विचार/लेख
-डाॅ. लखन चौधरी
छत्तीसगढ़ बनने के बाद राज्य में पहली बार प्रोफेसर पदों पर भर्ती होने जा रही है। राज्य के शासकीय महाविद्यालयों के लिए 595 प्रोफेसर पदों की सीधी भर्ती के लिए लोक सेवा आयोग के माध्यम से विज्ञापन जारी किया है। उल्लेखनीय है कि नया राज्य बनने के पूर्व 1990 से लेकर 2021 तक प्रदेश में प्रोफेसर पद पर भर्ती नहीं हुई है। अब जब 30 साल बाद भर्ती होनेे जा रही है, तो इसमें सरकार की ओर से अनेकों प्रकार की विसंगतियां डाल दी गई हैं। जिसको लेकर राज्य के सहायक प्राध्यापकों में भारी असंतोष एवं नाराजगी है।
नई भर्ती हेतु जारी विज्ञापन के अनुसार प्रोफेसर पद के लिए सामान्य उम्मीदवारों के लिए 45 वर्ष की आयु सीमा निर्धारित है। जबकि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अनुसार सहायक प्राध्यापक, सह-प्राध्यापक एवं प्राध्यापक किसी भी पद के लिए आयु सीमा का कोई बंधन नहीं रहता है। शैक्षणिक योग्यता एवं अन्य सभी नियम-शर्तें जब विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अनुसार हैं तो फिर आयु बंधन क्यों ? राज्य के या केन्द्र के विश्वविद्यालयों में भी भर्ती में आयु सीमा का कोई बंधन नहीं रहता है, फिर लोक सेवा आयोग की भर्ती में क्यों है ? यह समझ से परे है।
दूसरी विसंगति आयु सीमा में राज्य के अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग के अभ्यर्थी को 5 वर्ष की, महिलाओं को 10 वर्ष की छूट दी जा रही है तो फिर सामान्य वर्ग के अभ्यर्थी के साथ भेदभाव क्यों ? राज्य के स्थानीयता का लाभ या छूट सभी वर्ग के उम्मीदवार को मिलेगा लेकिन सामान्य वर्ग के अभ्यर्थी को नहीं मिलेगा, ऐसा क्यों ? अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग के महिला अभ्यर्थी को 15 वर्ष की छूट क्यों ? साफ है इससे सबसे अधिक नुकसान सामान्य एवं ओबीसी वर्ग के पुरुष अभ्यर्थियों का होगा, जो 45 वर्ष की आयु पार कर चुके हैं वे सीधे तौर पर इस भर्ती से ही बाहर हो जायेंगे।
ज्ञात हो राज्य बनने के बाद अभी तक प्रोफेसर पद पर कोई भर्ती ही नहीं हुई है, ऐसे में इस तरह के नियम-शर्तें बनाने का मकसद राज्य के बाहरी उम्मीदवारों को अवसर देना है। इससे राज्य के बाहर के या निजी महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में कार्यरत अभ्यर्थियों को मौका मिलेगा और राज्य के योग्यताधारी सहायक प्राध्यापक बाहर हो जायेंगे।
राज्य के जिन अभ्यर्थियों के पास आवश्यक योग्यता है, वे आयु बंधन में बाहर हो जायेंगे और जो आयु सीमा के भीतर हैं उनके पास आवश्यक अर्हताएं नहीं हैं।
साफ है इससे राज्य के अभ्यर्थियों का चयन नहीं हो पायेगा और सारे बाहरी लोगों को मौका मिलेगा। सरकार या तो भर्ती करना नहीं चाहती है, या बाहरी लोगों को लेकर राज्य के लोगों को इस प्रक्रिया से ही बाहर कर देना चाहती है। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। एक तरफ सरकार का कहना है कि राज्य के महाविद्यालयों में प्रोफेसर के पद नहीं होने के कारण ’नैक’ मूल्यांकन में संतोषजनक ग्रेड नहीं मिल रहा है, वहीं दूसरी तरफ सरकार के नौकरशाह ऐसे नियम-शर्तें बना रहे हैं कि जो बेहद विसंगतिपूर्ण है।
यहां प्राध्यापक के 595 पदों के विज्ञापन से छत्तीसगढ़ के बाहर के लोगों को मौका मिलेगा, और स्थानीय लोग बाहर हो जायेंगे। ज्ञातव्य है कि राज्य में 1990 के पश्चात प्राध्यापकों की सीधी भर्ती नहीं हुई है ,जिसके कारण 1993 में पीएससी से चयनित प्रायः सभी सहायक प्राध्यापक निर्धारित उम्र सीमा 45 साल को पार कर चुके हैं, वही दूसरी ओर 2012 में पीएससी से भर्ती सहायक प्राध्यापक अध्यापन अनुभव 10 वर्ष नहीं होने के कारण आवेदन से वंचित हो रहे हैं। इस प्रकार से वर्तमान में छत्तीसगढ़ में कार्यरत अधिकांशतः सहायक प्राध्यापक प्राध्यापक के दौड़ से बाहर हो गए हंै। इसके साथ ही शायद उच्च शिक्षा विभाग पूरे विभागों में ऐसा विभाग होगा, जहां कार्यरत शिक्षक को दो बार परिवीक्षा अवधि से गुजरना होगा, वह भी स्टायपंड जैसी अदभुत योजना के साथ, जिसमे प्रथम तीन वर्षों में मूल वेतन का 70, 80 ,90 प्रतिशत प्रदान कर पदोन्नति को सम्मानित किया जाएगा। जब विभाग 10 वर्ष की न्यूनतम अनुभव की बात करता है तो वही दूसरी तरफ पुनः परिवीक्षा अवधि का निर्धारण विधि सम्मत नहीं है, साथ ही मौलिक अधिकार के अनुच्छेद 14,16 ,19 व 21 का सीधा सीधा उल्लंघन है।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अनुसार राज्य के शासकीय महाविद्यालयों में इस समय एक भी एसोसिएट प्रोफेसर नहीं हैं, जबकि इसका उल्लेख छत्तीसगढ़ के राजपत्र 16 जनवरी 2019 में किया गया है तथा भारत के राजपत्र 18 जुलाई 2018 में भी प्रावधानित है, इसके लिए सरकार चिंतित नहीं है लेकिन प्रोफेसर के सीधी भर्ती के लिए विज्ञापन जारी कर रही है। इसी के साथ एसोसिएट प्रोफेसर के लिए भी भर्ती निकाली जानी चाहिए।
दरअसल में राज्य की नौकरशाहों की मनमानी के चलते राज्य में सहायक प्रोफेसरों को एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर पदोन्नत नहीं किया जा रहा है, वहीं प्रोफेसर भर्ती में विसंगतिपूर्ण नियम-शर्तें बनाकर बाहरी लोगों के रास्ता बनाया जा रहा है। इस तरह की विसंगतिपूर्ण भर्ती विज्ञापन को तत्काल वापस लेकर नये सिरे भर्ती विज्ञापन जारी किये जाने की जरूरत है जिसमें एसोसिएट प्रोफेसर के लिए भी भर्ती शामिल हो।
-रमेश अनुपम
सन् 1948 में किशोर साहू द्वारा निर्मित तथा निर्देशित फिल्म ‘नदिया के पार’ कई अर्थों में एक विलक्षण और ऐतिहासिक फिल्म है।
एक तरह से छत्तीसगढ़ अंचल को पहली बार हिंदी सिनेमा में इस फिल्म के माध्यम से एक नई पहचान देने की कोशिश की गई।
छत्तीसगढ़ी बोली, छत्तीसगढ़ी आभूषण, राजकुमार कॉलेज और छत्तीसगढ़ के शहर रायपुर, मोतीपुर, राजनांदगांव जो इस अंचल की पहचान हैं, उन्हें इस फिल्म के माध्यम से किशोर साहू ने पूरे देश को परिचित करवाया।
अन्यथा देश में आज से 75 वर्ष पहले छत्तीसगढ़ अंचल को इस तरह से कौन जानता था।
तब तक तो मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ का ही कोई अस्तित्व नहीं था।
इस फिल्म का नायक दिलीप कुमार ( छोटे कुंवर ) राजकुमार कॉलेज रायपुर से अपनी पढ़ाई पूरी कर अपने घर लौट रहा है। ट्रेन मोतीपुर (राजनांदगांव) स्टेशन पर खड़ी है, दिलीप कुमार ट्रेन के डिब्बे से नीचे उतरते हैं। फिल्म में उनका यह पहला दृश्य है।
दुबले पतले छैल-छबीले दिलीप कुमार उस समय केवल छब्बीस साल के युवा थे। हिंदी सिनेमा में वे अभी नए-नए थे। उनके बनिस्बत किशोर साहू अभिनेता, निर्देशक, निर्माता, पटकथा लेखक के रूप में हिंदी सिनेमा में अपनी सफलता के झंडे गाड़ चुके थे।
फिल्म के इस पहले ही दृश्य में दिलीप कुमार के अभिनय का जादू अभिभूत करता है। दिलीप कुमार के संवाद बोलने का अपना एक अलग अंदाज और उनकी अभिनय शैली का कहना ही क्या है।
भविष्य के एक सफलतम नायक को इस दृश्य के माध्यम से बखूबी चिन्हा जा सकता है और किशोर साहू के निर्देशन कौशल को सराहा जा सकता है।
इस फिल्म की नायिका कामिनी कौशल भी कम कमसिन और खूबसूरत नहीं है। दिलीप कुमार और कामिनी कौशल की जोड़ी इस फिल्म की जान है।
अपनी इस शानदार फिल्म ‘नदिया के पार’ के बारे में स्वयं किशोर साहू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है-
‘साजन’ के बाद मैंने फिल्मीस्तान के लिए जो तीसरा चित्र बनाया, उसका नाम ‘नदिया के पार’ था। कथा, पटकथा सदैव की भांति मेरी ही थी। कहानी की पृष्ठभूमि मैंने अपना चिरपरिचित छत्तीसगढ़ रखी थी। स्थानीय छत्तीसगढ़ी भाषा का मुक्त उपयोग किया था। मुख्य भूमिका में दिलीप कुमार और कामिनी कौशल को लिया था। दिलीप और कामिनी तब लगभग नए थे।’
किशोर साहू ने आगे अपनी इसी आत्म कथा में इस फिल्म की विशेषताओं को उद्घाटित करते हुए लिखा है-
‘नदिया के पार’ हिंदी चित्रों में पहला था जिसमें नायिका को मैंने चोली ब्लाउज न देकर केवल सूती साड़ी पहनाई थी। उस समय कामिनी कौशल इस वेशभूषा में सुंदर और कलात्मक लगी। उसके बाद से यह छत्तीसगढ़ी संथाली वेशभूषा कई बहाने और कई बार हिंदी चित्रों में आती रही।’
‘नदिया के पार’ की नायिका कामिनी कौशल (फुलवा) छत्तीसगढ़ की महिलाओं द्वारा गले में पहनी जाने वाली सर्वप्रिय आभूषण रुपिया माला और सुता, बाहों में पहने जाने वाली पहुंची से सुसज्जित है। संवाद और गाने छत्तीसगढ़ के रंग में रंगे हुए हैं।
यह किशोर साहू के मन में रचे बसे छत्तीसगढ़ के प्रति प्रेम को प्रदर्शित करता है। सच्चाई तो यह है कि बंबई जाकर भी वे छत्तीसगढ़ को कभी भुला नहीं सके थे। छत्तीसगढ़ जैसे उनके हृदय में धडक़ता था।
अपनी आत्मकथा में उन्होंने अनेक जगहों पर छत्तीसगढ़ को दिल से याद किया है।
‘नदिया के पार’ एक दुखांत फिल्म होते हुए भी अतिशय सफल रही। दिलीप कुमार और कामिनी कौशल को इस फिल्म से अपार ख्याति और प्रतिष्ठा मिली।
इस फिल्म में संगीत सी.रामचंद्र का था। सिनेमैटोग्राफी के.एच.कापडिय़ा की थी। इस फिल्म को लता मंगेशकर, मोहम्मद रफी और शमशाद बेगम ने अपने कर्णप्रिय गानों से गुलजार किया था।
‘कठवा के नैया बनिहै मल्लाहवा नदिया के पार दे उतार’तथा ‘ओ गोरी ओ छोरी कहां चली हो’ जैसे गाने अब कहां सुनने को मिलेंगे । ‘नदिया के पार’ जैसी सुंदर फिल्म भी अब कहां देखने को मिलेगी।
(बाकी अगले सप्ताह)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय ने आज वेब पोर्टल्स और यू ट्यूब चैनलों पर चल रहे निरंकुश स्वेच्छाचार पर बहुत गंभीर प्रतिक्रिया व्यक्त की है। उन्होंने कहा है कि संचार के इन माध्यमों का इतना जमकर दुरुपयोग हो रहा है कि उससे सारी दुनिया में भारत की छवि खराब हो रही है। देश के लोगों को निराधार खबरों, अपमानजनक टिप्पणियों, अश्लील चित्रों और सांप्रदायिक प्रचार का सामना रोजाना करना पड़ता है।
यह राय भारत के मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमन्ना ने उस याचिका पर बहस के समय प्रकट की, जो जमीयते-उलेमा-ए-हिंद ने लगाई थी। जऱा याद करें कि कोरोना को फैलाने के लिए उस समय तबलीगी जमात को किस कदर बदनाम किया गया था। अदालत ने सरकार से अनुरोध किया है कि जैसे अखबारों और टीवी चैनलों के बारे में सरकार ने आचरण संहिता और निगरानी-व्यवस्था कायम की है, वैसी ही व्यवस्था वह इन वेब पोर्टलों और यू ट्यूब चैनलों के बारे में भी करे।
जाहिर है कि यह काम बहुत कठिन है। जहाँ तक अखबारों और टीवी चैनलों का सवाल है, वे आत्म-संयम रखने के लिए स्वत: मजबूर होते हैं। यदि वे अपमानजनक या अप्रामाणिक बात छापें या कहें तो उनकी छवि बिगड़ती है, दर्शक-संख्या और पाठक-संख्या घटती है, विज्ञापन कम होने लगते हैं और उनको मुकदमों का भी डर लगा रहता है लेकिन किसी भी पोर्टल या यू ट्यूब या व्हाटसाप या ई-मेल पर कोई भी कुछ भी लिखकर भेज सकता है। उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। करोड़ों लोग इन साधनों का इस्तेमाल कर रहे हैं।
सरकार को अपने तकनीकी विशेषज्ञों को सक्रिय करके ऐसी विस्तृत नियमावली तैयार करनी चाहिए कि उसका उल्लंघन होने पर एक भी मर्यादाहीन शब्द इन संचार साधनों पर न जा सके। और यदि चला जाए तो दोषी व्यक्ति के लिए कठोरतम सजा का प्रावधान किया जाए। इसका अर्थ यह नहीं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पाबंदियां लगा दी जाएं और नागरिकों पर सरकार अपनी तानाशाही थोप दे। लेकिन नागरिकों को भी सोचना होगा कि वे मर्यादा का पालन कैसे करें।
आजकल हमारे टीवी चैनलों ने भी अपना स्तर कितना गिरा लिया है। वे अपनी सारी शक्ति दर्शकों को उत्तेजक दंगल दिखाने में खर्च कर देते हैं। किसी भी विषय पर विशेषज्ञों का गंभीर विचार-विमर्श दिखाने की बजाय वे पार्टियों के भौंपुओं को अड़ा देते हैं। उसका असर आम दर्शकों पर भी होता है और फिर वे अपनी बेलगाम टिप्पणियां विभिन्न संचार साधनों पर दे मारते हैं। संचार-साधनों का यह दुरुपयोग नहीं रूका तो वह कभी भी किसी बड़े सांप्रदायिक दंगे, तोड़-फोड़, आगजनी और हिंसा का कारण बन सकता है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-दिनेश चौधरी
उनके और मेरे घर के बीच सिर्फ एक दीवार है, इसलिए लिहाज करना पड़ जाता है। आमतौर पर मैं उनसे टकराना नहीं चाहता। घर से बाहर निकलने पर उन्हें कहीं जाते या खड़े हुए देखता हूँ, तो धीरे से कन्नी काट लेता हूँ। न हुआ तो उल्टे पाँव घर में दुबक जाता हूँ। नहीं, वे कोई बुरे आदमी नहीं है। भले इंसान है। इतने भले कि उनकी भलमनसाहत बर्दाश्त नहीं होती।
हमउम्र ही होंगे, या कुछ ज्यादा; पर अभी से बूढ़े लगने लगे हैं। या शायद पैदा ही बूढ़े हुए होंगे। मुझे लगता है कि उनके बचपन और जवानी की कडिय़ाँ गायब हैं। वे बचपन मे भी वैसे ही दिखते रहे होंगे, जैसे अब दिखते हैं। कोई और अक्स जेहन में उभरता ही नहीं। खड़े होते हैं तो कमान की तरह झुके लगते हैं। अजीब-सी मुद्रा होती है। पैदायशी याचक लगते हैं। हाथ हर वक्त जुड़े हुए। आँखे कोटर से बाहर निकलने को बेताब। कभी-कभी यूँ लगता है कि उनके चेहरे पर बस दो आँखे ही रह गयी हैं। मुझे बचपन में पढ़ी वह कहानी याद आती है जिसमें एक इंसान की पत्थर की नकली आँख हुआ करती थी। रात को वह अपनी आँख निकालकर प्लेट में धर देता और नौकर बेचारा मारे डरके रात भर पँखा झलता।
वे कभी किसी पर गुस्सा नहीं करते। उन्हें आज तक किसी बात पर उत्तेजित होते नहीं देखा। कभी किसी से बहस नहीं करते। किसी बात पर ठहाका लगाना तो दूर, हँसते भी नहीं देखा। कुछ बहुत ज्यादा ही विनोद की बात हो तो बस दो आँखे कुछ और बाहर निकल आती हैं। जिस इंसान को कभी हँसते हुए न देखा हो, उसे रोते हुए देखने की बात कहना इस सदी का सबसे बड़ा मजाक होगा। वे अपनी जिंदगी में शायद ही कभी रोए होंगे। दु:ख भी उनके पास फटकने में हजार बार सोचता होगा और उन्हें छूकर और दु:खी हो जाता होगा कि किसके पल्ले पड़ गए। संक्षेप में वे ऐसे किस्म के इंसान हैं, जिसे रसायन-शास्त्र की भाषा में रंगहीन, गंधहीन और स्वादहीन कहा जाता है। भौतिकी के लिहाज से वे जड़ वस्तु हैं और कहना न होगा कि उनका गणितीय योगफल शून्य के बराबर है। आप हजरात सोच रहे होंगे कि मैं उनकी कुछ ज्यादा ही बुराई करने में लगा हुआ हूँ और बेहद खराब किस्म का पड़ोसी हूँ। माफ कीजियेगा! मुझे इसकी सफाई में कुछ नहीं कहना है।
घर में पत्नी और एक बेटा है। नौजवान है। बहुत सारे इम्तिहान दिए पर कहीं कामयाबी नहीं मिली। वैसे लडक़ा भला है पर ‘आई क्य’ लेवल बहुत कमजोर है। कहना नहीं चाहिए, पर उसका कुछ नहीं हो सकता। प्रतियोगिता का जमाना है। सामान्य ज्ञान बढाने के लिए दिन भर टीवी की खबरें देखता है। उसे नहीं पता कि खबरों से ज्ञान नहीं बढ़ रहा है, बुद्धि भ्रष्ट हो रही है। बहुत सीधा है बेचारा। कुछ समझाने की कोशिश करता हूँ तो ‘जी अंकल, जी अंकल’ कहता है। पिता की तरह भला आदमी है। कभी किसी बात पर प्रतिवाद नहीं करता। कोई तर्क नहीं। कोई जिज्ञासा नहीं। मुझे चिंता है कि पिता की तरह वह भी असमय बूढ़ा न हो जाए। बाप निजीकरण का हिमायती है, पर चाहता है कि बेटे को सरकारी नौकरी मिल जाए। अभी कल ही रेल के निजीकरण की चर्चा चल रही थी। उन्होंने कहा, ‘हाँ जी, ये तो बहुत जरूरी है। प्राइवेट सेक्टर में सर्विस अच्छी मिलती है।’
बचते-बचाते भी मिलना तो पड़ता ही है। अभी पिछले सप्ताह वायरल से पीडि़त था। उन्हें पता चला तो दौड़े चले आए। भले पड़ोसी होने का इतना धर्म तो बनता है। उम्र में बड़े हैं, पर उल्टे पैर छूते हैं। मुझे बड़ी कोफ्त होती है। उन्होंने बहुत अपने-पन के साथ शिकायत की कि बुखार में पड़े होने के बावजूद इत्तिला क्यों नहीं की। फिर उन्होंने बहुत सारे नुस्खे, परहेज और खुराक के बारे में बेशकीमती सलाह दी। जड़ी-बूटियों के नाम बताए। कहा कि अंग्रेजी दवाएँ न लूँ, गर्म करती हैं। स्नान नहीं करने की सलाह दी और शाम को मना करने के बावजूद जबरन खिचड़ी ले आए। मैंने सोचा कि उनके जाने के बाद प्लेट धीरे से खिसका दूँगा, पर वे अपने सामने खिलाने पर आमादा हो गए। उनकी आंखों पर नजर पड़ी। मैंने सोचा चुपचाप गुटकने में ही भलाई है। यह ख्याल भी जेहन में आया कि वे ठीक इंसान हैं, मैं ही शायद कुछ कमीने किस्म का हूँ।
मैंने कहा- ‘वायरल सब तरफ फैल रहा है। आप भी जरा बचकर रहें।’ उन्होंने कहा, ‘हाँ जी फैल तो रहा है। सबको होगा तो हमें भी हो सकता है।’
-‘फिर भी सावधानी तो बरतनी ही चाहिए।’
-‘हाँ जी, बिल्कुल बरतनी चाहिए। सब बचे रहेंगे तो हम भी बचे रहेंगे।’
-‘असल में शहर में साफ-सफाई की व्यवस्था ठीक नहीं है। बीमारी महामारी की तरह फैल रही है।’
-‘सभी शहरों का यही हाल है जी। सब जगह महामारी फैल रही है।’
-‘पिछली बार तो कितने ही लोग मर गए। कई तो अपने नजदीकी भी थे।’
-‘सभी जगह लोग मर रहे थे जी। सबके नजदीकी लोग मर रहे थे।’
-‘आपको क्या लगता है, सबके मरने से अपनों के मरने का दुख कम हो जाता है।’
-‘नहीं जी, ऐसा कैसे हो सकता है..। पर सब मर रहे हो तो अपने भी तो मरेंगे।’
-‘आपने टीके लगवा लिए?’
