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-श्रवण गर्ग
क्या हमें कुछ भी स्मरण है कि पिछले साल लॉक डाउन के 233वें दिन कैलेंडर में कौन सी तारीख़ थी ? देश में उस दिन क्या चल रहा था ? हम क्या कर रहे थे ? क्या वह दिन 14 नवम्बर का तो नहीं था-पंडित जवाहर लाल नेहरू का जन्मदिन। और सबसे बड़ी बात यह कि क्या इस दिन दीपावली तो नहीं थी ? ज़रूर थी। घरों में दीये भी जल रहे थे पर लोगों के दिल बुझे हुए और उदास थे। कोरोना के मरीज़ों का आँकड़ा इस दिन का 87.73 लाख था और दुनिया को (इस दिन तक) देश में मरने वालों की संख्या 1,29,188(सरकारी तौर पर) बताई गई थी।अस्पताल मरीज़ों से भरे हुए थे। तमाम फ़्रंट लाइन स्वास्थ्यकर्मी पूरी तरह से थक चुके थे, फिर भी काम में लगे हुए थे।
हम एक बार फिर दीपावली से रूबरू हैं। हमारे भीतर का लॉक डाउन अभी भी जारी है।’न्यूयॉर्क टाइम्स’ की एक रिपोर्ट पर यक़ीन करना हो तो भारत में (सरकारी दावे 4.58 लाख के मुक़ाबले ) कोरोना के मृतकों की कुल संख्या तीस लाख से ज़्यादा होनी चाहिए। कोरोना ने जिन लाखों परिवारों के किसी न किसी सदस्य को अपना ग्रास बनाया है उनमें से ज्यादातर की यह पहली दीपावली है। क्या हमें सब कुछ याद है या भूल गए ? और यह भी कि क्या देश में कोरोना पर पूर्ण नियंत्रण पा लिया गया है ? अगर सौ करोड़ से ज़्यादा लोगों को टीके लग चुके हैं तो ऐसा निश्चित ही मान लिया जाना चाहिए। ऐसा सरकारी तौर पर मान लिया गया हो उसमें शक है। कोरोना के साथ हमने जिस तरह की किफ़ायत भरी ज़िंदगी शुरू की थी उसका अंत कब होगा, हमें कोई अंदाज़ा नहीं है।
कोरोना के असर को लेकर दुनिया भर में अलग-अलग सर्वेक्षण चल रहे हैं। सबके निष्कर्ष लगभग एक जैसे ही हैं। वे यह कि महामारी ने नागरिकों को हर तरह की बचत करने की आदत डाल दी है और इसमें उन्हें अपनी साँसों और आज़ादी का इस्तेमाल करने की इजाज़त भी शामिल है। हमारे राजनीतिक अधिष्ठाताओं ने किसी समय दिलासा दिलाया था कि यह युद्ध लम्बा नहीं चलेगा और सब कुछ जल्दी ही पहले जैसा हो जाएगा। बहुसंख्य आबादी को टीके लग जाते ही हमें अपने अतीत की ओर ज़्यादा उत्साह से लौटने के मौके नसीब हो जाएंगे। नागरिक भूल गए कि राजनीति में पहले जैसा कुछ भी नहीं होता। जो छूट गया है वह वापस नहीं आता। लोग भी अब जानना नहीं चाहते हैं कि उन्होंने कहीं बाहर जाना और घर वापस आना क्यों बंद कर दिया है !
एक अंग्रेज़ी अख़बार में प्रकाशित सर्वेक्षण में बताया गया हैं कि पहले लॉक डाउन के बाद केवल एक घोषणा के ज़रिए वे जो लाखों-करोड़ों प्रवासी मज़दूर और अन्य नौकरीपेशा अपने गाँव-क़स्बों की ओर पैदल और भूखे-प्यासे दौड़ा दिए गए थे उनमें से कोई दस प्रतिशत वापस महानगरों में नहीं लौटे हैं। इस बीच तीन फसलें ले लीं गईं हैं और कई त्योहार भी बीत गए हैं।यह सवाल अलग है कि कामों पर नहीं लौटने वाले इस वक्त कैसे जी रहे होंगे ,उनकी दीपावली कैसी मन रही होगी और उनके रहने की जगहों पर मूलभूत सुविधाओं का पहले से ही कमजोर ढाँचा अब और कितना चरमरा गया होगा !
महामारी के कारण नागरिक सिर्फ़ अपने ख़र्चों में ही कटौती नहीं कर रहे हैं, वे किसी पूर्णकालिक रोज़गार या सरकार की मदद के बिना भी जीने की आदत डाल रहे हैं। कोरोना के दौरान भुगती गईं चिकित्सा सम्बन्धी यातनाओं के अनुभव के बाद उन्होंने बीमार पड़ना भी कम कर दिया है। वे बिना डॉक्टरों और उनकी महँगी दवाओं के जीने के नए-नए तरीक़े आज़मा रहे हैं। अनुभव है कि 1975 के आपातकाल में रिश्वत का रेट बढ़ गया था। कोरोना काल में डॉक्टरों, अस्पतालों, दवाओं से लगाकर अंत्येष्टि तक के रेट बढ़ गए। लोगों को जानकारी मिलना बाक़ी है कि रेमडेसिविर इंजेक्शन में मिलावट और ऑक्सिजन सिलेंडर की कालाबाज़ारी में पकड़े गए लोगों का अंततः क्या हुआ?
दुनिया भर में चल रहे सर्वेक्षण बताते हैं कि नागरिक किस कदर थक गए हैं और अपने आपको कितना अकेला महसूस करने लगे हैं! न्यूयॉर्क टाइम्स की ही एक रिपोर्ट के मुताबिक़, हताशा में डूबे कई अमेरिकी न सिर्फ़ नौकरियाँ ही छोड़ रहे हैं, वहाँ तलाक़ का प्रतिशत भी बढ़ गया है। मनोचिकित्सकों के पास पहुँचकर सांत्वना जुटाने या जीने के लिए साहस तलाश करने वालों की संख्या बढ़ गई है।पहले लोग एक-दूसरे से दूर होते हुए भी नज़दीक थे पर अब एक ही छत के नीचे रहते हुए भी दूर हो रहे हैं।
किसी भी प्रजातांत्रिक व्यवस्था में इस हक़ीक़त को ख़ौफ़ की तरह देखा जा सकता है कि नागरिकों ने एक विचारवान समूह या भीड़ की शक्ल में एकत्र होना या अपने को व्यक्त करना बंद-सा कर दिया है। मज़दूर हों या सामान्य नागरिक, माई-बाप सरकार से अब कोई नई माँग नहीं कर रहे हैं। प्लेटफ़ार्म टिकट तो महँगे कर ही दिए गए हैं, पर (धार्मिक अवसरों या त्योहारों को छोड़ दें तो) बस अड्डों पर भी पहली जैसी हंसती-खेलती भीड़ नज़र नहीं आती। तुर्रा यह कि अपने नागरिकों के न बोलने, कोई माँग नहीं करने,अपने संविधान-प्रदत्त मौलिक अधिकारों को लेकर कोई शिकायत नहीं करने की उदारता ने सरकारों को और ज़्यादा निश्चिंत कर दिया है।निरंकुश व्यवस्थाओं का जन्म इसी तरह की ज़मीन में होता है।
एक ऐसी परिस्थिति की कल्पना की जा सकती है कि अगर नागरिकों को कृत्रिम या वास्तविक महामारियों की लहरों की तरफ़ षड्यंत्रपूर्वक धकेला जाता रहे और उन्हें उससे बाहर निकालने के प्रयास कोरोना की तरह ही आधे-अधूरे और भ्रष्ट हों तो जिस किफ़ायत की ज़िंदगी की बात हम वर्तमान के संदर्भों में कर रहे हैं वह शासकों के हित में एक स्थायी सुनामी में भी बदली जा सकती है। जिस किफ़ायत को नागरिक अपने जीवन का एक बड़ा गुणात्मक परिवर्तन मानकर गर्व कर रहे हैं, सरकारें चाहे तो उसका इस्तेमाल प्रजातंत्र को कमजोर कर व्यवस्था पर अपनी पकड़ मज़बूत करने में भी कर सकतीं हैं। किसी भी समझदार और प्रजातंत्र-विरोधी हुकूमत की इस बात में रुचि हो सकती है कि नागरिक किसी न किसी परेशानी की लहर पर स्थायी रूप से सवारी करते रहें। वह सवारी कोरोना की भी हो सकती है और धर्म की भी ! ऐसी परिस्थिति में अगर व्यवस्था के प्रत्येक कदम पर नज़र रखकर उसके आगे के इरादों को जानने की जरूरत बढ़ गई जान पड़ती हो तो नागरिकों को कम से कम इस एक काम में तो कोई किफ़ायत नहीं बरतनी चाहिए। दीपावली की शुभकामनाएँ !
एस एन सुब्बाराव का बानवे वर्ष की आयु में 27 अक्टूबर बुधवार को जयपुर के सवाई मानसिंह अस्पताल में निधन हो गया। सुब्बाराव जी की लंबी जीवन-यात्रा के बारे में उनके सहयोगियों और प्रशंसकों को तो पर्याप्त (या आधी-अधूरी) जानकारी है पर आम नागरिकों को ज़्यादा पता नहीं है। नागरिकों को कई बार व्यक्तियों के चले जाने के बाद ही पूरी जानकारी मिलती है। सुब्बाराव जी के संदर्भ में भी यही हो रहा है। देश में उनके प्रशंसकों का एक बड़ा समूह है पर उसमें अधिकांश की उम्र अब साठ को पार कर गई होगी। उनके साथ मेरा परिचय कोई साढ़े पाँच दशकों तक फैला रहा पर ज्ञात-अज्ञात कारणों से उनका निकटस्थ होने का सौभाग्य नहीं मिल पाया।
मूलत: कन्नड़ भाषी पर अनेक देसी-विदेशी भाषाओं के जानकार सुब्बाराव जी की विशेषता यही थी कि वे लगातार चलते रहते थे। किसी एक स्थान पर कम और सभी स्थानों पर सदैव उपलब्ध रहते थे। मध्यप्रदेश में मुरेना जि़ले के जौरा में स्थापित अपने महात्मा गांधी सेवा आश्रम के अलावा दिल्ली में दीनदयाल उपाध्याय मार्ग स्थित गांधी शांति प्रतिष्ठान के होस्टल में भी उनके लिए एक कमरा हमेशा सुरक्षित रहता था। वे नई दिल्ली भी प्रवास पर ही आया करते थे।
सुब्बारावजी के साथ मेरे लंबे परिचय का मुख्य भाग वर्ष 1966-67 से 1981 के बीच के उस महत्वपूर्ण डेढ़ दशक का है जब सर्वोदय आंदोलन के प्रणेता आचार्य विनोबा भावे, लोकनायक जयप्रकाश नारायण, आचार्य कृपलानी, खान अब्दुल गफ़्फ़़ार खान, गांधीजी के सचिव रहे प्यारेलालजी, आचार्य दादा धर्माधिकारी, काका कालेलकर, धीरेंद्र मजूमदार, आचार्य राममूर्ति नारायण भाई देसाई, भवानी प्रसाद मिश्र समेत गांधी और सर्वोदय समाज की तमाम महान विभूतियाँ हमारे बीच न सिर्फ सशरीर उपस्थित थीं, सत्ता और समाज-परिवर्तन के क्षेत्र में जबर्दस्त तरीके से अपने प्राण भी झोंक रहीं थीं (कुछ बड़े नाम शायद छूट गए हों तो क्षमा)। यह एक बड़ा ही क्रांतिकारी समय था और उसका साक्षी बनना और इन सब विभूतियों से मिल पाना सबसे बड़ा सौभाग्य। उस सबकी चर्चा फिर किसी वक्त। इस समय केवल सुब्बाराव जी के लिए ही दो शब्द-
वर्ष 1966-67 तक मैं एक सक्रिय पूर्णकालिक गांधीवादी पत्रकार के तौर पर इंदौर में श्री महेंद्रकुमार के सानिध्य में गांधी शांति प्रतिष्ठान और सर्वोदय प्रेस सर्विस के साथ जुड़ चुका था। इस कारण सुब्बाराव जी से मिलने के अवसर प्राप्त होते ही रहते थे। उनसे मुलाकात का सिलसिला तब और बढ़ गया जब वर्ष 1971 में नई दिल्ली में गांधी शांति प्रतिष्ठान से जुडक़र श्री प्रभाष जोशी और अनुपम (मिश्र) के साथ काम करने का अवसर मिला। सम्मेलनों और बैठकों में भाग लेने की गति भी बढ़ गई और सुब्बाराव जी को नज़दीक से देख और समझ पाने की भी।
सुब्बाराव जी का मूल संस्कार भक्ति और प्रशिक्षण का था जो उनमें शायद कांग्रेस सेवा दल के नायक के रूप में काम करते हुए विकसित हुआ होगा।इसीलिए सर्वोदय और गांधी के सक्रिय आंदोलनकारी सेवकों के बीच उनकी उपस्थिति (जैसा मैंने महसूस किया) एक अलग प्रकार की ही रहती थी। कार्यक्रमों की शुरुआत उनके ओजस्वी गीतों-हम होंगे कामयाब, एक दिन (2द्ग ह्यद्धड्डद्यद्य श1द्गह्म्ष्शद्वद्ग ,शठ्ठद्ग स्रड्ड4) और युवाओं में उत्साह भरने वाले उद्बोधनों से होती थी। सुब्बाराव जी ने अपनी भूमिका और भागीदारी को हमेशा सीमित और नाप-तौलकर कर रखा। अपनी उपस्थिति को किसी भी व्यवस्था-विरोधी आंदोलन की अंतरंग बैठक का हिस्सा बनाने में कभी रुचि नहीं दिखाई। इसीलिए उनके प्रशंसकों में गांधी, विनोबा और जयप्रकाश-तीनों ही विभूतियों के अनुयायिओं का शुमार रहा।
वर्ष 1972 के अप्रैल में चम्बल घाटी के कोई साढ़े पाँच सौ दस्युओं का आत्म-समर्पण मुरेना और उसके बाद मई में बुंदेलखंड के दस्युओं का छतरपुर के मौली डाक बंगले पर हुआ था। दोनों ही अवसरों पर मैं उपस्थित था। छतरपुर के लिए तो जेपी को लेने मैं ही मध्यप्रदेश प्रदेश सरकार के छोटे विमान से दिल्ली से पटना गया था। चम्बल के आत्म-समर्पण के पहले मुझे कोई तीन महीने ग्वालियर को मुख्यालय बनाकर चम्बल के बीहड़ों में घूमने और दस्युओं से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ था। दस्युओं से हुई ये मुलाक़ातें ही बाद में उनके-समर्पण को लेकर श्री प्रभाष जोशी और अनुपम के साथ मिलकर लिखी गई बहुचर्चित पुस्तक (‘चम्बल की बंदूकें गांधी के चरणों में’) में काम आईं।
इसे संयोग कहा जा सकता है कि दस्युओं के समर्पण में मुख्य भूमिका निभाने वाले सर्वोदय सेवकों स्व. हेमदेव शर्मा और स्व.महावीर भाई के साथ ग्वालियर में काम करते हुए अथवा भिंड-मुरेना के बीहड़ों में किसी मध्यस्थ (शायद चरणसिंह) के साथ भटकने के दौरान सुब्बाराव जी से हुई किसी भी मुलाक़ात का मुझे स्मरण नहीं है। उनसे मुलाक़ात शायद 12 अप्रैल 1972 को जौरा में गांधी आश्रम के समीप हुए आत्म-समर्पण के अवसर पर ही हुई होगी। वह एक ऐतिहासिक क्षण था जिसके प्रमुख किरदारों में हेमदेव जी और महावीर भाई के अलावा दस्यु मानसिंह के पुत्र तहसीलदार सिंह और पंडित लोकमन (लुक्का)शामिल थे। मानसिंह गिरोह के इन दोनों प्रमुख दस्युओं ने 1960 में विनोबा जी के समक्ष समर्पण कर दिया था। दोनों ही अद्भुत व्यक्तित्व के धनी थे।
इंदिरा गांधी की तानाशाह हुकूमत के खिलाफ वर्ष 1974 में चले बिहार आंदोलन के दौरान विनोबाजी और जयप्रकाश जी के कई युवा वैचारिक सहयोगी आपस में बंट गए पर सुब्बाराव जी ने सभी के साथ अपने सम्बन्धों को पूर्ववत बनाए रखा। सुब्बाराव जी तटस्थ रहे। उन्होंने आंदोलन के पक्ष या विरोध में कभी कोई मंतव्य नहीं जाहिर किया। मैं बिहार आंदोलन के दौरान लगभग वर्ष भर पटना में जयप्रकाश जी के साथ जुड़ा रहा, उनके साथ अलग-अलग स्थानों की यात्राएँ कीं, कई सभाओं और रैलियों में भाग लिया पर स्मरण नहीं पड़ता कि सुब्बारावजी से इस दौरान कोई भेंट हुई होगी।
इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल समाप्त कर चुनावों की घोषणा करने के बाद जब एक-एक करके सारे नेता जेलों से रिहा किए गए तो दिल्ली स्थित गांधी शांति प्रतिष्ठान जेपी के नेतृत्व में विपक्ष की तमाम राजनीतिक गतिविधियों का मुख्य केंद्र बन गया ।हम लोगों (प्रभाषजी, अनुपम आदि) की पत्रकारिता का केंद्र इंडियन एक्सप्रेस का दफ्तर भी वहाँ से नज़दीक ही था। तब कोशिश पूरे समय प्रतिष्ठान में ही बने रहने की रहती थी। प्रतिष्ठान के ऊपर होस्टल में ही सुब्बारावजी का कमरा भी था।सभी लोगों का नाश्ता-भोजन भी कॉमन डाइनिंग हॉल में ही होता था। सुब्बारावजी से इस दौरान भेंट अवश्य हुई होगी पर याद नहीं पड़ता कि उन्होंने अपनी इस विशेषता को कभी छोड़ा हो कि किसी भी तरह की दलगत राजनीति में नहीं पडऩा है।
बहुत कम उम्र में (शायद तेरह वर्ष) आजादी के आंदोलन में उनके भाग लेने की बात अगर छोड़ दें तो बाद के वर्षों में सुब्बाराव जी आंदोलनों के कभी मित्र नहीं रहे। न ही उन्होंने कभी संस्थाओं के अंदरूनी विवादों में किसी तरह के हस्तक्षेप में रुचि दिखाई। किसी समय गांधी शांति प्रतिष्ठान भी कई तरह के विवादों को लेकर चर्चाओं में रहा पर सुब्बारावजी ने अपने आपको इन सबसे अलग रखा। भोपाल स्थित गांधी भवन के विवाद में भी उन्होंने चुप रहना ही उचित समझा, हालाँकि उन पर आरोप भी लगाए गए कि वे अपने नजदीकी लोगों को संरक्षण प्रदान कर रहे हैं, सत्य का साथ नहीं दे रहे हैं। अपनी इन्हीं विशेषताओं के चलते सुब्बाराव जी को सभी तरह की स्वयंसेवक जमात के लोगों और गांधीवादियों का जीवन भर सम्मान प्राप्त होता रहा और वे अंत तक सभी के प्रिय ‘भाईजी’ बने रहे। विनम्र श्रद्धांजलि ।
देश के विकास पर नजर रखने वालों के लिए इस जरूरी जानकारी का उजागर होना निराशाजनक है कि वैश्विक भुखमरी सूचकांक (global hunger index) में दुनिया के 116 मुल्कों के बीच भारत 2020 में अपने 94वें स्थान से नीचे खिसककर 101वें पर पहुँच गया है। हमारे पड़ोसी देशों में नेपाल 76वें, म्यांमार 71वें और दुश्मन पाकिस्तान 92वें स्थान पर हैं। खबरों के मुताबिक, सहायता कार्यों से जुड़ी आयरलैंड की एजेंसी कन्सर्न वर्ल्डवाइड और जर्मनी के संगठन वेल्ट हंगर हिल्फे की संयुक्त रिपोर्ट में भारत में भूख के स्तर को चिंताजनक बताया गया है।
इसके पहले की एक अन्य महत्वपूर्ण जानकारी यह है कि कोरोना महामारी के दौरान एक साल में देश में 10000000000 रुपए (एक हजार करोड़) से अधिक की संपत्ति वाले उद्योगपतियों की संख्या बढक़र 1007 हो गई। यानी महामारी के दौरान 179 नए लोग इस सूची में जुड़ गए। इसी अवधि में गौतम अडाणी ने प्रतिदिन 1002 करोड़ रुपए कमाए। आँकड़े इस बात के भी उपलब्ध हैं कि कोरोना काल में कितने करोड़ लोग मध्यम वर्ग से खिसक कर गरीबी की रेखा के नीचे जीवन यापन करने वालों में शामिल हो गए।
दोहराने का अर्थ नहीं है कि अगर ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार की स्थिति में हाल में देखे गए आंशिक सुधार को छोड़ दें तो इस समय देश में बेरोजगारी पिछले पैंतालीस सालों में सबसे अधिक है। कोरोना से हुई मौतों की तरह ही इस सबके सही आँकड़े भी कभी प्राप्त नहीं बताए जाएँगे कि देश में गरीबी और बेरोजगारी की वास्तविक स्थिति क्या है?कोरोना काल में कितने लोग और गरीब हो गए; कितनों ने कर्जों के चलते आत्महत्याएँ कर लीं, और कि आने वाले सालों में हालात कितने बेहतर या बदतर होने वाले हैं !
शोध का विषय हो सकता है कि जब पूरे देश में लॉकडाउन चल रहा हो, उद्योग-धंधे ठप पड़े हों, करोड़ों मज़दूर घरों में बेकार बैठे हों, करोड़ों नए नाम बेरोजग़ारों की सूची में जुड़ गए हों, शॉपिंग मॉल्स और बाज़ार सूने पड़े हों, जनता की क्रय-शक्ति को लकवा मार गया हो, महामारी के इलाज ने परिवार के परिवार आर्थिक रूप से तबाह कर दिए हों ,हज़ार करोड़ से ज़्यादा की हैसियत वालों की संख्या फिर भी कैसे बढ़ गई होगी! ये लोग क्या किसी ऐसे व्यवसाय में लगे हैं जिसका आम आदमी की जिंदगी से कोई सरोकार नहीं है ? चारों तरफ जब अकाल पड़ा हो तब लहलहाती हुई फसलें लेने का चमत्कार कैसे सम्भव है ? कोई तो कारण अवश्य रहा होगा!
गांधी जी ने एक ताबीज ईजाद किया था। उसका फार्मूला दिल्ली में राजघाट स्थित उनकी समाधि पर एक शिला पर अंकित है। उसमें कहा गया है-’ मैं तुम्हें एक ताबीज देता हूँ। जब भी दुविधा में हो या जब अपना स्वार्थ तुम पर हावी हो जाए तो इसका प्रयोग करो। उस सबसे गरीब और दुर्बल व्यक्ति का चेहरा याद करो जिसे तुमने कभी देखा हो, और अपने आपसे पूछो—जो कदम मैं उठाने जा रहा हूँ वह क्या उस गरीब के कोई काम आएगा? क्या उसे इस कदम से कोई लाभ होगा? क्या इससे उसे अपने जीवन और अपनी नियति पर कोई काबू फिर मिलेगा? दूसरे शब्दों में ,क्या यह कदम लाखों भूखों और आध्यात्मिक दरिद्रों को स्वराज देगा? तुम पाओगे कि तुम्हारी सारी शंकाएं और स्वार्थ पिघलकर ख़त्म हो गए हैं।’’
विश्व बैंक के आँकड़ों की मदद से पिऊ रिसर्च सेंटर (Pew Research Centre) ने बताया है कि कोरोना काल के दौरान देश में दो डॉलर (लगभग डेढ़ सौ रुपए) प्रतिदिन से कम की क्रय क्षमता वाले नागरिकों की संख्या छह करोड़ से बढक़र लगभग चौदह करोड़ (आबादी का दस प्रतिशत) हो गई है।भारत ने वर्ष 2011 के बाद से अपने गरीबों की गणना नहीं की है पर संयुक्त राष्ट्र के 2019 के आँकड़ों के मुताबिक, यह संख्या लगभग सैंतीस करोड़ या कुल आबादी का लगभग सत्ताईस प्रतिशत थी। कोराना काल के आँकड़े भी इसमें शामिल कर लिए जाएँ तो संख्या और बढ़ जाएगी।
सवाल यह है कि जो संस्थाएँ यह गिनती कर सकतीं हैं कि हज़ार करोड़ की हैसियत वाले सुपर रिच क्लब में कितने और रईस बढ़ गए हैं या कि देश के सबसे धनाढ्य व्यक्ति मुकेश अम्बानी की सम्पदा बढक़र 7.18 लाख करोड़ रुपए हो गई है, क्या कभी सबसे गरीब व्यक्तियों की भी गणना करके देश को बताएँगीं ? या इन गऱीबों में भी सबसे गरीब का चेहरा उन मीडिया संस्थानों के लिए जारी करेंगी जो नागरिकों को सरकार की तरह ही अमीरी के नक़ली सपने बेच-बेचकर बीमार कर रहे हैं? यही कारण है कि जब डॉनल्ड ट्रम्प अहमदाबाद के मोटेरा स्टेडियम में ‘नमस्ते ट्रम्प’ के लिए कार से रवाना होते हैं तो रास्ते में पडऩे वाली गरीबों की झुग्गियों को छुपाने के लिए रातों-रात नकली दीवारें खड़ी कर दी जाती हैं। हमें लोगों को गरीब रखने में शर्म नहीं आती, हमारी गरीबी के दिख जाने में शर्म आती है।
अमेरिका की बात छोड़ दें (भारत की तरह वहाँ भी ट्रम्प के कोरोना काल में एक सौ तीस नए उद्योगपति अरबपतियों के क्लब में शामिल हो गए) तब भी यह जानना जरूरी है कि हमारे पड़ोस में चीनी राष्ट्रपति ने अपने यहाँ उन बड़े-बड़े अरबपतियों की गर्दनें नापना शुरू कर दिया है जो वित्तीय संस्थानों से लिए गए कज़ऱ्े नहीं लौटा रहे हैं। उन पर बड़े-बड़े जुर्माने ठोके जा रहे हैं। उद्देश्य असमानता को पाटना और सम्पन्नता को सभी नागरिकों में बाँटना है। चीन में शिखर पर बैठे एक प्रतिशत लोग देश की इकतीस प्रतिशत सम्पदा के मालिक हैं। क्या भारत में भी कभी कोई ऐसा दिन देखने को मिलेगा जब जिन अस्सी करोड़ लोगों को गर्व के साथ अभी मुफ्त का अनाज बाँटा जा रहा है उन्हें आत्मनिर्भर (भारत) कर दिया जाएगा? अमीर इसी तरह अरबपति होते रहे और गरीब और ज्यादा गरीब तो किसी दिन वैज्ञानिकों को ऐसा टीका भी ईजाद करना पड़ सकता है जो सौ करोड़ नागरिकों को भूख के खिलाफ भी इम्यूनिटी प्रदान कर सके।
सुप्रीम कोर्ट ने लखीमपुर मामले में आठ अक्टूबर को सुनवाई के दौरान उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से पेश हुए वकील हरीश साल्वे से सवाल किया था कि किसानों की हत्या के आरोप में केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा के बेटे आशीष मिश्रा को तुरंत गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया? साल्वे ने जवाब दिया था कि गोली चलने का आरोप है मगर सबूत नहीं है। अगर सबूत साफ हों तो हत्या का मामला बनेगा। पोस्ट मोर्टम रिपोर्ट में गोली चलने से मौत की पुष्टि नहीं हुई है। यही कारण है कि आरोपी को पूछताछ के लिए बुलाया गया है। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने तो केस की सुनवाई बीस अक्टूबर तक के किए स्थगित कर दी पर उसके पहले ही लखनऊ में आशीष से सिर्फ बारह घंटों की पूछताछ के दौरान ही पुलिस को सारे सबूत भी मिल गए और मंत्री-पुत्र को गिरफ्तार कर लिया गया। अब पूछा जा रहा है कि इतने के बाद भी केंद्रीय गृह राज्यमंत्री का इस्तीफा होगा या नहीं ? पूरे घटनाक्रम से प्रधानमंत्री की छवि को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कितनी क्षति पहुँची है और उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामों पर क्या असर पड़ेगा उसका आकलन होना अभी बाक़ी है।
गोरखपुर में एक टी वी चैनल के साथ मुलाकात में मुख्यमंत्री योगी ने जब यह कहा कि बिना सबूत के कोई गिरफ्तारी नहीं होगी तो जनता सवाल करने लगी थी कि अदालत को सबूत जुटाकर देने का काम किसका है और आरोपियों को कौन और क्यों बचा रहा है? क्या दोनों ही काम कोई एक ही एजेंसी तो साथ-साथ नहीं कर रही है ?
