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हम सबके जीवन में झगडऩे के विषय इतने अधिक हैं कि प्रेम एकदम अकेला पड़ता जा रहा है। जो भी अकेला होता जाता है, उसे संभालना मुश्किल होता जाता है। इसीलिए तो प्रेम सिमटता जा रहा है। क्रोध, अहिंसा और असहिष्णुता बढ़ती जा रही है।
हमारी गलती कभी होती ही नहीं। हम तो हमेशा ही निर्मल, निर्दोष होते हैं। सारी गलती हमेशा दूसरों की ही होती है। अपनी ओर न देखने के कारण हमारी चेतना में यह भाव इतनी गहराई से बैठ गया है कि हमने अपनी ओर देखना ही बंद कर दिया है। कमल का फूल कीचड़ में रहकर भी उसमें नहीं रहता, क्योंकि वह कीचड़ से ही ऊर्जा हासिल करके खुद को सुगंधित और कोमल बनाकर अपना जीवन बदल लेता है। हम सब भी ऐसा कर पाते, तो जिंदगी कम से कम ऐसी नहीं होती जैसी आज है।
हम मन, विचार, शरीर से दूसरों के प्रति कठोरता से भरते जा रहे हैं। जीवित व्यक्तियों को तो छोडि़ए, जो इस दुनिया में नहीं हैं उनके प्रति भी हमारा नजरिया घृणा, वैमनस्य से भरा होता है। यह बताता है कि हमारी जीवनदृष्टि कितनी छोटी, सीमित, संकुचित होती जा रही है!
दूसरों में निरंतर कमियां, गलतियां खोजने के कारण हम भीतर से रिक्त होते जा रहे हैं। कुएं में पानी कम हो, तो बाहर से पानी लाकर उसमें नहीं डालते। कुएं के भीतर उतरकर सफाई की जाती है। कचरा हटाया जाता है। कुएं में पानी उसके भीतर से आता है, बाहर से नहीं! हमारे संकट भी अंदर से ही आते हैं!
एक कहानी आपसे कहता हूं! इससे दूसरों को दोष देने की बात सरलता तक आपसे पहुंच सकेगी। संभव है आप उस मनोदशा को उपलब्ध हो सकें, जहां कहानीकार आपको ले जाना चाहता है!
परिवार में एक ही बेटा था। उनकी आर्थिक स्थिति भी कोई बहुत खराब नहीं थी, लेकिन बेटा बात-बात में नाराज रहा करता। नाराजगी से ज्यादा गुस्सा उसका स्वभाव बन गया था। इकलौते बेटों के साथ अक्सर यह समस्या देखी जाती है, क्योंकि वह अपनी हर इच्छा को ईश्वर के आदेश के बराबर मानते हैं। बचपन में बच्चे माता-पिता के अधीन होते हैं, लेकिन जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते जाते हैं वह सीख जाते हैं कि माता-पिता को कैसे ‘काबू’ में रखना है! क्योंकि उन्होंने अपने माता-पिता से उनके माता-पिता को काबू करने के तरीके जाने-अनजाने सीख लिए हैं।
लडक़े का गुस्सा देखकर, उसकी बढ़ती उम्र देखकर उन लोगों ने तय किया कि इसका विवाह कर देना चाहिए। संभव है, विवाह के बाद उसकी मनोदशा में कुछ अच्छे बदलाव आ जाएं। कितनी मजेदार बात है, जिस बच्चे को मां-बाप बीस-पच्चीस बरस में नहीं बदल पाते, उसे परिवार के नए सदस्य के भरोसे छोड़ देते हैं! किसी का जीवन बदलना इतना सरल नहीं।
दूसरी ओर एक ऐसी लडक़ी थी जिसकी जिद, गुस्से को संभालने में माता-पिता असमर्थ हो रहे थे। उनके मन में भी ऐसा ही विचार आया जैसा इस लडक़ी के माता-पिता के मन में आया। कुछ ऐसा संयोग हुआ कि दोनों के माता-पिता मिले, विवाह तय हो गया। विवाह के पहले ही दिन जब दोनों एकांत में अपने उपहारों को देखने बैठे, तो एक बहुत ही प्रिय व्यक्ति द्वारा दिए गए उपहार को खोलने की कोशिश पत्नी ने की। पति ने कहा, ठहरो चाकू ले आता हूं। पत्नी ने कहा हमारे यहां तो अक्सर ही ऐसे उपहार आते थे। मैं जानती हूं, इसे कैसे खोलना है। ऐसे उपहार को चाकू से नहीं कैंची से खोला जाता है। मैं कोई अनाड़ी नहीं हूं।
यह संभव है कि दो शांतिप्रिय लोग मिलकर बहुत अधिक शांतिपूर्ण वातावरण न बना सकें। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि अगर दो झगड़ालू लोग मिल जाएं, तो निश्चित रूप से विवाद, कलह, मनमुटाव की ऐसी दीवारें खड़ी कर सकते हैं, जिन्हें गिराना किसी बुलडोजर के बस में नहीं! फिलहाल कहानी पर लौटते हैं। नवदंपत्ति का सारा विवाद चाकू, कैंची पर आकर सिमट गया। जीवन उससे आगे बढ़ ही नहीं पा रहा था।
मान लीजिए पत्नी कैंची पर अड़ी, तो पति ही चाकू की जिद छोड़ देते। लेकिन ऐसा हो न सका। दोनों परिवारों का उनके स्वभाव को बदलने का प्रयास विफल हो गया। दोनों के विवाह को कई बरस हो गए, लेकिन ये चाकू-कैंची पर ही उलझे रहे। हर दिन ही चाकू-कैंची तलाश लिए जाते।
कुएं की तरह हमारी रिक्तता का उपाय हमारे भीतर उतरने में ही है! जैसा भीतर, वैसा बाहर! जैसा बाहर, वैसा भीतर! हम सबके जीवन में झगडऩे के विषय इतने अधिक हैं कि प्रेम एकदम अकेला पड़ता जा रहा है। जो भी अकेला होता जाता है, उसे संभालना मुश्किल होता जाता है। इसलिए प्रेम सिमटता जा रहा है। क्रोध, अहिंसा, असहिष्णुता बढ़ती जा रही है। (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
छत्तीसगढ़ की राजनीति में लिखने को सबसे अधिक अगर किसी राजनेता के बारे में हो सकता है, तो वे बृजमोहन अग्रवाल हैं। लंबी राजनीति, और उससे भी बहुत लंबी महत्वाकांक्षा। कॉलेज के दिनों से ही भाजपा के छात्र संगठन विद्यार्थी परिषद की राजनीति, छात्रसंघ चुनाव लडऩा, और भाजपा संगठन में काम करना। वहां से लेकर विधानसभा चुनाव लडऩे और लगातार जीतने का बृजमोहन का एक गजब का रिकॉर्ड है। छत्तीसगढ़ में 1989 से लगातार विधानसभा चुनाव जीतने वाले बृजमोहन अकेले विधायक हैं। सात बार के और भी विधायक हैं, कांग्रेस के रामपुकार तो आठ बार के विधायक हैं, सत्यनारायण शर्मा, रविन्द्र चौबे सात बार के विधायक हैं, लेकिन इनके खाते में बीच-बीच में हार भी लिखी हुई है। बृजमोहन अग्रवाल का छत्तीसगढ़ की किसी भी पार्टी का यह रिकॉर्ड है, और आगे भी यह टूटे इसकी संभावना कम ही दिखती है।
बृजमोहन की कई खूबियों में से एक यह है कि उन्होंने कभी पार्टी नहीं बदली, यह एक अलग बात है कि राज्य बनने के बाद जब पहला भाजपा विधायक दल बनना था, तो बीजेपी दफ्तर में भारी हंगामा हुआ। बृजमोहन अग्रवाल और उनके समर्थक पार्टी ऑफिस में थे, बृजमोहन भीतर विधायक दल में थे, और समर्थक बाहर एक रिकॉर्ड हंगामा कर रहे थे। सच कहा जाए तो उतना बड़ा हंगामा छत्तीसगढ़ में किसी पार्टी के ऑफिस में नहीं हुआ कि विधायक दल नेता बनाने के लिए किसी नेता के समर्थक दफ्तर में भारी तोडफ़ोड़ करें, कारों में तोडफ़ोड़ करें, कार जला दें। नतीजा यह हुआ था कि सन् 2000 में बृजमोहन अग्रवाल अपने करीबी दोस्त और पार्टी नेता प्रेमप्रकाश पांडेय के साथ पार्टी से निलंबित कर दिए गए थे, और करीब साल भर निलंबित रहे।
दरअसल छत्तीसगढ़ के पहले भी अविभाजित मध्यप्रदेश की भाजपा की राजनीति में बृजमोहन छत्तीसगढ़ के एक दूसरे अग्रवाल नेता लखीराम अग्रवाल के विरोधी कैम्प में थे। लखीराम अग्रवाल अविभाजित मध्यप्रदेश के भाजपा अध्यक्ष रह चुके हैं, और जनसंघ के समय से वे छत्तीसगढ़ में पार्टी का एक खूंटा थे, जिनके इर्द-गिर्द पार्टी चलती थी, जिनके मार्फत चंदा इकट्ठा होता था, और वे खुद भी खानदानी व्यापारी थे, और व्यापारियों को जनसंघ-भाजपा के साथ बनाए रखने में इस इलाके में लखीराम अग्रवाल का बड़ा योगदान था। ऐसा भी माना जाता है कि अर्जुन सिंह ने अविभाजित मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री रहते हुए तेंदूपत्ता का राष्ट्रीयकरण किया, तो छत्तीसगढ़ में उसकी एक चोट लखीराम अग्रवाल पर भी पड़ी जो कि तेंदूपत्ता के एक बड़े व्यापारी थे।
बृजमोहन और लखीराम, दोनों ही व्यापारी परिवारों के, दोनों ही अग्रवाल समाज के, लेकिन दोनों के बीच एक पीढ़ी का फर्क था। और बृजमोहन-प्रेमप्रकाश अविभाजित मध्यप्रदेश में सुंदरलाल पटवा खेमे के माने जाते थे, और लखीराम अपने आपमें एक खेमा थे। जूनियर रहते हुए भी बृजमोहन की खींचतान लखीराम से चलती ही रहती थी, जिनका बेटा अमर अग्रवाल उस समय राजनीति में बृजमोहन से बहुत पीछे-पीछे, संगठन में पिता की फाईलें लेकर चलता था।
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बृजमोहन ने 1989 के विधानसभा चुनाव में रायपुर के कांग्रेस विधायक स्वरूपचंद जैन को हराया जो कि पहले महापौर भी रह चुके थे, उनकी साख भी ठीक थी, और पार्टी की हालत भी बहुत खराब नहीं थी। फिर बृजमोहन के खिलाफ यह बात भी जा रही थी कि जनसंघ के समय के छत्तीसगढ़ के एक बड़े वजनदार नेता, बालूभाई पटेल रायपुर से भाजपा टिकट चाहते थे, और टिकट न मिलने पर उन्होंने पार्टी के खिलाफ निर्दलीय चुनाव लड़ लिया था। वे उस वक्त सत्तीबाजार वार्ड के पार्षद रह चुके थे, और रायपुर में बहुत बड़े गुजराती समाज के वोटों का भी उनको बड़ा भरोसा था। लेकिन उनके करीब 36 हजार वोटों के अंदाज के खिलाफ उन्हें दो हजार से भी कम वोट मिले, और उनके सामने कल का छोकरा रहे बृजमोहन अग्रवाल विधायक बन गए, पटवा सरकार में राज्यमंत्री बन गए, और कुछ ही समय के भीतर स्वतंत्र प्रभार राज्यमंत्री बना दिए गए।
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भोपाल में रहते हुए बृजमोहन अग्रवाल छत्तीसगढ़ के सारे ही लोगों के लिए मेजबान रहते थे। तमाम कर्मचारी संगठन के नेता अपने काम के लिए भोपाल ही पहुंचते थे क्योंकि छत्तीसगढ़ की राजधानी भी वही था। यहां से जाने वाले कई कम्युनिस्ट कर्मचारी और मजदूर नेता बिना किसी झिझक के बृजमोहन अग्रवाल के घर रूक जाते थे, वे उनके लौटने का रिजर्वेशन भी करा देते थे, और सरकार में उनके काम के लिए खूब मेहनत भी करते थे। बृजमोहन अग्रवाल भारी यारबाज थे, कॉलेज के समय के अनगिनत साथियों के अलावा छत्तीसगढ़ के लोगों के लिए वे भोपाल में सबसे बड़े मेजबान रहे। और यह सिलसिला आज भी जारी है जब भोपाल से लोग छत्तीसगढ़ आते हैं, और बृजमोहन अग्रवाल के मेहमान रहते हैं।
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कोई अगर यह सोचे कि बृजमोहन अग्रवाल का सात बार विधायक बनना रमेश बैस के सात बार सांसद बनने जैसा ही मामला है, तो यह सोचना गलत होगा। रमेश बैस हालातों और कांग्रेस के बनाए हुए सांसद रहे, और बृजमोहन अग्रवाल हर परिस्थिति में लंबी लीड से जीतने वाले विधायक रहे, जिनको कांग्रेस ने यह मान ही लिया है कि इनको हराना मुमकिन नहीं है। और इस नौबत के पीछे बृजमोहन का योगदान छोटा नहीं है। 365 दिन कम से कम 12 घंटे रोज की राजनीति, जो कि बहुत मायनों में सीधे-सीधे जनसेवा के दर्जे की भी है, उसने बृजमोहन को अजीत बना दिया, जिनसे कोई जीत नहीं पाया। वे सत्ता में रहे, या विपक्ष में, लोगों के काम करवाने, लोगों की मदद करने में उनका कोई सानी नहीं रहा, न सिर्फ भाजपा में, बल्कि किसी भी पार्टी में पूरे प्रदेश के लोगें के लिए इतना करने वाला कोई भी दूसरा नेता इस राज्य में नहीं हुआ।
बृजमोहन अग्रवाल के मंत्री रहते हुए उनके दरवाजे सुबह से साधुओं का डेरा डल जाता था, और वे जब भी बाहर आते थे, दर्जनों साधुओं को सौ-सौ रूपए देकर बिदा करते थे। सुबह की इससे बेहतर बोहनी किसी साधू की और नहीं हो सकती थी। लेकिन यह बात एक खुला रहस्य है कि बृजमोहन अग्रवाल ने मंत्री रहते हुए अनगिनत लोगों की हर किस्म की मदद की। उन्होंने बीमार के इलाज के लिए घर और अस्पताल नगदी के लिफाफे भेजे, बच्चों के एडमिशन के लिए नगद मदद की, शादी-ब्याह से लेकर मकान बनवाने तक लोगों को नगद पैसा दिया, तीर्थयात्रा या किसी और काम से किसी को कहीं जाना हो, तो उसका इंतजाम बृजमोहन के बंगले के दफ्तर से लगातार होते रहता था। और तो और रायपुर और छत्तीसगढ़ के मीडिया के लोगों की जितनी निजी जरूरतें रहती थीं, उनमें से जो बृजमोहन से कह सके, या बृजमोहन के सहयोगियों से भी कह सके, वह तमाम पूरी हो जाती थी। यह एक ऐसा दरवाजा रहा जहां से कोई कभी खाली हाथ नहीं लौटा, और हाल के बरसों तक यह दरवाजा आधी रात तक तो खुला रहता ही था।
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बृजमोहन ने निजी संबंधों में किसी पार्टी का कोई फर्क नहीं देखा। आज के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के भाजपा में रिश्तेदार बहुत हैं, लेकिन उनका सबसे बड़ा दोस्त बृजमोहन है जिसका 15 बरस का मंत्री वाला बंगला आज विधायक रहते हुए भी जारी है। ऐसी भी चर्चा है कि भूपेश बघेल का कोई काम पिछले 15 बरस रूकता नहीं था, और बृजमोहन अग्रवाल इस बात की गारंटी करते थे कि उनको कोई दिक्कत न हो।
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लेकिन बृजमोहन अग्रवाल के राजनीतिक जीवन का दिलचस्प दौर छत्तीसगढ़ के 15 बरस का भाजपा राज रहा। इस पूरे दौर में उनको लगातार यह लगता था कि मुख्यमंत्री बनने के लायक वे ही सबसे काबिल नेता हैं। और उन्हें इस बात का मलाल रहा कि पार्टी ऑफिस में तोडफ़ोड़ और आगजनी के चलते उन्हें अगर निलंबित न किया गया होता तो वे पार्टी की पहली पसंद रहते। लेकिन पार्टी की दिक्कत यह थी कि जिस विधायक दल बैठक के दौरान तोडफ़ोड़ और आगजनी हुई थी, उस वक्त भाजपा ने दिल्ली से एक ऐसे नेता को पर्यवेक्षक बनाकर भेजा था, जिसे खुद पथराव झेलना पड़ा था। बाहर से प्रदर्शन कर रहे भाजपा कार्यकर्ता जो पत्थर चला रहे थे, उससे कमरों की खिड़कियों के कांच टूट गए थे, और दिल्ली से आए पर्यवेक्षक को भीतर आ रहे पत्थरों से बचने के लिए एक टेबिल के नीचे शरण लेनी पड़ी थी। हालांकि उस वक्त नरेन्द्र मोदी पार्टी में इतने बड़े नेता नहीं थे, लेकिन भाजपा में कई लोग पिछले बरसों में इस बात को दिल्ली में उठाते रहे हैं। नरेन्द्र मोदी के साथ उस वक्त कमरे में मौजूद छत्तीसगढ़-भाजपा के एक नेता इस पूरे वाकिये के गवाह हैं।
बृजमोहन की महत्वाकांक्षा के पीछे यह बात रही कि मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री बनाए गए शिवराज सिंह चौहान भारतीय जनता पार्टी युवा मोर्चा में बृजमोहन के साथ के नेता थे। साथ-साथ काम किया हुआ था। लेकिन भाजपा ने जो भी समझकर डॉ. रमन सिंह को मुख्यमंत्री बनाया, तो वे ऐसे बन गए कि पार्टी की सत्ता जाने पर ही कुर्सी से हिले, जबकि इस दौरान मध्यप्रदेश में भाजपा के तीन मुख्यमंत्री बन चुके थे।
लगे हाथों विधायक दल की बात पूरी कर लेना ठीक होगा। सन् 2000 में भाजपा विधायक दल में लखीराम अग्रवाल ने अपने खेमे के नंदकुमार साय को विधायक दल का नेता बनवा दिया। साय बहुत पुराने, खालिस जनसंघ-आरएसएस के नेता रहे, वे आदिवासी भी थे, जो कि कांग्रेस के मुख्यमंत्री अजीत जोगी भी होने का दावा करते थे। नंदकुमार साय एक बड़े नेता इस मायने में भी थे कि वे अविभाजित मध्यप्रदेश में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष भी बनाए गए थे। फिर छत्तीसगढ़ में उन्हें लेकर मजाक में एक नारा चलता था, नंदकुमार साय, लखीराम की गाय। तमाम बातों को देखते हुए साय को नेता प्रतिपक्ष चुन लिया गया था, और जोगी के पहले साल में बृजमोहन पार्टी से निलंबित रहे।
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यह भी बड़ा दिलचस्प है कि जिस वक्त जोगी रायपुर में कलेक्टर थे, उस वक्त बृजमोहन अग्रवाल छात्र नेता थे, और अजीत जोगी के बारे में यह बात मशहूर थी कि वे तमाम छात्र नेताओं को जीप-टैक्सी का परमिट, और गिट्टी क्रशर का लाइसेंस देकर प्रशासन के कब्जे में रख लेते थे, और उस वक्त के बहुत सारे छात्र नेताओं के लिए यह रोजी-रोटी जुट गई थी। अब बृजमोहन की जीप-टैक्सी या क्रशर किसी को याद नहीं है, लेकिन मुख्यमंत्री अजीत जोगी से बृजमोहन के संबंध बहुत अच्छे थे, लेकिन यह कहते हुए यह कहना भी जरूरी है कि किसी गैरभाजपाई दल में किसी नेता से बृजमोहन के संबंध खराब नहीं थे, भाजपा के भीतर ही उनका कुछ मनमुटाव था, और कुछ मुकाबला था।
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2000 में पार्टी से निलंबित होने के बाद जब 2003 में विधानसभा चुनाव में जोगी की कांग्रेस को टक्कर देने की बात आई, तो निलंबन ताजा-ताजा था। बृजमोहन भाजपा में ले तो लिए गए थे, लेकिन शीशे में आई दरार भरी नहीं थी। इसलिए पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाने के लिए उनका नाम सोचने का सवाल ही नहीं उठता था। पार्टी में दफ्तर वैसे गंभीर तोडफ़ोड़ की घटना को राष्ट्रीय स्तर पर भी बहुत गंभीरता से लिया गया था, और छत्तीसगढ़ के भाजपा के सबसे अच्छे चुनाव रणनीतिकार होते हुए भी बृजमोहन की कोई संभावना उस वक्त नहीं बनी। रमेश बैस के बारे में लिखते हुए इसी जगह लिखा भी था कि जब दिल्ली में उन्हें अटल सरकार में राज्यमंत्री रहते हुए प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बनने का प्रस्ताव दिया गया, तो उन्होंने साफ-साफ मना करके मंत्री रहना तय किया। उस वक्त रमन सिंह उसी दर्जे के केन्द्रीय राज्यमंत्री का पद छोडक़र राज्य में आ गए, और अपार ताकतवर दिख रहे अजीत जोगी के मुकाबले एक कमजोर दिखती भाजपा के अध्यक्ष बने, और पार्टी को सत्ता तक लेकर आए।
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रमन सरकार में बृजमोहन का बड़े मंत्री बनना तो तय था क्योंकि वे डॉ. रमन सिंह के मुकाबले भी वरिष्ठ विधायक थे, और भोपाल से रायपुर आते हुए जब बृजमोहन कुछ बार के विधायक हो चुके थे, और रमन सिंह हारे हुए विधानसभा उम्मीदवार थे, तो ट्रेन में रमन सिंह को ऊपर की बर्थ पर जाना पड़ता था, और बृजमोहन, उनके दोस्त नीचे की बर्थ पर सोते थे। खैर, मंत्रिमंडल तो किसी भी पार्टी का हाईकमान से तय होता है, और बृजमोहन अग्रवाल मंत्री बनाए गए। लेकिन इसके बाद के कई दिलचस्प मोड़ हैं, जिनको लिखने के लिए आज वक्त कम पड़ेगा, इसलिए वे तमाम बातें कल की किस्त में। जैसा कि टीवी पर कहा जाता है, कहीं जाईयेगा मत, हम जल्द लौटकर आ रहे हैं, कल इसी जगह राह देखिए।
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-सुनील कुमार
-श्रवण गर्ग
हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि बीमारी और मौतों के तेज़ी से बढ़ते हुए आँकड़ों से लोगों ने अब डरना बंद कर दिया है। हालात पहले के इक्कीस दिनों के मुक़ाबले इस समय ज़्यादा ख़राब हैं पर जैसे-जैसे आँकड़ों का ग्राफ़ ऊँचा हो रहा है ,ख़ौफ़ भी कम होता जा रहा है। कारण कुछ भी हो सकते हैं। एक यह भी कि लोग अब जीना चाहते हैं और उसके लिए अपने आप को बदलने का इरादा भी रखते हैं। यह इरादा लोगों की बदली हुई आवाज़ों और चाल-ढाल में नज़र भी आने लगा है।
लोगों को अच्छे से अंदाज़ा है कि वर्तमान महामारी ने व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र और एक विश्व नागरिक के रूप में सभी को किस कदर बदलकर रख दिया है, अंदर से निचोड़कर भी।हमें पता ही नहीं चल पाया कि पिछले पाँच महीनों के दौरान हम कितने बदल चुके हैं, प्रत्येक पल कितने और बदल रहे हैं। आगे आने वाले साल हमें संवेदनशीलता के स्तर पर और कितना परेशान करने वाले हैं। हमें महसूस होने लगा था कि एक व्यक्ति के रूप में स्वयं की उपस्थिति और निरंतरता के प्रति हम अपना आत्मविश्वास खोते जा रहे हैं। मास्क की अनिवार्यता के अनुशासन ने हमारे चेहरों से गुम हुई मुस्कुराहटों को तो दबा ही दिया हमारे प्राकृतिक तनावों को भी सार्वजनिक होने से प्रतिबंधित कर दिया। ऐसा इसलिए हुआ कि सब कुछ अचानक ही हो गया। एक राष्ट्र के तौर पर हम केवल सीमाओं पर ही युद्धों को लड़ने की सैन्य तैयारियाँ करते रहे और कल्पना में भी नहीं सोचा कि कोई युद्ध ऐसा भी हो सकता है जिसे नागरिकों और समाजों को ही अपने स्तरों पर ही लड़ना होगा।
अच्छी बात यह है कि कोरोना को अब हमने एक बीमारी, वेंटिलेटर की भयावहता, पीपीइ किट की घुटन और किसी जादुई वैक्सीन की तुरंत ज़रूरत से बाहर निकलकर नए संदर्भों में देखना प्रारम्भ कर दिया है। ये संदर्भ, एक नौकरी, अर्थ व्यवस्था, रोज़गार धंधे, बच्चों के भविष्य से जुड़े हुए हैं। हमने हक़ीक़त का तो पहले तीन सप्ताहों की समाप्ति के बाद ही अंदाज़ा लगा लिया था और यह भी समझ लिया था कि आने वाले समय में हमारे और समाज के जीने की पद्धति वह नहीं हो सकती जो कि हमारी आदत गई है।
कोरोना ने हमें इतने दिनों में परिवार के स्तर पर ज़िंदगी जीने के जिस सकारात्मक तरीक़े से संस्कारित किया है उसके कारण हम अपनी वर्तमान शासन व्यवस्था के गुण-दोषों, उसकी कमियों और उसकी सीमाओं के प्रति और भी ज़्यादा शिक्षित और सतर्क हो गए हैं। व्यवस्था की क्षमताओं के प्रति हमारा अतिरंजित आत्मविश्वास भी तिरोहित हो गया है। हो सकता है ये सब अनुभव हमें एक बेहतर नागरिक, सामाजिक प्राणी और विश्व नागरिक बनने में मदद करें।
कोरोना के कारण हुआ सबसे बड़ा परिवर्तन यह है कि जो दुनिया हमारी नज़रों में पहले लगातार छोटी हो रही थी, वह अचानक से बड़ी होती जा रही है। व्यक्तियों के बीच दो गज़ की दूरी का विस्तार राष्ट्रों के बीच भावनात्मक और भौगोलिक सीमाओं के संदर्भों में भी हो रहा है। हो सकता है कि इन सब बदलावों के कारण व्यक्ति और राष्ट्र के रूप में हमें अपने आपको पहले से कहीं ज़्यादा आत्मनिर्भर और ताकतवर बनाना पड़े। अपनी तात्कालिक या अल्पकालिक तकलीफ़ों और दुःख-दर्दों को दीर्घकालिक सम्पन्नता में परिवर्तित करने का अब यही एकमात्र रास्ता भी बचा है। यह भी मुमकिन है कि हम सब यह सम्पन्नता अपने जीवन के नज़दीक के कालखंड में नहीं देख पाएँ।
इतना तो अब तय हो गया है कि हमारी नियति अब पीछे मुड़कर जो छूट गया है या छूटता जा रहा है उसे देखते रहने की नहीं हो सकती। हमें अब आगे की ओर ही देखना पड़ेगा। परिवर्तन की इस यात्रा के दौरान हम जो कुछ भी देख या समझ पा रहे हैं वह किसी नई भाषा को कानों से पढ़ने और उसके संगीत को आँखों से सुनने जैसा है। सुखद यह है कि इस कठिन यात्रा में हम अकेले नहीं हैं। सारी दुनिया में भी एक ही समय पर यही सब कुछ हो रहा है। राष्ट्रों के बीच अब फ़र्क़ केवल बीमारी से संक्रमित होने वाले लोगों की काम-ज़्यादा संख्या और होने वाली मौतों के आँकड़ों का ही रह गया है।लड़ाई अब केवल वैक्सीन की खोज के ज़रिए ही महामारी पर विजय पाने के प्रयासों से काफ़ी आगे बढ़ गई है। सबसे अच्छी बात यह है कि हमने इस नई हक़ीक़त को स्वीकार कर लिया है और अपने आसपास नई उम्मीदों के संकेत भी हमें दिखाई पड़ने लगे हैं।
दो दिन पहले राजनांदगांव से दोस्त संजय अग्रवाल ने शरद कोठारी जी पर केंद्रित किताब के छपने की सूचना के साथ उसमें संकलित मेरे संस्मरण की तस्वीर खींचकर भेजी। शरद कोठारी छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के लोगों के लिए जाना पहचाना नाम है। 1950 के दशक में अविभाजित मध्य प्रदेश की राजधानी नागपुर में कॉलेज की पढ़ाई के दौरान वह गजानन माधव मुक्तिबोध के संपर्क में आए थे। संभवत: पढ़ाई के दौरान ही वह मुक्तिबोध के साथ नया खून अखबार से भी जुड़ गए थे। 1958 में जब राजनांदगांव रियासत की पूर्व महारानी सूर्यमुखी देवी ने शहर में कॉलेज शुरू करने का इरादा जताया तो नांदगांव शिक्षण समिति का गठन किया गया, जिसमें बुद्धिजीवी, साहित्यकार, वकील इत्यादि शामिल थे। बताते हैं कि उसी दौरान पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, बल्देव प्रसाद मिश्र के साथ ही मुक्तिबोध को इस कॉलेज से जोडऩे का फैसला किया गया। मुक्तिबोध को राजनांदगांव लाने में शरद कोठारीजी की बड़ी भूमिका थी। खुद कोठारीजी ने 1956 में सबेरा के नाम से एक पाक्षिक शुरू किया, जिसे बाद में सबेरा संकेत के नाम से दैनिक कर दिया गया। 1987-88 में कॉलेज की पढ़ाई करने के बाद मैंने भी सबेरा संकेत में करीब तीन महीने तक काम किया था। इसी 14 अगस्त को वे 85 वर्ष के हो जाते। गणेशशंकर शर्माजी ने कई वर्षों के परिश्रम और समर्पण के साथ उन पर यह संस्मरण ग्रंथ तैयार किया है। यह कहने में संकोच नहीं है कि मेरे पिता रविभूषण ठाकुर के सहपाठी और मेरे बड़े बाबूजी (ताऊ जी) के प्रिय शिष्यों में शुमार रहे शरद कोठारी जी की कालांतर की पत्रकारिता से कुछ असहमतियां रही हैं। मगर सबेरा संकेत एक समय राजनांदगांव की धडक़न हुआ करता था...। करीब चार वर्ष पहले मैंने यह संस्मरण लिखा था, तबसे बहुत कुछ बदल गया है.... आदरणीय शरद कोठारीजी को नमन....
