सरकता हुआ दस की ओर बढ़ रहा था। तभी जैसे राजमहल में एक भूचाल सा आ गया।
सुरक्षा बल के जवान भारी संख्या में राजमहल के भीतर घुस आए थे। आदिवासियों के ईंटों पर पकने वाले भोजन को लाठियों से गिराने लगे थे।आदिवासियों को सरेआम पीटने लगे थे। राजमहल के भीतर बिना किसी चेतावनी के अश्रु गैस के गोले फेंके जाने लगे। चारों ओर अफरा-तफरी मच गई थी।
महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव स्वयं स्कूल पहुंचकर बच्चों और शिक्षकों को राजमहल के पीछे के दरवाजे से जो दलपत सागर की ओर खुलता था, उससे बाहर निकालने में लग गए थे।
इधर आदिवासी पुलिस जवानों द्वारा अचानक किए जाने वाले लाठी चार्ज और अश्रु गैस से क्रोधित हो उठे थे। उन्होंने अपने-अपने तीर धनुष उठा लिए थे। पुलिस के जवानों को मौका मिल गया था उन्होंने आदिवासियों पर ताबड़तोड़ फायरिंग शुरू कर दी थी।
अपरान्ह 10. 45 को जगदलपुर शहर में धारा 144 लगाए जाने की घोषणा लाउडस्पीकर द्वारा की जाने लगी।
राजमहल के भीतर से धमाकों की आवाज आने लगी थी। राजमहल की दीवारें धमाकों और गोलियों की आवाज से थरथराने लगी थीं।
आसपास के पेड़ों पर बैठी हुई वनपाखियां इन धमाकों के डर से न जाने कब की उड़ चुकी थीं। सारे शहर की सडक़ें इन धमाकों और गोलियों की ताबड़तोड़ फायरिंग से गूंजने लगी थीं।
लोग अपने-अपने घरों में दुबक कर बैठ गए थे। सबने घर के भीतर की सांकल चढ़ा रखी थी।
धमाकों और फायरिंग की आवाजों से दलपत सागर के पानी में कंपकपी सी फैल गई थी। इंद्रावती की जलराशि भी जैसे बैचेन होकर ठहर गई थी।
25 मार्च सन् 1966 को इस मनहूस तारीख को न दलपत सागर कभी भूला सकता है और न इंद्रावती नदी ही। इस काली तारीख को कभी भूलाया नहीं जा सकता।
25 मार्च को अपरान्ह 11 बजे से शुरू हुई पुलिस फायरिंग 26 मार्च की सुबह 4 बजे तक चलती रही।
उस रात कोई परिंदा अपने घोसलों में ठीक से नहीं सो सका था और न ही जगदलपुर के लोग ही उस रात चैन से सो पाए थे।
25 मार्च को सारा शहर गोलियों की आवाज से कांप रहा था। 26 मार्च की सुबह इंद्रावती नदी ने सबसे पहले देखा कि आज का सूर्य पहले से कुछ बदला हुआ सा है और आसपास के पेड़ों से सवाल किया कि आज का सूर्य इतना रक्तिम क्यों है?
(बाकी अगले हफ्ते)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान जब से पैदा हुआ है, वह सिर के बल खड़ा रहा है लेकिन इमरान खान ने उसे पांव के बल खड़ा करने की घोषणा की है। उन्होंने पाकिस्तान के इतिहास में पहली बार ऐसी नीति की घोषणा की है, जो न केवल भारत के साथ उसके रिश्तों को सुधार देगी बल्कि दुनिया में पाकिस्तान की हैसियत को ही बदल देगी। अब तक पाकिस्तान दुनिया के शक्तिशाली और मालदार राष्ट्रों के आगे अपनी झोली फैलाए खड़ा रहता रहा है और उनका फौजी पिछलग्गू बना रहता रहा है। इसका एक मात्र कारण है— भारत के साथ उसकी दुश्मनी !
यह दुश्मनी पाकिस्तान को बहुत मंहगी पड़ी है। उसने तीन-तीन युद्ध लड़े, आतंकवाद की पीठ ठोकी और जिन्ना के देश के दो टुकड़े करा लिये। कभी उसे अमेरिका का चरणदास बनना पड़ा तो कभी चीन का! इतना ही नहीं, पाकिस्तान के स्वाभिमानी और आजाद तबियत के लोगों को फौज की गुलामी भी करनी पड़ रही है।
पिछले सात वर्षों से तैयार हो रही पाकिस्तान की सुरक्षा और अर्थ नीति की घोषणा अब इमरान सरकार ने की है। इसका प्रारंभ प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के मार्गदर्शक मियां सरताज अजीज ने किया था। जाहिर है कि इमरान सरकार अपनी फौज की हरी झंडी के बिना इसकी घोषणा नहीं कर सकती थी। इसमें कहा गया है कि भारत के साथ अगले सौ साल तक किसी प्रकार की दुश्मनी नहीं रखी जाएगी और अपने पड़ौसियों के साथ पाकिस्तान शांति की नीति का पालन करेगा। भारत के साथ व्यापारिक और आर्थिक संबंध भी सहज रुप धारण करेंगे। इस प्रक्रिया में कश्मीर बाधा नहीं बनेगा।
इसी दस्तावेज में एक बहुत ही सूक्ष्म बात भी कही गई है जिस पर भारत के अखबारों और टीवी चैनलों का ध्यान नहीं गया है। वह यह कि वह किसी महाशक्ति का दुमछल्ला नहीं बनेगा। वह सामरिक से भी ज्यादा अपनी आर्थिक रणनीति पर ध्यान केंद्रित करेगा। यदि सचमुच पाकिस्तान अपनी कथनी को करनी में बदल सके तो पूरे दक्षिण एशिया का भविष्य ही चमक उठेगा लेकिन यह साफ है कि यह अंतिम फैसला पाकिस्तान की फौज के हाथ में है।
माना जा रहा है कि यह विलक्षण घोषणा फौज की सहमति से हुई है। यदि ऐसा है तो अफगान-संकट पर भारत द्वारा आयोजित बैठक का पाकिस्तान ने चीन के साथ मिलकर बहिष्कार क्यों किया? अफगानिस्तान को भेजे जानेवाला 50 हजार टन गेहूं अभी तक क्यों नहीं वहां ले जाने दिया जा रहा है? कश्मीर के सवाल को बार-बार संयुक्तराष्ट्र के मंचों पर क्यों घसीटा जा रहा है? इमरान सरकार भारत से बात करने की पहल क्यों नहीं करती है?
इमरान खान, नवाज शरीफ, जनरल मुशर्रफ, बेनज़ीर भुट्टो और जनरल जिय़ा से जब भी मेरी भेंट हुई है, मैंने उनको कहा है कि जुल्फिकार अली भुट्टो भारत से एक हजार साल तक लडक़र कश्मीर छीनने की बात करते थे, यह बात बिल्कुल बेमानी है। कश्मीर का हल लात से नहीं बात से हो सकता है। लेकिन अब भी इस नए दस्तावेज के 100 पृष्ठों में से 50 तो छिपाकर रखे गए हैं। क्यों ? क्या इमरान की दाल में कुछ काला है?
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत का अगला बजट कुछ ही हफ्तों में आने वाला है। वह कैसा हो, इस बारे में कई विशेषज्ञ और प्रभावित लोग अपने सुझाव देने लगे हैं। अब से लगभग 30-35 साल पहले श्री वसंत साठे और मैंने सोचा था कि भारत से आयकर खत्म करने का अभियान चलाया जाए, क्योंकि आयकर की मार से बचने के लिए करदाताओं को काफी भ्रष्टाचार का सहारा लेना पड़ता है और आयकर भरने की प्रक्रिया भी अपने आप में बड़ा सिरदर्द है। अब भी यह जरुरी है कि आयकर की जगह व्ययकर या जायकर लगाया जाए।
जायकर मतलब उस पैसे पर कर लगाया जाए जो नागरिक की जेब से बाहर जाता है। आने वाला पैसा करमुक्त हो और जाने वाला करयुक्त हो। खर्च पर यदि टैक्स लगेगा तो लोग फिजूलखर्ची कम करेंगे। आमदनी में जो पैसा बढ़ेगा, उसे लोग बैंकों में रखेंगे। वह पैसा काम-धंधों में लगेगा। उससे देश में उत्पादन और रोजगार बढ़ेगा। टैक्स का हिसाब देने में जो मगजपच्ची और रिश्वत आदि के खर्च होते हैं, उनसे भी राहत मिलेगी। लगभग साढ़े छह करोड़ लोग, जो हर साल टैक्स भरते हैं, वे सरकार के आभारी होंगे।
लाखों सरकारी कर्मचारियों को भी राहत मिलेगी, जिन्हें कर-गणना करनी पड़ती है या टैक्स-चोरों पर निगरानी रखनी पड़ती है। नौकरीपेशा और दुकानदारों को भी टैक्स बचाने के लिए तरह-तरह के दांव-पेच नहीं करने होंगे। मोटी आमदनी पर टैक्स देने वालों की संख्या लगभग 1.5 करोड़ है। बाकी 5 करोड़ लोगों को बहुत कम या शून्य टैक्स देना होता है। उनके सिर पर फिजूल तलवार लटकी रहती है। ऐसे लोगों में छोटे व्यापारी और वेतनभोगी लोग ही ज्यादा होते हैं। उन्हें वे दांव-पेंच करना भी नहीं आता, जिनसे टैक्स बचाया जाता है।
बड़े किसान, नेता लोग और बड़े उद्योगपति टैक्स-चोरी की कला के महापंडित होते हैं। वे अपने करोड़ों-अरबों रु. फर्जी खातों या विदेशी बैंकों में छिपाए रखते हैं। नोटबंदी इसी भावना से लाई गई थी कि वह इन प्रवृत्तियों को काबू करेगी लेकिन वह विफल हो गई। काला धन बढ़ता ही गया। यदि आयकर की प्रथा समाप्त कर दी जाए तो कोई काला धन पैदा होगा ही नहीं।
इस समय दुनिया के दर्जन भर से ज्यादा देशों में व्यक्तिगत आयकर है ही नहीं। इनमें सउदी अरब, यूएई, ओमान, कुवैत, बहरीन और मालदीव- जैसे मुस्लिम देश भी शामिल हैं। इन देशों में विक्रय कर या सेल्स टैक्स या हमारे जीएसटी की तरह खर्चकर याने जायकर तो है लेकिन आयकर नहीं। उनकी अर्थ-व्यवस्थाएं मजे में चल रही हैं।
जायकर याने खर्च पर कर लगाने के लिए हमारे अफसरों और विशेषज्ञों को अपना दिमाग लगाकर सभी पहलुओं पर सांगोपांग विचार करना होगा। आम लोगों से भी सुझाव मांगने होंगे। जायकर में भी चोरी और चालाकी की अनंत संभावनाएं रहेंगी लेकिन आयकर के मुकाबले वे बहुत कम होंगी। यदि भारत-जैसा बड़ा देश इसे लागू करेगा तो अपने पड़ौसी देशों में भी इसका अनुकरण तो अपने आप हो जाएगा। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के सर्वोच्च न्यायालय का यह कदम बिल्कुल सही है कि उसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सुरक्षा के मामले को अपने हाथ में ले लिया है। केंद्र सरकार और पंजाब सरकार, दोनों ने यह मालूम करने के लिए जांच बिठा दी थी कि मोदी का रास्ता रोकने के लिए कौन जिम्मेदार है? पंजाब की पुलिस या केंद्र का विशेष सुरक्षा दस्ता (एसपीजी)? मोदी को भारत-पाक सीमा के पास स्थित हुसैनीवाला में जाना था, जो सरदार भगतसिंह का बलिदान-स्थल हैं। मौसम की खराबी से उन्होंने अपनी विमान-यात्रा को पथ-यात्रा में बदल दिया, जो कि बिल्कुल ठीक था लेकिन उन्हें फिरोजपुर के पास एक पुल पर लगभग 20 मिनिट इंतजार करना पड़ा, क्योंकि आगे जाने के रास्ते को किसान प्रदर्शनकारियों ने घेर रखा था।
प्रधानमंत्री की सुरक्षा का मामला बहुत गंभीर है, क्योंकि सरकारी लापरवाही के कारण ही हमें महात्मा गांधी, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी को खोना पड़ा है। कायदे के मुताबिक जिस मार्ग से प्रधानमंत्री को गुजरना होता है, उसे पूरी तरह से निष्कटंक बनाए रखना उस राज्य सरकार की जिम्मेदारी होती है। मोदी का रास्ता रोका गया, यह अपने आप में गंभीर घटना है लेकिन सुरक्षित लौटने के बावजूद मोदी का यह बयान कि (मुख्यमंत्री) चन्नी को धन्यवाद कि मैं भटिंडा से जिंदा लौट आया हूँ, जबर्दस्त विवाद और मजाक का विषय बन गया है।
कांग्रेसी कह रहे हैं कि आप भीड़ से बहुत दूर थे। आप पर न किसी ने पत्थर फेंके, न तलवार या गोली चलाई और न ही धक्का-मुक्की तो आप बचे किससे? भीड़ ने आपको और आपने भीड़ को देखा तक नहीं तो यह बात आपने कैसे कह दी? आपके बीच में ही लौट आने का कारण तो यह था कि आपके समारोह-स्थल पर 700 लोग भी नहीं आए थे जबकि आपकी सुरक्षा के लिए 10 हजार सुरक्षाकर्मी तैनात थे। निराशावश जब आपको लौटना पड़ा तो आपने अपना रास्ता रोकने की नौटंकी-लीला छेड़ दी। इसका उद्देश्य पंजाब सरकार को बदनाम करना और चुनावी पैंतरा मारना था।
इन कांग्रेसी बयानों का भाजपा ने भी मुंहतोड़ जवाब देने की कोशिश की। भाजपाइयों ने सिख आतंकियों की राष्ट्रविरोधी प्रवृत्ति का मसला उठा दिया। पंजाब सरकार के सिर सारा दोष मढ़ते हुए भाजपाइयों ने आरोप लगाया कि पंजाब की सरकार ने भयंकर लापरवाही बरती है। उसने हवाई मार्ग के वैकल्पिक थल-मार्ग को एकदम खाली क्यों नहीं रखा? उसने कायदे का उल्लंघन किया है। उसने जान-बूझकर हुसैनीवाला की बड़ी जनसभा पर पानी फेरने का षडय़ंत्र रचा था। उसे डर था कि मोदी की यह सभा चुनावी हवा को पल्टा खिला देगी।
कुल मिलाकर हुआ यह कि केंद्र और पंजाब, दोनों सरकारों ने अपनी-अपनी जांच बिठा दी। केंद्र सरकार ने पंजाबी अधिकारियों को अपनी सफाई देने के लिए नोटिस भी जारी कर दिए। सर्वोच्च न्यायालय ने दोनों जांचों पर रोक लगा दी है और अपनी स्वतंत्र जांच बैठा दी है। यह जांच समिति पता करेगी कि असली दोष किसका है? पंजाब की पुलिस का है या प्रधानमंत्री के विशेष सुरक्षा दस्ते का? नतीजा जो भी हो, प्रधानमंत्री की सुरक्षा अत्यंत महत्वपूर्ण विषय है। इस विषय पर घटिया राजनीति उचित नहीं है। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आज 10 जनवरी को विश्व हिंदी दिवस मनाया जाता है। पहली बार यह 1975 में नागपुर में हुआ था। इसका आयोजन श्री अनंत गोपाल शेबड़े और श्री लल्लनप्रसाद व्यास ने किया था। इसका उदघाटन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने किया था। उस समय मैंने ‘नवभारत टाइम्स’ में जो संपादकीय लिखा था, उसका शीर्षक था, ‘हिंदी मेला: आगे क्या?’ इस संपादकीय की बहुत चर्चा हुई थी, क्योंकि न.भा.टा. उस समय देश का सबसे बड़ा अखबार था और मुझे हिंदीयोद्धा के नाम से सारा देश जानने लगा था। मैंने उस संपादकीय में जो प्रश्न उठाए थे, वे आज 46 साल बाद भी देश के सामने जस के तस खड़े हैं। ये सम्मेलन भारत समेत दुनिया के कई देशों में संपन्न हो चुके हैं लेकिन नतीजा वही है। नौ दिन चले और ढाई कोस !
