दयाशंकर मिश्र

जब खूब बुरा लगे!
23-Nov-2020 11:49 AM
जब खूब बुरा लगे!

यह जो ज़रा-ज़रा सी बात पर दुखी होकर आत्महत्या करने का चलन बढ़ता जा रहा है, उसके प्रति सजग रहें, अपने मन का ख्याल रखें. जीवन में दुखी होने के अवसर बहुत से मिल जाते हैं, लेकिन प्रेम, स्नेह से साथ रहने के मौके कम मिलते हैं.

जब खूब बुरा लगे. सामने वाले की बात सुनकर शरीर थर-थर कांपने लगे. जब लगे की उसकी सारी बातें अप्रिय हैं. ऐसा तो आपने सोचा ही नहीं. कभी आपके विचार में ऐसा कुछ आया नहीं! उसके बाद भी यह व्यक्ति आपके ऊपर अपना कचरा फेंके ही जा रहा है. ऐसे में खूब गुस्सा होना, मन को बुरा लगना सहज और स्वाभाविक है. कुछ तो लगेगा ही! लेकिन कितना, यह हम पर ही निर्भर करता है. यात्रा में खूब सारे स्पीड-ब्रेकर मिलते हैं. बड़े खराब-खराब. हम स्पीड-ब्रेकर की नहीं, अपनी गाड़ी की चिंता करते हैं, गाड़ी एकदम धीमी कर लेते हैं. इतनी कि कभी-कभी बंद भी हो जाती है, लेकिन हमारा पूरा ध्यान इस पर रहता है कि गाड़ी को नुकसान न पहुंचे.

हम गति, स्पीड-ब्रेकर की चिंता नहीं करते, उसे चुनौती नहीं देते. सावधानी से गाड़ी निकालकर आगे बढ़ जाते हैं. भले ही स्पीड ब्रेकर कितने ही बेतरतीब क्यों न बने हों. खराब और बुरे अनुभवों से हमें ऐसे ही गुजरना है.

'जीवन संवाद' जीवन के लिए है, उसकी मुश्किलों के लिए नहीं. मुश्किलें तो आती-जाती रहेंगी, स्थायी केवल जीवन है! पिछले कुछ दिनों में कम से कम दो बार ऐसा हुआ, जब मुझे लगा कि दूसरे की वजह से, उनके वक्तव्यों की वजह से मुझे बहुत खराब महसूस हुआ. उस वक्त मैंने केवल यही सोचा, भले ही यह मेरे समझाने पर मेरी बात सुनने को राजी न हों, लेकिन मुझे अपने सोचने का तरीका नहीं बदलना है.
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भीतर से खराब लगने पर भी स्वयं को संभालने की कला जितनी फूल में होती है, उतनी दूसरों में नहीं! धूल हमेशा कोशिश करती है कि फूल के चेहरे पर बैठ जाए. उसे अपने रंग में रंग ले, लेकिन फूल कोमलता नहीं छोड़ते. बहुत बुरा लगने पर भी नहीं! हमें भी इसका अभ्यास करना है. दूसरे के जैसा होते जाने से हम जीवन में अपने लिए कुछ बाकी नहीं रख पाएंगे.

महात्मा बुद्ध का बहुत सुंदर प्रसंग है. एक व्यक्ति एक बार बुद्ध के पास आए. बुद्ध को खूब सारी गालियां दीं. अपशब्द कहे उनके परिवार को. उनके विचार और सोच को. उनके शिष्य आनंद खूब क्रोधित हुए, तो बुद्ध ने इतना ही कहा, इन्होंने आने में जरा देर कर दी. दस साल पहले आते तो खूब मजा आता (उस समय तक बुद्ध को संन्यास लिए दस वर्ष ही हुए थे). जरा देर से आए. हमने गाली लेनी बंद कर दी है! इसका मौसम जा चुका है. अब तुम इन्हें इनके घर ले जाओ. बहुत बीमार हैं. दया आती है, इन पर. मैं इनसे कुछ भी नहीं ले सकता. वह कितना ही क्रोध, हिंसा हमारी ओर आमंत्रित करें, हमें चाहिए ही नहीं. मुफ्त के भाव भी नहीं!

हमें भी बुद्ध और फूल के रास्ते ही जाना है. अपनी जिंदगी को दूसरों के अनुसार नहीं अपने स्वाद के अनुसार आगे बढ़ाना है. जीवन के प्रति आस्थावान बनना है. यह जो ज़रा-ज़रा सी बात पर दुखी होकर आत्महत्या करने का चलन बढ़ता जा रहा है. उसके प्रति सजग रहें, अपने मन का ख्याल रखें. जीवन में दुखी होने के अवसर बहुत से मिल जाते हैं, लेकिन प्रेम, स्नेह से साथ रहने के मौके कम मिलते हैं. हमें अपना ध्यान ऐसे अवसरों पर केंद्रित करना चाहिए.  (hindi.news18.com)

-दयाशंकर मिश्र

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