विचार/लेख
विश्लेषण से पता चला कि हवा से भोजन उगाना जमीन में सोयाबीन उगाने की तुलना में 10 गुना अधिक कुशल और फायदेमंद है। उत्पादित प्रोटीन में कैलोरी मकई, गेहूं और चावल जैसी अन्य फसलों की तुलना में दोगुनी थी।
-दयानिधि
दुनिया भर में लगातार भोजन की मांग को पूरा करने के लिए भूमि का बेहताशा उपयोग किया जा रहा है। यहां तक की विश्व में लाखों वर्ग किलोमीटर जंगलों को फसल उगाने के लिए नष्ट कर दिया गया है और यह बढ़ती मांग के आधार पर जारी है। जंगलों में निवास करने वाली हजारों प्रजातिया या तो विलुप्त हो चुकी हैं या विलुप्ति के कगार पर हैं।
वैज्ञानिक अब भोजन की इस बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए नए-नए प्रयोग कर रहे हैं। इसी क्रम में उन्होंने सूक्ष्मजीवों (माइक्रोबियल बायोमास) की खेती का सुझाव दिया है, जिनमें प्रोटीन के साथ-साथ अन्य पोषक तत्वों की प्रचुर मात्रा पाई जाती है। इन्हें हवा में भोजन के रूप में उगा कर, हवा में भोजन उगाने की सोच को साकार किया है। ताकि भूमि के बेहताशा उपयोग से बचा जा सके और पर्यावरण को भी नुकसान न पहुंचे साथ ही यह तरीका खाद्य सुरक्षा को पूरा करने में अहम भूमिका निभा सकता है।
शोधकर्ताओं की एक टीम ने पाया कि हवा से भोजन बनाना फसलों को उगाने की तुलना में कहीं अधिक फायदेमंद है। टीम ने अपने विश्लेषण में फसलों को उगाने की तुलना में हवा की तकनीक से भोजन बनाने का वर्णन किया है। इन फसलों में मुख्य रूप से सोयाबीन उगाने की तुलना की गई है। यह शोध मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट ऑफ मॉलिक्यूलर प्लांट फिजियोलॉजी, यूनिवर्सिटी ऑफ नेपल्स फेडेरिको- द्वितीय, वीजमैन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस और पोर्टर स्कूल ऑफ द एनवायरनमेंट एंड अर्थ साइंसेज ने मिलकर किया है।
कई वर्षों से, दुनिया भर के शोधकर्ता ‘हवा से भोजन’ उगाने के बारे में विचार कर रहे हैं। इसमें अक्षय ऊर्जा को हवा में मौजूद कार्बन के साथ मिलाकर एक तरह के बैक्टीरिया के लिए भोजन तैयार किया जाता है जो खाने लायक प्रोटीन बनाते हैं।
इसी तरह की एक परियोजना फिनलैंड में सौर भोजन के नाम से प्रचलित है, जहां शोधकर्ताओं ने 2023 तक एक संयंत्र बनाने का लक्ष्य रखा है। इस नए प्रयास में, शोधकर्ताओं ने हवा से भोजन बनाने के साथ-साथ मुख्य फसल के रूप में सोयाबीन उगाने की क्षमता की तुलना करने का लक्ष्य रखा है।
इसकी तुलना करने के लिए, शोधकर्ताओं ने हवा से भोजन बनाने की एक प्रणाली का उपयोग किया है। यह बिजली बनाने के लिए सौर ऊर्जा पैनलों का उपयोग करता है। यह बायोरिएक्टर में उगाए जाने वाले सूक्ष्मजीवों के लिए भोजन का उत्पादन करने के लिए हवा से कार्बन डाइऑक्साइड का उपयोग करता है।
इस प्रक्रिया में सूक्ष्मजीवों द्वारा प्रोटीन का उत्पादन किया जाता है। इसके बाद उत्पादित प्रोटीन में से न्यूक्लिक एसिड को हटाने के लिए इसका उपचार किया जाता है। फिर मनुष्यों और जानवरों द्वारा खाने के रूप में इसका इस्तेमाल करने के लिए पाउडर बनाकर इसे सुखाया जाता है। यह शोध प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज में प्रकाशित हुआ है।
उन्होंने इस प्रणाली की क्षमता और निपुणता की तुलना 10 वर्ग किलोमीटर के सोयाबीन के खेत से की। उनके विश्लेषण से पता चला कि हवा से भोजन उगाना जमीन में सोयाबीन उगाने की तुलना में 10 गुना अधिक कुशल और फायदेमंद था। उन्होंने सुझाव दिया कि अमेज़ॅन में सोयाबीन उगाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली 10 वर्ग किलोमीटर भूमि को हवा से भोजन उगाने के लिए एक वर्ग किलोमीटर भूमि में परिवर्तित किया जा सकता है।
अन्य 9 वर्ग किलोमीटर में जंगलों के विकास को फिर से लौटाया जा सकता है। उन्होंने इस बात का भी खुलासा किया है कि हवा से भोजन बनाने के तरीके में उत्पादित प्रोटीन में कैलोरी मकई, गेहूं और चावल जैसी अन्य फसलों की तुलना में दोगुनी थी। (downtoearth.org.in)
देश के विभिन्न क्षेत्रों से हो रहे पलायन के पीछे जल संकट किसी न किसी रूप में एक कारक है और जलवायु परिवर्तन का बढ़ता प्रभाव इसे और कठिन चुनौती बना सकता है।
-हृदयेश जोशी
इसे अच्छा कहें या बुरा लेकिन पिछले साल की तरह इस बार भी कोरोना महामारी के कारण हिल स्टेशनों पर पर्यटकों का दबाव कम रहा जिससे वहां पानी की खास किल्लत नहीं हुई। इससे स्थानीय लोगों के रोज़गार पर चोट ज़रूर पड़ी है लेकिन हर साल अचानक बढ़ी आबादी से जल संसाधनों पर जो दबाव दिखता है वह नहीं दिख रहा। मिसाल के तौर पर इस साल अप्रैल और मई में लॉकडाउन के कारण हिल स्टेशन सूने रहे लेकिन पाबंदियां हटते ही हिमाचल प्रदेश के पहाड़ों पर पर्यटकों की चहल-पहल साफ दिख रही है।
जल संकट पहाड़ों की नहीं बल्कि पूरे देश की समस्या है। दो साल पहले इसी वक्त चेन्नई में डे-ज़ीरो की स्थिति को कौन भूल सकता है जब करीब 1 करोड़ की आबादी वाले इस मेट्रो शहर के 4 में 3 जलाशय बिल्कुल सूख गये और चौथा समाप्ति की कगार पर था। भारत के तमाम हिस्सों में पानी की समस्या बढ़ रही है। पानी नहीं होता और अगर मिलता है वह कई बार प्रयोग करने लायक नहीं होता। पीने योग्य तो कतई नहीं। पानी की कमी के कारण खेती पर विपरीत असर पड़ता है और देश के कई हिस्सों में लोग कृषि से विमुख हो रहे हैं और रोज़गार के लिये दूसरी जगह पलायन कर रहे हैं।
जलवायु परिवर्तन, गरीबी और समानता के मुद्दे पर काम करने वाले संगठन क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क साउथ एशिया और एक्शन एड ने हाल ही में रिपोर्ट प्रकाशित की है जिसमें देश के 5 अलग-अलग क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन प्रेरित पलायन का अध्ययन किया गया है। शोध क्षेत्रों में सुंदरवन (पश्चिम बंगाल), बीड (महाराष्ट्र), केंद्रपाड़ा (ओडिशा), अल्मोड़ा (उत्तराखंड), सहरसा (बिहार) शामिल हैं। इस रिपोर्ट में पाया गया कि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जल संकट पलायन और लोगों के जीवन स्तर पर प्रतिकूल प्रभाव की एक वजह है।
तटों की समस्या
मिसाल के तौर पर सुदूर पूर्व में कई नदियों के मुहाने पर बसे सुंदरवन जल संकट एक अलग ही रूप में दिखता है। पानी की कमी तो नहीं लेकिन जलवायु परिवर्तन से बढ़ते समुद्र जल स्तर के कारण यहां खेतों में खारा पानी भर रहा है जिससे कृषि संभव नहीं है। यह समस्या सुंदरवन से हो रहे पलायन का एक कारण है।
भारत की पूर्वी तटरेखा चक्रवातों का शिकार रही है और ये साइक्लोन खारे पानी को भीतरी हिस्सों में भर कर कृषि भूमि को बर्बाद कर देते हैं। रिपोर्ट याद दिलाती है कि चक्रवात अब पूर्व की ओर खिसक रहे हैं और इनकी अधिकतम मार अब उत्तरी उड़ीसा और पश्चिम बंगाल के सुंदरवन क्षेत्र में है। तटीय इलाकों में समुद्री जल के भीतर आने की समस्या ओडिशा के केंद्रपाड़ा में भी दिखती है।
बंगाल की खाड़ी के निकट सातभाया (सात गांवों का एक समूह) के एक हज़ार से अधिक निवासी विस्थापित हो चुके हैं। जानकार कहते हैं कि जिस तरह से समुद्र जल स्तर बढ़ रहा है और चक्रवातों की मार बढ़ रही है। सातभाया ग्राम समूह के बाकी लोगों को भी ये जगह छोड़नी ही होगी। जाधवपुर विश्वविद्यालय से जुड़े समुद्र विज्ञानियों ऋतुपर्णा हजरा और तुहिन घोष ने सुंदरवन के पश्चिमी हिस्से पर एक शोध किया जो बताता है कि 1991 से 2011 के बीच यहां कृषि उत्पादकता 32 प्रतिशत घटी है।
घोष कहते हैं कि पूरे सुंदरवन के 70% से अधिक परिवार बेहतर जीविका की तलाश में बाहर चले गये हैं। इनमें से 25 से 30% पश्चिम बंगाल के बाहर गये हैं। इसी तरह चक्रवातों की एक श्रृंखला — जिसमें 1971 का एक चक्रवात, 1999 का सुपर साइक्लोन, 2013 में फाइलिन, 2014 में हुदहुद, 2019 में फणी और बुलबुल — ने लगातार और नियमित रूप से ओडिशा की तटरेखा से लगे इलाकों को बर्बाद किया है और निवासियों के कृषि तथा मछली पालन पर आधारित आजीविका पैटर्न को नष्ट किया है। ज़ाहिर है कई क्षेत्रों में 40 से 50 प्रतिशत तक लोग रोज़गार के लिये पलायन कर चुके हैं।
बारिश का बदलता पैटर्न
इसी तरह बार-बार सूखे के लिये बदनाम महाराष्ट्र के मराठवाड़ा में बीड़ ज़िले का हाल देखिये। रिपोर्ट बताती है कि उत्तरपूर्वी मानसून के दौरान बारिश के दिनों की संख्या में हाल के वर्षों में कमी आई है। इसलिये 2004-2018 के दौरान अक्टूबर और नवम्बर के महीनों में बारिश के दिनों की संख्या पहले के वर्षों (1989-2003) के मुकाबले कम थी। पिछले 30 में से 17 साल ऐसे रहे जब सालाना औसतन वर्षा की मात्रा उस अवधि के लिए सामान्य स्तर से कम रही।
यहां स्थानीय निवासी बताते हैं कि 2013, 2016 और 2018 भयंकर सूखे के साल थे। इन वर्षों में भारी संख्या में परिवार काम की तलाश में पलायन कर गए। बेमौसम बारिश और अनावृष्टि के कारण फसल की मात्रा और गुणवत्ता कम होती है। कीड़े लगने और मुरझाने के कारण भी फसल खराब होती है।
उधर पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में स्थितियां कुछ भिन्न हैं। यहां रोज़गार की कमी के अलावा शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी समस्या पलायन का प्रमुख कारण रही हैं। इस पर लगातार कम होती बारिश से पशुपालन और कृषि दोनों ही कार्य कठिन हो गये हैं। पहाड़ी ज़िलों में 60% लोग खेती पर निर्भर हैं। तापमान में बढ़ोतरी और बरसात में कमी का ट्रेन्ड साफ दिख रहा है।
उत्तराखंड में पिछले 100 साल का वर्षा और तापमान के आंकड़ों का विश्लेषण बताता है कि इस क्षेत्र में बरसात का ग्राफ गिरा है। वैसे 1970 के बाद बदलाव का ग्राफ तेज़ हुआ है। भले ही बरसात में कुल कमी की सालाना दर बहुत कम है फिर भी यह जल संसाधनों पर भारी दबाव डाल रही है। शोध बताता है कि पिथौरागढ़, बागेश्वर, अल्मोड़ा, नैनीताल और चम्पावत जिलों में यह समस्या सबसे अधिक है।
उत्तराखंड राज्य के क्लाइमेट एक्शन प्लान के मुताबिक, “बारिश के ग्राफ में जलवायु परिवर्तन से प्रेरित बदलावों ने कृषि उत्पादकता में अनिश्चितता बढ़ा दी है और बार-बार फसल बर्बाद होने से लोगों की रुचि खेती में खत्म हो रही है। श्रम आधारित पहाड़ी खेती करना मुमकिन नहीं रहा और क्षेत्र में खाद्य असुरक्षा का संकट बढ़ रहा है। इस असर है कि कभी खेती से समृद्ध बड़े-बड़े भूभाग अब बंजर दिखाई देते हैं। इस प्रकार जलवायु परिवर्तन का असर पर्वतीय कृषि, विविधता और जनहित पर पड़ रहा है”
ज़ाहिर है ऐसे में राज्य से पलायन की रफ्तार बढ़ी है। पूरे राज्य में आज करीब 1,800 गांव ‘भुतहा’ (घोस्ट विलेज) घोषित कर दिये गये हैं। ये ऐसे गांव हैं जहां या तो कोई परिवार नहीं रहता या इक्का दुक्का लोग छूट गये हैं जो कहीं जा नहीं सकते।
सूखा और बाढ़ की मार एक साथ
बिहार के 38 में से 28 ज़िले बाढ़ प्रवृत्त (फ्लड प्रोन) कहे जाते हैं। क्लाइमेट चेंज के कारण कई बार इन्हीं इलाकों को लंबे सूखे का सामना करना पड़ रहा है। मानसून में अकस्मात् परिवर्तनों के कारण यहां एक ही वर्ष में – कभी-कभी एक ही जिले में – बाढ़ और सूखा दोनों देखने को मिलते हैं, जिसके कारण बड़े पैमाने पर फसल नष्ट होती है और गरीबी बढ़ती है।
सहरसा, मधेपुरा, सुपौल और दरभंगा आदि ज़िलों की गिनती राज्य के सर्वाधिक गरीब जिलों में होती है। साल 2011 की जनगणना के मुताबिक सहरसा जिले की 90 प्रतिशत से अधिक आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती है और यहां मूलभूत सुविधाओं की भारी कमी है। ऐसे में निरंतर बाढ़ (और कई बार सूखा और बाढ़) ने जिले की फसल पैदावार को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। जिसके कारण लोगों को आजीविका के लिए दिल्ली, पंजाब, कोलकाता और मुंबई जैसी जगहों पर पलायन करना पड़ता है।
भारत के लिये खतरे की घंटी
जलवायु परिवर्तन के बढ़ते असर के कारण मौसमी अनिश्चिततायें बढ़ रही हैं जिसका सीधा असर कृषि और खाद्य सुरक्षा पड़ेगा। जीडीपी के गिरते ग्राफ और बढ़ती बेरोज़गारी को देखते हुये यह और भी चिन्ता का विषय है। इस लिहाज से भारत के लिये आपदा प्रभावित इलाकों में प्रभावी कदम उठाने होंगे। जल संचयन के तरीकों के साथ पानी के स्रोतों को पुनर्जीवित करने, जंगलों को बचाने, तटीय इलाकों में मैंग्रोव संरक्षण और सिंचाई के आधुनिक तरीके इसमें मददगार हो सकते हैं।
पलायन हमेशा मजबूरी में या परेशानी में उठाया गया कदम नहीं होता। कई बार लोग तरक्की के लिये स्वेच्छा से पलायन करते हैं। पलायन कई बार अनुकूलन (एडाप्टेशन) के रूप में भी देखा जाता है लेकिन जिन इलाकों से लोगों को हटाया जा रहा है उन्हें बसाने के लिये ऐसी जगहें ढूंढना भी चुनौती है जहां उन्हें रोज़गार मिले और वह फिर से विस्थापन को मजबूर न हों।
(डिस्क्लेमर – हृदयेश जोशी भारत में जलवायु परिवर्तन प्रेरित विस्थापन और पलायन पर बनी इस रिपोर्ट के सह-लेखकों में एक हैं)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
ताजिकिस्तान की राजधानी दुशांबे में हुई शांघाई सहयोग संगठन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की बैठक काफी सार्थक रही। सबसे पहली बात तो यह अच्छी हुई कि भारतीय और पाकिस्तानी प्रतिनिधियों के बीच कोई कहा-सुनी नहीं हुई। पिछली बैठक में हमारे प्रतिनिधि अजित दोभाल को बैठक का बहिष्कार करना पड़ा था, क्योंकि पाकिस्तानी नक्शे में भारतीय कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा दिखाया गया था लेकिन इस बार ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। ताजिकिस्तान इस वर्ष इस संगठन का अध्यक्ष है। वह मुस्लिम बहुल राष्ट्र है। उसके राष्ट्रपति ई. रहमान ने अपने भाषण में आतंकवाद, अतिवाद, अलगाववाद, अंतरराष्ट्रीय तस्करी और अपराधों की भर्त्सना तो की ही है, उनसे भी ज्यादा मजहबी उग्रवाद की की है। आश्चर्य है कि पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मोईद यूसुफ ने इस बयान पर कोई एतराज़ नहीं किया।
मज़हब के नाम पर दुनिया में यदि कोई एक राष्ट्र बना है तो वह पाकिस्तान है। इस मजहबी जोश के कारण ही आज पाकिस्तान बेहद परेशान है। लाहौर के जौहर टाउन इलाके में ताज़ा बम-विस्फोट इसका प्रमाण है। पिछले कुछ वर्षों में आतंकवादियों की मेहरबानी से जितने लोग भारत और अफगानिस्तान में मारे गए हैं, उनसे कहीं ज्यादा पाकिस्तान में मारे गए हैं।
पाकिस्तान के नेताओं और फौजी अफसरों को अब शायद अपनी गलती का अहसास हो रहा है। इसीलिए अफगानिस्तान में भी वे शांति की बातें कर रहे हैं। उनका बार-बार यह कहना कि वे अफगानिस्तान में भी आतंकवाद का विरोध करते हैं, यदि सचमुच यह सच है तो मुझे आश्चर्य है कि दुशांबे में दोभाल और यूसुफ ने आपस में दिल खोलकर बात क्यों नहीं की? यह मौका वे क्यों चूके ? यदि यूसुफ को कुछ झिझक थी तो दोभाल को पहल करने में कोई बुराई नहीं थी। आखिर, पूरे दक्षिण एशिया की शांति, सुरक्षा और समृद्धि की जिम्मेदारी सबसे ज्यादा किस की है ? भारत की है।
दुशांबे में अफगानिस्तान के सवाल पर सभी राष्ट्रों ने इस बैठक में बहुत ज्यादा ध्यान दिया। क्या ही अच्छा होता कि शांघाई सहयोग संगठन संयुक्तराष्ट्र संघ से मांग करता कि अमेरिकी वापसी के बाद अफगानिस्तान में जो शांति-सेना भेजी जाए, उसमें भारत और पाकिस्तान के सैनिक प्रमुख रुप से हों। उनमें दक्षिण और मध्य एशिया के सैनिकों को भी जोड़ा जा सकता है। अमेरिका, रुस और चीन के सैनिकों से अफगान नेताओं को एतराज हो सकता है लेकिन सभी पड़ौसी देश तो महान आर्यावर्त्त परिवार के अभिन्न अंग ही हैं। भारत सरकार के कुछ अफसर गोपनीय तौर पर तालिबान से आजकल संपर्क करने लगे हैं, यह अच्छी बात है लेकिन उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि अजित दोभाल और पाकिस्तान के फौजी और गुप्तचरी नेताओं के बीच भी आजकल गुपचुप संपर्क बढ़ा है। इस बैठक में चीनी प्रतिनिधि की गैर-हाजिरी आश्चर्यजनक है, हालांकि चीन भी अफगानिस्तान के सवाल पर चिंतित है। उसके उइगर मुसलमानों ने उसकी नाक में दम कर रखा है। जो भी हो, भारत और पाक अब भी पहल कर सकते हैं। ताजिकिस्तान की राजधानी दुशांबे में .