इसके आयोजन पर हर बार करोड़ों रु. खर्च होते हैं। सैकड़ों भारतीय सरकारी अधिकारियों, हिंदी साहित्यकारों, अध्यापकों और पत्रकारों तथा तथाकथित हिंदीकर्मियों की चांदी हो जाती है। जिनके लिए भारत में भी अपने पैसों से पर्यटन करना कठिन होता है, वे मुफ्त में विदेश-यात्राओं का आनंद लेते हैं। मुझे इन सम्मेलनों के निमंत्रण कभी हिंदी और कभी अंग्रेजी में भी आते रहे हैं। मैं 2003 में सूरिनाम में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में गया, वह भी भारत और सूरिनाम के प्रधानमंत्रियों के व्यक्तिगत आग्रह पर! वहां मैंने मेरे कई साहित्यकार, पत्रकार और सांसद मित्रों के समर्थन से हिंदी को संयुक्तराष्ट्र संघ की भाषा मान्य करवाने का प्रस्ताव पारित करवाया लेकिन आज तक क्या हुआ? कुछ भी नहीं। श्रीमती सुषमा स्वराज जब विदेश मंत्री बनीं तो मैंने उन्हें बार-बार प्रेरित किया। उन्होंने काफी प्रयत्न किया लेकिन संयुक्तराष्ट्र संघ में हिंदी अभी तक मान्य नहीं हुई है। लेकिन वे छह भाषाएं वहां मान्य हैं, जिनके बोलनेवालों की संख्या दुनिया के हिंदीभाषियों से बहुत कम है। चीनी भाषा (मेंडारिन) के बोलनेवालों की संख्या भी विश्व के हिंदीभाषियों के मुकाबले काफी कम है।
यह बात चीन में दर्जनों बार गांव-गांव घूमकर मैंने जानी है। यदि सं.रा. में अरबी, अंग्रेजी, हिस्पानी, रूसी, फ्रांसीसी और चीनी मान्य हो सकती हैं तो हिंदी को तो उनसे भी पहले मान्य होना चाहिए था लेकिन जब हमारी सरकार और नौकरशाही ने भारत में ही हिंदी को नौकरानी बना रखा है तो इसे विश्वमंच पर महारानियों के बीच कौन बिठाएगा? हम महाशक्तियों की तरह सुरक्षा परिषद में घुसने के लिए बेताब हैं लेकिन पहले उनकी भाषाओं के बराबर रुतबा तो हम हासिल करें। यह सराहनीय है कि अटलजी और नरेंद्र मोदी ने सं. रा. में अपने भाषण हिंदी में दिए। 1999 में संयुक्तराष्ट्र में भारतीय प्रतिनिधि के नाते मैं अपना भाषण हिंदी में देना चाहता था लेकिन मुझे मजबूरन अंग्रेजी में बोलना पड़ा, क्योंकि वहां कोई अनुवादक नहीं था। संस्कृत की पुत्री होने और दर्जनों एशियाई भाषाओं के साथ घुलने-मिलने के कारण हिंदी का शब्द-भंडार दुनिया में सबसे बड़ा है। यदि हिंदी संयुक्तराष्ट्र की भाषा बन जाए तो वह दुनिया की सभी भाषाओं को अपने शब्द-भंडार से भर देगी। यदि हिंदी को संयुक्तराष्ट्र संघ में मान्यता मिलेगी तो भारत में से अंग्रेजी की गुलामी भी घटेगी। उसका फायदा यह होगा कि दुनिया के चार-पांच अंग्रेजीभाषी देशों के अलावा सभी देशों के साथ व्यापार और कूटनीति में हमारा सीधा संवाद कायम हो सकेगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-राजू पाण्डेय
चुनावों से पहले फिर एक बार देश और हमारे पीएम की सुरक्षा संकट में है। हो सकता है चुनावों के बाद प्रधानमंत्री की सुरक्षा में चूक का मामला उन असंख्य चुनावी मुद्दों की तरह महत्वहीन बन जाए जिन्हें मीडिया चुनावों के दौरान जीवन मरण का प्रश्न बना देता है। संभव है कि हमेशा की तरह इस बार भी मतदाता सालों बाद यह समझे कि यह मामला केवल चुनावों के लिए गढ़ा गया था और भावनाओं में बहकर मतदान करना एक बड़ी चूक थी।
इस पूरे दौर में सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्री के समर्थकों की सक्रियता देखते ही बनती है। सोशल मीडिया पर तैरती अनेक पोस्ट्स बार बार हमसे टकराती हैं। एक पोस्ट कुछ इस प्रकार है- ‘असली पीएम तो मैं इंदिरा गाँधी को मानता हूं. यदि उनके साथ यदि ऐसा होता जो मोदी जी के साथ हुआ तो अभी तक वहाँ(पंजाब में) राष्ट्रपति शासन लागू हो चुका होता. ऐसे निडर पीएम(श्रीमती इंदिरा गांधी) को मेरा नमन।’
एक अन्य सोशल मीडिया पोस्ट कहती है- ‘बड़ा फैसला लेना पड़ेगा नहीं तो दूसरा आघात देश को दशकों पीछे ले जाएगा।’ पोस्ट के साथ स्वर्गीय बिपिन रावत और प्रधानमंत्री जी के चित्र हैं।
एक सोशल मीडिया पोस्ट में कहा गया है- ‘जिन्हें भी मोदी जी सिर्फ भाजपा के नेता दिख रहे है वो याद कर लें मोदी जी भारत देश के प्रधानमंत्री है यदि वो असुरक्षित हैं मतलब देश की सुरक्षा पर प्रश्न चिन्ह है।’
एक किंचित विस्तृत सोशल मीडिया पोस्ट के अनुसार ‘जेएनयू एएमयू और जामिया में छात्र आंदोलन के नाम पर राष्ट्रद्रोही गतिविधियां, पालघर में पुलिस की उपस्थिति में साधुओं की निर्मम हत्या, शाहीन बाग में आंदोलन की आड़ में अराजकता, आतंकवाद और दंगे, किसान आंदोलन के नाम पर अराजकता और दिल्ली को बंधक बनाने की कवायद, लाल किले में खालिस्तानी तांडव, पंजाब में रिलायंस मोबाइल टावर्स की तोड़-फोड़, बंगाल में चुनावों के पहले और चुनावों के बाद भाजपाई कार्यकर्ताओं की निर्मम हत्या, सिंघु बॉर्डर के खालिस्तानी टेंट्स में बलात्कार और निर्मम हत्याएं, पंजाब में भाजपाई विधायकों की कपड़ा फाड़ पिटाई, केरल में भाजपाई कार्यकर्ताओं और संघ के स्वयंसेवकों की निर्मम हत्याएं, बेअदबी के आरोप मढक़र गुरुद्वारा परिसर में लोगों की नृशंस हत्याएं-आदरणीय नरेंद्र मोदी जी, इन प्रकरणों पर आपकी सॉफ्ट-पॉस्चरिंग के बाद इस सत्य को कब तलक नकार पाएंगे हम प्रशंसक, कि सख्त प्रशासक की आपकी छवि को अपने सतत षड्यंत्री प्रहारों से ध्वस्त कर देने में कामयाब हो चुके हैं राहुल गांधी।’ पोस्ट आगे कहती है-‘ये तो स्पष्ट है कि आपकी नजर में कुछेक पार्टी कार्यकर्ताओं और चंद नागरिकों के जीवन की कोई खास अहमियत नहीं। अपने परिजनों को भी त्याग देने वाला आप जैसा निर्मोही खुद के मान-अपमान से भी शायद ही विचलित होता हो अब। पर कल जो घटित हुआ है, वो आपका व्यक्तिगत अपमान भर नहीं है।देश के सर्वोच्च जनतांत्रिक पद को आंखें तरेरी गई हैं। लोकतांत्रिक अस्मिता का चीरहरण हुआ है कल। अब भी अकर्मण्य बने रहे तो मखौल बन कर रह जाएंगे आप। अपनी न सही, देश के प्रधानमंत्री के पद की गरिमा के लिए तो उठाइये कड़े कदम..!’