लखीमपुर कांड की निष्पक्ष जाँच और आरोपियों को उचित सजा न्यायपालिका की ताक़त और लोकतंत्र के भविष्य को तय करने वाली है। उसके बाद इस चिंता भी पर गौर किया जाना चाहिए कि सरकारें अगर अदालतों के निर्देशों को न मानने या टालने का फैसला कर लें तो उस स्थिति में जजों को क्या करना चाहिए! किसी भी विधिवेत्ता ने इस आशंका पर अभी अपना मत प्रकट नहीं किया है कि अगर कोई निरंकुश शासन न्यायपालिका के निर्देश/आदेश का सम्मान करने से इंकार कर दे, आपराधिक न्याय के लिए दो तरह की व्यवस्थाएँ कायम कर दे—एक सामान्य व्यक्तियों के लिए और दूसरी विशिष्टजनों के लिए—तो ऐसी स्थिति से निपटने के लिए संविधान में क्या प्रावधान हैं और उनका पालन करवाने की जिम्मेदारी किसकी रहेगी? सुप्रीम कोर्ट ने हरीश साल्वे से भी यही सवाल किया था कि- ’अगर आरोपी कोई आम आदमी होता तब भी क्या पुलिस का रवैया यही होता ?’
बहस का विषय केवल यहीं तक सीमित नहीं है कि केंद्र में एक जिम्मेदार विभाग का कामकाज सम्भाल रहा व्यक्ति ही गंभीर आरोपों के घेरे में है और प्रधानमंत्री ‘अज्ञात’ कारणों से उसे हटा नहीं पा रहे हैं और कि मुख्यमंत्री प्रतिष्ठापूर्ण विधानसभा चुनावों के ठीक पहले एक अतिमहत्वपूर्ण व्यक्ति के खिलाफ करवाई कर पहले से नाराज बैठे एक वर्ग विशेष के परशुराम क्रोध का ख़तरा मोल नहीं लेना चाह रहे थे पर सुप्रीम कोर्ट के दबाव में उन्हें अंतत: लेना ही पड़ा। बहस का विषय यह भी है कि वर्तमान लोकसभा में आपराधिक आरोपों का सामना कर रहे सांसदों की संख्या 233 पर पहुँच गई है जो पिछली लोकसभा में 187, उसके पहले (2009 में) 162 और वर्ष 2004 में 128 थी। अत: कल्पना की जा सकती है कि संसदीय लोकतंत्र किस दिशा में जा रहा है।पूछा जा सकता है कि अजय मिश्रा की मंत्रिमंडल में इतने महत्वपूर्ण विभाग में नियुक्ति से पहले क्या उनकी और उनके निकटस्थ जनों की पारिवारिक और आपराधिक पृष्ठभूमि की जाँच नहीं करवाई गई थी ?
न्यायमूर्ति एन वी रमना ने इसी जून में ‘क़ानून का राज’ विषय पर दिए गए व्याख्यान में और बातों के अलावा तीन मुद्दे प्रमुख रूप से उठाए थे : न्यायपालिका को पूरी आज़ादी की ज़रूरत है जिससे कि वह सरकार की शक्तियों और कारवाई पर नियंत्रण रख सके। न्यायपालिका को कार्यपालिका और विधायिका द्वारा प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष तरीक़े से नियंत्रित नहीं किया जा सकता वरना कानून का राज मायावी हो जाएगा। तीसरा यह कि शासक को कुछेक साल में बदलते रहने का अधिकार मात्र ही निरंकुशता के विरुद्ध गारंटी नहीं हो सकता।
न्यायपालिका के आदेशों/निर्देशों की अवहेलना, उपेक्षा अथवा उनके प्रति असम्मान के भाव को इस तरह भी लिया जा सकता है कि अगर किसी शासक को निरंकुश बहुमत प्राप्त हो जाए तो फिर सरकार ही न्यायपालिका का काम भी करने लगती है। उस स्थिति में व्यवस्था जिसे अपराधी करार देगी उसे न्याय के लिए न्यायपालिका को सौंपने के बजाय फर्जी अथवा गैर-फर्जी मुठभेड़ों के जरिए सडक़ों पर ही सजा देने की गलियाँ तलाश लेगी और जिन्हें अपराधी होते हुए भी दोषी नहीं मानेगी उनके खिलाफ सबूत जुटाने का काम न्यायालयीन मंशाओं के अनुरूप सम्पन्न नहीं होने देगी। ऐसे में न्यायपालिका की उपयोगिता के प्रति जनता में भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। उस स्थिति में जजों को क्या करना चाहिए जब उन्हें लगने लगे कि देश तानाशाही की तरफ जा रहा है और न्यायपालिका की अवमानना की जा रही है?
इंग्लैंड के प्रसिद्ध मीडिया उपक्रम ‘द गार्डियन’ ने पिछले महीने जारी अपनी एक रिपोर्ट में पूर्वी योरप के देश पोलैंड के जजों द्वारा टी-शर्ट और जींस पहनकर शहर-शहर घूमते हुए देश के संविधान की प्रतियाँ जनता के बीच बाँटने के प्रयोग का जिक्र किया है। पोलैंड में सत्तारूढ़ दल इस समय अदालतों में ‘सुधार’ का काम कर रहा है। इसके अंतर्गत सरकार ने न सिर्फ अपने समर्थकों को संवैधानिक अदालतों में नियुक्त कर दिया है, बल्कि सुप्रीम कोर्ट ‘अनुशासनात्मक चेंबर ’ भी गठित कर दिया है जो जजों के अपने प्रति मुकदमों से प्रतिरक्षा के अधिकार को छीन रहा है।
अपने देश को अधिनायकवाद की तरफ जाते देख वहाँ के जजों ने सत्ता के समक्ष समर्पण करने के बजाय संविधान को लोगों तक ले जाने का तय किया। इस काम के लिए उन्होंने एक सर्वसुविधायुक्त मिनी बस का इंतजाम किया और जनता को यह समझाने निकल पड़े कि उसे कानून के राज (न्यायमूर्ति रमना के व्याख्यान का विषय) की चिंता क्यों करना चाहिए। कहा जा रहा है कि कानून के राज के लिहाज से पोलैंड इस वक्त अपने सर्वाधिक काले दौर से गुजर रहा है। बीस सितम्बर तक ये जज कोई अस्सी शहरों का दौरा पूरा कर चुके थे। पोलैंड की कहानी काफी लंबी है पर यह कहानी कभी भारत के जजों को भी ऐसी ही परीक्षा में डाल सकती है। अधिनायकवाद बिना दस्तक दिए ही दाखिल होता है।
इस बात को ज़्यादा तवज्जो नहीं दी जानी चाहिए कि नरेंद्र मोदी को नए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने ‘मुँह दिखाई’ की रस्म अदायगी में ही महात्मा गांधी की अहिंसा और सहिष्णुता का महत्व समझाने की कोशिश कर दी और भारतीय मूल की माँ की कोख से जन्मी उस देश की पहली महिला और अश्वेत उप-राष्ट्रपति कमला हैरिस ने भी उम्र में उनसे बड़े हमारे प्रधानमंत्री को खड़े-खड़े लोकतंत्र की अहमियत समझा दी। जो बातें बाइडन और हैरिस ने कहीं उनसे कहीं अधिक और काफ़ी साफ़ लफ़्ज़ों में मोदीजी के ‘माय फ़्रेंड बराक‘ भारत की ज़मीन पर पहले ही बोल चुके थे। वे तो नई दिल्ली से स्वदेश लौटने के ठीक पहले भारत में धार्मिक स्वतंत्रता का मुद्दा भी उठा गए थे। कम से कम बाइडन और हैरिस ने इस बाबत कोई भी ज़िक्र नहीं किया।
भारत का राजनीतिक नेतृत्व महात्मा गांधी और उनके विचारों से काफ़ी आगे बढ़ चुका है। उसके लिए अब ज़रूरत सिर्फ़ गांधी के आश्रमों (सेवाग्राम और साबरमती) के आधुनिकीकरण या उन्हें भी ‘सेंट्रल विस्टा’ जैसा ही कुछ बनाने की बची है। सत्ता की राजनीति ने गांधी के ऐतिहासिक अहिंसक ‘डांडी मार्च‘ को हिंसक ‘डंडा मार्च’ में बदल दिया है। अमेरिका और योरप में स्थित तमाम अंतर्राष्ट्रीय संस्थान मानवाधिकार, धार्मिक सहिष्णुता, नागरिक-स्वतंत्रता, मीडिया की आज़ादी और लोकतंत्र आदि विषयों को लेकर दुनिया भर के देशों की जो प्रावीण्य सूची (मेरिट लिस्ट) हर साल जारी करते हैं उनमें भारत के प्राप्तांक (नम्बर) लगातार कम होते जा रहे हैं पर हमारे नेतृत्व को महात्मा गांधी की क़ाबिलियत से ज़्यादा भरोसा अपने प्रतिबद्ध मतदाताओं के विवेक पर है।
इसीलिए जब ग्वालियर में गोडसे की मूर्ति की धूम-धाम से प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है या गांधी की पुण्यतिथि पर अलीगढ़ में राष्ट्रपिता के पुतले पर सार्वजनिक रूप से गोलियाँ चलाकर तीस जनवरी 1948 की घटना का गर्व के साथ मंचन किया जाता है तब कहीं कोई छटपटाहट नहीं नज़र आती।दूसरी ओर, जब अपने ऊपर गोरे सवर्णों द्वारा किए जा रहे अत्याचारों के ख़िलाफ़ अमेरिका के अश्वेत ‘ब्लैक लाइव्ज़ मैटर’ आंदोलन चलाते हैं और उस दौरान वाशिंगटन स्थित गांधी जी की प्रतिमा को थोड़ी क्षति पहुँच जाती है तो भारतीय अधिकारियों द्वारा औपचारिक तौर पर विरोध दर्ज करवा दिया जाता है और अज्ञात अपराधियों की पहचान के लिए अमेरिका में जाँच बैठ जाती है। हमारे यहाँ गांधी की लगातार की जाने वाली हत्या के ‘ज्ञात’ अपराधी भी खुले आम घूमते रहते हैं।
अमेरिका में इस समय निवास कर रहे भारतीय मूल के नागरिकों की संख्या कोई बयालीस लाख है। चीनी नागरिकों के बाद यह सबसे बड़ी संख्या बताई जाती है। इनमें अधिकांश मध्यम वर्ग (वहाँ के लखपति) या उच्च मध्यम वर्ग (वहाँ के करोड़पति) हैं जो योग्यता और मेहनत के दम पर गोरों के बीच अपनी जगह बना पाए हैं। भारतीय या एशियाई मूल के नागरिक ग़ाहे-बग़ाहे अपने होने वाले ऊपर नस्ली हमले भी चुपचाप सहते रहते हैं और इनमें लूट और हत्याएँ भी शामिल होती हैं। ये भारतीय वहाँ के मानवाधिकार आंदोलनों जैसे ‘ब्लैक लाइव्ज़ मैटर’ आदि में भी कभी भाग लेते नज़र नहीं आते और न ही किसी से किसी तरह का अहिंसक या गांधीवादी पंगा ही लेते हैं।हाँ, छह जनवरी को जब कैपिटल हिल पर ट्रम्प-समर्थक सवर्णों ने हमला किया था तब एक-दो भारतीय मूल के नागरिकों के चेहरे ज़रूर कथित रूप से वीडियो क्लिपिंस में नज़र आ गए थे।
अमेरिका में रहने वाले (या योरप,हाँग काँग,थाईलैंड, म्यांमार आदि में भी) भारतीयों की महत्वाकांक्षाएँ और संबद्धताएं वहाँ के सवर्णों के साथ रहती हैं और उन्हें डॉनल्ड ट्रम्प जैसे राष्ट्रपति ही ज़्यादा पसंद आते हैं।मतलब कि जैसे ट्रम्प या उनकी रिपब्लिकन पार्टी के नेता वहाँ के अश्वेतों ,दलितों और मुसलमानों के प्रति बैर भाव रखते हैं वैसे ही इन भारतीय मूल के नागरिकों में अधिकांश को बाइडन की यह नीति (यहाँ गांधी के ट्रस्टीशिप के सिद्धांत को ढूँढ सकते हैं) कि उनकी सम्पन्नता को भारी करों के रूप में वसूल करके अश्वेतों या आर्थिक-सामाजिक रूप से पिछड़ों को बराबरी पर लाया जाए कतई मंज़ूर नहीं है (चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग इस समय अपने देश में व्यक्तिगत सम्पन्नता को बराबरी के स्तर पर लाने का ही काम कर रहे हैं।)
संक्षेप में कहा जा सकता है कि दक्षिण अफ़्रीका की 7 जून 1893 की घटना की तरह आज की तारीख़ में कोई सवर्ण किसी मोहनदास करमचंद गांधी को अगर ट्रेन से उतारकर प्लेटफ़ार्म पर पटक दे तो कितने लोग उसकी मदद के लिए आगे आएँगे, कहा नहीं जा सकता। अमेरिका में रहने वाले भारतीयों ने शायद इस बात को ज़्यादा पसंद नहीं किया होगा कि व्हाइट हाउस में मोदी की अगवानी उतनी गर्मजोशी या धूमधाम से नहीं हुई जैसी कि ट्रम्प के कार्यकाल में हुई थी।और यह भी कि यह अवसर ‘हमारे’ प्रधानमंत्री को गांधी की ज़रूरत को समझाने का भी नहीं था। हक़ीक़त यह है कि गांधी की ज़रूरत इस समय कहीं नहीं है, न भारत में और न भारत के बाहर।गांधी की प्रासंगिकता चाहे आज पहले के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा बढ़ गई हो ।
महात्मा गांधी का विचार और उनकी ज़रूरत वर्तमान की साम्प्रदायिक और विभाजनकारी राजनीति के लिए मशीनी सूत से बने खादी के मास्क की तरह हो गया है जिसके नीचे सहिष्णुता ,अहिंसा और लोकतंत्र का मज़ाक़ उड़ाने वाले क्रूर और हिंसक चेहरे छुपे हुए हैं। ये चेहरे देश में गांधी विचार की किसी लहर को भी एक महामारी के संकट की तरह ही देखते हैं और अपने अनुयायियों को उसके प्रति लगातार आगाह करते रहते हैं। इसे प्रधानमंत्री की विनम्रता ही कहा जाएगा कि उन्होंने बाइडन और हैरिस के कहे को शांत भाव से ग्रहण कर लिया और मेज़बान का अपने घर में विशेषाधिकार का सम्मान करते हुए यह जवाब नहीं दिया कि भारत में गांधी की सहिष्णुता और लोकतंत्र के होने, न होने की ज़रूरत को अमेरिकी राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति नहीं तय कर सकते।
बहुत सारे लोग यह जानना चाहते हैं कि गांधी जयंती के ठीक पहले समाप्त हुई अपनी पाँच-दिनी वाशिंगटन और न्यूयॉर्क यात्रा से वापसी पर प्रधानमंत्री देशवासियों के लिए क्या भेंट लेकर लौटे हैं ? इन सब लोगों को यही दिलासा दिया जा सकता है कि वे राष्ट्रपति बाइडन द्वारा भेंट में दिए गए ‘मेड इन इंडिया ‘ गांधी विचार को अमेरिका से प्राप्त करके लौटे हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और हिंदूवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत के बीच उम्र में एक सप्ताह से भी कम का फ़ासला है। डॉ. भागवत प्रधानमंत्री से केवल छह दिन बड़े हैं। यह एक अलग से चर्चा का विषय हो सकता है कि इतने बड़े संगठन के सरसंघचालक का जन्मदिन भाजपा-शासित राज्यों में भी उतनी धूमधाम से साथ क्यों नहीं मनाया जाता जितनी शक्ति और धन-धान्य खर्च करके प्रधानमंत्री का प्रकटोत्सव आयोजित किया जाता है। और इस बार तो सब कुछ विशेष ही हो रहा है। वैसे मौजूदा हालात में डॉ भागवत के लिए जन्मदिन मनाने से ज़्यादा ज़रूरी यही माना जा सकता है कि वे अपनी पूरी ऊर्जा सरकार, संगठन और हिंदुत्व को ताक़त प्रदान करने में खर्च करें जो कि वे कर भी रहे हैं। इस काम के लिए वे देश भर में दौरे कर रहे हैं और भिन्न-भिन्न वर्गों के लोगों से बातचीत कर उनके मन की बात टटोल रहे हैं।
डॉ भागवत पिछले दिनों मुंबई में थे। वहां उन्होंने कहा था कि भारत में रहने वाले सभी हिंदुओं और मुसलमानों के पुरखे एक ही हैं। सारे भारतीयों का डी एन ए एक ही है। मतलब यह कि भारत के मुसलमानों को भी प्रकारांतर से हिंदू ही मान लिया जाना चाहिए। देश के मुसलमानों (और जो बँटवारे के बाद पाकिस्तान चले गए और बाद में उसके भी विभाजन के बाद बांग्लादेशी हो गए) ने डॉ. भागवत के कथन/दावे पर सामूहिक रूप से कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की है। वर्तमान की असहिष्णु राजनीतिक परिस्थितियों में ऐसा होना अनपेक्षित भी नहीं है।
अपने देशव्यापी ‘बौद्धिक जागरण’ के सिलसिले में डॉ भागवत ने पिछले ही दिनों ‘मिनी मुंबई’ के नाम से जाने जाने वाले इंदौर शहर की यात्रा की थी। देश का सबसे स्वच्छ शहर इंदौर इन दिनों साम्प्रदायिक तनावों (ताज़ा संदर्भ चूड़ी वाले का) और अन्यान्य कारणों से लगातार चर्चा में बना ही रहता है। अपनी यात्रा के दौरान डॉ भागवत ने उद्योगपतियों-युवा उद्यमियों, अखिल भारतीय स्तर पर हज़ारों छात्रों की कोचिंग क्लासें चलने वाले ‘शिक्षविदों’, समाज सेवियों और स्वयंसेवी संगठनों (एनजीओ) के संचालकों से ‘अनौपचारिक’ चर्चाएँ कीं। इस बात की कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है कि डॉ भागवत ने शहर और प्रदेश में बिगड़ते साम्प्रदायिक माहौल को लेकर भी किसी से कोई चर्चा की या नहीं। इतनी भूमिका के बाद आलेख के मूल विषय पर आते हैं :
डॉ. भागवत की इंदौर यात्रा को अपने पहले पन्ने की सबसे बड़ी और प्रमुख खबर के तौर पर पेश करते हुए दैनिक भास्कर ने लिखा :’’युवा उद्यमियों से चर्चा में डॉ. भागवत ने मीडिया पर भी बात की।उन्होंने कहा कि मीडिया को तथ्यात्मक खबरें छापना चाहिए और पॉज़िटिव खबरों को बढ़ावा देना चाहिए। अच्छी बात यह है कि अब इस पर काम शुरू हुआ है। एक चैनल आया है जिस पर अच्छी खबरें ही दिखाई जाएँगी। बैठक में मौजूद एक सदस्य ने कहा यहाँ यह काम दैनिक भास्कर कर रहा है। सोमवार को उसमें सकारात्मक खबरें होती हैं। इस पर डॉ. भागवत ने कहा, दैनिक भास्कर का सकारात्मक खबरों का प्रयोग मेरी जानकारी में है और यह बहुत अच्छा है। मैं शुरू से ही मीडिया को संदेश देता रहा हूँ कि निगेटिव खबरों को भी पॉजिटिव तरीक़े से छापे।’’
देश का लगभग पूरा ही ‘बड़ा वाला ‘मीडिया इस समय एकदम वही कर रहा है जैसा डॉ. भागवत चाहते हैं। वह केवल सकारात्मक खबरें ही छाप रहा है। वह उन सकारात्मक खबरों को भी पूरी ताक़त से दबा रहा है जो सरकारों को निगेटिव नज़र आ सकती हैं।’ अब चलेगी मर्ज़ी पाठकों की' के बुलंद दावों के साथ शुरू हुए मीडिया प्रतिष्ठान खुदी की मर्ज़ी से ‘अब चलेगी सिर्फ़ सरकारों की’ वाले बन गए हैं। अंग्रेज़ी में कुछ अख़बार अभी मिली-जुली मर्ज़ी चलाए हुए हैं। चैनलों में भी अपवाद के लिए एक-दो मिली-जुली मर्ज़ी वाले तलाशें जा सकते हैं। पाठकों, दर्शकों, संघ और सरकार से कुछ भी छुपा हुआ नहीं है।
मीडिया की ‘सकारात्मकता’ को लेकर कम से कम उन राज्यों के भाषायी मीडिया के प्रति तो डॉ भागवत को निश्चिंत हो जाना चाहिए जो भाजपा के लिए निहायत ज़रूरी वोट बैंक का काम करते हैं।हिंदी राज्यों का तो लगभग समूचा मीडिया ही इस समय ‘सकारात्मक’ हो चला है।खबरों में सकारात्मकता बरतने को लेकर अब मुख्य शिकायत तो उन राजनीतिक दलों और उनके मीडिया प्रकोष्ठों (cell ) को लेकर ही बची है जो एक सम्प्रदाय विशेष को निशाने पर लेकर न केवल साम्प्रदायिक ध्रूवीकरण ही कर रहे हैं ,समाज में ग़ैर-ज़रूरी तनाव भी पैदा कर रहे हैं। इनमें निशाने पर मुख्यतः वे ही लोग हैं जिनके पुरखों को डॉ भागवत हिंदू मानते हैं। डॉ. भागवत का एक संदेश इन दलों के लिए भी ज़रूरी हो गया है।
अंग्रेज़ी दैनिक ‘द इकानामिक टाइम्स’ ने हाल ही में एक खोजपूर्ण विश्लेषण प्रकाशित किया है।इसमें बताया गया है कि पाँच माह बाद ही उत्तर प्रदेश में होने वाले प्रतिष्ठापूर्ण विधान सभा चुनावों को लेकर भाजपा द्वारा सोशल मीडिया पर चलाई गई दो सप्ताह की प्रचार मुहिम की तीस प्रतिशत ‘पोस्ट्स’ में सिर्फ़ तालिबान की काबुल में वापसी को प्रमुख मुद्दा बनाया गया है।इसका उद्देश्य केवल प्रमुख विपक्षी दल समाजवादी पार्टी द्वारा कथित रूप से किए जाने वाले मुसलमानों के तुष्टिकरण को निशाने पर लेना है। भाजपा की सोशल मीडिया पोस्ट्स में बताया जा रहा है कि अफ़ग़ानिस्तान में किस तरह से मानवाधिकारों का उल्लंघन हो रहा है, कैसे लोग देश छोड़ने के लिए हवाई अड्डे की तरफ़ भाग रहे हैं, विमान कैसे खचाखच भरे हुए हैं और कि कैसे ग़लत तरीक़े से बुर्का पहनने पर महिलाओं पर कोड़े बरसाए जा रहे हैं।
डॉ. भागवत से विनम्रतापूर्वक सवाल किया जा सकता है कि अफगानिस्तान में तालिबानी हुकूमत की वापसी का अपने सोशल मीडिया चुनावी प्रचार में इस्तेमाल करके भाजपा उत्तर प्रदेश की कोई पाँच करोड़ मुसलमान आबादी और कोई सोलह करोड़ हिंदुओं को किस तरह का पॉजिटिव संदेश पहुँचाना चाहती है ? डॉ भागवत के इंदौर शहर में इस कहे को कि 'देश के बारे में सोचने वाले सभी 130 करोड़ हिंदू हैं ‘, की इस तरह की भाजपाई सोशल मीडिया पत्रकारिता में किस सकारात्मकता की तलाश की जा सकती है ? डॉ भागवत निश्चित ही ऐसा नहीं चाहते होंगे कि सत्ता की राजनीति प्रायोजित तरीक़े से जिन तालिबानी निगेटिव खबरों को सोशल मीडिया पर शेयर कर रही है उन्हें भी अख़बार पॉजिटिव तरीक़े से प्रकाशित करें।
और इस सवाल का जवाब कहाँ पर तलाश किया जाए कि डॉ भागवत जिन उद्योगपतियों से चर्चा कर रहे हैं उनमें वे लोग शामिल नहीं हैं जिन्हें संघ का मुखपत्र ‘पाँचजन्य’ राष्ट्र-विरोधी बताता है (यहाँ इंफ़ोसिस पढ़ें), वे बुद्धिजीवी शामिल नहीं हैं जिन्हें उनके वैचारिक विरोध के कारण प्रताड़ित किया जाता है और वे शिक्षाविद भी शरीक नहीं हैं जो (हिंदुत्व की) सांस्कृतिक क्रांति के नाम पर प्रामाणिक तौर पर स्थापित इतिहास को बदले जाने का विरोध कर रहे हैं ! क्या सकारात्मकता का सारा ठीकरा मीडिया के माथे पर ही फोड़ा जाता रहेगा ?