(नया इंडिया की अनुमति से)
-सिद्धार्थ ताबिश
पिछली पोस्ट पर कुछ भाई लोग "कथा" बांच रहे हैं.. कह रहे हैं कि "मुसलमान बहुत ज़्यादा अपने धर्म का प्रचार प्रसार करते हैं मगर हम बेचारे कर ही नहीं पाते हैं, दिमाग़ में तो हमारे भी आता है कि मुसलमानों को घर बुलाएं और उनको अपने धर्म की अच्छी अच्छी बातें बताएं मगर मुसलमानों का गोत्र ही नहीं पता होता है हमें, तो कैसे घर बुला कर उनके साथ पानी पिएं हम? बाक़ी हम भी चाहते हैं कि अपने भारत के ग़रीब और निम्न वर्ग के लोगों को गले लगाएं और बताएं कि हम सब एक हैं मगर गले लगाने से पहले हम सर नेम देखकर ठिठक जाते हैं.. समझ नहीं आता है इसको गले लगा लेंगे तो कहीं "अधर्मी" न हो जाएं.. फिर शुद्धिकरण का झंझट.. इसीलिए इन सबको हम देशद्रोही, अल-तक़्क़ईया वाला बोलकर सारी झंझट से छुट्टी पा लेते हैं.. क्यूंकि इन्हें अगर बुला भी लेंगे अपने धर्म मे तो इन्हें रखेंगे कहाँ? फ़ालतू की हमारे बड़े बड़े घरों के आसपास नई "शूद्र' बस्ती बनानी पड़ेगी.. इसीलिए हम लोग इन्हें मुहं ही नहीं लगते.. और फ़ेसबुक पर भी अपनी ही जाति और कुल के लोगों से दोस्ती करके आपस मे देश की बदहाल स्थिति और जाति पाँति के इस बंधन पर अफ़सोस ज़ाहिर कर लेते हैं.. अब दलितों के साथ तो जा कर हम ये सब डिसकस नहीं करेंगे न? उनसे करके क्या फ़ायदा? वो समझ ही नहीं पाएंगे, उनके पास ज्ञान कहाँ होता है?"
ठीक है.. हम समझ गए आपकी परेशानी.. मगर अब आप ये जान लीजिए कि "कथा" का वक़्त ख़त्म हो चुका है.. हमें ये सब न समझाइए.. हमें समझ के क्या करना है ये सब आप बातईये? आपकी दलीलें कि "शुद्र ये होता है, सेवाभाव इसे कहते हैं, फ़लाने ऋषि ये कहते थे, फ़लाने संत ने वर्ण व्यवस्था बहुत दूर दृष्टि के आधार पर की, हम सब एक हैं और एक ही ग्लास में पानी पीते हैं.. बस मीडिया और मुग़लों ने हमें बदनाम कर रखा है.. हमारे घर मे ऐसा नहीं होता है, हमारे गांव में ऐसा नहीं होता है, हमारे पापा शूद्र को कीर्तन में बुलाते थे, हमारी दादी कुवां खोद के शूद्रों को पानी देती थीं.. हमारे दादा सूर्यनमस्कार के बाद मलिन बस्ती में जाकर रोज़ उनके बच्चों को गले लगाते थे".. बस कीजिये.. बस कीजिये.
बस.. अब एक काम कीजिये.. अपनी उंगली फैलाइये.. और गिनिए.. कि कितनी दलित बहुवें आपके घर मे, परिवार में, ख़ानदान में हैं.. गिनिए कि कितने शूद्रों के यहां आपने अपनी बेटी ब्याही है.. गिनिए कि आपके बेटे या बेटी का कौन सा शूद्र दोस्त है जो आपके घर आ कर ठहरता है.. आपके परिवार का हिस्सा बनकर रहता है.. घर मे न मिले कोई, तो ख़ानदान में ढूँढिये, ख़ानदान में न मिले तो गांव और कस्बे में ढूँढिये.
बस.. इस गिनती का जो परिणाम होगा वही असल और व्यवहारिक ज़िन्दगी है आप लोगों की.. वही हक़ीक़त है आपकी और वही आपके समाज की असलियत है और वही सारा निचोड़ होगा भविष्य में आपके पतन या विश्वगुरु बनने का.
बाकी सब कुछ आपकी "कथा" है.. और कथा में हमें कोई रुचि नहीं है.. और अगर अब भी आप यही कथा सुनाकर सच्चाई से मुहं मोड़ते रहेंगे तो आपका भविष्य सिर्फ़ अंधकारमय नहीं बल्कि पूरी तरह से विध्वंसक होगा.
अभी समय है चेत जाईये.. हमें न समझाइए बल्कि ख़ुद समझिये
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
तृणमूल कांग्रेस के उपाध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा ने पहल की और अपने 'राष्ट्रमंचÓ की ओर से देश के राजनीतिक दलों की एक बैठक बुलाई। विपक्षी दलों की इस बैठक की हफ्ते भर से अखबारों में बड़ी चर्चा हो रही थी। कहा जा रहा था कि सारे विपक्षी दलों का जबर्दस्त गठबंधन खड़ा किया जाएगा, जो अगले आम चुनाव में नरेंद्र मोदी और भाजपा को चित्त कर देगा लेकिन हुआ क्या ? खोदा पहाड़ और उसमें से चुहिया भी नहीं निकली।
चुहिया भी नहीं निकली, यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि बैठक के बाद इसके प्रवक्ता ने एकदम शीर्षासन की मुद्रा धारण कर ली। उसने सबसे बड़ी बात यह कही कि यह बैठक उन्होंने वैकल्पिक सरकार बनाने के हिसाब से नहीं बुलाई थी और इसका लक्ष्य भाजपा सरकार का विरोध करना नहीं है। यदि ऐसा ही था तो फिर इसे क्यों बुलाया गया था ? इसमें सभी छोटी-मोटी पार्टियों को तो बुलाया गया था लेकिन भाजपा को आयोजक लोग कैसे भूल गए ? भाजपा को इसमें क्यों नहीं बुलाया गया ?
देश की स्थिति सुधारने में क्या उसका कोई योगदान नहीं हो सकता है ? क्या वह इस लायक भी नहीं कि राष्ट्रमंच के महान नेताओं को वह अपने कुछ रचनात्मक सुझाव दे सके ? देश के इस सत्तारुढ़ दल की उपेक्षा तो स्वाभाविक थी ही लेकिन सबसे बड़ा आश्चर्य यह रहा कि इस जमावड़े में देश का सबसे प्रमुख विरोधी दल भी शामिल नहीं हुआ। कांग्रेस के पांच नेताओं को निमंत्रण भेजे गए लेकिन पांचों ने ही लिख दिया कि वे अति व्यस्त हैं। उनसे पूछिए कि वे काहे में व्यस्त थे ? क्या मां-बेटे की खुशामद में व्यस्त थे ?
नहीं, वे जानते थे कि उस बैठक में भाग लेने का कोई मतलब नहीं है। देश की दोनों प्रमुख अखिल भारतीय पार्टियों का कोई मामूली नेता भी इस बैठक में नहीं था। जिन आठ पार्टियों के नेता इसमें शामिल हुए, वे प्रांतों में सिकुड़ी हुई हैं और वे नेता भी कोई बड़े नेता नहीं माने जाते, हालांकि उनमें कई बड़े समझदार लोग भी हैं। दूसरे शब्दों में राजनीतिक दृष्टि से यह समागम महत्वहीन बनकर रह गया लेकिन इसमें संतोष का विषय यही है कि इस बैठक में लगभग आधा दर्जन ऐसे बुद्धिजीवी उपस्थित थे, जिनकी मुखरता, स्पष्टवादिता और मोदी-विरोधी छवि सुविख्यात है।
इन सज्जनों का अपना बौद्धिक और नैतिक महत्व है लेकिन इनकी बड़ी खूबी यह है कि ये पार्षद का चुनाव भी अपने दम पर नहीं जीत सकते। दूसरे शब्दों में वैकल्पिक राजनीतिक गठबंधन खड़ा करने की दृष्टि से यह प्रकल्प नाकाम सिद्ध हो गया है। वैकल्पिक प्रकल्प तभी सफल हो सकता है, जबकि उसके पास भाजपा से बेहतर घोषणा पत्र हो और मोदी से उच्चतर छवि का कोई नेता हो। इन दोनों के अभाव में ऐसे जबानी जमा-खर्च होते रहेंगे और भाजपा दनदनाती रहेगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
कबीरदास भारतीय भक्तिकाल के सबसे पहले जन्मजात तथा बड़े कवि होने के नाते साथ साथ सबसे बड़े आधुनि tvक भारतीय कवि और विश्व कविता को भारतीय चुनौती हैं। कबीर संभवतः अकेले कवि हैं जिन्हें एक साथ बहुविध अर्थों में धार्मिक और सेक्युलर कहा जा सकता है। धर्म का एक अर्थ मज़हब से है। इसलिए मुसलमान जुलाहा परिवार के सदस्य कबीर हिन्दू या मुसलमान दोनों होते हुए अथवा नहीं होते हुए दोनों मजहबों की पृथक पृथक सर्वोच्चता के प्रतिमान हैं। वे दोनों मजहबों की गंगा जमुनी संस्कृति के तीर्थ प्रयागराज भी हैं। सेक्युलर होने के अर्थ में कबीर भारतीय संविधान की मजहब निरपेक्षता की भावना के अनुरूप हैं। कबीर किसी मजहब के संत नहीं होने से प्रत्येक मजहब के प्रति निरपेक्ष हैं। सेक्युलर सापेक्षता के अनुसार कबीर सर्वोच्च अर्थों में धार्मिक होते हुए लगातार सेक्युलर बने रहते हैं। कबीर पहले और असरदार कवि हैं जिन्होंने मनुष्य और ईश्वर के रिश्ते को जनवादी चश्मे से देखने की कोशिश की है।
यह अजूबा है कि हिन्दू धर्म के तीन बड़े देवताओं विष्णु, शिव और ब्रह्मा की सांसारिक अवतारी उपस्थिति नहीं होने से वे दिन प्रतिदिन के आधार पर सहज उपलब्ध नहीं हैं। मिथकों के अनुसार विष्णु के दशावतारों में राम और कृष्ण का जबरदस्त प्रभाव है। राम तो ‘रामनाम सत्य है‘ सुनते मृतक संस्कार के सबसे प्रामाणिक सत्य की तरह परिभाषित हैं। उनकी सामूहिक याद किए बिना मनुष्य की मुक्ति नहीं होने का जनविश्वास है। कृष्ण राम की तरह अंतिम या पूर्ण सत्य तो नहीं हैं लेकिन राम से कहीं अधिक व्यापक फलितार्थों के कृष्ण जीवन की सांसों की धड़कन हैं। मनुष्य जीवन के जितने रूप हैं वे सब कृष्ण की सांसों से अनुप्राणित हैं। हिन्दू धर्म की मिथक कथाओं में सतरंगी झिलमिलाहट है। वहां आंसुओं और रुदन को भी कला की पारंगतता का साधन बना दिया गया है। कृष्ण की मुस्कराहट जीवन में सार्थक है लेकिन आदर्शोें के प्रति प्रतिबद्ध तथा सीता के वियोग में रोते हुए राम का चेहरा मनुष्य होने की गंभीरता का सबसे मजबूत शिलालेख है।
राम और कृष्ण के अमर चरित्रों को भारतीय अस्मिता और यादघर में कबीर, रहीम, तुलसीदास, सूरदास, जायसी और रसखान जैसे अमर कवियों ने इतिहास की स्याही से वक्त के माथे की लकीरें बनाकर लिखा है। इनमें भी कबीर सबसे पहले हुए हैं। ऐसे हुए हैं कि अब तक सबसे पहले ही हैं। नायकों के गुणों का बखान करना और वीरपूजा के जुमले में काव्य का सृजन करना विश्व साहित्य की परंपरा है। भारत के आदिकवि वाल्मीकि और यूनानी महाकाव्यों के प्रणेताओं ने यही सब कुछ किया है। ऐसा करना एक परंपरा की शुरुआत की मील का पत्थर है। कबीर ने संसार के इतिहास में सबसे पहले और प्रामाणिक कवि के रूप में इस तिलिस्म को तोड़ दिया। कबीर के लिए ईश्वर है भी और नहीं भी। यदि है तो वे उसे मनुष्य होने का प्रमाणपत्र देते हैं। मनुष्य में ईश्वरत्व ढूंढ़ना एक उदात्त और उदास भावना एक साथ है। ईश्वर को इंसान बनाने की कोशिश कबीर की कविता का अद्भुत आचरण है।
सबसे बड़े दार्शनिक दीखते कबीर सांसारिक जीवन को आत्मा के लिहाफ या चादर की तरह ओढ़ते हैं। औरों के जीवन में रंगों, छटाओं, विवरणों और उपलब्धियों का बखान होता होगा। कबीर की निर्विकार्यता कविता के साकार होने का सबसे बड़ा यत्न है। चमत्कार वह नहीं है जो चमत्कार की तरह महसूस हो। चमत्कार तो वह है जिसमें कुछ भी नायाब, अनायास या सहसा नहीं हो। फिर भी वह मन में स्फुरण पैदा कर दे। कबीर सुसंस्कृत भाषा, व्याकरण, प्रतिमानों, स्वीकृत मानदंडों और समयसिद्ध रूपकों को झुठलाते सहज बखानी करते हैं। सहजता बडे दार्शनिक सत्यों को कैसे जन्म देती है। इस रहस्य को बूझने के लिए कबीर की कविता के सामने नैतिक आचार्यों को भी घुटने टेकने पड़ते हैं।
जीवन, साहित्य, अस्तित्व और अंर्तदृष्टि के एकमात्र पडाव का नाम है सत्य। सत्य वह हवा है जिसे मुट्ठी में बंद किया जा सकता है। लेकिन ऐसी कोई मुट्ठी होती कहां है। हवा तो लेकिन होती है। सत्य वह धुआं है जिस पर चढ़कर अंतिम होने की अटारी तक पहुंचा जा सकता है। अटारी तो होती है लेकिन वैसा धुआं पैदा करने वाली आग कहां है। सत्य तो नदी की खिलखिलाहट का सतरंग है। पानी की शीतलता और बहाव में नदी की किलकारी अप्रतिहत गूंजती है लेकिन उसकी अंर्तध्वनि में अनहद नाद के गूंजने को तरन्नुम की तकनीक से फारिग होकर कौन आत्मसात कर पाता है। यदि ये सब चमत्कार, निष्कर्ष या अंतिम होने के समानार्थी समीकरण हैं तो यह सवाल पूरी दुनिया में सबसे बेहतर, सबसे प्रामाणिक विधि से और भविष्य तक की पीढ़ियों को चुनौतीविहीन और निर्विकल्प बनाते कबीर ही क्यों नज़र आते हैं।
सत्ताकुलीन समाज द्वारा कबीर की सीख की दुर्गति की जा रही है। मुसलमान और ईसाई को जबरिया हिन्दू बनाकर उस प्रक्रिया को घर वापसी कहा जा रहा है। कबीर तो आत्मा और परमात्मा तक की घर वापसी के फेर में नहीं थे। उन्होंने तो अपने दुनियावी चरित्र को सफेद धुली बिना दाग वाली चादर की तरह जैसे का तैसा रख देने की सूचना दी थी। उनके लिए तो महानता भी एक विकार है जो मनुष्य के चरित्र को अतिरंजित करती है। सत्य के अन्वेषक कबीर उस अनहद नाद में लीन हो गए थे जो अंर्तयात्रा किसी को भी पाथेय तक पहुंचा सकती है। ‘कूढ़ मगज़ हिन्दू‘, ‘लव जेहाद‘, ‘आमिर खान की फिल्म पी.के.‘, ‘कश्मीर की विशेष संवैधानिक स्थिति‘, ‘समान नागरिक संहिता‘, ‘मदरसों की तालीम‘ और इसके बरक्स कूढ़ मगज़ मुसलमान, आतंकवादियों, लखवी, मुहम्मद उमर, अल जवाहिरी, हाफिज़ सईद वगैरह को लेकर संदिग्ध आचरण करते हैं। कबीर से बेहतर सेक्युलरवाद की परिकल्पना भारतीय संविधान में भी नहीं है। संविधान तो सेक्युलरवाद के नाम पर अलग अलग कोष्ठकों में धर्मगति को नियंत्रित करता है। कबीर मुफलिस थे अर्थात आत्मा के निर्द्वंद गायक। मौजूदा राजसत्ता उनके सही अर्थ को नहीं बूझती हुई उलटबांसी में रकीब का आचरण कर रही है।
छत्तीसगढ़ में कबीर-परम्परा की अपनी रस, गन्ध की समृद्धि है। कबीर का इस प्रदेश छत्तीसगढ़ पर असर बहुत गहरा है। कई कबीर गद्दियां धर्माचार्य उपासक अनुयायी तो हैं ही। गुरु घासीदास के प्रचारित जीवन दर्शन में भी कबीर की वाचाल अनुगूंज है। आशय यह नहीं कि धर्मगद्दियां बना दी जायें अथवा कबीर को पाठ्यक्रमों में शामिल कर दिया जाये या रस्मअदायगी के कबीर महोत्सव मनाए जाएं। ‘सरकार‘ नामक शब्द संविधान की तथा ‘समाज‘ नाम का शब्द पारंपरिक निरन्तरता है। भारतीय लोकतन्त्र के निकष के रूप में कबीर का मानवधर्म धर्मनिरपेक्षता का भी सबसे बड़ा मनुष्य आचरण है। यह क्यों हुआ कि संविधान सभा में सेक्युलरिज़्म के इतिहास पर चर्चा में सबसे प्राथमिक और आधुनिक कबीर-विचार का उल्लेख किसी सदस्य ने नहीं किया। मध्य युग के सन्तों के उल्लेख भारतीय समाज की एकता के सूत्रों की तरह अलबत्ता हुए हैं। नये किस्म की धर्मनिरपेक्षता को यूरो-अमेरिकी माॅडल पर आधारित लोकतन्त्र की प्राण वायु की तरह जरूरत है। ऑक्सीजन का वह सिलेन्डर संभवतः सबसे पहले कबीर ने ही बनाया था। सेक्युलरिज़्म शब्द इतना चोटिल हो गया है कि अतिउत्साही हिन्दू उसे मुख्यतः मुसलमान और कभी कभी ईसाई का समानार्थी बताने लगते हैं। भारत जैसे बहुलधर्मी या सांस्कृतिक बहुलता के अनोखे मुल्क में सेक्युलरिज़्म के कई अर्थ हैं। कुछ के लिए वह हिन्दू विरोधी है। इसलिए अल्पसंख्यकपरस्त, तो कुछ के लिए वह धर्मविमुख है। कुछ के लिए वह सभी धर्मों की काॅकटेल है। कुछ के लिए वह धर्मनिरपेक्षता की यूरोपीय समझ की प्रतिकृति है। सेक्युलरिज़्म सम्बन्धी किसी बड़े प्रकल्प को कबीर के नाम से जोड़कर शुरू किया जाये तो ऐसे ही किसी आयोजन में हर वर्ष संवैधानिक नस्ल की धर्मनिरपेक्षता की वास्तविकता और उपादेयता को लेकर शोध का सिलसिला शुरू किया जा सकता है। शोध में बोध का होना सदैव जरूरी होता है। साहित्य तो वही है जो धर्मनिरपेक्ष है। कबीर ने समाजोन्मुख ‘मीठा मीठा गप‘ नहीं किया, ‘कड़वा कड़वा थू‘ भी किया।
गुपकार गठबंधन के हां कह देने के बाद केंद्र और कश्मीरी पार्टियों के बीच बातचीत तय है. हाल तक केंद्र ने जिन पार्टियों को "गैंग" की संज्ञा दे उनके नेताओं को जेल में बंद कर दिया था उनसे अचानक बातचीत की रणनीति कैसे अपना ली?
डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय का लिखा-
अगस्त 2019 में जम्मू और कश्मीर का राज्य का दर्जा खत्म करने के लगभग दो साल बाद केंद्र सरकार ने कश्मीर के राजनीतिक दलों के नेताओं को बातचीत के लिए बुलाया है. सभी पार्टियों ने इस निमंत्रण को स्वीकार भी कर लिया है, लेकिन बातचीत का एजेंडा क्या है यह कोई नहीं जानता. आधिकारिक जानकारी के अभाव में अटकलें लग रही हैं कि केंद्र शायद कश्मीर को फिर से राज्य बनाने की प्रक्रिया की शुरुआत करना चाहता है.
इसकी पुष्टि अभी तक ना केंद्र सरकार ने की है ना ही कश्मीर की पार्टियों ने, लेकिन सरकारी सूत्रों के हवाले से मीडिया में आई कई खबरों में दावा किया गया है कि कश्मीर के राज्य के दर्जे को बहाल करने का वादा केंद्र ने पहले से ही किया हुआ था. मार्च 2020 में परिसीमन आयोग के गठन के बाद से कश्मीर में परिसीमन की कार्रवाई भी चल रही है, जिसका उद्देश्य राज्य में विधान सभा चुनाव कराना ही है.
इसलिए इतना तो तय माना जा रहा था कि कश्मीर में आज नहीं तो कल विधान सभा चुनाव होंगे ही. इसके बावजूद संतोषजनक जवाब इस सवाल का नहीं मिल पा रहा है कि नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) और पीडीपी जैसी पार्टियों को "गैंग" कहकर और उनके नेताओं को जेल में बंद कर उनके प्रति जिस कटुता का परिचय केंद्र ने दिया था, उसके बाद केंद्र ने क्या सोच कर उनसे बात करने का प्रस्ताव रखा?
पुरानी रणनीति विफल
कश्मीर के मामलों के अधिकांश जानकारों के बीच इस बात को लेकर सहमति है कि केंद्र ने कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा हटाने का मुश्किल लक्ष्य तो हासिल कर लिया लेकिन कुल मिला कर पूर्ववर्ती कश्मीर राज्य को लेकर केंद्र की रणनीति विफल हो चुकी है. इलाके को जानने वाले लोग मानते हैं कि जम्मू, कश्मीर और लद्दाख तीनों इलाकों में असंतोष है. कश्मीर के लोग विशेष राज्य का दर्जा छीने जाने से दुखी हैं, जम्मू के लोग अलग राज्य बनने के इंतजार में परेशान हैं और लद्दाख के लोगों की तो अलग केंद्र शासित प्रदेश बनने की मांग भी पूरी नहीं हो सकी.
कुल मिला कर कश्मीर का एजेंडा अभी अधूरा है और इसे पूरा करने में स्थानीय दलों के प्रति वैमनस्य दिखाने की पुरानी रणनीति बड़ी बाधा है. इसलिए संभव है कि केंद्र अब इन दलों को साथ लेकर आगे चलने की नई रणनीति पर विचार कर रहा हो. श्रीनगर के वरिष्ठ पत्रकार जफर इकबाल मानते हैं कि स्थानीय पार्टियों की तरफ हाथ परिसीमन की प्रक्रिया को वैधता दिलाने के लिए बढ़ाया जा रहा है.
दरअसल नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी का यही कहना रहा है कि चूंकि वो 2019 के जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन कानून को ही अवैध मानते हैं, ऐसे में उसी कानून के तहत शुरू की गई परिसीमन प्रक्रिया को मानने का सवाल ही नहीं उठता. इकबाल ने डीडब्ल्यू को बताया कि अगर एनसी के तीनों सांसद परिसीमन की प्रक्रिया से जुड़ जाते हैं तो पार्टी की तरफ से उस प्रक्रिया को और उसके साथ जम्मू और कश्मीर के पुनर्गठन को मान्यता मिल जाएगी.
कई जानकारों का यह भी मानना है कि इस पूरी कवायद से सिर्फ एनडीए सरकार की कश्मीर के प्रति नीति में असंगति ही दिखाई देती है. वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश मानते हैं कि शुरू से ही कश्मीर के प्रति एनडीए सरकार की नीति गलत सोच और वैचारिकी से निर्देशित रही हैं. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया कि इस असंगति का कारण है सरकार का आरएसएस की विचारधारा के हिसाब से कदम उठाना और फिर यह पाना कि जमीनी हकीकत कुछ और ही है.
अंतरराष्ट्रीय दबाव
वहीं केंद्र सरकार के इस फैसले के पीछे अमेरिका का दबाव होने की बात भी की जा रही है. केंद्र द्वारा कश्मीर के नेताओं को बातचीत का निमंत्रण भेजे जाने से पहले वरिष्ठ पत्रकार भारत भूषण ने कारवां पत्रिका में छपे एक लेख में लिखा था कि ऐसा होने जा रहा है और इसके लिए अमेरिकी सरकार का भारत पर दबाव जिम्मेदार है. भारत भूषण कहते हैं कि अफगान शांति वार्ता के सफल होने के लिए और अमेरिका के अफगानिस्तान से निकलने के बाद वहां के अमेरिकी हितों की सुरक्षा के लिए अमेरिका को पाकिस्तान की मदद चाहिए.
इसी मदद की उम्मीद में अमेरिका को पाकिस्तान को यह संकेत देना था कि नई दिल्ली और वॉशिंगटन के करीबी रिश्तों के बावजूद, अमेरिका पाकिस्तान के हितों के प्रति सजग है. इसलिए कश्मीर को लेकर पाकिस्तान की चिंताओं को स्वीकार करते हुए अमेरिका भारत पर कश्मीर में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बहाल करने की एक कार्य योजना देने और उसके बाद पाकिस्तान से फिर से बातचीत शुरू करने के लिए दबाव डाल रहा है.
12 जून को अमेरिकी सरकार में दक्षिण और मध्य एशिया के लिए एक्टिंग असिस्टेंट सेक्रेटरी डीन थॉम्पसन ने संसद की एक सुनवाई के दौरान माना कि अमेरिकी सरकार ने भारत सरकार को कश्मीर में जल्द से जल्द सामान्य हालात बहाल करने के लिए कहा है. उन्होंने यह भी कहा कि अमेरिका ने भारत को कुछ चुनावी कदम भी उठाने को प्रोत्साहित किया है. इसके पहले चार जून को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने अपने रुख में बदलाव लाते हुए कहा था कि अगर भारत कश्मीर पर एक कार्य योजना देता है तो पाकिस्तान बातचीत फिर से शुरू करने को तैयार है.
इसके पहले इमरान खान यह कह रहे थे कि बातचीत फिर से तभी शुरू होगी जब भारत सरकार पांच अगस्त 2019 को लिए गए कदमों को वापस लेगी. श्रीनगर के वरिष्ठ पत्रकार रियाज वानी भी मानते हैं कि यह संभव है कि यह कदम पाकिस्तान से बातचीत फिर से शुरू करने के लिए उठाया गया हो. वानी कहते हैं कि पिछले कुछ महीनों में पाकिस्तान ने भारत की तरफ हाथ बढ़ाने के कई संकेत दिए हैं और मुमकिन है कि यह भारत की तरफ से पाकिस्तान को पहला संकेत हो. (dw.com)
-रजत घई
इस फिल्म का हर सीन बेहतरीन तरीके से फिल्माया गया है, जिसमें भारतीय वन सेवा की कार्यप्रणाली का सही चित्रण किया गया है
फिल्म पर बात करने से पहले एक सच बताना चाहता हूं। जो आखिरी फिल्म मैंने देखी, वो 26 जनवरी, 2017 को रिलीज हुई फिल्म रईस थी। उससे बहुत पहले से मेरा फिल्म देखना बड़ी हद तक कम हो गया था। लोकप्रिय सिनेमा से मुझे तमाम शिकायतें थीं, खासतौर से बॉलीवुड से, जिसको लेकर मुझे लगता था कि यह रूढि़वाद और लंबे समय से चली आ रही विसंगतियों के दोहराव को बढ़ावा दे रहा है।
अब मुझे लगता है कि शेरनी इसे बदल सकती है। मैं हैरान हूं कि पर्यावरणवाद, जिसे अक्सर एक आला विषय माना जाता है और जो मेरी भी आजीविका का साधन है, उसका मुख्यधारा सिनेमा में कितना खूबसूरत चित्रण किया गया है। एक वाक्य में कहूं तो, इस फिल्म ने देश के पर्यावरण संबंधी अधिकारों को एकदम ठीक समझा है।
शेरनी का निर्देशन अमित मसुर्कर ने किया, जिन्होंने इससे पहल न्यूटन और सुलेमानी कीड़ा निर्देशित की थीं। ये दोनों ही फिल्में मैंने नहीं देखी हैं, लेकिन अब मैं यह जानता हूं कि दोनों ही फिल्में उत्कृष्ट थीं।
शेरनी कई बेजोड़ कलाकारों से सजी है, जैसे संयमित और अदम्य नायिका विद्या विंसेंट के प्रमुख किरदार में विद्या बालन, दिग्गज कलाकार शरत सक्सेना, विजय राज, ईला अरुण और ब्रिजेंद्र काला, जिनकी मैं खासतौर पर तारीफ करना चाहूंगा, लेकिन बाद में।
इस फिल्म का नाम शेरनी एक उपमा है- नरभक्षी शेरनी टी-12 और विद्या विंसेंट के लिए। यह फिल्म अवनी या टी-1 नाम की शेरनी के शिकार की असल घटना से प्रेरित है। खबरों के मुताबकि इस शेरनी ने महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में पंढारकवड़ा-रालेगांव के जंगलों में 2016 से 2018 के बीच 13 लोगों का शिकार करके उन्हें अपना ग्रास बनाया था।
हैदराबाद के नवाब और शिकारी शफ़त अली खान और उनके बेटे असगऱ खान ने गोली चलाकर अवनी को मार डाला था, जब वे अवनी को बेहोश करने वाले थे, लेकिन उससे पहले अवनी ने उनपर हमला कर दिया। ऐसा लगता है, फिल्म में पिंटू भैया का किरदार, जिसे सक्सेना ने निभाया है, शफ़त अली खान पर आधारित है। पिंटू भैया भी शिकारी हैं और अपने हाथों मारे गए शेरों और तेंदुओं की गिनती बढ़ाना चाहते हैं।
अवनी के दो शावक थे, जिनमें से एक मादा थी, और जिसे टप्पा चौकीदार सिदम प्रमिला इस्तारी ने बचाया, जो कि बालन के किरदार की प्रेरणा भी कही जा रही हैं। नर शावक को अब तक खोजा नहीं जा सका है।
अवनी के शिकार के बाद पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने इसे ‘हत्या’ बताते हुए कई विरोध प्रदर्शन किए। ये मामला अब तक सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है। इस पूरे घटनाक्रम पर आस्था टिकू ने फिल्म की पटकथा तैयार की है।
यह फिल्म, मेरे लिए, तीन पहलुओं पर लीक से हटकर खड़ी होती है- भारत में वानिकी और वन्यजीवन जैसे पर्यावरण संबंधी मामलों पर इसका बेहद संतुलित पक्ष; वन्य सेवा से जुड़ी महिलाओं और पितृसत्ता व लैंगिक भेद-भाव से उनके रोजमर्रा के संघर्ष का बेहद प्रभावशाली चित्रण; और कहानी कहने की उत्कृष्ट कला।
पहले बात करते हैं पर्यावरणवाद की। मेरे जैसे इंसान, जो धर्मेंद्र और आशा पारेख की शिकार और शशिकपूर-राखी की जानवर और इंसान जैसी फिल्मों में दिखाए गए वन और वन्यजीवों को देखकर बड़ा हुआ है, उसके लिए शेरनी जैसी फिल्म किसी अलग ही जमाने की प्रतीत होगी।
फिल्म का हर सीन बारीकी से तैयार किया गया है। जैसे उदाहरण के तौर पर, वन विभाग का दफ्तर। किसी पिछड़े इलाके का सामान्य सरकारी दफ्तर जहां पुरानी फाइलों पर धूल जमी है और जाले लगे हैं। विद्या के भ्रष्ट, जाहिल और मसखरे बॉस बंसल का डेस्क, जो कांच से ढंका है। सजावट के लिए रखे गए मरे हुए जानवर और कुर्सी के पीछे लगी बंगाल टाइगर की बड़ी सी तस्वीर।
यह पुराने समय के भारत की झलक है। जैसे विद्या के साथ काम करने वाले साईं कहते हैं: भारत का वन विभाग अंग्रेजों का तोहफा है। हम अधिकारियों को उनकी तरह काम करना चाहिए। रिवेन्?यू लाओ और प्रमोशन पाओ।
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लेकिन फिल्म के अन्य दृश्य बताते हैं कि भले ही लोगों के व्यवहार में बदलाव न हुआ हो, लेकिन विज्ञान में तो हुआ है। मध्यप्रदेश के दूर-दराज इलाके में, जहां विद्या तैनात है, वहां गांववालों के पास अब मोबाइल फोन हैं। फॉरेस्ट गार्ड अब कैमरा ट्रैप और अन्य आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का इस्तेमाल करते हैं। और डीएनए सैंपलिंग की भी मदद ली जाती है।
यह फिल्म जंगलों और वन्यजीवों से जुड़े कई मसलों पर रोशनी डालती है- इंसानों और वन्यजीवों के बीच संघर्ष, मांसाहारी जीवों द्वारा मवेशियों को मारने पर लोगों को मिलने वाला मुआवजा, वृक्षारोपण के नाम पर गांव की साझी जमीन पर सागौन के पेड़ लगवाने का षडयंत्र, वन क्षेत्र में खनन, जंगलों में रहने वालों के अधिकार और सिमटते जा रहे वन्यजीवों के प्राकृतिक निवास और गलियारे।
इसके बाद बारी आती है वन विभाग के कर्मचारियों के उन किरदारों की जिनकी ज्यादा बात नहीं होती, खासतौर पर महिलाओं की। स्त्री होने के कारण विद्या के किरदार को हर कदम पर अपमान सहना पड़ता है। दूसरे पुरुषों के आगे बंसल उसकी हर बात को खारिज कर देता है; ‘महिला अफसर’ होने के बावजूद ‘संकट की स्थिति’ में मौजूद होने पर पीके उसका मजाक उड़ाता है। विद्या की सास कहती है कि सोने के जेवर ज्यादा पहनो और मां बच्चा पैदा करने का जोर डालती है। इन सब के बाद भी विद्या खुद को मजबूत बनाए रखती है, शांत, संयमित और जुझारू बनी रहती है।
इस पूरी कहानी को कहने का तरीका इस फिल्म का सबसे अच्छा हिस्सा है। कलाकारों के मंझे हुए अभिनय, शानदार कैमरावर्क (राकेश हरिदास) और पाश्र्वसंगीत के दम पर, फिल्म अपनी गति से आगे बढ़ती है और धीमी शुरुआत के बाद रफ्तार पकड़ लेती है।
सभी कलाकारों ने बारिकी से अभिनय किया है, लेकिन ब्रिजेंद्र काला द्वारा निभाया गया बंसल का किरदार सबसे उम्दा है। वह पतंगे और तितली में फर्क नहीं बता पाता, दफ्तर में ग़लत उर्दू शेर पढ़ता है और दफ्तर की पार्टियों में भद्दे तरीके से नाचता है। वह ञ्ज12 को पकडऩे के अपने उद्देश्य में सफल होने के लिए दफ्तर में यज्ञ कराता है। एक वक्त पर तो वह जालों से भरे फाइलरूम में छिपता भी है।