अंत में एक और सोशल मीडिया पोस्ट का उल्लेख जिसमें महाभारत युद्ध और अर्जुन की दुविधा की चर्चा करते हुए कहा गया है कि ‘ऐसे ही मोदी नहीं लड़ पा रहे हैं तो किसी को तो श्रीकृष्ण बनकर उन्हें रास्ता दिखाना पड़ेगा। जनता से किसी को आगे आना पड़ेगा।’
ऐसी हजारों सोशल मीडिया पोस्ट लाखों लोगों तक पहुंच रही हैं। इन सभी का संदेश स्पष्ट है- प्रधानमंत्री को तानाशाही की ओर अग्रसर होना होगा। उनके समर्थकों का विशाल समुदाय उन्हें एक निर्मम शासक के रूप में देखना चाहता है। एक ऐसा तानाशाह जो अपने विरोधियों और असहमत स्वरों को राष्ट्रद्रोही सिद्ध कर बेरहमी से समाप्त कर देता है। भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने की उम्मीदें केवल मोदी जी पर टिकी हैं। केवल वे ही हैं जो यह असंभव कार्य कर सकते हैं। यही कारण है कि उनका जीवन अत्यंत महत्वपूर्ण है। इन सभी पोस्ट्स में इस बात पर निराशा व्यक्त की गई है कि प्रधानमंत्री अपने हिंसक समर्थकों की उम्मीद पर खरे नहीं उतरे हैं।
संभव है कि हिंसक उन्माद से ग्रस्त मोदी जी के ये दीवाने उन्हें एक अलोकतांत्रिक और दमनकारी शासक के रूप में देखना चाहते हों और एक निर्वाचित जननेता से आत्ममुग्ध तानाशाह में मोदी जी के रूपांतरण की धीमी गति उन्हें अधीर कर रही हो। लेकिन यदि इन समर्थकों के माध्यम से मोदी जी देश को यह संदेश दे रहे हैं कि आने वाले समय में हमारे सेकुलर संघात्मक बहुलवादी लोकतंत्र का स्वरूप जबरन बदल दिया जाएगा और बहुसंख्यक वर्चस्व पर आधारित धार्मिक राष्ट्र की स्थापना में जो कोई भी बाधा डालेगा उसे बेरहमी से कुचला जाएगा तो यह हमारे लोकतंत्र के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं।
अपने विरोधियों से, अपने विरुद्ध चल रहे धरने-प्रदर्शन-आंदोलन-घेराव से निपटने के राजनेताओं के अपने अपने तरीके होते हैं। कुछ राजनेता प्रदर्शनकारियों के बीच जाकर सीधे संवाद करते हैं तो कुछ इनका सीधा सामना करने से बचने की कोशिश करते हैं। किंतु अपने ही देश की जनता को षडय़ंत्रकारी शत्रु के रूप में देखने की प्रवृत्ति अलोकप्रिय तानाशाहों का सहज गुण होती है किसी निर्वाचित प्रधानमंत्री का नहीं। यदि प्रधानमंत्री जी ने वहाँ उपस्थित पंजाब के वित्त मंत्री या अधिकारियों से यह कहा कि अपने सीएम को धन्यवाद दे दें कि मैं बठिंडा जिंदा वापस लौट आया तो उनके इस कथन पर दु:ख और अचरज ही व्यक्त किया जा सकता है। वे देश के प्रधानमंत्री हैं, पंजाब देश का एक सूबा है। पंजाब की जनता और वहां का मुख्यमंत्री भी उनके अपने ही हैं। केंद्र-राज्य संबंधों में तनाव होना कोई असाधारण परिघटना नहीं है किंतु देश के प्रधानमंत्री द्वारा इस तनाव की ऐसी भाषा में सार्वजनिक अभिव्यक्ति अवश्य चिंताजनक रूप से असाधारण है।
बहरहाल मोदी जी ने अपनी सुरक्षा को चुनावी मुद्दा बनाकर बहुत बड़ा जुआ खेला है। जब मोदी जी की लोकप्रियता शिखर पर थी तब शायद स्वयं को विरोधियों द्वारा अपमानित-लांछित मासूम जननेता के रूप में प्रस्तुत करने की रणनीति उन्हें चुनाव जिता सकती थी। किंतु वर्तमान में जब वे अपनी लोकप्रियता के निम्नतम स्तर पर हैं तब यह सहानुभूति कार्ड कितना काम करेगा कहना कठिन है- विशेषकर तब जब इस प्रकरण में ऐसा कहीं नहीं लगा कि उनकी सुरक्षा को कोई प्रत्यक्ष खतरा है।
इस प्रकरण के माध्यम से मोदी जी को आसन्न विधानसभा चुनाव के केंद्र में लाने का प्रयास किया गया है। शायद उनके चुनावी रणनीतिकार यह मानते हों कि मोदी जी में इतना करिश्मा शेष है कि बदहाल अर्थव्यवस्था, बढ़ती बेरोजगारी, महंगाई की मार, कोरोना से निपटने में नाकामी तथा किसानों के असंतोष जैसे मुद्दों पर यह मुद्दा भारी पड़ेगा। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यह प्रकरण विमर्श को मोदी पर केंद्रित करने में कामयाब रहा है। उनके समर्थन और विरोध का दौर चल निकला है। अब परीक्षा मतदाता की परिपच्ता की है। देखना होगा कि क्या उसे इतनी आसानी से भरमाया जा सकता है।
यह घटनाक्रम पंजाब का था लेकिन ऐसा नहीं लगता कि इसका प्रभाव पंजाब विधानसभा चुनाव के नतीजों पर पड़ेगा जहां बीजेपी की अलोकप्रियता इतनी अधिक है कि वह सत्ता की दौड़ में ही नहीं है। इसके माध्यम से उत्तरप्रदेश के उस मतदाता को लक्ष्य किया जा रहा है जिसे सरकारी राष्ट्रवाद के अंध समर्थन के लिए प्रशिक्षित किया गया है।
पुलवामा आतंकी हमले व जवाबी बालाकोट एयर स्ट्राइक आदि के जरिए राष्ट्रीय सुरक्षा पर संकट का मुद्दा पिछले चुनावों में खूब उठा और भाजपा ने इसे जमकर भुनाया भी। यद्यपि यदि राष्ट्रीय सुरक्षा पर कोई संकट था तो इसके लिए सर्वाधिक जिम्मेदार केंद्र सरकार ही थी। पुलवामा हमले में हुई सुरक्षा चूकों का सच जनता शायद कभी न जान पाएगी। अब राष्ट्रीय सुरक्षा और प्रधानमंत्री की सुरक्षा की समेकित बूस्टर खुराक मतदाताओं को दी जा रही है।
पंजाब के मुख्यमंत्री चन्नी यदि प्रथमदृष्टया प्रधानमंत्री की सुरक्षा के विषय में लापरवाही बरतने के दोषी नहीं है तब भी उन्हें इस विषय में अतिरिक्त सतर्कता न बरतने का दोषी तो मानना ही होगा। उन्होंने हताश भाजपा को एक ऐसा मुद्दा प्रदान कर दिया है जिसका उपयोग वह उन सारे राज्यों में कर सकती है जहाँ अगले कुछ दिनों में विधान सभा चुनाव होने वाले हैं।
प्रधानमंत्री की सुरक्षा में केंद्र और राज्य की अनेक एजेंसियां आपसी तालमेल से कार्य करती हैं। इसलिए ऐसी किसी भी चूक की जिम्मेदारी तय करते समय किसी एक एजेंसी, व्यक्ति या सरकार को दोषी सिद्ध करना कठिन है। किसी एक की भूल, शरारत या षडय़ंत्र को पकडऩे और प्रधानमंत्री की सुरक्षा संबंधी निर्णयों की पड़ताल के लिए सक्षम मैकेनिज्म होता है।
यदि प्रधानमंत्री की सुरक्षा में कोई लापरवाही हुई है तो अवश्य ही इसके दोषियों पर कार्रवाई होनी चाहिए। लेकिन यदि यह मामला थोड़े से हेर फेर के साथ बार बार प्रयुक्त होने वाला कामयाब चुनावी फार्मूला सिद्ध होता है तो जन भावनाओं से खिलवाड़ करने के गुनाहगारों को कौन सजा देगा।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
-प्रकाश दुबे
मकर संक्रांति में महाराष्ट्र में कहा जाता है-तिल गुड़ घ्या आणि गोड़ गोड़ बोला। महाराष्ट्र की राह पर पंजाब चले, जरूरी तो नहीं। इसके बावजूद प्रधानमंत्री ने कुरुक्षेत्र का मैदान पार करते हुए राजधानी इंद्रप्रस्थ पहुंचने से पहले मुख्यमंत्री को धन्यवाद दिया। कुछ लोगों की धारणा है कि प्रधानमंत्री ने लाभार्थी के रूप में धन्यवाद दिया। घटनाक्रम का उन्हें जबर्दस्त लाभ मिला। पतंगबाजी का मौसम है। सोशल मीडिया पर हमेशा आकाश से अधिक पतंगबाजी जारी रहती है। सीमा से सटी 50 किलोमीटर की सीमा की निगरानी केन्द्रीय एजेंसी सीमा सुरक्षा बल को सौंपी जा चुकी है। केन्द्रीय गृहमंत्री तक आरोप के छींटे नहीं पहुंचे। कुछ लोगों ने आस लगा रखी थी कि विपक्ष को इसका लाभ मिलेगा। उनकी पतंग सद्दी से कट गई। पूरी वारदात के असली लाभार्थी कैप्टन अमरिंदर सिंह हैं। सौ से कम लोगों के समुदाय को संबोधित करने में कैप्टन को इन दिनों झिझक नहीं होती। दो बड़ों ने कैप्टन से यह भी नहीं पूछा-महाबली दर्शक सेना कहां दुबक कर रह गई?
उत्तरायण प्रदेश
गुजरात में संक्रांति को उत्तरायण के नाम से जाना जाता है। उत्तरायण को शुभकाल का आरंभ मानते हैं। भला हो, बाबा विश्वनाथ का, जिनकी कृपा से लंबी प्रतीक्षा के बाद काशी हिंदू विश्वविद्यालय को कुलपति मिला। पहले वहां एनी बेसेंट ने सेंट्रल हिंदू स्कूल आरंभ किया था। महामना मालवीय ने साल 1916 में बीएचयू की स्थापना की। दो बड़ों के राज्य तथा केन्द्रीय गृहमंत्री के संसदीय क्षेत्र गांधीनगर में प्रो सुधीर कुमार जैन तीन बार आईआईटी के निदेशक रह चुके हैं। उनकी नियुक्ति राष्ट्रपति ने 13 नवम्बर 2020 को की थी। ग्रहस्थिति ऐसी बनी कि काशी में एक सप्ताह तपस्या करने के बावजूद बिना प्रभार संभाले लौटना पड़ा। चुनाव घोषणा वाले दिन उत्तर प्रदेश के दो अफसरों ने चुनाव लडऩे के लिए नौकरी छोड़ी। एक ईडी वाले दूसरे कानपुर के पुलिस आयुक्त। दो दिन पहले प्रो. जैन ने कुलपति पद संभाला। प्रो. जैन ने अनर्थ टालने वाले शिव की पूजा की। माथे पर चंदन तिलक-त्रिपुंड और गले में माला शोभित थी। वैज्ञानिक कुलपति की मेज पर गंगाजल के बजाय सेनेटाइजर की बोतल अवश्य मौजूद थी।
कानूनन कोताही
विधि और न्याय मंत्री किरण रिजिजू चकित होंगे। चीन उनके राज्य को अपना मानते हुए नामकरण कर रहा है। बिल्कुल बाबा योगी आदित्यनाथ की शैली में नाम बदले जा रहे हैं। प्रधानमंत्री ने खुश होकर पद और मंत्रालय में महत्ता बढ़ा दी। संसद चले या न चले, उनके मंत्रालय के कामकाज में रोक टोंक नहीं हुई। ऊपर वाला छप्पर फाडक़र देने लगता है, तब यही माना जाता है कि ग्रह अनुकूल हैं। किसी ने अब तक अरुण जेटली जैसा तुनुकमिजाज नहीं कहा और न रविशंकर प्रसाद वाली फब्तियां उनके नाम के साथ जोड़ी गईं। सुप्रीम कोर्ट के कई पद भरे गए। चार महिलाएं शीर्ष अदालत में शामिल हैं। देश के हृदय मध्यप्रदेश की हालत भर नहीं सुधरी। मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में 53 न्यायाधीश होने चाहिए। हैं मात्र तीस। जबलपुर में हाइकोर्ट है। इंदौर और ग्वालियर की खंडपीठ में दस दस न्यायाधीश भी उपलब्ध नहीं हैं। दिल और दिमाग में यही अंतर है। मंत्री बनने के लिए संसद जाना हो तो दिल का दरवाजा खुला है। दिमागी फैसले में मध्यप्रदेश पिछड़ा राज्य है।
