विचार/लेख
अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी नेतृत्व वाली सेना ने तालिबान को साल 2001 में सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया था.
लेकिन धीरे-धीरे ये समूह खुद को मज़बूत करता गया और अब एक बार फिर से इसका दबदबा देखने को मिल रहा है.
क़रीब दो दशक बाद, अमेरिका 11 सितंबर, 2021 तक अफ़ग़ानिस्तान से अपने सभी सैनिकों को हटाने की तैयारी कर रहा है. वहीं तालिबानी लड़ाकों का नियंत्रण क्षेत्र बढ़ता जा रहा है. आशंका यह भी उभरने लगी है कि वे सरकार को अस्थिर कर सकते हैं.
दोहा समझौता
तालिबान ने अमेरिका के साथ साल 2018 में बातचीत शुरू कर दी थी.
फरवरी, 2020 में दोहा में दोनों पक्षों के बीच समझौता हुआ जहां अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान से अपने सैनिकों को हटाने की प्रतिबद्धता जताई और तालिबान अमेरिकी सैनिकों पर हमले बंद करने को तैयार हुआ.
समझौते में तालिबान ने अपने नियंत्रण वाले इलाक़े में अल क़ायदा और दूसरे चरमपंथी संगठनों के प्रवेश पर पाबंदी लगाने की बात भी कही और राष्ट्रीय स्तर की शांति बातचीत में शामिल होने का भरोसा दिया था.
लेकिन समझौते के अगले साल से ही तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान के आम नागिरकों और सुरक्षा बल को निशाना बनाना जारी रखा.
अब जब अमेरिकी सैनिक अफ़ग़ानिस्तान से विदा होने की तैयारी कर रहे हैं तब तालिबानी समूह तेजी से देश में पांव पसार रहा है.
2001 issue of Time magazine
कब हुई थी तालिबान की शुरुआत
पश्तो जुबान में छात्रों को तालिबान कहा जाता है. नब्बे के दशक की शुरुआत में जब सोवियत संघ अफ़ग़ानिस्तान से अपने सैनिकों को वापस बुला रहा था, उसी दौर में तालिबान का उभार हुआ.
माना जाता है कि पश्तो आंदोलन पहले धार्मिक मदरसों में उभरा और इसके लिए सऊदी अरब ने फंडिंग की. इस आंदोलन में सुन्नी इस्लाम की कट्टर मान्यताओं का प्रचार किया जाता था.
जल्दी ही तालिबानी अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के बीच फैले पश्तून इलाक़े में शांति और सुरक्षा की स्थापना के साथ-साथ शरिया क़ानून के कट्टरपंथी संस्करण को लागू करने का वादा करने लगे थे.
इसी दौरान दक्षिण पश्चिम अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का प्रभाव तेजी से बढ़ा. सितंबर, 1995 में उहोंने ईरान की सीमा से लगे हेरात प्रांत पर कब्ज़ा किया. इसके ठीक एक साल बाद तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी क़ाबुल पर कब्ज़ा जमाया.
taliban photo from twitter
अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का नियंत्रण
उन्होंने उस वक्त अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति रहे बुरहानुद्दीन रब्बानी को सत्ता से हटाया था. रब्बानी सोवियत सैनिकों के अतिक्रमण का विरोध करने वाले अफ़ग़ान मुजाहिदीन के संस्थापक सदस्यों में थे.
साल 1998 आते-आते, क़रीब 90 प्रतिशत अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का नियंत्रण हो गया था.
सोवियत सैनिकों के जाने के बाद अफ़ग़ानिस्तान के आम लोग मुजाहिदीन की ज्यादतियों और आपसी संघर्ष से ऊब गए थे इसलिए पहले पहल तालिबान का स्वागत किया गया.
भ्रष्टाचार पर अंकुश, अराजकता की स्थिति में सुधार, सड़कों का निर्माण और नियंत्रण वाले इलाक़े में कारोबारी ढांचा और सुविधाएं मुहैया कराना- इन कामों के चलते शुरुआत में तालिबानी लोकप्रिय भी हुए.
लेकिन इसी दौरान तालिबान ने सज़ा देने के इस्लामिक तौर तरीकों को लागू किया जिसमें हत्या और व्याभिचार के दोषियों को सार्वजनिक तौर पर फांसी देना और चोरी के मामले में दोषियों के अंग भंग करने जैसी सजाएं शामिल थीं.
पुरुषों के लिए दाढ़ी और महिलाओं के लिए पूरे शरीर को ढकने वाली बुर्क़े का इस्तेमाल ज़रूरी कर दिया गया. तालिबान ने टेलीविजन, संगीत और सिनेमा पर पाबंदी लगा दी और 10 साल और उससे अधिक उम्र की लड़कियों के स्कूल जाने पर रोक लगा दी.
तालिबान सरकार को मान्यता देने वाले देश
तालिबान पर मानवाधिकार के उल्लंघन और सांस्कृतिक दुर्व्यवहार से जुड़े कई आरोप लगने शुरू हो गए थे.
इसका एक बदनामी भरा उदाहरण साल 2001 में तब देखने को मिला जब तालिबान ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विरोध के बाद भी मध्य अफ़ग़ानिस्तान के बामियान में बुद्ध की प्रतिमा को नष्ट कर दिया.
तालिबान को बनाने और मज़बूत करने के आरोपों से पाकिस्तान लगातार इनकार करता रहा है लेकिन इस बात में कोई संदेह नहीं है कि शुरुआत में तालिबानी आंदोलन से जुड़ने वाले लोग पाकिस्तान के मदरसों से निकले थे.
अफ़ग़ानिस्तान पर जब तालिबान का नियंत्रण था तब पाकिस्तान दुनिया के उन तीन देशों में शामिल था जिसने तालिबान सरकार को मान्यता दी थी. पाकिस्तान के अलावा सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने भी तालिबान सरकार को स्वीकार किया था.
taliban tanks on roads
तालिबान के निशाने पर मलाला यूसुफ़ज़ई
तालिबान से अपने राजनयिक संबंधों को तोड़ने वाले देशों में भी पाकिस्तान सबसे आख़िरी देश रहा.
एक समय ऐसा भी आया जब तालिबान ने उत्तर पश्चिम में अपने नियंत्रण वाले इलाक़े से पाकिस्तान को अस्थिर करने की धमकी भी दी.
इसी दौर में तालिबानी चरमपंथियों ने अक्टूबर, 2012 को मिंगोरा नगर में अपने स्कूल से घर लौट रही मलाला यूसुफ़ज़ई को गोली मार दी थी. कहा गया कि तालिबानी शासन के अत्याचार पर छद्म नाम से लिखने के चलते 14 साल की मलाला से तालिबानी नाराज़ थे. इस घटना में मलाला बुरी तरह घायल हो गई थीं. उस वक्त पाकिस्तान में नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी इस घटना की निंदा हुई थी.
इस घटना के दो साल बाद तालिबानी चरमपंथियों ने पेशावर के एक स्कूल पर हमला किया था जिसके बाद पाकिस्तान में तालिबान का प्रभाव काफ़ी कम हो गया.
साल 2013 में अमेरिकी ड्रोन हमले में तालिबान का पाकिस्तान में कमान संभाल रहे हकीमुल्ला मेहसूद सहित तीन अहम नेताओं की मौत हुई.
अल क़ायदा का ठिकाना
11 सितंबर, 2001 को न्यूयार्क वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले के बाद दुनिया भर का ध्यान तालिबान पर गया. हमले के मुख्य संदिग्ध ओसामा बिन लादेन और अल क़ायदा के लड़ाकों को शरण देने का आरोप तालिबान पर लगा.
सात अक्टूबर, 2001 को अमेरिका के नेतृत्व में सैन्य गठबंधन ने अफ़ग़ानिस्तान पर हमला कर दिया और दिसंबर के पहले सप्ताह में तालिबान का शासन ख़त्म हो गया.
दुनिया के सबसे बड़े तलाशी अभियान के बाद भी ओसामा बिन लादेन और तब तालिबान प्रमुख रहे मुल्ला मोहम्मद उमर और उनके दूसरे साथी अफ़ग़ानिस्तान से निकलने में कामयाब रहे.
तालिबान गुट के कई लोगों ने पाकिस्तान के क्वेटा शहर में पनाह ली और वे वहां से लोगों को निर्देशित करने लगे थे. हालांकि पाकिस्तान सरकार क्वेटा में तालिबान की मौजूदगी से हमेशा इनकार करती आई है.
असुरक्षा और हिंसा का माहौल
भारी संख्या में विदेशी सैनिकों की मौजूदगी के बाद भी तालिबान ने धीरे-धीरे खुद को मज़बूत किया और अफ़ग़ानिस्तान में अपने प्रभाव को बढ़ाया. इसका नतीजा है कि देश में असुरक्षा और हिंसा का वैसा माहौल फिर से दिखने लगा है जो 2001 के बाद कभी नहीं देखा गया था.
सितंबर, 2012 में तालिबान लड़ाकों ने काबुल में कई हमले किए और नैटो के कैंप पर भी धावा बोला. साल 2013 में शांति की उम्मीद तब जगी जब तालिबान ने क़तर में दफ़्तर खोलने का एलान किया. हालांकि तब तालिबान और अमेरिकी सेना का एकदूसरे पर भरोसा कमज़ोर था जिसके चलते हिंसा नहीं थमी.
अगस्त, 2015 में तालिबान ने स्वीकार किया कि संगठन ने मुल्ला उमर की मौत को दो साल से ज़्यादा समय तक ज़ाहिर नहीं होने दिया. मुल्ला उमर की मौत कथित स्वास्थ्य समस्याओं के चलते पाकिस्तान के एक अस्पताल में हुई थी.
इसी महीने समूह ने मुल्ला मंसूर को अपना नया नेता चुने जाने की घोषणा की.
अमेरिका और तालिबान के बीच समझौता
इसी दौरान तालिबान ने साल 2001 की हार के बाद पहली बार किसी प्रांत की राजधानी पर अपना नियंत्रण हासिल कर लिया था, रणनीतिक तौर पर बेहद अहम शहर कुंडूज़ पर उन्होंने नियंत्रण स्थापित किया.
मुल्ला मंसूर की हत्या अमेरिकी ड्रोन हमले में मई, 2016 में हुई और उसके बाद संगठन की कमान उनके डिप्टी रहे मौलवी हिब्तुल्लाह अख़ुंज़ादा को सौंपी गई, अभी इन्हें के हाथों में तालिबान का नेतृत्व है.
फरवरी, 2020 में अमेरिका और तालिबान के बीच शांति समझौता हुआ. कई दौर की बातचीत के बाद ये समझौता हुआ था.
इसके बाद तालिबान ने शहरों और सैन्य ठिकानों पर हमले के बाद कुछ ख़ास तरह के लोगों को निशाना बनाने की शुरुआत की और ऐसे हमलों से उसने अफ़ग़ानिस्तान की जनता को आतंकित कर दिया.
अफ़ग़ानिस्तान सरकार को तालिबान से ख़तरा
इन हमलों में तालिबान ने पत्रकारों, न्यायाधीशों, शांति कार्यकर्ता, और रसूख के पदों पर बैठी महिलाओं को निशाना बनाया गया, ज़ाहिर है तालिबान ने केवल अपनी रणनीति बदली थी, कट्टरपंथी विचारधारा नहीं.
अफ़ग़ानिस्तान के अधिकारियों ने गंभीर तौर चिंता जताई थी कि अंतरराष्ट्रीय मदद के बिना अफ़ग़ानिस्तान सरकार के सामने अस्तित्व बचाने का संकट होगा लेकिन अमेरिका के नए राष्ट्रपति जो बाइडन ने अप्रैल, 2021 में एलान कर दिया कि 11 सितंबर तक सभी अमेरिकी सैनिक वापस लौटेंगे.
दो दशक तक चले एक युद्ध में अमेरिकी महाशक्ति को छकाने के बाद तालिबान ने बड़े क्षेत्र पर कब्ज़ा करना शुरू कर दिया. इससे अमेरिकी सेना के बाहर निकलने के बाद क़ाबुल में सरकार के अस्थिर होने का ख़तरा है.
माना जा रहा है कि साल 2001 के बाद पहली बार तालिबान इतना मज़बूत दिख रहा है. नेटो के आकलन के मुताबिक अभी समूह के पूर्णकालिक लड़ाकों की संख्या 85 हज़ार के आस-पास है.
अभी तालिबान का कितने इलाक़े पर कब्ज़ा है, ये स्पष्ट नहीं कहा जा सकता, लेकिन अनुमान यह है कि देश के पांचवें हिस्से से लेकर एक तिहाई हिस्से के बीच के क्षेत्र पर तालिबान का नियंत्रण है.
तालिबान जितनी तेजी से बढ़ रहे हैं, वह कई लोगों को चिंतित करने वाला है. अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी नेतृत्व वाले मिशन के कमांडर जनरल ऑस्टिन मिलर ने जून में ही चेतावनी दी थी कि देश गृह युद्ध की तरफ़ बढ़ सकता है.
जून महीने में ही अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसियों ने भी अफ़ग़ानिस्तान के हालात का आकलन किया था. ये कहा जा रहा है कि इसमें अमेरिकी सैनिकों की रवानगी के छह महीनों के भीतर अफ़ग़ानिस्तान की सरकार गिरने का कथित तौर पर अनुमान व्यक्त किया गया है. (bbc.com/hindi)
अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी नेतृत्व वाली सेना ने तालिबान को साल 2001 में सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया था.
लेकिन धीरे-धीरे ये समूह खुद को मज़बूत करता गया और अब एक बार फिर से इसका दबदबा देखने को मिल रहा है.
क़रीब दो दशक बाद, अमेरिका 11 सितंबर, 2021 तक अफ़ग़ानिस्तान से अपने सभी सैनिकों को हटाने की तैयारी कर रहा है. वहीं तालिबानी लड़ाकों का नियंत्रण क्षेत्र बढ़ता जा रहा है. आशंका यह भी उभरने लगी है कि वे सरकार को अस्थिर कर सकते हैं.
दोहा समझौता
तालिबान ने अमेरिका के साथ साल 2018 में बातचीत शुरू कर दी थी.
फरवरी, 2020 में दोहा में दोनों पक्षों के बीच समझौता हुआ जहां अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान से अपने सैनिकों को हटाने की प्रतिबद्धता जताई और तालिबान अमेरिकी सैनिकों पर हमले बंद करने को तैयार हुआ.
समझौते में तालिबान ने अपने नियंत्रण वाले इलाक़े में अल क़ायदा और दूसरे चरमपंथी संगठनों के प्रवेश पर पाबंदी लगाने की बात भी कही और राष्ट्रीय स्तर की शांति बातचीत में शामिल होने का भरोसा दिया था.
लेकिन समझौते के अगले साल से ही तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान के आम नागिरकों और सुरक्षा बल को निशाना बनाना जारी रखा.
अब जब अमेरिकी सैनिक अफ़ग़ानिस्तान से विदा होने की तैयारी कर रहे हैं तब तालिबानी समूह तेजी से देश में पांव पसार रहा है.
कब हुई थी तालिबान की शुरुआत
पश्तो जुबान में छात्रों को तालिबान कहा जाता है. नब्बे के दशक की शुरुआत में जब सोवियत संघ अफ़ग़ानिस्तान से अपने सैनिकों को वापस बुला रहा था, उसी दौर में तालिबान का उभार हुआ.
माना जाता है कि पश्तो आंदोलन पहले धार्मिक मदरसों में उभरा और इसके लिए सऊदी अरब ने फंडिंग की. इस आंदोलन में सुन्नी इस्लाम की कट्टर मान्यताओं का प्रचार किया जाता था.
जल्दी ही तालिबानी अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के बीच फैले पश्तून इलाक़े में शांति और सुरक्षा की स्थापना के साथ-साथ शरिया क़ानून के कट्टरपंथी संस्करण को लागू करने का वादा करने लगे थे.
इसी दौरान दक्षिण पश्चिम अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का प्रभाव तेजी से बढ़ा. सितंबर, 1995 में उहोंने ईरान की सीमा से लगे हेरात प्रांत पर कब्ज़ा किया. इसके ठीक एक साल बाद तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी क़ाबुल पर कब्ज़ा जमाया.
अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का नियंत्रण
उन्होंने उस वक्त अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति रहे बुरहानुद्दीन रब्बानी को सत्ता से हटाया था. रब्बानी सोवियत सैनिकों के अतिक्रमण का विरोध करने वाले अफ़ग़ान मुजाहिदीन के संस्थापक सदस्यों में थे.
साल 1998 आते-आते, क़रीब 90 प्रतिशत अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का नियंत्रण हो गया था.
सोवियत सैनिकों के जाने के बाद अफ़ग़ानिस्तान के आम लोग मुजाहिदीन की ज्यादतियों और आपसी संघर्ष से ऊब गए थे इसलिए पहले पहल तालिबान का स्वागत किया गया.
भ्रष्टाचार पर अंकुश, अराजकता की स्थिति में सुधार, सड़कों का निर्माण और नियंत्रण वाले इलाक़े में कारोबारी ढांचा और सुविधाएं मुहैया कराना- इन कामों के चलते शुरुआत में तालिबानी लोकप्रिय भी हुए.
लेकिन इसी दौरान तालिबान ने सज़ा देने के इस्लामिक तौर तरीकों को लागू किया जिसमें हत्या और व्याभिचार के दोषियों को सार्वजनिक तौर पर फांसी देना और चोरी के मामले में दोषियों के अंग भंग करने जैसी सजाएं शामिल थीं.
पुरुषों के लिए दाढ़ी और महिलाओं के लिए पूरे शरीर को ढकने वाली बुर्क़े का इस्तेमाल ज़रूरी कर दिया गया. तालिबान ने टेलीविजन, संगीत और सिनेमा पर पाबंदी लगा दी और 10 साल और उससे अधिक उम्र की लड़कियों के स्कूल जाने पर रोक लगा दी.
तालिबान सरकार को मान्यता देने वाले देश
तालिबान पर मानवाधिकार के उल्लंघन और सांस्कृतिक दुर्व्यवहार से जुड़े कई आरोप लगने शुरू हो गए थे.
इसका एक बदनामी भरा उदाहरण साल 2001 में तब देखने को मिला जब तालिबान ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विरोध के बाद भी मध्य अफ़ग़ानिस्तान के बामियान में बुद्ध की प्रतिमा को नष्ट कर दिया.
तालिबान को बनाने और मज़बूत करने के आरोपों से पाकिस्तान लगातार इनकार करता रहा है लेकिन इस बात में कोई संदेह नहीं है कि शुरुआत में तालिबानी आंदोलन से जुड़ने वाले लोग पाकिस्तान के मदरसों से निकले थे.
अफ़ग़ानिस्तान पर जब तालिबान का नियंत्रण था तब पाकिस्तान दुनिया के उन तीन देशों में शामिल था जिसने तालिबान सरकार को मान्यता दी थी. पाकिस्तान के अलावा सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने भी तालिबान सरकार को स्वीकार किया था.
तालिबान के निशाने पर मलाला यूसुफ़ज़ई
तालिबान से अपने राजनयिक संबंधों को तोड़ने वाले देशों में भी पाकिस्तान सबसे आख़िरी देश रहा.
एक समय ऐसा भी आया जब तालिबान ने उत्तर पश्चिम में अपने नियंत्रण वाले इलाक़े से पाकिस्तान को अस्थिर करने की धमकी भी दी.
इसी दौर में तालिबानी चरमपंथियों ने अक्टूबर, 2012 को मिंगोरा नगर में अपने स्कूल से घर लौट रही मलाला यूसुफ़ज़ई को गोली मार दी थी. कहा गया कि तालिबानी शासन के अत्याचार पर छद्म नाम से लिखने के चलते 14 साल की मलाला से तालिबानी नाराज़ थे. इस घटना में मलाला बुरी तरह घायल हो गई थीं. उस वक्त पाकिस्तान में नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी इस घटना की निंदा हुई थी.
इस घटना के दो साल बाद तालिबानी चरमपंथियों ने पेशावर के एक स्कूल पर हमला किया था जिसके बाद पाकिस्तान में तालिबान का प्रभाव काफ़ी कम हो गया.
साल 2013 में अमेरिकी ड्रोन हमले में तालिबान का पाकिस्तान में कमान संभाल रहे हकीमुल्ला मेहसूद सहित तीन अहम नेताओं की मौत हुई.
अल क़ायदा का ठिकाना
11 सितंबर, 2001 को न्यूयार्क वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले के बाद दुनिया भर का ध्यान तालिबान पर गया. हमले के मुख्य संदिग्ध ओसामा बिन लादेन और अल क़ायदा के लड़ाकों को शरण देने का आरोप तालिबान पर लगा.
सात अक्टूबर, 2001 को अमेरिका के नेतृत्व में सैन्य गठबंधन ने अफ़ग़ानिस्तान पर हमला कर दिया और दिसंबर के पहले सप्ताह में तालिबान का शासन ख़त्म हो गया.
दुनिया के सबसे बड़े तलाशी अभियान के बाद भी ओसामा बिन लादेन और तब तालिबान प्रमुख रहे मुल्ला मोहम्मद उमर और उनके दूसरे साथी अफ़ग़ानिस्तान से निकलने में कामयाब रहे.
तालिबान गुट के कई लोगों ने पाकिस्तान के क्वेटा शहर में पनाह ली और वे वहां से लोगों को निर्देशित करने लगे थे. हालांकि पाकिस्तान सरकार क्वेटा में तालिबान की मौजूदगी से हमेशा इनकार करती आई है.