फिल्म में विजय राज जीवविज्ञान के नामी प्रोफेसर और वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने वाले किरदार में है। फिर सक्सेना है, जिसकी पसंदीदा लाइन है- मैं शेर की आंखों में देखकर बता सकता हूं कि वह नरभक्षी है या नहीं।
फिल्म के अंतिम दृश्य से मैं गंभीर रूप से प्रभावित हुआ। यह दिखाता है कि जितना ज्यादा भारत बदलने की कोशिश करता है, उतनी ज्यादा चीजें जस की तस रहती हैं। मैं सिर्फ यह उम्मीद कर सकता हूं कि यह फिल्म भारत के वन प्राधिकरण के लिए आह्वान होगी कि वे अपने काम करने की शैली में सुधार ले आएं। कम से कम हमारी भावी पीढियों के लिए ही सही।
इस दौरान, मैं दोबारा लोकप्रिय सिनेमा न देखने के अपने विचार पर फिर से विचार करूंगा। (downtoearth.org.in)
-गिरीश मालवीय
आज जब क्रिस्टिआनो रोनाल्डो द्वारा कोका कोला की बोतलों को हटाने की खबर वायरल हो रही है तो मुझे भी अपनी एक पुरानी पोस्ट याद आयी, कोका कोला के इतिहास के बारे में।
1886 में जॉन स्टिथ पेम्बर्टन द्वारा स्थापित कोका-कोला कंपनी बहुत लंबे समय से नाम कमा रही है। यह दुनिया की सबसे बड़ी शीतल पेय कंपनियों में से एक है और दुनिया भर में इसकी अधिक पहुंच के कारण यह उपभोक्ता पूंजीवाद के विकास का अभिन्न अंग रही है। कोका कोला सिर्फ एक सॉफ्ट ड्रिंक नहीं है यह नई संस्कृति का प्रतीक है शीत युद्ध के दौरान कोका कोला पूंजीवाद का प्रतीक बन गया।
वेबस्टर का कहना है कि ये पूंजीवाद और साम्यवाद के बीच भेद करने वाली चीज बन गई कोका कोला को अमरीका के बढ़ते प्रभुत्व के प्रतीक के रूप में भी देखा जाता है,जहां अमेरिका मौजूद था, वहा कोका कोला का होना अवश्यम्भावी था।
दरअसल कोका कोलोनाइजेशन यह फ्रांसीसियों व्दारा ईजाद किया शब्द है जब 1950 मे फ्रांसीसी जनता ने कोका कोला का विरोध किया तो यह शब्द का प्रयोग पूंजीवाद के बढ़ते प्रभाव के संदर्भ में इस्तेमाल हुआ बताते हैं कि फ्रांस मे कोका कोला के ट्रक पलट दिए गए और बोतलें तोड़़ दी गई। विद्वान् बताते हैं कि प्रदर्शनकारी कोका कोला को फ्रांसीसी समाज के लिए खतरा मानने लगे थे लेकिन वर्ष 1989 में जब बर्लिन की दीवार गिरी, तो पूर्वी जर्मनी में रहने वाले कई लोग क्रेट भर-भर कर कोका कोला लेकर आए तब ‘कोका कोला पीना आज़ादी का प्रतीक बन गया।’
अ हिस्ट्री ऑफ द वल्र्ड इन सिक्स ग्लासेज के लेखक टॉम स्टैंडेज का कहना है कि किसी भी देश में कोका कोला की एंट्री एक शक्तिशाली प्रतीक के रूप में देखी जाती है।।...वो कहते हैं, ‘जैसे ही कोका कोला अपना माल भेजना शुरू करती है, आप कह सकते हो कि वहाँ असली बदलाव होने जा रहा है। कोका कोला एक बोतल में पूँजीवाद के बेहद करीब है कोका-कोला को एक समय सबसे बड़े पूंजीवादी समूह के रूप में जाना जाता था और इसकी शोषणकारी प्रकृति के लिए आलोचना भी की गई है।
सोवियत संघ के मार्शल जिओरी ज़ुकोव ने भी सोवियत संघ में कोका कोला जैसे पेय को प्रचलित करवाने में रूचि ली, लेकिन एक रंगहीन और मजेदार सी दिखने वाली बोतल के बिना। कोका कोला ने उनके लिए ऑस्ट्रिया में एक रसायनज्ञ से एक अलग फार्मूला बनवाया , जो वोदका की तरह रंगहीन था पर यह प्रयोग अधिक सफल नहीं हुआ
कोका-कोला ने 1950 के दशक में भारतीय बाजार में प्रवेश किया था, उस समय जब दुनिया भर में पूंजीवाद फैल रहा था। कहा जाता है कि फार्मूला साझा न करने पर इसे भारत से जाना पड़ा भारत में हुए आर्थिक सुधारो के बाद यह कम्पनी दुबारा लौटकर भारत में आई।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
उत्तर प्रदेश के आतंकवाद निरोधक दस्ते ने धर्मांतरण के एक बहुत ही घटिया षडय़ंत्र को धर दबोचा है। ये षडय़ंत्रकारी कई गरीब, अपंग, लाचार और मोहताज़ लोगों को मुसलमान बनाने का ठेका लिये हुए थे। इन मजहब के दो ठेकेदारों— उमर गौतम और जहांगीर आलम कासमी— को गिरफ्तार किए जाने के बाद पता चला है कि उन्होंने एक हजार लोगों को मुसलमान बनाया है। कैसे बनाया है ? उन्हें कुरान शरीफ के उत्तम उपदेशों को समझा कर नहीं, इस्लाम के क्रांतिकारी सिद्धांतों को समझाकर नहीं और पैगंबर मोहम्मद के जीवन के प्रेरणादायक प्रसंगों को बताकर नहीं, बल्कि लालच देकर, डरा-धमकाकर, हिंदू धर्म की बुराईयां करके। नोएडा के एक मूक-बधिर आवासी स्कूल के बच्चों को फुसलाकर योजनाबद्ध ढंग से उनका धर्मांतरण करवाया गया और उनकी शादी मुस्लिम लड़कियों से करवा दी गई।
यह काम सिर्फ दिल्ली और नोएडा में ही नहीं हुआ, महाराष्ट्र, केरल, आंध्र, हरियाणा और उत्तरप्रदेश में भी इस षडय़ंत्र के तार फैले हुए हैं। इस घटिया काम की जांच में यह पाया गया कि उन्हें भरपूर पैसा भी मिलता रहा। इस पैसे के स्त्रोत आईएसआईएस और कुछ अन्य विदेशी एजेन्सियां भी रही हैं। इस राष्ट्रविरोधी काम को अंजाम देने का खास जिम्मा उठा रखा था, उमर गौतम ने। इसका असली नाम श्यामप्रकाश सिंह गौतम था। इसने एक मुसलमान लड़की से शादी की और कुछ वर्ष पहले मुसलमान बनने पर धर्मांतरण का काम जोर-शोर से शुरु कर दिया।
गौतम से कोई पूछे कि तुम खुद मुसलमानों क्यों बने थे? क्या इस्लाम की अच्छाइयों या पैगंबर के जीवन से प्रेरणा लेकर तुम मुसलमान बने थे ? जितने लोगों को तुमने मुसलमान बनाया है, क्या वे इस्लाम के सिद्धांतों को समझते हैं और क्या वे अपने जीवन में उनका पालन करते हैं ? यदि कोई व्यक्ति किसी मजहब के सिद्धांतों को समझ कर अपना धर्म-परिवर्तन करता है तो उसका यह अधिकार है। ऐसा करने से उसे कोई रोक नहीं सकता लेकिन जोर-जबर्दस्ती, लालच और वासना के कारण जो धर्मांतरण होता है, वह निकृष्ट कोटि का अधर्म है।
खुद कुरान शरीफ के अध्याय 2 और आयत 256 में कहा गया है कि ''मजहब में जबर्दस्ती का कोई स्थान नहीं है।ÓÓ जो धर्मांतरण गौतम और कासमी करते रहे हैं, क्या वह इस कसौटी पर खरा उतरता है? महर्षि दयानंद, स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी ने भी ईसाई पादरियों द्वारा किए जा रहे धर्म-परिवर्तन का कड़ा विरोध किया था। वास्तव में यह धर्मांतरण नहीं, धर्म का कलंकरण है। भारत के कई राज्यों ने ऐसे अनैतिक धर्मांतरण के विरुद्ध कठोर कानून बना रखे हैं।
ऐसे ही कानून के तहत उक्त लोगों के खिलाफ पुलिस ने कार्रवाई की है। वास्तव में ऐसे धर्मांतरण में धर्म कम, राजनीति ज्यादा होती है। अंग्रेज ने अपनी राजनीतिक सत्ता मजबूत करने के लिए जैसे ईसाइयत को साधन बनाया था और तुर्कों व मुगलों ने इस्लाम का इस्तेमाल किया था, वैसे ही आजकल कई छुटभय्ये अपनी तुच्छ स्वार्थ-सिद्धि के लिए मजहब का इस्तेमाल करते रहते हैं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अफगानिस्तान-संकट पर विचार करने के लिए इस सप्ताह में दो बड़ी घटनाएं हो रही हैं। एक तो अफगान-राष्ट्रपति अशरफ गनी का वाशिंगटन-जाकर अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन से मिलना और दूसरी, ताजिकिस्तान की राजधानी दुशांबे में भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकर अजित दोभाल और उन्हीं के पाकिस्तानी समकक्ष मोईद यूसुफ की भेंट की संभावना! दुशांबे में शांघाई सहयोग संगठन की बैठक हो रही है।
इन दोनों भेंटों का महत्व अफगानिस्तान की सुरक्षा के लिए अत्यधिक है ही, दक्षिण एशिया की शांति और सहयोग के लिए भी है। अफगानिस्तान से सितंबर में अमेरिकी फौजों की वापसी होगी। इस खबर से ही वहां उथल-पुथल मचनी शुरु हो गई है। लोगों में घबराहट फैल रही है। काबुल, कंधार और हेरात के कई अफगान मित्र फोन करके मुझसे पूछ रहे हैं कि क्या हम लोग सपरिवार रहने के लिए भारत आ जाएं ? उन्हें डर है कि अमेरिकी फौज की वापसी होते ही काबुल पर तालिबान का कब्जा हो जाएगा और उनका वहां जीना हराम हो जाएगा।
अभी-अभी तालिबान ने 40 नए जिलों पर कब्जा कर लिया है। लगभग आधे अफगानिस्तान में उनका बोलबाला है। वे ज्यादातर गिलजई पठान हैं। अफगानिस्तान के ताजिक, उजबेक, हजारा, शिया और मू-ए-सुर्ख लोग परेशान हैं। उनमें से ज्यादातर गरीब और मेहनतकश लोग हैं। उनके पास इतने साधन नहीं है कि वे विदेशों में जाकर बस सकें। अफगान-फौज में भी खलबली मची हुई है। काबुल में जिसका भी कब्जा होगा, फौज को अपना रंग पलटते देर नहीं लगेगी। ऐसे में काबुल से 13 साल तक राज करनेवाले पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई अफगानिस्तान की वर्तमान स्थिति का सारा दोष अमेरिका के सिर मढ़ रहे हैं जबकि वर्तमान राष्ट्रपति गनी इसीलिए वाशिंगटन गए हैं कि वे अमेरिकी फौजों की वापसी को रुकवा सकें।
दुशांबे में भारत-पाक अधिकारी अगर मिले तो उनकी बातचीत का यही सबसे बड़ा मुद्दा होगा। पाकिस्तान अब भी तालिबान की तरफदारी कर रहा है। वह अफगानिस्तान की अराजकता के लिए 'इस्लामी राज्यÓ के आतंकवादियों को जिम्मेदार ठहरा रहा है। उसने अमेरिका को अपने यहां ऐसे सैनिक हवाई अड्डे बनाने से मना कर दिया है, जिनसे अफगानिस्तान में होनेवाले तालिबान हमले का मुकाबला किया जा सके।
पाकिस्तान बड़ी दुविधा में है। उसके विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने अफगानिस्तान में भारत की भूमिका को 'जरुरत से ज्यादाÓ बताया है। यदि वास्तव में ऐसा है तो पाकिस्तान के नेताओं से मैं कहता हूं कि वे हिम्मत करें और अफगानिस्तान में पाकिस्तान और भारत की फौजों को संयुक्त रुप से भेज दें। पाकिस्तान यदि सचमुच आतंकवाद का विरोध करता है तो इससे बढिय़ा पहल क्या हो सकती है ?
क्या तालिबान अपने संरक्षकों पर हमला करेंगे? भारत और पाकिस्तान मिलकर वहां निष्पक्ष आम चुनाव करवाएं। जिसे भी अफगान जनता पसंद करे— तालिबान को, मुजाहिदीन को, खल्क-परचम को या गनी, अब्दुल्ला या करजई को— उसे वह चुन ले। यदि भारत-पाक सहयोग अफगानिस्तान में सफल हो जाए तो कश्मीर का मसला चुटकी बजाते-बजाते हल हो जाएगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
- प्रकाश दुबे
हिंदी में उन्हें शुभेंदु पुकारते हैं। बांग्ला में रसोगुल्ला मिश्रित मिठास के साथ सुवेन्दु बोला-लिखा जाता है। नंदीग्राम में पराजित ममता बनर्जी ने विजयी सुवेन्दु अधिकारी के विरुद्ध चुनाव याचिका दायर की है। सुवेन्दु का पूरा ध्यान दलबदल रोकने पर है। राज्यपाल जगदीप धनखड़ तो पार्टी कार्यकर्ताओं को विमान यात्रा कराते हैं। 77 भाजपा सदस्यों में दो लोकसभा सदस्यता बचाने के फेर में पहले ही विधायकी छोड़ चुके हैं। दो दर्जन विधायक मिलनसार राज्यपाल से मिलने नहीं पहुंचे। सुवेन्दु ने अंदेशा भांपकर दलबदल पर रोक लगाने वाले कानून में पार्टी छोडऩे वालों की विधायकी निरस्त कराने की धमकी दी थी। सुवेन्दु समेत तृणमूल कांग्रेस के तीस दलबदलू भाजपा टिकट पर विधायक बनें। बेटे के साथ शिशिर अधिकारी भी भाजपा में शामिल हो गए। उनकी लोकसभा सदस्यता भी दलबदल के लपेटे में आएगी। सुवेन्दु पश्चिम बंगाल विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं। बड़ा असमंजस है। अपने कहे पर अमल किया तो पिताश्री तक की दिल्ली से घरवापसी होगी। तृणमूल कांग्रेस में वापसी करने वालों को यूं ही बख्शने पर लोग ममता का जासूस कहने से नहीं चूकेंगे।
वीरासन
नैतिकता को ताक पर रखकर कांग्रेस ने दबाव में आकर तत्कालीन राष्ट्रपति के लाडले को सुनील की जगह उम्मीदवारी थमाई। कुपित सुनील देशमुख ने पार्टी छोड़ी। घर वापसी वालों की प्रतीक्षा और मनुहार सूची दोनों में उनका नाम था। दलबदल करते समय नैतिकता का मुखौटा बदलना पड़ता है। पूर्व केन्द्रीय मंत्री जितिन प्रसाद और तेलंगाना के पूर्व मंत्री राजेन्दर पिछली पार्टी की लानत-मलामत कर देहरी पर पहुंचे। भाजपा अध्यक्ष जगतप्रकाश तथा शिखर पर विराजमान दो नेता इस खूबी को बखूबी जानकर औकात तौलते हैं। हैदराबाद से भारी भीड़ लेकर चार्टर्ड विमान से दिल्ली पहुंचने वाले राजेन्दर को पेट्रोलियम मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने पार्टी में शामिल कराया। बेचारे यह भी नहीं पूछ सके कि तेल सौ रुपए पार क्यों कर गया? जितिन और राजेन्दर ने पिछली पार्टियों को जम कर कोसा। केन्द्र में सत्ताधारी पार्टी छोड़ते समय पूर्व मंत्री सुनील देशमुख ने संयम और शालीनता निभाई। कहा-मुझे सम्मान मिला। पिछली पार्टी से कोई शिकायत नहीं है। चटपटा तलाश करने वाले अटकलबाज नया सुराख तलाशने में जुटे हैं। कयास लगाया जा रहा है-पूर्व राष्ट्रपति ने हाल में प्रधानमंत्री की जमकर तारीफ की है। उम्मीदवारी पाने के लालच में राजेन्द्र शेखावत दलबदल करें इससे पहले देशमुख सिफारिश की कीचड़ से दूर हट गए?
