श्रवण गर्ग
कोलकाता से निकलने वाले अंग्रेज़ी के चर्चित अख़बार ‘द टेलिग्राफ’ के सोमवार (29 मार्च,20121) के अंक में पहले पन्ने पर एक ख़ास ख़बर प्रकाशित हुई है। ख़बर गुवाहाटी की है और उसका सम्बन्ध 27 मार्च को असम में सम्पन्न हुए विधान सभा चुनावों के पहले चरण के मतदान से है। असम में मतदान तीन चरणों में होना है। दूसरे चरण का मतदान एक अप्रैल और तीसरे व अंतिम का छह अप्रैल को होने वाला है।
टेलिग्राफ के मुताबिक़, असम के नौ प्रमुख समाचार पत्रों (सात असमी, एक अंग्रेज़ी और एक हिंदी ) में प्रथम चरण के मतदान के ठीक अगले दिन पहले पन्ने पर सबसे ऊपर एक कोने से दूसरे कोने तक फैली एक ‘ख़बर ‘प्रमुखता से छापी गई है।सभी में एक जैसे चौंकाने वाले शीर्षक के साथ छपी कथित ख़बर वस्तुतः विज्ञापन है। ‘ख़बर’ के बाईं ओर भाजपा का नाम और उसका चुनाव चिन्ह भी दिया गया है। इन सभी समाचार पत्रों ने ख़बर के मुखौटे में एक जैसा जो कुछ छापा है (‘BJP TO WIN ALL CONSTITUENCIES OF UPPER ASSAM’) उसके मुताबिक भाजपा ऊपरी असम इलाक़े की वे सभी सैंतालिस सीटें जीतने जा रही है जहां कि प्रथम चरण में मतदान हुआ है।
उक्त प्रकाशन के ज़रिए हुए चुनाव आचार संहिता के कथित उल्लंघन के मुद्दे पर असम के विपक्षी दलों ने एफ आइ आर दर्ज करवाई है और अन्य कार्रवाई भी की जा रही है। पर हमारा सवाल अलग है। वह यह कि : क्या समाचार पत्रों के सम्पादकों ने यह काम अनजाने में किया (या होने दिया) और उन्हें इस बात की जानकारी नहीं थी कि पाठकों के साथ निष्पक्ष पत्रकारिता के नाम पर ‘धोखाधड़ी’ की जा रही है ? या फिर किन्ही दबावों के चलते सब कुछ जानते-बूझते होने दिया गया ? आचार संहिता के हिसाब से इस तरह की कोई भी जानकारी, अनुमान अथवा सर्वेक्षण चुनाव सम्पन्न हो जाने तक प्रकाशित/प्रसारित नहीं किए जा सकते।
रवीश कुमार की गिनती देश के ईमानदार और प्रतिष्ठित सम्पादकों में होती है। वे और उनके जैसे ही कई अन्य पत्रकार तादाद में ज़्यादा न होते हुए भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए लगातार लड़ रहे हैं। रवीश अपनी चर्चाओं में बार-बार दोहराते हैं कि लोगों को ‘गोदी’ मीडिया देखना (और पढ़ना) बंद कर देना चाहिए। ’गोदी' मीडिया से उनका मतलब निश्चित ही उस मीडिया से है जो पूरी तरह से व्यवस्था की गोद में बैठा हुआ है और जान-बूझकर ‘संजय’ की बजाय ‘धृतराष्ट्र’ की मुद्रा अपनाए हुए है।
रवीश कुमार यह नहीं बताते (या बताना चाहते ) कि जिस तरह का मीडिया इस समय खबरों की मंडी में बिक रहा है उसमें दर्शकों और पाठकों को क्या देखना और पढ़ना चाहिए ? ‘क्या देखना अथवा पढ़ना चाहिए’ को बता पाना एक बहुत ही मुश्किल और चुनौती भरा काम है, ख़ासकर ऐसी स्थिति में जब कि लगभग सभी बड़े कुओं में वफ़ादारी की भांग डाल दी गई हो।आपातकाल के दौरान मीडिया सेन्सरशिप के बावजूद काफ़ी कुछ कुएँ बाक़ी थे जिनके पानी पर भरोसा किया जा सकता था।
आपातकाल की बात चली है तो उस समय के निडर समाचारपत्रों में एक ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के सम्पादकों और पत्रकारों का काफ़ी नाम था (सौभाग्य से मैं भी उस दौरान वहीं काम करता था) ।इंदिरा गांधी के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ने वाले इस अंग्रेज़ी अख़बार ने हाल में वर्ष 2021 के देश के सबसे ज़्यादा ताकतवर सौ लोगों की सूची जारी की है। पूरी सूची में एक सौ पैंतीस करोड़ लोगों के देश में पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक एक भी ‘ताकतवर’ सम्पादक या पत्रकार का नाम नहीं है। क्या यक़ीनी तौर पर ऐसी ही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति उत्पन्न हो गई है कि इस समय कोई एक भी ताकतवर पत्रकार/सम्पादक देश में बचा ही नहीं ? या फिर सूची में शामिल सौ लोग इतने ज़्यादा ताकतवर हो गए हैं कि उनके बीच किसी भी क्रम पर कोई पत्रकार या सम्पादक अपनी जगह बना ही नहीं सकता था ?
रवीश कुमार और उन जैसे सौ-पचास या हज़ार-दो हज़ार ज्ञात-अज्ञात पत्रकारों या ‘एडिटर्स गिल्ड’ जैसी कुछेक संस्थाओं की बात छोड़ दें जो हर तरह के हमले बर्दाश्त करते हुए भी अभिव्यक्ति की आज़ादी के काम में जुटी हुईं हैं तो क्या कोई पूछना नहीं चाहेगा कि देश में लाखों की संख्या में जो बाक़ी पत्रकार और सम्पादक हैं वे इस समय हक़ीक़त में क्या काम कर रहे होंगे ?किस अख़बार और किस चैनल में किस तरह की खबरों के लिए वे अपना खून-पसीना एक कर रहे होंगे ?
पत्रकारिता समाप्त हो रही है और पत्रकार बढ़ते जा रहे हैं! खेत समाप्त हो रहे हैं और खेतिहर मज़दूर बढ़ते जा रहे हैं, ठीक उसी तरह। खेती की ज़मीन बड़े घराने ख़रीद रहे हैं और अब वे ही तय करने वाले हैं कि उस पर कौन सी फसलें पैदा की जानी हैं। मीडिया संस्थानों का भी कार्पोरेट सेक्टर द्वारा अधिग्रहण किया जा रहा है और पत्रकारों को बिकने वाली खबरों के प्रकार लिखवाए जा रहे हैं। किसान अपनी ज़मीनों को ख़रीदे जाने के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रहे हैं। मीडिया की समूची ज़मीन ही खिसक रही है पर वह मौन हैं। गौर करना चाहिए है कि किसानों के आंदोलन को मीडिया में इस समय कितनी जगह दी जा रही है ? दी भी जा रही है या नहीं ? जबकि असली आंदोलन ख़त्म नहीं हुआ है। सिर्फ़ मीडिया में ख़त्म कर दिया गया है।
असम के कुछ अख़बारों में जो प्रयोग हुआ है वह देश के दूसरे अख़बारों और चैनलों में अपने अलग-अलग रूपों में वर्षों से लगातार चल रहा है। वह ठंड, गर्मी बरसात की तरह दर्शकों और पाठकों को कभी-कभी महसूस ज़रूर होता रहता है पर ईश्वर की तरह दिखाई नहीं पड़ता।आपातकाल किसी भी तरह का हो, जनता बाद में डरना प्रारम्भ करती है। मीडिया का एक बड़ा तबका तो डरने की ज़रूरत के पैदा होने से पहले ही कांपने लगता है। सरकारें जानती हैं कि मीडिया पर नियंत्रण कस दिया जाए तो फिर देश को चलाने के लिए जनता के समर्थन की ज़रूरत भी एक बड़ी सीमा तक अपने आप ‘नियंत्रित’ हो जाती है।आप भी सोचिए कि आख़िर क्यों ‘द टेलिग्राफ़’ जैसा समाचार कहीं और पढ़ने या देखने को नहीं मिल पाता है !
कांग्रेस के भविष्य को लेकर इस समय सबसे ज़्यादा चिंता व्याप्त है। यह चिंता भाजपा भी कर रही है और कांग्रेस के भीतर ही नेताओं का एक समूह भी कर रहा है। दोनों ही चिंताएँ ऊपरी तौर पर भिन्न दिखाई देते हुए भी अपने अंतिम उद्देश्य में एक ही हैं। सारांश में यह कि पार्टी की कमान गांधी परिवार के हाथों से कैसे मुक्त हो ? आज की परिस्थिति में कांग्रेस को बचाने का आभास देते हुए उसे ख़त्म करने का सबसे अच्छा प्रजातांत्रिक तरीक़ा भी यही हो सकता है। जहां भाजपा की राष्ट्रीय मांग देश को कांग्रेस से मुक्त करने की है। कांग्रेस पार्टी के एक प्रभावशाली तबके की मांग फ़ैसलों की ज़िम्मेदारी किसी व्यक्ति (परिवार !) विशेष के हाथों में होने के बजाय सामूहिक नेतृत्व के हवाले किए जाने की है। सामूहिक फ़ैसलों की मांग में मुख्य रूप से यही तय होना शामिल माना जा सकता है कि विभिन्न पदों पर नियुक्ति और राज्य सभा के रिक्त स्थानों की पूर्ति के अधिकार अंततः किसके पास होने चाहिए !
एक सौ पैंतीस साल पुरानी कांग्रेस को ‘प्रजातांत्रिक’ बनाने की लड़ाई एक ऐसे समय खड़ी की गई है कि वह न सिर्फ़ ‘प्रायोजित’ प्रतीत होती है, उसके पीछे के इरादे भी संदेहास्पद नज़र आते हैं। कांग्रेस-मुक्त भारत की स्थापना की दिशा में इसे पार्टी के कुछ विचारवान नेताओं का सत्तारूढ़ दल को ‘गुप्तदान’ भी माना जा सकता है। राजनीति में ऐसा होता ही रहता है। बेरोज़गार बेटों को मां-बाप से शिकायतें हो ही सकती है कि वे कमाकर नहीं ला रहे हैं इसीलिए घर में ग़रीबी है।
क्या किसी प्रकार का शक नहीं होता कि बंगाल चुनाव के ठीक पहले बिहार में उम्मीदवारों की हार को मुद्दा बनाकर जिस समय वरिष्ठ नेता कांग्रेस नेतृत्व को घेर रहे हैं, भाजपा के निशाने पर भी वही एक दल है ? दो विपरीत ध्रुवों वाली शक्तियों के निशाने पर एक ही समय पर एक टार्गेट कैसे हो सकता है ? इसी कांग्रेस के नेतृत्व में जब दो साल पहले तीन राज्यों में चुनाव जीतकर सरकारें बन गईं थीं तब तो वैसी आवाज़ें नहीं उठीं थीं जैसी आज सुनाई दे रही हैं!
एक देश,एक संविधान और एक चुनाव की पक्षधर भाजपा के लिए राष्ट्रीय स्तर पर केवल एकमात्र राजनीतिक दल के रूप में पहचान स्थापित करने के लिए ज़रूरी है कि कांग्रेस को एक क्षेत्रीय पार्टी की हैसियत तक सीमित और दिल्ली की तरफ़ खुलने वाली राज्यों की खिड़कियों को पूरी तरह से सील कर दिया जाए। जो प्रकट हो रहा है वह यही है कि सोनिया गांधी की अस्वस्थता को देखते हुए उनकी उपस्थिति में ही पार्टी-नेतृत्व का बँटवारा कर लेने की मांग उठाई जा रही है। राहुल गांधी ने सवाल भी किया था कि तेईस लोगों ने चिट्ठी उस वक्त ही क्यों लिखी जब सोनिया गांधी का अस्पताल में इलाज चल रहा था ?
स्पष्ट है कि जिस समय कांग्रेस को ही अपनी कमजोरी से निपटने के लिए इलाज की ज़रूरत है, नेतृत्व से जवाब-तलबी की जा रही है कि वह भाजपा की टक्कर में दौड़ क्यों नहीं लगा पा रही है ! सारे सवाल कांग्रेस को लेकर ही हैं। निर्वाचन आयोग द्वारा मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय दलों में कांग्रेस और भाजपा के अतिरिक्त छह और भी हैं पर उनकी कहीं कोई चर्चा नहीं है ! वे सभी दल क्षेत्रीय पार्टियाँ बन कर रह गए हैं।
इसमें शक नहीं कि एक मरणासन्न विपक्ष को इस समय जिस तरह के नेतृत्व की कांग्रेस से दरकार है वह अनुपस्थित है।ऐसा होने के कई कारणों में एक यह भी है कि कोरोना प्रबंधन के पर्दे में न सिर्फ़ नागरिकों की गतिविधियों को सीमित कर दिया गया है, विपक्षी दलों और उनकी सरकारों की चिंताओं की सीमाएँ भी तय कर दी गईं हैं। किसान आंदोलन के रूप में जो प्रतिरोध व्यक्त हो रहा है उसे बजाय किसानों की वास्तविक समस्याओं को लेकर फूटे आक्रोश के रूप में देखने के केंद्र के ख़िलाफ़ पंजाब की अमरिंदर सिंह सरकार द्वारा समर्थित राजनीतिक चुनौती के रूप में देखा जा रहा है। अगर यह सही है तो फिर कांग्रेस के बग़ावती नेता इसे पार्टी के जनता के साथ जुड़ने की ओर कदम भी मान सकते हैं जिसकी कि शिकायत उन्हें वर्तमान नेतृत्व से है।
भारतीय जनता पार्टी के एकछत्र शासन के मुक़ाबले देश में एक सशक्त (या कमज़ोर भी) राष्ट्रीय विपक्ष की ज़रूरत के कठिन समय में कांग्रेस नेतृत्व को अंदर से ही कठघरे में खड़ा करने की कोशिशें कई सवालों को जन्म देती हैं। चूंकि इस तरह की परिस्थितियाँ कांग्रेस के लिए पहला अनुभव नहीं है, लोग यह अनुमान भी लगाना चाहते हैं कि इंदिरा गांधी आज अगर होतीं तो मौजूदा संकट से कैसे निपटतीं और उनकी बहू होने के नाते सोनिया गांधी को ऐसा क्या करना चाहिए जो वे नहीं कर पा रही हैं ? क्या उनके द्वारा तमाम बग़ावती नेताओं को यह सलाह नहीं दी जा सकती कि वे भी ममता, शरद पवार और संगमा की तरह ही विद्रोही कांग्रेसियों की एक और पृथक ‘कांग्रेस’ बना लें ? बाक़ी छह राष्ट्रीय दलों में तीन तो इन्हीं लोगों की बनाई हुई ‘कांग्रेस’ ही हैं। बाक़ी तीन में दो साम्यवादी दल और बसपा है। इनमें किसी की भी हालत देश से छुपी हुई नहीं है।
और अंत में : कांग्रेस के एक राष्ट्रीय प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला द्वारा प्रधानमंत्री की इस बात के लिए आलोचना किए जाने कि दिल्ली में किसानों के आंदोलन के वक्त वे कोरोना वैक्सीन के प्रयोग स्थलों की यात्रा पर थे अगले ही दिन पार्टी के दूसरे प्रवक्ता और वरिष्ठ नेता आनंद शर्मा ने मोदी की तारीफ़ करते हुए ट्वीट किया कि उनका (प्रधानमंत्री का) यह कदम भारतीय वैज्ञानिकों के प्रति सम्मान की अभिव्यक्ति है। इससे अग्रिम पंक्ति के कोरोना योद्धाओं का मनोबल बढ़ेगा।आनंद शर्मा का नाम उन तेईस लोगों में शामिल है जो कांग्रेस में शीर्ष नेतृत्व को लेकर सवाल खड़े कर रहे हैं। हालांकि शर्मा ने बाद में अपना फैलाया हुआ रायता समेटने की कोशिश भी की पर तब तक देर हो चुकी थी।
देश के पाँच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों के ठीक पहले जारी हुए दो सर्वेक्षणों में बताया गया है कि पश्चिम बंगाल की काँटे की लड़ाई में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस वर्ष 2016 के मुकाबले कम सीटें प्राप्त करने के बावजूद फिर अपनी सरकार बना लेगी। ए बी पी-सी वोटर के सर्वे में तृणमूल को कुल 294 सीटों में से कम से कम 152 और भाजपा को ज़्यादा से ज़्यादा 120 सीटें बताईं गईं हैं। कांग्रेस-वाम दलों के गठबंधन को 26 सीटें मिल सकतीं हैं। इसी प्रकार टाईम्स नाउ-सी वोटर सर्वे में ममता की पार्टी को 160 और भाजपा को 112 सीटें बताई गईं हैं। यानी दोनों ही सर्वेक्षणों में दोनों दलों को मिल सकने वाली सीटों के अनुमानों में ज़्यादा फर्क नहीं है।
उक्त सर्वेक्षण इसलिए गलत भी साबित हो सकते हैं कि गृह मंत्री अमित शाह के मुताबिक भाजपा को दो सौ से अधिक सीटें मिलने वाली हैं और सरकार भी उनकी पार्टी की ही बनेगी। पहली कैबिनेट मीटिंग का पहला निर्णय किस विषय पर होगा यह भी उन्होंने बताया है। गृह मंत्री के इस आत्मविश्वास के पीछे निश्चित ही कोई ठोस कारण भी होना चाहिए। 26 फरवरी को निर्वाचन आयोग द्वारा जारी चुनाव-कार्यक्रम में बंगाल के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि वहां सबसे ज़्यादा आठ चरणों में मतदान हो रहा है ।अपने राज्य में 27 मार्च से प्रारंभ हुए और 29 अप्रैल तक चलने वाले मतदान कार्यक्रम की घोषणा पर ममता बनर्जी की पहली प्रतिक्रिया यही थी कि तारीखें शायद प्रधानमंत्री और गृह मंत्री की सुविधानुसार तय की गईं हैं। ममता का यह भी मानना था कि इससे भाजपा को देश की एकमात्र महिला मुख्यमंत्री के खिलाफ व्यापक चुनाव प्रचार का लाभ मिलेगा।
कहा जा रहा है कि भाजपा द्वारा तय किए गए ‘जीतने की संभावना वाले’ उम्मीदवारों में आधे से अधिक वे हैं जो तृणमूल सहित दूसरे दलों से आए हैं। इसे दूसरे नजरिए से देखें तो ऐसा होना ममता के लिए सुकून की बात होना चाहिए क्योंकि ये ही लोग अगर चुनाव जीतने के बाद भाजपा में जाते तो बंगाल भी मध्यप्रदेश बन जाता। सीटों को लेकर भाजपा के दावों पर थोड़ा असमंजस इसलिए हो सकता है कि वर्ष 2018 में जब तीन राज्यों (मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़) में चुनाव हुए थे तब पार्टी के सारे अनुमान गड़बड़ा गए थे। अमित शाह ने तब भी दावा किया था कि भाजपा को मध्य प्रदेश में दो सौ सीटें मिलेंगी। तीनों ही राज्यों में तब भाजपा की सरकारें नहीं बन पाईं थीं। तब तो न कोरोना था, न ही लॉक डाउन, न लाखों मजदूरों का पलायन, न इतनी बेरोजगारी और महंगाई। कोई ‘दीदी’ भी नहीं थी किसी राज्य में। परंतु अमित शाह ने ही जब 2019 के लोक सभा चुनावों के पहले दावा किया कि भाजपा को तीन सौ से ज़्यादा सीटें मिलेंगी तो वह साबित भी हो गया। ममता का कहना कुछ हद तक सही माना जा सकता है कि बंगाल में 2024 के लोकसभा चुनावों का सेमी फाइनल खेला जा रहा है।
जिस एक आशंका को लेकर कोई भी दो मई की मतगणना के पहले चर्चा नहीं करना चाहता वह यह है कि बंगाल में चुनावों को प्रतिष्ठा का सवाल बना लेने और अपने समस्त संसाधन वहाँ झोंक देने के बावजूद अगर चुनावी सर्वेक्षण सही साबित हो जाते हैं तो देश और बंगाल के लिए उसके राजनीतिक परिणाम क्या होंगे? देश में पंचायती राज की स्थापना के ज़रिए ग्राम स्वराज चाहे गाँव-गाँव तक नहीं पहुँच पाया हो, चुनाव प्रचार के दौरान साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और राजनीतिक वैमनस्य बंगाल के घर-घर तक पहुँचा दिया गया है।
बंगाल के चुनावी परिदृश्य पर नजदीक से नजर रखने वाले लोगों के अनुसार ,ममता बनर्जी इस प्रकार की आक्रामक मुद्रा में हैं जैसे किसी बाहरी (‘बोहिरा गावटो’) आक्रांताओं से बंगाल की संस्कृति को बचाने की लड़ाई लड़ रही हों। दूसरी ओर ,भाजपा जैसे कि बंगाल से ‘विदेशियों’ को बाहर निकालकर एक हिंदू -बहुल राज्य की स्थापना के यज्ञ में जुटी हुई हो। बंगाल में लगभग सत्ताईस प्रतिशत आबादी अल्पसंख्यकों की है। भाजपा अगर सत्ता में आई तो उसका पहला फैसला राज्य में नागरिकता कानून को लागू करना होगा।राज्य में भाजपा के पक्ष में हिंदू मतों का ध्रुवीकरण किस सीमा तक हो चुका है इसका अंदाज केवल इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पिछले चुनाव (2016) में उसे सिर्फ तीन सीटें मिलीं थीं और इस बार सर्वेक्षणों में उसे सवा सौ के करीब सीटें मिलने की संभावना जताई जा रही है।
बंगाल चुनावों के सिलसिले में यह सवाल अभी कोने में पड़ा हुआ है कि अगर कांग्रेस और वाम दल दोनों की नाराजगी भी भाजपा से ही है तो वे ममता के खिलाफ क्यों लड़ रहे हैं? दो में से एक सर्वेक्षण में कांग्रेस-वाम गठबंधन को केवल 18 से 26 और दूसरे में 22 सीटें दीं गईं हैं। इन दलों को उम्मीद हो सकती है कि ममता को पूर्ण बहुमत नहीं मिलने की स्थिति में तृणमूल को सशर्त समर्थन की पेशकश कर सत्ता में भागीदारी की जा सकती है। एक अन्य अर्थ यह भी लगाया जा रहा है कि ममता से नाराजगी रखने वाले सारे वोट बजाय भाजपा को जाने के वाम-कांग्रेस-इंडियन सेक्युलर फ्रंट को मिल जाएँगे और इस तरह तृणमूल ज़्यादा सुरक्षित हो जाएगी। नंदीग्राम में भी इसीलिए एक वामपंथी उम्मीदवार को खड़ा करके मुकाबला त्रिकोणीय बना दिया गया है जिससे कि ममता सुरक्षित हो सकें।
बंगाल चुनावों में इस समय जो कुछ भी चल रहा है उस पर न सिर्फ विभिन्न राजनीतिक दल, विपक्षी सरकारें, चार महीनों से आंदोलनरत किसान और तमाम ‘आंदोलनजीवी’ ही अपनी नजरें टिकाए हुए हैं, वे लोग भी उत्सुकता से देख रहे हैं जो कथित तौर पर भाजपा के अंदर होते हुए भी बाहर जैसे ही हैं। कहना कठिन है कि एन डी ए में ऐसे कितने घटक होंगे जिनकी रुचि भाजपा के वर्तमान शीर्ष नेतृत्व को और अधिक मजबूत होता हुआ देखने में होगी।
अंत में गौर किया जा सकता है कि ममता बनर्जी इतनी डरी हुईं, घबराई हुईं और आशंकित पिछले एक दशक में कभी नहीं देखी गईं। वे अभी तक तो कोलकाता में बैठकर ही दिल्ली को ललकारती रहीं हैं पर अब दिल्ली स्वयं उनके दरवाजे पर है और चुनौती भी दे रही है। बंगाल में कुछ भी हो सकता है!
