दयाशंकर मिश्र

दृष्टि का अंतर!
15-Oct-2020 9:40 PM
दृष्टि का अंतर!

जो अपने भीतर करुणा, प्रेम और कोमलता रखते हैं। उनके भीतर ही कुछ घटने की संभावना अधिक होती है। जीवन का सुख चट्टान से अधिक मिट्टी में है!

एक ही जैसी घटनाओं पर हमारे विचार अक्सर अलग-अलग होते हैं। यहां तक तो ठीक है, लेकिन अगर हम चीजों को ध्यान से देखने लगें, ढंग से देखने लगें, तो पाते हैं कि देखने के एक ढंग से चीज एक तरह से दिखाई पड़ती है। दूसरे ढंग से दूसरी तरह की दिखाई पड़ती है। चीज तो वही है, लेकिन हमारा देखने का ढंग मायने बदल देता है! घटना एक जैसी ही घटती है, हम सबके जीवन में, लेकिन हमारी दृष्टि की भिन्नता अर्थ बदल देती है। हम लोग जीवन में कितनी ही शव यात्राएं देखते हैं। बुजुर्ग बीमारों को देखते हैं, लेकिन हम पर कोई असर नहीं होता। सिद्धार्थ एक दिन देख लेते हैं और उसके बाद वह कभी सिद्धार्थ नहीं रह पाते। वह हमेशा के लिए गौतम बुद्ध बन जाते हैं। अगर बुढ़ापा और अंतिम यात्रा देखने से जीवन की दृष्टि बदलती, तो हम सब बदल चुके होते, लेकिन ऐसा नहीं है। बदलता केवल वही है, जिसके भीतर कुछ घुमड़ रहा हो। बिना बादल के बारिश नहीं होती। बादल होने ही चाहिए और वह भी भीतर से भरे हुए!

एक छोटी-सी कहानी कहता हूं आपसे, संभव है इससे मेरी बात अधिक स्पष्ट हो पाएगी। एक दिन एक राजा ने सपना देखा कि उसके महल के छप्पर पर कोई चल रहा है। उसने जाकर पूछा, ‘तुम कौन हो और छत पर क्या कर रहे हो’? व्यक्ति ने कहा, ‘मेरा ऊंट गुम गया है। उसे ही खोज रहा हूं’। राजा को हंसी आ गई। उसने कहा, ‘तुम पागल मालूम होते हो। कभी छप्पर पर भी ऊंट मिलता है’!

ऊंट खोजने वाले ने कहा, ‘कैसी बात करते हो! अगर तुम्हारे धन और वैभव से सुख मिल सकता है, तो ऊंट भी छप्पर पर मिल सकता है’। राजा को नींद न आई उसके बाद, रातभर। कुछ दिन पहले उसने किसी से इसी तरह की बात कही थी कि सुख तो धन और साधन में है। राजा ने नगर में सब ओर अपने गुप्तचर दौड़ा दिए और कहा कि पता लगाइए कोई बड़ा फकीर आया है।

सैनिक तो खोज न सके, लेकिन एक दिन एक सूफी फकीर ने महल के दरवाजे पर आकर कहा, ‘जाओ, राजा से कहो, इस सराय में मैं रुकना चाहता हूं। मैं पहले भी यहां ठहरता रहा हूं।’ दरबान ने कहा, ‘आपको कोई गलतफहमी हो गई है! यह सराय नहीं, राजा का महल है’। बात काफी बढ़ गई। राजा तक पहुंची, तो वह दौड़ा हुआ चला आया। वह आदरपूर्वक उनको ले आया।

राजा ने फकीर से पूछा, ‘आप इस महल में जब तक चाहें, रहें, लेकिन इस महल को आप सराय क्यों कह रहे हैं, मैं समझ नहीं पा रहा हूं’। फकीर ने कहा, ‘मैं पहले भी यहां आया था, लेकिन तब यहां के राज सिंहासन पर कोई और बैठा था’। राजा ने कहा, ‘वह मेरे पिता थे’। फकीर ने कहा, ‘उसके पहले आया, तो कोई और था! राजा ने कहा, ‘वह मेरे दादा थे’!

फकीर ने ठहाका लगाते हुए कहा, ‘इसीलिए तो मैं इसे सिंहासन कह रहा हूं। यहां लोग बैठते हैं, फिर चल देते हैं। तुम भी भला कितनी देर बैठोगे। यह घर नहीं है। घर तो वहां होता है, जहां बस गए हो बस गए! जहां से हटना संभव न हो’।

सुनते हैं फकीर की बात सुनकर राजा सिंहासन से उतर आया और फकीर से प्रणाम करके कहा, ‘यह सराय है। आप यहां रुकें, मैं जाता हूं’। ऐसा नहीं है कि यह शब्द केवल फकीर ने उस राजा से ही कहे होंगे। फकीर तो एक ही जैसी बात सबसे करते हैं। उनको हमारे कुछ होने और न होने से कोई सरोकार नहीं। जो अपने भीतर करुणा, प्रेम और कोमलता रखते हैं। उनके भीतर ही कुछ घटने की संभावना अधिक होती है। जीवन का सुख चट्टान से अधिक मिट्टी में है! जहां नमी नहीं होगी, वहां कोमलता कैसे होगी। कोमलता के बिना प्रेम, अहिंसा को उपलब्ध होना संभव नहीं। इनके बिना जीवन को पाना सरल नहीं है। जिंदगी बांहें फैलाए खड़ी है, लेकिन कदम हमें ही बढ़ाना है।
-दयाशंकर मिश्र

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