रपट पड़े तो हर गंगे
रपट पड़े तो हर गंगे उक्ति का मतलब सुविज्ञ पाठक भली भांति जानते हैं। सरल तरीके से उदाहरण समेत समझें। गलत अवसर को भुना लेने का कौशल बिना सीखे आता है। अंगरेजी में कहें तो इनबिल्ट होता है। अखिलेश यादव हमारी राय से असहमत हैं। कम उम्र में मुख्यमंत्री बनने वाले अखिलेश मानते हैं कि कमजोरी छिपाने का लाभ नहीं है। सच स्वीकारो। झारखंड के कोडरमा में अखिलेश चुनाव प्रचार करने गए। घंटे भर की प्रतीक्षा के बावजूद भीड़ नहीं जुटी। आयोजक प्रतीक्षा करने का अनुरोध कर रहे थे। अखिलेश ने आव देखा न ताव। जा पहुंचे सभास्थल। कुल जमा 27 श्रोताओं और बाकी दर्जन भर पार्टीजनों की मौजूदगी में भाषण पेल दिया। उत्तर प्रदेश के चुनाव के दौरान अखिलेश ने यह किस्सा स्वयं बताया। उनकी सभा में इन दिनों भारी भीड़ होती है। ओहदे के मुताबिक प्रधानमंत्री के सत्तर से अखिलेश के 27 और बहुत अधिक हैं।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
9 जनवरी को भारत में भारतीय प्रवासी दिवस मनाया जाता है। लेकिन आज इसे लेकर देश में ज्यादा हलचल नहीं दिखाई दी, क्योंकि एक तो नेता लोग चुनाव-अभियान में व्यस्त हैं और दूसरा कोरोना महामारी की वजह से पिछले साल भी प्रवासी सम्मेलन नहीं हो पाया था। इस महान संस्था की नींव प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने 2003 में रखी थी। प्रसिद्ध विधिवेत्ता और समाजसेवी डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी और राजदूत श्री जगदीश शर्मा के प्रयत्नों से इस संस्था की स्थापना हुई थी। इस काम को श्री बालेश्वर प्रसाद अग्रवाल की स्वायत्त संस्था अन्तरराष्ट्रीय सहयोग परिषद पहले से कर रही थी लेकिन उसे बड़ा और व्यापक रुप देने में अटलजी ने यह उत्तम पहल की थी।
इस समय दुनिया के देशों में भारतीय प्रवासियों की संख्या लगभग सवा तीन करोड़ है। इतनी आबादी तो ज्यादातर देशों की भी नहीं है। ये भारतीय पहले तो मोरिशस, फिजी, सूरिनाम और गयाना- जैसे देशों में ले जाकर इसलिए बसाए गए थे कि क्योंकि इन देशों में अंग्रेज शासकों को मजदूरों की जरुरत थी। इन सभी देशों में हमारे मजदूरों के बेटे, पोते और पड़पोते आज प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति हैं। इनके अलावा दर्जनों देशों में पिछले 100 वर्षों में हजारों-लाखों भारतीय शिक्षा, व्यापार, नौकरी और जीवन-यापन के लिए जाकर बसते रहे हैं। कुछ लोग वहीं पैदा हुए हैं और कुछ लोग यहां से जाकर वहां के नागरिक बन गए हैं। ऐसे सभी प्रवासियों की संख्या सवा तीन करोड़ तो हो ही गई है, इसके साथ-साथ दर्जनों देशों में वे अल्पसंख्या में रहते हुए भी राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री, सांसद आदि पदों पर शोभयमान हो रहे हैं।
अमेरिका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस हैं। ये लोग वहां रहकर ऐसा जीवन जीते हैं, जिसका अनुकरण सभी विदेशी लोग करना चाहते हैं। भारतीयों के पारिवारिक जीवन, उनकी सहजता, सादगी, परिश्रम, ईमानदारी आदि की चर्चा मैंने विदेशियों के मुंह से कई बार सुनी है। विदेशों में रहनेवाले भारतीयों में आप जाति, मजहब, भाषा और ऊँच-नीच का भेदभाव भी नहीं देख पाएंगे। दुनिया का कोई महाद्वीप ऐसा नहीं है, जहां भारतीयों को आप नहीं पाएंगे।
अब से 50-55 साल पहले न्यूयार्क जैसे बड़े शहर में किसी से हिंदी में बात करने के लिए मैं तरस जाता था लेकिन अब जब भी मैं दुबई जाता हूं तो मुझे लगता है कि मैं किसी छोटे-मोटे भारत में ही आ गया हूं। अमेरिका में इस समय लगभग 45 लाख भारतीय मूल के लोग रहते हैं। लगभग सभी प्रवासी भारतीय उन देशों के आम लोगों से अधिक संपन्न, सुशिक्षित और सुखी हैं। उन्होंने भारत को इस साल साढ़े छह लाख करोड़ रु. भेजे हैं। अपने प्रवासियों से धन प्राप्त करनेवाले देशों में भारत का नाम सबसे ऊपर है और ऐसा पिछले 14 साल से हो रहा है।
भारतीयों की खूबी यह है कि विदेशी जीवन-पद्धतियों से ताल-मेल बिठाने के साथ-साथ वे भारतीय मूल्यमानों को भी अपने दैनिक आचरण में गूंथे रखते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि 21 वीं सदी के पूरे होते-होते सारी दुनिया में भारतीय संस्कृति विश्व-संस्कृति के तौर पर स्वीकृत हो जाए।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के पांच राज्यों में चुनाव की घोषणा हो चुकी है। यह चुनाव-प्रक्रिया एक माह की होगी। 10 फरवरी से 10 मार्च तक! ये चुनाव उत्तरप्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में होंगे। इन पांचों राज्यों के चुनाव का महत्व राष्ट्रीय चुनाव की तरह माना जा रहा है, क्योंकि इन चुनावों में जो पार्टी जीतेगी, वह 2024 के लोकसभा चुनाव में भी अपना रंग जमा सकती है। दूसरे शब्दों में ये प्रांतीय चुनाव, राष्ट्रीय चुनाव के पूर्व राग सिद्ध हो सकते हैं। इन पांचों राज्यों में यों तो कुल मिलाकर 690 सीटे हैं, जो कि विधानसभाओं की कुल सीटों का सिर्फ 17 प्रतिशत है लेकिन यदि इन सीटों पर विरोधी दलों को बहुमत मिल गया तो वे अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा के लिए बड़ी चुनौती बन जाएंगे।
चुनाव आयोग ने इन चुनावों की घोषणा करते हुए बड़ी सावधानियों का परिचय दिया है। उसने अभी एक हफ्ते के लिए रैलियों, प्रदर्शनों, सभाओं, जत्थों आदि पर प्रतिबंध लगा दिया है लेकिन मुझे लगता है कि यह प्रतिबंध आगे भी बढ़ेगा, क्योंकि जिस रफ्तार से महामारी फैल रही है, यह चुनाव स्थगित भी हो सकता है। आयोग ने अपने सभी चुनाव कर्मचारियों का टीकाकरण कर दिया है लेकिन करोड़ों मतदाताओं से महामारी-प्रतिबंधों के पालन की आशा करना आकाश में फूल खिलाने जैसी हसरत है। हमने पहले भी बंगाल और बिहार के चुनावों में भीड़ का बर्ताव देखा और पिछले एक- डेढ़ माह से इन राज्यों में भी देख रहे हैं। कहीं ऐसा न हो कि अगले हफ्ते का प्रतिबंध खुलते ही महामारी का दरवाजा भी खुल जाए।
हो सकता है कि प्रतिबंधों को आगे बढ़ाया जाए और राजनीतिक दलों से कहा जाए कि वे लाखों की भीड़ जुटाने की बजाय चुनाव-प्रचार डिजिटल विधि से करें ताकि लोग घर बैठे ही नेताओं के भाषण सुन सकें ! यह सोच तो बहुत अच्छा है लेकिन देश के करोड़ों गरीब, ग्रामीण और अशिक्षित लोग क्या इस डिजिटल विधि का उपयोग कर सकेंगे? यह ठीक है कि इस विधि का प्रयोग उम्मीदवारों का खर्च घटा देगा। सबसे ज्यादा खर्च तो सभाओं, जुलूसों और लोगों को चुनावी लड्डू बांटने में ही होता है। इससे भ्रष्टाचार जरुर घटेगा लेकिन लोकतंत्र की गुणवत्ता भी घटेगी। हो सकता है कि इन चुनावों के बाद डिजिटल प्रचार, डिजीटल मतदान और डिजीटल परिणाम की कुछ बेहतर व्यवस्था का जन्म हो जाए।
चुनाव आयोग यदि इस तथ्य पर भी ध्यान देता तो बेहतर होता कि पार्टियां मतदाताओं को चुनावी रिश्वत नहीं देती। पिछले एक माह में लगभग सभी पार्टियों ने बिजली, पानी, अनाज, नकद आदि रुपों में मतदाताओं के लिए जबर्दस्त थोक रियायतों की घोषणा की है। यह रिश्वत नहीं तो क्या है? जो लोग करदाता हैं, उनकी जेबें काटने में नेताओं को जऱा भी शर्म नहीं आती। आम लोगों को इसी वक्त ये जो चूसनियां बाटी गई हैं या उनके वादे किए गए हैं, आयोग को उस पर भी कुछ कार्रवाई करनी चाहिए थी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-कृष्ण कांत
साल 1967 था। तब इंदिरा गांधी का वो जलवा नहीं था, जैसा बाद में कायम हुआ। तब कम बोलने की वजह से कुछ विपक्षी उन्हें ‘गूंगी गुडिय़ा’ कहकर चिढ़ाते थे। आम धारणा थी कि वे बहुत कोमल हैं और प्रधानमंत्री बनने लायक नहीं हैं। वे रैली के लिए उड़ीसा गई थीं। उड़ीसा स्वतंत्र पार्टी का गढ़ हुआ करता था। इंदिरा गांधी ने एक चुनाव सभा में जैसे ही बोलना शुरू किया, वहां मौजूद भीड़ ने पत्थरबाजी शुरू कर दी।
स्थानीय कांग्रेसियों ने उनसे तुरंत भाषण बंद करने को कहा। उनके सुरक्षा अधिकारी उन्हें हटाना चाहते थे। इंदिरा गांधी ने किसी की नहीं सुनी और बोलना जारी रखा। उन्होंने क्रूद्ध भीड़ का सामना किया और कहा, ‘क्या आप इसी तरह देश को बनाएंगे? क्या आप इसी तरह के लोगों को वोट देंगे?’ तभी यकायक एक पत्थर आकर उनकी नाक पर लगा। नाक से खून बहने लगा। इंदिरा गांधी ने अपने हाथों से बहता हुआ खून पोंछा। रुमाल से नाक दबा ली और भाषण देती रहीं।
घटना के बाद उनके स्टॉफ और सुरक्षाकर्मियों ने कहा कि दिल्ली लौट चलिए। लेकिन उन्होने यह बात भी नहीं मानी और अगली जनसभा के लिए कोलकाता रवाना हो गईं. कोलकाता पर उन्होंने नाक पर पट्टी बांधे-बांधे भाषण दिया।
बाद में पता चला कि चोट ज्यादा है। उनकी नाक की हड्डी टूट गई थी। नाक पर प्लास्टर चढ़ाना पड़ा। नाक की सर्जरी भी हुई। कई दिनों तक इंदिरा गांधी ने चेहरे पर प्लास्टर बांधे पूरे देश में चुनाव प्रचार किया। एक बार उन्होंने साथ के लोगों से मजाक किया कि उनकी शक्ल बिल्कुल ‘बैटमैन’ जैसी हो गई है।