बातचीत की शुरुआत यहाँ से करते हैं कि तीस जनवरी 1948 के दुर्भाग्यपूर्ण दिन राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या एक कट्टर हिंदू नाथूराम गोडसे के बजाय किसी मुस्लिम सिरफिरे ने कर दी होती तो दुनिया की आत्मा को झकझोर कर देने वाली इस आतंकी घटना के केवल 168 दिन पहले गुलामी की कोख में जन्म लेकर विभाजन के पालने में पले आजाद भारत की तस्वीर आज किस तरह की होती! क्या वह वैसी ही बदहवास होती जैसी कि आज दिखाई पड़ रही है अथवा कुछ भिन्न होती ?
देश की राजधानी दिल्ली की नाक के नीचे बसे गाजियाबाद जिले के एक गाँव डासना में स्थित देवी के मंदिर में पानी की प्यास बुझाने के लिए प्रवेश करने वाले एक मासूम तरुण की जबर्दस्त तरीके से पिटाई की जाती है; उसे बेरहमी के साथ मारने वाला अपने क्रूर कृत्य का साहसपूर्वक वीडियो बनवाता है और उसे सोशल मीडिया पर वायरल भी कर देता है। बच्चे का कुसूर सिर्फ इतना होता है कि वह उक्त मंदिर पर लगे बोर्ड को नहीं पढ़ पाता है कि वह हिंदुओं का पवित्र स्थल है। वहाँ मुसलमानों का प्रवेश वर्जित है। शायद यह कुसूर भी हो कि बच्चा पास के ही गाँव में रहने वाले एक गरीब मुस्लिम का बेटा है।
इस शर्मनाक घटना पर देश की संसद में कोई सवाल नहीं पूछा जाता। कांग्रेस पार्टी की तरफ से भी नहीं ! न ही सरकार के किसी मंत्री को महात्मा गांधी के ‘वैष्णव जन ‘ का हवाला देते हुए घटना पर दु:ख प्रकट करने की ज़रूरत पड़ती है। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री गर्व के साथ कहते हैं कि ‘सेकूलरिज्म’ शब्द सबसे बड़ा झूठ और भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा है। जो भी इसकी वकालत करते हैं उन्हें राष्ट्र से माफी माँगनी चाहिए।
इसी दौरान, सुदूर इंग्लैंड की प्रसिद्ध ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में एक भारतीय छात्रा के साथ हुई कथित जातिवादी घटना पर राज्यसभा में सवाल उठ गए। यूनिवर्सिटी की छात्रसंघ का अध्यक्ष बन जाने के बाद छात्रा को अपनी कुछ पुरानी सोशल मीडिया पोस्ट्स की आलोचनाओं का शिकार होकर पद से इस्तीफा देना पड़ा। राजसभा में सभी पक्षों के सांसदों ने ऑक्सफोर्ड में भारतीय छात्रा के साथ हुई कथित जातिवादी घटना की आलोचना की। विदेश मंत्री जयशंकर ने कहा कि महात्मा गांधी का देश होने के नाते भारत जातिवाद को लेकर कहीं पर भी होने वाली घटना की अनदेखी नहीं कर सकता। गाजियाबाद के डासना में हुई जातिवाद की घटना गांधी के देश की जमीन से बाहर की मान ली जाती है।
दो महीने पहले (जनवरी में) अमेरिका के नॉर्थ केरोलिना राज्य के डेविस शहर में कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा गांधी की एक बड़ी कांस्य प्रतिमा को क्षतिग्रस्त कर दिया गया था। भारत की ओर से माँग उठाई गई कि पूरे मामले की गहन रूप से जाँच की जाए और इस घिनौने कृत्य के दोषियों के विरुद्ध उचित कार्रवाई की जाए। पिछले साल जून में जब राजधानी वॉशिंगटन में भी इसी तरह की घटना हुई थी तब भी इसी तरह से भारत के द्वारा विरोध व्यक्त किया गया था। जनवरी में ही हमारे यहाँ ग्वालियर में एक हिंदूवादी संगठन के द्वारा गोडसे ज्ञानशाला की सार्वजनिक रूप से शुरुआत की गई। कहा गया कि इसमें बच्चों को गोडसे का जीवन चरित्र पढ़ाया जाएगा तथा देश के विभाजन के ‘सच’ से उन्हें अवगत कराया जाएगा।कहीं कोई हल्ला नहीं मचा।
दो साल पहले गांधी पुण्य तिथि पर अलीगढ़ में गांधी के पुतले पर गोलियाँ चलाने, उसे जलाने और फिर गोडसे की तस्वीर पर माल्यार्पण कर मिठाई बाँटने की घटना का वीडियो वायरल हो चुका है।हमारे लिए दुनिया में प्रचारित किए जाने वाले गांधी और देश में बर्ताव किए जाने वाले राष्ट्रपिता के चेहरे अलग-अलग हैं! देश के भीतर गांधी की बार-बार हत्या की जा रही है और बाहर उन्हें बचाया जा रहा है। कोई बताना नहीं चाहता कि गांधी को जब एक ही बार में अच्छे से मारा जा चुका है तो अब बार-बार उनकी हत्या क्यों की जा रही है ? और जिसे गांधी के नाम पर बचाया जा रहा है वह हकीकत में कौन है ?
साल 1956 यानी अभी से कोई साढ़े छह दशक पहले देश के सिनेमाघरों में एक फिल्म रिलीज हुई थी जिसका नाम था ‘जागते रहो’। अगस्त 1947 के सिर्फ नौ साल बाद ही प्रदर्शित हुई इस फिल्म ने उन सपनों की धज्जियाँ उड़ा दीं थीं जो आजादी की प्राप्ति के साथ हमारे नेताओं के द्वारा जनता की आँखों में काजल की तरह भरे गए थे।
‘जागते रहो’ का नायक ‘मोहन’ गाँव से कलकत्ता महानगर में नौकरी की तलाश में आता है। सडक़ों पर भटकते-भटकते उसका गला सूखने लगता है और वह कहीं पानी की तलाश करता है। तभी उसकी नजर एक इमारत के अहाते में लगे नल से टपकती हुई पानी की बूँदों पर पड़ जाती है। मोहन जैसे ही पानी पीने के लिए अपने हाथ आगे बढ़ाता है एक कुत्ता अचानक से भौंकने लगता है और उसी के साथ वहाँ का चौकीदार भी ‘चोर-चोर’ का शोर मचा देता है। पुलिस की दहशत से मोहन इमारत के एक फ्लैट से दूसरे फ्लैट में भागना शुरू कर देता है।मोहन का इमारत में एक जगह से दूसरी जगह भागते रहने का सिलसिला पूरी रात चलता रहता है और इस दौरान उसका सामना हर फ्लैट में एक से बढक़र एक चोर और बेईमान से होता है।
पैंसठ सालों के बाद आज भी ‘मोहन’ पानी की तलाश में इधर से उधर भटक रहा है। फर्क बस यह हुआ है कि बदली हुई परिस्थितियों में स्क्रिप्ट की माँग के चलते ‘मोहन’ अब ‘आरिफ’ हो गया है। डासना के मंदिर में पानी की तलाश में पहुँचे मुस्लिम बच्चे पर भी वही आरोप लगाया गया है कि वह चोरी के इरादे से घुसा था। ‘चोर-चोर’ की आवाजें लगाने वाले भी समाज में वैसे ही मौजूद हैं बस उनकी शक्लें और उन्हें बचाने वाले बदल गए हैं। ‘जागते रहो’ में तो मोहन लोगों के हाथों पिटने से बच गया था , पर आरिफ नहीं बच पाया। और अंत में यह कि असली नाम तो गांधी का भी मोहन ही था। देश मोहन को नहीं बचा पाया, ‘आरिफ’ को कैसे बचाया जा सकेगा?
देश इस समय एक नए किस्म की व्यवस्था की स्थापना के प्रयोग से गुजर रहा है! व्यवस्था यह है कि नागरिकों को शासन के निर्णयों, उसके कामों और उसके द्वारा दी जाने वाली सजाओं पर किसी भी तरह के सवाल नहीं उठाना है, कोई भी हस्तक्षेप नहीं करना है। फिर एक राष्ट्र के रूप में शासन किसी भी अन्य देश की हुकूमत के द्वारा उसके अपने नागरिकों के अधिकारों पर किए वाले प्रहारों, और उन्हें दी जाने वाली सज़ाओं को लेकर भी कोई विरोध या हस्तक्षेप नहीं व्यक्त करेगा। ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की अब यही नई परिभाषा बनने वाली है !
हमारे पड़ोसी देश म्यांमार (बर्मा) में इन दिनों उथल-पुथल मची हुई है। वहाँ लोकतंत्र की बहाली को लेकर सैन्य हुकूमत की तानाशाही के खिलाफ आंदोलनकारियों ने सडक़ों को पाट रखा है। उन पर गोलियाँ चलाईं जा रही है। हजारों लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है और डेढ़ सौ मारे जा चुके हैं। नोबेल शांति पुरस्कार विजेता तथा भारत की अभिन्न मित्र आंग सान सू की भी किसी अज्ञात स्थान पर कैद हैं। एक फरवरी को वहाँ हुई तख्ता पलट की कार्रवाई के बाद सेना ने सत्ता पर कब्जा कर लोकतंत्र को समाप्त कर दिया था। कहने की जरूरत नहीं कि बर्मा भारत के अति-संवेदनशील उत्तर-पूर्व इलाके में हमारी सीमा से लगा हुआ देश है। दोनों देशों के बीच उत्तर में चीन से लगाकर दक्षिण में बांग्लादेश तक कोई पंद्रह सौ किलोमीटर लंबी सीमा है। पर खबर इतनी भर ही नहीं है।
म्यांमार की घटना पर भारत की ओर से एक संतुलित प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए इतना भर कहा गया कि-‘कानून के राज और प्रजातांत्रिक प्रक्रिया को बरकरार रखा जाना चाहिए।’ यह भी कहा गया कि ‘भारत म्यांमार की स्थिति पर नज़दीकी से नजर रखे हुए है।’ बर्मा में लोकतंत्र की समाप्ति और सैन्य तानाशाही पर कुछ भी विपरीत टिप्पणी करना शायद राजनयिक/कूटनीतिक कारणों से उचित नहीं समझा गया। दोनों देशों के बीच सैंकड़ों साल पुराने संबंध हैं। कोई साढ़े पाँच करोड़ की आबादी वाले पड़ोसी देश में भारतीय मूल के नागरिकों की संख्या करीब दस लाख बताई जाती है। ज्यादा भी हो सकती है। कहा जाता है कि सत्ता पलट के बाद इनमें से कोई तीन लाख ने म्यांमार छोड़ दिया।
म्यांमार में लोकतंत्र की बहाली को लेकर चले पिछले आंदोलन को हमारी सरकार का समर्थन और उसमें भारतीय नागरिकों की भागीदारी रही है।म्यांमार के अलावा पड़ोस में दो और जगह-हांगकांग और थाईलैंड-में भी लोकतंत्र की माँग को लेकर लंबे अरसे से आंदोलन चल रहे हैं। हांगकांग में चीनी सैनिक निहत्थे आंदोलनकारियों पर तरह-तरह के अत्याचार कर रहे हैं। दोनों ही जगहों पर बड़ी संख्या में भारतीय मूल के नागरिक रहते हैं। पर खबर यह भी नहीं है।
खबर यह है कि क्या दुनिया के सबसे बड़े प्रजातांत्रिक राष्ट्र की सरकार और उसके नागरिक अपने ही पड़ौसी मुल्कों में लोकतंत्र पर होने वाले हमलों और वहाँ के नागरिकों की अहिंसक लड़ाई और उनके उत्पीडऩ के प्रति पूरी तरह से खामोशी साध सकते हैं? ऐसा पहले तो नहीं था! सोचा जा सकता है कि अगर बौद्ध धर्मगुरु दलाई लामा जवाहर लाल नेहरू की हुकूमत के दौरान वर्ष 1959 में तिब्बत से भागकर भारत में सम्मानपूर्वक शरण लेने के बजाय हाल के दिनों में प्रवेश करना चाहते होते तो चीन के साथ हमारे तनावपूर्ण संबंधों और सरकार द्वारा उसकी नाराजगी की परवाह के चलते क्या उनके लिए ऐसा करना सम्भव हो पाता? पिछले साल पाँच मई को लद्दाख में हुए चीनी हस्तक्षेप और फिर 15 जून को गलवान घाटी की झड़प के बाद ऐसा पहली बार हुआ था कि दलाई लामा के जन्मदिन छह जुलाई पर प्रधानमंत्री की ओर से उन्हें कोई बधाई संदेश भी नहीं भेजा गया।
जाहिर है कि हम अन्य मुल्कों में लोकतंत्र पर होने वाले प्रहारों, बढ़ते अधिनायकवाद और विपक्ष की आवाज़ को दबाने वाली घटनाओं पर इरादतन चुप रहना चाहते हैं। ऐसा इसलिए कि जब इसी तरह की घटनाएँ हमारे यहाँ हों तो हमें भी किसी बाहरी सत्ता या नागरिक का हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं होगा। किसी के द्वारा ऐसा किया गया तो उसे हमारे आंतरिक मामलों में अनधिकृत हस्तक्षेप माना जाएगा। इतना ही नहीं, इस बाहरी हस्तक्षेप में किसी भी भारतीय नागरिक की अहिंसक भागीदारी को भी देशद्रोह और राष्ट्र के खिलाफ युद्ध करार दिया जाएगा। ऐसा हो भी रहा है।
एक पॉप सिंगर और एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त जलवायु कार्यकर्ता के किसान आंदोलन को शाब्दिक समर्थन भर से इतने बड़े और मजबूत राष्ट्र की प्रजातांत्रिक बुनियादें हिल गईं ! यह प्रक्रिया अभी जारी है और जारी रहेगी भी। ऐसा इसलिए कि अदालतें भी इस पर कब तक लगाम लगा पाएँगीं? अत: मानकर यही चलना चाहिए कि जो कुछ भी घटित हो रहा है उसे नागरिकों का भी पूरा समर्थन प्राप्त है और सत्ता प्रतिष्ठान की हरेक कार्रवाई में उनकी भी बराबरी की भागीदारी है। यानी देश में ही बहुत सारे नागरिक अपने ही लोगों के खिलाफ खड़े हैं या कर दिए गए हैं।
यह एक नई तरह का वैश्वीकरण (globalization) है कि हमें विदेशी पूँजी निवेश तो इफऱात में चाहिए, आयातित तकनीकी चाहिए, अत्याधुनिक हथियार, जीवन-रक्षक दवाएँ, डीजल-पेट्रोल आदि सब कुछ चाहिए पर किसी भी आशय का बाहरी वैचारिक निवेश अमान्य है। ऐसी किसी भी परिस्थिति में पलक झपकते ही हमारी ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ (सम्पूर्ण धरती ही परिवार है) की घोषणाएँ एक संकीर्ण राष्ट्रवाद में परिवर्तित हो जाएँगीं। एक राष्ट्र तब विश्व से भी विराट बन जाएगा !
