विष्णु नागर
pixabay
-विष्णु नागर
‘शुक्रवार’ समाचार साप्ताहिक के संपादक बनने का प्रस्ताव तब आया, जब कादम्बिनी तथा नई दुनिया के बाद मैं घर बैठा था और उम्मीद नहीं थी कि अब कुछ नया करने का अवसर मिलनेवाला है। तभी 2011 के शुरू में-जब मैं चैन्नई कुछ दिनों के लिए गया था मुझे इसके संपादक बनने का प्रस्ताव आया और कहा गया कि मैं जल्दी आऊँ। कारण शायद मौजूदा संपादक को हटाना था, इसलिए यह आपरेशन उन्होंने गुपचुप ढँग से चलाया। मुझे सौदेबाजी करना नहीं आता मगर ठीकठाक प्रस्ताव था, हालांकि इससे पहले जो मिल रहा था, उससे कम था मगर इस बीच मैं घर भी तो बैठा था और एक नई चुनौती भी सामने थी। इसके अलावा शरद दत्त जैसे शुभचिंतक भी बीच में थे, तो मैं तैयार हो गया। तैयार तो हो गया मगर जैसी धुकधुकी ‘कादम्बिनी’ का कार्यभार संभालने के समय थी कि पता नहीं कुछ कर पाऊँगा या नहीं,वैसी ही इस समय भी थी। दैनिक अखबारों में उपसंपादक से लेकर विशेष संवाददाता तक का काम जरूर किया था मगर एक समाचार साप्ताहिक के संपादन की अपनी चुनौतियाँ होती हैं, जिसका किसी भी तरह का कोई पूर्व अनुभव नहीं था।
इधर समाचार साप्ताहिकों का आकर्षण भी कम होता जा रहा था और इंडिया टुडे गु्रप के हिंदी समाचार साप्ताहिक भी एक बड़ी चुनौती था। उनके पास विशाल और जमाजमाया नेटवर्क था। इनके पास भी अपना एक नेटवर्क तो था मगर इंडिया टुडे के मुकाबले कुछ भी नहीं। फर्क यह था कि इंडिया टुडे समूह पत्र पत्रिकाओं के धंधे में ही है और ये एक बिल्डर का साप्ताहिक था। आर्थिक उदारीकरण के बाद के वर्षों में बिल्डरों ने खूब अनापशनाप कमाया था और वे अपना राजनीतिक रसूख बढ़ाने के लिए पत्र- पत्रिकाएँँ निकाल रहे थे। बहरहाल एक बात कहूँ कि यहाँ इस दौरान ऐसा कोई दबाव नहीं आया, सिवाय इसके कि उसकी अपनी कंपनियों के बारे में कुछ सकारात्मक न छपे तो नकारात्मक भी न छपे।वैसे एक दो बार नकारात्मक छप भी गया था।
पिछले संपादक के समय ‘शुक्रवार’ के मालिकान हर तरह के संसाधनों पर काफी खर्च कर चुके थे मगर नतीजा कुछ खास नहीं नहींं निकला था। तो मुझसे वायदे तो बहुत कुछ किए गए थे मगर जमीन पर प्रचार -प्रसार के लिए कुछ खास किया नहीं गया। विज्ञापन और प्रसार में जो निचले पदों पर लोग थे, उनका वेतन बहुत कम था, इसलिए उनमें उत्साह भी अधिक नहीं था। इस बीच आफिस से काम के नाम पर बाहर जाकर कुछ चतुर सुजान कोई और काम भी करते थे। कुछेक प्रभावशाली मैनेजर के मुँह लगे भी थे। उन्हें डाँटने वगैरह का, उनके साथ बैठकें करने का कोई खास लाभ नहीं था। वेतन कम था तो बड़े अधिकारियों से मिलने का उनका साहस भी कम था। खैर फिर भी एक नेटवर्क था और उसी सीमा में रह कर काम करना था।कुछ कहने- सुनने का थोड़ा नतीजा निकलता था- कभी-कभी। कभी निदेशक-प्रबंधक गोलीबाजी भी किया करते थे।
तय यह किया और मेरी जिम्मेदारी भी यही थी कि जो भी कर सकता हूँ, पत्रिका के संपादन में जो भी बेहतरी कर सकता हूँ, उसी पर केंद्रित करूँ मगर जब कई जगहों से यह सूचना आती थी कि गुरुवार या शुक्रवार को बाजार में आने के तीन या चार दिन में ही प्रतियाँ समाप्त हो जाती हैं, पूरे सप्ताह अंक बाजार में नहीं मिलता तो मन दुखता था। कापी बढ़ाने की बात का असर नहीं होता था।
