विष्णु नागर

विष्णु नागर का लिखा- 'कादम्बिनी' और 'नंदन' बंद होने के मौके पर यादें...
29-Aug-2020 11:40 AM
विष्णु नागर का लिखा- 'कादम्बिनी' और 'नंदन' बंद होने के मौके पर यादें...

साठ साल का सफर पूरा कर 'कादम्बिनी' आखिर लाकडाउन की बलि चढ़ा दी गई- बाल पत्रिका 'नंदन' के साथ। 'कादम्बिनी' से हालांकि मेरा संबंध बारह साल पहले ही छूट गया था और अब वह पत्रिका मुझे भेजा जाना भी बंद हो चुका था मगर उसके अतीत से पहले पाठक के रूप में और बाद में उसके संपादक के समकक्ष जिम्मेदारी संभाल चुकने के कारण उससे एक लगाव था, इसलिए यह खबर मेरे लिए भी दुखद है।टाइम्स ऑफ इंडिया समूह की राह पर देर से ही सही, हिंदुस्तान टाइम्स समूह भी आ गया। कादम्बिनी प्रबंधन की उपेक्षा का शिकार तो मेरे कार्यकाल से पहले ही होने लगी थी।मेरे समय महीने में एक या दो बार कादम्बिनी का जो विज्ञापन हिन्दुस्तान टाइम्स और हिंदुस्तान में छपता था, उसे भी बाद में बंद कर दिया गया था। उसका आकार तथा कुछ और परिवर्तन मेरे न चाहते हुए भी किए गए थे कि इससे नये विज्ञापन आएँगे। न विज्ञापन लाए गए, न प्रसार संख्या बढ़ाने के कोई प्रयास हुए। खैर। वैसे लिखना तो चाहता था कादम्बिनी से अपने संबंधों के बारे में पहले ही मगर टलता रहा और कल वह दिन भी आ गया कि उसकी अंत्येष्टि के बाद श्रद्धांजलि देनी पड़ रही है।

मेरे आरंभिक दिनों में बच्चों के दो ही मासिक ऐसे थे, जो आकर्षित करते थे-पराग और नंदन। चंदामामा भी काफी मशहूर था,उसका बड़ा पाठकवर्ग था मगर वह मेरी पसंद कभी नहीं बन सका। इसी प्रकार सांस्कृतिक मासिकों में कादम्बिनी और नवनीत थे। मैं कोई 1965 के आसपास कादम्बिनी का पाठक बना हूँगा। जब मैंने कादम्बिनी पढ़ना शुरू किया था, तब इसके संपादक रामानंद दोषी हुआ करते थे और तब मुझे यह पत्रिका नवनीत के साथ ही अच्छी लगती थी। कहना कठिन था कि कौनसी बेहतर थी।कब राजेन्द्र अवस्थी कादम्बिनी के संपादक बने और उनके रहते आरंभ में यह पत्रिका कैसी थी, यह मेरी स्मृति में दर्ज नहीं है। 1997 में हिन्दुस्तान अखबार से जुड़ने के बाद भी इसमें कोई दिलचस्पी पैदा नहीं हुई क्योंकि इसकी छवि प्रबुद्ध लोगों में खराब बन चुकी थी। यदाकदा इसे पलटकर भी यही छवि पुष्ट होती थी। अवस्थी जी शायद बिक्री के फार्मूले के तौर पर उसे जादूटोना, तंत्रमंत्र,ज्योतिष आदि की पत्रिका बना दिया था, खासकर अपने आखिरी कुछ वर्षों में। इस कारण चिढ़ सी पैदा हो गई थी।क्या पता था कि मैं भी कभी इससे जुड़ूँगा!