-विष्णु नागर
हमारे अच्छे दिन लाने वाले को अपने बुरे दिनों के बारे में भी अब सोचना आरंभ कर देना चाहिए। वे कब किस रास्ते आ जाएँ, पता नहीं। उत्तर प्रदेश भी वह रास्ता हो सकता है। ठीक है कि उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल नहीं है मगर चुनाव हो जाने से पहले पश्चिम बंगाल भी पश्चिम बंगाल कब लग रहा था?आज अखिलेश यादव ममता बनर्जी नहीं लग रहे हैं तो कल ममता बनर्जी भी तो अखिलेश यादव ही लग रही थीं! वहाँ ममता बनर्जी ने भाजपा का खेल बिगाड़ दिया, यहाँ खेल बिगाडऩे के लिए आपके अपने योगीजी हैं। पाँच साल से लगे हुए हैं। उन्होंने इतना ‘विकास’ किया है कि अब उत्तर प्रदेश को आगे और ‘विकास’ की जरूरत नहीं रही। ‘विकसित’ हो चुका, इसकी ताईद आप यूपी जाकर कर भी आए हैं।
दूसरा योगी हार भी गये तो गोरखपंथ का धार्मिक छाता अपने ऊपर तान लेंगे। उसमें सुरक्षित रहेंगे। धर्माध्यक्ष को छूना आज की तारीख में किसी भी सरकार के लिए आसान नहीं। राजनीति का पल्ला छोडऩा भी पड़ा तो उनका अपना एक सुरक्षित साम्राज्य है। अच्छे दिन वाले भाईसाहब के पास यह सुविधा नहीं है।बीस साल राजसुख भोगते-भोगते वक्ष भूल चुके हैं कि जब बुरे दिन आते हैं तो मित्र छिटक जाते हैं। अपना आगे का इंतजाम ठीक करने में व्यस्त हो जाते हैं। बाकी सत्ता में रहते जो दिखता है, वह सब माया होता है। पर्दा हटा कि जो दीखता था, छूमंतर हो जाता है। भक्त भी कामधंधे से लग जाते हैं। गोदी चैनलवाले आनेवाली सत्ता की गोदी में इस फुर्ती से बैठते हैं कि लगता है कि ये तो बेचारे इधर ही थे। हमें ही समझ में नहीं आ रहा था।
समय हो तो ज्यादा दूर नहीं, आडवाणी जी के घर जाकर मिल आओ। वैसे चंडीगढ़ भी दूर नहीं, अमरिंदर सिंह से मिल लो। वे बताएँगे, कल जो उनकी परिक्रमा करते थे, आज उनकी देहरी छूते भी डरते हैं। फोन करते भी घबराते हैं कि कहीं टैप न हो जाए। एक तरफ बुढ़ापा, दूसरी तरफ यह अकेलापन! बस बता रहा हूँ, मानने के लिए नहीं कह रहा हूँँ। सत्ता जाने के बाद का अकेलापन दिन में भी आधी रात की तरह लगता है, जिसमें चंद्रमा तक उगता नहीं, डूबता नहीं। चौबीस घंटे सांय-सांय हवा चलती रहती है, बिजली कडक़ती रहती है। डर लगता है मगर मुँह से किसी को पुकारने के लिए कंठ से आवाज तक नहीं निकल पाती। अकड़ भूल कर जब आदमी विनम्र हो जाता है, तो दयनीय लगता है।
देश के नागरिक इस वक्त एक नए प्रकार के ‘ऑक्सिजन’ की कमी के अदृश्य संकट का सामना कर रहे हैं।आश्चर्यजनक यह है कि ये नागरिक साँस लेने में किसी प्रकार की तकलीफ़ होने की शिकायत भी नहीं कर रहे हैं। मज़ा यह भी है कि इस ज़रूरी ‘ऑक्सिजन’ की कमी को नागरिकों की एक स्थायी आदत में बदला जा रहा है। उसका उत्पादन और वितरण बढ़ाए जाने की कोई माँग उस तरह से नहीं की जा रही है जैसी कि कोरोना की दूसरी लहर के दौरान मेडिकल ऑक्सिजन को लेकर की जाती थी। जिस ‘ऑक्सिजन’ की कमी की यहाँ बात की जा रही है उसके कारण प्रभावित व्यक्ति शारीरिक रूप से नहीं मरता ,वह दिमाग़ी तौर पर सुन्न या शून्य हो जाता है। एक ख़ास क़िस्म की राजनीतिक परिस्थिति में ऐसे नागरिकों की सत्ताओं को सबसे ज़्यादा ज़रूरत पड़ती है।
बहुत कम लोगों ने ध्यान दिया होगा कि वे इन दिनों अख़बारों को पढ़ने और राष्ट्रीय न्यूज़ चैनलों पर प्रसारित होने वाले समाचारों या चलने वाली बहसों को सुनने-देखने में खर्च किए जाने वाले अपने समय में लगातार कटौती कर रहे हैं। जिस अख़बार को पढ़ने में पहले आधा घंटा या और भी ज़्यादा का वक्त लगता था वह अब पन्ने पलटाने भर का खेल रह गया है। अगर किसी सुबह अखबारवाला विलम्ब से आए ,कोई दूसरा समाचार पत्र डाल जाए तो भी फर्क नहीं पड़ रहा है। फ़र्क़ सिर्फ़ अख़बारों की क़ीमतों में रह गया है, खबरों के मामले में लगभग सभी एक जैसे हो गए हैं।
नागरिकों को भान ही नहीं है कि हाल के सालों तक अख़बारों या चैनलों के ज़रिए जो ‘ऑक्सिजन उन्हें मिलती रही है उसकी आपूर्ति में किस कदर कमी कर दी गई है ! नागरिकों के दिमाग़ों को बिना खिड़की-दरवाज़ों के किलों में क़ैद किया जा रहा है। किलों की दीवारों को भी एक ख़ास क़िस्म के रंग से पोता जा रहा है और उन पर राष्ट्रवाद के पोस्टर चस्पा किए जा रहे हैं, भड़काऊ नारे लिखे जा रहे हैं। धृतराष्ट्रों और संजयों ने भूमिकाएँ आपस में बदल ली है।अब धृतराष्ट्र संजयों को आधुनिक कुरुक्षेत्र की घटनाओं का ‘प्री-पेड’ वर्णन सुना रहे हैं।
पिछले दिनों मैंने कोई पचास शब्दों (280 वर्ण-मात्राओं) का एक ट्वीट जारी किया था। वह इस प्रकार से था : देश की जनता को अपने ही सभी मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों के नामों ,जगहों और (देश में )चल रहे नागरिक प्रतिरोधों तथा जन-आंदोलनों की पूरी जानकारी नहीं है पर अख़बारों और चैनलों ने अफगानिस्तान के बारे में जनता को विशेषज्ञ बना दिया है। क्या पाठकों-दर्शकों के ख़िलाफ़ षड्यंत्र की गंध नहीं आती ?’ मेरे इस ट्वीट पर कई प्रतिक्रियाएँ मिलीं थीं। उनमें से अपने परिचित इलाक़े की केवल एक प्रतिक्रिया का ज़िक्र यहां कर रहा हूँ ।
महानगरों की क़तार में शामिल होते इंदौर से सिर्फ़ डेढ़ सौ किलो मीटर दूर डेढ़ लाख की आबादी का शहर खरगोन स्थित है। कपास और मिर्ची के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध इस ग्रामीण परिवेश के शहर में लगभग सारे बड़े अख़बार इंदौर से ही बनकर जाते हैं। मेरे ट्वीट पर जो एक प्रतिक्रिया वहाँ से आई और जिसे कुछ अन्य लोगों ने बाद में री-ट्वीट भी किया वह इस प्रकार थी :’ सर आज के दैनिक भास्कर ने पूरा तालिबान मंत्रिमंडल अपने पहले पेज पर छापा है वहीं खरगोन के थाने में हुई घटना को अंदर के पेज पर जगह दी गई। इसी से सब समझ आता है।’ (खरगोन में एक आदिवासी युवक की हिरासत में मौत हो गई थी।बाद में घटना पर व्यक्त हुए आक्रोश के बाद एस पी को वहाँ से हटा दिया गया।)।खबरों को दबाने के मामले में शहरी क्षेत्रों, यहां तक कि महानगरों की स्थिति भी खरगोन से ज्यादा अलग नहीं है।
लगभग सभी बड़े अख़बारों और चैनलों की हालत आज एक जैसी कर दी गई है। कोई भी सम्पादक न तो अपने पाठकों को बताने को तैयार है और न ही कोई उससे पूछना ही चाहता है कि इन ग्रामीण इलाक़ों और छोटे-छोटे क़स्बों में आप खबरों का ‘तालिबानीकरण’ किसके डर अथवा आदेशों से कर रहे हैं ? और ऐसा प्रतिदिन ही क्यों किया जा रहा है ? क्या कहीं ऊपर से इस तरह के हुक्म आए हैं कि अफगानिस्तान में तालिबानी हुकूमत के गठन और अल-क़ायदा को लेकर जो कुछ चल रहा है उसकी ही जानकारी पाठकों को देते रहना है ; रायपुर , लखनऊ और करनाल में जो चल रहा है उसे सख़्ती से दबा दिया जाना है ! यही वह ‘ऑक्सिजन’ है जिसकी कृत्रिम कमी जान-बूझकर पैदा की जा रही है।निश्चित ही जब यह ‘ऑक्सिजन’ ज़रूरत की मात्रा में दिमाग़ों में नहीं पहुँचेगा तो वैचारिक रूप से जागृत पाठक और दर्शक कोमा में जा सकता है।एक बड़ी आबादी को इस तरह की ‘ब्रेन डेथ’ और ‘कोमा’ की ओर धकेला जा रहा है।
तालिबानी मंत्रिमंडल के गठन और अल-क़ायदा के आतंकवाद का घुसपैठिया विश्लेषण करने वाले सम्पादक और खोजी पत्रकार अपने दर्शकों और पाठकों को यह नहीं बताना चाह रहे हैं कि अफगानिस्तान में भारतीय मूल के नागरिक इस समय किन कठिन हालातों का सामना कर रहे हैं अथवा भारत में इस समय कुल कितने अफ़ग़ान शरणार्थी हैं या ताज़ा संकट के बाद से कितने भारतीयों को वहाँ से बाहर निकाला जा चुका है। अफ़ग़ानी समुदाय के एक नेता के मुताबिक़ भारत में कोई इक्कीस हज़ार अफ़ग़ान शरणार्थी पहले से रह रहे हैं। ज़ाहिर है इन सब सवालों के जवाब पाने के लिए सरकारी हलकों में पूछताछ करना पड़ेगी। किसी में भी ऐसा करने का साहस नहीं बचा है। मेडिकल ऑक्सिजन का अभाव सह रहे मरीज़ों या गंगा में बहती लाशों की लाखों में गिनती करके अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सुर्ख़ियाँ बटोरने वाला मीडिया इस समय छोटी-छोटी गिनतियाँ करने से भी कन्नी काट रहा है।
अफगानिस्तान (और पाकिस्तान ) की खबरों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना और अपने ही देश और शहर के ज़रूरी समाचारों को या तो ग़ायब कर देना या फिर अंदर के पन्नों के ‘संक्षिप्त समाचारों’ की लाशों के ढेर के साथ सजा देना लगातार चल रहा है। मीडिया का यह कृत्य इतिहास में भी दर्ज हो रहा है। उस इतिहास में नहीं जिसे कि आज क्रूरतापूर्वक बदला जा रहा है बल्कि उस इतिहास में जिसमें दुनियाभर के लोकतंत्रों के उत्थान और पतन की कहानियाँ दर्ज की जातीं हैं।एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए निहायत ज़रूरी इस ‘ऑक्सिजन’ की चाहे जितनी कृत्रिम कमी उत्पन्न कर दी जाए जब कुछ भी नहीं बचेगा तो लोग आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए सच्ची ख़बरें पत्थरों और शिलाओं पर लिखना शुरू कर देंगे।एक डरा हुआ और लगातार भयभीत दिखता मीडिया अपने पाठकों, दर्शकों और प्रतिरोध की राजनीति को वैचारिक रूप से नपुंसक ही बनाएगा।
-विष्णु नागर
कल एक खबर पढ़ी थी कि पुणे के दगडूशेठ हलवाई गणपति को एक भक्त ने 10 किलो सोने का रत्नजडि़त मुकुट भेंट किया है। इसकी कीमत छह करोड़ रुपये बताई जाती है। कारीगरों को इसके लिए अस्सी लाख रुपये का मेहनताना दिया गया है।
गणेशजी पर इतनी कृपा बरसाने वाले इस भक्त ने अपना नाम गुप्त रखा है। इस कलयुग में जब पाँच किलो अनाज के थैले पर प्रधानमंत्री का फोटो अनिवार्य रूप से छपता है, तब एक सतयुगी भक्त बनकर किसी का 6 करोड़ रुपयों का इस प्रकार गुप्त बलिदान करने के लिए प्रकट हो जाना सचमुच प्रशंसनीय और चकितनीय घटना है। मैंने घटना कहा है, कृपया इसे दुर्घटना न पढ़ें।
मेरी समस्या बस इतनी सी है कि 6 करोड रुपए खर्च करने की भक्ति सेठों में कब और कैसे उत्पन्न हो जाती है? कोई कारण तो होगा, अकारण तो इस दुनिया में कुछ होता नहीं। पृथ्वी तक सूरज का चक्कर 365 दिन में अकारण नहीं लगाती। चाँद तक अकारण पृथ्वी की परिक्रमा चौबीस घंटे में पूरी नहीं करता। चींटियाँ तक मिलकर अकारण कुछ खींचकर, उठाकर अपने बिल में नहीं ले जातीं! तो क्या इस भक्ति का कारण केवल गणेशजी का आशीर्वाद प्राप्त करना ही हो सकता है? याद रखिए यह भक्ति साधारण नहीं, 6 करोड़ रुपये इसमें इनवाल्व है। भक्त असाधारण है। ये गणेश भी असाधारण है। हर भक्त की इच्छा रहती है कि इनके दर्शन कम से कम एक बार अवश्य पास या दूर से प्राप्त करे। अब तो भक्त दगड़ूशेठ गणपति से अधिक उनके मुकुट के दर्शन में इंटेरेस्टेड होंगे।
सवाल यह है कि श्रद्धा के नाम पर खर्च करने के लिए 6 करोड़ रुपये किसी के पास आ कहाँ से जाते हैं? ऐसा तगड़ी भक्ति जिस सेठ में पाई है, उनके पास कम से कम 500 करोड़ पाए जाते होंगे। इतने बड़े करोड़पति में भी ऐसा भक्ति-भाव पाया जाता है, यह हृदय को विगलित-विजडि़त कर देने वाली घटना है। मेरी भक्त-पत्नी तो किसी भी मंदिर में 10 रुपये से ज्यादा नहीं चढ़ाती। हद से हद नारियल और हार-फूल पर भी वह कुछ अतिरिक्त खर्च कर देती है। इससे अधिक कुछ नहीं। इससे अधिक श्रद्धा उसमें है नहीं, जबकि वह काफी श्रद्धालु है। अभी जन्माष्टमी पर वह इतनी उत्साहित थी कि जैसे उसके बेटे या पोते का जन्मदिन हो। इस मंगलवार को ही उसने पाँच दिन बाद गणेशजी को पानी से भरी एक बड़े से पतीले में सम्मानपूर्वक बैठाकर रवाना किया है। रोज इन्हें उसने पकवान खिलाए हैं। इनके लिए रोज थोड़ा-थोड़ा मीठा बनाया है। गणेशजी के मजे हुए या नहीं मगर मेरे तो हो गए! मैं दगड़ूशेठ गणपति के दर्शन करने पुणे जाता तो इस सुख से वंचित हो जाता!
दगड़ूशेठ गणपति के ओ अप्रतिम भक्त, तू अगर इतना ही उदार हृदय है तो भाई एक शानदार स्कूल ही साधारण गरीब बच्चों के लिए खुलवा देता, जिसमें मुफ्त शिक्षा दी जाती। दगड़ूशेठ गणपति से मेरी इतनी तो पटती ही है कि मैं विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि वह इस पर कतई नाराज नहीं होते। लेकिन सेठ, तुम स्कूल -कॉलेज या विश्वविद्यालय खुलवाओगे तो वहाँ एक के हजार बनाओगे। फिर किसी एक साल में वे छह करोड़ दगडूशेठ के गणपति को समर्पित कर आओगे। गोपनीय दान कर दोगे। गोपनीय दान तो राजनीतिक चंदे की गोपनीयता के प्रवर्तक, पालक, संचालक गणेश के खजांची को समर्पित कर आते, तो तुम्हारे 6 सौ करोड़ के काम बन जाते। उनसे बड़ा गणपति आज कहाँ और कौन है इस भारत भू पर?
अरे इन गणपति को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनके सिर पर मुकुट है या नहीं। और मुकुट अगर है तो कहीं छह करोड़ से कम का तो नहीं है? उन्होंने कभी नहीं कहा होगा कि मुझे 6 करोड़ का ही मुकुट चाहिए। उनकी मूर्ति के साथ जो मुकुट उन्हें मिलता है, उसी से उन्हें संतोष होगा बल्कि गर्मियों में यह परेशानी का कारण बन जाता होगा।
दगड़ूशेठ गणपति के भक्त, यह उनके सिर का मुकुट नहीं, तुम्हारा निर्दयता का असली प्रमाणपत्र है। यही भक्त किसी सार्वजनिक काम के लिए अगर और मेरा जोर अगर पर है, सौ रुपये भी खर्च करेगा तो खीसे निपोर कर फोटो जरूर खिंचवाएगा। अखबार में उसे मुफ्त छपवाएगा। अखबार वाले मुफ्त नहीं छापेंगे तो दस लाख का फुल पेज विज्ञापन देकर अंग्रेजी अखबार में छपवाएगा। हो सके तो किसी राष्ट्रीय कहे जाने वाले टीवी चैनल पर अपने कीर्तिगाथा दिखवाएगा। लेकिन यही सेठ गणेशजी को रत्न जडि़त सोने का मुकुट चढ़ाएगा तो गोपनीयता को प्राप्त होना चाहेगा। इसका नाम गुप्त था, गुप्त है और गुप्त रहने वाला है। सरकार से इस सेठ- भक्त की काफी तगड़ी सेटिंग होगी, जिसके सामने गुप्त कुछ भी नहीं रहता। सब प्रकट रहता है। हाँ, सरकार चाहे तो जनता से यह अप्रकट रह सकता है। छापामुक्त रह सकता है मगर इसकी एक निश्चित कीमत है। कीमत दो और गोपनीयता का सामान उठाकर आराम से घर ले जाओ। वैसे भी दगडूशेठ के गणपति से कौन सी सरकार दुश्मनी मोल लेना चाहेगी? वे नाराज हो गए तो सरकार अल्पमत में आ जाएगी। लेकिन दिल्ली दंगों में तमाम बेगुनाहों को थोक के भाव फँसा दिया जाएगा और अपराधियों को साफ बचा लिया जाएगा। दिल्ली पुलिस को आदेश होगा कि ऐसा ही करना है। यही ‘सांप्रदायिक सद्भाव’ के हित में है। तेलुगु कवि वरवर राव को एक झूठे केस में फँसाकर मुश्किल से जमानत देने दी जाएगी मगर स्टेन्स स्वामी की तो जान ले ही ली जाएगी। इससे दगडूशेठ के उस भक्त को कोई दुख, कोई रंज नहीं होगा। उसे इन सब पचड़ों में पडऩे की फुर्सत भी न होगी, पता होगा, तो भी पता न होगा, जैसा होगा। उसका दिल अव्वल तो होगा नहीं और होगा तो इन बातों से दुखने के लिए फ्री न होगा। उसका दिल तो 6 करोड़ के मुकुट में समाहित है। उसका दिमाग तो सरकारी पार्टी को दिए गए गोपनीय चंदे में समाहित है।
अफ़ग़ानिस्तान में अल क़ायदा के ख़िलाफ़ अमरीका द्वारा अक्टूबर 2001 में किए गए हमले और वहाँ से कोई ‘बीस साल बाद' अपनी फ़ौजों की वापसी की कहानी को समझने के लिए न्यूयॉर्क स्थित उस स्मृति-स्थल, जिसे दुनिया ग्राउंड ज़ीरो’ के नाम से जानती है, के सामने दो मिनिट के लिए अपनी आँखें बंद करके खड़े होकर उस सुबह जो कुछ भी भयावह घटा होगा उसकी कल्पना करना ज़रूरी है। इस स्थान पर मुझ जैसे भारतीय का खड़े होकर कुछ तलाश करना उस आम अमेरिकी से काफ़ी अलग था जो उसने उस ग्यारह सितम्बर को पहली बार बीस साल पहले महसूस किया होगा जिसमें पलक झपकते ही कोई तीन हज़ार लोग राख और हज़ारों अन्य ज़ख़्मी हो गए थे। यही वह जगह है जहां 11 सितम्बर 2001 को अमेरिकी आकाश में सूरज उगने तक वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के नाम से पहचान रखने वाले न्यूयॉर्क की शान ‘ट्विन टावर्स’ खड़े हुए थे।
अफगानिस्तान से वापसी के बाद अमेरिका ने बीस सालों में पहली बार इस ग्यारह सितम्बर को एक अवर्णनीय पीड़ा के साथ याद किया होगा। एक ऐसी पीड़ा जिसे कोई सवा लाख लोगों की 31 अगस्त तक पूरी कर ली गई वापसी के बावजूद अमेरिका उन चार करोड़ अफगानियों के आंसुओं में छोड़ आया है जो अब तालिबान से आज़ाद होकर उड़ने के लिए नाटो के विमानों का काबुल के हवाई अड्डे के आसपास और अन्य स्थानों पर छुप कर इंतज़ार कर रहे हैं। पिछले दो दशकों में अमेरिका के तीन राष्ट्रपतियों ने पुराने अफगानिस्तान के भीतर ही एक नए आधुनिक देश का निर्माण कर दिया था।
कल्पना करके देखना चाहिए कि अमेरिका जैसी महाशक्ति ने अपने यूरोपीय मित्र देशों के साथ मिलकर वाशिंगटन से ग्यारह हज़ार किलो मीटर दूर स्थित एक अनजान देश में दो दशकों तक अल क़ायदा के कुछ ही हज़ार इस्लामी आतंकवादियों के ख़िलाफ़ इतनी लम्बी लड़ाई क्यों लड़ी होगी और उसके अब क्या परिणाम निकल रहे हैं ? अपनी दो दशकों की मौजूदगी के बावजूद अमेरिका अफगानिस्तान में आतंकवाद को तो पूरी तरह कभी ख़त्म नहीं कर पाया, पर वहाँ से अपनी वापसी के ज़रिए एक देश को ज़रूर ख़त्म कर दिया। कहा जाता है कि अफगानिस्तान में इस समय तालिबान के लड़ाकुओं के अलवा कोई दस हज़ार के क़रीब दूसरे आतंकवादियों का जमावड़ा है और इनमें अधिकांश का सम्बन्ध अल क़ायदा से है।
अमेरिका में तब के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने जब नाइन-इलेवन की दुनिया को दहला देने वाली घटना के पच्चीस दिन बाद 7 अक्टूबर को काबुल पर हमला करने का फ़ैसला लिया होगा तब कल्पना भी नहीं की होगी कि वे क्या करने जा रहे हैं। अलकायदा के ख़िलाफ़ छेड़ा गया अमेरिकी युद्ध तो कुछ ही महीनों में ख़त्म हो गया था पर किसी भी अमेरिकी राष्ट्रपति ने उसे ख़त्म घोषित नहीं किया। बराक ओबामा की व्हाइट हाउस में मौजूदगी के दौरान ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान में समाप्त कर दिया गया था। तब भी अमेरिका ने काबुल से अपनी फ़ौजों की वापसी की घोषणा नहीं की। बुश की तरह ही डॉनल्ड ट्रम्प ने भी इस्लामी कट्टरवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई को सत्ता में बने रहे का हथियार बनाकर रखा।
तालिबान के लिए अफगानिस्तान का मौजूदा संकट मंत्रिमंडल गठन नहीं बल्कि यह है कि उन नागरिकों की मौजूदगी उसे कैसे हासिल हो जिन्हें उसने अमेरिकी हमले के पहले अंतिम बार बीस साल पहले देखा और छोड़ा था। इस समय तालिबानी अफगानिस्तान में अपने 1996 से 2001 के बीच के क्रूर अतीत की वापसी तलाश रहे हैं और इसके विपरीत वहाँ के नागरिक उस अतीत की जो अमेरिका और उसके मित्र पश्चिमी देशों ने बीस सालों के दौरान दिया था और अब उन्हें लावारिस हालत में छोड़ कर चले गए हैं। अपनी 19 साल 47 सप्ताह की उपस्थिति के दौरान अमेरिका ने अफगानिस्तान में एक ऐसा देश खड़ा कर दिया था जिसका वह शासक नहीं था पर वहां उसका दिया हुआ लोकतंत्र अवश्य था।
अमेरिका ने 31 अगस्त 2021 तक की निर्धारित अवधि तक अपने बचे सवा लाख नागरिकों, सैनिकों और राजनयिकों को तो सुरक्षित बाहर निकल लिया पर उस देश को बाहर नहीं निकाल पाया जो उसके कारण पूरी तरह से पश्चिमी सभ्यता, वहाँ जैसी नागरिक आज़ादी, संस्कृति, आधुनिकता, शिक्षा, संगीत और खुलेपन का अभ्यस्त हो चुका था। किसी भी राष्ट्र के जीवन में बीस सालों का वक्त कम नहीं होता। इतने समय में अमेरिका में वह पीढ़ी जवान हो चुकी है जो नाइन-इलेवन के समय गर्भ में थी और आँखें खोलने पर अपने पिताओं की सूरतें नहीं देख पाई होगी। इधर अफगानिस्तान में भी उस पीढ़ी ने तालिबानी जुल्म नहीं देखे थे जिसने 27 अक्टूबर 2001 के बाद जन्म लिया और अब जवान हो चुकी है। काबुल और अन्य स्थानों पर इस समय जो युवा और महिलाएँ तालिबानी बन्दूकों के ख़ौफ़ से बिना डरे आज़ादी के लिए प्रदर्शन कर रही हैं उनमें ज़्यादातर उसी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करती हैं।
नागरिकों को ग़ुलामी देकर उसे उनसे वापस छीन लेना इस बात से सर्वथा भिन्न है कि उन्हें आज़ादी देकर वापस छीन ली जाए। लोगों की आँखों में लोकतंत्र के सपने भर देने के बाद उन्हें फिर से अतीत की अंधेरी गुफाओं में धकेल दिया जाए। अफगानिस्तान में यही हो रहा है। इसीलिए हामिद करजाई हवाई अड्डे से जब आख़िरी अमेरिकी सैनिक मेज.जन.क्रिस्टोफ़र टी डॉनह्यू ने अफ़ग़ान ज़मीन को विदाई दी तो तालिबानी लड़ाकों ने तो काबुल की सड़कों पर हर्ष फ़ायरिंग करते हुए जश्न मनाया पर अफगान नागरिकों की आँखों से आंसुओं का सैलाब फूट पड़ा।
अमेरिका ने अफगानिस्तान में कुछ भी हासिल नहीं किया। नाइन-इलेवन के आतंकवादी हमलों में उसके 2977 नागरिक मारे गए थे और पिछले बीस सालों के दौरान उसके 2461 सैनिकों और अन्य नागरिकों को अफगानिस्तान में अपनी जानें गँवाना पड़ीं। दो ख़रब डालर से ज़्यादा के धन की बर्बादी एक अलग कहानी है। क्लाइमेक्स यह है कि अफगानिस्तान भेजे गए कोई आठ लाख अमेरिकी सैनिकों को उनकी स्वदेश वापसी के बाद भी पता नहीं चल पाया है कि उन्हें अपनी ज़मीन से ग्यारह हज़ार किलोमीटर दूर किस मक़सद से भेजा गया था और इतनी क़ुर्बानियों के बाद भी वह मक़सद पूरा हुआ कि नहीं ? हम अपने यहाँ भारत में जिस अफगानिस्तान को लेकर चिंताएँ ज़ाहिर कर रहे हैं वह अब वहाँ उपस्थित नहीं है और अमेरिका भी वहाँ वापस नहीं लौटने वाला है।
यह कहना कि अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी हुई है भी पूरी तरह से ठीक नहीं है।अमेरिका तो वहाँ कभी रहने के लिए गया ही नहीं था। न ही वह देश अमरीकियों का कोई पुश्तैनी ठिकाना रहा है।उसे तो कभी न कभी वहाँ से बाहर निकलना ही था। नई दिल्ली से सिर्फ़ हज़ार किलो मीटर दूर, अफगानिस्तान तो हमारा घर है। अमेरिका की तरह सिर्फ़ बीस सालों से नहीं सैकड़ों वर्षों से। पृथ्वीराज चौहान के साम्राज्य के पूर्व से। उस वक्त के भी पहले से जब वहाँ बामियान में भगवान बुद्ध की विशाल प्रतिमाओं का निर्माण वहाँ हुआ होगा। सिर्फ़ वर्ष 1990 के लिए उपलब्ध आँकड़ों के ही अनुसार, वहाँ रहने वाले भारतीय मूल के नागरिकों की संख्या तब 45,000 थी। इनमें अधिकांश पंजाब क्षेत्र से थे और मुख्यतः काबुल, जलालाबाद में उनकी रिहाइश रही है। हम स्वीकार ही नहीं करना चाहते हैं कि वहाँ से वापसी तो असल में हमारी हुई है। अमेरिका ने तो दुनिया को जता भी दिया है कि वह अब वहाँ (या और भी कहीं) वापस नहीं जाने वाला है। सवाल तो यह है कि हमें आधिकारिक तौर पर यह नहीं बताया गया है कि क्या भारत को भी अब अमेरिका की ही तरह अफगानिस्तान कभी वापस नहीं लौटना है !
