श्रवण गर्ग

श्रवण गर्ग लिखते हैं- मोदी के सपनों का कांग्रेस-मुक्त भारत बनाने में जुटीं हैं ममता?
28-Nov-2021 12:57 PM
श्रवण गर्ग लिखते हैं- मोदी के सपनों का कांग्रेस-मुक्त भारत बनाने में जुटीं हैं ममता?

mamata photo by PTI

ममता बनर्जी की ताजा राजनीतिक गतिविधियों और अन्य दलों में तोडफ़ोड़ ने अचानक से देश भर में उत्सुकता पैदा कर दी है। ऊपरी तौर पर तो ममता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लड़ती हुई नजऱ आ रहीं हैं पर असल में वे विध्वंस कांग्रेस का कर रही हैं। कांग्रेस से नाराज होकर ही उन्होंने जनवरी 1998 में अपनी नई पार्टी (तृणमूल कांग्रेस) के जरिए पश्चिम बंगाल में माक्र्सवादियों से लड़ाई शुरू की थी। हाल तक कांग्रेस सिर्फ भाजपा से ही डरी-सहमी रहती थी पर अब ममता भी उसके लिए खौफ का नया कारण बन रही हैं। उत्तर भारत के लोग नंदीग्राम के बाद ममता का कांग्रेस के खिलाफ चण्डी पाठ प्रारंभ करने का सही कारण तलाशना चाह रहे हैं।

क्या ममता बनर्जी में स्वयं को प्रधानमंत्री के पद पर विराजित देखने की आकांक्षाएं उत्पन्न हो गईं हैं ? फिलहाल इस विषय पर बहस टाली जा सकती है कि पश्चिम बंगाल के बाहर शेष देश में प्रधानमंत्री पद के लिए उनकी उम्मीदवारी उस तरह स्वीकार्य हो सकेगी या नहीं जैसी कि मोदी की हो गई थी। साथ ही यह भी कि क्या देश किसी ऐसे अहिंदी-भाषी प्रधानमंत्री को स्वीकार कर पाएगा जिसकी लोकतांत्रिक मूल्यों, अभिव्यक्ति की आजादी और विपक्ष के अस्तित्व को लेकर छवि मोदी से ज्यादा भिन्न नहीं है।

जहां तक किसी बांग्ला भाषी के प्रधानमंत्री के पद पर काबिज हो पाने की भावनाओं का संबंध है, अपने समय के लोकप्रिय मुख्यमंत्री ज्योति बसु की महत्वाकांक्षाओं को लेकर भी ऐसी ही चर्चाएँ अतीत में चल चुकीं हैं। देश जानता है कि तब उनकी ही पार्टी के ताकतवर नेताओं ने उनके इरादों में सेंध लगा दी थी। 1984 में इंदिरा गांधी के निधन के तत्काल बाद इस उच्च पद के लिए प्रणब मुखर्जी की दावेदारी मज़बूत मानी जा रही थी पर बाद में जो कुछ हुआ वह इतिहास और मुखर्जी की किताब में दर्ज है। उसके बाद से प्रणव मुखर्जी और गांधी परिवार के बीच संबंध कभी सामान्य नहीं हो पाए। अत: अनुमान ही लगाया जा सकता है कि भविष्य में कभी ममता की ऐसी किसी दावेदारी पर ‘गांधी परिवार’ का रुख क्या होगा! ऐसा इसलिए कि गांधी परिवार में ही इस पद को लेकर अब दो सशक्त दावेदारों के चेहरे प्रकाश में हैं।

हाल ही में चार-दिनी यात्रा पर दिल्ली पहुँची ममता के कार्यक्रम में कीर्ति आजाद को कांग्रेस से तोडक़र तृणमूल में शामिल करने के अलावा सोनिया गांधी से मुलाकात करना भी कथित तौर पर शामिल था पर यह बहु-अपेक्षित भेंट अंतत: नहीं हो पाई। सोनिया गांधी अपनी व्यस्त दिनचर्या में ममता के लिए कोई खाली समय नहीं निकाल पाई होंगी। बाद में ममता ने यही सफाई दी कि उन्होंने श्रीमती गाँधी से भेंट के लिए समय माँगा ही नहीं था।

लगता है कि भाजपा के साथ राष्ट्रीय स्तर पर संघर्ष में उतरने से पहले ममता के लिए यह जरूरी हो गया है कि विपक्ष के नेतृत्व के दावेदारों की सूची से राहुल, प्रियंका, केजरीवाल आदि के नामों पर ताले पड़वाए जाएँ। बिहार के ‘सुशासन बाबू’ नीतीश कुमार किसी समय विपक्ष के नेता के तौर पर प्रकट हुए थे पर भाजपा के साथ एकाकार करके उन्होंने अपने को दिल्ली से दूर कर लिया है। पवन वर्मा की तृणमूल में भर्ती के बाद तो ममता के साथ उनका कोई सार्थक संवाद संभव भी नहीं।