असुरक्षा और हिंसा का माहौल
भारी संख्या में विदेशी सैनिकों की मौजूदगी के बाद भी तालिबान ने धीरे-धीरे खुद को मज़बूत किया और अफ़ग़ानिस्तान में अपने प्रभाव को बढ़ाया. इसका नतीजा है कि देश में असुरक्षा और हिंसा का वैसा माहौल फिर से दिखने लगा है जो 2001 के बाद कभी नहीं देखा गया था.
सितंबर, 2012 में तालिबान लड़ाकों ने काबुल में कई हमले किए और नैटो के कैंप पर भी धावा बोला. साल 2013 में शांति की उम्मीद तब जगी जब तालिबान ने क़तर में दफ़्तर खोलने का एलान किया. हालांकि तब तालिबान और अमेरिकी सेना का एकदूसरे पर भरोसा कमज़ोर था जिसके चलते हिंसा नहीं थमी.
अगस्त, 2015 में तालिबान ने स्वीकार किया कि संगठन ने मुल्ला उमर की मौत को दो साल से ज़्यादा समय तक ज़ाहिर नहीं होने दिया. मुल्ला उमर की मौत कथित स्वास्थ्य समस्याओं के चलते पाकिस्तान के एक अस्पताल में हुई थी.
इसी महीने समूह ने मुल्ला मंसूर को अपना नया नेता चुने जाने की घोषणा की.
अमेरिका और तालिबान के बीच समझौता
इसी दौरान तालिबान ने साल 2001 की हार के बाद पहली बार किसी प्रांत की राजधानी पर अपना नियंत्रण हासिल कर लिया था, रणनीतिक तौर पर बेहद अहम शहर कुंडूज़ पर उन्होंने नियंत्रण स्थापित किया.
मुल्ला मंसूर की हत्या अमेरिकी ड्रोन हमले में मई, 2016 में हुई और उसके बाद संगठन की कमान उनके डिप्टी रहे मौलवी हिब्तुल्लाह अख़ुंज़ादा को सौंपी गई, अभी इन्हें के हाथों में तालिबान का नेतृत्व है.
फरवरी, 2020 में अमेरिका और तालिबान के बीच शांति समझौता हुआ. कई दौर की बातचीत के बाद ये समझौता हुआ था.
इसके बाद तालिबान ने शहरों और सैन्य ठिकानों पर हमले के बाद कुछ ख़ास तरह के लोगों को निशाना बनाने की शुरुआत की और ऐसे हमलों से उसने अफ़ग़ानिस्तान की जनता को आतंकित कर दिया.
अफ़ग़ानिस्तान सरकार को तालिबान से ख़तरा
इन हमलों में तालिबान ने पत्रकारों, न्यायाधीशों, शांति कार्यकर्ता, और रसूख के पदों पर बैठी महिलाओं को निशाना बनाया गया, ज़ाहिर है तालिबान ने केवल अपनी रणनीति बदली थी, कट्टरपंथी विचारधारा नहीं.
अफ़ग़ानिस्तान के अधिकारियों ने गंभीर तौर चिंता जताई थी कि अंतरराष्ट्रीय मदद के बिना अफ़ग़ानिस्तान सरकार के सामने अस्तित्व बचाने का संकट होगा लेकिन अमेरिका के नए राष्ट्रपति जो बाइडन ने अप्रैल, 2021 में एलान कर दिया कि 11 सितंबर तक सभी अमेरिकी सैनिक वापस लौटेंगे.
दो दशक तक चले एक युद्ध में अमेरिकी महाशक्ति को छकाने के बाद तालिबान ने बड़े क्षेत्र पर कब्ज़ा करना शुरू कर दिया. इससे अमेरिकी सेना के बाहर निकलने के बाद क़ाबुल में सरकार के अस्थिर होने का ख़तरा है.
माना जा रहा है कि साल 2001 के बाद पहली बार तालिबान इतना मज़बूत दिख रहा है. नेटो के आकलन के मुताबिक अभी समूह के पूर्णकालिक लड़ाकों की संख्या 85 हज़ार के आस-पास है.
अभी तालिबान का कितने इलाक़े पर कब्ज़ा है, ये स्पष्ट नहीं कहा जा सकता, लेकिन अनुमान यह है कि देश के पांचवें हिस्से से लेकर एक तिहाई हिस्से के बीच के क्षेत्र पर तालिबान का नियंत्रण है.
तालिबान जितनी तेजी से बढ़ रहे हैं, वह कई लोगों को चिंतित करने वाला है. अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी नेतृत्व वाले मिशन के कमांडर जनरल ऑस्टिन मिलर ने जून में ही चेतावनी दी थी कि देश गृह युद्ध की तरफ़ बढ़ सकता है.
जून महीने में ही अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसियों ने भी अफ़ग़ानिस्तान के हालात का आकलन किया था. ये कहा जा रहा है कि इसमें अमेरिकी सैनिकों की रवानगी के छह महीनों के भीतर अफ़ग़ानिस्तान की सरकार गिरने का कथित तौर पर अनुमान व्यक्त किया गया है. (bbc.com)
-ललित मौर्य
एक कचरा बीनने वाले की 40 से 60 फीसदी कमाई प्लास्टिक से होती है, जो प्लास्टिक वो चुनता है उसे रीसायकल कर दिया जाता है। समस्या उस प्लास्टिक से है जो उसके बाद भी पर्यावरण में बची रह जाती है।
देश-दुनिया में प्लास्टिक की समस्या कितनी गंभीर है, वो बात किसी से छुपा नहीं है। यही वजह है कि भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने 2018 में ऐलान किया था कि देश में 2022 तक सिंगल यूज प्लास्टिक का इस्तेमाल पूरी तरह से बंद कर दिया जाएगा। हालांकि देश में प्लास्टिक को पूरी तरह से बैन करना कितना सही है यह अपने आप में एक बड़ा सवाल है। ऐसे में प्लास्टिक प्रदूषण को रोकने के लिए देश की क्या रणनीति होनी चाहिए। इस बारे में हाल ही में एक स्वयं सेवी संस्थान चिंतन द्वारा जारी रिपोर्ट 'प्लान द बैन' में उसको लेकर कई सुझाव दिए गए हैं।
देखा जाए तो हमारे घरों, दफ्तरों और दुकानों से निकलने वाला यह प्लास्टिक कचरा कई लोगों की जीविका का साधन है जिससे उनके परिवार का पालन होता है। आंकड़ों के अनुसार भारत दुनिया के 10 फीसदी कचरा बीनने वाले लोगों का घर है। ऐसा नहीं है कि भारत सिर्फ प्लास्टिक कचरे की समस्या से जूझ रहा है साथ ही यह गरीबी के खिलाफ भी जंग लड़ रहा है। रिपोर्ट के मुताबिक एक कचरा बीनने वाला महीने में औसतन 6500 से 12,000 रुपए कमाता है, जिसमें से उसकी करीब 40 से 60 फीसदी कमाई प्लास्टिक से होती है।
यदि हम इस प्लास्टिक को एकदम से बंद कर देते हैं तो साथ ही उसकी यह कमाई भी बंद हो जाएगी। यही नहीं देखा जाए तो जिस तरह का प्लास्टिक वो चुनता है उसे रीसायकल किया जाता है, ऐसे में वो प्लास्टिक दूसरे सिंगल यूज प्लास्टिक की तुलना में उतनी बड़ी समस्या नहीं है।
ऐसे में पर्यावरण के लिए सबसे बड़ी समस्या उस तरह के प्लास्टिक से है जिसे यह कचरा बीनने वाले लोग नहीं चुनते, जिस वजह से उन्हें रीसायकल भी नहीं किया जाता और वो पर्यावरण को सबसे ज्यादा दूषित करते हैं। यही वजह है कि रिपोर्ट में सबसे पहले पहले चरण में उस तरह के प्लास्टिक को बंद करने की बात कही गई है जिसे रीसायकल नहीं किया जा सकते जैसे चिप्स, गुटका, तम्बाकू के पैकेट, तेल, शैम्पू, साबुन, वाशिंग पाउडर, टूथपेस्ट आदि के खाली पैकेट आदि हैं। इस रिपोर्ट में इस तरह के प्लास्टिक की पहचान की गई है। चिंतन द्वारा जारी यह पूरी रिपोर्ट देश के चार शहरों दिल्ली, पुणे, इंदौर और नैनीताल में प्लास्टिक कचरे को लेकर किए अध्य्यन पर आधारित है।
पीईटी से होती है कचरा बीनने वालों की 29.2 फीसदी कमाई
रिपोर्ट के अनुसार यदि कचरा चुनने वालों के हिसाब से देखें तो पॉलीइथिलीन टेरेफ्थेलेट (पीईटी) उनके लिए सबसे ख़ास है जिससे उन्हें कमाई का करीब 29.2 फीसदी हिस्सा प्राप्त होता है। एक औसत कचरा बीनने वाला औसतन हर दिन करीब 20 से 25 किलो प्लास्टिक कचरा एकत्र करता है जिसका करीब 50 से 60 फीसदी हिस्सा यही पीईटी प्लास्टिक होता है। इसके बाद कम घनत्व पॉलीथीन (एलपीडीई) की बारी आती है जो कि उसकी कमाई का करीब 20.4 फीसदी हिस्सा होता है। यह मुख्य रूप से परिधान और कपड़ा पैकेजिंग सामग्री जैसी प्लास्टिक होती है।
इसके बाद तीसरे स्थान पर मिश्रित और कठोर प्लास्टिक और पारदर्शी पॉलीप्रोपाइलीन (पीपी) आती है जो इनकी कमाई का 10.4 फीसदी हिस्सा होती हैं। इसका मुख्य उदाहरण सिंथेटिक बुने हुए बैग, घरेलू रसोई में स्टोर करने के लिए उपयोग किए जाने वाले प्लास्टिक कंटेनर और ऑनलाइन भोजन से जुड़ी पैकेजिंग प्लास्टिक शामिल है। इसके बाद आखिर में बाटा प्लास्टिक (बीटीपी) की बारी आती है, जो उनकी आय का 8.4 फीसदी हिस्सा पैदा करती है।
रिपोर्ट के अनुसार ऐसे में सबसे बड़ी समस्या उस प्लास्टिक से है जिन्हें बिना और रीसायकल नहीं जाता और वही प्लास्टिक पर्यावरण को सबसे ज्यादा दूषित करती हैं। इस रिपोर्ट में इसके बारे में व्यापक जानकारी दी गई है।
क्या है समाधान
चिंतन ने कचरा चुनने वाले लोगों पर जो सर्वेक्षण किया है उसमें से ज्यादातर ने माना है कि प्लास्टिक कितना जहरीला है और स्वास्थ्य को कितना नुकसान पहुंचा सकता है वो उसके खतरे से अवगत हैं, जबकि कई का कहना है कि वो उनकी जीविका के लिए बहुत मायने रखता है। उन्होंने कहा है कि ऐसे काम जो उनके स्वास्थ्य को कम नुकसान पहुंचाते हैं और समान आय अर्जित कर सकते हैं वो उनके लिए भी फायदेमंद है।
प्लास्टिक बैन का मुद्दा सिर्फ पर्यावरण प्रदूषण और उसके उपभोक्ताओं का ही मुद्दा नहीं है यह बात उन 15 लाख लोगों की भी है, जिनकी जीविका इसी कचरे पर निर्भर करती है। कौन अपने और अपने परिवार के लिए बेहतर जिंदगी नहीं चाहता। यह काम उनके लिए भी मजबूर है, जिसमें उनका पूरा परिवार लगा रहता है। ऐसे में इस रिपोर्ट का मानना है कि सबसे पहले उस प्लास्टिक को बैन किया जाना चाहिए, जो कचरा बिनंने के बाद भी पर्यावरण में रह जाती है और उसे दूषित करती है। उसके बाद इन लोगों की जीविका का इंतजाम करते हुए बाकी की प्लास्टिक को भी देश में प्रतिबंधित करना चाहिए।
देश को प्लास्टिक और गरीबी दोनों समस्याओं को साथ-साथ देखना होगा। यहां हम अमेरिका या यूरोप की बात नहीं कर रहे जहां इस तरह का फैसला लेना आसान है। हमें इसे बंद करने के साथ-साथ उन लोगों के रोजगार के नए अवसरों को भी तलाशना होगा। इस रिपोर्ट में कुछ सिंगल यूज़ प्लास्टिक पर तुरंत बैन करने, कुछ को ईपीआर के दायरे में लाने की बात कही गई है। बेहतर कचरा प्रबंधन के साथ-साथ सर्कुलर इकोनॉमी दोनों में इन लाखों कचरा बीनने वाले लोगों के लिए भी जीविका के अवसर तलाशने की बात कही है। यह वो नुस्खा है जिसकी आज पूरी दुनिया को जरुरत है। (downtoearth.org.in)
-आलोक बाजपेयी
दादाभाई नौरोजी। नाम तो सुना होगा। न सुना हो जान लीजिये आधुनिक भारत के इन महात्मा के बारे में।
गांधी जब लंदन पढऩे गए तो खास इनके लिए एक चि_ी लिखवा के ले गए थे। जब मिलने गए तो नौरोजी की कुर्सी के पास जमीन पर बैठ गए। बोल कुछ नही सके और बस ये कहा कि आपके दर्शन को आया हूँ बस। दक्षिण अफ्रीका में गांधी के कमरे में जो एक तीन तस्वीरें थीं उनमे एक दादाभाई नौरोजी की थी। गांधी इन्हें अपने आंदोलन के बारे में बताया करते थे और मार्ग दर्शन लेते थे। हिन्द स्वराज में गांधी ने उन्हें The rise and growth of economic nationalism in india एक path breaking कहा है।
नौरोजी दुनिया के उन पहले बुद्धिजीवियों में थे जिन्होंने उपनिवेशवाद / साम्राज्यवाद की गंभीर विवेचना अपनी किताबों में की। लेनिन और दूसरे विद्वानों से पहले ।
नौरोजी का जीवन अद्भुत था। भारत मे 1840 के दशक में लड़कियों की शिक्षा की शुरुआत स्कूल खोलकर करने वालों में पहले थे। उन्होंने उपनिवेशवाद और भारत मे अंग्रेजी राज की पोल अपनी विश्व प्रसिद्ध ष्ठह्म्ड्डद्बठ्ठ शद्घ 2द्गड्डद्यह्लद्ध थ्योरी से खोल दी । अंग्रेजी राज कभी नौरोजी की थ्योरी से पार नही पा सका।उनकी आर्थिक विवेचना भारतीय राष्ट्रवाद और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की बुनियाद बना।
नौरोजी और उन पर आधारित आर्थिक राष्ट्रवाद के अध्ययन के लिए प्रोफेसर बिपिन चन्द्र की पीएचडी थीसिस किताब ञ्जद्धद्ग ह्म्द्बह्यद्ग ड्डठ्ठस्र द्दह्म्श2ह्लद्ध शद्घ द्गष्शठ्ठशद्वद्बष् ठ्ठड्डह्लद्बशठ्ठड्डद्यद्बह्यद्व द्बठ्ठ द्बठ्ठस्रद्बड्ड एक श्चड्डह्लद्ध ड्ढह्म्द्गड्डद्मद्बठ्ठद्द किताब है। इतिहास के शोधार्थियों को यह किताब जरूर देखनी चाहिए जिससे उन्हें अंदाजा हो सके कि वास्तविक रिसर्च क्या होती है।
बिपिन चन्द्र की नौरोजी को लेकर एक जिज्ञासा थी । वह खुद बहुत कोशिश के बावजूद उसका समाधान न कर सके। दरअसल नौरोजी जिस समय अंतराल में इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी, लंदन में बैठकर उपनिवेशवाद और भारत में अंग्रेजी राज के आर्थिक प्रभावों पर शोध कर रहे थे ,उसी समय कार्ल माक्र्स भी वहीं थे। क्या दोनों लोग कभी मिले और बातचीत मुलाकात हुई?
लगभग 20 साल की अवधि रही तो ऐसा हो नहीं सकता कि न मिले हों। लेकिन कोई प्रमाण नहीं मिलता।
खैर आप नौरोजी पर जरूर पढिय़े। आप समझ सकेंगे कि हमारे पुरखे कैसे थे और भारत राष्ट्र का निर्माण कैसे हुआ।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को बने आज सौ साल पूरे हुए। अपने लगभग 9 करोड़ सदस्यों के साथ वह वास्तव में दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी है और सबसे शक्तिशाली पार्टी है। हमारी भाजपा अपने 12 करोड़ सदस्यों के साथ दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करती है लेकिन उसके नेताओं को पता है कि जिस दिन उनके नीचे से कुर्सी खिसकी, ये 12 के 2 करोड़ों को भी बचाना मुश्किल हो जाएगा। इस साल चीनी पार्टी की सदस्यता के लिए 2 करोड़ अर्जियां आईं लेकिन उनमें से सिर्फ 20 लाख को ही सदस्यता मिली।
इसके अलावा इस पार्टी की खूबी यह है कि पिछले 72 साल से यह लगातार सत्ता में है। यह एक दिन भी सत्ता से बाहर नहीं रही। चीन में इसने किसी अन्य पार्टी को कभी पनपने नहीं दिया। इस पार्टी में 1921 से लेकर अब तक आतंरिक सत्ता-संघर्ष कभी-कभी हुआ, वरना इसका नेता पार्टी, सरकार और फौज— इन तीनों को हमेशा अपने कब्जे में रखता रहा।
1917 में रुस में हुई कम्युनिस्ट क्रांति से प्रेरित होकर चार साल बाद 1921 में दो चीनी बुद्धिजीवियो— चेन दूश्यू और ली दझाओ ने शांघाई में इस पार्टी की नींव रखी। माओ त्से तुंग इसके संस्थापक सदस्यों में थे। माओ के नेतृत्व में इस पार्टी ने चीन को कोइमितांग सरकार और बाद में जापानी हमलावरों से लगभग 30 वर्षीय युद्ध लड़ा और 1949 में कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनाई। 1949 से 1976 तक माओ का एकछत्र राज्य रहा। 1978 से तंग श्याओ फिंग ने फरवरी 1997 तक चीन पर अपना नियंत्रण बनाए रखा। उनके बाद च्यांग चेमिन और हू चिनताओ ने पार्टी को सम्हाला और अब 2012 से अभी तक या जब तक वे जीवित रहेंगे, तब तक शी चिन फिंग चीन की संपूर्ण सत्ता सम्हाल रहे हैं। माओ के ज़माने में मार्क्सवाद को कई नए रुप दिए गए। कम्यून पद्धति, ऊंची उड़ान, सांस्कृतिक क्रांति जैसे कार्यक्रमों में लाखों लोगों की जानें गई, गरीबी बनी रही और आम लोग पार्टी तानाशाही में पिसते रहे लेकिन तंग श्याओ फिंग ने चीनी अर्थ-व्यवस्था में वैसे ही बुनियादी परिवर्तन किए, जैसे नरसिंहराव ने नेहरुवादी अर्थव्यवस्था में किए थे।
नतीजा यह हुआ कि पिछले 40 साल में चीन की प्रति व्यक्ति आय 80 गुना बढ़ गई जबकि भारत में सिर्फ 7 गुना बढ़ी है। तंग ने मार्क्सवादी विचारधारा के शिकंजे को जरा ढीला किया और एक सूत्रवाक्य कहा कि 'बिल्ली काली है कि गोरी है, इससे हमें मतलब नहीं। हमें देखना यह है कि वह चूहा मार सकती है या नहीं?Ó इसी सूत्र ने चीन के 80 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर उठाया है। चीनी अर्थव्यवस्था ने लगभग तीन लाख करोड़ डालर की विदेश पूंजी को आकर्षित किया है। आज वह दुनिया का सबसे अधिक ताकतवर और मालदार देश बनने की कोशिश कर रहा है। मुझे वह अमेरिका की उपभोक्तावादी जीवन-पद्धति का अंधानुयायी- जैसा लगता है। चीन के दर्जनों शहरों और सैकड़ों गांवों में अपनी कई यात्राओं के दौरान मैंने पाया है कि वह अब पूंजीवाद का पथिक बन गया है लेकिन उसकी राजनीति अभी भी स्तालिनवादी पटरी पर ही चल रही है। उसकी आक्रामक विदेश नीति और जबर्दस्त विदेशी विनियोग से एक नए और सूक्ष्म साम्राज्यवाद की घंटियां बज रही है। पिछले सौ साल में चीन तो बदल गया लेकिन उसकी शासन-पद्धति ज्यों की त्यों बनी है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-जुबैर अहमद
अमरजीत सिंह चीमा के मुताबिक पहले नस्ली भेदभाव स्थानीय लोगों की नादानी या कम जानकारी होने के कारण था लेकिन अब ऐसा नहीं है। ‘मेरे परिवार वाले मैनचेस्टर की मिलों में काम करने आए थे। उन्हें अंग्रेजी बोलनी भी नहीं आती थी। हमारे रहने-सहने का अंदाज भी अलग था। भेदभाव करने वाले भी हैं जो चाहते हैं कि हम अपने देश लौट जाएँ लेकिन ये मु_ी भर हैं।’
पिछले हफ्ते पाकिस्तानी मूल के साजिद जावीद मंत्रिमंडल में स्वास्थ्य मंत्री बनकर वापस लौटे। उनके मंत्रालय के अंतर्गत नेशनल हेल्थ सर्विस (एनएचएस) जैसी दुनिया की सबसे बड़ी सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में से एक शामिल है।
प्रधानमंत्री पद के बाद ब्रिटेन का दूसरा सबसे अहम मंत्रालय वित्त है। भारतीय मूल के युवा ऋषि सुनक देश के वित्त मंत्री हैं और महत्वपूर्ण गृह मंत्रालय की बागडोर भारतीय मूल की प्रीति पटेल के हाथों में है। इसके अलावा दिसंबर 2019 में हुए संसदीय चुनाव में 15 भारतीय मूल के और इतने ही पाकिस्तानी मूल के उम्मीदवारों की जीत हुई। चार बांग्लादेशी महिला उम्मीदवार भी विजयी रहीं।
2019 में ब्रितानी संसद के हाउस ऑफ कॉमन्स की 650 सीटों के लिए चुनाव हुए थे जिनमें हर 10 सीटों में से एक पर उन जातीय अल्पसंख्यक उम्मीदवारों की जीत हुई।
देश में आम तौर पर इन्हें बीएएमई ग्रुप यानी काले, एशियाई और जातीय अल्पसंख्यक के रूप में जाना जाता है। ब्रिटेन में नस्ली तौर पर अल्पसंख्यकों की आबादी 14 प्रतिशत के करीब बताई जाती है। इतने सारे काले, एशियाई और अल्पसंख्यक सांसद ब्रिटेन की संसद में पहले कभी नहीं चुने गए।
नस्ली भेदभाव कम हो रहा है?
‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ अभियान और सरकारी-गैर-सरकारी दफ्तरों, संस्थाओं और खेलों की दुनिया में विविधता लाने की कोशिश के तहत ब्रिटेन की संसद और मंत्रिमंडल में भी जातीय अल्पसंख्यकों की भागीदारी बढ़ी है। विपक्षी लेबर पार्टी के भारतीय मूल के सांसद नवेन्दु मिश्रा कहते हैं कि यह सही दिशा में एक कदम है।
तो क्या इसका मतलब ये निकाला जाए कि ब्रिटेन में नस्ली भेदभाव खत्म हो रहा है या कम हो गया है? विशेषज्ञ कहते हैं ऐसा सोचना नासमझी होगी। ट्विटर और सोशल मीडिया के अन्य प्लेटफार्म पर काली नस्ल के खिलाडिय़ों को नस्लवादी अक्सर ट्रोल करते रहते हैं। कभी सामने से उन्हें उनके मुंह पर बंदर तक कह डालते हैं।
इन दिनों ब्रिटेन में कोरोना वायरस के डेल्टा वैरिएंट के बढऩे के कारण भारतीय मूल के लोगों के खिलाफ नस्ली भेदभाव के मामले बढे हैं।
नवेन्दु मिश्रा कहते हैं, ‘द इंडियन वेरिएंट’जैसे शब्द भेदभाव का एक उदाहरण है, जहां इसका व्यापक उपयोग वायरस के घातक प्रसार को भारतीय लोगों से जोड़ता है, यह निश्चित रूप से हानिकारक है।’
उन्होंने बीबीसी हिंदी से कहा, ‘कुछ मंत्रियों ने ऐसी नीतियां बनाई हैं जो इस देश में अल्पसंख्यकों के लिए हानिकारक हैं- निर्वासन और कोविड-19 नीतियां, जिन्होंने जातीय असमानताएं पैदा की हैं, इसके कई उदाहरण हैं। हालांकि आम तौर पर, ब्रिटिश समाज दशकों पहले की तुलना में अधिक सहिष्णु है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि नस्लवाद मौजूद नहीं है। सोशल मीडिया ने इसे और अधिक प्रचलित बना दिया है, कई लोग असंवेदनशीलता दिखाते हैं। यही कारण है कि हमें एक अपडेटेड हेट क्राईम रणनीति की आवश्यकता है, जो ठीक से यह बताए कि सरकार इससे कैसे निपटना चाहती है।’ और शायद इसीलिए 22 जून को सांसद नवेन्दु मिश्रा ने ब्रिटेन की संसद में एक प्रस्ताव रखा जिसमें देश में ‘भारत विरोधी नस्लवाद में वृद्धि’ की निंदा की गई।
उन्होंने इस प्रस्ताव को हाउस ऑफ कॉमन्स में ‘अर्ली डे मोशन’ (ईडीएम) की तरह पेश किया। ब्रिटिश संसद में, ईडीएम का उपयोग सांसदों के विचारों को दर्ज करने या विशिष्ट घटनाओं या अभियानों पर ध्यान आकर्षित करने के लिए किया जाता है।
संसद में प्रस्ताव
उनका ये प्रस्ताव भारतीय मूल के ब्रितानियों के विचारों का प्रतिनिधित्व करने के लिए पिछले साल स्थापित थिंक टैंक ‘द 1928 इंस्टीट्यूट’ की एक हाल की रिपोर्ट पर आधारित है।
इसने मई में एक रिपोर्ट जारी की थी जिसमें दावा किया गया था कि 80 प्रतिशत भारतीय मूल के लोगों को अपनी भारतीय पहचान के कारण पूर्वाग्रह का सामना करना पड़ा है और हिंदू विरोधी भावनाएं सबसे ज्यादा प्रचलित हैं।
इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट में कहा गया, ‘यह जरूरी है कि भारत विरोधी नस्लवाद, विशेष रूप से हिंदूफोबिया से निबटने पर ध्यान दिया जाए।’
‘1928 इंस्टीट्यूट’ के सह-संस्थापक अरुण वैद ने बीबीसी से बातचीत में कहा कि हिंदूफोबिया ब्रिटिश समाज की एक सच्चाई है। लेकिन वो कहते हैं, ‘हिंदूफोबिया की हमारी धारणा पारंपरिक सांस्कृतिक-भौगोलिक अर्थ में ‘हिंदू’ शब्द का उपयोग करती है। इस प्रकार, हिंदूफोबिया, जो स्वदेशी भारतीय ज्ञान और संस्कृति के औपनिवेशिक चित्रण से उभरता है, गलतबयानी, बहिष्कार, उपहास और हिंसा के रूप में प्रकट हो सकता है।’
वो भारतीय मूल के लोगों के ऊँचे सरकारी पदों पर पहुँचने का स्वागत करते हैं और उनके अनुसार ये प्रेरणादायक भी है।
हालांकि वो कहते हैं, ‘भारत विरोधी नस्लवाद अभी भी मौजूद है और कुछ खास क्षेत्रों में केंद्रित है।’ दक्षिण एशिया के लोग मंत्री बनने का मतलब ब्रिटेन में नस्ली भेदभाव कम होने का नतीजा निकालने वालों से वो पूछते हैं कि जब बराक ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति थे तो क्या इसका मतलब ये निकाला जाए कि अमेरिका में नस्लीय भेदभाव कम हो गया है।’
ब्रिटेन में भारतीय समुदाय
ब्रिटेन में भारतीय मूल के लोगों की आबादी 14 लाख के कऱीब है जो देश की कुल आबादी का केवल 2.3 प्रतिशत है लेकिन ये ब्रिटेन का सबसे बड़ा जातीय समुदाय है।
ये 1950 और 1960 के दशकों में ब्रिटेन के कपड़ों के मिलों में काम करने आये थे। कुछ भारतीय मूल के लोग अफ्रीका से आकर ब्रिटेन में बस गए थे।
ब्रितानी समाज के सभी क्षेत्रों में भारत और दक्षिण एशिया से आकर बसे लोग मिल जाएंगे। उद्योग, व्यापार, क्रिकेट और शिक्षा के क्षेत्रों में इन्होंने काफी कामयाबी हासिल की है।
लेकिन ये कहना गलत नहीं होगा कि दक्षिण एशिया से आए लोगों को सियासत में कामयाबी अधिक मिली है। साजिद जावीद का ही उदाहरण ले लीजिये। वो पहले वित्त मंत्री रह चुके हैं। उनके पिता पाकिस्तान से आए थे और ब्रिटेन में बस ड्राइवर की नौकरी किया करते थे।
वो प्राइवेट स्कूल नहीं गए लेकिन अपनी योग्यता के दम पर वो डॉएच बैंक में मैनेजिंग डायरेक्टर के ओहदे पर पहुंच गए। पिछले 11 सालों से राजनीति में हैं। उनके लिए एक ही पद बचा है जहां तक वो पहुंचना चाहेंगे और वो है प्रधानमंत्री का पद।
भारतीय मूल की प्रीति पटेल भी वर्किंग क्लास बैकग्राउंड से आती हैं। उनके बारे में भी ये कहा जा सकता है कि गृह मंत्रालय के बाद प्रधानमंत्री का पद हासिल करना ही उनकी असली तरक्की कही जाएगी। ऋषि सुनक अभी 40 साल के हैं और वो वित्त मंत्री के पद पर हैं, उनका लक्ष्य भी देश की सबसे ऊँची कुर्सी ही होगी।
नस्लवाद के विरोध का सही तरीका क्या है? क्या आप नस्लवाल विरोधी हैं?
‘मेरे परदादा ग़ुलाम बेचा करते थे।...लाइसेंस था उनके पास’
भारतीय मूल के लोगों के साथ भेदभाव
नवेन्दु मिश्रा के माता-पिता उत्तर प्रदेश के हैं और वो केवल 30 वर्ष की उम्र में ही सांसद बन गए। वो भारतीय मूल के लोगों की कामयाबी की एक मिसाल हैं। लेकिन वो कहते हैं कि नस्लवाद बाहर से नहीं दिखता है।
उन्होंने बीबीसी से कहा, ‘भारतीय मूल के लोगों के खिलाफ नस्लवाद अक्सर छिपा हुआ होता है। मेरे साथ कुछ ऐसी घटनाएं हुई हैं, कुछ लोगों में विभिन्न संस्कृतियों और धर्मों के बारे में ज्ञान का पूर्ण अभाव है।’
सिख समुदाय के एक धार्मिक गुरु अमरजीत सिंह चीमा फ़ोन पर मैनचेस्टर शहर से बताते हैं कि वो बचपन से भेदभाव का शिकार रहे हैं। (बाकी पेज 8 पर)
वो कहते हैं, ‘जब मैं स्कूल में था तो मेरी पगड़ी और लंबे बाल का बच्चे मजाक उड़ाते थे। जब मैं बड़ा हुआ तो यहाँ के बड़े-बुजुर्ग मुझे जिज्ञासा से देखते थे। शॉपिंग करने बाजार जाता था तो लोग मुझे घूरकर देखते थे। जब 9/11 हुआ तो मुझे मेरी लंबी दाढ़ी और पगड़ी के कारण ओसामा के नाम से भी पुकारा गया।’
लेकिन उनके मन में कोई खटास नहीं है और स्थानीय लोगों के खिलाफ कोई शिकायत भी नहीं है।
वो कहते हैं, ‘मैं यहीं पैदा हुआ। ये मेरा देश है। एक समय था ये गोरे लोग हमारे खाने का मजाक उड़ाते थे और हमें ‘पाकी’ या ‘चटनी’ जैसे नस्ली तंज वाले शब्द कहकर छेड़ते थे। अब करी और बिरयानी गोरों को पसंद है। अब ये हम जैसे सिख और तालिबान के बीच फर्क जानते हैं। उन्होंने हमें अपना लिया है और हम भी यहीं के होकर रह गए हैं।’
अमरजीत सिंह चीमा के मुताबिक पहले नस्ली भेदभाव स्थानीय लोगों की नादानी या कम जानकारी होने के कारण था लेकिन अब ऐसा नहीं है। ‘मेरे परिवार वाले मैनचेस्टर की मिलों में काम करने आए थे। उन्हें अंग्रेजी बोलनी भी नहीं आती थी। हमारे रहने-सहने का अंदाज भी अलग था। भेदभाव करने वाले भी हैं जो चाहते हैं कि हम अपने देश लौट जाएँ लेकिन ये मु_ी भर हैं।’
प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन की सरकार ने नस्लवाद को जड़ से उखाडऩे का बीड़ा उठा रखा है। लेकिन फिलहाल उन्हें बहुत सफलता नहीं मिली है।
पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने ब्रिटिश समाज को बहुसांस्कृतिक घोषित किया जिसमें उन्हें कामयाबी मिली लेकिन बहुत थोड़ी सी। अब ब्रिटिश सरकार विविधता पर भी जोर दे रही है और विशेषज्ञ कहते हैं कि फिलहाल यही सही रास्ता है इस मसले को हल करने का। (bbc.com)
-गीता यथार्थ
हमारे घरों की लड़कियां छोटे कपड़े नहीं पहनती-ये कहकर स्कर्ट जीन्स पहनी लडक़ी के रेप को जस्टिफाय करेंगे।
हमारे घर की लड़कियां रात में बाहर नहीं जाती- ये कहकर रात में हुए बलात्कार/ छेडख़ानी/ गैंग रेप को डिफेंड करेंगे।
हमारे घर/ अच्छे घर की लड़कियां ड्रिंक नहीं करती- ये कहकर ड्रिंक की हुई लडक़ी के रेप को डिफेंड करेंगे।
हमारे/ अच्छे घर की लड़कियां बॉयफ्रेंड नहीं बनाती- ये कहकर रिलेशनशिप वाले रेपिस्टों को बचाएंगे।
हमारे/ अच्छे घरों की लड़कियां/ अच्छे संस्कार वाली पतियों से शिकायत नहीं करती- ये कहकर डोमिस्टिक वायोलेन्स को डिफेंड करेंगे।
ऐसे तो सारे पति बेचारे जेल में ही होंगे- कहकर मैरिटल रेप को डिफेंड करेंगे।
ऐसा कुछ नहीं हुआ, ये तो हमारे धर्म को बदनाम करना चाहती है-- यह कहकर गैर धर्म के रेपिस्ट को डिफेंड करेंगे।
अच्छे संस्कारी घरों की लड़कियां पुलिस स्टेशन नहीं जाती, चुप रहकर बात दबा जाती हैं-ये कहकर पुलिस में शिकायत करने वाली लड़कियों के खिलाफ माहौल बनाते हैं, ये लड़कियां पहले तो लडक़ों को अपने जाल में फंसा लेती है जब वह जाल से निकलते हैं तो उन पर बलात्कार का केस कर देती हैं-ऑल टाइप रेपिस्टों के बचाव की दलील।
कभी-कभार किसी छोटी बच्ची के मामलें में अगर एक्सेप्ट कर लेंगे कि बहुत बुरा हुआ है तो कहेंगे बस ‘एक आध’ ही होते हैं ऐसे लोग तो, घर, समाज, देश, जज, वकील, डॉक्टर, रिश्तेदार, नेता, मंत्री, टीचर, अफसर, सरपंच, पुलिस...तमाम लोगों की लड़कियों के लिए ये राय हैं, लड़कियों के लिए ही नहीं बलात्कार के मुद्दे पर ही ये राय हैं, और ये इंडिया में नहीं, दुनिया के बहुत बड़े हिस्से में ऐसा सोचा जाता हैं।
और चिंता की बात ये है कि घूम-फिरकर रेप के केस इन्ही लोगों के पास सुलझाने के लिए आते हैं। इसलिए ये लोग कुतर्कों को जिंदा रखते हैं और असल कारण, यानि-पुरुष का औरतों के प्रति नफरत, औरतों को हर कीमत पर हासिल करना- हासिल करने से मतलब उसके शरीर को पाना, महिलाओं को सिर्फ वेजाइना समझना, क्राइम करने पर सजा का डर न होना। तमाम कारण नजरअंदाज कर दिए जाते हैं। जिससे एक जेंडर (मेल) का दूसरे जेंडर पर जबरदस्ती का अधिकार (कभी क्राइम के रूप में/कभी वैसे) बना हुआ है।
Delivering the 17th Justice P D Desai Memorial Trust lecture, CJI Ramana also spoke about how the rule of law would become 'illusory' if controlled by the legislature or the executive.
New Delhi: Chief Justice of India N.V. Ramana Wednesday said the right of people to change those in office through elections was no “guarantee against tyranny” of the elected and argued that democracy and its benefits could only be ensured by giving space to both “reasoned and unreasonable” public discourse.
Delivering the ’17th Justice P D Desai Memorial Trust’ lecture virtually, CJI Ramana also spoke about why the judiciary cannot be controlled, directly or indirectly, by the legislature or the executive, or else the rule of law would become illusory.
Ramana also mentioned how social media trends can affect the functioning of the judiciary. But he also underlined that judges cannot stay “in ivory castles”, and “have to be mindful of the fact that the noise” amplified on social media “is not necessarily reflective of what is right and what the majority believes in”. (The Print)
FULL TEXT OF 17TH P D DESAI MEMORIAL LECTURE DELIVERED BY
HON’BLE THE CHIEF JUSTICE OF INDIA JUSTICE N V RAMANA
1. It is a great pleasure for me to be delivering the 17th Justice P. D. Desai
Memorial Lecture. Justice Desai’s distinguished judicial career spanned
over two decades, during which he established himself to be a fiercely
independent judge and an exceptional administrator. He always believed
that law and justice are essential agents for initiating social change. His
desire to build a better tomorrow can be witnessed from his humanitarian
actions. The creation of “Praleen Trust” and its noble actions symbolize his
belief that the law must have a human face.
2. ‘Rule of Law’ is the topic that I am going to speak on today. Irrespective of
what era we are living in, who the rulers are, what the mode of governance
is, this is one topic which is never going to lose its sheen and relevance.
Because, the story of ‘Rule of Law’ is nothing but the story of civilisation of
humans.
3. When talking about ‘Rule of Law’, it is necessary to first understand what
the law is. Law, in its most general sense, is a tool of social control which
is backed by the sovereign. However, is this definition complete in itself? I
would think not. Such a definition of law makes it a double edged sword.
It can be used not only to render justice, it can also be used to justify
oppression.
4. Renowned scholars have therefore argued that a law cannot really be
classified as a “law” unless it imbibes within itself the ideals of justice and
equity. An “unjust law” might not have the same moral legitimacy as a
“just law”, but it might still command the obedience of some sections of
the society to the detriment of others.
5. What is clear is that both these thoughts highlight certain facets of what
is meant by the term “law”. I think that any law backed by a sovereign,
must be tempered by certain ideals or tenets of justice. Only a State that
is governed by such law, can be said to have the “Rule of Law”.
6. The legal history of pre-Independence India gives us a clear picture of this.
The British colonial power enacted various laws to further their economic
and political interests, at the cost of the colonised. The British used the
law as a tool of political repression, enforcing it unequally on the parties,
with a different set of rules for the British and for the Indians. It was an
enterprise famous for “Rule by Law”, rather than “Rule of Law” as it aimed
at controlling the Indian subjects. Judicial remedies lost their significance,
as they were administered keeping in view the best interests of the colonial
power, rather than what was just or legal.
7. The historical trial of Raja Nand Kumar in 1775, a case famously
recounted as the “Judicial Murder of Raja Nand Kumar” amply
demonstrates this. Raja Nand Kumar had accused the then Governor
General Warren Hastings of receiving bribe. Shortly after this incident,
charges of forgery were preferred against Raja Nand Kumar. On 15th June,
1775, Raja Nand Kumar was found guilty of the charges and was awarded
the capital punishment by Chief Justice Impey, a close aide of Warren
Hastings. The trial had many peculiarities: such as instead of being tried
before the local Court by local men he was tried by a British judge and
jury, who arguably did not have jurisdiction. Historians have later stated
that Raja Nanda Kumar paid the price for daring to accuse the Governor
General Warren Hastings.
8. Around 150 years later, there was a growing consciousness about the
values of liberty, equality, justice and fraternity. As part of persistent and
organised campaign for the freedom, the Indian masses were increasingly
made aware of how unjust and oppressive the discriminatory laws of the
colonisers are. In 1922, during his famous trial, Mahatma Gandhi
captured the imagination of the nation with the following words:
“Little do they realize that the Government established
by law in British India is carried on for this exploitation
of the masses... In ninety-nine cases out of hundred,
justice has been denied to Indians as against Europeans
in the courts of India.”
9. He thus concluded, “In my opinion, the administration of the law is thus
prostituted, consciously or unconsciously, for the benefit of the exploiter.”
10. Our struggle for independence, thus marked our journey towards
establishment of a state defined by the “Rule of Law”. The move from a
colonial past to the present required a shift from the colonial idea of laws
imposed by foreign rulers for their benefit, to laws given by our people to
govern themselves, laws which are not merely commands but are also
embodied by a sense of justice. There was a need to give guarantee for the
laws to be framed with human face for the benefit of the masses. A
framework was needed to ensure this. The framework that which forms
the binding link between law and justice in this country. That is what “We
the people” gave to ourselves in the form of the Constitution.
11. When the framers set out to draft the Constitution, the existing social
conditions played a crucial role. The newborn country was faced with
enormous challenges such as illiteracy, poverty, immense religious,
ethnic, linguistic, and social diversity. The framers envisaged a document
which not only took care of the prevailing conditions but would also continue
and be relevant for all times to come. It is therefore, conceived as a living
document whose contents evolve over the years, as the Courts deal with
new situations and question and interpret the Constitution in the light of
the same.
12. The Constitution embodies within itself the concept of Rule of Law and the
same can be witnessed from our Preamble, the Fundamental Rights, the
Directive Principles of State Policy, the Separation of Powers, etc. By
situating the concept of Rule of Law at the confluence of three important
values – human dignity, democracy and justice, our founding fathers
showed the path for the rest of the world too.
