विचार/लेख
भारत में निष्प्रभावी होता एन्टीवेनम
-संदीप पौराणिक
सांप ही एक ऐसा सरीसृप है कि जिससे मनुष्य सबसे ज्यादा डरता है। संसार में सांप की लगभग 2500 से अधिक प्रजातियां पाई जाती हैं, जिसमें से लगभग 216 प्रजातियंासांप भारत में पाये जाते हैं। सामान्यतः सांपों को दो श्रेणियों में बांटा गया है। विषहीन और विषैले, भारत में प्रतिवर्ष 2 लाख से अधिक व्यक्तियों को विषैले सापों द्वारा डसा जाता है, जिसमें लगभग 70 हजार व्यक्ति इनके विष के प्रभाव से दम तोड़ देते हैं। इस मृत्युदर की तुलना यदि हम संसार के दूसरे देशों से करें तो भारत में यह काफी अधिक है। हम अगर अफ्रीका की ही बात करें तो यहां पर संसार के सबसे ज्यादा विषैले सांप पाये जाते हैं, लेकिन उनके द्वारा डसे गये अधिकांश लोगों को बचा लिया जाता है। इसका सबसे प्रमुख कारण वहां के लोगों में जागरूकता एवं वहां की प्रभावी एन्टीवेनम है।
भारत में लगभग 14 प्रजातियांे के जहरीले सांप पाये जाते हैं, जबकि एन्टीवेनम सिर्फ चार प्रजाति के सांपों से ही निर्मित हैं। ये चार प्रजातियां निम्न हैं, नाग या कोबरा इसे हम चश्मे वाला कोबरा नाजा-नाजा भी कहते हैं। दूसरा कामन करेत बंगारस केरूलस., रसेल वाइपर डेबोइया रसेली और सा स्केल्ड वाइपर या इचिस। भारत में पॉलीवेलेन्ट एन्टीवेनम की उपलब्धता के बावजूद, यहां के ग्रामीण एवं कृषि समुदायों में सर्पदंश एक गंभीर समस्या बना हुआ है, जिसके परिणामस्वरूप भारत में सर्पदंश एवं उससे होने वाली मौतों का प्रतिशत अन्य देशेां की तुलना में बहुत ज्यादा है।
हाल के वर्षों में भारत सरकार एवं विश्व समुदाय ने इस गंभीर समस्या पर ध्यान देना शुरू किया तथा लगभग 6000 वर्ग किलोमीटर के सर्पों के उन रहवास क्षेत्रों व उनकी प्रजातियों तथा उनके भोजन व उनके दुश्मन जो कि सापों को खाते हैं, इनका अध्ययन करवाया तो जो तथ्य सामने आये थे बेहद ही चौकाने वाले हैं। जैसे भारत का प्रमुख जहरीला सांप नाग, जिसे भारत में सर्पदंश से होने वाली मौतों के लिए जिम्मेवार माना जाता है, इससे नाग के 6000 किलोमीटर भौगोलिक क्षेत्र का वृहद अध्ययन किया गया, इसमें सांप प्रजाति के जहर की संरचना और उसके कार्य की विशेषता बनाई गयी है, जिसमें इस प्रजाति के सांपों की अब तक की सबसे व्यापक प्रोटिओनिम और प्रोफाइल तैयार की गई। हमारे वैज्ञानिकों ने इन विट्रो और विवो प्रयोगों के परिणामों ने विष रचनाओं, सहक्रियात्मक औषधि प्रभावों एवं विषों की विवों शक्ति में नाटकीय अंतर पाया। वैज्ञानिकों ने यह भी देखा कि देश के विभिन्न हिस्सों में प्राप्त जहरों को बेअसर करने के लिए प्रमुख एन्टीवेनम की प्रभावशीलता का इस भिन्नता पर अलग-अलग कम या ज्यादा प्रभाव परिलक्षित होता है। वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि हमारा वर्तमान में एन्टीवेनम देश के समूचे क्षेत्रों में एक जैसा प्रभाव नहीं रखता। अतः अब पुनः नये एन्टीवेनम बनाने की आवश्यकता है।
वैज्ञानिकों ने स्पष्ट किया है कि जैव भौगोलिक विष परिवर्तनशीलता, सर्पदंश चिकित्सा के उपचार पर नकारात्मक असर डालती है। भारत में सर्पदंश के उपचार के लिए एन्टीवेनम का निर्माण तमिलनाडु के सांपों की आबादी बिग फोर-नाग, कैरेत, वाइपर, सा स्केल्ड वाइपर के जहर से निर्मित की जाती है। वैज्ञानिकों ने स्पष्ट किया है कि यदि इस एंटीवेनम को नाग द्वारा डसे गये आंध्रप्रदेश एवं तमिलनाडु के तटीय निवासियों को सिर्फ (0.80 मिलीग्राम) एम.एल जहर की विपणन चिकित्सा शक्ति की तुलना में इसकी एक खुराक ही जहर को बेअसर कर देती है। यही एंटीवेनम, गंगा के मैदान, अर्धशुष्क क्षेत्र, डक्कन के पठार में इसकी ज्यादा या बहुत ज्यादा खुराक या डोज की आवश्यकता पड़ती हैं और यही एंटीवेनम, रेगिस्तान क्षेत्र में अपना प्रभाव लगभग खो चुका है । अर्थात यदि राजस्थान में किसी व्यक्ति को बिग फोर सर्प में से किसी ने डसा है तो उस पर इस दवा एंटी वेनम का प्रभाव बिल्कुल नहीं पड़ रहा है। अतः भारत के इन क्षेत्रों में मौतों का आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है। वैज्ञानिक इस बात पर बल दे रहे हैं कि फिर से देशव्यापी या रिजनल एंटी वेनम का निर्माण हो ताकि देश के सुदूर प्रान्तों के लोगों को इसका समुचित लाभ मिल सके और उनकी जान बचाई जा सके।
छत्तीसगढ़ का नागलोक -
छत्तीसगढ़ में जशपुर जिले में स्थित नागलोक भी इंसानों को इन सर्पों द्वारा डसे जाने के लिए कुख्यात है। वैसे तो समूचे छत्तीसगढ़ में नाग तथा करैत की मौजूदगी है तथा यहां की आबोहवा भी इन सरीसृप के लिए काफी अनुकूल है। हाल के अध्ययन में ज्ञात हुआ है कि छत्तीसगढ़ में विश्व के सबसे जहरीले सांपों में से एक किंग कोबरा भी यहां के जंगलों में मौजूद है। यह ज्यादातर सघन वनों या ज्यादा बारिश वाले इलाकों में ही पाया जाता है। इसके अतिरिक्त छत्तीसगढ़ में करैत की ही प्रजाति का बेन्डेड करैत भी पाया जाता है, जिसे यहां की भाषा में अहिराज कहा जाता है, जबकि अहिराज किंग कोबरा का भी नाम है। इसमें नाग की तुलना में 16 प्रतिशत ज्यादा विष पाया जाता है, किन्तु इसके अभी तक किसी मनुष्य को काटने की कोई पुष्टि नहीं हुई है। मैंने स्वयं इसे रायगढ़ जिले के कई स्थानों पर लोगों व बच्चों के गले में लपेटे देखा है। इसकी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसकी बहुत मांग है इसके कारण ही छत्तीसगढ़ से तस्करी के मामले भी सामने आए हैं। अतः राज्य सरकार व केन्द्र सरकार को चाहिए कि छत्तीसगढ़ के तपकरा क्षेत्र में शीघ्र एक सर्प उद्यान व राष्ट्रीय स्तर का सरीसृप अध्ययन केन्द्रच खोला जाए।
छत्तीसगढ़ में भी सैकड़ों लोग सांपों द्वारा डसे जाने पर मारे जाते हैं। इसका प्रमुख कारण लोगों की अज्ञानता व झाड़फूंक को माना जाता है। यदि सांप द्वारा डसे जाने के दो-तीन घंटे के भीतर व्यक्ति को एंटीवेनम मिल जाता है तो उसके बचने की संभावना बढ़ जाती है। छत्तीसगढ़ में सांपों द्वारा डसे व्यक्तियों की मौत का एक प्रमुख कारण जमीन पर सोना भी है। व्यक्ति जमीन पर धान का पुआल इत्यादि बिछाकर उस पर सोता है तथा सांप भी गर्म खून का होने के कारण तथा ठंड व बारिश से बचने लोगों के बिस्तरों में घुस जाता है। छत्तीसगढ़ में आश्रम छात्रावासों मे रहने वाले दर्जनों बच्चों की भी सर्पदंश के कारण असमय मृत्यु हो रही है।
शासन से अनुरोध है कि सरकार छत्तीसगढ़ के उन ग्रामीण इलाकों का सर्वे करवाकर आदिवासी, किसानों, ग्रामीणों को खाट या लोहे के पलंग दें तथा उन्हें उस पर ही सोने के लिए प्रेरित करें। छत्तीसगढ़ के नागलोक के ग्रामीणों से जब मैंने पूछा कि वे खाट का उपयोग क्यों नहीं करते तो उन्होंने कहा कि चूंकि हमारे समाज में जब कोई व्यक्ति मर जाता है तभी उसे हम खाट पर लिटाकर ले जाते हैं। अतः जिंदा व्यक्ति का खाट पर सोना सामाजिक व धार्मिक रूप से निषिद्ध है। पर अब यह परंपरा टूट रही है। भुक्तभोगी परिवार अब खाट या पलंग पर सो रहे हैं। मेरा छत्तीसगढ़ सरकार से अनुरोध है कि वह भी वर्तमान में प्रचलित एंटीवेनम का छत्तीसगढ़ प्रदेश पर कितना असर है, इसका परीक्षण जरूर करवाएं तथा यहां सर्पदंश से हो रही असमय मौतों को रोकने का प्रबंध करें तथा आश्रमों,छज्ञत्रावासों में भी पलंग की व्यवस्था करे ताकि बच्चों की जान सुरक्षित रह सके।
अपूर्व गर्ग
अरबों की हेरोइन पकड़ी गई, कोई हंगामा नहीं, चुटकी भर ड्रग्स पर चौबीस घंटे छापामारी की खबरें क्यों?
देश लूटकर कई कॉर्पोरेट विदेश भाग गए, ये सोते रहे, पर आये दिन बॉलीवुड के कलाकारों, प्रोड्यूसरों पर छापे क्यों?
बातों-बातों पर फिल्मों के प्रदर्शन रुकवाए जाते हैं, दूसरी तरफ एक वर्ग लगातार नफरत फैलाता है, पर हमले बॉलीवुड पर ही होते हैं क्यों?
जाहिर है इन दिनों बॉलीवुड पर सबसे गंभीर हमले लगातार हो रहे, आलम ये है जो टीवी में दिख रहा है एनसीबी की कार्यवाही में बीजेपी का नेता अफसर की तरह एक्शन में दिख रहा ...आखिर ऐसे संगीन, खुले हमले क्यों?
अगर हम समझते हैं कि बॉलीवुड पर पिछले कुछ समय से चौतरफे हमले सिर्फ इसलिए हो रहे क्योंकि सरकार बॉलीवुड को लखनऊ शिफ्ट करना चाहती है, तो ये कथन अपूर्ण है। नोएडा में ही अब तक बहुत हाथ-पैर मारकर भी क्या स्थापित कर लिया?
अगर हम ये समझते हैं बॉलीवुड पर हमले इसलिए हो रहे ताकि कुछ और अनुपम-अजय-अक्षय मिलें जो ये इंटरव्यू लेें कि आम चूस के खाते हैं या काट के खाते हैं?...सिर्फ ये भी कारण नहीं है ।
बॉलीवुड के रूप में नोट छापने वाली मशीन मिल जाएगी, ये भी मुख्य कारण नहीं है ।
दरअसल, बड़ी आबादी तक सबसे आसान तरीके से पहुँचने का सशक्त माध्यम टीवी और सिनेमा है। नब्बे फीसद आबादी को कुछ भी पढ़ाइये उतना असर न होगा जितना किसी फिल्म से होगा। ये कड़वा सच है ।
टीवी पर काबिज होने के बाद इस सरकार की पूरी कोशिश है हिन्दुस्तान का ये सबसे तगड़ा माध्यम उनकी मु_ी में हो। इस सरकार की कोशिश है कि ऐसे लोग जिनका आजादी के आंदोलन में कोई योगदान न रहा उन पर फिल्में बनें और वो जनता के सामने हीरो के तौर पर उभर सकें।
आज के सेक्युलर, कभी प्रगतिशील रहे हिन्दुस्तान के बनने में सिनेमा का भी बड़ा योगदान रहा। पृथ्वी राज कपूर, बलराज साहनी, कैफी आजमी ख्वाजा अहमद अब्बास, गुरु दत्त, दिलीप कुमार राजकपूर, सलिल चौधरी, साहिर, उत्पल दत्त सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक, बासु भट्टाचार्य, मृणाल सेन, राही मासूम रजा, शबाना आजमी, स्मिता पाटिल, नसीर, ओम पुरी अदूर गोपालकृष्णन गोविन्द निहलानी गिरीश कर्नाड , जावेद अख्तर जैसी लंबी सूची है ।
इसी तरह गायकों अन्य अभिनेताओं, सिने वर्कर्स कि भी लम्बी सूचि है, जिन्होंने देश को सुंदर, प्रेरक, देशभक्ति की, सांप्रदायिक सदभाव बनाए रखने की लगातार फिल्में देश को दीं ।
फिल्मी लेखन का इतिहास देखिये गुलजार तो अब भी हैं कभी कमलेश्वर, नीरज, गीतकार शैलेन्द्र, अमृत लाल नागर, भगवतीचरण वर्मा, अश्क सुदर्शन, नरेंद्र शर्मा और प्रेमचंदजी भी जुड़े थे। समझिये आज सरकार को दो बीघा जमीन, गर्म हवा, काबुलीवाला, नया दौर, शहीद, आक्रोश, अर्धसत्य, मिर्च मसाला, बाजार, तमस, मंडी, पार, दामुल, फायर, वॉटर, माचिस, मुल्क जैसी फिल्में नहीं बल्कि अंधविश्वास, कट्टरता अपने नेताओं पर बायोपिक और अपनी विचार धारा पर आधारित फिल्में चाहिये। इसलिए सिर्फ शिक्षा, इतिहास से छेड़छाड़ से काम नहीं चलेगा जब तक सूचना और मनोरंजन के पूरे साधनों पर कब्जा न हो जाये तब तक इनका अभियान चलेगा ताकि आसानी से मध्ययुग-बर्बर युग में वापिसी हो सके। इस रास्ते पर वापिस जाने के लिए जरूरी है लोगों की वैज्ञानिक चेतना का नाश हो ।
न्यू इंडिया के निर्माण के लिए जरूरी है लोगों को अंधराष्ट्रवादी और अलोकतांत्रिक बनाना। ये जहर सिर्फ मीडिया नहीं फैला सकता सिनेमा इसके लिए बहुत जरूरी है। सती प्रथा को जब फिल्मों से महिमामंडित किया जायेगा तो रूप कंवर जैसों की चीखें किसी को क्यों विचलित करेंगी?
पड़ोसियों को सिर्फ दुश्मन के तौर पर पेश किया जायेगा तो युद्ध उन्माद छाया रहेगा, हथियार बिकते रहेंगे भले ही गरीबी भूखमरी बढ़ती रहे ।
कश्मीर सिर्फ आतंकवाद की घाटी है और सेना ही इसकी सर्जरी कर सकती है, ये यकीन भला सिनेमा से बेहतर कौन दिला सकता है ?
आतंकवाद , युद्ध , दंगों पर अपने विचार जनता के दिमाग में डालने और उन्हें विश्वास दिलाने कि ये सरकारी लाइन सही है, फिल्म उद्योग पर नियंत्रण जरूरी है। बॉलीवुड के गले से इनकी ही आवाज निकले कॉलर पकडक़र गला इसलिए तो दबाया जा रहा।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
देश में कोरोना की महामारी घटी तो अब मंहगाई की महामारी से लोगों को जूझना पड़ रहा है। कोरोना घटा तो लोग घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर बाहर जाना चाहते हैं लेकिन जाएं कैसे ? पेट्रोल के दाम 100 रु. लीटर और डीजल के 90 रु. को पार कर गए। कार-मालिकों को सोचना पड़ रहा है कि क्या करें ? कार बेच दें और बसों, मेट्रो या आटो रिक्शा से जाया करें लेकिन उनके किराए भी कूद-कूदकर आगे बढ़ते जा रहे हैं। पेट्रोल और डीजल की सीधी मार सिर्फ मध्यम वर्ग पर ही नहीं पड़ रही है, गरीब वर्ग भी परेशान है। तेल की कीमत बढ़ी तो खाने-पीने की रोजमर्रा की चीजों के दाम भी आसमान छूने लगे हैं। सब्जियां तो फलों के दाम बिक रही हैं और फल ग्राहकों की पहुंच के बाहर हो रहे हैं।
दुकानदार हाथ मल रहे हैं कि उनके फल अब बहुत कम बिकते हैं और पड़े-पड़े सड़ जाते हैं। लोगों ने सब्जियाँ और फल खाना कम कर दिया लेकिन दालों के भाव भी दमघोटू हो गए हैं। आम आदमी की जिंदगी पहले ही दूभर थी लेकिन कोरोना ने उसे और दर्दनाक बना दिया है। सरकारी नौकरों, सांसदों और मंत्रियों के वेतन चाहे ज्यों के त्यों रहे हों लेकिन गैर-सरकारी कर्मचारियों, मजदूरों, घरेलू नौकरों की आमदनी तो लगभग आधी हो गई। उनके मालिकों ने कोरोना-काल में हाथ खड़े कर दिए। वे ही नहीं, इस आफतकाल में पत्रकारों-जैसे समर्थ लोगों की भी बड़ी दुर्दशा हो गई। कई छोटे-मोटे अखबार तो बंद ही हो गए। जो चल रहे हैं, उन्होंने अपने पत्रकारों का वेतन आधा कर दिया और दर्जनों पत्रकारों को बिदा ही कर दिया। जो सेवा-निवृत्त पत्रकार लेख लिखकर अपना खर्च चलाते हैं, उन्हें कई अखबारों ने पारिश्रमिक भेजना ही बंद कर दिया।
बेचारे दर्जियों और धोबियों की भी शामत आ गई। जब लोग अपने घरों में घिरे रहे तो उन्हें धोबी से कपड़े धुलाने और दर्जी से नए कपड़े सिलाने की जरुरत ही कहां रह गई? भवन-निर्माण का धंधा ठप्प होने के कारण लाखों मजदूर अपने गांवों में ही जाकर पड़े रहे। यही हाल ड्राइवरों का हुआ। बस मौज किसी की रही तो डॉक्टरों और अस्पताल मालिकों की रही। उन्होंने नोटों की बरसात झेली और मालामाल हो गए लेकिन वे डॉक्टर, वे नर्सें और वे कर्मचारी हमेशा श्रद्धा के पात्र बने रहेंगे, जिन्होंने इस महामारी के दौरान मरीजों की लगन से सेवा की और उनमें से कइयों ने अपनी जान की भी परवाह भी नहीं की। वे मनुष्य के रुप में देवता थे। लेकिन यह न भूलें कि मंहगाई के इस युग में लाखों ऐसे मरीज भी रहे, जिन्हें ठीक से दवा भी नसीब नहीं हुई। हजारों की जान इलाज के अभाव में चली गई। केंद्र और राज्य सरकारों ने कोरोना को काबू करने का भरसक प्रयत्न किया है लेकिन यदि वह इस मंहगाई पर काबू नहीं कर सकी तो ये मुनाफाखोर लोग उसे ले डूबेंगे। मंहगाई की मार कोरोना की मार से ज्यादा खतरनाक सिद्ध होगी। कोरोना को तो भगवान का प्रकोप मानकर लोगों ने किसी तरह सह लिया लेकिन मंहगाई का गुस्सा मुनाफाखोरों पर तो उतरेगा ही, जनता सरकार को भी नहीं बख्शेगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
ध्रुव गुप्त
प्राचीन काल से ही हिन्दू धर्म तीन मुख्य सम्प्रदायों में बंटा रहा है-विष्णु का उपासक वैष्णव, शिव का उपासक शैव और शक्ति का उपासक शाक्त संप्रदाय। दुनिया के सभी दूसरे धर्मों की तरह वैष्णव और शैव संप्रदाय जहां सृष्टि की सर्वोच्च शक्ति पुरुष को मानते हैं, शाक्तों की दृष्टि में सृष्टि की सर्वोच्च शक्ति स्त्री शक्ति है। देवी को ईश्वर के रूप में पूजने वाला शाक्त धर्म दुनिया का संभवत: एकमात्र धर्म है।
स्त्री-शक्ति की आराधना की शुरुआत कब और कैसे हुई, इस विषय पर इतिहासकारों में मतभेद है। ज्यादातर लोग शक्ति पूजा की परंपरा की शुरुआत इतिहास के गुप्त काल से मानते हैं जब ‘देवी महात्मय’ नाम के ग्रंथ की रचना हुई थी। दसवीं से बारहवीं सदी के बीच ‘देवी भागवत पुराण’ की रचना के बाद शाक्त परंपरा उत्कर्ष पर पहुंची थी। सच यह है कि स्त्री-शक्ति की पूजा की जड़ें प्रागैतिहासिक काल में ही मौजूद हैं। सिंधु-सरस्वती घाटी की सभ्यता में मातृदेवी की उपासना का प्रचलन था। खुदाई में उस काल की देवी की कई मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। ऋग्वेद के दसवें मंडल में भी वाक्शक्ति की प्रशंसा में एक देवीसूक्त मिलता है, जिसमें वाक्शक्ति कहती है : मैं ही समस्त जगत की अधीश्वरी तथा देवताओं में प्रधान हूं। मैं सभी भूतों में स्थित हूं। देवगण जो भी कार्य करते हैं वह मेरे लिये ही करते हैं। वेदों की कई अन्य ऋचाओं में अदिति का मातृशक्ति के रूप में वर्णन है जो माता, पिता, देवगण, पंचजन, भूत, भविष्य सब कुछ हैं। कालांतर में शक्ति पूजा की इस प्राचीन परंपरा के साथ असंख्य मिथक और कर्मकांड जुड़ते चले गए।
योगियों की शक्ति उपासना की पद्धति थोड़ी अलग है। वे शक्ति का अस्तित्व किसी दूसरी दुनिया या आयाम में नहीं, मानव शरीर के भीतर ही मानते हैं। रीढ़ की हड्डी के सबसे निचले हिस्से में कुंडलिनी शक्ति के रूप में। विभिन्न यौगिक क्रियाओं और ध्यान के माध्यम से इस शक्ति की ऊध्र्व यात्रा शुरू कराई जाती है। जब यह शक्ति शरीर के छह चक्रों का भेदन करती हुई मस्तिष्क में स्थित सातवें चक्र में पहुंच जाती है तो योगी को असीम शक्ति और परमानंद की अनुभूति होती है।
मित्रों को स्त्री-शक्ति की उपासना के नौ-दिवसीय आयोजन नवरात्रि की शुभकामनाएं, इस आशा के साथ कि स्त्री-शक्ति की पूजा की यह गौरवशाली परंपरा स्त्रियों के प्रति सम्मान के अपने मूल उद्देश्य से भटककर महज कर्मकांड बनकर न रह जाए !