प्लास्टर उतरने के बाद वे मजाक में कहती थीं कि मुझे तो लग रहा था कि डॉक्टर प्लास्टिक सर्जरी करके मेरी नाक को सुंदर बना देंगे। आप तो जानते ही हैं कि मेरी नाक कितनी लंबी है लेकिन इसे खूबसूरत बनाने का एक मौका हाथ से निकल गया। कमबख्त डॉक्टरों ने कुछ नहीं किया। मैं वैसी की वैसी ही रह गई।
इस कथा का सबक ये है कि जनता सिर्फ भजन मंडली नहीं है। जनता नाराज भी हो सकती है, अगर आप अपने फैसलों से सैकड़ों लोगों की जान ले लें। नेता में जनता की नाराजगी का सामना करने की हिम्मत होनी चाहिए।
-गिरीश मालवीय
दुनिया का नंबर 1 टेनिस खिलाड़ी जो 20 ग्रैंडस्लैम खिताब जीत चुका है वह अपना 21वा ग्रैंडस्लैम खिताब जीतने के लिये ऑस्ट्रेलिया जाता है। अगर वह इस बार आस्ट्रेलियन ओपन जीत ले तो वह टेनिस जगत का सर्वकालिक महान खिलाड़ी बन जाएगा क्योंकि इतने खिताब किसी टेनिस खिलाड़ी नहीं जीते हैं। लेकिन जैसे ही वह ऑस्ट्रेलिया पहुंचता है उसे जेल में डाल दिया जाता है। कारण सिर्फ इतना है कि उसने अपने वैक्सीन स्टेटस की जानकारी नहीं दी वह कहता है कि 'MY Body My Choice'
यहाँ हम कोई फिल्म या वेबसीरिज की स्टोरी नहीं सुना रहे हैं यह बिल्कुल सच्ची घटना है जो टेनिस स्टार नोवाक जोकोविच के साथ इस वक्त ऑस्ट्रेलिया में घटी है आप जिस वक्त यह पोस्ट पढ़ रहे हैं उस वक्त नोवाक जोकोविच ऑस्ट्रेलिया के डिटेंशन सेंटर में एक अंधेरे बदबूदार कमरे में बैठे हुए हैं।
हिंदी मीडिया इतना घटिया हो गया है कि खेल जगत की इस सबसे बड़ी खबर पर कुंडली मारकर बैठ गया है, जबकि इस वजह से सर्बिया (नोवाक जोकोविच का देश) और ऑस्ट्रेलिया के बीच राजनयिक तनाव पैदा हो गया है सर्बियाई राष्ट्रपति अलेक्जेंडर वूसिक ने कहा, पूरा देश टेनिस स्टार के समर्थन में साथ है, हमारे अधिकारी सभी उपाय कर रहे हैं, जिससे दुनिया के सर्वश्रेष्ठ टेनिस खिलाड़ी के साथ दुव्र्यवहार जल्द से जल्द खत्म हो सके।
दरअसल ऑस्ट्रेलियाई सरकार का यह फैसला पूरी तरह राजनीति से प्रेरित है, यह कोरोना फासीवाद है। कोविड प्रोटोकॉल के नाम पर दुनिया भर में लोगों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अपहरण किया जा रहा है।
सबसे बड़ी बात तो यह है कि नोवाक जोकोविच को ऑस्ट्रेलिया सरकार ने खुद वीजा दिया था टेनिस ऑस्ट्रेलिया ने भी इस बात की पुष्टि की कि दो अलग-अलग स्वतंत्र पैनलों की समीक्षा के बाद जोकोविच को टीकाकरण के मामले में मेडिकल छूट दी थी। कुल 26 एथलीट्स को छूट दी गई है। लेकिन जब नोवान मेलबर्न पहुंचे तो अधिकारियों ने पाया कि उनकी टीम ने वैक्सीन न लगाने को लेकर मेडिकल छूट देने वाले वीजा के लिए अनुरोध ही नहीं किया। उन्होंने अपनी कोविड-19 टीकाकरण स्थिति का खुलासा करने से इंकार कर दिया।
पिछले साल नोवाक जोकोविच ने एक फेसबुक चैट के दौरान कहा कि उन्हें यह बात पसंद नहीं कि टेनिस खेलने के लिए कोरोना वैक्सीन लगवाना पड़ेगा। यह उनका पर्सनल मामला है। इसका टेनिस से कुछ भी लेना नहीं। टीका लगवाना है या नहीं, यह लोगों की मर्जी होनी चाहिए। इसके लिए किसी को मजबूर नहीं किया जाना चाहिए।
नोवाक जोकोविच बिल्कुल ठीक कह रहे हैं उनके देश सर्बिया में भी टीके लगवाने या न लगवाने की स्वतंत्रता नागरिकों को दी गई है और उनकी इस स्वतंत्रता का पूरा सम्मान किया गया है।
सर्बिया के लोग पूरी तरह से जोकोविच के साथ है उनका कहना है कि अगर जोकोविच को छूट नहीं दी जाती, तो वह कभी भी विमान में नहीं चढ़ता, लेकिन उसके ऑस्ट्रेलिया पहुंचने पर, उसे अलग-थलग कर दिया गया। वह एक डिटेंशन सेंटर में है। यह किसी के साथ व्यवहार करने का तरीका नहीं है, वो ऑस्ट्रेलिया में 9 बार ऑस्ट्रेलियन ओपन जीत चुका है आप चैंपियन के साथ ऐसा व्यवहार नहीं कर सकते।
जोकोविच के साथी सर्बियाई खिलाड़ी ने बयान दिया है कि अगली बार से कोई आपसे बोले कि खेल और राजनीति को अलग रखना चाहिए तो 6 जनवरी 2022 को याद रखना जब विशुद्ध राजनीतिक अहंकार की वजह से दुनिया के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी को प्रवेश नहीं दिया।
सर्बिया की राजधानी बेलग्रेड में, जोकोविच के पिता स्टर्जन ने देश की संसद के सामने सैकड़ों लोगों के साथ विरोध-प्रदर्शन किया। उन्होंने कहा, ‘ये सिर्फ नोवाक की लड़ाई नहीं है ये पूरी दुनिया की लड़ाई है।’
-पुष्य मित्र
आज से ठीक 75 साल पहले की बात है। साल 1947 और जनवरी का पहला हफ्ता था। बंगाल के नोआखली के श्रीरामपुर गांव में अकेले 42 दिन गुजारने के बाद गांधी ने तय किया था कि वे अब नोआखली के दंगा ग्रस्त इलाके के गांव-गांव तक जायेंगे।
उसने अपनी यह यात्रा दो जनवरी, 1947 को श्रीरामपुर से शुरू की थी। लगभग तीन मील पैदल चलने के बाद उसका पहला पड़ाव आया। उस गांव का नाम चंडीपुर था। उस गांव पहुंच कर गांधी ने नोआखली के पुलिस सुप्रिंटेंडेंट अब्दुल्ला सबसे पहले याद किया, वह अब्दुल्ला जो गांधी से बहुत स्नेह करने लगा था और इस यात्रा के दौरान बीस पुलिसकर्मियों के साथ शामिल हुआ था, ताकि गांधी की सुरक्षा में कोई कमी न हो। गांधी ने उसे बुलाकर कहा, मैं यह पसंद नहीं करता कि पुलिस वाले मेरे साथ रहें। बंगाल की सरकार जिस जागरूकता के साथ मेरी सुरक्षा का प्रयत्न कर रही है, उसकी मैं कदर करता हूं। मगर मुझे ईश्वर के सिवा किसी और की सुरक्षा नहीं चाहिए। यह कह कर अब्दुल्ला और उनकी टीम को विदा कर दिया गया।
उस वक्त बंगाल में मुस्लिम लीग की सरकार थी। शहीद सुहरावर्दी बंगाल के मुख्यमंत्री थे। वही सुहरावर्दी जिनके शासन में पहले कलकत्ता और फिर नोआखली में भीषण दंगे हुए थे। नोआखली के जिन इलाकों में गांधी घूम रहे थे, वहां मुस्लिम लीग के कट्टर समर्थक भरे पड़े थे, जो गांधी से इतनी नफरत करते थे कि उनकी राह में शीशों के टुकड़े और मल फेंक देते थे। वह इसलिए कि गांधी ने तय किया था कि वे हिंसा से जख्मी हो चुकी इस भूमि पर पैदल यात्रा करेंगे।
वे पूरे जनवरी और फरवरी महीने इसी तरह पैदल, नंगे पांव और बिना सुरक्षा के यात्रा करते रहे। इस यात्रा के दौरान उन्होंने अपने प्रेम से अपने विरोधियों को अपना मुरीद बना लिया। उनके मन में शायद बु्द्ध थे, जिनमें निहत्थे अंगुलीमाल डाकू का सामना करने का साहस था। इसे पढ़ते हुए मैंने सीखा कि सुरक्षा के लिए किसी एसपीजी फोर्स की जरूरत नहीं। जननेता अगर अपने लोगों से प्रेम करना सीख जाये तो यही उसकी सुरक्षा की गारंटी है।
हालांकि इसमें मारे जाने का खतरा भी है। जैसे गांधी मारे गये, इंदिरा मारी गईं। मगर दोनों ने यह साहस किया था कि वे खुद और अपने लोगों के बीच बेवजह की सुरक्षा की दीवार खड़ी नहीं करेंगे। यह हर नेता के लिए सीखने की बात है। सीखना चाहिए।
-ओशो
रामकृष्ण के जीवन में ऐसा उल्लेख है। एक शूद्र महिला ने, रानी रासमणि ने मंदिर बनवाया। चूंकि वह शूद्र थी, उसके मंदिर में कोई ब्राह्मण पूजा करने को राजी न हुआ। हालांकि रासमणि खुद भी कभी मंदिर में अंदर नहीं गई थी, क्योंकि कहीं मंदिर अपवित्र न हो जाए!
रासमणि कभी मंदिर के पास भी नहीं गई, भीतर भी नहीं गई, बाहर-बाहर से घूम आती थी। दक्षिणेश्वर का विशाल मंदिर उसने बनाया था, लेकिन कोई पुजारी न मिलता था। और रासमणि शूद्र थी, इसलिए वह खुद पूजा न कर सकती थी। मंदिर क्या बिना पूजा के रह जाएगा? वह बड़ी दुखी थी, बड़ी पीडि़त थी। रोती थी, चिल्लाती थी-कि कोई पुजारी भेज दो!
फिर किसी ने खबर दी कि गदाधर नाम का एक ब्राह्मण लडक़ा है, उसका दिमाग थोड़ा गड़बड़ है, शायद वह राजी हो जाए। क्योंकि यह दुनिया इतनी समझदार है कि इसमें शायद गड़बड़ दिमाग के लोग ही कभी थोड़े से समझदार हों तो हों। यह गदाधर ही बाद में रामकृष्ण बना।
गदाधर को पूछा। उसने कहा कि ठीक है, आ जाएंगे। उसने एक बार भी न कहा कि ब्राह्मण होकर मैं शूद्र के मंदिर में कैसे जाऊं? गदाधर ने कहा, ठीक है। प्रार्थना यहां करते हैं, वहां करेंगे। घर के लोगों ने भी रोका, मित्रों ने भी कहा कि कहीं और नौकरी दिला देंगे। नौकरी के पीछे अपने धर्म को खो रहा है? पर गदाधर ने कहा, नौकरी का सवाल नहीं है; भगवान बिना पूजा के रह जाएं, यह बात जंचती नहीं; करेंगे।
मगर तब खबर रासमणि को मिली कि यह पूजा तो करेगा, लेकिन पूजा में यह दीक्षित नहीं है। इसने कभी पूजा की नहीं है। यह अपने घर ही करता रहा है। इसकी पूजा का कोई शास्त्रीय ढंग, विधि-विधान नहीं है। और इसकी पूजा भी जरा अनूठी है। कभी करता है, कभी नहीं भी करता। कभी दिन भर करता है, कभी महीनों भूल जाता है। और भी इसमें कुछ गड़बड़ हैं; कि यह भी खबर आई है कि यह पूजा करते वक्त पहले खुद भोग लगा लेता है अपने को, फिर भगवान को लगाता है। खुद चख लेता है मिठाई वगैरह हो तो। रासमणि ने कहा, अब आने दो। कम से कम कोई तो आता है।
वह आया, लेकिन ये गड़बड़ें शुरू हो गईं। कभी पूजा होती, कभी मंदिर के द्वार बंद रहते। कभी दिन बीत जाते, घंटा न बजता, दीया न जलता; और कभी ऐसा होता कि सुबह से प्रार्थना चलती तो बारह-बारह घंटे नाचते ही रहते रामकृष्ण।
आखिर रासमणि ने कहा कि यह कैसे होगा? ट्रस्टी हैं मंदिर के, उन्होंने बैठक बुलाई। उन्होंने कहा, यह किस तरह की पूजा है? किस शास्त्र में लिखी है?