इसके बाद सब कुछ एक शृंखला की तरह काम करने लगता है। एक राष्ट्र जब दूसरे राष्ट्र में होने वाले नागरिक उत्पीडऩ के प्रति मौन रहता है तो फिर उसकी प्रतिध्वनि देश में आंतरिक स्तरों पर भी सुनाई पडऩे लगती है। एक राज्य सरकार दूसरे राज्य की पीड़ाओं में अपनी भागीदारी सीमित कर देती है। ऐसा ही तब नागरिक भी करने लगते हैं। एक प्रदेश में होने वाले नागरिक अत्याचारों के प्रति दूसरे राज्य के नागरिकों के मानवीय सरोकार गुम होने लगते हैं। ऐसा फिर एक राज्य में ही उसके अलग-अलग शहरों के बीच भी होने लगता है। और अंत में इसका प्रकटीकरण एक ही शहर या गाँव के नागरिकों के बीच आपसी संबंधों में देखने को मिलता है। एक नागरिक दूसरे के दु:ख में अपनी भागीदारी को सीमित या स्थगित कर देता है। राष्ट्रों की तरह व्यक्ति भी पर पीड़ा के प्रति एक तमाशबीन बन जाता है। और यही क्षण ऐसे शासकों के लिए गर्व करने का होता है जो अपने ही नागरिकों, शहरों और राज्यों को आपस में बाँटकर अपनी हुकूमतों को स्थायी और मजबूत करना चाहते हैं।
हम चाहें तो उस दुखद क्षण के आगमन की डरते-डरते इसलिए प्रतीक्षा कर सकते हैं कि हमें न सिर्फ म्यांमार, हांगकांग, थाईलैंड अथवा दुनिया के ऐसे ही किसी अन्य स्थान पर चल रही लोकतंत्र की लड़ाई के बारे में जानने में कोई रुचि नहीं है, हममें अपने ही देश में लगभग चार महीनों से चल रहे किसानों के संघर्ष को लेकर भी कोई बेचैनी नहीं है। हम खुश हो सकते हैं कि हमारे शासक हमारी कमजोरियों को बहुत अच्छे से जान गए हैं।
कोलकाता के ब्रिगेड मैदान की सभा में उपस्थित लाखों के जनसमूह को देखकर अगर प्रधानमंत्री ने यह कहा कि उन्होंने अपने जीवन में कई रैलियों को सम्बोधित किया है पर इतनी बड़ी रैली पहली बार देख रहे हैं तो यह भी कहा जा सकता है कि हर तरह की कोशिशों के बावजूद भी अगर भाजपा बंगाल में सरकार नहीं बना पाती है तो उसे उनकी सबसे बड़ी हार भी मान लिया जाना चाहिए। वैसे, हाल के एक चुनाव-पूर्व सर्वेक्षण में कहा गया है कि पश्चिम बंगाल और केरल में वर्तमान सरकारें फिर से सत्ता में आ सकतीं हैं। हालांकि यह क़तई ज़रूरी नहीं कि चुनाव-पूर्व किए गए या करवाए जाने वाले सभी सर्वेक्षण खरे ही उतरें। ग़लत भी साबित हो सकते हैं। ऐसा कई बार हो भी चुका है।
डॉ. राम मनोहर लोहिया कहते थे कि ज़िंदा क़ौमें पाँच साल इंतज़ार नहीं करतीं। लोहिया का इशारा हुकूमतें बदलने को लेकर जनता के धैर्य की समय-सीमा रेखांकित करने की तरफ़ था। मोदी के साम्राज्य में लोहिया की परिभाषा बदल दी गई है-भाजपा, विपक्षी सरकारें गिराने के लिए पाँच साल प्रतीक्षा नहीं कर सकती और इस काम के लिए उसे जनता की भी ज़रूरत नहीं है। चुने हुए विधायकों की वफ़ादारियों में सेंध लगाकर ही इस ‘पोरीबोर्तन’ को अंजाम दिया जा सकता है। तमाम प्रयासों के बावजूद महाराष्ट्र और राजस्थान में प्रयोग विफल हो गए पर मध्य प्रदेश में सफलता मिल ही गई। बंगाल में सरकार को पलटने के पहले तृण मूल को तिनका-तिनका किया जा रहा है और इस उपलब्धि की गर्व भाव कोलकाता की सड़कों पर प्रदर्शनी भी लगाई जा रही है।
पश्चिम बंगाल की राजनीति में इस समय जो कुछ भी उथल-पुथल चल रही है उसे लेकर दो सवाल प्रमुखता से चर्चा में हैं : पहला यह कि राहुल गांधी की कांग्रेस, वामपंथी दलों और मुस्लिम संगठनों सभी का घोषित उद्देश्य जब भाजपा के ‘प्रभाव’ को रोकना है तो फिर वे चुनावी संघर्ष को त्रिकोणीय बनाकर उसके (भाजपा के) ‘पराभव’ को रोकने में मददगार की भूमिका क्यों निभा रहे हैं ? इतना ही नहीं, नंदीग्राम में अपने ऊपर साज़िशन हमले का आरोप लगाकर पैरों से चोटिल ममता जब कोलकाता के अस्पताल में इलाज के लिए पहुँची तो कांग्रेस के अग्रणी और मुँहफट नेता अधीररंजन चौधरी ने भाजपा का काम हल्का करते हुए तुरंत प्रतिक्रिया पेश कर दी कि मुख्यमंत्री को इस तरह की नौटंकी करने की आदत है।
कांग्रेस इस समय शरद पवार की राकपा और उद्धव की शिव सेना के साथ महाराष्ट्र की सरकार में भागीदारी कर रही है। भाजपा वहाँ ‘कॉमन एनिमी’ है। पर बंगाल में पवार और उद्धव तो ममता के साथ खड़े हैं और कांग्रेस उनके विरोध में है। ममता ने कांग्रेस से अलग होकर ही तृण मूल बनाई थी और नंदीग्राम आंदोलन के ज़रिए ही तीन दशकों से चले आ रहे वामपंथियों के साम्राज्य को ध्वस्त किया था। इसलिए दोनों ही दलों की नाराज़गी ममता से है। दोनों ही मिलकर तृण मूल के ख़िलाफ मैदान में हैं। कांग्रेस ने ऐसी ही हाराकीरी बिहार में भी की थी । राजद के साथ गठबंधन कर नीतीश के ख़िलाफ़ चुनाव तो लड़ा पर इतनी ज़्यादा सीटों पर ज़बरदस्ती अपने उम्मीदवार खड़े कर दिए कि न तो वे स्वयं जीत पाए और न ही उन्होंने तेजस्वी की सरकार बनने दी। बंगाल में भी तेजस्वी और अखिलेश यादव दोनों ही ममता के साथ खड़े हैं। कांग्रेस इस समय हर जगह खलनायक की भूमिका में है। कहा जा रहा है कि 294 में से कम से कम सौ सीटें ऐसी हैं जहां त्रिकोणीय संघर्ष निर्णायक साबित हो सकता है।
दूसरा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या तृण मूल छोड़कर भाजपा में शामिल होने वाले तमाम सांसद और विधायक अंतिम रूप से यह मान चुके हैं कि ममता बनर्जी हारने ही वाली हैं और भाजपा की सरकार बनने जा रही है? या फिर उनके दल बदलने का कारण यह है कि तृण मूल पार्टी में ममता की कथित तानाशाही को लेकर असंतोष इतना बढ़ गया था कि तमाम भगोड़े तुलनात्मक दृष्टि से थोड़ी कम तानाशाह और अपेक्षाकृत ज़्यादा प्रजातांत्रिक व्यवस्था में प्रवेश करने के किसी अवसर की साँस रोककर प्रतीक्षा कर रहे थे? याद किया जा सकता है कि दिनेश त्रिवेदी जैसे साफ़ छवि के व्यक्ति को भी ममता के कोप के कारण ही यू पी ए सरकार में अपना मंत्री पद छोड़ना पड़ा था।
कांग्रेस को छोड़ दें तो देश के बाक़ी विपक्ष ने इस समय अपना भविष्य ममता के साथ नत्थी कर रखा है। पंजाब के किसान भी भाजपा के ख़िलाफ़ प्रचार करने कोलकाता, नंदीग्राम और बंगाल में धान की खेती वाले इलाक़ों में पहुँच चुके हैं। भाजपा ने बंगाल को राष्ट्रीय चुनावों जैसा महत्वपूर्ण बना दिया है। माना जा सकता है कि बंगाल के नतीजे न सिर्फ़ ममता का ही भविष्य तय करेगे बल्कि यह भी तय करेंगे कि देश को किसी भी तरह के विपक्ष की ज़रूरत बची है या नहीं? बहस प्रारम्भ की जा सकती है कि अब किसी स्कूटी के बजाय एक व्हील चेयर पर सवार होकर प्रचार करने के लिए मैदान में उतरने वाली ‘घायल ममता’ तमाम अवरोधों के बावजूद अगर चुनाव जीत जाती हैं तो राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारों को लेकर प्रधानमंत्री के अगले कदम क्या हो सकते हैं ? ममता की हार से उत्पन्न होने वाले परिणामों पर तो किसी भी तरह की बहस की ज़रूरत ही नहीं बची है।
राहुल गांधी के लिए जरूरी कर दिया गया था कि देश की वर्तमान हालत पर कोई भी नई टिप्पणी करने या पुरानी को दोहराने से पहले वे उस घोषित ‘इमरजेंसी’ को सार्वजनिक रूप से जलील करें जिसे इंदिरा गांधी ने कोई साढ़े चार दशक पूर्व देश पर थोपा था। राहुल गांधी ने सभी अपने पराए विपक्षियों को भौचक्क करते हुए ऐसा करके दिखा भी दिया। ज्ञातव्य है कि राहुल बार-बार आरोप लगा रहे हैं कि देश इस समय ‘अघोषित आपातकाल’ से गुजर रहा है। राहुल ने बिना साँस रोके और पानी का घूँट पीए अर्थशास्त्री कौशिक बसु के साथ हुए इंटरव्यू में कह दिया कि उनकी दादी द्वारा 1975 में लगाई गई इमरजेंसी एक गलती थी। राहुल ने पाँच राज्यों में हो रहे चुनावों के ठीक पहले ऐसा कहकर अपने विरोधियों के लिए कुछ और नया सोचने का संकट पैदा कर दिया है।
कुख्यात ‘इमरजेंसी या आपातकाल’ को लेकर राहुल की स्वीकारोक्ति बड़े साहस का काम है। ऐसा करके उन्होंने उच्च पदों पर बैठे लोगों के लिए बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है। वह यूँ कि अब वे भी अपनी कम से कम किसी एक गलती को तो स्वीकार करके खेद व्यक्त करें और साहस का काम इसलिए कि जून 1975 में जब आपातकाल लगाया गया तब राहुल केवल पाँच साल के थे। उनके पिता राजीव गांधी विदेश से प्रशिक्षण लेकर लौटने के बाद उस एयर इंडिया का विमान चला रहे थे जिसे बेचने के लिए इस समय खरीददार तलाशे जा रहे हैं। राजीव की आज के जमाने के नेता-पुत्रों की तरह न तो राजनीति करने में कोई रुचि थी और न ही क्रिकेट की किसी सल्तनत पर कब्जा करने में।
राहुल गांधी ने कौशिक बसु के साथ साक्षात्कार में और जो कुछ कहा है वह भी महत्वपूर्ण है। उनके इस मंतव्य का कि वर्तमान का आपातकाल ‘अघोषित’ है, यह अर्थ भी निकाला जा सकता है कि ‘घोषित आपातकाल’ के समाप्त होने की तो अनिश्चितकाल तक प्रतीक्षा की जा सकती है, लेकिन ‘अघोषित’ कभी समाप्त ही नहीं होता। एक प्रतीक्षा के बाद वह ‘इच्छामृत्यु’ को प्राप्त हो जाता है। ‘महाभारत’ सीरियल वाले भीष्म पितामह की छवि याद करें तो उन्हें मिले ‘इच्छामृत्यु’ के वरदान का स्मरण स्वत: ही हो जाएगा।
राहुल ने दूसरी बात यह कही कि कांग्रेस अगर भाजपा को हरा दे तब भी उससे मुक्त नहीं हो पाएगी। वह इसलिए कि संघ की विचारधारा वाले लोगों का पूरे व्यवस्था-तंत्र पर कब्जा हो चुका है। राहुल के मुताबिक, कांग्रेस ने न तो कभी संस्थागत ढाँचे (institutional framework) पर कब्जा करने की कोशिश की और न ही उसके पास ऐसा कर पाने की क्षमता ही रही। राहुल के कथन की पुष्टि इस तरह के आरोपों से हो सकती है कि कांग्रेस की कतिपय भ्रष्ट सरकारों के समय भाजपा से जुड़े लोगों के काम आसानी से हो जाते थे जो कि इस वक्त उनकी अपनी ही हुकूमतों में नहीं हो पा रहे हैं। राहुल का अभी यह स्वीकार करना बाकी है कि संघ समर्थकों ने अपनी शाखाएँ कांग्रेस संगठन के भीतर भी खोल ली हैं और उनके नेतृत्व को अब अंदर से भी चुनौती दी जा रही है।
पैंतालीस साल पहले के आपातकाल और आज की राजनीतिक परिस्थितियों के बीच एक और बात को लेकर फर्क किए जाने की जरूरत है। वह यह कि इंदिरा गांधी ने स्वयं को सत्ता में बनाए रखने के लिए सम्पूर्ण राजनीतिक विपक्ष और जे पी समर्थकों को जेलों में डाल दिया था पर आम नागरिक मोटे तौर पर बचे रहे। शायद यह कारण भी रहा हो कि जनता पार्टी सरकार का प्रयोग विफल होने के बाद जब 1980 में फिर से चुनाव हुए तो इंदिरा गांधी और भी बड़े बहुमत के साथ सत्ता में वापस आ गईं। इस समय स्थिति उलट है। विपक्ष जेलों से बाहर है और निशाने पर सिविल सोसाइटी से जुड़े नागरिक और मीडिया के लोग हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो ‘देशद्रोह’ अथवा ‘राष्ट्र के खिलाफ युद्ध’ जैसे आरोपों के तहत सबसे ज़्यादा मुकदमे और गिरफ्तारियां राजनीतिक कार्यकर्ताओं की होतीं। सरकार के पास यह जानकारी निश्चित रूप से होगी कि इस समय सबसे ज्यादा नाराजगी नागरिकों के बीच ही है।
अगर अपनी माँ को कथित तौर पर ‘आपातकाल’ लगाने की सलाह देने वाले संजय गांधी की असमय मौत नहीं हुई होती तो संभव है राजीव गांधी को राजनीति में प्रवेश करना ही नहीं पड़ता। राहुल और प्रियंका भी कुछ और कामकाज कर रहे होते। तब देश का नक्शा भी कुछ अलग ही होता। आपातकाल के दौरान हुई दिल्ली के तुर्कमान गेट की घटना और देश भर में की गई जबरिया नसबंदी के प्रयोगों के मद्देनजर यह अनुमान भी लगाया जा सकता है कि संजय गांधी की उपस्थिति में भारत काफी कुछ हिंदू राष्ट्र बन चुका होता। राहुल गांधी को कठघरे में खड़ा करके जो सवाल आज पूछे जा रहे हैं और उन्हें जिनके जवाब देने पड़ रहे हैं, तब वही सवाल किसी और ‘युवा गांधी’ से किए जा रहे होते। कौशिक बसु अगर इस आशय का कोई सवाल राहुल गांधी से अपने इंटरव्यू में कर भी लेते तो निश्चित ही किसी तरह की स्वीकारोक्ति उन्हें प्राप्त नहीं होती और तब उनके साथ देश को भी निराश होना पड़ता।
सरकार अगर अचानक से घोषणा कर दे कि परिस्थितियाँ अनुकूल होने तक अथवा किन्ही अन्य कारणों से विवादास्पद कृषि क़ानूनों को वापस लिया जा रहा है और कृषि क्षेत्र के सम्बन्ध में सारी व्यवस्थाएँ पहले की तरह ही जारी रहेंगी तो आंदोलनकारी किसान और उनके संगठन आगे क्या करेंगे ? महीनों से दिल्ली की सीमाओं पर जमे हज़ारों किसान और उत्तर प्रदेश के पश्चिमी इलाक़ों में महापंचायतें आयोजित कर रहे आंदोलनकारी जाट क्या सरकार की जय-जयकार करते हुए अपने ट्रेक्टरों के साथ घरों को लौट जाएँगे या फिर कुछ और भी हो सकता है? राकेश टिकैत ने तो किसानों से अपने ट्रेक्टरों में ईंधन भरवाकर तैयार रहने को कहा है। उन्होंने चालीस लाख ट्रेक्टरों के साथ दिल्ली में प्रवेश कर संसद को घेरने की धमकी दी है। अतः साफ़ होना बाक़ी है कि क्या बदलती हुई परिस्थितियों में भी किसान नेताओं का एजेंडा कृषि क़ानूनों तक ही सीमित है या कुछ आगे बढ़ गया है?