-‘हाँ जी! सब लगवा रहे थे तो हमने भी लगवा लिए।’
उनकी तर्क पद्धति के आगे मैंने हथियार डाल दिए। खिचड़ी गटकना मुश्किल हो रहा था। उबकाई-सी आने लगी। उन्होंने घबराकर मेरे माथे पर हाथ धर दिया। हाथ ठंडा था। वैसा नहीं, जिसकी तासीर में ठंडक हो। मुर्दाघर में रखने वाली बर्फ की सिल्लियों सी ठंडक थी। मैं घबराकर उनका हाथ हटाना चाहता था, पर उनकी आँखों पर नजर पड़ गई। मैंने अपनी आँखें मूँद लीं और देह को ढीला छोड़ दिया।
-गिरीश मालवीय
कल ही चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया ने तबलीगी जमात की मीडिया रिपोर्टिंग को लेकर एक याचिका में वेब पोर्टल ओर 4शह्व ह्लह्वड्ढद्ग चैनलों पर प्रतिकूल टिप्पणी करते हुए कहा कि उन पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं है। वो जो चाहे चलाते हैं। उनकी कोई जवाबदेही भी नहीं है। वो हमें कभी जवाब नहीं देते। वो संस्थाओं के खिलाफ बहुत बुरा लिखते हैं। लोगों के लिए तो भूल जाओ, ज्यूडिशियरी और जजों के लिए भी कुछ भी मनमाना लिखते रहते हैं।’
आज अखबारों में इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस शेखर कुमार यादव जी का वह फैसला छपा है जिसमें उन्होंने सरकार से गाय को ‘राष्ट्रीय पशु’ घोषित करने की अनुशंसा की है दरअसल हाई कोर्ट ने गोकशी के एक आरोपी की बेल याचिका को खारिज करते हुए 12 पेज का आदेश दिया था। इस आदेश में जस्टिस शेखर कुमार यादव जी ने गाय के अनोखे श्वसन तंत्र का की भूरि भूरि प्रशंसा की है और गाय अद्भुत विशेषताएं पर प्रकाश डाला है वे अपने फैसले में लिखते हैं कि ‘वैज्ञानिक मानते हैं कि गाय इकलौता ऐसा पशु है जो सांस लेते समय ऑक्सीजन ही लेता है और ऑक्सीजन ही बाहर निकालता है।
हिंदी में लिखे अपने आदेश में जस्टिस शेखर कुमार यादव ने दावा किया है, ‘भारत में यह परंपरा है कि गाय के दूध से बना हुआ घी यज्ञ में इस्तेमाल किया जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि इससे सूर्य की किरणों को विशेष ऊर्जा मिलती है जो अंतत: बारिश का कारण बनती है।’
जस्टिस शेखर कुमार यादव ने कहा, ‘चूंकि गाय का अस्तित्व भारतीय सभ्यता के अभिन्न है इसलिए किसी भी नागरिक का बीफ खाना उसका मौलिक अधिकार नहीं हो सकता।’ आदेश में कहा गया कि संसद को कानून बनाकर गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित किया जाना चाहिए और जो लोग गाय को नुकसान पहुंचाने की बात करते हैं उनके खिलाफ कड़े कानून लाने चाहिए।
गाय को एक राष्ट्रीय पशु घोषित किया जाए और गौरक्षा को हिंदुओं के मौलिक अधिकार में रखा जाए क्योंकि हम जानते हैं कि जब देश की संस्कृति और उसकी आस्था पर चोट होती है तो देश कमजोर होता है। चाणक्य ने लिखा है कि किसी भी देश को नष्ट करना है तो सबसे पहले उसकी संस्कृति को नष्ट कर दो, देश अपने आप नष्ट हो जाएगा।’
फैसले के आखिर में जस्टिस शेखर कुमार यादव ने लिखा है ‘हम जब-जब अपनी संस्कृति भूले हैं, तब-तब विदेशियों ने हम पर आक्रमण किया है और आज भी हम न चेते तो अफगानिस्तान पर तालिबान का आक्रमण और कब्जे को भी हमें नहीं भूलना चाहिए।’
अब क्या ही कहा जाए !
-संदीप पौराणिक
छत्तीसगढ़ राज्य के राज्य पशु जंगली वन भैंसा को बचाने की अंतिम उम्मीद उस समय टूट गयी जब इसकी एकमात्र जीवित मादा वनभैंसे की पिछले दिनों मौत हो गयी। उदंति अभ्यारण्य में पाया जाने वाला वनभैंसा भारत की एकमात्र सर्वश्रेष्ठ शुद्ध जंगली भैंसे की प्रजाति है। इसमें अब मात्र 4-5 नर भैसें ही बचे हैं तथा एकमात्र मादा ‘आशा’ जो कि लगभग दो करोड़ की लागत से कृत्रिम प्रजनन क्लोन तैयार की गई है किन्तु वह प्रजनन योग्य नही है। दुर्भाग्यपूर्ण विषय यह है कि छत्तीसगढ़ राज्य के राज्य पशु का दर्जा प्राप्त यह सुन्दर जीव उस समय मौत से हार गया जबकि उसके रख-रखाव पर करोड़ों रूपए खर्च होते हैं। बड़े आश्चर्य की बात ये है कि छत्तीसगढ़ राज्य की स्थापना के बाद यहां पर भारी बजट इन जंगली जानवरों पर खर्च हो रहा है किन्तु वर्तमान में राज्य में बाघ, तेंदुआ, भालू, गौर तथा हिरणों की संख्या कम होती जा रही है। छत्तीसगढ़ राज्य उन गिने-चुने राज्यों में से है, जहां वन्य प्राणियों के संरक्षण के लिए बजट राशि सरप्लस में हैं।
वर्ष 2003 की वन्यप्राणी गणना के अनुसार उदंती अभ्यारण में इनकी संख्या 72 थी और वर्ष 2005 तक इनकी संख्या सिर्फ 6 हो गयी। तब पूरे देश में इस शुद्ध प्रजाति के वन भैंसे को बचाने की आवाज उठी किन्तु छत्तीसगढ़ में इन्हें बचाने के लिए वन विभाग ने कोई विशेष अभियान नहीं चलाया। विभाग ने राज्य पशु वन भैंसा को बचाने के लिए जानवरों पर कार्य करने वाली एक प्राइवेट एन.जी.ओ. संस्था ‘डब्ल्यू.आई.टी.’ को सौंप दिया और अपने कार्यों से इतिश्री कर ली।
आज हम पड़ोसी राज्य मध्यप्रदेश की बात करें तो वहां के राज्य पशु बारासिंघा की सन् 1970 में संख्या 66 थी, किन्तु उसे बचाने के लिए समन्वित प्रयास किए गए,। बारासिंघा के संरक्षण और संवर्धन से इनकी संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई है। आज हजारों की संख्या में बारासिंघा सिर्फ कान्हा नेशनल पार्क में ही नहीं, बल्कि सतपुड़ा नेशनल पार्क तथा अन्य अभ्यारण्यों में फल-फूल रहे हैं, जबकि बारासिंघा बहुत ही असहाय वन्य प्राणी है। अपने बच्चों की रक्षा, सियार जैसे छोटे प्राणियों से भी नहीं कर सकता, वहीं जंगली भैंसा के बच्चों पर बाघ भी हमला नहीं करता। बाघ, हाथी के बाद यदि किसी जीव से डरता है तो वह है जंगली भैंसा। कई बार बाघ और जंगली भैंसे की लड़ाई में बाघ को मरते देखा गया है किन्तु यह शक्तिशाली जीव आज छत्तीसगढ़ में दम तोड़ते नजर आ रहा है। पर किसी भी जिम्मेवार को अफसोस करते नहीं देखा जा सकता।
मैंने 1998 से 2000 तक जंगली भैंसों के कई झुंड उदंति अभ्यारण में देखे थे किन्तु दुर्भाग्य है कि वहां पर आज भी शिकारी, तीर धनुष लेकर खुले आम घूमते हैं। छत्तीसगढ़ में उदंति से लेकर बस्तर तक तथा राजनांदगांव से लेकर जशपुर तक शिकारी बेखौफ हैं। जंगलों से घास खत्म होती जा रही है एवं छत्तीसगढ़ के सभी राष्ट्रीय उद्यानों एवं अभ्यारण्यों पर मवेशियों ने कब्जा कर लिया है। छत्तीसगढ़ के जंगलों की रक्षा के लिए मात्र 50 प्रतिशत ही स्टाफ है, जिसमें 90 प्रतिशत अप्रशिक्षित हैं। जबकि जंगली भैंसा घास के अलावा शायद ही कुछ खाता हो, हालांकि एक मात्र आशा की किरण अब इंद्रावती के वनभैंसे पर टिकी है यदि हम वहां से मादा वन भैंसा लेकर आते हैं तो शायद इनकी वंशवृद्धि हो सकती है। क्योंकि उदंति एवं बस्तर के वन भैंसे का जेनेटिक पूल एक ही है।
अब अंत में सवाल यह उठता है कि क्या छत्तीसगढ़ से हमारा राज्य पशु समाप्त हो जायेगा। वैसे भी अंतिम मादा वन भैंसे की मौत के बाद कुछेक समाचार पत्र व इलेक्ट्रानिक मीडिया को छोड़कर किसी भी राजनैतिक दल या वन विभाग के जिम्मेवार अधिकारियों की कोई प्रतिक्रिया नजर नहीं आयी। जैसे कोई बड़ी बात घटित नहीं हुई या कोई नई बड़ी घटना। जब बस्तर में वन विभाग विभिन्न परियोजनाओं पर राशि खर्च कर सकता है और उसे किसी भी प्रकार की नक्सलवादी चुनौतियों का सामना नहीं करना पड़ता। फिर वहां का वन विभाग जंगली भैंसों और बाघों की गणना का कार्य क्यों नहीं कर सकता है। उदंति और बस्तर के वनभैंसे का डी.एन.ए. लगभग एक जैसा ही है। मैंने यह बात वन्य जीव बोर्ड की मीटिंग में कई बार उठाई कि असम के वनभैसे की अपेक्षा हमें बस्तर इन्द्रावती अभ्यारण्य से मादा वन भैसे को यहां लाना चाहिए। यदि वनविभाग यह कार्य नहीं कर सकता तो वह किसी स्वयंसेवी संस्था की सहायता ली जा सकती है। छत्तीसगढ़ वन विभाग को साथ ही विभाग को ऐसे पशु चिकित्सकों को रखने चाहिए वनभैंसों पर जानकारी रखते हो। इन्हें बचाने के लिए असम राज्य के उन वाइल्डलाईफ विशेषज्ञों की सहायता लेनी चाहिए, जिन्होंने असम में सफलतापूर्वक वहां के वनभैसों को संरक्षण और संवर्धन की योजना बनाई। परिणाम स्वरूप वहां सैकड़ों के तादात में वन भैंसे फलफूल रहे हैं।
वनविभाग को अपने राज्य पशु को बचाने के लिए एक अभियान चलाना चाहिए जो सिर्फ राज्य की राजधानी की दीवारों पर, सिर्फ उनका चित्र बनाकर या नारे लिखकर ही नहीं बल्कि जंगल के अंदर एक नई कार्ययोजना बनाकर करना हो। अंत में हम सब अंतिम मादा वन भैसे की मृत्यु पर एवं कुप्रबंधन पर राज्य पशु से माफी ही मांग सकते हैं कि जब हमारे पास सरप्लस बजट है, सारे संसाधन हैं, ऐसी स्थिति में भी हम अपने राज्य पशु को नहीं बचा पाए। मुझे किसी शायर का यह शेर याद आता है कि कस्ती वहां डूबी जहां पानी कम था, सिर्फ होर्डिंग्स एवं दीवारों पर ही वन भैंसे को जिंदा बताया जा रहा है तथा इसके संवर्धन की बात की जा रही है, जबकि जंगल में यह प्रजाति विलुप्त हो चुकी प्रतीत होती है।
(लेखक वन्य प्राणी विशेषज्ञ हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मुझे खुशी है कि कतर में नियुक्त हमारे राजदूत दीपक मित्तल और तालिबानी नेता शेर मुहम्मद स्थानकजई के बीच दोहा में संवाद स्थापित हो गया है। भारत सरकार और तालिबान के बीच संवाद कायम हो, यह बात मैं बराबर पिछले एक माह से लगातार लिख रहा हूँ और हमारे विदेश मंत्रालय से अनुरोध कर रहा हूँ। पता नहीं, हमारी सरकार क्यों डरी हुई या झिझकी हुई थी। तालिबान शासन के बारे में जो शंकाएँ भारत सरकार के अधिकारियों के दिल में थीं और अब भी हैं, बिल्कुल वे ही शंकाएँ पाकिस्तानी सरकार के मन में भी हैं। इसका अंदाज मुझे पाकिस्तान के कई नेताओं और पत्रकारों से बातचीत करते हुए काफी पहले ही लग गया था। आज उन शंकाओं की खुले-आम जानकारी पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी के बयान से सारी दुनिया को मिल गई है।
कुरैशी ने कहा है कि वे तालिबान से आशा करते हैं कि वे मानव अधिकारों की रक्षा करेंगे और अंतरराष्ट्रीय मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं करेंगे। पाकिस्तान के सूचना मंत्री फवाद चौधरी ने तो यहाँ तक कह दिया है कि पाकिस्तान अकेले ही तालिबान सरकार को मान्यता नहीं दे देगा। उन्होंने साफ-साफ कहा है कि अफगान सरकार को मान्यता देने के पहले वह क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय जगत के रवैए का भी ध्यान रखेगा। पाकिस्तान सरकार का यह आधिकारिक बयान बड़ा महत्वपूर्ण है। यदि आज के तालिबान पाकिस्तान के चमचे होते तो पाकिस्तान उन्हें 15 अगस्त को ही मान्यता दे देता और 1996 की तरह सउदी अरब और यूएई से भी दिलवा देता लेकिन उसने भी वही बात कही है, जो भारत चाहता है याने अफगानिस्तान में अब जो सरकार बने, वह ऐसी हो, जिसमें सभी अफगानों का प्रतिनिधिमंडल हो। पाकिस्तान को पता है कि यदि तालिबान ने अपनी पुरानी ऐंठ जारी रखी तो अफगानिस्तान बर्बाद हो जाएगा।
दुनिया का कोई देश उसकी मदद नहीं करेगा। पाकिस्तान खुद आर्थिक संकट में फंसा हुआ है। पहले से ही 30 लाख अफगान वहाँ जमे हुए हैं। यदि 50 लाख और आ गए तो पाकिस्तान का भ_ा बैठते देर नहीं लगेगी। पाकिस्तान के बाद सबसे ज्यादा चिंता किसी देश को होनी चाहिए तो वह भारत है, क्योंकि अराजक अफगानिस्तान से निकलनेवाले हिंसक तत्वों का इस्तेमाल भारत के खिलाफ होने की पूरी आशंका है। इसके अलावा भारत द्वारा किया गया अरबों रु. का निर्माण-कार्य भी अफगानिस्तान में बेकार चला जाएगा। इस समय अफगानिस्तान में मिली-जुली सरकार बनवाने में पाकिस्तान भी जुटा हुआ है लेकिन यह काम पाकिस्तान से भी बेहतर भारत कर सकता है क्योंकि अफगानिस्तान के आंतरिक मामलों में भारत की दखंलदाजी न्यूनतम रही है जबकि पाकिस्तान के कई अंध-समर्थक और अंध-विरोधी तत्व वहां आज भी सक्रिय हैं। भारत ने दोहा में शुरुआत अच्छी की है। इसे अब वह काबुल तक पहुंचाए।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-कल्बे कबीर
राजपूताने में कवि ही मशहूर नहीं होते थे, चोर भी प्रसिद्ध होते थे । ऐसा ही एक जनप्रिय, जनवादी, प्रगतिशील और विख्यात चोर था - जिसका नाम चरणदास था ।
इस विख्यात चोर की लोककथा को बिज्जी उर्फ़ विजयदान देथा ने 'खांतीलो चोर' (प्रसिद्ध चोर) नाम से लिखा, जिस पर हबीब तनवीर ने 'चरणदास चोर' नाम से नाटक खेला, जो बहुत प्रसिद्ध हुआ । बाद में इस कहानी पर श्याम बेनेगल ने बच्चों की एक फ़िल्म भी बनाई ।
इस नाटक की रॉयल्टी/पैसों को लेकर जब बिज्जी और हबीब तनवीर में विवाद हुआ तब जयपुर के एक गेस्ट-हाउस में, उस अतिरिक्त-नाटक का एक गवाह मैं भी था । हबीब तनवीर ने कहा कि बिज्जी, जितना पैसा आप मांग रहे उतना तो मुझे नाटक से मिलता ही नहीं ( पूरा विवाद फिर कभी ) । आखिरकार हबीब तनवीर को कहना पड़ा कि मैं आपका नाम छापना बन्द कर देता हूँ, क्योंकि यह तो एक लोककथा है ।
इसके बाद हबीब तनवीर इसे बिज्जी की कथा पर आधारित नहीं, एक लोककथा पर आधारित नाटक कहने लगे । उन्होंने नाटक से विजयदान देथा का नाम हटा दिया ।
चरणदास मामूली चोर नहीं था, वह सिर्फ़ मशहूर लोगों के यहां ही सेंध लगाता था ।
और क्या अद्भुत संयोग कि दो दिन पहले बिज्जी और हबीब तनवीर का जन्मदिन था । यह प्रसङ्ग मैं तभी लिखना चाह रहा था, लेकिन बिज्जी और हबीब तनवीर के नक़ली विशेषज्ञों और अन्यान्य कारणों से नहीं लिख पाया ।
आज पता नहीं क्यों मुझे चरणदास चोर की याद आयी ।
चरणदास की एक उक्ति बहुत मशहूर है कि चोरों के यहां ही चोरी की सम्भावना अधिक होती है । चोर कहीं और सेंध लगाता है, उसी समय उसके घर में कोई दूसरा चोर अपनी चौर्यकला का प्रदर्शन कर रहा होता है ।
यह पुराने ज़माने की बात है । इन दिनों न बिज्जी जैसे मशहूर कथाकार हैं, न हबीब तनवीर जैसे प्रख्यात नाटककार और न चरणदास जैसे प्रसिद्ध चोर !