-सुदीप ठाकुर
अभी बर्लिन की दीवार का गिरना बाकी थी। मिखाइल गोर्बाचेव के पेरेस्त्रोइका और ग्लासनोस्त का उत्तर अध्याय शुरू नहीं हुआ था। सोवियत संघ का टूटना बाकी था। आर्थर डंकल के मसौदे पर संघर्ष जारी था। दुनिया भर में विश्व व्यापार मंच (डब्ल्यूटीओ) अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ), विश्व बैंक (वल्र्ड बैंक) जैसी शब्दावलियों को बोलचाल का हिस्सा बनना बाकी था। नर्मदा बांध के खिलाफ मेधा पाटकर का अनथक संघर्ष जारी था। अंतत: इस लड़ाई को बांध की ऊंचाई तक सिमट जाना बाकी था। बी पी मंडल की सिफारिशों पर अमल बाकी था, और सोमनाथ से अयोध्या तक आडवाणी की रथयात्रा का निकलना बाकी था। अभी पी वी नरसिंह राव और मनमोहन सिंह की जोड़ी का देश को आर्थिक उदारीकरण के उस हाई वे पर ले जाना बाकी था, जहां से लौटने का कोई रास्ता दूर-दूर तक नजर नहीं आता था!
1980 के दशक के आखिरी वर्षों में ऐसे ही घटनाक्रमों की पृष्ठभूमि में 1987-88 में मैंने कॉलेज की पढ़ाई पूरी की थी। भविष्य को लेकर तस्वीर बहुत साफ नहीं थी। रायपुर में एकाध नौकरी भी कर ली थी, मन लगा नहीं सो छोड़ आया था।
तारीख याद नहीं, शायद सितंबर का महीना था, जब मैं राजनांदगांव के रामाधीन मार्ग स्थित सबेरा संकेत के दफ्तर पहुंच गया था। सुबह का समय था। शरद कोठारीजी सामने ही बैठे अखबार पलट रहे थे। मैंने कहा, आपके अखबार में काम करना चाहता हूं। थोड़े से औपचारिक सवालों के बाद उन्होंने कहा, कब से शुरू करोगे। मेरा जवाब था, जब आप कहें। बस उसी वक्त सबेरा संकेत की नौकरी शुरू हो गई। मैंने शायद तीन महीने भी सबेरा संकेत में काम नहीं किया था। लेकिन किसी अखबार के दफ्तर में काम करने का यह मेरा पहला अनुभव था।
शरद कोठारीजी पर कुछ लिखने के लिए मैं खुद को योग्य इसलिए नहीं पाता क्योंकि सिर्फ उम्र, ही नहीं, अनुभव के लंबे फासले के साथ ही वह मेरे दिवंगत पिता रविभूषण ठाकुर के स्कूल (स्टेट हाई स्कूल) के सहपाठी भी थे।
शरद कोठारीजी और सबेरा संकेत दरअसल एक ही सिक्के के दो पहलू कहे जा सकते हैं। हालांकि उनके व्यक्तित्व का यह सिर्फ एक आयाम था। सच यह है कि मैं राजनांदगांव की उस पीढ़ी से ताल्लुक रखता हूं जो उस दौर में बड़ी हुई, जब कोई कुछ भी हासिल कर लेता था, तो उसकी प्रामाणिकता तब तक संदिग्ध होती थी, जब तक कि वह सबेरा संकेत में नुमाया न हो जाए! सबेरा संकेत के दूसरे और आखिरी पन्ने में न जाने कितने लोगों को ‘नगर का गौरव’ होने का सौभाग्य मिला। राजनीतिक आंदोलन हो, साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियां हो या किसी की पीएचडी पूरी हो, यदि उसकी खबर सबेरा संकेत में न छपे तो मानो उस पर कोई यकीन ही न करे। किसी कस्बानुमा शहर से निकलने वाले अखबार की ऐसी विश्वसनीयता बहुतों को हतप्रभ कर सकती है।
पिछले दिनों विधानसभा चुनावों के दौरान केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम से चुनाव लड़ रहे क्रिकेटर श्रीसंत ने एक साक्षात्कार के दौरान मुझसे कहा था कि अब वे अखबार पढऩे की शुरुआत स्पोर्ट्स पेज के बजाय फ्रंट पेज से करते हैं। मुझे लगता है कि सबेरा संकेत के आखिरी और दो नंबर पेज (मुझे पता नहीं कि अब इसका प्रोफाइल किस तरह का है) से शुरुआत करने वाले लोग अधिक होंगे, क्योंकि उसमें नगर से संबंधित खबरें छपती हैं। यह एक शहर से एक अखबार के जुड़ाव का सबसे बड़ा प्रमाण है। मैं खुद इसके अंतिम पृष्ठ का एक सजग पाठक रहा हूं। सबेरा संकेत के पाठकों को शरद कोठारीजी का आखिरी पेज पर छपने वाला कॉलम नगर दर्पण भी याद होगा। नगरवासी के नाम से लिखा जाने वाला यह कॉलम सिर्फ उनकी रोचक भाषा-शैली ही नहीं, बल्कि शहर की नब्ज पर उनका हाथ होने का भी प्रमाण था।
जैसा कि मैंने शुरू में कहा कि मैं उस दौर में पत्रकारिता में आया जब नई आर्थिक नीतियां लागू नहीं हुई थीं। 1991 के बाद उदारीकरण की प्रक्रिया लागू होने के बाद पत्रकारिता का भी पूरा परिदृश्य बदल गया। सबेरा संकेत की सबसे बड़ी सफलता यही है कि उस दौर में जब बड़े शहरों और राजधानियों से निकलने वाले अखबारों ने अपना कलेवर बदल लिया, जिला और तहसील स्तर तक के परिशिष्ट अलग से निकालने लगे तब भी वह कायम है।
दुनिया भर में अखबारों के भविष्य को लेकर बहसें हो रही हैं। पश्चिम के अमीर देशों में अखबारों का मर्सिया तक पढ़ा जा रहा है। अमेरिका का प्रतिष्ठित अखबार ‘न्यूयॉर्क टाईम्स’ का हाल यह है कि आज वह दुनिया भर में अपना कंटेंट बेचने को मजबूर हो गया है। उसकी सिंडिकेट सेवा हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को अपना माल बेचने को मजबूर हो गई है। हालांकि भारत में परिदृश्य अभी इतना भयावह नहीं है। यहां आज भी अखबार फल-फूल रहे हैं, बेशक यह सवाल उठ सकता है कि उसमें से कितने ‘पीत’ और ‘प्रीत’ पत्रकारिता कर रहे हैं।
पत्रकारिता के सामने असल चुनौती अब गति की है। खबरिया टीवी चैनलों की चुनौतियों को तो अखबारों ने झेल लिया, लेकिन वेब पत्रकारिता और खासतौर से मोबाइल फोन पर खबरों के सिमट आने की वजह से मुश्किलें आने वाले समय में बढ़ेंगी। पूंजी भी अपने साथ चुनौतियां लेकर आ रही है। वह अखबारों को अपनी प्रतिबद्धताओं से दूर कर रही है?
तब रास्ता क्या होगा? तब सबेरा संकेत जैसे क्षेत्रीय अखबारों के लिए संभावनाएं बढ़ेंगी।
कुछ वर्ष पूर्व मुझे दिल्ली में हुए वान आइफ्रा (वल्र्ड एसोसिएशन ऑफ न्यूज पेपर्स ऐंड न्यूज पब्लिसर्श) के एक सम्मेलन और कार्यशाला में हिस्सा लेना का मौका मिला था। यह सम्मेलन युवा पाठकों पर केंद्रित था। वहां ब्राजील से निकलने वाले एक अखबार जीरो होरा (यानी जीरो ऑवर) की एक संपादक एंजेला रावाजोलो ने एक रोचक किस्सा बताया था। उसने बताया कि एक विश्व कप फुटबॉल के दौरान अर्जेंटीना और ब्राजील के बीच मुकाबला था। जीरो होरा ने फ्रंट पेज पर अर्जेंटीना की टीम की जर्सी का फोटो लगाया और कैप्शन लिखा, अर्जेंटीना के लिए चियर्स मत करना! और यह मैच ब्राजील जीत गया।
पाठकों से ऐसा जुड़ाव ही तो अखबार की ताकत है। सबेरा संकेत तो यह काम कर ही रहा है।
आज का संवाद एक कहानी से शुरू करते हैं। किसान को एक बार बहुत नुकसान उठाना पड़ा। वह पहले दुखी हुआ फिर नाराज। अपने ईश्वर पर। अपने कच्चे मकान के पास खड़े होकर उसने तेज आवाज में ईश्वर को ललकारते हुए कहा, तुमको खेती करना नहीं आता। समय पर पानी नहीं देते। बेमौसम बारिश करते हो। खड़ी फसल पर ओले फेंकते हो। पहले से फसल को मार देते हो। ऐसा लगता है तुम्हें खेती का बिल्कुल भी अनुभव नहीं है!
कहानीकार के अनुसार ईश्वर भी किसान से उतना ही प्यार करते थे, जितना किसान स्वयं ईश्वर से। प्यार हमेशा दोनों तरफ से होता है। वह दोनों ओर से नहीं है, तो उसे प्रेम की जगह कुछ और कहना चाहिए! किसान के ईश्वर ने उसकी चुनौती स्वीकार कर ली। ईश्वर ने उससे कहा, जैसा तुम चाहते हो, वैसा ही होगा। कहते जाओ, होता जाएगा! किसान को खेती का लंबा अनुभव था। उसने पूरी तैयारी की। एकदम सही मात्रा में पानी। सही मात्रा में धूप। उचित समय पर खाद और खरपतवार की सफाई सही समय पर। कहीं कोई गलती नहीं। उसने बेमौसम बारिश चाही नहीं, पाला चाहा नहीं। कीड़े-मकोड़े और दूसरे संकट फसल से दूर ही रहे। फसल ऐसे लहलहाने लगी कि किसान के आनंद का कोई ठिकाना न रहा। उसने अपने मित्रों से कहा भी, खेती करने का अनुभव काम आ रहा है, देखो।
जब फसल काटने के दिन आने लगे तो किसान का सीना गर्व से चौड़ा हो गया। उसने समय पर फसल की कटाई के लिए पूरे गांव को इक_ा कर लिया। फसल हुई ही बहुत जोरदार थी। लेकिन यह क्या! फसल काटने को किसान खेत में दाखिल हुआ, तो देखता है कि बालियों में गेहूं अधपका है। फसल बाहर-बाहर तो ठीक दिख रही थी, लेकिन भीतर से ठीक तरह से पकी नहीं थी। गेहूं विकसित ही नहीं हो पाया था। किसान ने नाराजगी से ईश्वर की ओर देखा। ईश्वर ने आकाशवाणी की, फसल केवल सही चीजों का मिश्रण नहीं है। फसल के होने में प्रतिकूल मौसम से उसका संघर्ष भी शामिल है। फसल के पकने में कीड़े-मकोड़ों से लोहा लेना और खराब मौसम का सामना भी शामिल है। पाला भी शामिल है और खराब मौसम की आहट की घबराहट भी। फसल इससे तैयार होती है, मित्र! जैसे तुम्हारा जीवन है वैसे ही फसल है!
किसान इस बात को समझ गया कि फसल क्या है! जीवन क्या है। उसकी सुंदरता क्या है। जो जीवन का रहस्य समझ जाते हैं, वह जीवन के प्रति नाराज नहीं होते। उसके प्रति आभारी रहते हैं। सदैव कृतज्ञ रहते हैं। गलतियां जीवन को दिशा देने, सुंदर बनाने के लिए जितना काम करती हैं, उतना कोई भी दूसरा हमारे लिए नहीं कर सकता।
कृतज्ञता का सिद्धांत अनूठी जीवनशैली है। इस पर विस्तार से हम अगले अंकों में बात करेंगे। अभी तो केवल इतना ही कि हमें शिकायत करते हुए जीने की जगह कृतज्ञता के साथ जीने का अभ्यास करना चाहिए। प्रकृति और जीवन ने हमें जो दिया है, वह आनंद से भरा है। अगर कोई कमी है, तो वह हमारी सोच के पत्थर हैं। उन पत्थरों पर कोमलता के फूल खिलाने हैं। जिंदगी एक उजाला है। गलतियां उजाले की सहयात्री हैं। गलतियों के बिना जीवन संभव नहीं।
अनुभव और गलती/भूल साथ साथ चलने वाली जीवन क्रियाएं हैं। अगर कोई कहता है कि उसने अब तक जीवन में कोई गलती नहीं, तो उसका सरल अर्थ यही है कि उसका अब तक का जीवन जड़ है। उसमें गति नहीं। जहां गति नहीं है, वहां गलतियां भी नहीं होंगी। गलतियों के लिए गति का होना बहुत जरूरी है। जो अपने फैसले खुद नहीं करते। मनुष्य होने के गुण न पहचानते हुए चेतना से दूर मानसिक गुलामी में रहते हैं, ऐसे लोग कभी कोई गलती नहीं करते। जिंदगी का सौंदर्य घुमावदार, पर्वताकार रास्तों के बिना अपूर्ण है! गलतियों के बिना अधूरा है! गलतियों के बिना अधूरा, असुंदर है!
-दयाशंकर मिश्र
कल इसी जगह कॉमरेड सुधीर मुखर्जी की यादों को लिखने के बाद रात तक लोगों के संदेश आते रहे। उनमें से एक, सीपीएम के संजय पराते ने दादा के बारे में किसी और का लिखा हुआ एक लेख भेजा जो कि अंग्रेजों के खिलाफ बगावत में दादा की हिस्सेदारी बताता है। यह कोई फर्जी दावा नहीं है, बल्कि अंग्रेज पुलिस, अदालत, और जेल के रिकॉर्ड की चीजें हैं। यूं तो आज इस जगह मुझे किसी के बारे में लिखना चाहिए था, लेकिन सुधीर दादा के बारे में जिन तथ्यों को मैंने अपनी याद की शक्ल में नहीं लिखा, वे भी यहां देना बेहतर इसलिए होगा कि लोगों को मेरी लिखी बातों से परे उनके बारे में, और आजादी की लड़ाई में छत्तीसगढ़ के एक महत्वपूर्ण इतिहास के बारे में जानकारी मिलेगी। यह अनायास ही हो रहा है कि तीन दिन बाद स्वतंत्रता दिवस रहेगा, और आजादी की लड़ाई का यह पन्ना यहां देने का मौका मिल रहा है। यादों का आज का यह झरोखा मेरा देखा हुआ नहीं है, बल्कि फेसबुक पर कोसल कथा पेज पर शुभम थवाईत ने लिखे हैं, और उन्होंने इसके साथ यह भी लिखा है- लेख के तथ्य ‘छत्तीसगढ़ गौरव गाथा’ हरि ठाकुर की किताब से लिए गए हैं। तो कुल मिलाकर आज मेरे इस कॉलम में हरि ठाकुर की यादें, शुभम की कलम से।
रायपुर षडय़ंत्र केस और परसराम सोनी।
कहानी रायपुर के उन क्रांतिकारियों की जिनके साथ उनके अपने ने गद्दारी न की होती तो आज शहर का इतिहास कुछ और ही होता।
कहानी शुरू करते हैं सन् 1940 के अंत से जब परसराम सोनी चार सालों के निरंतर प्रयोग से कारतूस, बम और रिवाल्वर बनाने की विधा में निपुण हो गए थे।
परसराम सोनी घर पर ही रिवाल्वर, गोलियां व गन कटान से नाइट्रिक ग्लिसरीन बनाते। उन्होंने कई प्रकार के बम बनाना खुद ही ईजाद कर लिया था, जैसे टाइम बम, क्लोरोफॉर्म बम, आग लगाने व धुआं पैदा करने वाले बम। उन्होंने पोजीशन बम भी बनाया था, जो कितने भी समय तक एक स्थिति में रखा जाए नहीं फूटता, पर थोड़ी भी स्थिति बदली कि विस्फोट। इससे फायदा यह था कि प्रयोगकर्ता को मौके पर रहने की आवश्यकता नहीं होती थी।
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परसराम सोनी लिखते हैं- दिक्कत या कमी सिर्फ पैसों की ही थी और यही अड़चन आगे चलकर दल के लिए घातक सिद्ध हुई। हमें आर्थिक मदद के लिए दूसरों के पास जाना पड़ता, उद्देश्य बताना पड़ता और वक्त पडऩे पर थोड़ा चमत्कार भी दिखाना पड़ता। तब कहीं मदद तो मिलती पर कौतूहलवश वह उसकी जानकारी दूसरों को भी दे देता था। इस तरह बहुतों को मालूम हो गया कि सरकार विरोधी खतरनाक गतिविधयां चल रही हंै।
सारी गतिविधियों को चलाने वाले संगठन में निखिल भूषण सूर, सुधीर मुखर्जी, लाल समरसिंह बहादुर देव, प्रेम वासनिक, रणवीरसिंह शास्त्री, कुंजबिहारी चौबे, दशरथलाल चौबे शामिल थे। संगठन की शक्ति बढ़ाने और परिचय बढ़ाने में यह सावधानी बरती गई कि अन्य साथियों का नाम, पता हर एक को मालूम न हो सके, ताकि गिरफ्तारी हो जाए तो दूसरों का नाम-पता पुलिस तक न पहुंचे।
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सरकार को भी इस संगठन का आभास हो चुका था। उन्होंने सन् 1941 के आरंभ में सेंट्रल इंटेलिजेंस का एक अधिकारी भेजा, पर वह असफल रहा और एक अंदाज़ी रिपोर्ट देकर चला गया। फिर 1942 के अंत में सेंट्रल ने एक मशहूर खुफिया अधिकारी नरेंद्र सिन्हा को भेजा, छ: महीने तक उसने तमाम कोशिशें कीं, उसे भी कुछ न मिला। पर बचपन का दोस्त गद्दार निकला सरकार के सामने वह बिक गया, परसराम एक धोखे का शिकार हुए वो भी उनके दोस्त शिवनन्दन से।
शिवनन्दन, परसराम के बचपन का दोस्त जिस पर उन्हें थोड़ा भी संदेह नहीं था। शिवनन्दन कुछ चांदी के टुकड़ों या पेटपालू नौकरी के लिए विश्वासघात कर बैठा। परसराम से एक ही और अंतिम गलती हुई कि उन्होंने शिवनन्दन को 14 जुलाई (1942) की रात जाहिर कर दिया था कि मैं छ: फायर का एक रिवाल्वर कल गिरिलाल से लेने वाला हूं। और यह बात शिवनन्दन ने पुलिस तक पहुंचा दी।
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दिन था 15 जुलाई, परसराम सुबह के भोजन की तैयारी में थे तभी शिव आ गया। भोजन छोड़ परसराम शिव के साथ सायकल से गिरिलाल के घर निकल पड़े। गिरिलाल, प्रभुलाल पतिराम बीड़ी वाले के बाड़े में किराए से रहते थे, परसराम ने उनसे एक रिवाल्वर और तीन कारतूस लिए और वापस हुए। लौटते वक्त एडवर्ड रोड और लखेर ओली तिगड्डे पर साइकल रोककर शिवनन्दन एडवर्ड रोड से ही चलने को कहने लगा, मानो जि़द करने लगा।
सदर वाली सडक़ पर ताराचंद कांतिलाल सराफ के दुकान में नरेन्द्र सिन्हा और उसके सहायक समीदा, सिटी इंस्पेक्टर व अंग्रेज़ डीएसपी छुपकर परसराम का इंतजार कर रहे थे। शिव ने मोड़ पर घंटी बजाई, वैसे ही दोनों ओर से पुलिस परसराम पर टूट पड़ी। तलाशी हुई और पुलिस को उनसे रिवाल्वर मिला, गोलियां उन्होंने चालाकी से पास की नाली में फेंक दी थी।
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अपनी गिरफ्तारी से परसराम चौंक गए, इतनी सावधानी के बाद भी पकड़ में आ जाना उन्हें स्वीकार नहीं हो रहा था। शिवनन्दन पर उन्हें संदेह हुआ, इस बात की पुष्टि के लिए हवालात में उन्होंने शिवनन्दन के कानों में यह बता दिया कि गोली कहां फेंकी है। फिर हुआ ये कि थोड़ी ही देर में सदर बाज़ार की नालियों से तीन गोलियां बरामद कर ली गईं और परसराम की संदेह की पुष्टि हो गई।
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शिवनन्दन की सूचना पर परसराम सोनी के घर की तलाशी हुई, बैटरी बनाने के पाउडर को बारूद समझ पुलिस उसे ले गई और उनके हाथ कुछ न लगा क्योंकि संगठन के नियमानुसार पिछली ही रात सारा सामान होरीलालजी के यहां रखवा दिया गया था। जिसे परसराम की गिरफ्तारी के बाद होरीलाल ने भी कहीं और ठिकाने लगा दिया। पुलिस की तलाशी असफल रही उन्हें केवल कुछ पत्र बरामद हुए जिससे कुछ साथियों के पते पुलिस को मालूम हुए। शिवनन्दन पुलिस का गवाह बन गया, गिरिलाल को भी पुलिस ने पकड़ लिया साथ में डॉ. सूर, मंगल मिस्त्र, कुंजबिहारी चौबे, दशरथलाल चौबे, सुधीर मुखर्जी, देवीकान्त झा, होरीलाल, सुरेन्द्र दास, क्रान्तिकुमार भारतीय, कृष्णराव थिटे, सीताराम मिस्त्री, भूपेंद्रनाथ मुखर्जी, व प्रेम वासनिक भी गिरफ्तार किए गए और दूसरे दिन एडीएम की अदालत में पेश किये गए।
नौ माह तक मुकदमा चला, आईपीसी की धारा 120ब, 302, 395, 19 अ,ब,स,ड,फ, आर्म्स एक्ट तथा एक्सप्लोसिव सबस्टेन्स की धारा, 5 डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स की धारा 34 एनपी, 35 तथा 38 के अंतर्गत मुकदमा चलाया गया। यह मुकदमा एडीएम केरावाला की अदालत में चला, अभियुक्तों की ओर से एम.भादुड़ी, पी. भादुड़ी, चाँदोरकर, पेंढारकर, अहमद अली, बेनीप्रसाद तिवारी और चुन्नीलाल अग्रवाल ने पैरवी की। वहीं सरकार को कोई वकील ही नहीं मिला, तब बाहर से वकील लाकर सरकार ने मुकदमा लड़ा। मुकदमे में छ: विशेषज्ञों के बयान लिये गए, कुल 171 गवाह और 130 डॉक्यूमेंट पुलिस ने पेश किए।
27.04.1943 को अदालती नाटक खत्म हुआ, अंग्रेजों के सबूत कितने ही कमजोर क्यों न हों सज़ा ज़रूर कड़ी दी जाती थी। बेनिफिट ऑफ डाउट अभियुक्त को नहीं पुलिस को मिलता था, ब्रिटिश न्याय के अनुसार गिरिलाल को 8 वर्ष, परसराम को 6 वर्ष, भूपेंद्र मुखर्जी को 3 वर्ष, क्रान्तिकुमार और सुधीर मुखर्जी को 2-2 वर्ष, दशरथलाल चौबे, देवीकान्त झा, सुरेन्द्रनाथ दास प्रत्येक को 1-1 वर्ष, मंगल मिस्त्री को 9 माह तथा कृष्णाराव थिटे को छ: माह की सज़ा सुनाई गई। सूर भाइयों और कुंजबिहारी चौबे पर आरोप सिद्ध नहीं हो सके, पर डॉ. सूर को डीआईआर के तहत जेल में ही रखा गया।
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नागपुर हाईकोर्ट में अपील करने पर जस्टिस नियोगी ने भूपेन्द्र मुखर्जी, सुधीर मुखर्जी, थिटे और देवीकान्त को आरोप मुक्त कर दिया। वहीं परसराम ने अपील करने से इंकार कर दिया।
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मई 1946, जयदेव कपूर का रायपुर आगमन हुआ। ये वही थे जिन्होंने भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के लिए असेंबली में बम फेंकने हेतु बमों का प्रबंध किया। गांधी चौक की आम सभा में उन्होंने परसराम को रिहा करने की मांग रखी। मुख्यमंत्री पं. रवि शंकर शुक्ल से नागपुर जाकर क्रान्तिकुमार और सुधीर मुखर्जी ने गिरिलाल और परसराम के रिहाई के लिए अपील की और 26 जून 1946 को दोनों जेल से मुक्त हुए।
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इस तरह रायपुर में बढ़ रही एक क्रांति का अंत शिवनन्दन की गद्दारी से हुआ, नहीं तो इस शहर का इतिहास कुछ और ही लिखा जाता।
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-सुनील कुमार
-विष्णु नागर
‘शुक्रवार’ समाचार साप्ताहिक के संपादक बनने का प्रस्ताव तब आया, जब कादम्बिनी तथा नई दुनिया के बाद मैं घर बैठा था और उम्मीद नहीं थी कि अब कुछ नया करने का अवसर मिलनेवाला है। तभी 2011 के शुरू में-जब मैं चैन्नई कुछ दिनों के लिए गया था मुझे इसके संपादक बनने का प्रस्ताव आया और कहा गया कि मैं जल्दी आऊँ। कारण शायद मौजूदा संपादक को हटाना था, इसलिए यह आपरेशन उन्होंने गुपचुप ढँग से चलाया। मुझे सौदेबाजी करना नहीं आता मगर ठीकठाक प्रस्ताव था, हालांकि इससे पहले जो मिल रहा था, उससे कम था मगर इस बीच मैं घर भी तो बैठा था और एक नई चुनौती भी सामने थी। इसके अलावा शरद दत्त जैसे शुभचिंतक भी बीच में थे, तो मैं तैयार हो गया। तैयार तो हो गया मगर जैसी धुकधुकी ‘कादम्बिनी’ का कार्यभार संभालने के समय थी कि पता नहीं कुछ कर पाऊँगा या नहीं,वैसी ही इस समय भी थी। दैनिक अखबारों में उपसंपादक से लेकर विशेष संवाददाता तक का काम जरूर किया था मगर एक समाचार साप्ताहिक के संपादन की अपनी चुनौतियाँ होती हैं, जिसका किसी भी तरह का कोई पूर्व अनुभव नहीं था।
इधर समाचार साप्ताहिकों का आकर्षण भी कम होता जा रहा था और इंडिया टुडे गु्रप के हिंदी समाचार साप्ताहिक भी एक बड़ी चुनौती था। उनके पास विशाल और जमाजमाया नेटवर्क था। इनके पास भी अपना एक नेटवर्क तो था मगर इंडिया टुडे के मुकाबले कुछ भी नहीं। फर्क यह था कि इंडिया टुडे समूह पत्र पत्रिकाओं के धंधे में ही है और ये एक बिल्डर का साप्ताहिक था। आर्थिक उदारीकरण के बाद के वर्षों में बिल्डरों ने खूब अनापशनाप कमाया था और वे अपना राजनीतिक रसूख बढ़ाने के लिए पत्र- पत्रिकाएँँ निकाल रहे थे। बहरहाल एक बात कहूँ कि यहाँ इस दौरान ऐसा कोई दबाव नहीं आया, सिवाय इसके कि उसकी अपनी कंपनियों के बारे में कुछ सकारात्मक न छपे तो नकारात्मक भी न छपे।वैसे एक दो बार नकारात्मक छप भी गया था।
पिछले संपादक के समय ‘शुक्रवार’ के मालिकान हर तरह के संसाधनों पर काफी खर्च कर चुके थे मगर नतीजा कुछ खास नहीं नहींं निकला था। तो मुझसे वायदे तो बहुत कुछ किए गए थे मगर जमीन पर प्रचार -प्रसार के लिए कुछ खास किया नहीं गया। विज्ञापन और प्रसार में जो निचले पदों पर लोग थे, उनका वेतन बहुत कम था, इसलिए उनमें उत्साह भी अधिक नहीं था। इस बीच आफिस से काम के नाम पर बाहर जाकर कुछ चतुर सुजान कोई और काम भी करते थे। कुछेक प्रभावशाली मैनेजर के मुँह लगे भी थे। उन्हें डाँटने वगैरह का, उनके साथ बैठकें करने का कोई खास लाभ नहीं था। वेतन कम था तो बड़े अधिकारियों से मिलने का उनका साहस भी कम था। खैर फिर भी एक नेटवर्क था और उसी सीमा में रह कर काम करना था।कुछ कहने- सुनने का थोड़ा नतीजा निकलता था- कभी-कभी। कभी निदेशक-प्रबंधक गोलीबाजी भी किया करते थे।
तय यह किया और मेरी जिम्मेदारी भी यही थी कि जो भी कर सकता हूँ, पत्रिका के संपादन में जो भी बेहतरी कर सकता हूँ, उसी पर केंद्रित करूँ मगर जब कई जगहों से यह सूचना आती थी कि गुरुवार या शुक्रवार को बाजार में आने के तीन या चार दिन में ही प्रतियाँ समाप्त हो जाती हैं, पूरे सप्ताह अंक बाजार में नहीं मिलता तो मन दुखता था। कापी बढ़ाने की बात का असर नहीं होता था।
पहली बैठक में मैंने संवाददाताओं-संपादन विभाग के सहकर्मियों से कहा कि कुछ पुराने अंक देख कर लगता है कि यहाँ हर आदमी संपादकीय लिख रहा है। मित्रो, संपादकीय लिखने के लिए मालिकों ने मुझे नियुक्त किया है। आपको संपादकीय नहीं लिखना है बल्कि रिपोर्ट और विश्लेषण लिखना है। जहाँ भेजा जाए या जहाँ जाने का आपका प्रस्ताव मुझे उचित लगे, वहाँ आपको रिपोर्टिग करना है। पुरानी आदत से जूझने में थोड़ा वक्त उन्हें लगा, जो स्वाभाविक था। रिपोर्टर दफ्तर से बाहर जाने लगे। मैं चूँकि। घर से कई अखबार देखकर आता था, इसलिए बैठक में जो भी विषय, तय होता था, उससे संबंधित सहायक सामग्री कहाँ किस अखबार के किस पृष्ठ पर उपलब्ध है, यह एक पर्ची पर लिखकर उनमें हफ्ते भर बँटवाता रहता था, ताकि किसी तथ्य से वे वंचित न रहें। सारे पक्ष सामने आएँ।
संपादन में भी कठोरता बरतनी होती थी। काफी काट-छाँट करनी होती थी, कुछ छूट गई बातें जोडऩा भी होता था। कुछ पुनर्लेखन भी करना होता था। कोई कापी मेरी नजर से गुजरे बगैर नहीं जा सकती थी। अपने संपादकीय में भी मैं बार बार परिवर्तन-संशोधन करता था। बाहर से काफी सामग्री भी मँगवाता था। कुछ तो पूर्व परिचित थे और कुछ लोग समय के साथ लगातार जुड़ते गए और ऐसी-ऐसी रिपोर्टें तथा आलेख भेजने लगे, जिन्हें कहीं और पाना कठिन था। कविता-कहानी हो या रिपोर्टों की मेरे पास कमी नहीं रही कभी बल्कि अधिकता ही रही। साथियों में भी उत्साह था। अच्छा काम करनेवालों की अच्छी वेतन वृद्धि भी मिलती थी। ‘शुक्रवार’ के नाम से उनकी एक पहचान बन रही थी।हिंदी के अधिक से अधिक लेखकों को जोडऩे का प्रयास रहा।उनका सहयोग भी लगातार मिलता रहा।
साप्ताहिक समाचार पत्रिका का संपादन सचमुच एक बड़ी चुनौती है। सप्ताह के आरंभ मेंं जो दृश्य होता है, वह साप्ताहिक के आखिरी कुछ पृष्ठों के प्रेस में जाने तक काफी कुछ बदल चुका होता है।जो सोचा नहीं था, वह सामने आ जाता है और उसी सप्ताह उसका जाना भी जरूरी होता है। कई बार पहले से तैयार कवर स्टोरी बदलनी पड़ती है-एकदम आखिरी मौके पर। प्रेस में जाने तक धुकधुकी रहती थी कि स्टोरी में कुछ जरूरी छूट न जाए। अंत- अंंत तक खबरों पर नजर रखना होता था। मैंने किसी दैनिक का संपादन तो नहीं किया मगर हर घंटे बदलती-बनती खबरों के बीच समाचार साप्ताहिक की चुनौतियाँँ शायद बड़ी होती हैं।