अहमदाबाद में नए सिरे से निर्मित और श्रृंगारित दुनिया के सबसे बड़े स्टेडियम का नाम उद्घाटन के अंतिम क्षणों तक रहस्यमय गोपनीयता बरतते हुए बदलकर एक ऐसी शख़्सियत के नाम पर कर दिया गया जो राजनीतिक संयोग के कारण इस समय देश के प्रधानमंत्री हैं। इसी तरह के संयोगों के चलते और भी लोग पूर्व में समय-समय पर प्रधानमंत्री रह चुके हैं पर उनके पद पर बने रहते हुए ऐसा नामकरण पहले कभी नहीं हुआ होगा। स्टेडियम के दो छोरों में एक ‘रिलायंस एंड’ और दूसरा ‘अडानी एंड‘ कर दिया गया है।ज़ाहिर है प्रधानमंत्री के नाम वाले इस राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्टेडियम में भविष्य के सारे खेल अब इन दो छोरों के बीच ही खेले जाने वाले हैं। कृषि क़ानून इन खेलों का सिर्फ़ एक छोटा सा हिस्सा भर है। प्रधानमंत्री ने साफ़ भी कर दिया है कि सरकार का काम व्यापार करना नहीं है। एक-एक करके जब सभी मूलभूत नागरिक ज़रूरतों और सुविधाओं को निजी हाथों में सौंपा जा रहा है, किसी उचित अवसर पर शायद यह भी स्पष्ट कर दिया जाएगा कि सरकार और संसद के ज़िम्मे अंतिम रूप से क्या काम बचने वाले हैं। और जब ज़्यादा काम ही करने को नहीं बचेंगे तो फिर लगभग दोगुनी क्षमतावाला नया संसद भवन बनाने की भी क्या ज़रूरत है?
इसमें कोई दो मत नहीं कि किसान-आंदोलन के कारण अभी तक सुन्न पड़े विपक्ष में कुछ जान आ गई है और उसने सरकार के प्रति डर को न सिर्फ़ कम कर दिया है, राजनीति भी हिंदू-मुस्लिम के एजेंडे से बाहर आ गई है। इसे कोई ईश्वरीय चमत्कार नहीं माना जा सकता कि गो-मांस और पशुओं की तस्करी आदि को लेकर आए-दिन होने वाली घटनाएँ और हत्याएँ इस वक्त लगभग शून्य हो गई हैं।ऐसा कोई नैतिक पुनरुत्थान भी नहीं हुआ है कि मॉब-लिंचिंग आदि भी बंद है। स्पष्ट है कि या तो पहले जो कुछ भी चल रहा था वह स्वाभाविक नहीं था या फिर अभी की स्थिति अस्थाई विराम है। यह बात अभी विपक्ष की समझ से परे है कि किसी एक बिंदु पर पहुँचकर अगर किसान आंदोलन किन्ही भी कारणों से ख़त्म हो जाता है तो जो राजनीतिक शून्य उत्पन्न होगा उसे कौन और कैसे भरेगा। किसान राजनीतिक दलों की तरह पूर्णकालिक कार्यकर्ता तो नहीं ही हो सकते। और यह भी जग-ज़ाहिर है कि कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ चल रहे आंदोलन को विपक्षी दलों का तो समर्थन प्राप्त है, किसानों का समर्थन किस दल के साथ है यह बिलकुल साफ़ नहीं है। टिकैत ने भी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को सार्वजनिक तौर पर उजागर नहीं किया है।
बड़ा सवाल अब यह है कि एक लम्बे अरसे के बाद देश में पैदा हुआ इतना बड़ा प्रतिरोधात्मक आंदोलन अगर किन्ही भी कारणों से समाप्त होता है या शिथिल पड़ता है तो क्या ऐसा होने से पहले किसान अपने मंच विपक्षी दलों के साथ साझा करते हुए लड़ाई को किसी अगले बड़े मुक़ाम पर ले जाने का साहस दिखा पाएँगे? तीन महीने पहले प्रारम्भ हुए किसान आंदोलन के बाद से नागरिकों के स्तर पर भी ढेर सारे सवाल जुड़ गए हैं और लड़ाई के मुद्दे व्यापक हो गए हैं। इन सवालों में अधिकांश का सम्बन्ध देश में बढ़ते हुए एकतंत्रवाद के ख़तरे और लोकतंत्र के भविष्य से है।
अहमदाबाद के क्रिकेट स्टेडियम में चौबीस फ़रवरी को जो कुछ भी हुआ वह केवल एक औपचारिक नामकरण संस्कार का आयोजन भर नहीं था जिसे कि राष्ट्र के प्रथम नागरिक की प्रतिष्ठित उपस्थिति में सम्पन्न करवाया गया। जो हुआ है वह देश की आगे की ‘दिशा’ का संकेत है जिसमें यह भी शामिल हो सकता है कि नए स्टेडियम के नाम के साथ और भी कई चीजों के बदले जाने की शुरुआत की जा रही है। यानी काफ़ी कुछ बदला जाना अभी बाक़ी है और नागरिकों को उसकी तैयारी रखनी चाहिए। केवल सड़कों, इमारतों, शहरों और स्टेडियम आदि के नाम बदल दिए जाने भर से ही काम पूरा हो गया है ऐसा नहीं समझ लिया जाए। सोशल मीडिया के उपयोग को लेकर जारी किए गए ताज़ा कड़े निर्देशों को भी इसी बदलाव की ज़रूरतों में शामिल किया जा सकता है। सरकारों के लिए परिवर्तन एक निरंतर चलने वाली प्रकिया है। इस प्रक्रिया के पूरा करने की कोशिश में कई बार व्यक्ति को ही राष्ट्र बन जाना पड़ता है। स्टेडियम का नया नाम भी उसी ज़रूरत का एक हिस्सा हो सकता है। व्यक्तिवादी व्यवस्थाओं का काम उन स्थितियों में और भी आसान हो जाता है जब बहुसंख्यक नागरिक अपनी जाने बचाने के लिए टीके का इंतज़ाम करने में जुटे हुए हों या किसी दीर्घकालिक योजना के तहत जोत दिए गए हों।
इससे पहले कि देखते ही देखते सब कुछ योजनाबद्ध और आक्रामक तरीक़े से बदल दिया जाए, आवश्यकता इस बात की है कि या तो किसान अपने शांतिपूर्ण आंदोलन में विपक्ष को भी सम्मानपूर्ण जगह देकर सार्वजनिक तौर पर भागीदार बनाएँ या फिर वे स्वयं ही एक सशक्त और आक्रामक विपक्ष की भूमिका अदा करें। आंदोलन समाप्त हो सकते हैं पर लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए एक प्रभावशाली विपक्ष की स्थायी उपस्थिति ज़रूरी है।
हुकूमतों को अगर गिलहरियों की हलचल से भी ख़तरा महसूस होने लगे तो समझ लिया जाना जाना चाहिए कि हालात कुछ ज़्यादा ही गम्भीर हैं और नागरिकों को अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित हो जाना चाहिए। ‘जलवायु परिवर्तन’ (climate change) के क्षेत्र से जुड़ी इक्कीस साल की युवा कार्यकर्ता दिशा रवि को तेरह फऱवरी से पहले तक कोई नहीं जानता होगा या फिर उनके मूल राज्य कर्नाटक में भी गिने-चुने लोग ही जानते होंगे। ’किसान आंदोलन’ से जुड़ी कोई ‘टूलकिट’ अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त जलवायु नेत्री ग्रेटा थुंबर्ग के साथ साझा करने और उसे सम्पादित करने के आरोप में दिशा को दिल्ली पुलिस के साइबर प्रकोष्ठ ने बंगलुरू से हिरासत में ले लिया था। दिशा के दो और युवा साथीनिकिता जैकब और इंजीनियर शान्तनु मुलुक भी प्रकरण में आरोपित हैं।
इस विश्लेषण को दिशा अथवा उनके साथियों तक इसलिए सीमित नहीं रखा जाना चाहिए कि हो सकता है मौजूदा प्रकरण में देश-विदेश के और भी नाम जुड़ते जाएँ और नई गिरफ्तारियाँ भी हों। इस तरह के प्रकरणों में चर्चा अक्सर नए घटनाक्रम और व्यक्तियों पर सिमट जाती है और जो लोग सत्ता-विरोध अथवा अन्य कारणों से पहले से जेलों में डाल गए हैं उनके चेहरे नागरिक स्मृतियों से गुम होने लगते हैं। हमें इस समय इस बात का ठीक से अनुमान भी नहीं होगा कि कितने नागरिक अथवा ‘कार्यकर्ता’ किन-किन आरोपों के तहत कहाँ-कहाँ बंद हैं और उनकी मौजूदा शारीरिक-मानसिक दशा कैसी है। अत: हम यहाँ चर्चा दिशा को संदर्भ बनाकर एक व्यापक विषय पर केंद्रित करना चाहते हैं!
क्या नागरिक स्तर पर ऐसी किसी आपसी बातचीत या अफवाह से इनकार किया जा सकता है कि अलग-अलग कारणों के चलते व्यवस्था या सरकार के प्रति नाराजगी रखने वाले वर्गों और समुदायों का दायरा बढ़ता ही जा रहा है। और यह भी कि ऐसे सभी लोग राष्ट्र-विरोधी अथवा देश-विरोधी गतिविधियों में संलग्न नहीं करार दिए जा सकते। सरकार को भी पता होगा ही कि मुखर विरोध व्यक्त करने का साहस दिखाने वाले लोगों के अलावा भी ऐसे नागरिकों की तादाद कहीं अधिक होगी जो सडक़ के दोनों तरफ भीड़ के बीच खड़े तो हैं पर वे न तो अपने हाथ ऊँचे करके अभिवादन कर रहे हैं और न ही मुस्कुरा रहे हैं।
अल्पसंख्यक मुसलमान, दलित, प्रवासी मजदूर, किसान, छोटे व्यापारी, आढ़तिये, ‘आंदोलनजीवी’, ‘बुद्धिजीवी’, बेरोजगार, आदि तो पहले से ही गिनती में थे। पूछा जा सकता है कि जिस ‘युवा मन’ की आँखों में ‘डिजिटल इंडिया’ के सपने काजल की तरह रोपे गए थे वे भी क्यों ‘नाराजियों’ की भीड़ में शामिल होने दिए रहे हैं ? जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ यूनिवर्सिटी, जामिया मिलिया, जाधवपर यूनिवर्सिटी, शांति निकेतन, बीएचयू आदि-क्या ये सारे कैम्पस अब उन युवाओं को तैयार नहीं कर रहे हैं जिनकी कि देश को सम्पन्न बनाने के लिए जरूरत है ? अगर ऐसा ही है तो वे तमाम प्रतिभाशाली भारतीय कहाँ से निकले होंगे जो इस समय दुनिया भर के मुल्कों में उच्च पदों पर आसीन होकर नाम भी कमा रहे हैं और हमारा विदेशी मुद्रा का भंडार भी बढ़ा रहे हैं? क्या अचानक ही कुछ हो गया है कि राष्ट्रभक्तों का उत्पादन करने वाले शैक्षणिक संयंत्र देशद्रोही उगलने लगे हैं?(ताजा संदर्भों में प्रधानमंत्री का यह कथन महत्वपूर्ण है कि दुनिया में जो आतंक और हिंसा फैला रहे हैं उनमें भी कई अत्यधिक कुशल, काफी प्रबुद्ध और उच्च-स्तरीय शिक्षा प्राप्त लोग हैं। दूसरी तरफ, ऐसे लोग हैं जो कोरोना महामारी से मुक्ति दिलाने के लिए अपनी जान की बाजी लगा देते हैं, प्रयोगशालाओं में जुटे रहते हैं।)
छह जनवरी को अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन में ट्रम्प-समर्थकों ने कैपिटल हिल पर जिस समय हिंसक हमला किया था उपराष्ट्रपति पेंस की उपस्थिति में चुनाव परिणामों की पुष्टि के लिए सीनेट की बैठक चल रही थी। हमला इतना हिंसक और आक्रोश भरा था कि पेंस सहित सभी सीनेटरों को जान बचाने के लिए सुरक्षित स्थानों पर शरण लेनी पड़ी थी। भारतीय भक्तों के लिए यह शोध का विषय हो सकता है कि अमेरिका के संसदीय इतिहास की इस सबसे शर्मनाक घटना के बाद कितने लोगों के खिलाफ देशद्रोह या राजद्रोह के मुक़दमे दायर किए गए हैं और हजारों हमलावरों में से कितने लोगों की अब तक गिरफ्तारियां हो चुकी हैं।
एक प्रजातांत्रिक व्यवस्था में अगर नागरिकों के शांतिपूर्ण तरीके से विरोध व्यक्त करने के अधिकार छीन लिए जाएँगे तो फिर साम्यवादी/तानाशाही देशों और हमारे बीच फर्क की सारी सीमाएँ समाप्त हो जाएँगी। एक प्रजातंत्र में नागरिक आंदोलनों से निपटने की सरकारी ‘टूलकिट’ भी प्रजातांत्रिक ही होनी चाहिए। ट्विटर, फेसबुक आदि लोकप्रिय सोशल मीडिया प्लेटफाम्र्स पर इस समय जो नकेलें कसी जा रही हैं उन्हें भी नागरिक आजादी पर बढ़ते जा रहे प्रतिबंधों के परिप्रेक्ष्य में ही देखा जाना चाहिए। यह मुद्दा अलग से चिंता का विषय हो सकता है कि आर्थिक विकास के आक्रामक प्रयासों के साथ-साथ प्रजातांत्रिक मूल्यों के ह्रास के जिस प्रयोग को अंजाम दिया जा रहा है वह अन्तरराष्ट्रीय जगत में हमारी इज्जत बढ़ा रहा है या नैतिक रूप से हमें कमजोर कर रहा है! निजीकरण केवल सार्वजनिक उपक्रमों का ही किया जा सकता है; सार्वजनिक प्रतिरोधों, संवेदनाओं और व्यथाओं का नहीं।
दिशा रवि पर आरोप है कि ‘टूलकिट’ को ग्रेटा थुंबर्ग के साथ साझा करने के पीछे मकसद किसान आंदोलन को विश्व स्तर पर खड़ा करके देश का माहौल बिगाडऩा था। सवाल यह है कि क्या दिशा या उनके कुछ साथियों की गिरफ्तारी के बाद आंदोलन का सर्वव्यापी होना रुक जाएगा?