-बादल सरोज
अपने 20 साल के नाजायज और सर्वनाशी कब्जे के दौरान अफ़ग़ानिस्तान से लोकतान्त्रिक संगठनों, आंदोलनों और समझदार व्यक्तियों का पूरी तरह सफाया करने के बाद अमरीकी उसे तालिबानों के लिए हमवार बनाकर, उन्हें इस खुले जेलखाने की चाबी थमाकर चले गए हैं। जाते जाते इन्हें सिर्फ अपना असला - बारूद, अरबों डॉलर और हवाई बेड़ा ही सौंप कर नहीं गए "अच्छा तालिबानी" होने का प्रमाणपत्र भी देकर गए हैं। इस पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद और अपने लगुओं-भगुओं से भी अंगूठा लगवा कर गए हैं। यह ठेठ अमरीकी अंदाज़ है ; "जंह-जंह पांव पड़े दुष्टन के तंह तंह बंटाढार।" इन "अच्छे तालिबानों" ने अपनी अच्छाई का प्रदर्शन करने के लिए भले जोरदार प्रचार अभियान छेड़ा हो, बाइडेन और उसके नाटो गिरोह के ब्रिटेन जैसे देश उनकी विज्ञप्तियों को छाप-दिखाकर अपनी आपराधिक लिप्तता छुपाने में लगे हों मगर असलियत बयानों में नहीं कारगुजारियों में नुमायां होती है - जो एक के बाद एक लगातार हो रही है।
पिछले महीने भर में इन तालिबानियों ने अफ़ग़ानिस्तान की तीन बड़ी साहित्यिक-सांस्कृतिक शख्सियतों की क्रूर हत्या करके अपनी "अच्छाई" के दावे के खोखलेपन को उजागर कर दिया है। सबसे पहले वे 28-29 जुलाई में खाशा जवान के नाम से लोकप्रिय व्यंगकार कॉमेडियन फज़ल मोहम्मद के लिए आये। उन्हें उनके घर से उठाकर ले गए और मार डाला। उसके बाद वे 4 अगस्त को कवि और इतिहासकार अब्दुल्ला अतेफी के लिए आये और उन्हें मार डाला। महीना पूरा होने से पहले ही 29-30 अगस्त को उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान के लोकप्रिय लोकगायक और संगीतकार फवाद अन्दराबी को उनके घर में घुस कर गोलियों से भून दिया।
अभी कल न्यूयॉर्क टाइम्स के साथ एक इंटरव्यू में तालिबानी सरकार के प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद ने अन्दराबी के कत्ल को जायज ठहराते हुए दावा किया है कि "इस्लाम में संगीत की मनाही है।"
"द काइट रनर" और "थाउजेंड स्प्लेंडिड संस" जैसे बेस्ट सेलर उपन्यासों के अफ़ग़ानी मूल के लेखक खालेद होसैनी ने इसे शुद्ध बर्बरता करार दिया है और अमरीका को इसका जिम्मेदार ठहराया है। सभ्यताओं के विनाश और सांस्कृतिक धरोहरों के सत्यानाश के अमरीकी रिकॉर्ड उनकी पैदाइश से उसके साथ हैं। कोई 529 साल पहले जब लुटेरे कोलम्बस ने अमरीका "खोज निकाला" था तब पर्याप्त विकसित सभ्यताओं वाले अनेक कबीले इस महाद्वीप पर रहते थे। उन सबका नरसंहार करके जो अमरीका बना तबसे लेकर 2003 में बग़दाद में दुनिया की सबसे पुरानी लाइब्रेरी और म्यूजियम के साथ जो किया वह सबने देखा। यही उसने बीस बरस तक अफ़ग़ानिस्तान में किया, इसकी सचमुच की खासियत यह है कि जो भी उसके साथ गया या जिसके भी वो पास गया वह कहीं का नहीं रहा। न तंत्र बचा न लोकतंत्र, न अमन बचा, न चमन। बचा तो सिर्फ और सिर्फ बिखराव, कोहराम और अराजकता; कट्टरता और बर्बरता।
बहरहाल यहां प्रसंग तालिबानी प्रवक्ता का यह दावा है कि इस्लाम में संगीत निषिद्ध है ; हराम है। क्या सचमुच ?
इस्लाम और मौसिकी
2007 में बनी एक पाकिस्तानी फिल्म "खुदा के लिये" में इस बेहूदी धारणा के सांड़ को बहुत ही दिलचस्प अंदाज में सीधे सींग से पकड़ा गया है। फिल्म में इस्लामिक स्कॉलर मौलाना वली बने नसीरुद्दीन शाह ने खुद इस्लाम के उदाहरणों के साथ इस धारणा को गैर इस्लामिक बताया है। वे कहते हैं कि दुनिया भर में अब तक हुए कुल जमा 1 लाख 24 हजार पैगम्बरों से सिर्फ 4 पर किताबें नाज़िल हुयी। इनमें से एक थे हजरत दाऊद जिन्हें अल्ला ने मौसिकी - संगीत - बख्शा। वे पूछते हैं कि "मौसिकी अगर हराम है तो महज 4 ख़ास पैगम्बरों में से एक को ख़ास इसी काम के लिए क्यों भेजा गया ?"
(10 मिनट की इस जिरह को उन्हें जरूर सुनना चाहिए जो तालिबानी बर्बरों को इस्लाम का अनुयायी या पैरोकार मानते हैं। इसका लिंक है ; https://youtu.be/GYQLFWkA0vA )
इसी जिरह में मौलाना वली (नसीरुद्दीन शाह) दाढ़ी और पहनावे की कट्टरता पर कहते हैं कि "दीन में दाढ़ी है - दाढ़ी में दीन नहीं है ...... दाढ़ी तो अबू जहल के भी थी और लिबास भी वही था जो रसूलल्लाह जेबेतन फरमाते थे। " 2007 की यह फिल्म एक सुन्नी शोयेब मंसूर ने पाकिस्तान में बैठकर बनाई है ; जो बाकी सबके साथ इस बात का भी उदाहरण है कि धर्म के नाम पर फैलाई जाने वाली कट्टरता के खिलाफ जद्दोजहद उसी धर्म को मानने वालों के बीच जारी है - सही तरीका है भी यही।
कट्टरतायें चाहे जिस रंग रूप की हों, जो भी झण्डा उठाकर, नेजा या त्रिशूल लहराती आएं सार में एक सी होती हैं। कट्टरताओं की फिसलन हमेशा जहालत और बर्बरता की ओर ले जाती है।
जब इन्हें याद करें तब उन्हें भी न भूलें
अफ़ग़ानिस्तान के फज़ल मोहम्मद, अब्दुल्ला अतेफी और फवाद अंदराबी की मौत पर हम सब स्तब्ध और दुःखी हैं, सारी मनुष्यता को शोक मनाना चाहिए - मगर इसके साथ इन तीनों से कहीं पहले हिन्दुस्तान में 20 अगस्त 2013 को पुणे में गोलियों से भून दिए गए नरेंद्र दाभोलकर, 20 फरवरी 2015 को मुम्बई में मार डाले गए गोविन्द पानसारे और 30 अगस्त को धारवाड़ में क़त्ल कर दिए गए एम एम कुलबुर्गी की शहादतें और उनके हत्यारों का खुलेआम छुट्टा घूमना भी याद कर लेना चाहिए। पुणे और मुम्बई की लाइब्रेरियों, अहमदाबाद की पेंटिंग्स के संग्रहालय का ध्वंस और फिल्मों-गीतों-संगीतों पर नित नए हमले भी संज्ञान में लेना चाहिए। तमिल लेखक पेरुमल मुरुगन द्वारा जनवरी 2015 में अपने लेखक की मौत का एलान और उसकी वजह स्मरण में रखनी चाहिए।
क्योंकि, "उनके तालिबान तालिबान, हमारे तालिबान संत" का दोगलापन कहीं नहीं ले जाएगा। भेड़िये सिर्फ भेड़िये होते हैं और लाखों वर्ष का विवरण और हजारों वर्ष की सभ्यता गवाह है कि भेड़ियों ने कभी गाँव नहीं बसाये। और यह भी कि भेड़िये रौशनी और जगार से डरते हैं। वे मशाल जलाना नहीं जानते।
(बादल सरोज लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मुझे खुशी है कि कतर में नियुक्त हमारे राजदूत दीपक मित्तल और तालिबानी नेता शेर मुहम्मद स्थानकजई के बीच दोहा में संवाद स्थापित हो गया है। भारत सरकार और तालिबान के बीच संवाद कायम हो, यह बात मैं बराबर पिछले एक माह से लगातार लिख रहा हूँ और हमारे विदेश मंत्रालय से अनुरोध कर रहा हूँ। पता नहीं, हमारी सरकार क्यों डरी हुई या झिझकी हुई थी। तालिबान शासन के बारे में जो शंकाएँ भारत सरकार के अधिकारियों के दिल में थीं और अब भी हैं, बिल्कुल वे ही शंकाएँ पाकिस्तानी सरकार के मन में भी हैं। इसका अंदाज मुझे पाकिस्तान के कई नेताओं और पत्रकारों से बातचीत करते हुए काफी पहले ही लग गया था। आज उन शंकाओं की खुले-आम जानकारी पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी के बयान से सारी दुनिया को मिल गई है।
कुरैशी ने कहा है कि वे तालिबान से आशा करते हैं कि वे मानव अधिकारों की रक्षा करेंगे और अंतरराष्ट्रीय मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं करेंगे। पाकिस्तान के सूचना मंत्री फवाद चौधरी ने तो यहां तक कह दिया है कि पाकिस्तान अकेले ही तालिबान सरकार को मान्यता नहीं दे देगा। उन्होंने साफ-साफ कहा है कि अफगान सरकार को मान्यता देने के पहले वह क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय जगत के रवैए का भी ध्यान रखेगा। पाकिस्तान सरकार का यह आधिकारिक बयान बड़ा महत्वपूर्ण है। यदि आज के तालिबान पाकिस्तान के चमचे होते तो पाकिस्तान उन्हें 15 अगस्त को ही मान्यता दे देता और 1996 की तरह सउदी अरब और यूएई से भी दिलवा देता लेकिन उसने भी वही बात कही है, जो भारत चाहता है याने अफगानिस्तान में अब जो सरकार बने, वह ऐसी हो, जिसमें सभी अफगानों का प्रतिनिधिमंडल हो। पाकिस्तान को पता है कि यदि तालिबान ने अपनी पुरानी ऐंठ जारी रखी तो अफगानिस्तान बर्बाद हो जाएगा।
दुनिया का कोई देश उसकी मदद नहीं करेगा। पाकिस्तान खुद आर्थिक संकट में फंसा हुआ है। पहले से ही 30 लाख अफगान वहां जमे हुए हैं। यदि 50 लाख और आ गए तो पाकिस्तान का भ_ा बैठते देर नहीं लगेगी। पाकिस्तान के बाद सबसे ज्यादा चिंता किसी देश को होनी चाहिए तो वह भारत है, क्योंकि अराजक अफगानिस्तान से निकलनेवाले हिंसक तत्वों का इस्तेमाल भारत के खिलाफ होने की पूरी आशंका है। इसके अलावा भारत द्वारा किया गया अरबों रु. का निर्माण-कार्य भी अफगानिस्तान में बेकार चला जाएगा। इस समय अफगानिस्तान में मिली-जुली सरकार बनवाने में पाकिस्तान भी जुटा हुआ है लेकिन यह काम पाकिस्तान से भी बेहतर भारत कर सकता है क्योंकि अफगानिस्तान के आंतरिक मामलों में भारत की दखंलदाजी न्यूनतम रही है जबकि पाकिस्तान के कई अंध-समर्थक और अंध-विरोधी तत्व वहां आज भी सक्रिय हैं। भारत ने दोहा में शुरुआत अच्छी की है। इसे अब वह काबुल तक पहुंचाए।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-सरोज सिंह
31 अगस्त 2021, अफ़ग़ानिस्तान के इतिहास में कभी न भूलने वाली तारीख़ के तौर पर अब दर्ज़ हो गया है.
एक तरफ़ अमेरिका, अफ़ग़ानिस्तान से अपने सैनिकों और लोगों को बाहर निकालने के लिए इस डेडलाइन पर क़ायम रहा. तो दूसरी तरफ़ अब अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की ओर से नई सरकार बनाने की कोशिशें भी तेज़ हो गई हैं.
ख़बरों के मुताबिक़ कंधार में तालिबान की 'टॉप लीडरशिप काउंसिल' की तीन दिन तक बैठक हुई. तालिबान के नेता हिब्तुल्लाह अख़ुंदज़ादा ने इस बैठक की अध्यक्षता की.
तालिबान के राजनीतिक कार्यालय के उप-प्रमुख शेर मोहम्मद अब्बास स्तनिकज़ई का कहना है कि अफ़ग़ानिस्तान में 'इस्लामिक अमीरात' वाली नई सरकार का खाका अगले तीन दिन में दुनिया के सामने होगा.
नई सरकार कैसी होगी और उसमें कौन कौन शामिल होंगे, इस पर पुख़्ता तरीक़े से अभी कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन जानकार मानते हैं कि नई सरकार के सामने चुनौतियाँ कम नहीं होंगी.
15 अगस्त को काबुल पर क़ब्ज़ा करने के बाद से 15 दिन का वक़्त गुज़र चुका है. फ़िलहाल कोई ठोस शासन व्यवस्था वहाँ बहाल नहीं है. बैंकों के बाहर लंबी कतार लगी हुई है. रोज़मर्रा के ज़रूरी सामान की क़िल्लत से लोग परेशान हैं.
किसी भी हुकूमत के लिए ऐसी अव्यवस्था चिंता का सबब होगी और इस वजह से तालिबान भी अफ़ग़ानिस्तान में फैली इस अव्यवस्था को जल्द से जल्द दूर करना चाहेगा.
तालिबान की अंदरूनी गुटबाज़ी
लेकिन ये कैसे होगा? कितना आसान होगा या फिर कितना मुश्किल? यही जानने के लिए बीबीसी ने बात की पूर्व राजनयिक रहे तलमीज़ अहमद से.
उनका कहना है तालिबान के सामने चुनौतियाँ दो तरह की है- पहली चुनौती वो जो सरकार बनने के समय पेश आएगी और दूसरी चुनौती वो जो नई सरकार के गठन के बाद शुरू होगी.
पहली चुनौती के बारे में वो कहते हैं कि देखने वाली बात होगी की नई सरकार में तालिबान के राजनीतिक गुट (दोहा गुट) को ज़्यादा ताक़त मिलती है और फिर लड़ाई लड़ने वाले सिपाहसालार (मिलिट्री) गुट को.