फिर कवर स्टोरी तथा दूसरी स्टोरी सबसे अलग भी हो, सामग्री हर तरह के पाठकों के लिए हो, इस तरफ भी ध्यान रखना होता था। मैं वहाँ था तो साहित्य अच्छा छपे, इसकी भी सबको अपेक्षा रहती थी। फिर मैंने वार्षिक अंक निकालने की भी योजना बनाई थी। मालिकों को उस पर भी काफी खर्च करना होता था। उसका पाठकों में सम्मान बना रहे और आर्थिक घाटे से भी संस्था को बचाया जाए, ताकि निरंतरता बनी रहे, यह चुनौती भी थी।
बहुत काम था और बहुत समर्पण माँगता था मगर यह सब करने में आनंद भी आता था।ऊब और थकावट नहीं होती थी। सहयोगी पहले से थे, उनमें से अधिकांश बहुत अच्छे थे। रईस अहमद लाली मेरे मुख्य सहयोगी थे। वे पूरे समर्पण से काम करते थे। व्यक्ति और इनसान के रूप में भी वह बेहतरीन हैं। उनसे कहा कोई काम रह जाए, यह हो नहीं सकता था। अशोक कुमार इंडिया टुडे से अवकाश के बाद हमारे साथ आ गए थे। उनसे उनकी जिम्मेदारियों के अलावा लिखवाता भी था। उन्हें समय लगता था मगर लिखते अच्छा थे। लिखवाता वैसे सभी सहयोगियों से था। लालीजी से तो अंतिम क्षण में भी लिखवाया है। नरेन्द्र वर्मा और मधुकर मिश्र भी काफी मेहनत करके कुछ नया लाते थे।आरंभिक कठिनाइयों के बाद पूजा मल्होत्रा बहुत साहसिक रिपोर्टर साबित हुई। कहीं जाने में उन्हें डर नहीं। चिंता मुझे होती थी कि दिल्ली के माहौल में उनके साथ कुछ हो न जाए मगर कोई कोशिश करता भी था तो उस आदमी की शामत आ जाती थी। सगीर किरमानी लिखते तो उम्दा थे ही, शराफत में भी लाजवाब हैं। मेरे सचिव वसीम अहमद भी मेहनती थे। वीरेन्द्र शर्मा को खेल जगत में महारत हासिल थी।
कला विभाग के प्रमुख प्रफुल्ल पलसुलेदेसाई को मैंने अपना काम अपनी तरह करने की पूरी छूट दी थी और उन्होंने कभी निराश नहीं किया। हाँ कवर पर क्या कैसे जाएगा, इसमें मेरा हस्तक्षेप आवश्यक था और मैं करता भी था। हाँ एक और निर्देश था कि पृष्ठों की सजावट हो मगर सामग्री की हत्या की कीमत पर नहीं। इस तरह कोई नहीं था, जिसका सहयोग नहीं मिला, चाहे पहले से नियुक्त लोग या स्वतंत्र मिश्र जैसे मेरे बाद जुड़े लोग। वह रिपोर्टिंग भी करते थे, लिखते भी थे। जो सहयोग साथियों का यहाँ मिला, वह पहले कहीं नहीं।
बीच में प्रबंधन के साथ समस्याएँ आती भी थीं और सुलझती भी थीं वरना इस्तीफा देने के लिए तो मैं हमेशा तैयार रहता ही था। अंत तक आते-आते बिल्डर की आमदनी के स्रोत सूखने लगे थे। उनकी कुछ अन्य कंपनियों की गड़बडिय़ाँ सामने आने लगी थीं। अब साप्ताहिक को पाक्षिक बनाने की बात होने लगी थी। बहुतों को रास्ता दिखाने का दबाव आने लगा था, बाहर से लिखनेवालों से न लिखवाने या भुगतान न करने पर जोर दिया जाने लगा था। फिर एक मैनेजर का घमंड भी बहुत बढ़ चुका था। अप्रैल, 2014 के एक मंगलवार की एक शाम काम खत्म करने के बाद निदेशक केसर सिंह से कहा कि अब यहाँँ मेरा रहना कठिन है। इस्तीफा दिया और चला आया। स्टाफ के किसी सदस्य को भी नहीं बताया। जब वे एक दिन के अवकाश के बाद लौटे और शाम तक उसी संस्थान में कार्यरत एक सज्जन आए और स्टाफ को बताया कि आज से वे संपादक हैं। उसी दिन शाम को सारा संपादकीय स्टाफ घर आया और उनके साथ चाय पीने का आनंद उठाया। आज भी छह साल बाद भी कई पुराने साथी भी संपर्क में रहते हैं और मैं भी उनसे संपर्क रखता हूँ।किसी और का अच्छा लिखा छापने का भी रचनात्मक सुख कम नहीं है, शायद अपने लिखे को छापने-छपवाने से ज्यादा।
सही समय पर सही निर्णय हो गया।जिस साप्ताहिक को कुछ बना पाया था, उसी की लाश मैंने अपने कंधों पर नहीं ढोई। अगले कुछ महीनों में उस संस्था के टीवी चैनल समेत सभी काम ठप्प हो गए। वैसे भी मोदी सरकार आ चुकी थी। ज्यादा स्वतंत्रता के साथ काम करना संभव नहीं रह जाने वाला था।
बहरहाल वे सवा तीन वर्ष कुल मिला कर अच्छे बीते। इस बीच जो तीन वार्षिकांक निकले, उनका भी अच्छा स्वागत हुआ। कुछ तो अब भी उन अंकों को याद करते हैं, तो अच्छा लगता है।
छत्तीसगढ़ की जिस पीढ़ी ने कॉमरेड सुधीर मुखर्जी को देखा नहीं है, उसके लिए ऐसे किसी नेता की कल्पना कुछ मुश्किल होगी जो घर से निकले रिक्शेवालों में खींचतान हो जाए कि दादा को आज कौन ले जाएगा। और इससे बड़ी बात यह कि रिक्शेवाले उनसे दिन भर भी घूमने का पैसा नहीं लेते थे, लेकिन दादा आखिर में जाकर उन्हें 25 रूपए देते थे जो कि उस समय के हिसाब से छोटी रकम नहीं होती थी।
सीपीआई के नेता रहे सुधीर मुखर्जी का पूरा काम रायपुर शहर में रहकर हुआ, लेकिन वे पूरे छत्तीसगढ़ और पूरे देश के मामलों पर नजर रखते थे, जमकर बोलते थे, और टाईप किए हुए बयान लेकर कई बार अखबारों के दफ्तर में खुद भी चले जाते थे।
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मैंने जब अखबारनवीसी शुरू की, तो वे दिन सुधीर दादा की ऊंचाईयों के दिन थे। वर्ष 1972 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और सीपीआई के बीच एक तालमेल के तहत एक सीट कांग्रेस पार्टी के लिए छोड़ी गई थी, और जाहिर तौर पर पार्टी के सबसे बड़े नेता होने के नाते सुधीर मुखर्जी उम्मीदवार बने थे, और विधायक बने थे। लेकिन सुधीर मुखर्जी का कद विधायक बनकर बढ़ गया हो ऐसा नहीं है, वे रायपुर शहर, और पूरे छत्तीसगढ़-एमपी के वामपंथियों के बीच दादा के नाम से जाने जाते थे, उसमें विधायक के ओहदे से कुछ जुड़ा नहीं।
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सुधीर मुखर्जी आजादी की लड़ाई में रायपुर जेल में बंद रहे, लेकिन उन्होंने कभी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की पेंशन नहीं ली। विधायक का कार्यकाल पूरा होने के बाद जो पेंशन मिलती थी, वह उन्होंने जरूर ली, और अपनी पार्टी, सीपीआई, के नियमों के तहत उसे पार्टी में जमा करके वहां से जो भत्ता मिलता था, उससे वे काम चलाते थे। शुक्ल बंधुओं के साथ सुधीर मुखर्जी का बड़ा अजीब सा रिश्ता रहा। बूढ़ापारा में जहां रविशंकर शुक्ल का घर था, और जहां श्यामाचरण, विद्याचरण पैदा हुए, उस घर से सौ कदम पर ही सुधीर मुखर्जी रहते थे। शादी की नहीं, मजदूरों के बीच रात-दिन काम किया, तो परिवार के और लोगों के साथ ही रहते चले आए। नागपुर के साईंस कॉलेज में पढ़ते हुए सुधीर मुखर्जी श्यामाचरण के सहपाठी थे, और वहां कॉलेज या यूनिवर्सिटी के छात्रसंघ चुनाव में श्यामाचरण को एक बार आगे चलकर बड़े कम्युनिस्ट नेता बने कॉमरेड ए बी वर्धन ने हराया, तो दूसरे बरस सुधीर मुखर्जी ने।
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आजादी की लड़ाई के दौरान जेल काटने के बाद जब दादा बाहर निकले, तो उन्होंने रिक्शा-तांगा यूनियन बनाई, और सफाई कर्मचारी संघ बनाया। ये दोनों मजबूत संगठन थे, और हक की लड़ाई के लिए दादा की अगुवाई में आंदोलन करते थे, मांगें भी पूरी करवाते थे।
उनको जानने वाले लोग बताते हैं कि जब भारत में कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन हुआ तो सुधीर मुखर्जी शुरू से ही सीपीएम में जाना चाहते थे, लेकिन उनके सहपाठी कॉमरेड वर्धन सीपीआई में गए, और छत्तीसगढ़ के अधिकतर कम्युनिस्ट सीपीआई के साथ रहे, इसलिए मन मारकर सुधीर मुखर्जी सीपीआई में गए। यह एक अलग बात है कि सीपीआई के भीतर जब इमरजेंसी पर चर्चा होती थी, तो उसमें सुधीर मुखर्जी आपातकाल-विरोधी खेमे में थे। लेकिन वे पार्टी के अनुशासन में बंधे रहते थे, इसलिए उन्होंने घर के बाहर इस बारे में कुछ नहीं कहा।
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सुधीर मुखर्जी से मेरा परिचय अखबार की नौकरी शुरू होने के बाद जल्द ही हो गया था क्योंकि अखबार में उनका आना-जाना रहता था। वे राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर आए दिन बयान देते थे, और सडक़ों पर कभी जुलूस, कभी धरना, कभी कर्मचारी या मजदूर आंदोलन चलते ही रहता था। उनका सभी पार्टियों के बीच भारी सम्मान था, और उनके दिल में जनसंघ और आरएसएस के लिए परले दर्जे की नफरत रहती थी, जिसे उजागर करने में वे कभी पीछे नहीं रहते थे।
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उन दिनों प्रेस क्लब में कई बार एक-एक दिन में बहुत सी प्रेस कांफ्रेंस होती थीं, और अखबारों के अलग-अलग रिपोर्टर अलग-अलग प्रेस कांफ्रेंस भी अटेंड कर लेते थे ताकि निकलकर लिखने में एक पर पूरा बोझ न आए। उस दिन सुंदरलाल पटवा की प्रेस कांफ्रेंस थी जिसमें मैं गया था, और उसके ठीक पहले सुधीर मुखर्जी की प्रेस कांफ्रेंस थी जिसमें कोई और रिपोर्टर गए हुए थे। दादा बाहर निकल रहे थे, और मैं अगली प्रेस कांफ्रेंस के लिए भीतर जा रहा था। उन्होंने मुझे देखा कि जमकर गालियां देने लगे- इस रास्कल, रिएक्शनरी की प्रेस कांफ्र्रेंस के लिए तुम्हारे पास समय है, और मेरी प्रेस कांफ्रेंस के लिए समय नहीं है?
लेकिन मीडिया में भी सुधीर दादा की बात का बुरा मानने का कोई रिवाज नहीं था, क्योंकि किसी भी पार्टी में उन दिनों उतना संघर्ष करने वाला, उतना ईमानदार, गरीबों की उतनी फिक्र करने वाला और कोई नेता तो था नहीं। इसलिए वे अगर किसी अखबार वाले को भी गालियां देते थे, तो लोग उसे हॅंसकर सुन लेते थे।
भाई-बहनों में से किसी के साथ रहते हुए, गैरशादीशुदा सुधीर मुखर्जी अपने कपड़ों के बारे में भी बेफिक्र रहते थे। बिना कलफ की धोती, बिना कलफ का कुर्ता, जिस पर पिछले दो-तीन दिनों के खाने के दाग भी अगर रहें, तो भी कोई हैरानी नहीं होती थी।
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वे पृथक छत्तीसगढ़ राज्य के हिमायती थे, और उसके लिए आंदोलन करने वाले लोगों में से थे। लेकिन जिंदगी के आखिरी दौर में, मौत के साल भर के भीतर ही उन्होंने सीपीआई छोडक़र सीपीएम की सदस्यता ले ली थी। जो लोग इन दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों के अंतर्विरोध नहीं जानते उन्हें तो ही हैरानी होगी कि बित्ते भर के वामपंथ ने क्या दलबदल और क्या विभाजन? लेकिन छोटे-छोटे बारीक सिद्धांतों को लेकर इन दोनों पार्टियों में बड़ा मतभेद रहता है। मौत के एक बरस से भी कम पहले सुधीर मुखर्जी सीपीएम चले गए थे। उस वक्त के सीपीएम के राष्ट्रीय महासचिव हरिकिशन सिंह सुरजीत ने उन्हें भोपाल में बुलाया था और कहा था कि अब समाजवादी पार्टी के यमुना प्रसाद शास्त्री सीपीएम में आ गए हैं, वे भी आ जाएं।
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दादा के साथ दिक्कत यह थी कि वे पृथक छत्तीसगढ़ राज्य के लिए आंदोलन करने वाले लोगों में से थे, और सीपीएम छोटे राज्य बनाने के खिलाफ था जिसके तहत वह छत्तीसगढ़ बनाने के भी खिलाफ था। लेकिन जैसा कि सुधीर मुखर्जी ने सीपीआई में रहने की वजह से इमरजेंसी के खिलाफ कुछ नहीं कहा था, और पार्टी के रूप में कांग्रेस का साथ दिया था, उसी तरह जब वे सीपीएम में गए तो उन्होंने घोषित रूप से पृथक छत्तीसगढ़ आंदोलन से नाता तोड़ लिया, और यह घोषणा की कि अब वे जिस पार्टी में हैं उसकी नीति छोटे राज्यों के खिलाफ है। यह दलबदल करते हुए सुधीर मुखर्जी ने एक लंबा खुला खत भी लिखा था जिसमें उन्होंने उस वक्त सीपीएम को देश के लिए बेहतर कार्यक्रमों वाली और अधिक उपयुक्त पार्टी बताया था।
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सुधीर मुखर्जी की पूरी जिंदगी सीपीआई के लोगों से घिरी थी, और छत्तीसगढ़ में सीपीआई के लोगों ने उनकी इस दगाबाजी को बहुत गंभीरता से लिया। क्योंकि अब आखिरी वक्त में क्या खाक मुसलमां होंगे, वाली बात तो गलत साबित करते हुए दादा आखिरी उम्र में ही अपनी जिंदगी भर की पार्टी को छोडक़र सीपीएम में चले गए थे। नतीजा यह हुआ था कि छत्तीसगढ़ में इन दोनों पार्टियों के बीच बहुत मनमुटाव हो गया था, और राष्ट्रीय स्तर पर भी वामपंथी पार्टियों का कोई मिलाजुला कार्यक्रम होता था, तो उसमें भी छत्तीसगढ़ में सीपीआई अलग रह जाती थी कि सुधीर मुखर्जी वाली सीपीएम में नहीं जाना है।
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कम्युनिस्ट पार्टियों का हाल यह रहता है कि बाहर के वर्ग शत्रु से लडऩे के पहले वे आपस में खूब लड़ लेते हैं। दही और मठा में ल_मल_ा होते रहता है, और दूर बैठे दूध और पनीर हॅंसते रहते हैं। कुछ लोग मजाक में वामपंथियों को यह भी कहते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टियों को मिलकर एक हो जाना चाहिए वरना किसी कॉमरेड के गुजरने पर कंधे कम पड़ सकते हैं। सुधीर मुखर्जी के साथ यही हुआ कि उनके गुजरने पर उन्हें सीपीआई की जगह सीपीएम का झंडा नसीब हुआ, और सीपीआई के लिए तो वे दलबदल के दिन ही गुजर चुके थे। उनके अंतिम संस्कार में भी सीपीआई के कुछ साथी आए, और कुछ नहीं आए।
खैर, कुछ लोगों की याद मजबूत है, और उन्होंने बताया कि 1980 के लोकसभा चुनाव में सुधीर दादा जांजगीर लोकसभा सीट से सीपीआई उम्मीदवार होकर चुनाव लड़े थे, और उन्हें बड़ी उम्मीद थी कि मजदूरों वाले इस इलाके में उनकी संभावनाएं अच्छी हैं। लेकिन जिस तरह केयूरभूषण को रायपुर लोकसभा सीट पर निर्दलीय लडऩे पर 606 वोट मिले थे, उसी तरह सुधीर दादा को दो-चार हजार वोट ही जांजगीर लोकसभा में मिल पाए थे।
सीपीएम जाने के बाद सुधीर मुखर्जी ने छत्तीसगढ़ के पार्टी के किसान संगठन का विस्तार किया। उन्होंने पहले ही यह साफ कर दिया था कि वे सीपीआई से अपने पुराने साथियों का दलबदल नहीं करवाएंगे, लेकिन उनके जाने के बाद कई लोग सीपीएम में चले भी गए।
सीपीआई में रहते हुए सुधीर मुखर्जी का कुछ लोगों से टकराव ठीक उसी तरह चलते रहा जैसा कि किसी भी जिंदा संगठन में चल सकता है, और चलना चाहिए। अपनी पार्टी के एक बड़े मजदूर नेता के परिवार की शादी में हजार-दो हजार लोगों की भीड़ को देखकर पार्टी के कार्यकर्ताओं ने यह सवाल उठाया कि एक पूर्णकालिक पार्टी कार्यकर्ता कहां से यह सब इंतजाम कर पाया? सुधीर मुखर्जी अपने ही पुराने मजदूर-संगठनों के नेताओं से ऐसी बातों को लेकर टकराहट झेलते थे। ऐसे में संगठन के भीतर उन पर भी जवाबी हमले होते थे। और कुछ लोगों को याद है कि पार्टी की बैठक में इशारों में यह बात भी होती थी कि सुधीर मुखर्जी लडक़ों को इतना करीब क्यों रखते हैं? इस बारे में उस वक्त एक लतीफा भी चलता था कि कम्युनिस्ट बनने के शौकीन नौजवान लडक़े पार्टी में जाते थे, लेकिन फिर सुधीर मुखर्जी उन्हें बयान तैयार करने के लिए बुला लेते थे, और वहां से निकले हुए लडक़े ठीक सामने के सप्रे स्कूल में चलने वाली आरएसएस की शाखा में चले जाते थे। यह विवाद उनके सम्मान के आगे दब जाता था, और पार्टी के भीतर उनके कुछ विरोधियों की चर्चा, और मीडिया में मजाक का सामान बनकर खत्म भी हो जाता था।
सुधीर मुखर्जी ईमानदार राजनीति, सैद्धांतिक राजनीति, कारोबारियों और कारखानेदारों से लड़ाई की राजनीति, मजदूरों के हक के आंदोलन की राजनीति करते हुए जिए, और वैसे ही खत्म हो गए। वे एक बेमिसाल इंसान थे जिन्होंने पूरी जिंदगी में शायद साख और तसल्ली के सिवाय कुछ नहीं कमाया, ईमानदारी और सिद्धांतवादी होने की साख, और अपनी जिंदगी के पल-पल का समाज के लिए इस्तेमाल करने की तसल्ली। आज दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों में मिलाकर भी वैसा कोई दूसरा व्यक्तित्व बचा नहीं है। दूसरी बात यह भी हो गई है कि अब राजनीति में कटुता इतनी हो गई है कि कांग्रेस या भाजपा के साथ कम्युनिस्टों की किसी तरह की सार्वजनिक बातचीत भी मुमकिन नहीं है। सुधीर मुखर्जी जैसा कोई सर्वमान्य नेता भी अब नहीं रहा, और उनकी यादें ही बची रह गई हैं। आगे किसी और मौके पर उनके बारे में अगली किसी किस्त में कुछ और।
-सुनील कुमार
-श्रवण गर्ग
सत्ता की राजनीति के विद्रूप चेहरे एक-एक कर उजागर होते जा रहे हैं।हाल के महीनों में पहले महाराष्ट्र फिर मध्य प्रदेश और अब राजस्थान। जनता जिन्हें युद्ध समझकर उनकी हार-जीत पर करोड़ों-अरबों का सट्टा खेलती है, उनके बारे में अंत में यही पता चलता है कि वह तो बस एक रिहर्सल थी। रणभूमि राजस्थान की घटनाओं के बारे में अभी ठीक से पता चलना बाक़ी है कि जो हुआ है वह रिहर्सल का विराम है या फिर युद्ध का विराम ! युद्ध की समाप्ति तो निश्चित ही नहीं है।यह एक ऐसा युद्ध है जिसमें एक सेना के ही दो पक्ष आपस में लड़ रहे ‘थे’।अब एक थकी हुई सेना को अपने उसी दुश्मन से अगला युद्ध लड़ना है जिससे पिछली बार जीत हुई थी।सत्ता प्राप्त करने और बचाने की समस्त लड़ाइयाँ आदर्शों की रक्षा के नाम पर ही लड़ी जाती हैं और सबसे ज़्यादा हनन भी उन्हीं आदर्शों का होता है।
लोग थोड़ा यह भी जानने को उत्सुक हैं कि अतृप्त राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के सारे मसान हर बार कांग्रेस में ही क्यों जागृत होते रहते हैं , भाजपा (या पूर्व की जनसंघ) में क्यों नहीं ? उस पार्टी में भी कुछ तो पायलट (या सिंधिया ) होते होंगे ! या सभी आडवाणी आदि की ओर देखकर ही विनम्र हो जाते हैं ? क्या इस धुर दक्षिणपंथी हिंदुत्व की राष्ट्रवादी पार्टी और उससे जुड़े संगठनों के करोड़ों कार्यकर्ताओं की महत्वाकांक्षाओं का बंदीकरण कर दिया गया है ? या इनके अनुशासन में माँगकर प्राप्त किए जाने वाले पुरस्कारों के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं रखी गई है ? तब तो इसे कांग्रेस की ही खूबी माना जाना चाहिए कि जब-जब भी पार्टी बीमार होकर मरणासन्न होने लगती है, उत्तराधिकार और पदों के बँटवारे की माँग और तेज हो जाती है।कांग्रेस की अंदरूनी लड़ाई जबसे यह पार्टी बनी है कभी ख़त्म ही नहीं होती। और इस बीच बाहर की चुनौतियाँ उतनी ही और बढ़ जातीं हैं। पार्टी इसे अपने आंतरिक प्रजातंत्र की खूबी बताती है, राजनीतिक अराजकता नहीं ! विशेषता यह भी कि इतना सब होने के बाद भी घोषित तौर पर पार्टी कभी डिप्रेशन में नहीं जाती।
कांग्रेस में ही यह सम्भव है कि एक मुख्यमंत्री और उनके (पूर्व) उप-मुख्यमंत्री दोनों ही आदर्शों के नाम पर अपनी-अपनी आकांक्षाओं को लेकर कम-से-कम बाहर से स्वस्थ नज़र आती सरकार को भी वेंटिलेटर पर चढ़ाने के लिए तैयार हो गए। अंत में हुआ यही कि जाँच रिपोर्ट में तो बीमारी को मात दे दी गई पर कोई प्लाज़्मा प्राप्त नहीं हुआ। सचिन पायलट ने कांग्रेस छोड़ भी दी थी और नहीं भी छोड़ी थी। वे उसमें न होते हुए भी बने हुए थे। अपना एक पैर गरम और दूसरा ठंडे पानी में रखकर बैठे-बैठे गुरुग्राम के रिज़ॉर्ट की खिड़की से अपने समर्थकों की गिनती भी कर रहे थे और दस जनपथ के सम्पर्क में भी बने हुए थे। सिंधिया की तरह इस्तीफ़ा भी नहीं दिया और मनाने-बुलाने के बाद भी घर वापसी नहीं की।और अंत में उन्हीं लोगों के ‘वार रूम’ में मिलने को राज़ी हो गए जिनके कि प्रति सारी नाराज़गी थी।
कांग्रेस के लिए बहुत ही नाज़ुक वक्त में एक और सरकार स्वाहा होने से बच गई पर राजस्थान की सात करोड़ जनता और देश के लिए अब कुछ ही बचे हुए नेताओं में से भी कुछ और नज़रों से गिर गए।लोगों से अब कहा जाएगा कि वे प्रदेश के व्यापक हित और संकट की घड़ी को देखते हुए आदर्श की मिसाल नेताओं ने चौराहों पर खड़े होकर किस तरह की ‘निकम्मी’ और ‘नकारा’ भाषा का इस्तेमाल किया था उसे भूल जाएं। उन्हें लोगों की कमज़ोर याददाश्त पर पूरा यक़ीन है। कोई भी पक्ष स्वीकार नहीं करेगा कि सब कुछ समाप्त हो भी गया है और नहीं भी हुआ है। दिल्ली दरबार भी नहीं मानेगा कि एक कमज़ोर सरकार तो बचा ली गई पर एक मज़बूत मुख्यमंत्री को कमज़ोर कर दिया गया।समझौते की क़ीमत ऊपर से जितनी छोटी दिखाई जा रही है, अंदर से उतनी है नहीं।
अब बारी शायद अशोक गहलोत की है। उन्होंने कहा बताते हैं कि राजनीति में कई बार छाती पर पत्थर रखकर ज़हर का घूँट भी कभी-कभी पीना पड़ता है। वे यह नहीं बताते कि ज़हर का असर कितने समय में ख़त्म हो जाएगा। गांधी परिवार के ‘वार रूम’ में उनकी बैठक होना अभी बाक़ी है। हो सकता है वह बैठक विधान सभा की बैठक के बाद हो। गहलोत ने कहा था कि सोने की छुरी को पेट में नहीं घुसेड़ सकते। दूसरी कहावत उन्होंने अभी नहीं कही वह यह कि एक ही म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं।राजस्थान का असली राजनीतिक संकट तो शायद अब चालू हुआ है।
सुख चाहने का अर्थ केवल अपना सुख चाहना नहीं है। अपना सुख चाहकर कोई सुखी नहीं हो सकता। सुख तब आएगा जब हम करुणा, क्षमा और प्रेम के द्वार खोल देंगे।
हमने सुख के लिए इतनी सारी शर्तें तय कर दी हैं कि वह चाहे भी तो आसानी से हमारे द्वार पर दस्तक नहीं दे सकता! उसे अनुमति और पूछताछ की प्रक्रिया से गुजरना होगा। इस तरह तो कोई भी हमारे घर नहीं आना चाहेगा। कम से कम वह तो कभी नहीं आना चाहेगा, जिसे हम बुलाने के सबसे अधिक इच्छुक रहते हैं। सुख, हमारा ऐसा ही परिचित है, जिसे हम हमेशा आमंत्रित करना चाहते हैं, लेकिन हमने अपने घर और मन के बाहर इतनी तरह के नियम बना लिए हैं कि उसका प्रवेश संभव नहीं। हो सकता है कि सुख घर तक तो किसी तरह पहुंच भी जाए, लेकिन मन तक नहीं पहुंच सकता। मन तक पहुंचने के लिए तो शर्तें हटानी ही पड़ेंगी।
महात्मा बुद्ध ने बहुत सुंदर बात कही है। वह कहते हैं, हमारी सभ्यता, पुराने नियम, जीने के तरीके हमें सुखी नहीं होने देते। सुखी होना मानसिकता है, एक दृष्टि है, लेकिन हम ऐतिहासिक परंपरा के गुलाम हैं।
बुद्ध जो कह रहे हैं, उसे समझने के लिए बहुत दूर नहीं जाना है। बस अपने भीतर ही उतरकर देखना है। हम अपने कपड़े बदलते हैं। मकान बदलते हैं। हर वह चीज बदलते हैं, जिसमें कुछ नयापन है, लेकिन जो नहीं बदलते हैं, वह है- हमारे सोचने का तरीका! जीवन को समझने जानने का दृष्टिकोण। बुद्ध जब कहते हैं, सुखी होना एक मानसिकता है तो यह जरूरी है कि हम मानसिकता को समझने, रखने लायक मानस बनाएं। अपने दिमाग को इस तरह तैयार करें कि वह सुख भीतर की ओर खोजे, बाहर की ओर नहीं। हमारी मानसिकता हमारे मन से बनती है और मन का संबंध चेतन से अधिक हमारे अवचेतन से होता है। उस भीतर से होता है जिसकी ओर हम देखना ही पसंद नहीं करते। जिसकी ओर हम देखना पसंद नहीं करते, उसके अनुकूल खुद को हम कैसे तैयार कर पाएंगे। इसलिए हमारे चेतन और अवचेतन मन के बीच हमेशा जंग चलती रहती है। इसके कारण हम अपने ही भीतर बंट जाते हैं। भीतर से कुछ और करने की आवाज आती है और बाहर से कुछ और करते हैं। यहीं से व्यक्ति में समग्रता की कमी शुरू हो जाती है।
सुख चाहने का अर्थ केवल अपना सुख चाहना नहीं है। अपना सुख चाहकर कोई सुखी नहीं हो सकता। सुख तब आएगा जब हम करुणा, क्षमा और प्रेम के द्वार खोल देंगे। मैं चेखव की एक कहानी आपसे कहता हूं। संभव है कि इससे मेरी बात अधिक स्पष्टता से आप तक पहुंच पाए।
महान कहानीकार चेखव की यह कहानी सुख की मानसिकता के बारे में बहुत सहज संवाद करती है। इसका नाम ध्यान में नहीं आ रहा है। कहानी इस प्रकार है- एक जमींदार घर से भागे पुत्र को खोज रहा है। उसका बेटा बचपन में ही घर छोडक़र चला गया था। किसी तरह पुत्र से संवाद स्थापित होता है। जमींदार को पता चलता है कि वह किसी भी समय बताए गए स्टेशन पर उससे मिलने आ सकता है। ठंड के दिन हैं। रूस में वैसे भी सर्दियां मुश्किलभरी होती हैं। जमींदार स्टेशन पर मौजूद धर्मशाला को पूरी तरह किराए पर ले लेता है। उसे अपने बेटे का स्वागत धूमधाम से जो करना है। बेटा किस स्थिति में आएगा, इसकी जानकारी जमींदार को नहीं है। धर्मशाला उसने इस तरह कब्जे में कर ली थी कि दूसरे किसी को भी रुकने की इजाजत नहीं थी।
देर रात उस धर्मशाला के दरवाजे पर दस्तक हुई। एक भिखारी ने बहुत प्रार्थना की। उसे रात बिताने के लिए जगह की जरूरत थी, क्योंकि बाहर भयानक शीतलहर चल रही थी। जमींदार के आदेश के अनुसार उसे जगह नहीं दी गई। वह भिखारी धर्मशाला के बाहर ही सो गया। इस तरह सोया कि अगले दिन उसे उठाया नहीं जा सका। वह ठंड में जम गया था।
सुबह उठते ही जमींदार ने पूछा कोई आया है! धर्मशाला के प्रबंधक ने उससे कहा कि आपका बेटा तो नहीं आया, देर रात एक भिखारी जरूर आया था, लेकिन आपके आदेश के अनुसार हमने उसे भीतर नहीं आने दिया। बाहर ठंड के कारण उसकी मौत हो गई। जमींदार बाहर जाकर देखता है कि वह भिखारी ही उसका बेटा है!