पवनमुक्तासन
गुजरात के मुख्यमंत्री के नेतृत्व में प्रफुल्ल खोड़ा पटेल गृहराज्यमंत्री रह चुके हैं। उनके परिचय की खास बात-नरेन्द्र भाई को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खोड़ाभाई का मार्गदर्शन और आर्शीवाद प्राप्त था। इस याद में दाढ़ी उगा रखी है। उतनी बड़ी नहीं, जितनी राष्ट्रीय नेता को शोभा देती है। योगी-कारोबारी रामदेव से लक्षदीप के प्रशासक साहस में कम नहीं हैं। बरसों पहले हंगामे से बचने के लिए रामदेव ने संयोगवश नारी रूप धारण किया। लक्षदीप के प्रशासक प्रफुल्ल खोड़ा पटेल की यह नौबत नहीं आई। दिल्ली में गृह मंत्री से ज्ञान प्राप्त करने के बाद लौटने लगे। पता लगा कि लोकसभा सदस्य हिबी ईडन कोचि विमानजल पर विरोध प्रदर्शन करने वाले हैं। प्रशासक प्रफुल्ल कोचि गए ही नहीं। विशेष विमान से सीधे लक्षदीप के मुख्यालय कवरत्ती उड़ लिए। साहस की कमी मत समझना। वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की बहादुरी की प्रशंसा करते हुए उन्होंने लंबा सा संदेश जारी किया।
भुजंगासन
मानव की कुछ विशेषताएं भगवान में भी नहीं होतीं। किसी भी धर्म के देवी-देवता जाति या धर्म के धर्म के आधार पर वरदान नहीं बांटते। गंगा मैया का पानी सबके लिए अमृत है। महामारी के समय बहती लाशों का दौर छोडक़र। तीन तक की बारिश के कारण ऋषिकेश, हरिद्वार में भारी बाढ़ आई है। गंगा के उद्गम से लेकर गंगासागर तक का पानी कुछ दिन में निर्मल हो जाएगा। इंसान की फितरत अलग है। कुंभ के दौरान कोविड-19 के नकली जांच प्रमाणपत्र जारी किए गए। फर्जी सूची की जांच पर उत्तराखंड में जांच-महाभारत छिड़ा। मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने विशेष जांच दल यानी एसआईटी गठित किया। पूर्व मुख्यमंत्री मौके की ताक में थे। इधर विपक्ष ने न्यायायिक जांच के लिए आंदोलन की चेतावनी दी, उधर त्रिवेन्द्र सिंह ने कहा-हम तो न्यायायिक जांच ही चाहते हैं। गंगा जी खींचतान से दुखी हैं। लगता है, अमृत और आंसुओं की मिलीजुली बाढ़ आई।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
-हितेश एस.वर्मा
बीते कई वर्षों से प्रशांत किशोर सरकारी तंत्र में प्रोफेशनल रिसर्चर्स को लेटरल एंट्री मिल सके इसकी व्यवस्था हेतु प्रयास कर रहे हैं। ऐसा संभव करने के लिए नियमों में बदलाव आवश्यक हैं, जिसकी वे ज़ोरदार वकालत करते आये हैं। मोदीजी से उनका अलगाव भी इसी कारण हुआ, पर उन्हें नीतीश कुमार का साथ मिला।
बिहार में अपने इस रेवोलुशनरी आइडिया को वे इम्प्लीमेंट कर चुके हैं, भले ही सीमित स्तर पर किया है लेकिन उन्हें पता है उनका उद्देश्य इसे राष्ट्रीय स्तर पर करने का है। यह तभी संभव है जब कोई विजऩरी पीएम उन्हें अपना यह रिफॉर्म मोवमेंट का सपना पूरा करने में सहयोग करें। इस कांसेप्ट के लिमिटेशंस को मीट अप किया जाये तो आईडिया बुरा नहीं है।
लेटरल एंट्री से मेरा मतलब है कि भारत या भारत से बाहर रह रहे ऐसे भारतीय जिन्होंने अपना जीवन किसी रिसर्च को दिया हो उन्हें देश की सरकारी व्यवस्था में शामिल कर कार्य करने का मौका मिले और मौका इस तरह मिले कि उस विभाग को लीड करने का जिम्मा उनके हाथ रहे, न कि किसी सिविल सर्वेंट के।
भारत में लेटरल एंट्री की बहुत बड़ी जरूरत है। एक ऐसी व्यवस्था बनाई जाए जिसमें सरकारी तंत्र में बाहर से भी लोग आकर काम करना चाहे तो कर सकें। जो विभाग के हिसाब से बेस्ट टैलेंट होना चाहिए वो सरकारी व्यवस्था में है ही नहीं।
यदि आज कोई ट्रांसपोर्ट कमिश्नर है वो ट्रांसपोर्ट की विधा को समझता है। कल जब उसका ट्रांसफर वाटर रिसोर्सेज डिपार्टमेंट में हो गया तो उसको उस विभाग की भी समझ हो जाएगी क्या? आपने यदि एक रिसर्चर के तौर पर जीवन भर वाटर सप्लाई पर रिसर्च किया हो, लेकिन हमारे सरकारी तंत्र के हिसाब से आपका ज्ञान कुछ नहीं। मूलत: इसी सोच को और इस व्यवस्था को बदलना है।
यदि विदेशों में रह रहा भारतीय व्यक्ति, दुनिया के दिग्गज इंस्टीट्यूशंस में पढक़र वाटर रिसोर्सेज, हेल्थ, ट्रांसपोर्ट, सेनिटेशन, साइंस, स्पेस वगैरह पर काम कर रहा हो तो उसे देश में आकर काम करने का कोई मौका ही नहीं है।
यदि गलती से मौका मिल भी गया तो उसे किसी विभाग के सेक्रेटरी का असिस्टेंट बना दिया जाएगा, उसका जिसे पहले ही कुछ समझ नहीं है। इसलिए क्यूंकि वो एक सिविल सर्वेंट है।
जो व्यक्ति कल तक वाटर रिसोर्सेज डिपार्टमेंट का सेक्रेटरी था वो ट्रांसफर उपरांत यदि हेल्थ डिपार्टमेंट का सेक्रेटरी बन गया, तो दिक्कत ये है कि वो वाटर भी उतना ही समझता है जितना हेल्थ, और जिस बंदे ने जीवन भर इन पर रिसर्च किया वो कुछ नहीं जानता! बताइए भला!
जब आप देखेंगे कि पश्चिमी देशों की मैच्योर्ड डेमोक्रेसी में किसी भी डिपार्टमेंट में कोई भी इश्यू पर सलाह देनी होती है तो वो प्रोफेशनल रिसर्चर देता है, सिविल सर्वेंट का काम होता है उस आदेश पर सही तरीके से क्रियान्वयन हो रहा या नहीं उसका संरक्षण करना।
अमेरिका के प्रेसिडेंट रूज़वेल्ट पहले चाहते थे कि उनके ‘ब्रेन ट्रस्ट’ में 6 प्रोफेशनल्स हों। उस दौर में व्हाइट हाउस में फेडरल बजट में 6 लोगों को एम्प्लॉय कर सैलरी देने की कोई व्यवस्था नहीं थी। तब यह पहली व्यवस्था उन्होंने स्वयं की। इतने वर्षों के बाद जब ओबामा प्रेसिडेंट बने तो लगभग 3000 प्रोफेशनल्स उनके साथ व्हाइट हाउस में दाखिल हुए।
अमेरिका इसलिए आगे है क्यूंकि उन्होंने इन बदलावों पर अमल किया और उसमें वक्त के साथ बढ़ोतरी भी की।
भारत में जब पीएम बदलता है, तो लेे दे कर चार शीर्ष अफसर बदल दिए जाते हैं। प्रिंसिपल सेक्रेटरी और ज्वाइंट सेक्रेटरी आपने चलिए बदल भी दिए तो उससे कैसे फायदा होगा? मान लेता हूं कि पहला अधिकारी कम्पीटेंट नहीं था, तो जो नया वाला आएगा क्या वो एकाएक कम्पीटेंट हो जाएगा?
इसलिए इन व्यवस्थाओं की अदला बदली से भी देश में कोई मूल चूल बदलाव नहीं देखने मिलता। जितना डिलीवर होना चाहिए उतना नहीं हो रहा। पर हम एक्सपोनेंशियल चेंज तभी देख सकते हैं, जब लेटरल एंट्री के जरिए हम इन सिविल सर्वेंट के ऊपर संबंधित विभाग के लिए प्रोफेशनल रिसर्चर को स्थान दें।
मेरी इस बात की पुष्टि करने हेतु मैं आपको तार्किक उदाहरण देता हूं, हमारे देश में जितने भी मेजर रिफॉर्म्स हुए हैं उनमें से 6 में लीड करने वाला व्यक्ति लेटरल एंट्रेंट था, सिविल सर्वेंट नहीं था। टेलीकम्यूनिकेशन में ‘सैम पित्रोदा’, व्हाइट/अमूल रेवोल्यूशन में ‘वर्गीस कुरियन’, स्पेस के लिए ‘विक्रम साराभाई’, एटॉमिक एंड मिसाइल टेक्नोलॉजी के लिए ‘अब्दुल कलाम’, हरित क्रांति के लिए ‘स्वामीनाथन’ और सबसे रीसेंट बात करें तो आधार कार्ड का काम करने के लिए जाने जा रहे , ‘नंदन नीलेकणि’ भी सिविल सर्वेंट नहीं हैं।
अब जरा सोचिए 6 की जगह आज ऐसे 600 रिसर्च प्रोफेशनल्स को मौका मिलता तो देश में अब तक कितने रिफॉम्र्स हो चुके होते और भारत का प्रत्येक नागरिक आज कहां होता। हम अब तक बेहद विकासशील होते। पेंडेमिक में कोरोना से बेहतर लड़ाई लड़ रहे होते। अब आतंकवादी नहीं आने, वो गया जमाना। सरहदों से वायरस के रूप में जैविक हमले ही होंगे।
तो क्या भारत को ऐसा कोई विजनरी नेता मिलेगा, जो बदलाव करने से डरेगा नहीं, तथा उसका क्रियान्वयन बेहतर हो इसके लिए जान लगा देगा। कौन हो सकता है वो?
- कृष्ण कांत
योग से तोंद पिचक सकती है। तोंद अमीरों को होती है। अमीर दफ्तरों में काम करते हैं और जरूरत से ज्यादा खाते हैं इसलिए मोटे हो जाते हैं। जो शारीरिक काम न करके मोटे और रोगी हो जाते हैं वे वाक पर जाते हैं, व्यायाम करते हैं या योग करते हैं। मजदूर, किसान, गरीब लोग ये सब नहीं करते। वे दिन भर हांड़ तोड़ मेहनत करते हैं और योग-व्यायाम को नौटंकी समझते हैं। मैं भी जब गांव में रहता था तो खेती और पशुपालन का काम करता था। तब मुझे भी ये सब नौटंकी लगता था। किसी किसान-मजदूर या ग्रामीण को आप योग बताएंगे तो हंस देगा।
सरकार ने योग को वैश्विक स्तर पर सेलिब्रेट करना शुरू किया है। लेकिन मजदूर या किसान दिवस को उसी तरह सेलिब्रेट नहीं करती। देश अब भी मूल रूप से किसानों-मजदूरों और आम कामगारों के दम पर टिका है। छोटे व्यापार, फैक्ट्रियों और आम रोजगार पर चोट की गई तो अर्थव्यवस्था दो साल से माइनस में चल रही है। दो साल से जब हर सेक्टर डूबा हुआ है, कृषि अकेला सेक्टर है जो मुनाफे में है। किसान-मजदूर देश की रीढ़ हैं, फिर भी सरकार उनके नाम से वैसे धूमधाम से कोई महोत्सव नहीं करती।
प्राचीन भारत में योग योगियों की साधना का साधन था। योग और ध्यान के जरिये वे कुंडलिनी जागरण की अवस्था तक पहुंचने की बात कहते थे। तब योग आम लोगों की चीज नहीं था।
टीवी आया तो वह अपने साथ एक व्यापारी बाबा लाया। बाबा ने तेल, साबुन, चूरन के साथ-साथ योग को भी बेचा और बताया कि योग सब मर्ज का इलाज है। अब योग तोंद वाले अमीरों का शगल या जरूरत है। आम लोग योगी नहीं होते। योग की कुछ शारीरिक क्रियाओं को ही आम लोगों पर थोपकर उसे संस्कृति से जोड़ा जा रहा है। सरकार कुछ प्रतिशत अमीरों के शगल को भारतीय संस्कृति बताकर उसका महोत्सव मनाती है।
एक दो प्रतिशत लोगों की शारीरिक प्रैक्टिस को देश की संस्कृति माना जाए या नहीं, इस पर विद्वान लोग बहस कर सकते हैं। इसे सेलिब्रेट किया जाए या नहीं, इस पर कोई बहस नहीं है क्योंकि ये किया जा रहा है।
पूरे देश के रहन-सहन, जीवनचर्या, बोली-भाषा, पूजा पद्धति वगैरह का उत्सव क्यों नहीं मनाया जा रहा है, इस पर कोई सवाल नहीं पूछता। मजदूर और किसान संख्या में ज्यादा हैं, फिर भी उनके नाम अंतरराष्ट्रीय उत्सव क्यों नहीं होता? ये सवाल आज के माहौल में थोड़ा एन्टीनेशनल हो सकता है।
ये सरकार दरअसल अमीरों के लिए काम करती है, धर्म और संस्कृति के नाम पर उनको उल्लू बनाती है, मध्यवर्ग धर्म और संस्कृति के सियासी बाजार का मुख्य खरीदार है।
इस देश में दो लोग मिलकर दो परसेंट लोगों के लिए सरकार चलाते हैं। यही योग दिवस का सत्य है।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
ईरान के राष्ट्रपति के चुनाव में इब्राहिम रईसी के जीतने पर वे सब लोग बहुत खुश हैं, जो ईरान में अपने आपको कट्टर राष्ट्रवादी कहते हैं। ईरान अपने आप को लाख इस्लामी राष्ट्र कहे लेकिन दुनिया के ज्यादातर इस्लामी राष्ट्रों से उसके संबंध सहज नहीं हैं। रईसी की जीत पर इस्राइल खफा है ही, सउदी अरब और एराक जैसे राष्ट्रों में भी खुशी का माहौल नहीं है।
अमेरिका और यूरोपीय राष्ट्रों की भी चिंता थोड़ी बढ़ गई है, क्योंकि उन्होंने ईरान के साथ जो परमाणु-सौदा किया था, उसको पुनर्जीवित करने में कठिनाइयां आ सकती हैं। रईसी ईरान के मुख्य न्यायाधीश रहे हैं। ईरान-एराक युद्ध के बाद ईरान में देशद्रोहियों को दंडित करने के लिए जो आयोग बना था, उसके सदस्य होने के कारण अमेरिका ने रईसी पर तरह-तरह के प्रतिबंध घोषित किए थे। उस आयोग को 'हत्या आयोगÓ के नाम से जाना जाता है। रईसी ईरान के सर्वोच्च नेता आयतुल्लाह अली खामैनी के परमप्रिय शिष्यों में से हैं।
यह माना जाता है कि खामैनी के बाद वे ही सर्वोच्च नेता के पद पर बैठेंगे। रईसी ने 2017 में भी हसन रुहानी के खिलाफ राष्ट्रपति का चुनाव लड़ा था लेकिन हार गए थे। इस बार ईरान के चुनाव आयोग ने हसन रुहानी के अलावा कई महत्वपूर्ण ईरानी नेताओं की उम्मीदवारी को रद्द कर दिया था। सर्वोच्च नेता खामैनी ने पहले से ही रईसी को समर्थन दे दिया था। इसीलिए उनका चुना जाना तो तय ही था। उन्हें कुल पड़े हुए वोटों के 62 प्रतिशत वोट मिले हैं लेकिन कुल मतदाताओं के एक-तिहाई से भी कम वोट उन्हें मिले हैं। लगभग 6 करोड़ मतदाताओं में से 2 करोड़ 90 लाख ने वोट डाले।
उनमें से भी रईसी को 1 करोड़ 79 लाख वोट ही मिले। ज्यादातर लोग वोट डालने ही नहीं गए। रईसी के पहले आठ साल तक राष्ट्रपति रहे हसन रुहानी जऱा उदारवादी नेता थे। उनके जमाने में छह राष्ट्रों ने मिलकर ईरान को परमाणु शस्त्रास्त्र विरक्ति के लिए तैयार किया और ईरान-विरोधी राष्ट्रों ने भी ईरान के प्रति नरम रुख अपनाया लेकिन आर्थिक दुरवस्था, मंहगाई, बेरोजगारी और जन-प्रदर्शनों ने रुहानी को तंग करके रख दिया था।
अब रईसी की जीत पर रूस, तुर्की, सीरिया, मलेशिया और संयुक्त अरब अमारात जैसे देशों ने उनको बधाई दी है, लेकिन अन्तर्राष्ट्रीय मानव अधिकार संगठन जैसी संस्थाओं ने चिंता व्यक्त की है। ईरान के परमाणु-समझौते को पुनजीर्वित करने की जो बात बाइडन-प्रशासन ने फिर से शुरु की थी, उम्मीद है कि अमेरिका उस पर कायम रहेगा और ट्रंप-प्रशासन के प्रतिबंधों को उठा लेने की कोशिश करेगा। रईसी और ईरान के अपने राष्ट्रहित में यह होगा कि यह नई सरकार परमाणु-समझौते पर व्यावहारिक रवैया अपनाए और ईरान को आर्थिक संकट से बाहर निकाले। (नया इंडिया की अनुमति से)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
ऐसा लगता है कि कश्मीर पर बर्फ पिघलने लगी है। जो बर्फ 5 अगस्त 2019 को जम गई थी, उसके पिघलने की शुरुआत शायद अगले हफ्ते से ही होने लगेगी। खबर गर्म है कि 24 जून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कश्मीरी नेताओं के बीच भेंट होगी।
इस भेंट का मुख्य लक्ष्य क्या है, यह प्रचारित नहीं किया जा रहा है लेकिन सुविज्ञ क्षेत्रों में माना जा रहा है कि जम्मू-कश्मीर में विधानसभा के लिए निर्वाचन-क्षेत्रों का पुनर्निधारण करने के लिए कश्मीरी नेताओं से विचार-विमर्श किया जाएगा। इसका अर्थ क्या हुआ? क्या यह नहीं कि जिला विकास परिषदों के चुनाव के बाद अब विधानसभा के चुनाव होंगे। निर्वाचन-क्षेत्रों के पुनर्निधारण के लिए जो आयोग बना है, उसकी पिछली बैठकों में कश्मीरी नेताओं ने भाग नहीं लिया था लेकिन अब गुपकार गठबंधन के नेता डॉ. फारुक अब्दुल्ला ने कहा है कि उन्हें किसी भी संवाद से कोई परहेज नहीं है। हालांकि उन्हें, उनके बेटे उमर अब्दुल्ला और पीडीएफ की नेता महबूबा मुफ्ती वगैरह को सरकार ने नजरबंद कर दिया था। ये सभी दल मिलकर धारा 370 और 35 ए को खत्म करने का विरोध कर रहे थे और कश्मीर को मिले विशिष्ट राज्य के दर्जे को बहाल करने का आग्रह कर रहे थे।
इस तनातनी के बीच दिसंबर 2020 में हुए जिला विकास परिषदों के चुनाव में कुल 280 सीटों में से गुपकार गठबंधन को 110 सीटें मिलीं और ज्यादातर परिषदों पर उसका कब्जा हो गया। पिछले दो चुनावों का इन पार्टियों ने बहिष्कार किया था लेकिन जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन के बावजूद उन्होंने इन चुनावों में भाग लिया, इस तथ्य से आशा बंधती है कि वे विधानसभा के चुनाव भी जरुर लड़ेंगी लेकिन असली सवाल यही है कि क्या वे जम्मू-कश्मीर के पुराने दर्जे को बहाल करने पर अड़ी रहेंगी ? वे बिल्कुल अड़ी रहेंगी लेकिन जहां तक केंद्र सरकार का सवाल है, उसने संसद में वचन दिया था कि जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा दुबारा बहाल किया जा सकता है।