अगर सरकार ऐसा मानकर चल रही है तो उसे अपने सारे सलाहकारों को बदल देना चाहिए। हकीकत यह है कि दुनिया की कोई भी ताक़त अभी तक कोई ऐसा ‘टूलकिट’ नहीं बना पाई है जो निहत्थे नागरिकों के अहिंसक प्रतिकार को विश्वव्यापी होने से रोक सके। सर्वशक्तिमान अंग्रेज भी गांधी के खिलाफ ऐसा नहीं कर पाए थे। किसान आंदोलन की आवाज को अहिंसक तरीके से दुनिया के कानों तक पहुँचने का दिशा रवि का प्रयास अगर देश के खिलाफ युद्ध छेडऩे की श्रेणी में आता है तो उन्हें सजा मिलनी ही चाहिए।
प्रियंका गांधी को संजीदगी से बताए जाने की ज़रूरत है कि जनता इस सम्मोहन से ‘लगभग’ बाहर आ चुकी है कि उसे उनमें अभी भी इंदिरा गांधी की छवि नज़र आती है। ‘लगभग’ शब्द का इस्तेमाल कांग्रेस नेत्री को इस शंका का लाभ देने की गरज से किया गया है कि चमत्कार तो किसी भी उम्र और मुहूर्त में दिखाए जा सकते हैं। ‘मौनी अमावस्या’ के पवित्र दिन प्रियंका प्रयागराज में थीं। भाई राहुल गांधी जिस समय हिंदुत्व की छवि के प्रतीक प्रधानमंत्री पर लोकसभा में हमले की तैयारी कर रहे थे, प्रियंका संगम में डुबकी लगाकर हिंदुत्व का स्नान कर रहीं थीं, भगवान सूर्य की पूजा कर उन्हें अर्ध्य दे रहीं थीं। हो सकता है कि प्रियंका ने शक्ति के प्रतीक सूर्य से प्रार्थना की हो कि निस्तेज पड़ी कांग्रेस में जान डालने का कोई उपाय बताएँ।
ट्रैजेडी यह है कि जिस समय नरेंद्र मोदी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के ज़रिए भाजपा को हिंदू हितों की संरक्षक पार्टी के रूप में प्रतिष्ठित करने के अभियान में जुटे थे, कांग्रेसी के नेता अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण की माँग कर उनके (प्रधानमंत्री के) हाथ और मज़बूत कर रहे थे। और अब, जब किसान आंदोलन ने साबित कर दिया है कि भाजपा का आक्रामक हिंदुत्व सिर्फ़ बीस-पच्चीस करोड़ मुसलमानों को ही डराने की सामर्थ्य रखता है, दो करोड़ सिखों को नहीं तो कांग्रेस के बड़े नेता संदेश देना चाह रहे हैं कि वे केवल निजी आस्थाओं में ही नहीं, सार्वजनिक जीवन में भी समर्पित हिंदू-सेवक और पक्के जनेऊधारी हैं।
भाजपा और संघ को किसी समय पूरा यक़ीन रहा होगा कि हिंदुत्व की विचारधारा और संगठन ने इतनी मज़बूती हासिल कर ली है कि राष्ट्रवादी सरकार के पक्ष में किसी भी बड़े से बड़े आंदोलन का मुक़ाबला किया जा सकता है। यह यक़ीन अब एक भ्रम साबित हो चुका है। वह इस मायने में कि ‘आंदोलनजीवियों’ का सारा जमावड़ा भाजपा के राजनीतिक आधिपत्य वाले राज्यों की ज़मीन पर ही हो रहा है और ग़ैर-भाजपाई दलों की सल्तनतों में सन्नाटा है। हरियाणा में तो मुख्यमंत्री अपने खुद के क्षेत्र में ही सम्मेलन करने नहीं पहुँच पाए! ‘आंदोलनजीवियों’ से मुक़ाबले के लिए प्रायोजित किए जाने वाले सारे सरकारी किसान आंदोलन फ़्लॉप हो गए। भाजपा को पता ही नहीं चल पाया कि उसकी सारी तैयारियाँ केवल राजनीतिक और धार्मिक आंदोलनों से निपटने तक ही सीमित हैं, उनमें ग़ैर-राजनीतिक जन-आंदोलनों से मुक़ाबले की कूवत बिलकुल नहीं है । सत्तारूढ़ दल को यह भी समझ में आ गया कि ईमानदार जन-आंदोलनों का साम्प्रदायिक विभाजन नहीं किया जा सकता।
प्रियंका गांधी ने काफ़ी ‘ना-नुकर’ के बाद ही कांग्रेस की सक्रिय राजनीति में भाग लेने का फ़ैसला लिया था। उन्होंने इस तरह का भ्रम या आभास उत्पन्न कर दिया था कि उनके प्रवेश के साथ ही कांग्रेस में सब कुछ बदल जाएगा, क्रांति आ जाएगी। पिछले लोक सभा चुनाव के समय संभावनाएं यह भी ज़ाहिर की गईं थीं कि वे प्रधानमंत्री के ख़िलाफ़ वाराणसी में नामांकन पत्र भरने का साहस दिखाएंगी। ऐसा नहीं हुआ। वे शायद पराजय की परम्परा के साथ अपनी राजनीति की शुरुआत नहीं करना चाहती थीं।प्रियंका के इनकार से दुखी हुए उनके प्रशंसकों का तब मानना था कि वाराणसी में हार से भी पार्टी में नए जोश का संचार हो जाता। उनकी हार से उपजी सहानुभूति प्रधानमंत्री की बड़ी जीत को भी छोटा कर देती।
जिस तरह देश में सार्वजनिक क्षेत्र में उद्योगों की स्थापना और उनके विस्तार का श्रेय कांग्रेस को दिया जाता है उसी तरह धार्मिक रूप से भी उसकी व्यापक पहचान धर्म-निरपेक्षता या सर्व धर्म समभाव को मानने वाली पार्टी के रूप में रही है। इस समय धर्म के क्षेत्र में जिस ‘हिंदुत्व’ को स्थापित किया जा रहा है उसकी औद्योगिक परिभाषा ‘प्रायवेट सेक्टर’ या ‘निजी क्षेत्र’ का विस्तार करने के रूप में समझी जा सकती है। सरकार धर्म और औद्योगिक क्षेत्र दोनों में ही यह कर रही है : सार्वजनिक क्षेत्र को सरकार निजी हाथों में बेच रही है और सर्व धर्म समभाव या धर्म निरपेक्षता का हिंदूकरण किया जा रहा है।
कांग्रेस का सार्वजनिक रूप से संगम स्नान इस ग़लतफ़हमी का शिकार हो सकता है कि प्रधानमंत्री बदलती हुई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों में भी केवल धर्म और भावनाएँ बाँटकर अपना काम चलाने वाले हैं। मोदी इस समय भाजपा को एक परिष्कृत कांग्रेसी संस्करण में परिवर्तित कर उसे सार्वदेशिक बनाने में जुटे हैं। भिन्न-भिन्न दलों से प्रतिभाशाली और वाचाल लोगों का राजनीतिक ‘अपहरण’ कर उनके गलों में भाजपा के प्रतीक चिन्ह लटका देना इसके ताज़ा उदाहरण हैं। मोदी के पास ताज़ा जानकारी यह भी है कि अभिन्न मित्र ट्रम्प का आक्रामक ‘सवर्ण राष्ट्रवाद’ तमाम प्रयत्नों और गोरी चमड़ी वाले समर्थकों की हिंसा के बावजूद एक समर्पित कैथोलिक ईसाई बायडन की अल्पसंख्यक धर्म निरपेक्षता के सामने अंततः कमजोर ही साबित हुआ। अमेरिका के ‘ब्लैक लाइव्ज़ मैटर’ को सिंघू बॉर्डर के किसान आंदोलन' में ढूँढा जा सकता है।
प्रयागराज के बाहर जिस महान भारत की आत्मा बसी हुई है वह इस समय किसान आंदोलन के समानांतर ही एक चुनौतीपूर्ण राजनीतिक अहिंसक आंदोलन की प्रतीक्षा कर रहा है। ऐसा इसलिए कि किसान आंदोलन अपने मंच पर कांग्रेस को राजनीतिक सवारी नहीं करने देगा। ऐसा हुआ भी तो उसका मंच कांग्रेस के बोझ से ही चरमरा जाएगा। किसानों के सामने इस वक्त चुनौती कांग्रेस की बंजर होती ज़मीन को खाद-पानी देने की नहीं बल्कि अपने ही लहलहाते खेतों की बचाने की है। हमें पता नहीं सूर्य को अर्ध्य देते समय प्रियंका ने कांग्रेस को किसी बड़े आंदोलन में परिवर्तित करने की प्रार्थना की थी या नहीं। गंगा में नौका विहार करने के बाद ख्यात कवि सोहनलाल द्विवेदी की कविता की दो पंक्तियाँ उन्होंने अवश्य ट्वीट की हैं ।पंक्तियों के अर्थ निकालने के लिए उनके कांग्रेसी भक्त स्वतंत्र हैं :’ लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती / कोशिश करने वालों की हार नहीं होती। प्रियंका जानती हैं कि गंगा प्रयागराज से ही मोक्षदायिनी नगरी काशी (वाराणसी) भी पहुँचती है।
कांग्रेस के तेईस बड़े नेताओं ने जब पार्टी में सामूहिक नेतृत्व के सवाल पर अस्पताल में इलाज करवा रहीं सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखी और चुपके से उसे मीडिया को जारी भी कर दिया तब दो चिंताएँ ही प्रमुखता से प्रचारित की गईं या करवाई गईं थीं। पहली यह कि नेतृत्व के मुद्दे को लेकर एक सौ छत्तीस साल पुरानी पार्टी में व्यापक असंतोष है। और दूसरी यह कि ‘गांधी-नेहरू परिवार’ पार्टी पर अपना आधिपत्य छोड़कर ‘सामूहिक नेतृत्व’ की माँग को मंज़ूर नहीं करना चाहता जिसके कारण कांग्रेस लगातार पराजयों का सामना करते हुए विनाश के मार्ग पर बढ़ रही है।
कथित तौर पर इन ‘ग़ैर-मैदानी’ और ‘राज्यसभाई’ नेताओं की सोनिया गांधी को लिखी गई चिट्ठी के बाद जिन तथ्यों का प्रचार नहीं होने दिया गया वे कुछ यूँ थे : पहला, इतने ‘परिवारवाद’ के बावजूद कांग्रेस में अभी भी इतना आंतरिक प्रजातंत्र तो है कि कोई इस तरह की चिट्ठी लिखने की हिम्मत कर सकता है और उसके बाद भी वह पार्टी में बना रह सकता है। इतना ही नहीं, बजट सत्र में पार्टी की तरफ़ से राज्यसभा में बोलने वालों में वे ग़ुलाम नबी आज़ाद और आनंद शर्मा भी शामिल थे जो सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखने वालों में प्रमुख थे।
दूसरा यह कि क्या ऐसी कोई आज़ादी दुनिया के सबसे बड़े राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी में उपलब्ध है ? उसके अनुमानित अठारह करोड़ सदस्यों में क्या कोई यह सवाल पूछने की हिम्मत कर सकता है कि पार्टी और सरकार हक़ीक़त में कैसे चल रही हैं ? क्या उस ‘परिवार’ की भी कोई भूमिका बची है जिसे यह देश बतौर ‘संघ परिवार’ जानता है ? कांग्रेस की तरह सत्तारूढ़ दल में भी क्या ‘सामूहिक नेतृत्व’ की माँग या उसकी कमी को लेकर कोई चिट्ठी कभी लिखी जा सकती है और फिर ऐसा व्यक्ति पार्टी की मुख्य धारा में बना भी रह सकता है ? लोगों को कुछ ऐसे नामों की जानकारी हो सकती है जिन्होंने कभी चिट्ठी लिखने का साहस किया होगा पर उनकी आज क्या स्थिति और हैसियत है, अधिकारपूर्वक नहीं बताया जा सकता।
क्या कोई पूछना चाहेगा कि एक सौ पैंतीस करोड़ देशवासियों के भविष्य से जुड़े फ़ैसले इस वक्त कौन या कितने लोग, किस तरह से ले रहे हैं ? हम शायद अपने आप से भी यह कहने में डर रहे होंगे कि देश इस समय केवल एक या दो व्यक्ति ही चला रहे हैं। संयोग से उपस्थित हुए इस कठिन कोरोना काल ने इन्हीं लोगों को सरकार और संसद बना दिया है। किसानों के पेट से जुड़े क़ानूनों को वापस लेने का निर्णय अब उस संसद को नहीं करना है जिसमें उन्हें विवादास्पद तरीक़े से पारित करवाया गया था बल्कि सिर्फ़ एक व्यक्ति की ‘हाँ’ से होना है। किसानों के प्रतिनिधिमंडल से बातचीत भी कोई अधिकार सम्पन्न समिति नहीं बल्कि एक ऐसा समूह करता रहा है जिसमें सिर्फ़ दो-तीन मंत्री हैं और बाक़ी ढेर सारे नौकरशाह अफ़सर।
कोई सवाल नहीं करना चाहता कि इस समय बड़े-बड़े फ़ैसलों की असली ‘लोकेशन’ कहाँ है ! देश को सार्वजनिक क्षेत्र के मुनाफ़ा कमाने वाले उपक्रमों की ज़रूरत है या नहीं और उन्हें रखना चाहिए अथवा उनसे सरकार को मुक्त हो जाना चाहिए, इसकी जानकारी बजट के ज़रिए बाद में मिलती है और संकेत कोई बड़ा पूर्व नौकरशाह पहले दे देता है। हो सकता है आगे चलकर यह भी बताया जाए कि राष्ट्र की सम्पन्नता के लिए सरकार को अब कितने और किस तरह के नागरिकों की ज़रूरत बची है। किसान कांट्रेक्ट पर खेती के क़ानूनी प्रावधान के ख़िलाफ़ आंदोलन कर रहे हैं और सरकार में वरिष्ठ पदों पर नौकरशाहों की कांट्रेक्ट पर भरती हो रही है। फ़ैसलों की कमान अफ़सरशाही के हाथों में पहुँच रही है और वरिष्ठ नेता हाथ जोड़े खड़े ‘भारत माता की जय’ के नारे लगा रहे हैं।
स्वर्गीय ज्ञानी ज़ैल सिंह ने वर्ष 1982 में राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी के सिलसिले में कथित तौर पर इतना भर कह दिया था : ’मैं अपनी नेता का हर आदेश मानता हूँ। अगर इंदिरा जी कहेंगीं तो मैं झाड़ू उठाकर सफ़ाई भी करूँगा', और देश में तब के विपक्ष ने बवाल मचा दिया था। आज खुलेआम व्यक्ति-पूजा की होड़ मची है जिसमें न्यायपालिका की कतिपय हस्तियाँ भी शामिल हो रही हैं।
माहौल यह है कि हरेक आदमी या तो डरा हुआ है या फिर डरने के लिए अपने आपको राज़ी कर रहा है। इसमें सभी शामिल हैं यानी सभी राजनीतिक कार्यकर्ता, नौकरशाह, मीडिया के बचे हुए लोग, व्यापारी, उद्योगपति, फ़िल्म इंडस्ट्री। और, अगर सोमवार को संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर प्रधानमंत्री का उदबोधन सुना गया हो तो, तमाम ‘आंदोलनजीवी’ और ‘परजीवी’भी। संभवतः देश के सकल घरेलू उत्पाद यानी जी डी पी में वृद्धि की ‘दर’ को इसी ‘डर’ के बूते दो अंकों में पहुंचाया जाएगा।
पुरानी भारतीय फ़िल्मों में एक ऐसी माँ का किरदार अक्सर शामिल रहता था जो अचानक प्राप्त हुए किसी सदमें के कारण जड़ हो जाती है, कुछ बोलती ही नहीं। डॉक्टर बुलाया जाता है। वह नायक को घर के कोने में ले जाकर सलाह देता है,: ‘इन्हें कोई बड़ा सदमा पहुँचाहै। इन्हें दवा की ज़रूरत नहीं है, बस किसी तरह रुला दीजिए। ये ठीक भी हो जाएँगी और बोलने भी लगेंगीं ‘! देश भी इस समय जड़ और किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया है। उसे भी ठीक से रुलाए जाने की ज़रूरत है जिससे कि बोलने लगे। दिक़्क़त यह है कि देश की फ़िल्म में नायक और डॉक्टर दोनों ही नदारद हैं।
देश को डराने की पहली जरूरत यही हो सकती है कि सबसे पहले उस मीडिया को डराया जाए जो अभी भी सत्ता की वफ़ादारी निभाने से इनकार कर रहा है ! सीनियर सम्पादकों के ख़िलाफ़ मुक़दमों के साथ-साथ युवा फ़्रीलान्स पत्रकारों की गिरफ़्तारी आने वाले दिनों का वैसा ही ‘मीडिया सर्वेक्षण’ है जैसा कि बजट के पहले ‘आर्थिक सर्वेक्षण’ पेश किया जाता है। यह ‘आपातकाल’ से भी आगे वाली ही कुछ बात नज़र आती है। विडम्बना है कि हाल-फ़िलहाल तक तो किसान आंदोलन को मीडिया के सहारे की ज़रूरत थी,अब मीडिया को ही उसके नैतिक समर्थन की ज़रूरत पड़ गई है।
सरकार ने अपने मंत्रालयों के दरवाज़े पत्रकारों के लिए काफ़ी पहले इसलिए ‘बंद’ कर दिए थे कि वे वहाँ से खबरें ढूँढकर जनता तक नहीं पहुँचा पाएँ। इसकी शुरुआत निर्मला सीतारमण के वित्त मंत्रालय से हुई थी। अब, जब पत्रकार सड़कों से भी खबरें ढूँड़ कर लोगों तक पहुँचा रहे हैं, उन्हें ही ‘बंद’ किया जा रहा है। जनता समझ ही नहीं पा रही है कि हक़ीक़त में कौन किससे डर रहा है !
देश में जैसे लोकतंत्र की ‘ज़रूरत से ज़्यादा’ उपलब्धता को लेकर सवाल खड़े किए जा रहे हैं वैसा ही कुछ-कुछ मीडिया को उपलब्ध ‘ज़्यादा आज़ादी’ के संदर्भ में भी चल रहा है। माना जा रहा है कि सरकार को अपने आर्थिक सुधारों को एक-दलीय व्यवस्था वाले चीन के मुक़ाबले तेज़ी से लागू करने के लिए स्वतंत्र मीडिया की ज़रूरत ही नहीं है। गौर किया जा सकता है कि कोरोना से बचाव के सिलसिले में प्राथमिकता के आधार पर जिन्हें ‘फ़्रंट लाइन वारियर्स’ मानकर टीके लगाए जा रहे हैं उनमें मीडिया के लोग शामिल नहीं हैं। शायद मान लिया गया है कि वे तो देश और सरकार के लिए वैसे ही अपनी जानें क़ुर्बान करने के लिए होड़ में लगे रहते हैं।
नागरिक समाज में लोग जो धृतराष्ट्र की भूमिका में उपस्थित हैं वे भी बिना किसी संजय की मदद के देख पा रहे हैं कि ‘मेन स्ट्रीम' या ‘मुख्य धारा’ के लगभग सम्पूर्ण ‘हाथी मीडिया’ पर इस समय व्यवस्था के महावत ही क़ाबिज़ हैं। परिणाम यह हो यह रहा है कि इस ‘हाथी मीडिया’ की ‘ब्रेकिंग’ या ‘एक्सक्लूसिव न्यूज़’ को भी दर्शक और पाठक ‘एक और सरकारी घोषणा’ की तरह ही अविश्वसनीय मानकर ख़ारिज करते जा रहे हैं। यही वह मीडिया भी है जो उच्च पदों पर आसीन बड़े-बड़े लोगों की आम जनता के बीच लोकप्रियता के ‘ओपीनियन पोल्स’ और चुनावों की स्थिति में उसके कारण मिल सकने वाली सीटों की अतिरंजित भविष्यवाणियाँ मतदाताओं में बाँटकर सत्ताओं के पक्ष में माहौल तैयार करता नहीं थकता।
इस सबके बीच भी सांत्वना देने वाली बात यह है कि कुछ पत्रकार अभी भी हैं जो तमाम अवरोधों और व्यवधानों के बावजूद मीडिया की आज़ादी के लिए काम कर पा रहे हैं। चीजों का अभी साम्यवादी मुल्कों की तरह क्रूरता और दमन के शिखरों तक पहुँचना बाक़ी है।हो यह रहा है कि खेती की ज़मीन को बचाने की लड़ाई का नेतृत्व अब जिस तरह से छोटे किसान कर रहे हैं, मीडिया की ज़मीन को बचाने की लड़ाई भी छोटे और सीमित संसाधनों वाले पत्रकार ही कर रहे हैं। ये ही वे पत्रकार हैं जिन्हें छोटी-छोटी जगहों पर सबसे ज़्यादा अपमान, तिरस्कार और सरकारी दमन का शिकार होना पड़ता है। हत्याएँ भी इन्हीं की होती हैं।
किसान ‘कांट्रेक्ट फ़ार्मिंग’ से लड़ रहे हैं और पत्रकार ‘कांट्रेक्ट जर्नलिज़्म’ से। व्यवस्था ने हाथियों पर तो क़ाबू पा लिया है पर वह चींटियों से डर रही है। ये पत्रकार अपना काम उस सोशल मीडिया की मदद से कर रहे हैं जिसके माध्यम से ट्यूनिशिया और मिस्र सहित दुनिया के कई देशों में बड़े अहिंसक परिवर्तन हो चुके हैं। पर डर यह है कि सोशल मीडिया भी प्रतिबंधों की मार से कब तक बचा रहेगा ! गृह मंत्रालय और क़ानून प्रवर्तन एजेंसियों की माँग पर ट्विटर ने हाल ही में कोई ढाई सौ अकाउंट्स पर रोक लगा दी है। बताया गया है कि इन अकाउंट्स को बंद करने की माँग किसान आंदोलन के चलते क़ानून-व्यवस्था की स्थिति न बिगड़ने देने के प्रयासों के तहत की गई थी।इसी आधार पर आगे चलकर और भी बहुत कुछ बंद करवाया जा सकता है।
प्रधानमंत्री के ‘एक फ़ोन कॉल की दूरी' के आमंत्रण के ठीक बाद ही सिंधू, ग़ाज़ीपुर, टिकरी बार्डर्स पर किसानों के राजधानी में प्रवेश को रोकने के लिए दीवारें खड़ी कर दी गईं हैं। सड़कों की छातियों को नुकीले कीलों से छलनी कर दिया गया है। तो क्या अब खबरें भी इन प्रतिबंधों के ताबूतों में क़ैद हो जाएँगी? शायद नहीं ! अब तो युवा पत्रकार मनदीप पूनिया भी जमानत पर बाहर आ गया है। सरकार दीवारें कहाँ-कहाँ खड़ी करेगी ? लोकतंत्र की सड़क भी बहुत लम्बी है। कीलें ही कम पड़ जाएँगी। सरकार खुद की नब्ज पर अपने ही हाथ को रखे हुए ऐसा मान रही है कि देश की धड़कनें ठीक से चल रही है और सब कुछ सामान्य है। हक़ीक़त में ऐसा नहीं है। इंदिरा गांधी ने भी बस यही गलती की थी पर उसे सिर्फ़ अट्ठारह महीने और तीन सप्ताह में दुरुस्त कर लिया था। अभी तो सात साल पूरे होने जा रहे हैं ! ‘जन-जन के बीच’ की जिस दीवार को बर्लिन की दीवार की तरह ढहा देने की बात प्रधानमंत्री ने सवा दो साल पहले ‘गुरु पर्व' के अवसर पर कही थी वह तो अब और ऊँची की जा रही है!