रामकृष्ण ने कहा, शास्त्र से पूजा का क्या संबंध है? पूजा प्रेम की है। जब मन ही नहीं होता करने का, तो करना गलत होगा। और वह तो पहचान ही लेगा कि बिना मन के किया जा रहा है। तुम्हारे लिए थोड़े ही पूजा कर रहा हूं। उसको मैं धोखा न दे सकूंगा। जब मन ही करने का नहीं हो रहा, जब भाव ही नहीं उठता, तो झूठे आंसू बहाऊंगा, तो परमात्मा पहचान लेगा। वह तो पूजा न करने से भी बड़ा पाप हो जाएगा कि भगवान को धोखा दे रहा हूं। जब उठता है भाव तो इक_ी कर लेता हूं। दो तीन सप्ताह की एक दिन में निपटा देता हूं। लेकिन बिना भाव के मैं पूजा न करूंगा।
और उन्होंने कहा, तुम्हारा कुछ विधि-विधान नहीं मालूम पड़ता। कहां से शुरू करते, कहां अंत करते।
रामकृष्ण ने कहा, वह जैसा करवाता है, वैसा हम करते हैं। हम अपना विधि-विधान उस पर थोपते नहीं। यह कोई क्रियाकांड नहीं है, पूजा है। यह प्रेम है। रोज जैसी भाव-दशा होती है, वैसा होता है। कभी पहले फूल चढ़ाते हैं, कभी पहले आरती करते हैं। कभी नाचते हैं, कभी शांत बैठते हैं। कभी घंटा बजाते हैं, कभी नहीं भी बजाते। जैसा आविर्भाव होता है भीतर, जैसा वह करवाता है, वैसा करते हैं। हम कोई करने वाले नहीं।
उन्होंने कहा, यह भी जाने दो। लेकिन यह तो बात गुनाह की है कि तुम पहले खुद चख लेते हो, फिर भगवान को भोग लगाते हो! कहीं दुनिया में ऐसा सुना नहीं। पहले भगवान को भोग लगाओ, फिर प्रसाद ग्रहण करो। तुम भोग खुद को लगाते हो, प्रसाद भगवान को देते हो।
रामकृष्ण ने कहा, यह तो मैं कभी न कर सकूंगा। जैसा मैं करता हूं, वैसा ही करूंगा। मेरी मां भी जब कुछ बनाती थी तो पहले खुद चख लेती थी, फिर मुझे देती थी। पता नहीं, देने योग्य है भी या नहीं। कभी मिठाई में शक्कर ज्यादा होती है, मुझे ही नहीं जंचती, तो मैं उसे नहीं लगाता। कभी शक्कर होती ही नहीं, मुझे ही नहीं जंचती, तो भगवान को कैसे प्रीतिकर लगेगी? जो मेरी मां न कर सकी मेरे लिए, वह मैं परमात्मा के लिए नहीं कर सकता हूं।
ऐसे प्रेम से जो भक्ति उठती है, वह तो रोज-रोज नई होगी। उसका कोई क्रियाकांड नहीं हो सकता। उसका कोई बंधा हुआ ढांचा नहीं हो सकता। प्रेम भी कहीं ढांचे में हुआ है? पूजा का भी कहीं कोई शास्त्र है? प्रार्थना की भी कोई विधि है? वह तो भाव का सहज आवेदन है। भाव की तरंग है।
-रमेश अनुपम
आखिरकार 30 जुलाई सन् 1963 को महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की संपत्ति कोर्ट ऑफ वार्ड्स से मुक्त कर दी गई।
महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की समस्या केवल कोर्ट ऑफ वार्ड्स से अपनी संपत्ति को मुक्त करवाकर अपने राजमहल के भीतर बैठकर सुख वैभव भोगना ही रहता तो कोई बात नहीं थी। लेकिन उनकी असल समस्या तो बस्तर के भोले-भाले और निरीह आदिवासी थे, जो आजादी के पन्द्रह वर्षों बाद भी राष्ट्र की मुख्यधारा से कटे हुए नारकीय जीवन जीने के लिए मजबूर थे।
बस्तर के आदिवासियों की समस्याओ को लेकर महाराजा ने न जाने कितने पत्र प्रधानमंत्री को लिखे होंगे। उनके लिखे हर पत्र में केवल आदिवासियों की समस्याएं और उनकी पीड़ा का उल्लेख है जिसमें वे देश के वजीरे आजम से आदिवासियों की रक्षा की गुहार लगाया करते थे।
जब इस से आलाकमान को कोई फर्क नहीं पड़ा तो उन्हें 12 जनवरी सन् 1965 को दिल्ली जाकर अनशन पर बैठने के लिए बाध्य होना पड़ा। इसका एक कारण यह भी था कि देश के गृहमंत्री गुलजारीलाल नंदा ने उनसे मिलने से इंकार कर दिया था।
आजादी के बाद सारे राजा-महाराजाओं को अच्छी खासी रकम प्रीविपर्स के रूप में मिला करती थी। देश के सारे राजा-महाराजा उसी में गद-गद थे। लेकिन बस्तर के महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव तो किसी और ही मिट्टी के बने हुए थे।
धीरे-धीरे बस्तर में स्थिति बद से बदतर होती जा रही थी।
शासन-प्रशासन इस सबसे बेखबर बना रहा। न उन्हें महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव से कोई मतलब था और न ही आदिवासियों के दुख दर्द से।
18 मार्च सन् 1966 राजमहल के सामने दंतेश्वरी मंदिर के पास सुरक्षा बल के जवान सैंकड़ों की संख्या में एकत्र हो रहे थे, उनके हाथों में बंदूक थी। इधर राजमहल के भीतर भी सैंकड़ों की संख्या में आदिवासी मौजूद थे। उस दिन राजमहल में स्थित महाविद्यालय में परीक्षा होने के कारण छात्र-छात्राओं का भी काफी जमावड़ा था।
स्थिति कॉफी विस्फोटक थी। राजमहल के भीतर और बाहर दोनों ओर तनाव साफ-साफ दिखाई दे रहा था। आदिवासी तीर कमान निकाल चुके थे और उधर पुलिस अपनी बंदूक ताने खड़े हो गए थे। उस दिन कुछ भी हो सकता था।
महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव को समझते देर नहीं लगी। वे पलक झपकते पुलिस बल के सामने पहुंच गए। पुलिस और प्रशासन के अधिकारियों को फटकार लगाते हुए कहा कि इतनी बड़ी संख्या में यहां पुलिस बल क्यों इक_ी है।
अधिकारियों ने कहा आदिवासी कभी भी बलवा कर सकते हैं। महाराजा के चेहरे की रंगत बदल गई थी उनके गोरे मुख मंडल पर रक्तिम आभा सी दिखाई देने लगी। स्वभाव के विपरीत वे रोष से बोले बलवा क्या होता है जानते हो?
महाराजा रुके नहीं पुलिस और प्रशासन के अधिकारियों को चुनौती देते हुए कहा अगर हिम्मत है तो चलाओ गोली।
महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की डांट-फटकार ने काम किया। अधिकारी राजमहल के भीतर गए और बातचीत की। उस दिन मामला जैसे-तैसे निपट गया।
महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की सूझ-बूझ से अप्रिय स्थिति टल गई थी। उस दिन जगदलपुर रक्त में डूबने से बच गया था। इंद्रावती में ढेर सारा रक्त बहने से रह गया था।
अगर उस दिन महाराजा हस्तक्षेप नहीं करते तो राजमहल में सैकड़ों की संख्या में उपस्थित आदिवासी और छात्र-छात्राओं का क्या होता ?
बस्तर के इतिहास में 18 मार्च सन् 1966 को भी नहीं भूलाया जा सकता है। यह वही तारीख है जिसने 25 मार्च सन् 1966 की आधारशिला रखी थी।
यह वही काली तारीख है जिसने 25 मार्च सन् 1966 की उससे भी काली और भयावह तारीख की इबारत बयां कर दी थी। आने वाले खतरे का संकेत इस तारीख में छिपा हुआ था।
क्या शासन और प्रशासन 25 मार्च का ब्लू प्रिंट पहले ही अपने लैब में तैयार कर चुके थे जिसे केवल अमली जामा पहनाना भर बाकी था ?
क्या 25 तारीख को बस्तर का खूनी इतिहास लिखे जाने की तारीख 18 मार्च के बहिखाते में पहले ही दर्ज किया जा चुका था?
ये सारे अनगिनत सवाल बस्तर की खामोश फिजाओं में तैर रहे थे।
(बाकी अगले हफ्ते)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत तो दुनिया का शायद एक मात्र देश है, जिसकी जनता साल में सबसे ज्यादा छुट्टियां मनाती है। मुंबई उच्च न्यायालय ने अपने ताजा फैसले में कहा है कि सार्वजनिक अवकाश कोई मौलिक अधिकार नहीं है। उसने उस याचिका को रद्द कर दिया है, जिसमें दादर-हवेली में 2 अगस्त की छुट्टी की मांग की गई थी। इसी दिन 1954 में पुर्तगाली शासन से वह मुक्त हुआ था। आजकल हमारे सरकारी दफ्तर शनिवार और रविवार को बंद होते हैं याने साल में 104 दिन की छुट्टी एकदम पक्की है। 24 छुट्टियां धार्मिक त्यौहारों की होती हैं। लगभग 30 छुट्टियों के कुछ और बहाने बन जाते हैं। इसके अलावा बाकायदा वैतनिक छुट्टियां 30 दिन और बीमारी की भी 15 दिन होती है। इनके साथ आकस्मिक छुट्टियां भी होती हैं।
याने कुल मिलाकार साल भर में हमारे सरकारी कर्मचारी लगभग 200 दिन की छुट्टी ले सकते हैं। अर्थात उन्हें तब भी वेतन मिलता है, जबकि वे कोई काम नहीं करते। हम जरा दुनिया के सब समृद्ध और विकसित राष्ट्रों की तुलना भारत से करें तो हमें मालूम पड़ेगा कि वे राष्ट्र वैतनिक छुट्टियां कम से कम देते हैं। अमेरिका में 11, ब्रिटेन में 8, चीन में 7, यूरोप में 8 या 10, जापान में 16, मलेशिया में 19 और ईरान में 27 और नार्वे में सिर्फ 2 छुट्टियां होती हैं।
जिन राष्ट्रों में कर्मचारियों की तनख़ा ज्यादा होती है, उनकी सरकारें और कंपनियां उन्हें छुट्टियां भी कम देती हैं लेकिन जिन राष्ट्रों में तनखा कम होती है, उनमें ज्यादा छुट्टियां होती हैं। हमारे देश में ज्यादातर कर्मचारी दफ्तरों में पूरे समय डटकर काम भी नहीं करते। 7-8 घंटों में से वे अगर 4-5 घंटे भी रोज डटकर काम करें तो हमारा भारत दूनी रफ्तार से आगे बढ़ सकता है। जो एक बार सरकारी नौकरी पा गया, उसे जीवन भर का बीमा मिल गया। यदि देश में छुट्टियां आध्ीा कर दी जाएं और हर नौकरी के चलते रहने की हर पांच साल में समीक्षा होती रहे तो यह रेंगता हुआ भारत दौडऩे लगेगा।
भारत अपने आप को धर्म-निरपेक्ष कहता है लेकिन नेता लोग थोक वोट के लालच में हर धर्म और संप्रदाय की खुशामद में छुट्टियां करने पर उतारु हो जाते हैं। होली, दिवाली, ईद, क्रिसमस वगैरह के लिए आधे दिन की छुट्टी काफी क्यों नहीं होनी चाहिए? क्या लोग को दिन भर घर में बैठकर घंटा-घडिय़ाल बजाना होता है? अपने कर्तव्य-कर्म से बड़ी पूजा कोई नहीं है। इसका रहस्य हम सीखना चाहें तो अपने दुकानदारों से सीखें, जो चौबीसों घंटे अपने ग्राहकों की सेवा के लिए तैयार रहते हैं।
अपने स्वतंत्रता-दिवस, गणतंत्र दिवस और गांधी जयंती जैसे दिनों पर हमें एक-एक घंटा अतिरिक्त कार्य क्यों नहीं करना चाहिए? अपनी कार्यनिष्ठा इतनी गहन होनी चाहिए कि अपने घर में हर्ष या शोक की बड़ी से बड़ी घटना होने पर भी हमारा रोजमर्रा का कर्तव्य-निर्वाह किसी न किसी रुप में होता रहे। अपने छुट्टीप्रेमी भारत के किसी नेता में इतना दम नहीं है कि वह छुट्टियों के इस सरकारी ढर्रे को ढहा सके। इन छुट्टियों की छुट्टी तभी हो सकती है, जबकि कोई जबर्दस्त जन-आंदोलन चले।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-जगदीश्वर चतुर्वेदी
वाराणसी के गंगा घाटों और धार्मिक स्थलों पर 'गैर हिंदुओं का प्रवेश प्रतिबंधित' वाले पोस्टर लगाए गए हैं. ये पोस्टर विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल की ओर से लगाए गए हैं. इन पर लिखा है जिन लोगों की आस्था सनातन धर्म में है, उनका स्वागत है, नहीं तो यह पिकनिक स्पॉट नहीं है.
पोस्टर चस्पा करने वाले विश्व हिंदू परिषद के काशी महानगर के मंत्री राजन गुप्ता ने कहा कि गैर-सनातन धर्म के लिए चस्पा किया जा रहा पोस्टर केवल पोस्टर नहीं, बल्कि एक चेतावनी वाला संदेश है. गंगा घाट मंदिर और धार्मिक स्थल सनातन धर्म की आस्था का प्रतीक है, हम चेतावनी देना चाहते हैं कि गैर सनातनी हमारे सनातन धर्म के धार्मिक स्थलों से दूर रहें, क्योंकि यह कोई पिकनिक स्पॉट नहीं है. जिन लोगों की आस्था सनातन धर्म में उनका तो हम स्वागत करेंगे, नहीं तो हम उनको खदेड़ने का भी काम करेंगे.
यह पोस्टर नहीं बल्कि उन लोगों के लिए चेतावनी है जो हमारी अविरल मां गंगा को एक पिकनिक स्पॉट की तरह मानते हैं. पोस्टर के माध्यम से यह चेतावनी दी गई है कि ऐसे लोग हमारे धार्मिक स्थलों से दूर रहें नहीं तो बजरंग दल उन्हें दूर कर देगा.
निखिल त्रिपाठी, संयोजक , बजरंग दल काशी महानगर
बनारस के साधू शांडिल्य चन्द्रभूषण ने कहा कि पर्यटक आने में हमें आपत्ति नहीं है, पर्यटक आकर दर्शन करें, हमारे किसी भी प्रकार की धार्मिक भावना आहत न हो क्योंकि गंगा हमारी माता हैं, हम उन्हें गंगा मइया कहते हैं.