13. In its 1955 “Act of Athens”, the International Commission of Jurists
explicitly stated the “state” has to be subject to the law. Subsequently in
the year 1959, under the support of the same Commission, International
Congress of Jurists – consisting of 185 judges, practicing lawyers and
teachers of law from 53 countries - convened in New Delhi and issued the
“Declaration of Delhi”, which is one of the seminal documents on rule of
law. After reaffirming the “Act of Athens” and particularly the need for a
completely independent judiciary, the International Congress of Jurists
declared that the rule of law “is a dynamic concept which must be employed
to safeguard and advance the civil and political rights of individual in a free
society.”
14. Now, more than 70 years down the line, the entire world is facing an
unprecedented crisis in the form of Covid-19. At this juncture, we
necessarily have to pause and ask ourselves as to what extent we have
used the Rule of Law to ensure protection to, and, welfare of all of our
people. I do not intend to provide an evaluation of the same. Both my office
and my temperament prevent me from doing so. But I began to feel that
this pandemic might yet be a mere curtain raiser to much larger crises in
the decades to come. Surely we must at least begin the process of
analysing what we did right and where we went wrong.
15. Coming back to the topic, from within the perspective of legal positivism,
many conceptions of Rule of Law have emerged. From Dicey to Lord
Bingham, different formulations of principles informing the concept of rule
of law have been made. It would be impossible to adequately address the
rich tapestry woven by human intellect in this area in the course of a
speech. However, I thought it would be relevant to emphasise 4 principles,
given the current events across the globe.
16. The first principle is that ‘laws must be clear and accessible’. This is
the fundamental point that when laws are expected to be obeyed, the
people at least ought to know what the laws are. There cannot therefore
be secretive laws, as laws are for the society. Another implication of this
principle is that they should be worded in simple, unambiguous language.
In furtherance of the above principle, in India we are constantly striving to
make legislations and judgements accessible to general public by
translating them in to various Indian languages.
17. The second principle relates to the idea of “equality before the law”.
Laws are to be applied on an equal basis in a non-arbitrary fashion. This
is, of course, an important fundamental right promised under the Indian
Constitution.
18. An important aspect of “equality before law” is having equal “access to
justice”. I must emphasize that, in a democratic country like ours, access
to justice forms the bedrock of the “Rule of Law”. However, this guarantee
of equal justice will be rendered meaningless if the vulnerable sections are
unable to enjoy their rights because of their poverty or illiteracy or any
other kind of weakness. In India, the Legal Aid Authority is estimated to
serve more than 70% of the population who are entitled for free legal aid,
making the Indian Legal Aid system one of the largest in the world.
19. Another aspect I want to highlight over here, which might be a bit of a
tangent but is certainly very important, is the issue of ‘gender equality’.
Traditional roles are changing within the family, as is the structure of the
family itself. Most nations have recognized equality and dignity of women,
either constitutionally or statutorily.
20. The legal empowerment of women not only enables them to advocate for
their rights and needs in society, but it also increases their visibility in the
legal reform process and allows their participation in it.
21. Bias and prejudice necessarily lead to injustice, particularly when it
relates to the minorities. Consequently, the application of the principles of
Rule of Law in respect of vulnerable sections has to necessarily be more
inclusive of their social conditions that hinder their progress.
22. This leads me to the third principle, which is that members of society
have the “right to participate in the creation and refinement of laws”
that regulate their behaviours. We live in a democracy. The very essence
of a democracy is that its citizenry has a role to play, whether directly or
indirectly, in the laws that govern them. In India, it is done through
elections, where the people get to exercise their universal adult franchise
to elect the people who form part of the Parliament which enacts laws.
Incidentally, we, the Indian people gave ourselves the Universal Adult
Franchise from day one of the coming into existence of our Republic,
unlike some of the ‘advanced democracies’.
23. In the seventeen national general elections held so far, the people have
changed the ruling party or combination of parties eight times, which
accounts for nearly 50 percent of number of general elections. In spite of
large scale inequalities, illiteracy, backwardness, poverty and the alleged
ignorance, the people of independent India have proved themselves to be
intelligent and up to the task. The masses have performed their duties
reasonably well. Now, it is the turn of those who are manning the key
organs of the State to ponder if they are living up to the Constitutional
mandate.
24. It has always been well recognized that the mere right to change the ruler,
once every few years, by itself need not be a guarantee against tyranny.
The idea that people are the ultimate sovereign is also to be found in
notions of human dignity and autonomy. A public discourse, that is both
reasoned and reasonable, is to be seen as an inherent aspect of human
dignity and hence essential to a properly functioning democracy. As
Professor Julius Stone observed in his book “The Province of Law”,
elections, day to day political discourses, criticisms and voicing of protests
is integral to the democratic process.
25. The idea of the judiciary, as a “guardian of the Constitution, brings me to
the fourth and final principle- the presence of a “strong independent
judiciary”.
26. The judiciary is the primary organ which is tasked with ensuring that the
laws which are enacted are in line with the Constitution. This is one of the
main functions of the judiciary, that of judicial review of laws. The
Supreme Court has held this function to be a part of the basic structure
of the Constitution, which means that the Parliament cannot curtail the
same.
27. But the importance of the judiciary should not blind us to the fact that the
responsibility of safeguarding constitutionalism, lies not just on the
Courts. All the three organs of the State, i.e., the executive, legislature and
the judiciary, are equal repositories of Constitutional trust. The role of the
judiciary and scope of judicial action is limited, as it only pertains to facts
placed before it. This limitation calls for other organs to assume
responsibilities of upholding Constitutional values and ensuring justice in
the first place, with the judiciary acting as an important check.
28. For the judiciary to apply checks on governmental power and action, it has
to have complete freedom. The judiciary cannot be controlled, directly or
indirectly, by the legislature or the executive, or else the Rule of Law would
become illusory. At the same time, judges should not be swayed by the
emotional pitch of public opinion either, which is getting amplified through
social media platforms. Judges have to be mindful of the fact that the noise
thus amplified is not necessarily reflective of what is right and what
majority believes in. The new media tools that have enormous amplifying
ability are incapable of distinguishing between right and wrong, good and
bad and the real and fake. Therefore, media trials cannot be a guiding
factor in deciding cases. It is therefore extremely vital to function
independently and withstand all external aids and pressures. While
there is a lot discussion about the pressure from the executive, it is
also imperative to start a discourse as to how social media trends can
affect the institutions.
29. The above, however, should not be understood as meaning that judges and
the judiciary need to completely disassociate from what is going on. Judges
cannot stay in “ivory castles” and decide questions which pertain to social
issues.
30. The oath we took, to perform our duties ‘without fear or favour, affection or
ill-will’, applies equally to governmental and non-governmental entities.
The ultimate responsibility of a judge is, after all, to uphold the
Constitution and the laws. Reason, reasonableness and protection of
human dignity are the values that will serve us well.
31. I would now like to speak on the role of lawyers in upholding the “Rule of
Law”. It demands expertise, experience and commitment. Lawyers have an
obligation to perform their duties with integrity and diligence, with full
respect for the Court, opposing counsel, clients, victims, witnesses and
persons involved in proceedings. We need social-virtue rather than
economically self-interested behaviour.
32. Historically, lawyers have a rich tradition of social activism demonstrated
by the number of lawyers who participated in the Indian freedom struggle.
In part, this civic virtue stems from their having had a public-minded
clientele. We need now to rebuild and recreate a tradition of civic
professionalism. We need a professional ideology about social
responsibility. Here, I would urge both young and senior counsels to
extend a helping hand to those in need of justice. Extending ease of access
to justice is no less a social justice. Let economy, gender, class or caste
never be a hinderance in the path to secure justice.
33. Undoubtedly, reverence for the “Rule of Law” is our best hope for survival
as a free society. In order to advance the “Rule of Law” we primarily need
to create a society where “Rule of Law” is respected and cherished. Only
when the citizens believe that they have fair and equal access to justice,
can we have sustainable, just, inclusive and peaceful societies. Citizens
can strengthen the “Rule of Law” by being knowledgeable about it and by
applying it to their daily conduct and pushing for justice when needed.
34. I am taking the liberty to quote in Telugu, Maha Kavi Gurajada Appa Rao,
a great poet and reformist of 19th / 20th Century. He said, and I quote :
“Desamamte Matti Kadoi, Desamamte ManushulOi” (unquote). Gurajada
gave a universal definition to the concept of nation. He said “a nation is
not merely a territory. A nation is essentially its people. Only when its
people progress, the Nation progresses”.
35. You are the stewards of this nation and custodians of a very rich tradition.
I hope that you contribute by way of giving back something to this society,
to this great nation which has bestowed you with so many privileges. I
must lastly state that the work of ensuring complete justice as aspired to,
under the Constitution can never be said to be completed. The mandate of
our Constitution is to work tirelessly to surpass our own expectations, to
make India a country wherein rights are cherished, and which sets an
example for other countries to follow. There is no better way to end this
speech on “Rule of Law” than reciting a poem by Kaviguru Ravindranath
Tagore,
“Where the mind is without fear and the head is held high
Where knowledge is free
Where the world has not been broken up into fragments
By narrow domestic walls
Where words come out from the depth of truth
Where tireless striving stretches its arms towards perfection
Where the clear stream of reason has not lost its way
Into the dreary desert sand of dead habit
Where the mind is led forward by thee
Into ever-widening thought and action
Into that heaven of freedom, my Father, let my country awake.”
Thank you.
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका के प्यू रिसर्च सेंटर ने भारत की जनता के बारे में एक बड़ा रोचक सर्वेक्षण उपस्थित किया है। उसने भारत के लगभग तीस हजार लोगों से पूछताछ करके कुछ निष्कर्ष दुनिया के सामने रखे हैं। उसने भारत के विभिन्न धर्मों के प्रति लोगों की राय इकट्ठी की है। उस राय को पढ़कर लगता है कि धर्म-निरपेक्षता या पंथ-निरपेक्षता की दृष्टि से भारत दुनिया का शायद सर्वश्रेष्ठ देश है। इस सर्वेक्षण में भारत के हिंदू, मुसलमान, सिख, जैन, बौद्ध, ईसाई और आदिवासियों से भी सवाल पूछे गए थे। 84 प्रतिशत लोगों ने कहा कि किसी भी 'सच्चे भारतीयÓ के लिए यह जरुरी है कि वह सभी धर्मों का सम्मान करे। 80 प्रतिशत लोगों ने कहा कि भारत में उनको उनके धर्म के पालन की पूर्ण स्वतंत्रता है। लेकिन उनमें से ज्यादातर लोगों ने कहा कि उनका गहरा संबंध और व्यवहार प्राय: अपने ही धर्म के लोगों के साथ ही होता है। उनका यह भी मानना था कि अंतरधार्मिक विवाह अनुचित हैं।
कुछ हिंदुओं की मान्यता यह भी थी कि सच्चा भारतीय वही हो सकता है, जो हिंदू है या हिंदीभाषी हैं इस तरह की बात कहने वाले कौन लोग हो सकते हैं ? यह सर्वेक्षण इस प्रश्न का जवाब नहीं देता है लेकिन हम अंदाज लगा सकते हैं। ये लोग वे हो सकते हैं, जिन्हें हम बुद्धिजीवी नहीं कह सकते हैं। ये साधारण समझ वाले लोग हैं। यह जरुरी नहीं कि इनके दिलों में अहिंदुओं या अहिंदीभाषियों के लिए कोई कटुता या दुर्भावना ही हो। अपनी मोटी समझ और उथले अनुभव के आधार पर उन्होंने अपनी उक्त राय जाहिर की होगी लेकिन खान-पान को लेकर तो लगभग सभी लोगों की राय साफ और लगभग एक-जैसी है।
याने जो गोमांस खाए, वह हिंदू नहीं हो सकता और जो सूअर का मांस खाए, वह मुसलमान नहीं हो सकता। इसी प्रकार जातीय समीकरणों के बारे में ज्यादातर लोगों की राय (64 प्रतिशत) यह है कि अंतरजातीय विवाह नहीं होने चाहिए। अंतरधार्मिक विवाहों के बारे में भी ज्यादातर लोगों (64 प्रतिशत) की राय यही है। मेरी समझ में भारत की एकता और समरसता के लिहाज से यह राय ठीक नहीं है, हालांकि इन धार्मिक और जातीय बंधनों का टूटना आसान नहीं है।
इन बंधनों को चूर-चूर होते हुए अपनी आंखों से मैंने अंडमान-निकोबार और सूरिनाम में देखा है। एक ही परिवार में विभिन्न धर्मों के पति-पत्नी को मैंने बहुत प्रेम से रहते हुए देखा है। मोरिशस में अंतरजातीय परिवारों की भरमार है। मेरे अपने मित्रों के ऐसे सैकड़ों परिवार देश-विदेश में हैं, जो अंतरधार्मिक और अंतरजातीय हैं। यह कितनी विचित्र बात है कि लोग मुसलमान और ईसाई तो बन जाते हैं लेकिन वे अपनी जात नहीं भूल पाते हैं। इसे मेरे कुछ पाकिस्तानी मित्र 'हिंदुआना हरकतÓ कहते रहे हैं। भारत के इस जातिवाद के आगे इस्लाम और ईसाइयत भी पस्त है। लेकिन मैं अपने पाकिस्तानी मित्रों से पूछता रहता हूं कि सब धर्मों के प्रति सहनशीलता की यह 'हिंदुआना आदतÓ सभी मजहबी लोग क्या कभी अपने में पैदा कर पाएंगे?
(नया इंडिया की अनुमति से)
-श्याम मीरा सिंह
सोशल मीडिया के अधिकतर विमर्श दूसरों को नीचा दिखाने, किसी की मामूली सी गलती को पकडक़र उसे अपमानित करने, अपने ‘बोध’ का इस्तेमाल खुद को ‘जागरूक’ दिखाने के लिए होते हैं। हमें समझना चाहिए कि बहुत लोग एक लंबी उमर के बाद सीखते हैं, कुछ को उमर बीतने के बाद भी ये मौक़ा नहीं मिल पाता, आप प्रगतिशील हैं इसमें आपकी एजुकेशन, एक्सपोजऱ का योगदान है, बहुत से लोग कहीं कुछ गड़बड़ रह जाते हैं तो इसका अर्थ है उन्हें अच्छी शिक्षा का मिलना अभी विलंबित है, उन्हें और अच्छे दोस्तों और यूनिवर्सिटियों की ज़रूरत है। पर ऐसे लोग अपराधी नहीं हैं।
किसी को अपमानित करते हुए मुंह में विमर्श ठूँसना बहुत सही उपाय नहीं है। मेरे कई अध्यापकों, दोस्तों ने मुझे बिना मेरी कठोर आलोचना किए, बिना मेरे कान पकड़े, बिना अपमानित किए बहुत अच्छी बातें सिखाईं हैं। जिन्होंने अपमानित करके और नीचा दिखाकर कुछ सिखाना चाहा है, मैं उस मिनट ही समझ गया कि ये मुझे सिखाने के लिए नहीं हैं बल्कि अपने बोध का इस्तेमाल मुझे अपमानित करने के लिए ही कर रहे हैं। जबकि बोध लोगों को सामूहिक रूप से आगे बढ़ाने के लिए होते हैं, उनमें सुधार के लिए होते हैं, उन्हें गिराने या बहिष्कृत करने के लिए नहीं। समझाने, सिखाने की भाषा अलग होती है, सोशल मीडिया के विमर्श खुद को श्रेष्ठ, प्रगतिशील, जागरूक दिखाने और किसी एक को कॉमन दुश्मन बनाकर उसे नीचा दिखाने के लिए ही होते हैं, इसलिए ऐसे विमर्शों को मैं गंभीरता से नहीं लेता। ऐसे विमर्श दूसरों को अपमानित करने से शुरू होते हैं और फिर किसी और नए आदमी को नीचा दिखाने के लिए शुरू हुए किसी नए विमर्श के आते ही ख़त्म हो जाते हैं।
इस साल भारत में आया प्रत्यक्ष विदेशी निवेश 81.7 बिलियन डॉलर यानी 60 खरब रुपये से ज्यादा रहा है. पिछले साल के मुकाबले इस साल FDI में 10 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. और यह एक वित्तीय वर्ष में आया अब तक का सबसे ज्यादा FDI है.
डॉयचे वैले पर अविनाश द्विवेदी की रिपोर्ट
भारत को मिले रिकॉर्ड विदेशी निवेश पर भारत सरकार का कहना है, "एफडीआई पॉलिसी में सुधार, निवेश के लिए सुविधाएं देने और ईज ऑफ डूइंग बिजनेस के मोर्चों पर सरकार की ओर से उठाए गए कदमों ने देश में आने वाले एफडीआई को बढ़ाया है." जानकारों के मुताबिक भारत जैसे विकासशील देशों में उद्योग-धंधे बढ़ाने और नौकरियां पैदा करने में एफडीआई का अहम रोल होता है. इससे देश के बुनियादी ढांचे का विकास भी होता है. हालांकि अब तक एफडीआई और नौकरियों के बीच सीधा संबंध नहीं बिठाया जा सका है.
कलिंग इंस्टीट्यूट ऑफ इंडस्ट्रियल टेक्नोलॉजी में इकोनॉमिक्स की प्रोफेसर स्वप्नमयी पी पाटिल कहती हैं, "एफडीआई और नौकरियों के बीच संबंध जानने के लिए की गई रिसर्च में पाया गया है कि इनके बीच कोई सीधा संबंध नहीं होता." यानी ऐसा नहीं कहा जा सकता कि इतना एफडीआई आने पर इतनी नौकरियां पैदा होंगी. लेकिन इससे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर नौकरियां जरूर पैदा होती हैं. प्रोफेसर पाटिल कहती हैं, "नौकरियों की संख्या देश के आकार और इस तथ्य पर निर्भर करती हैं कि इंवेस्टमेंट किस क्षेत्र में आ रहा है."
रिकॉर्ड एफडीआई से क्यों नहीं बने रोजगार
रिकॉर्ड एफडीआई आने के बावजूद भारत में नौकरियों के अवसर नहीं बने. जानकारों के मुताबिक दरअसल भारत सरकार की अपनी पीठ थपथपाने वाली प्रेस रिलीज से एफडीआई की असल स्थिति स्पष्ट नहीं होती. इसमें सिर्फ बिजनेस सेगमेंट और राज्यों को मिले एफडीआई की लिस्ट दे दी गई है. विदेशी निवेश पर ढंग से रोशनी डालने वाला डॉक्यूमेंट रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया का बुलेटिन है. जिसमें ज्यादा स्पष्ट जानकारियां हैं. इसके मुताबिक 60 खरब रुपये के जिस कुल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की बात सरकार की ओर से कही गई है, उसके दो हिस्से हैं. पहला, सीधे भारत में हुआ निवेश और दूसरा, विदेशी निवेशकों द्वारा भारत से निकाला गया पैसा.
इन आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में हुए सीधे निवेश में इस साल 2.4 प्रतिशत की गिरावट आई है. और विदेशी निवेशकों ने इस साल, पिछले साल के मुकाबले 47 प्रतिशत ज्यादा पैसा भारत से निकाला है. रिजर्व बैंक मानता है कि भारत में हुए सीधे निवेश और कुल एफडीआई आंकड़ों में भारी अंतर है. जानकारों के मुताबिक कुल विदेशी निवेश में 10 फीसदी की बढ़ोतरी का दावा करने के लिए आंकड़ों में नेट पोर्टफोलियो इंवेस्टमेंट को भी शामिल कर लिया गया है.
पोर्टफोलियो इंवेस्टमेंट के आंकड़ों से हुआ खेल
यह वह पैसा है जिसे कंपनियां भारत में लंबे समय के लिए लगाने के बजाए कुछ महीनों या सालों के लिए लगाती हैं और फायदा होने के बाद निकाल लेती हैं. ऐसे निवेश से न ही किसी देश के लोगों को नौकरियां मिलती हैं और न ही वहां बुनियादी ढांचे का विकास होता है. साल 2020-21 में विदेशी निवेशकों ने ऐसा ही किया. इन्होंने भारत में निवेश करने के बजाए भारतीय कंपनियों के कुछ शेयर खरीद लिए. इस तरह ऐसी कंपनियों का निवेश जो साल 2019-20 में मात्र 1 खरब रुपये था, वह साल 2020-21 के आंकड़ों में बढ़कर 25 गुना से ज्यादा हो गया.
साल 2020-21 के आंकड़ों के मुताबिक इन नेट पोर्टफोलियो इंवेस्टर्स ने 27 खरब रुपये से ज्यादा का निवेश किया और भारतीय कंपनियों के शेयर खरीदे. इससे नौकरियां तो नहीं आई लेकिन भारतीय शेयर बाजार में सकारात्मक माहौल जरूर बना और भारत का सबसे प्रमुख सूचकांक सेंसेक्स 50 हजार के पार चला गया. जबकि कोरोना के दौर में देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा के दौरान यह मात्र 27 हजार के स्तर पर था. इससे गरीबों का जीवन स्तर तो नहीं सुधरा लेकिन अमीर लोगों के पास पैसा और बढ़ गया.
सेंटर फॉर डेवलपमेंट स्टडीज त्रिवेंद्रम के प्रो. आर नागराज के शब्दों में कहें तो कम समय के लिए भारतीय कंपनियों में लगाया जाने वाला पैसा एफडीआई में इस उछाल के लिए पूरी तरह से जिम्मेदार है. वे कहते हैं, "आधिकारिक दस्तावेज में इन अलग-अलग तरहों के निवेश के अंतर को मिटा दिया गया है. जिससे भारत में एफडीआई की बढ़ोतरी बहुत ज्यादा और इसका आंकड़ा बहुत बड़ा दिख रहा है."
