दयाशंकर मिश्र

यादों का दलदल !
02-Aug-2020 10:34 PM
यादों का दलदल !

मन में जब भी अतीत के घाव तैरने लगें, हमेशा उनको करुणा का मरहम दीजिए। क्षमा की खुराक दीजिए। कुछ जख्म होते हैं, जिनको भुलाना आसान नहीं होता लेकिन इतना इंतजाम तो किया ही जा सकता है कि वह कम से कम नुकसान दें।

जीवन संवाद में हम निरंतर प्रेम, अहिंसा, क्षमा और करुणा की बात करते हैं। जीवन का प्राथमिक उद्देश्य मनुष्य बनना होना चाहिए। मनुष्यता के इतिहास के महानतम नायकों में सबसे शक्तिशाली संदेश यही है। लेकिन हम लालच को सफलता, स्वार्थ को प्रेम और महत्वाकांक्षा में लालच को इस तरह मिलाने में व्यस्त हुए कि जीवन के असली रंग से ही दूर हो गए।

हम वर्तमान में रहना भूलते जा रहे हैं। जीवन संवाद को हर दिन मिलने वाले संदेश, ईमेल और व्हाट्सएप को अगर एक छोटा सा आधार मान लिया जाए तो नब्बे प्रतिशत लोग इसलिए प्रसन्न नहीं होते। सब से दूर रहते हैं क्योंकि वह अपनी स्मृतियों से अंधेरा ही खींचते रहते हैं। जबकि कठिन से कठिन परिस्थिति में रहने वाले मनुष्य के जीवन में भी प्रेम का ऐसा एक भी कोमल पल न हो यह संभव नहीं। लेकिन हम उस एक पल को महत्वपूर्ण नहीं मानते।

हम उसे जरूरी ही नहीं मानते, जो शीतल हवा है। आत्मा का अमृत किसी गहरे सागर में नहीं है वह हमारे पास ही है लेकिन अवचेतन मन में इतने गहरे बैठ गया है कि बिना किसी गहरी पुकार, प्रेम की गहरी आकांक्षा के वह बाहर नहीं आ सकता।

आपसे एक छोटी सी कहानी कहता हूं। संभव है उससे मेरी बात लिख सरलता से स्पष्ट हो पाएगी।

एक दिन सक्सेना जी (इनका नाम ही सक्सेना जी है) अपने मित्र से मिलने उसके घर पहुंचे। वह फोन पर सक्सेना जी की दुख भरी बातें सुन सुनकर परेशान हो गए थे। उसने सक्सेना जी से कहा आइए, स्वागत है। बताइए क्या सेवा की जाए।

सक्सेना जी अपने ऑफिस के बड़े अधिकारी थे। लेकिन रहते हमेशा दुखी। उन्होंने कहा ऐसी कोई विशेष इच्छा नहीं। उनके मित्र बड़े सुलझे हुए थे।

उनने सक्सेना जी को थोड़ी देर में घर के व्यंजन परोसने शुरू कर दिए। सक्सेना जी के सामने जो थाली आई उसमें बासी रोटियां थीं। एकदम ठंडी दाल थी। सब्जी थी जो दाल से भी ठंडी थी। उसके बाद इसी तरह की और भी चीजें हैं जो बिना संदेह बासी थीं। गर्मी के दिन थे। आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता था कि यह बचा हुआ खाना ही था जो सक्सेना जी को पेश किया गया! सक्सेना जी एकदम गुस्से से लाल हो गए। उन्होंने दोस्त से कहा यह क्या है मुझे बासी खाना पेश किया जा रहा है। मित्र ने उतनी ही सरलता से कहा नहीं देखिए चाय उबल रही है। वह एकदम ताजी है।

सक्सेना जी गुस्से में जरूरत थे लेकिन मित्र की सरल, सहज और बुद्धिमता पूर्ण जीवन शैली के कायल भी थे। इसलिए सोचने लगे कि इसका मतलब क्या है! मित्र ने अधिक परेशान न करते हुए अपने बच्चों से वह सभी बासी चीजें हटा लेने के लिए कहा। उसके बाद तुरंत लजीज? व्यंजन पेश किए गए! जिनकी सुगंध से घर महक उठा।

मित्र ने कहा, सक्सेना जी- मैंने आपसे कई बार निवेदन किया है बासी-बासी बातें न किया करो। जब देखो तब अतीत का दुख मन पर लादे रहते हो। जो बीत गया वह हमारे नियंत्रण से बाहर है! इसलिए उसकी चिंता में केवल हम घुल सकते हैं। लेकिन अतीत में टहलते रहने से कुछ हासिल नहीं होता। अतीत में हाथ-पांव मारने से भी कुछ नहीं मिलता। अतीत एक दलदल है, जैसे दलदल में जितनी ऊपर आने की कोशिश हम करते हैं उतना ही धंसते जाते हैं।

अतीत की तरह ही जो भविष्य होगा, उस पर भी हमारा बस नहीं। इसलिए हमें केवल वर्तमान के आनंद में रहने का अभ्यास करना चाहिए। मन में जब भी अतीत के घाव तैरने लगें, हमेशा उनको करुणा का मरहम दीजिए। क्षमा की खुराक दीजिए। कुछ जख्म होते हैं, जिनको भुलाना आसान नहीं होता लेकिन इतना इंतजाम तो किया ही जा सकता है कि वह कम से कम नुकसान दें। जीवन केे प्रति कृतज्ञता और आस्था के सिद्धांंत को अपना कर हम बहुत सारे ऐसेेे कष्टों से मुक्त हो सकते हैं, जो हमारे अपने ओढ़े हुए हैं। (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र

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