'सामाजिक दूरी बढ़ाने जैसा काम'
हालांकि पोस्टर चस्पा किए जाने के बाद लोग अपनी प्रतिक्रियाएं दे रहे हैं. गंगा से जुड़े लोगों का मानना है कि गंगा मां हैं किसी एक का दावा गलत है. यह समाज को बांटने और सामाजिक दूरी बढ़ाने जैसा प्रतीत हो रहा है. कुछ लोग इसे चुनाव से पूर्व राजनीति चमकाने के स्टंट भी मान रहे हैं.(क्विंट)
सौहार्द बिगाड़ने वालों के खिलाफ कार्रवाई होगी: पुलिस उपायुक्त
इस संबंध में अपर पुलिस उपायुक्त काशी जोन राजेश पांडेय ने कहा कि मामला हमारे संज्ञान में है. पुलिस सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने में लगी है. पोस्टर चिपकाने वालों और सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने वालों की पहचान की जा रही है. वह चाहे किसी भी दल से जुड़े हों उनके खिलाफ कठोर कार्रवाई सुनिश्चित की जाएगी.
-दिनेश श्रीनेत
कभी तो लगता है कि कितना समय बीत गया... कभी लगता है कि कल की बात है।
जैसे-जैसे उम्र बीतती जाती है समय एक खेल, एक भूलभुलैया-सा लगने लगता है। बीते दिनों की स्मृतियों से मुझे बहुत लगाव है। चाहे वो दुःख के दिन हों या सुख के। कुछ था, जिसके खोने की कसक मन के किसी कोने में दबी है। बार-बार उन स्मृतियों की तरफ लौटता हूँ। मन के भीतर पुरानी तस्वीरों की तरह वो भी धुंधला रही हैं। कई बार बीता हुआ वक्त बहुत साफ, निथरा हुआ किसी सपने में दिखाई देता है। जीवन से ज्यादा उजला और स्पष्ट... नींद खुलती है तो मन को हकीकत की दुनिया में लौटने में वक्त लगता है।
कई बार सपनों में अतीत नहीं दिखता, मगर एक भावना जो सुप्त-सी पड़ गई है, वह महसूस होती है। न वो ठीक-ठीक भविष्य होता है, न वर्तमान और न ही अतीत। बेचैन मन उन सांसों को पकड़ने की कोशिश करता है। मगर देखते-देखते दिन अपनी गिरफ़्त में ले लेता है और सब कुछ भूल जाता है।
कभी देर रात पुराने गीतों को सुनता हूँ, वो गीत जिनके पीछे बहुत सी यादें जाने कहां से खिंचती हुई चली आती हैं। सोने से पहले सोचता हूँ कि शायद मैं उस खोए हुए भाव को महसूस कर सकूंगा, पकड़ सकूंगा, जिसके न होने से खुद को खाली महसूस करता हूँ।
बंद आँखों के भीतर एक खुले आसमान का फ्रेम बनता है, जिसके एक कोने पर छोटी सी पतंग धीरे-धीरे डोलती है। किसी के धीमे-धीमे कदमों की चाप सुनाई देती है। मैं एक बहुत बड़ी सी छत पर भागता हूँ। कोई पीछे से आकर मेरी आँखें बंद कर देता है। हाथों का गर्म स्पर्श और उसमें रची-बसी कई चीजों की गंध याद रह जाती है।
मुझे बारिश बहुत अच्छी लगती है। बारिश की हर रंगत से बीते दिनों की किताब का कोई न कोई पन्ना खुल जाता है। मुझे पता है कि लौटने से कुछ नहीं मिलता। फिर भी बार-बार उन जगहों पर जाने का मन होता है। मैं चाहता हूँ कि जिन-जिन शहरों में मेरा बचपन बीता था, एक बार फिर से उन शहरों में जाऊँ। उन दीवारों को एक बार फिर से छू सकूँ, जिन्हें कभी मैंने अपनी छोटी हथेलियों से छुआ था।
मुझे दुपहरें भी बहुत पसंद हैं। मई और जून की तपती दुपहरें। एक अजीब-सी तपिश और वासना होती उनमें। ऐसी दुपहरी में बिल्कुल अकेले और खाली होना आपको अपने करीब ले जाता है। ऐसी लंबी अंतहीन दुपहर में साइकिल से भटकना जीवन का सबसे बड़ा सुख लगता था।
मुझे शामें भी बहुत याद आती हैं। खास तौर पर वह वक्त जब सूरज डूब जाता है पेड़ों की पत्तियों पर एक कालिमा सी ठहर जाती है। जब घरों की बत्तियां एक-एक करके जलती हैं। हर घर किसी अपरिचित के स्वागत के लिए उत्सुक लगता है। जब बच्चों का शोर और चिड़ियों कलरव एक-दूसरे में घुलमिल जाता है। जब कदम खुद-ब-खुद घर से बाहर निकल पड़ते हैं। जब आप अपनी शाम में रंग भरने के लिए किसी का इंतज़ार करते हैं। जब बातें इतनी लंबी हो जाती हैं कि रात भी छोटी लगती है। जब लगता है कि न इसके पहले कुछ था न इसके बाद कुछ होगा। मैं वो शामें कहाँ से लाऊँ?
उन रातों का क्या करूँ, जिन रातों में हम यात्राओं में निकले थे, जिन रातों के बाद बहुत सारे दिन आने थे। कुछ आए और कुछ कभी नहीं आए... वो कौन था जो इन रातों में जागा करता था? वो कौन था जिसकी आँखों में शाम की रोशनी उतरती थी। कौन था जो गर्मी की किसी दोपहर अपनी साइकिल उठाकर शहर से बहुत दूर चला जाता था। अब वो कहाँ है? नींद की मुंडेर तक आकर उसे खोजता हूँ...
हर अगली सुबह वह मुझसे और दूर चला जाता है...
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
गुजरात के उच्च न्यायालय में भाषा के सवाल पर फिर विवाद खड़ा हो गया है। एक पत्रकार विशाल व्यास ने गुजराती में ज्यों ही बोलना शुरु किया, जजों ने कहा कि आप अंग्रेजी में बोलिए। व्यास अड़े रहे। उन्होंने कहा कि मैं गुजराती में ही बोलूंगा। जजों ने कहा कि संविधान की धारा 348 के अनुसार इस अदालत की भाषा अंग्रेजी है। यदि व्यास चाहें तो उनकी बात का अंग्रेजी अनुवाद करने की सुविधा का इंतजाम अदालत कर देगी। अदालत की यह उदारता सराहनीय थी लेकिन यह कितने दुख की बात है कि भारत की अदालतों में आज भी अंग्रेजी का एकाधिकार है। इन जजों से कोई पूछे कि आपने धारा 348 को ठीक से पढ़ा भी है या नहीं? वह कहती है कि अदालत की भाषा अंग्रेजी होगी लेकिन इन जजों से कोई पूछे कि क्या अपराधी या याचिकाकर्ता को भी वे अदालत मानते हैं? आप उन्हें उनकी भाषा में क्यों नहीं बोलने देते? आप उन पर अंग्रेजी लादकर उनके मौलिक अधिकार का हनन कर रहे हैं।
इतना ही नहीं, अंग्रेजी में चलने वाली सारी अदालती कार्रवाई के कारण देश के साधारण लोगों की ठगी होती है। उन्हें पल्ले ही नहीं पड़ता कि उनके और विपक्ष के वकील क्या बहस कर रहे हैं? उनके तथ्य और तर्क सीधे हैं या उल्टे हैं, यह मुव्वकिल लोग तय ही नहीं कर पाते हैं और अंग्रेजी में जो फैसले होते हैं, उनको समझना तो हिमालय पर चढऩे जैसा है। धारा 348 यह भी कहती है कि संसद चाहे तो वह संविधान में संशोधन करके ऊंची अदालतों में भारतीय भाषाओं को चला सकती है। वह कानून को अंग्रेजी में बनाने की अनिवार्यता भी खत्म कर सकती है। इसके अलावा इसी धारा में यह प्रावधान भी है कि किसी भी प्रांत का राज्यपाल राष्ट्रपति की सहमति से अपने उच्च न्यायालय में हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं के इस्तेमाल की इजाजत दे सकता है।
यहां सवाल यही है कि गुजरात-जैसे राज्य में भी इस प्रावधान को अभी तक लागू क्यों नहीं किया गया? यह वही गुजरात है, जिसमें भाजपा के नरेंद्र मोदी वर्षों मुख्यमंत्री रहे हैं और अब प्रधानमंत्री हैं। महर्षि दयानंद और महात्मा गांधी, दोनों ही गुजराती थे और दोनों ने ही हिंदी का बीड़ा उठा रखा था। भारत के सभी राज्यों में गुजरात को तो सबसे आगे होकर विधानसभा और उच्च न्यायालय में गुजराती और हिंदी को अनिवार्य करना चाहिए था। संसद के प्रबुद्ध सांसदों को चाहिए कि वे संविधान की धारा 348 में संशोधन करवाकर अंग्रेजी के एकाधिकार को कानून-निर्माण और अदालतों से बाहर करें।
यदि संसद और विधानसभाएं दृढ़ संकल्प कर लें तो अंग्रेजी की गुलामी तत्काल खत्म हो सकती है, जैसे 1917 में सोवियत रुस में से फ्रांसीसी, 200 साल पहले फिनलैंड में से स्वीडी और 16 वीं सदी में ब्रिटेन में से फ्रांसीसी और तुर्की में से फ्रांसीसी भाषा और अरबी लिपि को खत्म किया गया। अंग्रेजी भाषा की गुलामी अंग्रेज लोगों की गुलामी से भी बदतर है। क्या देश में कोई ऐसा राजनीतिक दल या नेता है, जो इस गुलामी से भारत का छुटकारा करवा सके?
