विष्णु नागर

लेखक से मुफ्तिया काम की उम्मीद...
29-Sep-2020 3:27 PM
लेखक से मुफ्तिया काम की उम्मीद...

-विष्णु नागर

हिंदी लेखक शायद भारत का एकमात्र ऐसा प्राणी है, जिससे सबको मुफ्त सेवा चाहिए। हाँ धन्यवाद या थैंक्स जरूर कभी-कभी उसके हिस्से आ जाता है। वह भी सामने वाले की इच्छा पर है। धन्यवाद नहीं दिया तो लेखक उस पर मुकदमा तो नहीं कर देगा! करेगा तो लालची से लालची वकील भी भगा देगा : कहेगा आपका दिमाग तो ठीक है? इस न्यू इंडिया में दिमाग को ठीक रखना, लिखने से बड़ी चुनौती है।

ताजा संदर्भ यह है कि कल मेरे पास एक साहित्य संपादिका का संदेश आया कि आप फलां लेखक पर दो हजारों शब्दों का संस्मरणात्मक लेख एक सप्ताह में भेज दीजिए। अपना परिचय और तस्वीर भी साथ में। हमारे लिए यह संस्मरण एक उपलब्धि होगी और आगे भी हमें आपसे इसी तरह के सहयोग की अपेक्षा रहेगी। मतलब सारी अपेक्षाएं उन्हें लेखक से हैं। उन्हें लेखक का मोबाइल नंबर जरूर कहीं से मालूम है मगर लेखक का परिचय तक मालूम नहीं है,न वे गूगल पर उसकी तस्वीर ढूँढ सकती हैं। उन्हें मेरा या अन्य जिन लेखकों के बारे में कुछ पता नहीं होगा। बस किसी साहित्यप्रेमी ने उन्हें मेरा नाम और मोबाइल नंबर दे दिया है।ऐसा पहले भी कई बार हुआ है।

ऊपर से आग्रह 2000 शब्दों का भी है और समय भी एक सप्ताह का है। सब कुछ हम उनकी थाली में परोस दें और वे जीमने का कष्ट अवश्य कर लेंगे। 
पूरे पत्र में भुगतान का कोई उल्लेख नहीं था। मैंने लिखा सम्मानजनक भुगतान करेंगे तो अवश्य लिख देंगे। जवाब आया हम तो खुद इस पक्ष में हैं..  अखबार नया है, यह जो रविवारीय संस्करण हम आरंभ कर रहे हैं वगैरह यानी मुफ्त में आप लिख दीजिए और लिखते रहिए। मैंने क्षमा माँग ली। उन्होंने इतना अवश्य किया कि शुक्रिया दे दिया।

यह सही है कि मैं अवकाश प्राप्त हूँ मगर अवकाश प्राप्त का अर्थ इतना खाली होना भी नहीं होता कि तुम अखबार चलाओ, मुझसे एक हफ्ते में दो हजार शब्दों का आलेख भी चाहो और मैं फटाफट लिखने बैठ भी जाऊँ और मिलने के नाम पर ठनठन गोपाल! आखिर क्योंं किसी व्यावसायिक संस्थान के लिए मुफ्त लिखें? तुम्हारा अखबार नया है वगैरह, यह मेरी जिम्मेदारी नहीं। और न आप इससे पहले मुझे जानते थे,न अब जानते हैं, क्यों करूँ यह तकलीफ। इस समय में कुछ बेहतर पढ़ूँगा, लिखूँगा और हो सकता है, मित्रों और परिवारजनों से गप ही लड़ाऊँ या टीवी देखूँ या सोशल मीडिया देखूँ। आपको फलां लेखक पर लिखवाना है तो जो लिखे, उससे लिखवाइए। और वैसे भी उन पर लिखने में मुझसे सक्षम बहुत हैं।

हाँ मेरा फेसबुक या अन्यत्र लिखा, मेरे कुछ मित्र छाप लेते हैं पूछ कर, यह अलग बात है। एक लेखक के तौर पर नये पाठकों तक पहुँचने की इच्छा भी रहती है लेकिन आप कमाई करेंगे तो एक लेखक को उसका पारिश्रमिक भी तो मिलना चाहिए। आप सबको पैसा देंंगे, बस लेखक को नहीं! वैसे हमसब लेखक बिना किसी आर्थिक या अन्य अपेक्षा के भी लिखते रहते हैं मगर वह जो लिखने को मन करता है, वह लिखते हैं और उन्हें देते हैं, जिनसे हमारा किसी तरह का कोई साबका है। वैसे फेसबुक पर लगभग रोज लिखता हूँ तो कोई आर्थिक क्या कोई और अपेक्षा भी नहीं रहती। कुछ रचनात्मक लिखा और किसी ने कहा कि हमें कुछ दीजिए और मन किया कि इसे छपवा लेने में बुराई नहीं तो सादर दे दिया मगर किसी के आदेश पर उनके बताए विषय पर क्यों लिखें?और आप क्या हैं,कौन हैं, हम नहीं जानते। आप भी हमारे बारे में कुछ नहीं जानते।

लिखने के बदले पारिश्रमिक मिले, तब भी यह लेखक का चुनाव होगा कि वह लिखे या न लिखे। और कहाँ लिखें, कहाँ न लिखे।

हिंदी जगत में लेखक से हर कोई मुफ्तिया काम करने की अपेक्षा रखता है। कितने हैं,जो उसके बदले कुछ देना चाहते हैं?और देते भी हैं तो क्या वह अक्सर सचमुच सम्मानजनक होता है? प्रकाशक आमतौर पर रायल्टी देना नहीं चाहते। देते भी हैं तो मात्र बहलाते हैं, उस राशि बताते हुए भी शर्म आती है, जबकि उन्हें देते हुए शर्म नहीं आती। छोटी पत्रिकाओं के लिए आप कुछ लिखते हैं तो यह मानकर ही चलते हैं कि अंक की एक प्रति मिलेगी। वही आपका पारिश्रमिक है मगर कई लघु पत्रिकाएं इतना सार्थक काम कर रही हैं कि उनका सहयोग करने की इच्छा रहती है।और सहयोग करते ही हैं तमाम लेखक।इस तरह हिंदी का कोई भी लेखक काफी मुफ्त सेवा करता रहता है मगर इसका अर्थ यह भी नहीं कि हर कोई उसे लिखनेत्सुक समझ ले, टेकन फार ग्रांटेड ले ले!

एक तरह से लेखक को सामान्यत: उसके परिश्रम का कोई प्रतिदानतो नहीं ही मिलता, ऊपर से तोहमतें भी उसे ही सबसे ज्यादा मिलती हैं। ऐसा क्यों कर दिया, क्यों कह दिया,क्यों  लिख दिया, वहाँ क्यों चले गए, वहाँ क्यों नहीं गए, उसकी प्रशंसा  या निंदा क्यों कर दी। बाकी रचनात्मक काम करने वालों के बारे में तो मानकर चला जाता है कि उन्हें तो समझौते करने ही हैं मगर लेखक का जरा सा विचलन उसे जनवादी से कलावादी और कलावादी से अलेखक बना दे सकता है।

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