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लखीमपुर-खीरी में जो कुछ हुआ, वह दर्दनाक तो है ही, शर्मनाक भी है। शांतिपूर्वक प्रदर्शन कर रहे किसानों पर कोई मोटर गाडिय़ाँ चढ़ा दे, उनकी जान ले ले और उन्हें घायल कर दे, ऐसा जघन्य कुकर्म तो कोई डाकू या आतंकवादी भी नहीं करना चाहेगा। लेकिन यह एक केंद्रीय गृह राज्यमंत्री के काफिले ने किया। वह हत्यारी कार तो उस गृहमंत्री की ही थी। गृहमंत्री का कहना है कि उन कारों में न तो वे खुद थे और न ही उनका बेटा था लेकिन प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि मंत्री का बेटा ही वह कार चला रहा था और लोगों पर कार चढ़ाने के बाद वह वहां से भाग निकला।
यह तो जांच से पता चलेगा कि किसानों पर कारों से जानलेवा हमला किन्होंने किया या किनके इशारों पर किया गया लेकिन यह भी सत्य है कि कोई मामूली ड्राइवर इस तरह का भीषण हमला क्यों करेगा? उसकी हिम्मत कैसी पड़ेगी? लेकिन देखिए, किस्मत का खेल कि उन कारों के दो ड्राइवर तो तत्काल मारे गए और किसानों की भीड़ ने भाजपा के दो अन्य कार्यकर्ताओं को भी तत्काल मौत के घाट उतार दिया। इसे यों भी कहा जा रहा है कि जैसे को तैसा हो गया। चार लोग मंत्री के मारे गए, क्योंकि मंत्री के लोगों ने किसानों के चार लोग मार दिए थे।
लेकिन दोनों पक्षों ने खून-खराबे का यह रास्ता चुना, यह दोनों पक्षों की निकृष्टता का सूचक है। यह थोड़े संतोष का विषय है कि किसान नेता राकेश टिकैत की मध्यस्थता के कारण हताहत किसानों और मंत्रिपक्ष के लोगों को उ.प्र. की सरकार मोटा मुआवजा और नौकरी देने पर राजी हो गई है लेकिन आश्चर्य है कि स्थानीय पुलिस हत्याकांड को होते हुए देखती रही और वह कुछ न कर सकी। जाहिर है कि इस हत्याकांड से सिर्फ उत्तरप्रदेश में ही नहीं, सारे देश में लोगों ने गहरा धक्का महसूस किया है।
कृषि-कानूनों को डेढ़ साल तक ताक पर रखे जाने के बावजूद किसान नेता रास्ते रोक रहे हैं और हिंसा-प्रतिहिंसा पर उतारु हो रहे हैं। जाहिर है कि बड़े किसानों के इस आंदोलन को आम जनता और औसत किसानों का जैसा समर्थन मिलना चाहिए था, नहीं मिल रहा है। फिर भी उनके साहस की दाद देनी पड़ेगी कि वे इतने लंबे समय से अपनी टेक पर डटे हुए हैं। यह उनका लोकतांत्रिक अधिकार जरुर है लेकिन रास्ते रोकने से आम लोगों को जो असुविधाएं हो रही हैं, उनके कारण इस आंदोलन की छवि पर आंच आ रही है और सर्वोच्च न्यायालय को इस पर अप्रिय टिप्पणी भी करनी पड़ी हैं।
उधर उप्र सरकार के आचरण पर भी सवाल उठ रहे हैं। उसने कई विपक्षी नेताओं को भी लखीमपुर जाने से रोका है और कुछ को गिरफ्तार कर लिया है। मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी को अपने केंद्रीय मंत्री और पार्टी-कार्यकर्त्ताओं के साथ भी निर्भीकतापूर्वक पेश आना चाहिए। उन्हें कुछ माह बाद ही वोट मांगने के लिए जनता के सामने अपनी झोली पसारनी है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ राजू पाण्डेय
लखीमपुर खीरी की घटना एक चेतावनी है- हमारे लोकतंत्र का स्वास्थ्य अच्छा नहीं है। श्री अजय कुमार मिश्र जिनके हिंसा भड़काने वाले बयान एवं गतिविधियां चर्चा में हैं, कोई सामान्य व्यक्ति नहीं हैं। वे देश के गृह राज्य मंत्री हैं। उन पर देश में संविधान एवं कानून का राज्य बनाए रखने की जिम्मेदारी है- शांति-व्यवस्था बनाए रखने का उत्तरदायित्व है। यह तभी संभव है जब वे अराजकता का विरोध करें, अहिंसा का आश्रय लें, यह समझें कि विरोध और असहमति लोकतांत्रिक समाज के जीवित-जाग्रत होने का प्रमाण हैं। प्रदर्शनरत किसान उनके शत्रु नहीं हैं न ही उनका विरोध व्यक्तिगत है। वे उस राजनीतिक दल एवं सरकार का विरोध कर रहे हैं जिसका श्री मिश्र एक महत्वपूर्ण अंग हैं।
किंतु सोशल मीडिया में वायरल एक वीडियो के अनुसार 25 सितंबर 2021 को श्री मिश्र ने एक जनसभा में किसानों को धमकी भरे लहजे में कहा- '10 या 15 आदमी वहां बैठे हैं, अगर हम उधर भी जाते हैं तो भागने के लिए रास्ता नहीं मिलता।' उन्होंने कहा ‘हम आप को सुधार देंगे 2 मिनट के अंदर.. मैं केवल मंत्री नहीं हूं, सांसद विधायक नहीं हूं। सांसद बनने से पहले जो मेरे विषय में जानते होंगे उनको यह भी मालूम होगा कि मैं किसी चुनौती से भागता नहीं हूं और जिस दिन मैंने उस चुनौती को स्वीकार करके काम करना शुरू कर दिया उस दिन बलिया नहीं लखीमपुर तक छोड़ना पड़ जाएगा यह याद रखना..।’ उनका एक अन्य वीडियो भी चर्चा में है जिसमें वे प्रदर्शनकारी किसानों को चिढ़ाते हुए दिखते हैं। यदि श्री अजय कुमार मिश्र में उस संवैधानिक पद की मर्यादा एवं गरिमा का बोध समाप्त हो गया है जिस पर वे आसीन हैं तथा अपने वक्तव्य व आचरण में निहित अभद्रता एवं असहिष्णुता को समझने में वे नाकाम हैं तो उन पर क्रोधित होने के स्थान पर उनके लिए चिंतित होना उचित लगता है। वे मानसिक रूप से अस्वस्थ हैं और उन्हें शायद काउन्सलिंग की जरूरत है। बतौर देश के गृह राज्य मंत्री उनका बने रहना उचित नहीं है।
जब देश का शासन चला रहे महानुभावों में से अधिसंख्य सरकार की नीतियों के विरोध को व्यक्तिगत शत्रुता का रूप देने लगें तथा प्रतिशोधी एवं भड़काऊ बयान देकर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से असहमत स्वरों के विरुद्ध हिंसा के लिए अपने समर्थकों को उकसाने लगें तो देश की जनता का चिंतित एवं भयभीत होना स्वाभाविक है। श्री अजय कुमार मिश्र के आचरण को एक अपवाद नहीं माना जा सकता। वे केंद्र और भाजपा शासित राज्यों के नेताओं की उस परंपरा का एक हिस्सा हैं जिसमें "पश्चाताप रहित आक्रामक एवं हिंसक बयानबाजी" को एक प्रशंसनीय गुण माना जाता है। अब तक यह बयानबाजी साम्प्रदायिक विद्वेष से प्रेरित हुआ करती थी किंतु अब इस प्रवृत्ति का विस्तार हुआ है और आंदोलनकारी किसान इन जहरीले बयानों का निशाना बने हैं।
जुलाई 2021 में केंद्रीय मंत्री मीनाक्षी लेखी ने किसानों को मवाली कहा था। केंद्रीय राज्य मंत्री रतन लाल कटारिया ने मार्च 2021 में बयान दिया था कि किसान वो दिन याद करें जब गन्ने की पेमेंट के लिए कांग्रेस ने किसानों को घोड़ों के पैरों तले कुचलवाया था। इससे पूर्व दिसंबर 2020 में केंद्रीय मंत्री वीके सिंह ने कहा था कि किसान आन्दोलन में प्रदर्शन कर रहे कई लोग किसान नहीं दिखते हैं। यह किसान नहीं है जिन्हें कृषि कानूनों से कोई समस्या है, बल्कि वो दूसरे लोग हैं। विपक्ष के अलावा, कमीशन पाने वाले लोग इस विरोध के पीछे हैं।
यह बयान उत्तरोत्तर हिंसक होते गए हैं। पंजाब बीजेपी के प्रवक्ता हरिमंदर सिंह ने 15 सितंबर 2021 को कहा कि अगर मुझे किसानों से बात करने के लिए बोला जाता तो मैं मार-मार के पैर तोड़ देता और जेल में बंद करवा देता। आगे उन्होंने कहा कि किसानों का यही हाल करना चाहिए।
इस कड़ी का नवीनतम एवं सर्वाधिक चिंता तथा भय उत्पन्न करने वाला बयान हरियाणा के मुख्यमंत्री श्री मनोहर लाल खट्टर द्वारा दिया गया है। सोशल मीडिया एवं अन्य समाचार माध्यमों में दिखाए जा रहे वीडियो के अनुसार श्री खट्टर कह रहे हैं - 'दक्षिण हरियाणा में समस्या ज्यादा नहीं है, मगर उत्तर-पश्चिम हरियाणा के हर जिले में है। अपने किसानों के 500-700-1000 लोग आप अपने खड़े करो। उन्हें वालंटियर बनाओ और फिर जगह-जगह 'शठे शाठ्यम समाचरेत'! क्या मतलब होता है इसका? क्या अर्थ होता है इसका? कौन बताएगा? अंग्रेजी में बता दिया! हिंदी में बताओ! 'जैसे को तैसा' 'जैसे को तैसा' उठा लो डंडे! हां ठीक है, (पीछे से स्वर आता है कि बचा लोगे, जमानत करवा लोगे)। वह देख लेंगे और दूसरी बात यह है जब डंडे उठाएंगे डंडे तो जेल जाने की परवाह ना करो! महीना-दो महीने रह आओगे तो इतनी पढ़ाई हो जाएगी जो इन मीटिंग में नहीं होगी! अगर 2-4 महीने रह आओगे तो बड़े नेता अपने आप बन जाओगे! (हंसने की आवाजें आती हैं)। बड़े नेता अपने आप बन जाओगे चिंता मत करो, इतिहास में नाम अपने आप लिखा जाता है!' यह बयान अक्टूबर 2021 का है।
इससे पहले अगस्त 2021 में करनाल में किसानों पर हुए बर्बर लाठी चार्ज के ठीक पहले का एक वीडियो वायरल हुआ था जिसमें एसडीएम आयुष सिन्हा ने साफ तौर पर सिपाहियों से कहा था कि यह बहुत सिंपल और स्पष्ट है। कोई कहीं से हो, उसके आगे नहीं जाएगा। अगर जाता है तो लाठी से उसका सिर फोड़ देना। कोई निर्देश या डायरेक्शन की जरूरत नहीं है।उठा-उठा कर मारना। तब भी हरियाणा के मुख्यमंत्री पुलिस की बर्बर कार्रवाई और अधिकारी के निर्णय से सहमत नजर आए थे। उन्होंने कहा था- शब्दों का चयन ठीक नहीं था। हालांकि कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए सख्ती जरूरी थी।
इन बयानों के परिप्रेक्ष्य में ही आशीष मिश्रा या उस जैसे किसी युवक के हिंसक पागलपन को देखा जाना चाहिए। इस नौजवान के मन में इतना जहर भरा जा चुका है कि गुस्से, भय, नफरत और हिंसा के अतिरिक्त उसे और कुछ नहीं सूझता। उसके अपने क्षेत्र के परिचित लोग उसे शत्रु की भांति लगते हैं। वह सत्ता के संरक्षण को लेकर आश्वस्त है। शायद उसके मन में यह आशा भी हो कि वह नायक बन जाएगा और उसे पुरस्कृत किया जाएगा। इस घातक मनोदशा में वह जघन्यतम अपराध करने की ओर अग्रसर होता है। यह भी संभव है कि उसके मन में कोई पश्चाताप न हो। हो तो यह भी सकता है कि सोशल मीडिया में सक्रिय हिंसा और घृणा के पुजारी इस लड़के की कायरता को वीरता का दर्जा दें और अन्य नवयुवकों को इसके अनुकरण की सलाह दें। इस घटना के बाद पता नहीं एक पिता के तौर पर श्री अजय कुमार मिश्र अपने पुत्र के लिए कैसी राय रखेंगे? किंतु मुझे लगता है कि उन्हें चिंतित होना चाहिए। उनका लड़का जेहनी तौर पर बीमार है। उन्हें स्वयं पर लज्जित होना चाहिए। वे कैसा हिंसा प्रिय घृणा संचालित समाज बनाने में योगदान दे रहे हैं? आशीष के बर्ताव पर देश के हर माता-पिता को शर्मिंदा होना चाहिए; उन्हें भयभीत एवं फिक्रमंद होना चाहिए। यह उनके लिए सतर्क होने का समय है। यदि नफरत और बंटवारे की इस आंधी को न रोका गया तो कोई भी नहीं बचेगा। ऐसा बिलकुल नहीं है कि हिंसा की आग हिंसा प्रारंभ करने वाले को बख्श देगी। इस आग में सब झुलसेंगे - हम सब।
इस जघन्य वारदात की पटकथा तब से ही रची जाने लगी होगी जब किसानों को पाकिस्तान परस्त, खालिस्तानी, विलासी, आम टैक्स पेयर के पैसे से ऐश करने वाला सब्सिडीजीवी, अराजक, हिंसक एवं राजनीतिक दलों का पिट्ठू ठहराने वाली झूठ से भरी पहली जहरीली पोस्ट सोशल मीडिया में फैलाई गई होगी। यह पटकथा तब और पुख्ता हो गई होगी जब किसी वायरल पोस्ट के माध्यम से सरकार की गलत नीतियों के कारण बेरोजगारी और गरीबी की मार झेल रहे नौजवानों को यह विश्वास दिलाया गया होगा कि उनकी दुर्दशा के लिए अल्पसंख्यकों के बाद कोई जिम्मेदार है तो वह किसान ही हैं। इन किसानों को मार भगाना उनका राष्ट्रीय कर्त्तव्य है। इससे भी बहुत पहले जब पहली बार युवाओं की किसी हिंसक भीड़ ने किसी निर्दोष को अपना अपराधी चुनकर उसका अपराध तय किया होगा और फिर उसे मृत्यु दंड दिया होगा तब ऐसे निर्मम एवं अमानवीय कृत्य की पूर्व पीठिका तैयार हो गई होगी। उस समय हम सब चुप थे, हमने इन नफरत फैलाने वाली पोस्ट्स का आनंद लिया, प्रतिवाद नहीं किया। हम यह सोचकर खुश होते रहे कि हम हिंसा करने वालों में से एक हैं, इसका शिकार बनने वाले तो कोई और हैं। हम अपने बच्चों को हिंसक शैतानों का जॉम्बी बनते देखते रहे। अब भी हम आत्मघाती चुप्पी के शिकार हैं। गांधी के देश में अहिंसा को कमजोरी बताकर खारिज किया जा रहा है और हम तमाशबीन बने हुए हैं।
सत्ताएं असहमत स्वरों को कुचलने के लिए अनेक रणनीतियां अपनातीं हैं। इनमें से सर्वाधिक घातक है-राज्य पोषित हिंसा। कानूनी प्रावधानों के दुरुपयोग और पुलिसिया दमन के लिए राज्य को प्रत्यक्ष रूप से कटघरे में खड़ा किया जा सकता है, अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं और विश्व जनमत उस पर लोकतंत्र एवं मानवाधिकारों की रक्षा के लिए दबाव बना सकते हैं। किंतु राज्य पोषित हिंसा से स्वयं को अलग कर लेना राज्य के लिए बहुत आसान होता है। अब भी सरकार की यही रणनीति है। सरकार यह जाहिर करने का प्रयास करेगी कि वह तो असीम धैर्य से अराजक किसानों की हठधर्मिता को झेल रही थी किंतु जनता का धैर्य जवाब दे गया और उसने किसानों को सबक सिखाने का फैसला किया। इसके बाद किसानों पर हिंसक आक्रमण होंगे। कहीं न कहीं, कभी न कभी किसानों का संयम टूटेगा और हिंसा-प्रतिहिंसा का चक्र चल निकलेगा। फिर सरकार कानून व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर उतरेगी और किसानों की गिरफ्तारी एवं दमन की प्रक्रिया चल पड़ेगी। असहमति रखने वाले वर्ग को सरकार समर्थक मीडिया एवं सोशल मीडिया के माध्यम से राष्ट्रद्रोही सिद्ध करना और फिर सरकार के हिंसक समर्थकों को राष्ट्र भक्ति के नाम पर उन पर हिंसक आक्रमण की छूट देना- यह रणनीति सरकार को बड़ी आकर्षक एवं कारगर लग सकती है लेकिन समाज को अलग अलग परस्पर शत्रु समूहों में बांटकर हिंसा को बढ़ावा देने के घातक दुष्परिणाम निकल सकते हैं और सामाजिक विघटन तथा गृह युद्ध के हालात बन सकते हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसी माह दिए गए एक साक्षात्कार में यह स्पष्ट कर दिया है कि कृषि कानूनों को वापस लेने का उनका कोई इरादा नहीं है। उन्होंने हमेशा ही किसान आंदोलन को विपक्षी दलों के षड्यंत्र के रूप में चित्रित किया है। इस बार भी कृषि कानूनों पर विपक्ष के रवैये को 'बौद्धिक बेईमानी' और 'राजनीतिक छल' करार देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि नागरिकों को लाभ पहुंचाने के लिए कड़े और बड़े फैसले लेने की आवश्यकता है। ये फैसले दशकों पहले ही लिए जाने चाहिए थे। प्रधानमंत्री ने कहा कि उनकी सरकार प्रारंभ से ही कह रही है कि वह विरोध करने वाले कृषि निकायों के साथ बैठकर उन मुद्दों पर चर्चा करने के लिए तैयार है, जिन पर असहमति है। उन्होंने कहा कि इस संबंध में कई बैठकें भी हुई हैं, लेकिन अब तक किसी ने भी किसी विशेष बिंदु पर असहमति नहीं जताई है कि हमें इसे परिवर्तित करना चाहिए।
प्रधानमंत्रीजी भी अनेक बार उसी विभाजनकारी नैरेटिव का प्रयोग किसान आंदोलन को महत्वहीन एवं अनुचित बताने के लिए कर चुके हैं जिसे उनके समर्थकों ने सोशल मीडिया पर गढ़ा है। अपने भाषणों में इन कृषि कानूनों को छोटे किसानों हेतु लाभकारी बताकर वे यह संकेत देते हैं कि आंदोलन में केवल मुट्ठी भर बड़े किसान शामिल हैं। कभी वे आन्दोलनजीवी जैसी अभिव्यक्ति का उपयोग कर यह दर्शाते हैं कि समाजवादी और वामपंथी विचारधारा से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता इस आंदोलन के लिए जिम्मेदार हैं। कभी वे कांग्रेस पर हमलावर होते हैं कि उसे कृषि कानूनों के विरोध का कोई अधिकार नहीं है। अभी भी वर्तमान साक्षात्कार में जब वे कहते हैं कि नागरिकों को लाभ पहुंचाने के लिए बड़े और कड़े फैसले लेने पड़ते हैं तो इसमें यह अर्थ निहित होता है कि आंदोलनरत किसान देश के नागरिकों को मिलने वाले लाभों के मार्ग में रोड़े अटका रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रधानमंत्री जी इन बैठकों की कार्रवाई से भी अनभिज्ञ हैं अन्यथा उन्हें किसान नेताओं द्वारा कंडिकावार दी गई आपत्तियों का ज्ञान होता। कोरोना काल की अफरातफरी में किसानों से बिना पूछे कॉरपोरेट घरानों को लाभ पहुंचाने वाले, किसानों पर जबरन थोपे गए यह बिल किसानों को अस्वीकार्य हैं, कम से कम प्रधानमंत्री जी को इतना तो ज्ञात होगा। यदि आम जनता से बिना संवाद किए उस पर अपना निर्णय थोपना, जनमत की अनदेखी करना, जन असंतोष को षड्यंत्र समझना तथा हिंसा एवं विभाजन को समर्थन देने वाले अपने अधीनस्थों को संरक्षण देना मजबूत नेता के लक्षण हैं तो आदरणीय प्रधानमंत्री जी निश्चित ही इस कसौटी पर खरे उतरते हैं।
आदरणीय प्रधानमंत्रीजी की इस स्पष्टोक्ति के बाद कि कृषि कानून वापस नहीं होंगे उनके अंध समर्थकों को यह अपना नैतिक उत्तरदायित्व लग रहा है कि वे किसानों को जबरन खदेड़कर आंदोलन समाप्त कर दें। आदरणीय प्रधानमंत्री जी को यह स्पष्ट घोषणा करनी चाहिए कि आंदोलित किसानों से भले ही उनकी असहमति है किंतु वे इन किसानों के विरोध दर्ज करने के अधिकार का सम्मान करते हैं और वे इन पर होने वाली किसी भी प्रकार की दमनात्मक एवं हिंसक कार्रवाई के साथ नहीं हैं।
