दयाशंकर मिश्र

आंसुओं को पुकारना!
20-Oct-2020 2:10 PM
आंसुओं को पुकारना!

दुनियाभर में आत्महत्या के बढ़ते आंकड़े बताते हैं कि पुरुष अपने जीवन को संभालने में स्त्रियों के मुकाबले कहीं कमजोर साबित हुए हैं। आंसुओं की कमी इसकी मुख्य वजहों में से एक है!

अपने जीवन के संघर्ष, तनाव को संभालने के मामले में दुनियाभर में स्त्रियां पुरुषों से कहीं आगे हैं। यही वजह है कि असमय अपने जीवन को समाप्त करने वाले पुरुषों की संख्या बहुत अधिक है। पुरुष स्त्रियों से दोगुनी संख्या में आत्महत्या कर रहे हैं। सामान्य सोच यह बताती है कि इस मामले में स्त्रियों की संख्या अधिक होगी, लेकिन आंकड़ों का अध्ययन यह नहीं कहता। इस बात को थोड़ा धीरज के साथ समझने की जरूरत है कि कोमलता, संवेदनशीलता और प्रेम को कमजोरी के रूप में देखने वाला पुरुष समाज आखिर इतना कठोर कैसे होता जा रहा है कि वह अपने ही जीवन को समाप्त करने के लिए तैयार हो जाता है। आत्महत्या की अनेक परतें हैं। एकदम प्याज की तरह परत के ऊपर परत। जिस तरह अच्छे से प्याज काटना हो तो आंसुओं से गुजरना होता है, उसी तरह मन की तह तक जाने के लिए जरूरी है कि हम उसके भीतर उतरते चले जाएं।

जीवन में कठोरता को हमने इतना अधिक जरूरी मान लिया कि कोमलता से लज्जित होने लगे। विनम्रता और शालीनता से बात करने को हमने उपेक्षित करना शुरू कर दिया। हमारे आसपास एक ऐसा वातावरण बनता जा रहा है, जहां हमारा वाचाल होना, बढ़-चढक़र दावे करना बहुत जरूरी बना दिया गया है! हमारी कोमलता पीछे छूटती जा रही है।

लाओत्से, कहते हैं, ‘तुमने कभी फूल की शक्ति देखी है। निर्बल होकर भी वह कितना शक्तिशाली है। उसे तुम ईश्वर को चढ़ाते समय नतमस्तक हो जाते हो। प्रेमिका को देते समय प्रेम से भर जाते हो। कोमलता ही जीवन है। हम सब रोते हुए ही इस दुनिया में आते हैं, लेकिन धीरे-धीरे आंसुओं से दूरी बना लेते हैं। यह दूरी ही हमें मनुष्यता से दूर धकेलती रहती है।’

हमें लाओत्से को ध्यान से सुनना होगा। कोमल बनने की ओर बढऩा होगा। आंसुओं को फिर से पुकारना है! भीतर फूल खिलने देना है, चट्टान नहीं। चट्टान यह सोचती जरूर है कि वह कितनी कठोर, बलशाली है, लेकिन वह भूल जाती है कि कमजोर दिखने वाली जल की धारा ही अंतत: जीतती है, चट्टान को रेत होकर बहना ही होता है!

लखनऊ से अवसाद से जूझ रहे एक युवा उद्योगपति ने फोन किया। कई हफ्तों की बातचीत के बाद उन्हें इस बात के लिए राजी किया जा सका कि भावनाओं को रोकें नहीं। खुद को सुपरमैन मानने से बचें, जब रोने का मन करे जीभर रो लें। आपसे यह कहते हुए प्रसन्नता हो रही है कि अब वह काफी बेहतर महसूस कर रहे हैं। दुनियाभर में आत्महत्या के बढ़ते आंकड़े बताते हैं कि पुरुष अपने जीवन को संभालने में स्त्रियों के मुकाबले कहीं कमजोर साबित हुए हैं। आंसुओं की कमी इनकी मुख्य वजहों में से एक है!

जिस पश्चिम की दुनिया की चकाचौंध में हम अक्सर डूबे रहते हैं, वहां तो जान देने वालों में पुरुषों की संख्या कहीं अधिक है। जापान में इस दिशा में कुछ वर्ष पहले से अद्भुत प्रयोग हो रहा है। वहां विश्वविद्यालय युवाओं को रोना सिखा रहे हैं। अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करना सिखाया जा रहा है। दुख को जमने नहीं देना है। जमते-जमते वह मन के लिए भारी चट्टान बन जाता है। आंसू में वह शक्ति है, जो चट्टान को अपने कोमल स्पर्श से एक बार फिर रेत में बदल दे।

‘जीवन संवाद’ में हम लगातार कोशिश करते हैं कि मन को आंसुओं के नजदीक रख सकें। जैसे ही कोई व्यक्ति मन के दुख को आंसू उपलब्ध करा देता है, उसका बहुत सारा बोझ हल्का हो जाता है। सहज हो जाता है। अपने आसपास उन लोगों को देखिए, जो थोड़ी-सी बात पर भावुक हो जाते हैं। आप पाएंगे कि उनका मन और तन दोनों कहीं अधिक निरोगी हैं। स्वस्थ हैं। इस दिशा में पहला कदम यह होना चाहिए कि जब कोई रो रहा हो, तो उसे रोकें नहीं। उसके निर्मल बनने में उसके सहभागी बनें। अगर हम अपने लडक़ों को रोना सिखा सकें, तो संभव है दुनिया आगे चलकर कुछ सुंदर बन जाएगी।

पुरुष का आक्रोश और उसकी कुंठा सरलता से प्रेम की ओर बढ़ पाएंगे। यह जो पुरुषों की क्रूरता है, यह बरसों की आंसुओं से दूरी भी है। यह दूरी मिटाना सरल तो नहीं, लेकिन असंभव एकदम नहीं है! हम सबको जीवन की ओर बढऩे के लिए कठोरता के खोल से बाहर निकलने की जरूरत है! यह यात्रा स्वयं से शुरू होकर ही दुनिया की ओर जाएगी।
-दयाशंकर मिश्र

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