हमारे सुख के साथ अक्सर यह दुर्घटना होने की आशंका बनी रहेगी, अगर सुख को हम इतना निजी बना देंगे। सुख को निजी बनाते ही उसमें दूसरे के लिए करुणा और प्रेम समाप्त होते जाएंगे। जहां करुणा, प्रेम और उदारता समाप्त हो जाते हैं, वहां कुछ शेष नहीं रहता। इसलिए अपने लिए सुख चाहते समय हमें दूसरों के सुख का भी खयाल रखना होगा। यह मनुष्यता का सहज नियम है, इसका पालन करना मुश्किल नहीं। हां, हम थोड़े से लालच में इसे भुला बैठे हैं! (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
राजनीति में ईमानदारी कैसे निभ सकती है, इसे देखना हो तो केयूरभूषण की जिंदगी देखना ठीक होगा। गांधीवादी, सर्वोदयी, हरिजनों की सेवा करने वाले, खादी पहनने वाले, और आखिर तक साइकिल पर चलने वाले। केयूरभूषण जाति से छत्तीसगढ़ी ब्राम्हण थे, लेकिन उन्होंने अपना जाति नाम नहीं लिखा। दूसरी तरफ वे हरिजन उद्धार जैसे गांधीवादी आंदोलनों से जुड़े रहे, एक ऐसा शब्द जिससे हरिजन कहे जाने वाले तबकों में आने वाली जातियों को ही घनघोर एतराज रहा, यह एक अलग बात है कि यह शब्द केयूरभूषण का न तो शुरू किया हुआ था, और न ही इनके साथ खत्म हुआ। इसे शुरू करने की सारी तोहमत गांधी के मत्थे आती है, जिन्होंने अपने वक्त में अपनी सोच के मुताबिक हरिजनों को ईश्वर की दुकान में दाखिला दिलाने के लिए ऐसा एक शब्द गढ़ा था, लेकिन आज तक इस तबके का हाल यह है कि हिन्दुस्तान में हर दिन कहीं न कहीं सवर्ण हिंसा का शिकार हो रहा है।
खैर, केयूरभूषण गांधी से सवाल करने वाले लोगों में से नहीं थे, वे गांधी को मानने वाले लोगों में से थे, और गांधी के ही अंदाज में वे हरिजन बस्तियों में साफ-सफाई से लेकर वहां आने-जाने तक, वहां खाने तक, सभी ऐसे काम करते थे जिससे गांधीवादी सोच छुआछूत के खात्मे की उम्मीद करती है। यह उम्मीद बेबुनियाद साबित हुई, लेकिन ऐसा करते हुए केयूरभूषण दूर तक गए।
केयूरभूषण 1980 में रायपुर लोकसभा सीट से कांग्रेस के सांसद बने। इसके बाद जल्द ही दिल्ली मेें उनसे मेरी मुलाकात हुई जहां मैं अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह की रिपोर्टिंग के लिए गया हुआ था। दिल्ली का एक किस्म से पहला ही ऐसा दौरा था जिसमें न वहां रहने का कोई इंतजाम था, और न ही घूमने-फिरने का। केयूरभूषण से बात करके उनके घर पर रहने का इंतजाम हो गया था जो कि उस वक्त के पैमाने के एक बड़ी बात थी। मुझे 20-22 दिन लगातार रहना था, और सुबह जल्दी रवाना होकर रात आधी रात के काफी बाद लौटना था। उनकी जगह मैं होता, तो ऐसे किसी मेहमान को जगह देने से मना कर देता। लेकिन पहली बार के सांसद का घर जितना बड़ा था, उससे बड़ा उनका दिल था। एक छोटे कमरे में मेरा डेरा बन गया था, और उनके यहां काफी छत्तीसगढ़ी लोग आते-जाते थे, लेकिन वह कमरा सिर्फ मेरे रहने के लिए बने रहा। रात मैं डेढ़-दो बजे लौटता था, और उन्होंने अपने एक घरेलू सहायक को निर्देश दे रखा था कि मैं जब भी आऊं, मेरे लिए गर्म पराठे बनाकर मुझे खाना खिलाए। दिल्ली की शून्य डिग्री के आसपास की ठंड में मुझे प्रेम नाम के इस पहाड़ी नौजवान को उठाना ठीक नहीं लगता था, लेकिन फिर भी हर दिन, या हर रात कहना बेहतर होगा, वह मुझे खाना खिलाते रहा।
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उस वक्त निर्मला देशपांडे भी वहीं रहती थीं। वे स्थाई रूप से केयूरभूषण के साथ ही रहती थीं, और वे इंदिरा गांधी की निजी सहेली मानी जाती थीं। वे ही इंदिरा गांधी तक केयूरभूषण की सीधी पहुंच थीं, और दोनों सर्वोदयी-गांधीवादी थे इसलिए दोनों की अच्छी निभ जाती थी। मुझे निर्मला देशपांडे से बातचीत की कम ही याद है क्योंकि मैं सुबह जल्दी निकल जाता था जिस हड़बड़ी में किसी बात की गुंजाइश नहीं थी, और रात मेरे लौटने तक सब सो चुके होते थे। केयूरभूषण ने रायपुर का सांसद रहते हुए अनगिनत छत्तीसगढ़ी लोगों की मेजबानी की, उनके साधन बहुत सीमित थे, कोई ऊपरी कमाई नहीं थी, बेटा प्रभात दिल्ली में संघर्ष करते रहता था लेकिन उसका भी कोई काम जम नहीं पाया था, लेकिन केयूरभूषण ने किसी को वहां ठहरने के लिए मना किया हो ऐसा सुनाई नहीं पड़ा।
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उनके सांसद रहते हुए बिलासपुर जिले के पांडातराई नाम के कस्बे में हरिजनों को मंदिर में प्रवेश नहीं दिया जाता था। वैचारिक आधार पर यह केयूरभूषण के लिए एक चुनौती थी। वे वहां गए और हरिजनों को लेकर मंदिर प्रवेश की कोशिश की। तनातनी इतनी बढ़ी कि पुलिस गोली चली, और कुछ लोग जख्मी भी हुए। जब केयूरभूषण हरिजनों के साथ मंदिर प्रवेश के लिए जा रहे थे तब हरिजन-विरोधी मंदिरवालों की भीड़ ने हमला कर दिया। केयूरभूषण के सिर पर किसी धारदार हथियार से, शायद फरसे से भारी चोट भी आई, और वहां मौजूद पुलिस उन्हें बचाकर पास के रेस्ट हाऊस ले गई। लेकिन हरिजन-विरोधी लोग रेस्ट हाऊस भी पहुंच गए, और केयूरभूषण तक पहुंचने की कोशिश करने लगे। भीड़ को रोकने के लिए वहां मौजूद एक इंस्पेक्टर ने गोली चलाई जिससे कुछ लोग घायल हुए, या एक की मौत भी हुई।
मुझे इस घटना के बारे में अधिक याद नहीं है, सिवाय इसके कि पता लगते ही मैं मोटरसाइकिल से कैमरे का बैग लिए पांडातराई के लिए रवाना हो गया था, रास्ते में मोटरसाइकिल पंक्चर होने से कई घंटे खराब हुए, पांडातराई पहुंचने तक रात हो गई थी, और उसके बाद की अधिक याद अभी नहीं है।
केयूरभूषण ने छत्तीसगढ़ के इस मंदिर में हरिजन प्रवेश के अलावा राजस्थान के श्रीनाथद्वारा के वैष्णव समाज के मंदिर में भी हरिजन प्रवेश की घोषणा की थी, और उसका भी देश भर के वैष्णव समाज से बड़ा विरोध हुआ था। वे श्रीनाथद्वारा गए, और वहां हरिजनों को लेकर मंदिर जाने वाले थे कि उन्हें घेर लिया गया, खासा तनाव हुआ, उन्हें बचाकर एक घर में ले जाया गया, और बाद में पुलिस ने उन्हें मौके से हटाया। ऐसी तमाम घटनाओं में वे अपनी जिंदगी की परवाह किए बिना सिद्धांतों की लड़ाई में जुट जाते थे।
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इस हमले के बाद मीरा कुमार ने केयूरभूषण को एक चि_ी भेजकर हमदर्दी जाहिर की थी, और लिखा था- आपके साथ जो घटना हुई, और आप पर जिस तरह हमला हुआ वह सब जानकर बहुत पीड़ा पहुंची है। क्या जाति-पांति की नींव पर घृणा की दीवारें इसी मजबूती से खड़ी रहेंगी?
उन्होंने आगे लिखा था- कभी लगता है कालचक्र आगे बढऩे के बजाय पीछे की ओर घूम रहा है, और सर्वनाश के कगार पर उसे न पहुंचने देने के लिए आप जिस शक्ति और साहस से तत्पर हैं, उसमें मेरा हर क्षण संपूर्ण समर्थन स्वीकार करें। ईश्वर से आपके शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना के साथ- मीरा कुमार। (मीरा कुमार बाद में लोकसभा अध्यक्ष भी बनीं, और देश के एक सबसे प्रमुख दलित नेता रहे जगजीवन राम की वे बेटी थीं।)
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केयूरभूषण सांसद के रूप में भी बिना कमाई-धमाई जीते रहे, लोगों के काम आते रहे, दौरे के लिए सांसद को एक सरकारी जीप मिलती थी, वे बिना किसी निजी गाड़ी के इसी तरह दौरा करते रहे। वे लगातार गांधीवादी विचारधारा के लेख लिखते थे, खुद लेकर जाकर अखबारों में बैठकर संपादकों को उसका महत्व बताते थे।
वे पृथक छत्तीसगढ़ राज्य की बात करते थे, लेकिन पार्टी के लिए असुविधा खड़ी करने जैसी कोई आक्रामकता उनकी बात में नहीं रहती थी। केयूरभूषण छत्तीसगढ़ी ब्राम्हण थे, लेकिन उनके चुनाव में ब्राम्हण वोटों का उन्हें कोई फायदा नहीं होता था, ब्राम्हण उन्हें ब्राम्हणविरोधी मानते थे, और हरिजन भी उन्हें ब्राम्हण मान लेते थे। अपनी जाति के प्रचलित चरित्र के खिलाफ जाने वाले लोग जिस तरह बहाव के खिलाफ तैरने के लिए मजबूर हो जाते हैं, केयूरभूषण कुछ उसी किस्म के रहे।
जिस दौर में केयूरभूषण छत्तीसगढ़ में राजनीति करते थे, उस वक्त लोगों के लिए शुक्ल बंधुओं के साथ रहना, या फिर उनके खिलाफ मान लिया जाना ही दो विकल्प थे। लेकिन केयूरभूषण कांग्रेस के भीतर की बहुत हिंसक गुटबाजी में भागीदार बने बिना पार्टी के लिए काम करते रहे। लेकिन कांग्रेस से परे भी उनका एक व्यापक संसार था। वे छत्तीसगढ़ी भाषा के लिए, और छत्तीसगढ़ी साहित्य के लिए लगातार लगे रहते थे। वे कहानी और उपन्यास भी लिखते थे, और सार्वजनिक मुद्दों पर दूसरी छोटी पुस्तकें भी। लेकिन सांसद की अपनी पेंशन से पैसे निकालकर वे छपवाते थे, इन किताबों को बिकना तो था नहीं, वे अपनी ही सीमित कमाई इसमें डालते थे। उनकी लिखी दो-तीन किताबें उनके गुजरने तक छपी नहीं थीं, और उनके बेटे प्रभात अभी उन्हें छपवा रहे हैं।
केयूरभूषण मोटेतौर पर रायपुर शहर, लेकिन मौका और जरूरत होने पर दूर-दूर तक गांधी के लिए, खादी के लिए, छत्तीसगढ़ी भाषा-साहित्य के लिए, हरिजनों से जुड़े कार्यक्रमों के लिए जाते ही रहते थे। दो बार का सांसद अपनी जिंदगी बिना किसी निजी गाड़ी के गुजार गया, और छोडक़र भी नहीं गया, ऐसी मिसाल छत्तीसगढ़ में शायद ही कोई दूसरी होगी।
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केयूरभूषण सार्वजनिक जीवन में लगातार सक्रिय रहते हुए निजी और सार्वजनिक कार्यक्रमों में सबसे सहज और सबसे सुलभ चेहरा बने रहे। उन्होंने कभी लोगों के नाजायज सरकारी काम करवाने में कोई दिलचस्पी नहीं ली, इसलिए उनकी कांग्रेस पार्टी के अधिक लोगों की उनमें कोई दिलचस्पी नहीं रही। पार्टी लोकसभा चुनाव का टिकट दे देती थी, तो पार्टी के लोग काम करने लगते थे।
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दो बार सांसद रहने के बाद एक बार वे चुनाव हारे, और फिर अगले एक संसदीय चुनाव में वे कांग्रेस पार्टी छोडक़र निर्दलीय लड़े, और जैसी कि उनको छोडक़र बाकी हर किसी को उम्मीद थी, उनकी जमानत जब्त हो गई। छत्तीसगढ़ में किसी की भी इतनी ताकत नहीं है कि निर्दलीय लोकसभा चुनाव जीत सके। केयूरभूषण को कुल 606 वोट मिले थे, जितने वोट पाकर कोई वार्ड का चुनाव भी न जीत सके। लेकिन उनका कहना था कि वे सिद्धांत की लड़ाई लड़ रहे थे।
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छत्तीसगढ़ में किसी निर्दलीय के लोकसभा चुनाव जीतने का केवल एक मौका ऐसा था जब बस्तर में महेन्द्र कर्मा कांग्रेस छोडक़र, दिल्ली में कांग्रेस छोडक़र एक नई पार्टी बनाने वाले माधवराव सिंधिया के साथ गए थे, और बिना किसी पार्टी निशान के वे आदिवासियों से जुड़े कुछ मुद्दों पर एक आक्रामक अभियान चलाकर सांसद बने थे। लेकिन न तो रायपुर संसदीय सीट ऐसी थी कि यहां ऐसा कोई आक्रामक मुद्दा रहे, और न ही केयूरभूषण वैसे आक्रामक उम्मीदवार थे। उनके बारे में लिखा हुआ पढऩे में लोगों को अधिक स्वाद नहीं आएगा, क्योंकि उनकी जिंदगी में न तो रंगीनियां थीं, न ही कोई बड़े विवाद थे, लेकिन सच तो यह है कि छत्तीसगढ़ के लोगों के मन में केयूरभूषण आखिरी तक सम्मान के हकदार बने रहे, जो कि कम ही लोगों के साथ होता है।
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मेरा उनसे हमेशा सम्मान का अनौपचारिक रिश्ता बने रहा। पिछले अखबार में काम करते हुए जब वहां एक नया अखबार शुरू किया, तो मैंने केयूरभूषण को वहां सिटी रिपोर्टर नियुक्त किया। बुढ़ापे में, शायद 60 बरस से अधिक की उम्र में एक भूतपूर्व सांसद नियमित रूप से कुछ समय तक सिटी रिपोर्टिंग करते रहे। मैं उन्हें मुद्दे बता देता था, और वे गंभीरता से उस पर रिपोर्ट बनाकर लाते थे। अखबार में काम करने वाले बाकी दर्जनों लोगों में से कोई भी ऐसे नहीं थे जो कि साइकिल पर चलते हैं, लेकिन धोती और कमीज में साइकिल पर चलते हुए वे मेहनत से रिपोर्ट बनाते थे। लोग अखबार में समाचारों के साथ सिटी रिपोर्टर-केयूरभूषण पढक़र हैरान भी होते थे, लेकिन उन्हें मेहनत करने में कोई हिचक नहीं थी। उनके साथ मेरी यादें बहुत सी हैं, लेकिन आज वक्त इतना ही है।
-सुनील कुमार
शंकर गुहा नियोगी पर कल अनायास ही लिखना शुरू कर दिया था, और अखबार के बाकी तमाम काम के बोझ के बीच बिना पुरानी जानकारी की मदद लिए जो-जो याद पड़ता है, बस वही लिखना मकसद भी था। रिकॉर्ड लिखने को तो बहुत से लोग किताबें लिख सकते हैं, और लिखते हैं।
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कल शंकर गुहा नियोगी की हत्या की बात लिखी, और अपना यह मलाल लिखा कि उसके कुछ घंटे पहले ही दो-तीन दूसरे दोस्तों के साथ नियोगी भी मेरे पहुंचने की राह देख रहा था, लेकिन अपनी समझ बढ़ाने का वह एक मौका मेरे हाथ से ऐसा चूका कि अब कभी दुबारा आ नहीं सकता।
नियोगी की हत्या इतनी बड़ी घटना थी, कि उसकी सीबीआई जांच एक स्वाभाविक बात थी। राज्य में भाजपा की सरकार थी, और दोनों ही बड़ी पार्टियों, भाजपा और कांग्रेस के नियोगी के खिलाफ होने की बात जगजाहिर थी। ऐसे में 48 बरस के इस शहीद की हत्या की सीबीआई जांच की मांग पीयूसीएल सहित अनगिनत संगठनों ने देश भर से की, और बाकी दुनिया से भी बहुत से संगठनों ने भारत सरकार को इसके बारे में लिखा। पटवा सरकार पर एक दबाव बना, और सीबीआई जांच की घोषणा की गई।
छत्तीसगढ़ में दोनों बड़ी पार्टियों और सीपीआई के लोग पीयूसीएल और राजेन्द्र सायल के बड़े खिलाफ थे क्योंकि यह संगठन सत्ता में चली आ रही यथास्थिति को तोडऩे के लिए कुछ न कुछ करता था, और दोनों पार्टियों के पक्ष-विपक्ष में रहते हुए जो सबसे कमजोर तबका सबसे बेजुबान रहता था, उस तबके के हक के लिए पीयूसीएल लड़ता था। ऐसे में इन दोनों पार्टियों के लोगों को सीबीआई जांच को पीयूसीएल की तरफ मेड़ देना बड़ा आकर्षक लगा। तरह-तरह की जुर्म की कहानियां फैलाई गईं कि छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के भीतर की लड़ाई के चलते राजेन्द्र सायल इस हत्या के पीछे हो सकते हैं। लोगों ने सारा हिसाब चुकता करने का यह एक अच्छा मौका ढूंढा। लेकिन सारे लोग इस हत्या से बेदाग रहे, और सीबीआई ने सिम्पलेक्स उद्योग समूह से जुड़े हुए उसी परिवार के चन्द्रकांत शाह और भाड़े के एक हत्यारे पल्टन मल्लाह को कत्ल का कुसूरवार ठहराया, और सजा दी।
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चूंकि मौत के कुछ घंटे पहले शंकर गुहा नियोगी राजेन्द्र सायल, एन.के. सिंह के साथ तो थे ही, होटल के कमरे से पीबीएक्स से होते हुए प्रेस के मेरे नंबर पर भी फोन आए थे, इसलिए जांच में मुझसे भी पूछा गया कि मेरे पास फोन क्यों आए थे। उसका सच और आसान जवाब यही था कि मैं भी वहां आमंत्रित था। बात आई-गई हो गई, और पीयूसीएल विरोधियों ने आरोप लगाने में अपनी जो हसरत पूरी की थी, वह धरी की धरी रह गई।
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नियोगी के बारे में एक बड़ी घटना लिखना कल छोड़ दिया था, और वह थी दल्लीराजहरा में नियोगी के आंदोलन के चलते हुए अधिक बरस नहीं हुए थे, और उनका आंदोलन बहुत जोरों पर था। ठेकेदारों के खिलाफ नियोगी का मजदूर संगठन अपने हक की लड़ाई लड़ रहा था। ऐसे में 1977 में परेशान ठेकेदारों की मदद करने के लिए पुलिस नियोगी को गिरफ्तार करने देर रात पहुंची। एक जीप में नियोगी को उठाकर पुलिस भाग निकली, लेकिन दूसरी जीप को मजदूरों ने घेर लिया और नियोगी की रिहाई पर अड़ गए। मजदूरों से भिड़ चुकी पुलिस ने गोलियां चलाईं जिनमें 7 मजदूर मारे गए थे। लेकिन फिर भी मजदूरों ने पुलिस को नहीं छोड़ा। अगले दिन बहुत सी पुलिस और पहुंची, और अपने साथियों को छुड़ाकर लाने के संघर्ष में कुछ और मजदूरों को गोलियों से भूना। लेकिन आंदोलन टूटा नहीं, और जेल में बंद अपने नेता की गैरमौजूदगी में भी बड़ी मजबूती के साथ यह आंदोलन चलते रहा।
नियोगी एक तरफ तो अपनी खुद की जिंदगी को एक आदर्श की तरह सामने रखते थे जिनकी पत्नी खुद सिर पर लौह अयस्क टोकरी में ढोती थी। दूसरी तरफ वे दुनिया के महानतम मजदूर सिद्धांतों, मशीनीकरण के खतरों को भरपूर पढ़े हुए नेता थे, और वे मौजूदा खतरे के अलावा आने वाले खतरे को भी समझ सकते थे। फिर नियोगी में यह खूबी दिखी कि वे मजदूर अधिकार से परे मजदूर-कल्याण को समाज सुधार की सीमा तक ले जाने की ताकत रखते थे, और उन्होंने अपने मजदूरों से शराब छुड़वाने के लिए एक बड़ी मुहिम छेड़ी थी जिससे शराब ठेकेदार भी परेशान थे, और शराब बनाने वाली कंपनियों के लोग भी। नतीजा यह था कि कारखानेदारों और ठेकेदारों के असर में भोपाल की सरकारें, और छत्तीसगढ़ की तमाम पार्टियां नियोगी के खिलाफ थीं। लेकिन नियोगी का आभा मंडल इतना बड़ा था कि उनके नक्सली होने, सीआईए एजेंट होने की तोहमतें भी हवा में अधिक टिक नहीं पाती थीं।
नियोगी के संगठन का बनाया हुआ दल्लीराजहरा का शहीद अस्पताल एक आदर्श है कि एक मजदूर संगठन अपने सदस्यों और उनके परिवारों के लिए क्या कर सकता है, उसे क्या करना चाहिए। बच्चों की पढ़ाई के लिए भी नियोगी ने एक अभियान सा छेड़ा, और उनका मजदूर संगठन उस पूरे इलाके में एक जनकल्याणकारी प्रशासन की तरह काम कर रहा था। हिन्दुस्तान में किसी भी दूसरी जगह अगर मजदूर आंदोलन ने इतना व्यापक विस्तार किया भी होगा, तो भी वह कम से कम इस पल मुझे याद नहीं पड़ रहा।
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शंकर गुहा नियोगी ने मजदूर संगठन का नाम छत्तीसगढ़ खदान मजदूर संघ रखा था, और राजनीतिक दल का नाम छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा। इन दोनों के सिलसिले में नियोगी का रायपुर आकर अखबारों से बात करना लगे रहता था। वह एक साधारण जीप में चलता था, और मीडिया के आम समझ के लोगों को राजनीति, अर्थशास्त्र, और मजदूर आंदोलन के जटिल पहलुओं को सरल तरीके से समझाता था।
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कांग्रेस और सीपीआई से जुड़े हुए मजदूर संगठनों की साख नियोगी के सामने फीकी पड़ रही थी, और मजदूरों के बीच उनकी पकड़ भी खत्म होते चल रही थी, इसलिए इन सबका यह कहना था कि यह एक व्यक्तिवादी मजदूर आंदोलन है जो कि नियोगी के साथ ही खत्म हो जाएगा। लेकिन ऐसी तमाम भविष्यवाणियों के खिलाफ नियोगी की हत्या पर भी उनके शव के साथ चलते लाख मजदूरों ने अपना आपा नहीं खोया, और आज तक यह मजदूर संगठन अपने सालाना जलसे में उसी शांति के साथ इकट्ठा होता है। आज भी संगठन छत्तीसगढ़ का सबसे मजबूत मजदूर संगठन है, और यह नियोगी का एक बड़ा योगदान था जो उन्होंने अपने न रहने के दिन भी संगठन के चलने और मजबूत रहने की मजबूती उसे दी थी।
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जिन लोगों ने नियोगी को देखा है वे जानते हैं कि ऐसा कोई मजदूर नेता इस प्रदेश में पहले हुआ नहीं, और अब नियोगी को गए 30 बरस हो रहे हैं, इन 30 बरसों में भी नियोगी के पासंग बैठने वाला भी कोई नेता छत्तीसगढ़ ने नहीं देखा है। नियोगी से जुड़े किस्से और भी बहुत कुछ हैं, लेकिन आज एक साप्ताहिक कॉलम, आजकल, लिखने का भी दिन है, इसलिए आज इससे अधिक और कुछ नहीं। बाकी फिर कभी। छत्तीसगढ़ के इस सबसे बड़े शहीद को सलाम।
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-सुनील कुमार
छत्तीसगढ़ की राजनीति और यहां के नेताओं के बीच शंकर गुहा नियोगी के बारे में कुछ लिखना कुछ अटपटा लग सकता है, लेकिन इन यादों का महज राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है, और शंकर गुहा नियोगी का राजनीति से लेना-देना था। इस मजदूर नेता पर बड़ी-बड़ी फिल्में बन सकती हैं, बड़ी-बड़ी किताबें हो सकता है कि लिखी गई हों, लेकिन मैं महज अपनी यादों तक सीमित रहूंगा।
हिन्दुस्तान में ऐसे कम ही मौके रहते हैं जब मजदूरों का इतना बड़ा नेता उद्योगपतियों द्वारा कत्ल करवा दिया जाए, उद्योगपतियों के भाड़े के हत्यारे गिरफ्तार हो जाएं, लेकिन मजदूर लाख से अधिक होने पर भी एक पत्थर भी न चलाएं। शंकर गुहा नियोगी का मजदूर संगठन, छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा, कुछ इसी किस्म का था। नियोगी की हत्या के बाद भी मजदूर संगठन बना हुआ है, और नियोगी के कुनबे के बिना चल रहा है। दल्लीराजहरा की खदानों से भिलाई इस्पात संयंत्र के लिए आयरन ओर जाता है, और इसी इलाके में खदान मजदूरों के भले के लिए उन्हें संगठित करके इस प्रदेश के इतिहास का सबसे संगठित, सबसे मजबूत, और सबसे बड़ा मजदूर संगठन शंकर गुहा नियोगी ने बनाया था जो कि खुद बाहर से यहां आए थे।
वह वक्त बड़ा दिलचस्प था। इमरजेंसी की वजह से कांग्रेस और सीपीआई के लोगों ने भारत में राजनीतिक अस्थिरता और अराजकता की साजिशों का एक हौव्वा खड़ा किया था, और उसके पीछे विदेशी हाथ बताया जाता था। जबकि हिन्दुस्तान में उस वक्त तो विदेशी छोड़ देशी हाथ भी नहीं था, और वह बाद में कांग्रेस के चुनावचिन्ह की शक्ल में आया। लेकिन उस वक्त भी कांग्रेस और सीपीआई के लोग अपनी अलग-अलग वजहों से शंकर गुहा नियोगी को नक्सली भी कहते थे, और अमरीकी एजेंट भी कहते थे। यह कुछ ऐसे थर्मस फ्लास्क की तरह का मामला था जो एक फ्लास्क में ठंडा रखता है, और दूसरे में गर्म। कोई नक्सली भी हो, और वह अमरीकी एजेंट भी हो, ऐसा इमरजेंसी के उस दौर में कांग्रेस और सीपीआई की तोहमतों में ही मुमकिन था।
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लेकिन शंकर गुहा नियोगी के ऊपर ऐसी अलग-अलग कई किस्म की तोहमतें लगाने के पीछे कई किस्म की वजहें थीं। सीपीआई ने चूंकि कांग्रेस का साथ दिया था इसलिए उसे इमरजेंसी के पक्ष में तर्क देने थे, और ऐसा करते हुए वह अपने पसंदीदा दुश्मन अमरीका पर भारत में अस्थिरता पैदा करने का आरोप भी लगा रही थी। दूसरी तरफ कांग्रेस के सामने एक दिक्कत यह थी कि नियोगी की जमीन बन जाने के वक्त अविभाजित मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी, और उद्योगपति उसके साथ थे, जिनको नियोगी से डर लग रहा था। फिर इन दोनों ही पार्टियों के साथ नियोगी को लेकर एक दिक्कत यह थी कि छत्तीसगढ़ के तमाम दूसरे मजदूर संगठन तकरीबन इन्हीं दोनों पार्टियों के थे। और नियोगी के जो तेवर थे उनके चलते इन सबकी दुकानें ठप्प पडऩे का एक खतरा खड़ा हो गया था। इसलिए कांग्रेसी और कम्युनिस्ट दोनों ही नियोगी से नफरत करते थे, क्योंकि वह भाजपा का विरोधी रहने वाला ऐसा मजदूर नेता था जो इन दोनों पार्टियों के परंपरागत मजदूरों के बीच घुसपैठ की ताकत रखता था, घुसपैठ कर चुका था।
लेकिन शंकर गुहा नियोगी का व्यक्तित्व एक अभूतपूर्व और असंभव किस्म के मजदूर नेता का था। वह इस कदर फक्कड़ था कि उसकी पत्नी खदान में मजदूरी करती थी। वह खुद मजदूर की जिंदगी जीता था। उसने तमाम वामपंथ, और तमाम मजदूर आंदोलनों को पढ़ा हुआ था, उसका बौद्धिक स्तर छत्तीसगढ़ के तमाम अखबारनवीसों के बौद्धिक स्तर से अधिक ऊंचा था, उससे राजनीति और मजदूर आंदोलन, मजदूर अधिकार को लेकर बहस करने की समझ बहुत कम लोगों में थी। वह सिर्फ जिंदाबाद-मुर्दाबाद वाला मजदूर नेता नहीं था, वह भारी पढऩे और सोचने-विचारने वाला नेता भी था।
नियोगी से मेरी मुलाकात उनके मजदूर आंदोलनों की मांगों को लेकर होने वाली गरीब सी प्रेस कांफ्रेंस में होती थी। लेकिन उसका व्यक्तित्व बांध लेने वाला था। लापरवाह हुलिया, लगातार सिगरेट, लगातार तर्कसंगत बातें जिनके पीछे बहुत गहरी समझ भी हो, और सरकार-उद्योगपतियों से लडऩे का अंतहीन हौसला। बहुत सी बातों ने मिलकर एक नियोगी को बनाया था जिससे छत्तीसगढ़ के बड़े उद्योगपति दहशत खाते थे। यही वजह रही कि उद्योगपतियों ने अपने बीच के, अपने परिवार के एक आदमी को लगाकर, बाहर से भाड़े का हत्यारा बुलाकर सोए हुए नियोगी की हत्या करवा दी, और सजा पाने वालों में सबसे बड़े उद्योग के परिवार का एक व्यक्ति भी रहा।
राजनीति से नियोगी का थोड़ा सा लेना-देना रहा जब उन्हें लगा कि विधानसभा में अगर उनका कोई विधायक नहीं होगा तो मजदूरों की बात वहां नहीं उठ पाएगी। उस वक्त नियोगी ने अपने एक मजदूर साथी जनकलाल ठाकुर को विधानसभा का चुनाव लड़वाया, और छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के घोषित उम्मीदवार के रूप में वे एक बार विधायक रहे। इस एक-दो विधानसभा चुनाव से परे छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा की चुनावी राजनीति में कोई हिस्सेदारी नहीं रही। लेकिन वह कुछ ऐसे दूसरे संगठनों के साथ जरूर जुड़ा रहा जिन्हें हिन्दुस्तान में शक की नजरों से देखा जाता था, और यह माना जाता था कि वे इस देश में अस्थिरता पैदा करने के लिए ही काम कर रहे हैं।