आने वाला समय किसान आंदोलन के नेतृत्व के लिए कठिन परीक्षा का है। उकसाने वाली हर कार्रवाई के बाद भी उसे आंदोलन को अहिंसक बनाए रखना होगा। किसान नेताओं को जनता को यह स्पष्ट संदेश देना होगा कि वे हर प्रकार की हिंसा के विरुद्ध हैं।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
ताइवान की राष्ट्रपति साई इंग-वेन ने चीन की बढ़ती आक्रामकता पर अपने लोकतंत्र का बचाव करते हुए कहा है कि अगर चीन ने ताइवान को अपने नियंत्रण में ले लिया तो इसके विनाशकारी परिणाम होंगे।
साई इंग-वेन ने फॉरेन अफेयर्स में एक लेख लिखा है, उसी में ये बात कही है। हाल ही में चीन के 38 लड़ाकू विमान ताइवान के हवाई क्षेत्र में अतिक्रमण करते हुए घुसे थे। मंगलवार को ताइवान के प्रधानमंत्री सु सेंग-चांग ने कहा था कि चीन की यह आक्रामकता क्षेत्रीय शांति के लिए खतरा है और ताइवान को सतर्क रहने की जरूरत है।
चीन की सेना पीपल्स लिबरेशन आर्मी यानी पीएलए ने अक्टूबर महीने के पहले चार दिनों में 150 के करीब प्लेन ताइवान के हवाई क्षेत्र में भेजे थे। चीन की मीडिया में इसे शक्ति के प्रदर्शन के तौर पर देखा गया है, लेकिन दुनिया भर की कई सरकारों ने इसे भय दिखाने और चीन की आक्रामकता के तौर पर लिया है।
फ़ॉरेन अफेयर्स में साई इंग-वेन ने लिखा है, ‘हम शांति चाहते हैं लेकिन हमारे लोकतंत्र और जीवन शैली को ख़तरा पहुँचा तो ताइवान आत्मरक्षा के लिए जो भी जरूरी समझेगा, करने के लिए तैयार है।’
ताइवान ने दुनिया भर के देशों से आग्रह किया है कि चीन के व्यापक खतरे को समझना होगा। ताइवान की राष्ट्रपति साई इंग-वेन ने कहा, ‘दुनिया को समझने की जरूरत है कि ताइवान अगर चीन के हाथ में चला गया तो क्षेत्रीय शांति के लिए यह विनाशकारी होगा। यह लोकतांत्रिक साझेदारी के लिए भी विध्वंसकारी साबित होगा।’
वहीं ताइवान के रक्षा मंत्री चिउ कुओ-चेंग ने कहा है कि पिछले 40 सालों में चीन और ताइवान का सैन्य संबंध सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है। ताइवान के रक्षा मंत्री ने कहा है कि चीन 2025 तक ताइवान पर हमला कर सकता है।
चिउ कुओ-चेंग ने कहा, ‘चीन के पास क्षमता है लेकिन युद्ध इतना आसान नहीं होगा। कई अन्य चीजों पर भी विचार करना होगा।’
चीन का दावा और ताइवान का पक्ष
चीन दावा करता है कि ताइवान उसका एक प्रांत है और उसे अपने नियंत्रण में लेने के लिए प्रतिबद्ध है। चीन का कहना है कि अगर खुद में मिलाने के लिए ताकत का भी इस्तेमाल करना पड़ा तो किया जाएगा। चीन ताइवान में राष्ट्रपति साई इंग-वेन की सरकार को अलगाववादी मानता है। लेकिन साई इंग-वेन कहती हैं कि ताइवान एक संप्रभु देश है और उसे अलग से स्वतंत्र घोषित करने की ज़रूरत नहीं है। उनका ये भी कहना है कि वो टकराव नहीं चाहती हैं।
साई इंग-वेन ने अपने लेख में लिखा है, ‘पीएलए की दैनिक घुसपैठ के बावजूद चीन के साथ हमारा संबंध बदला नहीं है। ताइवान दबाव में झुकेगा नहीं। कोई भी दु:साहस हमें डिगा नहीं सकता है। उसे अंतरराष्ट्रीय समर्थन मिलता है, तब भी ऐसा नहीं होगा।’
कुछ देशों ने ताइवान को संप्रभु राष्ट्र के तौर पर मान्यता दे रखी है। कई देशों के साथ ताइवान के अनाधिकारिक साझेदारी और समझौते हैं और अंतराष्ट्रीय मंचों पर वो नॉन स्टेट पक्ष की तरह रहता है।
साई ने लिखा है कि दुनिया भर में ताइवान की साझेदारी बढ़ रही है। उन्होंने कहा कि ताइवान अहम लोकतंत्र, कारोबारी साझेदार और वैश्विक सप्लायर है। उन्होंने कहा कि ताइवान उत्तरी जापान से बोर्नियो द्वीप तक फैला एक अहम द्वीप समूह है।
‘अंतरराष्ट्रीय अस्थिरता का ख़तरा’
साई ने कहा, ‘अगर जबरन इस लाइन को तोड़ा गया तो इसका नतीजा होगा कि अंतरराष्ट्रीय व्यापार तबाह होगा और पूरा पश्चिमी प्रशांत अस्थिर हो जाएगा। ताइवान अगर अपनी रक्षा करने में नाकाम रहता है तो यह केवल ताइवान के लोगों के लिए विनाशकारी नहीं होगा बल्कि इससे सुरक्षा की वो दीवार गिर जाएगी जो सात दशकों से शांति और असाधारण विकास के लिए खड़ी थी।’
विश्लेषकों में बहस है कि यह ख़तरा कितना वाजिब है, लेकिन इसी हफ्ते टकराव बढ़ चुका है और इसने कई देशों के कान खड़े कर दिए हैं।
मंगलवार को जापान के विदेश मंत्री तोशिमित्शु मोटेगी ने कहा था, ‘हम उम्मीद करते हैं कि चीन और ताइवान विवाद को शांतिपूर्ण तरीके से सुलझा लेंगे। हमारी नजर स्थिति पर बनी हुई है और हम अपनी स्थिति का मूल्यांकन कर रहे हैं।’
इसके बाद अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया की तरफ से भी इस पर टिप्पणी आई। दोनों देशों ने कहा कि चीन तनाव कम करे और बल का प्रयोग ना करे। व्हाइट हाउस ने कहा है कि चीन की आक्रामकता के बारे में राजनयिक स्तर पर भी बात हुई है। ताइवान के विदेश मंत्री ने मंगलवार को घोषणा की है कि फ्रांस के सीनेटरों का एक समूह इसी हफ़्ते ताइवान पहुँच रहा है।
ताइवान को लगता है कि मजबूत अंतरराष्ट्रीय सहयोग से उसे चीन को रोकने में मदद मिलेगी। ताइवान अमेरिका के ज़रिए अपनी सुरक्षा क्षमता भी बढ़ाने की कोशिश कर रहा है। साई ने कहा है, ‘इन सभी कदमों से ताइवान खुद को अधिकतम आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश कर रहा है। हमारी तैयारी इस बात को लेकर भी है कि हम अपना बोझ खुद उठा सकें और हमें किसी की मदद की ज़रूरत ना पड़े।’
ताइवान बनाम चीन
विश्व की एक महाशक्ति चीन के सामने ताइवान एक छोटा-सा द्वीप है जो क्यूबा जितना बड़ा भी नहीं है। ताइवान, पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना से महज 180 किलोमीटर दूर है। ताइवान की भाषा और पूर्वज चीनी ही हैं लेकिन वहाँ अलग राजनीतिक व्यवस्था है और यही चीन और ताइवान के बीच दुश्मनी की वजह भी है।
ताइवान की खाड़ी के एक तरफ 130 करोड़ की आबादी वाला चीन है, जहाँ एकदलीय राजव्यवस्था है जबकि दूसरी तरफ ताइवान है, जहाँ दो करोड़ 30 लाख लोग लोकतांत्रिक व्यवस्था में रहते हैं।
चीन और ताइवान के बीच 1949 से विवाद चला आ रहा है, जिसकी वजह से ताइवान की पहुँच अंतरराष्ट्रीय संगठनों तक नहीं है और उसे सीमित अंतरराष्ट्रीय मान्यता ही मिली हुई है। दुनिया के सिफऱ् 15 देश ही ताइवान को स्वतंत्र राष्ट्र मानते हैं।
वहीं, चीन इसे अपने से अलग हुआ हिस्सा और एक विद्रोही प्रांत मानता है। साल 2005 में चीन ने अलगाववादी विरोधी कानून पारित किया था जो चीन को ताइवान को बलपूर्वक मिला लेने का अधिकार देता है। उसके बाद से अगर ताइवान अपने आप को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित करता है तो चीन की सेना उस पर हमला कर सकती है।
वर्ष 1642 से 1661 तक ताइवान नीदरलैंड्स की कॉलोनी था। उसके बाद चीन का चिंग राजवंश वर्ष 1683 से 1895 तक ताइवान पर शासन करता रहा। लेकिन साल 1895 में जापान के हाथों चीन की हार के बाद ताइवान, जापान के हिस्से में आ गया।
दूसरे विश्व युद्ध में जापान की हार के बाद अमेरिका और ब्रिटेन ने तय किया कि ताइवान को उसके सहयोगी और चीन के बड़े राजनेता और मिलिट्री कमांडर च्यांग काई शेक को सौंप देना चाहिए।
च्यांग की पार्टी का उस वक़्त चीन के बड़े हिस्से पर नियंत्रण था। लेकिन कुछ सालों बाद च्यांग काई शेक की सेनाओं को कम्युनिस्ट सेना से हार का सामना करना पड़ा। तब च्यांग और उनके सहयोगी चीन से भागकर ताइवान चले आए और कई वर्षों तक 15 लाख की आबादी वाले ताइवान पर उनका प्रभुत्व रहा।
कई साल तक चीन और ताइवान के बीच बेहद कड़वे संबंध होने के बाद साल 1980 के दशक में दोनों के रिश्ते बेहतर होने शुरू हुए। तब चीन ने ‘वन कंट्री टू सिस्टम’ के तहत ताइवान के सामने प्रस्ताव रखा कि अगर वो अपने आपको चीन का हिस्सा मान लेता है तो उसे स्वायत्तता प्रदान कर दी जाएगी। ताइवान ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था।
वन चाइना पॉलिसी और ताइवान
1. वन चाइना पॉलिसी का मतलब उस नीति से है, जिसके मुताबिक ‘चीन’ नाम का एक ही राष्ट्र है और ताइवान अलग देश नहीं, बल्कि उसका प्रांत है।
2. पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना (पीआरसी), जिसे आम तौर पर चीन कहा जाता है, वो साल 1949 में बना था। इसके तहत मेनलैंड चीन और हांगकांग-मकाऊ जैसे दो विशेष रूप से प्रशासित क्षेत्र आते हैं।
3. दूसरी तरफ रिपब्लिक ऑफ चाइना (आरओसी) है, जिसका साल 1911 से 1949 के बीच चीन पर कब्जा था, लेकिन अब उसके पास ताइवान और कुछ द्वीप समूह हैं। इसे आम तौर पर ताइवान कहा जाता है।
4. वन चाइना पॉलिसी का मतलब ये है कि दुनिया के जो देश पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (चीन) के साथ कूटनीतिक रिश्ते चाहते हैं, उन्हें रिपब्लिक ऑफ चाइना (ताइवान) से सारे आधिकारिक रिश्ते तोडऩे होंगे।
5. कूटनीतिक जगत में यही माना जाता है कि चीन एक है और ताइवान उसका हिस्सा है। इस नीति के तहत अमरीका, ताइवान के बजाय चीन से आधिकारिक रिश्ते रखता है। लेकिन ताइवान से उसके अनाधिकारिक, पर मजबूत ताल्लुक हैं।
6. ताइवान ओलंपिक खेल जैसे अंतरराष्ट्रीय समारोह में ‘चीन’ का नाम इस्तेमाल नहीं कर सकता। इसकी वजह वो लंबे समय से ऐसे मंचों पर ‘चाइनीज़ ताइपे’ के नाम के साथ शिरकत करता है।
7. इस मुद्दे पर चीन का रुख़ स्वीकार करना चीन-अमरीका संबंधों का आधार ही नहीं, बल्कि चीन की तरफ़ से नीति-निर्माण और कूटनीति के लिए भी अहम है।
8. अफ्रीका और कैरेबियाई क्षेत्र के कई छोटे देश अतीत में वित्तीय सहयोग के चलते चीन और ताइवान, दोनों से बारी-बारी रिश्ते बना और तोड़ चुके हैं।
9. इस नीति से चीन को फायदा हुआ और ताइवान कूटनीतिक स्तर पर अलग-थलग है। दुनिया के ज्यादातर देश और संयुक्त राष्ट्र उसे स्वतंत्र देश नहीं मानते। लेकिन इसके बावजूद वो पूरी तरह अलग नहीं है।
10. जाहिर है कि यथास्थिति में चीन ज्यादा ताकतवर है और इस वजह से कूटनीतिक रिश्तों के लिहाज से ताइवान बैकफुट पर है। ये देखना होगा कि ट्रंप का हालिया बयान क्या किसी बदलाव की आहट दे रहा है। (bbc.com/hindi)
कॉपी-रजनीश कुमार
-दिनेश श्रीनेत
मुझे हिंदी पट्टी के ऐसे बौद्धिक लोग नापसंद हैं या कम से कम उनकी यह बात नापसंद है- जब वे बिना किसी परिप्रेक्ष्य के स्थानीय बोली, अपने इलाके, क्षेत्रीय संस्कृति, पूर्वांचली, पहाड़ी या बिहारी संस्कृति का गुणगान करने में लग जाते हैं। मुझे हमेशा लगता है कि यह न सिर्फ अपरोक्ष रूप से क्षेत्रवाद को बढ़ावा देता है बल्कि लोगों के बीच फर्क की बारीक सी रेखा खींचने में मदद करता है। वैसे भी अपनी ही चीजों पर गर्व करते रहने को बहुत विकसित मानसिकता नहीं माना जा सकता।
और कभी किसी ने यह नहीं सोचा कि गर्व करने के लिए हिंदी पट्टी के पास रह क्या गया है? घिसे-पिटे रीति-रिवाज, खत्म होती भाषा या अप्रासंगिक हो चुके रहन-सहन के तरीके...बस। जो लोग अपनी लोक-संस्कृति पर गर्व जताते हैं, उनके यहां भी शादियों में डीजे पर पंजाबी या हरियाणवी गीत ही बजते हैं। हिंदी पट्टी के ये बुद्धिजीवी अपनी लोक संस्कृति की बात तो करते हैं मगर तेजी से बढ़ती अपसंस्कृति पर चुप्पी साध जाते हैं। मंदिरों में होने वाले भजन तो कब के नरेंद्र चंचल जैसे लोगों की वजह से फिल्मी गीतों की भेंट चढ़ गए। किसी जमाने में भोजपुरी में अश्लील गीतों को स्थापित करने वाले बालेश्वर यादव को प्रदेश सरकार सम्मान देती है। भोजपुरी सिनेमा की वजह से आज पूर्वांचल की गलियों, आटो, बसों और शादियों में घनघोर अश्लील गाने बजते हैं और उसी पूर्वांचल की संस्कृति पर गर्व करने वालों के परिवारों की स्त्रियां हवा में तैरती अश्लीलता के बीच खुद को समेटे दुनिया जहान के काम पर निकलती हैं।
जिस पूर्वांचल को मैं जानता हूँ, वहां के गांवों, कसबों, शहरों का समाज घनघोर जातिवादी और पितृसत्तात्मक नजर आता है। मैं पाता हूँ कि इन इलाकों में बसने वाले ज्यादातर लोग सभ्य नागरिक होने की चेतना से कोसों दूर हैं। मेलों और शादियों में मर्दों के मनोरंजन के लिए छोटे बच्चों की मौजदगी में अश्लील नाच होते हैं। बंदूकों और बड़ी गाडिय़ों से शक्ति का प्रदर्शन किया जाता है। अधिकतर लोग कर्मकांडी और पाखंडी हैं। औरतों के प्रति सामंती दृष्टिकोण है। सरकारी दफ्तरों और विश्वविद्यालयों में एक-दूसरे की जाति देखकर बात की जाती है। घरों में साल में कई बार लाउडस्पीकर पर बेसुरी आवाजों में कीर्तन होते हैं और लोग अपने बेटों के विवाह में ज्यादा से ज्यादा दहेज बटोरने में लगे रहते हैं। क्या इन्हीं सब पर हम गर्व करना चाहते हैं?
बौद्धिक लोग जब क्षेत्रीय संस्कृति पर अभिमान की बात करते हैं तो वह किस समाज के बारे में बात करना चाहते हैं? उनका मंतव्य क्या है? कभी इस पर चर्चा नहीं होती। यदि हम दूसरी संस्कृति को अपने जीवन में जगह नहीं दे पा रहे हैं तो इसे हमारी सांस्कृतिक चेतना की विपन्नता ही कहा जाएगा। दुनिया में संपर्क के साधन जिस तेजी से बढ़ रहे हैं हम जिस तरह से भिन्न संस्कृति के लोगों से मिलते हैं, उनके साथ संवाद करते हैं, क्या खुद में सिमटे रहने को किसी भी तरह से उचित ठहराया जा सकता है? बंगाल ने ब्रिटिश संस्कृति से तालमेल बिठाया और उनके यहां अंतरराष्ट्रीय स्तर की प्रतिभाएं सामने आईं। क्यों एक उत्तर प्रदेश का व्यक्ति राजस्थान के मांगनिहार ब्रदर्स के गीतों को नहीं सराह सकता? या फिर बिहार के लोग पहाड़ी लोक संगीत क्यों नहीं सुन सकते?
जाहिर है यह निजी पसंद नापसंद का मामला है, मगर हमें अपने दरवाजे कम से कम खोलकर रखने चाहिए। हिंदी पट्टी के लोगों को अपनी संस्कृति पर झूठा
गर्व करने की बजाय दूसरों की संस्कृति को सम्मान देने का चलन विकसित करना चाहिए। जब दूसरे की संस्कृति को सम्मान देंगे तो अपनी संस्कृति को सम्मान देना खुद-ब-खुद आ जाएगा। मराठी या बंगाली समाज के मुकाबले हिंदी क्षेत्रों में नृत्य, संगीत या नाटक के प्रति हिकारत का भाव है। बचपन में मैं देखता था कि गोरखपुर के लोग बंगाली या ईसाई लोगों का मजाक उड़ाया करते थे और उनके प्रति असहयोग की भावना रखते थे। जबकि दोनों ही समुदायों का इस शहर के सांस्कृतिक विकास में गहरा योगदान रहा है।
यह अच्छा है कि उत्तर भारत की नई पीढ़ी अपनी क्षेत्रीयता के झूठे अहंकार और जकड़बंदी से दूर है। ज्यादातर मिडिल क्लास फैमिली के बच्चे अपना शहर छोडक़र पुणे, चेन्नई, मुंबई, पढऩे जा रहे हैं और वहीं पर नौकरियां कर रहे हैं। जिस मल्टीनेशनल कंपनी में वे काम करते हैं वहां बिहार के लडक़े के बगल की सीट पर महाराष्ट्र की लडक़ी और उसके बगल में आंध्र का लडक़ा और उसके बगल में बंगाली या नार्थ ईस्ट की लडक़ी बैठे होते हैं। जब उनके बीच संवाद होता है तो यह समझ में आता है कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि दोनों की भाषा और खान-पान अलग है, अंतत: दोनों को ही नेटफ्लिक्स पर ‘मनी हेस्ट’ सिरीज पसंद है। दोनों एक जैसे चुटकुलों पर हँस सकते हैं। दोनों एक-दूसरे के खाने का स्वाद ले सकते हैं।
नई संस्कृति में इस उदारता के लिए जगह बनानी होगी। ऐसा क्यों है कि हिंदी पट्टी के लोग अब तक देश के दूसरे राज्यों के मुकाबले सम्मानजनक स्थिति नहीं हासिल कर सके हैं? कहीं न कहीं उनका अपने पुराने तौर-तरीके से चिपके रहना है। वे अपने रहन-सहन, आचार-व्यवहार और सोच में प्रगतिशील नहीं हैं। नई चीजों और नए लोगों के प्रति संदेह रखते हैं। वे अवसरवादी हैं। और हमारे बुद्धिजीवी किसी गोष्ठी में कहते पाए जाते हैं, मुझे गर्व है कि मैं फलां जगह आता हूँ। माफ कीजिए, मुझे गर्व करने लायक कोई बात नजऱ नहीं आती। यदि गर्व कहना है तो पहले अपने समाज को इस लायक बनाइए कि उसकी सराहना खुद घूम-घूमकर न करनी पड़े। साथ ही जिन्हें हम विचारक, चिंतक मानते हैं, जिनकी बातों से सोसाइटी में ओपिनियन बनती है, उन्हें अपने इस ‘क्षेत्रवाद’ से बाहर आना होगा।
पाश ने लिखा था-
जब भी कोई समूचे भारत की
‘राष्ट्रीय एकता’ की बात करता है
तो मेरा दिल चाहता है —
उसकी टोपी हवा में उछाल दूँ
मैं यहां पर ‘समूचे भारत की राष्ट्रीय एकता’ की जगह ‘हमारे क्षेत्र की संस्कृति’ लिखना चाहूँगा। बाकी टोपियां उछालनी जरूरी हैं...