फिलहाल, मनोज सिंहा उप-राज्यपाल के तौर पर वहां कुशलतापूर्वक शासन चला रहे हैं। आतंकवादी घटनाओं पर नियंत्रण है, कोई जन-आंदोलन भी नहीं हो रहे हैं और कश्मीरी नेता भी संयम का परिचय दे रहे हैं। पाकिस्तान के सेनापति कमर जावेद बाजवा ने कश्मीर पर बातचीत का प्रस्ताव किया है और प्रधानमंत्री इमरान खान ने भी कश्मीर-विलय पर एक रस्मी बयान दे दिया था। उन्होंने कोई उग्रवादी रवैया नहीं अपनाया है। ऐसी हालत में कश्मीरी नेताओं से होनेवाला सीधा संवाद काफी सार्थक सिद्ध हो सकता है। इस कोरोना-काल में कश्मीरी जनता के सेवा में सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। यदि धारा 370 और 35 ए बहाल न भी हों तो भी यह जरुरी है कि जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा शीघ्र दिया जाए और वहां लोकप्रिय सरकार शीघ्र ही कार्य करने लगे।
(नया इंडिया की अनुमति से)
-रमेश अनुपम
यह अद्भुत संयोग है कि ठाकुर जगमोहन सिंह के पश्चात जब मैंने माधवराव सप्रे पर इक्कीसवीं कड़ी की शुरुआत की तो 19 जून समीप ही था। यह मेरे लिए दुर्लभ और सुखद संयोग है कि आज जब 19 जून को मैं माधवराव सप्रे की दूसरी कड़ी पूरी कर रहा हूं, उनकी 150 वीं जयंती संपूर्ण देश में मनाई जा रही है।
खड़ी बोली, हिंदी पत्रकारिता, हिंदी कहानी और छत्तीसगढ़ राज्य की ओर से माधवराव सप्रे को उनकी 150 वीं जयंती पर सादर नमन करते हुए मैं उन पर केंद्रित बाईसवीं कड़ी प्रारंभ कर रहा हूं।
विश्वास कर पाना मुश्किल है कि बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जब खड़ी बोली और हिंदी पत्रकारिता दोनों ही अपने पावों पर ठीक से खड़ी भी नहीं हो पाई थी, ऐसे विकट समय में माधवराव सप्रे किस तरह से कभी 'छत्तीसगढ़ मित्र’ के माध्यम से तो कभी ' हिंदी ग्रंथ माला’, 'हिंदी केसरी’ तथा 'कर्मवीर’ के माध्यम से ब्रितानवी हुकूमत को ललकारने का साहस कर रहे थे। अपनी पत्रकारिता के माध्यम से गहरी नींद में सोये हुए हिंदी समाज को जागृत करने का प्रयत्न कर रहे थे।
माधवराव सप्रे सरकारी नौकरी का प्रलोभन पहले ही ठुकरा चुके थे। जिसके भीतर स्वराज्य की अग्नि प्रज्वलित हो रही हो, जिसकी आंखों में देश की स्वतंत्रता की चाह ज्वालामुखी की तरह धधक रही हो, उसे कैसे कोई प्रलोभन लुभा सकता है।
सन 1900 में 'छत्तीसगढ़ मित्र’ के माध्यम से जो नवजागरण का कार्य उन्होंने प्रारंभ किया था, उसके बंद होने के मात्र तीन वर्ष उपरांत ही एक नई जगह नागपुर से 'हिंदी ग्रंथ माला’ का शंखनाद कर देना कोई साधारण घटना नहीं है।
अपना घर द्वार छोड़कर पेंड्रा और रायपुर से कोसों दूर विदर्भ की धरती से एक बार फिर से स्वराज्य का अलख जगाने का सपना माधवराव सप्रे जैसे क्रांतिवीर ही देख सकते थे।
नागपुर से 'हिंदी ग्रंथ माला' का प्रकाशन हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में एक युगांतकारी घटना है। इस पत्रिका में सबसे पहले जान स्टुअर्ट मिल का सुप्रसिद्ध लेख 'On Liberty ' का महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद 'स्वाधीनता' के नाम से प्रकाशित किया गया, जिसके चलते माधवराव सप्रे अंग्रेजों की आँख की किरकिरी बन गए।
इसके बाद सन 1907 में माधवराव सप्रे का बहुचर्चित लेख 'स्वदेशी आंदोलन' और बायकॉट ' का प्रकाशन हुआ जिसके फलस्वरूप 'हिंदी ग्रंथ माला' देश की स्वाधीनता के लिए मर मिटने वालों की प्रिय पत्रिका बन गई।
सन 1908 में 'स्वदेशी आंदोलन' और 'बायकॉट' को पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित किया गया। पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित होते ही यह अंग्रेज सरकार द्वारा जब्त कर ली गई।
अंग्रेजों ने न केवल इसे जब्त किया वरन ' हिंदी ग्रंथ माला ' के प्रकाशन पर भी प्रेस एक्ट की धाराओं के तहत रोक लगवा दी।
सन 1908 में ही 'हिंदी ग्रंथ माला' द्वारा दो और किताबों का भी प्रकाशन किया गया। महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा अनूदित 'स्वाधीनता’ और 'महारानी लक्ष्मीबाई’। ये दोनों ही किताबें अंग्रेज सरकार को खतरनाक प्रतीत हुई। सो 'हिंदी ग्रंथ माला' पर अंग्रेज सरकार का गाज गिरना स्वाभाविक ही था।
'हिंदी ग्रंथ माला ' पत्रिका तब तक हिंदी समाज में काफी लोकप्रिय हो चुकी थी। यह उस समय स्वाधीनता की अलख जगाने वाली एक निर्भीक पत्रिका साबित हुई। इसका वार्षिक मूल्य तीन रुपया रखा गया था तथा उस समय इसके नियमित ग्राहकों की संख्या लगभग तीन सौ के आसपास थी।
इस पत्रिका के चाहने वालों में अयोध्या सिंह उपाध्याय, पंडित श्रीधर पाठक, पद्य सिंह शर्मा तथा महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे साहित्यकार प्रमुख थे।(शेष अगले हफ्ते)
-श्याम मीरा सिंह
हिंदुस्तान के लिए जैसे मिल्खा थे वैसे ही पाकिस्तान के लिए अब्दुल खलीक थे। पाकिस्तान चैंपियन अब्दुल खलीक। साठ का दशक था और जनवरी का सर्द महीना। पकिस्तान के उर्दू अख़बारों में हेडलाइन छपी...‘खलीक बनाम मिल्खा-पाकिस्तान बनाम इंडिया।’ मिल्खा के लिए उस मुल्क में लौटना एक ट्रॉमा से कम न था जिसमें अपने मां-बाप, भाई बहनों के गले कटते हुए अपनी आंख के सामने देखा था। मिल्खा का जन्म अविभाजित भारत में हुआ था, जिसे आज पाकिस्तान कहते हैं। जब साल 1947 में हिंदुस्तान की सरजमीं पर दो लाइनें खींच दी गईं। इधर हिंदुस्तान में मुसलमान मारे गए, उधर दूसरे मुल्क में सिख और हिन्दुओं के कत्लेआम किये गए। मिल्खा का परिवार भी हिंदुस्तान आने के क्रम में ही था कि मिल्खा के मां-पिता और आठ भाई-बहनों को मौत के घाट उतार दिया। बचे मिल्खा। भागते-गिरते-गिराते बचते हुए अकेले ही भारत आ पहुंचे, दिल्ली के शरणार्थी कैंपों में रहे। कोई काम नहीं मिलता था उन दिनों, मन हुआ कि डकैत बन जाऊं। पर बड़े भाई की सोहबत ने चोर न बनने दिया। दूसरा ऑप्शन सेना में सिपाही बन जाना था। 1951 में मिल्खा सिपाही हो गए।
शुरुआत में पाकिस्तान जाने के सवाल पर मिल्खा झिझकने लगे। तभी हिंदुस्तान के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु से उनकी बात होती है, नेहरू ने मिल्खा से कहा- तुम्हारे पास इस मुल्क का प्यार और स्नेह है, हम सब तुम्हारे साथ हैं, इसलिए अतीत को भुला दो, उन्होंने दोस्ती की भावना से तुम्हें अपने यहां दौड़ के लिए निमंत्रण भेजा है। मैं चाहता हूं तुम वहां जाओ और हमारे देश का प्रतिनिधित्व करो।’ नेहरू से तसल्ली मिल जाने के बाद मिल्खा पाकिस्तान जाने के लिए तैयार हो गए।
बाघा बॉर्डर पार करते ही मिल्खा की जीप पर पाकिस्तानियों ने फूल बरसाए, फूल बरसाने वाले और इस स्वागत से खुश होने वाले दोनों ही लोगों ने विभाजन में जरूर अपने खोए रहे होंगे। फिर भी आज दोनों अपना अतीत भुलाकर भविष्य के साथ न्याय बरतना चाहते थे। सडक़ के दोनों पार खड़े लोग हिन्दुस्तानी खिलाड़ी को चीयर कर रहे थे, खुश हो रहे थे। ये वो दो मुल्क मिल रहे थे जिन्होंने दस साल पहले ही अपनी अपनी तलवारों को एक दूसरे के गले से नीचे उतारा होगा। मगर इस दिन का आना इस बात की गुंजाइश का भी गवाह था कि लाख नफरतों में मोहब्बत के फूल उगाए जा सकते हैं। इधर के बाग में नेहरू जैसा जहीन माली था उधर भी किसी का दिल हिंदुस्तान के लिए पिघला होगा।
मिल्खा के पहुंचते ही उर्दू अख़बारों में एकबार फिर हेडलाइन बनीं...खलीक बनाम मिल्खा, पाकिस्तान बनाम हिंदुस्तान...’
रेस वाले दिन लाहौर स्टेडियम में 60 हजार लोग इकट्ठे हो गए, जिनमें बीस हजार महिलाएं थीं। रेस शुरू होने से पहले मौलवी आए, प्रार्थना की गई, मोहम्मद याद किये गए। खलीक के लिए दिल भर दुआएं माँगी गईं। मिल्खा के लिए दुआएं मांगने वाला कोई पुरोहित वहां न था, खलीक के लिए दुआएं मांगने के बाद जैसे ही मौलवी लौटने को हुए, मिल्खा बोल पड़े। ‘मैं भी खुदा का बन्दा हूँ।’
इसे सुनने के बाद दो मुल्कों की दीवारें ढह गईं, दो धर्मों के दरवाजे एक आंगन में आकर मिल गए। मौलवी रुक गए, और मिल्खा के लिए भी दुआएं कर दीं, या अल्लाह इसे भी जीत बख्शें...
कुछ देर बाद रेस शुरू हो गई। खलीक सौ मीटर की रेस मारने वाले महान लड़ाका थे और मिल्खा थोड़ी दूर तक जाने वाले जांबाज घोड़ा थे, मुकाबला दो देशों के साथ-साथ दो वीरों का भी था। दोनों में से कोई उन्नीस बीस नहीं। दोनों बराबर, दोनों किसी युद्ध में खड़े आखिरी सेनापति जैसे। शुरुआत में ही खलीक मिल्खा से दो कदम आगे निकल गए, खलीक आगे आगे, मिल्खा पीछे पीछे, लेकिन 150 यार्ड होते-होते मिल्खा बराबरी पर आ गए, अगले ही पल खलीक पीछे छूट गए। मिल्खा ने मात्र 20।7 सेकंड में वो दौड़ मार दी। पूरे विश्व में वो नया रिकॉर्ड बना। मौलवियों की दुआएं शायद मिल्खा को लग गईं। खलीक हार गए, मिल्खा विजयी हुए...
चारों ओर साठ हजार पाकिस्तानी मायूस। पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल अयूब मिल्खा के पास पहुंचे और जीत की माला पहना दी। अयूब मिल्खा से बोले- ''Milkha you did not run, you flew''. मतलब तुम दौड़े नहीं यार, तुम तो उड़े...
पूरी दुनिया के अखबारों में अगले दिन ये खबर छप गई। अयूब के शब्दों ने मिल्खा का नया नामकरण कर दिया, हर जगह एक ही लाइन छपी "Milkha you did not run, you flew'' यहीं से मिल्खा का नाम पड़ा ‘फ्लाइंग सिख।’
जिस पाकिस्तान ने मिल्खा से उसके मां-बाप को छीना... उसी पाकिस्तान ने उन्हें जी भर मोहब्बत दी। पाकिस्तान से लौटने के बाद मिल्खा के आगे दो शब्द और जुड़ गए ‘फ्लाइंग सिख मिल्खा।’
यही भारत मां का उडऩे वाला इकलौता बच्चा... अपना हंस लेकर कल किसी दूसरे आसमान में उड़ गया।
-आशुतोष भारद्वाज
इस जनवरी में अपनी छत्तीसगढ़ यात्रा पर मैंने बहुभाषिक पाठ्य-पुस्तकें देखीं, जिन्हें हाल ही पाठ्यक्रम में शामिल किया गया था। हिंदी प्रदेश के किसी अन्य राज्य की भाँति छत्तीसगढ़ में भी सरकारी काम तो मानकीकृत हिंदी में होता है, लेकिन कई अन्य भाषाएँ और बोलियाँ भी हैं। अक्सर निवासी मानकीकृत हिंदी के बजाय अपनी स्थानीय ज़ुबान में बतियाते और सहज महसूस करते हैं।
छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढिय़ा के अलावा हल्बी, सरगुजि़हा, बघेली, बैगानी इत्यादि भाषाएँ और बोलियाँ प्रचलित हैं। ख़ुद छत्तीसगढिय़ा, जो राज्य में सर्वाधिक बोली जाती है और जिसे संविधान की आठवीं अनुसूची में लाने की माँग अरसे से हो रही है, के भी कई स्वरूप हैं चार कोस पर बदले वाणी।
इन नई पाठ्यपुस्तकों में ये सभी भाषाएँ और बोलियाँ हिंदी के साथ जगह पाती हैं। एक पन्ने पर हिंदी, दूसरे पर बघेली, छत्तीसगढिय़ा, हल्बी इत्यादि। मैंने जब इन्हें मिला कर पढ़ा (तस्वीर को देखिएगा), तो यह जबरदस्त भाषिक प्रयोग लगा। मसलन बिलासपुर में बोली जाने वाली छत्तीसगढिय़ा का कोई वाक्य दुर्ग में बोली जाने वाली छत्तीसगढिय़ा में आकर क्या रंग ले लेगा।
मैंने इन वाक्यों को भिन्न भाषाओं में बोलकर पढ़ा, उनकी ध्वनियों को सुनना बड़ा रोमांचक लगा।
चूहे को मिली पेंसिल
मुसबा का मिलिस पेंसिल
मुसटा ल मिलिस पेंसिल
मुसवा ल मिलिस सीस
इन मासूम वाक्यों की गूंज देर तक बनी रही। देवनागरी के कुटुम्ब में इन शब्दों को देखकर सुख भी मिला, तय किया कि इन्हें ख़ुद भी प्रयोग किया करूँगा।
यह भी लगा कि इस तरह के भाषिक प्रयोग उत्तर प्रदेश और बिहार में भी हों हिंदी, अवधी, ब्रज, भोजपुरी एक साथ एक किताब में जगह पाएँ।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
ट्विटर और टीवी चैनलों पर सरकार अंकुश लगाना चाहती है लेकिन कुछ पत्रकार संगठन और विपक्षी नेता इसका विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और स्वतंत्र पत्रकारिता का हनन है। उनका ऐसा कहना इसलिए ठीक लग सकता है कि सरकारें प्राय: उन्हीं पत्रकारों पर हमले करती हैं, जो उसके खिलाफ लिखने और बोलने के लिए जाने जाते हैं। लेकिन आजकल व्हाट्साप, ट्विटर, ई-मेल, टीवी चैनलों आदि पर इतनी अनर्गल, अश्लील, मानहानिकारक, उत्तेजक व भ्रामक खबरें और बातें चली आती हैं कि यदि उन पर रोक नहीं लगे तो समाज में अराजकता फैल सकती है। जिन संचार-साधनों को हम पत्रकारिता का अंग मानकर चल रहे हैं, क्या वे सचमुच पत्रकारिता हैं ? शायद नहीं। क्योंकि पत्रकारिता का मूल सूत्र है- नामूलं लिख्यते किंचित याने बिना प्रमाण के कुछ भी नहीं लिखना।
याने अखबारों में जो कुछ भी लिखा जाता है उसका स्त्रोत बताना जरुरी होता है। उसके बावजूद कोई भूल-चूक हो जाती है तो अखबार पाठकों से माफी मांगता है लेकिन टीवी चैनलों पर जिम्मेदार सूत्रधारों (एंकरों) के अलावा तरह-तरह के नेता, सड़कछाप प्रवक्ता, दंगलबाज़ वक्ता और बेलगाम बकवासी भी बुलवाए जाते हैं, क्योंकि चैनलों को टीआरपी चाहिए होती है। उसमें लाख सावधानी के बावजूद घनघोर आपत्तिजनक बातें भी पर्दे पर चली आती हैं। उनसे हिंसा भड़क सकती है, गलतफहमियां फैल सकती हैं, किसी की इज्जत तार-तार हो सकती है। ऐसे में भी क्या सरकार को चुप रहना चाहिए ? बिल्कुल नहीं। इसके पहले कि सरकार सीधे हस्तक्षेप करे, खुद चैनल को कार्रवाई करनी चाहिए। इसके तीन स्तर सोचे गए हैं। पहला, जिसे भी शिकायत हो, वह उस चैनल को सूचित करे। 24 घंटे में चैनल उसका प्राप्ति-स्वीकार भेजे।
यदि शिकायतकर्त्ता को उसके जवाब से 15 दिन में संतुष्टि न हो तो वह अपनी शिकायत चैनलों की आत्म-नियामक संस्था को भेजे और 60 दिन में भी उसे उसके जवाब से संतोष न हो तो वह अपनी शिकायत उस सरकारी निगरानी समिति को भेज सकता है, जिसके सदस्य कई मंत्री और उच्च अधिकारी होंगे। मैं तो मानता हूं कि इस समिति को ऐसे कठोर नियम बनाने चाहिए कि दोषी व्यक्ति के साथ-साथ भावी दोषियों को भी सबक मिले। यही सिद्धांत ट्विटर आदि माध्यमों पर भी लागू होना चाहिए। गाजियाबाद में एक मुस्लिम बुजुर्ग की दाढ़ी काटने और उससे जबर्दस्ती 'श्रीरामजी की जयÓ बुलवाने की झूठी खबर फैलानेवालों को दंडित क्यों नहीं किया जाना चाहिए? ट्विटर के संचालकों के पेंच क्यों नहीं कसे जाने चाहिए। यदि अमेरिका में हुड़दंगी ट्रंप-समर्थकों पर काबू पाने के लिए ट्रंप के ट्विटर पर प्रतिबंध लग सकता है तो भारत में ट्विटर को मर्यादा का पालन करने में क्या एतराज है? मनमानी करना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है। वह स्वच्छंदता है। ईरान, चीन, नाइजीरिया और तुर्किस्तान की तरह ट्विटर को बंद करने का नहीं, बल्कि उसके आत्म-नियंत्रण का आग्रह भारत कर रहा है।
(नया इंडिया की अनुमति से)
जेनेवा में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की बातचीत से एशियाई देशों को काफी उम्मीदें हैं. रूस अमेरिकी तनाव में कमी भूराजमैतिक बदलाव से गुजर रहे एशिया के लिए बहुत महत्वपूर्ण है.
