दयाशंकर मिश्र
हम उतने ही अधिक असुरक्षित होते जा रहे हैं, जितने ज्यादा सुरक्षा के इंतजाम करते जा रहे हैं! यह कुछ-कुछ ऐसा है, जैसे पेड़ का ख्याल रखने के नाम पर हम केवल फूल और पत्तियों को पानी देते रहें, जड़ को भूल ही जाएं!
हम सब इसी डर से जिए जा रहे हैं कि किस तरह से खुद को सुरक्षित कर लिया जाए. कहीं ऐसा न हो कि कोई ऐसी स्थिति आए जहां हम असुरक्षित पाए जाएं. यह ऐसा विचार है, जिसमें अमेरिका जैसे शक्तिशाली राष्ट्र से लेकर जनसामान्य तक शामिल हैं. कितनी मजेदार बात है कि हर कोई खुद को सुरक्षित करने के फेर में असुरक्षित होता जा रहा है. कॉलोनी के बाहर भारी-भरकम दरवाजों की उपस्थिति से आगे बढ़े, तो घर के बाहर लोगों ने छोटे-छोटे दुर्ग बना लिए हैं. सुरक्षा के बड़े तगड़े इंतजाम हैं. हम उतने ही अधिक असुरक्षित होते जा रहे हैं, जितने ज्यादा सुरक्षा के इंतजाम करते जा रहे हैं!
यह कुछ-कुछ ऐसा है, जैसे पेड़ का ख्याल रखने के नाम पर हम केवल फूल और पत्तियों को पानी देते रहें, जड़ को भूल ही जाएं! हम पेड़ की जड़ों की अनदेखी करके उनको नहीं बचा सकते. अपने जीवन के साथ भी हम कुछ ऐसा ही कर रहे हैं. हम स्वस्थ होने पर उतना अधिक ध्यान नहीं देते, जितना हमारा ध्यान बीमार पड़ने की तैयारी के लिए होता है. हमारा ध्यान स्वस्थ चित्त की जगह बीमारी का उपचार करने पर है. हम पहले से अधिक स्वस्थ नहीं हो रहे हैं. हां, बीमार पड़ते ही हमारे पास इलाज के बहुत सारे साधन जरूर इकट्ठे हो गए हैं. थोड़ा ध्यान देकर देखेंगे, तो पाएंगे हमारे घर, अपार्टमेंट और कॉलोनियां डर से कांप रहे हैं. सुरक्षा के एक से बढ़कर एक इंतजाम, लेकिन उसके बाद भी चैन की नींद नहीं. हमें इस बात का ख्याल करना चाहिए कि सीसीटीवी कैमरे पर हमने अपने पड़ोसी से कहीं अधिक भरोसा कर लिया है. इससे हुआ यह कि पड़ोसी छूट गए और सीसीटीवी कैमरे बढ़ते गए.
टूटते घर, परिवार और समाज की कहानी से अलग नहीं हैं. हर कोई थोड़ी-सी आर्थिक स्थिति मजबूत होते ही असुरक्षित महसूस करने लगा. अपने ही भाइयों और परिवार से. रांची से जीवन संवाद की पाठक रुचि वर्मा लिखती हैं, 'जैसे ही संयुक्त परिवार में कोई एक व्यक्ति दूसरों के मुकाबले आर्थिक रूप से मजबूत होता जाता है, वह अपना प्रभाव जमाने की कोशिश करने लगता है. वह अपने वक्तव्य देने लगता है. बाकी लोगों को कमतर मानने लगता है.' रुचि ने परिवार के मनोविज्ञान की सही रग पर हाथ रखा है. असल में हर कोई अपना प्रभाव जमाना चाहता है. उसे लगता है, वही सही है. दूसरे (अपने अतिरिक्त हर कोई) उसकी हासिल संपदा का महत्व समझने को राजी नहीं. यहीं से परिवार में एक-दूसरे के खिलाफ मनमुटाव और विरोध शुरू हो जाता है. विरोध सही गलत का नहीं होता. मन के अहंकार का होता है. असुरक्षा की दीवार बहुत तेजी से बढ़ने लगती है. एक बार दीवार उठ गई, तो फिर उसे तोड़ना बड़ा मुश्किल हो जाता है.
पूरी दुनिया असल में वैसी ही है, जैसे हम हैं! उतनी ही नेक, हमदर्द और ईमानदार. जितने हम हैं. दुनिया के सारे युद्ध असुरक्षित मन के युद्ध हैं. गलत व्याख्या के युद्ध हैं. जीवन को असुरक्षा और गलत व्याख्या से बचाए रखना अपने ही प्रति सबसे बड़ा प्रेम है! अपने मन को हमें थोड़ा भरोसा देने की जरूरत है. प्यार और विश्वास देने की जरूरत है. खुद को असुरक्षित होने से ऐसे ही बचाया जा सकता है. (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र