जानकारों का मानना है कि तालिबान के अंदर भी गुटबाज़ी कम नहीं है. अब तक तालिबान एकजुट थे, अमेरिका को अफ़ग़ानिस्तान से बाहर करने के इरादे से. लेकिन एक बार उन्होंने लक्ष्य पा लिया है, तो इनकी आपसी गुटबाज़ी भी निकल कर सामने आएगी.
फ़िलहाल तालिबान की पॉलिटिकल लीडरशिप में सबसे अहम नाम है हिब्तुल्लाह अख़ुंदज़ादा का.
तलमीज़ अहमद कहते हैं, "हिब्तुल्लाह अख़ुंदज़ादा अभी तालिबान में नंबर एक की हैसियत रखते हैं. उनकी नेतृत्व क्षमता के बारे में अभी लोगों को ज़्यादा नहीं पता है. अगर वो नई सरकार के सबसे बड़े नेता होंगे, तो माना जाएगा कि पॉलिटिकल लीडरशिप की सरकार बनाने में ज़्यादा चली."
लेकिन वो ये भी कहते हैं कि जब हिब्तुल्लाह अख़ुंदज़ादा को तालिबान का नंबर एक नेता घोषित किया गया था, तो उन्हें 'कॉम्प्रोमाइज्ड उम्मीदवार' के तौर पर देखा गया था.
दूसरी तरफ़ तालिबान के मिलिट्री कमांडर हैं सिराजुद्दीन हक़्क़ानी. तालिबान में इन्हें नंबर दो का दर्ज़ा प्राप्त है. ये गुट दूसरों को अपने साथ लेकर चलने में ज़्यादा विश्वास नहीं रखता.
तालिबान का दौर अब तक का संघर्ष वाला दौर रहा है. ऐसे में सिराजुद्दीन हक़्क़ानी को अब तक ज़्यादा ताक़त हासिल थी. अब उन्हें नई सरकार में क्या ज़िम्मेदारी मिलती है? वो किस किस को साथ लेकर चलते हैं? ये चुनौती भी सरकार के गठन के दौरान सामने आएगी.
अफ़ग़ानिस्तान में 1996 से 2001 के बीच तालिबान ने राज किया था. उस वक़्त तालिबान ने सरकार चलाने का कोई मॉडल दुनिया के सामने पेश नहीं किया था.
तलमीज़ अहमद उस दौर को 'संघर्ष की स्थिति' कहते हैं.
उनका मानना है कि आज की परिस्थिति 90 की दशक की संघर्ष की स्थिति से बिल्कुल अलग है.
सरकार चलाने के लिए तालिबान को अलग तरह के लोगों की ज़रूरत होगी. सरकार में उन्हें जानकार, विशेषज्ञ, ब्यूरोक्रेट्स, प्रशासन चलाने के अनुभवी, नियम क़ानून के जानकार, एक तरह के संविधान और प्रशासन में पारदर्शिता की ज़रूरत होगी.
इन सबमें तालिबान में शामिल लोगों को किसी तरह की महारत हासिल नहीं है. ऐसे में देखना होगा, वो किन लोगों की मदद लेते हैं और इस तरह के अनुभवी लोग कहाँ से लाते हैं.
अफ़ग़ानिस्तान में नई सरकार बनाने के लिए तालिबान के नेता सरकार के पुराने लोगों के संपर्क में हैं, जैसे पूर्व राष्ट्रपति हामिद करज़ई, अफ़ग़ानिस्तान की उच्च सुलह परिषद के प्रमुख रहे डॉक्टर अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह , पूर्व प्रधानमंत्री गुलबुद्दीन हिकमतयार, 2012 में तालिबान विद्रोहियों के साथ शांति वार्ता करने लिए चुने गए प्रतिनिधि सलाउद्दीन रब्बानी.
इन सभी लोगों में प्रशासनिक अनुभव भी है.
लेकिन इनमें से किस नेता को नई सरकार में क्या जगह मिलती है और उनकी सरकार में कितनी चलती है - ये भी तालिबान की नई सरकार और उसकी चुनौतियों के बारे में बहुत कुछ स्पष्ट कर देगा.
अंतरराष्ट्रीय स्वीकार्यता की जद्दोजहद
अफ़ग़ानिस्तान में नई सरकार बनने के बाद की चुनौतियों के बारे में बात करते हुए अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में इंटरनेशनल रिलेशंस की प्रोफ़ेसर डॉ. स्वास्ति राव कहती हैं कि तालिबान चाहेगा कि दुनिया के बड़े देश उनकी सरकार को मान्यता दें.
चीन, रूस, पाकिस्तान जैसे देशों की तरफ़ से तालिबान के लिए उत्साह वाले बयान ज़रूर आए हैं. लेकिन अभी तक किसी ने उन्हें मान्यता नहीं दी है. ज़्यादातर देश उनकी सरकार का पहला स्वरूप देखने का इंतज़ार कर रहे हैं.
डॉ. स्वास्ति राव कहती हैं, "तालिबान की नई सरकार के लिए अंतरराष्ट्रीय स्वीकार्यता इसलिए मायने रखती है क्योंकि फॉरेन फंडिंग अब बंद हैं. अफ़ग़ानिस्तान सरकार का 75 फ़ीसदी ख़र्च इसी विदेशी मदद पर निर्भर करता है. ऐसे में अमेरिका और आईएमएफ़ से फंडिंग रोकने से सरकार चलाना मुश्किल हो सकता है."
वो कहते हैं, "अफ़ग़ानिस्तान की जीडीपी का आधा हिस्सा विदेशी मदद के ज़रिए आता था. अब वो विदेशी मदद बिल्कुल बंद हो चुकी है. इस वजह से वहाँ आर्थिक गतिविधियाँ फ़िलहाल बंद पड़ी हैं. कई लोगों को तनख़्वाह नहीं मिल रही. जगह-जगह परिवार भुखमरी के शिकार हो रहे हैं. ऐसे में बहुत ज़रूरी है कि नई सरकार सबसे पहले अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए तुंरत से कुछ नए और साहसिक क़दम उठाए."
विरोधी गुटों से निपटने की चुनौती
अंदरूनी झगड़े और अर्थव्यवस्था को संभालने के बाद तालिबान के सामने तीसरी चुनौती होगी अफ़ग़ानिस्तान में विरोधी गुट से निपटने की.
डॉ. स्वास्ति राव कहती हैं, "तालिबान के सामने नॉर्दन एलायंस ने आसानी से घुटने कभी नहीं टेके हैं. इससे पहले भी पंजशीर में वो क़ब्ज़ा नहीं कर पाए थे. वहाँ के विद्रोह को पूरी तरह से ख़त्म नहीं किया जा सकता है. तालिबान चाहेगा कि कैसे बातचीत के ज़रिए या सरकार गठन में उनको जगह दे कर इस विद्रोह से छुटकारा पाया जा सके."
इसके अलावा एक दूसरी तरह की चुनौती भी तालिबान को आईएसआईएस-के और अल-क़ायदा जैसे चरमपंथी संगठनों से मिल सकती है.
हाल में हुए काबुल धमाके में आईएसआईएस-के के हाथ होने की बात सामने आई है. आईएसआईएस-के को 'इस्लामिक स्टेट ख़ुरासान प्रॉविंस' (आईएसकेपी) कहते हैं.
आईएसआईएस-के और तालिबान के बीच गहरे मतभेद हैं. आईएसआईएस-के का आरोप है कि तालिबान ने जिहाद और मैदान-ए-जंग का रास्ता छोड़कर क़तर की राजधानी दोहा के महंगे और आलीशान होटलों में अमन की सौदेबाज़ी को चुना है.
ऐसे में तालिबान की नई हुकूमत इनसे कैसे डील करेगी, ये देखने वाली बात होगी.
फ़ौज और पुलिस की ज़रूरत
अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत संघ के आने के बाद से ही पिछले 40 साल से वहाँ नागरिक संघर्ष (सिविल कॉन्फ्लिक्ट) चल रहा है. इस वजह से अफ़ग़ानिस्तान में एक बेहतरीन 'यूनिफाइड आर्म्ड फ़ोर्स' बन नहीं पाई. अमेरिका ने एक कोशिश ज़रूर की, लेकिन तालिबान के साथ सामना होने पर कोई ताक़त नहीं दिखा पाए और अपने हथियार डाल दिए.
अब अफ़ग़ानिस्तान की नई सरकार के सामने ज़रूरत होगी जल्द से जल्द ऐसी फ़ोर्स खड़ी करें, जो अनुशासित भी हो और ताक़तवर भी. देश की सीमा को सुरक्षित करने के लिए ये सबसे अहम क़दम होगा.
ख़ास कर तब जब तालिबान पूरे विश्व में घूम घूम कर वादा कर रहे हैं कि वो अपनी ज़मीन का इस्तेमाल अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के गढ़ के तौर पर किसी देश के ख़िलाफ़ नहीं होने देंगें.
उसी तरह से अफ़ग़ानिस्तान के अंदर तालिबान शासन को आम नागरिकों की सुरक्षा के लिए एक अलग पुलिस फ़ोर्स की ज़रूरत भी होगी, जो देश के भीतर की शासन व्यवस्था को दुरुस्त रखने में मददगार होगी.
जो पुलिस कर्मी पिछले शासन में इस फ़ोर्स का हिस्सा थे, तालिबान के काबुल पर क़ब्ज़ा करने के साथ ही अब नदारद हैं. क्या वो पुराने लोग वापस आएँगे, कैसे आएँगे, कब तक आएँगे- ये भी अहम सवाल है. तलमीज़ अहमद इसे भी तालिबान के लिए चुनौती मानते हैं.
राष्ट्रीय एकता
इसके अलावा दोनों जानकार इस बात पर एकमत हैं कि अफ़ग़ानिस्तान में नई सरकार को बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों के बीच एकता बनाए रखना भी ज़रूरी होगा.
तालिबान में पश्तून ज़्यादा है और अफ़ग़ानिस्तान में भी. इसके साथ साथ वहाँ अलग-अलग धर्म और संप्रदाय के लोग भी रहते हैं, जिनकी संख्या थोड़ी कम है जैसे हज़ारा और शिया, उज़्बेक और ताज़िक.
तालिबान के पिछले शासन काल में अल्पसंख्यकों पर काफ़ी ज़्यादतियों के क़िस्से सुनने को मिलते थे. इस बार वो न दोहराईं जाए, इस पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय की भी नज़र होगी.
नई सरकार इन चुनौतियों से कैसे डील करेगी. इस पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय की नज़र होगी. (bbc.com)
प्राथमिक शिक्षा के दौरान क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई के कई फायदे देखे गए हैं लेकिन उच्च शिक्षा में इसका क्या असर होगा, यह देखना बाकी है. खासकर जब भारत की सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली का बड़ा हिस्सा ठीक से काम ही नहीं कर रहा.
डॉयचे वेले पर अविनाश द्विवेदी की रिपोर्ट
भारत की नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) के अंतर्गत उच्च शिक्षा में अब क्षेत्रीय भाषाओं को पढ़ाई का माध्यम बनाने पर जोर होगा. भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी स्वतंत्रता दिवस पर पढ़ाई में इनके इस्तेमाल की बात कही थी. इसी दिशा में काम करते हुए नए शैक्षणिक वर्ष में 14 इंजीनियरिंग कॉलेजों ने पांच भारतीय भाषाओं में टेक्निकल कोर्स की शुरुआत कर दी है.
वर्तमान सरकार इस बहुभाषायी उच्च शिक्षा नीति के जरिए समाज के वंचित तबकों को सशक्त करना चाहती है. आंकड़े बताते हैं कि भारत में आमतौर पर कमजोर तबके से आने वाले स्टूडेंट्स सरकारी स्कूलों में शिक्षा हासिल करते हैं जिनमें उनके लिए अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान हासिल कर पाना मुश्किल होता है.
हालांकि प्राथमिक शिक्षा के दौरान क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई के कई फायदे देखे गए हैं लेकिन उच्च शिक्षा के मामले में इसका क्या असर होगा, यह देखना बाकी है, खासकर जब भारत की सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली का बड़ा हिस्सा ठीक से काम ही नहीं कर रहा. साथ ही यह योजना अपने वंचित तबकों को सशक्त करने के मकसद को पूरा कर सकेगी या नहीं, इस पर भी जानकार असमंजस में हैं.
गणित-विज्ञान विषय में अच्छे
भारत और अन्य एशियाई देशों में किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि स्कूल स्तर पर क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ने वाले बच्चों ने अपने अंग्रेजी शिक्षा पाने वाले साथियों से ज्यादा अच्छा प्रदर्शन किया है. यूं तो ज्यादातर विषयों में बच्चों का स्तर एक जैसा था लेकिन क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ाई करने वाले बच्चे विज्ञान और गणित जैसे विषयों में ज्यादा अच्छे रहे. शैक्षणिक मनोविज्ञान भी मानता है कि क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ाई के कई फायदे होते हैं.
जानकारों के मुताबिक क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ने वाले बच्चों की हाजरी अच्छी रही है और उनमें पढ़ाई के प्रति ज्यादा लगन दिखी है. इसके अलावा उन्हें पढ़ाई में अभिभावकों की ओर से भी अतिरिक्त मदद मिल जाती है. शायद ऐसा इसलिए है क्योंकि अभिभावक भी मातृभाषा में पढ़ाए जा रहे विषयों को समझ पाते हैं. जानकार मानते हैं कि जब इन बातों को वंचित तबकों के स्टूडेंट्स के नजरिए से देखा जाता है तो क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है.
अंग्रेजी की जरूरत रहेगी
हालांकि जानकार अंग्रेजी की पढ़ाई के खिलाफ नहीं हैं. उत्तर प्रदेश राजर्षि टंडन मुक्त विश्वविद्यालय, प्रयागराज की कुलपति और शैक्षणिक मनोविज्ञान की जानकार सीमा सिंह कहती हैं, "पढ़ाई के माध्यम के तौर पर 'मातृभाषा बनाम अंग्रेजी' की लड़ाई से अच्छा है 'मातृभाषा संग अंग्रेजी' का नजरिया अपनाया जाना चाहिए." यानी मातृभाषा के साथ अंग्रेजी की शिक्षा की आवश्यकता बनी रहेगी और शुरुआती पढ़ाई के दौरान ही इसे सिखाया जाने लगेगा.
बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में शिक्षा विभाग की प्रोफेसर अंजली बाजपेयी के मुताबिक, "कई रिसर्च बताते हैं कि छोटे बच्चे (2 से 8 साल के) नई भाषाओं को ज्यादा तेजी से सीखते हैं. इसलिए यह एक सही उम्र है, जब बच्चों को कम्युनिकेशन के लिए एक विदेशी भाषा सिखाई जा सकती है."
रिसर्च सामग्री की कमी
क्षेत्रीय भाषाओं में विषयों की जानकारी पाने के लिए एक दशक पहले के मुकाबले अब स्टूडेंट्स के पास बहुत से साधन हैं. यूट्यूब पर लगभग हर विषय के बारे में हिंदी सहित अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में जानकारी पाई जा सकती है. हजारों की संख्या में क्षेत्रीय स्टडी चैनल इस पर मौजूद हैं, जिन पर लाखों की संख्या में व्यूज आते हैं.
इससे साफ हो जाता है कि क्षेत्रीय भाषाओं में शैक्षिक सामग्री की काफी मांग है. हाल ही में शिक्षा से जुड़े कई स्टार्टअप क्षेत्रीय भाषाओं में जगह बनाने की कोशिश शुरू कर चुके हैं.
सरकार भी इसमें साथ दे रही है. ऐसे में माना जा सकता है कि क्षेत्रीय भाषा में इंजीनियरिंग की पढ़ाई से उच्च शिक्षा में गरीबी और अमीरी के अंतर को खत्म किया जा सकता है लेकिन वहीं दूसरी ओर इस रास्ते पर चलने के कई डर भी हैं.
यह डर पहले के ऐसे प्रयोग से निकले हैं जो याद दिलाते हैं कि इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (IIT) ऐसे प्रयास करने के बावजूद नाकाम रहा है. ऐसी कोशिश में सबसे बड़ी चुनौती अध्ययन सामग्री जैसे किताबों और रिसर्च पेपर वगैरह की कमी होती है.
अनुवाद का बड़ा कार्यक्रम
इस कमी को पूरा करने के लिए ऑल इंडिया काउंसिल ऑफ टेक्निकल एजुकेशन (AICTE) ने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का उपयोग कर किताबों, अकादमिक पत्रिकाओं और वीडियो का हिंदी अनुवाद करने वाला उपकरण पेश किया है. हालांकि इन अनुवादों की गुणवत्ता सुनिश्चित करना सबसे जरूरी बात होगी ताकि अर्थ संबंधी गड़बड़ियों को दूर किया जा सके. इतना ही नहीं भाषा और मशीन लर्निंग में ऐसे प्रयास बहुत बड़े स्तर पर करने होंगे जिनके लिए काफी पैसों की जरूरत होगी.
सीमा सिंह कहती हैं, "क्षेत्रीय भाषाओं में रिसर्च कंटेंट की कमी दूर करने के लिए अनुवाद अच्छा जरिया है. तकनीकी इसमें काफी मदद कर सकती है. लेकिन टेक्नोलॉजी जैसे विषयों में तेजी से बदलाव आते हैं. ऐसे में कुछ ऐसी समितियों को बनाया जाना चाहिए जो उन बदलावों को जल्द से जल्द पाठ्यक्रम में शामिल करने पर काम कर सकें. साथ ही ये समितियां भाषा को सरल और समझ आने लायक बनाए रखने की कोशिश भी करें."
नौकरी और शिक्षक दोनों ढूंढना मुश्किल
जानकार कहते हैं कि क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ने वाले ग्रेजुएट्स का प्लेसमेंट फिर भी एक समस्या होगा. कई सरकारी एंजेसियां एंट्री-लेवल नौकरियों के लिए सिर्फ अंग्रेजी में परीक्षाएं कराती हैं, इसे भी बदलने की जरूरत होगी. भारत में कॉलेज-शिक्षित बेरोजगारी पहले ही अधिक है, ऐसे में क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई इसे और बढ़ा कर सकती है. यह भारत जैसे देश में भाषा के आधार पर बंटवारा भी कर सकती है जिससे वंचित समुदायों में आत्मविश्वास पैदा होने के बजाए, उसका उल्टा असर भी हो सकता है.