यह मानने के पर्याप्त कारण गिनाए जा सकते हैं कि भले ही इस समय कांग्रेस का परिवारवाद प्रधानमंत्री के निशाने पर है, लेकिन, आगे चलकर उनके हमले तृणमूल कांग्रेस पर ही बढऩे वाले हैं। पश्चिम बंगाल की भाजपा और वहाँ के राज्यपाल के लिए थोड़े आश्चर्य की खबर रही होगी कि ममता से मुलाकात के दौरान मोदी ने अगले साल अप्रैल में कोलकाता में होने वाली ‘बिस्व बांग्ला ग्लोबल बिजऩेस समिट’ का उद्घाटन करने का आमंत्रण स्वीकार कर लिया। उल्लेखनीय यह है कि इस समिट के होने तक उत्तर प्रदेश सहित पाँचों राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों के नतीजे आ चुके होंगे। प्रधानमंत्री अगर उत्तर प्रदेश के पचहत्तर जिलों में पचास रैलियाँ करने वाले हैं तो इस बात के महत्व को समझा जा सकता है कि पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनावों और फिर वहाँ के उप-चुनावों में भी करारी हार के बाद पहली बार कोलकाता की यात्रा पर जाने वाले मोदी ने ममता के आमंत्रण को क्या कुछ सोचकर स्वीकार किया होगा!

पहले स्वयं अपनी ओर से, फिर चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर के जरिए गांधी परिवार के साथ बातचीत के बाद ममता शायद इस निष्कर्ष पर पहुँच चुकी हैं कि साल 2024 में सत्ता प्राप्ति के लिए कांग्रेस विपक्षी एकता की धुरी नहीं बन सकती। दूसरे यह कि हिंदी-भाषी क्षेत्रों में तृणमूल की ज़मीन तैयार करने के लिए दूसरे दलों की ज़मीन पर ही दल-बदल का हल जोतना पड़ेगा। इस सिलसिले में ममता को ज़्यादा संभावनाएं कांग्रेस के असंतुष्टों में ही नजऱ आती हैं। भाजपा द्वारा सफलतापूर्वक सेंध लगा लिए जाने के बाद अब ममता को भी लगता है कि तृणमूल के लिए भी नई भर्ती कांग्रेस से ही की जा सकती है। ममता यह सावधानी अवश्य बरत रही हैं कि जिन राज्यों में कांग्रेस सत्ता में है या उसके सत्ता में आने की प्रबल संभावनाएं हैं वहाँ वे फिलहाल तोडफ़ोड़ नहीं कर रही हैं। ममता बहुत ही नियोजित तरीके से उत्तर-पूर्व के राज्यों में भाजपा (और कांग्रेस को भी) चुनौती दे रही हैं। त्रिपुरा के बाद मेघालय का राजनीति घटनाक्रम इसका उदाहरण है।

ममता शायद अंतिम रूप से मान चुकी हैं कि गांधी परिवार भाजपा से सीधी टक्कर लेने का दम-खम नहीं रखता है। तृणमूल ने संसद में कांग्रेस के साथ किसी भी तरह का समन्वय करने से भी इंकार कर दिया है। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि जब ममता के ही रणनीतिकार प्रशांत किशोर का मानना है कि देश भर में दो सौ से ज़्यादा लोकसभा सीटें कांग्रेस के प्रभाव क्षेत्र की हैं तो वे एक बड़े राष्ट्रीय दल को अलग रखकर फिलहाल पश्चिम बंगाल तक ही सीमित क्षेत्रीय दल तृणमूल को विपक्षी एकता की धुरी कैसे  बना पाएँगी? साथ ही यह भी कि ममता के क्रिया-कलापों से अगर गांधी परिवार नाराज होता है और परिणामस्वरूप कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के बीच एकता में दरार पड़ती है तो भाजपा के लिए खुश होने के पर्याप्त कारण बनते हैं। विपक्षी दलों के सामने निश्चित ही संकट उत्पन्न हो जाएगा कि वे कांग्रेस के एकता प्रयासों के साथ जाएँ कि ममता के! तो क्या ममता कांग्रेस को तोडऩे में मोदी की मदद कर रहीं हैं? जिस कांग्रेस पार्टी को 136 वर्षों से अखिल भारतीयता और राष्ट्रीय सहमति प्राप्त है उसे कमजोर करके कुछ ही सालों में तृणमूल को राष्ट्रीय स्वीकृति बनाने की कोशिशों में ममता शायद मोदी को ही और मजबूत करने का जुआ खेल रहीं हैं।

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news