पहली बैठक में मैंने संवाददाताओं-संपादन विभाग के सहकर्मियों से कहा कि कुछ पुराने अंक देख कर लगता है कि यहाँ हर आदमी संपादकीय लिख रहा है। मित्रो, संपादकीय लिखने के लिए मालिकों ने मुझे नियुक्त किया है। आपको संपादकीय नहीं लिखना है बल्कि रिपोर्ट और विश्लेषण लिखना है। जहाँ भेजा जाए या जहाँ जाने का आपका प्रस्ताव मुझे उचित लगे, वहाँ आपको रिपोर्टिग करना है। पुरानी आदत से जूझने में थोड़ा वक्त उन्हें लगा, जो स्वाभाविक था। रिपोर्टर दफ्तर से बाहर जाने लगे। मैं चूँकि। घर से कई अखबार देखकर आता था, इसलिए बैठक में जो भी विषय, तय होता था, उससे संबंधित सहायक सामग्री कहाँ किस अखबार के किस पृष्ठ पर उपलब्ध है, यह एक पर्ची पर लिखकर उनमें हफ्ते भर बँटवाता रहता था, ताकि किसी तथ्य से वे वंचित न रहें। सारे पक्ष सामने आएँ।
संपादन में भी कठोरता बरतनी होती थी। काफी काट-छाँट करनी होती थी, कुछ छूट गई बातें जोडऩा भी होता था। कुछ पुनर्लेखन भी करना होता था। कोई कापी मेरी नजर से गुजरे बगैर नहीं जा सकती थी। अपने संपादकीय में भी मैं बार बार परिवर्तन-संशोधन करता था। बाहर से काफी सामग्री भी मँगवाता था। कुछ तो पूर्व परिचित थे और कुछ लोग समय के साथ लगातार जुड़ते गए और ऐसी-ऐसी रिपोर्टें तथा आलेख भेजने लगे, जिन्हें कहीं और पाना कठिन था। कविता-कहानी हो या रिपोर्टों की मेरे पास कमी नहीं रही कभी बल्कि अधिकता ही रही। साथियों में भी उत्साह था। अच्छा काम करनेवालों की अच्छी वेतन वृद्धि भी मिलती थी। ‘शुक्रवार’ के नाम से उनकी एक पहचान बन रही थी।हिंदी के अधिक से अधिक लेखकों को जोडऩे का प्रयास रहा।उनका सहयोग भी लगातार मिलता रहा।
साप्ताहिक समाचार पत्रिका का संपादन सचमुच एक बड़ी चुनौती है। सप्ताह के आरंभ मेंं जो दृश्य होता है, वह साप्ताहिक के आखिरी कुछ पृष्ठों के प्रेस में जाने तक काफी कुछ बदल चुका होता है।जो सोचा नहीं था, वह सामने आ जाता है और उसी सप्ताह उसका जाना भी जरूरी होता है। कई बार पहले से तैयार कवर स्टोरी बदलनी पड़ती है-एकदम आखिरी मौके पर। प्रेस में जाने तक धुकधुकी रहती थी कि स्टोरी में कुछ जरूरी छूट न जाए। अंत- अंंत तक खबरों पर नजर रखना होता था। मैंने किसी दैनिक का संपादन तो नहीं किया मगर हर घंटे बदलती-बनती खबरों के बीच समाचार साप्ताहिक की चुनौतियाँँ शायद बड़ी होती हैं।
फिर कवर स्टोरी तथा दूसरी स्टोरी सबसे अलग भी हो, सामग्री हर तरह के पाठकों के लिए हो, इस तरफ भी ध्यान रखना होता था। मैं वहाँ था तो साहित्य अच्छा छपे, इसकी भी सबको अपेक्षा रहती थी। फिर मैंने वार्षिक अंक निकालने की भी योजना बनाई थी। मालिकों को उस पर भी काफी खर्च करना होता था। उसका पाठकों में सम्मान बना रहे और आर्थिक घाटे से भी संस्था को बचाया जाए, ताकि निरंतरता बनी रहे, यह चुनौती भी थी।