एक समस्या क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ाने वाले शिक्षकों की कमी भी होगी. भारत में उच्च-शिक्षा के लिए ज्यादातर अंग्रेजी का बोलबाला रहा है, ऐसे में क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ाने वाले अच्छे शिक्षकों को खोजना भी चुनौतीपूर्ण होगा. मसलन एआईसीटीई ने क्षेत्रीय भाषाओं में कम्यूटर साइंस और इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी की पढ़ाई के लिए अनुमति दे दी है. इनमें कोडिंग करनी होती है. जिसमें प्राथमिक स्तर पर ही अंग्रेजी का इस्तेमाल होता है. ऐसी स्थिति में स्टूडेंट्स को अलग से ट्रेनिंग की जरूरत पड़ सकती है.
अंतर घटेगा या बढ़ेगा
जानकार मानते हैं कि इस पूरे मामले में ग्लोबलाइजेशन को भी ध्यान में रखना चाहिए. नई शिक्षा नीति, शिक्षा के अंतरराष्ट्रीयकरण को बढ़ावा देना चाहती है लेकिन क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ाई करने से स्टूडेंट्स को नॉलेज ट्रांसफर का लाभ मिलने में बाधा आ सकती है.
जानकारों के मुताबिक ऐसा भी हो सकता है कि क्षेत्रीय भाषा में उच्च शिक्षा पाने वाले स्टूडेंट्स अंग्रेजी में पारंगत न होने के चलते अंतरराष्ट्रीय नौकरियां न हासिल कर सकें, जिससे ब्रेन ड्रेन में कमी लाने में मदद मिले. लेकिन यह नीति समृद्ध और गरीब लोगों के बीच के अंतर को पाटने के अपने उद्देश्य में भी सफल हो पाएगी इसमें संशय है. ऐसे में ग्लोबलाइजेशन के दौर में एक क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा की देने के मामले पर काफी सोच-विचार की जरूरत होगी. (dw.com)
यूरोपीय संघ के देशों में इस समय तालिबान शासन से भागने वाले अफगानों को शरण देने के सवाल पर तीखी बहस चल रही है. अफगानिस्तान से भागकर पिछले दशकों में यूरोप आए अफगानों की जिंदगी आसान नहीं रही है. यहां ब्रिटेन से एक रिपोर्ट.
डॉयचे वेले पर स्वाति बक्शी की रिपोर्ट
अफगान नागरिकों के पुनर्वास से जुड़ी ब्रिटेन की नई नीति के तहत इस साल पांच हजार अफगान नागरिकों को ब्रिटेन में पनाह मिलेगी. लंबी अवधि में कुल मिलाकर बीस हजार लोगों को शरण देने के लिए ब्रिटेन राजी हुआ है. सीमित शरणार्थी स्वीकार करने की बात पर ब्रिटेन की इस नीति की आलोचना हो रही है. बॉरिस जॉनसन सरकार को अफगानिस्तान के लोगों के प्रति अपनी जिम्मेदारी की दुहाई दी जा रही है. धर्म और राजनीति की बहसों से आगे निकलकर, ये मौका है इस बात को समझने का कि अपना देश और समाज छोड़कर एक अनजाने देश में रिफ्यूजी बनने से शुरू होने वाले इस सफर में लोगों के साथ क्या होता रहा है.
अफगान लोगों के ब्रिटेन में पनाह लेने का सिलसिला 1980 के दशक से चल रहा है. साल 2019 के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक ब्रिटेन में ऐसे 79000 लोग रह रहे हैं जिनका जन्म अफगानिस्तान में हुआ था. ताजा आंकड़ें बताते हैं कि 30 जून 2021 तक 3213 अफगान शरणार्थियों के मामले में शुरूआती फैसला बाकी है जबकि कुल अर्जियां 8374 तक पहुंच चुकी हैं. मतलब ये है कि शरण लेने के लिए अर्जियों और लोगों के आने का सिलसिला बदस्तूर जारी है. हालांकि आंकड़े ये नहीं बताते कि जो ब्रिटेन में बस गए उनके लिए अफगानिस्तान से बाहर जिंदगी बसर करने के मायने क्या रहे हैं? अपने घर-बार से उजड़े लोग, एक अलग दुनिया में आशियाना ढूंढते हुए किन हालात का सामना करते हैं?
जिंदगी की लय छूटी
नब्बे के दशक में तालिबान के सत्ता पर काबिज होने के बाद आतंक का जो माहौल पैदा हुआ, उसमें अपने परिवार को बचाने की जद्दोजहद में लोग एक बार नहीं कई बार विस्थापित हुए. अपनी किशोरावस्था में ब्रिटेन में कदम रखने वाली सनोबर सलीम की कहानी भी ऐसी ही है जिनका यहां पहुंचने का रास्ता वाया पाकिस्तान होकर गुजरा. सनोबर कहती हैं, "देश छोड़ना मेरे पूरे अस्तित्व के लिए उथल-पुथल लेकर आया. अफगानिस्तान में अपनी जमीन से उखड़कर मुझे यहां शून्य से शुरूआत करनी पड़ी. हमेशा ऐसा लगता रहा कि मुझे अपनी उम्र से आगे बढ़कर कुछ करने की जरूरत है वरना मैं पीछे छूट जाउंगी. मैंने ना ठीक से बचपन जिया है ना युवावस्था, अब जब मैं अधेड़ उम्र की दहलीज पर हूं तो लगता है कि जिंदगी की लय बिगड़ गई, सब बेतरतीब सा गुजर गया."
लंदन में अनुवादक के तौर पर काम करने वाली सनोबर (बदला हुआ नाम) मानती हैं कि ब्रिटेन ने उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होने का मौका दिया लेकिन देश छोड़ने से परिवार और सांस्कृतिक दायरे पीछे छूट जाएं ऐसा नहीं होता. वो बताती हैं, "ब्रिटेन ने मुझे अपनी मर्जी से कुछ करने से नहीं रोका लेकिन मेरे परिवार और सांस्कृतिक नजरिए ने बेड़ियां डालीं. किसी पश्चिमी देश में आकर रहने से अपने परिवार की रूढ़िवादी सोच को बदला नहीं जा सकता. मेरे लिए अफगानिस्तान से बाहर होने का सुकून सिर्फ ये है कि इस वक्त जो हो रहा है मैं उस बर्बरता के लिए जिम्मेदार महसूस नहीं करती."
एक महिला के तौर पर सनोबर के अनुभवों की कई परतें हैं जो उनके पति सलीम (बदला हुआ नाम) से जुदा हैं. हालांकि शरणार्थी बनने से लेकर ब्रिटेन में बेहतर जिंदगी गढ़ने तक सलीम का सफर भी उलझनों और मजबूरियों से भरा रहा. 1993 में पढ़ाई के लिए वीजा लेकर लंदन पहुंचे सलीम ने 1994 में अफगानिस्तान के हालात देखते हुए घर लौटने की बजाय ब्रिटेन में ही शरणार्थी बनना बेहतर समझा.
सलीम कहते हैं, "मां-बाप से दूर अकेले रहने और संघर्षों के लिए मैं तैयार नहीं था. ना भविष्य का कोई भरोसा, ना ही दोस्त या पहचान के लोग थे. बहुत कड़ी परिस्थितियों से गुजरते हुए आज मेरे पास सब कुछ है लेकिन आप जहां पैदा होते हैं वो जगह अगर आपसे छीन ली जाए तो फिर आप कहीं के हो नहीं पाते. लंबे वक्त तक बाहर रहने के बाद आप लौटते भी हैं तो लोग आपको मेहमान की तरह देखते हैं. ये एहसास आपके अंदर कुछ तोड़ सा देता है." बिखराव के इस एहसास के बावजूद सनोबर और सलीम जैसे लोगों ने अपनी जिंदगी की इमारत दोबारा खड़ी की. जमीन छोड़ देने से देश छूट गया हो, ऐसा नहीं लगता और ब्रिटेन में उन्हें अपनापन मिल गया हो ये कहना भी मुश्किल है.
अफगान मतलब तालिबानी
साल 2001 में अमेरिका की अगुआई वाली सेनाओं के तालिबान को सत्ता से बेदखल कर दिए जाने के बाद भी अफगानिस्तान के अलग-अलग इलाकों से लोग ब्रिटेन पहुंचते रहे. बदलते हालात में देश से निकलकर यहां बसने का मतलब शांति और सुकून रहा होगा, इस धारणा पर सवालिया निशान लगाते हैं, शोक्रिया मोहम्मदी जैसी अफगान युवतियों के अनुभव. चौदह बरस की शोक्रिया अफगानिस्तान के एक गांव से 2008 में लंदन आईं. अंग्रेजी ना बोल पाने की दिक्कत तो सामने थी ही लेकिन स्कूल शुरू होने के बाद कुछ ऐसा हुआ जिसका अंदाजा उन्हें दूर तक नहीं था. शोक्रिया बताती हैं, "मुस्लिम होने के नाते मैं सिर पर स्कार्फ पहनकर स्कूल जाती थी. स्कूल में मेरे साथियों ने कहा कि तुम आतंकी हो, तुम तालिबान हो. मैं बिल्कुल हैरान थी क्योंकि मैं जहां पली-बढ़ी वहां मेरा सामना किसी तालिबानी से कभी नहीं हुआ. ये अनुभव आपको बता देते हैं कि आप इस समाज के लिए हमेशा बाहरी रहेंगे."
नैन-नक्श और रंग से जुड़े रेसिज्म यानी जातीय भेद-भाव की कहानियां ब्रिटेन में लगभग हर अफगान की जुबान पर मिल जाएंगी चाहे वो किसी भी दशक में यहां क्यों ना पहुंचे हों. हालांकि शोक्रिया ये भी मानती हैं कि अगर उन्होंने अपना देश नहीं छोड़ा होता तो जिंदगी उनके हिसाब से नहीं बल्कि उनके रूढ़िवादी दादा के हिसाब से चलती और आज नौकरीशुदा होने के बजाय वो पांच बच्चों की मां होतीं. अफगान औरतें ये स्वीकार करती हैं कि ब्रिटेन में उन्हें पढ़ने और काम करने के वो मौके मिले जो अपने देश में मुमकिन नहीं होते यानी पहचान का एक नया संकट देने वाले देश में नई पहचान तलाशने और तराशने के मौके भी मौजूद थे.
जीने का मौका और अपनों का दर्द
पहचान का संकट नए देश में बड़ा नजर आता है लेकिन कुछ अफगान लोगों की निगाह में ये जान जाने के खतरे से कम डरावना है. खासकर हजारा समुदाय के लोगों के लिए जिनके खिलाफ हिंसाका सिलसिला लंबे समय से चल रहा है. परवेज करीमी इसी समुदाय के हैं. वो साल 2012 में, सोलह बरस की उम्र में अपने पिता के साथ ब्रिटेन पहुंचे. वुल्वरहैंप्टन में रहने वाले परवेज कहते हैं कि पिछले नौ सालों में बहुत कुछ देखा है. "जब स्कूल जाना शुरू किया तो साथियों ने बहुतपरेशान किया. मैं मुश्किल से अंग्रेजी के शब्द बोल पाता था. जिस स्कूल में था वहां मुस्लिम बहुत कम थे जिसकी वजह से मुझे काफी कुछ झेलना पड़ा. वो मुझसे पूछते थे कि क्या मेरे पास बंदूक है. बहुत मुश्किल वक्त रहा फिर भी मुझे नहीं लगता कि अगर मैं
यहां नहीं आता तो यूनिवर्सिटी की सूरत देख पाता. शायद जिंदा ही नहीं होता."
परवेज की इसी बात को दोहराते हैं बर्टन अपॉन ट्रेंट शहर में रहने वाले ओमिद जाफरी. अफगानिस्तान के गजनी प्रांत के रहने वाले ओमिद भी हजारा हैं और जान बचाने के लिए साल 2000 में ब्रिटेन में शरण ली. बर्टन शहर में अफगानों की मदद के लिए एक संस्था चलाने वाले ओमिद बहुत साफ शब्दों में कहते हैं, "मुझे ब्रिटेन में नई जिंदगी शुरू करने का मौका मिला.यहां मुझे हिकारत से नहीं देखा गया. मेहनत करनी पड़ी पर काम मिलता गया और मैं अपने बीवी-बच्चों को भी यहां ला सका.मेरी अपील है कि ब्रिटेन को अफगानिस्तान में फंसे अल्पसंख्यकों और महिलाओं को निकालना चाहिए."
ओमिद तालिबानी हिंसा के चश्मदीद रहे हैं. शोक्रिया और परवेज जैसे युवा जिन्होंने तालिबानी कब्जे का दौर तब नहीं देखा, वो अब दूर से देख रहे हैं. उन्हें अपनी बेहतर स्थिति का अंदाजा है लेकिन देश ना छोड़ पाने वाले अपने जैसे अफगान लोगों के दर्द में वो खुद को साझेदार भी मानते हैं. घर की याद, विस्थापन और पहचान के मकड़जाल में फंसे ब्रिटेन के अफगान लोगों ने अपने नए देश को घर बनाने की कोशिश की और कामयाब भी रहे. फिलहाल उन्हीं की तरह सैकड़ों लोग नई जिंदगी की आस लिए ब्रिटेन में कदम रख रहे हैं. शरणार्थियों को देखकर आंखें टेढ़ी करने वालों को ये समझने की जरूरत है कि अगर अपने देश में हालात जीने लायक हों तो रिफ्यूजी बन जाने का ख्वाब कोई नहीं पालता. (dw.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अब लगभग 20 साल बाद आज अमेरिका अफगानिस्तान से वापस लौट रहा है। विश्व का सबसे शक्तिशाली राष्ट्र आज किस मुद्रा में है? गालिब के शब्दों में 'बड़े बेआबरु होकर तेरे कूचे से हम निकले।Ó यदि अमेरिका की तालिबान से सांठ-गांठ नहीं होती तो काबुल छोड़ते वक्त हजारों अमेरिकी मारे जाते जैसे कि 1842 में अंग्रेजों की फौज के 16000 सैनिकों में से एक के सिवाय सब मारे गए थे। अब तालिबान का ताजा बयान है कि काबुल हवाई अड्डे पर 13 अमेरिकी इसलिए मारे गए कि वे विदेशी थे। विदेशी फौज की वापसी के बाद खुरासान गिरोह इस तरह के हमले क्यों करेगा? यदि ऐसा हो जाए तो क्या बात है। लेकिन मुझे नहीं लगता कि अब अमेरिकियों के चले जाने के बावजूद इस तरह के हमले बंद हो जाएंगे। इस्लामिक राज्य या अल-कायदा या खुरासान गिरोह और तालिबान के बीच सैद्धांतिक मतभेद तो हैं ही, सत्ता की लड़ाई भी है।
खुरासनी गिरोह के लोग अमेरिकियों के साथ तालिबान की सांठ-गांठ के धुर विरोधी रहे हैं। वे काबुल से तालिबान को भगाने के लिए जमीन-आसमान एक कर देंगे। तालिबान सिर्फ अफगानिस्तान में इस्लामी राज्य चाहते हैं लेकिन खुरासानी गिरोह अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत और म्यांमार तक इस्लामी राज्य फैलाना चाहते हैं। वे पाकिस्तान से भी काफी खफा है। वे तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान की तरह इस्लामाबाद को भी अपना शत्रु समझते हैं। उन्होंने और तहरीक के लोगों ने पाकिस्तान में बड़े-बड़े हमलों को अंजाम दिया है। वे तालिबान को भी काबुल में चैन से क्यों बैठने देंगे? तालिबान ने फिलहाल शिनच्यांग के चीनी उइगर मुसलमानों से हाथ धो लिये हैं, कश्मीर को भारत का आंतरिक मुद्दा बता दिया है और मध्य एशिया के मुस्लिम गणतंत्रों में इस्लामी तत्वों के दमन से भी हाथ धो लिये हैं।
इसीलिए अब तालिबान और खुरासानियों में जमकर ठनने की आशंका है। इसके अलावा तालिबान भी कई गिरोहों (शूरा) में बंटे हुए हैं। वे आपस में भिड़ सकते हैं। यह भिड़ंत अफगानिस्तान की संकटग्रस्त आर्थिक स्थिति को भयावह बना सकती है। हथियारों का जो जख़ीरा अमेरिकी अपने पीछे छोड़ गए हैं, वह कई नए हिंसक गुट पैदा कर देगा। अमेरिका तो इसी से खुश है कि अफगानिस्तान से उसका पिंड छूट गया। वह लगभग इसी तरह कोरिया, वियतनाम, लेबनान, लीब्या, एराक, सोमालिया आदि देशों को अधर में लटकता छोड़कर भागा है। भारत अभी अमेरिका के साथ सटा हुआ है लेकिन उसे उसकी पुरानी हरकतों को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता लाने में जो भूमिका भारत और पाकिस्तान मिलकर अदा कर सकते हैं, वह कोई नहीं कर सकता।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-आर.के. जैन
मैंने जालियाँवाला बाग देखा है और देखा है कैसे एक क्रूर व्यक्ति ने हजारों निहत्थे नागरिकों पर पाशविकता की सारी हदें पार कर गोलियां बरसाई थी। गोलियों के निशान, लोगों की जान बचाने की जद्दोजहद और फिर शहादत देना, वहां का शहीद स्मारक देखकर देखकर आज भी बदन में कंपन पैदा करता है। आप न चाहते हुऐ भी अपनी ऑंखें नम कर लेते हैं और शहीदों के प्रति श्रद्धा से मस्तक झुका लेते है। जालियाँवाला बाग के अंदर जाने व बाहर निकलने का आज भी एक ही रास्ता है।
13 अप्रैल 1919 को बैसाखी के दिन अंग्रेज जनरल डायर ने रौलेट एक्ट का विरोध करने पर हजारों निहत्थे और शांतिपूर्वक विरोध करने वालों पर लगभग 25000 गोलियां चलवाई थी। बाहर निकलने का कोई दूसरा रास्ता नहीं और जो एक रास्ता था उसपर दरिंदे डायर कब्जा कर गोलियां चलवा रहा था। आँकड़ों में यद्यपि 1000-1500 लोगों की शहादत लिखी है पर वहां के निशान और नजारा देखकर लगता है कि शहादत देने वालों की संख्या कई गुना ज़्यादा होगी।
दुनिया के तमाम शिक्षित देश व समाज हमेशा अपने ऐतिहासिक विरासत से जुड़ी हुई जगहों व संरचनाओं को संजोकर रखते है ताकि देश की भावी पीढ़ी को अपने इतिहास व सही तथ्यों की जानकारी हो सके और वह उनसे प्रेरणा लेकर सबक ले सके। यूरोप व दुनिया में ऐसे कई स्मारक है जहॉ भयंकर नरसंहार हुआ था और उन स्मारकों का वातावरण, माहौल वैसा ही मलिन रखा हुआ है ताकि वहां जाने वाला वह दर्द महसूस कर सके कि वास्तव में वहॉ हुआ क्या था और लोगों ने कैसे प्राण गँवाए होंगे।
जालियाँवाला बाग शहीद स्थल का सरकार ने सौंदर्यीकरण व नवीनीकरण किया है और शायद वहां पर ‘लाइट एंड साउंड शो’ की भी व्यवस्था की गई है।यह भी जानकारी में आया है कि वहाँ की भव्यता व सौंदर्य अब एक अलग ही दुनिया में ले जाती है जिसमें वहां जाने वाला व्यक्ति शहीदों के प्रति अपनी भावनाओं को भूलकर वहाँ की चकाचौंध व भव्यता में खो जाएगा ।
मेरा मानना है कि जालियाँवाला बाग जैसे शहीदी स्मारक, जहां हजारों आजादी के दीवानों ने एक सनकी व राक्षसी प्रवृत्ति के व्यक्ति के हाथों प्राण गँवाए हो उसकी मूल संरचना व वातावरण को नहीं बदला जाना चाहिए वरना वहां जाने का उद्देश्य ही खत्म हो जायेगा। जरूरत है कि वहां का माहौल व संरचना वैसे ही रखे जाये जैसा कि वर्ष 1919 में था ताकि वहां जाने वाला हर व्यक्ति महसूस कर सके और सबक लेकर जान सके कि वहां पर क्या और कैसे घटित हुआ था और हजारों लोगों ने कैसे प्राण गँवाए थे।
-कृष्ण कांत
पूजा महज 8 साल की थी जब अनाथ हो गई थी। उसके माता-पिता दोनों की मौत हो गई। पूजा को उसके रिश्तेदारों ने अपनाने से मना कर दिया था। कोई सहारा नहीं था। ऐसे में महबूब मसली को लगा कि ऐसा नहीं होना चाहिए। किसी बच्चे के सिर से साया नहीं हटना चाहिए। महबूब बच्ची की देखभाल के लिए आए। उन्होंने बच्ची को अपना लिया। उनको पहले से ही दो बेटियां और दो बेटे थे। पूजा अब इस घर की बच्ची हो गई।
महबूब अब पूजा वाडिगेरी के पिता बन गए। उसका जिम्मा उठाकर देखभाल करने लगे। उन्होंने पूजा को अपने बच्चों की तरह की प्यार दिया। उसे पाला-पोसा और पढ़ाया-लिखाया। उसे अपनी बच्ची समझा और बाकी बच्चों की तरह ही वह भी रही। जब बेटी 18 साल की हो गई तो उन्होंने एक हिंदू दूल्हा खोजा और हिंदू रीति-रिवाज से पूजा की शादी करवाई।
उनका कहना है कि ‘यह मेरी जिम्मेदारी थी कि मैं उसकी शादी हिंदू लडक़े से करवाऊं। मैंने कभी उस पर हमारी संस्कृति अपनाने का दबाव नहीं डाला। कभी इस्लाम अपनाने का दबाव नहीं डाला। ऐसा करना मेरे मजहब के खिलाफ है।’ महबूब ने कभी पूजा से ये भी नहीं पूछा कि वह निकाह करेगी या विवाह करेगी।
पूजा का कहना है, ‘मैं बहुत खुशनसीब हूं। मुझे ऐसे मां बाप मिले जिन्होंने मेरा काफी ख्याल रखा।’ यह वाकया कर्नाटक के विजयपुरा का है। पूजा की शादी में दोनों धर्मों के लोग शामिल हुए। बिना दहेज के शादी हुई।
महबूत मसली अपने इलाके में मजहबी शांति और सद्भाव के लिए मशहूर हैं। वे हिंदू त्योहारों और उत्सवों में शामिल होते हैं। लोग उनकी बहुत इज्जत करते हैं। हर दौर में, हर जाति-धर्म में दुष्ट, बदमाश, अपराधी होते हैं। लेकिन असल दुनिया का जीने का तरीका और है।
भारत में हिंदू, सिख, बौद्ध, ईसाई और मुसलमान सब आपस में एक हैं। कल वे साथ मिलकर आज़ादी की लड़ाई लड़े थे। फिर मिलकर एक भारत का निर्माण किया। इसे तोडऩे वाले कल भी थे, इसे तोडऩे वाले आज भी हैं। ऐसे तत्वों से अपने देश को बचाना हमारा आपका फर्ज है।
पूजा की कहानी पढक़र मैंने सोचा-‘लव जिहाद’ और लिंचिंग के दौर में भी इंसानियत का परचम लहरा है। अगर ऐसा न होता तो पूजा को पिता के रूप में महबूब कैसे मिलता!