डॉयचे वैले पर राहुल मिश्र का लिखा-
दोनों महाशक्तियों के शीर्ष नेताओं के बीच 2018 के बाद यह पहली मुलाकात थी. भूतपूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बीच 2018 में हेलसिंकी में ऐसी ही मुलाकात हुई थी. हालाकि ट्रंप पर यह भी आरोप थे कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में रूस की तथाकथित दखलअंदाजी से उन्हें फायदा हुआ था. और नुकसान हुआ था बाइडेन की पार्टी की उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन को. बाइडेन-पुतिन शिखर वार्ता में जिन महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा हुई वे वैश्विक राजनीति पर तो असर डालते ही हैं, कुछ मुद्दों का एशिया पर खास असर होने की संभावना है विशेषकर उन मसलों पर जहां चीन की बड़ी भूमिका रही है.
अमेरिका और रूस वैश्विक महाशक्तियां होने के साथ साथ एशिया की भूराजनीति में भी काफी दखल रखती हैं. चीन, ईरान और पश्चिम एशिया, उत्तर कोरिया, और तमाम स्ट्रेटेजिक हॉट्स्पॉट्स पर इन दोनों देशों का व्यापक असर देखने को मिलता है. कूटनय की सबसे बड़ी सफलताओं में से एक तो यही है कि यह युद्ध और डेडलॉक के रास्ते से परे बातचीत और बहस मुबाहिसे के रास्ते को साफ करती है.
महाशक्तियों की बातचीत से उम्मीदें
परमाणु हथियारों के नियंत्रण के मसले पर भी दोनों देशों के बीच सैद्धांतिक तौर पर आम सहमति बन गई दिखती है. दुनिया के दो सबसे बड़े परमाणु जखीरों के मालिक इन दो देशों के बीच यह सहमति दुनिया और खास तौर पर एशिया के लिए वही महत्व रखती है जो महत्व किसी जंगल के कोने में दो हाथियों के युद्धविराम से वहां पसरी घास के लिए होता होगा. आखिरकार इन दो हाथियों की लड़ाई में पिसना तो छोटे छोटे देशों सरीखी घास को ही होता है.
रूस पर एशिया के कई देशों को सैन्य सहयोग करने का इल्जाम लगाया जाता है. इनमें सीरिया, ईरान, उत्तर कोरिया, और म्यांमार जैसे देश शामिल हैं. सीधे तौर पर फिलहाल रूस इन देशों के साथ संबंधों में कोई कमी नहीं लाने जा रहा और इस लिहाज से मुलाकात का कोई सीधा असर एशिया की हथियार मंडी पर नहीं होगा. लेकिन काम से काम बाइडेन की बात का इतना असर तो होगा कि रूस अमेरिका के क्रिटिकल इंफ्रास्ट्रक्चर पर कोई साइबर हमला नहीं करेगा.
बाइडेन-पुतिन की मुलाकात में दोनों देशों के बीच रोड़ा बने कई मुद्दों पर कोई ठोस बातचीत नहीं हुई जिससे कुछ हलकों में निराशा भी है. साइबर सुरक्षा, यूक्रेन, जॉर्जिया, और नगोर्नो-काराबाख इलाके में रूसी दखलंदाजी पर भी कुछ खास बात नहीं सामने आई. लेकिन यहां यह समझना भी जरूरी है कि पहली ही मुलाकात में यह सब कुछ सुलझ जाता यह उम्मीद करना भी बेमानी है. बातचीत के इस दौर से आगे फिर बातचीत का रास्ता निकले यह बहुत महत्वपूर्ण है.
शिखर बातचीत में चीन भी
मुलाकात से पहले और उसके बाद के बाइडेन के वक्तव्यों में चीन का जिक्र दिलचस्प था. कहीं न कहीं बाइडेन को यह उम्मीद है कि रूस चीन के मुद्दे पर अमेरिका का साथ दे सकता है. नाटो और यूरोपीय संघ के सदस्य देशों के साथ मुलाकात हो या जी-7 का शिखर सम्मेलन, बाइडेन लगातार चीन को लेकर एक संयुक्त मोर्चा बनाने की फिराक में है. इस नई कूटनीतिक चाल के दूरगामी परिणाम होंगे भले ही एक झटके में बाइडेन को इसमें कामयाबी न मिले.
एशिया और इंडो-पैसिफिक के तमाम देश, चाहे जापान हो या इंडोनेशिया, आस्ट्रेलिया, भारत या फिर वियतनाम, सभी चीन की आक्रामक नीतियों और बढ़ती दादागीरी से परेशान हैं. ऐसे में बाइडेन की एक कूटनीतिक संयुक्त मोर्चा खोलने की बात सभी के लिए अच्छी खबर है. पश्चिम के देशों से बरसों से मुंह मोड़ कर बैठे और तमाम प्रतिबंधों की मार झेल रहे रूस के लिए शायद यह अच्छा अवसर है कि वह पश्चिम के देशों का साथ दे. वैसे तो रूस चीन का साथ देने की बात करता रहा है लेकिन पश्चिम के साथ नई डील की उम्मीद में शायद रूस कुछ मुद्दों पर सहयोग कर भी सकता है. और शायद ऐसा करे भी.
कई संभावनाओं की ओर इशारा
शिखर वार्ता के बाद रूस के बारे में दिया बाइडेन का बयान ऐसी कई संभावनाओं की ओर इशारा करता है. रूस मध्य एशिया और कॉकेशस में चीन की बढ़ती दखलंदाजी पसंद नहीं करता और इन बातों से परेशान भी है. चीन की बढ़ती आर्थिक, सामरिक, और सैन्य ताकत ने उसे अत्याधुनिक पश्चिमी देशों की कतार में ला खड़ा किया है. रूस इनमें से कई मामलों में चीन से पिछड़ता दिख रहा है. दुनिया के कई ऐसे देश हैं जहां पहले रूस का वर्चस्व था और आज उसकी जगह चीन ने ले ली है.
म्यांमार, वियतनाम, और दक्षिण पूर्व एशिया के कई देशों के साथ उसके रक्षा कारोबारी संबंध तो हैं लेकिन दक्षिण पूर्व एशिया में उसकी कूटनीतिक पकड़ बहुत कमजोर है. दक्षिण एशिया में भारत जैसा मजबूत सहयोगी होने के बावजूद वह अमेरिका के मुकाबले पिछड़ता जा रहा है. पश्चिमी प्रतिबंधों की वजह से भारत और रूस के बीच रक्षा सहयोग पर भी आंच आ रही है. अमेरिका और यूरोप की रूस के साथ बातचीत को लेकर गंभीरता और ईमानदारी और चीन के साथ इन देशों के सम्बंध भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे यह भी तय है.
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं.)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन के बीच जिनीवा में हुई मुलाकात का सिर्फ इन दो महाशक्तियों के लिए ही महत्व नहीं है, विश्व राजनीति की दृष्टि से भी यह महत्वपूर्ण घटना है।
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और पूतिन के बीच पहले से चल रही सांठ—गांठ के किस्से काफी मशहूर हो चुके थे और जब वे 2018 में हेलसिंकी में मिले थे तो उनकी भेंट का माहौल काफी गर्म था लेकिन इस बार बाइडन और पूतिन, दोनों ही मिलने के पहले काफी सावधान और संकोचग्रस्त थे। इसके बावजूद यह मानना पड़ेगा कि दोनों नेताओं की भेंट काफी सकारात्मक रही। पहला काम तो यही हुआ कि दोनों देशों ने अपने राजदूतों को एक दूसरे की राजधानी में वापस भेजने की घोषणा कर दी है। दोनों देशों ने अपने-अपने राजदूतों को वापस बुला लिया था, क्योंकि बाइडन ने पूतिन के लिए 'हत्याराÓ शब्द का इस्तेमाल कर दिया था। इस भेंट में भी बाइडन ने रुस के विपक्षी नेता ऐलेक्सी नवाल्नी के बारे में कड़ा रुख अपनाया और उन्होंने पत्रकारों से कह डाला कि जेल में पड़े हुए नवाल्नी की हत्या हो गई तो उसके परिणाम भयंकर होंगे। मेरी राय में यह अतिवादी प्रतिक्रिया है। किसी भी देश के अंदरुनी मामलों में आप अपनी राय जरुर जाहिर कर सकते हैं, लेकिन उनमें टांग अड़ाने की कोशिश कहां तक ठीक है ?
दोनों नेताओं ने कई परमाणु शस्त्र-नियंत्रण संधि और साइबर हमलों को रोकने पर भी विचार करने का संकल्प किया। ऊक्रेन के पूर्वी सीमांत पर रुसी फौजों के जमावड़े और साइबर हमलों के लिए कुछ रूसियों को जिम्मेदार ठहराने के अमेरिकी रवैए को भी पूतिन ने रद्द कर दिया, लेकिन इन असहमतियों के बावजूद दोनों नेताओं के बीच चार घंटे तक जो संवाद हुआ, उसमें कहीं भी कोई कहा-सुनी नहीं हुई और नेताओं ने बाद में पत्रकारों से जो बात की, उसके आधार पर माना जा सकता है कि दोनों विश्वशक्तियों के बीच सार्थक संवाद का शुभारंभ हो गया है। दोनों ही नेता इस भेंट से कोई खास उम्मीद नहीं कर रहे थे, लेकिन इस भेंट ने दोनों के बीच अब संवाद के दरवाजे खोल दिए हैं।
बाइडन का यह कथन ध्यातव्य है कि वे रुस के विरुद्ध नहीं हैं, लेकिन वे अमेरिकी जनता के हितों के पक्ष में हैं। पूतिन को 'हत्याराÓ कहने के बावजूद बाइडन उनसे मिलने को तैयार हो गए, इसके पीछे मूल कारण मुझे चीन लगता है। अमेरिका चीन से बहुत चिढ़ा हुआ है। वह दो-दो महाशक्तियों को अपने विरुद्ध एक कैसे होने देगा? अभी यदि शीतयुद्ध के माहौल को लौटने से रोकना है तो रुस-अमेरिकी संबंधों का सहज होना बहुत जरुरी है। कोई आश्चर्य नहीं कि बाइडन और शी चिन फिंग के पुराने परिचय के बावजूद यह बाइडन-पूतिन संवाद अंतराष्ट्रीय राजनीति में एक नई लकीर खींचने का काम कर डाले। भारत के लिए भी यह लाभकर रहेगा।
(नया इंडिया की अनुमति से)
ग़ैर-भाजपाई विचारधारा वाले दलों से चुनिंदा नेताओं को भाजपा में शामिल कर विपक्षी सरकारों को गिराने या चुनाव जीतने की कोशिशों पर जताई जाने वाली नाराजग़ी और नजरिए में थोड़ा सा बदलाव कर लिया जाए तो जो चल रहा है उसे बेहतर तरीक़े से समझा जा सकता है। भारतीय जनता पार्टी में सरकार के स्थायित्व को लेकर इन दिनों जैसी राजनीतिक हलचल दिखाई पड़ रही है वैसी पहले कभी नहीं दिखाई दी। अटलजी भी अगर दल-बदल करवाकर पार्टी के सत्ता में बने रहने के मोदी-फॉर्मूले पर काम कर लेते तो 2004 में उनकी सरकार न सिर्फ फिर से क़ायम हो जाती, दस साल और बनी रहती।
नैतिक दृष्टि से इसे उचित नहीं माना जा रहा है कि भाजपा में दूसरे दलों से उन तमाम प्रतिभाओं की भर्ती की जा रही है जो पार्टी की कट्टर हिंदुत्ववादी छवि, उसकी साम्प्रदायिक विभाजन की राजनीति और रणनीति के सार्वजनिक तौर पर निर्मम आलोचक रहे हैं। पिछले कुछ सालों में (2014 के बाद से) मनुवाद-विरोधी बसपा, सम्प्रदायवाद-विरोधी कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस सहित तमाम दलों के बहुतेरे लोगों के लिए भाजपा के दरवाजे खोल दिए गए और उनके गले में केसरिया दुपट्टे लटका दिए गए। हाल ही में भाजपा में शामिल होने वालों में कांग्रेस के जितिन प्रसाद को गिनाया जा सकता है। सचिन पायलट रास्ते में हो सकते हैं। स्वामी प्रसाद मौर्य (बसपा), ज्योतिरादित्य सिंधिया (कांग्रेस), शुभेंदु अधिकारी (तृणमूल कांग्रेस ), आदि की कहानियाँ अब पुरानी पड़ गईं हैं। बदलती हुई स्थितियों में राजनीतिक धर्म-परिवर्तन की इन तमाम घटनाओं को भगवा चश्मों से देखना स्थगित कर कोरी आँखों से देखने का अभ्यास शुरू कर दिया जाना चाहिए।
हो यह रहा है कि बहती हुई लाशों के चित्रों को देख-देखकर शोक मनाते रहने की व्यस्तता में हम दूसरी महत्वपूर्ण घटनाओं को अपनी आँखों की पुतलियों के सामने तैरते रहने के बावजूद नहीं देख पा रहे हैं। साथ ही यह भी कि कुछ ऐसे कामों, जिनमें अपनी जान बचाना भी शामिल हो गया है, में हम इस कदर जोत दिए गए हैं कि हमें होश ही नहीं रहेगा और किसी दिन राष्ट्र के नाम एक भावुक सम्बोधन मात्र से नागरिकों की जि़ंदगी की दशा और देश की दिशा बदल दी जाएगी। टीका केवल कोरोना महामारी से बचने का ही लगाया जा रहा है, राजनीतिक पोलियो से बचाव का नहीं।
इस समय सत्ता में बैठे तमाम लोगों को एक साथ दो मोर्चों पर लडऩा पड़ रहा है। यह अभूतपूर्व स्थिति आजादी के बाद पहली बार उपस्थित हुई है। पहला मोर्चा यह है कि देश में प्रजातंत्र के ऑक्सीजन की लगातार होती कमी के कारण हम दुनिया की उस बिरादरी में अछूत माने जा रहे हैं जहां लोगों को खुले में साँस लेने की सुविधा और अधिकार प्राप्त है। इस सवाल पर दुनिया की प्रजातांत्रिक हुकूमतें सरकार के विरोध और स्पष्टीकरण के बावजूद उसे लगातार कठघरों में खड़ा कर रही है।अभिव्यक्ति की आजादी से लेकर मानव संसाधनों और स्वास्थ्य आदि के क्षेत्रों में हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह से पायदान-दर-पायदान नीचे गिरते जा रहे हैं। उसकी शर्म से विदेशों में बसने वाले अप्रवासी भारतीय नागरिकों के सिर झुकते जा रहे हैं। हो सकता है प्रधानमंत्री एक लम्बे समय तक ह्यूस्टन जैसी किसी रैली में यह नहीं कह पाएँ कि ‘आल इज वेल इन इंडिया।’
सत्ताधीशों की परेशानी का दूसरा बड़ा मोर्चा यह है कि हिंदुत्व के कट्टरवाद की बुनियाद पर नागरिकों के साम्प्रदायिक विभाजन को वोटों में बदलने का मानसून अब कमजोर पड़ता जा रहा है। इसे यूँ समझ जा सकता है कि हाल के विधानसभा चुनावों तक स्टार प्रचारक के तौर पर माथों पर तोके जा रहे आदित्यनाथ योगी को बंगाल और उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनावों में पार्टी को धक्का लगते ही बदलने की चर्चाएँ चलने लगीं।
महामारी ने जिस तरह से बिना कोई आधार कार्ड मांगे सभी धर्मों और सम्प्रदायों के प्राणियों को नदियों की लहरों पर उछलती-डूबती लाशों की गठरियों या राख के ढेरों में बदल दिया है उसकी सबसे बड़ी चोट हिंदुत्व के चुनावी एजेंडे पर पड़ी है। महामारी के साथ लोहा लेने में जर्जर जर्जर साबित हुई व्यवस्था ने संकुचित राष्ट्रवाद के नारों से लोगों के जीवन, रोजग़ार और घरों को बचा पाने की निरर्थकता को कमोबेश बेनकाब कर दिया है। मौतों के वास्तविक आँकड़ों में हुई हेराफेरी और पारस्परिक विश्वास में किए गए गबन ने सत्ता के शीर्ष पुरुषों के प्रति यकीन को खंडित कर उनकी लोकप्रियता के अहंकार को अड़तीस प्रतिशत तक सीमित कर दिया है। जनता की समझ में अब आने लगा है कि उनकी समस्याओं के राष्ट्रवादी कोरोनिली इलाज का रास्ता ‘ब्लू व्हेल चैलेंज’ का खेल है जिसमें व्यक्ति संकट की घड़ी में अपने सत्ता-पुरुषों की तलाश करता हुआ अंत में आत्महंता बन जाता है।
विभिन्न दलों की सर्वगुण सम्पन्न प्रतिभाओं के भाजपा में-प्रवेश को इस परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है कि पार्टी अपने अश्वमेघ यज्ञ का अधूरी विजय-यात्रा में ही समापन होते देख भयभीत हो रही है। भाजपा अब अपनी आगे की यात्रा सिफऱ् पुरानी भाजपा के भरोसे नहीं कर सकती ! उसे अपनी पुरानी चालों और पुराने चेहरों को बदलना पड़ेगा। चेहरे चाहे किसी योगी के हों या साक्षी महाराज, गिरिराज सिंह , साध्वी प्राची, प्रज्ञा ठाकुर या उमा भारती के हों। इसका एक अर्थ यह भी है कि राजनीति में सत्ता का बचे रहना जरूरी है, व्यक्तियों का महत्व उनकी तात्कालिक जरूरत के हिसाब से निर्धारित किया जा सकता है। प्रधानमंत्री को दुनिया की महाशक्तियों का नेतृत्व करना है और उसके लिए अब नए फ्रंटलाइन चेहरों और, चाहे दिखावटी तौर पर ही सही, बदले हुए पार्टी एजेंडे की जरूरत है।