अभी यह भी साफ़ किया जाना बाक़ी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चिंता सिर्फ़ अफगानिस्तान की ज़मीन का आतंकवादी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल नहीं होने देने तक ही सीमित है या लोकतंत्र की बहाली के लिए वहाँ चल रहे संघर्ष को भी भारत का समर्थन प्रदान करने की है ! और क्या प्रधानमंत्री रूस और चीन की नाराज़गी की परवाह किए बग़ैर ऐसा करने का साहस दिखा सकेंगे ? निश्चित ही देश इस नाइन-इलेवन पर अफगानिस्तान की स्थिति को लेकर अपने प्रधानमंत्री के संकल्प के बारे में जानना चाहता है !
-विष्णु नागर
हमारे इस सड़े हुए समाज में कोई दूसरा रिपोर्टर इसे मामूली दैनिक घटना की तरह मशीनी ढँग से लिखकर उस दिन का अपना काम निबटा देता तो आश्चर्य नहीं होता।
इंडियन एक्सप्रेस के आनंद मोहन जे. ने ऐसा नहीं किया। मुझे और बहुतों को कल यह घटना बताकर विचलित कर दिया। बार-बार मन इस रिपोर्ट की तरफ जाता रहा।
पहले असली घटना।
55 वर्षीय दलित ने अपना नाम नहीं बताया रिपोर्टर को, इसलिए नाम कोई भी रख लीजिए। ख रख लेते हैं। ख के घर के आगे किसी पड़ोसी का कुत्ता टट्टी-पेशाब कर गया। उसने इसकी शिकायत की। विवाद बढ़ गया होगा। पड़ोसी सुनने को राजी नहीं हुआ होगा। उसने इस दलित के खिलाफ गाँठ बाँध ली कि अब इसे तगड़ा मजा चखाना ही है, छोडऩा नहीं है। रिपोर्ट नहीं बताती मगर जो बदला लेने की किसी भी हद तक चला गया, संभव है, वह कोई सवर्ण रहा होगा।
एक साधारण दलित को फँसाने का आसान तरीका था, उस पर आदतन बलात्कारी होने का आरोप चस्पां करना। अदालत ने छह साल बाद पाया कि यह आरोप न केवल झूठा था बल्कि उससे भी नीचतापूर्ण यह था कि इसके लिए परिवार से संबद्ध चार लड़कियों का इस्तेमाल किया गया। उनसे गवाही दिलवाई गई कि उनके साथ इसने समय-समय पर बलात्कार किया है। पितृसत्तात्मक दबाव में उन्होंने झूठ बोलने से गुरेज नहीं किया होगा मगर उन बच्चियों के लिए पुलिस तथा अदालत के सामने ऐसा कहना कम यातनादायक नहीं रहा होगा।
एक महीने पहले यह दलित तिहाड़ जेल से छूटा है।
कहानी इतनी ही नहीं है। इसकी भयावहता का पता उसकी मनस्थिति से चलता है, जो जेल में थी। जेल की कोठरी मे नींद आने पर सपने में वह पक्षी की तरह उडऩे लगता था।नीचे उसे जैसे ही उसे अपनी परेशानहाल पत्नी दीखती तो वह धड़ाम से नीचे गिर पड़ता। फिर वह बस में चढ़ता तो उसका सपना टूट जाता। जेल की दीवारों की हकीकत सामने आ जातीं। छूटने के बाद अब यह सपना उसे नहीं आता, जबकि वह फिर से कम से कम एक बार यह सपना देखना चाहता है।
कहानी यहाँ भी खत्म नहीं होती। और भी भयावह यह है कि अब वह घर बाहर जाने से घबराने लगा है। बाहर जाता है तो अपने घर का रास्ता भूल जाता है। भूख अब उसे नहीं लगती। उसे इतनी थकान महसूस होती है हर समय कि काम करने की हिम्मत नहीं।
वह खुद कहता है कि अब मेरा दिमाग काम नहीं करता, जबकि वह पहले एक बड़े बैंक अफसर के घर चौकीदार था। मालिक उसके कहते हैं कि जैसे उसके पैर में स्प्रिंग लगा हो।वह काम करता ही रहता था। ड्यूटी के बाद भी भागने की उसे जल्दी नहीं होती थी।
उसकी उम्र में कुछ बड़ी 58 साला पत्नी अब सडक़ पर रद्दी कागज आदि बीनकर कभी सौ रुपये, कभी और भी कम कमाती है।उसका तीस साल का बेटा बारह घंटे मजदूरी करके 12000 रुपये कमाता है। घर तो शायद किसी तरह इससे चला लिया जाता होगा मगर परिवार के सिर पर अब पाँच लाख रुपयों का कर्ज चढ़ है। उसे चुकाना है। अदालत ने इस निरपराध को छह साल जेल में रखने के आरोप में सरकार से उसे एक लाख रुपये का मुआवजा देने को कहा है। जिस देश में सर्वोच्च न्यायालय कहता हो कि सरकार हमारी नहीं सुनती, वहाँ स्थानीय अदालत के आदेश का सम्मान हो जाए, इसे चमत्कार से कम मानना मुश्किल है।
वह बैंक के जिन बड़े साहब के यहाँ चौकीदार था, उन्होंने जरूर उसका साथ दिया। उसके बलात्कारी न होने के पक्ष में अदालत में वे खड़े हुए।
जेल में उसका सहारा बाइबिल थी। उसे मुश्किल से ही समझ में आता था कि इन वाक्यों का अर्थ क्या है मगर उसे इतना समझ में जरूर आया कि ईश्वर हम सबका एक है। इसके प्रभाव में वह बताता है कि उसने अपने पर झूठा आरोप लगाने वालों को माफ कर दिया है। उसके मन में उनके प्रति अब कोई नफरत नहीं बची है, जबकि दलित होने के नाते उसकी जिंदगी के उन्होंने छह साल बर्बाद कर दिए।
जेल में एक ही राहत थी, जिसने उसे बचाकर रखा, वह यह थी कि उसे वहाँ चित्रकारी सीखने का मौका मिला। उसने हिंदू देवी-देवताओं, नेताओं के चित्र बनाए। दीपिका पादुकोण शायद उसकी प्रिय हीरोइन है, उनकी तस्वीरें भी बनाईं। बैंकों से संबंधित विज्ञापन चित्रित किए।
यह तो एक कहानी है। ऐसी लाखों कहानियाँ हैं। बस उन तक पहुँचने वाले आनंद मोहन दो- चार ही होंगे। कभी जाऊँगा उनके दफ्तर और उन्हें धन्यवाद देकर आऊँगा। उनके पास कम वक्त होगा तो उनसे चाय पिऊँगा। ज्यादा वक्त उनके पास हुआ तो कहूँगा आइए, आज मैं चाहता हूँ कि कहीं चलें और मैं आपको चाय पिलाऊँ। फिर पूछूँगा, यह बताइए मेरे युवा साथी, तुमने यह आँख कहाँ से पाई? अगर आज तुम मेरी भाषा के किसी बड़े अखबार के रिपोर्टर हुए होते तो एडीटर की बात तो छोड़ो, कुछ सभ्य किस्म का मेट्रो एडीटर हुआ होता तो कहता अच्छा ठीक है,देखता हूँ। एडीटर से बात करता हूँँ । फिर तुम्हारी आँख बचाकर इसे कूड़ेदान में फेंक देता। तुम पूछते तो कहता, एडीटर साहब कह रहे थे कि ये लडक़ा क्या डाऊन मार्केट स्टोरी करता रहता है। इससे कहो कि आगे से जो करना है, तुमसे ठीक से पूछ कर किया करे। अखबार का कीमती वक्त ऐसी फालतू स्टोरीज पर खर्च न करे। उजड्ड मेट्रो एडीटर तो तुम्हारी आँखों के सामने ही इसे फेंक देता और कहता-बकवास। ये तुम क्या- क्या फालतू काम करते रहते हो, आनंद। नौकरी करो, नौकरी। कहानियाँ लिखना हो तो हंस और कथादेश में लिखो। वहाँ कम से कम दस लोग तो पढ़ेंगे। यहाँ हमारे रीडर के पास बकवास पढऩे की फुर्सत नहीं है, समझे! इसलिए इंडियन एक्सप्रेस को भी धन्यवाद।
इसे कुछ लोग हमारी इस भाषा को जोश में आकर राष्ट्रभाषा कहते हैं, कुछ इसे राजभाषा। 14 सितंबर को राजभाषा दिवस है। इसे कुछ लोग हिंदी दिवस भी कहते हैं। अमूमन इसकी पत्रकारिता का यह सीन है।
-श्रवण गर्ग
सरकार चाहे तो इस तरह की चर्चाओं की गुप्त जाँच के लिए किसी एजेंसी की मदद ले सकती है कि क्या जनता का एक बड़ा वर्ग प्रधानमंत्री द्वारा अचानक से घोषित कर दिए जाने वाले फैसलों या फिर उनकी कठोर भाव-भंगिमा को लेकर हमेशा ही आशंकित या सहमा हुआ रहता है, उनके अन्य सहयोगियों से उतना नहीं! इस गुप्त जाँच के दायरे में उनकी ही पार्टी के मंत्री, मुख्यमंत्री और कार्यकर्ता भी शामिल किए जा सकते हैं। निश्चित ही इस तरह की चर्चाओं के पीछे न तो किसी विदेशी षड्यंत्र को सूंघा जा सकता है और न ही विपक्ष का कोई हाथ या पंजा तलाशा जा सकता है।
जो डर इस समय व्याप्त है वह आपातकाल से अलग और ज़्यादा निराशा पैदा करने वाला नजऱ आता है। आपातकाल के दौरान लोग इंदिरा गांधी के अलावा संजय गांधी से भी बराबरी का भय खाते थे। चौधरी बंसीलाल से भी घबराते थे और विद्याचरण शुक्ल से भी। ’तुम भी विद्या, हम भी विद्या’ वाले प्रसंग के बाद से तो और ज़्यादा ही। दिल्ली में तुर्कमान गेट की घटना और देश में ज़बरिया नसबंदी के बाद तो संजय गांधी आतंक के प्रतीक बन गए थे। फिर कई राज्यों में उस समय दिल्ली के प्रति ज़रूरत से ज़्यादा वफ़ादार मुख्यमंत्री भी मौजूद थे ।इस समय की बात कुछ और ही है।
चलने वाली चर्चाओं का चौंकाने वाला सच यह भी है कि इस समय के डर का संबंध प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विचलित कर देने वाले ‘मौन’ और आलोचकों में अप्रत्याशित घबराहट पैदा करने वाले उनके खौफ से भी है। इंदिरा गांधी बोलतीं भी थीं और न चाहते हुए भी देशी-विदेशी मीडिया के सभी तरह के प्रश्नों के उत्तर देतीं थीं। करन थापर जैसे पत्रकार उस दौर में भी होते थे ।इस काल में सवालों के जवाब के लिए मोदी के मौन के पीछे छुपी भाषा को पढऩा पड़ता है।
मोदी संसद में उपस्थित रहते हुए भी अपने आप को अनुपस्थित कर लेते हैं और अनुपस्थित रहते हुए भी उनकी सूक्ष्म नजऱें दोनों सदनों की हरेक सीट पर रहती है। मोदी ऐसा अपनी विदेश यात्राओं के दौरान भी कर लेते होंगे।वे पिछले सात सालों में साठ देशों की 109 यात्राएँ कर चुके हैं। पिछले मार्च के बाद से ऐसा पहली बार है कि बांग्लादेश की उनकी संक्षिप्त यात्रा के अपवाद को छोड़ दें तो वे लंबे समय से देश में ही हैं। शायद यही कारण हो कि देश की जनता को अपने प्रधानमंत्री को ज़्यादा नजदीक से जानने या डरने का मौक़ा मिल रहा है। तृण मूल कांग्रेस के डेरेक ओ’ब्रायन पूछते भी हैं कि राज्य सभा में जब दो पूर्व प्रधानमंत्री उपस्थित रहते हैं, मोदी क्यों अनुपस्थित रहते हैं ? डेरेक यह भी कहते हैं कि क्या गत्ते का बना उनका कोई बड़ा-सा कट आउट लगकर संसद का काम चलाया जाए ?
मानना यह भी होगा कि एक बड़ा प्रतिशत ऐसे लोगों का भी हैं जो प्रधानमंत्री से प्रेम करता है, उनके प्रति पूरी तरह से समर्पित है और जिसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि मोदी विपक्ष को दिखाई नहीं देते। इन समर्पितों को लगता है कि घबराया हुआ विपक्ष प्रधानमंत्री की संसद में शारीरिक उपस्थिति के दौरान ही देश के समक्ष अपनी स्वयं की उपस्थिति को दर्ज कराने की हिम्मत दिखाना चाहता है। जब कोई व्यक्ति या समूह किसी वस्तु या अन्य व्यक्ति से डरता है तो उसकी तरफ ही लगातार देखते रहना चाहता है। उसकी गैर-मौजूदगी से उसे और भी ज़्यादा डर महसूस होता है। मोदी को लेकर विपक्ष और उनके आलोचकों की स्थिति ऐसी ही है। इस संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता कि प्रधानमंत्री अपने बाहरी और भीतरी सभी तरह के विरोधियों की इस कमजोरी को अच्छे से पहचानते भी होंगे।
विपक्ष इस वक्त जितने भी मुद्दे उठा रहा है, मोदी उन पर सार्वजनिक रूप से कोई चिंता जताकर अपने ‘डाई हार्ड’ मतदाताओं के बीच यह भय नहीं फैलने देना चाहते होंगे कि कहीं भी कुछ गलत चल रहा है।लद्दाख़ में चीन द्वारा सवा साल पहले किया गया अतिक्रमण इसका उदाहरण है। देश को उसके सम्बंध में आज तक हकीकत का नहीं पता है। प्रधानमंत्री के लिए देश और दुनिया में इस आशय की छवि को बनाए रखना जरूरी हो गया है कि ‘आल इज वेल इन इंडिया’। ऐसी रणनीतिक बातों का पार्टी के घोषणापत्रों में उल्लेख नहीं किया जा सकता। लोगों के बीच नेतृत्व की योग्यता के प्रति अविश्वास पैदा करके उनका विश्वास नहीं जीता जा सकता। मोदी के मित्र डॉनल्ड ट्रम्प ने पिछले नवम्बर में राष्ट्रपति पद का चुनाव हार जाने के दिन तक भी कोरोना को अमेरिका की कोई बड़ी समस्या नहीं घोषित होने दिया जबकि उनके अनिच्छापूर्वक पद छोडऩे तक वहाँ दुनिया में सबसे ज़्यादा चार लाख लोग मर चुके थे।
मोदी सरकार ने विदेशी मीडिया के इन अनुमानों को कभी कोई चुनौती नहीं दी कि भारत में कोरोना से मरने वालों की संख्या आधिकारिक दावों के मुकाबले छह से आठ गुना अधिक हो सकती है। हम नजर दौड़ा सकते हैं कि कोरोना के टीके की उपलब्धता को लेकर भी देश में इस समय सारा हाहाकार खत्म हो गया है जबकि सिर्फ आधी आबादी (सढ़सठ करोड़ )को ही बस एक टीका और इनमें ही शामिल लगभग पंद्रह करोड़ को दोनों टीके अब तक लग पाए हैं। नागरिकों में तीसरी लहर को लेकर भी चिंता के बजाय उत्सुकता ही ज़्यादा है।’अब और बरसात होगी या नहीं’ जैसी उत्सुकता।
वर्ष 1989 में सत्ता में आने के बाद वी पी सिंह ने मण्डल आयोग की रिपोर्ट लागू करते हुए अगस्त 1990 में पिछड़ी जातियों(ओबीसी) के लिए 27 प्रतिशत के आरक्षण की घोषणा कर दी थी। इसके विरोध में हुए आंदोलन में कोई दो सौ सवर्ण छात्रों ने आत्मदाह का प्रयास किया था जिनमें बासठ की बाद में मौत हो गई थी। इस बात का निश्चित तौर पर कभी पता नहीं चल पाया कि इस आंदोलन को सभी तरह के आरक्षण की विरोधी भाजपा का भी कोई अंदरूनी समर्थन प्राप्त था कि नहीं क्योंकि यही दक्षिणपंथी पार्टी तब वी पी सिंह सरकार को बाहर से अपना सहारा दिए हुए थी।मंडल रिपोर्ट के लागू होने के पहले ही वी पी सिंह सरकार गिरा भी दी गई थी।
आरक्षण-विरोधी भाजपा मोदी के नेतृत्व में इस समय ओबीसी मय हो गई है। जब जातियों के आधार पर ओबीसी की सूचियाँ बनाने का अधिकार राज्यों को सौंपे जाने सम्बन्धी विधेयक संसद में पेश किया गया तब सारे विपक्षी दल हल्ला-गुल्ला बंद करके उसे पारित कराने में जुट गए। सारे सवर्ण भी इस समय चुप हैं।भाजपा ने पलक झपकते ही अपना सवर्ण चोला उतार कर पिछड़ों की सेवा का नया गण वेश धारण कर लिया और देश में कहीं कोई आहट भी नहीं होने दी।इस समय सफलतापूर्वक प्रचारित किया जा रहा है कि मोदी स्वयं भी पिछड़े वर्ग से ही हैं।
सच्चाई यह है मोदी का हाथ अपनी समर्थक जनता की सबसे कमजोर और इमोशनल नब्ज पर सख़्ती से पड़ा हुआ है जबकि उनके विरोधी हौले-हौले उन नसों को ही टटोलने में अपनी ताकत लगाए हुए है जहां धडक़नों या बुखार का कभी पता नहीं चलता। इसे मोदी की आवाज, उनके प्रति भक्ति या फिर डर का ही चमत्कार माना जा सकता है कि उनके एक इशारे पर लोग क़तारों में भूखे-प्यासे भी खड़े हो जाते हैं, हजारों किलोमीटर पैदल चलने लगते हैं और बजाय भोजन पकाने के ख़ुशी के मारे खाली थालियाँ ही कटोरियों से बजाने लगते हैं।
विपक्ष का हाथ अगर सम्मिलित रूप से सही मुद्दों और जनता की असली नब्ज तक नहीं पहुँचा तो वह पूरे समय संसद भवन से ‘विजय चौक’ के बीच पैदल मार्च ही करते रह जाएगा, उसे असली ‘विजय’ कभी नहीं प्राप्त होगी। उस स्थिति में मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार न सिफऱ् 2024 में ही फिर से लौटकर आ जाएगी, हर हाल में समर्पित रहने वाले अपने मतदाताओं की मदद से इच्छा-मृत्यु का वरदान भी प्राप्त कर लेगी। तब तक मोदी को लेकर व्याप्त डर और भी व्यापक हो जाएगा।
-विष्णु नागर
मान लेते हैं कि गाय हमारी माता है। यह भी मान लेते हैं कि ऐसी वैसी नहीं, हमारी अपनी माँ से भी ज्यादा वह हमारी माँ है। हमारी माँ ने तो हमें हद से हद दो साल तक दूध पिलाया होगा मगर जेब में पैसे हों तो गाय या भैंस का दूध जिंदगीभर छककर पिया जा सकता है, जबकि माँ का नहीं। ब्रिटेन की एक खबर जरूर पढ़ी थी कि वहाँ बच्चे की माँ के दूध की आइसक्रीम मिलने लगी है और लोग शौक से खाने लगे हैं। हम अभी इतने एडवांस नहीं हुए हैं। हो जाते तो जाने कितनी माँओं के बच्चों का दूध छिन जाता! फाइव स्टार होटल में लोग पहले दारू पीते। फिर भोजन का समापन इस आइसक्रीम से करते! फिर एक और मँगाते। कुछ कहते हम तो एक और लेंगे। नशा उन्हें दारू का नहीं, आइसक्रीम का चढ़ता!
और फिर माँ तो अमूमन अपने बच्चे को ही दूध पिलाती है, गाय और भैंस तो सबको पिलाती है। शर्त एक है कि जेब में पैसा हो। पैसा नहीं तो न गाय माता है, न भैंस। जैसे गरीब माँ के स्तन का दूध जल्दी सूख जाता है, वैसे ही रोकड़ा न होने पर गोमाता या भैंसमाता का भी। यह सही है कि इसमें गोमाता या भैंसमाता का क्या दोष? वैसे ही गरीब माँ का भी क्या दोष?