अमेरिका में हुए उलट-फेर पर भारत के सत्ता प्रतिष्ठान का पूरी तरह से सहज होना अभी बाक़ी है। किसान आंदोलन के हो-हल्ले में इस ओर ध्यान ही नहीं दिया गया कि बाइडन की उपलब्धि पर भाजपा और संघ सहित राष्ट्रवादी संगठनों की तरफ़ से कोई उत्साहपूर्ण प्रतिक्रिया नहीं हुई है। संदेश ऐसा गया जैसे अमेरिका में वोटों की गिनती अभी पूरी ही नहीं हुई है। ऐसे मौक़ों पर मुखर रहने वाले लोगों के एक बड़े तबके ने भी, जिसमें विदेशी मामलों पर सबसे पहले प्रतिक्रिया देने वाले बुद्धिजीवी शामिल हैं, सन्नाटे का मास्क ताने रखा। माहौल कुछ ऐसा है जैसे तमाम पूजा-पाठों और हवन-यज्ञों के बावजूद अमेरिका में कोई अनहोनी घट गई जिसके कारण आने वाले सालों के लिए पहले से तय खेलों के मंडप बिगड़ गए हैं।
क्या आश्चर्यजनक नहीं लगता कि महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में घटी एक ऐसी अंतरराष्ट्रीय घटना, जिसकी जड़ें ‘भारत माता’ के चरणों की मिट्टी से सनी हैं, को लेकर भी न तो अयोध्या में दीये जलाए गए और न ही नागपुर में कोई आतिशबाजी की गई? दो सौ से अधिक वर्षों के अमेरिकी संसदीय इतिहास में पहली बार एक महिला और भारतीय मूल की विद्वान मां की प्रतिभावान अश्वेत बेटी कमला हैरिस के उप-राष्ट्रपति पद की शपथ लेने को भी किसी अन्य मुल्क का अंदरूनी मामला होने जैसा मानकर निपटा दिया गया।
बाइडन के व्हाइट हाउस में प्रवेश को लेकर भारत का सत्ता प्रतिष्ठान अंतरराष्ट्रीय राजनीति की ज़रूरतों के मान से कुछ ज़्यादा ही चौकन्ना हो गया लगता है। 'अबकी बार, ट्रम्प सरकार’ के दूध से जली नई दिल्ली की कूटनीति अब ठंडी छाछ को भी फूंक-फूंककर पी रही है। संदेश ऐसा जा रहा है कि अमेरिकी प्रजातंत्र के जीवन में उपस्थित हुए महान क्षण का भारतीय गणतंत्र के लिए भी बड़ा अवसर बनना न सिर्फ़ शेष है बल्कि वह और दूर खिसक गया है। जिस तरह अमेरिकी नागरिक दो भागों में बंटकर ट्रम्प की वापसी की आशंकाओं से डरे-सहमे हुए हैं, शायद उसी तरह नई दिल्ली का साउथ ब्लॉक (विदेश मंत्रालय) भी चौकन्ना नज़र आ रहा है !
संयोग कुछ ऐसा रहा कि जनसंघ-भाजपा के नेताओं को डेमोक्रेटिक राष्ट्रपतियों के साथ काम करने के अवसर रिपब्लिकन ट्रम्प के मुक़ाबले कम अवधि के मिले और उनकी स्मृतियाँ भी मधुर नहीं रहीं। अटलजी के जनता पार्टी शासन (1977-1979) में विदेश मंत्री बनने के केवल दो माह पूर्व ही जिम्मी कार्टर (डेमोक्रेटिक) राष्ट्रपति बने थे। जनता पार्टी सरकार ही लम्बी नहीं चल पायी और अपने अंतर्विरोधों के चलते अट्ठाईस महीनों में ही गिर गई। अटलजी के प्रधानमंत्रित्व (1998-2004) में पहले क्लिंटन (डेमोक्रेटिक) और फिर बुश (रिपब्लिकन) वहाँ राष्ट्रपति रहे। क्लिंटन की मार्च 2000 में भारत यात्रा की पूर्व संध्या पर कश्मीर में अनंतनाग ज़िले के छत्तीसिंहपुरा गाँव में जघन्य सिख हत्याकांड हो गया। बुश के कार्यकाल के दौरान फ़रवरी 2002 में गुजरात में गोधरा कांड हो गया। तब नरेंद्र मोदी गुजरात में मुख्यमंत्री थे। भाजपा के किसी राष्ट्रीय नायक का सबसे लम्बा सफ़र मोदी के रूप मे रिपब्लिकन पार्टी के ट्रम्प के साथ ही गुज़रा है और अधिकांश मुद्दों पर दोनों नेताओं के बीच कमोबेश सहमति भी रही।
बराक ओबामा(डेमोक्रेटिक) के कार्यकाल में मोदी ने दो साल से कुछ अधिक तक उनसे मित्रता निभाई पर उस दौरान उल्लेखनीय कुछ भी नहीं हुआ। जब जनवरी, 2015 में ओबामा भारत यात्रा पर आए तब मोदी को दिल्ली पहुँचे साल भर भी नहीं हुआ था। अपनी यात्रा की समाप्ति के बाद सऊदी अरब रवाना होते समय ओबामा ने अपनी इस अपील से सनसनी पैदा कर दी कि-‘एक ऐसे देश में, जहां हिंदुओं और अल्पसंख्यकों में संघर्ष का इतिहास रहा हो, धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा की जानी चाहिए।’ ओबामा ने इसे भारत का संवैधानिक दायित्व भी निरूपित किया। राष्ट्रपति पद छोड़ने के दो वर्ष बाद (2017) जब ओबामा एक मीडिया हाउस के कार्यक्रम में भाग लेने भारत आए तो फिर कह गए-‘भारत के लिए ज़रूरी है कि वह अपनी मुस्लिम आबादी का ठीक से ख़याल रखे। यह आबादी भारत में एकाकार हो चुकी है और अपने आपको भारतीय ही मानती है।’
आश्चर्य नहीं अगर बाइडन के पदारोहण को नई दिल्ली में ओबामा की ही वैचारिक वापसी के रूप में देखा जा रहा हो। याद रहे कि ओबामा ने बाइडन के चुनाव प्रचार में पूरा ज़ोर लगा दिया था और बाइडन ने भी ओबामा के कई सहयोगियों को अपनी टीम में शामिल किया है। दूसरी ओर, कमला हैरिस को भी मानवाधिकारों के मामलों में वामपंथी विचारों की पोषक और पाकिस्तान के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रुख़ रखने वाली नेता समझा जाता है। सब कुछ ठीक चले तो यह भी मुमकिन है कि बाइडन राष्ट्रपति पद के दूसरे कार्यकाल की अपनी दावेदारी छोड़ दें और हैरिस को ही राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ने का मौका दे दें।
बाइडन ने राष्ट्रपति का पद सम्भालने के बाद पहले फ़ोन कॉल्स अपने उन दो पड़ौसी देशों (कनाडा और मेक्सिको) के प्रमुखों को किए जिनके साथ ट्रम्प के रिश्ते ज़्यादा मधुर नहीं थे। भारत समेत दुनिया के बाक़ी राष्ट्र भी प्रतीक्षा में होंगे। ओबामा ने 2009 में राष्ट्रपति बनने के बाद डॉ.मनमोहन सिंह को अपने पहले राजकीय अतिथि के रूप में वाशिंगटन आमंत्रित किया था। देखना दिलचस्प होगा कि कोरोना पर क़ाबू पा लेने के बाद अमेरिका और भारत दोनों ही देशों में पहला विदेशी मेहमान कौन बनता है !
डोनाल्ड ट्रम्प भारत की राजनीति को एक ऐसे स्वप्नलोक की यात्रा पर ले जा रहे थे जिसमें केवल स्वर्ग की सम्पन्नता के ही नज़ारे थे ; ख़ाली जगहें सिर्फ़ देशों, समाजों और नागरिकों के बीच दीवारें खड़ी करने के उपयोग के लिए सुरक्षित थीं। इसीलिए ट्रम्प ने वाशिंगटन छोड़ने के पहले आख़िरी यात्रा उस दीवार को देखने के लिए टेक्सास राज्य की की जिसे वे मेक्सिको के नागरिकों को अमेरिका में प्रवेश से रोकने के लिए बनवा रहे थे। बाइडन ने अपना काम सम्भालने के पहले ही दिन ट्रम्प प्रशासन के जिन तमाम बड़े फ़ैसलों को उलटा उनमें उक्त दीवार का काम रोकना भी शामिल है। बाइडन ने दीवारों को गिराने का काम अभी अमेरिका में ही शुरू किया है और आश्चर्य है कि उसके मलबे के कतरे इतनी दूर भी आँखों में चुभ रहे हैं।
दो महीने से चल रहे किसान आंदोलन को अब कहाँ के लिए किस रूट पर आगे चलना चाहिए? छह महीने के राशन-पानी और चलित चोके-चक्की की तैयारी के साथ राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर पहुँचे किसान अपने धैर्य की पहली सरकारी परीक्षा में ही असफल हो गए हैं ,क्या ऐसा मान लिया जाए? लगभग टूटे हुए मनोबल और अनसोची हिंसा के अपराध-भाव से ग्रसित किसानों के पैर क्या अब एक फ़रवरी को संसद की तरफ़ उत्साह के साथ बढ़ पाएँगे? या बढ़ने दिए जाएँगे?
जैसी कि आशंका थी, चीजें दिल्ली की फेरी लगाकर वापस सुप्रीम कोर्ट के दरवाज़े पहुँच गई हैं। सरकार के लिए ऐसा होना ज़रूरी भी हो गया था। दोनों पक्षों के बीच बातचीत की तारीख़ अब अदालत की तारीख़ों में बदल सकती है। तो आगे क्या होने वाला है ? सरकार ऊपरी तौर पर सफल होती हुई ‘दिख’ रही है। पर यह ‘दृष्टि-भ्रम’ भी हो सकता है। किसान असफल होते ‘नज़र’ आ रहे हैं। यह भी एक ‘तात्कालिक भ्रांति’ हो सकती है। असली हालात दोनों ही स्थितियों के बीच कहीं ठहरे हुए हैं।
सरकारें हमेशा ही जनता से ज़्यादा चतुर, आत्मनिर्भर और दूरदृष्टि वाली होती हैं। इसलिए वर्तमान स्थिति में सरकार यही मानकर चल रही होगी कि केवल एक रणनीतिक चूक के चलते ही किसान अपना आंदोलन बिना किसी नतीजे के ख़त्म नहीं करने वाले हैं। नतीजा भी किसानों को स्वीकार होना चाहिए।सरकार के ‘स्वीकार्य’ का किसानों को पता है। छब्बीस जनवरी के बाद फ़र्क़ केवल इतना हुआ है कि समस्या के निराकरण की तारीख़ आगे खिसक गई है। ’गणतंत्र दिवस’ की घटना के काले सायों ने ‘स्वतंत्रता दिवस’ के पहरों को ज़्यादा ताकतवर बना दिया है।
किसान जानते हैं कि जाँचें अब उनके सत्तर साथियों की मौतों को लेकर नहीं बल्कि 86 पुलिसकर्मियों के घायल होने को लेकर ही बैठाईं जाने वाली हैं। और, अगर किसी ने बताया हो तो, यह भी कि किसानों को अपने आगे के संघर्ष के साथियों और सारथियों का उसी तरह से चयन करना पड़ेगा जैसा प्रयोग महात्मा गांधी ने कोई सौ साल पहले किया था।
पाँच फ़रवरी 1922 को उत्तर प्रदेश के चौरी चोरा नामक स्थान पर गांधी जी के ‘असहयोग आंदोलन’ में भाग लेने वाले प्रदर्शनकारियों के एक बड़े समूह से पुलिसकर्मियों की भिड़ंत हो गई थी। जवाबी कार्रवाई में प्रदर्शनकारियों ने एक पुलिस चौकी में आग लगा दी थी जिसके कारण बाईस पुलिसकर्मी और तीन नागरिक मारे गए थे।हिंसा की इस घटना से व्यथित होकर गांधी जी ने अपने ‘असहयोग आंदोलन’ को रोक दिया था।पर उन्होंने अपनी माँगों को लेकर किए जा रहे संघर्ष पर विराम नहीं लगाया; उसमें बड़ा संशोधन कर दिया।
गांधी ने अपनी रणनीति पर विचार पुनर्विचार किया। ’नमक सत्याग्रह’ (1930) के सिलसिले में उन्होंने अहमदाबाद स्थित साबरमती आश्रम से चौबीस दिनों के लिए 378 किलो मीटर दूर दांडी तक यात्रा निकाली तो उसमें सिर्फ़ अस्सी अहिंसक सत्याग्रही थे। एक-एक व्यक्ति का चयन गांधी ने स्वयं किया और उसमें समूचे भारत का प्रतिनिधित्व था। ज़्यादातर सत्याग्रहियों की उम्र सोलह से पच्चीस वर्ष के बीच थी। इसीलिए जब गांधी ने दांडी पहुँचकर नमक का कानून तोड़ा तो समूची अंग्रेज़ी हुकूमत हिल गई।
किसान आंदोलन को तय करना होगा कि उसकी अगली ‘यात्रा’ में कितने और कौन लोग मार्च करने वाले हैं ! उनका नेतृत्व और उन्हें चुनने का काम कौन करने वाला है? गांधी चाहते तो उनके दांडी मार्च में केवल अस्सी के बजाय अस्सी हज़ार लोग भी हो सकते थे। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। सबसे बड़ा सवाल अब यह है कि आंदोलनकारियों के बीच ऐसा ‘गांधी’ कौन है जिसका कि कहा सभी किसान मानने वाले हैं ? क्या कोई दिखाई पड़ रहा है?