जो कुछ चल रहा है उसे इस तरह से भी देख सकते हैं कि बिना प्रजातांत्रिक हुए भी मोदी तो भाजपा को बदल रहे हैं पर राहुल गांधी कांग्रेस को, मायावती और अखिलेश यादव बसपा-सपा को, ममता बनर्जी तृणमूल कांग्रेस को और उद्धव ठाकरे शिव सेना को अपने परिवारों की पकड़ से मुक्त करने को कोई जोखिम नहीं ले रहे हैं। यह काम काफी रिस्क लेने जैसा है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया, शुभेंदु अधिकारी, हेमंत बिस्व सरमा, जितिन प्रसाद, ,स्वामी प्रसाद मौर्य, रीता बहुगुणा आदि बाहरी व्यक्तियों को पार्टी के तपे-तपाए और वर्षों से दरियाँ बिछा रहे पार्टी नेताओं को हाशियों पर धकेलते हुए महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ सौंपने का सोचा जाए। यह देखना अवश्य बाकी रह जाएगा कि क्या ये नए लोग चाल और चेहरों के अलावा भाजपा का ‘ओरिजनल’ चरित्र भी बदल पाएँगे! वैसे जो लोग कांग्रेस आदि दलों को छोडक़र भाजपा में शामिल हो रहे हैं वे भी तो कुछ सोच रहे होंगे कि अब किस तरह की तानाशाही में आगे का वक्त बिताना उनकी ढलती हुई उम्र और राजनीतिक ज़रूरत के हिसाब से ज़्यादा फायदे का सौदा रहेगा ।
-कनुप्रिया
रोनाल्डो कोई पूँजीवाद विरोधी या समाज सुधारक नहीं हैं, एक ज़बरदस्त खिलाड़ी हैं, अपने खेल के लिए समर्पित हैं, सेलिब्रिटी है, उसके द्वारा विज्ञापन किए जाने वाले प्रोडक्ट्स की सूची इतनी लंबी है कि वो पार्ट टाइम मॉडल ही कहलाया जाए। संभव हैं उनमे व्यक्तिगत दोष हों और कल को ऐसे मामले में फँस जाएँ (जिसकी पॉसिबिलिटी मुझे अब और ज़्यादा लगती है) कि लोग कहें उन्हें हीरो बनाने में जल्दी की।
संभव है वो हीरो बनाने लायक न ही हों, मगर कल का उनका एक्ट तो वीर रस ही था।
कहीं पढा कि उन्हें सॉफ्ट ड्रिंक्स पसंद ही नहीं, जब उनके बच्चे सॉफ्ट ड्रिंक पीते हैं तो वो उन्हें मना करते हैं। कोका कोला कम्पनी ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा है कि सबकी अपनी पसंद होती है कि वो कौनसा ड्रिंक पिएँ या नही, मगर रोनाल्डो के लिये यह पसन्द से ज्यादा स्वास्थ्य का मामला है और वो इन कोल्ड ड्रिंक्स को स्वास्थ्य के लिये ठीक नही मानते।
रोनाल्डो चाहते तो अपने विचार को अपने घर तक सीमित रखते, या किसी इंटरव्यू में व्यक्तिगत विचार की तरह कह देते, वो चाहते तो कोक का विज्ञापन करने से मना भर कर देते मगर उन्होंने अपने दोषसिद्धि के लिए सरे आम प्रेस कॉन्फ्रेंस में स्टैंड लिया और कोक को हटाकर पानी पीने की सलाह दी, उस कोक को जो यूरो कप का स्पॉन्सर है जिसमे वो खेल रहे हैं।
सेलिब्रिटीज़ की ताक़त उनके फ़ॉलोअर्स होते हैं, उनकी सामाजिक प्रभाव शक्ति होती है, जिस पावर को कम्पनियाँ अपने हित मे इस्तेमाल करती हैं और सेलिब्रिटीज के हितों का खयाल रखती हैं, मगर हमारे यहाँ जिस तरह वो अम्बानी की शादी में लाइन से बैठे नजर आते हैं और देश की हर आपदा स्थिति में चुप्पी साधने के बाद ट्वीट कर कर के किसान आंदोलन को देश का आंतरिक मामला बताते हैं, साफ है कि उनकी ताकत बस जनता को प्रभाव करने तक सीमित है। इससे ज़्यादा स्टैंड वो ले नही सकते। वो घर में चाहे कोई विचार रखते हों किसी तरह का भी रिस्क लेकर उन विचारों को कहने की क्षमता उनके पास नहीं।
इसी से याद आया कि सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या के बाद बहुत लोगों ने दबे हुए स्वरों में फिल्म इंडस्ट्रीज की बड़ी प्रोडक्शन कम्पनीज़ के आधिपत्य के बारे में कहा था, बात नेपोटिज़्म तक सीमित कर दी गई और मामला परिवावाद बनाम व्यक्तिगत संघर्ष का हो गया मगर असल पावर तो उन प्रोडक्शन कम्पनीज के पास है। अब सुनते हैं कार्तिक आर्यन उसी उत्पीडऩ से गुजर रहे हैं और सिर्फ अनुराग कश्यप ने इसके विरोध में अपनी जुबान खोली है।
सेलिब्रिटीज की छोडिय़े, दुनिया भर की सरकारों में अगर बड़ी कम्पनीज से अपनी शर्ते मनवाने का हौसला होता तो हम दो हमारे दो टाइप सरकारें न चल रही होतीं, जिसमे 56 इंच का असल मतलब उन कम्पनियों के हित मे बिना पलक झपकाए जनता का बड़े से बड़ा अहित करने का माद्दा होता है।
जब खोने की कीमत ज़्यादा हो, जो स्टेक पर लग सकता हो उसका साइज़ बड़ा हो यानी बड़ा रिस्क इन्वॉल्व हो तब भी अपने विचारों अपने दोषसिद्धि के लिये स्टैंड लेना रीढ़ की हड्डी कहलाता है। स्टार शक्ति कम्पनियों को करोड़ों का मुनाफ़ा कराने में नही है, एक हल्के से एक्ट से मिनटों में बिलियन डॉलर का नुकसान कराने में है, नियंत्रण के खिलाफ खड़े होने में है और दूसरे सेलिब्रिटीज तक यह सन्देश पहुँचाने में है कि यह रिस्क लिया जा सकता है लेना चाहिये।
सुना है नॉन अल्कोहॉलिक फ्रांसीसी खिलाड़ी पॉल पोग्बा ने आज मंच पर अपने सामने से हैनिकेन बियर की बोतल सरका दी है।
-लता जिश्नु
कोविड-19 की घातक दूसरी लहर से जूझ रहे भारत को रूस ने मानवीय आधार पर मई के अंत तक दवाईयों के लगभग ढाई लाख पैकेट भेजे। इन पैकेटों में रेमेडीफार्म दवा भी शामिल थी, जिसका इस्तेमाल अस्पतालों में भर्ती कोरोना के गंभीर मरीजों को बचाने में किया जाता है। यह दवा रेमेडेसिवर का रूसी जेनरिक वर्जन थी, जिसका वास्तविक उत्पादन गिलियड साइंसेस नाम की अमेरिकी फार्मा कंपनी करती है। इस दवा के आने से भारत सरकार की उस दवा नीति पर एक बार फिर सवाल खड़े हुए, जिसके तहत सरकार अनिवार्य लाइसेंस के जरिए उन दवाओं के विकल्प का उत्पादन नहीं कर सकती, जिनका पेटेंट कराया जा चुका है। भले ही पेटेंट वाली दवाएं आम लोगों की पहुंच से बाहर और महंगी हों।
रूस में रेमेडीफार्म का उत्पादन, अनिवार्य लाइसेंस के जरिए ही किया जा रहा है। ऐसा विश्व व्यापार संगठन की उस लचीली नीति के तहत संभव है, जो अपने किसी सदस्य देश में स्वास्थ्य की आपातकालीन स्थितियों में बौद्धिक संपदा कानून के नियमों में ढील देती है। भारत में रेमेडेसिवर, इसकी पेटेंट होल्डर फार्मा कंपनी गिलियड के स्वैच्छिक लाइसेंस के तहत बनाई जाती है। उसने आठ कंपनियों को ऐसे लाइसेंस दे रखे हैं, जो उसके नियम-कानूनों के तहत इस दवा का उत्पादन और निर्यात कर सकती हैं।
स्वैच्छिक लाइसेंस को अनिवार्य लाइसेंस की तुलना में तेज माना जाता है। इसके तहत दवाओं के उत्पादन और निर्यात में उस तरह की कानूनी अड़चनों का सामना नहीं करना पड़ता, जैसे अनिवार्य लाइसेंस में। पेटेंट होल्डर कंपनी स्वैच्छिक लाइसेंस लेने वाली फर्म को अपनी दवा की मांग और दाम तय करने की इजाजत देती है, चाहे बाजार में उस दवा की कितनी ही जरूरत क्यों न हो। यही वजह है कि अप्रैल-मई में भारत में रेमेडेसिवर की जितनी जरूरत थी, उसकी उपलब्धता उससे कहीं कम थी। जिसके चलते देश का दूसरे देशों की मदद लेनी पड़ी।
रूस के मुताबिक, उसने गिलियड से स्वैच्छिक लाइसेंस के लिए कई बार अनुमति मांगी्, लेकिन उसके इंकार किए जाने के बाद मजबूरी में उसे जनवरी में अनिवार्य लाइसेंस का फैसला लेना पड़ा। पुतिन सरकार का कहना था कि दवा के उत्पादन की मुख्य वजह यह थी कि उसकी कमी पड़ रही थी और दाम तेजी से बढ़ रहे थे। इसके चलते सरकार को गिलियड साइंसेस और गिलियड फार्मासेट के पेटेंट नियमों को एक साल तक के लिए खारिज करना पड़ा, हालांकि सरकार फार्मा कंपनी को रॉयल्टी का भुगतान करेगी। गिलियड ने रूस सरकार के फैसले को कानूनी चुनौती दी थी, जिसे कई में देश के शीर्ष कोर्ट ने खारिज कर दिया था। गिलियड की दलील थी कि अनिवार्य लाइसेंस लेना च्अनावश्यक और अनुत्पादक’ था। हालांकि रूस सरकार का कहना था कि इस प्रक्रिया से दवा के उत्पादन में, स्वैच्छिक लाइसेंस की तुलना में छह गुना कम लागत आई।
दूसरी ओर मोदी सरकार बड़ी फार्मा कंपनियों से टकराने से बचना चाहती है। यहां तक कि जब लोग महामारी से मर रहे थे और दवा की कमी से तड़प रहे थे, सरकार सार्वजनिक तौर पर स्वैच्छिक लाइसेंस का पक्ष ले रही थी। सुप्रीम कोर्ट और दिल्ली हाईकोर्ट ने भी सरकार से कहा कि वह रेमेडेसिवर और कोविड-19 की दूसरी दवाओं की कमी को देखते हुए स्वैच्छिक लाइसेंस को वरीयता देने के अपने फैसले पर पुर्नविचार करे।
सरकार ने कोर्ट में अपने शपथ-प़त्र में कहा कि दवाओं की कमी की असली वजह कच्चे माल और दूसरी जरूरी चीजों की कमी है। फार्मा कंपनियों की दलील में सरकार ने यह तक कहा कि ‘यह मानना धृष्टता होगी कि पेटेंट होल्डर कंपनिया और स्वैच्छिक लाइसेंस देने पर राजी नहीं होंगी।’ सरकार की इस तरह की प्रतिबद्धता क्या साबित करती है?
कहीं यह मोदी सरकार के उस वादे की वजह से तो नहीं, जिसमें उसने 2016 में भारत- अमेरिका बिजनेस काउंसिल में कहा था कि वह दवाओं के अनिवार्य लाईसेस की अनुमित नहीं देगी।
हालांकि अमेरिका के रुख में इसे लेकर अजीब सा बदलाव नजर आया है। प्रारंभिक तौर पर कारपोरेट के हितों की रक्षा के लिए इसने अनिवार्य लाइसेंस का विरोध किया। हालांकि अब यह इसका प्रशंसक बन गया है। पिछले दो दशकों में अमेरिका ने स्वास्थ्य इमरजेंसी में अनिवार्य लाईसेंस का इस्तेमाल करने वाले किसी देश पर शायद ही उसने जुर्माना लगाया हो या उसे धमकी दी हो।
अब जबकि अमेरिकी और यूरोपीय देश अलग सुर आलाप रहे हैं। सौ से ज्यादा देश भारत और दक्षिण अफ्रीका के विश्व व्यापार संगठन में उस प्रस्ताव का समर्थन कर रहे हैं, जिसमें दोनों देशों ने गुजारिश की है कि महामारी से लडऩे के लिए बौद्धिक संपदा कानून के नियमों में ढील देना जरूरी है, जिससे कि दुनिया के गरीब और मध्यवर्गीय देशों को भी दवाईयां, वैकसीन और इलाज उपलब्ध हो सके।
अमेरिकी और यूरोपीय संघ भी ऐसे समय में अनिवार्य लाईसेंस की वकालत कर रहे हैं, जिससे पेटेंट की जड़ताओं को तोड़़क़र दवाओं और वैक्सीन का उत्पादन बढ़ाया जा सके।
हालांकि जून की शुरुआत में विश्व व्यापार संगठन में पेश यूरोपीय संघ का प्रस्ताव कुछ हद तक स्पष्ट नहीं है। उसका कहना है कि स्वैच्छिक निर्णय और सार्वजनिक-निजी सहयोग ही कोविड के इलाज और वैक्सीन तैयार करने का सबसे प्रभावी रास्ता है। उसका मानना है कि चूंकि ऐसे स्वैच्छिक समझौते हमेशा संभव नहीं हो सकते हैं, ऐसे में अनिवार्य लाइसेंस एक ‘महत्वपूर्ण और उचित तरीका ’ है।
हालांकि अमेरिका और यूरोपीय संघ के ट्रैक रिकॉर्ड का देखते हुए इसे उलटफेर ही कहा जाएगा। भारत ने केवल एक बार 2012 में अनिवार्य लाइसेंस की अनुमति दी थी जब हैदराबाद स्थित नाटको फार्मा की कैंसर की दवा नेक्सावर बाजार में बहुत महंगे दाम पर बिक रही थी। तब अमेरिका और यूरोपीय संघ ने उस पर धावा बोल दिया था और इस कदम की कड़ी आलोचना की थी। तब अमेरिका के व्यापारिक घरानों ने भारत की छवि ऐसे देश के तौर पर पेश की थी, जो बार-बार अनिवार्य लाइसेंस लागू करने वाला देश है, हालांकि भारत ने दोबारा ऐसा अब तक नहीं किया।
कोरोना महामारी ने फार्मा कंपनियों के बौद्धिक संपदा कानून के बड़े हितैषियों को भी सोच बदलने को मजबूर किया है। अमीर देश अब अनिवार्य लाइसेंस को कोविड-19 से लडऩे में जरूरी औजार मान रहे हैं।
2020 की शुरुआत से एक दर्जन देशों ने अपने बौद्धिक संपदा कानूनों में सुधार की अनिवार्य लाइसेंस को स्वीकृति देना तेज किया है। इनमें आर्थिक पॉवरहाउस कहे जाने वाले जर्मनी समेत यूरोपीय संघ के कई देश शामिल हैं। दूसरे देश भी पीछे नहीं हैं, जैसे इजरायल, जिसने मार्च 2020 में कोविड-19 के मरीजों के काम आने वाले एचआईवी एडस की एक दवा के लिए अनिवार्य लाइसेंस देने में देर नहीं लगाई। दरअसल, इस दवा की पेटेंट होल्डर कंपनी उसकी पर्याप्त सप्लाई नहीं कर पा रही थी।
इस पृष्ठभूमि में अनिवार्य लाइसेंस को लेकर भारत की हिचकिचाहट को समझना मुश्किल है क्योंकि इसे लेकर इस देश के नियम तार्किक हैं और जिन्हें सुधारने की जरूरत भी नहीं है। अप्रैल और मई में देश के लोगों का रेमेडेसिवर के लिए संघर्ष करना, स्वैच्छिक लाइसेंस वाली कंपनियों के लिए काला धब्बा था। सुप्रीम कोर्ट को मोदी सरकार को यह बताने को बाध्य होना पड़़ा कि स्वास्थ्य के आपातकाल की स्थिति मे बौद्धिक संपदा के नियमों में छूट देकर अनिवार्य लाइसेंस दिए जा सकते हैं। इससे कोई सबक लिया जा सकता है तो वह यह कि अनिवार्य लाइसेंस, स्वैच्छिक लाइसेंस से एक कदम आगे की चीज है।
निश्चित तौर पर अनिवार्य लाइसेंस उन सारी बीमारियों का इलाज नहीं है, जो महामारी ने हमें दी हैं। नए उत्पादों के उभरने से बौद्धिक संपदा का परिदृश्य नाटकीय रूप से बदल गया है और लगातार बदलता जा रहा है। व्यापार के नए रंग- ढंग के चलते पेटेंट प्रकाशित नहीं कराए जा रहे और तकनीक का बड़ा हिस्सा स्क्रूटनी से बाहर है। यह बात नई एमआरएनए वैक्सीन के बारे में बिल्कुल सच है, जिसे अमेरिका और यूरोप में बनाया जा रहा है और जिसकी नकल करना बहुत मुश्किल है।
भारत की दवा इंडस्ट्री में ख्याति वाले दिन इसकी रिवर्स इंजीनियरिंग दवाओं में दक्षता के चलते आए, जिन्हें छोटे अणुओं खासकर रासायनिक यौगिकों से विकसित किया गया था। निश्चित तौर पर रेमेडेसिवर तैयार करना इसकी क्षमता से बाहर नहीं है? या फिर जेनरिक दवा तैयार करने वालों की बदलाव वाली सोच खत्म हो गई। एचआईवी दौर की सिपला जैसी मुख्य कंपनिया आज स्वैच्छिक लाइसेंस की पृष्ठभूमि में भी मजबूती से खड़ी हैं। शक्तिशाली नाटको फार्मा कंपनी ने हाल ही में बैरीसिटनिब के लिए पहले अनिवार्य लाइसेंस हासिल किया, बाद में उसने पेटेंट होल्डर कंपनी को पीछे छोडक़र स्वैच्दिक लाइसेंस पा लिया। बैरीसिटनिब, गठिया रोग की दवा है, जिसे अब कोविड-19 की दवा के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है। (downtoearth.org.in)