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पीयूसीएल नाम का मानवाधिकार संगठन छत्तीसगढ़ में नियोगी के संगठन छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के साथ कदम मिलाकर चलने वाला था, दोनों संगठन अलग थे, लेकिन मजदूरों के शोषण, और मानवाधिकार जैसे कुछ मुद्दों पर ये साथ भी रहते थे। छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा की तरह ही पीयूसीएल भी सरकार की आंखों की किरकिरी था क्योंकि वह बंधुआ मजदूरों के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट तक से केस जीतकर यहां हजारों बंधुआ मजदूरों को मुक्त करवा रहा था जो कि कांग्रेस और भाजपा के बहुत से नेताओं के बंधुआ मजदूर थे। कुल मिलाकर सत्तारूढ़ रहते हुए कांग्रेस, या सत्ता में एक बार आई हुई भाजपा, इन दोनों को छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा और पीयूसीएल एक से नापसंद थे, और इनके साथ-साथ सीपीआई को भी इन दोनों से बहुत ही परहेज था, इन्हें सीआईए का एजेंट कहने में एक पल की देर नहीं की जाती थी।
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अब नियोगी के कत्ल को भी कई दशक हो गए हैं, और इस दौरान दिल्ली से लेकर भोपाल तक की सरकारें, कांग्रेस और भाजपा दोनों ही चला चुकी हैं, लेकिन इन दोनों संगठनों के खिलाफ किसी के पास कुछ नहीं है, जिसका मतलब है कि इन पर नक्सल-समर्थक होने, या सीआईए का एजेंट होने की तोहमतें फर्जी थीं। झगड़ा अस्तित्व का था, वर्गहित का था। वर्गहित ऐसे कि कांग्रेस और भाजपा दोनों ही उद्योगपतियों के साथ थीं, और सीपीआई का वर्गहित टकराव ऐसे हो रहा था कि उसका मजदूर संगठन नियोगी के मुकाबले हाशिए पर जा रहा था, जा चुका था।
ऐसे नियोगी को कई बार कई आंदोलनों के सिलसिले में जेल में भी रखा गया। ऐसे ही कुछ मौकों पर मुझे जेल जाकर सुपरिटेंडेंट के कमरे में नियोगी से लंबी वैचारिक बातचीत करने का भी मौका मिला। उनके मुकाबले मैंने मानो कुछ भी नहीं पढ़ा हुआ था, और हर मुलाकात मेरी जानकारी, और मेरी समझ को बढ़ाते जाती थी।
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लेकिन नियोगी से एक आखिरी मुलाकात न हो पाने का मुझे लंबा मलाल रहा, आज भी है, और जब-जब नियोगी को याद करना होगा, यह मलाल सिर पर चढ़े रहेगा।
भोपाल से एक अखबारनवीस दोस्त एन.के. सिंह रायपुर आए हुए थे। वे उस समय इंडिया टुडे के लिए भोपाल से पूरा अविभाजित मध्यप्रदेश कवर करते थे। उनके साथ इसी पत्रिका के फोटोग्राफर, अगर नाम मुझे ठीक से याद है तो, प्रशांत पंजियार भी थे। वे पिकैडली होटल में ठहरे थे जहां शाम को खाने के लिए पीयूसीएल के राजेन्द्र सायल, और भिलाई से शंकर गुहा नियोगी भी पहुंचे हुए थे। एन.के. सिंह ने मुझे भी न्यौता दिया था, लेकिन उन दिनों अखबार का रात का काम खत्म ही नहीं हो रहा था, दूसरी तरफ मेरा गला इतना खराब था कि मुझसे बात करते भी बन नहीं रहा था। ऐसे में लंबी बातचीत और बहस की किसी शाम में गले के और अधिक चौपट हो जाने का खतरा था। मुझे शाम से रात तक कुछ बार एन.के.सिंह का फोन आया, और मेरा जाना हो ही नहीं पाया। अगली सुबह शायद 5-6 बजे की बात होगी एन.के. सिंह का फोन आया, और उन्होंने बताया कि नियोगी का कत्ल कर दिया गया है। भिलाई में उनके घर पर किसी ने गोली मार दी है, और वे तुरंत वहां रवाना हो रहे हैं।
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यह खबर सुनते ही हाथ-पैर ठंडे पड़ गए कि बीती शाम ही जिसके साथ लंबी बातचीत होनी थी, जिसमें छत्तीसगढ़ के मजदूरों को अपना एक मसीहा दिखता था, एक ऐसा मजदूर नेता जिसने छत्तीसगढ़ में यह साबित किया था कि कारखानेदारों का दलाल हुए बिना भी मजदूर आंदोलन चलाया जा सकता है, उनसे किसने इस तरह मार दिया। तब तक यह अहसास नहीं था कि कारखानेदार ऐसा कत्ल करवा सकते हैं। लेकिन कुछ देर में यह बात याद आने लगी कि नियोगी कई बार कहा करता था कि उसका कत्ल करवाया जा सकता है। मुझे हर बार यही लगता था कि लाख मजदूरों के इस नेता को छूने का हौसला भला किसका हो सकता है? लेकिन आखिर में हुआ वही, लाख मजदूरों का साथ धरे रह गया, और भाड़े के एक हत्यारे को लेकर उद्योगपतियों ने देश के इस एक सबसे चर्चित मजदूर नेता को मरवा डाला। बंगाल से आकर छत्तीसगढ़ में मजदूरों को एक करने, उनके हक की लड़ाई लडऩे, उनके इलाज के लिए अभूतपूर्व अस्पताल खोलने और इतिहास का एक सबसे मजबूत मजदूर संगठन खड़ा करने वाले इस नौजवान नेता को मरवाकर भी कारखानेदार उसका मजदूर संगठन खत्म नहीं करवा पाए जो कि आज भी चल रहा है। नियोगी के बारे में कुछ और यादें, कई और बातें अगली किस्त में।
-सुनील कुमार
दुनिया और हमारे देश में आत्महत्या सबसे तेजी से बढ़ती बीमारी है। यह मानसिक कमजोरी है। मन को न संभाल पाने की कमी है। दुनिया से जूझना उतना मुश्किल है जितना खुद को संभालना है। अपने अस्तित्व को पहचानना सबसे बड़ा काम है।
नवीनता और ताजगी के प्रति उत्सुकता होना बहुत है। हमारे आसपास जो कुछ नया घट रहा होता है, हम उसके प्रति उत्सुक और आकर्षित होते हैं। नई चीज़ों के बारे में जानने के लिए प्रयासरत होना भी इससे जुड़ी हुई बात है। लेकिन यह सब चीज़ें अधिकतर हमारी बाहरी दुनिया के बारे में हैं। भीतर जो कुछ घट रहा है, उसके बारे में हम इतने भी सजग नहीं कि इस बात को समझ पाएं कि मन से भी पुरानी जड़, खरपतवार और घास-फूस साफ करने की जरूरत है। उसके बिना ताज़ा, प्रफुल्लित, आनंदित मन का होना संभव नहीं!
एक किसान नई फसल से पहले जिस तरह अपने खेत को तैयार करता है। अपने मन के प्रति भी हमें वैसे ही सजगता और सावधानी रखनी होगी। भीतर ही भीतर बहुत कुछ टूटता और घुटता रहता है। उस टूटन और खरपतवार के मन के भीतर उगने से हमें निरंतर सजग दृष्टि ही बचा सकती है। यह सब कुछ बहुत आंतरिक है! इतना अधिक आंतरिक कि कई बार हमें इस बात का पता भी नहीं चलता कि हम टूट रहे हैं।
सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या के बाद बॉलीवुड के छोटे पर्दे से जुड़े दो कलाकार बाहरी दुनिया के दबाव संभाल पाने में असफल रहे हैं। इनमें से समीर शर्मा ने गुरुवार को ही आत्महत्या की है। उनके कारणों का अभी सामने आना बाकी है।
हमें इस बात को समझना होगा कि जिन चीजों को हम सामान्य मानते जाते हैं, हमारे बीच बढ़ती ही जाती हैं। ठीक उसी तरह जैसे हमने कैंसर को सामान्य मान लिया। मलेरिया को सामान्य मान लिया। हमने उसके होने के कारणों को जड़ से मिटाने पर जोर नहीं दिया। पूरी दुनिया में बीमारियों को व्यवस्थित करने का प्रयास खास तरह के व्यापार से जुड़े लोग समय-समय पर करते रहते हैं। क्योंकि इससे उनके हित पूरे होते हैं।
ऐसा ही कुछ आत्महत्या के साथ हो रहा है। हम उसके कारणों पर तो बात कर लेते हैं लेकिन इसकी जड़ कहां है। इसे रोका किस तरह जाए। इस पर कोई संवाद नहीं। दुनिया और हमारे देश में आत्महत्या सबसे तेजी से बढ़ती बीमारी है। यह मानसिक कमजोरी है। मन को न संभाल पाने की कमी है। दुनिया से जूझना उतना मुश्किल है जितना खुद को संभालना है। अपने अस्तित्व को पहचानना सबसे बड़ा काम है।
मनुष्य अंतरिक्ष तक की यात्राएं आसानी से कर ले रहा है, लेकिन वह अपने ही जटिल मन के भीतर प्रवेश कर पाने में सक्षम नहीं है। अपने ही मन से संवाद टूटा हुआ है। डर लगता है, हमें अपने ही भीतर उतरने में!
छोटी सी कहानी कहता हूं, आपसे। संभव है इससे मेरी बात आपको अधिक स्पष्ट हो सके।
एक राजा के तीन पुत्र थे। तीनों बुद्धिमता और शारीरिक क्षमता, दक्षता की कसौटी पर एक जैसे दिखते थे। राजा की उम्र हो चली थी। उसने तीनों में से किसी एक को अपना उत्तराधिकारी बनाने का फैसला किया था। बहुत से उपाय किए लेकिन वह किसी अंतिम नतीजे पर नहीं पहुंच पा रहा था। एक दिन वह कुछ चिंतित था। उसी समय उसका एक बहुत ही प्रिय सेवक उसके पास आया। जो किसान भी था। बुजुर्ग और अनुभवी भी।
राजा को उसने एक उपाय सुझाया। राजा को बात जंच गई। अगले दिन उसने अपने तीनों बेटों को बुलाया। उन्हें एक-एक बोरी बीज देते हुए कहा। इन्हें संभाल कर रखना। एक वर्ष बाद मैं इसका पूरा हिसाब लूंगा। यह बहुत ही कीमती हैं। इनका कैसे उपयोग करना है, यह सब कुछ तुम तीनों पर निर्भर करता है। जो इसे सबसे अच्छे तरीके से सहेज कर रखेगा, वही राज्य का राजा होगा। अब मैं तुम तीनों से एक बरस बाद ही मिलूंगा।
बड़े बेटे ने तुरंत अपने सलाहकार को बुलाया। सलाहकार ने उसे समझाया अगर महाराज की दृष्टि में यह कीमती बीज हैं, तो इसे संभाल कर अपने खजाने में रख लीजिए। हमें यह भी देखना होगा कि कहीं से कोई नुकसान ना पहुंचा दे। कोई इसे चुरा कर ना ले जाए, इसलिए यह भी जरूरी है कि इसे कड़े पहरे में रखा जाए। बीच-बीच में हम दोनों इसकी सुरक्षा जांचते रहेंगे।
दूसरे नंबर के बेटे ने उन बीजों को अपने हिस्से की दूर-दूर तक फैली जमीनों के एक हिस्से में बारिश के मौसम में खेत में बोने का आदेश दे दिया। उसने यह देखना और जानना जरूरी नहीं समझा कि बीज कहां बोए जा रहे हैं। उसने यह भी सुनिश्चित नहीं किया कि बोलने से पहले खेतों की ठीक तरह से सफाई की जाए। खरपतवार हटाए जाएं। उन खेतों में पिछली फसल के कचरे को ठीक तरह से हटाया जाए। खेतों की रखवाली और दूसरे इंतजाम भी उसने केवल अपने कर्मचारियों के भरोसे छोड़ दिए। वह एक राजकुमार था, जिसके साथ कुछ समय बाद राजा बनने की संभावना थी। इसलिए वह राजकाज के मामलों की जानकारी हासिल करने में पूरा समय लगाता। दिन भर सलाहकारों से घिरा रहता और हमेशा उनके बताए उपायों के अनुसार ही काम करता।
तीसरा और सबसे छोटे बेटा दोनों से अलग था। वह दिए गए काम को पूरी तल्लीनता से करता। उसके लिए कोई काम छोटा बड़ा नहीं था। समय आने पर वह अपने हिस्से की जमीन का दौरा करने खुद गया। वहां उसने जमीनों का देखभाल करने वाले मजदूरों से देर तक बातचीत की। उनसे बीजों की प्रकृति और मिट्टी की पूरी जानकारी ली। अच्छी तरह खेतों की साफ सफाई सुनिश्चित कराई। समय आने पर बीज बोए गए। जब तक फसल तैयार नहीं हुई वह नियमित रूप से उसकी देखभाल का हिस्सा बना। उसने खेत की सफाई, खरपतवार हटाने, घास फूस काटने से लेकर फसल काटने तक में सतत भूमिका निभाई।
फसल काटने में कुछ ही दिन बचे थे कि राजा के यहां से बुलावा आ गया। उन्होंने बेटों से बीजों का हिसाब मांगा। बड़ा बेटा उन्हें अपने खजाने में ले गया और ताले खुलवा कर दिखाया कि बीज यहीं रखे गए थे। बीज खजाने की अलमारियों में नहीं रखे जाते। नियमित समय पर उनकी देखभाल की जरूरत होती है। उसके बीज खराब होना शुरू हो गए थे। खराब होने को ही थे।
उसने दूसरे बेटे की ओर देखा जो उसे अपने साथ उस जमीन पर ले गया जहां वह आज तक कभी गया ही नहीं था। उसका सलाहकार राजा को जानकारी देने का प्रयास कर रहा था। क्योंकि राजकुमार को उस जमीन और फसल के बारे में सीधे कोई जानकारी नहीं थी। उसने पिताजी से बताया कि उसने बीजों को यहां पर बोने का आदेश दिया था। लेकिन बारिश ठीक से न होने, मजदूरों की लापरवाही से फसल ठीक से नहीं हुई। लेकिन राजा देख पा रहा था कि यह उसके दिए हुए बीजों के लिए सही जमीन नहीं थी।
तीसरा बेटा राजा के आदेश की प्रतीक्षा में था। उसने राजा और अपने दो भाइयों को विनम्रता से अपने रथ पर आमंत्रित किया। उसके बाद वह स्वयं उन्हें अपनी जमीन की ओर ले गया। उसने राजा को हर छोटी से छोटी चीज़ की जानकारी दी, खेती-किसानी के बारे में जो उसने स्वयं पिछले एक बरस में हासिल की थी।
लहलहाती फसल देखकर राजा का मन हर्षित हो गया। दूर-दूर तक फसल पर सूर्य की किरणें मानो उस पर अपना आशीर्वाद बरसा रही थीं। राजकुमार ने उसके इस काम में मदद करने वाले सभी लोगों का परिचय राज्य से करवाया। उसने कहा, पिताजी कुछ समय बाद आपके बीज कई गुना होकर आपके पास पहुंच जाएंगे। राजा ने अगले ही दिन घोषणा कर दी थी उनका सबसे छोटा बेटा ही राज्य का नया राजा होगा!
यह कहानी राजा बनने के बारे में नहीं है। उन गुणों के बारे में भी नहीं जो नेतृत्व के लिए होने चाहिए। बल्कि यह उस तैयारी के बारे में है, जो मन को हमेशा करते रहना चाहिए। रिश्तों की नई फसल बोने से पहले, नए रिश्ते में प्रवेश करने से पहले। किसी रिश्ते को खत्म करने के बाद। नाराजगी और गुस्से के तूफान के अपने ऊपर से गुजरने के बाद। हमें अपने मन को ठीक उसी तरह तैयार करना है, जैसे किसान हर फसल के पहले अपने खेतों को तैयार करता है। ऐसे ही हमारा मन हमेशा ताजा, आनंदित और सुगंधित बना रहेगा! (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
मोतीलाल वोरा के बारे में कल बात शुरू हुई, तो किसी किनारे नहीं पहुंच पाई। दरअसल उनके साथ मेरी व्यक्तिगत यादें भी जुड़ी हुई हैं, और उनके बारे में बहुत कुछ सुना हुआ भी है। फिर उनका इतना लंबा सक्रिय राजनीतिक जीवन है कि उनसे जुड़ी कहानियां खत्म होती ही नहीं।
जब वे अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे तो उन्हें हटाने के लिए कांग्रेस के भीतर के लोग लगातार लगे रहते थे। वैसे में माधवराव सिंधिया उनके संरक्षक बनकर दिल्ली दरबार में उन्हें बचाए रखते थे। इस बात में कुछ भी गोपनीय नहीं था, और हर हफ्ते यह हल्ला उड़ता था कि वोराजी को हटाया जाने वाला है। नतीजा यह था कि उस वक्त एक लतीफा चल निकला था कि वोराजी जब भी शासकीय विमान में सफर करते थे, तो विमान के उड़ते ही उसका वायरलैस बंद करवा देते थे। उसकी वजह यह थी कि उन्हें लगता था कि उड़ान के बीच अगर उन्हें हटाने की घोषणा हो जाएगी, तो पायलट उन्हें बीच रास्ते उतार न दे।
वोराजी का पांच साल का पूरा कार्यकाल ऐसी चर्चाओं से भरे रहा, और वे इसके बीच भी सहजभाव से काम करते रहे। सिंधिया को छत्तीसगढ़ के अनगिनत कार्यक्रमों में उन्होंने बुलाया, और उस वक्त के रेलमंत्री रहे माधवराव सिंधिया ने छत्तीसगढ़ के लिए भरपूर मंजूरियां दीं। उस वक्त अखबारनवीसी कर रहे लोगों को याद होगा कि इनकी जोड़ी को उस समय मोती-माधव या माधव-मोती एक्सप्रेस कहा जाता था। माधवराव सिंधिया परंपरागत रूप से अर्जुन सिंह के प्रतिद्वंदी थे, और छत्तीसगढ़ के शुक्ल बंधुओं से भी उनका कोई प्रेमसंबंध नहीं था। ऐसे में केन्द्र में ताकतवर सिंधिया को राज्य में मोतीलाल वोरा जैसे निरापद मुख्यमंत्री माकूल बैठते थे, और ताकत में वोराजी की सिंधिया से कोई बराबरी नहीं थी। नतीजा यह था कि ताकत के फासले वाले इन दो लोगों के बीच जोड़ीदारी खूब निभी।
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मुख्यमंत्री रहने के अलावा जब वोराजी को राजनांदगांव संसदीय सीट से उम्मीदवार बनाया गया, तब उन्होंने चुनाव प्रचार में उसी अंदाज में मेहनत की, जिस अंदाज में वे मुख्यमंत्री रहते हुए रोजाना ही देर रात तक काम करने के आदी थे। इस संसदीय चुनाव प्रचार के बीच मैंने उनको इंटरव्यू करने के लिए समय मांगा तो उनका कहना था कि वे सात बजे चुनाव प्रचार के लिए राजनांदगांव से रवाना हो जाते हैं, और देर रात ही लौटते हैं। ऐसे में अगर मैं मिलना चाहता था, तो मुझे सात बजे के पहले वहां पहुंचना था। मैं स्कूटर से रायपुर से रवाना होकर दो घंटे में 7 बजे के पहले ही राजनांदगांव पहुंच गया, वहां वे एक तेंदूपत्ता व्यापारी के पत्ता गोदाम में बने हुए एक गेस्टरूम में सपत्नीक ठहरे थे, और करीब-करीब तैयार हो चुके थे।
वे मेरे तेवर भी जानते थे, और यह भी जानते थे कि उनके प्रति मेरे मन में न कोई निंदाभाव था, और न ही प्रशंसाभाव, फिर भी उन्होंने समय दिया, सवालों के जवाब दिए, और शायद इस बात पर राहत भी महसूस की कि मैंने अखबार के लिए चुनावी विज्ञापनों की कोई बात नहीं की थी। चुनाव आयोग के प्रतिबंधों के बाद चुनावी-विज्ञापन शब्द महज एक झांसा है, हकीकत तो यह है कि अखबार उम्मीदवारों और पार्टियों से सीधे-सीधे पैकेज की बात करते हैं। वह दौर ऐसे पैकेज शुरू होने के पहले का था, लेकिन यह आम बात है कि अखबारों के रिपोर्टर ही उम्मीदवारों से विज्ञापनों की बात कर लेते थे, कर लेते हैं, लेकिन वोराजी से न उस वक्त, और न ही बाद में कभी मुझे ऐसे पैकेज की कोई बात करनी पड़ी, और नजरों की ओट बनी रही।
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वोराजी खुद भी एक वक्त कम से कम एक अखबार के लिए तो काम कर ही चुके थे, और उनके छोटे भाई गोविंदलाल वोरा छत्तीसगढ़ के एक सबसे बुजुर्ग और पुराने अखबारनवीस-अखबारमालिक थे, इसलिए वोराजी को हर वक्त ही छत्तीसगढ़ के मीडिया की ताजा खबर रहती थी, भोपाल में मुख्यमंत्री रहते हुए भी, और केन्द्र में मंत्री या राष्ट्रपति शासन में उत्तरप्रदेश को चलाते हुए। जितनी मेरी याददाश्त साथ दे रही है, उन्होंने कभी अखबारों को भ्रष्ट करने, या उनको धमकाने का काम नहीं किया। वह एक अलग ही दौर था।
मोतीलाल वोरा मुख्यमंत्री रहे, अविभाजित मध्यप्रदेश के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहे, लेकिन छत्तीसगढ़ में वे अपने कोई सहयोगी नहीं बना पाए। दुर्ग में दो-चार लोग, और रायपुर में पांच लोग उनके नाम के साथ गिने जाते थे। रायपुर में तो उनके करीबी पांच लोगों की शिनाख्त इतनी जाहिर थी कि उन्हें पंच-प्यारे कहा जाता था। इन लोगों के लिए भी वोराजी कुछ जगहों पर मनोनयन से बहुत अधिक कुछ कर पाए हों, ऐसा भी याद नहीं पड़ता। लेकिन उनकी एक खूबी जरूर थी कि वे छत्तीसगढ़ के हजारों लोगों के लिए बिना देर किए सिफारिश की चिट्ठी लिखने को तैयार हो जाते थे।
यूपीए सरकार के दस बरसों में देश में उनका नाम बड़ा वजनदार था। एक दोस्त की बेटी मुम्बई के एचआर कॉलेज में ही दाखिला चाहती थी। उस कॉलेज में दाखिला बड़ा मुश्किल भी था। उनके साथ मैं वोराजी के पास दिल्ली गया, दिक्कत बताई, तो वे सहजभाव से सिफारिश की चिट्ठी लिखने को तैयार हो गए। हम लोगों को कमरे में बिठा रखा, चाय और पान से स्वागत किया, पीछे के कमरे में जाकर अपने टाईपिस्ट के पास खड़े रहकर चिट्ठी लिखवाई उसे मुम्बई कॉलेज में फैक्स करवाया, और फैक्स की रसीद के साथ चिट्ठी की एक कॉपी मुझे दी, और कॉलेज के संस्थापक मुंबई के एक बड़े बिल्डर हीरानंदानी से फोन पर बात करने की कोशिश भी की, लेकिन बात हो नहीं पाई।
चिट्ठी के साथ जब मैं अपने दोस्त और उनकी बेटी के साथ मुंबई गया, तो एचआर कॉलेज के बाहर मेला लगा हुआ था। उस भीड़ के बीच भी हमारे लिए खबर थी, और कुछ मिनटों में हम प्रिंसिपल के सामने थे। इन्दू शाहणी, मुंबई की शेरिफ भी रह चुकी थीं। उनकी पहली उत्सुकता यह थी कि मैं वोराजी को कैसे जानता हूं, उन्होंने सैकड़ों पालकों की बाहर इंतजार कर रही कतार के बाद भी 20-25 मिनट मुझसे बात की, जिसमें से आधा वक्त वे वोराजी और छत्तीसगढ़ के बारे में पूछती रहीं। सबसे बड़ी बात यह रही कि जिस दाखिले के लिए 10-20 लाख रूपए खर्च करने वाले लोग घूम रहे थे, वह वोराजी की एक चिट्ठी से हो गया। लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि बाद में उन्होंने कभी चुनाव के वक्त या किसी और राजनीतिक काम से कोई खर्च बताया हो। वे उसे सज्जनता के साथ भूल गए, और दीवाली पर मेरे दोस्त मेरे साथ सिर्फ मिठाई का एक साधारण डिब्बा लेकर उनके घर दुर्ग गए, तो भी उनका कहना था कि अरे इसकी क्या जरूरत थी।
मोतीलाल वोरा राजनीति में लगातार बढ़ती चली जा रही कुटिलता के बीच सहज व्यक्ति थे। वे बहुत अधिक साजिश करने के लिए कुख्यात नेताओं से अलग दिखते थे, और अभी भी अलग दिखते हैं। उनकी पसंद अलग हो सकती है, लेकिन अपनी पसंद को बढ़ावा देने के लिए, या नापसंद को कुचलने के लिए वे अधिक कुछ करते हों, ऐसा कभी सुनाई नहीं पड़ा।
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छत्तीसगढ़ में अभी कांग्रेस की सरकार बनी, तो दिल्ली से ऐसी चर्चा आई कि वोराजी की पहल पर, और उनकी पसंद पर ताम्रध्वज साहू को मुख्यमंत्री बनाना तय किया गया था, और इस बात की लगभग घोषणा भी हो गई थी, लेकिन इसके बाद भूपेश बघेल और टी.एस. सिंहदेव ने एक होकर, एक साथ लौटकर जब यह कह दिया कि वे ताम्रध्वज के साथ किसी ओहदे पर कोई काम नहीं करेंगे, तो ताम्रध्वज का नाम बदला गया, और भूपेश बघेल का नाम तय हुआ। ये तमाम बातें वैसे तो बंद कमरों की हैं, लेकिन ये छनकर बाहर आ गईं, और इनसे मोतीलाल वोरा और भूपेश बघेल के बीच एक दरार सी पड़ गई।
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अभी जब छत्तीसगढ़ से राज्यसभा के कांग्रेस उम्मीदवार तय होने थे, तब मोतीलाल वोरा से जिन्होंने जाकर कहा कि उन्हें राज्यसभा में रहना जारी रखना चाहिए, तो आपसी बातचीत में उन्होंने यह जरूर कहा था कि भूपेश बघेल उनका नाम होने देंगे? और हुआ वही, हालांकि यह नौबत शायद छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के दरवाजे तक नहीं आई, और कांग्रेस पार्टी ने दिल्ली में ही यह तय कर लिया कि वोराजी का उपयोग अब राज्यसभा से अधिक संगठन के भीतर है, और केटीएस तुलसी जैसे एक सीनियर वकील की पार्टी को इस मौके पर अधिक जरूरत है।
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वोराजी का बहुत बड़ा कोई जनाधार कभी नहीं रहा, वे पार्टी के बनाए हुए रहे, और जनता के बीच अपने सीमित असर वाले नेता रहे। लेकिन उनके बेटों की वजह से कभी उनकी कोई बदनामी हुई हो, ऐसा नहीं हुआ, और राजनीति में यह भी कोई छोटी बात तो है नहीं। छत्तीसगढ़ की एक मामूली नौकरी से लेकर वे कांग्रेस पार्टी में उसके हाल के सबसे सुनहरे दस बरसों में सबसे ताकतवर कोषाध्यक्ष और पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के सबसे करीबी व्यक्ति रहे, आज भी हैं। आज दिन सुनहरे नहीं हैं, कांग्रेस पार्टी, सोनिया परिवार, और इन दोनों से जुड़ी हुई कुछ कंपनियां लगातार जांच और अदालती मुकदमों का सामना कर रही हैं, और उनमें मोतीलाल वोरा ठीक उतने ही शामिल हैं, ठीक उतनी ही दिक्कत में हैं, जितने कि सोनिया और राहुल हैं। किसी एक नाव पर इन दोनों के साथ ऐसे सवार होना भी कोई छोटी बात नहीं है, और रायपुर की एक बस कंपनी के एक मुलाजिम से लेकर यहां तक का लंबा सफर खुद मेरे देखे हुए बहुत सी और यादों से भरा हुआ है, लेकिन उनके बारे में किसी अगली किस्त में।
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-सुनील कुमार
-श्रवण गर्ग
पाँच अगस्त दो हजार बीस को सम्पूर्ण देश(और विश्व) के असंख्य नागरिकों ने भगवान राम के जिस चिर-प्रतीक्षित स्वरूप के अयोध्या में दर्शन कर लिए उसके बाद हमें इसे एक रथ यात्रा, एक लड़ाई, एक लम्बे संघर्ष का अंत मानते हुए अब किसी अन्य जरूरी काम में जुट जाना चाहिए या फिर और कोई अधूरा संकल्प हमारी नयी व्यस्तता की प्रतीक्षा कर रहा है? इतने लम्बे संघर्ष के बाद अगर थोड़ी सी भी थकान महसूस करते हों, तो यह स्वीकार करना चाहिए कि जिस एक काम में इतनी बड़ी आबादी ने अपने आपको इतने दशकों तक लगाकर रखा केवल उसे ही इतने बड़े राष्ट्र के पुरुषार्थ की चुनौती नहीं माना जा सकता। हम शायद इस बात का थोड़ा लेखा-जोखा करना चाहें कि आजादी हासिल करने के बाद सात दशकों से ज़्यादा का समय हमने कैसे गुजारा और उसमें हमारे सभी तरह के शासकों की प्रत्यक्ष-परोक्ष भूमिकाएँ और उनके निहित स्वार्थ किस प्रकार के रहे होंगे।
हमें कोई दूसरा समझाना ही नहीं चाहेगा कि सांस्कृतिक स्वतंत्रता प्राप्ति के जश्न के कोलाहल के बीच एक दूसरी बड़ी आबादी अपनी सुरक्षा को लेकर इतनी भयभीत और अलग-थलग सी महसूस क्यों कर रही है। न सिर्फ इतना ही ! इस भय की मौन प्रतिक्रिया में उस आबादी की व्यस्तताएँ किसी तरह के अनुत्पादक कार्यों में जुट रही हैं ? मसलन, क्या हम पता करने का साहस करेंगे कि अयोध्या में उच्चारे गए पवित्र मंत्रों की गूंज देश की ही आत्मा के एक हिस्से कश्मीर घाटी में किस तरह से सुनाई दी गई होगी ! जैसा कि दर्द बयाँ किया जा रहा है: कश्मीरी पहले तो दिल्ली में ही पराए गिने जाते थे, अब खुद अपनी जमीन पर भी परायापन महसूस करने लगे हैं। क्या कश्मीरी नागरिक अपने पिछले पाँच अगस्त को भूल चुके हैं ?