मैं तो दैनिक हिन्दुस्तान में विशेष संवाददाता था, जो मैं नवभारत टाइम्स में भी था। तत्कालीन संपादक लाए थे, कुछ कहकर, कुछ सोचकर। उन्हें करने नहीं दिया गया या जो भी रहा हो, इस संस्थान में आना तब कुल मिलाकर घाटे का सौदा ही लग रहा था। तब नवभारत टाइम्स की जो साख थी, वह हिन्दुस्तान की नहीं थी।खैर आए तो काम तो करना ही था। तब हिन्दुस्तान टाइम्स समूह और टाइम्स ऑफ इंडिया समूह दोनों की छवि यह थी कि यहाँ की नौकरी, सरकारी नौकरी जितनी ही पक्की है और यह बात तब के लिए सही भी थी। दोनों संस्थानों में यूनियनों का दबदबा था। हिन्दुस्तान टाइम्स समूह में तो कुछ ज्यादा ही था।इस कारण यहाँ आने पर भी नौकरी छूटने का डर नहीं था।

जो मुझे लाए थे,वह संपादक बदले। दूसरे आए,वह भी बदले। फिर मृणाल पांडेय हिन्दुस्तान की प्रमुख संपादक बन कर आईं। आने के करीब दो साल बाद 2002 के अंत में कभी वह प्रबंधन को यह विश्वास दिला पाईं कि कादम्बिनी और नंदन का भी कायाकल्प करना जरूरी है। पता नहीं क्या सोचकर मृणालजी ने कादम्बिनी का एसोसिएट एडिटर बनने का प्रस्ताव मेरे सामने रखा। मेरे लिए यह आश्चर्यजनक था,हालांकि इससे पहले वह मुझसे पूछ चुकी थीं हिंदुस्तान अखबार के रविवारीय संस्करण का एसोसिएट एडीटर बनने के लिए मगर प्रबंधन ने तब आपत्ति की थी कि हम विशेष संवाददाता को सीधे यह पद नहीं दे सकते लेकिन जब कादम्बिनी की बात आई तो प्रबंधन ने यह मंजूर कर लिया।मैं कादम्बिनी में लाया गया फरवरी, 2003 में और क्षमा शर्मा नंदन में। नियुक्ति पत्र हमें जनवरी, 2003 से मिला था मगर सुना यह कि अवस्थीजी ने प्रबंधन से कहा कि हमने इतने वर्ष इस संस्थान की सेवा की है तो कम से कम हमें साल के पहले महीने में तो रिटायर मत कीजिए। यह बात मान लेनी भी चाहिए थी और मान ली गई। इस कारण सब मानने लगे थे कि अवस्थी जी बड़े पावरफुल हैं और उन्होंने मृणालजी के इरादों पर चूना फेर दिया है। इस कारण यह जानते हुए भी कि फरवरी से मैं ही कादम्बिनी का सर्वेसर्वा होनेवाला हूँ, एक धनंजय सिंह को छोड़कर स्टाफ के किसी सदस्य की हिम्मत नहीं हुई मुझसे मिलने की। धनंजय सिंह वहाँ असंतुष्ट थे और मेरा आना उनके लिए सुखद था। वह समय-समय पर वहाँ के समाचार देते रहते थे।