चलिए यह लफड़ेवाला मामला है, इसे यहीं छोड़ते हैं।
एक और लफड़ा मेरे लिखने से पैदा हो गया होगा।पूछा जाएगा कि भैंस कब से माता होने लगी?धर्मग्रंथों में यह कहाँ लिखा है?नहीं लिखा होगा शायद मगर मेरे जैसे लोग-जो वैसे तो रोटी, दाल, सब्जी खाकर ही बड़े हुए हैं, गाय या भैंस का दूध पीकर नहीं-वे वास्तव में न गाय को माँ मानने की स्थिति में हैं, न भैंस को। हमें तो बचपन में कभी-कभी खीर के बहाने दूध मिल गया तो मिल गया। फिर जब दूध पीने की हैसियत हुई तो पतला-मोटा, शुद्ध या पानी मिला या डेयरी का दूध हुआ करता था-गाय या भैस का नहीं। होता भी होगा तो अपना उससे वास्ता नहीं रहा। तो आप ईजीली मान सकते हो कि बड़े होने के बाद जो दूध हमने पिया, वह भैंस का रहा होगा। इसका कारण है। एक तो भैंस, अमूमन गाय से ज्यादा दूध देती है, दूसरे उसके दूध में पानी मिलाना दूधिये के लिए भी आसान है, गृहिणियों के लिए भी। तो भैंस का दूध इस मायने में अधिक उपयोगी और गुणकारी है। तो अपनी भावनाओं को चोट न पहुँचने दें और हम जैसा कोई विधर्मी गाय की बजाय भैंस को माता मानना चाहे तो उसे मानने दें। इसका ये मतलब नहीं कि वह आपकी माता यानी गोमाता को मानने से इनकार कर रहा है। आपकी माँ, उसकी माँ मगर उसकी माँ क्या आपकी माँ? वैसे आप भी स्वतंत्र राष्ट्र के नागरिक हो, वह भी। आज आपके प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदरदास मोदी हैं,तो उसके भी।
पर बंधुओ/भगीनियो, सच पूछो तो ये गाय या भैंस को माँ मानने में बड़ा लफड़ा है। अब एक ‘दुष्ट’ ने कहा कि ठीक है,जी, गाय हमारी माता है तो फिर हमारा कोई गोवंशीय पिता भी होता होगा? वह कौन है?और कोई नहीं है तो क्यों नहीं है? अब मैं ऐसे टेढ़ेमेढ़े सवाल का जवाब क्या देता? वेद-पुराण पढ़े होते, घोंटे होते तो जवाब दे भी देता। मौन रह गया। मुस्कुरा कर रह गया।
एक और ‘दुष्ट’ ने कहा कि गाय हमारी माता है तो उसके बछड़ा-बछिया हमारे क्या हुए? भाई-बहन हुए? बैल हमारा भाई है या नहीं है?बैल कुछ है तो फिर उसका एक और सहोदर हमारा कुछ है या नहीं? फिर आज की बछिया, कल गाय बन गई तो क्या वह भी हमारी माँ हो जाएगी?और जो गाय मेरी माँ है,वह मेरे बच्चों और उनके बच्चों की भी माँ हुई या कुछ और?
यह भी सवाल किया, उसने कि विदेशी नस्ल की गाय हमारी माँ नहीं क्यों नहीं हो सकती? आपमें से किसी के घर अगर गाय का दूध आता है तो क्या आप गारंटी से जानते हो कि वह देसी गाय का है? मान लिया कि देसी गाय का है तो फिर विदेशी नस्ल की जो गायें दूध देती हैं, उसका क्या होता है?वह उपयोग में लाया जाता है या फेंक दिया जाता है?और अगर जो गाय का दूध पीते हैं, वह देशी-विदेशी सभी नस्लों की गायों का होता है तो फिर विदेशी नस्ल की गाय भी उनकी माँ कैसे नहीं हुई ?नहीं हुई तो फिर उसका दूध वे क्यों पीते हैं?और पीते हैं, तो वह भी कुछ हुई या नहीं हुई?
अभी एक विद्वान न्यायाधीश ने एक फैसले में गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने की बात कही ।सवाल यह है कि गाय पशु है या हमारी माँ है?क्या माँ को पशु कहा जा सकता है,भले ही वास्तव में वह पशु हो?
उन्होंने यह भी कहा कि गाय ऑक्सीजन लेती है और आक्सीजन ही छोड़ती है। उनके अनुसार वैज्ञानिक भी यह मानते हैं। मान लिया कि वैज्ञानिकों की एक हिन्दूवादी कोटि होती है। चलो मान लिया,यही सच है कि गाय आक्सीजन लेती और छोड़ती है मगर हम जो उसकी संतान हैं, कार्बनडाई आक्साइड क्यों छोड़ते हैं? या हम भी अब आक्सीजन छोडऩे लगे हैं? फिर देसी गायें ही आक्सीजन छोड़ती हैं या विदेशी गायें भी?कोरोना के संकट के समय सरकार ने इस आक्सीजन का उपयोग क्यों नहीं किया?विपक्ष इसके लिए जिम्मेदार है या नहीं है?उसके खिलाफ तब अविश्वास प्रस्ताव लाने से सरकार चूक क्यों गई?
आजकल ‘दुष्ट’ लोग ही सवाल किया करते हैं और भक्त लोगों को भडक़ाते हैं। ‘दुष्टों’ के पास और काम ही क्या है और मेरे पास भी? इसलिए ‘दुष्टों’ की संगत में रहता हूँ, उनकी बातें सुनता हूँ और अपनी बुद्धि को ‘भ्रष्ट’ करता रहता हूँ। आजकल समय इसी में बीत रहा है।
पचहत्तरवें स्वतंत्रता दिवस पर लाल क़िले की प्राचीर से अपने सम्बोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की जनता को उन तमाम महत्वपूर्ण फ़ैसलों की जानकारी दी जो उनकी सरकार द्वारा पिछले दिनों लिए गए हैं। इस अवसर पर उन्होंने टोक्यो ओलिम्पिक से पदक जीतकर लौटे खिलाड़ियों का ताली बजकर सम्मान भी किया। पर सरकार द्वारा लिए गए कई निर्णयों में इस एक जानकारी को साझा करना सम्भवतः छूट गया कि तीस साल पहले स्थापित एक प्रतिष्ठित खेल रत्न पुरस्कार की पहचान को बदलने के लिए एक सौम्य व्यक्तित्व के धनी, आतंकवाद का शिकार हुए एक पूर्व प्रधानमंत्री और सर्वोच्च अलंकरण ‘भारत रत्न' से विभूषित व्यक्ति के नाम का चयन क्यों किया गया !
हॉकी के जादूगर और लोगों के दिलों पर राज करने वाले मेजर ध्यानचंद, जिनके नाम पर अब यह पुरस्कार कर दिया गया है, अगर आज हमारे बीच होते तो किस तरह की प्रतिक्रिया देते, कहा नहीं जा सकता पर उनके बेटे और प्रसिद्ध हॉकी खिलाड़ी अशोक ध्यानचंद ने सरकार के फैसले का स्वागत किया है। उनका ऐसा करना जायज है और जायज यह भी है कि स्वर्गीय राजीव गाँधी के बेटे राहुल और बेटी प्रियंका ने अपने पिता की नामपट्टिका में किये गए सरकारी संशोधन को लेकर सार्वजनिक तौर पर किसी भी तरह का संताप नहीं जताया है। वे अगर ऐसा करते तो उसे हॉकी के क्षेत्र की एक अंतर्राष्ट्रीय प्रतिभा और उसके महान योगदान के प्रति घोर असम्मान माना जाता। अब यह भी मानकर चला जा सकता है कि निकट भविष्य या आगे के सालों में नई दिल्ली में कभी कोई ज्यादा प्रजातांत्रिक सरकार कायम हुई तो वह ‘खेल रत्न पुरस्कार’ के नए नाम के साथ किसी भी तरह की छेड़छाड़ नहीं करेगी ।
टोक्यो ओलिम्पिक में भारत की महिला और पुरुष टीमों के शानदार प्रदर्शन से देशवासियों के साथ-साथ सरकार इतनी ज़्यादा अभिभूत हो गई थी कि प्रधानमंत्री ने सोशल मीडिया पर ट्वीट करके खेल रत्न पुरस्कार का नाम मेजर ध्यानचंद के नाम पर करने की घोषणा कर दी। ओलिम्पिक खेलों में सोना बटोरने वाली हॉकी टीम के सूत्रधार रहे मेजर ध्यानचंद का जन्मदिन पहले से ही राष्ट्रीय खेल दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। उनकी शानदार भागीदारी में भारतीय हॉकी टीम ने 1936 के बर्लिन ओलिम्पिक में हिटलर के जर्मनी की टीम को शिकस्त दी थी। कहते हैं कि अपने देश की टीम की हार से नाराज़ होकर तब हिटलर ने स्टेडियम ही छोड़ दिया था। टोक्यो ओलिम्पिक में भी भारतीय टीम ने जर्मनी को हराकर ही पदक जीता है पर इस समय नाराज़ होने के लिए बर्लिन में कोई हिटलर उपस्थित नहीं है। टोक्यो में भारतीय टीमों के शानदार प्रदर्शनों को देखते हुए किसी को यह आपत्ति भी नहीं हो सकती थी कि बजाय एक स्थापित पुरस्कार को मेजर ध्यानचंद के नाम करने के, हॉकी के जादूगर के लिए ‘भारत रत्न’ अलंकरण की घोषणा कर दी जाती। पर वैसा नहीं किया गया।
वर्ष 1991-92 में जब खेल रत्न पुरस्कार की स्थापना की गई थी तब राजीव गांधी हमारे बीच मौजूद नहीं थे। तब उनके नाम पर इस पुरस्कार की स्थापना के पीछे दो कारण बताए गए थे : पहला तो यह कि राजीव गांधी 1982 में देश में आयोजित हुए एशियाई खेलों की आयोजन समिति के एक सक्रिय सदस्य थे। उनकी देखरेख में न सिर्फ़ खेलों का आयोजन ही सफलतापूर्वक हुआ, साठ हज़ार दर्शक क्षमता वाले जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम से लगाकर कई फ़्लाई ओवरों आदि की संरचना ने दिल्ली की तस्वीर ही बदल दी थी। दूसरा कारण यह बताया गया था कि चालीस वर्ष की उम्र में पद सम्भालने वाले राजीव गांधी देश के सबसे युवा प्रधानमंत्री थे।
‘राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार’ के तहत न सिर्फ़ हॉकी बल्कि शतरंज, क्रिकेट, टेनिस, बॉक्सिंग, भारोत्तोलन, शूटिंग, कुश्ती, सहित सभी प्रमुख खेलों में बीते चार सालों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अर्जित उपलब्धियों के लिए योग्य खिलाड़ियों को सम्मानित किया जाता रहा है। पिछले तीस वर्षों में पुरस्कृत कुल 43 खिलाड़ियों में तीन हॉकी के हैं।सोशल मीडिया ट्वीट में पुरस्कार का नाम बदलने का कारण ‘कई देशवासियों का आग्रह’ बताया गया है।
शासकों को हक़ हासिल रहता है कि वे अपनी जनता के नाम, पते, और कामों को देश की ज़रूरत के मुताबिक़ बदल सकें। इतिहास में ऐसे उदाहरण भी तलाशे जा सकते हैं।इस समय तो देश में सब कुछ ही बदला जा रहा है। सिर्फ़ पुरस्कारों के नाम ही नहीं, शहरों, सड़कों और इमारतों के नाम, किताबें, पाठ्यक्रम, आदि सभी कुछ। इतिहासकारों और जीवनी-जीवियों की एक भरी-पूरी जमात इस समय प्राचीन सभ्यता के संरक्षण के नाम पर नई सभ्यता और संस्कृति का निर्माण करने में जुटी पड़ी है। नागरिक भी पर्यटकों की तरह इन सब कामों की वाहवाही करने में जुट गए हैं। जब विदेशी पर्यटकों के देखने के लिए असली पुरानी चीजें गुम होने लगती है, देशी पर्यटकों के जत्थों को सरकारी ख़ज़ानों की प्रोत्साहन राशि से आधुनिक तीर्थस्थलों की यात्राओं के लिए तैयार किया जाता है।
इन परिस्थितियों में एक स्थापित पुरस्कार का नाम बदलने का आग्रह करने वाले ‘देशवासियों’ ने इसीलिए इस बात पर कोई चिंता नहीं व्यक्त की कि महिला हॉकी टीम की एक दलित खिलाड़ी जब टोक्यो में देश के लिए खेल रही थी, कुछ शरारती तत्व उसके हरिद्वार के निकट स्थित घर के सामने जमा होकर जातिसूचक शब्दों से उसके परिवारजनों को अपमानित कर रहे थे।महिला टीम की अर्जेंटीना के हाथों पराजय के लिए ये तत्व भारतीय टीम में शामिल दलित खिलाड़ियों को ज़िम्मेदार ठहरा रहे थे।
वर्ष 1991 के चुनाव के बाद लोक सभा में भारतीय जनता पार्टी के सदस्यों की संख्या बढ़कर एक सौ बीस हो गई थी। वीपी सिंह के जनता दल के भी 59 सदस्य चुने गए थे। तब किसी ने भी केंद्र में कांग्रेस की अल्पमत सरकार के इस निर्णय का विरोध नहीं किया था कि राजीव गांधी के नाम पर खेल रत्न पुरस्कार की घोषणा क्यों की जा रही है और मेजर ध्यानचंद के नाम पर क्यों नहीं। हो सकता है उस समय के कुछ भाजपाई आज भी सांसद हों। आडवाणीजी तब विपक्ष के नेता हुआ करते थे।
कुछ ‘देशवासियों' ने सवाल किया है कि क्या अब अहमदाबाद में बने विश्व के सबसे बड़े क्रिकेट स्टेडियम का नाम भी बदल दिया जाएगा? अपने वर्तमान नामरूप में आने से पहले उसे मोटेरा या सरदार स्टेडियम के नामों से जाना जाता था। इसका उत्तर यही हो सकता है कि इस समय अहमदाबाद स्थित गांधी जी के जगत-प्रसिद्ध साबरमती आश्रम के आधुनिकीकरण की योजना पर काम चलने की खबरें हैं। योजना के अमल में आते ही तब के 36 एकड़ क्षेत्र में फ़ैला आश्रम जहां दक्षिण अफ़्रीका से लौटने के बाद 1917 से 1930 तक का समय गांधीजी ने बिताया था और जहां से अपना ऐतिहासिक डांडी कूच प्रारम्भ किया था, ‘फ़ूड कोर्ट' सहित एक विस्तारित सर्व-सुविधा सम्पन्न अंतरराष्ट्रीय पर्यटन स्थल में परिवर्तित हो जाएगा। अतः खेल रत्न पुरस्कार का नाम बदल देने की चिंताओं के प्रति ‘देशवासियों’ की उदासीनता को समझा जा सकता है।
क्या अब यह मान लिया जाए कि कांग्रेस पार्टी विभाजन के कगार पर पहुँच गई है ? राहुल गांधी के ख़िलाफ़ पार्टी के बाहर और भीतर नियोजित तरीक़े से प्रारम्भ हुए हमले अगर कोई संकेत हैं तो आशंका सही भी साबित हो सकती है। इस आशंका के सिलसिले में दो खबरें हैं। दोनों ही महत्वपूर्ण हैं। पहली यह है कि राहुल का ट्वीटर अकाउंट उनके एक विवादास्पद ट्वीट को लेकर सोशल मीडिया प्लेटफ़ार्म द्वारा ‘अस्थायी रूप से' बंद कर दिया गया है। राहुल का अंतिम ट्वीट छह अगस्त को देखा गया था जिसमें उन्होंने कहा था :’चूल्हा मिट्टी का, मिट्टी तालाब की, तालाब ‘हमारे दो’ का ! बैल ‘हमारे दो’ का, हल ‘हमारे दो’ का, हल की मूठ पर हथेली किसान की, फसल ‘हमारे दो’ की ! कुआँ ‘हमारे दो’ का, खेत-खलिहान ‘हमारे दो' के, PM ‘हमारे दो’ के, फिर किसान का क्या? किसान के लिए हम हैं।’
दूसरी खबर कुछ ज़्यादा सनसनीख़ेज़ है। वह यह कि राहुल गांधी की दो दिन की कश्मीर यात्रा के दौरान नई दिल्ली में पार्टी के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल ने नौ अगस्त (‘भारत छोड़ो दिवस’) को अपने निवास स्थान पर अपना चौहत्तरवाँ जन्मदिन मना लिया। उनकी जन्म तारीख़ वैसे आठ अगस्त है। इस अवसर पर आयोजित दावत में (बसपा को छोड़कर) अधिकांश विपक्षी दलों के नेता अथवा उनके प्रतिनिधि उपस्थित थे। इनमें वे भी थे जो राहुल की चाय पार्टी में नहीं पहुँचे थे। भाजपा के ख़िलाफ़ विपक्षी एकता की ज़रूरत के साथ-साथ इस चर्चित बर्थ-डे दावत में इस बात की चर्चा भी की गई कि कांग्रेस को गांधी परिवार के आधिपत्य से मुक्त कराये जाने की आवश्यकता है। सिब्बल उन तेईस नेताओं में शामिल हैं जिन्होंने सोनिया गांधी को पत्र लिखकर पार्टी नेतृत्व में परिवर्तन की माँग की थी। उस पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले अधिकांश नेता इस दावत में उपस्थित थे (जैसे ग़ुलाम नबी आज़ाद, चिदम्बरम और उनके बेटे, आनंद शर्मा, शशि थरूर, मनीष तिवारी, पृथ्वीराज चव्हाण, मुकुल वासनिक,राज बब्बर, विवेक तनखा आदि) पर एक ख़ास बड़े नाम को छोड़कर। यह बड़ा नाम सलमान ख़ुर्शीद का है।
सलमान ख़ुर्शीद ने पिछले दिनों एक अंग्रेज़ी अख़बार में प्रकाशित आलेख में कपिल सिब्बल से पहली बार सार्वजनिक रूप से पंगा ले लिया था। कारण सिब्बल का वह इंटरव्यू था जिसमें उन्होंने यह कह दिया था कि सभी तरह की सांप्रदायिकता ख़राब है—बहुसंख्यकों की हो या अल्पसंख्यकों की। सलमान ने सिब्बल की कही बात को यह कहते हुए पकड़ लिया कि : ऊपरी तौर पर तो ऐसा कहने में कोई ग़लत बात नहीं है पर बारीकी से जाँच करने पर उसके (सिब्बल के कहे के) ऐसे निहितार्थ व्यक्त होते हैं जो शायद उनका (सिब्बल का) इरादा नहीं रहा होगा। सलमान ने अपने आलेख में मई 1958 में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के खुले सत्र में दिए गए पंडित जवाहर लाल नेहरू के उद्बोधन की ओर सिब्बल का ध्यान आकर्षित किया।
सलमान के मुताबिक़, नेहरू ने कहा था कि अल्पसंख्यकों की तुलना में बहुसंख्यकों की साम्प्रदायिकता ज़्यादा ख़तरनाक है। यह साम्प्रदायिकता राष्ट्रवाद का मुखौटा चढ़ाए रहती है।इस सांप्रदायिकता ने गहरी जड़ें बना लीं हैं और ज़रा सी उत्तेजना पर वह फूट पड़ती है।इस साम्प्रदायिकता के जागृत किए जाने पर भले लोग भी ख़ूँख़ार व्यक्तियों की तरह बरताव करने लगते हैं।
सलमान कांग्रेस की उस छानबीन समिति के सदस्य थे जिसने पिछले साल के अंत में हुए विधान सभा चुनावों के परिणामों की समीक्षा की थी।उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों में होने जा रहे चुनावों के संदर्भ में उनका यह कहना महत्वपूर्ण है कि : पार्टी को इस बात पर दुःख मनाना बंद कर देना चाहिए कि उसकी हार का कारण मुस्लिम दलों के साथ गठबंधन करना रहा है। भाजपा के बहुसंख्यकवाद के दबाव में उसे अपनी उन नीतियों में परिवर्तन नहीं कर देना चाहिए जो राष्ट्रीय आंदोलनों के समय से उसका हिस्सा रहीं हैं। सलमान ने यह भी कहा कि वैसे तो इस तरह के मुद्दे पार्टी के भीतर ही उठाए जाने चाहिए पर उन्हें सार्वजनिक इसलिए होना पड़ा कि एक ही बात को जब बार-बार कहा जा रहा हो तो वे उसके प्रति मौन को सहमति मान लेने का लाभ नहीं देना चाहते ।
उत्तर प्रदेश में होने जा रहे चुनावों के ऐन पहले बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता को लेकर उभर रहे मतभेदों और उसके प्रति पार्टी आला कमान की चुप्पी में कांग्रेस में मचे हुए घमासान की इबारतें पढ़ी जा सकतीं हैं।नौ अगस्त की बर्थ डे दावत के दौरान ही यह भी उजागर हुआ कि कपिल सिब्बल की सोनिया गांधी के साथ पिछले दो सालों में कोई मुलाक़ात ही नहीं हुई है। सिब्बल की दावत में सोनिया, राहुल और प्रियंका को आमंत्रित ही नहीं किया गया था। सिब्बल की दावत में उमर अब्दुल्ला ने ज़रूर कहा कि जब-जब कांग्रेस मज़बूत हुई है, विपक्ष ज़्यादा ताकतवर हुआ है।
गांधी परिवार की ओर से सिब्बल की बर्थ डे दावत को लेकर अभी कोई भी प्रतिक्रिया बाहर नहीं आई है। शायद आएगी भी नहीं। लगभग एक महीने पहले (सोलह जुलाई को) राहुल गांधी ने पार्टी की सोशल मीडिया टीम के साथ बातचीत में यह ज़रूर कहा था कि कांग्रेस में जो भी डरपोक लोग हैं उन्हें बाहर कर दिया जाना चाहिए।”चलो भैया, जाओ आर एस एस की तरफ़। पार्टी को आपकी ज़रूरत नहीं है।’
कपिल सिब्बल द्वारा आयोजित दावत से तीन सवाल पैदा होते हैं : पहला तो यह कि (जैसा कि कथित तौर पर दावा भी किया गया है ) बर्थ-डे पार्टी के आयोजक ही अब अपने आपको असली कांग्रेस मानते हैं ।तो क्या मान लिया जाए कि कांग्रेस अनौपचारिक तौर पर विभाजित हो चुकी है ? दूसरा यह कि क्या राहुल गांधी आगे भी कोई नई चाय पार्टी या डिनर आयोजित कर भाजपा के ख़िलाफ़ विपक्षी एकता की दिशा में पहल जारी रखना चाहेंगे या अब यह दायित्व सोनिया गांधी पर ही छोड़ देंगे और साथ ही अपनी लड़ाई भी जारी रखेंगे ? (राहुल न सिर्फ़ कश्मीर से लौट आए हैं ,संसद के सामने उन्होंने सत्र को समय-पूर्व समाप्त करने के सरकार के निर्णय के विरोध में गुरुवार सुबह प्रदर्शन भी कर दिया।) ममता बनर्जी, उद्धव ठाकरे, हेमंत सोरेन और स्टालिन आदि ग़ैर-भाजपा मुख्यमंत्रियों और अन्य विपक्षी नेताओं के साथ अगली वीडियो बातचीत अब बीस अगस्त को सोनिया गांधी करने वाली हैं, राहुल नहीं।तीसरा सवाल यह कि क्या कपिल सिब्बल की दावत बैठक के बाद कांग्रेस की अपने बीच उपस्थिति को लेकर विपक्षी एकता में दरार पड़ सकती है ? अकाली दल जैसी क्षेत्रीय पार्टियाँ कांग्रेस के ख़िलाफ़ हैं।
उल्लेखनीय यह भी है कि विपक्षी एकता की धुरी बनते नज़र आ रहे प्रशांत किशोर भी इस समय परिदृश्य से अनुपस्थित दिखने लगे हैं। कांग्रेस के अंदरूनी मतभेदों और विपक्षी पार्टियों के बीच एकता के भविष्य को लेकर जो कुछ भी इस समय चल रहा है उससे भाजपा तात्कालिक रूप से थोड़ी निश्चिंतता का अनुभव कर सकती है। कहा नहीं जा सकता कि उसकी यह निश्चिंतता चुनावों तक क़ायम रह पाएगी।
देश की एक सौ पैंतीस करोड़ जनता को पचहत्तरवें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री द्वारा लाल किले की प्राचीर से दिए जाने वाले भाषण को सुनने की तैयारी प्रारंभ कर देना चाहिए। प्रधानमंत्री का पिछला संबोधन कोरोना की दूसरी लहर के बीच हुआ था। हमें ख़ासा अनुभव है कि उस वक्त हमारे हालात क्या थे और हम सब कितने बदहवास थे! मोदी जी का यह भाषण तीसरी लहर की आशंकाओं के बीच होने जा रहा है। जनता को उत्सुकता के साथ प्रतीक्षा करना चाहिए कि प्रधानमंत्री बीते साल की उपलब्धियों का जिक्र किस अंदाज में और कितने उत्साह से करते हैं और आने वाले वक्त को लेकर क्या आश्वासन देते हैं।
प्रधानमंत्री का भाषण इसलिए भी महत्वपूर्ण होगा कि पश्चिम बंगाल के चुनाव नतीजों से झुलसी हुई सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी छह महीनों बाद ही उत्तर प्रदेश सहित पाँच राज्यों में चुनावों का सामना करने जा रही है। प्रधानमंत्री ने अपनी हाल की बनारस यात्रा के दौरान कोरोना महामारी के देश भर में श्रेष्ठ प्रबंधन के लिए उत्तर प्रदेश सरकार को सार्वजनिक रूप से बधाई दी थी। इसलिए इन चुनावों के महत्व को ज़्यादा बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजे प्रधानमंत्री के वर्ष 2022 के स्वतंत्रता दिवस उद्बोधन की आधारशिला भी रखने वाले हैं।राजनीतिक विश्लेषकों के लिए उत्सुकता का विषय हो सकता है कि देश के मौजूदा हालातों को देखते हुए प्रधानमंत्री अपने नागरिकों के साथ किस तरह का संवाद करते हैं! और यह भी कि समान हा्लातों में दुनिया के दूसरे (प्रजातांत्रिक) राष्ट्रों के प्रमुख अपने लोगों से किस तरह बातचीत करते रहे हैं!
कोरोना की दूसरी लहर के दौरान जब पूरे देश में हाहाकार मचा हुआ था, प्रधानमंत्री ने अपने 86 मिनट के स्वतंत्रता दिवस भाषण में दिलासा दिया था कि-‘आज एक नहीं, दो नहीं, तीन-तीन वैक्सीन टेस्टिंग के चरण में हैं। जैसे ही वैज्ञानिकों की हरी झंडी मिलेगी, उक्त वैक्सीन की बड़े पैमाने पर उत्पादन की तैयारी है। कुछ महीनों पहले तक एन-95 मास्क, पीपीई किट्स, वेंटिलेटर ये सब विदेशों से मँगवाते थे। आज इन सभी में भारत न सिर्फ अपनी जरूरतें पूरी कर रहा है, दूसरे देशों की मदद के लिए भी आगे आया है।’ उत्सुकता इस बात की भी रहेगी कि क्या प्रधानमंत्री इन सब घोषणाओं का इस बार भी जिक्र करेंगे?
