दयाशंकर मिश्र

कागज के फूल!
03-Nov-2020 4:58 PM
कागज के फूल!

अपने प्रेम को अगर हम केवल फेसबुक लाइक, शेयर और रीट्वीट के सहारे छोड़ देंगे, तो हमारी जिंदगी कागज के फूलों के आसपास ही सिमटकर रह जाएगी। जाहिर है, जीवन की सुगंध से हम दूर होते चले जाएंगे!

कागज पर कितने ही सुंदर फूल खिला लिए जाएं, खुशबू के लिए तो असली फूल लाने ही होंगे। आभास अलग बात है, खुशबू का सामने होना अलग अनुभव है। सोशल मीडिया की भीड़ में हम इस अंतर को भूलते ही जा रहे हैं। हम एक-दूसरे से इतने अधिक दूर होते जा रहे हैं कि इस बात को समझना लगभग मुश्किल होता जा रहा है कि हमें एक-दूसरे की कितनी परवाह है। हमारे मन कभी नदी के किनारों सरीखे थे। दूर थे, लेकिन इतने नहीं कि नजर न आ सकें। एक-दूसरे की आंखों के सामने आए बिना भी मिले रहते थे। अब दूरी इतनी बढ़ती जा रही है कि हमारे लिए एक-दूसरे को बर्दाश्त करना लगभग मुश्किल होता जा रहा है। जिंदगी में तकनीक को हम इसलिए लेकर आए थे कि थोड़ा वक्त बचा जा सकें। जिंदगी को दुलार और प्रेम के लिए अतिरिक्त समय मिल सके, लेकिन कहानी दूसरी दिशा में मुड़ गई। स्मार्टफोन, इंटरनेट हमारे मन और दिमाग के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनते जा रहे हैं। करोड़ों युवा अपनी रचनात्मकता और जिंदगी को किसी सार्थक दिशाा में ले जाने की जगह मोबाइल पर सतही और दिमाग को बोझिल बनाने वाली सामग्री में उलझे हुए हैं।

मदद करने वाले की जगह हम तमाशा खड़ा करने, देखने वाले समाज के रूप में बदलते जा रहे हैं। सडक़ किनारे घायलों की मदद करने वालों की जगह उनका वीडियो बनाने वालों की बढ़ती संख्या यह संकेत कर रही है कि समाज में प्रेम और सद्भाव चिंताजनक स्तर तक पहुंच गए हैं।

हम वही शिकायत कर रहे हैं, जैसा खुद दूसरों के साथ कर रहे हैं। इस बात को समझना बहुत जरूरी है कि जो कुछ भी हम हासिल करते हैं, वह अंतत: हमसे ही चिपका रहेगा। हम तक ही सिमटा रहेगा। दूसरों को जो दिया जाना है, असल में केवल वही प्रेम है। अनुराग है। कागज के फूल कभी बाग के फूलों के मुकाबले नहीं टिक सकते। हमने इंटरनेट को जिंदगी में इतना महत्व दे दिया कि माता-पिता, बच्चे और भाई-बहन सब पीछे छूटते जा रहे हैं। हम प्रेम करना नहीं चाहते, लेकिन प्रेम करते हुए दिखना चाहते हैं। सहायता नहीं करना चाहते, लेकिन तस्वीरों के फ्रेम इस तरह रचते हैं कि सब ओर हम ही दिखें। हम दूसरों की जगह अपने अहंकार के प्रेम में उलझे हुए हैं। एक छोटी-सी कहानी कहता हूं-

एक बार शहर के सबसे अमीर आदमी की तबीयत खराब हुई। बहुत कोशिश हुई, लेकिन उसका मन ठीक न हो सका। तब एक दिन उसके वैद्य ने कहा कि उसे किसी मन के जानकार से मिलना चाहिए। उस समय तक मनोचिकित्सा जैसी विधा सामने नहीं आई थी, लेकिन मन भी था और उसका इलाज भी!

बुजुर्ग वैद्यजी ने थोड़ी देर सेठ जी से बात करने के बाद कहा, ‘अपनी ओर से जोडऩा बंद कर दो, सब ठीक हो जाएगा’! सेठ जी को बात समझ में नहीं आई। बुजुर्ग वैद्य जी ने प्यार से समझाया, ‘जब हम किसी से प्रेम करते हैं, तो उसके प्रेम में डूबते ही जाते हैं। उसके अवगुण भी गुण में बदलते जाते हैं। ठीक इसी तरह जब किसी से नाराज होते हैं, उससे मन खट्टा होता है, तो उसमें भी अपनी ओर से खटाई जोड़ते जाते हैं। इससे मन की सेहत बिगड़ती जाती है, क्योंकि प्रेम तो हम कम लोगों से ही करते हैं, लेकिन घृणा, नफरत और नाराजगी अनेक लोगों से रखते हैं, इसलिए मन का संतुलन बिगड़ता जाता है।

सोशल मीडिया के समय भी वैद्य जी की सीख पुरानी नहीं पड़ती। हम प्रेम के पुल कम बना रहे हैं, दूसरों के प्रति नाराजगी, घृणा और नफरत की जगह हर दिन बढ़ाते जा रहे हैं।


अपने प्रेम को अगर हम केवल फेसबुक लाइक, शेयर और रीट्वीट के सहारे छोड़ देंगे, तो हमारी जिंदगी कागज के फूलों के आसपास ही सिमटकर रह जाएगी। जाहिर है, जीवन की सुगंध से हम दूर होते चले जाएंगे!
-दयाशंकर मिश्र

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