दयाशंकर मिश्र

एक के सहारे!
31-Oct-2020 12:49 PM
एक के सहारे!

बांध बनाने के बाद हम अपने तालाब, कुओं की उपेक्षा करने लग जाएं, तो पानी, पर्यावरण कैसे बचेगा! रिश्तों पर भी यही बात लागू होती है। जीवन और प्रकृति एक-दूसरे के सहयात्री हैं, विरोधी नहीं!

हम जीवन में जिसकी ओर मुड़े होते हैं, उसके अतिरिक्त दूसरे पक्ष के प्रति हमारी संवेदनशीलता धीरे-धीरे खत्म होती जाती है। हम अपने को दूसरे से जब इतना अधिक जोड़ लेते हैं कि उसके अतिरिक्त किसी और की ओर देखना संभव नहीं होता, तो ऐसी दशा में हमारे फैसले केवल किसी खास व्यक्ति के आसपास सिमटकर रह जाते हैं। इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि हम एक ही रिश्ते में बंधकर रह जाते हैं। ऐसा करना कभी भी मन और जीवन की सेहत के लिए हितकारी नहीं हो सकता है।

यह कुछ ऐसा है, मानिए बांध बनाने के बाद हम अपने तालाब, कुओं की उपेक्षा करने लग जाएं, तो पानी, पर्यावरण कैसे बचेगा! रिश्तों पर भी यही बात लागू होती है। जीवन और प्रकृति एक-दूसरे के सहयात्री हैं, विरोधी नहीं! गांव में किसी एक के साथ निर्भरता का संकट उतना नहीं, जितना शहरों में है। गांव में कोई कितना भी सबल हो, उसका अकेले चलना संभव नहीं। गांव की बुनियाद सहयोग, निर्भरता पर आधारित है। शहर में सारे नियम धीरे-धीरे उलटते चले गए, क्योंकि यहां एक नई चीज ने जन्म ले लिया- ‘उपयोग करो और फेंक दो’! पहले वस्तु, उसके बाद यही नियम हमने मनुष्यों पर लागू कर दिया। हम खुद को अंधेरे की ओर धकेलते जा रहे हैं, जहां से जीवन के रोशनदान दूर होते जा रहे हैं। जीवन के नियम बहुत स्पष्ट हैं, अब यह हम पर है कि हम उन्हें कैसे देखते हैं!

‘जीवन संवाद’ को हर दिन एक-दूसरे से छल, साथ छोड़ देने और मुश्किल में किनारा कर लेने के बारे में संदेश मिलते रहते हैं। हम जब यह शिकायत कर रहे होते हैं कि जिंदगी में किसी ने हमारा साथ नहीं दिया, तो ऐसा करते हुए हम भूल जाते हैं कि जब मौके आए, छोटे ही सही, तो हमने किसी की मदद की? मदद करने का हमारा रिकॉर्ड कैसा है!

मदद, साथ देने के मायने हमेशा यही नहीं होते कि आप किसी डूबते को हिंद महासागर से बचाएं। मदद के मायने हमेशा किसी की आर्थिक मदद के लिए तत्पर रहना नहीं होता। मदद, एक-दूसरे का साथ बहुत छोटी-छोटी चीजों, ख्याल रखने से दिया जा सकता है। लगातार बातचीत, नियमित आत्मीयता, शरद पूर्णिमा के चंद्रमा की तरह मन को शीतल करते हैं। हम छोटी-छोटी कोशिश को इसलिए महत्व नहीं देते, क्योंकि हमारा मन बड़ी-बड़ी योजना बुनता रहता है। हम भूल जाते हैं कि बड़े-बड़े जंगल, बाग भी छोटे-छोटे पौधरोपण से ही अपनी यात्रा आरंभ करते हैं। इसलिए कोशिश होनी चाहिए कि रिश्तों की हरियाली किसी एक जंगल पर केंद्रित न हो। हमारे नायक, चाहे वह ऐतिहासिक हों या धाार्मिक, उनकी जीवन यात्रा हमें यही समझाती है कि संकट की नदी को केवल एक पुल के सहारे पार नहीं किया जा सकता। उसके लिए अनेक छोटे रास्तों और अस्थायी पुलों की जरूरत होती है।

अपने जीवन में झांकिए। देखिए अगर रिश्तों की खिडक़ी एक ही आंगन में खुलती है, तो खिडक़ी न सही, रोशनदान ही बनवा लीजिए। इससे एक रिश्ते पर निर्भरता कम होगी, जीवन कहीं संतुलित गति से आगे बढ़ेगा।
-दयाशंकर मिश्र

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