दयाशंकर मिश्र

बचपन की चिट्ठी!
10-Oct-2020 2:57 PM
बचपन की चिट्ठी!

जब बच्चे के नंबर कम आएं/ उसका प्रदर्शन आपके हिसाब से ठीक न हो, तो उस वक्त उसके साथ खड़े होने के लिए बहुत प्रेम और स्नेह की जरूरत होती है। अधिकांश लोग ऐसा कर पाने में सफल नहीं हो रहे हैं!

‘मैं अपने स्कूल के साथियों से बहुत ज्यादा परेशान हूं। उनकी बातें मुझे बहुत चुभती हैं। जब मैं इसके बारे में स्कूल और घर में बात करती हूं, तो कोई गंभीरता से नहीं लेता। अब मैं इससे तंग आ गई हूं, मुझे लगता है जिंदगी छोडक़र चली जाऊं! परीक्षा में प्रदर्शन को लेकर एक-दूसरे को परेशान करने, तंग करने का काम स्कूल न जाने से रुका नहीं। यह काम तो आसानी से ऑनलाइन पढ़ाई के दौरान भी हो रहा है। केवल शिक्षक के भरोसे यह नहीं रुकने वाला।’

जीवन संवाद को फेसबुक मैसेंजर पर देर रात यह संदेश मिला। एक बहुत ही प्यारी बच्ची का, जो फेसबुक पर अपने पापा के अकाउंट के पोस्ट पढ़ते हुए मुझसे जुड़ गई। उसने मैसेज भेजने के बाद यह भी कहा कि उसका नाम कहीं न लिया जाए। उसका संदेश मिलने के बाद मैं ठीक से सो नहीं पाया रातभर।

कैसी दुनिया बना ली है, हमने! मेरी तकलीफ उस समय और बढ़ गई, जब उस बच्ची ने कहा कि उसने अपनी मां को जब बताया कि कम नंबर आने पर उसके साथी, दोस्त उसे तरह-तरह से ताना मारते हैं। परेशान करते हैं, तो मां ने कहा, ‘बच्चे ठीक ही करते हैं। जब तुम पढ़ती नहीं हो, तो उस वक्त क्यों नहीं सोचती। अगर मेहनत नहीं करोगी, तो दूसरे तो चिढ़ाएंगे ही।’

मैं उनकी मां को जानता हूं, सुलझी, सुशिक्षित और व्यवहार कुशल हैं। लेकिन कई बार इतना ही काफी नहीं होता। अपने बच्चे के लिए हम कठोर हो जाते हैं। हमें नंबरों के पीछे नहीं जाना है, केवल किताबी पढ़ाई -लिखाई ही सबकुछ नहीं, ऐसी बातें करने में तो वह बहुत भली लगती हैं, लेकिन जब अपने बच्चे के नंबर कम आएं, तो उस वक्त उसके साथ खड़े होने के लिए बहुत प्रेम और स्नेह की जरूरत होती है। अधिकांश लोग ऐसा कर पाने में सफल नहीं हो रहे हैं!

माता-पिता का सबसे बड़ा संकट यह है कि वह बच्चों के साथ अपने भविष्य को जोडक़र चलते हैं। वह यह मानकर भी चलते हैं कि बच्चों के बारे में सारे फैसले उनको ही करने हैं। बच्चों को मानसिक रूप से मजबूत बनाना, मेरे ख्याल में सबसे जरूरी काम है। बच्चे एक-दूसरे की टिप्पणी का सही तरीके से सामना कर पाएं, यह बहुत जरूरी है। उनके मन को समझना और संभालना हमारा सबसे पहला काम होना चाहिए।

अगर मेरा बेटा/मेरी बेटी अपेक्षा के अनुकूल प्रदर्शन नहीं कर पा रहे हैं, तो किसकी ‘जिम्मेदारी’ है, जैसे शब्द का उपयोग न करें। नतीजे ठीक नहीं आने के पीछे बहुत सारे कारण होते हैं। बच्चे की रुचि, उसकी क्षमता, दिए गए वक्त में काम पूरा करने की योग्यता जैसे बहुत सारे पैमाने हैं, जिनके आधार पर नंबर तय होते हैं।

मजेदार बात यह है कि दुनिया को सुंदर, रहने लायक और प्रेमपूर्ण अधिकांश वह लोग नहीं बनाते, जो खूब अच्छे नंबर लेकर आए। इनमें ज्यादा संख्या ऐसे बच्चों की है, जिनको स्कूल, शिक्षा संस्थान समझने में असफल रहे!

रवींद्रनाथ टैगोर की प्रतिभा से हम सब अच्छी तरह परिचित हैं। उनकी पूरी शिक्षा-दीक्षा स्कूल में नहीं घर में हुई। आइंस्टीन को तो उनके स्कूल ने ही यह कहकर निकाल दिया कि इसके कारण दूसरे बच्चे पीछे रह जाएंगे! यहां केवल दो उदाहरण का अर्थ यह नहीं कि दुनिया में ऐसे लोगों की कमी है। दुनिया में ऐसे लोग इतने अधिक हैं कि उनको गिनना संभव नहीं।

असल में स्कूल सारे बच्चों के लिए नहीं हैं। वह सबके लिए बनाए ही नहीं गए। वह केवल उनके लिए बनाए गए हैं, जो उनके सांचे में फिट होते हैं। अब यह हमारी गलती है कि हम अपनी पहचान की कीमत पर उसमें जगह पाना चाहते हैं!

हम सबको समझना होगा कि प्रतिस्पर्धा बढ़ जाने का मतलब यह नहीं कि मनुष्यता के सिद्धांतों से दूर चले जाएं। मैं बार-बार दोहराना चाहता हूं कि बच्चा हमारा है, स्कूल का नहीं। स्कूल की दिलचस्पी बच्चे में नहीं उसके रिजल्ट में है। इसलिए, हमें अपने बच्चे के पक्ष में खड़े होना है। बच्चे के हिसाब से स्कूल बदलने हैं, स्कूल के हिसाब से बच्चे को नहीं।

‘जीवन संवाद’ को अपने हृदय के कष्ट साझा करने के लिए इस बच्ची को स्नेह और प्यार। मैंने केवल उसे यही समझाने की कोशिश कि जो आपसे साझा कर रहा हूं। उसके सपने, जीवन उसका अपना है उस पर दूसरे किसी की छाया नहीं पडऩी चाहिए।

सबसे जरूरी बात है कि उसका मन इतना मजबूत बनाना है कि वह दूसरों की बातों से हताश न हो जाए। निराश होकर कभी भी खुद को अकेला और कमजोर न समझे। कई बार ऐसा होता है जब माता-पिता बच्चे के मन को नहीं समझ पाते, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं होता कि वह उससे प्रेम नहीं करते। मन को न समझते हुए, वह असल में गलती कर रहे होते हैं, और गलती करने का अर्थ यह नहीं कि प्रेम कम है!
-दयाशंकर मिश्र

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