अभी अंतिम रूप से स्थापित होना बाक़ी है कि डॉनल्ड ट्रम्प हक़ीक़त में भी राष्ट्रपति पद का चुनाव हार गए हैं। इस सत्य की स्थापना में समय भी लग सकता है जो कि वैधानिक तौर पर निर्वाचित बायडन के चार वर्षों का कार्यकाल 2024 में ख़त्म होने तक जारी रह सकता है।संयोग से भारत में भी उसी साल नई लोकसभा के चुनाव होने हैं और मुमकिन है तब तक हमारी राजधानी के ‘रायसीना हिल्स’ इलाक़े में नए संसद भवन की भव्य इमारत बनकर तैयार हो जाए।ट्रम्प अभी सिर्फ़ सत्ता के हस्तांतरण के लिए राज़ी हुए हैं ,बायडन को अपनी पराजय सौंपने के लिए नहीं।ट्रम्प अपनी लड़ाई यह मानते हुए जारी रखना चाहते हैं कि उनकी हार नहीं हुई है बल्कि उनकी जीत पर डाका डाला गया है।मुसीबतों के दौरान ख़ुफ़िया बंकरों में पनाह लेने वाले तानाशाह अपनी पराजय को अंत तक स्वीकार नहीं करते हैं।
वर्ष 2020 के आख़िर में हुए अमेरिकी चुनावों को दुनिया भर में दशकों तक याद रखा जाएगा।वह इसलिए कि ऐसा पहली बार हो रहा है जब हारने वाला व्यक्ति अपने करोड़ों समर्थकों के लिए एक ‘पूर्व राष्ट्रपति’ नहीं बल्कि एक ‘विचार’ बनने जा रहा है।कल्पना करना कठिन नहीं कि एक हारने वाला उम्मीदवार अगर अपने हिंसक समर्थकों की ताक़त पर देश की संसद को बंधक बना लेने की क्षमता रखता है तो हक़ीक़त में भी जीत जाने पर दुनिया की प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं को वह किस तरह की आर्थिक ग़ुलामी में धकेल सकता था।
ट्रम्प ने पहला ऐसा राष्ट्रपति बनने का दर्जा हासिल कर लिया जिसने दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति को ‘विचारपूर्वक’ दो फाड़ कर दिया। ट्रम्प ने अमेरिका में ही अपने लिए एक नए देश का निर्माण कर लिया—उस अमेरिका से सर्वथा भिन्न जिसकी 528 साल पहले खोज वास्तव में तो भारत की तलाश में समुद्री मार्ग से निकले क्रिस्टोफ़र कोलंबस ने की थी। ट्रम्प की हार का बड़ा कारण यह बन गया कि उनके सपनों के अमेरिका में जगह सिर्फ़ गोरे सवर्णों के लिए ही सुरक्षित थी।उनके सोच में अश्वेतों, मुस्लिमों, ग़रीबों, महिलाओं ,नागरिक अधिकारों और मानवीय उत्पीड़न के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी।
ट्रम्प ने अपने राष्ट्रवाद के नारे को राजनीतिक उत्तेजना के इतने ऊँचे शिखर पर प्रतिष्ठित कर दिया है कि किन्ही कमज़ोर क्षणों में वे उससे अगर अपने को आज़ाद भी करना चाहेंगे तो उनके भक्त समर्थक ऐसा नहीं होने देंगे।इसीलिए अमेरिकी प्रशासन में इस समय सबसे ज़्यादा ख़ौफ़ इस आशंका को लेकर व्यक्त किया जा रहा है कि अपने शेष बचे बारह दिनों के बीच निवृत्तमान राष्ट्रपति कोई ऐसा कदम नहीं उठा लें जो देश की सुरक्षा को ही ख़तरे में डाल दे। इन आशंकाओं में उनके हाथ परमाणु बटन पर चले जाना भी शामिल है।
ट्रम्प अगर मानकर चल रहे थे कि उनका विजयी होना तय है तो उसमें अतिशयोक्तिपूर्ण कुछ भी नहीं था।अमेरिका में बसने वाले कोई पचास लाख भारतीयों में अधिकांश की गिनती हार-जीत का ठीक से अनुमान लगाने वालों में की जाती है।ये अप्रवासी भारतीय अगर ट्रम्प की जीत के प्रति आश्वस्त नहीं होते तो देश के अड़तालीस राज्यों से पचास हज़ार की संख्या में ह्यूस्टन पहुँचकर ‘अबकी बार ,फिर से ट्रम्प सरकार ‘ का नारा लगाने की जोखिम नहीं मोल लेते।उप राष्ट्रपति पद के लिए कमला हैरिस के नाम की घोषणा होने के पहले तक तो डेमोक्रेटिक पार्टी भी बायडन की उम्मीदवारी को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त नहीं थी।
ट्रम्प की विजय सुनिश्चित थी अगर वे अपने प्रथम कार्यकाल में ही सभी लोगों को एकसाथ दुश्मन नहीं बना लेते। कुछेक लोगों और संस्थाओं को दूसरे कार्यकाल के लिए सुरक्षित रख लेते ; फिर से सत्ता में आने तक के लिए बचा लेते।सत्ता में आते ही उन्होंने ‘वैश्वीकरण’ का मज़ाक़ उड़ाते हुए ‘राष्ट्रवाद’ को अमेरिका का भविष्य घोषित कर दिया।जनता ने तालियाँ बजाते हुए स्वीकार कर लिया।अमेरिकियों के रोज़गार को बचाने के लिए उनके वीज़ा प्रतिबंधों का भी किसी ने विरोध नहीं किया।अवैध तरीक़ों से अमेरिका में प्रवेश करने वालों के लिए मेक्सिको के साथ सीमा पर दीवार खड़ी करने को भी मंज़ूरी मिल गई।कुछ मुस्लिम देशों के लोगों के अमेरिका आने पर लगी रोक का भी आतंकी हमले की स्मृति में जनता द्वारा स्वागत कर दिया गया।
पर हरेक तानाशाह की तरह ट्रम्प भी अपने अतिरंजित आत्म-विश्वास के चलते ग़लतियाँ कर बैठे।वे पूर्व राष्ट्रपति ओबामा की ग़रीबों को मदद करने वाली ‘हेल्थ केयर योजना’ पर ताला लगाने में जुट गए ; देश के मीडिया को निरकुंश तरीक़े से तबाह करने लगे ;चुनावी साल होने के बावजूद क्रूरतापूर्ण तरीक़े से बर्दाश्त कर लिया कि किस तरह एक गोरे पुलिस अफ़सर ने बिना किसी अपराध के एक अश्वेत नागरिक की गर्दन को अपने घुटने के नीचे आठ मिनट से ज़्यादा तब तक दबाकर रखा जब तक कि उसकी मौत नहीं हो गई ।और उसके बाद उठे अश्वेत नागरिकों के देशव्यापी आंदोलन से उभरे क्रोध ने ट्रम्प को ‘व्हाइट हाउस’ में ज़मीन के भीतर बने बंकर में मुँह छुपाने के लिए बाध्य कर दिया।इतना ही नहीं, अपनी जीत के प्रति पूरी तरह से निश्चिंत राष्ट्रपति ने कोरोना से बचाव के सिलसिले में लाखों लोगों की जान की भी कोई परवाह नहीं की।वे अपने समर्थकों को मास्क न पहनने और किसी भी तरह के अनुशासन का पालन न करने के लिए भड़काते रहे।कहा जा सकता है कि ट्रम्प ने अपने ही समर्थकों को हरा दिया।
अमेरिका की प्रजातांत्रिक संस्थाएं और दुनिया के बचे-ख़ुचे प्रजातंत्र इसे अपने लिए तात्कालिक तौर पर सौभाग्य का विषय मान सकते हैं कि ट्रम्प जिस राष्ट्रवाद की स्थापना करना चाहते थे वह हिटलर के जर्मनी की तरह संगठित नहीं था।ट्रम्प के राष्ट्रवाद की अंदर की परतों में छुपी हुई हिंसा का ‘कैपिटल हिल’ पर हमले के रूप में शर्मिंदगीपूर्ण तरीक़े से दुनिया की आँखों के सामने विस्फोट हो गया।इस विस्फोट ने न सिर्फ़ आम अमेरिकी नागरिक को बल्कि ट्रम्प की पार्टी के लोगों को भी हिलाकर रख दिया।
ट्रम्प को बायडन के लिए विशाल ‘व्हाइट हाउस’ अंततः ख़ाली करना पड़ेगा।वे उसके बाद कहाँ रहने जाएँगे किसी को कोई जानकारी नहीं है ।पर वे जहां भी जाएँगे अपने लिए कोई न कोई बंकर ज़रूर तलाश कर लेंगे।पर तब तक के लिए तो दुनिया को अपनी साँसे रोककर ‘एक बीमार’ राष्ट्रपति के आख़िरी कदम की प्रतीक्षा करनी ही पड़ेगी।
कोई चालीस दिनों से देश के एक कोने में चल रहे आंदोलन, कड़कती ठंड के बीच भी किसानों, महिलाओं और बच्चों की मौजूदगी, अश्रु गैस के गोले और पानी की बौछारें, हरेक दिन हो रही एक-दो मौतें और इतने सब के बावजूद सरकार की अपने ही नागरिकों की बात नहीं मानने की हठधर्मी और अहंकारी-आत्मविश्वास के पीछे कारण क्या हो सकते हैं?
पहला कारण तो सरकार का यह मानना हो सकता है कि गलती हमेशा नागरिक करता है, हुकूमतें नहीं। दूसरा यह कि जनता सब कुछ स्वीकार करने के लिए बाध्य है। वह कोई विरोध नहीं करती ऐसी ही उसे उसके पूर्व-अनुभवों की सीख भी है। नोटबंदी, आपातकाल की तरह ही, राष्ट्र के नाम एक संदेश के साथ आठ नवम्बर 2016 को लागू कर दी गई थी ।तब के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बाद में दावा किया कि सिर्फ़ तीन बैंक कर्मियों और एक ग्राहक समेत कुल चार लोगों की इस दौरान मौतें हुईं। विपक्ष ने नब्बे से ज़्यादा लोगों की गिनती बताई। करोड़ों लोगों ने तरह-तरह के कष्ट और अपमान चुपचाप सह लिए। सरकार की आत्मा पर कोई असर नहीं हुआ। उसका सीना और चौड़ा हो गया।
कोरोना के बाद देश भर में अचानक से लॉक डाउन घोषित कर दिया गया। लाखों प्रवासी मज़दूरों को भूखे-प्यासे और पैदल ही अपने घरों की तरफ़ निकलना पड़ा। वे रास्ते भर लाठियाँ खाते रहे, अपमान बर्दाश्त करते रहे। सरकार के ख़िलाफ़ कहीं कोई नाराज़गी नहीं ज़ाहिर हुई। सरकार का सीना और ज़्यादा फूल गया। संसद के सत्र छोटे कर दिए गए अथवा ग़ायब कर दिए गए। विपक्ष की असहमति की आवाज़ दबा दी गई। जनता की ओर से कहीं कोई शिकायत नहीं दर्ज कराई गई। सरकार ने मान लिया कि जनता सिर्फ़ उसी के साथ है। जो लोग आंदोलनकारियों के साथ हैं वह जनता ही नहीं है। सरकार अब जो चाहेगी वही करेगी। वह ज़रूरत समझेगी तो देश को युद्ध के लिए भी तैयार कर सकती है।
किसान आंदोलन को लेकर सरकार के रवैये में व्यक्त हो रहे एकतंत्रवादी स्वरों की आहटें अगर 2014 में ही ठीक से सुन ली गईं होतीं तो आज स्थितियाँ निश्चित ही भिन्न होतीं।मई 2014 में पहली बार सत्ता में आने के केवल कुछ महीनों बाद ही (दिसम्बर 2014) मोदी सरकार ने भूमि अधिग्रहण से सम्बंधित एक अध्यादेश जारी कर दिया था। उसका तब ज़बरदस्त विरोध हुआ था और उसे किसान-विरोधी बताया गया। अध्यादेश के चलते सरकार की छवि ख़राब हो रही थी फिर भी वह उसे वापस लेने को तैयार नहीं थी। कारण तब यह बताया गया कि ऐसा करने से प्रधानमंत्री की एक मज़बूत और दृढ़ नेतृत्व वाले नेता की उस छवि को झटका लग जाएगा जिसके दम पर वे इतने ज़बरदस्त बहुमत के साथ सत्ता में आए हैं।
विधेयक को क़ानून की शक्ल देने के लिए सरकार डेढ़ वर्ष तक हर तरह के जतन करती रही। विधेयक को दो बार संसद में पेश किया गया, तीन बार उससे सम्बंधित अध्यादेश लागू किया गया, कई बार उस संसदीय समिति का कार्यकाल बढ़ाया गया जो उसकी समीक्षा के लिए गठित की गई थी, तमाम विरोधों के बावजूद उसे लोकसभा में पारित भी करवा लिया गया। पर राज्य सभा में बहुमत न होने के कारण यह सम्भव नहीं हो सका कि उसे क़ानूनी शक्ल दी जा सके।
देश को जानकारी है कि जो सरकार एक किसान-विरोधी एक विधेयक को 2016 में क़ानून में तब्दील नहीं करवा पाई उसने 2020 आते-आते कैसे एक पत्रकार उपसभापति के मार्गदर्शन में तीन विधेयकों को राज्य सभा में आसानी से पारित करवा लिया। कहा नहीं जा सकता कि जिस किसान-विरोधी विधेयक को सत्ता में आने के कुछ महीनों बाद ही सरकार ने अपनी नाक का सवाल बना लिया था पर वह उसे क़ानून में नहीं बदलवा पाई वह आगे किसी नए अवतार में प्रकट होकर पारित भी हो जाए। अब तो स्थितियाँ और भी ज़्यादा अनुकूल हैं।
सरकार ने पिछले चार वर्षों के दौरान अपनी छवि को लेकर सभी तरह के सरोकारों से अपने आपको पूरी तरह आज़ाद कर लिया है।प्रधानमंत्री ने जैसे ‘अपने’ और ‘अपनी जनता’ के बीच उपस्थित तमाम व्यक्तियों और संस्थाओं को समाप्त कर सीधा संवाद स्थापित कर लिया है, वे उसी तरह कृषि क़ानूनों के ज़रिए किसानों और कार्पोरेट ख़रीददारों के बीच से तमाम संस्थाओं और व्यक्तियों को अनुपस्थित देखना चाहते हैं। अगर 2014 का अध्यादेश राष्ट्रीय स्तर पर नाक का सवाल बन गया था तो 2020 के कृषि क़ानून अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सरकार की प्रतिष्ठा के सवाल बना दिए गए हैं।
लोगों ने पूछना प्रारम्भ कर दिया है कि आगे क्या होगा ? क्या सब कुछ ऐसे ही चलता रहेगा? हो सकता है ऐसा ही हो। सब कुछ ऐसे ही चलता रहे। अब आठवें दौर की बातचीत होने वाली है। उसके बाद नौवें, दसवें और ग्यारहवें दौर की चर्चाएँ होंगी। फिर ‘गणतंत्र दिवस’ की परेड होगी ।सलामी ली जाएगी। किसानों की भी ट्रैक्टर परेड निकलेगी? सरकार के सामने आर्थिक, सामाजिक और कृषि सहित सैंकड़ों सुधारों की लम्बी-चौड़ी फ़ेहरिस्त पड़ी है। किसान या आम नागरिक अब उसकी पिक्चर में नहीं है। आधुनिक भारत के उसके सिंगापुरी सपने में फटेहाल किसान और शाहीन बाग़ फ़िट नहीं होते।
किसानों ने जिस लड़ाई की शुरुआत कर दी है वह इसलिए लम्बी चल सकती है कि उसने व्यवस्था के प्रति आम आदमी के उस डर को ख़त्म कर दिया है जो पिछले कुछ वर्षों के दौरान दिलों में घर कर गया था। जनता का डर अब सरकार का डर बनता जा रहा है। लड़ाई किसानों की माँगों के दायरे से बाहर निकल कर व्यापक नागरिक अधिकारों के प्रति सरकार के अहंकारी रवैये के साथ जुड़ती जा रही है। आंदोलन का एक निर्णायक समापन किसान-विरोधी क़ानूनों का भविष्य ही नही यह भी तय करने वाला है कि नागरिकों को देश में अब कितना लोकतंत्र मिलने वाला है। लोग समझने लगे हैं कि ज़िंदा रहने के लिए केवल कोरोना की वैक्सीन ही नहीं, लोकतंत्र का टीका भी ज़रूरी है।
नए साल का स्वागत हमें खुशियाँ मनाते हुए करना चाहिए या कि पीड़ा भरे अश्रुओं के साथ? लोगों की ताजा और पुरानी याददाश्त में भी कोई एक साल इतना लंबा नहीं बीता होगा कि वह खत्म होने का नाम ही नहीं ले! इतना लंबा कि जैसे उसके काले और घने साये आने वाली कई सुबहों तक पीछा नहीं छोडऩे वाले हों। याद कर-करके रोना आ रहा है कि एक अरसा हुआ जब ईमानदारी के साथ हंसने या खुश होकर तालियाँ बजाने का दिल हुआ होगा।
यह जो उदासी छाई हुई है वह हरेक जगह मौजूद है, दुनिया के ज़्यादातर हिस्सों, कोनों और दिलों में। काफी कुछ टूट या दरक गया है इस बीच। जिन जगहों पर बहुत ज़्यादा रोशनी होने का भ्रम हो रहा है हो सकता है वहाँ भी अंदर ही अंदर घुटता कोई अव्यक्त अंधेरा ही मौजूद हो। कई बार ऐसा होता है कि अंधेरों में जिंदगियाँ हासिल हो जाती है और उजाले सन्नाटे भरे मिलते हैं। चेहरों के जरिए प्रसन्नता की खोज के सारे अवसर वर्तमान पीड़ाओं ने जबरदस्ती करके हमसे हड़प लिए हैं।
मुमकिन है इस नए साल की सुबह हर बार की तरह बहुत सारे लोगों से मिल या बातें नहीं कर पाए हों। हम जानते हैं कि खिलखिला कर खुशियाँ बिखेरने वाली कुछ आत्मीय आवाजें अब हम अपने बीच लगातार अनुपस्थित महसूस करने वाले हैं। उपस्थित प्रियजनों को नए साल की शुभकामनाएँ देते समय भी हमारे गले उस अव्यक्त संताप से भरे हो सकते हैं जो पीछे तो गुजर चुका है पर उसके आगे का डर अभी खत्म नहीं हुआ है। चमकीली उम्मीदें जरूर आसमान में क़ायम हैं।
नए साल के ‘गणतंत्र दिवस’ पर हमेशा की तरह ही दिल्ली के भव्य ‘राजपथ’ पर चाँदनी चौक और उससे सटे ग़ालिब के ‘बल्ली मारान’ की गलियों की उदासियों के बीच राष्ट्र के वैभव का भव्य प्रदर्शन देखने वाले हैं। दुनिया को बताने वाले हैं कि हम व्यक्तियों की व्यक्तिगत उदासियों को राष्ट्र की सार्वजनिक मुस्कान पर हावी नहीं होने देते हैं। एक विदेशी मेहमान की मौजूदगी में हम अपनी सामरिक क्षमता और सांस्कृतिक विरासत का दुनिया भर की आँखों के सामने प्रदर्शन करेंगे। हो सकता है हमारे कोरोना के आँकड़े तब तक सवा करोड़ और उससे मरने वालों की संख्या डेढ़ लाख से ऊपर और दुनिया भर में बीस लाख के नज़दीक पहुँच जाए। खबरें डराती हैं कि महामारी अमेरिका में हर बारह मिनट एक व्यक्ति को निगल रही है। वहाँ अब तक करीब साढ़े तीन लाख लोगों की जानें जा चुकी हैं। पर हम अब मृत्यु के प्रति भय पर भी काबू पाते जा रहे हैं। इन उम्मीदों से भरे हुए जीना चाहते है कि बीते साल के साथ ही वह सब कुछ भी जिसे हम व्यक्त नहीं करना चाह रहे हैं, अब अंतिम रूप से गुजर चुका है।
ब्रिटेन के राजकुमार प्रिन्स हैरी की पत्नी मेगन मार्केल ने पिछले दिनों अमेरिकी अखबार ‘न्यूयॉर्क टाईम्स’ के लिए एक भावपूर्ण घटना का चित्रण करते हुए संस्मरण लिखा था। किशोरावस्था के दौरान मेगन एक टैक्सी की पिछली सीट पर बैठी हुई न्यूयॉर्क के व्यस्ततम इलाके मैन्हैटन से गुजर रहीं थीं। टैक्सी से बाहर की दुनिया का नजारा देखते हुए उन्होंने एक अनजान महिला को फोन पर किसी से बात करते हुए आंसुओं में डूबे देखा। महिला पैदल चलने के मार्ग पर खड़ी थी और अपने निजी दु:ख को सार्वजनिक रूप से व्यक्त कर रही थी।
मेगन ने टैक्सी ड्रायवर से पूछा कि अगर वह गाड़ी रोक दे तो वे उतरकर पता करना चाहेंगीं कि क्या महिला को किसी मदद की जरूरत है! ड्रायवर ने किशोरी मेगन को भावुक होते देख विनम्रतापूर्वक जवाब दिया कि न्यूयॉर्क के लोग अपनी निजी जिंदगी शहर की सार्वजनिक जगहों पर ही जीते हैं। हम शहर की सडक़ों ही पर प्रेम का इजहार कर लेते हैं, सडक़ों पर ही आंसू बहा लेते हैं, अपनी व्यथाएँ व्यक्त कर लेते हैं, और हमारी कहानियाँ सभी के देखने के लिए खुली होती हैं। चिंता मत करो! सडक़ के किसी कोने में खड़ा कोई न कोई शख्स उस आंसू बहाती महिला के पास जाकर पूछ ही लेगा—‘सब कुछ ठीक तो है न,’ टैक्सी ड्रायवर ने मेगन से कहा।
कुछ ऐसा अद्भुत हुआ है कि पिछले नौ-दस महीनों के दौरान सारी दुनिया ने भी बिना कहीं रुके और किसी से उसके सुख-दु:ख के बारे पूछताछ किए जीना सीख लिया है। हम याद भी नहीं करना चाहेंगे कि आखिरी बार किस शव-यात्रा अथवा फिर शहर के किस अस्पताल या नर्सिंग होम में अपने किस निकट के व्यक्ति की तबीयत का हाल-चाल पूछने पहुँचे थे! शहरों के कई मुक्तिधामों में अस्थिकलशों के ढेर लगे हुए हैं और पवित्र नदियों के घाट उनके प्रवाहित किए जाने की प्रतीक्षा में सूने पड़े हैं।
खुशखबरी यह है कि इतनी उदासी के माहौल के बीच भी लोगों ने मुसीबतों के साथ लडऩे के अपने जज़्बे में कमी नहीं होने दी है। लोग संकटों से लड़ भी रहे हैं और और न्यूयॉर्क के उस टैक्सी ड्रायवर के कहे मुताबिक कोई ना कोई उनसे पूछ भी रहा है-‘सब कुछ ठीक तो है न’! अगर लडऩे का जज़्बा क़ायम नहीं होता तो लाखों की संख्या में हजारों-लाखों भूखे-प्यासे प्रवासी मजदूर अपने घरों को पैदल चलते हुए कैसे वापस पहुँच पाते? वे हजारों लोग जो महामारी से संघर्ष में अस्पतालों के निर्मम और मशीनी एकांतवास को लम्बे अरसे तक भोगते रहे हैं वापस अपनी देहरियों पर कैसे लौट पाते?और अब ये जो हजारों की तादाद में किसान अपने सारे दु:ख-दर्द भूलकर कडक़ती ठंड में देश की राजधानी की सडक़ों पर डेरा डाले हुए हैं वे भी तो कुछ उम्मीदें लगाए हुए होंगे कि नए साल में सब कुछ ठीक होने वाला है। उनके लिए यह भी क्या कम है कि देश की जनता उनसे बार-बार पूछ रही है -‘सब कुछ ठीक तो है न’! नए साल में ख़ुश रहने के लिए अब हमें किसी का इतना भर पूछ लेना भी काफी मान लेना होगा कि-‘नया साल मुबारक, सब कुछ ठीक तो है न!’