-ध्रुव गुप्त
अफगानिस्तान के अंद्राबी घाटी के लोकगायक फवाद अंद्राबी को अफगान लोकसंगीत की दुनिया में एक प्रतिष्ठित नाम है जिन्हें बड़े सम्मान से सुना जाता है। अब वे हमारे बीच नहीं रहे। तालिबान द्वारा शरिया कानून के तहत संगीत पर प्रतिबंध के बाद संगीत की महफि़ल सजाने के आरोप में आतंकियों द्वारा रविवार को गोली मारकर उनकी हत्या कर दी गई।
दुनिया भर के संगीतप्रेमियों के लिए यह एक स्तब्ध कर देने वाली घटना है। इस हत्या पर चिंता व्यक्त करते हुए संयुक्त राष्ट्र ने तालिबान से कलाकारों के मानवाधिकारों का सम्मान करने का आह्वान किया है। इस घटना के बाद एक बार फिर यह बहस शुरू हो गई है कि इस्लाम में सचमुच संगीत हराम है या यह सोच संसार की इस श्रेष्ठ कला के विरुद्ध कुछ दकियानूस मुल्लों की साजिश है।
इस विषय पर पवित्र कुरान को साक्ष्य मानें तो वहां एक भी आयत ऐसी नहीं है जिसके आधार पर यह मान लिया जाय कि इस्लाम संगीत का निषेध करता है। हदीसों में जरूर संगीत को अच्छी नजर से नहीं देखा गया है। हदीसों के आधार पर कुछ लोग कुछ खास अवसरों पर ही संगीत को वैध मानते है और कुछ लोग किसी भी परिस्थिति में उसे हराम। ज्यादातर मुस्लिमों की उलझन यह है कि वे कुरान की सुनें या हदीस की। उचित तो यह है कि मुस्लिमों को कुरान को साक्ष्य मानकर अल्लाह के इस्लाम पर ही चलना चाहिए।
संगीत में अश्लीलता का विरोध हर हाल में सही है और यह सबको करना चाहिए, लेकिन एक कला के रूप में संगीत का विरोध गलत है। कुरान में स्वयं अल्लाह ने ऐसे विरोधियों पर नाराजगी व्यक्त की है जो अपनी मर्जी से उन बातों के लिए भी मना करते हैं जिनके लिए अल्लाह ने मना नहीं किया है।
अफगानी लोकगायक फवाद अंद्राबी को खिराज-ए-अकीदत!
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
काबुल हवाई अड्डे पर हुए हमले के जवाब में अमेरिका ने दो हमले किए। एक जलालाबाद और दूसरा काबुल में। अमेरिकी राष्ट्रपति ने घोषणा की थी कि वे उन हत्यारों को मारे बिना चैन नहीं लेंगे। अभी तक यही पता नहीं चला है कि जो ड्रोन हमले अमेरिका ने किए हैं, वे किन पर किए हैं और उनसे मरने वाले कौन हैं ? लेकिन अमेरिकी जनता के घावों पर बाइडन प्रशासन ने ये हमले करके मरहम लगाने की कोशिश की है। बाइडन प्रशासन की छवि को इस घटना ने गहरा धक्का पहुंचाया है लेकिन आश्चर्य की बात है कि भारत सरकार की ओर से अफगानिस्तान के मामले में कोई गतिविधि नहीं दिखाई पड़ रही है। जो भी गतिविधि हो रही है, वह अमेरिका के इशारों पर होती हुई लग रही है। संयुक्तराष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद के तौर पर भारत ने जो ताजा बयान जारी किया है, वह भी अमेरिका की हाँ में हाँ मिलाता हुआ है।
काबुल हवाई अड्डे पर हुए हमले पर तालिबान को अमेरिका ने बिल्कुल निर्दोष बताया तो अब भारत ने अध्यक्ष के नाते जो बयान जारी किया है, उसमें आतंकवाद का विरोध तो किया गया है लेकिन उस विरोध में तालिबान शब्द कहीं भी नहीं आने दिया है जबकि 15 अगस्त के बाद जो पहला बयान था, उसमें तालिबान शब्द का उल्लेख था। तात्पर्य यह है कि भारत दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा देश है और अफगान घटनाओं का सीधा असर उस पर होता है लेकिन फिर भी अफगानिस्तान के बारे में उसकी अपनी कोई मौलिक नीति नहीं है। हो सकता है कि हमारी सरकार के पास ऐसी कोई अत्यंत गोपनीय और नाजुक जानकारी हो, जिसकी वजह से वह तालिबान से सीधे संवाद करने से बच रही हो। ऐसी स्थिति में सरकार चाहे तो अपने पुराने विदेश मंत्रियों, काबुल में रहे पुराने राजदूतों और अनुभवी विशेषज्ञों को प्रेरित कर सकती है कि वे पहल करें। वे काबुल में एक सर्वसमावेशी सरकार बनवाएं और उसे प्रचुर आर्थक मदद देने और दिलवाने का वायदा भी करें। यदि वे लोग काबुल जाने में खतरा महसूस करें तो उन्हें पेशावर भिजवाया जाए।
काबुल के लोग आसानी से पेशावर आ सकते हैं। पाकिस्तानी सरकार इस अनूठी भारतीय पहल को पहले पहल बुरी नजर से देखेगी लेकिन हम उन्हें समझा सकते हैं कि यह पहल अगर सफल हो गई तो भारत से ज्यादा फायदा पाकिस्तान को होगा। यह कितनी खुशी की बात है कि तालिबान के वरिष्ठ नेता शेर मुहम्मद अब्बास स्थानकजई ने दो-टूक शब्दों में कहा है कि तालिबान सरकार भारत से अपने सांस्कृतिक, आर्थिक और व्यापारिक संबंधों को ज्यों का त्यों बढ़ाना चाहती है। उन्होंने भारत द्वारा ईरान में बनाए जा रहे चाबहार बंदरगाह और तापी गैस पाइपलाइन के बारे में भी सहमति बताई है, जो तुर्कमानिस्तान से शुरु होकर अफगानिस्तान और पाकिस्तान होते हुए भारत लाई जानेवाली है। संक्षेप में कहें तो यह मौका ऐसा है, जिस का फायदा उठाकर भारत चाहे तो भारत-पाक संबंधों को भी नई दिशा दे सकता है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-शुमाइला जाफरी
अफगानिस्तान पर तालिबान के नियंत्रण के बाद हजारों अफगान यातनाओं के डर से मुल्क छोड़ रहे हैं। ऐसे ही सैकड़ों लोग चमन बॉर्डर के रास्ते पाकिस्तान पहुंच रहे हैं।
चमन अफगानिस्तान की सीमा से सटा पाकिस्तान का छोटा-सा शहर है, लेकिन इन दिनों यहां काफी हलचल देखने को मिल रही है। हर दिन यहां बड़ी संख्या में अफगानिस्तान से लोग पहुंच रहे हैं वहीं सीमा पार करने की उम्मीद लिए दूसरी तरफ हजारों लोग एकत्रित हो चुके हैं।
जो लोग पाकिस्तान की सीमा में आ चुके हैं, उनके चेहरों पर राहत के साथ साथ भविष्य की चिंता की लकीरें भी दिख रही हैं कि आगे क्या होगा। कुछ शरणार्थियों ने बीबीसी से अपने अनुभवों को साझा किया है। इन शरणार्थियों की सुरक्षा के लिए हमने इनके नाम बदल दिए हैं।
Shumaila Jaffery
दो मांओं की कहानी
काबुल में अपना घर बार छोडक़र चमन पहुंची जिरकून बीबी (बदला हुआ नाम) एक टेंटनुमा कैंप में बैठी हैं। वह अभी-अभी आई हैं। उन्हें इंतजार है कि समुदाय के लोग उन्हें किसी अनजानी जगह लेकर जाएंगे क्योंकि उनका अपना कोई रिश्तेदार पाकिस्तान में नहीं है।
जिरकून बीबी हजारा समुदाय की हैं और अपनी जि़ंदगी में दूसरी बार शरणार्थी बनी हैं। आप कैसी हैं, ये पूछते ही वह सुबकने लगीं।
उन्होंने कहा, ‘मेरा दिल तड़प रहा है। मेरे बच्चे का क्या हाल होगा? मेरा इकलौता बेटा है।’
इनके इकलौता बेटे एक ब्रिटिश कंपनी में काम करते हैं और वे अब तक अफगानिस्तान से बाहर नहीं निकल पाए हैं। वह बताती हैं, ‘जब मेरी बहू मारी गई थी तो मैं लंबे समय तक रात में सो नहीं पाई थी। सब कुछ भूल गई थी।’
जिरकून बीबी के मुताबिक उनकी बहू की मौत कुछ साल पहले हजारा समुदाय को निशाना बनाने वाले तालिबान के एक बम धमाके में हुई थी।
उन्होंने बताया, ‘तालिबान के लोग बेहद ख़तरनाक हैं। मैं उनसे काफ़ी डरती हूं। उनमें थोड़ी भी दया नहीं होती है, वे निर्दयी होते हैं।’
जिरकून बीबी की दो युवा बेटियां उनके पीछे दुबकी हुई हैं जबकि छोटी-सी पोती उनकी गोद में है। जाहिर है इन सबका अपना घर पीछे रह गया है।
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उन्होंने कहा कि ‘बहू की मौत देख चुकी हूं लिहाज़ा दूसरा दुख झेलने की हिम्मत नहीं रही। मुझे अपने घर या सामान की फिक्र नहीं है। मुझे केवल अपने बेटे और उसकी बेटी की फिक्र है। मैं वहां कहां जाती, क्या करती। मैंने इस बच्ची की मां को अपने हाथों से क़ब्र में दफऩाया है। बच्चों को पालने में काफी कोशिशें लगती हैं, मैं एक और सदस्य को खोना नहीं चाहती।’
गजनी की जारमीने बेगम शिया समुदाय से हैं। वह भी कुछ महिलाओं के समूह के साथ पाकिस्तान की सीमा में पहुंची हैं। अफगानिस्तान में शिया समुदाय के लोगों को भी तालिबान ने अतीत में निशाना बनाया है। जारमीने बेगम की उम्र साठ साल से ज़्यादा की है। उन्होंने बताया, ‘तालिबान के शासन में लौटने के बाद हम लोग इतने डर गए कि सब कुछ छोडक़र वहां से भागने का फैसला कर लिया।’
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हालांकि ज़ारमीने बेगम के मुताबिक यहां सीमा पर भी स्थिति अच्छी नहीं है, महिलाओं के लिए किसी तरह की प्राइवेसी नहीं है। लेकिन इन लोगों के सामने देश छोडऩे के अलावा दूसरा विकल्प नहीं था।
उन्होंने बताया, ‘तालिबान लौट आए हैं, हमारी आशंका है कि आतंक का दौर फिर शुरू होगा। वे हमारे घरों की तलाशी ले रहे हैं। वे सरकारी अधिकारियों की तलाशी कर रहे हैं। हमें लगता है कि किसी दिन भी हिंसा का दौर शुरू हो सकता है।’
जिरकून की तरह ही जारमीने भी दूसरी बार विस्थापन झेल रही हैं। उन्होंने बताया, ‘1980 के दौर में युवाओं वाली उम्र थी तो हालात से तालमेल बिठाना आसान था। अब तो थोड़ी दूर चलने पर दम फूलने लगता है।’
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लोगों में कोई उम्मीद नहीं
चमन स्पिन बोल्डक सीमा, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच की सबसे व्यस्त क्रॉसिंग में एक है। इस क्रॉसिंग से हर दिन हजारों कारोबारी एक देश से दूसरे देश जाते रहे हैं। लेकिन इन दिनों पाकिस्तान आने वाले लोगों की संख्या कहीं ज्यादा है।
तेज धूप में धूल से सने सैकड़ों लोग अपने कंधों पर सामान उठाए चले आ रहे हैं, बुर्का पहने महिलाएं भी अपने अपने मर्दों के पीछे, बच्चों को संभाले नजर आती हैं। इस भीषण गर्मी में कइयों के पैरों में जूते चप्पल नहीं दिखते। मरीज़ सामान ढोने वाले व्हीलर में पाकिस्तान की सीमा में लाए जा रहे हैं। इनमें युवा और महिलाएं भी शामिल हैं।
18 साल के जमाल ख़ान काबुल में 11वीं के छात्र थे। उन्हें तालिबान के बिना किसी प्रतिरोध के अफगानिस्तान पर नियंत्रण स्थापित करने से बेहद निराशा है। उन्होंने बताया, ‘हर कोई अपने घर में रहना चाहता है, लेकिन हम अफगानिस्तान छोडऩे पर मजबूर हुए हैं। हमें पाकिस्तान या किसी दूसरे देश जाकर अच्छा नहीं लग रहा है, सब लोग चिंतित है, लेकिन उनके पास अपने देश में कोई उम्मीद नहीं है।’
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तालिबान के लौटने से अफग़़ानिस्तान में महिलाओं की स्थिति में क्या बदलाव आया है, इसके बारे में जमाल ने बताया, ‘तालिबान के नियंत्रण हासिल करने के दूसरे दिन जब मैं काबुल की गलियों और बाजारों में निकला तो मुझे कोई महिला नहीं दिखाई दी। लेकिन जब मैंने कुछ को देखा तो उन लोगों ने अपने पूरे शरीर को चादर से ढक रखा था।’
जमाल ने यह भी बताया इस बार तालिबान महिलाओं के साथ उस तरह का बुरा बर्ताव नहीं कर रहे हैं जैसा कि पिछले शासन में किया था, लेकिन महिलाएं बुरी तरह डरी हुई हैं।
मोहम्मद अहमर पंजशीर घाटी के हैं, लेकिन हाल तक वे काबुल में अंग्रेज़ी टीचर थे। उन्होंने अपनी पढ़ाई भी काबुल से पूरी की है। उन्होंने बताया, ‘यह एकदम अविश्वसनीय था। ईमानदारी से कहूं तो हम नहीं जानते थे कि एक ही रात में वे काबुल पर कब्जा कर लेंगे। मुझे अब भी अपने स्कूल और वहां की पढ़ाई को लेकर डर बना हुआ है।’
अहमर के मुताबिक तालिबान का व्यवहार इस बार कुछ अलग है, लेकिन जो लोग उनकी यातनाएं झेल चुके हैं, वे उन पर आसानी से विश्वास करने को तैयार नहीं हैं। अहमर कहते हैं कि उनके पास भविष्य की कोई योजना नहीं है, लेकिन जो भी हो वह अफग़़ानिस्तान के मौजूदा शासन के अधीन तो नहीं होगा।
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उन्होंने बताया, ‘मैं जीवन में अपने फ़ैसले ख़ुद लेना चाहता हूं। आज़ाद रहना चाहता हूं। इसलिए मैं तो वापस नहीं लौट रहा हूं।’
अली चंगेजी गजनी में प्रशासनिक अधिकारी थे। उन्होंने बताया कि जिस दिन अशरफ गनी की सरकार गई, उसी दिन से वे अफगानिस्तान से बाहर निकलने की कोशिश कर रहे थे। उन्होंने ये भी बताया कि उन्हें सीमा पर तीन बार लौटा दिया गया क्योंकि उनके पास यात्रा करने के लिए ज़रूरी दस्तावेज नहीं थे, लेकिन बाद में पाकिस्तानी अधिकारियों ने मानवीय आधार पर उन्हें सीमा में आने दिया।
अली चंगेज़ी ने बताया, ‘अभी तो जि़ंदा रहना सबसे बड़ी प्राथमिकता थी, इसलिए हमने देश छोडऩे का फैसला किया। हम पाकिस्तान इसलिए आए हैं क्योंकि हमें लगता है कि हम यहां सुरक्षित हैं।’
अफगानिस्तान के एक पूर्व सैनिक ने अपने युवा बेटे को बात करने के लिए आगे किया। वह अपनी पत्नी और तीन बच्चों के साथ पाकिस्तान की सीमा में आए हैं। उनके बच्चे ने बताया कि तालिबान के आश्वासन के बाद भी उनका परिवार काफी डरा हुआ था, इसलिए वे लोग इधर आए हैं।
हमें सीमा पर तालिबान का एक युवा लड़ाका भी मिला। सफेद सलवार कमीज और काले रंग की वेस्टकोट पहने इस लड़ाके के बाल बेहद लंबे थे और उसने अपने मूंछें कटा रखी थीं। उसने कहा कि ‘आप मेरी बातों को रिकॉर्ड नहीं करें क्योंकि इससे उनके बड़े लोग नाराज़ होंगे।’
24 साल के इस लड़ाके ने यह भी दावा कि वह 17 साल से तालिबान के लिए संघर्ष कर रहा है। उसने दावा किया है कि अफगानिस्तान में पूरी तरह शांति है और विदेशी सैनिकों के जाने के बाद अफगानी नागरिकों की चिंता भी दूर होगी।
उसने यह भी कहा, ‘यह केवल विश्वास और भरोसे की समस्या है। लोगों को यह जल्दी ही मालूम हो जाएगा, हमलोग जो वादा कर रहे हैं, उसे पूरा भी करेंगे।’
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हताशा और निराशा
पाकिस्तान-अफगानिस्तान सीमा पर तालिबान का झंडा फहरा रहा है। इस सीमा को पार करने वाले शरणार्थियों का कहना है कि उन्हें कोई भविष्य नहीं दिख रहा है।
पाकिस्तान पहले से ही लाखों अफगान नागरिकों की मेज़बानी कर रहा है, उसका कहना है कि वह और ज़्यादा लोगों के आने की स्थिति का सामना नहीं कर पाएगा।
इस्लामाबाद प्रशासन जल्दी ही शरणार्थियों के प्रवेश पर पूरी तरह से रोक लगा देगा, यह स्थिति बहुत दूर नहीं दिख रही है। यह भी कहा जा रहा है कि इस बार सीमावर्ती क्षेत्र में ही शरणार्थियों के कैंप लगाए जाएंगे और अफगानों को मुख्य शहरों में प्रवेश नहीं दिया जाएगा।
हालांकि अभी तक चमन स्पिन बोल्डक सीमा पर पाकिस्तानी अधिकारियों की नीति नरम दिख रही है। लेकिन शरणार्थियों को अंदाजा है कि बहुत समय नहीं बचा है। लिहाजा वे अफगानिस्तान से बाहर निकलने के लिए कोई भी जोखिम उठाने को तैयार दिखते हैं।
कोई अपनी जान बचाने के लिए पाकिस्तान पहुंच रहा है तो कोई अपनी गरीबी दूर करने के लिए। कंधार के एक पश्तून मजदूर ओबैदुल्लाह ने बताया कि व्यवसाय नष्ट हो गए हैं और अर्थव्यवस्था पूरी तरह से चरमरा गई है। उन्होंने बताया, ‘कंधार में सामान्य स्थिति है, लेकिन कोई काम नहीं है, मैं यहां आया हूं ताकि कुछ काम मिल जाए। शायद मैं यहां रिक्शा चलाऊं।’
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ओबैदुल्लाह ने कहा कि उन्होंने अफ़ग़ान सीमा पर लंबी कतारें देखी हैं.