(फेसबुक से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
काला धन छिपाने और टैक्स चोरी करने के कई तरीके हैं लेकिन जब आपके हाथों अरबों-खरबों आ जाएं तो आप कुछ ऐसे तरीके अपनाते हैं कि आप सरकार की पकड़ के बिल्कुल बाहर हो जाएं। इनमें आजकल सबसे ज्यादा पसंदीदा तरीका यह है कि आप अपना सारा पैसा कुछ ऐसे छोटे-मोटे देशों जैसे पनामा, बरमूदा, लग्जमबर्ग और स्विटरजरलैंड आदि की बैंकों में छिपाकर रख दें। ये बैंक गोपनीयता बनाए रखते हैं और बहुत कम शुल्क लेते हैं। 2015-16 में जब 'पनामा पेपर्सÓ ने पोल खोली थी तो दुनिया में उससे काफी तहलका मचा था। कुछ भारतीयों के नाम भी उसमें थे। भारत सरकार ने उन्हीं दिनों इस तरह के काले धन को पकडऩे और दंडित करने का कठोर कानून भी बनाया था लेकिन अभी 'पेंडोरा पेपर्सÓ के भांडाफोड़ ने सारी दुनिया में तहलका मचा दिया है। कई देशों के राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों और बादशाहों के नाम भी उजागर हो रहे हैं।
खोजी पत्रकारों के एक समूह ने 14 कंपनियों के लगभग सवा करोड़ दस्तावेजों में से खोजबीन करके 2900 खातों को पकड़ा है, जिनमें 130 बिलियन डॉलर जमा हैं। इनमें 300 भारतीय और 700 पाकिस्तानी खातेदारों के नाम भी हैं। इन लोगों में ज्यादातर उद्योगपति और व्यापारी हैं लेकिन नेताओं, अधिकारियों, अपराधियों और तस्करों के नामों की भी भरमार है। उद्योगपति और व्यापारी तो प्राय: अपनी मेहनत का पैसा वहाँ छिपाते हैं, सिर्फ टैक्स बचाने के लिए लेकिन नेताओं, अफसरों और तस्करों का पैसा तो सर्वथा अनैतिक और अवैधानिक कामों से पैदा होता है। लेकिन उनके इस अपराध का फायदा सभी उठाना चाहते हैं। सबको पता है कि जहां नेता और अफसर फंसते हैं, वहां झट से पर्दा डाल दिया जाता है, क्योंकि हर पार्टी के नेता यही धंधा करते हैं। सरकार किसी भी पार्टी की हो, वह नेताओं पर हाथ कैसे डाल सकती है?
इसीलिए भारत के 300 खातेदारों के नाम अभी तक बताने में सरकार हिचकिचा रही है। सरकार चाहे तो उसका रवैया दो-टूक हो सकता है। जिन लोगों ने अपना पैसा विदेशी बैंकों में जमा करते वक़्त कानून का पालन किया है, उन्हें किस बात का डर है? पाकिस्तान के कई मंत्रियों और अफसरों के नाम उजागर हो गए हैं और वे अपनी सफाइयाँ पेश कर रहे हैं। यहां असली सवाल यह है कि सरकार आयकर-कानून ऐसे क्यों नहीं बनाती कि लोग कम से कम कर-चोरी करें ? मैं तो सोचता हूं कि सरकार को आमदनी के बजाय खर्च पर कर लगाना चाहिए। यदि हर आदमी की आय करमुक्त हो जाए तो जो भी पैसा बचेगा, वह किसी अच्छे काम में लगेगा। यदि खर्च को करयुक्त बनाया जाए तो देश में जबर्दस्त बचत का अभियान चल पड़ेगा। देश के विकास के लिए पूंजी ही पूंजी उपलब्ध हो सकेगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ राजू पाण्डेय
किसान आंदोलन एक वर्ष पूर्ण कर रहा है। हर डिबेट में आजकल प्रायः एक सवाल परंपरागत सरकार समर्थक मीडिया द्वारा घुमा फिरा कर पूछा ही जाता है- इस किसान आंदोलन का हासिल क्या है? सरकार तो स्पष्ट कर चुकी है कि यह तीन कृषि कानून वापस नहीं लिए जाएंगे। यदि किसानों के कुछ सुझाव हैं तो उन पर सकारात्मक चर्चा हो सकती है। फिर भी किसानों द्वारा आंदोलन जारी रखना क्या हठधर्मिता नहीं है? क्या किसान आंदोलन नेतृत्व के अहंकार की लड़ाई बन गया है?
यह प्रश्न बहुत तार्किक लगते हैं और लगता है कि इनके उत्तर आंदोलित किसानों के पास नहीं होंगे किंतु ऐसा नहीं है। किसान आंदोलन का जारी रहना और उत्तरोत्तर व्यापक तथा मजबूत होना ही इस आंदोलन का हासिल है। किसान आंदोलन का हासिल यह भी है कि इसने सरकार को बेनकाब कर दिया है। यह स्पष्ट हो गया है कि सरकार खेती को कॉरपोरेट कंपनियों के हवाले करना चाहती है। धीरे धीरे यह भी उजागर हो रहा है कि सरकार कॉरपोरेट घरानों के चयन में भी पक्षपात कर रही है और कुछ पसंदीदा मित्रों के लाभ के लिए यह कृषि कानून गढ़े गए हैं। सरकार कांट्रैक्ट फॉर्मिंग की ओर अग्रसर है।
सरकार न केवल खेती-किसानी अपितु देश की प्रकृति में ही परिवर्तन लाना चाहती है। भारत गांवों में बसता है और भारत कृषि प्रधान देश है जैसे कथन अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं को नापसंद रहे हैं और भूमि स्वामी किसानों को शहरी मजदूरों में तबदील करने विषयक आदेशात्मक दिशा निर्देश उनके द्वारा वर्षों से दिए जाते रहे हैं। कृषि की रोजगारमूलक प्रकृति को बदल कर मुनाफा केंद्रित बनाने की कोशिश की जा रही है जिसमें मानव संसाधन की भूमिका सीमित होगी। देश की तासीर को बदलने के इस अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र पर किसान आंदोलन के कारण कम से कम चर्चा तो हो रही है।
किसान आंदोलन का एक हासिल यह भी है कि इसने सत्ता और कॉरपोरेट मीडिया के चरित्र,उसकी प्राथमिकताओं एवं रणनीतियों को आम लोगों के सम्मुख उजागर किया है। हमारी सरकारें जन आंदोलनों से निपटने के लिए उन्हीं रणनीतियों का सहारा लेती दिख रही हैं जो गुलाम भारत के अंग्रेज शासकों द्वारा अपनाई जाती थीं। सरकार समर्थकों द्वारा किसानों को पाकिस्तान परस्त,खालिस्तानी, राष्ट्र विरोधी, अराजक, विलासी आदि की संज्ञाएं दी जाती रही हैं। संदेह एवं अविश्वास पैदा करना, फूट डालना तथा हिंसक क्रिया-प्रतिक्रिया के दुष्चक्र को बढ़ावा देना उस विचारधारा की विशेषताएं हैं जो सत्ताधारी दल के शीर्ष नेतृत्व को पोषण देती है। यही कारण है कि किसानों के मध्य आपस में फूट डालने तथा किसानों को आम जनता से अलग दिखाने की कुछ बहुत हास्यास्पद कोशिशें की गई हैं। अनुशासित टैक्स पेयर विरुद्ध सब्सिडी पर पलने वाले अराजक किसान, अमीर और बड़े किसान विरुद्ध गरीब और छोटे किसान, हरियाणा-पंजाब के समृद्ध किसान विरुद्ध शेष भारत के पिछड़े किसान कुछ ऐसी आधारहीन तुलनाएं हैं जो बचकानी होते हुए भी व्हाट्सएप विश्व विद्यालय के उच्च मध्यमवर्गीय छात्रों को रुचिकर लगती हैं। घृणा और हिंसा का यह जहर फैलने लगा है। लखीमपुर खीरी में एक केंद्रीय मंत्री के बेटे द्वारा चार प्रदर्शनकारी किसानों किसानों को अपनी गाड़ी से कुचलने की घटना यह बताती है कि हम एक जेहनी तौर पर बीमारी पीढ़ी तैयार कर रहे हैं।
हमने सरकार समर्थक मीडिया को किसानों पर हमलावर होते और छिद्रान्वेषण करते देखा है। अनेक बार तो कॉरपोरेट मालिकों द्वारा वित्त पोषित समाचार चैनलों के संवाददाता और एंकर पुरस्कार के लोभ में दुस्साहसिक षड्यंत्र रचने वाले महत्वाकांक्षी गुप्तचरों की भांति लगते हैं। किसान आंदोलन ने वैकल्पिक मीडिया के महत्व को उजागर किया है और अनेक साहसी पत्रकारों की कवरेज को देश की जनता ने बहुत ध्यान से देखा है।
किसान आंदोलन की एक उपलब्धि यह भी है कि इसने महात्मा गांधी की अहिंसक प्रतिरोध की युक्ति की प्रासंगिकता, शक्ति एवं महत्व को रेखांकित किया है। यदि आंदोलन इतनी लंबी अवधि तक चलकर सशक्त एवं विस्तृत हुआ है तो इसके पीछे इसका अहिंसक स्वरूप एक प्रमुख कारण है।
हम जैसे बहुत सारे शुद्धतावादी यह मानते हैं कि किसानों को राजनीतिक दलों से दूरी बनाकर रखनी चाहिए और उन्हें चुनावी राजनीति से स्वयं को अलग रखना चाहिए। किंतु किसान आंदोलन के शीर्ष नेतृत्व का यह विश्वास है कि प्रजातांत्रिक देश में चुनी हुई सरकारें नीति निर्धारण एवं क्रियान्वयन का कार्य करती हैं इसलिए चुनावों में जनमत को प्रभावित किए बिना अपने लक्ष्य की प्राप्ति असंभव है, यही कारण है कि उन्होंने कुछ समय पूर्व हुए चार राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा को वोट न देने की जनता से अपील की और आगे भी उनकी यही रणनीति दिख रही है।
सरकार किसान नेताओं पर विपक्षी दलों के एजेंट के रूप में कार्य करने का आरोप लगाती रही है। विपक्षी दलों द्वारा किसानों को दिए जा रहे समर्थन में उनकी राजनीतिक मजबूरियों का योगदान अधिक है। यह समझना कि भारत के दरवाजे उदारीकरण एवं वैश्वीकरण हेतु खोलने वाली कांग्रेस तथा विकास के प्रचलित मॉडल के साथ कदमताल करने को अपनी प्रगतिशीलता समझने वाले क्षेत्रीय दलों का हृदय परिवर्तन हो गया है, भोली आशावादिता होगी। आज कांग्रेस समेत सारे विपक्षी दल जमीनी संघर्ष से कतराने की कमजोरी के शिकार हैं। जनांदोलन खड़ा करने की न तो इनमें इच्छा शक्ति है न ही साहस। इनके लिए किसान आंदोलन एक वरदान की तरह है। इनके लिए सारा परिश्रम कोई और कर रहा है, इन्हें बस चुनावों के पहले चंद शतरंजी चालें चलकर जन असन्तोष को अपने पक्ष में मतों में परिवर्तित करना है।
यही वह कठिन मोड़ है जहाँ पर किसान नेताओं के चातुर्य एवं उनकी भविष्यदृष्टि की परीक्षा होगी। और हाँ, यहीं उनकी नीयत भी परखी जाएगी। हो सकता है कि आने वाले समय में होने वाले उत्तरप्रदेश आदि राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा अच्छा प्रदर्शन न कर पाए और वह संघ समर्थित किसान संगठनों के माध्यम से किसी सम्मानजनक समझौते की कोशिश करे। यह भी संभव है विपक्षी दल अपनी हालिया चुनावी सफलताओं से उत्साहित होकर आगामी लोकसभा चुनावों में किसानों से संबंधित कुछ आकर्षक घोषणाएं करें। यह भी संभव है कि राजनीतिक दलों द्वारा किसान प्रधानमंत्री का विचार विमर्श में डाला जाए और इसके लिए संयुक्त किसान मोर्चा के कद्दावर नेताओं को अपने दल की ओर आकर्षित कर महत्वाकांक्षा की विनाशक दौड़ प्रारंभ की जाए।
किसान आंदोलन धीरे धीरे उन दार्शनिक प्रश्नों का प्रतिनिधित्व करने लगा है जिन पर चर्चा करना भी विकास विरोधी मान लिया गया था। क्या हमारी अर्थव्यवस्था और राजनीति के केंद्र में अब ग्राम और किसान को स्थान दिया जाएगा? क्या हम विकास के जवाहर-इंदिरा मॉडल और नरसिम्हा-मनमोहन मॉडल से परे हटकर गाँधी-लोहिया के पुनर्पाठ के लिए तैयार हैं? क्या हम ग्राम स्वराज्य, सहकारिता और हस्त शिल्प एवं कुटीर उद्योगों की सार्थकता पर पुनर्विचार करने हेतु प्रतिबद्ध हैं? सबसे बढ़कर क्या हममें अर्थव्यवस्था की वैश्विक प्रणाली के दबावों का मुकाबला करने का साहस है?
किसानों की आर्थिक स्थिति बेहतर करने वाली कुछ घोषणाएं हासिल करके यदि किसान आंदोलन समाप्त हो जाता है तो यह एन्टी क्लाइमेक्स ही कहा जाएगा। कोई भी सरकार किसानों को आर्थिक फायदा देने से पहले उनके शोषण की नई रणनीतियां तैयार कर लेगी और किसानों के कारण राजकोष को हुई कथित "क्षति" की भरपाई किसानों से ही करने के लिए धूर्त कॉर्पोरेट समर्थक अर्थशास्त्री अपनी चालाक रणनीति पहले ही बना लेंगे। किसानों और मजदूरों के हाथों में राजनीतिक सत्ता हो और वे अर्थव्यवस्था के संचालन की शक्ति अर्जित कर सकें- यही इस आंदोलन का लक्ष्य होना चाहिए। किसान आंदोलन ने धर्म और जाति की संकीर्णताओं को तोड़ने का कार्य किया है। हर धर्म और हर जाति के किसानों ने इस आंदोलन में बढ़चढ़कर भाग लिया है। दंगों के लिए कुख्यात मुजफ्फरनगर में अल्लाहु अकबर और हर-हर महादेव के नारे गुंजायमान हुए हैं। यह स्थिति तब है जब करोड़ों कृषि मजदूरों तथा सीमांत और लघु किसानों को अभी किसान आंदोलन ने स्पर्श ही किया है। यह इस देश का दुर्भाग्य है कि गलत सूचनाओं और फर्जी जानकारी पर आधारित जहरीली सोशल मीडिया पोस्ट्स के आधार पर मॉब लिंचिंग की घटनाएं और साम्प्रदायिक दंगे हो जाते हैं किंतु किसान आंदोलन का संदेश करोड़ों भूमिहीन कृषि मजदूरों एवं लघु तथा सीमांत किसानों तक वर्ष भर में भी ठीक से पहुँच नहीं पाता है। किसान आंदोलन के नेताओं को गाँधी से रणनीति के पाठ सीखने होंगे। गांधी के युग में संचार के साधन लगभग नहीं थे लेकिन गाँधी की एक पुकार पर पूरा देश उठ खड़ा होता था। उनका संदेश विद्युत स्फुल्लिंग की भांति पल भर में देश के एक छोर से दूसरे छोर का फासला तय कर लेता था।
किसान नेताओं को प्रधानमंत्री समेत विपक्षी दलों के शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व को खुली चर्चा के लिए आमंत्रित करना चाहिए। किसानों को नौकरशाहों द्वारा तैयार किए गए हील हवाले वाले जटिल और कुटिल जवाबों की जरूरत नहीं है। देश के प्रधानमंत्री से केवल एक ही प्रश्न पूछा जाना चाहिए-पार्टनर, तुम्हारी राजनीति क्या है? विपक्ष से भी आग्रह करना होगा कि वह सार्वजनिक रूप से स्पष्ट करे कि किसानों के लिए उसके पास क्या है? राजनीतिक दलों की सच्चाई जब जनता के सामने आ जाएगी तो स्वतंत्र मोर्चे के रूप में किसानों के सीधे चुनावी राजनीति में प्रवेश का मार्ग सरल बन जाएगा। पारंपरिक राजनीतिक दलों की प्राथमिकता में किसान-मजदूर को स्थान दिलाने में नाकामयाब होने पर संयुक्त किसान मोर्चा इन दलों में मौजूद समान विचार वाले नेताओं के साथ संवाद कर नई संभावनाएं भी तलाश कर सकता है।
हाल ही में किसान नेतृत्व द्वारा आहूत बंद को मजदूर संगठनों तथा कर्मचारियों का व्यापक समर्थन मिला था। किसान आंदोलन को न केवल हर प्रान्त तक ले जाने की आवश्यकता है बल्कि इसके फलक को व्यापक बनाकर इससे हर शोषित-वंचित-पीड़ित को जोड़ने की आवश्यकता है। जब किसान आंदोलन का राष्ट्रव्यापी विस्तार होगा तब स्वाभाविक रूप से अनेक ऊर्जावान योग्य साथी इससे जुड़ेंगे। इस प्रकार किसान आंदोलन के नेतृत्व के विकेन्द्रित होने की संभावनाएं बनेंगी और यह इस आंदोलन की दीर्घजीविता के लिए आवश्यक भी है। मीडिया किसान आंदोलन के नायक की तलाश में है। जैसे ही यह नायक उसे मिल जाएगा इस नायक को आंदोलन से बड़ा बनाने की कोशिश प्रारंभ हो जाएगी और इस बहाने आंदोलन को कमजोर किया जाएगा। यद्यपि भारतीय मतदाता नायक पूजा का आदी है और हमारी राजनीतिक पार्टियों के अपने अपने नायक हैं, लेकिन जन आंदोलनों का नेतृत्व सामूहिक ही रहना चाहिए। यदि भविष्य में किसान आंदोलन से किसी राजनीतिक पार्टी का जन्म हो तो इसे भी नायक पूजा से परहेज रखना चाहिए। नायक हमेशा बुनियादी मुद्दों और जन समस्याओं को गौण बना देते हैं। किसान आंदोलन को यदि किसी नायक की आवश्यकता भी है तो यह जनता द्वारा चयनित नायक होना चाहिए न कि मीडिया द्वारा निर्मित। मीडिया द्वारा निर्मित नायक कितने मायावी हो सकते हैं इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण आदरणीय नरेंद्र मोदी जी हैं जबकि नवीनतम उदाहरण श्री कन्हैया कुमार हैं जिन्हें मीडिया भारतीय वामपंथ के भविष्य के रूप में चित्रित करता था किंतु आज हम उन्हें कांग्रेस की तकदीर संवारते देख रहे हैं।
किसान आंदोलन के लंबे समय तक चलने और राष्ट्रीय स्वरूप प्राप्त करने में किसान आंदोलन के नेताओं की एकजुटता एवं सतर्क रणनीतियों का योगदान रहा है। सरकार की हठधर्मिता ने भी किसानों को संगठित होने का अवसर प्रदान किया है। अब किसान आंदोलन के नेतृत्व की असली परीक्षा है। उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा इस आंदोलन से उपजे जन असंतोष का लाभ किसी ऐसे राजनीतिक दल को न मिल जाए जो अपनी प्रकृति से किसान विरोधी है। उन्हें यह भी ध्यान रखना होगा कि कोई लोकलुभावन आर्थिक समाधान अब इस मोड़ पर अपर्याप्त माना जाएगा। अब किसान आंदोलन को किसान मजदूरों की राजनीतिक सत्ता में भागीदारी के व्यापक लक्ष्य की ओर ध्यान देना होगा। यह व्यापक लक्ष्य तभी प्राप्त हो सकेगा जब किसान नेता तुच्छ व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को दरकिनार कर उदात्त भूमिका का निर्वाह करें।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
-Sharad Shankarrao Rotkar
A star brat has been caught in a narcotics raid. Everyone is happy. Including the brat and his parents.
The brat has got a lot of publicity. In BollyDawood, there's no bad publicity. There are many who are already sympathizing with the young 23 year old 'victim', who is as innocent as the lamb that his father slaughters on Bakrid. When he gets bail today or tomorrow, he'll be booked by twenty film producers who would want to star him in their next project to encash on the victim's current fame.
The father of the brat- whose career was sagging- will get a new lease of life- he's now become another victim of a totalitarian regime, when he's actually a distressed parent who's already in deep pain because his son went astray despite his best parenting efforts.
The Narcotics Bureau that nabbed the brat are happy. This is like inheriting a gold mine. All they have to do is dilute the charges on the brat and hit paydirt. The defence lawyers are licking their lips in anticipation of the fat bills they will write. So are the court employees for fixing early hearing for bail as well as a host of sundry mentionable and other holy cows who may not be mentioned who all foresee an unanticipated fortune for a slight bending of the law.
The media is like a monkey that has overdosed on potent rum. They will run behind the brat, his father, mother, girlfriend, lawyer, driver and his pet dog, to boost their TRPs.
The politicians are also happy. The ruling regime can flex its muscles in favour of the brat as he's from the permanent victimhood cult. That gives them an opportunity to prove their secular credentials. The opposition can go to town about the vindictiveness of the ruling regime and how they are hounding a young darra hua chooha.
After bail, the case will drag on for 25 years with plenty of adjournment by the courts, benefitting the legal fraternity for long. After the mandatory 25 years, the brat, now a middle-aged, botoxed buffoon still romancing 18 somethings, would be honorably acquitted for lack of evidence when you and I are dead and gone and those living don't remember what the case was about.
In the unfortunate event of the brat getting convicted and jailed, he will get parole, which is another lucrative opportunity for the cops and the rulers.
So you see how when a rich brat is arrested for a misdemeanor or felony, the entire ecosystem is benefitted. It helps the economy by redistribution of wealth and lifting many from poverty or a mendacious middle-class status.
All involved, will be laughing to the Bank while morons like you and me think this would lead to a clean-up of the drug problem or that the guilty would be punished.