बंपर कमाई करके रिलायंस ने दी कितनी नौकरियां
अब तक विदेशी निवेश के लिए साल 2020-21 की पहली तीन तिमाहियों का ही विस्तृत डाटा मौजूद है. जिससे कंपनियों की इक्विटी में हुए निवेश का पता चलता है. इन तीन तिमाही में कुल निवेश का 86 प्रतिशत हो चुका था. जिन कंपनियों के पास एफडीआई का सबसे बड़ा हिस्सा आया, उनमें से पहली तीन सिर्फ रिलायंस ग्रुप की कंपनियां हैं. जियो प्लेटफॉर्म्स, रिलायंस रीटेल वेंचर्स और रिलायंस बीपी मोबिलिटी नाम की इन कंपनियों में भारत के कुल इक्विटी निवेश का 54 फीसदी से ज्यादा यानी करीब 20 खरब रुपये निवेश किया गया है.
यह निवेश ज्यादातर बड़ी अमेरिकी कंपनियों ने किया है. सोशल मीडिया कंपनी फेसबुक, सर्च इंजन गूगल, इक्विटी निवेशक केकेआर एंड को. और सेमीकंडक्टर कंपनी क्वॉलकॉम सहित 14 कंपनियों ने मिलकर यह निवेश किया है. निवेश करके ये कंपनियां रिलायंस में शेयरधारक बन गई हैं. कुछ दिनों पहले रिलायंस इंडस्ट्रीज के चेयरमैन मुकेश अंबानी ने बताया था रिलायंस ने साल 2020-21 में 75 हजार नौकरियों के अवसर पैदा किए और 50 हजार फ्रेशर्स की भर्ती की है.
विदेशी निवेश से हुई कमाई के सही उपयोग पर भी सवाल उठाए जाते रहे हैं. बिजनेस जर्नलिस्ट ऑनिंद्यो चक्रवर्ती कहते हैं, "मुझे नहीं लगता कि यह 20 खरब रुपये का उचित उपयोग है. यह इतनी बड़ी रकम है कि इसे 50 हजार छोटे उद्योगों में निवेश किया जाता तो वे लाखों नौकरियां पैदा करते. दरअसल बड़ी कंपनियां सिर्फ अपने अच्छे रिटर्न के लिए निवेश करती हैं. भारत में उन्हें निवेश बाजार में मांग ही नहीं दिख रही. इसलिए वे केवल बड़े उद्योगपतियों की कंपनी में सारा निवेश कर रही हैं."
फायदे के बजाए नुकसान पहुंचा सकता है FDI
आरबीआई ने भी अपनी रिपोर्ट में एफडीआई के बंटवारे पर चिंता जताई है. अगर पांच सबसे बड़ी एफडीआई डील छोड़ दें तो 2020-21 में पिछले साल के मुकाबले एफडीआई में एक-तिहाई की गिरावट दर्ज की गई है. जेएनयू में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर डॉ. बिस्वजीत धर के शब्दों में, "ऐसा निवेश, जिससे देश में उत्पादक संपत्ति की बढ़ोतरी नहीं हुई, वह इस उम्मीद पर भी पानी फेर रहा है कि अर्थव्यवस्था को उबारने में एफडीआई का रोल हो सकता है. सरकार की उम्मीदों से उलट कुल एफडीआई का सिर्फ 17 फीसदी मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में आना भी इस बात को बल देता है."
जानकारों के मुताबिक सरकार देश से बाहर जाते निवेश, निवेश में आई कमी और बढ़ती बेरोजगारी दर की कटु आलोचना से बचने के लिए एफडीआई के आंकड़ों का सहारा लेती रही है. लेकिन घरेलू उत्पादन में बढोतरी और भारत में होने वाले निवेश में एफडीआई का रोल मामूली ही है. यह प्रक्रिया जारी रही तो बढ़ता एफडीआई न सिर्फ विकास लाने और रोजगार पैदा करने में पूरी तरह अप्रभावी हो जाएगा बल्कि अपने आदर्श रूप से उलट वह भारत में अमीरी और गरीबी के अंतर को और बढ़ाने वाला साबित होगा. (dw.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के प्रधानमंत्री रहे पामुलपर्ती वेंकट नरसिंहरावजी का इस 28 जून को सौवां जन्मदिन था। नरसिंहरावजी जब से आंध्र छोड़कर दिल्ली आए, हर 28 जून को हम दोनों का भोजन साथ-साथ होता था। पहले शाहजहां रोडवाले फ्लेट में और फिर 9, मोतीलाल नेहरु मार्गवाले बंगले में। प्रधानमंत्री बनने के पहले वे विदेश मंत्री, गृहमंत्री, रक्षा मंत्री और मानव संसाधन मंत्री रह चुके थे। 1991 में जब वे प्रधानमंत्री बने तो हमारे तीन पड़ौसी देशों के प्रधानमंत्रियों ने मुझसे पूछा कि क्या राव साहब इस पद को ठीक से सम्हाल पाएंगे ?
उन्होंने अगले पांच साल न केवल अपनी अल्पमत की सरकार को सफलतापूर्वक चलाया बल्कि उनके कामकाज से उनकी गणना देश के चार एतिहासिक प्रधानमंत्रियों– नेहरु, इंदिरा गांधी, नरसिंहराव और अटलजी– के रुप में होती है। राव साहब के जन्म का यह सौवां साल है। कई अन्य प्रधानमंत्रियों का भी सौंवा साल आया और चला गया। उनके सौवें जन्मदिन पर हैदराबाद में उनकी 26 फुट ऊंची प्रतिमा का उदघाटन जरुर हुआ, लेकिन वह किसने आयोजित किया?
किसी कांग्रेसी ने नहीं, किसी राष्ट्रवादी भाजपाई ने नहीं, बल्कि तेलंगाना (पूर्व आंध्र) के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने। क्या नरसिंहराव सिर्फ एक प्रांत के नेता थे ? वर्तमान कांग्रेस किस कदर एहसानफरामोश निकली है ? मुझे उससे ज्यादा उम्मीद इसलिए भी नहीं थी कि जिस दिन राव साहब का निधन हुआ (23 दिसंबर 2004), प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह ने खुद मुझे फोन किया और कहा कि आप कांग्रेस कार्यालय पर पहुंचिए।
नरसिंहरावजी कांग्रेस वहीं उन्हें लाया जा रहा है। उस समय सुबह के साढ़े दस ग्यारह बजे होंगे। राव साहब का शव बाहर रखा हुआ था और सोनियाजी और मनमोहनसिंहजी के अलावा मुश्किल से 8-10 कांग्रेसी नेता वहां खड़े हुए थे। किसी के चेहरे पर कोई भाव नहीं था। सिर्फ मैंने उनके चरण-स्पर्श किए। शेष लोगों ने उन्हें खड़े-खड़े चुपचाप विदाई दे दी। मैंने सोचा कि राजघाट के आस-पास अंत्येष्टि के लिए कोई स्थल तैयार कर लिया गया होगा लेकिन उसी समय शव को हवाई अड्डे ले जाया गया।
हैदराबाद में हुई उनकी लापरवाह अंत्येष्टि की खबर जो दूसरे दिन अखबारों में पढ़ी तो मन बहुत दुखी हुआ, लेकिन 2015 में यह जानकर अच्छा लगा कि राजघाट के पास शांति-स्थल पर भाजपा सरकार ने उनका स्मारक बना दिया है। कांग्रेस के नेता चाहते तो 28 जून को उनकी 100 वीं जन्म-तिथि पर कोई बड़ा आयोजन तो करते। जो आजकल कांग्रेस के नेता बने हुए हैं, यदि प्रधानमंत्री नरसिंहराव की दरियादिली नहीं होती तो वे तब जेल भी जा सकते थे और देश छोड़कर भी भाग सकते थे। राव साहब ने अपने दो वरिष्ठ मंत्रियों को सलाह को दरकिनार करते हुए मेरे सामने ही राजीव गांधी फाउंडेशन को 100 करोड़ रु. देने का निर्णय किया था।
उनकी स्मृति में भाजपा कुछ करती तो कांग्रेसी आरोप लगा देते कि बाबरी मस्जिद को गिरवाने में भाजपा और राव साहब की मिलीभगत थी लेकिन 6 दिसंबर 1992 की उस घटना के बारे में ऐसा आरोप लगा देना घनघोर अज्ञान और दुराशय का परिचय देना है। ज्यों-ज्यों दिन बीतते जाएंगे, लोगों को पता चलेगा कि भारत की अर्थ-नीति और विदेश नीति को समयानुकूल नई दिशा देने में नरसिंहरावजी का कैसा अप्रतिम योगदान था।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-ललित मौर्य
2017 से पहले के थर्मल प्लांट को 3.5 क्यूबिक मीटर प्रति मेगावाट और 2017 के बाद के प्लांट को 3 क्यूबिक मीटर पानी की खपत करने की छूट है
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) द्वारा हाल ही में थर्मल पॉवर प्लांट पर जारी एक नई सर्वेक्षण रिपोर्ट से पता चला है कि भारत में मौजूदा 50 फीसदी थर्मल पावर प्लांट, 2015 के जल उपयोग सम्बन्धी मानदंडों का बड़े पैमाने पर उल्लंघन कर रहे हैं। गौरतलब है कि सीएसई ने देश में कुल 154 गीगावाट उत्पादन क्षमता के थर्मल पॉवर प्लांट का सर्वेक्षण किया था जिनमें से करीब 50 फीसदी जल उपयोग सम्बन्धी नियमों का पालन नहीं कर रहे हैं। हैरान कर देने वाली बात तो यह है कि इनमें से ज्यादातर पावर प्लांट सरकारी कंपनियों के हैं।
वाटर इनएफ्फिसिएंट पॉवर नामक इस रिपोर्ट से पता चला है कि जल की खपत सम्बन्धी मानदंडों को लागु हुए छह वर्ष हो चुके हैं इसके बावजूद कोयला आधारित बिजली संयंत्र अभी भी जल संबंधी नियमों की अनदेखी कर रहे हैं।
यह इसलिए भी मायने रखता है क्योंकि यह उद्योग भारत में सबसे ज्यादा साफ पानी की खपत कर रहा है। देश में उद्योगों द्वारा जितने साफ पानी की खपत की जाती है, उसके करीब 70 फीसदी के लिए यह अकेला उद्योग ही जिम्मेवार है। यदि देश में कूलिंग टावर्स वाले बिजली संयंत्रों दो देखें तो वो अन्य देशों की तुलना में करीब दोगुने पानी की खपत करते हैं।
यदि 2015 में जल उपयोग सम्बन्धी मानदंडों (जिन्हें 2018 में फिर से संशोधित किया गया था) को देखें तो उनके अनुसार 1 जनवरी, 2017 से पहले स्थापित संयंत्रों के लिए प्रति मेगावाट 3.5 क्यूबिक मीटर पानी की खपत सीमा को निर्धारित किया गया था। वहीं 1 जनवरी, 2017 के बाद स्थापित संयंत्रों के लिए यह सीमा 3 क्यूबिक मीटर है। साथ ही उन्हें जीरो लिक्विड डिस्चार्ज (शून्य तरल निर्वहन) नीति को भी अपनाना जरुरी है।
इसके अतिरिक्त साफ पानी का उपयोग करने वाले संयंत्रों को कूलिंग टावर्स स्थापित करने के बाद इस सीमा में प्रति मेगावाट 3.5 क्यूबिक मीटर पानी के उपयोग की छूट दी गई थी। हालांकि समुद्री जल का उपयोग करने वाले थर्मल पावर प्लांटस के लिए इन नियमों को मानना अनिवार्य नहीं था।
इन जल सम्बन्धी मानदंडों को पूरा करने की समय सीमा दिसंबर 2017 थी, जिसे गुजरे हुए लम्बा समय बीत चुका है। कोयला बिजली संयंत्रों के लिए जल सम्बन्धी मानदंड, 2015 में उत्सर्जन सम्बन्धी मानदंडों के साथ ही पेश किए गए थे। हालांकि इस क्षेत्र के लिए उत्सर्जन सम्बन्धी मानदंडों की समयसीमा को मंत्रालय द्वारा दो बार एक बार 2017 में और हाल ही में 2021 में दोबारा संशोधित किया जा चुका है, जबकि जल सम्बन्धी मानदंडों के अनुपालन और कार्यान्वयन के मुद्दे को पूरी तरह से अनदेखा कर दिया गया है।
इस बारे में सीएसई के औद्योगिक प्रदूषण इकाई के कार्यक्रम निदेशक निवित कुमार यादव ने बताया कि, "यह तब है जब देश के कई बिजली पैदा करने वाले क्षेत्र पानी की गंभीर कमी से जूझ रहे हैं। इसके अलावा, बिजली संयंत्रों के अपशिष्ट निर्वहन के कारण भी भारी मात्रा में जल प्रदूषित होता है।"
पहले ही जल संकट से जूझ रहे क्षेत्रों में हैं 48 फीसदी संयंत्र
रिपोर्ट के अनुसार नियमों की अनदेखी करने वाले सबसे ज्यादा संयंत्र महाराष्ट्र और उत्तरप्रदेश में हैं। महाजेनको और यूपीआरवीयूएनएल से संबंधित इनमें से अधिकांश संयंत्र काफी पुराने हैं, जो आज भी पुरानी तकनीकों पर आधारित है जिससे काफी पानी की बर्बादी होती है। सीएसई द्वारा किए सर्वेक्षण में पाया गया है कि यह पुराने सयंत्र आज भी बिना कूलिंग टावरों के काम कर रहे हैं। देश में यह संयंत्र न केवल जल बल्कि उत्सर्जन सम्बन्धी मानदंडों का भी उल्लंघन कर रहे हैं।
1999 से पहले देश में निर्मित सभी वन्स-थ्रू आधारित बिजली संयंत्र अब पुराने हो चुके हैं जो प्रदूषण फैला रहे हैं। इनमें से कई संयंत्र को तो रिटायर किया जाना था हालांकि अभी तक ऐसा नहीं हुआ है। वे संयंत्र बिना किसी उत्सर्जन नियंत्रण उपकरणों या कूलिंग टावरों को स्थापित या अपग्रेड करने की योजना के बिना भी आज बेरोकटोक चल रहे हैं।
सीएसई में औद्योगिक प्रदूषण इकाई से जुड़ी सुगंधा अरोड़ा के अनुसार इन पुराने संयंत्रों को प्रदूषण फैलाने देना को विकल्प नहीं हो सकता। यदि रिटायर किए जाने वाले इन संयंत्रों के पास उत्सर्जन नियंत्रण प्रौद्योगिकियों को अपनाने और कूलिंग टावरों को लगाने या अपग्रेड करने की कोई योजना नहीं है तो इन्हें तुरंत बंद कर देना चाहिए।
समस्या सिर्फ इतनी नहीं है, सीएसई द्वारा हाल में जारी अनुमानों के अनुसार भारत में करीब 48 फीसदी थर्मल पावर प्लांट महाराष्ट्र के नागपुर और चंद्रपुर, कर्नाटक में रायचूर, छत्तीसगढ़ में कोरबा, राजस्थान में बाड़मेर और बारां, तेलंगाना में खम्मम और कोठागुडेम; और तमिलनाडु में कुड्डालोर जैसे जिलों में स्थित हैं, जो पहले ही पानी की कमी से जूझ रहे हैं। यही नहीं देश में कई जगह उद्योगों और स्थानीय लोगों के बीच पानी के उपयोग को लेकर टकराव की खबरें भी सामने आई हैं।
आंकड़ों में भी की जाती है हेरा-फेरी
सीएसई सर्वेक्षण में यह भी सामने आया है कि अपनी जल खपत सम्बन्धी आंकड़ों को साझा करने के लिए राज्यों में जिन आंकड़ों और उनके प्रारूपों का उपयोग किया जा रहा हैं उनमें कई खामियां हैं। यह भी पता चला है कि कई संयंत्र अपनी पर्यावरण रिपोर्ट में जो जल खपत सम्बन्धी जानकारी अधिकारियों को देते हैं वो या तो कम करके या फिर गलत दी जाती है।
यही नहीं इन संयंत्रों द्वारा जल की खपत सम्बन्धी जो आंकड़ें साझा किए जाते हैं, उनके आधार पर ही हर साल पानी के हिसाब किताब का ऑडिट किया जाता है जबकि उसकी किसी तीसरे पक्ष द्वारा निगरानी और सत्यापन नहीं किया जाता है। ऐसे में यह कितने विश्वसनीय हैं आप इसका अंदाजा खुद ही लगा सकते हैं।
यादव बताते हैं कि इस क्षेत्र का जल उपयोग बहुत ज्यादा है ऐसे में जल पर इसके बढ़ते प्रभाव को कम करने के लिए सभी जरुरी प्रयास किए जाने चाहिए। इस क्षेत्र की जल सम्बन्धी मांग को कम करने की काफी गुंजाइश हैं। इसके लिए जरुरी है कि 2015 के मानकों के कार्यान्वयन को सुनिश्चित किया जाना चाहिए। आंकड़ों की सही जानकारी भी जरुरी है।
साथ ही पुराने और अकुशल वन-थ्रू कूलिंग प्लांट और नए संयंत्रों में जीरो लिक्विड डिस्चार्ज जैसे उपायों पर ध्यान देना भी जरुरी है। इससे जुड़ी चुनौतियों का समाधान करके क्षेत्र की जल सम्बन्धी मांग को सीमित किया जा सकता है। यदि मानकों को सख्ती से लागु किया जाता है तो इससे क्षेत्र की जल सम्बन्धी कुल खपत को काफी कम किया जा सकता है। इससे भारत में मौजूदा थर्मल पॉवर प्लांट, जल उपयोग के मामले में कहीं ज्यादा बेहतर बन जाएंगें। (downtoearth.org.in)
-आलोक जोशी
ऋणम कृत्वा घृतं पीवेत् यानी कर्ज लो और घी पियो।
लगता है कि सरकार ऐसा ही कुछ कहना चाहती है। और एक बार नहीं बार-बार कह रही है। हालाँकि इसकी अगली लाइन आज की परिस्थिति में किसी भी तरह फिट नहीं हो सकती। वो है... यावत् जीवेत् सुखम् जीवेत् यानी जब तक जियो सुख से जियो। और यहाँ तो हाल ऐसा है कि दुख ही दूर होने का नाम नहीं ले रहा।
कोरोना से बुरी तरह मार खाई हुई अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने सोमवार को कुल मिलाकर 6, 28, 993 करोड़ रुपए का नया पैकेज लाने का ऐलान किया है।
इसके पहले भी मोदी सरकार करीब 24 लाख 35 हजार करोड़ रुपए के राहत और स्टिमुलस पैकेज देने का ऐलान कर चुकी है।
लेकिन इसमें से ज़्यादातर रकम कर्ज के नाम पर ही दी जानी है। अब वो कर्ज वापस आएगा या नहीं यह एक अलग सवाल है। लेकिन कोरोना राहत के पहले ऐलान के बाद से जितना कुछ सामने आया है, वो मोटे तौर पर उधार बाँटने की ही योजना है।
इस वक्त सबसे ज्यादा जरूरत इस बात की है कि लोग पहले लिए हुए कर्ज चुकाने की हालत में आएँ और नए कर्ज लेने की हिम्मत दिखा सकें।
कोरोना की पहली लहर में सरकार ने क्या-क्या किया
पिछले साल कोरोना संकट शुरू होने के तुरंत बाद यानी 26 मार्च को वित्त मंत्री ने गरीबों को सीधे और तात्कालिक मदद पहुँचाने के लिए 1,70,000 करोड़ रुपए के राहत पैकेज का एलान किया था। इस राहत में शहरों और गाँवों में गरीब परिवारों को मुफ्त राशन देने का इंतजाम शामिल था।
सरकार ने दावा किया कि देश में 80 करोड़ लोगों को अगले तीन महीनों तक दाल, चावल और गेहूँ जैसी चीजें दी जाएँगी ताकि लॉकडाउन की वजह से बेरोजगार हो गए लोगों के खाने का तो इंतजाम हो जाए।
सफाई कर्मचारियों और स्वास्थ्य सेवा से जुड़े लोगों के लिए एक विशेष बीमा योजना लाई गई और काफी बड़ी संख्या में लोगों के खातों में सीधे रकम डालने का इंतजाम भी हुआ। इसमें गाँव और शहर दोनों के ही लोग शामिल थे। एक सीमा से छोटी इकाइयों में काम करने वाले और 15 हजार से कम तनख्वाह पाने वाले लोगों के लिए सरकार ने पीएफ की रकम भी तीन महीने तक अपने पास से भरने का ऐलान किया था।
डेबिट कार्ड से पैसा निकालने पर चार्ज खत्म किया गया और बैंकों में मिनिमम बैलेंस की शर्त भी। सरकार को उम्मीद थी कि दो-तीन महीनों में कोरोना का खतरा टल जाएगा और सब कुछ पटरी पर आने लगेगा। हम आप भी ऐसा ही सोच रहे थे।
स्टिमुलस पैकेज का ऐलान
यह ज़्यादातर इंतजाम भी तीन महीने के नजरिए से ही किए गए थे। और साथ में यह फिक्र भी थी कि इसके तुरंत बाद चीजों को सुधारने के लिए एक धक्का और लगाना ही होगा। सो दो महीने बाद यानी मई में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 20 लाख करोड़ रुपए के एक आर्थिक स्टिमुलस पैकेज का ऐलान किया।
स्टिमुलस यानी ऐसा इंतजाम, जिससे अर्थव्यवस्था को उछलने का दम मिल सके। प्रधानमंत्री ने तो आत्मनिर्भर भारत का ऐलान कर दिया और साथ में बता दिया कि पैकेज का ब्योरा वित्त मंत्रालय से आएगा।
क्या पीएम मोदी अपने सलाहकार की बात मानते हैं?
