श्रवण गर्ग

एक प्रवक्ता की मौत और मीडिया की कथित मजबूरियाँ !
16-Aug-2020 2:59 PM
एक प्रवक्ता की मौत और मीडिया की कथित मजबूरियाँ !

-श्रवण गर्ग 
एक राजनीतिक दल के ऊर्जावान प्रवक्ता की एक टीवी चैनल की उत्तेजक डिबेट में भाग लेने के बाद कथित मौत को लेकर टीआरपी बढ़ाने वाले कार्यक्रमों की प्रतिस्पर्धा पर चिंता व्यक्त की जा रही है। एक सभ्य समाज में ऐसा होना स्वाभाविक भी है पर इस तरह की बहसों के पीछे काम कर रहे प्रभावशाली लोग और जो प्रभावित हो रहे हैं वे भी अच्छे से जानते हैं कि शोक की अवधि समाप्त होते ही जो कुछ चल रहा है, उसे मीडिया की व्यावसायिक मजबूरी मानकर स्वीकार कर लिया जाएगा। मीडिया उद्योग को नज़दीक से जानने वाले लोग भी अब मानते जा रहे हैं कि बहसों के ज़रिए जो कुछ भी बेचा जा रहा है, उसकी विश्वसनीयता उतनी ही बची है, जितनी कि उनमें हिस्सा लेने वाले प्रवक्ताओं/प्रतिनिधियों के दलों/संस्थानों की जनता के बीच स्थापित है।

सत्ता की राजनीति में बने रहने के लिए अपनाए जाने वाले हथकंडों ने समाज को जाति और वर्गों के साम्प्रदायिक घोंसलों में सफलतापूर्वक बांटने के बाद अब मीडिया के उस टुकड़े को भी अपनी झोली में समेट लिया है, जिसका जनता की आकांक्षाओं का ईमानदारी से प्रतिनिधित्व कर पाने का साहस तो काफी पहले ही कमजोर हो चुका था। अब तो केवल इतना भर हो रहा है कि ‘आपातकाल’ ने जिस मीडिया के ऊपरी धवल वस्त्रों में छेद करने का काम पूरा कर दिया था, आज उसे लगभग निर्वस्त्र-सा किया जा रहा है। उस जमाने में (अपवादों को छोड़ दें तो) जो काम प्रिंट मीडिया का केवल एक वर्ग ही दबावों में कर रहा था, वही आज कुछ अपवादों के साथ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक बड़ा तबका स्वेच्छा से कर रहा है। यही कारण है कि एक राजनीतिक दल के प्रवक्ता की किसी उत्तेजक बहस के कारण कथित मौत दर्शकों की आत्माओं पर भी कोई प्रहार नहीं करती और मीडिया के संगठनों की ओर से भी कोई खेद नहीं व्यक्त किया जाता।
समझदार दर्शक तो समझने भी लगे हैं कि टीवी की बहसों में प्रायोजित तरीके से जो कुछ भी परोसा जाता है, वह केवल कठपुतली का खेल है, जिसकी असली रस्सी तो कैमरों के पीछे ही बनी रहने वाली कई अंगुलियाँ संचालित करतीं हैं। एंकर तो केवल समझाई गई स्क्रिप्ट को ही अभिनेताओं की तरह पढऩे काम अपने-अपने अन्दाज़ में करते हैं। पर कई बार वह अन्दाज भी घातक हो जाता है। हो यह गया है कि जैसे अब किसी तथाकथित साधु, पादरी, ब्रह्मचारी या धर्मगुरु के किसी महिला या पुरुष के साथ बंद कमरों में पकड़े जाने पर समाज में ज़्यादा आश्चर्य नहीं प्रकट किया जाता या नैतिक-अनैतिक को लेकर कोई हाहाकार नहीं मचता, वैसे ही मीडिया के आसानी से भेदे जा सकने वाले दुर्गों और सत्ता की राजनीति के बीच चलने वाले सहवास को भी ‘नाजायज़ पत्रकारिता ‘के कलंक से आजाद कर दिया गया है।

एक राजनीतिक प्रवक्ता की मौत को कारण बनाकर अब यह उम्मीद करना कि मूल मुद्दों पर जनता का ध्यान आकर्षित करने से ज़्यादा उनसे भटकाने के लिए प्रायोजित होने वाली बहसों का चरित्र बदल जाएगा, एंकरों के तेवरों में परिवर्तन हो जाएगा या राजनीतिक दल उनमें भाग लेना ही बंद कर देंगे वह बेमायने है।ऐसा इसलिए कि जो कुछ भी अभी चल रहा है, उसे कायम रखना मीडिया बाजार की सत्ताओं की राजनीतिक मजबूरी और व्यावसायिक जरूरत बन गया है। मीडिया उद्योग भी नशे की दवाओं की तरह ही उत्पादित की जाने वाली खबरों और बहसों को बेचने के परस्पर प्रतिस्पर्धी संगठनों में परिवर्तित होता जा रहा है।
दर्शकों और देश का भला चाहने वाले कुछ लोग अभी हैं जो लगातार सलाहें दे रहे हैं कि जनता द्वारा चैनलों को देखना बंद कर देना चाहिए। पर वे यह नहीं बता पा रहे हैं कि फिर देखने के लिए नया क्या है और कहाँ उपलब्ध है? यह वैसा ही है जैसे सरकारें तो बच्चों से उनके खेलने के असली मैदान छीनती रही और उनके अभिभावक उन्हें वीडियो गेम्स खेलने के लिए भी मना करते रहें। ये भले लोग जिस मीडिया को ‘गोदी मीडिया’ बता रहे हैं उसे ही इस समय असली मीडिया होने की मान्यता हासिल है। जो गोदी मीडिया नहीं है वह फिल्म उद्योग की उन लो बजट समांतर फि़ल्मों की तरह रह गया है, जिन्हें बड़े-बड़े अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार तो मिल सकते हैं देश में बॉक्स ऑफिस वाली सफलता नहीं।

एक प्रवक्ता की मौत से उपजी बहस का उम्मीद भरा सिरा यह भी है कि चैनलों की बहसों में जिस तरह की उत्तेजना पैदा हो रही है वैसा अखबारों के एक संवेदनशील और साहसी वर्ग में (जब तक सप्रयास नहीं किया जाए )आम तौर पर अभी भी नहीं होता। यानी कि काली स्याही से छपकर बंटने वाले अख़बार चैनलों के ‘घातक’ शब्दों के मुक़ाबले अभी भी ज़्यादा प्रभावकारी और विश्वसनीय बने हुए हैं। उन्हें लिखने या पढऩे के बाद व्यक्ति भावुक हो सकता है, उसकी आँखों में आंसू आ सकते हैं पर उसकी मौत नहीं होती।यह बात अलग से बहस की है कि जिस दौर से हम गुजर रहे हैं उसमें मौत केवल अख़बारों को ही दी जानी बची है पर वह इतनी जल्दी और आसानी से होगी नहीं।चैनल्स तो खैर जिंदा रखे ही जाने वाले हैं।उनमें बहसें भी इसी तरह जारी रहेंगी। सिर्फ प्रवक्ताओं के चेहरे बदलते रहेंगे। एंकरों सहित बाकी सब कुछ वैसा ही रहने वाला है।

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