-प्रकाश दुबे
भारत के नक्शे में रुदौली तलाशना आसान नहीं है। राजा रुद्रमल्ल पासी के राज का रुद्रावली घिसते-घिसते रुदौली हो गया। अनजान कस्बे की किस्मत जागी। अयोध्या की संगत में रुदौली चर्चा में आ गया। मजलिस ए इत्तहादुल मुसलमीन के सर सेनापति सांसद ओवैसी चुनाव मौसम में पहुंचे। उन्होंने फैजाबाद इलाके के रुदौली कस्बे को क्यों चुना? बताते हैं। वाक्या यूं हुआ कि योगी बाबा और उनके सूरमा भिड़ गए-जानते नहीं, जिला अयोध्या है। फैजाबाद खत्म। ओवैसी की चुनावी तैयारी हो चुकी है। ओवैसी ने फरमाया-हमारी नजऱ लोकसभा क्षेत्र फैजाबाद के रुदौली है। जिला भले अयोध्या होगा। अब इस सवाल का जवाब, कि रुदौली क्यों? सूफी संत मख्दूम साहब की प्रसिद्ध दरगाह रुदौली में है। योगी और ओवैसी दोनों जानते हैं कि कस्बे में कलह नहीं होता। अमन चैन है। चुनाव में माहौल बिगडऩे से भी तो फायदे की गुंजाइश होती है। इसलिए शब्दों के नेजे-बरछे चमकने लगे। बंगाल में एमआईएम का जादू नहीं चला। इस बीच किसान हत्या से योगी बाबा के खेमे में हडक़ंप मच गया है।
पीड़ पराई जाने रे
कहा बापू ने। उनकी तस्वीर के नीचे विराजमान लोगों ने अमल किया। दिनू बोगाभाई सोलंकी ने तरह-तरह के अपराधों का खाता खोल रखा है। पुलिस से पुराना नाता है। बात यहां तक पहुंची कि सूचना के अधिकार का प्रयोग भांडा फोडऩे वाले अमित जेठवा की हत्या के कारण दिनू सोलंकी आजीवन कारावास प्राप्त कर चुके हैं। सोलंकी-सेना ने धरना, प्रदर्शन के साथ अदालत का सहारा लिया। दिनू सांसद थे। अपनी पार्टी की सरकार में कृष्ण जन्मस्थली पहुंचे। समर्थकों का दावा है कि आपसी खींचतान के कारण दुश्मनों ने भाई को फंसा दिया। अदालत को याद आया-गांधी जी ने कहा था-पाप से घृणा करो। पापी से नहीं। केस डायरी और दलीलें सुनकर अदालत इस नतीजे पर पहुंची कि दिनू को बेगुनाही के विकल्प का मौका नहीं मिला। गांधी जयंती पर अपराधी 2 अक्टूबर को छूटें या नहीं, दिनू बोगाभाई सोलंकी के विरुद्ध आजीवन कारावास का मामला बेकार रहा। इस बार भी पराजय का ठीकरा सीबीआई के मत्थे मढ़ा जाएगा। विशेष अदालत में मामला उन्होंने चलाया। नए मुख्यमंत्री भूपेन्द्र भाई पटेल को कुछ नहीं करना पड़ा।
के बोले मां, आमी अबले
संसदीय परंपरा और इतिहास में दिलचस्पी रखने वालों का ध्यान पश्चिम बंगाल की गुत्थी ने खींच रखा है। आम तौर पर विरोधी दल के सदस्य को लोक लेखा समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया जाता है। मुकुल राय भारतीय जनता पार्टी की तरफ से जीत कर आए। विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी का पलड़ा भारी रहा। वर्षाकालीन मेंढक की नफासत के साथ वापस दीदी सेना में भर्ती हो गए। दीदी ने भी उन्हें लोक लेखा समिति का अध्यक्ष नियुक्त करा दिया। करा दिया, इसलिए कि निर्णय विधानसभा अध्यक्ष के नाम पर होता है। चुनावी हार के बाद दूसरी चपत पडऩे से बौखलाए भाजपा विधायक अम्बिका राय से लेकर अब नेता प्रतिपक्ष सुवेन्दु अधिकारी तक ने न्यायालय के दरवाजे पर दस्तक दी। अदालत ने मध्य मार्ग अपनाया। पश्चिम बंगाल विधानसभा अध्यक्ष को निर्णय लेने का निर्देश दिया। दल बदल के कारण मुकुल की सदस्यता रद्द करने की मांग पर अदालत ने अध्यक्ष विमान बंद्योपाध्याय को ही फैसला करने का अधिकार दिया। उधर राज्यपाल ने विधान सभा अध्यक्ष से नवनिर्वाचित सदस्यों को शपथ दिलाने का अधिकार छीन लिया।
लंका विजय
कोई अदना इंसान अदानी की आत्मनिर्भरता का बखान नहीं कर सकता। बंदरगाह संभालने और माल की आवाजाही में उनकी महारत अचूक है। मुंद्रा से लेकर नवी मुंबई के जवाहर लाल नेहरू पोर्ट ट्रस्ट तक सब जानते हैं। कभीकहीं छापापड़ा तब भी चूं पटाक नहीं होती। दुश्मन ताकते रहे। अदानी समूह ने लंका जीत ली। कोलंबो बंदरगाह बनाने, संचालित करने और तैयार कर सौंपने के बारे श्रीलंका बंदरगाह प्राधिकरण से करार हो चुका है। यह जीत है बड़ी। इससे पहले भारत सरकार के साथ समझौता होने वाला था। विरोध हुआ। अब निजी क्षेत्र को सौंपने पर सुलह हो गई। समूह के अध्यक्ष गौतम भाई ने भारत सरकार को विशेष रूप से धन्यवाद दिया है। जहाजरानी मंत्री सर्बानंद सोनोवाल को खुश होना चाहिए। केन्द्र में मंत्री बने। निर्विरोध राज्यसभा के लिए चुन लिए गए। जहाज चल रहे हैं। मंत्रालय की फजीहत मत माना। सागर दर्शन के दौरान हजार किलो नशीले पदार्थ पकड़े गए लेकिन असली अपराधी और इसकी खबर सामने नहीं आई। कुछ ग्राम खबर ने तहलका मचा रखा है। सुपर स्टार का लाडला जो गिरफ्त मे आया। विकास की दिशा में बड़ा कदम।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
धार्मिक संस्थानों में कितना दुराचार होता है, इसकी ताजा खबर अभी पेरिस से आई है। फ्रांस के रोमन केथोलिक चर्च के एक आयोग ने गहरी छान-बीन के बाद यह निष्कर्ष निकाला है कि पिछले 70 साल में उसके 3000 पादरियों और कर्मचारियों ने बच्चों के साथ व्यभिचार किया है। इस छान-बीन में आयोग ने लगभग ढाई वर्ष लगाए, हजारों दस्तावेज़ खोजे और सैकड़ों लोगों की गवाहियाँ लीं। उसने पाया कि फ्रांस में 1950 से अब तक लगभग एक लाख 15 हजार पादरी और चर्च के अधिकारी रहे। उनमें से पता नहीं, कितनों ने क्या-क्या किया होगा लेकिन जब भी केथोलिक स्कूलों में जानेवाले या आश्रम और अनाथालय में रहनेवाले बच्चों के माता-पिता ने शिकायत की तो उसकी जाँच हुई लेकिन असली सवाल यह है कि कौनसे किस्से ज्यादा होते हैं ? वे ज्यादा होते हैं, जिनकी शिकायत नहीं होती। किसी धर्मध्वजी याने पादरी, पुरोहित और इमाम के खिलाफ शिकायत करना अपने आप में गुनाह बन जाता है।
ऐसा नहीं है कि दुराचार के ये अनैतिक धंधे सिर्फ यूरोप के चर्चों में ही होते हैं, भारत के चर्चों में भी इस तरह की शर्मनाक घटनाओं की खबरें अक्सर आती रहती हैं। अभी केरल के एक पादरी के कुकर्म का मामला भी गरमाया हुआ है। ऐसा नहीं है कि यह गंदगी ईसाई संगठनों में ही फैली हुई है। हिंदू मंदिरों के कई पुजारी और तथाकथित साधु-संत आज भी जेल की हवा खा रहे हैं। इस्लाम में स्त्री-पुरुष संबंधों की कड़ी मर्यादा के बावजूद अनेक अप्रिय किस्से भी सुनने में आते हैं। कहने का अर्थ यह कि दुराचारियों और व्यभिचारियों के लिए मजहब की झीनी चदरिया बहुत बड़ा सुरक्षा कवच बन जाता है। इसीलिए यूरोप के इतिहास का एक हजार साल का काल अंधकार-युग कहलाता है।
प्रसिद्ध अमरीकी विद्वान कर्नल इंगरसोल ने पादरियों के विरुद्ध सौ वर्ष पहले जबर्दस्त अभियान चलाया था। उनका मानना था कि केथोलिक आश्रमों में व्यभिचार और बलात्कार की घटनाएं इसीलिए प्राय: होती रहती हैं कि पादरियों और साध्वियों का अविवाहित रहना अनिवार्य होता है। ये लोग अवसर मिलते ही यौनाचार में प्रवृत्त हो जाते हैं। ऐसा नहीं है कि सभी धर्मध्वजी यही करते हैं। मैं स्वयं रोम के वेटिकन में पादरियों के साथ और ईरान में मशद और कुम के आयतुल्लाहों के साथ भी रहा हूँ और उनके श्रेष्ठ आचरण का साक्षी रहा हूं। फ्रांस के चर्च और पोप फ्रांसिस को दाद देनी होगी कि वे पादरियों की आचरण-शुद्धि के मामले में कठोर रूख अपना रहे हैं। पिछले दिनों अमेरिका के एक बिशप ने भी यह बीड़ा उठाया था। इस मामले में मेरी राय यह है कि सभी धर्मों और व्यक्तियों के लिए भारत की आश्रम व्यवस्था श्रेष्ठ, सरल और व्यावहारिक है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम में प्रत्येक व्यक्ति यदि 25-25 साल रहे तो सभी के लिए सदाचारी रहना अधिक संभव है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दिल्ली के 'सेंटर फार पालिसी रिसर्चÓ ने अभी एक महत्वपूर्ण शोध-पत्र प्रकाशित किया है, जो हमारी वर्तमान भारतीय सरकार के लिए उत्तम दिशाबोधक हो सकता है। इस सेंटर की स्थापना हमारे सम्माननीय मित्र डॉ. पाई पणंदीकर ने की थी। यह शोध-केंद्र मौलिक शोध और निर्भीक विश्लेषण के लिए जाना जाता है। इस सेंटर ने अभी जो शोध-पत्र प्रकाशित किया है, उसके रचनाकारों में भारत के अत्यंत अनुभवी कूटनीतिज्ञ, सैन्य अधिकारी और विद्वान लोग हैं। उनका मानना है कि भारत की विदेश नीति पर हमारी आंतरिक राजनीति हावी हो रही है। वर्तमान सरकार बहुसंख्यकवाद (याने हिंदुत्व), ध्रुवीकरण और विभाजनकारी राजनीति चला रही है ताकि अगले चुनाव में उसके थोक वोट पक्के हो जाएं। इस समय भारतीय लोकतंत्र जितने संकीर्ण मार्ग पर चल पड़ा है, पहले कभी नहीं चला। भारतीय विदेश नीति पर हमारी आंतरिक राजनीति का अंकुश कसा हुआ है।
इन शोधकर्ताओं का इशारा शायद पड़ौसी देशों के शरणार्थियों में जो धार्मिक भेदभाव का कानून बना है, उसकी तरफ है। इन्होंने इस बात पर भी जोर दिया है कि 'पड़ौसी राष्ट्र पहलेÓ की नीति गुमराह हो चुकी है। लगभग सभी पड़ौसी राष्ट्रों से भारत के संबंध असहज हो गए हैं। चीन का मुकाबला करने के लिए भारत ने चौगुटे (क्वाड) में प्रवेश ले लिया है लेकिन क्या भारत महाशक्ति अमेरिका का मोहरा बनने से रूक सकेगा? शीतयुद्ध के ज़माने में सोवियत संघ के साथ घनिष्ट संबंध बनाए रखते हुए भी किसी गुट में भारत शामिल नहीं हुआ था। वह गुट-निरपेक्ष आंदोलन का अग्रणी नेता था लेकिन अब वह इस अमेरिकी गुट में शामिल होकर क्या अपनी 'सामरिक स्वायत्तताÓ कायम रख सकेगा ?
इन विद्वानों द्वारा उठाया गया यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है। इन्होंने दक्षेस (सार्क) के पंगु होने पर भी सवाल उठाया है, जब से (2014) पाकिस्तान सार्क का अध्यक्ष बना है, भारत ने सार्क सम्मेलन का बहिष्कर कर रखा है। दक्षिण एशिया के करोड़ों लोगों की जिंदगी में रोशनी भरने के लिए भारत को शीघ्र ही कोई पहल करनी चाहिए। मैं तो इसलिए सरकारों से अलग सभी देशों की जनता का एक नया संगठन, जन-दक्षेस, बनाने का पक्षधर हूं। ये विद्वान पाकिस्तान से बात करने का समर्थन करते हैं। मैं समझता हूँ कि अफगान-संकट को हल करने में भारत-पाक संयुक्त पहल काफी सार्थक सिद्ध हो सकती है। इसी तरह अमेरिका के इशारे पर चीन से मुठभेड़ करने की बजाय बेहतर यह होगा कि हम चीन के साथ 'कोलूपीटिव मॉडलÓ याने सहयोग और प्रतिस्पर्धा की विधा अपनाएँ तो बेहतर होगा। जब तक भारत की आर्थिक शक्ति प्रबल नहीं होगी, उसके पड़ौसी भी चीन की चौपड़ पर फिसलते रहेंगे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-प्रकाश दुबे
बिहार के मधुबनी जिले में दिलचस्प फैसला हुआ। अभियुक्त को छह महीने तक पूरे गांव की महिलाओं के कपड़े धोने होंगे और उन पर इस्तरी करने के बाद भिजवाना होगा। झंझारपुर के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश अविनाश कुमार ने देश की प्रति गांव के मुखिया जी को भिजवाई ताकि पता रहे कि पालन हो रहा है या नहीं?
दूसरा फैसला विंध्याचल के दक्षिण में तेलंगाना में हुआ। अदालत के बजाय सरकार ने फैसला किया। चंद्रशेखर राव सरकार ने गौड़ समुदाय को शराब ठेकों में 15 प्रतिशत आरक्षण देने का निर्णय किया। मुख्यमंत्री ने बरसों पहले आश्वासन दिया था। अपना वचन पूरा किया। तेलंगाना और आंध्रप्रदेश में गौड़ या गौड़ा समुदाय परंपरागत रूप से ताड़ी उतारने, शराब बनाने और बिक्री का व्यवसाय करता रहा है। सरकार ने अनुसूचित जाति के लिए भी दस प्रतिशत और जनजाति के लिए पांच प्रतिशत आरक्षण कर दिया।
बिहार के 20 वर्षीय ललन कुमार ने महिला से बलात संबंध बनाने का प्रयास किया था। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश अविनाश कुमार ने प्रताडि़ता सहित पूरे गांव की महिलाओं के वस्त्र साफ करने का आदेश दिया। इन न्यायाधीश ने कुछ समय पहले शराबबंदी कानून तोडऩे वाले अपराधी को सशर्त जमानत दी। शर्त यह थी कि वह तीन महीने तक पांच गरीब बच्चों की पढ़ाई का खर्च उठाएगा।
अनेक लोग अपराधी को सुधरने का अवसर देने की हिमायत करेंगे। धोबी जाति में पैदा व्यक्ति को खास तरह की सजा दी गई। खास जाति में पैदा होने वाले व्यक्तियों को पुश्तैनी व्यवसाय करने के लिए आरक्षण दिया। संविधान ने जाति और धर्म के आधार पर भेदभाव मिटाने कहा। जाति जारी रखने नहीं। समता का नारा लगाते लगाते उप जातियों में बंट गए। आरक्षण के कारण सबको बराबरी पर लाने का दावा किया जाता है। फिर भी गहरी खाई बाकी है। महीना भर पहले मिजोरम राज्य की पहली जनजाति महिला मार्ली वानकुन को गुवाहाटी उच्च न्यायालय में न्यायाधीश नियुक्त किया गया।
जिला एवं सत्र न्यायाधीश के रूप में काम करने के आठ महीने बाद वानकुन पदोन्नत की गई। राजधानी आइजोल में उत्सव मनाया गया। सात दशक बीतने के बाद उच्च न्यायालय में वानकुन को अवसर मिला। अन्य किसी मिजो महिला को इस ऊंचाई तक पहुंचने में दस साल से अधिक लग सकते हैं। मार्ली फौजी की बेटी है। शिक्षा-दीक्षा दिल्ली में होने का उसे लाभ हुआ। केन्द्रीय शिक्षा मंत्रालय ने स्वीकार किया कि देश के सर्वोच्च सात भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों में दाखिला पाने के बावजूद बीच में पढ़ाई छोडऩे वाले 63 प्रतिशत विद्यार्थी अनुसूचित यानी आरक्षित वर्ग के हैं। गुवाहाटी में 88 प्रतिशत और दिल्ली में 76 प्रतिशत।
जाति गणना, जातीय आधार पर आरक्षण का समर्थन और विरोध अपनी जगह। उत्तरप्रदेश के हाथरस में महिला के साथ बलात्कार हुआ। संवाद माध्यमों के कुछ सचित्र-विचित्र प्राणी कटघरे में होने की पात्रता रखते हैं। तरह तरह की खबरें नमक मिर्च लगाकर छापी गईं। पीडि़ता की देह के अपराधग्रस्त अंग की 11 दिन बाद फारेंसिंक जांच की गई। विडम्बना यह, कि इन उत्साही महानुभावों ने चटपटी खबरें देते समय यह जानने, समझने और जनता को बताने की तकलीफ गवारा नहीं की कि इतना समय बीत जाने के बाद सबूत सुरक्षित कैसे रह सकता है?