अगले कई दिन तक वित्त मंत्री और उनके साथी राज्यमंत्री ने अंग्रेज़ी और हिंदी में कई किश्तों में इस पैकेज का ब्योरा पेश किया। सारा ब्योरा सामने आने के बाद अधिकतर विशेषज्ञों की राय यही थी कि दरअसल यह पैकेज कम और पैकेजिंग ज्यादा है।
अव्वल तो इसमें सरकार के तमाम पुराने ऐलान भी जोड़ लिए गए और रिजर्व बैंक के उठाए कदमों से बाजार में आने वाला करीब आठ लाख करोड़ रुपए का नकदी बढ़ाने का असर भी इसमें शामिल कर लिया गया था। बाल की खाल निकालने वाले जानकारों ने तो यहाँ तक कहा कि जितना कहा जा रहा है, यह पैकेज दरअसल उसका 10वाँ हिस्सा भी नहीं है। और यह पैकेज सामने आने के साथ ही यह बहस खड़ी हो गई थी कि आखिर तरह-तरह के कर्ज बांटकर सरकार अर्थव्यवस्था को क्या सहारा देने की सोच रही है जबकि जरूरत तो बाजार में डिमांड पैदा करने की है। कर्ज तो कोई तब लेगा न, जब उसे पैसे की जरूरत होगी।
जब लॉकडाउन, बेरोजगारी और अनिश्चितता की वजह से बाजार में मांग करीब-करीब खत्म हो चुकी हो, ऐसे में व्यापारियों या उद्योगपतियों को कर्ज देने से क्या फायदा होना था। और उससे बड़ी बात यह थी कि ऐसे में कर्ज लेने आएगा कौन?
इस बीच एक बात जरूर हुई, व्यापारिक कर्जों और घर के कर्ज या कार, स्कूटर या घर के सामान जैसी चीजों या किसी भी वजह से लिए गए पर्सनल लोन की भी ईएमआई भरने से कुछ महीनों की छूट जरूर मिल गई। हालाँकि इस बीच भी ब्याज चढ़ते रहना था। फिर भी बेहद मुसीबत में फँसे लोगों के लिए यह कुछ राहत का सबब तो बना।
तीसरे पैकेज की घोषणा
नवंबर के महीने में फिर दो लाख 65 हजार करोड़ रुपए का एक पैकेज आया। आत्मनिर्भर अभियान का तीसरा चरण। इस बार निर्मला सीतारमण ने रोजगार पैदा करने पर जोर दिया और कुछ ऐसे सेक्टरों को सहारा देने का इंतजाम किया गया, जिनसे रोजगार बढ़ाने की उम्मीद थी।
कोरोना के दौरान रोजगार खो चुके लोगों या नए लोगों को रोजगार पर रखने वाली इकाइयों को बढ़ावा देने के लिए आत्मनिर्भर भारत रोजगार योजना लाई गई।
छोटे उद्यमियों के लिए इमरजेंसी क्रेडिट लाइन गारंटी योजना की मियाद बढ़ाई गई और 10 चैंपियन सेक्टरों को पीएलआई स्कीम में करीब डेढ़ लाख करोड़ रुपए देने का इंतजाम भी किया गया। और भी कई एलान थे और उन पर काम भी हो रहा है।
लेकिन समस्या खत्म होने के बजाय विकराल होती ही दिख रही है। इसकी सबसे बड़ी वजह तो यही है कि कोरोना खत्म होने के बजाय दोगुने जोर से फिर हमलावर हो गया और अब तीसरी लहर की आशंका भी है। लेकिन सरकार ने अब जो ताजा ऐलान किए हैं, वो दूसरी लहर के असर को ही कम करने की कोशिश लगते हैं।
नई घोषणाओं में क्या है खास
सोमवार को वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने आठ नई योजनाओं का एलान किया। बच्चों के इलाज की सुविधाएँ बढ़ाने के लिए 23 हजार 220 करोड़ रुपए देने का ऐलान किया गया है और खासकर पिछड़े इलाकों में मेडिकल इन्फ्रास्ट्रक्चर सुधारने यानी इलाज की बेहतर सुविधाएँ बनाने के लिए 50 हजार करोड़ रुपए की क्रेडिट गारंटी स्कीम लाई जा रही है।
दरअसल यह लोन गारंटी स्कीम एक लाख 10 हजार करोड़ रुपए की है, जिसमें से 50 हजार करोड़ हेल्थ सेक्टर के लिए और बाकी 60 हजार करोड़ के कर्ज दूसरे सेक्टरों के लिए होंगे।
इसके अलावा कोरोना की सबसे बुरी मार झेल रहे टूरिज्म सेक्टर को सहारा देने के लिए ट्रैवल एजेंटों को 10 लाख रुपए और टूरिस्ट गाइडों को एक लाख रुपए का कर्ज सरकार की गारंटी पर दिया जाएगा। यही नहीं इनका कारोबार बढ़ाने के लिए विदेशों से भारत आने वाले पहले पांच लाख टूरिस्टों की वीजा फीस माफ कर दी जाएगी।
एमएसएमई उद्योगों को सहारा देने के लिए सरकार ने पहले से चल रही इमरजेंसी क्रेडिट लाइन स्कीम का आकार तीन लाख करोड़ रुपए से बढ़ाकर साढ़े चार लाख करोड़ रुपए कर दिया है। (बाकी पेज 8 पर)
इस स्कीम में उद्यमियों को कुछ गिरवी रखे बिना कर्ज दिए जाते हैं।
साथ ही वित्त मंत्री ने एक नई स्कीम का ऐलान भी किया, जिसमें 25 लाख छोटे कारोबारियों को सवा लाख रुपए तक का कर्ज रियायती ब्याज दर पर दिया जाएगा। उन्होंने आत्मनिर्भर भारत रोजगार योजना और नए रोजगार पैदा करने पर मिलने वाली इंसेंटिव स्कीम यानी पीएलआई की मियाद भी एक एक साल बढ़ाने का एलान किया है।
किसे होगा इनसे फायदा?
लेकिन इस बात पर गंभीर सवाल हैं कि इन योजनाओं से कितना फायदा होगा और किसे होगा? सरकार पहले ही जो क्रेडिट गारंटी स्कीम लाई थी, उसमें तीन लाख करोड़ के सामने सिर्फ दो लाख 69 हजार करोड़ रुपए का ही कर्ज उठा है। फिर डेढ़ लाख करोड़ बढ़ाकर सरकार क्या हासिल करेगी।
सबसे बड़ा सवाल यह है कि जिस वक्त कंज्यूमर की जेब में पैसे डालकर मांग बढ़ाने की जरूरत है, उस वक्त सरकार व्यापारियों और उद्यमियों को कर्ज देने पर क्यों इतना जोर दे रही है? इसके लिए वो गारंटी भी देगी, ब्याज की दर भी कम करेगी और गिरवी रखने की शर्त भी हटा देगी।
लेकिन कर्ज लेकर कोई उद्योगपति या दुकानदार करेगा क्या? उसके लिए कर्ज की जरूरत या अहमियत तभी होती है, जब उसके सामने ग्राहक खड़े हों और उसे माल खरीदने, भरने या बनाने के लिए पैसे की जरूरत हो।
इस वक्त की सबसे बड़ी मुसीबत है बाजार में मांग की कमी। और उसकी वजह है लाखों की संख्या में बेरोजगार हुए लोग, बंद पड़े कारोबार और लोगों के मन में छाई हुई अनिश्चितता। सरकार को कुछ ऐसा करना होगा, जिससे इसका इलाज हो। और तब शायद उसे इस तरह कर्ज बाँटने की जरूरत नहीं रह जाएगी। (bbc.com)
-गिरीश मालवीय
यह दरअसल वह नम्बर है जो आपको उस वक्त बहुत बड़ी परेशानी से बचा सकता है जब आप किसी साइबर ठगी के शिकार हो गए हो........
इस हेल्पलाइन नंबर 155260 और इसके रिपोर्टिंग प्लेटफॉर्म को गृह मंत्रालय के तहत साइबर धोखाधड़ी के कारण होने वाले वित्तीय नुकसान को रोकने के लिए
भारतीय साइबर अपराध समन्वय केंद्र (Indian Cyber Crime Coordination Center) यानी I4C द्वारा जारी किया गया है. फिलहाल इसे सात राज्यों छत्तीसगढ़, दिल्ली, मध्य प्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश और केंद्र शासित राज्यों में चालू कर दिया गया है.
इसमें शामिल होने वाले सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के कई महत्त्वपूर्ण बैंक हैं जैसे भारतीय स्टेट बैंक, पंजाब नैशनल बैंक, बैंक ऑफ बड़ौदा, बैंक ऑफ इंडिया, यूनियन बैंक, इंडसइंड बैंक, एचडीएफसी बैंक, आईसीआईसीआई बैंक, ऐक्सिस बैंक, येस बैंक और कोटक महिंद्रा बैंक।इसके अलावा पेटीएम, फोनपे, मोबिक्विक, फ्लिपकार्ट और एमेजॉन जैसे सभी प्रमुख वॉलेट और मर्चेंट भी इससे जुड़े हुए हैं.
मान लीजिए कि आपकी साथ कोई ठगी की घटना घट गई है, किसी ने आपको बातों में उलझाकर आपके मोबाइल को हैक कर ओटीपी हासिल कर लिया है और आपके एकाउंट में जमा रकम उस धोखेबाज एकाऊंट में चली गई है तो इस हेल्पलाइन मे शिकायत होते ही संबंधित बैंक, जिसके खाते में ठगी की रकम जमा की गई है उसे अलर्ट भेज दिया जाएगा......बैंक अलर्ट आने के बाद उस खाते में रकम को फौरन फ्रीज कर देंगे. इससे ठग कम से कम उस रकम को निकाल नहीं सकेगा. अगर रकम को एक बैंक के खाते से दूसरे किसी बैंक के खाते में भेजा गया है तो संबंधित बैंक ही दूसरे बैंक को अलर्ट भेजकर खाते को फ्रीज कराने की कार्रवाई करेगा.
इस प्लेटफार्म की प्रक्रिया यह है कि जैसे ही कोई पीड़ित अपनी शिकायत के लिए हेल्पलाइन नंबर पर कॉल करता है, तो उसकी पूरी डीटेल फाइनेंशियल इंस्टीट्यूशन तक पहुंच जाती हैं. यह फ्रॉड ट्रांजेक्शन टिकट जिस वित्तीय संस्थान से पैसा कटा (डेबिट हुआ) है और जिन वित्तीय संस्थान में गया (क्रेडिट हुआ) है. दोनों के डैशबोर्ड पर नजर आएगा. जिस बैंक/वॉलेट में टिकट दिया गया होता है. उसे फ्रॉड ट्रांजेक्शन की जानकारी के लिए जांच करनी होती है. इसके बाद ट्रांजेक्शन को टेम्पोरेरी ब्लॉक कर दिया जाता है.
एक बार इस हेल्पलाइन में शिकायत दर्ज हो जाने पर आपको आपकी शिकायत का कंप्लेंट नम्बर sms द्वारा भेज दिया जाता है इसके साथ ही एक वेबसाइट आप निर्देश होते हैं कि इस पावती संख्या का इस्तेमाल करके 24 घंटे के भीतर धोखाधड़ी का पूरा विवरण राष्ट्रीय साइबर अपराध रिपोर्टिंग पोर्टल cybercrime डॉट gov. in पर दें, इसके बाद बैंक द्वारा आपकी शिकायत का संज्ञान ले लिया जाता है.
लेकिन इसके लिए सबसे जरूरी यह है कि आपके साथ यदि किसी भी तरह के ऑनलाइन बैंकिंग फ्रॉड या अन्य प्रकार की साइबर धोखाधड़ी की घटना होती है तो आप इसकी सूचना तुरन्त ही दे , यानी इस प्रणाली की सफलता आपकी सतर्कता पर ही निर्भर है,......कानून भी यही कहता है जुलाई 2017 की आरबीआई की अधिसूचना के अनुसार अगर बैंक के किसी खाताधारक का पैसा धोखे से निकाला जाता है और वह व्यक्ति अपराध के 72 घंटे के भीतर इस घटना की सूचना देता है, तो बैंक को वह पूरी राशि उस खाताधारक को 10 कार्य दिवस के भीतर देनी होगी.........
एक बात और जान लीजिए कि यह हेल्पलाइन सिर्फ मदद के लिए है। यह वित्तीय धोखाधड़ी के मामले में एफआईआर यानी प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने की आवश्यकता को समाप्त नहीं करती है। पैसा सही मालिक को वापस स्थानांतरित किए जाने से पहले धोखेबाजी करने वाला व्यक्ति पैसा निकालने में सफल हो जाता है, तो यह मामला पुलिस के पास ले जाना ही होगा।
आज के जमाने में जब लगभग हर व्यक्ति पेमेंट के लिये डिजिटल माध्यम का इस्तेमाल कर रहा है तो उसकी फोन बुक में इस हेल्पलाइन नम्बर 155260 नंबर का होना बहुत जरूरी है यदि आपने अब तक इसे सेव नही किया हो तो इसे तुरन्त सेव करे
-दिनेश श्रीनेत
मुझे मालूम नहीं कि इस बात को किस तरह से देखा जाएगा, मगर सोशल मीडिया ने लेखक की पारदर्शिता और उसकी गरिमा को नष्ट ही किया है। सोशल मीडिया पर फॉलोअर्स बनते हैं, आपकी प्रशंसा या सराहना करने वाले मिलते हैं, इसकी मदद से आपकी किताबें बिक जाती हैं। लेकिन अंततः यह सब कुछ नंबरों में बदल जाता है। लाइक्स के नंबर, शेयर के नंबर और आपके फॉलोअर्स के नंबर। देखते देखते आप खुद को उस बाजार में खड़ा पाते हैं, जहां हल्का सा धक्का लगता है और कोई आपके सीने पर नंबर का बैज चिपकाकर आगे बढ़ जाता है।
आप चारों तरफ देखते हैं तो हर किसी के सीने पर आप जैसे नंबर चिपके हैं। वहां हर कोई ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहा होता है, आप ठिठकते हैं फिर आप भी बोलना शुरू करते हैं। पहले आपकी आवाज़ हल्की होती है। अपने जैसी होती है... फिर आप आप उस टोन को पकड़ लेते हैं, जिसमें दूसरी आवाजें हैं। फिर आप बिल्कुल वैसे ही चिल्लाने लगते हैं... जैसे दूसरे चिल्ला रहे हैं। और अब आपको इस खेल में मजा आने लगता है। पर उस वक्त तक आपकी असल आवाज़ गुम हो चुकी होती है।
किसी पाठक के लिए किताब से लेखक तक पहुँचने का सुख अलग होता है। किताब से लेखक तक पहुँचने के सफर में बहुत सारे मोहभंग भी हुए हैं और होते रहेंगे। कई बार लगता है कि अपने प्रिय लेखक से कभी मिलना ही नहीं चाहिए। कई बार ऐसा होता है कि लेखक से मिलते ही आप उसे खो देते हैं। जो हर वक्त आपके साथ था, वह किसी शहर का निवासी बन जाता है, उसकी अपनी पसंद, ना-पसंद, पूर्वग्रह, कमजोरियां उसकी अपनी लेखनी से बहुत भिन्न होती हैं। सोशल मीडिया ने इस पूर्वाग्रह के साथ लेखक को आपके सामने खड़ा कर दिया है। हर पाठक और रचना के बीच लेखक खड़ा है, अपने सोशल मीडिया इन्फ्लुएन्स के साथ...
हर रचनाकार के साथ उसका एक अदृश्य पाठक भी मौजूद होता है। जिसके बिना वह लिख ही नहीं सकता। यह पाठक बहुत ही बेचैन चित्त वाला है। यह लेखक के साथ ही परिपक्व होता है और कई बार लेखक से आगे निकल जाता है। बहुत बार लेखक का उपहास भी उड़ाता है, उसके लिए राइटर्स ब्लॉक खड़ा कर देता है। दोनों के बीच दिनों, महीनों, सालों तक शीत युद्ध चला करते हैं और हर बार जब लेखक इस युद्ध में विजयी होता है तो पहले से बेहतर रचनाकार बनकर सामने आता है।
सफेद कागज़ पर लेखक का नाम, उसकी स्पेलिंग, उसके फांट... बस इतनी सी पहचान लेखक को चाहिए। लेखक को इतनी सी पहचान चाहिए कि किताब के फटे हुए पृष्ठ में भी वह नज़र आए। पर वहां नज़र आने के लिए एक ज़िंदगी के बराबर कीमत अदा करनी पड़ती है...
किसी भी लेखक की सबसे बड़ी सफलता इस बात में नहीं है कि वह किसी पत्रिका के कवर पर है, कोई उसका इंटरव्यू ले रहा है या वह किसी मंच पर है। किसी लेखक की सफलता उसके अदृश्य हो जाने में है। इस हद तक सूक्ष्म हो जाने में कि वह सिर्फ एक विचार में बदल जाए।
मैं काफ़्का, कामू या दोस्तोएवस्की से कभी मिला तो नहीं, उनकी निजी ज़िदंगी के बारे में भी बहुत नहीं पढ़ पाया हूँ, पर वे विचार की तरह मेरे भीतर मौजूद हैं।
देह से यह मुक्ति हासिल करना ही तो किसी लेखक की सबसे बड़ी आकांक्षा होती है...