संभव है कि प्रधानमंत्री पंद्रह अगस्त के भाषण में अपने हाल के इस आरोप को दोहराना चाहें कि विपक्षी पार्टियाँ जान-बूझकर संसद नहीं चलने दे रही हैं। यह संसद, लोकतंत्र और देश की जनता का अपमान है। उस स्थिति में प्रधानमंत्री को देश की जनता के प्रति भी शिकायत व्यक्त करना चाहिए कि वह विपक्ष की ‘पापड़ी-चाट’ वाली हरकतों को देखते हुए भी कुछ नहीं बोल रही है। चुपचाप बैठी है। चिंता जताई जा सकती है कि क्या जनता भी विपक्ष के साथ जा मिली है ? कांग्रेस के खिलाफ 2014 जैसी सुगबुगाहट इस समय क्यों नहीं है? उन राज्यों में भी जहां भाजपा सत्ता में है!
प्रधानमंत्री को अधिकार है कि वे देश को अपनी मर्जी से चलाएँ। उनका विवेकाधिकार हो सकता है कि देश को चलाने में विपक्षी दलों की मदद नहीं लें, सरकार के निर्णयों में उन्हें भागीदार नहीं बनाएँ। पर साथ ही वे यह भी चाहते हैं कि संसद को चलाने में, सरकार द्वारा विपक्ष के साथ बिना किसी विमर्श के तैयार किए गए विधेयकों को पारित करवाकर उन्हें कानून की शक्ल देने में भी विरोधी पार्टियाँ कोई हस्तक्षेप नहीं करें। वे विपक्ष को उसका यह अधिकार नहीं देना चाहते हैं कि वह पेगासस जासूसी कांड और विवादास्पद कृषि कानूनों को लेकर संसद में किसी भी तरह की बहस की माँग करे।
नागरिकों के मन की यह बात प्रधानमंत्री के कानों तक पहुँचना जरूरी है कि सरकार और विपक्ष दोनों को ही समान तरह की जनता का समर्थन प्राप्त है जो अलिखित हो सकता है पर बिना शर्त नहीं है। अत: सरकार अपार बहुमत की शक्ल में हाथ लगे समर्थन को बिना किसी शर्त का मानकर विरोध को खारिज नहीं कर सकती। दूसरे, यह भी साफ हो जाना चाहिए कि प्रजातंत्र में अगर जनता गूँगी हो जाए तो उसे सरकार की हरेक बात का समर्थन और विपक्ष बोलने लगे तो उसे नाजायज़ विरोध नहीं मान लिया जाना चाहिए।
ऐसा एकाधिक बार सिद्ध हो चुका है कि जब जनता के मौन को सत्ताएँ अपने प्रति समर्थन मानकर निरंकुश होने लगतीं हैं, तब विरोध सडक़ों पर व्यक्त होने की बजाय ईवीएम के बटनों के जरिए आकार लेने लगता है और शासनाधीशों के लिए उस पर यकीन करना दुरूह हो जाता है। अमेरिकी चुनावों के नौ महीने बाद भी डॉनल्ड ट्रम्प यह गलतफहमी पाले हुए हैं कि उन्हें मतदाताओं ने कतई नहीं हराया है बल्कि उनकी जीत पर बाइडन ने डाका डाला है।
प्रधानमंत्री तक इस संदेश का पहुँचना भी जरूरी है कि उनके कहे और जनता के समझे जाने के बीच की खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है और विपक्षी पार्टियाँ इसी को अपनी ताकत बनाकर संसद में गतिरोध उत्पन्न कर रहीं हैं। इस समय जनता की समझ और नब्ज पर विपक्ष की पकड़ पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा मजबूत है। वर्ष 2014 में जो जनता नरेंद्र मोदी के आभामंडल से चकाचौंध थी, मौजूदा हालातों ने उसी जनता को सत्ता के समानांतर खड़ा कर दिया है। अब विपक्ष भी उस तरह का नहीं बचा है जिसका गला तब रूंध गया था, जब संसद में विवादास्पद कृषि कानून पारित करवाए जा रहे थे। कोरोना महामारी से संघर्ष के बाद जनता के साथ-साथ विपक्ष की इम्यूनिटी भी बढ़ गई है।
सत्तारूढ़ दल के लिए विपक्षी दलों के साथ-साथ जनता की भूमिका को भी संदेह की नजऱों से देखने की जरूरत का आ पडऩा इस बात का संकेत है कि वह अब अपने मतदाताओं को भी अपना विपक्ष मानने लगा है। आजादी के पचहत्तर साल पूरे होने के अवसर पर प्रधानमंत्री ने अपनी पार्टी के सांसदों को पचहत्तर गाँवों में पचहत्तर घंटे रुककर जनता को (सरकार की ) उपलब्धियाँ बताने के निर्देश दिए हैं। उन्होंने पार्टी सांसदों से यह भी कहा है कि वे संसद की कार्यवाही में बाधा डालने की विपक्ष की करतूतों को जनता और मीडिया के सामने एक्सपोज करें। मीडिया को लेकर तो चिंता की ज्यादा वजहें नहीं हैं पर विपक्ष को ‘बेनकाब’ करने के लिए ये सांसद जनता को देश में कहाँ ढूँढेंगे?
इजरायल की एक कम्पनी द्वारा ‘हथियार’ के तौर पर विकसित और आतंकवादी तथा आपराधिक गतिविधियों पर काबू पाने के उद्देश्य से ‘सिर्फ’ योग्य पाई गईं सरकारों को ही बेचे जाने वाले अत्याधुनिक और बेहद महंगे उपकरण का चुनिन्दा लोगों की जासूसी के लिए इस्तेमाल किए जाने को लेकर देश की विपक्षी पार्टियों के अलावा किसी भी और में कोई आश्चर्य, विरोध या गुस्सा नहीं है। मीडिया के एक धड़े द्वारा किए गए इतने सनसनीखेज खुलासे को भी पेट्रोल, डीजल के भावों में हो रही वृद्धि की तरह ही लोगों ने अपने घरेलू खर्चों में शामिल कर लिया है। यह संकेत है कि सरकारों की तरह अब जनता भी उदासीनता के गहराते कोहरे की चादर में दुबकती जा रही है।
सरकार ने अभी तक न तो अपनी तरफ से यह माना है कि उसने स्वयं ने या उसके लिए किसी और ने अपने ही देश के नागरिकों की जासूसी के लिए इन ‘हथियारों’ की खरीदारी की है और न ही ऐसा होने से मना ही किया है। सरकार ने अब किसी भी विवादास्पद बात को मानना या इंकार करना बंद कर दिया है। नोटबंदी करने का तर्क यही दिया गया था कि उसके जरिये आतंकवाद और काले धन पर काबू पाया जाएगा। लॉक डाउन के हथियार की मदद से कोरोना के महाभारत युद्ध में इक्कीस दिनों में विजय प्राप्त करने की गाथाएँ गढ़ी गईं थीं। दोनों के ही बारे में अब कोई बात भी नहीं छेड़ना चाहता। विभिन्न विजय दिवसों की तरह देश में ‘नोटबंदी दिवस’ या ‘लॉक डाउन दिवस’ नहीं मनाए जाते।
सरकार ने ‘न हां’ और ‘ न ना ‘ का जो रुख पेगासस जासूसी मामले में अख्तियार किया हुआ है वैसी ही कुछ स्थिति भारतीय सीमा क्षेत्र में चीनी सैनिकों की हिंसक घुसपैठ को लेकर भी है। सरकार ने सवा साल बाद भी यह नहीं माना है कि चीन ने हाल ही में भारत की किसी नई ज़मीन कब्ज़ा कर लिया है। ‘राष्ट्रवाद’ की भावना से ओतप्रोत भक्त नागरिकों में जिस तरह की उदासीनता का भाव देश के भोगौलिक अतिक्रमण को लेकर है वैसा ही तटस्थ रवैया स्वयं की प्रायवेसी पर हो रहे आक्रमण को लेकर भी है। ऐसा होने के कई कारण हो सकते हैं और उनका तार्किक विश्लेषण भी किया जा सकता है।
पेगासस जासूसी काण्ड का खुलासा करने में फ़्रांस की संस्था ‘फोर्बिडन स्टोरीज’ और नोबल पुरस्कार से सम्मानित अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संस्था ‘एमनेस्टी इंटरनेशनल’ के साथ सत्रह समाचार संगठनों से सम्बद्ध खोजी पत्रकारों के एक समूह की प्रमुख भूमिका रही है। अब तो फ़्रांस सहित चार देशों की सरकारों ने पेगासस जासूसी मामले की जांच के आदेश दे दिए हैं। कारण यह है कि दुनिया के सभ्य देशों में नागरिकों की प्रायवेसी में किसी भी प्रकार के अनधिकृत हस्तक्षेप को दंडनीय अपराध माना जाता है। कई देशों में टॉयलेट्स अथवा शयन कक्षों को भीतर से बंद करने के लिए चिटखनियाँ ही नहीं लगाई जातीं। वहां ऐसा मानकर ही चला जाता है कि बिना अनुमति के कोई प्रवेश करेगा ही नहीं, घर का ही बच्चा भी नहीं।
किसी भी तरह की जासूसी के प्रति भारतीय मन में उदासीनता का एक कारण यह भी हो सकता है कि हमारे यहाँ प्राइवेसी का कोई कंसेप्ट ही नहीं है। कतिपय क्षेत्रों में उसे हिकारत की नज़रों से भी देखा जाता है। महिलाओं और पुरुषों सहित देश की एक बड़ी आबादी को आज भी अपनी दैनिक क्रियाएँ खुले में ही निपटाना पड़ती हैं। कोई भी व्यक्ति, पत्रकार, कैमरा या एजेंसी किसी भी समय किसी भी सभ्य नागरिक के व्यक्तिगत जीवन में जबरिया प्रवेश कर उसे परेशान कर सकती है, उसकी फ़िल्में बनाकर प्रसारित कर सकती है। प्रताड़ित होने वाले नागरिक को किसी तरह का संरक्षण भी प्राप्त नहीं है।
नागरिक जब अपनी प्रायवेसी पर होने वाले अतिक्रमण के प्रति भी पूरी तरह से उदार और तटस्थ हो जाते हैं, हुकूमतें गिनी पिग्ज़ या बलि के बकरों की तरह सत्ता की प्रयोगशालाओं में उनका इस्तेमाल करने के लिए स्वतंत्र हो जाती हैं। भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य और विदुर जैसी विभूतियों की उपस्थिति में द्रौपदी के चीर हरण की घटना को समस्त हस्तिनापुर की महिलाओं की निजता के सार्वजनिक अपमान के रूप में ग्रहण कर उस पर शर्मिंदा होने के बजाय भगवान कृष्ण के चमत्कारिक अवतरण द्वारा समय पर पहुंचकर लाज बचा लेने के तौर पर ज्यादा ग्लेमराइज किया जाता है। महाभारत सीरियल में उस दृश्य को देखते हुए बजाय क्रोध आने के, भगवान कृष्ण के प्रकट होते ही दर्शक आंसू बहाते हुए तालियाँ बजाने लगते हैं।
नागरिक समाज में जब एक व्यक्ति किसी दूसरे की प्रायवेसी में दखल होते देख मदद के लिए आगे नहीं आता, चिंता नहीं जाहिर करता तो फिर हुकूमतें भी ऐसे आत्माहीन निरीह शरीरों को अपने प्रतिबद्ध मतदाताओं की सूचियों में शामिल करने के लिए घात लगाए बैठी रहती हैं। चंद जागरूक लोगों की बात छोड़ दें तो ज्यादातर ने यह जानने में भी कोई रुचि नहीं दिखाई है कि जिन व्यक्तियों को अदृश्य इजरायली ‘हथियार’ के मार्फ़त जासूसी का शिकार बनाए जाने की सूचनाएं हैं उनमें कई प्रतिष्ठित महिला पत्रकार, वैज्ञानिक आदि भी शामिल हैं।अपनी जानें जोखिम में डालकर खोजी पत्रकारिता करने वाली ये महिलाएं इस समय सदमे में हैं और महिला आयोग जैसे संस्थान और ‘प्रगतिशील’ महिलाएं इस बारे में कोई बात करना तो दूर ,कुछ सुनना भी नहीं चाहतीं। ’मी टू’ आन्दोलनों का ताल्लुक भी शायद शारीरिक अतिक्रमण तक ही सीमित है, आत्माओं पर होने वाले छद्म अतिक्रमणों के साथ उनका कोई लेना-देना नहीं है ! तथाकथित ‘स्त्री-विमर्शों’ में निजता की जासूसी को शामिल किया जाना अभी बाकी है क्योंकि ऐसा किया जाना साहस की मांग करता है।
अमेरिका सहित दुनिया के विकसित और संपन्न राष्ट्र हाल ही के वक्त में कोरोना महामारी से निपटने को लेकर भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश की धीमी गति अथवा उसके प्रधान सेवक के अतिरंजित आत्मविश्वास को लेकर काफी चिंतित होने लगे थे। उनकी चिंता का बड़ा कारण यह था कि भारत में बढ़ते हुए संक्रमण से उनकी अपनी सम्पन्नता प्रभावित हो सकती है, उन पर दबाव पड़ सकता है कि वे वैक्सीन आदि की कमी को दूर करने के लिए आगे आएं और अन्य तरीकों से भी मदद के लिए हाथ बढाएं।ऐसा ही बाद में हुआ भी।
पेगासस जासूसी काण्ड को लेकर भी आगे चलकर इसी तरह की चिंताएं जाहिर की जा सकतीं हैं।किसी भी तरह की जांच के लिए सरकार के लगातार इंकार और नागरिकों के स्तर पर अपनी प्राइवेसी में अनधिकृत हसक्षेप के प्रति किसी भी तरह की पूछताछ का अभाव उन राष्ट्रों के लिए चिंता का कारण बन सकता हैं जो न सिर्फ अपने ही देशवासियों के मूलभूत अधिकारों की रक्षा को लेकर नैतिक रूप से प्रतिबद्ध हैं, अन्य स्थानों पर होने वाले उल्लंघनों को भी अपने प्रजातंत्रों के लिए खतरा मानते हैं।
इस नतीजे पर पहुंचना जल्दबाजी करना होगा कि हमारे शासकों ने प्रजातांत्रिक शासन व्यवस्था के नियम-क़ायदों से अपने आपको अंतिम रूप से मुक्त कर लिया है। हालांकि पेगासस जासूसी काण्ड में भारत सहित जिन दस देशों के नाम प्रारम्भिक तौर पर सामने आए थे उनके बारे में पश्चिमी देशों का मीडिया यही आरोप लगा रहा है कि इन स्थानों पर अधिनायकवादी व्यवस्थाएं कायम हैं। दुर्भाग्यपूर्ण यह भी है कि हमारे नागरिकों को सिर्फ़ जासूसी ही नहीं ,इस तरह के आरोपों के प्रति भी कोई आपत्ति नहीं है।
टेक्नोलॉजी ने आदमी और प्रजातंत्र दोनों को ही ख़त्म कर देने की कोशिशों को आसान कर दिया है। दुनिया के कुछ मुल्कों, जिनमें अमेरिका आदि के साथ भारत भी शामिल हो रहा है, ने स्थापित कर दिया है कि सत्ता में बने रहने के लिए करोड़ों नागरिकों का विश्वास जीतने में ताक़त झोंकने के बजाय कुछ अत्याधुनिक तकनीकी उपकरणों, आई टी सेल्स जैसी व्यवस्थाओं और साइबर विशेषज्ञों में निवेश करना ज़्यादा आसान और फायदेमंद रास्ता है। परम्परागत देसी तरीक़े और अति विश्वसनीय समर्थक भी ऐन मौके पर धोखा दे सकते हैं पर ख़रीदे हुए विशेषज्ञ और विदेशी तकनीकें नही। सत्ता की राजनीति में आवश्यकता अब नागरिकों का विश्वास जीतने की नहीं बल्कि उन्हें प्रभावित करके उनके विचारों को बदलने तक सीमित कर दी गई है।
दुनिया भर के मुल्कों में जैसे-जैसे सत्तासीन शासकों के द्वारा प्रजातंत्र की रक्षा के नाम पर अपनाए जा रहे ग़ैर-प्रजातांत्रिक कारनामों का खुलासा हो रहा है, नागरिकों ने उनसे पहले के मुक़ाबले ज़्यादा ख़ौफ़ खाना शुरू कर दिया है। इज़रायल में निर्मित जासूसी करने के उच्च-तकनीकी और महँगी क़ीमत वाले पेगासस सॉफ़्टवेयर या स्पाईवेयर की मदद से आतंकवाद और आपराधिक गतिविधियों पर नियंत्रण के नाम पर नागरिक समाज के कुछ चिन्हित किए गए सदस्यों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल को भी इसी नज़रिए से देखा जा सकता है।
पूर्व सूचना प्रौद्योगिकी (आई टी) मंत्री और सात जुलाई को हुए मंत्रिमंडलीय फेरबदल में हटाए जाने के पहले तक देश में अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी के विकास और उसके इस्तेमाल करने की पताका फहराने वाले रविशंकर प्रसाद ने जो कुछ कहा है उसने चल रहे विवाद की गम्भीरता को और बढ़ा दिया है।रविशंकर प्रसाद ने बजाय इन आरोपों का खंडन करने के कि सरकार विरोधियों की जासूसी कर रही है, पलटकर यह पूछ लिया कि जब दुनिया के पैंतालीस देश पेगासस सॉफ़्टवेयर का इस्तेमाल कर रहे हैं तो भारत में इस बात पर इतना बवाल क्यों मचा हुआ है ?
रविशंकर प्रसाद के कहे के बाद एक नया डर उत्पन्न हो गया है। वह यह कि किसी दिन कोई अन्य महत्वपूर्ण व्यक्ति खड़े होकर यह बयान नहीं दे दे कि अगर दुनिया के 167 देशों के बीच ‘पूर्ण’ प्रजातंत्र सिर्फ़ तेईस देशों में ही है और सत्तावन में अधिनायकवादी व्यवस्थाएँ क़ायम हैं तो भारत को लेकर इतना बवाल क्यों मचाया जा रहा है ? ब्रिटेन के प्रसिद्ध अंग्रेज़ी अख़बार ‘द गार्डियन’ का कहना है कि जो दस देश कथित तौर पर जासूसी के कार्य में शामिल हैं वहाँ अधिनायकवादी सत्ताएँ क़ाबिज़ हैं।
अपने राजनीतिक विरोधियों अथवा अलग विचारधारा रखने वाले लोगों, पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों आदि की जासूसी पूर्व की सरकारों में शरीरधारी मानवों के द्वारा करवाई जाती रही है। आपातकाल में जिन लगभग डेढ़ लाख लोगों को गिरफ़्तार किया गया था उनमें भी सभी वर्गों के नागरिक शामिल थे। तब मोबाइल फ़ोन भी नहीं थे। मार्च 1991 में प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की सरकार को कांग्रेस ने अपना समर्थन वापस लेकर केवल इस एक कारण से गिरा दिया था कि हरियाणा सी आई डी के दो सादी वर्दी धारी जवान दस जनपथ के बाहर चाय पीते हुए पकड़ लिए गए थे। कांग्रेस ने तब आरोप लगाया था कि इन लोगों को राजीव गांधी की जासूसी करने के लिए तैनात किया गया था।
ताज़ा मामले में तो आरोप यह भी है कि जिन लोगों की जासूसी हो रही थी उनमें अन्य लोगों के अलावा सरकार के ही मंत्री, उनके परिवारजन, घरेलू कर्मचारी और अफसर ,आदि भी शामिल रहे हैं। चंद्रशेखर के जमाने तक अगर नहीं जाना हो और वर्तमान सरकार के जमाने की ही बात करना हो तो सिर्फ़ अक्टूबर 2018 तक ही पीछे लौटना पड़ेगा।तब सी बी आई के डायरेक्टर आलोक वर्मा के सरकारी बंगले के सामने की सड़क पर इधर-उधर ताक-झांक करते देखे गए चार व्यक्तियों को पकड़ लिया गया था।बाद में पता चला था कि चारों इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी )के लोग थे। तब आरोप लगाया गया था कि आलोक वर्मा की जासूसी करवाई जा रही है। गृह मंत्रालय की ओर से उसे रूटीन ड्यूटी बताया गया था।
कोई शरीरधारी आदमी जब अपने ही जैसे दूसरे आदमियों की जासूसी करता है तो नागरिकों को ज़्यादा डर नहीं लगता। ऐसा इसलिए कि यह आदमी सिर्फ़ निशाने पर लिए गए शिकार के आवागमन और उसके अन्य लोगों से मिलने-जुलने की ही जानकारी ही जमा करता है। बातचीत को सुनने के लिए फोन टैपिंग के अलावा घरों में सेंध लगाकर गुप्त उपकरण स्थापित करना पड़ते हैं। हाल ही में जब राजस्थान की कांग्रेस सरकार में विद्रोह जैसी स्थिति बन गई थी तब जासूसी के परम्परागत तरीक़े ही विद्रोहियों के ख़िलाफ़ आज़माए गए थे । पर कर्नाटक में जनता दल(एस) और कांग्रेस के गठबंधन की सरकार को गिराने में पेगासस स्पाईवेयर के इस्तेमाल के आरोप अब उजागर हो रहे हैं। अंततः पूरा मामला संसाधनों की उपलब्धता और सत्ताओं की नीयत पर टिक कर रह जाता है।
नागरिक के ज़्यादा डरने के कारण तब उत्पन्न हो जाते हैं जब उसे पता चलता है कि कोई हुकूमत या अज्ञात सत्ता चाहे तो अदृश्य तकनीक की मदद से हज़ारों मील दूर बैठकर भी उसके शयन कक्ष में पहुँचकर उसके अंतरंग क्षणों को उसी के मोबाइल कैमरों के ज़रिए प्राप्त कर सकती है, बातें सुन सकती है, उनकी रिकॉर्डिंग कर सकती है, संदेशों को पढ़ सकती है और अंततः उसकी ज़िंदगी को क़ैद कर सकती है।नागरिक को तब लगने लगता है कि उसे अब अपने बेडरूम में अंदर से कुंडी लगाना भी बंद कर देना चाहिए। पेगासस जासूसी का मामला अभी दुनिया के पचास हज़ार लोगों तक ही सीमित बताया जा रहा है पर यह संख्या किसी दिन पाँच लाख या पाँच और पचास करोड़ तक भी पहुँच सकती है।
नागरिक जब सरकारों में बैठे हुए व्यक्तियों और उनके चेहरों की बदलती हुई मुद्राओं के बजाय उनके द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले गुप्त और अदृश्य तकनीकी उपकरणों से ख़ौफ़ खाने लगे तो भय व्यक्त किया जाना चाहिए कि कहीं एक और देश तो उन मुल्कों की जमात में शामिल होने की तैयारी नहीं कर रहा है जहां या तो लोकतंत्र पूरी तरह से समाप्त हो चुका है या फिर आगे-पीछे हो सकता है। ऐसी स्थितियाँ तभी बनती हैं जब शासकों को लगने लगता है कि उनकी लोकप्रियता घट रही है या काफ़ी लोग उनके ख़िलाफ़ गुप्त षड्यंत्र कर रहे हैं।
हुकूमतें तकनीकी रूप से चाहे जितनी भी सक्षम क्यों न हो जाएँ, नागरिकों के मन के अंदर क्या चल रहा है उसका तो पता नहीं कर सकतीं । हां , वे इतना ज़रूर कर सकती हैं कि अगर लोगों ने बोलना पहले से ही कम कर रखा है तो उसे अब पूरा बंद कर दें।इशारों में भी बातें नहीं करें।क्योंकि आधुनिक तकनीक ने इतनी क्षमता प्राप्त कर ली है कि वह इशारों की भाषा को भी डीकोड कर सकती है। नागरिक तब केवल अपने ही मन की बात सुन पाएँगे और लोकतंत्र को बचाने की सारी चिंताओं से भी अपने को आज़ाद कर लेंगे। पता किया जाना चाहिए कि पेगासस खुलासे के बाद से कितने लोगों ने अपने मोबाइल बंद कर दिए हैं, शयनकक्षों से दूर रख दिए हैं या उनसे पूरी तरह दूरी बनाकर रहने लगे हैं।
किसी राष्ट्र के प्रधानमंत्री होने के सुख और उसकी अनुभूति का शब्दों में बखान नहीं किया जा सकता। वह राष्ट्र अगर दुनिया के करीब दो सौ मुल्कों में सबसे ज़्यादा आबादी वाला प्रजातांत्रिक देश भारत हो तो फिर उसके प्रधानमंत्री के मुंह से निकलने वाला प्रत्येक शब्द इतिहास बन जाता है। उन शब्दों की विश्वसनीयता को चुनौती देने का जोखिम भी मोल नहीं लिया जा सकता।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हाल ही अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी में थे। कोरोना काल की दूसरी लहर के दौरान भगीरथी गंगा द्वारा अपने कोमल शरीर पर बहती हुई लाशों की यंत्रणा बर्दाश्त कर लिए जाने के बाद की अपनी पहली यात्रा में प्रधानमंत्री ने उत्तर प्रदेश के कोरोना प्रबंधन को अभूतपूर्व घोषित करते हुए इतनी तारीफ़ की कि वहां उपस्थित मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी भी भौचक्के रह गए होंगे। कुप्रबंधन के सर्वव्यापी आरोपों के बीच इस तरह के अविश्वसनीय प्रमाणपत्र के सार्वजनिक रूप से प्राप्त होने की उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी ।सरकार और पार्टी में अब इस तरह की चर्चाओं की टोह ली जा सकती है कि प्रधानमंत्री जब भी किसी नेता की ‘लार्जर देन लाइफ साइज़’ तारीफ़ कर दें तो भविष्य की किन-किन आशंकाओं को कतई खारिज़ नहीं किया जाना चाहिए।
इस बात की खोज की जानी अभी बाकी है कि किसी समय प्रधानमंत्री द्वारा वाराणसी से चुनाव का नामांकन पत्र भरने के दौरान एक प्रस्तावक के रूप में अपना भी नाम शामिल करवा कर चर्चित होने वाले किराना और बनारस घराने के प्रतिनिधि कलाकार 85-वर्षीय पद्मविभूषण छन्नूलाल मिश्र मोदीजी के उद्बोधन के वक्त कहाँ व्यस्त थे और उनकी क्या प्रतिक्रिया थी ! आरोप है कि पंडित मिश्र की बड़ी बेटी संगीता मिश्र की कोरोना इलाज में बरती गई लापरवाही के कारण 29 अप्रैल को मृत्यु हो गई थी। बाद में हो-हल्ला मचने पर बैठाई गई जांच में अस्पताल को क्लीन चिट देने के साथ ही इलाज में लापरवाही तथा ज्यादा वसूली के आरोपों को भी ख़ारिज कर दिया गया था।