29 सितम्बर 2006 को महाराष्ट्र के खैरलांजी में भैयालाल भोतमांगे की पत्नी, दो बेटों और बेटी की हत्या कर दी गई। इसे जातीय विद्वेष का परिणाम बताया गया। संवेदना सूखने के लिए 15 वर्ष का समय बहुत होता है। दुख इस बात का है कि गांव जाकर हाल जानने का कष्ट उठाने वाले नहीं हैं। जातीय मनमुटाव समाप्त करने का प्रयास नहीं हुआ।
भारतीय भाषाओं के नुमाइंदे चूक गए। तसल्ली इस बात की है कि अंग्रेजी अखबार के पत्रकार ने घटना स्थल पर जाकर लोगों का मन जाना। पत्रकार प्रदीप कुमार मैत्र की पिछले पखवाड़े छपी खबर से पता लगता है कि जातीय विषमता और तनाव समाप्ति के पर्याप्त प्रयास नहीं हुए। खबर के मुताबिक पीडि़त परिवार के कुछ सदस्य गांव छोड़ चुके हैं। नाते-रिश्तेदारों से दूसरे समुदाय का बोलचाल बंद है। जाति विशेष के मुख्यमंत्री और मंत्री बनाकर वोट की फसल काटने की जुगत में भिड़े लोग इस सत्य का सामना नहीं करना चाहते कि जातीय-द्वेष की जड़ में विद्यमान आर्थिक-सामाजिक विषमता का मुकाबला संवाद और समझाईश के बूते ही किया जा सकता है। आंकड़ों की बारिश और होर्डिंग में मुस्कुराते चेहरे बदलाव नहीं लाते।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
-गिरीश मालवीय
सिर्फ 2 हफ्ते हुए है इस लग्जरी कार्डेलिया क्रूज सर्विस को चालू हुए और ड्रग्स पार्टियां भी होने लगी, हैरानी की बात यह है कि क्रूज चलाने वाली कम्पनी की पार्टनरशिप आईआरसीटीसी से है। इस क्रूज पर बार, रेस्तरां और थिएटर, जैसी तमाम लग्जरी सुविधाए मौजूद है।
कॉर्डेलिया क्रूज अभी मुंबई से लक्षद्वीप, मुंबई से गोवा, मुंबई से दीव, मुंबई से चेन्नई और मुंबई से कोच्चि के लिए क्रूज सेवा उपलब्ध कराता है। इसी साल सितंबर महीने में ही इसकी शुरुआत हुई थी। देश में आईआरसीटीसी के सहयोग से इस क्रूज लाइनर की शुरुआत अभी 18 सितंबर को ही हुई थी। इंडियन रेलवे कैटरिंग एंड टूरिज्म कॉरपोरेशन यानी आईआरसीटीसी अक्सर लोगों को ट्रेन के जरिये देश में जगह-जगह घुमाने के लिए नए-नए पैकेज लेकर आता रहता है, लेकिन अब वह क्रूज लाइनर भी चला रहा है। उसने भारत में लग्जरी क्रूज के प्रमोशन और मार्केटिंग के लिए मैसर्स वाटरवेज लीजर टूरिज्म प्राइवेट लिमिटेड नाम की कंपनी की ओर से संचालित कॉर्डेलिया क्रूज के साथ हाथ मिलाया है और समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं।
दो हफ्तों में ही इस क्रूज में ड्रग्स पार्टी भी होने लगी है। कल रात नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के जोनल डायरेक्टर और ऑपरेशन को अंजाम देने वाली टीम की अगुवाई कर रहे समीर वानखेड़े ने कहा है कि आठ लोगों की गिरफ्तारी की गई है। एनसीबी की ये छापेमारी करीब 7 घंटे तक चली। एनसीबी के हाथ छापेमारी में 4 तरह के ड्रग्स एमडीएमए मेफेड्रोन, कोकीन और हशीश बरामद भी हुए हैं जिन्हें पार्टी में इस्तेमाल किया जाना था
बॉलीवुड स्टार शाहरुख के बेटे ने कहा है कि उन्हें गेस्ट के रूप में बुलाया गया था और उन्होंने पार्टी में शामिल होने के लिए किसी तरह का कोई पैसा नहीं दिया। वहीं, एनसीबी के जोनल डायरेक्टर समीर वानखेड़े का कहना है कि आर्यन को अब तक गिरफ्तार नहीं किया गया है। एनसीबी से पूछताछ में आर्यन ने दावा किया है कि शिप में हो रही पार्टी में उनके नाम पर लोगों को बुलाया (इनवाइट) गया था।
क्रूज के अंदर चल रही पार्टी का एक वीडियो भी एनसीबी के हाथ आया है जिसमें शाहरूख के बेटे आर्यन नजर आ रहे हैं। वीडियो में दिखाई दे रहा है पार्टी के दौरान आर्यन ने व्हाइट टी-शर्ट, ब्लू जींस, रेड ओपन शर्ट और कैप लगा रखी थी। एनसीबी से जुड़े सूत्रों का कहना है कि जिन लोगों को पकड़ा गया है, उनके पास से रोलिंग पेपर भी बरामद हुए हैं।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
गांधीजी को हम कम से कम उनके जन्मदिन पर याद कर लेते हैं, यह भी बड़ी बात है। हम ही याद नहीं करते। सारी दुनिया उन्हें याद करती है। दुनिया में बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी हुए हैं लेकिन उन्हें कौन याद करता है? भारत में ही दर्जनों राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री हो गए हैं लेकिन युवा-पीढ़ी से पूछें तो उन्हें उनके नाम तक याद नहीं हैं। इसका अर्थ क्या यह नहीं निकला कि आपके पद का उतना महत्व नहीं है, जितना कि आपके अपने व्यक्तित्व का है। गांधीजी का व्यक्तित्व इतना निराला था कि महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंटस्टीन के शब्दों में ही उसकी सही व्याख्या हो सकी है। उन्होंने कहा था कि आनेवाली पीढिय़ों को विश्वास ही नहीं होगा कि गांधी-जैसा कोई हाड़-मांस का महापुरुष पृथ्वी पर हुआ भी होगा।
यों तो राम और कृष्ण, बुद्ध और महावीर, ईसा और मुहम्मद, नानक और कबीर जैसे महापुरुषों की कथाएं हम सुनते रहे हैं लेकिन हम लोग कितने भाग्यशाली हैं कि हमने गांधी-जैसे महापुरुष को अपनी आंखों से देखा है या उन लोगों के सानिध्य में रहे हैं, जो गांधीजी के साथी थे। गांधी के नाम पर कोई धर्म और संप्रदाय नहीं बना है। बन भी नहीं सकता, क्योंकि गांधी कोरे सिद्धांत नहीं हैं। गांधी व्यवहार हैं। गांधी की तुलना प्लेटो, अरस्तू, हीगल और मार्क्स से नहीं की जा सकती, क्योंकि गांधी ने किसी दार्शनिक या विचारक की तरह कोरे सिद्धांत नहीं गढ़े हैं लेकिन उन्होंने कुछ सिद्धांतों का अपने जीवन में पालन इस तरह से किया है कि दुनिया में गांधी बेमिसाल हो गए हैं। उनके जैसा कोई और नहीं दिखता। उनका व्यवहार ही सिद्धांत बन गया है। जैसे इस सिद्धांत को सभी धर्म मानते हैं कि 'ब्रह्म सत्यम्Ó याने ब्रह्म ही सत्य है लेकिन गांधी ने कहा कि सत्य ही ब्रह्म है। सत्य का पालन ही सच्ची ईश्वर भक्ति है। उन्होंने सभी धर्मों की इस परंपरागत धारणा को उलटकर देखा, परखा और उसे करके दिखाया।
उन्होंने सत्य और अहिंसा का पालन अपने व्यक्तिगत जीवन में ही नहीं करके दिखाया, बल्कि उसे संपूर्ण स्वाधीनता संग्राम की प्राणवायु बना दिया। कई बार मैं महसूस करता हूं कि बाइबिल के ओल्ड टेस्टामेंट में जो यह कहा गया है कि ''ईश्वर मनुष्य का पिता हैÓÓ, इसका उल्टा सत्य है याने मनुष्य ही ईश्वर का पिता है। मुनष्यों ने अपने-अपने मनपसंद ईश्वर गढ़ लिये हैं। इसीलिए ईश्वर, यहोवा, अल्लाह, अहुरमज्द में कोई बुनियादी फर्क नहीं है। यह धारणा ही सर्वधर्म समभाव को जन्म देती है। देश-काल के कारण धर्मों की कई धारणा में फर्क हो सकता है लेकिन धार्मिकों में तो परस्पर सद्भाव ही होना चाहिए। गांधी की इस धारणा ने ही उन्हें 1947 में भारत-विभाजन के समय विवादास्पद बना दिया था। जिस कारण सकुरात को अपने प्राण-विसर्जन करने पड़े, गांधी-वध का भी कारण वही बना लेकिन यदि हम अब गांधी के सपनों का भारत बना हुआ देखना चाहते हैं तो हमें सिर्फ भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के ही नहीं, अराकान (म्यांमार) से खुरासान (ईरान) और उसमें मध्य एशिया को भी जोड़कर एक महासंघ का निर्माण करना होगा, जो गांधी के साथ-साथ महावीर, बुद्ध और दयानंद के सपनों का आर्यावर्त्त होगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-रमेश अनुपम
‘दिल अपना और प्रीत पराई’ की अपार सफलता के पश्चात किशोर साहू ने मद्रास (चेन्नई) के सुप्रसिद्ध निर्माता एस.एस.वासन के लिए जैमिनी प्रोडक्शन के बैनर तले ‘गृहस्थी’ नामक अपनी ही पटकथा पर फिल्म का निर्देशन किया।
इस फिल्म के लिए उनके ही सुझाव पर अशोक कुमार और उस समय फिल्मी दुनिया में नए-नए कदम रखे मनोज कुमार को अनुबंधित किया गया। नायिका के लिए उन्होंने मशहूर निर्माता, निर्देशक वी. शांताराम की बेटी राजश्री को लेने का सुझाव वासन को दिया, उसे वासन ने थोड़ा ना-नुकुर करने के बाद आखिरकार राजश्री के लिए हां कर दिया।
इस फिल्म के अन्य कलाकारों के रूप में किशोर साहू ने फिल्म इंडस्ट्री में नए आए महमूद और शोभा खोटे को लिया।
लगातार नौ महीने तक मद्रास में रहकर ही उन्होंने ‘गृहस्थी’ फिल्म पूरी कर ली। जैमिनी प्रोडक्शन के बैनर तले बनाई गई फिल्म ‘गृहस्थी’ सफलतम फिल्म साबित हुई।
बंबई तथा अनेक शहरों में इस फिल्म ने जुबली मनाई। मनोज कुमार और राजश्री की जोड़ी देखते ही देखते सुपरहिट जोड़ी साबित हुई।
महमूद और शोभा खोटे की जोड़ी भी हिंदी फिल्मों में लोकप्रिय हो गई।
इस फिल्म के बाद तो जैसे हास्य अभिनेता महमूद की गाड़ी चल निकली।
सन् 1963 में किशोर साहू ने एक और फिल्म का निर्देशन किया ‘घर बसा के देखो’। इस फिल्म में बतौर नायक मनोज कुमार तथा नायिका के रूप में उन्होंने दोबारा राजश्री को लिया। यह फिल्म भी बॉक्स आफिस पर सफल रही।
मनोज कुमार और राजश्री इसके बाद हिंदी सिनेमा के जगमगाते सितारों में गिने जाने लगे। किशोर साहू जैसे कमाल के निर्देशक ने उनके भीतर की अभिनय प्रतिभा को तराश कर एक नया रूप दे दिया था।
एस.एस. वासन ने जिस राजश्री के लिए ठिगनी और सांवली लडक़ी कहकर ‘गृहस्थी’ की हीरोइन के रूप में नापसंद किया था, जिसे किशोर साहू के समझाने के बाद उन्हें लेना पड़ा था, वह लडक़ी हिंदी सिनेमा के लाखों दर्शकों की नायिका बन चुकी थी। किशोर साहू की आंखें अभिनय प्रतिभा को दूर से देखकर ही पहचान लेती थी।
सन् 1965 में ‘पूनम की रात’ फिल्म का निर्देशन किशोर साहू ने किया। इस फिल्म में भी उन्होंने हीरो के रूप में मनोज कुमार को ही लिया। तब तक मनोज कुमार और किशोर साहू अच्छे दोस्त बन चुके थे।
‘पूनम की रात’ में उन्होंने एक नई हीरोइन कुमुद छुगानी को अनुबंधित किया। यह फिल्म भी सफल रही।
सन् 1966 में किशोर साहू ने ‘हरे कांच की चूडिय़ां’ फिल्म का निर्माण और निर्देशन किया। इस फिल्म के लिए उन्होंने पहले से ही विश्वजीत का नाम तय कर रखा था। नायिका के लिए वे किसी नई लडक़ी की तलाश में थे। दिल्ली और बंबई की कई लड़कियों का वे इंटरव्यू भी ले चुके थे, पर इस फिल्म के अनुरूप उनमें से कोई भी उन्हें नहीं जची थी।
उन्हीं दिनों नयना जो हॉस्टल में रहकर अपना ग्रेजुएशन का कोर्स कर रही थी, घर आई हुई थी।
पिता ने पुत्री को देखा और लगा कि जिसकी तलाश में वे भटक रहे थे वह तो अपने घर पर ही मौजूद है। किशोर साहू को लगा कि ‘हरे कांच की चूडिय़ां’ की नायिका की जो कल्पना उन्होंने की थी वह तो हू-ब-हू नयना ही है, उसकी अपनी प्यारी और खूबसूरत बेटी।
पिता ने पुत्री से पूछा- ‘पिक्चर में काम करोगी’ ?
पुत्री ने थोड़ा आश्चर्य के साथ अपने पिता से पूछा- ‘कौन मैं’?
पिता ने कहा- ‘हां तुम’
पुत्री ने पूछा- ‘कौन से पिक्चर में’ ?
पिता ने कहा- ‘हरे कांच की चूडिय़ां’ में।
बेटी ने पूछा- ‘कौन सा रोल’ ?
पिता ने अपनी बेटी से कहा- ‘हीरोइन का रोल’।
बेटी के लिए यह सब कुछ अप्रत्याशित है। वह अपने पिता से डरी सहमी से पूछती है- ‘क्या यह रोल मैं कर सकूंगी’ ?
पिता आश्वस्त होकर बेटी से कहते हैं- ‘क्यों नही’।
‘हरे कांच की चूडिय़ां’ का निर्माण प्रारंभ हो जाता है। पिता निर्माता, निर्देशक हैं और उनकी प्यारी बिटिया इस फिल्म की नायिका।
अद्भुत है यह प्रसंग। हिंदी सिनेमा जगत के लिए भी यादगार। कोई पिता अपनी ही सुपुत्री को नायिका के रूप में अपनी ही किसी फिल्म में डायरेक्ट करे, यह शायद हिंदी फिल्म में अकेली घटना है।
बहरहाल यह खूबसूरत फिल्म 4 मई सन् 1967 को बंबई की लिबर्टी में रिलीज हुई। यह फिल्म सफल रही। एक कुंवारी लडक़ी की मां बनने की कहानी वाली इस लीक से अलग हटकर बनाई गई फिल्म को दर्शकों ने बेहद पसंद किया।
विश्वजीत और नयना साहू के अभिनय का जादू लोगों के सिर चढक़र बोलने लगा।
इस फिल्म के गाने हर जुबान पर थिरकने लगे। खासकर ‘धानी चुनरी पहन, सज के बन के दुल्हन, जाऊंगी उनके घर, जिनसे लागी लगन, आएंगे जब सजन, देखने मेरा मन, कुछ न बोलूंगी मैं, मुख न खोलूंगी मैं, बज उठेंगी हरे कांच की चूडिय़ां’।
शैलेंद्र के इस खूबसूरत गीत को संगीत से संवारा था शंकर जयकिशन ने और इसे वाणी दी थी अप्रतिम गायिका आशा भोसले ने।
बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन ने नयना साहू को सन् 1967 की श्रेष्ठ अभिनेत्री का खिताब दिया। उत्तरप्रदेश, राजस्थान, आंध्रप्रदेश फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन ने भी नयना साहू को उत्कृष्ट अभिनय के लिए पुरस्कृत और सम्मानित किया।
किशोर साहू की यह खूबसूरत हीरोइन बेटी किशोर साहू जन्म शताब्दी समारोह में शिरकत करने 22 अक्टूबर 2016 में राजनांदगांव आई थी।
23 अक्टूबर को उनके सम्मान में उनकी फिल्म ‘हरे कांच की चूडिय़ां’ का प्रदर्शन राजनांदगांव में किया गया।
छत्तीसगढ़ ने अपने लाडले सपूत किशोर साहू की इस सुंदर और प्रतिभाशालिनी बिटिया को भरपूर मान सम्मान और दुलार दिया।
22 जनवरी 2017 को हमारी यह खूबसूरत नायिका सदा-सदा के लिए हम सबसे दूर चली गई।
(बाकी अगले हफ्ते)
-ओम थानवी
ऊपर दिए गए कवर-फ़ोटो को ध्यान से देखिए। लंदन की घटना है जब ‘डिक्टेटर’ चैप्लिन मिले थे महात्मा से। उस घड़ी की तसवीर, उस खिडक़ी से जहां से गांधीजी की प्रतीक्षा कर रहे चार्ली चैप्लिन नीचे का कोलाहल सुन यह दृश्य निहारने उठ खड़े हुए।
भारत तो भारत, इंग्लैंड में भी गांधीजी की प्रतिष्ठा का आलम यह था!
अफ्ऱीका से भारत लौट आने के बाद गांधी केवल एक बार विदेश यात्रा पर गए: 1931 में गोलमेज़ वार्ता में शरीक होने। वार्ता तो विफल रही, लेकिन अंगरेज़ों का दिल उन्होंने बहुत जीत लिया।
लंदन में गांधीजी किसी ऊँचे होटल में नहीं रुके, पूर्वी लंदन के पिछड़े इलाके में सामुदायिक किंग्सली हॉल (अब गांधी फाउंडेशन) के एक छोटे-से कमरे में ठहरे। ज़मीन पर बिस्तर लगाया। लंदन की ठंड में भी अपनी वेशभूषा वही रखी- सूती अधधोती, बेतरतीब दुशाला, चप्पल। वे कोई तीन महीने वहां रहे।
यह तस्वीर तभी की है। चार्ली चैप्लिन हॉलीवुड में चरम प्रसिद्धि बटोर कर अपने वतन लौट आए थे। वे राजनेताओं से राजनीति की चर्चा में रुचि लेने लगे थे। अपनी फि़ल्म ‘सिटी लाइट्स’ के प्रीमियर के लिए वे लंदन में ही थे।
किसी ने चैप्लिन को सुझाया कि गांधीजी से मिलना चाहिए। उन्होंने गांधीजी को पोस्टकार्ड लिख दिया।
गांधीजी जब लंदन में अपनी डाक पढ़ रहे थे, तब उनकी मेज़बान मुरिएल लेस्टर ने उन्हें चैप्लिन के बारे में विस्तार से बताया। यह भी कहा कि राजनीति में आपका और कला की दुनिया में चैप्लिन का रास्ता जुदा नहीं। गांधीजी ने मुलाकात की मंजूरी दे दी।
चैप्लिन को कैनिंग टाउन में डॉक्टर चुन्नीलाल कतियाल के यहां 22 सितंबर, 1931 की शाम का वक़्त दिया गया, जहाँ उस रोज गांधीजी को जाना था।
गांधीजी से मुलाकात का दिलचस्प जि़क्र चैप्लिन ने अपनी आत्मकथा में विस्तार से किया है; नेहरू और इंदिरा गांधी के प्रवास का भी।
गांधीजी से मिलने को चैप्लिन कुछ पहले (या शायद अंगरेज़ी क़ायदे के मुताबिक़ ठीक वक़्त पर) पहुंच चुके थे। चैप्लिन के अपने शब्दों में- ‘अंतत: जब वे (गांधी) पहुंचे और अपने पहनावे की तहें संभालते हुए टैक्सी से उतरे तो स्वागत में भारी जयकारे गूंज उठे। उस छोटी तंग गऱीब बस्ती (स्लम) में क्या अजब दृश्य था जब एक बाहरी शख़्स एक छोटे-से घर में जन-समुदाय के जय-घोष के बीच दाखिल हो रहा था।’
डॉ. कतियाल की बैठक में चैप्लिन को घेर बैठी एक युवती को एक दबंग महिला (संभवत: सरोजिनी नायडू) ने डपट कर चुप कराया, ‘क्या अब आप इनको गांधीजी से बात करने देंगी?’ कमरे में ‘सन्नाटा’ छा गया। गांधीजी चैप्लिन की ओर देख रहे थे।
चैप्लिन लिखते हैं कि गांधीजी से तो मैं उम्मीद नहीं कर सकता था कि वे मेरी किसी फि़ल्म पर बात शुरू करेंगे और कहेंगे कि बड़ा मज़ा आया; ‘मुझे नहीं लगता था कि उन्होंने कभी कोई फि़ल्म देखी भी होगी।’
सो चैप्लिन ने अपना ‘गला साफ़ किया’ और कहा कि मैं स्वाधीनता के लिए भारत के संघर्ष के साथ हूं, पर आप मशीनों के ख़िलाफ़ क्यों हैं, उनसे तो दासता से मुक्ति मिलती है, काम जल्दी होता है और मनुष्य सुखी रहता है?
गांधीजी ने मुस्कुराते हुए शांत स्वर में उन्हें अहिंसा से लेकर आज़ादी के संघर्ष का सार पेश कर दिया। गांधीजी ने कहा- आप ठीक कहते हैं, मगर हमें पहले अंगरेज़ी राज से मुक्ति चाहिए।
गांधीजी ने आगे कहा कि मशीनों ने हमें अंगरेज़ों का ज़्यादा ग़ुलाम बनाया है। इसलिए हम स्वदेशी और स्व-राज की बात करते हैं। हमें अपनी जीवन-शैली बचानी है।
अपनी बात का गांधीजी ने और खुलासा यों किया — हमारी आबोहवा ही आपसे बिलकुल जुदा है। ठंडे मुल्क में आपको अलग कि़स्म के उद्योग और अर्थव्यवस्था की ज़रूरत है: खाना खाने के लिए आपको छुरी-कांटे आदि उपकरणों की ज़रूरत पड़ती है, सो आपने इसका उद्योग खड़ा कर लिया। पर हमारा काम तो उंगलियों से चल जाता है। हमें अनावश्यक चीज़ों से भी आज़ादी दरकार है।
चर्चा में चैप्लिन आज़ादी को लेकर गांधीजी की अनूठी दलीलों, उनके विवेक, क़ानून की समझ, राजनीतिक दृष्टि, यथार्थवादी नज़रिए और अटल संकल्पशक्ति से अभिभूत हो गए।
पर तब चैप्लिन सहसा हैरान रह गए जब गांधीजी ने एक मुक़ाम पर कहा कि माफ़ कीजिए, हमारी प्रार्थना का वक़्त हो गया। हालाँकि उन्होंने चैप्लिन को विनय से यह भी कहा कि आप चाहें तो यहां रुक सकते हैं। चैप्लिन रुक गए।
चैप्लिन ने सोफ़े पर बैठे-बैठे देखा: गांधीजी और पांच अन्य भारतीय जन ज़मीन पर पालथी मार कर बैठ गए और रघुपतिराघव राजा-राम, पतित-पावन सीता-राम; वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीर पराई जाणे रे समवेत स्वर में गाने लगे।
चैप्लिन को विचार-सम्पन्न गांधीजी के ‘गान-वान’ में इस तरह मशगूल हो जाने में अजीब ‘विरोधाभास’ अनुभव हुआ। उन्हें लगा कि महात्मा में उन्होंने जो ‘राजनीतिक यथार्थ की विलक्षण सूझ’ देखी थी, वह इस समूह-गान में मानो तिरोहित हो गई।
मगर क्या सचमुच? शायद यही वह सांस्कृतिक भेद था जिसे क्या चैप्लिन, क्या अंगरेज़, गांधीजी अंत तक इसकी समझ और प्रेरणा हम भारतवासियों तक को देते रहे!
(साथ की तस्वीर में बीच में बैठे हैं चार्ली चैप्लिन और गांधीजी। सबसे दाएँ सरोजिनी नायडू। आलेख डॉ. राजेश कुमार व्यास के संपादन में ‘सुजस’ में प्रकाशित।)
-ध्रुव गुप्त
आज महात्मा गांधी की जयंती पर मैं थोड़ी-सी चर्चा उस एक शख्स की करना चाहता हूं जो अगर न होता तो न गांधी नहीं होते और न हमारे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास वैसा होता जैसा आज हम जानते हैं। वे एक शख्स थे चंपारण के बतख मियां। बात 1917 की है जब दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद चंपारण के किसान और स्वतंत्रता सेनानी राजकुमार शुक्ल के आमंत्रण पर गांधी डॉ राजेन्द्र प्रसाद तथा अन्य लोगों के साथ अंग्रेजों के हाथों नीलहे किसानों की दुर्दशा का जायजा लेने चंपारण आए थे।
चंपारण प्रवास के दौरान उन्हें जनता का अपार समर्थन मिला था। लोगों के आंदोलित होने से जिले में विद्रोह और विधि-व्यवस्था की समस्या उत्पन्न होने की प्रबल आशंका थी। वार्ता के उद्देश्य से नील के खेतों के तत्कालीन अंग्रेज मैनेजर इरविन ने मोतिहारी में गांधी जी को रात्रिभोज पर आमंत्रित किया। बतख मियां इरविन के ख़ास रसोईया हुआ करते थे। इरविन ने गांधी की हत्या के के उद्देश्य से बतख मियां को जहर मिला दूध का गिलास देने का आदेश दिया। निलहे किसानों की दुर्दशा से व्यथित बतख मियां को गांधी में उम्मीद की किरण नजऱ आई थी। उनकी अंतरात्मा को इरविन का यह आदेश कबूल नहीं हुआ। उन्होंने गांधी जी को दूध का ग्लास देते हुए वहां उपस्थित राजेन्द्र प्रसाद के कानों में यह बात डाल दी।
उस दिन गांधी की जान तो बच गई लेकिन बतख मियां और उनके परिवार को बाद में इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी। अंग्रेजों ने उन्हें बेरहमी से पीटा, सलाखों के पीछे डाला और उनके छोटे-से घर को ध्वस्त कर कब्रिस्तान बना दिया। देश की आजादी के बाद 1950 में मोतिहारी यात्रा के क्रम में देश के पहले राष्ट्रपति बने डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने बतख मियां की खोज खबर ली और प्रशासन को उन्हें कुछ एकड़ जमीन आबंटित करने का आदेश दिया। बतख मियां की लाख भागदौड़ के बावजूद प्रशासनिक सुस्ती के कारण वह जमीन उन्हें नहीं मिल सकी। निर्धनता की हालत में ही 1957 में बतख मियां ने दम तोड़ दिया।चंपारण में उनकी स्मृति अब मोतिहारी रेल स्टेशन पर बतख मियां द्वार के रूप में ही सुरक्षित हैं!
आज गांधी जयंती पर बापू के साथ बतख मियां की स्मृतियों को भी सलाम !