बहरहाल एक फरवरी को मैंने और क्षमाजी ने अपने-अपने पद संभाले। उस कक्ष में उस कुर्सी पर बैठे,जिस पर पूर्व संपादक बैठा करते थे। एसोसिएट एडीटर होते हुए भी मृणालजी यह स्पष्ट कर चुकी थीं कि सबकुछ मुझे ही देखना है,उनका कोई हस्तक्षेप नहीं होगा। इसलिए इस जिम्मेदारी की खुशी भी थी और यह भय भी था कि क्या इसे मैं संभाल पाऊँगा मगर आशंका पर खुशी और रोमांच हावी था। आशंका इसलिए भी हावी नहीं थी कि अब मैं पक्की नौकरी की बजाए तीन साल के कांट्रेक्ट पर था और यह सोचकर गया था कि जो होगा, देखा जाएगा। हद से हद घर बैठा दिया जाएगा। देखेंगे। इतना खतरा उठाना चाहिए।
मृणालजी के सहयोग और समर्थन से पत्रिका का कायाकल्प करने की कोशिश की। भूत-प्रेतों, ज्योतिष, बाबाओं का निष्कासन पहले ही अंक से किया, जो मार्च, 2003 को सामने आया।कवर पर ईंट ढोती मजदूर औरत थी क्योंकि 8 मार्च को महिला दिवस था। अभी अंक आँखों के सामने नहीं है मगर इस अंक में विश्वनाथ त्रिपाठी का निराला की कविता में आँखों के वर्णन पर था। बाद में भी उनका भरपूर सहयोग मिलता रहा। अपने छात्रों के बारे में उन्होंने एक सीरीज लिखी, जो बाद में पुस्तकाकार रूप में सामने आई। यह अपनी तरह की दुर्लभ पुस्तक है। प्रिय कहानीकार और मित्र मधुसुदन आनंद तब तक कहानी लिखने से विरक्त से हो चुके थे, उन पर भावनात्मक दबाव डालकर उनसे कहानी लिखवाई। गुणाकर मुले जैसे अत्यंत विश्वसनीय विज्ञान लेखक से लिखवाया।

आधुनिक और महत्वपूर्ण लेखकों से इसे जोड़ने का सिलसिला बहुत आगे तक बढ़ा। भीष्म साहनी, कृष्णा सोबती आदि सब बड़े लेखक जुड़ते चले गए।
जो किया, नहीं किया, इस पर ज्यादा लिखना ठीक नहीं।बगैर अंधविश्वासों का खेल खेलते हुए (मासिक भविष्यफल का एक स्तंभ छोड़कर) इसे विज्ञान और वैज्ञानिक सोच की लोकप्रिय-पठनीय पत्रिका बनाए रखने का प्रयत्न किया। तब के.के.बिरला जीवित थे, उन्होंने स्वयं मुझे बुला कर शाबाशी दी। मृणालजी तो खुश थी ही, पाठक भी। स्टाफ ने भी जिसकी जितनी योग्यता थी, सहयोग किया। सबसे दोस्ताना संबंध बना। हरेक का जन्मदिन सब मिल कर प्रेस क्लब में मनाते। बीयर पीनेवाले बीयर पीते।

मेरा सौभाग्य रहा कि मेरे निजी सहायक बलराम दुबे रहे, जो योग्य और विश्वसनीय रहे। बाकी सभी संपादकीय सहयोगियों का सहयोग भी मिला। मेरे कार्यकाल में हरेप्रकाश उपाध्याय, पंकज पराशर,शशिभूषण द्विवेदी, ऋतु मिश्रा जैसे योग्य लोग आए।

2008 में जब कादम्बिनी छोड़कर नई दुनिया के दिल्ली संस्करण में आना मेरे लिए जीवन का बहुत दुविधाजनक निर्णय था। जिन मृणालजी ने यह बड़ी जिम्मेदारी सौंपी थी, उन्हें छोड़कर जाना सबसे कठिन था मगर मित्र आलोक मेहता से पुराने और घरेलू संबंध थे। वही मुझे इस संस्थान में लाए थे। फिर दैनिक में फिर से काम करने का अपना आकर्षण भी था। मृणालजी ने स्वाभाविक ही बुरा माना। दुखद संयोग की मृणालजी भी उसके बाद वहाँ ज्यादा समय तक नहीं रहीं मगर उन्हें नई-नई जिम्मेदारियां मिलती गईं और अभी भी वह हेरल्ड समूह में हैं। उन्होंने जो लोकतांत्रिक स्वतंत्रता मुझे दी थीं, उसके लिए मैं हमेशा आभारी रहूँगा।

आखिरी दिन सब मुझे नीचे तक छोड़ने आए, सिवाय एक को छोड़कर, जिन्हें मैंने पुराने स्टाफ में योग्य मानकर सबसे अधिक आगे बढ़ाया था। वह उस समय भावी संपादक से अपनी निष्ठा जताने के लिए उनके पास आकर बैठ गए थे और उनकी पीठ मेरी तरफ थी।

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