दुनिया भर के मुल्कों में उत्तर प्रदेश के कोरोना-प्रबंधन को लेकर अंगुलियां उठाई गईं, गंगा में बहती लाशों के फोटो प्रकाशित किये गए, मौतों के सरकारी आंकड़ों को चुनौतियाँ दी गईं, इलाज के लिए तड़पते नागरिकों की व्यथाओं के चौंका देने वाले वर्णन लिखे गए और उन सब को एक झटके से खारिज़ करते हुए प्रधानमंत्री ने महामारी के श्रेष्ठ प्रबंधन का प्रमाणपत्र मंच से जारी कर दिया। बाद में अपने एक ट्वीट के जरिए देश की जनता को भी इसकी सूचना दे दी। भाजपा-शासित अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों के लिए इस ट्वीट को महत्वपूर्ण संकेत माना जा सकता है। देश के उन गैर-भाजपाई राज्यों, जहाँ कोरोना का प्रबंधन तुलनात्मक दृष्टि से बेहतर हुआ होगा, के मुख्यमंत्रियों की ओर से कोई प्रतिक्रिया आना अभी शेष है।
पूर्व केद्रीय श्रम और रोज़गार मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) और बरेली से सांसद संतोष गंगवार अगर सात जुलाई को हुए मंत्रिमंडलीय फेर-बदल में बर्खास्त किए गए कोई दर्ज़न भर लोगों में अपना भी नाम शामिल किए जाने के कारणों का पता लगाने में जुटे होंगे तो वे भी प्रधानमंत्री की बनारस यात्रा के बाद से निश्चिन्त हो गए होंगे। कोरोना प्रबंधन की अव्यवस्थाओं को लेकर उन्होंने मुख्यमंत्री योगी को आठ मई को एक शिकायत भरा पत्र लिखने की जुर्रत की थी और वह वायरल भी हो गया था। गंगवार (केवल 2004 से 2009 की अवधि छोड़कर जब वे कुछ ही मतों से हार गए थे ) 1989 से लोकसभा में बरेली का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं और भाजपा में कई महत्वपूर्ण पदों पर रह चुके हैं ।
कई वरिष्ठ सेवानिवृत नौकरशाहों और पुलिस अफसरों सहित समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाले कोई दो सौ लोगों ने पिछले दिनों एक खुला पत्र जारी किया है ।’कॉन्स्टिट्यूशनल कंडक्ट’ के बैनर तले जारी इस पत्र में आरोप लगाया गया है कि उत्तर प्रदेश में शासन-व्यवस्था (गवरनेंस) पूरी तरह से ध्वस्त हो चुकी है ।क़ानून के राज का निर्ममता से उल्लंघन हो रहा है ।अगर इस पर नियंत्रण नहीं किया गया तो प्रजातंत्र पूरी तरह समाप्त हो जाएगा। पत्र में योगी के नेतृत्व में भाजपा के 2017 में सत्ता में आने के बाद से हुईं ज्यादतियों का ज़िक्र किया गया है । प्रधानमंत्री ने गुरुवार को बनारस में यह भी स्पष्ट कह दिया कि उत्तर प्रदेश में पूरी तरह से कानून का राज क़ायम है और नागरिक सुरक्षित हैं।
कोरोना की दोनों लहरों के दौरान चाहे देश भर में बाक़ी सारे काम ठप्प पड़ गए हों, लुटियंस की दिल्ली के अति-महत्वपूर्ण रायसीना हिल क्षेत्र में कोई बीस हज़ार करोड़ की अनुमानित लागत से निर्माणाधीन ‘सेंट्रल विस्टा' प्रोजेक्ट का काम धीमा भी नहीं पड़ा।अनवरत जारी इस महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट को लोकसभा चुनावों के साल 2024 तक किसी भी कीमत पर पूरा किया जाना है। इस प्रोजेक्ट के अंतर्गत न सिर्फ नए और विशाल संसद भवनों का निर्माण होना है, प्रधानमंत्री का नया आवास भी आकार लेने वाला है।योगी आदित्यनाथ अच्छे से जानते हैं कि इस आवास में प्रवेश के वास्तु-पूजन के लिए अगले साल के प्रारंभ में हो रहे उत्तरप्रदेश विधानसभा के चुनावों में भाजपा की सरकार का भारी बहुमत के साथ फिर से सत्ता में काबिज होना निहायत ज़रूरी है और यह काम उनके नेतृत्व में ही संपन्न होना है। उत्तर प्रदेश की यह जीत ही 2024 में राज्य से लोकसभा की अस्सी सीटों का भविष्य भी तय करेगी। प्रधानमंत्री द्वारा की गई तारीफ़ ने अगर योगी की चिंताओं को बढ़ा दिया हो तो कोई आश्चर्य नहीं व्यक्त किया जाना चाहिए।
भाजपा जानती है कि बंगाल सहित अन्य राज्यों में पिछले साल के आखिर में हुए चुनावों में मुख्यमंत्री योगी को हिंदुत्व के प्रतीक के रूप में पेश कर साम्प्रदायिक ध्रूवीकरण करने के अपेक्षित परिणाम नहीं निकले हैं । उत्तर प्रदेश में पिछले साल के अंत में हुए पंचायत चुनावों के नतीजे भी पार्टी के लिए निराशाजनक ही रहे हैं। हाल में ब्लॉक प्रमुखों के चयन और जिला परिषदों के गठन के दौरान हुई हिंसा की घटनाओं ने भी पार्टी की चुनौतियों को बढ़ा दिया है। इस सबके बावजूद अगर योगी के कट्टर हिंदुत्व में विश्वास व्यक्त किया गया है तो पार्टी और संघ के लिए कोई बड़ा कारण या बड़ी मजबूरी रही होगी ! उत्तर प्रदेश की बदलती हुई परिस्थितियों के चलते आर एस एस ने भी अपनी पूरी ताकत लखनऊ में झोंक दी है। उत्तर प्रदेश को लेकर हाल ही में चित्रकूट में संपन्न हुई संघ की पांच-दिनी बैठक इसका प्रमाण है।
भाजपा अब उत्तर प्रदेश में वह सब कुछ कर सकती है जो चुनाव जीतने के लिए ज़रूरी माना जा सकता है। प्रधानमंत्री की यात्रा को इन्हीं सन्दर्भों में पढ़ा जा सकता है कि भाजपा ने देश में लोकसभा चुनावों की तैयारियां प्रारंभ कर दी हैं और मोदी बनारस में पार्टी और प्रधानमंत्री पद का भविष्य योगी के हाथों में सौंपने पहुंचे होंगे।
हुक्मरान जब नौजवानों के मुकाबले वृद्धावस्था में प्रवेश कर चुके अथवा उसे भी पार कर चुके नागरिकों से ज्यादा खतरा महसूस करने लगें तो क्या यह नहीं समझ लिया जाना चाहिए कि सल्तनत में सामान्य से कुछ अलग चल रहा है ? जीवन भर आदिवासियों के हकों की लड़ाई लड़ने वाले और शरीर से पूरी तरह अपाहिज हो चुके चौरासी बरस के स्टेन स्वामी की अपनी ही जमानत के लिए लड़ते-लड़ते हुई मौत उन नौजवानों के लिए कई सवाल छोड़ गई है जो नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष को अपने जीवन का घोषणापत्र बनाने का इरादा रखते होंगे। स्टेन स्वामी की मौत की कहानी और उनकी ही तरह राज्य के अपराधी घोषित किये जाने वाले अन्य लोगों की व्यथाएँ किसी निरंकुश होती जाती सत्ता की ज़्यादतियों के अंतहीन ‘हॉरर’ सीरियल की तरह नज़र आती हैं।
पांच जुलाई की दोपहर मुंबई हाई कोर्ट में जैसे ही गंभीर रूप से बीमार स्टेन स्वामी की जमानत के आवेदन पर सुनवाई शुरू हुई, होली फैमिली हॉस्पिटल, बांद्रा (मुंबई) के चिकित्सा अधीक्षक ने जजों, एस एस शिंदे और एन जे जामदार को सूचित किया कि याचिकाकर्ता (स्टेन स्वामी) का एक बजकर बीस मिनट पर निधन हो गया है। दोनों ही जजों ने इस जानकारी पर प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए कहा : 'हम पूरी विनम्रता के साथ कहते हैं कि इस सूचना पर हमें खेद है। यह हमारे लिए झटके जैसा है। हमारे पास उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए शब्द नहीं हैं।’
इसके पहले तीन जुलाई (शनिवार) को जब अदालत स्टेन स्वामी की जमानत याचिका पर विचार करने बैठी थी तब उनके वकील ने कहा था कि उनके मुवक्किल की हालत गंभीर है। उसके बाद अदालत ने याचिका पर सुनवाई छह जुलाई तक के लिए स्थगित कर दी थी। स्वास्थ्य सम्बन्धी कारणों के चलते 28 मई को मुंबई हाई कोर्ट के निर्देशों के बाद स्टेन स्वामी को होली फैमिली अस्पताल में भर्ती करवाया गया था जहाँ उन्होंने जमानत मिलने के पहले ही अंतिम सांस ले ली। स्टेन स्वामी की मौत पर सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत न्यायाधीश मदन लोकुर ने कहा कि उनका निधन एक बड़ी त्रासदी है ।’मैं इस मामले में अभियोजन और अदालतों से निराश हूँ। यह अमानवीय है।’
एक काल्पनिक (हायपोथेटिकल) सवाल है कि आतंकवाद के आरोपों के चलते नौ माह से जेल में बंद और वेंटिलेटर पर साँसें गिन रहे स्टेन स्वामी को अगर उनकी मौत से दो दिन पहले हुई अदालती सुनवाई में ही जमानत मिल जाती और तब हम यह नहीं कह पाते कि उनकी मौत हिरासत में हुई है तो क्या व्यवस्था, अभियोजन और अदालतों के प्रति हमारा दृष्टिकोण बदल जाता ?
सोनिया गाँधी, शरद पवार, ममता बनर्जी और हेमंत सोरेन सहित देश के दस प्रमुख विपक्षी नेताओं ने राष्ट्रपति को पत्र लिखकर मांग कि है कि ‘आप अपनी सरकार को’ उन तत्वों पर कार्रवाई करने को निर्देशित करें जो स्टेन स्वामी के खिलाफ झूठे प्रकरण तैयार करने, उन्हें हिरासत में रखने और उनके साथ अमानवीय बर्ताव करने के लिए जिम्मेदार हैं। ऐसे तत्वों की जवाबदेही तय की जानी चाहिए।’
कानून के ज्ञाता ही हमें ज्यादा बता सकते हैं कि इस तरह के पत्र और शिकायतें, जो देश भर से भी लगातार पहुंचती होंगी, के निराकरण के प्रति राष्ट्रपति भवन की मर्यादाओं का संसार कितना विस्तृत अथवा सीमित है। साथ ही यह भी कि पत्र में जिस ‘सरकार’ का ज़िक्र किया गया है उसका इस तरह की शिकायतों के प्रति अब तक क्या रवैया रहा है और उससे आगे क्या अपेक्षा की जा सकती है ?
राष्ट्रपति को प्रेषित पत्र में जिन जिम्मेदार तत्वों की जवाबदेही तय करने का ज़िक्र किया गया है वे अगर कोई अदृश्य शक्तियां नहीं हैं तो पत्र लिखने वाले हाई प्रोफाइल लोग साहस दिखाते हुए, शंकाओं के आधार पर ही सही, उनकी कथित पहचानों का उल्लेख कम से कम देश को आगाह करने के इरादे से तो कर ही सकते थे। हम जानते हैं कि स्टेन स्वामी की गिरफ्तारी और हिरासत में हुई मौत के लिए किसी एक की जवाबदेही तय करने का काम असंभव नहीं हो तो आसान भी नहीं है। दूसरे यह कि क्या इस तरह की घटनाओं को उनके किसी निर्णायक परिवर्तन पर पहुँचने तक नागरिक याद रख पाते हैं ?
अमेरिका में पिछले साल घटी और दुनिया भर में चर्चित हुई एक घटना है। छियालीस वर्षीय अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ्लायड की गर्दन को जब एक गोरे पुलिस अफसर ने अपने घुटने के नीचे आठ मिनट और पंद्रह सैकंड उसकी सांस उखड़ जाने तक दबाकर रखा था तो उस अपराध की गवाही देने के लिए कुछ नागरिक उपस्थित थे। ये नागरिक गोरे पुलिस अफसर को हाल ही में साढ़े बाईस साल की सजा सुनाये जाने तक अभियोजन के साथ खड़े रहे। जॉर्ज फ्लायड की मौत ने अमेरिका के नागरिक जीवन में इतनी उथल-पुथल उत्पन्न कर दी कि एक राष्ट्रपति चुनाव हार गया। अब वहां समाज में पुलिस की जवाबदेही तय किये जाने की बहस चल रही है।
स्टेन स्वामी प्रकरण की जवाबदेही इस सवाल के साथ जुड़ी हुई है कि किसी भी नागरिक की हिरासत या सड़क पर होने वाली संदिग्ध मौत या मॉब लिंचिंग को लेकर हमारे नागरिक जीवन में क्या किसी जॉर्ज फ्लायड क्षण की आहट मात्र भी सुनाई पड़ सकती है ? ऐसे मौके तो पहले भी कई बार आ चुके हैं।
अपनी मौत के साथ ही स्टेन स्वामी तो सभी तरह की सांसारिक हिरासतों से मुक्त हो गए हैं। अब यही कोशिश की जा सकती है कि इस तरह की किसी अन्य मौत की प्रतीक्षा नहीं की जाए। इस बात का ध्यान तो राष्ट्रपति को चिट्ठी लिखने वाले लोगों को ज़्यादा रखना पड़ेगा।
अंत में : स्टेन स्वामी की मौत से उपजे विवाद पर विदेश मंत्रालय के एक प्रवक्ता ने अपने वक्तव्य में सरकार की ओर से सफ़ाई दी कि :’ भारत की प्रजातांत्रिक और संवैधानिक शासन-विधि, एक स्वतंत्र न्यायपालिका, मानवाधिकारों के उल्लंघनों पर निगरानी रखने वाले केन्द्रीय और राज्य-स्तरीय मानवाधिकार आयोगों, स्वतंत्र मीडिया और एक जीवंत और मुखर नागरिक समाज पर आधारित है। भारत अपने समस्त नागरिकों के मानवाधिकारों के संवर्धन और संरक्षण के प्रति कटिबद्ध है।’
सवाल यह है कि देश के जो सभ्य और संवेदनशील नागरिक इस समय स्टेन स्वामी की मौत का दुःख मना रहे हैं उन्हें इस वक्तव्य पर किस तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त करना चाहिए ? और क्या मौत सिर्फ़ स्टेन स्वामी नामक एक व्यक्ति की ही हुई है ?
-विष्णु नागर
अगर देखने की एक खास दृष्टि को स्वीकार करें तो हम मनुष्य नहीं, मात्र उपभोक्ता हैं। इस दृष्टि से तो मैं जो लिख रहा हूँ, वह भी एक उत्पाद है, जो मैं जाने -अनजाने फेसबुक के लिए मुफ्त में उत्पादित कर रहा हूँ(जिससे उसकी तगड़ी कमाई होती है)जबकि मुझे यह भ्रम है कि मैं इसके जरिए अपने को अभिव्यक्त कर रहा हूँ। सच्चाई शायद दोनों के बीच है बल्कि दोनों है।
मेरे लिए जो अभिव्यक्ति है, फेसबुक के लिए वह एक मुफ्त का उत्पाद है, जिसका मालिक आज दुनिया के सबसे बड़े अमीरों में है। तो संकट यह है कि क्या मैं लिखना बंद कर दूँ और मैं इस पर आगे से लिखना बंद करके उत्पाद बनने से इनकार कर दूँ? मेरा और आपका संकट यह है कि जब अभिव्यक्ति के दूसरे बड़े माध्यम हमारी पहुँच से दूर होते गए हैं, तब हमें यह एक-दूसरे तक पहुँचाता है।
व्यक्ति और दुनिया किस तरफ जा रही है, वे सच्चाइयों के कौन से कोने हैं, संवेदनाओं के ऐसे कौन से क्षेत्र हैं, जिन्हें दूसरे लोकप्रिय माध्यम हमसे दूर रखते हैं (और अब फेसबुक भी छुपाता है। किसी दिन चुपचाप उसे गायब कर देता है।)। मेरे लिए फेसबुक का यह उपयोग है, दूसरों के लिए बेशक दूसरा भी है।
इस सवाल ने कल मेरे मन में अधिक स्पष्ट आकार तब लिया, जब मैंने एक बड़े अखबार समूह का एक विज्ञापन देखा, जो पिछले बीस बरसों से भी अधिक समय से खुलेआम अपने को उत्पाद कहता आ रहा है और जिसने फिर यही घोषित करते हुए विज्ञापन दिया है। इसका एक बड़ा अधिकारी बरसों पहले बहुत बेशर्मी से कह चुका है कि विज्ञापनों के बीच बची हुई जगह में जो चेंपा जाता है, उसे समाचार कहते हैं। उस समूह में मैं करीब दो दशक काम कर चुका हूँ और जिस दौर में मैं वहाँ रहा, उसके बारे में कह सकता हूँ कि वह एक बेहतर दौर था या यूँ कहें इतना बदतर नहीं था।
बहरहाल आप आज जो कुछ और हैं, वह तो हैं ही मगर किसी न किसी के लिए उपभोक्ता हैं या उपभोग के एक उत्पादक हैं। बच कर जाएँगे,कहाँ? जो थोड़ी- बहुत जगह पहले बची हुई थी, वह भी अब समाप्त -सी है। संकट बहुत बड़ा है। न हम इन माध्यमों को छोड़ सकते हैं, न एक-दूसरे तक पहुँचने की इच्छा को त्याग सकते हैं। क्या आपको भी ऐसा ही लगता है या आप इससे असहमत हैं?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब इंदिरा गांधी के ‘आपातकाल’ पर प्रहार करते हैं तो डर लगने लगता है और चार तरह की प्रतिक्रियाएँ होतीं हैं। पहली तो यह कि जब हर कोई कह रहा है कि इस समय देश एक अघोषित आपातकाल से गुजर रहा है तो ऐसी आवाज़ें मोदी जी के कानों तक भी पहुँच ही रहीं होंगी! इस तरह के आरोप लगाने वाले ‘उस’ आपातकाल और ‘इस’ आपातकाल के बीच तुलना में कई उदाहरण भी देते हैं। इन उदाहरणों में संवैधानिक संस्थाओं के क्षरण से लगाकर ‘देशद्रोह’ के झूठे आरोपों के तहत निरपराध लोगों की गिरफ़्तारियां और मानवाधिकारों के उल्लंघन की घटनाएँ शामिल होती हैं। ऐसे में लगने लगता है कि इस सबके बावजूद अगर प्रधानमंत्री 1975 के आपातकाल की आलोचना करते हैं तो उन्हें निश्चित ही ज़बरदस्त साहस जुटाना पड़ता होगा। प्रधानमंत्री ने हाल ही में कहा था कि आपातकाल के काले दिनों को इसलिए नहीं भुलाया जा सकता है कि उसके ज़रिए ‘कांग्रेस ने हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों को कुचला है।’
प्रधानमंत्री के कहे पर दूसरी प्रतिक्रिया इस आंतरिक आश्वासन की होती है कि उनकी सरकार घोषित तौर पर तो कभी भी देश में आपातकाल नहीं लगाएगी। नोटबंदी और लॉक डाउन की आकस्मिक घोषणाओं के कारण करोड़ों लोगों द्वारा भुगती हुई यातनाओं को प्रधानमंत्री निश्चित ही अपनी सरकार के आपातकालीन उपक्रमों में शामिल नहीं करना चाहते हैं। वे अब नोटबंदी का तो ज़िक्र तक नहीं करते।
तीसरी प्रतिक्रिया यह होती है कि भविष्य में किसी अन्य प्रधानमंत्री को अगर आपातकाल की आलोचना करनी पड़ी तो उसके सामने समस्या खड़ी हो जाएगी कि किस आपातकाल का किस तरह से उल्लेख किया जाए। जब बहुत सारे आपातकाल जमा हो जाएँगे तो उनकी सालगिरह या ‘काला दिन’ मनाने में जनता भी ऊहापोह में पड़ जाएगी।
चौथी और अंतिम प्रतिक्रिया सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है। ऐसे किसी दस्तावेज या गवाह का सार्वजनिक होना बाक़ी है जो दावा कर सके कि आपातकाल के दौरान या उसके आगे या पीछे किसी भी कांग्रेसी शासनकाल में मोदी जी को उनके राजनीतिक प्रतिरोध के कारण जेल जाना पड़ा हो या नज़रबंदी का सामना करना पड़ा हो। अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त मानवाधिकार संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल के अनुसार, आपातकाल के बीस महीनों के दौरान कोई एक लाख चालीस हज़ार लोगों को बिना मुक़दमों के जेलों में डाल दिया गया था। इनमें संघ, जनसंघ, समाजवादी पार्टियों, जयप्रकाश नारायण समर्थक गांधीवादी कार्यकर्ता और पत्रकार आदि प्रमुख रूप से शामिल थे। जनसंघ के तब के कई प्रमुख नेता इस समय मार्गदर्शक मंडल की सजा काट रहे हैं। जो जानकारी मिलती है उसके अनुसार ,मोदी जी उस समय वेश बदलकर संघ या पार्टी का कार्य कर रहे थे। एमनेस्टी इंटरनेशनल को तो हाल के महीनों में भारत से अपना कामकाज ही समेटना पड़ा है।
देश में जब आपातकाल लगा था तब मोदी जी की उम्र कोई चौबीस साल नौ माह की रही होगी। यह वह दौर था जब उनकी आयु के नौजवान गुजरात और बिहार में सड़कों पर आंदोलन कर रहे थे। आपातकाल को लागू करने का कारण 1974 का बिहार का छात्र आंदोलन था। बिहार आंदोलन की प्रेरणा गुजरात के छात्रों का 1973-74 का नव निर्माण आंदोलन था। दोनों ही राज्यों में तब कांग्रेस की हुकूमतें थीं। दोनों आंदोलनों को ही अन्य विपक्षी दलों और संगठनों के साथ-साथ जनसंघ और उसके छात्र संगठनों का समर्थन प्राप्त था। गुजरात आंदोलन को चलाने वाली नव-निर्माण समिति के छात्र नेता उन दिनों जे पी से मिलने दिल्ली आते रहते थे और हम लोगों की उनसे बातचीत होती रहती थी। आपातकाल के दौरान गुजरात में कुछ समय विपक्षी दलों के जनता मोर्चा की सरकार रही (जून ‘75 से मार्च ‘76) उसके बाद राष्ट्रपति शासन हो गया (मार्च 76 से दिसम्बर ‘76) और 1977 में लोक सभा चुनावों के पहले तक चार महीने कांग्रेस की सरकार रही (दिसम्बर ‘76 से अप्रैल ‘77)।
नरेंद्र मोदी को आपातकाल के ‘काले दिनों’ और उस दौरान ‘लोकतांत्रिक मूल्यों’ को कुचले जाने की बात इसलिए नहीं करना चाहिए कि कम से कम आज की परिस्थिति में ‘भक्तों’ के अलावा सामान्य नागरिक उसे गम्भीरता से नहीं लेंगे। उनकी पार्टी के अन्य नेता, जिनमें कि आडवाणी, डॉ जोशी, शांता कुमार और गोविन्दाचार्य आदि का उल्लेख किया जा सकता है, इस बारे में ज़्यादा अधिकारपूर्वक बोल सकते हैं।
आपातकाल की अब पूरी तरह से छिल चुकी पीठ पर कोड़े बरसाते रहने के दो कारण हो सकते हैं: पहला तो इस अपराध बोध से राहत पाना कि जो लोग ‘उस’ आपातकाल के विरोध के कारण तब जेलों में बंद थे, आज उस सत्ता की भागीदारी में है जो आरोपित तौर पर न सिर्फ़ तब से भिन्न नहीं है, ज़्यादा रहस्यमय भी है। प्रधानमंत्री अपनी ओर से कैसे बता सकते हैं कि लोकतांत्रिक संस्थाएं और मूल्य 1975 के आपातकाल के मुक़ाबले आज कितनी बेहतर स्थिति में हैं?
दूसरा महत्वपूर्ण कारण वर्तमान के ‘उस’ (कांग्रेसी) परिवार को निशाने पर लेना हो सकता है जिसके पूर्वज इसके लिए ज़िम्मेदार हैं। आपातकाल के समय राहुल गांधी पाँच साल के और प्रियंका तीन साल की रही होंगी। इनके पिता राजीव गांधी राजनीति में थे ही नहीं। वे तब हवाई जहाज़ उड़ा रहे थे। उनके छोटे भाई संजय गांधी को इतिहास में आपातकाल के लिए उतना ही ज़िम्मेदार माना जाता है जितना इंदिरा गांधी को। कहा जाता है कि इंदिरा गांधी तब पूरी तरह से संजय गांधी के कहे में थीं और देश का सारा कामकाज प्रधानमंत्री कार्यालय के बजाय प्रधानमंत्री निवास से चलता था।आपातकाल लगने के नौ माह पूर्व संजय गांधी का विवाह हो चुका था। उपलब्ध जानकारी में यह भी उल्लेख है कि उनकी पत्नी हर समय उनके साथ उपस्थित रहकर उनके कामों में मदद करतीं थीं। प्रधानमंत्री जिस आपातकाल का ज़िक्र करते हैं वह उन ‘काले दिनों’ का सिर्फ़ आधा सच है। बाक़ी का आधा सम्भवतः उनकी ही पार्टी में मौजूद है।
सुप्रीम कोर्ट और देश के कुछ उच्च न्यायालयों ने नागरिक अधिकारों और उनके संरक्षण की लड़ाई में जुटे कार्यकर्ताओं, सरकारों के द्वारा क़ानून की विभिन्न धाराओं के तहत उनकी गिरफ्तारियों आदि को लेकर पिछले कुछ महीनों के दौरान महत्वपूर्ण फैसले सुनाये हैं। इन फैसलों को लेकर काफी प्रतिक्रियाएं भी हुईं हैं। हाल ही के एक निर्णय में दिल्ली दंगों के सिलसिले में गिरफ्तार किए गए तीन युवा एक्टिविस्ट्स की जमानत अर्जियां मंजूर करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस आशय की टिप्पणी भी की कि :'असहमति को दबाने की जल्दबाज़ी में राज्य के दिमाग़ में विरोध प्रकट करने के प्राप्त अधिकार और आतंकी गतिविधियों के बीच की रेखा धुंधली होने लगती है। अगर ऐसी मानसिकता जोर पकड़ती है तो यह लोकतंत्र के लिए सबसे दुखद होगा।’
एक उच्च न्यायालय की इस टिप्पणी और जमानत के फैसले पर प्रतिरोध करने की आज़ादी और उसकी राजनीति का समर्थन करने वाले लोगों का प्रसन्नता जाहिर करना स्वाभाविक था। गेंद अब सुप्रीम कोर्ट के पाले में पहुँच गई है। यू ए पी ए (अनलॉफुल एक्टिविटीज[प्रिवेंशन] एक्ट) के प्रावधानों की दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा की गई व्याख्या के प्रति सर्वोच्च न्यायिक संस्था ने अभी अपनी सहमति नहीं दिखाई है। सुप्रीम कोर्ट उस पर विचार करने के बाद अगर उसे ख़ारिज कर देती है तो क्या नागरिक अधिकारों की लड़ाई के प्रति अदालतों के नज़रिए को लेकर हमारी प्रतिक्रिया भी बदल जायेगी या पूर्ववत कायम रहेगी ?