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पंजाब में कांग्रेस की उथल-पुथल पूरे देश का ध्यान खींच रही है। लेकिन वहीं से एक ऐसा बयान भी आया है, जिस पर नेताओं और नौकरशाहों को तुरंत ध्यान देना चाहिए। वह बयान है— दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का। केजरीवाल आजकल अपनी आप पार्टी का चुनाव अभियान चलाने के लिए पंजाब की यात्रा पर हैं। वे अपने भाषणों में कांग्रेस और भाजपा की टांग खिंचाई करते हैं, जो स्वाभाविक है लेकिन वहाँ उन्होंने एक गजब की बात भी कह दी है, जिसकी वकालत मैं अपने भाषणों और लेखों में वर्षों से करता रहा हूँ। मेरा निवेदन यह है कि जब तक कोई राष्ट्र अपनी शिक्षा और चिकित्सा को सबल नहीं बनाएगा, वह निर्बल हुआ पड़ा रहेगा। भारत की लगभग सभी सरकारों ने इन दोनों क्षेत्रों में थोड़े-बहुत सुधार की कोशिश जरुर की है लेकिन ये दोनों क्षेत्र यदि बलवान हो जाएं तो भारत को महासंपन्न और महाशक्ति बनने से कोई रोक नहीं सकता।
अरविंद केजरीवाल ने इस दिशा में पहले दिल्ली में कदम बढ़ाया और अब यही काम बड़े पैमाने पर पंजाब में करने की घोषणा उन्होंने की है। उन्होंने कहा है कि पंजाब के हर गांव में एक अस्पताल खुलेगा। सबका इलाज़ मुफ्त होगा। जाँच मुफ्त होगी। हर आदमी का इलाज-पत्र बनेगा ताकि उसमें उसकी सारी बिमारियों और इलाजों का ब्यौरा रहेगा। जिन नागरिकों की शल्य-चिकित्सा होगी, वह 15 लाख रु. तक मुफ्त होगी। विरोधी दल कह सकते हैं कि केजरीवाल ने यह चुनावी फिसलपट्टी खड़ी कर दी है ताकि इस लालच में वोट फिसलते चले आएं। मैं पूछता हूं कि आपको किसने रोका है? आप भी ऐसी घोषणा क्यों नहीं कर देते? कोई हारे, कोई जीते, जनता का तो भला ही होगा। यह सबको पता है कि इलाज़ के नाम पर भारत में आजकल कितनी जबर्दस्त ठगी होती है। यह खुशी की बात है कि राजस्थान के हर जिले में मेडिकल कॉलेज खोलने का बीड़ा मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने उठाया है और प्रधानमंत्री ने भी उनका समर्थन किया है लेकिन इन मेडिकल कॉलेजों में हिंदी में पढ़ाई कब शुरु होगी? कौन माई का लाल यह हिम्मत करेगा?
पिछले सात वर्षों में हमारे दो केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रियों ने स्वभाषा में मेडिकल की पढ़ाई शुरु करवाने का वायदा मुझसे कई बार किया लेकिन वह आज तक शुरु नहीं हुई। ऐलोपेथी अब भी जादू-टोना बनी हुई है, अंग्रेजी के कारण। इसी कारण ग्रामीणों और गरीबों के बच्चे डाक्टर नहीं बन पाते। ठगी का भी कारण यही है। यदि डॉक्टरी की पढ़ाई हिंदी में शुरु हो जाए और ऐलोपेथी, आयुपेथी, होमियोपेथी और यूनानीपेथी की संयुक्त पढ़ाई हो तो यह भारत का ही नहीं, दुनिया का नया चमत्कार होगा और ठगी भी खत्म होगी। अमेरिका ने द्वितीय महायुद्ध के बाद अपने शिक्षा और चिकित्सा के बजट में जबर्दस्त बढ़ोतरी की थी। उसने यूरोप को पीछे छोड़ दिया और वह आज दुनिया के सबसे अधिक संपन्न और शक्तिशाली राष्ट्र बन गया है। शिक्षा मन को मजबूत करेगी और चिकित्सा तन को! तब धन तो अपने आप बरसेगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-डॉ. राजू पाण्डेय
साम्प्रदायिक एकता गांधी जी के लिए महज एक आदर्श नहीं थी वह उनकी आत्मा में रची बसी थी। साम्प्रदायिक सद्भाव तथा समरसता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता की कल्पना इसी बात से की जा सकती है कि अपने जीवन के अंतिम वर्षों में वे साम्प्रदायिक हिंसा से आहत थे, व्यथित थे, राष्ट्र ध्वज फहराने तथा राष्ट्र के नाम संदेश देने के अनिच्छुक थे और नोआखाली के ग्रामों की संकीर्ण गलियों में अपने प्राणों की परवाह किए बिना प्रेम, दया, क्षमा और करुणा का संदेश दे रहे थे। गांधी जी ने बहुत पहले ही यह संकेत कर दिया था कि अधिनायकवादी नजरिया रखने वाली और देश की विविधताओं और संघीय ढांचे की अनदेखी करने वाली कथित रूप से मजबूत सरकार जब जब लोगों पर बलपूर्वक राजनीतिक एकता थोपने का प्रयास करेगी तब तब दूरियां घटने के बजाए बढ़ेंगी और एकता के स्थान पर बिखराव और हिंसक असन्तोष को बढ़ावा मिलेगा। गांधीजी के अनुसार - "कौमी या सांप्रदायिक एकता की जरूरत को सब कोई मंजूर करते हैं लेकिन सब लोगों को अभी यह बात जँची नहीं कि एकता का मतलब सिर्फ राजनीतिक एकता नहीं है। राजनीतिक एकता तो जोर जबरदस्ती से भी लादी जा सकती है। मगर एकता के सच्चे मानी तो यह है - वह दिली दोस्ती जो किसी के तोड़े न टूटे। इस तरह की एकता पैदा करने के लिए सबसे पहली जरूरत इस बात की है कि कांग्रेस जन, फिर वे किसी भी धर्म के मानने वाले हों अपने को हिंदू,मुसलमान, ईसाई, पारसी, यहूदी वगैरह सभी कौमों का नुमाइंदा समझें। हिंदुस्तान से करोड़ों बाशिंदों में से हर एक के साथ वे अपनेपन का, आत्मीयता का अनुभव करें यानी कि उनके सुख-दुख में अपने को उनका साथी समझें। इस तरह की आत्मीयता सिद्ध करने के लिए हर एक कांग्रेसी को चाहिए कि वह अपने धर्म से भिन्न धर्म का पालन करने वाले लोगों के साथ निजी दोस्ती कायम करे और अपने धर्म के लिए उसके मन में जैसा प्रेम हो, ठीक वैसा ही प्रेम दूसरे धर्म से भी करे।" (रचनात्मक कार्यक्रम, पृष्ठ 11-12)।
पिछले सात वर्षों में गोरक्षकों द्वारा हिंसा और मॉब लिंचिंग की बढ़ती घटनाएं चिंता उत्पन्न करती हैं। इधर सांप्रदायिकता का जहर जैसे जैसे फैल रहा है हम देखते हैं कि मुसलमानों को सड़कों पर नमाज पढ़ने से रोकने के लिए हिन्दू समुदाय भी सड़क पर आरती और हनुमान चालीसा के पाठ जैसे आयोजन कर रहा है। एक समुदाय की धार्मिक प्रार्थनाएं दूसरे समुदाय हेतु असहनीय शोर का रूप ग्रहण कर रही हैं। इस प्रकार हिंसक संघर्ष की स्थिति बार बार बन रही है। यंग इंडिया में आज से लगभग 88 वर्ष पूर्व महात्मा गांधी द्वारा लिखी गई यह पंक्तियां इन दोनों दुर्भाग्यपूर्ण और लज्जाजनक प्रवृत्तियों का न केवल सम्पूर्ण विश्लेषण करती हैं बल्कि उनका प्रायोगिक समाधान भी प्रस्तुत करती हैं। गांधी जी लिखते हैं- "हिंदू, मुसलमान, ईसाई, सिख, पारसी आदि को अपने मतभेद हिंसा का आश्रय लेकर और लड़ाई झगड़ा करके नहीं निपटाने चाहिए। हिंदू और मुसलमान मुंह से तो कहते हैं कि धर्म में जबरदस्ती का कोई स्थान नहीं है लेकिन यदि हिंदू गाय को बचाने के लिए मुसलमान की हत्या करें तो वह जबरदस्ती के सिवा और क्या है। यह तो मुसलमान को बलात हिंदू बनाने जैसी ही बात है। इसी तरह यदि मुसलमान जोर-जबरदस्ती से हिंदुओं को मस्जिदों के सामने बाजा बजाने से रोकने की कोशिश करते हैं तो यह भी जबरदस्ती के सिवा और क्या है। धर्म तो इस बात में है कि आसपास चाहे जितना शोरगुल होता रहे फिर भी हम अपनी प्रार्थना में तल्लीन रहें। यदि हम एक दूसरे को अपनी धार्मिक इच्छाओं का सम्मान करने के लिए बाध्य करने की बेकार कोशिश करते रहें तो भावी पीढ़ियां हमें धर्म के तत्वों से बेखबर जंगली ही समझेंगी।"
गांधीजी के अनुसार "गोरक्षा को मैं हिंदू धर्म का प्रधान अंग मानता हूं। प्रधान इसलिए कि उच्च वर्गों और आम जनता दोनों के लिए यह समान है। फिर भी इस बारे में हम जो केवल मुसलमानों पर ही रोष करते हैं, यह बात किसी भी तरह से मेरी समझ में तो नहीं आती। अंग्रेजों के लिए तो रोज इतनी गाय कटती है किंतु इस बारे में तो हम कभी जबान तक भी शायद ही हिलाते होंगे। केवल जब कोई मुसलमान गाय की हत्या करता है तभी हम क्रोध के मारे लाल पीले हो जाते हैं। गाय के नाम से जितने झगड़े हुए हैं उनमें से प्रत्येक में निरा पागलपन भरा शक्ति क्षय हुआ है। इससे एक भी गाय नहीं बची। उलटे मुसलमान ज्यादा जिद्दी बने हैं और इस कारण ज्यादा गायें कटने लगी हैं। गोरक्षा का प्रारंभ तो हम ही को करना है हिंदुस्तान में पशुओं की जो दुर्दशा है वह ऐसी दुनिया के किसी भी दूसरे हिस्से में नहीं है। हिंदू गाड़ी वालों को थक कर चूर हुए बैलों को लोहे की तेज आर वाली लकड़ी से निर्दयता पूर्वक हांकते देख कर मैं कई बार रोया हूं। हमारे अधभूखे रहने वाले जानवर हमारी जीती जागती बदनामी के प्रतीक हैं। हम हिंदू गाय को बेचते हैं इसीलिए गायों की गर्दन कसाई की छुरी का शिकार होती है। ऐसी हालत में एकमात्र सच्चा और शोभास्पद उपाय यही है कि हम मुसलमानों के दिल जीत लें और गाय का बचाव करना उनकी शराफत पर छोड़ दें। गोरक्षा मंडलों को पशुओं को खिलाने पिलाने, उन पर होने वाली निर्दयता को रोकने, गोचर भूमि के दिन रात होने वाले लोप को रोकने, पशुओं की नस्ल सुधारने, गरीब ग्वालों से उन्हें खरीद लेने और मौजूदा पिंजरापोलों को दूध की आदर्श स्वावलंबी डेयरी बनाने की तरफ ध्यान देना चाहिए। ऊपर बताई हुई बातों में से एक के भी करने में हिंदू चूकेंगे तो वे ईश्वर और मनुष्य दोनों के सामने अपराधी ठहरेंगे। मुसलमानों के हाथ से होने वाले गोवध को वे रोक न सकें तो इसमें उनके पाप नहीं चढ़ता लेकिन जब गाय को बचाने के लिए मुसलमानों के साथ झगड़ा करने लगते हैं तब वे जरूर भारी पाप करते हैं।"
गांधी जी हमें सहिष्णु बनने और मैत्री भाव रखने की सीख देते हैं- "मैंने सुना है कि कई जगह हिंदू लोग जानबूझकर और मुसलमानों का दिल दुखाने के इरादे से ही आरती ठीक उसी समय करते हैं जब मुसलमानों की नमाज शुरू होती है। यह हृदयहीन और शत्रुता पूर्ण कार्य है। मित्रता में मित्र के भावों का पूरा पूरा ख्याल रखा ही जाना चाहिए। इसमें तो कुछ सोच विचार की भी बात नहीं है। लेकिन मुसलमानों को हिंदुओं से डरा धमकाकर बाजा बंद करवाने की आशा नहीं रखनी चाहिए। धमकियों अथवा वास्तविक हिंसा के आगे झुक जाना अपने सम्मान और धार्मिक विश्वासों का हनन है। लेकिन जो आदमी धमकियों के आगे नहीं झुकेगा, वह जिनसे प्रतिपक्षी को चिढ़ होती हो ऐसे मौके हमेशा यथासंभव कम करने की और संभव हो तो टालने की भी पूरी कोशिश करेगा।
मुझे इस बात का पूरा विश्वास है कि यदि नेता ना लड़ना चाहें तो आम जनता को लड़ना पसंद नहीं है इसलिए यदि नेता लोग इस बात पर राजी हो जाएं कि दूसरे सभ्य देशों की तरह हमारे देश में भी आपसी लड़ाई झगड़ों का सार्वजनिक जीवन से पूरा उच्छेद कर दिया जाना चाहिए और वह जंगलीपन एवं अधार्मिकता के चिह्न माने जाने चाहिए तो मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि आम जनता शीघ्र ही उनका अनुकरण करेगी।" (यंग इंडिया, 24 दिसंबर 1931)
महात्मा गांधी रिलिजन को स्पिरिचुअलिटी की सूक्ष्मता प्रदान करते हैं और इस प्रकार कर्मकांडों को गौण बना देते हैं जबकि कट्टरवादी विचारधारा स्थूल धार्मिक प्रतीकों और रूढ़ कर्मकांडों की रक्षा को राष्ट्र गौरव का विषय मानती है। मैं आप सबसे आग्रह करता हूँ कि गांधी जी को पढ़ते समय यह ध्यान रखें कि किसी शब्द विशेष का प्रयोग वे किस अर्थ में करते रहे हैं। उदाहरण स्वरूप राम राज्य शब्द को लिया जा सकता है। इसका प्रयोग महात्मा गांधी ने पौराणिक राम राज्य के लिए नहीं अपितु ऐसे राज्य के लिए किया था जो न्यूनतम शासन करता हो। गांधी जी टॉलस्टॉय और थोरो से प्रभावित थे और एनलाइटण्ड अनार्की के समर्थक थे। उनका मत था कि आदर्श स्थिति में लोग नैतिक रूप से इतने विकसित हो जाएंगे कि स्वयं को नियमित और नियंत्रित कर सकेंगे, इस दशा में राज्य की आवश्यकता नहीं रहेगी। किंतु आज गांधी जी के राम राज्य का उपयोग गलत संदर्भों में किया जा रहा है।
गांधीजी के अनुसार - "दुनिया में कोई भी एक धर्म पूर्ण नहीं है। सभी धर्म उनके मानने वालों के लिए समान रूप से प्रिय हैं। इसलिए जरूरत संसार के महान धर्मों के अनुयायियों में सजीव और मित्रतापूर्ण संपर्क स्थापित करने की है ना कि हर संप्रदाय द्वारा दूसरे धर्मों की अपेक्षा अपने धर्म की श्रेष्ठता जताने की व्यर्थ कोशिश करके आपस में संघर्ष पैदा करने की। ऐसे मित्रतापूर्ण संबंध के द्वारा हमारे लिए अपने अपने धर्मों की कमियों और बुराइयों को दूर करना संभव होगा।" (यंग इंडिया, 23 अप्रैल 1931)
गांधी लिखते हैं- " किसी भी धर्म में यदि मनुष्य का नैतिक आचार कैसा है इस बात की परवाह न की जाए तो फिर पूजा की पद्धति विशेष- वह पूजा गिरजाघर मस्जिद या मंदिर में कहीं भी क्यों न की जाए- एक निरर्थक कर्मकांड ही होगी, इतना ही नहीं वह व्यक्ति या समाज की उन्नति में बाधा रूप भी हो सकती है और पूजा की अमुक पद्धति के पालन का अथवा अमुक धार्मिक सिद्धांत के उच्चारण का आग्रह, हिंसा पूर्ण लड़ाई झगड़ों का एक बड़ा कारण बन सकता है। यह लड़ाई झगड़े आपसी रक्तपात की ओर ले जाते हैं और इस तरह उनकी परिसमाप्ति मूल धर्म में यानी ईश्वर में ही घोर अश्रद्धा के रूप में होती है।"(हरिजन सेवक, 30-01-1937)
गांधीजी समावेशी राष्ट्रवाद की हिमायत करते हैं। वे हमारी बहुलताओं की स्वीकृति के पक्षधर हैं। उनका स्पष्ट मत है कि धर्म एक व्यक्तिगत विषय है और राज्य को धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप कदापि नहीं करना चाहिए। वे धर्म और राजनीति को पृथक रखने का प्रबल आग्रह करते हैं। गांधीजी राष्ट्र के निर्माण और उसके स्थायित्व के लिए धार्मिक सहिष्णुता को प्राथमिक आवश्यकता के रूप में प्रस्तुत करते हैं। वे बहुत शालीनता से हमें चेतावनी देते हैं कि सर्व धर्म समभाव की अवधारणा न केवल नैतिक रूप से वरेण्य है अपितु इस पर अमल करना हमारी विवशता भी है क्योंकि इसी प्रकार हम अपनी और अपने राष्ट्र की रक्षा तथा उन्नति कर सकते हैं। उनका स्पष्ट मत है कि धर्म हमारे देश की नागरिकता का आधार नहीं बन सकता। गांधी जी के अनुसार- "हिंदुस्तान में चाहे जिस मजहब के मानने वाले रहे उससे अपनी एकजुटता मिटने वाली नहीं। नए आदमियों का आगमन किसी राष्ट्र का राष्ट्रपन नष्ट नहीं कर सकता। यह उसी में घुलमिल जाते हैं। ऐसा हो तभी कोई देश एक राष्ट्र माना जाता है। उस देश में नए आदमियों को पचा लेने की शक्ति होनी चाहिए। हिंदुस्तान में यह शक्ति सदा रही है और आज भी है। यूं तो सच पूछिए तो दुनिया में जितने आदमी हैं उतने ही धर्म मान लिए जा सकते हैं। पर एक राष्ट्र बनाकर रहने वाले लोग एक दूसरे के धर्म में दखल नहीं देते। करें तो समझ लीजिए वे एक राष्ट्र होने के काबिल ही नहीं हैं। हिंदू अगर यह सोच लें कि सारा हिंदुस्तान हिंदुओं से ही भरा हो तो यह उनका स्वप्न मात्र है। मुसलमान यह मानें कि केवल मुसलमान इस देश में बसें तो इसे भी दिन का सपना ही समझना होगा। हिंदू मुसलमान पारसी ईसाई जो कोई भी इस देश को अपना देश मानकर यहां बस गए हैं वह सब एक देशी, एक मुल्की हैं। देश के नाते भाई भाई हैं और अपने स्वार्थ अपने हित खातिर भी उन्हें एक होकर रहना ही होगा। दुनिया में कहीं भी एक राष्ट्र का अर्थ एक धर्म नहीं माना गया, हिंदुस्तान में भी कभी नहीं रहा। हिन्दू मुसलमान के बीच सहज बैर की धारणा तो उन लोगों के दिमाग की उपज है जो दोनों के दुश्मन हैं। जब हिंदू मुसलमान एक दूसरे से लड़ते थे तब ऐसी बात जरूर कहते थे और उनकी लड़ाई तो कब की खत्म हो चुकी है। हिंदू मुसलमान के और मुसलमान हिंदू के राज्य में रहते आए हैं। कुछ दिन बाद दोनों ने समझ लिया कि लड़ने झगड़ने में किसी का लाभ नहीं। लड़ने से जैसे कोई अपना धर्म नहीं छोड़ता वैसे ही अपना हक भी नहीं छोड़ता इसलिए दोनों ने आपस में मेलजोल से रहने की ठहरा ली।" (हिन्द स्वराज, अध्याय-10, हिंदुस्तान की हालत- 3)
गांधीजी के मतानुसार- "हिंदुस्तान उन सब लोगों का है जो यहां पैदा हुए हैं और पले हैं और जो दूसरे किसी देश का आसरा नहीं ताक सकते। इसलिए वह जितना हिंदुओं का है उतना ही पारसियों बेनी इजरायलों, हिंदुस्तानी ईसाईयों मुसलमानों और दीगर गैर हिंदुओं का भी है। आजाद हिंदुस्तान में राज्य हिंदुओं का नहीं बल्कि हिंदुस्तानियों का होगा और उसका आधार किसी धार्मिक पंथ या संप्रदाय के बहुमत पर नहीं, बल्कि बिना किसी धार्मिक भेदभाव के समूचे राष्ट्र के प्रतिनिधियों पर होगा। मैं एक ऐसे मिश्र बहुमत की कल्पना कर सकता हूं जो हिंदुओं को अल्पमत बना दे। स्वतंत्र हिंदुस्तान में लोग अपनी सेवा और योग्यता के आधार पर ही चुने जाएंगे। धर्म एक निजी विषय है जिसका राजनीति में कोई स्थान नहीं होना चाहिए। विदेशी हुकूमत की वजह से देश में जो अस्वाभाविक परिस्थिति पाई जाती है उसी की बदौलत हमारे यहां धर्म के अनुसार इतने बनावटी फिरके बन गए हैं।"(हरिजन सेवक, 1-08-1942)
गांधी धर्म को राज्य संचालन का आधार बनाने का विरोध करते हैं- "अपने धर्म पर मेरा अटूट विश्वास है। मैं उसके लिए अपने प्राण दे सकता हूं। लेकिन वह मेरा निजी मामला है। राज्य को उससे कुछ लेना देना नहीं है। राज्य हमारे लौकिक कल्याण की - स्वास्थ्य, आवागमन विदेशों से संबंध, करेंसी आदि की- देखभाल करेगा लेकिन हमारे या तुम्हारे धर्म की नहीं। धर्म हर एक का निजी मामला है।"(हरिजन सेवक, 22-01-1946)