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ.राजू पाण्डेय
निश्चित ही नफरत के पुजारियों ने इस बात का जश्न मनाया होगा कि वे बीस-इक्कीस वर्ष की आयु के तीन हिन्दू युवकों तथा अठारह वर्षीय हिन्दू युवती में इतनी गहरी घृणा भर सके कि इन्होंने मुस्लिम महिलाओं की ऑनलाइन नीलामी के लिए बुल्ली बाई जैसा निंदनीय और निर्मम एप बनाया। इसे चर्चित करने के लिए नववर्ष के प्रथम दिवस का चयन किया गया जब लाखों देशवासियों की भांति यह मुस्लिम महिलाएं भी जम्हूरियत को बचाने,औरतों के हक की लड़ाई को नए जोश से आगे बढ़ाने तथा मुल्क में अमन-चैन और भाईचारे का माहौल स्थापित करने के लिए संकल्पबद्ध हो रही थीं। इन मुस्लिम महिलाओं के मनोबल को तोडऩे के लिए बड़ी ही चतुर नृशंसता से नव वर्ष के उत्सव भरे दिनों का चयन किया गया।
बुल्ली बाई एप के निर्माता मुस्लिम महिलाओं के अपमान तक ही सीमित नहीं रहे। उन्होंने झूठी सिख पहचान गढ़ी, एप की भाषा में पंजाबी को प्रधानता दी गई और पगड़ी को एप का लोगो बनाया गया। इसे खालिस्तान समर्थक भी दिखाने की कोशिश हुई। इस तरह न केवल सिख समुदाय की छवि को धूमिल किया जा सकता था अपितु सिख तथा मुस्लिम समुदाय के मध्य शत्रुता भी उत्पन्न की जा सकती थी। हो सकता है कि एप के निर्माण से जुड़े लोग कृषि कानूनों पर सरकार के बैकफुट पर जाने के लिए सिख किसानों को जिम्मेदार समझते हों और इस तरह उनसे प्रतिशोध ले रहे हों।
क्या यह महज एक संयोग है कि बुल्ली बाई एप तब आया है जब पंजाब, उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड जैसे राज्यों में चुनाव निकट हैं और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिशें अपने चरम पर हैं। क्या यह महज एक संयोग था कि इसी तरह की कुत्सित मानसिकता को दर्शाने वाला पहला एप सुल्ली डील्स तब सामने आया था जब बंगाल के चुनाव निकट थे और उस समय भी साम्प्रदायिक दुष्प्रचार सारी सीमाएं लांघ रहा था।
पता नहीं हममें से कितने लोगों ने जुलाई 2021 में सुल्ली डील्स की शिकार बनी व्यावसायिक पायलट हाना मोहसिन खान का वह मार्मिक आलेख पढ़ा है जिसमें उन्होंने उस घनघोर मानसिक यंत्रणा का चित्रण किया है जो उन्हें झेलनी पड़ी थी। हाना बताती हैं कि सुल्ली डील्स की शिकार 83 महिलाओं में से बहुत ने स्वयं सोशल मीडिया छोड़ दिया। कई महिलाओं को परिजनों ने सोशल मीडिया छोडऩे को बाध्य कर दिया। बहुत सी पीडि़त महिलाएं इस अमानवीय घटनाक्रम का विरोध तो कर रही हैं लेकिन उनमें कानूनी कार्रवाई करने का साहस नहीं है, उनके मित्र और परिजन भी उन्हें परामर्श दे रहे हैं कि वे कानूनी कार्रवाई करने का ‘खतरा’ मोल न लें। हाना जैसी चंद पीडि़त महिलाओं ने कानून की शरण ली है और अब उन्हें पता है कि उनके हितैषी क्यों उन्हें शांत रहने को कह रहे थे। बहुत सारी जिंदादिल औरतों की जिंदा आवाजें खामोश कर दी गई हैं।
सब मौन हैं। केंद्र सरकार की सभी कद्दावर महिला मंत्री चुप हैं। अभी कुछ ही महीने पहले तीन तलाक प्रकरण में स्वयं को मुस्लिम महिलाओं के परम हितैषी के रूप में प्रस्तुत करने वाले बुद्धिजीवी मूकदर्शक बने हुए हैं। बार बार भावोद्रेक में अपने नेत्र सजल कर लेने वाले आदरणीय प्रधानमंत्री जी की सर्द खामोशी इन महिलाओं को चिंता में डाल रही है। सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव का जवाब यह बताता है कि यह मामला उन्हें दूसरे साइबर अपराधों से ज्यादा गंभीर नहीं लगता। अनेक मामलों में स्वत: संज्ञान लेने वाला न्यायालय भी इस बार शांत है। मुस्लिम महिलाओं की ऑन लाइन नीलामी के अपराध से ज्यादा डराने वाली सरकार और सभ्य समाज की यह चुप्पी है। हाना ने सुल्ली डील्स के डरावने अनुभव को शब्दों में उतारने की जो कठिन कोशिश जुलाई 2021 में शुरू की थी, उसके पूरा होते होते बुल्ली बाई प्रकरण सामने आ गया।
ऐसा लगता है कि लंबे संघर्ष के बाद अर्जित स्वतंत्रता, सशक्त लोकतांत्रिक व्यवस्था और गौरवशाली नागरिक जीवन का हासिल हम चंद महीनों में ही खो देंगे, मध्ययुगीन सामंती व्यवस्था की वापसी हो रही है जहां हिंसा है, प्रतिशोध है, जहां औरतों की आजादी के लिए कोई जगह नहीं है। अंतर केवल एक है-अब हमारे पास औरतों को अपमानित और प्रताडि़त करने के लिए उन्नत तकनीक है। दुर्भाग्य है कि तकनीक तो विकसित हो रही है किंतु वैज्ञानिक दृष्टि तथा मानवीय मूल्यों का ह्रास होता जा रहा है।
सुल्ली डील्स के अपराधी जुलाई 2021 से अब तक आजाद घूम रहे हैं यदि उन्हें गिरफ्तार कर उन पर कार्रवाई की गई होती तो शायद इसका दूसरा संस्करण बुल्ली बाई गढऩे की हिम्मत पकड़े गए आरोपी न कर पाते। किंतु जैसा आजकल का चलन है अल्पसंख्यक समुदाय को प्रताडि़त करना कोई गंभीर अपराध नहीं माना जाता, फिर यह तो मुस्लिम महिलाएं हैं। हो सकता है इन एप निर्माताओं को राष्ट्र भक्तों के रूप में सोशल मीडिया पर चित्रित किया जाए।
मुस्लिम समुदाय से आने वाली जागरूक, सक्रिय, मुखर एवं अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने को तत्पर महिला पत्रकार तथा सामाजिक कार्यकर्ता इस एप के निशाने पर थीं। यह एप कितना जघन्य और भयानक है इसकी कल्पना केवल वही महिला कर सकती है जिसे किसी प्यारी सी सुबह में मालूम हो कि वह नीलामी के लिए लोगों के सामने पेश की गई है, उसकी तस्वीर को देखकर कुत्सित और भद्दे कमेंट किए जा रहे हैं। वह एक बहन, बेटी,पत्नी या माँ नहीं है बल्कि वह एक सामान है- केवल एक जिस्म! वासना के सौदागर अपने सामान की मुँहमाँगी कीमत देने को लालायित हैं और लोगों को बता रहे हैं कि वे दी गई कीमत कैसे वसूल करेंगे।
रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स ने भारत सरकार से आग्रह किया है कि इस तरह के एप्लीकेशन्स के निर्माताओं पर कठोरतम कार्रवाई की जाए। पता नहीं इस आग्रह पर सरकार की प्रतिक्रिया क्या होगी? कहीं इसे भारत की छवि खराब करने के अभियान का एक भाग तो नहीं कह दिया जाएगा।
हम निश्चिंत हैं, हमें भरोसा है कि ऐसी किसी नीलामी में हम हमेशा खरीददार ही रहेंगे। हमारी बहन-बेटी-पत्नी-माँ की इस नीलामी में कभी बोली नहीं लगेगी। यह हमारा भ्रम है। नफरत, हिंसा, प्रतिशोध -यह सारे संक्रामक रोग हैं। जब इनका आक्रमण होगा तो हमें पछतावा होगा, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पिछले हफ्ते जब कुछ हिंदू साधुओं ने घोर आपत्तिजनक भाषण दिए थे, तब मैंने लिखा था कि वे सरकार और हिंदुत्व, दोनों को कलंकित करने का काम कर रहे हैं। हमारे शीर्ष नेताओं और हिंदुत्ववादी संगठनों को उनकी कड़ी भर्त्सना करनी चाहिए। मुझे प्रसन्नता है कि हमारे उप-राष्ट्रपति वैंकय्या नायडू ने हिम्मत दिखाई और देश के नाम सही संदेश दिया। वे केरल में एक ईसाई संत एलियास चावरा के 150 वीं पुण्य-तिथि समारोह में बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि किसी धर्म या संप्रदाय के खिलाफ घृणा फैलाना भारतीय संस्कृति, परंपरा और संविधान के विरुद्ध है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने-अपने धर्म के पालन की पूरी छूट है। उन्होंने बहुत संयत भाषा में उन तथाकथित साधु-संतों की बात को रद्द किया है, जिन्होंने गांधी-हत्या को सही ठहराया था और मुसलमानों के कत्ले-आम की बातें कही थीं। उन्होंने गांधीजी के लिए अत्यंत गंदे शब्दों का प्रयोग भी किया था। अपने आप को हिंदुत्व का पुरोधा कहनेवाले कुछ सिरफिरे युवकों ने गिरजाघरों पर हमले भी किए थे और ईसा मसीह की मूर्तियों को भी डहा दिया था।
इस तरह के उत्पाती लोग भारत में बहुत कम है लेकिन उनके कुकर्मों से दुनिया में भारत की बहुत बदनामी होती है। भारत की तुलना पाकिस्तान और अफगानिस्तान- जैसे देशों से की जाने लगती है। यह ठीक है कि भारत के ज्यादातर लोग ऐसे कुकर्मों से सहमत नहीं होते हैं लेकिन यह भी जरुरी है कि वे इनकी भर्त्सना करें। ऐसे कुत्सित मामलों को भाजपा और कांग्रेस की क्यारियों में बांटना सर्वथा अनुचित है। देश के सभी राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे ऐसे राष्ट्रविरोधी और विषैले बयानों के खिलाफ अपनी दो-टूक राय जाहिर करें। यह संतोष का विषय है कि उन कुछ तथाकथित संतों के विरुद्ध पुलिस ने प्रारंभिक कार्रवाई शुरु कर दी है लेकिन वह कोरा दिखावा नहीं रह जाना चाहिए। ऐसे जहरीले बयानों के फलस्वरुप ही खून की नदियां बहने लगती हैं।
यह राष्ट्रतोडक़ प्रवृत्ति सिर्फ कानून के जरिए समाप्त नहीं हो सकती। इसके लिए जरुरी है कि सभी मजहबी लोग अपने-अपने बच्चों में बचपन से ही उदारता और तर्कशीलता के संस्कार पनपाएं। यदि हमारे नागरिकों में तर्कशीलता विकसित हो जाए तो वे धर्म के नाम पर चल रहे पाखंड और पशुता को छुएंगे भी नहीं। कार्ल मार्क्स ने कहा था कि मजहब जनता की अफीम है। यदि लोग तर्कशील होंगे तो वे इस अफीम के नशे से बचने की भी पूरी कोशिश करेंगे।
यदि लोग तर्कशील होने के साथ उदार भी होंगे तो वे अपने धर्म या धर्मग्रंथ या धर्मप्रधान की आलोचना से विचलित और क्रुद्ध भी नहीं होंगे। भारत में शास्त्रार्थों की अत्यंत प्राचीन और लंबी परंपरा रही है। गौतम बुद्ध, शंकराचार्य और महर्षि दयानंद की असहमतियों में कहीं भी किसी के प्रति भी दुर्भावना या हिंसा लेश-मात्र भी दिखाई नहीं पड़ती। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दुनिया की पांच परमाणु संपन्न महाशक्तियों ने अब एक सत्य को सार्वजनिक और औपचारिक रुप से स्वीकार कर लिया है। ये पांच राष्ट्र हैं— अमेरिका, रुस, चीन, ब्रिटेन और फ्रांस। इन पांचों राष्ट्रों के पास हजारों परमाणु बम और प्रक्षेप्रास्त्र हैं। इन्होंने पहली बार यह संयुक्त घोषणा की है कि यदि परमाणु युद्ध हुआ तो उसमें जीत किसी की नहीं होगी। सब हारेंगे। अत: परमाणु युद्ध होना ही नहीं चाहिए। ये पांचों राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य हैं और दुनिया के सबसे संपन्न राष्ट्रों में हैं। उन्होंने यह संकल्प भी प्रकट किया है कि परमाणु-शस्त्र नियंत्रण के लिए वे द्विपक्षीय और सामूहिक प्रयत्न बराबर करते रहेंगे।
इस घोषणा का दुनिया में सर्वत्र स्वागत होगा लेकिन सवाल यह भी उठता है कि क्या हिरोशिमा और नागासाकी के नर-संहार के 77 साल बाद अब इन राष्ट्रों को यह सत्य समझ में आया है? क्या अभी तक ये सत्ता के नशे में डूबे हुए थे? बल्कि मैं तो यह समझता हूं कि अब तक ये सत्ता में मदमस्त होने से भी ज्यादा भयग्रस्त थे। सभी महाशक्तियां एक-दूसरे से इतनी डरी हुई थीं कि सब ने परमाणु शस्त्रास्त्र बना लिये। अपने परम मित्र राष्ट्रों के पास परमाणु बम होने के बावजूद उन्होंने करोड़ों-अरबों रु. खर्च करके अपने बम बना लिये। लेकिन वे अब महसूस कर रहे हैं कि ये समूल नाश के साधन हैं।
एक-एक राष्ट्र के पास इतने परमाणु बम हैं कि जिनसे सारी पृथ्वी का कई बार नाश हो सकता है लेकिन इन राष्ट्रों ने सिर्फ उस खतरे की उपस्थिति को स्वीकारा है। उसका इलाज अब भी इन्होंने शुरु नहीं किया है। पिछले 6-7 दशकों में परमाणु अप्रसार और परमाणु-नियंत्रण के बारे में कई संधिया और समझौते होते रहे हैं लेकिन आज तक भी कोई ऐसा समझौता नहीं हुआ है, जिसके तहत सभी परमाणु-राष्ट्र अपने परमाणु हथियारों को खत्म करने या तेजी से घटाने की कोशिश करते। याने अब भी वे डरे हुए हैं। अब भी उन्हें लगता है कि यदि उन्हें संप्रभु और स्वतंत्र रहना है तो उनके पास परमाणु बम होना ही चाहिए।
इन राष्ट्रों के नेताओं से कोई पूछे कि क्या गांधीजी ने कोई परमाणु बम चलाया था? बिना हथियार चलाए भारत आजाद हुआ या नहीं? कोई भी परमाणु-राष्ट्र किसी भी अन्य राष्ट्र पर इसलिए कब्जा नहीं कर सकता कि उस राष्ट्र के पास परमाणु बम नहीं है। दुनिया के मुश्किल से दर्जन भर राष्ट्रों के पास परमाणु-शक्ति है लेकिन उनमें क्या इतना दम है कि वे अपने पड़ौसी राष्ट्रों पर कब्जा कर लें? मेरी राय में परमाणु-बम हाथी के दिखावटी दातों की तरह हैं।
इन्हें जितनी जल्दी नष्ट किया जाए, उतना ही अच्छा है। यह अंधविश्वास भी निराधार साबित हो गया है कि परमाणु बम के डर के मारे अब दुनिया में युद्ध नहीं होंगे। इस परमाणु-युग में लगभग हर महाद्वीप पर दर्जनों देश आपस में युद्धरत हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)