राजद्रोह सम्बन्धी कानून के तहत पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ हिमाचल प्रदेश में कायम हुए प्रकरण के सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई टिप्पणी के बाद भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हामियों ने इसी प्रकार से अपनी ख़ुशी व्यक्त की थी, पर छोटी-छोटी जगहों पर काम करने वाले पत्रकारों के खिलाफ कायम किए गए इसी प्रकार के प्रकरणों में राहत मिलना या पुलिस की ओर से ऐसी कार्रवाइयों का बंद होना अभी बाकी है।
हम इस सवाल पर गौर करने से बचना चाह रहे हैं कि न्याय पाने के लिए जिन सीढ़ियों को अंतिम विकल्प होना चाहिए उन्हें प्रथम और एकमात्र विकल्प के रूप में इस्तेमाल करने की मजबूरी क्यों बढ़ती जा रही है ? दूसरी ओर, हाल के महीनों में कुछ ऐसा भी हुआ है कि विभिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा मानवाधिकारों के सम्बन्ध में दिए गए फैसलों या नागरिक हितों को लेकर सरकारों से की गई पूछताछ को गैर-ज़रूरी बताते हुए सत्ता पक्ष की ओर से उसे देश में सामानांतर सरकारें चलाने या ‘ज्यूडीशियल एक्टिविज़्म’ जैसे फतवों से नवाजा गया है।
वे तमाम लोग, जो न्यायपालिका की सक्रियता पर प्रसन्नता जाहिर कर रहे हैं ,और वे भी जो उसमें सामानांतर सत्ताओं के केंद्र ढूंढ रहे हैं, इस सवाल पर कोई बहस नहीं करना चाहते हैं कि देश में ऐसी स्थिति उत्पन्न ही क्यों हो रही है? नागरिक-हितों के संरक्षण की दिशा में न्यायिक सक्रियता का एक कारण यह हो सकता है कि प्रजातंत्र के अन्य तीन स्तंभों—विधायिका या व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और मीडिया –की ओर से पीड़ितों को किसी भी तरह का न्याय प्राप्त करने की उम्मीद या तो समाप्त हो चुकी है या होती जा रही है। हुकूमतें भी इस बात को समझती हों तो आश्चर्य नहीं। न्यायाधीशों की नियुक्तियां, उनके तबादले, कॉलेजियम की अनुशंषाओं को ख़ारिज कर देना अथवा उन पर त्वरित निर्णय न लेना, उच्च न्यायालयों में रिक्त पदों का बढ़ते जाना इस बात के संकेत हैं कि सरकारें न्यायपालिका की सीढ़ियों के अंतिम विकल्प को भी जनता की पहुँच से दूर करने का इरादा रखतीं हैं।
न्यायपालिका को लेकर सरकार की अपनी अलग तरह की चिंता तो हमेशा क़ायम रहने वाली है, पर नागरिकों के केवल सोच में भी इस बात को जगह मिलना अभी बाकी है कि प्रजातंत्र की हिफाजत के लिए विधायिका और कार्यपालिका को हर कीमत पर उनकी जिम्मेदारियों के प्रति आगाह कराते रहना अब अत्यंत ज़रूरी हो गया है। न्यायपालिका न तो विधायिका और कार्यपालिका का स्थान ले सकती है और न ही नागरिक प्रतिरोधों का संरक्षण स्थल ही बन सकती है। इस फर्क को रेखांकित किया जा सकता है कि किसान तो अपने हितों को प्रभावित करने वाले कानूनों के खिलाफ सड़कों पर शांतिपूर्ण आन्दोलन कर रहे हैं जबकि कार्यपालिका बजाय उनसे उनकी मांगों पर बातचीत करने के संकट की समाप्ति के लिए न्यायपालिका का मुँह ताक रही है। न्यायपालिका अगर किसानों के लिए अपना आन्दोलन ख़त्म करके घरों की ओर रवाना होने के निर्देश जारी कर दे और किसान उस आदेश को चुनौती दिए बगैर मानने से सविनय इंकार कर दें तो कार्यपालिका के लिए किस तरह की स्थितियां बन जाएंगी ?
विधायिका और कार्यपालिका यानी सरकार का जन-भावनाओं के प्रति उदासीन हो जाना या उनसे मुंह फेरे रहना हकीकत में सम्पूर्ण राजनीतिक विपक्ष और संवेदनशील नागरिकों के लिए सबसे बड़ी प्रजातांत्रिक चुनौती होना चाहिए। उन्हें दुःख मनाना चाहिए कि जो फैसले कार्यपालिका को लेने चाहिए वे अदालतें ले रहीं हैं। जो न्यायपालिका आज सरकार से ऑक्सीजन की आपूर्ति या टीकों का ही हिसाब मांग रही है वही अगर किसी दिन उससे देश में प्रजातंत्र की स्टेटस रिपोर्ट मांग लेगी तो सरकार उसके ब्यौरे कैसे और कहाँ से जुटाकर पेश करेगी? अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा भारत में प्रजातंत्र की स्थिति अथवा अभिव्यक्ति की आज़ादी को लेकर जारी किये जाने वाले ब्यौरों को देश के खिलाफ षडयंत्र बताकर ख़ारिज करते रहना तो सरकार के लिए हमेशा ही एक आसान काम बना रहेगा।
हम शायद महसूस नहीं कर पा रहे हैं कि संसद और विधानसभाओं की बैठकें अब उस तरह से नहीं हो रही हैं जैसे पहले कभी विपक्षी हो-हल्ले और शोर-शराबों के बीच हुआ करतीं थीं और अगली सुबह अखबारों की सुर्खियों में भी दिखाई पड़ जाती थीं। हम महसूस ही नहीं कर पा रहे हैं कि हमें प्रजातंत्र के कुछ महत्वपूर्ण स्तम्भों की सक्रियता के बिना भी देश का सारा कामकाज निपटाते रहने या निपटते रहने की आदत पड़ती जा रही है। ऐसा इसलिए हो रहा है कि कोई भी कार्यपालिका से यह सवाल नहीं करना चाहता है कि जब भरे कोरोना काल में विधानसभा चुनावों के दौरान भीड़ भरी जन-सभाएं और लाखों लोगों का कुम्भ स्नान हो सकता है तो फिर संसद और विधानसभाओं की बैठकें क्यों नहीं हो सकतीं ? अदालतों की सीढ़ियों के ज़रिए सरकार और बहुसंख्य नागरिक दोनों ही अपने लिए शार्ट कट्स तलाश रहे हैं। करोड़ों की आबादी में गिनती के लोग ही कार्यपालिका को उसकी उपस्थिति और दायित्वों का अहसास कराते रहते हैं और वही लोग अपने ख़िलाफ़ होने जाने वाली ज़्यादतियों को लेकर न्यायपालिका से न्याय की उम्मीदें भी करते रहते हैं। उनकी उम्मीदें कभी-कभार पूरी हो जाती है और कभी-कभी नहीं हो पातीं। जब विपक्ष और आम नागरिक अपेक्षित दायित्वों के प्रति विधायिका और कार्यपालिका की उदासीनता को स्वीकार करने लगते हैं, प्रजातंत्र की जगह आपातकाल और अधिनायकवाद देश में दस्तक देने लगता है।
-श्रवण गर्ग
जनता अपने प्रधानमंत्री से यह कहने का साहस नहीं जुटा पा रही है कि उसे उनसे भय लगता है।जनता उनसे उनके ‘मन की बात ‘, उनके राष्ट्र के नाम संदेश, चुनावी सभाओं में दिए जाने वाले जोशीले भाषण सबकुछ धैर्यपूर्वक सुन लेती है पर अपने दिल की बात उनके साथ शेयर करने का साहस नहीं जुटा पाती है । प्रधानमंत्री को जनता की यह सच्चाई कभी बताई ही नहीं गई होगी। सम्भव यह भी है कि प्रधानमंत्री ने ऐसा कुछ पता करने की कोई इच्छा भी कभी यह समझते हुए नहीं ज़ाहिर की होगी कि जो लोग उनके इर्द-गिर्द बने रहते हैं वे सच्चाई बताने के लिए हैं ही नहीं।
प्रजातांत्रिक मुल्कों के शासनाध्यक्षों को आमतौर पर इस बात से काफ़ी फ़र्क़ पड़ता है कि लोग उन्हें हक़ीक़त में कितना चाहते हैं ! वे अपने आपको लोगों के बीच चाहने के चोचले या टोटके भी आज़माते रहते हैं। मसलन, अमेरिकी जनता को व्हाइट हाउस के लॉन पर अठखेलियाँ करते राष्ट्रपति के श्वान के नाम, उम्र और उसकी नस्ल की जानकारी भी होगी। शासनाध्यक्ष यह पता करवाते रहते हैं कि लोग उन्हें लेकर आपस में, घरों में, पार्टियां शुरू होने के पहले और उनके बाद क्या बात करते होंगे ! यह बात तानाशाही मुल्कों के लिए लागू नहीं होती जहां किसी वर्ग विशेष के व्यक्ति के हल्के से मुस्कुरा लेने भर को भी सत्ता के ख़िलाफ़ साज़िश के तौर पर देखा जाता है।
पुराने जमाने की कहानियों में उल्लेख मिलता है कि राजा स्वयं फ़क़ीर का वेष बदलकर देर शाम या अंधेरे में अपनी प्रजा के बीच घूमने निकल जाता था और उसके बीच अपने ही शासन की आलोचना करते हुए डायरेक्ट फ़ीडबैक लेता था कि उसकी लोकप्रियता किस मुकाम पर है। वह इस काम में किसी पेड एजेन्सी या पेड न्यूज वालों की मदद नहीं लेता था। हमारी जानकारी में क्या कभी ऐसा हुआ होगा कि प्रधानमंत्री ने अपने ‘डाई हार्ड’ समर्थकों के अलावा देश की बाक़ी जनता से यह पता करने की कोशिश की होगी कि वह उन्हें दिल और दिमाग दोनों से कितना चाहती है या कितना ख़ौफ़ खाती है ?
आपातकाल के बाद ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई थी कि लोग आपस में बात करते हुए भी इस चीज़ का ध्यान रखते थे कि आसपास कोई दीवार तो नहीं है।भ्रष्टाचार का रेट भी ‘दूर दृष्टि ‘ और ‘कड़े अनुशासन’ के बीस-सूत्रीय कार्यक्रमों की रिस्क के चलते काफ़ी बढ़ गया था ।पर जनता पार्टी शासन के अल्पकालीन असफल प्रयोग के बाद जब इंदिरा गांधी फिर से सत्ता में आईं तब तक उन्होंने अपने आपको काफ़ी बदल लिया था। उनके निधन के बाद किसी ने यह नहीं कहा कि देश को एक तानाशाह से मुक्ति मिल गई। ऐसा होता तो सहानुभूति लहर के बावजूद ‘परिवार’ के एक और प्रतिनिधि राजीव गांधी इतने बड़े समर्थन के साथ सत्ता में नहीं आ पाते। अटल जी का तो जनता के दिलों पर राज करने का सौंदर्य ही अलग था।
नायक कई मर्तबा यह समझने की गलती कर बैठते हैं कि जनता तो उन्हें खूब चाहती है, सिर्फ़ मुट्ठी भर लोग ही उनके ख़िलाफ़ षड्यंत्र में लगे रहते हैं यानी शासक के हरेक फ़ैसले में सिर्फ़ नुक्स ही तलाशते रहते हैं। अगर यही सही होता तो दुनिया भर में सिर्फ़ एक ही व्यक्ति, एक ही परिवार या एक ही पार्टी की हुकूमतें राजघरानों की तर्ज़ पर चलती रहतीं। ऐसा होता नहीं है। नायक ग़लतफ़हमी के शिकार हो जाते हैं और वर्तमान को ही भविष्य भी मान बैठते हैं।
सात जून की दोपहर जैसे ही प्रधानमंत्री कार्यालय से जारी ट्वीट के ज़रिए लोगों को जानकारी मिली कि मोदी शाम पाँच बजे राष्ट्र को सम्बोधित करेंगे तो (चैनलों को छोड़कर) जनता के मन में कई तरह के सवाल उठने लगे। मसलन, प्रधानमंत्री कोरोना की पहली लहर के बाद जनता द्वारा बरती गई कोताही और उसके कारण मची दूसरी लहर की तबाही के परिप्रेक्ष्य में सम्भावित तीसरी लहर के प्रतिबंधों पर तो कुछ नहीं बोलने वाले हैं ? या फिर मौतों के आँकड़ों को लेकर चल रहे विवाद पर तो कोई नई जानकारी नहीं देंगे ? या फिर क्या वे इस बात का ज़िक्र करेंगे कि दूसरी लहर के दौरान समूचा सिस्टम कोलैप्स कर गया था और लोगों को इतनी परेशानियाँ झेलनी पड़ीं। सम्बोधन में ऐसा कुछ भी व्यक्त नहीं हुआ। कुछ सुनने वालों ने राहत की साँस ली और ज़्यादातर निराश हुए। प्रधानमंत्री को शायद सलाह दी गई होगी कि दूसरी लहर उतार पर है और अब उन्हें अपनी अर्जित लोकप्रियता की लहर पर सवार होकर जनता की नब्ज टटोलने के लिए उससे मुख़ातिब हो जाना चाहिए।
पीएमओ को किसी निष्पक्ष एजेंसी की मदद से सर्वेक्षण करवाकर उसके आँकड़े प्रधानमंत्री ,पार्टी और संघ को सौंपने चाहिए कि सम्बोधनों में उनके बोले जाने का असर जनता के सुने जाने पर कितना और किस तरह का पड़ रहा है ? प्रधानमंत्री ने अपने सात जून के संबोधन में केवल इस बात का ज़िक्र किया कि 2014 (उनके सत्ता में आने के साल ) के बाद से देश में टीकाकरण कवरेज साठ प्रतिशत से बढ़कर नब्बे प्रतिशत हो गया है । उन्होंने यह नहीं बताया कि जनता में उनके प्रति भय अथवा नाराज़गी का कवरेज क्षेत्र भी उसी अनुपात में सात सालों में और बढ़ा है या कम हो गया है। समय बीतने के साथ ऐसा हो रहा है कि प्रधानमंत्री के मंच और और जनता के बैठने के बीच की दूरी लगातार बढ़ती जा रही है। दोनों ही एक-दूसरे के चेहरे के ‘भावों’ को नहीं पढ़ पा रहे हैं।अपार भीड़ की ‘अभाव’पूर्ण उपस्थिति ऐसी ख़ुशफ़हमी में डाल देती है जो परिणामों में ग़लतफ़हमी साबित हो जाती है।बंगाल में ऐसा ही हुआ। एक ‘अलोकप्रिय’ मुख्यमंत्री एक ‘लोकप्रिय’ प्रधानमंत्री को चुनौती देते हुए फिर सत्ता में काबिज हो गई।
प्रधानमंत्री को सरकार की उपलब्धियाँ गिनाने, ,मुफ़्त के टीके और अस्सी करोड़ लोगों को दीपावली तक मुफ़्त का अनाज देने की बात करने के बजाय मरहम बाँटने का काम करना चाहिए था। जितने लोगों की जानें जाना थीं, जा चुकी है। अब जो हैं उन्हें कुछ और चाहिए। प्रधानमंत्री से इस बात का ज़िक्र छूट जाता है कि जनता उनसे क्या अपेक्षा रखती है जिसे कि वे पूरी नहीं कर पा रहे हैं। जब वे कहते हैं कि इतनी बड़ी त्रासदी पिछले सौ सालों में नहीं देखी गई तो लोगों की उम्मीदें भी अब वैसी ही हैं जो सौ सालों में प्रकट नहीं हुईं। और उसे समझने के लिए यह जानना पड़ेगा कि उनका 2014 का मतदाता 2021 में उनके संबोधन को टीवी के पर्दे के सामने किसी अज्ञात आशंका के साथ क्यों सुनता है ?
अंत में : अंग्रेज़ी अख़बार ‘द टेलिग्राफ’ ने लिखा है कि प्रधानमंत्री ने अपने बत्तीस मिनट के संबोधन में कोई छब्बीस सौ शब्दों का इस्तेमाल किया पर देश की उस सर्वोच्च अदालत के बारे में उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा जिसे कि जनता अपने लिए मुफ़्त टीके का श्रेय देना चाहती है !
-श्रवण गर्ग
हमें एक ऐसे परिदृश्य की कल्पना करना प्रारम्भ कर देना चाहिए जिसमें वे सभी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स ( फ़ेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप, इंस्टा ,आदि ), जिनका कि हम आज धड़ल्ले से उपयोग कर रहे हैं, या तो हमसे छीन लिए जाएँगे या उन पर व्यवस्था का कड़ा नियंत्रण हो जाएगा।और यह भी कि सरकार की नीतियों, उसके कामकाज आदि को लेकर जो कुछ भी हम आज लिख, बोल या प्रसारित कर रहे हैं उसे आगे जारी नहीं रख पाएँगे। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स की आज़ादी पर किस तरह के सरकारी दबाव डाले जा रहे हैं उसकी सिर्फ़ आधी-अधूरी जानकारी ही सार्वजनिक रूप से अभी उपलब्ध है। सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर प्रसारित होने वाले कंटेंट पर सरकार का नियंत्रण होना चाहिए या नहीं, इस पर अदालतों में और बाहर बहस जारी है।
बहस का दूसरा सिरा यह है कि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रम्प अपना स्वयं का ऐसा सोशल मीडिया प्लेटफार्म खड़ा करने में जुटे हैं जो स्थापित टेक कम्पनियों के प्लेटफॉर्म्स को टक्कर देने में सक्षम होगा। ट्रम्प निश्चित ही अपना अगला चुनाव इसी प्लेटफार्म की मदद से लड़ना चाहेंगे। अमेरिका में भी अगला चुनाव भारत के लोकसभा चुनावों के साथ ही 2024 में होगा। ट्रम्प को अपना प्लेटफार्म खड़ा करने की ज़रूरत क्यों पड़ रही है यह अब ज़्यादा बहस की बात नहीं रह गई है। ट्रम्प के करोड़ों समर्थक अगर उसकी प्रतीक्षा कर रहे हों तो भी कोई आश्चर्य नहीं व्यक्त किया जाना चाहिए।
पूरी दुनिया को पता है कि वाशिंगटन में छह जनवरी को अमेरिकी संसद पर हुए हमले के तुरंत बाद पूर्व राष्ट्रपति के ट्विटर और फ़ेसबुक अकाउंट्स निलम्बित कर दिए गए थे। फ़ेसबुक ने हाल ही में अपनी कार्रवाई की फिर से पुष्टि भी कर दी ।ट्रम्प पर आरोप था कि वे सोशल मीडिया प्लेटफार्म का उपयोग अपने समर्थकों को बाइडन सरकार के ख़िलाफ़ हिंसा भड़काने के लिए कर रहे थे। भारत जैसे देश में सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर सरकार के बढ़ते दबाव और अमेरिका जैसे पश्चिमी राष्ट्र में एक पूर्व राष्ट्रपति द्वारा फिर से सत्ता प्राप्ति की कोशिशों में स्वयं का सोशल मीडिया मंच खड़ा करने को अगर सम्मिलित रूप से देखें तो दुनिया में प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं के अस्तित्व को लेकर कई तरह के सवाल खड़े होते हैं।
महत्वाकांक्षी टेक कंपनियां अगर तब के राष्ट्रपति ट्रम्प (बाइडन ने निर्वाचित हो जाने के बावजूद तब तक शपथ नहीं ली थी और ट्रम्प व्हाइट हाउस में ही थे) का अकाउंट बंद करने की हिम्मत दिखा सकती हैं तो उसके विपरीत यह आश्चर्य भी नहीं होना चाहिए कि अपने व्यावसायिक हितों के चलते सरकार के दबाव में वे हमारे यहाँ भी कुछ हज़ार या लाख लोगों के विचारों पर नियंत्रण के लिए समझौते कर लें।सोशल मीडिया अकाउंट बंद करने को लेकर हिंसा और घृणा फैलाने के जो आरोप ट्रम्प के खिलाफ टेक कंपनियों द्वारा लगाए गए थे वैसे ही आरोप सरकारी सूचियों के मुताबिक़ यहाँ भी नागरिकों के विरुद्ध लगाए जा सकते हैं।( एक नागरिक के तौर पर अभिव्यक्ति की आज़ादी के संवैधानिक अधिकार तो ट्रम्प को भी उपलब्ध थे )।यह जानकारी अब दो-एक साल पुरानी पड़ गई है कि भारत स्थित फ़ेसबुक के कर्मचारी भाजपा के आई टी सेल के सदस्यों के लिए वर्कशॉप आयोजित करते रहे हैं ।
भारत में जिस तरह का सरकार-नियंत्रित ‘नव-बाज़ारवाद’ आकार ले रहा है उसमें यह नामुमकिन नहीं कि सूचना के प्रसारण और उसकी प्राप्ति के सूत्र बाज़ार और सत्ता के संयुक्त नियंत्रण (पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप) में चले जाएँ और आम जनता को उसका पता भी न चल पाए। ट्विटर , फ़ेसबुक, गूगल आदि अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ किसी समाज सेवा या नागरिक आज़ादी के उद्देश्य से काम नहीं कर रही हैं। उनका मूल उद्देश्य धन कमाना और अर्जित मुनाफ़े को अपने निवेशकों के बीच बाँटना ही है। अतः इन टेक कम्पनियों को इस काम के लिए काफ़ी हिम्मत जुटानी पड़ेगी कि कोई चालीस करोड़ से अधिक की संख्या वाले भारत के मध्यम वर्ग के आकर्षक बाज़ार का वे नागरिक आज़ादी की रक्षा के नाम पर बलिदान कर दें।(भारत में स्मार्ट फ़ोन यूजर्स की संख्या लगभग 78 करोड़ है )।
सवाल यह खड़ा होने वाला है कि वर्तमान में अहिंसक और ‘साइलेंट’ प्रतिरोध के वाहक बने ये सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स अगर नागरिकों से छीन लिए जाएंगे अथवा उनकी धार को धीरे-धीरे भोथरा और उनकी गति को निकम्मा कर दिया जाएगा तो लोग व्यवस्था के प्रति अपने हस्तक्षेप को किस तरह और कहाँ दर्ज कराएँगे ? चंद अपवादों को छोड़ दें तो मुख्य धारा के प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक बड़ा हिस्सा इस समय सरकारी बंदरगाह (गोदी) पर लंगर डालकर विश्राम कर रहा है। इसका एक जवाब यह हो सकता है कि आपातकाल से लड़ाई के समय न तो मोबाइल और सोशल मीडिया था और न ही निजी टी वी चैनल्स, फिर भी लड़ाई तो लड़ी गई । यह बात अलग है कि उस लड़ाई में वे लोग भी प्रमुखता से शामिल थे जो कि आज सत्ता में हैं और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के कामकाज में सरकारी हस्तक्षेप की अगुवाई कर रहे हैं।
ट्रम्प द्वारा अपना सोशल मीडिया प्लेटफार्म खड़ा करने की घोषणा न सिर्फ़ एकाधिकार प्राप्त कंपनियों की सत्ता को चुनौती देने की कोशिश है, बल्कि भारत जैसे राष्ट्र के शासकों को भी इस दिशा में कुछ करने की प्रेरणा दे सकती है। इस तरह की कोई कोशिश चुपचाप से हो भी रही हो तो अचम्भा नहीं। वर्ष 2014 में मोदी को चुनाव प्रचार की तकनीक बराक ओबामा के सफल राष्ट्रपति पद के चुनाव प्रचार से ही मिली थी। तब ओबामा को दुनिया का पहला फ़ेसबुक राष्ट्रपति कहा गया था। टेक कंपनियों की ताक़त का दूसरा पहलू यह है कि वे ट्रम्प को सत्ता में वापस न आने देने के लिए भी अपना सारा ज़ोर लगा सकती हैं।अतः सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को लेकर वर्तमान में जो तनाव हमारे यहाँ चल रहा है उससे टेक कम्पनियों की ताक़त और उसमें सरकारी हस्तक्षेप की ज़रूरत के गणित को समझा जा सकता है।
हमने अभी इस दिशा में सोचना भी शुरू नहीं किया है कि कोरोना का पहला टीका ही लगने का इंतज़ार कर रही करोड़ों की आबादी को जब तक दूसरा टीका लगेगा तब तक नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर क्या-क्या और कैसे-कैसे खेल हो चुके होंगे ! जिस सोशल मीडिया का उपयोग हम अभी नशे की लत जैसा इफ़रात में कर रहे हैं वह अपनी मौजूदा सूरत में ज़िंदा रह पाएगा भी या नहीं, हमें अभी पता नहीं है। जनता जब तक सोचती है कि उसे अब कुछ सोचना चाहिए, तब तक सरकारें न सिर्फ़ अपना सोचना पूरा कर चुकती हैं बल्कि अपने सोचे गए पर अमल भी शुरू कर चुकी होती हैं।