एक विकासशील राष्ट्र के तौर पर अपने पिछले सत्तर सालों की विकास यात्रा पर थोड़ा सा भी गर्व महसूस करने की स्थिति में पहुँचने के लिए जरूरी हो गया है कि हम अयोध्या नगरी से अपने आपको किसी और समय पर वापस लौटने तक के लिए यह मानते हुए बाहर कर लें कि मिशन अब पूरा हो गया है। इस बात की बड़ी आशंका है कि नागरिकों की आत्माएँ अयोध्या के मोह से बाहर निकल ही नहीं पाएँ । उन्हें धार्मिक-आध्यात्मिक व्यस्तताओं से जोड़े रखने के लिए किसी नई अयोध्या के निर्माण के सपने बाँट दिए जाएँ । नागरिक हतप्रभ हो जाने की स्थिति में इस तरह सम्मोहित हो जाएँ कि अपनी उचित भूमिका को लेकर ही उनमें भ्रम उत्पन्न होने लगे। उन्हें सूझ ही नहीं पड़े कि सीमाओं पर चल रहे तनाव को लेकर किस तरह से जानकार बनना चाहिए! महामारी से लड़ाई को लेकर उन्हें गफलत में तो नहीं रखा जा रहा है! या यह कि अब कौन सा नया बलिदान उनकी प्रतीक्षा कर सकता है!
हमारी अब तक की उपलब्धियों को क्या इस कसौटी पर भी नहीं कसना चाहिए कि अनाज की भरपूर फसल और असीमित भंडारों के बावजूद सरकार का मानना है कि अस्सी करोड़ लोगों को उसकी मदद की जरूरत है। क्या इसका कारण यह नहीं समझा जाए कि इतने वर्षों की प्रगति के बाद भी इतनी बड़ी आबादी के पास अपना पेट भरने के आर्थिक साधन उपलब्ध नहीं हैं? हमसे भी बड़ी जनसंख्या वाले चीन सहित दूसरे देशों में भी क्या जनता इसी तरह के संघर्षों में जुटी है या फिर उनकी चिंताएँ उसी तरह की आधुनिक हैं जिस तरह के आधुनिक प्रतिष्ठान का निर्माण अब हम पूरी अयोध्या में करना चाहते हैं ? ज़्यादा चिंता इस बात की भी है कि राजनीति में धर्म के बजाय धर्म की राजनीति को लेकर जो ताक़तें अभी तक विभाजित संकल्पों के रूप में उपस्थित थीं वे अब एकजुट होकर नागरिक प्रवाह को बदलना चाहती हों।
इस सवाल से कैसे मुक्त हुआ जा सकता है कि लाखों की संख्या वाले साधु-संत, उनके करोड़ों शिष्य और भक्तों के साथ वे अनगिनत कार्यकर्ता जो मंदिर-निर्माण के कार्य को अपने संकल्पों की प्रतिष्ठा मानते हुए इतने वर्षों से लगातार संघर्ष कर रहे थे राम जन्म भूमि के छ: अगस्त के सूर्यास्त के साथ ही हर तरह की चिंताओं से बेफिक्र हो गए होंगे ! निश्चित ही इन सब को भी कोई नया धार्मिक-आध्यात्मिक उपक्रम चाहिए। यह स्थिति ऐसी ही है कि सामरिक युद्ध में विजय के बाद शांतिकाल में सैनिकों के कौशल का किस तरह से इस्तेमाल किया जाए? दूसरे यह कि देश को अब तक यही बताया गया है कि मंदिर निर्माण के कार्य में जुटे लोगों का किसी राजनीतिक दल से सीधा सम्बंध नहीं है, सहानुभूति हो सकती है।
भारत की राजनीति के लिए पाँच अगस्त के दिन को भारतीय जनता पार्टी के लिए भी आजादी के दिवस की उपलब्धि के रूप में गिनाया जा सकता है। वह इस मायने में कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने उसे इस आरोप से लगभग बरी कर दिया कि वह (भाजपा) केंद्र और राज्यों में सत्ता की प्राप्ति के लिए राम मंदिर को मुद्दा बनाकर देश में साम्प्रदायिक धु्रवीकरण कर रही है। भाजपा अब संतोष जाहिर कर सकती है कि राम मंदिर भूमि पूजन के अवसर पर कांग्रेस ने प्रियंका गांधी के जरिए जो वक्तव्य जारी किया उसकी शुरुआत ‘राम सब में हैं, राम सबके साथ हैं ‘से की और अंत ‘जय सियाराम’ से किया। प्रधानमंत्री मोदी ने भी तो शुरुआत और अंत ऐसे ही ‘जय सियाराम ‘से किया। गांधी परिवार अगर छ: दिसम्बर 1992 को ही तब प्रधानमंत्री पी व्ही नरसिंह राव के साथ खड़ा नजर आ जाता तो कांग्रेस और मंदिर निर्माण को एक चौथाई शताब्दी का इंतजार नहीं करना पड़ता। देश का भी बहुत सारा कीमती वक्त बच जाता।
हम अदृश्य खूंटियों से बंधे रहते हैं। खुद को स्वतंत्र करने से डरते रहते हैं। अपने निर्णय लेने का साहस नहीं जुटा पाते! नए रास्तों पर चलने के लिए खुद को समझाना, नई पगडंडियों पर कदम बढ़ाने को मन को सजग करना होगा। मन के साथ होशपूर्ण व्यवहार करने का प्रयास कीजिए।
सबसे मुश्किल काम है खुद को समझाना। हम स्वयं को इतना अधिक परिपक्व, सही और निर्णायक समझते हैं कि अपने लिए गए फैसले, धारणा से बाहर देख नहीं पाते। इसलिए दुनिया जिस तरफ भागती रहती है, हम भी उसी तरफ दौडऩे लगते हैं। इसका सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि हम भीड़ में शामिल हो जाते हैं।
भीड़ में शामिल लोगों का अपना कोई भी नहीं होता, लेकिन हौसला जरूर होता है। पहचाने और पकड़े जाने के डर से भी मुक्ति होती है। इसलिए अधिकांश लोग भीड़ में दिखना चाहते हैं। जिस तरह का व्यवहार सब लोग कर रहे हैं उसी तरह का करते रहने से सुरक्षा का भरोसा बना रहता है।
यह जीवन प्रक्रिया बाहर से देखने में सुरक्षित लगती है लेकिन अंदर हमें कमजोर, साहसहीन और दुखी बनाती जाती है। भेड़ों के बारे में तो हमने बहुत सुना है, अक्सर हम उनका मजाक नहीं उड़ाते हैं क्योंकि भेड़ केवल समूहों का रास्ता अपनाती है। लेकिन लंबे समय तक अगर हम किसी का मजाक उड़ाते रहें, उसके बारे में बात करते रहें तो यह खतरा बना रहता है कि हम भी कहीं उसके जैसे न हो जाएं। भेड़ों के मामले में हमारे साथ बिल्कुल ऐसा ही हो चुका है।
हम तेजी से मनुष्य से भेड़ बनने की ओर बढ़ रहे हैं। हमारी जीवनशैली अपने विवेक पर नहीं दूसरों की नकल करने पर केंद्रित होती जा रही है। हम इसकी पहचान हमारे भीतर फैसले लेने की कम होती क्षमता, प्रेम, उदारता और क्षमा की कमी से कर सकते हैं! एक छोटी सी कहानी आप से कहता हूं। संभव है, इससे आप तक मेरी बात सरलता से पहुंच सके।
एक रात रेगिस्तान की एक टूटी-फूटी सराय में 100 ऊंटों का दल आकर रुका। उनके सरदार ने सराय के मालिक से मिलकर कहा, हमें सुबह जल्दी निकलना है। इसलिए हम शीघ्र ही सोना चाहते हैं। बस एक समस्या आ रही है , हमारे पास निन्यानवे ऊंटों को बांधने के लिए रस्सी है, लेकिन एक ऊंट को बांधने को रस्सी की कमी है। अगर उसको न बांधा गया तो डर है कहीं रात में वह भटक न जाए।
इसलिए, हमारी मदद कीजिए। सराय के मालिक ने कहा हमारे पास इस तरह की कोई रस्सी नहीं है। हां मैं आपको एक उपाय बता सकता हूं, जिससे आपकी समस्या हल हो सकती है। उसने सरदार से कहा, जैसे सब को बांधा है, उस ऊंट को भी उसी तरह बांध दो। सरदार ने थोड़ी नाराजगी से कहा, यही तो समस्या है कि हमारे पास उसे बांधने के लिए रस्सी नहीं है।
सराय के उस बूढ़े मालिक ने कहा, मैं रस्सी की बात नहीं कर रहा हूं। जाओ, उसके गले में हाथ डाल कर उससे कहो तुम्हें बांध दिया है, यहीं बैठे रहना। जैसे दूसरे ऊंटों के लिए जमीन पर खूंटी ठोंककर रस्सी बांधते हो, उनके गले में हाथ फेरकर वैसी ही प्रक्रिया उसके साथ भी करो। और उसकी चिंता भूल जाओ वह कहीं नहीं जाएगा।
सरदार के पास कोई रास्ता नहीं था, सराय के मालिक की उम्र और अनुभव को देखते हुए उसने उसकी बात मान ली और ऐसा ही किया। सुबह जब चलने का वक्त हुआ तो सारे ऊंटों को खोल दिया गया। वह खड़े हो गए। चलने को तैयार। बस वह नहीं उठा, जिसके गले में रस्सी बांधी ही नहीं गई थी। हां, उससे कहा जरूर गया था कि रस्सी बांधी है, कहीं जाना नहीं।
सरदार सराय मालिक के पास पहुंचा और उसने कहा उस ऊंट को आप ही चल कर उठा सकते हैं। कल आप की तरकीब से उसे बांधा गया था, मुझे लगता है, आप जादूगर हैं।
सराय के मालिक ने कहा - लगता है ,आपने उसकी रस्सी खोली नहीं। सरदार ने कहा रस्सी बांधी कब थी। बुजुर्ग ने सरदार की तरफ देखकर हंसते हुए कहा, अरे! खूंटी बांधने का नाटक तो किया था, उसके गले में हाथ डालकर रस्सी होने का एहसास भी दिलाया था। यह सब रस्सी जैसा ही है। जाओ और उस ऊंट के साथ भी वही प्रक्रिया अपनाओ जो दूसरों के साथ अपनाई।
सरदार ने वैसा ही किया और ऊंट उठ खड़ा हुआ! यह केवल ऊंटों की बात नहीं, हमारा मन भी एकदम ऐसा ही है। हम अदृश्य खूंटियों से बंधे रहते हैं। खुद को स्वतंत्र करने से डरते रहते हैं। अपने निर्णय लेने का साहस नहीं जुटा पाते! नए रास्तों पर चलने के लिए खुद को समझाना, नई पगडंडियों पर कदम बढ़ाने को मन को सजग करना होगा। मन के साथ होशपूर्ण व्यवहार करने का प्रयास कीजिए। इससे जीवन में नई ऊर्जा, उत्साह के रंग उभरेंगे। (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
कांग्रेस पार्टी के छत्तीसगढ़ के सबसे बुजुर्ग नेता मोतीलाल वोरा एक बरगद की तरह बूढ़े हैं, और बरगद की तरह ही उनका तजुर्बा फैला हुआ है। भला और कौन ऐसे हो सकते हैं, जो राजस्थान से आकर छत्तीसगढ़ में बसे हों, और यहां के कांग्रेस के इतने बड़े नेता बन जाएं कि उन्हें अविभाजित मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया जाए, केन्द्रीय मंत्री बनाया जाए, और उत्तरप्रदेश जैसे बड़े राज्य का राष्ट्रपति शासन के दौरान राज्यपाल बनाया जाए। वोराजी एक अद्भुत व्यक्तित्व हैं, और छत्तीसगढ़ी में एक कहावत है जो उनके बारे में कई लोग कहते हैं, ऐड़ा बनकर पेड़ा खाना।
मोतीलाल वोरा ने अपनी कामकाजी जिंदगी की शुरूआत रायपुर की एक बस कंपनी में काम करते हुए की थी। जैसा कि पहले किसी भी परंपरागत कारोबार में होता था, हर कर्मचारी को हर किस्म के काम करने पड़ते थे, न तो उस वक्त अधिक किस्म के ओहदे होते थे, और न ही लोगों को किसी काम को करने में झिझक होती थी। मुसाफिर बस चलाने वाली इस कंपनी में वोराजी कई किस्म के काम करते थे। लेकिन उनकी सरलता की एक घटना खुद उन्हें याद नहीं होगी।
यह बात मेरे बचपन की है, जिस वक्त हमारे पड़ोस में बसों को नियंत्रित करने वाले आरटीओ के एक अफसर रहते थे। उनके घर पर मेरा डेरा ही रहता था, लेकिन 5-7 बरस की उस उम्र की अधिक यादें नहीं है, लेकिन बाद में पड़ोस के चाचाजी की बताई हुई बात जरूर याद है। उनके घर एक सोफा की जरूरत थी, और सरकारी विभागों के प्रचलन के मुताबिक आरटीओ अधिकारी के घर सोफा पहुंचाने का जिम्मा इस बस कंपनी पर आया था। ठेले पर सोफा लदवाकर किसी के साथ स्कूटर पर बैठकर बस कंपनी के कर्मचारी मोतीलाल वोरा पहुंचे और सोफा उतरवाकर घर के भीतर रखवाकर लौटे। यह बात आई-गई हो गई, वक्त के साथ-साथ वोराजी राजनीति में आए, कांग्रेस में आए, विधायक बने, और अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बनाए गए। इस बीच हमारे पड़ोस के चाचाजी बढ़ते-बढ़ते प्रदेश के एक सबसे बड़े संभाग के आरटीओ बने। लेकिन मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा जब उनके शहर के दौरे पर पहुंचते थे, तो वे या तो छुट्टी ले लेते थे, या सामने पडऩे से बचने का कोई और जरिया निकाल लेते थे। ऐसा नहीं कि वोराजी को आरटीओ का कामकाज समझता नहीं था, लेकिन रायपुर के उस वक्त का सोफा इस वक्त झिझक पैदा कर रहा था, और चाचाजी उनके सामने नहीं पड़े, तो नहीं पड़े।
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मोतीलाल वोरा कुछ असंभव किस्म के व्यक्ति हैं। वे बहुत सीधे-सरल भी हैं, लेकिन कांग्रेस पार्टी में सोनिया गांधी के दाएं हाथ की तरह इतने बरसों से बने रहने के लिए सिधाई, और सरलता से परे भी कई हुनर लगते हैं, जिनमें से कुछ तो वोराजी के पास होंगे ही। प्रदेशों के कांग्रेस संगठनों की बात करना ठीक नहीं होगा, लेकिन अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के बारे में यह कहा जाता है कि इसका यह अनोखा सौभाग्य रहा कि इसके कोषाध्यक्ष ईमानदार रहे। मोतीलाल वोरा ने कांग्रेस कोषाध्यक्ष रहते हुए हजारों करोड़ रूपए देखे होंगे, लेकिन उन पर किसी बेईमानी का कोई लांछन कभी नहीं लगा। और तो और अभी दो चुनाव पहले जब उनका बेटा अरूण दुर्ग से चुनाव लड़ रहा था, और इस सदी में चुनाव के जिन खर्चों की परंपरा मजबूत हो चुकी है, उन खर्चों के लिए आखिरी के दो-तीन दिनों में उम्मीदवारों को पार्टी से पैसा मिलता है। मोतीलाल वोरा ने प्रदेश के सभी कांग्रेस उम्मीदवारों को जो पैसा भेजा था, वही पैसा अरूण वोरा को भी मिला था। पता नहीं क्यों उस चुनाव में मोतीलाल वोरा ने हाथ खींच लिया था, और मतदान के दो दिन पहले का पैसा नहीं पहुंचा, और वह भी एक वजह थी जो अरूण वोरा चुनाव हार गए थे।
पिछले 25-30 बरसों में दो-चार बार मेरा वोराजी के दुर्ग घर पर जाकर मिलना हुआ है। लकड़ी का वही पुराना सोफा, और कमरे में प्लास्टिक की 10-20 कुर्सियों की थप्पी लगी हुई थी। कोई शान-शौकत नहीं बढ़ी, कोई खर्च भी नहीं बढ़े। ताकत की जितनी कुर्सियों पर वोराजी रहे, और कांग्रेस पार्टी के हजारों करोड़ को उन्होंने यूपीए के 10 बरसों में देखा, कई आम चुनाव निपटाए, पूरे देश की विधानसभाओं के चुनाव निपटाए, लेकिन उनके परिवार का रहन-सहन ज्यों का त्यों बना रहा। आज के जमाने में यह सादगी छोटी बात नहीं है, और शायद इसी के चलते कांग्रेस पार्टी में सोनिया गांधी के करीब और कोई विकल्प नहीं बन पाया।
15-16 बरस पहले जब मैंने अखबार की नौकरी छोड़ी, और इस अखबार, ‘छत्तीसगढ़’, को शुरू करना तय किया, तो कुछ विज्ञापनों की कोशिश करने के लिए दिल्ली गया। उस वक्त दिल्ली के मेरे एक दोस्त, संदीप दीक्षित, पूर्वी दिल्ली से कांग्रेस के सांसद बने थे, और अपनी मां शीला दीक्षित के मुख्यमंत्री निवास से अलग रहने लगे थे। उनकी जिद पर मैं उनके घर पर ही ठहरा, और दिल्ली आने की वजह बताई, यह भी बताया कि कांग्रेस मुख्यालय में आज वोराजी से मुलाकात तय है। संदीप ने कहा कि वहां तो मजमा लगा होगा क्योंकि पंजाब विधानसभा चुनाव की टिकटें तय होना है, और चुनाव समिति में वोराजी भी हैं। इसके साथ ही संदीप ने आधे मजाक और आधी गंभीरता से कहा- आप भी कहां विज्ञापनों के चक्कर में पड़े हैं, पंजाब में एक-एक टिकट के लिए लोग पांच-पांच करोड़ रूपए देने को तैयार खड़े हैं, आप वोराजी से किसी एक को टिकट ही दिला दीजिए, आपका प्रेस खड़ा हो जाएगा।
जब मैं वोराजी से मिलने एआईसीसी पहुंचा, तो सचमुच ही सारे बरामदों में पंजाब ही पंजाब था। लेकिन बाहर सहायक के पास मेरे नाम की खबर थी, मुझे तुरंत भीतर पहुंचाया गया, और वैसी मारामारी के बीच भी वोराजी ने चाय पिलाई, पान निकालकर अपने हाथ से दिया, और कांग्रेस प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों के नाम विज्ञापनों के लिए चिट्ठियां टाईप करवाईं, उनकी एक-एक कॉपी मुझे भी दी कि मैं जाकर उनसे संपर्क कर लूं।
चिट्ठी आसान होती है, लेकिन उस वक्त के उतने कांग्रेस प्रदेशों में जाना अकेले इंसान के लिए मुमकिन नहीं होता, इसलिए वे सारी चिट्ठियां मेरे पास रखी रह गईं, और भला किस प्रदेश के मुख्यमंत्री को एक चिट्ठी के आधार पर शुरू होने वाले अखबार के लिए विज्ञापन मंजूर करने का समय हो सकता है? बात आई-गई हो गई, लेकिन वोराजी ने पूरा वक्त दिया, और उन्हें जब मैंने संदीप दीक्षित की कही बात बताई तो वे हॅंस भी पड़े। टिकट दिलवाकर पैसे लेने या दिलवाने का काम वे करते होते, तो इतने बरसों में न बात छुपती, न पैसा छुपता।
वोराजी से मेरा अच्छा और बुरा, सभी किस्म का खूब तजुर्बा रहा। अच्छा ही अधिक रहा, और बुरा तो नाममात्र का था।
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जब मोतीलाल वोरा अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे, तब मैं पिछले अखबार में रिपोर्टिंग करता था। वोराजी तकरीबन हर शनिवार-इतवार रायपुर-दुर्ग आ जाते थे, और मैं दोनों जगहों पर उनके कई कार्यक्रमों में चले जाता था, और रायपुर की सभी प्रेस कांफ्रेंस में भी। ऐसी ही एक प्रेस कांफ्रेंस में मैंने उनसे पूछा- क्या रायपुर में आपके किसी रिश्तेदार को अफसर परेशान कर रहे हैं?
वे कुछ हक्का-बक्का रह गए, सवाल अटपटा था, और मुख्यमंत्री अपने रिश्तेदारों के बारे में ऐसी अवांछित बात सुनने की उम्मीद भी नहीं कर सकता था। उन्होंने इंकार किया।
लेकिन मेरे पास उससे अधिक अवांछित अगला सवाल था, मैंने उनसे पूछा कि क्या उन्हें उनके अफसरों से ऐसी शिकायत मिली है कि उनके (वोराजी के) रिश्तेदार उन्हें परेशान करते हैं?
इस पर वे कुछ खफा होने लगे लेकिन उनकी सज्जनता ने उनकी आवाज को फिर भी काबू में रखा, और उन्होंने कहा कि उन्हें ऐसी कोई शिकायत नहीं मिली।
मैं उन दिनों रिपोर्ट लिखते हुए पत्रकारवार्ता के सवाल-जवाब भी बारीकी से सवाल-जवाब की शक्ल में लिखता था, और अपने पूछे सवालों के साथ यह भी खुलासा कर देता था कि ये सवाल इस संवाददाता ने पूछे थे, और उनका यह जवाब मिला था।
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सवाल-जवाब की शक्ल में छपी प्रेस कांफ्रेंस की बात आई-गई हो गई। इसके कुछ या कई हफ्ते बाद उस अखबार के प्रधान संपादक मायारामजी सुरजन रायपुर लौटे। मुझे भनक लग गई थी कि वे किसी बात पर मुझसे खफा हैं, और मेरी पेशी हो सकती है। दफ्तर पहुंचते ही उन्होंने मुझे बुलाया, और कहा कि भोपाल में वोराजी ने उन्हें मेरी शिकायत की है। और यह कहकर शिकायत की है कि सुनील कुमार मुझसे (वोराजी से) इस टोन में बात करते हैं कि मानो वे मेरे मालिक हों। बाबूजी (मायारामजी) ने बताया कि वोराजी ने चाय पर बुलाकर अखबार की कतरन उनके सामने रख दी थी कि मैंने प्रेस कांफ्रेंस में ऐसे-ऐसे सवाल किए थे। बाबूजी ने उनसे यह साफ किया कि हमारे अखबार के रिपोर्टरों को यह हिदायत दी जाती है कि वे सवाल तैयार करके ही किसी प्रेस कांफ्रेंस में जाएं, और सवाल जरूर पूछें, महज डिक्टेशन लेकर न लौटें। इसलिए सुनील ने सवाल जरूर किए होंगे, लेकिन इन सवालों में कुछ गलत तो लग नहीं रहा।
अब यहां पर एक संदर्भ को साफ करना जरूरी है, वोराजी के एक रिश्तेदार और नगर निगम के एक कर्मचारी, वल्लभ थानवी बड़े सक्रिय कर्मचारी नेता थे। वहां के बड़े अफसरों से उनकी तनातनी चलती ही रहती थी। कुछ दिन पहले ही उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा था कि म्युनिसिपल के बड़े अफसर उन्हें इसलिए परेशान करते हैं कि वे मुख्यमंत्री के रिश्तेदार हैं। इसके जवाब में निगम-प्रशासक या आयुक्त ने कहा था कि मुख्यमंत्री के रिश्तेदार होने की वजह से वल्लभ थानवी उन्हें परेशान करते हैं। इसी संदर्भ में मैंने प्रेस कांफ्रेंस में वोराजी से सवाल किया था।
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लेकिन मुख्यमंत्री तो मुख्यमंत्री होते हैं, उन्हें अगर कोई बात बुरी लगी तो अखबार के मुखिया से शिकायत का उनका एक जायज हक बनता था। और बहुत लंबे परिचय की वजह से उन्होंने बाबूजी को बुलाकर ऐसी कुछ और कतरनों की भी फाईल सामने धर दी थी।
मुझे बाबूजी के शब्द अच्छी तरह याद हैं कि उन्होंने इन्हें पढक़र वोराजी से कहा था कि उन्हें तो इसमें कोई बात आपत्तिजनक नहीं लग रही है, जहां तक मेरे बोलने के तरीके का सवाल है, तो मुख्यमंत्री का भला कौन मालिक हो सकता है। उन्होंने कहा कि सुनील के बात करने का तरीका कुछ अक्खड़ है, और वे मुझे उनसे (वोराजी से) बात करने भेजेंगे। वे तो चाय पीकर लौट आए थे, लेकिन मुझे रायपुर में यह जानकारी देते हुए बाबूजी ने कहा कि जब वोराजी अगली बार रायपुर आएं तो उनसे जाकर मैं मिल लूं, और पूछ लूं कि वे किसी बात पर नाराज हैं क्या। न मुझे खेद व्यक्त करने का निर्देश मिला, और न ही माफी मांगने की कोई सलाह दी गई, कोई हुक्म दिया गया।
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वोराजी का कोई रायपुर प्रवास हफ्ते भर से अधिक दूर तो होता नहीं था, वे यहां आए, और मैं सर्किट हाऊस में जाकर उनसे मिला। भीतर खबर जाते ही उन्होंने तुरंत बुला लिया, मैंने कहा- बाबूजी कह रहे थे कि आप मेरी किसी बात से नाराज हैं?
वोराजी ने हॅंसते हुए पास आकर पीठ थपथपाई, और कहा- अरे नहीं, कोई नाराजगी नहीं है। और क्या हाल है? कैसा चल रहा है?
मुख्यमंत्री की नाराजगी महज एक वाक्य कहने से इस तरह धुल जाए, ऐसा आमतौर पर होता नहीं है, लेकिन वोराजी की सज्जनता कुछ इसी तरह की थी। उन्हें मैंने मन में गांठ बांधकर रखते नहीं देखा है, और राजनीति के प्रचलित पैमानों पर उनकी सज्जनता अनदेखी नहीं रहती।
मोतीलाल वोरा के बारे में और कई बातें लिखने लायक हैं, शायद कल, या फिर अगली किसी किस्त में।
-सुनील कुमार
हम अपने सुख के लिए नहीं जीते, इन छोटे-छोटे उद्देश्यों के लिए अपनी चेतना और समझ को ग़ुलाम बनाए रखते हैं। जीवन केवल जीते रहना नहीं है। उदारता, स्नेह और करुणा के बिना हमारा मन हमेशा अंधेरे में ही रहेगा!
आज संवाद की शुरुआत एक कहानी से करते हैं। एक यात्रा में दो व्यक्तियों की पहचान हो गई। सफर मुश्किल था अलग-अलग मौसम और स्थितियों के से होकर दोनों को जाना था। इनमें से एक देख नहीं सकता था। लेकिन उसे रास्ते अच्छी तरह याद रहते। दूसरे के पास यात्रा के अनुकूल समझ, साहस और जानकारी थी। चलते-चलते दोनों रेगिस्तान में पहुंचे। सर्दियों के दिन थे। तापमान नीचे की ओर जा रहा था। रात को विश्राम के बाद सुबह चलने का समय हुआ। जो व्यक्ति देख नहीं सकते थे उनकी नींद सुबह जल्दी खुल गई। जहां रात को उन्होंने अपनी छड़ी रखी थी, वही सांप ने छिपकर ठंड से बचने की कोशिश की लेकिन ठंड कुछ ऐसी थी कि उसका शरीर एकदम अकड़ गया। संभवत: ठंड से वह बेहोश हो गया हो। अपनी चेतना खो बैठा हो।
अपनी छड़ी टटोलने की कोशिश में उन्होंने सांप को पकड़ लिया। और अपने मित्र को उठने के लिए कहा। मित्र की जैसे ही नींद खुली उन्होंने कहा इसे फेंक दीजिए यह आप की छड़ी नहीं है बल्कि सांप है। जो देख नहीं सकते थे उन्होंने कहा कैसी बात कर रहे हो, यह एक नरम मुलायम, चिकनी और बहुत ही कोमल लेकिन मजबूत छड़ी है। संयोगवश इतनी सुंदर छवि मुझे मिली है। ऐसा लगता है तुम्हें इससे ईष्र्या हो रही है, इसलिए तुम इसे सांप बता रहे हो !