(फेसबुक से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जम्मू में वायु सेना के अड्डे पर हुए स्वचालित विमानों (ड्रोन) के हमले से बहुत ज्यादा नुकसान तो नहीं हुआ लेकिन इस तरह का हमला पहली बार हुआ है। ऐसे बिना पायलट के विमानों से भारत पर पहले कभी किसी ने हमला नहीं किया था। रात को डेढ़ बजे हुए इस हमले से दो जवान घायल हुए और थोड़ी टूट-फूट भी हुई लेकिन इस तरह के हमले बेहद खरनाक भी हो सकते हैं, क्योंकि इसमें हमलावर तो होता ही नहीं है और यदि कुछ नष्ट होता है तो सिर्फ विमान ही होता है। जम्मू के जिस हवाई अड्डे पर यह विस्फोट हुआ, उसका इस्तेमाल देश के महत्वपूर्ण लोगों के लिए होता है। इसके पहले भी भारत-पाक सीमांत पर कई ड्रोन-हमले हुए हैं लेकिन उनमें होता यही था कि वे विमान कुछ हथियार, कुछ नोटों के थैले और कुछ भारत-विरोधी प्रचार-सामग्री गिरा देते थे। इन पायलटविहीन स्वचालित विमानों का उपयोग तस्करी का सामान पहुंचाने के लिए भी किया जाता है।
इधर 25 फरवरी के बाद से भारत-पाक सीमांत पर युद्ध-विराम समझौते के बाद गोलीबारी की घटनाएं कम हुई हैं लेकिन इस तरह के स्वचालित विमानों के हमले गहरी चिंता का विषय बन गए हैं। इन्हें आतंकवादी हमलों से कम नहीं माना जा सकता। वैसे भारत के पास ऐसे स्वचालित विमान भी हैं और उन्हें पकडऩे के लिए रडार भी हैं लेकिन जम्मू के सैन्य हवाई अड्डे पर हमला करनेवाले विमान इतनी कम ऊंचाई पर उडऩेवाले थे कि उन्हें खोज पाना आसान नहीं है। इस तरह के स्वचालित विमानों का इस्तेमाल आर्मेनिया और अजरबेजान तथा सीरिया-युद्ध में होता रहा है। भारतीय सैन्य विशेषज्ञों का अंदाज है कि ये नीचे उडऩेवाले विमान पाकिस्तान से आए होंगे, क्योंकि वहां के आतंकवादी गिरोह इस तरह के विमानों का उपयोग तस्करी के लिए करते रहे हैं। यह आश्चर्य की बात है कि आजकल पाकिस्तान की इमरान सरकार भारत से संबंध सुधारने के इशारे कर रही हैं और सीमांत पर ऐसी गंभीर घटनाएं हो रही है। हो सकता है कि आतंकवादी गिरोह इस बात से नाखुश हों कि आजकल कश्मीरी नेताओं से भारत सरकार ने सीधा संवाद शुरु कर दिया है। इस दाल-भात में वे मूसलचंद बनने की कोशिश कर रहे हों।
जहां तक पाकिस्तानी सरकार का सवाल है, आजकल अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संगठन ने उसका गला दबा रखा है। वह उसके आतंकवादियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई के लिए मजबूर कर रही है। जम्मू के भारतीय वायु सेना के अड्डे पर हुए इस हमले से पाकिस्तानी सरकार की दुविधा कुछ न कुछ बढ़ेगी ही। अब जबकि काबुल पर तालिबान का वर्चस्व बढऩे की संभावना से इस्लामाबाद भी थोड़ा चिंतित दिखाई पड़ रहा है, यह सही समय है, जब नीति के तौर पर उसे आतंकवाद का परमपूर्ण विरोधी बन जाना चाहिए। हजार साल के आतंकवाद से भी कोई नतीजा निकलनेवाला नहीं है। इसके अलावा भारतीय फौज शीघ्र ही नीचे उडऩेवाले इन स्वचालित विमानों को पकडऩे और गिराने का इंतजाम भी कर लेगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-प्रकाश दुबे
बहुत पुराने जमाने की बात नहीं है। उन दिनों एक जुलाई को बच्चे पाठशाला जाना शुरू करते थे। अब तो एक जुलाई को सिर्फ जन्मदिन मनाया जा सकता है। देवभूमि गमन कर चुके पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री बसंतराव नाईक एक जुलाई को जन्मे। वर्तमान लोकसभा में अपना दल के पकौड़ी लाल और भाजपा की रीति पाठक लगभग पड़ोसी हैं। महाराष्ट्र के ओमप्रकाश राजे निंबालकर और अशोक नेते समेत सात से अधिक सांसद पहली जुलाई को जन्मदिन मनाते हैं। मध्यप्रदेश को एक जुलाई अधिक पसंद है।
पूर्व केन्द्रीय मंत्री शरद यादव, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व महासचिव से हटाकर मार्गदर्शक के रूप में पदोन्नत सुरेश भैयाजी जोशी, पूर्व राज्यपाल कप्तान सिंह सोलंकी, पूर्व मंत्री गोविंद सिंह और वर्तमान मंत्री गोपाल भार्गव वगैरह एक जुलाइया हैं। सतना के सांसद गणेश सिंह दो जुलाई को जन्मे। आजमगढ़ से जीते अखिलेश यादव को भाजपा ने जन्मदिन का उपहार दो दिन पहले थमाया। उनके दर्जन भर पंचायत सदस्य जिला पंचायत सभापति का नामांकन ही नहीं भर सके। इन तिथियों वाली जन्मकुंडली गलत भी हो सकती है। स्कूल में दाखिले के समय कुछ बच्चों की जन्मतिथि एक जुलाई दर्ज करा दी जाती है। हंसकर सबको बधाई।
कुढ़ते हुए लोग और बिराते हुए लोग
मुकुल राय को अचानक घर की याद आई। घर लौटे। पराये घर पहुंचने पर विधायक बनाकर अभिषेक किया गया था। पराए घर जाने के कारण सुवेन्दु अधिकारी को मंत्री दर्जा मिला। वे विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं। ममता बनर्जी घर वापसी का मुकुल को ऐसा ईनाम देना चाहती हैं, जिसे देखकर सुवेन्दु (हिंदी में शुभेंदु) का दिल जले। अब तक पराए घर वालों यानी विरोधी दल को ही लोक लेखा समिति का अध्यक्ष बनाया जाता है। नया घर नापसंद कर मुकुल पुराने घर लौटे। खफा भारतीय जनता पार्टी ने विधानसभा अध्यक्ष को पाती भेजकर मुकुल राय की विधायकी खत्म करने की मांग की। ममता बनर्जी का दांव समझो। विधानसभा अध्यक्ष मुकुल की विधायकी समाप्त करने की मांग मानेंगे नहीं। ज्यादा जोर देने पर तृणमूल के सारे दलबदलुओं की सदस्यता पर बखेड़ा करेंगे। कुछ लोग हँसते-हँसते रुआंसे होंगे, कुछ रोते रोते ठहाका लगाएंगे।
खुजलाते हुए लोग और सहलाते हुए लोग
बागपत के चौधरी चरण सिंह ने प्रधानमंत्री की कुर्सी खोना पसंद किया परंतु संजय गांधी और विद्याचरण शुक्ल के खिलाफ मुकदमे वापस लेने की कांग्रेस की शर्त नहीं मानी। उनके पुत्र अजित सिंह विभिन्न पार्टियों की सरकार में मंत्री बनते रहे। महाभारतकालीन बागपत में राजनीतिक द्रौपदी का चीरहरण जारी है। उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने जिला पंचायत अध्यक्ष बनाने का लालच देकर दो महिलाओं का दल-बदल कराया। पहली सपा से दूसरी अजित सिंह के वारिस जयंत की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय लोकदल पार्टी से। दोनों को धमकाया-मानोगी तो कुर्सी मिलेगी, वरना जेल। दोनों ने कुर्सी की तरफदारी की। अध्यक्ष तो एक ही बनेगी। आखिरी दम पर सपा की दलबदलू को गाजे-बाजे के साथ नामांकन भराने ले गए। रालोद दलबदलू के पति के शरीर में चरण सिंह की आत्मा जागी। उसने कहा-भले हमें मार डालें लेकिन हम रालोद में रहेंगे। लखनऊ की तुलना में दिल्ली से बागपत नजदीक है। दल-बदल के गोरखधंधे में साधु-संन्यासी से क्या पूछना?
हँसो, तुम पर निगाह रखी जा रही है
लाशों का हिसाब और मौतों की जवाबदारी लेने वाले, अच्छा हुआ, आजादी के बाद पैदा नहीं होते। वरना लाल बहादुरों की भरमार होती। इन दिनों मरकर गंगा तट पहुंचने पर प्रतिबंध है। राजस्थान के अनेक व्यक्ति दिवंगत परिजन के अस्थि कलश गंगा में विसर्जित करते हैं। राजस्थान सरकार ने नि:शुल्क मोक्ष कलश बसों की सुविधा दी। पांच हजार से अधिक लोगों ने पंजीयन कराया। राजस्थान की अशोक गहलोत सरकार और उत्तरप्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार के बीच ऐसी ठनी कि अस्थि कलश गढ़मुक्तेश्वर और सौरोंजी नहीं पहुंच सके। उत्तराखंड के हरिद्वार उत्तर प्रदेश होकर जाना पड़ता है। इसलिए वहां भी नहीं जा सकते। धौलपुर के सांसद डॉ. मनोज राजोरिया योजना में दिलचस्पी ले रहे थे। उनकी पार्टी के मुख्यमंत्री ने राजस्थान परिवहन की बसों के प्रवेश पर रोक लगाई। श्मशान घाटों के लाकर में या पेड़ों पर पोटलियों में बंद अस्थि कलश सांसद मनोज राजोरिया को रघुवीर सहाय की कविता याद दिलाकर खिलखिलाते होंगे-हँसो, हँसो। हँसो अपने पर न हँसना।
(सभी शीर्षक रघुवीर सहाय की कविता हँसो हँसो से साभार)
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
-बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कल दो महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं। एक तो अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन से अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी और सीईओ डा. अब्दुल्ला की भेंट हुई और दूसरी घटना यह कि ‘न्यूयार्क टाइम्स’ में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान की लंबी भेंट-वार्ता छपी। उसमें अफगानिस्तान का केंद्रीय उल्लेख था। बाइडन से अफगान नेता अपना मनचाहा फायदा नहीं निकाल सके। अफगानिस्तान और पाकिस्तान, दोनों की सरकारें चाहती हैं कि अमेरिका सेना अफगानिस्तान में अभी टिकी रहें। 11 सितंबर को वापस न लौट जाएं।
यह पता नहीं चला कि अशरफ गनी और अब्दुल्ला ने इस सवाल पर कितना जोर लगाया। उनकी बातचीत के जो विवरण सामने आए हैं, उससे यही अंदाज लगता है कि यदि उन्होंने जोर लगाया भी होगा तो वह बेअसर रहा। बाइडन ने साफ-साफ कहा कि अफगान फौजों की वापसी तो होकर ही रहेगी। सिर्फ कुछ सौ जवान वहाँ टिके रहेंगे ताकि अमेरिकी राजदूतावास को सुरक्षा दे सकें। जहां तक काबुल हवाई अड्डे का सवाल है, उसकी सुरक्षा का जिम्मा तुर्की की सरकार ले ही रही है लेकिन अफगानिस्तान के सैकड़ों छोटे-मोटे जिलों का क्या होगा, इस बारे में बाइडन ने कहा कि अब अफगानिस्तान अपने पांवों पर खड़ा होगा। पिछले 20 साल से अमेरिका उसकी सुरक्षा कर रहा था लेकिन अब यह जिम्मेदारी अफगान फौज की होगी।
इसका अर्थ यह नहीं कि अमेरिका-अफगानिस्तान का साथ छोड़ देगा। वह उसकी पूरी मदद करेगा। उसकी सुरक्षा के लिए वह 3.3 बिलियन डाॅलर की मदद का भी इंतजाम कर रहा है। अफगानों को खुद तय करना है कि उनकी सुरक्षा कैसे होगी। वे उन अफगान नागरिकों को अमेरिका ले आएंगे, जो अमेरिका सेना के साथ सक्रिय थे और जिन्हें मार डालने के लिए तालिबान कटिबद्ध हैं। बाइडन की ये सब बातें काफी चिकनी-चुपड़ी लगती हैं लेकिन अमेरिका, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के कई विशेषज्ञों के साथ हुई मेरी बातचीत का नतीजा यह निकलता है कि अगले छह माह या साल भर में काबुल पर तालिबान का कब्जा हो जाएगा।
कई अफगान नेता मुझसे पूछ रहे थे कि वे शीघ्र ही भारत में आकर रहने लगें तो कैसा रहेगा ? उधर अफगान सरकार ने दावा किया है कि उसने तालिबान को छह जिलों से बेदखल कर दिया है। इमरान खान ने अपनी भेंट-वार्ता में कहा है कि अमेरिका अपनी वापसी के पहले अफगान-संकट का हल निकलवा देता तो बेहतर होता। दूसरे शब्दों में अमेरिका अफगानिस्तान को अधर में लटकता छोड़कर जा रहा है।
इमरान ने अमेरिकी वापसी के बाद उसे अपने हवाई अड्डों के इस्तेमाल की सुविधा देने से मना कर दिया है। इमरान ने इस बारे में एक शब्द भी नहीं कहा है कि अफगान-संकट के राजनीतिक समाधान में पाकिस्तान की भूमिका क्या होगी। मेरा मानना है कि यदि पाकिस्तानी फौज और इमरान खान हिम्मत करें तो अफगान-संकट का हल वे अमेरिका से भी बेहतर निकाल सकते हैं। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत में कोरोना की दूसरी लहर उतार पर दिखाई दे रही है लेकिन तीसरी लहर की आशंका तो बनी ही हुई है, उसके साथ डेल्टा और डेल्टा प्लस जीवाणु के फैलने का खतरा भी दिखाई पडऩे लगा है। डेल्टा प्लस जीवाणु काफी खतरनाक है। इसने अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों में दुबारा कोहराम मचा दिया है। भारत के 174 जिलों में यह पाया गया है। अभी दूसरी लहर का असर देश के 75 जिलों में 10 प्रतिशत और 92 जिलों में 5 प्रतिशत तक बना हुआ है।
यदि लोगों ने सावधानी नहीं बरती तो अन्य सैकड़ों जिलों में फैलते हुए इसे देर नहीं लगेगी। भारत के विभिन्न प्रांतों में अभी तक वैसे तो 48 मरीज़ इस नए जीवाणु के पाए गए हैं लेकिन यदि अमेरिका और ब्रिटेन जैसे सतर्क देशों में यह फैल सकता है तो भारत में तो इसके संक्रमण की गुंजाइश बहुत ज्यादा है। अमेरिका के ट्रंप-प्रशासन ने शुरु में काफी लापरवाही बरती, जिसके फलस्वरुप छह लाख से ज्यादा अमेरिकियों की जानें चली गईं लेकिन बाइडन-प्रशासन काफी सतर्कता का परिचय दे रहा है।
स्वयं राष्ट्रपति बाइडन कई शहरों में जाकर टीकाकरण अभियान का शुभारंभ करवा रहे हैं। उनकी सरकार अब हर घर तक पहुंचकर टीका लगा रही है। आस्ट्रेलिया ने कई शहरों में दुबारा तालाबंदी की घोषणा कर दी है। रुस में टीकाकरण की रफ्तार इतनी धीमी थी कि पूतिन-प्रशासन ने उसे कई क्षेत्रों के निवासियों के लिए अनिवार्य कर दिया है।
ब्रिटेन में यद्यपि ज्यादातर लोगों ने टीके लगवा लिये हैं लेकिन वहां भी डेल्टा के लगभग सवा लाख मरीज़ हो गए हैं। सच्चाई तो यह है कि भारत और कुछ इस्लामी देशों की तरह अमेरिका में भी यह अंध-अविश्वास फैला हुआ है कि कोरोना का टीका जो भी लगवाएगा, उसकी जिंदगी का दो साल में अंत हो जाएगा। यह बात इन देशों के कई मित्रों ने मुझे फोन पर बताई तो मैंने उनसे कहा कि ऐसे लोग बड़े भाग्यशाली हैं, क्योंकि उन्हें तो दो साल मिल रहे हैं और यहां तो पल भर की भी खबर नहीं है।
अपने यहां एक कहावत भी है कि 'सामान सौ बरस का और पल भर की खबर नहीं।Ó यह संतोष की बात है कि भारत में टीकाकरण की रफ्तार आजकल काफी तेज हो गई है और इस साल के अंत तक शायद 100 करोड़ लोगों को टीके लग जाएंगे। भारत के लोगों में फैले अंध-अविश्वास का खंडन तो इसी तथ्य से हो जाना चाहिए कि जिन लोगों ने दोनों टीके लगवा लिये हैं, उनमें से वे ही बहुत कम लोग कोरोना की चपेट में आए हैं, जो पहले से किन्हीं गंभीर रोगों से ग्रस्त थे। जिन लोगों ने दोनों टीके लगवा लिये हैं, उनसे भी अपेक्षा है कि वे मुंहपट्टी लगाए रखेंगे, शारीरिक दूरी बनाए रखेंगे और भीड़-भाड़ से बचते रहेंगे।
डेल्टा प्लस वैरिएंट क्या है, क्या ये कोरोना की तीसरी लहर की चेतावनी है..आइयें जानते है इसके सारे सवालों के जवाब
अभी तक ठीक से पता नहीं है कि दो टीकावाले लोगों पर ये डेल्टा और डेल्टा प्लस जीवाणु कितना असर करेगा ? इन जीवाणुओं की जांच का शुल्क प्रति व्यक्ति 10,000 रु. प्रति परीक्षण है। यदि यह फैल गया तो भारत जैसे देश के लोगों की हालत क्या होगी, इसका अंदाज हम लगा सकते हैं। भारत के लोग अपनी घरेलू औषधियों, काढों और प्राणायाम आदि से भी इस नए वायरस का मुकाबला करेंगे, जो अन्य देशों के लिए भी अनुकरणीय है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
लोकतंत्र के आदी रहे हांग कांग में मुसीबतें कम होने का नाम नहीं ले रही. राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत चीन को ऐसा औजार मिल गया है कि हांग कांग की लोकतांत्रिक व्यवस्था और मूल्यों पर चीनी निरंकुशता का साया गहराता जा रहा है.
डॉयचे वैले पर राहुल मिश्र का लिखा-
इस हफ्ते लोकतांत्रिक आंदोलन का पुरजोर समर्थन करने वाले एपल डेली को आर्थिक प्रतिबंधों के चलते बंद कर दिया गया. उसके पास अखबार को चलाते रहने का और कोई रास्ता नहीं बच गया था. फिर भी लोकतंत्र समर्थकों ने उम्मीद का दामन छोड़ा नहीं है. हांग कांग में लोकतंत्र के समर्थक साइबर ऐक्टिविस्टों ने अभी से यह ऐलान कर दिया है कि एपल डेली का प्रिंट प्रकाशन तो बंद हो रहा है लेकिन ब्लॉकचेन प्लेटफार्म पर इसका प्रकाशन जारी रहेगा. अगर ऐसा होता है तो यह एक साहसिक कदम होगा और इससे हांग कांग प्रशासन की सरदर्दियां भी बढ़ेंगी.
इंटरनेट पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अभी भी दुनिया भर की सरकारें मनचाहा नियंत्रण नहीं लगा सकी हैं. चीन में इंटरनेट पर जैसी पाबंदी है शायद कैरी लैम प्रशासन ऐसा ही कुछ हांग कांग में भी आजमाने जा रहा है. हांग कांग सरकार के इस कदम पर निराशा जताते हुए एपल डेली की पैत्रिक कंपनी नेक्स्ट डिजिटल लिमिटेड के डेविड वेब ने कहा है कि तेजी से पिछड़ रही हांग कांग की अर्थव्यवस्था पर ध्यान देने के बजाय हांग कांग प्रशासन पुलिसिया राज्य की तरह व्यवहार कर रहा है. एपल डेली के संस्थापक और लोकतांत्रिक आंदोलन के बहुचर्चित अगुआ जिमी लाई को उनके लोकतंत्र समर्थक मुखर रवैये की वजह से ही 10 अगस्त 2020 को गिरफ्तार कर लिया गया था. लाई अभी भी जेल में ही हैं.
सरकार और लोकतंत्र समर्थकों में खींचतान
ब्रिटेन से चीन को मिले हांग कांग में लोकतांत्रिक, अहिंसावादी और जनकेंद्रित आंदोलनों से निपटने में हांग कांग सरकार ने अभी तक दमनकारी नीतियों का ही सहारा लिया है. इस श्रृंखला में सबसे बड़ा कदम था पिछले साल 30 जून को लाया गया राष्ट्रीय सुरक्षा कानून. राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के आने के बाद से ही प्रदर्शनकारियों का दमन जारी है. जिस तरह से चीन समर्थक प्रशासन ने सिविल सोसायटी और लोकतंत्र के संस्थागत समर्थकों पर लगाम कसनने का रवैया अपना रखा है ऐसा लगता है कि इन दमनकारी नीतियों का दुश्चक्र न सिर्फ जारी रहेगा बल्कि इसके और गम्भीर होने की आशंकाएं भी हैं.
यह इस बात से भी स्पष्ट होता है कि 23 जून को ही एक बड़े कैबिनेट फेरबदल के तहत पूर्व पुलिसकर्मी और सुरक्षा सचिव जॉन ली को पदोन्नति देकर प्रशासनिक सचिव के पद पर बैठा दिया गया है. यह ली के कुर्सी संभालने का भी नतीजा था कि अगले ही दिन 24 जून को ली के निर्देशन में एपल डेली को सुरक्षा कानून का हवाला दे कर जबरन बंद कर दिया गया. ऐसा नहीं है कि कैरी लैम प्रशासन की यह हरकतें दुनिया की नजरों से छुपी हैं. अमेरिका और पश्चिम के तमाम देशों ने इसकी कड़ी निंदा की है.
असहाय अंतरराष्ट्रीय समुदाय
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने इसे मीडिया स्वतंत्रता के लिए एक दुःखद दिन की संज्ञा दी है. अपने बचाव में उतरते हुए चीनी सरकार ने बाइडेन की टिप्पणी को दुराग्रह से ग्रसित करार देते हुए कहा है कि हांग कांग प्रशासन सिर्फ हांग कांग और चीनी विरोधी और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बन चुके लोगों पर कार्रवाई कर रहा है. मानवाधिकार उल्लंघनों के आरोपी जॉन ली पर अमेरिका ने पहले ही प्रतिबंध लगा रखा है. दुःखद यह है कि हांग कांग में लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को उस कदर तोड़ा जा रहा है और अंतरराष्ट्रीय समुदाय इस बारे में कुछ खास करने में असमर्थ है.
निष्पक्ष और आम जनता की आवाज बनने वाला मीडिया ही किसी लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को मजबूत बनाता है. एपल डेली का बंद होना हांग कांग में चीन की बढ़ती दखलंदाजी का परिचायक भर नहीं है, यह हांग कांग की बरसों से संजोयी परंपरा और चीन की मुख्य भूमि से अलग शासन-समाज व्यवस्था के चरमराने का भी डरावना संकेत है. बरसों से चली आ रही वन चाइना नीति को तिलांजलि देने की चीन की कवायद हांग कांग पर खतम नहीं होगी. ताइवान और मकाऊ भी इसकी गिरफ्त में आयेंगे यह तय है. फिलहाल सवाल यही है कि हांग कांग को तेजी से चीन में मिलाने की नीति का अगला शिकार कौन होगा?