गांधीजी की इतिहास दृष्टि में मध्य काल के इतिहास को हिन्दू मुस्लिम संघर्ष के काल के रूप में देखने की प्रवृत्ति बिल्कुल नहीं थी। वे यह मानते थे कि शासक किसी भी धर्म का हो, यदि वह अत्याचारी है तो उसका अहिंसक प्रतिकार किया जाना चाहिए। यदि आप सब प्रबुद्ध जन इतिहास का सावधानी पूर्वक अध्ययन करें तो आपको यह ज्ञात होगा कि चाहे राजा हिन्दू रहा हो या मुसलमान आम लोगों के जीवन में, किसानों, मजदूरों और स्त्रियों की स्थिति में कोई विशेष गुणात्मक परिवर्तन नहीं आया था। इन आम लोगों में हिन्दू भी सम्मिलित थे और मुसलमान भी। हिन्दू सैनिक मुसलमान राजाओं को ओर से युद्ध करते थे और मुसलमान सैनिक हिन्दू राजाओं की तरफ से लड़ा करते थे। गांधी जी की दृष्टि में साम्प्रदायिक एकता बनाए रखने का दायित्व बहुसंख्यक समुदाय पर अधिक है क्योंकि वह अधिक शक्तिशाली है, उसे अल्पसंख्यक समुदाय को विश्वास में लेना चाहिए। किंतु वे यह भी स्पष्ट करते हैं कि जिस स्थान पर जो समुदाय अधिक समर्थ और मजबूत है उसका दायित्व बनता है कि वह अपने सामर्थ्य और सक्षमता का उपयोग दूसरे समुदाय की बेहतरी के लिए करे। गांधी जी यह भी संकेत करते हैं कि बहुसंख्यक समुदाय यदि निरन्तर अत्याचार करता रहे तो अल्पसंख्यक हिंसा की ओर उन्मुख हो सकते हैं। गांधी जी के मतानुसार - "अगर हिंदू लोग विविध जातियों के बीच एकता चाहते हैं तो उनमें अल्पसंख्यक जातियों का विश्वास करने की हिम्मत होनी चाहिए। यदि हम सत्याग्रह का सही उपयोग करना सीख गए हैं तो हमें यह जानना चाहिए कि उसका उपयोग किसी भी अन्यायी शासक के खिलाफ - वह हिंदू मुसलमान या अन्य किसी भी कौम का हो- किया जा सकता है और किया जाना चाहिए। इसी तरह न्यायी शासक या प्रतिनिधि, हमेशा और समान रूप से अच्छा होता है फिर वह हिंदू हो या मुसलमान। हमें सांप्रदायिक भावना छोड़नी चाहिए। इसलिए इस प्रयत्न में बहुसंख्यक समाज को पहल करके अल्पसंख्यक जातियों में अपनी ईमानदारी के विषय में विश्वास पैदा करना चाहिए। मेल और समझौता तभी हो सकता है जबकि ज्यादा बलवान पक्ष दूसरे पक्ष के जवाब की राह देखे बिना सही दिशा में बढ़ना शुरु कर दे।" (यंग इंडिया, 29-05-1924)
गांधी सांप्रदायिकता की प्रवृत्ति का सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए इसके समाधान की ओर संकेत करते हैं- "अगर स्थिति यह हो कि बड़े संप्रदाय को छोटे संप्रदाय से डर लगता हो तो वह इस बात की सूचक है या तो (1) बड़े संप्रदाय के जीवन में किसी गहरी बुराई ने घर कर लिया है और छोटे संप्रदाय में पशु बल का मद उत्पन्न हुआ है (यह पशु बल राजसत्ता की बदौलत हो या स्वतंत्र हो) अथवा (2) बड़े संप्रदाय के हाथों कोई ऐसा अन्याय होता आ रहा है जिसके कारण छोटे संप्रदाय में निराशा से उत्पन्न होने वाला मर मिटने का भाव पैदा हो गया है। दोनों का उपाय एक ही है बड़ा संप्रदाय सत्याग्रह के सिद्धांतों का अपने जीवन में आचरण करे। वह अपने अन्याय, सत्याग्रही बनकर चाहे जो कीमत चुका कर भी दूर करे और छोटे संप्रदाय के पशु बल को अपनी कायरता को निकाल बाहर करके सत्याग्रह के द्वारा जीते। छोटे संप्रदाय के पास यदि अधिक अधिकार, धन, विद्या, अनुभव आदि का बल हो और इस बड़े संप्रदाय को उससे डर लगता रहता हो तो छोटे संप्रदाय का धर्म है कि शुद्ध भाव से बड़े संप्रदाय का हित करने में अपनी शक्ति का उपयोग करे। सब प्रकार की शक्तियां तभी पोषण योग्य समझी जा सकती हैं जब उनका उपयोग दूसरे के कल्याण के लिए हो। दुरुपयोग होने से वे विनाश के योग्य बनती हैं और चार दिन आगे या पीछे उनका विनाश होकर ही रहेगा। यह सिद्धांत जिस प्रकार हिंदू- मुसलमान- सिख आदि छोटे-बड़े संप्रदायों पर घटित होते हैं उसी प्रकार अमीर-गरीब, जमींदार-किसान, मालिक-नौकर, ब्राह्मण-ब्राह्मणेतर इत्यादि छोटे-बड़े वर्गों के आपस में संबंधों पर भी घटित होते हैं।"(किशोर लाल मशरूवाला, गांधी विचार दोहन, पृष्ठ 73-74)
गांधीजी सांप्रदायिकता की उत्पत्ति के लिए अंग्रेज शासकों को उत्तरदायी मानते हैं और इसे एक नई एवं आरोपित प्रवृत्ति सिद्ध करते हैं- "हिंदू इतिहासकारों और मुसलमान इतिहासकारों ने उदाहरण देकर यह सिद्ध किया है कि जब अंग्रेजों का शासन नहीं था तब हम -हिंदू मुसलमान और सिख- आपस में मिल जुल कर रहते। थे उन दिनों हम बिल्कुल ही नहीं लड़ते थे। यह लड़ाई झगड़ा पुराना नहीं है।" (यंग इंडिया 24-12-1931)
साठ के दशक में मार्टिन लूथर किंग जूनियर और उनके साथियों ने गांधी को थोड़ा बहुत आत्मसात किया और उनका अनुकरण किया फलस्वरूप वे अमेरिका में नागरिक अधिकारों के आंदोलन का नेतृत्व सफलतापूर्वक कर सके। गांधी से प्रेरित नेल्सन मंडेला ने 1990 के दशक में लंबे कारावास और अत्याचारों की कटुता को भुलाते हुए जब नए दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद की समाप्ति और श्वेतों के लिए भी बिना किसी भेदभाव के समान अधिकारों की घोषणा की तब घृणा, हिंसा और प्रतिशोध के लंबे एवं दुःखद अध्याय की समाप्ति हुई और स्थायी शांति स्थापित हुई। गांधी जी द्वारा दमन और शोषण के अहिंसक प्रतिरोध का तरीका जिसमें शत्रुओं के लिए भी किसी प्रकार की कटुता एवं वैमनस्य के लिए स्थान न था, पूरे विश्व में कितने ही छोटे बड़े संघर्षों के सम्पूर्ण समाधान का जरिया बना और स्थायी शांति एवं एकता की स्थापना में सहायक भी रहा।
दुर्भाग्य से हम भारतीय ऐसा न कर सके और हमने गांधी जी को हाशिए पर डालने के लिए अपनी अपनी विचारधाराओं और राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के अनुकूल उनके अपूर्ण और संकीर्ण पाठ तैयार किए जो न केवल गांधीवाद से असंगत थे अपितु अनेक बार गांधी जी की मूल अवधारणाओं से एकदम विपरीत भी थे। हमने राष्ट्रपिता के साथ केवल इतनी रियायत बरती कि उन्हें एकदम से रद्दी की टोकरी में नहीं फेंक दिया। हमने उन्हें भव्य स्मारकों और संग्रहालयों में कैद करने की कोशिश की। उन्हें विशाल अजीवित प्रतिमाओं में बदलने की चेष्टा की। हमने सत्याग्रही गांधी को स्वच्छाग्रही गांधी के रूप में रिड्यूस करने का प्रयास किया। हिन्दू धर्म के सबसे उदार एवं अहिंसक समर्थक को हमने निर्ममतापूर्वक ठोक पीटकर हिंसक हिंदुत्व के संकीर्ण खांचे में डालने की कोशिश की। कभी उनके आकलन में हमसे चूक हुई और हमने उन्हें वर्ग संघर्ष और सर्वहारा के राज्य का विरोधी और जनक्रांति के मार्ग में बाधक प्रतिक्रियावादी तथा धार्मिक एवं सांस्कृतिक पुनरुत्थान वादी की संज्ञा दी। हम गांधी की सीखों पर अमल न कर पाए और हमने स्वयं को हिंसा- प्रतिहिंसा एवं घृणा की लपटों में झुलसकर नष्ट होने के लिए छोड़ दिया है। गांधीवाद हमारी अस्तित्व रक्षा के लिए आवश्यक है और इससे हमारा विचलन हमें गंभीर सामाजिक विघटन की ओर ले जा सकता है।
(रायगढ़, छत्तीसगढ़)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नवजोतसिंह सिद्धू का मामला अभी अधर में ही लटका हुआ है और इधर कल-कल में कुछ ऐसी घटनाएं और भी हो गई हैं, जो कांग्रेस पार्टी की मुसीबतों को तूल दे रही हैं। पहली बात तो यह कि पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदरसिंह दिल्ली जाकर गृहमंत्री अमित शाह से मिले। क्यों मिले? बताया गया कि किसान आंदोलन के बारे में उन्होंने बात की। की होगी लेकिन किस हैसियत में की होगी ? अब वे न मुख्यमंत्री हैं, न कांग्रेस अध्यक्ष! तो बात यह हुई होगी कि अमरिंदर का अगला कदम क्या होगा ? वे भाजपा में प्रवेश करेंगे या अपनी नई पार्टी बनाएंगे या घर बैठे कांग्रेस की जड़ खोदेंगे? उधर गोवा के शीर्ष कांग्रेसी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री ल्युजिनो फलीरो ने कांग्रेस छोड़कर तृणमूल कांग्रेस का हाथ थाम लिया है। गोवा में कांग्रेस की दाल पहले से ही काफी पतली हो रही है और अब नौ अन्य कांग्रेसी नेताओं के साथ फलीरो का तृणमूल में जाना गोवा की कांग्रेस के चार विधायकों की संख्या को घटाकर आधी न कर दे?
यह ठीक है कि कन्हैया कुमार और जिग्नेश मेवानी ने कांग्रेस से जुडऩे की घोषणा कर दी है। ये दोनों युवा नेता दलितों और वंचितों को कांग्रेस से जोडऩे में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं लेकिन असली सवाल यह है कि क्या वे कांग्रेस में रहकर वैसा कर पाएंगे? इस समय कांग्रेस में माँ-बेटा और बहन के अलावा जितने भी नेता हैं, क्या उनकी स्थिति देश के दलितों से बेहतर है? दलितों के कुछ संवैधानिक अधिकार तो हैं और उन पर अन्याय हो तो वे अदालत की शरण में जा सकते हैं लेकिन कांग्रेसी जब दले जाते हैं तो वे किसकी शरण में जाएँ? जी-23 के नेता कपिल सिब्बल चाहे दावा करें कि उनके 23 पत्रलेखक कांग्रेसी नेता जी-23 तो हैं लेकिन वे जी-हुजूर—23 नहीं हैं, लेकिन उनके इस दावे पर मुझे एक शेर याद आ रहा है- 'इश्के-बुतां में जिंदगी गुजर गई मोमिन। आखरी वक्त क्या खाक मुसलमां होंगे?Ó इंदिरा कांग्रेस में वहीं नेता अभी तक टिक सके हैं और आगे बढ़ सके हैं, जो चापलूसी के महापंडित हैं। शरद पवार और ममता बनर्जी जैसे कितने नेता हैं ? इंदिराजी ने नई कांग्रेस का जो बीज बोया था, वह वटवृक्ष बन गया था।
इस वटवृक्ष में अब घुन लग गया है। दो साल हो गए, पार्टी का कोई बाकायदा अध्यक्ष नहीं है और पार्टी चल रही है, जैसे युद्ध में बिना सर के धड़ चला करते हैं। पता नहीं, यह धड़ अब कितने कदम और चलेगा? राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस के इस शरीर के लडख़ड़ाने की खबर आती रहती है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि हमारी आज की कांग्रेस मुगल बादशाह मुहम्मदशाह रंगीले की तरह अपनी आखरी सांसें गिन रही है। देश के लोकतंत्र के लिए इससे बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण बात क्या हो सकती है? यदि कांग्रेस बेजान हो गई तो भाजपा को कांग्रेस बनने से कौन रोक सकता है? तब पूरा भारत ही जी-हुजरों का लोकतंत्र बन जाएगा। इस वक्त भाजपा और कांग्रेस का अंदरुनी हाल एक-जैसा होता जा रहा है लेकिन आम जनता में अब भी भाजपा की साख कायम है। याने अंदरुनी लोकतंत्र सभी पार्टियों में शून्य को छू रहा है लेकिन यही प्रवृत्ति बाहरी लोकतंत्र पर भी हावी हो गई तो हमारी पार्टियों की इस नेताशाही को तानाशाही में बदलते देर नहीं लगेगी। यदि हम संयुक्तराष्ट्र संघ में जाकर भारत को 'लोकतंत्र की अम्माÓ घोषित कर रहे हैं तो हमें अपनी इस अम्मा के जीवन और सम्मान की रक्षा के लिए सदा सावधान रहना होगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-चैतन्य नागर
इतिहासकार गोपाल कृष्ण गाँधी ने महात्मा गाँधी की शव यात्रा के बारे में लिखा है कि यह एक विडम्बना ही थी कि अहिंसा के पुजारी गाँधीजी के शव को तोप ढोने वाले वाहन में रखा गया था। गाँधीजी के सचिव प्यारेलाल ने लिखा है कि गाँधीजी अपने शव को रसायन में लपेटकर सुरक्षित रखने के विरोधी थे और उन्होंने सख्त हिदायत दी थी कि जहाँ उनकी मृत्यु हो, वहीं उनका अंतिम संस्कार कर दिया जाना चाहिए। पर प्यारेलाल के दस्तावेजों में यह उल्लेख भी मिलता है कि उनके दाह संस्कार में ‘पंद्रह मन चन्दन की लकडिय़ाँ, चार मन घी, दो मन धूप, एक मन नारियल के छिलके और पंद्रह सेर कपूर का उपयोग हुआ’। जो इंसान एक फक़ीर की तरह रहा, और अपना जीवन बस थोड़े से सामान के साथ बिताया, उसके दाह संस्कार में इतना कुछ खर्च किया गया! यदि गाँधी इस बारे में पूरी स्पष्टता से निर्देश देते तो शायद यह सब थोड़े संयम के साथ होता, जैसा वे शायद खुद भी चाहते। इस मामले में दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति बड़े स्पष्ट थे।
कृष्णमूर्ति से उनके निकट सहयोगियों ने पूछा था कि उनके शव के साथ क्या किया जाना चाहिए। उन्होंने बड़े विस्तार से बताया था कि शव को स्नान करवाने के बाद एक साफ कपड़े में लपेटा जाए, जो महंगा न हो और फिर जितनी जल्दी हो सके, उसका दाह संस्कार कर दिया जाए। शव को कम से कम लोग देखें, कोई कर्मकांड न हो। अस्थियों का क्या किया जाना चाहिए, इस सवाल पर उन्होंने कहा कि आप जो चाहे करें बस उसके ऊपर कोई स्मारक, मंदिर वगैरह न बनाया जाए।
सुकरात से भी उनके मित्रों ने पूछा था उनके शव के साथ क्या किया जाना चाहिए। सुकरात ने कहा- ‘पहले मुझे पकड़ तो लेना, और सुनिश्चित कर लेना कि जिसे पकड़ा है वह मैं ही हूँ; फिर जो चाहे कर लेना!’ एंड्रू रोबिनसन ने सत्यजित रे की जीवनी ‘द इनर ऑय’ में एक दिलचस्प बात लिखी है। कविगुरु रविन्द्रनाथ टैगोर की मृत्यु के बाद सत्यजित रे टैगोर के घर पहुँच गए थे और वहां नन्दलाल बोस को सफेद फूलों से गुरुदेव के शव को सजाते हुए देखा। यहाँ तक तो ठीक था, पर जब शवयात्रा शुरू हुई, तो जिसके लिए मुमकिन हुआ उन लोगों ने कविगुरु की दाढ़ी का कम से कम एक बाल नोचने की कोशिश की, अपनी स्मृति के लिए!
पंजाब में हो रही उठापटक अब कांग्रेस की एकमात्र चिंता नहीं रही. पार्टी अब वरिष्ठ नेताओं की नाराजगी, दूसरे राज्यों में भी संगठन के स्तर पर संकट और प्रतिरोधी मीडिया से भी लड़ रही है.
डॉयचे वेले पर चारु कार्तिकेय की रिपोर्ट
पिछले कुछ दिनों में पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष के पद से नवजोत सिंह सिद्धू के इस्तीफे ने सारी सुर्खियां जरूर बटोर लीं, लेकिन यह इस समय कांग्रेस की एकलौती समस्या नहीं है. 27 सितंबर को गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री लुईजिनियो फलेरो ने भी कांग्रेस से इस्तीफा दे कर तृणमूल कांग्रेस का दामन थाम लिया था.
फलेरो ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को भेजे अपने इस्तीफे में लिखा कि "यह अब वो पार्टी नहीं रही जिसके लिए हमने त्याग और संघर्ष किया था." उन्होंने यह भी लिखा कि उन्हें अब "पार्टी के विनाश को बचाने की ना कोई उम्मीद नजर आती है और ना इच्छाशक्ति."
"जी-23" बनाम "जी हुजूर 23"
इसके कुछ ही दिन पहले कांग्रेस की युवा नेता और उस समय महिला कांग्रेस की अध्यक्ष सुष्मिता देव ने भी पार्टी से इस्तीफा दे दिया था. इस्तीफों की इस लंबी फेहरिस्त की ओर इशारा करते हुए पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिबल ने एक समाचार वार्ता में कहा कि जिन नेताओं को पार्टी नेतृत्व के करीबी समझा जाता था वो इस्तीफा दे रहे हैं जबकि "हमलोग" जिन्हें पार्टी नेतृत्व के करीब नहीं समझा जाता अभी भी पार्टी के साथ खड़े हैं.
सिबल ने कहा, "हम जी-23 हैं, जी हुजूर 23 नहीं हैं." जी-23 उन 23 कांग्रेस नेताओं को कहा जाता है जिन्होंने अगस्त 2020 में सोनिया गांधी को एक चिट्ठी लिखकर पार्टी के बार बार चुनावों में हारने पर चिंता व्यक्त की थी और पार्टी में आमूलचूल परिवर्तन की मांग की थी.
इस समूह में सिबल के अलावा गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा, मनीष तिवारी, वीरप्पा मोइली, भूपेंद्र सिंह हूडा जैसे कई बड़े नेता शामिल हैं. ताजा इस्तीफों के मद्देनजर सिबल के साथ साथ आजाद ने भी मांग की है कि पार्टी के अंदरूनी फैसले लेने वाली सर्वोच्च संस्था कांग्रेस कार्यकारी समिति की बैठक बुलाई जाए.
जी-23 के नेताओं को लेकर पार्टी के एक धड़े में शुरू से लेकर नाराजगी रही है लेकिन 29 सितंबर को पहली बार सिबल के बयान के बाद कुछ कांग्रेस कार्यकर्ताओं द्वारा हिंसक प्रतिक्रिया देखी गई. युवा कांग्रेस के कुछ कार्यकर्ताओं ने नई दिल्ली में सिबल के घर के बाहर प्रदर्शन किया, उनके घर पर टमाटर फेंके और उनकी एक गाड़ी को नुकसान पहुंचाया.
आक्रामक कार्यकर्ता
कार्यकर्ताओं ने "जल्दी ठीक हो जाओ, कपिल सिबल" के पोस्टर उठा रखे थे. उन्होंने "पार्टी छोड़ दो! होश में आओ!" और "राहुल गांधी जिंदाबाद!" नारे भी लगाए. इन घटनाओं के बाद आनंद शर्मा ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं के इस आचरण की निंदा की और कहा कि "असहिष्णुता और हिंसा कांग्रेस की संस्कृति के खिलाफ हैं". उन्होंने सोनिया गांधी से इन कार्यकर्ताओं के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग की.
दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस की अंदरूनी कलह में एक बार फिर उफान आ गया. राज्य के कम से कम 15 कांग्रेस विधायक नई दिल्ली आ गए हैं, जिसकी वजह से एक बार फिर फिर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंह देओ के बीच सत्ता की लड़ाई को लेकर अटकलें तेज हो गई हैं.
सिंह देओ के समर्थकों का कहना है कि बघेल के कार्यकाल के ढाई साल पूरे हो गए हैं और पार्टी को अब अपने वादे के मुताबिक सिंह देओ को मुख्यमंत्री बना देना चाहिए. छत्तीसगढ़ में यह संकट काफी समय से चल रहा है लेकिन पार्टी हाई कमान ने अभी तक बघेल को मुख्यमंत्री पद से हटाने का कोई संकेत नहीं दिया है.
मीडिया से लड़ाई
इस बीच अंदरूनी झगड़ों से जूझती पार्टी ने उसके प्रति विशेष रूप से प्रतिरोधी होते मीडिया के एक धड़े के खिलाफ भी मोर्चा खोल दिया है. 28 सितंबर को टाइम्स नाउ टीवी चैनल पर एक बहस के दौरान चैनल की मुख्य सम्पादक नाविका कुमार ने राहुल गांधी के खिलाफ एक अपशब्द का इस्तेमाल कर दिया, जिसका पार्टी ने काफी आक्रामक तरीके से विरोध किया.
भूपेश बघेल समेत कई नेताओं ने सोशल मीडिया पर मीडिया को चेतावनी दी.
उसके बाद कुछ कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने चैनल के दफ्तर में घुस कर प्रदर्शन किया और चैनल के अधिकारियों के सामने अपना विरोध जताया. पूरे प्रकरण के बाद नाविका कुमार और टाइम्स नाउ ने अभद्र टिप्पणी के लिए माफी मांगी.
कुल मिला कर नजर यही आ रहा है कि एक पूर्ण कालिक राष्ट्रीय अध्यक्ष के अभाव से जूझती कांग्रेस इस समय कई चुनौतियों का एक साथ सामना कर रही है. देखना होगा कि पार्टी इन प्रकरणों का सामना मजबूत से कर पाती है या नहीं. (dw.com)