उन्होंने बताया, ‘स्पिन बोल्डक चमन क्रासिंग पर लोगों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है, खासकर महिलाओं को। अफगानिस्तान की सीमा की तरफ बहुत भीड़ है, उन्हें धकेला जा रहा है। कतारें लंबी हैं, जहां तक आप देख सकते हैं वहां तक इस तरफ आने के लिए लोग बेताब हैं।’
संगीन खान अफगान हैं, लेकिन वह पाकिस्तान में सेटल हो चुके हैं। वे अभी नंगरहार से लौटे हैं जहां वह अपनी बीमार बहन को देखने गए थे। उन्होंने बताया कि तालिबान से ज्यादा गरीबी अफगानिस्तान में लोगों की जान ले रही है।
उन्होंने बताया, ‘लोगों के पास खाने के लिए कुछ नहीं है, अर्थव्यवस्था खऱाब है, इसलिए वे पाकिस्तान और तुर्की जैसे अन्य देशों की ओर पलायन कर रहे हैं।’
फारसी बोलने वाले कोयला खदान के एक मज़दूर बागलान से आए हैं। उन्होंने अपने कंधे पर एक छोटे से बोरे में अपना सामान रखा हुआ है। उनकी पत्नी सावधानी से काले बुर्के में उनके पीछे पीछे चल रही है।
उन्होंने बताया, ‘बागलान में सारी खदानें बंद हैं, इसलिए काम नहीं मिल रहा है। मैं चमन क्रासिंग से सौ किलोमीटर दूर कुचलक जा रहा हूं, वहां कोयला खदानों में कुछ काम मिल जाएगा।’
ये शरणार्थी तालिबान से भी शरण ले रहे हैं। लेकिन चमन क्रासिंग के पास ही। जब कोई च्ेटा-कंधार सडक़ से गुजरता है तो उसे तालिबान के झंडे कई जगहों पर दिखाई देते हैं।
कुचलक से जंगल पीर अली जई के बीच का क्षेत्र विशेष रूप से अफग़़ान तालिबान का घर माना जाता है।
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च्ेटा-कंधार सडक़ के किनारे, कम से कम चार कब्रिस्तान हैं जिन्हें स्थानीय लोग ‘शहीदों का कब्रिस्तान’ कहते हैं। यहां कई अफगान तालिबान लड़ाकों की क़ब्रें हैं। कई कब्रें पुरानी हैं तो कुछ नई भी हैं। एक स्थानीय ड्राइवर ने हमें बताया कि हाल की लड़ाई में मारे गए कुछ लोगों को यहां दफनाया गया है।
पाकिस्तान अब खुले तौर पर अफगान तालिबान के साथ अपने संबंधों और अपनी धरती पर उनके परिवारों की मौजूदगी को स्वीकार करता है, लेकिन यह मानता है कि ये सिर्फ तालिबान नहीं हैं। पाकिस्तान इस समय 30 लाख से अधिक अफगान शरणार्थियों की मेजबानी कर रहा है। इनमें से लगभग आधे लोग अपंजीकृत शरणार्थी हैं।
पाकिस्तान ने दोहराया है कि अफगानिस्तान में वह किसी की हिमायत नहीं कर रहा है और वह अफगान संकट के उन सभी समावेशी सियासी समाधान का समर्थन करेगा जिसे बाहर से नहीं थोपा गया हो।
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पाकिस्तान में कई विश्लेषकों का मानना है कि अफगान तालिबान ने अब ख़ुद को बदला है, विकास किया है और खुद को एक राजनीतिक इकाई के रूप में स्थापित किया है। हालांकि उन्हें अभी अपने अतीत से पीछा छुड़ाने में वक्त लगेगा।
जबकि कुछ दूसरे विश्लेषकों का कहना है कि जब तक विश्वास बहाल नहीं हो जाता, तब तक अफगान नागरिक अपने जीवन और भविष्य के लिए भागते रहेंगे। इनके मुताबिक तालिबान शासन के तहत उनका कोई भविष्य नहीं हो सकता। (bbc.com/hindi)
-गिरीश मालवीय
जैसे ही हिमाचल के सेब खरीदी में अडानी की भूमिका सामने आयी अचानक किसान आंदोलन को लेकर सरकारी दमनचक्र की गति तेज हो गयी, करनाल में परसो शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे किसानों के सर फोडक़र जलियांवाला बाग वाली कू्रता का प्रदर्शन किया गया, सरकार समझ गयी कि इसे कुचलने में अधिक देर की तो अडानी अम्बानी की कृषि क्षेत्र में बढ़ती हुई हिस्सेदारी की सच्चाई को दबाया नही जा सकेगा।
आपको याद होगा कि किसानों आंदोलन अपने पूरे जोर पर था ओर अडानी और अंबानी ग्रुप के उत्पादों का बहिष्कार करने का ऐलान हुआ था, तब अडानी ने बयान जारी किया था कि वह देश में किसानों से सीधे फसल नहीं खरीदता, हिमाचल में उसका यह झूठ पकड़ा गया।
हम सब जानते है कि मुकेश अंबानी और गौतम अडानी, दोनों की नजरें भारत के कृषि क्षेत्र पर हैं। 2006 में शुरू हुए रिलायंस फ्रेश के आज 620 से ज्यादा स्टोर्स हैं, जिनमें 200 मीट्रिक टन फलों और 300 मेट्रिक टन सब्जियों की रोजाना बिक्री होती है। कंपनी का खुद भी कहना है कि वह अपने 77 फीसदी फल सीधे किसानों से खरीदती है। जियो प्लेटफॉर्म पर तो जियो कृषि जैसा एक ऐप तक मौजूद हैं।
अडानी पूरे देश में खाद्यान्न भंडारण के लिए नयी तकनीक के गोदामों (सायलो) की पूरी श्रृंखला का निर्माण कर रहा है, हिमाचल की सेब खरीद की प्रक्रिया में तो उसकी कंपनी अडानी एग्री फ्रेश सीधे शामिल हैं, जहाँ उसने सेब खरीद के 10 साल पुराने रेट घोषित किये हैं। वहाँ के किसानों का कहना है कि अदानी के कम रेट घोषित करने से मार्केट के सेंटिमेंट्स पर असर पड़ा है और सेब के दाम तेजी से गिरे हैं।
शिमला पहुंचे किसान नेता राकेश टिकैत प्रेस कॉन्फ्रेंस में सवाल उठा रहे हैं कि अदानी ने हिमाचल प्रदेश में सेब के रेट 16 रुपये प्रति किलो कम कर दिए। वर्ष 2011 में जो सेब का रेट था, आज भी वही है। क्या देश में महंगाई नहीं बढ़ी? क्या पेट्रोल-डीजल, उर्वरकों और कीटनाशकों की कीमतेें नहीं बढ़ीं? वह आगे कहते हैं कि जब सरकार पूछती है कि नुकसान क्या है तो किसान बिल में जो कॉंट्रैक्ट फार्मिंग है, वह यही तो है। किसान को कमजोर किया जा रहा है, ताकि वह अपनी जमीन बेचने को मजबूर हो जाए।’
यह हम सभी जानते है किसान से औसतन 50 रुपए में खरीदा गए सेब अदानी 3-4 महीने बाद 150 से 200 रुपए में बेचेगा अगर प्रति किलो पर कोल्ड स्टोरेज का 20-25 रुपए किलो का खर्च भी मान ले तो कंपनी को दोगुना-तिगुना मुनाफा होगा, वह यदि 10-12 रुपये दाम बढ़ा भी दे तो उसे नुकसान नहीं है।
गाँव कनेक्शन में सेब के दामो से कृषि कानूनों का लिंक बताते हुए प्रोग्रेसिव ग्रोवर एसोसिशएन (पीजीए) इंडिया के प्रेसिडेंट लोकेंद्र सिंह बिष्ट कहते हैं, ‘सीधे तौर पर हमारे ऊपर कोई असर नहीं है। लेकिन आप चौतरफा देंखेंगे तो असर समझ आएगा। अडानी ने 72 रुपए का रेट खोला है अगर वो 62 रुपए रखता तो हम क्या कर लेते। जब सिर्फ कॉरपोरेट होंगे तो मिनिमम प्राइज नहीं होगा। संरक्षण की लागत नहीं हो होती तो वो मनमानी करेंगे ही।’
जाने माने कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा सेब के रेट घटाए जाने पर लिखते हैं, ‘26 अगस्त से शुरू हुए सेब विपणन सीजन के लिए अदानी एग्री फ्रेश कंपनी ने सेब के खरीद मूल्य में औसतन 16 रुपये प्रति किलो की कटौती की है। यही कारण है कि किसान केंद्रीय कानूनों का विरोध कर रहे हैं। यही कारण है कि वे एमएसपी को कानूनी अधिकार बनाने की मांग करते हैं।’
साफ है कि जैसे जैसे समय बीतता जाएगा आम जनता को यह समझ में आने लगेगा कि कृषि कानूनों का विरोध करना क्यों जरूरी है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश डी. वाय. चंद्रचूड़ ने सत्यनिष्ठता की जबर्दस्त वकालत की है। वे छागला स्मारक भाषण दे रहे थे। उनका कहना है कि यदि राज्य या शासन के आगे सत्य को झुकना पड़े तो सच्चे लोकतंत्र का चलना असंभव है। राज्य और शासन प्राय: झूठ फैलाकर ही अपना दबदबा बनाए रखते हैं। बुद्धिजीवियों का कर्तव्य है कि वे उस झूठ, उस पाखंड, उस नौटंकी का भांडाफोड़ करें। मेरी राय में यह जिम्मेदारी सिर्फ बुद्धिजीवियों की ही नहीं है। उनके पहले विधानपालिका याने संसद और न्यायपालिका याने अदालतों की है। जिन देशों में तानाशाही या राजतंत्र होता है, वहां संसद और अदालतें सिर्फ रबर का ठप्पा बनकर रह जाती हैं।
लेकिन लोकतांत्रिक देशों की अदालतों और संसद में सरकारों के झूठ के विरुद्ध सदा खांडा खड़कता रहता है। लेकिन हमने देखा है कि विधानपालिका और न्यायपालिका भी कार्यपालिका की कैसी गुलामी करती हैं। आपात्काल के दौरान हमारी संसद में कितने सांसद अपनी आत्मा की आवाज को बुलंद करते थे ? इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में क्या एक भी मंत्री ने कभी आपात्काल के विरुद्ध आवाज उठाई ? आपात्काल की बात जान दें, यों भी मंत्रिमंडल की बैठकों में होनेवाले बड़े-बड़े फैसले जब होते हैं तो क्या उन पर दो-टूक बहस होती है ? क्या कोई मंत्री खड़े होकर सच बोलने की हिम्मत करता है ? क्यों करे, वह ऐसी हिम्मत ? तभी प्रश्न उठता है कि सच बड़ा है कि स्वार्थ ? सच वही बोलेगा, जो निस्वार्थ होगा। कोई जज ऐसा फैसला क्यों देगा कि उससे सरकार नाराज़ हो जाए ? उसकी पदोन्नति खटाई में पड़ सकती है। उसका कहीं भी तबादला हो सकता है और सेवा-निवृत्ति के बाद वह किसी भी पद के लिए लार भी नहीं टपका सकता है। हमारे जजों को नौकरी पूरी होने के बाद राज्यसभा चाहिए, राज्यपाल बनना है, राजदूत बनना है और किसी न किसी तरह कोई न कोई कुर्सी हथियाना है।
अगर वे सत्य पर डटे रहेंगे तो कौनसी सरकार उन पर कृपालु होगी ? ऐसी स्थिति में आशा की आखिरी किरण खबरपालिका में दिखाई पड़ती है। खबरपालिका याने अखबार और टीवी। इंटरनेट भी! इंटरनेट का कुछ भरोसा नहीं। उस पर लोग मनचाही डींग हांकते रहते हैं लेकिन हमारे टीवी चैनल भी नेताओं के अखाड़े बन चुके हैं। उन पर गंभीर विचार-विमर्श होने की बजाय कहा-सुनी का दंगल ज्यादा चलता रहता है। वे सत्य को उदघाटित करने में कम, अपनी दर्शक-संख्या बढ़ाने में ज्यादा निरत दिखाई पड़ते हैं। अखबारों की स्थिति कहीं बेहतर है लेकिन वे भी अपनी वित्तीय सीमाओं से लाचार हैं। वे यदि बिल्कुल खरी-खरी लिखने लगें तो उनका छपना ही बंद हो सकता है। फिर भी कई अखबार और पत्रकार तथा कुछ टीवी एंकर भारत के लोकतंत्र की शान हैं। उनकी निष्पक्षता और सत्यनिष्ठता हमारी सरकारों पर अंकुश का काम तो करती ही हैं, उनका मार्गदर्शन भी करती है। सत्य बोलने की हिम्मत जिनमें है, वे नेता, वे जज और वे पत्रकार हमारे लोकतंत्र के सच्चे रक्षक हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
गुजरात के उप-मुख्यमंत्री नितीन पटेल ने कल अपने एक भाषण में बड़ी विचारोत्तेजक बहस छेड़ दी। उन्होंने सवाल उठाया कि यदि भारत में हिंदुओं की बहुसंख्या नहीं होती तो क्या होता ? उन्होंने कहा कि यदि वैसा होता तो देश में न कोई धर्म-निरपेक्षता होती, न कानून का राज होता, न संविधान होता और न ही कोई मानव अधिकार होते। पटेल के इस कथत का आंतरिक अर्थ यह हुआ कि भारत हिंदू राष्ट्र है। इसीलिए यह वैसा है जैसा कि ऊपर बताया गया है। इसी कथन का दूसरा पहलू यह है कि दुनिया के जिन राष्ट्रों में दूसरे मजहबियों का बहुमत है, वहां की शासन-व्यवस्थाओं में वे सभी खूबियाँ नदारद हैं, जो भारत में हैं। नहीं, ऐसा नहीं है। यूरोप और अमेरिका जैसे राष्ट्रों में हिंदू बहुसंख्या में नहीं है लेकिन उदारता के वहां वे सब लक्षण विद्यमान हैं, जो भारत में हैं। लेकिन पटेल का इशारा कुछ दूसरी तरफ है। उनका असली प्रश्न यह है कि यदि भारत मुस्लिम बहुसंख्यक देश होता तो क्या यहां वे सब स्वतंत्रताएं होतीं जो आज हैं ? उन्होंने साथ-साथ यह भी कह दिया कि भारत के मुसलमान और ईसाई देशभक्त हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है।
उनका यह कथन बिल्कुल सही है। मुस्लिम देशों के बारे में उन्होंने जो कहा है, वह बहुत हद तक सही है लेकिन उसके कुछ अपवाद भी हैं। इसमें शक नहीं कि दुनिया के ज्यादातर मुस्लिम देशों में आज हजार-डेढ़ हजार साल पुराने अरबी कानून इस्लाम के नाम पर चल रहे हैं। जो क्रांतिकारी आधुनिकता पैगंबर मोहम्मद खुद लाए थे, गए—बीते अरबी कानूनों और परंपराओं में, उस आधुनिकता की प्रवृत्ति पर आज भी कई इस्लामी देश आँख मूंदे हुए हैं लेकिन मैंने स्वयं अफगानिस्तान, ईरान, दुबई, एराक और लेबनान जैसे देशों में अब से 50-55 साल पहले अपनी आंखों से देखा है कि उन देशों में कई लोगों की जीवन-पद्धति भारतीय भद्रलोक से भी ज्यादा आधुनिक थी। इन देशों के गैर-इस्लामी लोग कुछ अतियों की शिकायत जरुर करते थे लेकिन कुल मिलाकर वे भारत के अल्पसंख्यकों की तरह खुश दिखाई पड़ते थे। यहां तक कि जिन्ना और भुट्टो के मंत्रिमंडल में कुछ हिंदू भी थे। अफगान बादशाह अमानुल्लाह की सरकार में कई हिंदू काफी बड़े पदों पर रहे हैं। लेकिन यह सच है कि भारत-जैसी धर्म-निरपेक्षता दुनिया में कहीं नहीं रही हैं। स्पेन में महारानी ईसावेल ने मस्जिदों का और तुर्कों ने गिरजों का क्या हाल किया था ? यूरोप के मध्यकालीन केथोलिक शासकों के जुल्मों की कहानियां रोंगटे खड़े कर देती हैं। हिटलर के राज में यहूदियों का जीवन कितना नारकीय हो गया था ? आज भी चीन के उइगर मुसलमानों, रूस के चेचन्या मुसलमानों और फ्रांस और जापान के विधर्मियों के साथ जैसी निर्मम सख्ती हो रही है, क्या वैसी भारत में हो रही है या कभी हुई है क्या ? हम लोगों को, चाहे हम हिंदू हो, मुसलमान हों, ईसाई हों, हमें गर्व होना चाहिए कि हम भारतीय हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-कनुप्रिया