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं.) (dw.com)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जम्मू-कश्मीर के नेताओं से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संवाद काफी सार्थक रहा। इसे हम एक अच्छी शुरुआत भी कह सकते हैं। 22 माह पहले जब सरकार ने धारा 370 हटाई थी और इन नेताओं को गिरफ्तार कर लिया था, तब और अब के माहौल में जमीन-आसमान का अंतर आ गया है। जब इस संवाद की घोषणा हुई तो मेरे मन में दो शंकाएँ थीं। एक तो यह कि कुछ कश्मीरी नेता इसमें भाग लेने से ही मना कर देंगे। और यदि वे भाग लेंगे तो बैठक में बड़ा हंगामा होगा। कहा-सुनी होगी। बहिष्कार होगा।
लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, लेकिन उमर अब्दुल्ला जैसे दो-तीन नेताओं ने कहा कि यह संवाद बहुत शांति और मर्यादा से संपन्न हुआ। इसका कारण शायद यह भी रहा कि कश्मीर के दर्जे में इतने गंभीर परिवर्तन के बावजूद ये नेतागण कोई बड़ा आंदोलन खड़ा नहीं कर सके। इन्हें जेल में डाल दिया गया, इसके बावजूद कोई फर्क नहीं पड़ा। गिरफ्तार नेताओं में तीन पूर्व मुख्यमंत्री भी थे। डॉ. फारुक अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती। तीनों दिल्ली आए। चौथे पूर्व मुख्यमंत्री कांग्रेसी नेता गुलाम नबी आजाद भी इस संवाद में शामिल हुए। यह संवाद अगले विधानसभा चुनाव में चुनाव-क्षेत्रों के परिसीमन के लिए बुलाया गया था। लेकिन वास्तव में इसके बहाने कश्मीर में अब राजनीतिक प्रक्रिया का प्रारंभ हो गया है।
सरकार ने धारा 370 को वापिस ले आने का कोई संकेत नहीं दिया है। कश्मीरी पार्टियों के नेताओं ने अपनी इस मांग को उठाया जरुर लेकिन उसे ही एक मात्र मुद्दा नहीं बनाया। समझा जा रहा है कि जम्मू-कश्मीर में चुनाव पहले होंगे और उसे राज्य का दर्जा बाद में मिलेगा। मैं कहता हूं कि उसे चुनाव के पहले ही राज्य का दर्जा क्यों नहीं दे दिया जाए और राज्यपाल की देख-रेख में चुनाव क्यों नहीं करवा दिए जाएं?जहां तक धारा 370 का सवाल है, उसकी जगह धारा 371 के अन्तर्गत जम्मू-कश्मीर को कुछ विशेष सुविधाएं जरुर दे दी जाएं, जैसे कि उत्तराखंड, मिजोरम, नागालैंड आदि राज्यों को दी गई हैं।
गुलाम नबी आजाद की इस मांग को भी मान लेने में कोई बुराई नहीं है कि अब भी गिरफ्तार नेताओं को रिहा कर दिया जाए, पंडितों का पुनर्वास किया जाए और कश्मीरियों के रोजगार को सुरक्षित किया जाए। भारत के अन्य राज्यों की तरह कश्मीर को भी बराबरी का दर्जा मिले। न वह घटिया हो और न ही बढिय़ा! जहां तक पाकिस्तान का सवाल है, उसने हर तीर आजमा कर देख लिया है। उसे पता चल गया है कि कश्मीर पर अब उसका कोई दांव नहीं चल पाएगा। अब तो उसके कब्जे के कश्मीर पर बात होनी चाहिए। यदि दोनों कश्मीरों को मिला दिया जाए तो अब तक जो खाई थी, वह पुल बन सकती है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-रमेश अनुपम
जिन दिनों माधवराव सप्रे नागपुर से 'हिंदी ग्रंथ माला’ का प्रकाशन कर रहे थे, उन्हीं दिनों लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का पुणे से प्रकाशित होने वाला पत्र मराठी 'केसरी’ संपूर्ण महाराष्ट्र में राष्ट्रीय स्वाधीनता का अलख जगाए हुए था। माधवराव सप्रे तिलक के विचारों से और मराठी 'केसरी’ में प्रकाशित लेखों से बेहद प्रभावित थे, इसलिए उन्होंने नागपुर से 'हिंदी केसरी’ प्रकाशित करने की योजना पर काम करना प्रारंभ कर दिया। उन्होंने इसके प्रकाशन के लिए एक हिंदी केसरी परिवार की स्थापना की जिसमें जगन्नाथ प्रसाद शुक्ल, पंडित लक्ष्मीधर वाजपेई, पंडित लल्ली प्रसाद पांडेय, पंडित सिद्धि नाथ दीक्षित को शामिल किया।
'हिंदी केसरी’ का प्रथम अंक 13 अप्रैल सन 1907 में नागपुर से प्रकाशित हुआ।
'हिंदी केसरी’ के मुखपृष्ठ पर पंडित जगन्नाथ शुक्ल के संस्कृत श्लोक का आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा किया गया पद्यमय हिंदी अनुवाद प्रकाशित होता था :
'स्वामी कुंजर वृंद के इस घने कांतार के भीतर
रे एक क्षण भी न तू ठहरना
उन्माद में आकर
हाथी जान, शिला विदीर्ण करके
पैने नखों निरी
सोता है गिरी गर्भ में यह यही
भीमाकृति केसरी'
केसरी का अर्थ सिंह होता है। सिंह को छेड़ना घातक होता है। तात्पर्य यह कि भारत एक सोये हुए सिंह की तरह हैं जिसे अधिक दिनों तक गुलाम बनाकर नहीं रखा जा सकता है।
यह एक तरह से ब्रिटिश हुकूमत के लिए ललकार थी। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक इसे मूल संस्कृत में अपने ' केसरी ’ में पहले से ही प्रकाशित करते चले आ रहे थे।
इसके कुछ ही दिनों बाद आखिर कार जिसका डर था वही सच साबित हुआ । हिंदी केसरी ’ में प्रकाशित लेखों को आधार बनाकर ब्रिटिश हुकूमत ने 22 अगस्त सन 1908 को माधवराव सप्रे को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। ब्रिटिश हुकूमत ने आई.पी.सी. की धारा 124 (अ) के तहत उन्हें गिरफ्तार कर लिया था।
उनसे पहले 3 जुलाई 1908 को लोकमान्य बालगंगाधर तिलक दुबारा पुणे में गिरफ्तार कर लिए गए थे। ' केसरी ' और ' हिंदी केसरी ' दोनों पर एक साथ गाज गिर चुकी थी। दोनों ही अपने लेखों और विचारों के कारण ब्रिटिश हुकूमत की आंख की किरकिरी बन चुके थे।
सन 1897 में तिलक पहले भी गिरफ्तार किए जा चुके थे तथा बर्मा ( म्यांमार ) स्थित मांडले की जेल में 18 महीने की सजा भुगत चुके थे। इस बार भी उन्हें गिरफ्तार कर मांडले की जेल में भेज दिया गया था।
इधर पहले से ही अस्वस्थ माधवराव सप्रे की हालत नागपुर जेल में बिगड़ती चली गई। जेल में उनकी खुराक कम होती जा रही थी, उनका वजन भी लगातार घटता जा रहा था। इसके बाद भी माधवराव सप्रे विचलित नहीं हुए।
मित्र और परिवार के लोग उन पर दबाव बनाने लगे कि वे माफी मांग कर जेल से छूट जाएं। उनके मित्र और वकील वामनराव बलिराम लाखे जो उनके साथ ' छत्तीसगढ़ मित्र’ में भी प्रोप्राइटर रह चुके थे, वे भी चाहते थे कि माधवराव सप्रे माफीनामा में दस्तखत कर जेल से छूट जाएं।
वामन बलीराम लाखे नागपुर जाकर और इंस्पेक्टर जनरल ऑफ पुलिस से मिलकर माफीनामा का एक ड्राफ्ट पहले ही तैयार कर चुके थे। माधवराव सप्रे के अन्य मित्र केशवराव पाध्ये और माधवराव पाध्ये भी उनकी लगातार बिगड़ती हुई शारीरिक स्थिति को देखकर चिंतित थे, वे भी चाहते कि माधवराव सप्रे माफीनामा में दस्तखत कर जेल से बाहर निकल जाएं।
पर माधवराव सप्रे उनकी बातों को मानने के लिए तैयार ही नहीं थे। वे किसी भी कीमत में अंग्रेजों से माफी मांगकर जेल से छूटने के लिए तैयार नहीं थे
(शेष अगले हफ्ते)
चीन ने सिचुआन-तिब्बत रेलवे के 435 किलोमीटर लंबे ल्हासा-निंग्ची सेक्शन में बुलेट ट्रेन का संचालन शुरू कर दिया है. पहली जुलाई को सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी के शताब्दी समारोहों से पहले इसकी शुरुआत की गई है.
डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी की रिपोर्ट-
भारत पर दबाव बढ़ाने की अपनी रणनीति के तहत चीन ने पूर्वोत्तर सीमा पर अपनी गतिविधियां बढ़ा दी हैं. वह कभी भूटान की जमीन के अपनी होने का दावा करता है, तो कभी अरुणाचल प्रदेश से सटे इलाके में बड़े पैमाने पर बांध, सड़क और रेलवे समेत कई आधारभूत परियोजनाओं का निर्माण कार्य तेज कर देता है.
निंग्ची का यह इलाका अरुणाचल प्रदेश से एकदम सटा है. सामरिक विशेषज्ञों का कहना है कि दोनों देशों में गलवान घाटी की तरह तनाव की स्थिति में चीन बहुत कम समय में अपनी सेना और सैन्य साजो-सामान इस ट्रेन के जरिए सीमा पर पहुंचा सकता है. चीन अरुणाचल प्रदेश को दक्षिण तिब्बत का हिस्सा बताता है. लेकिन भारत इस दावे का पुरजोर विरोध करता रहा है.
47.8 अरब अमेरिकी डॉलर की लागत
सिचुआन-तिब्बत रेलवे की शुरुआत सिचुआन प्रांत की राजधानी चेंगदू से होगी और यान से गुजरते हुए तिब्बत में प्रवेश करेगी. इससे चेंगदू से ल्हासा की दूरी 48 घंटे से कम होकर 13 घंटे रह गई है. सिचुआन-तिब्बत रेलवे किंघाई-तिब्बत रेलवे के बाद तिब्बत में दूसरी रेलवे होगी. यह किंघाई-तिब्बत पठार के दक्षिण-पूर्व क्षेत्र से होकर गुजरेगी जो भूगर्भीय रूप से विश्व के सबसे सक्रिय क्षेत्रों में से एक है.
नवंबर में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने इस रेलवे परियोजना का काम शीघ्र पूरा करने का निर्देश दिया था. उनका कहना था कि नई रेल लाइन सीमा पर स्थिरता कायम रखने में अहम भूमिका निभाएगी. इस रेलवे परियोजना पर करीब 47.8 अरब अमेरिकी डॉलर लागत आई है.
चीन के सरकारी अखबार ग्लोबल टाइम्स में छपी खबर के मुताबिक, इस रूट पर कुल 26 स्टेशन हैं और इस पर बिजली से चलने वाले इंजन की सहायता से ट्रेनें 160 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चल सकेंगी. उक्त परियोजना जिस इलाके में बनी है वह भौगोलिक रूप से बेहद दुर्गम लेकिन सामरिक रूप से उतनी ही अहम है. इलाके में कई जगह इसकी पटरियां समुद्र तल से 15 हजार फीट की ऊंचाई से गुजरेंगी.
चीन पहले ही तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र में सड़कों का जाल बिछा चुका है. तीन साल पहले 2018 में उसने ल्हासा और निंग्ची के बीच 5.8 अरब अमेरिकी डॉलर से बनी 409 किलोमीटर लंबे एक्सप्रेस का उद्घाटन किया था. उसकी वजह से इन दोनों शहरों के बीच आवाजाही करने में अब आठ की जगह पांच घंटे ही लगते हैं. चीन ने वहां एयरपोर्ट भी बना रखा है.
खतरे की घंटी?
विशेषज्ञों चीन की इस रेल परियोजना को भारत के लिए खतरे की घंटी बता रहे हैं. पूर्वोत्तर स्थित अरुणाचल प्रदेश पर तो चीन की निगाहें शुरू से ही रही हैं. वह अरुणाचल को भारत का हिस्सा मानने से इंकार करता रहा है और उसे दक्षिण तिब्बत का हिस्सा बताता रहा है.
इसी वजह से प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और दूसरे शीर्ष मंत्रियों और अधिकारियों के अरुणाचल दौरे पर वह विरोध भी जताता रहा है. कुछ साल पहले उसने अरुणाचल प्रदेश के लोगों को स्टेपल वीजा जारी किया था. तब इस पर काफी विवाद हुआ था.
इस रेलवे सेक्शन पर चीन ने हाल में ही सामरिक रूप से बेहद अहम एक रेलवे ब्रिज का काम पूरा किया था. अरुणाचल में सियांग कही जाने वाली ब्रह्मपुत्र नदी पर बना 525 मीटर लंबा यह ब्रिज नियंत्रण रेखा से महज 30 किलोमीटर दूर है.
अंतरराष्ट्रीय संबंधों के विशेषज्ञ डॉ. डीसी रायचौधुरी कहते हैं, "डोकलाम और खासकर गलवान में हुए विवाद के बाद चीन ने अचानक देश की पूर्वोत्तर सीमा पर अपनी गतिविधियां बढ़ा दी हैं. उन इलाकों में इंसानी बस्तियों के अलावा रेलवे व सड़क परियोजनाएं तेजी से बनाई जा रही हैं."
सामरिक विशेषज्ञ जीवन कुमार भुइयां कहते हैं, "यह रेल परियोजना चीन के लिए सामरिक तौर पर काफी अहम है. वह पहले से ही अरुणाचल प्रदेश को दक्षिण तिब्बत का हिस्सा मानता रहा है. अब सीमा के करीबी शहर तक पहुंचने वाली रेलवे लाइन और दूसरे निर्माण कार्यों के जरिए वह भारत पर दबाव बढ़ाने की रणनीति पर आगे बढ़ रहा है." (dw.com)
कोरोना महामारी ने भारतीय समाज को आर्थिक तौर पर काफी ज्यादा प्रभावित किया है. महामारी की वजह से देश में बाल विवाह के मामले तेजी से बढ़े हैं. खर्च से बचने के लिए, लोग कम उम्र में ही बेटियों की शादी कर रहे हैं.
डॉयचे वैले मुरली कृष्णन की रिपोर्ट-
पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद की रहने वाली 15 साल की नीलम की मई में शादी हुई है. यह शादी बंगाल में यास चक्रवात आने के ठीक कुछ दिनों पहले हुई. नीलम के परिवार वाले पहले से ही महामारी की वजह से परेशान थे. वे जानते थे कि चक्रवात की वजह से भी उनका काफी नुकसान होगा. इसलिए, उन्होंने चक्रवात के पहले ही बेटी की शादी करने का फैसला लिया.
पश्चिम बंगाल भारत के उन पांच राज्यों में से एक है जहां कम उम्र में शादी करने का प्रचलन सबसे अधिक है. पूरे देश में 12 प्रतिशत लड़कियों की शादी 15 से 19 साल की उम्र में कर दी जाती है. वहीं, बंगाल में यह दर 25.6 प्रतिशत है.
कोलकाता में जबला एक्शन रिसर्च ऑर्गनाइजेशन में काम करने वाली बैताली गांगुली ने डॉयचे वेले को बताया, "राज्य में ऐसे परिवारों की संख्या काफी ज्यादा है जिनकी जिंदगी दिहाड़ी मजदूरी पर निर्भर है. कोविड की वजह से इन्हें काम मिलना बंद हो गया. इन्हें काफी ज्यादा आर्थिक संकट से गुजरना पड़ रहा है.”
मदद मांगने वाली लड़कियां बढ़ीं
बाल अधिकार संगठन का कहना है कि पूरे राज्य में, खासकर ग्रामीण इलाकों में बाल विवाह के मामले काफी तेजी से बढ़े हैं जो चिंताजनक हैं. बाल अधिकारों के लिए काम करने वाले कार्यकर्ता बिपल्ब मंडल ने डॉयचे वेले को बताया, "हमने महामारी के दौरान बाल-विवाह के कई मामलों को रोकने की कोशिश की. कई बार हम अपने प्रयास में सफल भी हुए, लेकिन एनजीओ के हस्तक्षेप के अलावा भी बहुत कुछ करने की जरूरत है.”
दक्षिण भारत स्थित राज्य तेलंगाना में बाल सुरक्षा हेल्पलाइन पर आने वाले कॉल की संख्या काफी बढ़ गई है. कई लड़कियां राज्य के अधिकारियों से मदद मांग रही हैं. उनका कहना है कि उनके माता-पिता उन्हें शादी के लिए मजबूर कर रहे हैं.
फरवरी 2019 से मार्च 2020 तक, सरकार की तरफ से संचालित महिला विकास और बाल कल्याण विभाग ने राज्य में बाल विवाह के 977 मामले रोके. महामारी की शुरुआत के बाद से यह संख्या बढ़कर 1355 तक पहुंच गई है. स्फूर्ति फाउंडेशन एनजीओ के निदेशक श्रीव्याल वुय्युरि ने डीडब्ल्यू से कहा, "यह आधिकारिक आंकड़ा है. आप खुद अनुमान लगा सकते हैं कि ऐसे कितने मामले होंगे जिनकी रिपोर्ट दर्ज नहीं की गई होगी.”
कोरोना की दूसरी लहर के दौरान, भारत में इस साल अप्रैल और मई महीने में एक दिन में चार लाख से ज्यादा मामले दर्ज किए गए. हालांकि, अब यह संख्या एक दिन में करीब 50 हजार तक पहुंच गई है. मामले कम होने पर देश के अलग-अलग हिस्सों में लागू किए गए प्रतिबंधों में छूट दी जा रही है. हालांकि, विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि कोरोना पर पूरी तरह से नियंत्रण पाने में भारत को अभी लंबा सफर तय करना होगा.
बाल-विवाह के ज्यादा मामले
नाइजर, गिनी, दक्षिण सूडान, चाड और बुर्किना फासो के साथ, भारत दुनिया के कुछ उन देशों में से है जहां बाल विवाह को व्यापक तौर पर सामाजिक स्वीकृति मिली हुई है. इसकी मुख्य वजह गरीबी, कानून का सही तरीके से पालन न होना, पारिवारिक सम्मान से जुड़ी चिंता, और पितृसत्तात्मक समाज है. हालांकि, 2001 के बाद से देश में बाल-विवाह के मामलों में कमी आनी शुरू हुई है. इसके बावजूद, 2011 की जनगणना की रिपोर्ट से पता चलता है कि देश में हर तीन में एक महिला की शादी 18 साल से कम उम्र में हुई है. यह समस्या ग्रामीण इलाकों में सबसे अधिक है जहां भारत की दो-तिहाई आबादी रहती है.
भारत में डेटा जर्नलिज्म की शुरुआत करने वाले IndiaSpend की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के 13 राज्यों के 70 जिलों में बाल-विवाह के ‘सबसे ज्यादा मामले' दर्ज किए गए हैं. देश में होने वाले बाल-विवाह के कुल मामलों में 21 प्रतिशत मामले इन जिलों में दर्ज किए गए हैं.
बाल-विवाह के मामलों में लैंगिक असमानता भी काफी ज्यादा देखने को मिलती है. लड़कों की तुलना में लड़कियां बाल-विवाह से सबसे ज्यादा प्रभावित होती हैं. इससे बच्चों के अधिकारों का भी उल्लंघन होता है. विशेषज्ञ कहते हैं कि कम उम्र में शादी होने की वजह से महिलाओं के शारीरिक और मानसिक विकास पर असर होता है. वे कुपोषण का शिकार हो सकती हैं.
हालांकि, सरकार ने बाल विवाह को रोकने के लिए 2006 में बाल विवाह निषेध अधिनियम बनाया था, लेकिन यह नियम धरातल पर पूरी तरह लागू नहीं हो पाया. जमीनी हकीकत बिल्कुल अलग है. भारत में बाल अधिकार की सर्वोच्च ईकाई राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) के अनुसार, भारत के शहरी इलाकों में भी कम उम्र में विवाह के मामले बढ़ रहे हैं, खासकर लड़कियों के.
कोरोना महामारी में तेजी से बढ़े मामले
बाल अधिकारों के लिए काम करने वाली कार्यकर्ता एनाक्षी गांगुली ने डॉयचे वेले से कहा, "महामारी के दौरान बाल विवाह की संख्या आसमान छू रही है. हमारा मानना है कि ऐसा गरीबी, असुरक्षा, लैंगिक असमानता और कानून का पूरी तरह पालन न होने की वजह से हो रहा है.” कार्यकर्ताओं का कहना है कि आर्थिक तौर पर कमजोर माता-पिता कम उम्र में ही अपनी बेटी की शादी कर देते हैं, ताकि वे बेटी के लालन-पालन में होने वाले खर्च से बच जाएं.
राजस्थान स्थित ‘महिला जन अधिकार समिति' संस्था महिला सशक्तिकरण के लिए काम करती है. इसकी संस्थापक इंदिरा पंचोली कहती हैं, "शहर हो या गांव, जहां भी लड़कियों को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया जाता वहां बाल-विवाह ज्यादा होते हैं. इसके नतीजे काफी नुकसानदायक होते हैं.”
कार्यकर्ताओं का कहना है कि कम उम्र में शादी की वजह से लड़कियां अपने मौलिक अधिकारों से वंचित रह जाती हैं. उनका बचपना छिन जाता है. ज्यादातर मामलों में, शादी होते ही उनका स्कूल छूट जाता है. कम उम्र में गर्भ धारण होने से उनके स्वास्थ्य पर गंभीर असर पड़ता है. साथ ही, यौन शोषण होने का जोखिम बढ़ जाता है.
भारत में यूनिसेफ के प्रतिनिधि यासमीन अली हक ने डॉयचे वेले को बताया, "कोविड 19 की वजह से भारत में बाल-विवाह के बढ़ते मामले को लेकर हम चिंतित हैं. महामारी की वजह से स्कूल बंद हो गए हैं, आर्थिक तौर पर लोगों को काफी नुकसान हुआ है, और सामाजिक सेवाओं में रुकावटें पैदा हो रही हैं. इन सारी वजहों से बाल-विवाह के खतरे बढ़ सकते हैं.” हक ने जोर देकर कहा कि जिला स्तर पर मौजूद निकायों को सशक्त बनाया जाना चाहिए, ताकि अधिकारी तेजी से कार्रवाई कर सकें और बाल विवाह को रोक सकें.
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