देख सकने वाले मित्र ने समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन न देख सकने वाले ने उसकी बात नहीं मानी। वह नए सफर पर निकल पड़े। जैसे ही सूरज ने धरती पर अपनी रोशनी फेंकी, गर्मी से सांप की चेतना वापस लौट आई। उसने अपनी जान बचाने की कोशिश में उन सज्जन को काट लिया, पकड़ से मुक्त हो गया।
जिन्होंने सांप को छड़ी समझ लिया था, उनकी आंखों में रोशनी नहीं थी, लेकिन यह इस संकट का एकमात्र कारण नहीं है। विश्वास की कमी, कुछ पाने की लालसा में अपने विवेक से समझौता, इस कहानी में संकट का बड़ा कारण हैं। हम सब एक तरह की बेहोशी में जी रहे हैं। ठीक उसी तरह जैसे नशे में धुत किसी शराबी से अगर आप उसके रात के आचरण के बारे में पूछें तो वह मना कर देगा। वह कहेगा उसने तो ऐसा किया ही नहीं। जिसने किया वह कोई दूसरा था। एक मायने में वह सही कह रहा है क्योंकि उसकी चेतना पर, उसके विवेक, समझ पर बेहोशी छाई हुई थी। इसलिए स्वयं से उसका नियंत्रण जाता रहा।
एक समाज के रूप में हम ठीक इसी तरह की बेहोशी का शिकार हैं। हम सब वही कर रहे हैं, जिसके लिए प्रशिक्षित किए जाते रहे। हमारे प्रशिक्षण के लक्ष्य बहुत छोटे हैं। हमारे हर छोटे से छोटे काम को हमने उद्देश्यों से जोड़ लिया है। हम अपने सुख के लिए नहीं जीते, इन छोटे-छोटे उद्देश्यों के लिए अपनी चेतना और समझ को ग़ुलाम बनाए रखते हैं। जीवन केवल जीते रहना नहीं है। उदारता, स्नेह और करुणा के बिना हमारा मन हमेशा अंधेरे में ही रहेगा!
कोरोना ने हमारी सामाजिकता को कठिन संकट की ओर धकेल दिया है। आर्थिक से अधिक यह सामाजिक प्रेम, उदारता और डर की चुनौती है। अपनी ही दुनिया में सिमटा हुआ आदमी उनकी तुलना में कहीं अधिक भयभीत होता है जिनके दायरे बड़े होते हैं। इसलिए यह समझना बहुत जरूरी है कि कोरोना का डर हमारे मन में तो नहीं बैठ गया। मन में बैठा डर शरीर की तुलना में कहीं अधिक नुकसानदायक होता है।
इसलिए यह समझने की जरूरत है कि हमें इस संकट का सामना एक-दूसरे के साथ ही करना है। एक-दूसरे के साथ रहते हुए ही करना है। एक-दूसरे का ख्याल रखते हुए करना है। यही सबसे अच्छी नीति है। कोरोना एक ऐसे समय पर हम सबके जीवन में आया है जहां परस्पर प्रेम, स्नेह और उदारता की दुनिया सिकुडऩे लगी थी। हम इतने अधिक आत्म केंद्रित हो गए थे कि हमें अपने अलावा दूसरे किसी की चिंता ही नहीं थी। इस बात की गवाही हम आसानी से पर्यावरण, नदी, जंगल और परिंदों से ले सकते हैं।
मनुष्य और प्रकृति अलग-अलग नहीं है। दोनों एक ही सफर के हमसफऱ हैं लेकिन हमने स्वयं को प्रकृति से बहुत अधिक दूर कर लिया। हम अधिकतर चीजों को सही और गलत केवल इस आधार पर मानते हैं कि अधिकतर लोग क्या कह रहे हैं! हम सही दिशा, दशा को समझने की कोशिश ही नहीं करना चाहते।
आइए, जिंदगी को उसकी पहचान की ओर ले चलें। अपने होने को दूसरों से नहीं खुद से जोड़ें। (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
सुनील कुमार
छोटी-छोटी झूठी या नामौजूद चीजों से खुशियां हासिल, जैसे रफाल से अब चीन और पाकिस्तान घुटनों पर आ गए हैं, या थाली पीटने से कोरोना भाग जाएगा, और डॉक्टर का हौसला बढ़ जाएगा। जब लोग फरेब से खुश होने लगते हैं, तो कुछ असली कामयाबी जरूरी नहीं रह जाती। हिन्दुस्तान में पिछले कई बरसों में लोगों को ऐसी कामयाबी का अहसास कराया गया है जो जमीन पर चाहे हो न हो, लोगों के मन में गुदगुदी करती है, और उनके अहंकार की अच्छी तरह मालिश कर देती है। उनमें देशप्रेम का एक ऐसा अहसास करा देती है जो हकीकत नहीं होता, और जिसकी कोई जरूरत भी नहीं होती। ऐसे देशप्रेम से उस देश का भी कोई भला नहीं होता जिसके लिए वह प्रेम दिखाया जा रहा है।
ऐसे अहसास किसी देश की सरकार के कराए हुए ही हों, या किसी देश-प्रदेश की सत्तारूढ़ पार्टी के करवाए हुए ही होते हों, ऐसा भी नहीं है। किसी अखबार के मालक-चालक, यानी प्रकाशक-संपादक भी अपने आपके भीतर ऐसी खुशफहमी का शिकार हो सकते हैं। अगर वे लिखने में बहुत अच्छे हैं जिससे कि वाहवाही भी होती है, तो प्रकाशक की अपनी जिम्मेदारी में वे नाकामयाब भी हो सकते हैं। अपनी हसरतों को हकीकत मान लेने की यह चूक हर किस्म के लोगों में हो सकती है, इसके लिए किसी का सत्ता पर रहना जरूरी नहीं होता, और अपने मानने वालों की भीड़ को धोखा देना भी जरूरी नहीं होता। अमूमन भीड़ खुद ही धोखा खाने को तैयार रहती है, और अलग-अलग दौर में वह अलग-अलग किस्म के लोगों के लिए दीवानगी दिखाने को एक पैर पर खड़ी रहती है।
नामौजूद चीजों से फख्र और खुशी हासिल करना महज आज की किसी बात से हो, ऐसा भी जरूरी नहीं है। इतिहास इतना लंबा रहता है, और उसके भी पहले की पुराण कथाएं, बाइबिल की कहानियां, या कुछ दूसरे पुराने धर्मों की कहानियां इतनी पुरानी रहती हैं कि उन्हें सच मानकर लोग अपने स्वाभिमान नाम के अहंकार को पुष्पक पर चढ़ाकर हवाई सफर के लिए भी भेज सकते हैं। विज्ञान की हर खोज पर अपना दावा कर सकते हैं, वे गणेश के धड़ पर हाथी के सिर को प्लास्टिक सर्जरी की तकनीक मौजूद होने के सुबूत की तरह पेश कर सकते हैं, और कीर्तन में ढोल-मंजीरों की ताल के साथ सिर हिलाते हुए लोग उस सुबूत पर नासा का ठप्पा भी लगा देख लेते हैं। जब गर्व करने के लिए महज ऐसे अहसास काफी होते हैं, तो फिर जिंदगी में कुछ हासिल करना जरूरी कहां रह जाता है?
जिस तरह टीवी के सामने बैठकर क्रिकेट में अपने देश की टीम को जीतते देखकर जिन लोगों को अपने खेलप्रेमी होने का अहसास रहता है, और वह बढ़ते-बढ़ते उन्हें खेल में अपनी दिलचस्पी लगने लगता है, और धीरे-धीरे वे अपने को खिलाड़ी भी महसूस करने लगते हैं, तो फिर खेलने की जरूरत कहां रह जाती है? इंसान का मिजाज ही कुछ ऐसा होता है कि वे अपने भीतर पहले से तय कर ली गईं धारणा को मजबूत करने के लिए कतरा-कतरा सुबूत जुटाने लगता है। उसकी पसंद और नापसंद इस पर आ टिकती है कि उसके निष्कर्ष को मजबूत बनाने के लिए कौन सी बातें काम आएंगी, तो फिर सुबूतों की वैज्ञानिक प्रक्रिया से गुजरने की जरूरत कहां रह जाती है?
सडक़ किनारे फुटपाथ पर तेल या ताबीज बेचने वाले लोग एक बड़े माहिर हुनर के साथ लोगों को पहले तो उस सामान की जरूरत का अहसास कराते हैं, और एक बार यह अहसास हो जाता है, तो फिर वे उसके इलाज की तरह एक सामान पेश कर देते हैं। कुछ-कुछ ऐसा ही राष्ट्रवाद के मामले में भी होता है। एक आक्रामक राष्ट्रवाद पहले तो एक नामौजूद दुश्मन का पुतला पेश करता है जो कि मुमकिन कदकाठी से अधिक बड़ा भी दिखता है। इसके साथ ही दुश्मन से खतरे का एक अहसास खड़ा किया जाता है, और इसके बाद फिर दुश्मनी के बीज बो देना, उसकी फसल को खाद दे देना बड़ा आसान हो जाता है।
हिन्दुस्तान इन दिनों लगातार ऐसे अहसास का शिकार है। ऐसा अहसास कि पिछले 70 बरस में कुछ भी अच्छा नहीं हुआ था, और देश को जो कुछ हासिल हुआ है, यह महज पिछले 5-6 बरस की बात है। जब लोग एक नामौजूद नाकामयाबी पर भरोसा करने उतारू हों, तब उन्हें आज की नामौजूद कामयाबी पर भी भरोसा करवाना आसान हो जाता है। 70 बरस की ‘नाकामयाबी’ पर हीनभावना, और अफसोस पैदा कर दिए जाएं, तो फिर उस जमीन पर आज की ‘कामयाबी’ का बरगद तेजी से खड़ा किया जा सकता है। यह सिलसिला नेता की कामयाबी, और जनता की कमजोरी का सुबूत भी होता है कि उसके सामने कब्ज की दवा, जमालघोटा, को भरकर भी एक कटोरा पेश किया जाए, और वह इस बात को हकीकत मान चुकी हो कि यह पेट भरने का अच्छा सामान है, तो लोगों को कब्ज से छुटकारे के लिए काफी एक बीज की जगह एक कटोरा जमालघोटा भी खिलाया जा सकता है।
दुनिया के इतिहास में बहुत से ऐसे लोग रहे हैं जिनका पेशा कुछ और रहा है, जिसमें वे नाकामयाब रहे हैं, लेकिन वे अपने किसी दूसरे हुनर की वजह से अहमियत पाते रहते हैं। मिसाल के लिए किसी शहर में कोई ऐसे डॉक्टर या इंजीनियर हो सकते हैं, या वकील हो सकते हैं जो अपने पेशे में खासे कमजोर हों, लेकिन जिनका समाजसेवा का बहुत ही बड़ा और सच्चा इतिहास रहा हो। आम लोग ऐसे में उन्हें एक अच्छा इंसान और मामूली पेशेवर मानने के बजाय अच्छा पेशेवर भी मानने लगते हैं। सार्वजनिक जिंदगी में बहुत से ऐसे लोग रहते हैं जो कि अपनी ऐसी अप्रासंगिक और महत्वहीन खूबियों की वजह से महान मान लिए जाते हैं।
जब लोगों को खालिस और जरूरी सच से परे की गैरजरूरी और अप्रासंगिक बातों के आर-पार देखने की ताकत हासिल न हो, या उनकी आंखों पर एक ऐसा चश्मा चढ़ा दिया जाए जिससे कि वे उसके रंग के अलावा और किसी रंग में दुनिया को देख ही न सकें, तो फिर उन्हें एक खास रंग में रंगी हुई दुनिया को ही सच मनवा देना आसान हो जाता है।
लोकतंत्र में लोगों को हकीकत और अहसास में फर्क करना आना चाहिए। लोकतंत्र में लोगों को धर्म और राजनीति के दायरों को अलग-अलग देखना आना चाहिए। लोगों को किसी की निजी ईमानदारी से परे उसकी सार्वजनिक जवाबदेही में बेईमानी को भी अलग पहचानना आना चाहिए। लोगों को किसी धर्म के कपड़ों में लिपटे लोगों की हरकतों को उन धर्मों से अलग करके देखना भी आना चाहिए, वरना हिन्दुस्तान में सैकड़ों-हजारों ऐसे मॉं-बाप हैं जो कि अपने बच्चों को ले जाकर खुद ही बापू-बाबाओं को समर्पित करते आए हैं, क्योंकि वे उनके धर्म-आध्यात्म के चोगों से परे उनकी हरकतों का अंदाज नहीं लगा पाते हैं, उनकी आंखें बाबाओं के दिव्यप्रकाश से चौंधिया जाती हैं, और उन्हें हकीकत नहीं दिख पाती।
आज जब दुनिया चांद के बाद दूसरे ग्रहों पर पहुंच चुकी है, समंदर के अंदर तलहटी को तलाश रही है, उस वक्त लोग अगर फरेब से गुरेब नहीं करेंगे, और किसी की पेश की गई हसरतों को हकीकत मान लेंगे, तो ऐसे देश या ऐसे लोग कम से कम कुछ सदी पीछे तो पहुंच ही जाएंगे। जिस देश को आगे बढऩा है, वह किसी तस्वीर पर बनाई गई सुहानी सडक़ पर सफर करके उसका आनंद लेते हुए आगे नहीं बढ़ सकता। लोगों को कड़ी और खुरदरी सडक़ पर मेहनत से सफर करके ही आगे बढऩा होता है। सबको मालूम है पुष्पक की हकीकत लेकिन... (hindi.news18.com)
-विष्णु नागर
आज लालकृष्ण आडवाणी भी मस्त हैं और मोदीजी की तो आज की मस्ती लाजवाब है।आडवाणी जी गए नहीं या बुलाए नहीं गए अयोध्या मगर वे आज के दिन का पूरा श्रेय मोदी जी को कैसे लूट लेने देते,जो हर श्रेय लूट लेने की कला में पारंगत हैं और हर दोष जवाहरलाल नेहरू पर थोप देने की कला में अद्वितीय! तो माननीय आडवाणी जी ने श्रेय का बड़ा हिस्सा अपने पास रखने के लिए आज के दिन को ऐतिहासिक और भावपूर्ण दिन बताया है और इस दिन को लाने में अपनी भूमिका को रेखांकित किया है। वह जानते हैं कि मोदी का क्या भरोसा, अपने एक-डेढ़ घंटे के भाषण में आडवाणी का नाम तक न ले! तो बेचारे ने सोचा अपना विज्ञापन स्वयं ही करना पड़ेगा वरना ये ऐतिहासिक दिन,ऐतिहासिक दिन करेगा मगर मेरा नाम तक ये ‘इतिहास’ से गायब कर देगा। आखिर चेला भी तो मेरा ही है! गर्व से कहोगे आडवाणीजी, मोदी मेरा चेला है। कह दो बस एक बार।
माननीय आडवाणीजी, मोदीभक्तों के अलावा सबको मालूम है कि आपके नेतृत्व में और आपकी उकसावे वाली रामरथ यात्रा ने ही बाबरी मस्जिद को ढहाने का कुकृत्य किया था।यह आप ही थे महाशय, जिसने मस्जिद को ढहाने की वैधता स्थापित करने के लिए उसे ढाँचा बताया था, मुसलमानों के तुष्टिकरण, छद्म धर्मनिरपेक्षता, हिंदुओं के आत्माभिमान को आहत करने का दोष मढ़ा था। आप ही ने मुसलमानों के लिए मोहम्मदी हिन्दू शब्द प्रचलित करने का प्रयास किया था, जो सफल नहीं रहा।
और आप क्यों याद दिलाएँगे कि आपकी इस यात्रा ने कैसा भयंकर सांप्रदायिक विद्वेष फैलाया था और यह भी आपको कैसे याद रहेगा कि मस्जिद ढहाने के बाद कई महीनों तक सांप्रदायिक हिंसा फैली थी, उसमें कम से कम दो हजार लोगों की जानें चली गई थीं। वे जानें भी उतनी ही कीमती थीं, जितनी आपकी और मोदीजी की जान है। और आज तक वह जहर है और बढ़ता जा रहा है।कार्बनडाई आक्साइड इतनी फैल चुकी है कि साँस लेना मुश्किल है। यह आपकी का उपहार है बुजुर्गवार!
यह प्रधानमंत्री भी देश को दी गई आपकी ही भेंट है, जो आपके नमस्कार का जवाब तक नहीं देता।वह उतना भी सम्मान आपकी बुजुर्गीयत का नहीं करता, जितना कांग्रेस किया करती थी।
तो आडवाणीजी आप खुश हैं और आप बुजुर्ग हैं मगर मैं मानता हूँ कि अगर आप भी आज प्रधानमंत्री होते तो शायद वर्तमान वाले से बेहतर नहीं होते। बस ये है कि आप इतिहास के कूड़ेदान में अपनों द्वारा ही आपके जीवित रहते ही फेंक दिए गए हैं और आपके शिष्य को अभी इसमें समय लगेगा। धन्यवाद और आभार कि आप खुश हैं और आपकी खुशी ने आपकी भूमिका की याद और ताजा कर दी है।
रमेश बैस सात बार के सांसद रहे, और नौ बार उन्होंने रायपुर संसदीय सीट से लोकसभा चुनाव लड़ा था। उसके पहले वे मंदिर हसौद से भाजपा के विधायक थे, और उसके भी पहले उनकी राजनीति की शुरूआत राजधानी रायपुर के ब्राम्हणपारा से पार्षद बनकर हुई थी। विधायक रहते हुए वे लोकसभा के उम्मीदवार बने थे, और इंदिरा गांधी की हत्या के बाद की लहर में वे पहला संसदीय चुनाव हार गए थे। इसके बाद वे जीते, लेकिन एक चुनाव विद्याचरण शुक्ल से भी हारे। उसके बाद वे लगातार रायपुर के सांसद रहे, भाजपा के भीतर वे लालकृष्ण अडवानी और सुषमा स्वराज के साथ रहे, एनडीए-1 में वे अटल मंत्रिमंडल में वे सुषमा के सूचना प्रसारण मंत्रालय में राज्यमंत्री रहे, बाद में एक और विभाग देखा, लेकिन वे कैबिनेट मंत्री नहीं बने। रमेश बैस के लिए मोदी सरकार का पहला कार्यकाल एक सदमे का रहा जब देश के सबसे वरिष्ठ भाजपा सांसदों में से एक होने के बावजूद उन्हें मंत्री नहीं बनाया गया। और अभी ताजा लोकसभा चुनाव में चूंकि भाजपा ने प्रदेश के हर भाजपा सांसद की टिकट काट दी थी, रमेश बैस की भी टिकट कट गई, लेकिन इससे भी उनकी इज्जत रह गई। लोगों का अंदाज भाजपा के इस अघोषित पैमाने के सामने आने के पहले से यह था कि रमेश बैस को इस बार शायद भाजपा टिकट न दे क्योंकि मोशा (मोदी-शाह) ने उन्हें मंत्रिमंडल के लायक नहीं समझा था, और उनकी उम्र भी 75 बरस के करीब पहुंचने को थी। लेकिन जब मुख्यमंत्री रहे रमन सिंह के सांसद बेटे की टिकट भी कट गई, हर सांसद की टिकट कट गई, तो रमेश बैस की इज्जत रह गई। टिकट तो गई, लेकिन अकेले नहीं कटी, एक पैमाने के तहत कटी।
रमेश बैस का सार्वजनिक जीवन में राजनीतिक मिजाज बड़ा ही बदलता रहा। वे रायपुर म्युनिसिपल के एक पार्षद के रूप में बहुत सक्रिय रहे, और मंदिर हसौद से विधायक के रूप में भी। राजधानी रायपुर से लगी हुई उनकी सीट थी, और रमेश बैस को हर शाम सरकारी काम के घंटों के वक्त रायपुर के कलेक्ट्रेट में देखा जाता था। वहां के कर्मचारी संघ के चलाए हुए चाय-नाश्ते के छोटे से रेस्त्रां और बाहर के पानठेले पर रमेश बैस का डेरा रहता था, लोग अपने कागज लेकर उनके पास वहीं पहुंचते थे, वे अधिकतर कागजों पर लिखकर उन्हें रवाना करते थे, और जरूरत पडऩे पर वे लोगों के साथ एक-एक सरकारी दफ्तर में जाकर उनका काम करवाते थे। रमेश बैस के अलावा एक भी और विधायक कलेक्ट्रेट में इस तरह रोजाना का डेरा डालकर लोगों के काम करवाने वाले नहीं हुए थे।
रमेश बैस से उन्हीं दिनों का मेरा परिचय रहा, और उनकी उम्र मुझसे खासी अधिक होने के बाद भी उसी वक्त से रमेश कहकर बातचीत जो शुरू हुई, तो वह अब तक उसी तरह जारी है, जब वे सांसद बनते रहते थे, तब भी, और जब वे केन्द्रीय मंत्री थे, तब भी। रायपुर से लेकर भोपाल तक, और दिल्ली तक, रमेश बैस के भीतर का छत्तीसगढ़ी कभी इधर-उधर टहलने भी नहीं गया, और हमेशा ही साथ रहा। लेकिन जनता के साथ उनका गहरा संपर्क विधायक होने के बाद से कम होता चले गया, और लंबे संसदीय जीवन में वे संसदीय सीट की अधिक परवाह करते कभी दिखे नहीं। जो रायपुर में उनके घर पहुंच जाए, उसके लिए चि_ी लिख देना, या फोन कर देना तो वे करते रहे, लेकिन इससे परे वे लोगों के लिए बहुत अधिक करने के शायद गैरजरूरी मानने लगे थे।
वैसे एक आदर्श स्थिति भी यही होना चाहिए कि लोग अपने नाली-पानी जैसे कामों के लिए पार्षद के पास जाएं, उससे बड़े कामों के लिए मेयर के पास जाएं, राज्य सरकार से जुड़े कामों के लिए विधायक के पास जाएं जो कि काम न होने पर विधानसभा में सवाल उठा भी सकते हैं। और सांसद का तो कोई अधिक काम पहले रहता नहीं था, जब तक सांसद निधि शुरू नहीं हुई, और उसके बाद फिर लोग सांसद के पास किसी सार्वजनिक काम के लिए आर्थिक मदद के लिए भी जाने लगे। जब छत्तीसगढ़ में एक भाजपा सांसद प्रदीप गांधी सवाल पूछने के लिए रिश्वत मांगते कैमरे में कैद हुए, और उनकी सदस्यता गई, जब एक और भाजपा सांसद फंसते-फंसते इसलिए रह गए कि दिल्ली में स्टिंग ऑपरेटरों की गाड़ी पंक्चर हो गई, और वे अपने सांसद-निवास पर रास्ता देखते-देखते उनकी ट्रेन का समय हो गया, और वे स्टेशन रवाना हो गए, और स्टिंग का शिकार होने से बच गए, तब रमेश बैस ऐसे किसी विवाद से बचकर बहुत लंबा संसदीय जीवन गुजार रहे थे।
छत्तीसगढ़ की राजनीति में रमेश बैस उन दो लोगों में से एक रहे जिनके खिलाफ दोनों शुक्ल बंधु कोई न कोई चुनाव लड़े। रायपुर संसदीय सीट से एक बार विद्याचरण शुक्ल रमेश बैस के खिलाफ लड़े, और एक बार श्यामाचरण शुक्ल। ये दोनों ही भाई महासमुंद संसदीय सीट, और राजिम विधानसभा से पवन दीवान के खिलाफ भी लड़े थे।
रमेश बैस ने रायपुर संसदीय सीट से जब-जब चुनाव लड़ा, अधिकतर मौकों पर उनके खिलाफ कांग्रेस के उम्मीदवार चुनाव शुरू होने के पहले से ही हारे हुए मान लिए जाते थे। और रमेश बैस नामांकन के साथ ही जीते हुए समझ लिए जाते थे। यही वजह थी कि दिल्ली में भाजपा की सरकार बनाने के नाम पर, या कांग्रेस-यूपीए सरकारें हटाने के नाम पर जो लहर चलती थी, जो नारे लगते थे, उनके तहत दिल्ली में फलां जरूरी है, रमेश बैस मजबूरी है, जैसा नारा लगता था।
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राजनीति में रमेश बैस के अधिक ताकतवर होने का एक अभूतपूर्व और ऐतिहासिक मौका आया था। जब छत्तीसगढ़ राज्य बन गया, और पहली जोगी सरकार के कार्यकाल में राज्य के पहले विधानसभा चुनाव की तैयारी चल रही थी, तब भाजपा को इस राज्य में एक मजबूत प्रदेश अध्यक्ष तय करना था। उस वक्त केन्द्र में अटलजी की सरकार में रमेश बैस, और पार्टी के भीतर की वरिष्ठता में उनसे खासे जूनियर डॉ. रमन सिंह दोनों ही राज्यमंत्री थे, दोनों ही बिना किसी काम बंगलों में खाली रहते थे। ऐसी चर्चा रही कि भाजपा संगठन ने दोनों के सामने यह प्रस्ताव रखा कि छत्तीसगढ़ में प्रदेश अध्यक्ष बनकर कौन जाना चाहेंगे? इस पर रमेश बैस ने तकरीबन भडक़ते हुए कहा था कि वे क्यों जाएंगे? उन्हें दिल्ली में मंत्री पद सुहा रहा था, और छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री अजीत जोगी का अपनी पार्टी को दुबारा सत्ता में लाना तय सा लग रहा था। फिर रमेश बैस के अजीत जोगी से व्यक्तिगत संबंध भी थे, और विधायक रहते हुए भी वे भोपाल से इंदौर कलेक्टर रहे जोगी से मिलते रहते थे। जोगी के खिलाफ भाजपा को लीड करने की उनकी कोई सोच नहीं थी, और उन्होंने पार्टी को छत्तीसगढ़ लौटने के लिए साफ मना कर दिया। नतीजा यह हुआ कि भाजपा ने रमन सिंह को प्रदेश संगठन सम्हालने, और चुनाव की तैयारी करने के लिए कहा, और अपने सरल-विनम्र मिजाज के मुताबिक डॉ. रमन सिंह छत्तीसगढ़ आ गए, चुनाव की तैयारी की, और प्रदेश की जनता ने उन्हें जिताया, या जोगी को हराया, यह एक अलग बहस है, लेकिन डॉ. रमन विधानसभा चुनाव में जीत के बाद जो मुख्यमंत्री बने, तो 15 बरस तक बने ही रहे। उन्होंने देश के मुख्यमंत्रियों के बीच, और भाजपा के भीतर लगातार सीएम रहने का एक रिकॉर्ड कायम किया जिसे आगे भी लोगों के लिए तोडऩा कुछ मुश्किल रहेगा। रमेश बैस मुख्यमंत्री बनने की राह पर दिल्ली से रायपुर की बस जो चूके तो चूक ही गए। भाजपा की सरकार बनने के वक्त उन्होंने कोशिश बहुत की कि मुख्यमंत्री पद के लिए उनकी वरिष्ठता पर गौर किया जाए, लेकिन उस वक्त के एक-दो दूसरे दावेदारों के साथ-साथ रमेश बैस का नाम भी दिल्ली में मंजूर नहीं हुआ, और भाजपा संगठन ने डॉ. रमन को एक बेहतर पसंद माना।
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रमेश बैस खालिस छत्तिसगढिय़ा हैं, ओबीसी के हैं, किसान परिवार के हैं, और रायपुर के आसपास बहुत सी विधानसभा सीटों पर उनकी रिश्तेदारी भी है। लेकिन इतनी लंबी राजनीति में उनका सारा फोकस परिवार के एक-दो लोगों को बढ़ाने में रहा, और सात बार का सांसद अपने सात विधायक भी खड़े नहीं कर पाया। छत्तीसगढ़ी राजनीति में भी रमेश बैस महज ओबीसी की राजनीति करते रहे, और ओबीसी के भीतर महज कुर्मी समाज की राजनीति करते रहे, और कुर्मी समाज के भीतर महज अपने एक भाई और एक-दो भतीजों से परे किसी को आगे बढ़ाने का कोई श्रेय रमेश बैस के नाम नहीं लिखा है। यह बड़ी अजीब बात रही कि जो लगातार छत्तीसगढ़ की पहले अघोषित, और बाद में घोषित राजधानी से राजनीति करते रहा, उसके नाम अपने मातहत एक को भी नेता बनाने का योगदान दर्ज नहीं है। जब रमन सरकार में रमेश बैस के कोटे से किसी निगम-मंडल में मनोनयन की बारी आई थी, तो उस वक्त भी रमेश बैस ने अपने भाई श्याम बैस को ही बीज निगम का अध्यक्ष बनवाया था। इसके पहले के कार्यकाल में डॉ. रमन सिंह से रमेश बैस ने श्याम बैस को ही आरडीए का अध्यक्ष बनवाया था। भाजपा की राजनीति में लोगों को बढ़ाने के मामले में रमेश बैस का योगदान परिवार के तीन लोगों से परे किसी ने न सुना, न किसी को याद है।
रमेश बैस सांसद बनने के बाद यह बात शायद अच्छी तरह समझ गए थे कि वे अपने दम पर चुनाव नहीं जीतते हैं, या तो पार्टी जीतती है, या कांग्रेस हारती है। ऐसी बाईडिफाल्ट जीत की अधिक फिक्र करना उन्होंने छोड़ दिया था, और जिस तरह राजधानी रायपुर में कांग्रेस बृजमोहन अग्रवाल के खिलाफ लगातार हारने की काबिलीयत की अनिवार्य शर्त के साथ हर चुनाव में अलग-अलग लोगों को टिकट देते आई है, कुछ उसी अंदाज में रमेश बैस के खिलाफ भी हारने वाले लोग कांग्रेस ने खड़े किए, या फिर देश का माहौल कुछ ऐसा रहा कि कांग्रेस को हारना था, या भाजपा को जीतना था। इन सबका नतीजा यह निकला कि रमेश बैस ने लोगों से संपर्क एकदम सीमित रखा, और दिल्ली में उनके साथ बैठे हुए लोगों का यह तजुर्बा रहा कि छत्तीसगढ़ से किसी का फोन आने पर बहुत बार वे हाथ के इशारे से ही फोन उठाने वाले को कह देते थे कि अभी नहीं।
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लेकिन पन्द्रह बरस की भाजपा सरकार के दौरान रमेश बैस की सीएम बनने की हसरत बनी ही रही, और वे अपने आपको डॉ. रमन सिंह के मुकाबले बेहतर मानते रहे। यह एक अलग बात रही कि एक भी भाजपा विधायक रमेश बैस के साथ नहीं थे जो कि डॉ. रमन सिंह के मुकाबले उनके लिए खड़े रहते। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि छत्तीसगढ़ के पिछले विधानसभा चुनाव में तीन बार के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह की लीडरशिप में लडऩे के बाद अगर भाजपा 15 सीटों पर नहीं आ गई होती, तो रमेश बैस को आज मिला महत्व भी शायद न मिला होता। वे सबसे सीनियर गिने-चुने सांसदों में से एक होने के बाद भी मोदी-मंत्रिमंडल से बाहर रखे गए थे, इस बार सांसद भी नहीं बने थे, लेकिन पार्टी ने उन्हें छोटे सही, लेकिन एक राज्य, त्रिपुरा, का राज्यपाल बनाकर पांच बरस का एक महत्व दे दिया, जिसके बिना वे महज भूतपूर्व सांसद रह गए होते।
त्रिपुरा में रहते हुए रमेश बैस छत्तीसगढ़ की राजनीति में अपने परिवार के दो-चार लोगों को संगठन में या म्युनिसिपल में कुछ बनवा देने में लगे रहते हैं, सात बार के सांसद रहे एक नेता के लिए राजनीति के इस आखिरी दौर में यह बहुत ही सोचनीय बात है कि उसके पास सोचने के लिए महज परिवार के दो-चार हैं।
रमेश बैस की राजनीतिक पराकाष्ठा में कांग्रेस के उल्लेखनीय योगदान के बिना उनकी चर्चा अधूरी ही रह जाएगी जिसने हर बार छांट-छांटकर ऐसे उम्मीदवार खड़े किए जो कि हारते ही रहें। बृजमोहन अग्रवाल के बारे में तो यह माना जाता है कि वे कांग्रेस पार्टी के भीतर अपने खिलाफ उम्मीदवार तय करने में खासी मेहनत करते हैं, लेकिन रमेश बैस के साथ तो ऐसी भी कोई ताकत नहीं रही।
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रमेश बैस केन्द्रीय मंत्री और वरिष्ठ सांसद रहते हुए संसद में अपनी पार्टी की दूसरी-तीसरी कतार में ही बैठते थे, वहां लालकृष्ण अडवानी और सुषमा स्वराज के ठीक पीछे रमेश बैस का मौन मुस्कुराता चेहरा देखते हुए छत्तीसगढ़ इसी बात की राह देखते रह गया कि उसके इतने वरिष्ठ सांसद देश और दुनिया के मुद्दों पर कुछ महत्वपूर्ण बात बोलेंगे। लेकिन महत्वपूर्ण बातें उनके सामने की कतार से कही जाती थीं, और रमेश बैस के चेहरे पर उन्हें लेकर कामयाबी भरी एक खुशी जरूर झलकते रहती थी। छत्तीसगढ़ को संसद में रमेश बैस के सात कार्यकाल की यही याद सबसे अधिक रहेगी कि अडवानी-सुषमा के पीछे उनका मुस्कुराता हुआ चेहरा बने रहता था।
लिखने के लिए रमेश बैस की और भी बहुत सी बातें हैं, लेकिन लिखने के लिए आज वक्त बस इतना ही है, उनके बारे में कुछ और बातें अगली किसी किस्त में। यहां लिखी बातें मामूली याददाश्त के आधार पर हैं, और तथ्य या आंकड़े की किसी गलती के लिए भूल-चूक लेना-देना।
-सुनील कुमार
जीवन की डोर के लिए सबसे जरूरी है प्रेम। केवल प्रेम। प्रेम की कमी मन को उसी तरह संकट में डालती है, जैसे शरीर को ऑक्सीजन की कमी!