बहुत काम था और बहुत समर्पण माँगता था मगर यह सब करने में आनंद भी आता था।ऊब और थकावट नहीं होती थी। सहयोगी पहले से थे, उनमें से अधिकांश बहुत अच्छे थे। रईस अहमद लाली मेरे मुख्य सहयोगी थे। वे पूरे समर्पण से काम करते थे। व्यक्ति और इनसान के रूप में भी वह बेहतरीन हैं। उनसे कहा कोई काम रह जाए, यह हो नहीं सकता था। अशोक कुमार इंडिया टुडे से अवकाश के बाद हमारे साथ आ गए थे। उनसे उनकी जिम्मेदारियों के अलावा लिखवाता भी था। उन्हें समय लगता था मगर लिखते अच्छा थे। लिखवाता वैसे सभी सहयोगियों से था। लालीजी से तो अंतिम क्षण में भी लिखवाया है। नरेन्द्र वर्मा और मधुकर मिश्र भी काफी मेहनत करके कुछ नया लाते थे।आरंभिक कठिनाइयों के बाद पूजा मल्होत्रा बहुत साहसिक रिपोर्टर साबित हुई। कहीं जाने में उन्हें डर नहीं। चिंता मुझे होती थी कि दिल्ली के माहौल में उनके साथ कुछ हो न जाए मगर कोई कोशिश करता भी था तो उस आदमी की शामत आ जाती थी। सगीर किरमानी लिखते तो उम्दा थे ही, शराफत में भी लाजवाब हैं। मेरे सचिव वसीम अहमद भी मेहनती थे। वीरेन्द्र शर्मा को खेल जगत में महारत हासिल थी।
कला विभाग के प्रमुख प्रफुल्ल पलसुलेदेसाई को मैंने अपना काम अपनी तरह करने की पूरी छूट दी थी और उन्होंने कभी निराश नहीं किया। हाँ कवर पर क्या कैसे जाएगा, इसमें मेरा हस्तक्षेप आवश्यक था और मैं करता भी था। हाँ एक और निर्देश था कि पृष्ठों की सजावट हो मगर सामग्री की हत्या की कीमत पर नहीं। इस तरह कोई नहीं था, जिसका सहयोग नहीं मिला, चाहे पहले से नियुक्त लोग या स्वतंत्र मिश्र जैसे मेरे बाद जुड़े लोग। वह रिपोर्टिंग भी करते थे, लिखते भी थे। जो सहयोग साथियों का यहाँ मिला, वह पहले कहीं नहीं।
बीच में प्रबंधन के साथ समस्याएँ आती भी थीं और सुलझती भी थीं वरना इस्तीफा देने के लिए तो मैं हमेशा तैयार रहता ही था। अंत तक आते-आते बिल्डर की आमदनी के स्रोत सूखने लगे थे। उनकी कुछ अन्य कंपनियों की गड़बडिय़ाँ सामने आने लगी थीं। अब साप्ताहिक को पाक्षिक बनाने की बात होने लगी थी। बहुतों को रास्ता दिखाने का दबाव आने लगा था, बाहर से लिखनेवालों से न लिखवाने या भुगतान न करने पर जोर दिया जाने लगा था। फिर एक मैनेजर का घमंड भी बहुत बढ़ चुका था। अप्रैल, 2014 के एक मंगलवार की एक शाम काम खत्म करने के बाद निदेशक केसर सिंह से कहा कि अब यहाँँ मेरा रहना कठिन है। इस्तीफा दिया और चला आया। स्टाफ के किसी सदस्य को भी नहीं बताया। जब वे एक दिन के अवकाश के बाद लौटे और शाम तक उसी संस्थान में कार्यरत एक सज्जन आए और स्टाफ को बताया कि आज से वे संपादक हैं। उसी दिन शाम को सारा संपादकीय स्टाफ घर आया और उनके साथ चाय पीने का आनंद उठाया। आज भी छह साल बाद भी कई पुराने साथी भी संपर्क में रहते हैं और मैं भी उनसे संपर्क रखता हूँ।किसी और का अच्छा लिखा छापने का भी रचनात्मक सुख कम नहीं है, शायद अपने लिखे को छापने-छपवाने से ज्यादा।
सही समय पर सही निर्णय हो गया।जिस साप्ताहिक को कुछ बना पाया था, उसी की लाश मैंने अपने कंधों पर नहीं ढोई। अगले कुछ महीनों में उस संस्था के टीवी चैनल समेत सभी काम ठप्प हो गए। वैसे भी मोदी सरकार आ चुकी थी। ज्यादा स्वतंत्रता के साथ काम करना संभव नहीं रह जाने वाला था।
बहरहाल वे सवा तीन वर्ष कुल मिला कर अच्छे बीते। इस बीच जो तीन वार्षिकांक निकले, उनका भी अच्छा स्वागत हुआ। कुछ तो अब भी उन अंकों को याद करते हैं, तो अच्छा लगता है।