दयाशंकर मिश्र

प्रेम और घृणा!
09-Oct-2020 3:11 PM
प्रेम और घृणा!

हमें अपनी भाषा को भी प्रेम देना है। बिना प्रेम के भाषा कमजोर होती जाती है। हमारे आसपास बढ़ता गुस्सा, बर्दाश्त करने की क्षमता का कम होना बताता है कि हमारी भाषा खोखली होती जा रही है, अति की ओर बढ़ती जा रही है, उसे प्रेम का साथ मिलना जरूरी है। इससे ही हम मन को घृणा की ओर बढऩे से रोक पाएंगे।

अपनी हर दिन की जिंदगी में हम अक्सर इस तरह की बातें सुनते रहते हैं, ‘मैं उनसे बहुत प्रेम करता हूं। उनके विरुद्ध कुछ नहीं सुन सकता। मैं उनसे इतनी घृणा करता हूं कि उनके प्रति आदर का मामूली टुकड़ा भी मेरे मन में नहीं!’ असल में हम सब ऐसे समय में हैं जहां अतिवादी शक्तियों का ही वर्चस्व है। टेलीविजन, राजनीति ने हमारे सामान्य जीवन को अपेक्षा से कहीं अधिक प्रभावित कर दिया है।

क्या हम सामान्य नहीं रह सकते। प्रेम और घृणा के बीच भी कुछ है। उसे उपलब्ध होना इतना कठिन तो नहीं, जितना हमने बना लिया है। हमारा रवैया कुछ-कुछ ऐसा है, मानिए, हम गाड़ी चलाएंगे तो अधिकतम सीमा पर ही चलाएंगे, नहीं तो घर ही बैठे रहेंगे। सबकुछ, अति पर जाकर खत्म हो रहा है।

हमने राजनीति को कुछ ज्यादा ही महत्व अपने जीवन में दे दिया है। हमारा सामान्य जीवन भी उनसे इतना प्रभावित हो गया कि हमारी भाषा, विचार और संवाद तक उनके जैसे होने लगे। किसी सभ्य नागरिक समाज के लिए यह बहुत आदर्श स्थिति नहीं मानी जा सकती। समाज कभी राजनीति का नकलची बंदर नहीं हो सकता। समाज के बीच से राजनीति आती है, राजनीति से समाज पैदा नहीं होता। हां, राजनीति चाहे तो उसे आगे चलकर अपने हिसाब से बदलने की कोशिश कर सकती है।

इसलिए नागरिक, समाज को अपने जीवनमूल्यों की रक्षा स्वयं करनी पड़ती है। हम सबको इस बात की पड़ताल करने की जरूरत है कि हमारा जीवन सामान्य बना रहे। प्रेम और घृणा दोनों की अत्यधिक निकटता असल में जीवन को प्रभावित करती है। जब हम बहुत अधिक प्रेम में होते हैं, तो असल में एक ऐसी जगह होते हैं जहां से टकराव का कोई भी द्वार खुल सकता है, क्योंकि प्रेम को हम तुरंत ही अधिकार से जोड़ लेते हैं। घर, परिवार, कारोबार और समाज हर जगह आपसी रिश्तो में टकराव का सबसे बड़ा कारण प्रेम को अधिकार में बदलने की जल्दबाजी है।

टकराव बढऩे पर अगर उसे समय पर न संभाला जाए, तो उसके घृणा की ओर बढऩे में देर नहीं लगती। इसलिए यह बहुत जरूरी है कि जीवन में संतुलन बना रहे। प्रकृति की पाठशाला में कितना सुंदर संतुलन है। काश! हम इसे समझने की ओर बढ़ पाते।

एक छोटी-सी कहानी आपसे कहता हूं। संभव है, इससे मेरी बात आप तक सरलता से पहुंच सके। एक बार महात्मा बुद्ध से एक नए साधक ने कहा, ‘मैं आपसे बहुत प्रेम करता हूं। आपके विरुद्ध कुछ भी सुनना मेरे लिए संभव नहीं। जब भी आपकी आलोचना सुनता हूं, मन में बेचैनी और हिंसा के विचार आने लगते हैं’।

बुद्ध ने उसकी ओर देखते हुए कहा, अभी तो आए हो। खुद को थोड़ा देखो। अभी तुम्हारा ही मन कमजोर है, तो दूसरों से संवाद कैसे कर सकोगे! मुझसे प्रेम का अर्थ दूसरे के प्रति असहिष्णु हो जाना नहीं है। प्रेम का अर्थ असहमति के द्वार बंद करना नहीं है। असहमति अपनी जगह और प्रेम अपनी जगह!

अपने प्रेम को संकुचित मत करो, उसकी सबके लिए उपलब्धता ही जीवन में सुख का प्रवेश द्वार है। हमें इनको मिलाने की जरूरत नहीं। जब भी किसी के प्रति इतना प्यार हो जाए कि वह दूसरे के लिए संकटकारी हो जाए, तो उसे प्रेम नहीं कहेंगे। असल में वह प्रेम की सरल नदी नहीं है, वह तो प्रेम की बाढ़ हो जाएगी! बाढ़ से किसी का भला नहीं होता।

हमें अपनी भाषा को भी प्रेम देना है। बिना प्रेम के भाषा कमजोर होती जाती है। हमारे आसपास बढ़ता गुस्सा, बर्दाश्त करने की क्षमता का कम होना बताता है कि हमारी भाषा खोखली होती जा रही है। अति की ओर बढ़ती जा रही है, उसे प्रेम का साथ मिलना जरूरी है। इससे ही हम मन को घृणा की ओर बढऩे से रोक पाएंगे।
-दयाशंकर मिश्र

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