एक बार हम सुनना सीख जाएं। फिर मन वैसे ही काम करने लगेगा, जैसे शब्दभेदी बाण किसी जमाने में किया करते थे। मन की आंख बहुत संवेदनशील है। सुनने का अभ्यास आपको अपनों के मन के संकट को पढऩे में बहुत मददगार साबित होगा। हम अपने ही लोगों का मन पढऩे में असफल हैं, इसीलिए तो हम आए दिन देखते हैं कि हमारे कितने ही नजदीकी लोग किस तरह से अपने जीवन को समाप्त करने का निर्णय ले लेते हैं। किसी का बेटा चौबीस बरस की उम्र में आत्महत्या कर लेता है, तो किसी की पत्नी, पति शादी के एक साल बाद जीवन को समाप्त करने का फैसला कर लेते हैं।
सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या को राजनीति ने अपनी जकड़ में ले लिया है। सुशांत की मौत हमारे समाज रूपी तालाब की गंदगी का संकेत थी, जिसे हमने केवल मछली की मौत के रूप में स्वीकार कर लिया है।
जिस बॉलीवुड में सुशांत ने बेहद कम समय में इतनी सफलता अर्जित कर ली उसके बारे में यह कहना कि वहां बाहरी लोगों के लिए जगह नहीं है, तर्कसंगत नहीं दिखता। उल्टे यह इरफान खान, नवाजुद्दीन जैसे अद्भुत कलाकारों के साथ अन्याय सरीखा है।
यह कहा जा रहा है कि बॉलीवुड बहुत कठोर है। वहां बाहरी व्यक्ति के लिए जगह नहीं है। यह हमारे समाज के मूल प्रश्न से भटकने का सटीक उदाहरण है। कौन-सा क्षेत्र है, जहां कठोरता नहीं है। जीवन के किस इलाके में उदारता बिखरी है! हमने ऐसे समाज का निर्माण किया है, जहां सफलता ही सबकुछ है। इसलिए इसके परिणाम भी ऐसे ही आएंगे।
परिस्थितियां जैसी भी हों, आत्महत्या विकल्प नहीं है। हमें हर हाल में जीवन के पक्ष में ही खड़े होना है। जीवन के पक्ष में खड़े होने के लिए जरूरी है, मन को संवेदनशील बनाया जाए। मन को सुनने लायक बनाया जाए। सुशांत के पक्ष में जितने लोग आज खड़े हैं, अगर इसके एक प्रतिशत भी उस समय उनके मन के सारथी बन गए होते, जब वह तनाव से जूझ रहे थे, तो संभव है, उनका जीवन बच जाता!
हम जीवित के साथ खड़े नहीं होते। जबकि ऐसा करने के लिए साहस और संवेदनशीलता के अलावा किसी गुण की जरूरत नहीं। हमारे बीच जब कोई आत्महत्या घटती है तो उसके बहाने हम दूसरों को घेरने की लहर में शामिल हो जाते हैं। तालाब की गंदगी को दूर करने की जगह हम मरी हुई मछली पर शोर मचाने में व्यस्त हो जाते हैं!
जिस तरह बॉलीवुड में किसी की अंतिम यात्रा के लिए भी खास कपड़े पहनने का रिवाज है। अब यह रंग समाज में उतर आया है। इस जीवनशैली को बदलिए। जीवित व्यक्तिव्यक्तियों के प्रति संवेदनशील बनिए। मन की गांठ, गहरी चिंता धीरे-धीरे हमारे मन से जीवन की आस्था, आशा की सुगंध और हृदय की कोमलता को मिटाती जाती है। इसलिए, जिनसे आप प्रेम करते हैं उनसे नियमित संवाद कीजिए।
यह समझने की भी जरूरत है कि बात-बात में डिप्रेशन शब्द का उपयोग मन के लिए ठीक नहीं है। हर छोटी-छोटी चिंता डिप्रेशन नहीं है। किसी सूचना पर मायूस होना। थोड़ी देर के लिए निराश हो जाना। यह मायूसी है। आशा की मात्रा मन से थोड़ी देर के लिए कम हो जाना है। मन का गहरी चिंता में डूबना, डिप्रेशन की ओर जाना है। इसके कुछ संकेत हमेशा ध्यान में रखिए।
अगर किसी व्यक्ति का व्यवहार दो सप्ताह से अधिक समय लिए बदला हुआ लगे। उसके स्वभाव में ज्यादा परिवर्तन दिखे। वह हर संकट को स्वयं सुलझाने की बात करने लगे, तो हमें ऐसे व्यक्ति के प्रति सजग होने की जरूरत है। हमारा कोई प्रिय नौकरी से परेशान है/प्रेम संबंधों में टकराहट है/दांपत्य जीवन में छटपटाहट है। बच्चा चाहकर भी अच्छे परिणाम नहीं दे पा रहा है। तो हमें इन सभी के प्रति मन में करुणा की जरूरत है। गहरे अनुराग और स्नेह की जरूरत है।
सफलता को केवल नौकरी की कीमत/ बिजनेस की कामयाबी से जोडक़र मत देखिए। मनुष्य होना, सुखी होना। जीवन में आनंद होना। इनका कामयाबी से कोई रिश्ता नहीं है। जीवन की डोर के लिए सबसे जरूरी है प्रेम। केवल प्रेम। प्रेम की कमी मन को उसी तरह संकट में डालती है, जैसे शरीर को ऑक्सीजन की कमी!
इसलिए प्रेम के प्रति सजग बनिए। स्नेह को जीवन की नींव बनाइए। नींव मजबूत होगी, तो वह किसी भी तरह का तनाव सरलता से सह जाएगी! जीवन यात्रा है। यात्रा में मुश्किलें आनी स्वाभाविक हैं। इसके प्रति सरलता सीखनी है, जीवन से बड़ी कोई दूसरी पाठशाला नहीं। यहां की पढ़ाई बहुत सरल है, बस हम रटने की जगह समझने की कोशिश करें! (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
अविभाजित मध्यप्रदेश में छत्तीसगढ़ से बनने वाले पहले मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल को छत्तीसगढ़ में लोग सम्मान और मोहब्बत से श्याम भैया या श्यामा भैया भी कहते थे। उनके एक-दो पुराने पारिवारिक मित्रों के अलावा उनके हमउम्र नेता-दोस्त नहीं के बराबर थे, और अपनी पीढ़ी के वे सबसे बुजुर्ग और सबसे बड़े नेता भी रह गए थे। उनसे जरा छोटे छोटे भाई विद्याचरण शुक्ल, लंबे समय तक तो दोनों एक ही पार्टी में थे, लेकिन फिर श्यामाचरण ने इंदिरा का साथ छोडऩे के एवज में 12 बरस कांग्रेस से वनवास झेला था, और वह उनकी जिंदगी के सबसे बुरे संघर्ष और सबसे लंबे इंतजार का दौर भी था।
श्यामाचरण के बारे में इस दौर में कांग्रेस प्रवेश की अफवाहें इतनी बार उड़ती थीं कि धीरे-धीरे लोगों ने उसे सुनना भी बंद कर दिया था। अपनी हत्या के ठीक पहले जब इंदिरा गांधी रायपुर आई थीं, उस वक्त मैं अखबार में काम करता था, लिखता भी था, और फोटोग्राफी भी करता था। गांधी चौक पर इंदिराजी की सभा हुई थी, और मैंने मंच के एकदम करीब से उनकी सैकड़ों तस्वीरें खींची थीं। इसके अलावा एयरपोर्ट पर उनके आते या जाते, या शायद दोनों ही वक्त मैंने बहुत ही करीब से बहुत सी तस्वीरें खींची थीं, और उनकी खुली जीप के साथ दौड़ते हुए तस्वीरें खींचते हुए मेरे शर्ट की तमाम प्रेस-बटनें खुल गई थीं, और रात के दूरदर्शन के समाचार बुलेटिन में बहुत से लोगों ने मुझे खुले सीने दौड़ते हुए, फोटो लेते हुए पहचाना भी था।
उन तस्वीरों में मुझे एक तस्वीर खासकर याद है जिसमें इंदिराजी का विमान रवाना होते हुए रनवे पर दौड़ रहा था, बाकी तमाम नेता इधर-उधर चलने-फिरने लगे थे, लेकिन श्यामाचरण उसी जगह खड़े हुए विमान की तरफ हाथ हिला रहे थे, मानो कि खिडक़ी से इंदिराजी उन्हें देख रही होंगी। उन्हें भी पता नहीं होगा कि यह इंदिराजी की जिंदगी का आखिरी रायपुर दौरा होगा, और उनकी जिंदगी का आखिरी हफ्ता भी। वे रायपुर से ओडिशा गई थी, और फिर दिल्ली लौटीं जहां पर अंगरक्षकों ने उनकी हत्या कर दी थी।
श्यामाचरण शुक्ल ने कांग्रेस के विभाजन के समय इंदिरा गांधी का साथ छोडऩे की जो गलती की थी, उसने उनकी सारी राजनीतिक जिंदगी बदलकर रख दी थी। फिर भी उनकी कांग्रेस में वापिसी हुई, और वे एक बार फिर मुख्यमंत्री भी बनाए गए। वे कुल मिलाकर तीन बार अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे, लेकिन उनकी पहचान छत्तीसगढ़ ही रही, उनका दिल यहीं बसे रहा।
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विद्याचरण शुक्ल की राजनीति कांग्रेस के भीतर की गुटबाजी और जोड़तोड़ पर केन्द्रित रहती थी, लेकिन श्यामाचरण शुक्ल लगातार विकास के बारे में सोचते थे, और सिंचाई उनका पसंदीदा मामला था। वे मुख्यमंत्री न रहते हुए भी अपने आपको सिर्फ मुख्यमंत्री के ओहदे से जोडक़र देखते थे, और किसी विपक्षी के मुख्यमंत्री रहने पर उनका हमला सिर्फ मुख्यमंत्री पर होता था।
उनके बाद एक वक्त मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे सुंदरलाल पटवा एक बार रायपुर आए, और उनकी प्रेस कांफ्रेंस हुई। लोगों ने उनसे श्यामाचरण शुक्ल के लगाए हुए आरोपों के बारे में पूछा तो उनका कहना था- श्याम भैया के दिमाग में पूरे ही वक्त मुख्यमंत्री बनना सवार रहता है। और इसमें उनकी गलती नहीं है, गलती भोपाल में मुख्यमंत्री निवास के नाम की है। श्यामला हिल्स नाम होने की वजह से श्याम भैया को पूरे वक्त आवाज आती रहती है कि श्याम ला, श्याम ला। और वे उसी बंगले में रहना चाहते थे।
पटवाजी बोलने में बड़ी चटपटी जुबान का इस्तेमाल भी करते थे, और उन्होंने आगे कहा- श्याम भैया सीएम बनने के लिए इतने बेचैन हैं, इतने बेचैन हैं, कि रात भर करवटें बदलते रहते हैं, हमारी पद्मिनी भाभी ठीक से सो भी नहीं पाती हैं।
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पटवाजी ने यह बात कही तो मजाक के रूप में थी, लेकिन श्यामाचरण शुक्ल ने मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के पद से कम या अधिक, किसी चीज पर नजर नहीं रखी थी। वे कम या अधिक वक्त के लिए तीन बार मुख्यमंत्री बने।
श्यामाचरण शुक्ल उन लोगों में से थे जिन्हें बोलने पर कम काबू रहता था। कई बार उनके दिए हुए बयान ही उनके कांग्रेस प्रवेश की राह में रोड़ा बन गए थे। अर्जुन सिंह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए थे, और श्यामाचरण कांग्रेस के बाहर थे। राजनीति का तकाजा यही था कि अर्जुन सिंह यह प्रवेश न होने दें, और इसके लिए उन्होंने तमाम किस्म की चतुराई का इस्तेमाल किया था। श्यामाचरण का एक ऐसा इंटरव्यू सामने आया था जिसमें उन्होंने आपातकाल के इंदिरा और संजय के बारे में कुछ अवांछित बातें कही थीं। यह एक अलग बात है कि उनका खुद का यह कहना था कि ये बातें उनकी कही हुई नहीं थीं, और अर्जुन सिंह की एक साजिश के तहत कुछ वरिष्ठ पत्रकारों ने उनसे लिए इंटरव्यू में कई बातें अपने मन से जोड़ी थीं, और उनके कांग्रेस प्रवेश के आखिरी वक्त पर इसे कुछ अखबारों में छपवाकर इंदिराजी के सामने पेश किया गया था। अब इस विवाद से जुड़े हुए सारे के सारे लोग धरती से जा चुके हैं, इसलिए मैं वही बातें लिख पा रहा हूं, जो कि श्यामाचरणजी ने रूबरू मुझसे कही थीं।
श्यामाचरण शुक्ल को जाने अपने किन करीबी लोगों से यह खबर की गई थी कि मैं उन दिनों जिस अखबार में काम करता था, वहां मैं ही अकेला उनका आलोचक था, उनके खिलाफ था। यह बात अखबार के भीतर तो मेरा नुकसान नहीं कर पाई क्योंकि उसे निकालने वाले लोगों का दिल बड़ा था, और वे मेरे खिलाफ और भी ऐसी शिकायतें सुनते आए थे। लेकिन आखिर में मुझे यह भी पता लगा कि उन्हें मेरे खिलाफ भडक़ाया किसने था, लेकिन जो लोग सार्वजनिक जीवन में नहीं रहे, और अब धरती पर भी नहीं रहे, उनके बारे में कुछ कहना जायज नहीं होगा, जरूरत ही नहीं है।
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लेकिन घूम-फिरकर किसी तरह श्यामाचरण शुक्ल मुझसे बात करने को राजी हुए, और अपने छोटे भाई की तरह उनका भी लगातार यह शक मुझ पर बना हुआ था कि मैं कहीं बातचीत रिकॉर्ड तो नहीं कर रहा हूं। उन्हें एक बार फिर मुझे यह भरोसा दिलाना पड़ा कि मैं औपचारिक इंटरव्यू के लिए रिकॉर्डर सामने रखकर ही रिकॉर्ड करता हूं, और रिकॉर्डिंग की इजाजत वाली बातचीत भी मैं रिकॉर्डिंग में सबसे पहले दर्ज कर लेता हूं ताकि किसी विवाद के वक्त सुबूत रहे। लेकिन विद्याचरण के बाद श्यामाचरण, इन दोनों के मन में एक जैसा शक, बिना किसी के बिठाए हुए तो बैठ नहीं सकता था। दोनों भाईयों के मिजाज में बहुत सी बातें बिल्कुल अलग, और कुछ बातें एक-दूसरे से विपरीत भी थीं। लेकिन उनकी कई बातें एक सरीखी भी थीं, जिनमें से एक यह भी था कि वे मीडिया के अधिकतर लोगों के मुंह से भैया सुनने के आदी थे, बहुत से लोग उनके पांव छूते थे, और वे बहुत तीखे सवालों के आदी भी नहीं थे।
श्यामाचरण शुक्ल की एक बड़ी कमजोरी भी थी कि वे अपनी पीढ़ी के लोगों के परिवारों के लोगों को उनके बाप-दादा के नाम से ही याद रख पाते थे, मानो बात की पीढिय़ां अपने आपमें कोई अस्तित्व नहीं थीं। इस मामले में विद्याचरण शुक्ल एकदम अलग थे जो कि जवानों के साथ रहते थे, और वे ही लोग उनके सहयोगी थे।
श्यामाचरण शुक्ल लंबी बातचीत के शौकीन थे, अपनी यादों को बांटने के भी शौकीन थे, और वे लगातार चाय पिलाने, और घर पर तलकर बनाए गए पकौड़े वगैरह खिलाने के भी शौकीन थे। मेरी कमसमझ से उनकी एक बात मुझे गलत तरीके से खटक गई थी, जो कि बाद में साफ हुई। वे आए हुए लोगों के लिए भी अपने हाथ से ही चाय बनाते थे, और पहले अपने कप में केतली से चाय निकालते थे, फिर सामने वाले के कप में। मुझे यह बात अटपटी लगती थी, लेकिन फिर बाद में यह बात समझ आई कि चाय निकालने की यही सही संस्कृति रहती है कि पहले अपने कप में निकाली जाए, और फिर बाद में जब मेहमान के लिए निकाली जाए, तो तब तक वह चाय केतली की चायपत्ती से कुछ और कडक़ हो चुकी रहे। श्यामाचरण शुक्ल सुबह से रात तक सारा वक्त चाय पीते, पकौड़े खाते-खिलाते, और बातें करते गुजार सकते थे।
लेकिन इन दोनों भाईयों ने अलग-अलग वक्त पर, अलग-अलग मुझसे बातचीत में अर्जुन सिंह की सेहत को लेकर कहा था कि हार्ट के बाइपास ऑपरेशन के बाद वे बिस्तर से शायद ही उठ सकें। लेकिन इस ऑपरेशन के बाद अर्जुन सिंह तो महत्वपूर्ण बने रहे, श्यामाचरण शुक्ल किनारे रहे, और अर्जुन सिंह के काफी पहले गुजर गए। विद्याचरण शुक्ल जरूर अर्जुन सिंह के बाद तक रहे, लेकिन अर्जुन सिंह गुजरने के दो बरस पहले तक महत्वपूर्ण केन्द्रीय मंत्री रहे, विद्याचरण शुक्ल तकरीबन महत्वहीन हो गए थे। इस तजुर्बे से मुझे उस वक्त तो लिखने को तो कुछ नहीं मिला, क्योंकि ये बातें अनौपचारिक चर्चा का हिस्सा थीं, लेकिन यह नसीहत जरूर मिली कि दुश्मनी भी हो, तो भी किसी की मौत की कामना नहीं करनी चाहिए।
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छत्तीसगढ़ की राजनीति में ऐसे बहुत से लोग रहे जो कि अजीत जोगी के सताए हुए रहे, और अजीत जोगी के सडक़ हादसे में अपाहिज होने के बाद कई बार यह सोच जाहिर करते थे कि अगले चुनाव तक तो वे शायद ही रहें, और उन्हें गलत साबित करते हुए अजीत जोगी ने पहियों की कुर्सी पर कई चुनाव निपटाए थे। शुक्ल बंधुओं और अर्जुन सिंह के अपने तजुर्बे के आधार पर तमाम जोगी विरोधियों को मेरी यही नसीहत रहती थी कि किसी के बुरे का सोचो, तो उसका भला ही होता है। मैं शुक्ल बंधुओं की यह बात बताता भी था, और जोगी का हौसला देखकर हैरान भी होते चलता था।
लेकिन अजीत जोगी के बारे में लिखने का मौका फिर आएगा, आज तो श्यामाचरण शुक्ल के बारे में भी लिखने को बहुत है। श्यामाचरण शुक्ल मुख्यमंत्री न रहते हुए भी लगातार शहरी विकास के लिए भी फिक्रमंद रहते थे, और उन्हें शहर में सिर उठाती इमारतें पसंद नहीं आती थीं। लेकिन उनकी पसंद और नापसंद बहुत हद तक निजी रहती थीं, और कई बार वे एक व्यापक सार्वजनिक हित से परे देखते थे। अजीत जोगी जब मुख्यमंत्री थे, तो रायपुर शहर में एक कांग्रेस नेता की इमारत तोडऩे म्युनिसिपल पहुंचा था, और बाद में अदालती दखल से वह मामला थमा था। जब मैंने जोगी से इस बारे में बात की, तो उनका कहना था कि श्यामाचरणजी एयरपोर्ट से घर पहुंचने के बीच जब दो इमारतों के बगल से गुजरते थे, तो उन्हें फोन करते थे, और तोडऩे के लिए कहते थे। एक तो कांग्रेस नेता की थी, और दूसरी भाजपा के नेताओं की थी जिसमें ऊंचाई का कुल दो-तीन फीट का गलत निर्माण था, लेकिन उसे तुड़वाने के लिए श्यामाचरण शुक्ल अड़े रहते थे। ये दोनों उन्हें निजी नापसंद मामले थे, जबकि शहर में सैकड़ों ऐसे दूसरे निर्माण उनके मुख्यमंत्री रहते हुए भी थे जिनके बारे में उनका कुछ सोचना-कहना नहीं था। आज काम के बीच इस कॉलम को लिखते हुए इससे अधिक वक्त मुमकिन नहीं हो पा रहा है, इसलिए बाकी कुछ बातें आगे फिर। फिलहाल यह साफ कर देना जरूरी है कि यहां कुछ कतरा-कतरा यादें ही लिखी जा रही हैं, यह कॉलम किसी भी व्यक्ति का समग्र मूल्यांकन नहीं है।
-सुनील कुमार
-श्रवण गर्ग
चौबीस जुलाई के दिन जब लगभग पांच लाख की आबादी वाले अयोध्या में मंदिर निर्माण के भूमि पूजन की तैयारियों के साथ-साथ शहर की कोई बीस मस्जिदों में मुस्लिम शुक्रवार की नमाज़ पढ़ते रहे थे, भारतीय जनता पार्टी और पूर्ववर्ती जनसंघ के संस्थापकों में से एक 92-वर्षीय लाल कृष्ण आडवाणी दिल्ली से वीडियो काँफ्रेंसिंग के ज़रिए लखनऊ की एक सी.बी.आई. अदालत के समक्ष अपने बयान दर्ज करवा रहे थे। राम मंदिर आंदोलन के जनक आडवाणी जब तीस वर्ष पूर्व (25 सितम्बर 1990) मंदिर निर्माण के लिए संघर्ष के रथ पर सवार होकर सोमनाथ से निकले थे, किसी ने भी ऐसी कल्पना नहीं की होगी कि आगे चलकर किसी अदालत के समक्ष वे यह कहना चाहेंगे कि बाबरी ढाँचे के विध्वंस की कारवाई में उनकी कोई भागीदारी नहीं थी ?
मीडिया में प्रकाशित खबरों के मुताबिक़, आडवाणी से करीब साढ़े चार घंटों तक पूछे गए कोई हज़ार से ऊपर सवालों के जवाब का सार यही रहा कि 6 दिसम्बर 1992 को वे अयोध्या में एक कार सेवक की हैसियत से उपस्थित अवश्य थे पर बाबरी ढांचे को गिराए जाने की कारवाई में उनकी कोई भागीदारी नहीं थी। इस सवाल के जवाब में कि तब उनका नाम भी घटना के आरोपियों की सूची में क्यों शामिल किया गया, उनका जवाब था (केंद्र में तत्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा)’ राजनीतिक कारणों’ से। उनके एक दिन पूर्व डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने भी अपने कथन में वही कहा था जो आडवाणी ने कहा।केवल आडवाणी और डॉ जोशी ही नहीं, वरिष्ठ भाजपा नेत्री उमा भारती और तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने भी कथित तौर पर अदालत से यही कहा कि केंद्र सरकार द्वारा राजनीतिक बदले की भावना से उन पर बाबरी के विध्वंस का आरोप मढ़ा गया था।
सवाल यह है कि कोई एक सौ पैंतीस वर्षों की अदालती जद्दो-जहद, इतने लम्बे संघर्ष और हजारों लोगों के बलिदानों के बाद कल (पाँच अगस्त को) अपरान्ह बारह बजकर पंद्रह मिनट पंद्रह सेकण्ड पर उपस्थित होने वाले उस चिर-प्रतीक्षित क्षण के जब आडवाणी सहित ये तमाम नेता प्रत्यक्ष अथवा वीडियो काँफ्रेंसिंग के ज़रिए साक्षी बनेंगे, तब क्या हृदय के अंदर भी वैसा ही अनुभव करेंगे जैसा कि कथित तौर पर लखनऊ की सी बी आइ अदालत में उनके द्वारा दर्ज कराया गया है, या कुछ भिन्न महसूस करेंगे ? अगर गर्व के साथ भिन्न महसूस करना चाहेंगे तो फिर विवादित ढाँचे के विध्वंस में अपने भी योगदान का दावा क्यों नहीं करना चाहते ? उस अवसर पर रिकॉर्ड किए गए भाषणों व चित्रों की वीडियो क्लिपिंग्स, प्रकाशित अखबारी रिपोर्ट्स व अन्य दस्तावेज क्या सभी असत्य हैं और राजनीतिक बदले की भावना से तैयार किए गए थे?
देश की जनता के हृदय में इस तरह का सोच मात्र भी कल्पना से परे होगा कि आडवाणी, डॉ जोशी, उमा भारती, कल्याण सिंह या कोई भी अन्य भाजपा नेता-कार्यकर्ता मंदिर निर्माण के कार्य में अपने बड़े से बड़े बलिदान में पल भर का भी कभी संकोच करेंगे। तब क्या कारण हो सकता है कि आडवाणी और तमाम नेता उस श्रेय को लेने से इनकार कर रहे हैं जिसके वे पूरी तरह से हकदार हैं ? क्या ऐसा मान लिया जाए कि बाबरी का विध्वंस एक अलग घटना थी और सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपने फैसले के ज़रिए मंदिर-निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया जाना एक अलग घटना। दोनों के श्रेय के हक़दार भी अलग-अलग हैं ? दोनों के बीच सम्बंध है भी और नहीं भी ! हो सकता है कि केंद्रीय नेतृत्व बाबरी विध्वंस के साथ एक पार्टी के रूप में भाजपा की किसी भी तरह की संबद्धता नहीं चाहता हो और उसे विश्व हिंदू परिषद आदि संगठनों के मार्गदर्शन में की गई स्वतंत्र कार्रवाई निरूपित करना चाहता हो ! और इसके ज़रिए देश-दुनिया के मुस्लिमों को भी कोई ‘सकारात्मक’ संदेश देना चाहता हो ! तब क्या देश के वे तमाम नागरिक जो इतने वर्षों से एक निरपेक्ष भाव से अपनी आँखों के सामने सब कुछ घटित होता देखते रहे हैं वे भी ऐसा ही स्वीकार करने को तैयार हो जाएँगे ?
भाजपा नेतृत्व की मंशा का सम्बंध क्या इस बात से भी जोड़ा जा सकता है कि आडवाणी द्वारा अपना कथन दर्ज कराने के एक दिन पूर्व केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और अयोध्या केस के एक प्रसिद्ध अभिभाषक तथा भाजपा सांसद भूपेन्द्र यादव ने कथित तौर पर पूर्व उप-प्रधानमंत्री से भेंट की थी? तब क्या ऐसा मुमकिन है कि आडवाणी का पहले मूल सोच उनके द्वारा सी बी आइ अदालत में दर्ज कराए कथन से भिन्न रहा हो ? ऐसा होने की स्थिति में क्या ऐसा असम्भव होता कि मंदिर निर्माण के लिए भूमि पूजन की पूर्व संध्या पर आडवाणी का किसी भी आशय का ‘अन्य कथन’ राष्ट्रीय बहस का हिस्सा बन जाता (आश्चर्यजनक रूप से उनके द्वारा सी बी आइ अदालत में दर्ज कराए गए कथन पर कोई राष्ट्रीय बहस नहीं हुई) और अयोध्या में मनने जा रहे पर्व पर उपस्थित होनेवाले चेहरों की चमक को प्रभावित कर देता। अयोध्या में भगवान राम के भव्य मंदिर की स्थापना के अपने प्रयासों के तहत आडवाणी द्वारा बाबरी ढाँचे के विध्वंस में अपनी भूमिका को लेकर दर्ज कराए गए कथन के बाद क्या इस बात पर थोड़ा-बहुत खेद व्यक्त किया जा सकता है कि उम्र के इस पड़ाव पर पहुँचकर भी आडवाणी ने उस संतोष और श्रेय को प्राप्त करने से अपने आप को ‘स्वेच्छापूर्वक’ वंचित कर लिया जिसके लिए वे इतने वर्षों से संघर्ष कर रहे थे और शायद प्रतीक्षा भी ! मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त करने का श्रेय इतिहास में फिर किसके नाम दर्ज किया जाना चाहिए? इस सवाल का आधिकारिक उत्तर क्या अनुत्तरित ही रह जाएगा?