अपनी पीएचडी के लिए लैब जाना शुरू किया कुछ समय से। बीटीयू नई यूनिवर्सिटी है, सरकारी यूनिवर्सिटी है, फंड्स की कमी है, लैब बस ठीक ठाक है फिर भी बीटेक के छात्रों को देखती हूँ तो मनोयोग से लगे रहते हैं, कम सुविधा में भी प्रोजेक्ट्स पर काम कर रहे होते हैं उसी तरह जैसे कम सुविधा में भी हमारे गरीब खिलाड़ी लगे रहते हैं अपने लक्ष्य के लिए।
इन छात्रों को बढिय़ा लैब्स, बढिय़ा दिशा-निर्देश मिले तो ये क्या न कर दें, न बुद्धि की कमी है, न लगन की, न मन की, ये दुनिया के किसी विकसित देश के छात्रों से कम नहीं।
मगर हम क्या कर रहे हैं? हम दुनिया से तकनीक, विज्ञान, शिक्षा में मुकाबला नहीं कर रहे, हम जहालत में मुकाबला कर रहे हैं । हमारी चिंता में ये नही है कि हमारे बच्चों के पास वर्ल्ड क्लास यूनिवर्सिटीज नहीं हैं, हमारी चिंता में ये है कि मुसलमान मदरसे में पढ़ रहे तो हम गुरुकुल में क्यों नहीं। होना ये था कि मुसलमान को भी मुख्यधारा में शामिल करना था, क्या वहाँ ब्रेन्स की कमी है? मगर पहले हमने उन्हें महज धर्म और मौलवियों के हवाले किया ताकि वो पढ़-लिख न सकें और अब ये सरकार वही हिन्दुओ के साथ भी कर रही है।
बीजेपी के नेता फेसबुक पर लिख रहे हैं हम हिंदू जगाने आए हैं। सवाल ये है कि जगाकर आप करेंगे क्या? मॉब लिंचिंग करवाएंगे, अपनी राजनीतिक सत्ता का गुंडा बनाएंगे, हिंदू मुहल्ले में मुसलमान की पिटाई करवाएंगे और क्या करेंगे आप जगाकर। न आपके पास उनके लिये ढंग की शिक्षा व्यवस्था है, न आपके पास विजऩ है कि दुनिया के सबसे जवान देश की युवा आबादी को आखिऱ करना क्या है?न आपके पास उनके लिये नौकरियाँ हैं, न स्किल डेवलपमेंट पर मैंने कोई काम होते देखा। कितने स्टार्टअप सफल हैं? इतना ब्रेन, इतनी ऊर्जा, इतनी शक्ति के लिये क्या प्रोग्राम है आपके पास? अगर सरकारी यूनिवर्सिटीज़ न हों तो मामूली पृष्ठभूमि से आए ये होनहार छात्र क्या करेंगे, महज सडक़ों पर कुंठित होकर दंगा ही करेंगे, हिन्दू मुसलमान करेंगे।
मैं कुछ समय बाद नाराज होकर हिन्दू मुसलमान करने वालों को दफा करती हूँ अपनी लिस्ट से, आप खुद सरकारी स्कूलों में पढ़ लिए, सरकारी कॉलेजों में पढ़े, सरकारी नौकरियाँ कीं, अब जब नई पीढ़ी की बारी आई तो आप कमाने-खाने वाले हो गए, बच्चों को ऊँची फीस दे सकते हैं तब हिन्दू मुसलमान करने लग गए, क्या चाहते हैं आप क्या हो इस देश मे दंगे के सिवा।
अफसोस है कि इस देश के खाए अघाये अधेड़ों के पास कोई विजन नही हिन्दू राष्ट्र के सिवा, आप सोचते हैं कि देश का वातावरण खराब करके महज आपके बच्चे बच जाएँगे, विदेश भिजवा दिए जाएँगे, मगर आपकी लगाई आग कभी तो आप तक भी पहुँचेगी।
-रमेश अनुपम
किशोर साहू इससे पहले कांग्रेस के मार्च 1939 के त्रिपुरी कांग्रेस अधिवेशन में हिस्सा ले चुके थे। उस अधिवेशन के बारे में लिखते हुए उन्होंने कहा है ‘उस समय गांधी और सुभाष चंद्र बोस दो नायक थे पर लोगों की नजरें पण्डित नेहरू से हटती नहीं थी।’
किशोर साहू त्रिपुरी अधिवेशन में तीन दिनों तक शामिल रहे। वे मात्र सिनेमाई नहीं थे बल्कि स्वाधीनता की चेतना से भरे हुए नौजवान भी थे। देश की राजनीति में उनकी गहरी दिलचस्पी थी।
इसलिए जाहिर है उन्होंने अपनी फिल्म ‘वीर कुणाल’ के उद्घाटन के लिए लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल को चुना। पर मुश्किल यह थी कि जिस दिन (1 दिसंबर 1945 ) नावेल्टी थियेटर में ‘वीर कुणाल’ का उद्घाटन होना था, उसी दिन शाम को कलकत्ता में कांग्रेस की वर्किंग कमेटी की बैठक भी थी, जिसमें सरदार वल्लभ भाई पटेल को भी शामिल होना जरूरी था।
सरदार वल्लभ भाई पटेल ‘वीर कुणाल’ के उद्घाटन में शरीक होना चाहते थे। किशोर साहू उन्हें भा गए थे। सो तय हुआ कि 1 दिसंबर को सरदार पटेल ‘वीर कुणाल’ का उद्घाटन करेंगे और मध्यांतर तक फिल्म देखने के बाद स्पेशल चार्टर प्लेन से कलकत्ता निकल जायेंगे।
बंबई कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष एस.के.पाटिल ने सरदार पटेल की इच्छा के अनुरूप ऐसा ही कार्यक्रम सुनिश्चित किया।
1 दिसंबर सन 1945 को नॉवेल्टी थियेटर बंबई में ‘वीर कुणाल’ का शानदार प्रीमियर शो हुआ। सरदार वल्लभ भाई पटेल ने फिल्म से पहले भाषण दिया। अंग्रेजों को ललकारते हुए उन्होंने कहा-‘जिस दिन विदेशी पूंजीपति हमारे देश में आकर स्टूडियो खोलने की कोशिश करेंगे, कांग्रेस पूरी ताकत के साथ उसका विरोध करेगी।’
भाषण के बाद सरदार पटेल मध्यांतर तक ‘वीर कुणाल’ देखते रहे, इसके बाद ही वे कलकत्ता की बैठक के लिए रवाना हुए।
‘वीर कुणाल’ ऐतिहासिक रूप से एक सफल फिल्म साबित हुई।
6 जनवरी 1946 को किशोर साहू की सुपुत्री नयना का जन्म हुआ। नयना साहू जो बाद में उनकी फिल्म ‘हरे कांच की चूडिय़ां’ की नायिका बनी।
इसके बाद किशोर साहू ने फिल्मिस्तान के बैनर तले ‘सिंदूर’ फिल्म का निर्देशन किया। नायक वे स्वयं थे नायिका थी शमीम। नायिका शमीम उस जमाने में एक फ्लॉप
हीरोइन मानी जा रही थी। फिल्मिस्तान के निर्माता राय बहादुर चुन्नीलाल शमीम की जगह किसी दूसरी हीरोइन को इस फिल्म में लेना चाहते थे, पर किशोर साहू इसके पक्ष में नहीं थे।
राय बहादुर चुन्नीलाल को लगा किशोर साहू उनकी बात न मानकर उनकी लुटिया डुबो देंगे। इसलिए उन्होंने इस फिल्म में पैसा लगाना बंद कर दिया और अपने प्रोडक्शन की दूसरी फिल्म ‘शहनाई’ जिसका निर्देशन प्यारे लाल संतोषी कर रहे थे में ज्यादा से ज्यादा पैसा लगाने लगे।
‘सिंदूर’ 7 जून 1947 को रॉक्सी थियेटर में रिलीज हुई। यह फिल्म अद्भुत रूप से सफल रही। यह फिल्म 32 सप्ताह तक टॉकीज से नहीं उतरी। सिल्वर जुबली से भी आगे 7 सप्ताह ज्यादा चली। इस फिल्म को देखकर कई लोगों ने विधवा विवाह किया। ‘शहनाई’ फिल्म फ्लॉप फिल्म साबित हुई।
राय बहादुर चुन्नीलाल ने प्यारेलाल संतोषी द्वारा निर्देशित फिल्म ‘शहनाई’ के प्रचार-प्रसार में पानी की तरह पैसा बहाया था और पूरी बंबई नगरी को इस फिल्म के पोस्टर से पाट दिया था। जबकि ‘सिंदूर’ के प्रचार-प्रसार में एक ढेला भी खर्च नहीं किया। राय बहादुर चुन्नीलाल को लग रहा था कि ‘सिंदूर’ एक फ्लॉप फिल्म साबित होगी और ‘शहनाई’ एक सुपर-डुपर हिट फिल्म। लेकिन हुआ ठीक इसके उल्टा ही।
किशोर साहू आगे की सोच रखने वाले एक प्रगतिशील और गंभीर फिल्म निर्देशक थे। वह जमाना ही कुछ और था, आज जैसी मसाला और फूहड़ फिल्मों का दौर नहीं था, सोद्देश्य फिल्मों का जमाना था।
यह था किशोर साहू की फिल्मों का जादू जो बीसवीं सदी के 30 और 40 के दशक में लोगों के सिर चढक़र बोलता था। हिंदी सिनेमा के दर्शक और पूरी फिल्मी दुनिया किशोर साहू की फिल्मों की दीवानी हो चुकी थी। किशोर साहू तब तक हिंदी सिनेमा के आकाश में ध्रुव तारे की तरह चमकने लगे थे।
यह बात बहुत कम ही लोगों को मालूम है कि हिंदी सिनेमा के महान अभिनय सम्राट कहे जाने वाले ट्रेजडी किंग यूसुफ खान उर्फ दिलीप कुमार का फिल्मी कैरियर पचास के दशक में गर्दिश में था।
‘ज्वारभाटा’ (सन 1944) और ‘जुगनू’ (सन् 1947) जैसी फिल्में दिलीप कुमार के कैरियर में कुछ खास नहीं कर पाई थी।
नए नवेले दिलीप कुमार की नैया मंझधार में हिचकोले खा रही थी। उस समय फिल्मी दुनिया में नए-नए आए हुए दिलीप कुमार को एक ऐसे प्रतिभाशाली निर्देशक की जरूरत थी जो उसके भीतर छिपी हुई अभिनय प्रतिभा को समझकर उसे एक नया जीवनदान दे सके।
दिलीप कुमार के ऐसे दुर्दिनों में ही उनके जीवन में किशोर साहू एक फरिश्ता बनकर आए। जिसके चलते दिलीप कुमार आजीवन किशोर साहू के मुरीद हो गए।
दिलीप साहब आजीवन किशोर साहू की यादों को अपने दिल में संजोए रहें।
किशोर साहू द्वारा निर्मित और निर्देशित फिल्म ‘नदिया के पार’ (सन 1948) दिलीप कुमार के लिए वरदान साबित हुई।
(बाकी अगले हफ्ते)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
काबुल हवाई अड्डे पर सैकड़ों लोगों के हताहत होने की खबर ने सारी दुनिया का दिल दहला दिया है। सबसे ज्यादा अमेरिका की इज्जत को धक्का लगा है, क्योंकि यह हमला काबुल हवाई अड्डे पर हुआ है और काबुल हवाई अड्डा पूरी तरह से अमेरिका के अधिकार क्षेत्र में है। इस हमले में कई अमेरिकी, तालिबानी और अफगान मारे गए हैं। अमेरिकी खुफिया विभाग की यह असाधारण असफलता है कि उसे पता ही नहीं लग पाया कि हवाई अड्डे पर इतने बड़े दो हमले हो जाएंगे। हमले को रोकने की जिम्मेदारी उन अमेरिकी सैनिकों की थी, जो काबुल हवाई अड्डे पर डटे हुए थे। अब अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन को भयंकर गुस्सा आ गया है। वे कह रहे हैं कि वे हत्यारों को छोड़ेंगे नहीं। उन्हें ढूंढेंगे और मारेंगे। कैसे मारेंगे ? यदि उन आतंकवादियों को मारना है तो आप 31 अगस्त को अपने हर जवान को काबुल से हटाकर उन्हें कैसे मारेंगे ?
क्या बाइडन को अब समझ में आया कि अमेरिका की फौजी वापसी का निर्णय जल्दबाजी भरा और अपरिपक्व था। वे अपने आप को डोनाल्ड ट्रंप से अधिक चतुर सिद्ध करने के चक्कर में इस दुख और शर्मिंदगी का सामना कर रहे हैं। अमेरिका ने पिछले दो साल में काबुल सरकार और तालिबान के साथ सांठ-गांठ करके अपना पिंड छुड़ाने की जो रणनीति बनाई थी, वह बहुत चालाकीभरी थी लेकिन अमेरिका के नीति-निर्माताओं ने इस तथ्य पर ध्यान नहीं दिया कि एक तो तालिबान कई गुटों में बंटे हुए हैं। दूसरा, तालिबान के अलावा अफगानिस्तान में जो सबसे खतरनाक गिरोह सक्रिय हैं, वह हैं- 'विलायते खुरासान और इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड लेवांतÓ। इनका सीधा संबंध 'अल कायदाÓ से भी है और पाकिस्तान की शक्तिशाली गुप्तचर एजेंसी आईएसआई से भी है। काबुल हवाई अड्डे पर खून-खराबे के लिए यह खुरासानी गिरोह ही जिम्मेदार है। तालिबान ने खुद उसकी भर्त्सना की है। तालिबान, खुरासानी गिरोह और पाकिस्तानी फौज की पहले अच्छी-खासी सांठ-गांठ रही है लेकिन अब इस गिरोह ने तालिबान और पाकिस्तान की घोषणाओं पर भी पानी फिरवा दिया है। दोनों की छवि सारे संसार में खराब हो गई है।
तालिबान की इस घोषणा पर अफगान लोग कितना विश्वास करेंगे कि उनके राज में हर अफगान सुरक्षित रहेगा। किसी को भी देश से भागने की जरुरत नहीं है। अब तालिबान ने यह भी कह दिया है कि जो अफगान नागरिक बाहर जाना चाहें, उन्हें बाहर जाने की छूट दी जाएगी। पिछले 10-12 दिन में उनका जोर इस बात पर था कि अफगान लोग देश छोड़कर भागें नहीं, क्योंकि सारे योग्य लोग भाग गए तो देश कैसे चलेगा ? लेकिन काबुल हवाई अड्डे की दुर्घटना ने तालिबान को भी नरम कर दिया है। वे अमरुल्लाह सालेह और अहमद मसूद से भी बात कर रहे हैं। वे एक मिली-जुली सरकार बनाने की कोशिश कर रहे हैं। आशा है कि करजई और अब्दुल्ला नजरबंद नहीं किए गए हैं। काबुल हवाई अड्डे के इस हमले की भर्त्सना पाकिस्तान तथा लगभग सभी इस्लामी राष्ट्रों ने की है लेकिन अब वे इस खुरासानी गिरोह (आईएसकेपी) पर काबू करने की कोशिश क्यों नहीं कर रहे?
(लेखक, अफगान मामलों के विशेषज्ञ हैं। वे अफगान नेताओं के साथ सतत संपर्क में हैं।)
(नया इंडिया की अनुमति से)