देश में सबसे अधिक शिक्षित माने जाने वाले राज्य केरल में कोट्टायम स्थित एक कैथोलिक कॉन्वेंट की सिस्टर अभया को उनकी नृशंस तरीके से की गई हत्या के 28 साल और 9 महीने बाद क्रिसमस की पूर्व संध्या पर ‘न्याय’ मिल गया। अभया की लाश अगर कॉन्वेंट परिसर के कुएँ से नहीं मिलती तो वे इस समय 47 वर्ष की होतीं और आज क्रिसमस के पवित्र त्यौहार पर किसी गिरजाघर में आँखें बंद किए हुए अपने यीशु की आराधना में लीन होतीं। सिस्टर अभया की हत्या किसी विधर्मी ने नहीं की थी! वे अगर अपनी ही जमात के दो पादरियों और एक ‘सिस्टर’ को 27 मार्च 1992 की अल सुबह कॉन्वेंट के किचन में आपत्तिजनक स्थिति में देखते हुए पकड़ नहीं ली जातीं तो निश्चित ही आज जीवित होतीं।
दोनों पादरियों और आपत्तिजनक आचरण में सहभागी ‘सिस्टर’ ने मिलकर अभया की कुल्हाड़ी से हत्या कर दी और उनकी लाश को कुएँ में धकेल दिया। अभया तब केवल उन्नीस वर्ष की थीं और इतनी सुबह अपनी बारहवीं कक्षा की परीक्षा की पढ़ाई करने बैठने के पहले पानी पीने के लिए किचन में पहुँचीं थीं।केवल एक औरत को न्याय मिलने में लगभग तीन दशक लग गए। इस दौरान वह सब कुछ हुआ जो हो सकता था। जैसा कि कठुआ, उन्नाव, हाथरस और अन्य सभी जगह हो रहा है। एक जघन्य हत्या को आत्महत्या में बदलने की कोशिशों से लगाकर समूचे प्रकरण को बंद करने के दबाव। इनमें तीन-तीन बार नई जाँच टीमों का गठन भी शामिल है। तीनों आरोपियों को अभया की हत्या में संलिप्तता के आरोप में नवम्बर 2008 में गिरफ्तार भी कर लिया गया था पर सिर्फ दो महीने बाद ही सब ज़मानत पर रिहा हो गए और पिछले 11 वर्षों से आजाद रहते हुए चर्च की सेवा में भी जुटे हुए थे।
विडम्बना इतनी ही नहीं है कि एक 19 वर्षीय ईसाई सिस्टर की इतनी निर्ममता के साथ हत्या कर दी गई, बल्कि यह भी है कि अभया को जब हत्या के इरादे से ‘पवित्र पुरुषों ‘और उनकी सहयोगी ‘सिस्टर’ द्वारा भागते हुए पकड़ा गया होगा तब वे या तो चीखी-चिल्लाई ही नहीं होंगी या फिर उनकी चीख कॉन्वेंट में मौजूद कोई सवा सौ रहवासियों द्वारा, जिनमें कि कोई बीस ‘नन्स’ भी शामिल रही होंगी, अनसुनी कर दी गई जैसे कि इस तरह की आवाजें ‘आई रात ‘ की बात हो। इस बात का शक इससे भी होता है कि कुएँ से अभया की लाश के प्राप्त होने के बाद भी कॉन्वेंट में कोई असामान्य किस्म की बेचैनी या असुरक्षा की भावना महसूस नहीं की गई। सार्वजनिक तौर पर तो उन सिस्टरों द्वारा भी नहीं जो अभया की साथिनें रही होंगी। पादरियों द्वारा यीशु की अच्छाई के सारे उपदेश भी इस दौरान यथावत जारी रहे।अभया की हत्या की रात कॉन्वेंट में ताम्बे के तारों की चोरी के इरादे से घुसे एक शख्स की गवाही और एक गरीब सामाजिक कार्यकर्ता की लगभग तीन दशकों तक धार्मिक माफिया के खिलाफ लड़ाई अगर अंत तक कायम नहीं रही होती तो किसी भी अपराधी को सजा नहीं मिलती। थिरुवनंथपुरम की सी बी आई अदालत ने एक पादरी और ‘सिस्टर’ को उम्रकैद की सजा सुनाई है पर आगे सब कुछ होना संभव है।
एक अनुमान के मुताबिक, लगभग डेढ़ करोड़ की आबादी वाले कैथोलिक समाज में पादरियों और ननों की संख्या डेढ़ लाख से अधिक है। कोई पचास हजार पादरी हैं और बाकी नन्स हैं।ऊ परी तौर पर साफ-सुथरे और महान दिखने वाले चर्च के साम्राज्य में कई स्थानों पर नन्स के साथ बंधुआ मजदूरों या गुलामों की तरह व्यवहार होने के आरोप लगाए जाते हैं। ईश्वर के नाम पर होने वाले अन्य भ्रष्टाचार अलग हैं। दुखद स्थिति यह भी है कि चर्च से जुड़ी अधिकांश नन्स या सिस्टर्स सब कुछ शांत भाव से स्वीकार करती रहती हैं। अगर कोई कभी विरोध भी करता है तो उसे अपनी लड़ाई अकेले ही लडऩी पड़ती है जैसा कि एक अन्य प्रकरण में केरल में ही पिछले दो वर्षों से हो रहा है। यौन अत्याचार की शिकार एक नन आरोपित पादरी के खिलाफ अकेले लड़ रही है। केरल के ही एक विधायक ने तो संबंधित नन को ही ‘प्रोस्टिट्यूट’ तक कह दिया था। पीडि़त नन के साथ चर्च की महिलाएँ भी नहीं हैं। यीशु अगर पादरी नहीं बने और एक साधारण व्यक्ति ही बने रहे तो उसके पीछे भी जरूर कोई कारण अवश्य रहा होगा।
उक्त प्रकरण पर केंद्रित दो वर्ष पूर्व प्रकाशित एक आलेख की शुरुआत मैंने अपनी एक कविता से की थी- ‘वह अकेली औरत कौन है जो अपने चेहरे को हथेलियों में भींचे और सिर को टिकाए हुए घुटनों पर उस सुनसान चर्च की आखिरी बैंच के कोने पर बैठी हुई सुबक-सुबक कर रो रही है? वह औरत कोई और नहीं है हाड़-माँस का वही पुंज है जो यीशु को उनके ‘पुरुष शिष्यों’ के द्वारा अकेला छोड़ दिए जाने के बाद उनकी ढाल बनकर अंत तक उनका साथ देती रही जो उनके ‘पुनरुज्जीवन’ के वक्त भी उपस्थित हुई उनके साथ और वही औरत आज उन्हीं ‘पुरुष शिष्यों’ के बीच सर्वथा असुरक्षित है और हैं अनुपस्थित यीशु भी!’
हमें केवल वृंदावन के आश्रमों में कष्टपूर्ण जीवन व्यतीत करने वाली परित्यक्ताओं अथवा किसी जमाने की देवदासियों के दारुण्यपूर्ण जीवन की कहानियाँ या फिर महिलाओं के लिए निर्धारित मनुस्मृति में उद्धृत ‘उचित स्थान’ के वर्णन ही सुनाए जाते हैं। उन तथाकथित सभ्य प्रतिष्ठानों में महिलाओं और बच्चों के साथ होने वाले शोषण के बारे में बाहर ज़्यादा पता नहीं चलता, जिन्हें सबसे अधिक सुरक्षित समझा जाता है। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि उच्च पदस्थ धर्म गुरुओं द्वारा किए जाने वाले सभी तरह के यौन दुराचारों के किस्से इस समय दुनिया भर के देशों में उजागर हो रहे हैं।
‘अभया’ को अंतिम रूप से न्याय मिल गया है यह उसी तरह का भ्रम है जैसा कि ‘निर्भया’ या उसके जैसी हजारों-लाखों बच्चियों और महिलाओं को इस ‘पित्र-सत्तात्मक’ समाज में प्राप्त होने वाले न्याय को लेकर बना हुआ है। ‘निर्भया’ और ‘अभया’ दोनों के ही शाब्दिक अर्थ भी एक जैसे हैं और व्यथाएँ भी!
-श्रवण गर्ग
सरकार ने अब अपने ही नागरिक भी चुनना प्रारम्भ कर दिया है। सत्ताएँ जब अपने में से ही कुछ लोगों को पसंद नहीं करतीं और मजबूरीवश उन्हें देश की भौगोलिक सीमाओं से बाहर भी नहीं धकेल पातीं तो उन्हें अपने से भावनात्मक रूप से अलग करते हुए अपने ही नागरिकों का चुनाव करने लगती है।बीसवीं सदी के प्रसिद्ध जर्मन कवि, नाटककार और नाट्य निर्देशक बर्तोल्त ब्रेख़्त की 1953 में लिखी गई एक सर्वकालिक कविता की पंक्तियाँ हैं :’ सत्रह जून के विप्लव के बाद /लेखक संघ के मंत्री ने /स्तालिनाली शहर में पर्चे बाँटे/ कि जनता सरकार का विश्वास खो चुकी है /और तभी पा सकती है यदि दोगुनी मेहनत करे/ ऐसे मौक़े पर क्या यह आसान नहीं होगा /सरकार के हित में / कि वह जनता को भंग कर कोई दूसरी चुन ले !’’ ऐसा ही हो भी रहा है। लगभग सभी स्थानों पर।
समाचार हैं कि सरकार ने अब अपने किसान संगठन भी खड़े कर लिए हैं। मतलब कुछ किसान अब दूसरे किसानों से अलग होंगे ! जैसे कि इस समय देश में अलग-अलग नागरिक तैयार किए जा रहे हैं। धर्म को परास्त करने के लिए धर्म और नागरिकों को परास्त करने के लिए नागरिकों का उपयोग किया जाता है। किसानों को भी किसानों के ज़रिए ही कमज़ोर किया जाएगा। लोहा ही लोहे को काटता है की तजऱ् पर। अब ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ नाम की कोई बात नहीं बची। नागरिकता क़ानून का मूल स्वर यही स्थापित करना था कि देश का ‘असली’नागरिक किसे माना जाएगा !
पड़ौसी मुल्कों से आने वाले कुछ ख़ास धर्मों के शरणार्थियों को ही नागरिकता दी जा सकेगी और बाक़ी को नहीं। नागरिकता के अभाव में किन और कितने लोगों को देश छोडऩा पड़ेगा, साफ़ नहीं किया गया है।और यह भी कि देश छोडक़र जाने वालों को अपने लिए नयी ज़मीन कहाँ तलाशना होगी !
हरेक चीज़ को पालों और हदों में बांटा जा रहा है। एक पाले में वे तमाम लोग हैं जो हरेक परिस्थिति में तत्कालीन सत्ता प्रतिष्ठानों के साथ जुड़े रहते हैं। दूसरे वे हैं जो हर किस्म की हदों से अपने को बाहर रखते हैं और इसी को वे अपनी नियति भी मानते हैं। अब तीसरे वे हैं जिनके पाले सत्ताएँ तय कर रही हैं।हरेक चीज और इबारत का ‘ब्लैक एंड व्हाइट’ में दिखाई देना ज़रूरी कर दिया गया है। चाहे नागरिक हों, मीडिया हो अथवा अदालतें हों। सत्ताओं के साथ नहीं होने का अर्थ नई व्यवस्था में देश और धर्म विरोधी करार दिया गया है। नागरिकता क़ानून के बाद भाजपा-शासित राज्यों में धर्मांतरण, लव जिहाद आदि को लेकर बनने वाले क़ानूनों के तेवर नागरिकों को क़बीलाई संस्कृति में बाँटने के ही नए उपक्रम माने जा सकते हैं किसी आधुनिक भारत के निर्माण के लिए मील के पत्थर नहीं।कहा जा सकता है कि अब ‘ऑनर किलिंग’ की सुपारी कट्टरपंथी खाप पंचायतों अथवा परिवारों के हाथों से निकालकर सत्ताओं के हाथों में पहुँच गई है।
कोरोना महामारी के चलते न सिफऱ् कई नागरिक अधिकारों पर आरोपित ‘स्वैच्छिक’ रोक लग गई है, न्यायपालिका को भी सार्वजनिक रूप से सलाह दी जा रही है कि उसे अपने फ़ैसलों के ज़रिए ऐसा कोई कार्य करने से बचना चाहिए जिससे कार्यपालिका के मार्ग में अवरोध उत्पन्न हों।संसद के शीतकालीन सत्र को स्थगित कर दिया गया है पर सरकारी पार्टी की धार्मिक संसदें चालू हैं। हालात ऐसे ही रहे तो एक दिन स्थिति ऐसी भी आ सकती है कि लोग संसद की ज़रूरत के प्रति ही संज्ञा शून्य हो जाएँ, वे संसद की ओर कान लगाकर कुछ सुनने के बजाय उसकी नई इमारत की ओर आँखें गाडक़र उसके वास्तु सौंदर्य के गुणगान करने लगें।
जमाने लद गए हैं जब चीन ,रूस, उत्तरी कोरिया आदि देशों में लोकतंत्र की कमी और एक पार्टी की शासन व्यवस्था को लेकर चिंतित होते हुए हम अपने देश के भरपूर लोकतंत्र के प्रति गर्व महसूस किया करते थे। इस समय हमें न सिफऱ् यह बताया जा रहा है कि देश की तरक्क़ी में लोकतंत्र का आधिक्य न सिफऱ् बाधक बन रहा है यह भी ‘समझाया’जा रहा है हमारे यहाँ जैसे आंदोलन अगर वहाँ होते तो उनके साथ कैसा सलूक किया जाता। कृषि क़ानूनों के पक्ष में सरकार की तरफ़दारी करते हुए अंग्रेज़ी दैनिक ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में हाल में प्रकाशित आलेख में आर्थिक विषयों के जानकार स्वामीनाथन अंक्लेसरिया अय्यर ने डराया है कि चीन जैसी एकतंत्रीय व्यवस्थाओं में ऐसे आंदोलनों को तबाह कर दिया जाता है पर लोकतंत्र ऐसे आंदोलनकारियों को ‘शूट’ नहीं करते।आलेख के शीर्षक की प्रधानमंत्री को यही सलाह है वे मख़मली दस्ताने पहनकर इस्पाती हाथों से किसान आंदोलन से निपटें।
भारत की धर्मप्राण राजनीतिक प्रयोगशाला में इस समय प्रयोग यह चल रहा हैं कि बहुसंख्यक नागरिकों को लोकतंत्र की ज़रूरत के प्रति कैसे संवेदनशून्य कर दिया जाए। उनके मन में लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों की आवश्यकता के प्रति इतनी धिक्कारपूर्ण भावना पैदा करदी जाए कि वे उसे सरकार के ‘सुशासन’ के मार्ग में बाधा मानने लगें। दूसरे अर्थों में कहें तो नागरिकों को ही विपक्ष का विपक्षी बना दिया जाए।किसी सशक्त राजनीतिक विपक्ष की अनुपस्थिति में नागरिकों को भी विपक्ष की भूमिका निभाने से रोकने के लिए उन्हें भी आपस में बाँट दिया जाए और वे एक दूसरे पर हमला करने को ही असली राष्ट्रीयता मानने लगें।
कडक़ती ठंड में भी राजधानी दिल्ली की सडक़ों पर जमा कुछ हज़ार नागरिकों की मौजूदगी से 135 करोड़ नागरिकों की मालिक सरकार पिछले छह वर्षों में पहली बार इतनी चिंतित और डरी हुई नजऱ आ रही है कि उनसे हाथ जोडक़र अपने घरों को लौटने की अपील कर रही है। देश में ‘कुछ ज़्यादा लोकतंत्र’ को क़ायम रखने की जि़म्मेदारी जब जनता सरकार और कमज़ोर विपक्ष से छीनकर अपने कंधों पर लेने लगती है तब ऐसा ही होता है।
नीति आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अमिताभ कांत (भारतीय प्रशासनिक सेवा के 1980 बैच के अधिकारी) का कहना है कि भारत में कड़े सुधारों को लागू करना बहुत मुश्किल है। हमारे यहां लोकतंत्र कुछ ज़्यादा ही है। राष्ट्रीय स्तर की सर्वोच्च संस्था से जुड़ा व्यक्ति जब इस आशय की कोई बात कहता है और वह भी ठीक उस समय जब कृषि क़ानूनों को लेकर किसानों का राष्ट्र्व्यापी विरोध चल रहा हो तो निश्चित ही उसके ‘पीछे’ काफ़ी वज़न होना चाहिए। माना जाना चाहिए कि बात एक व्यक्ति नहीं बल्कि ऐसी संस्था की ओर से कही जा रही है जिसे ‘भारत को बदलने के लिए राष्ट्रीय संस्थान’ के रूप में पैंसठ साल पुराने ‘योजना आयोग’ को ख़त्म करके बनाया गया था।
देश की तरक़्क़ी के लिए अगर हक़ीक़त में ही तेज रफ़्तार वाले सुधारों की ज़रूरत है और मौजूदा ‘कुछ ज़्यादा ही ‘लोकतंत्र उसमें बाधक बन रहा है तो फिर 93 साल पुराने संसद भवन के स्थान पर लगभग हज़ार करोड़ खर्च करके नई इमारत बनाने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए। इतनी बड़ी धन राशि का उपयोग तो नए कारावासों के निर्माण, पुरानों की क्षमता बढ़ाने और कुछ खुली जेलों की स्थापना के लिए भी किया जा सकता है।
लोकतंत्र की ज़रूरत जैसे-जैसे कम होती जाती है, कारावासों, न्यायालयों और अस्पतालों, आदि की मांग बढ़ने लगती है। एक स्थिति के बाद तो पूरा देश ही एक खुली जेल में बदल जाता है जैसी कि स्थिति हमारे कुछ नज़दीकी मुल्कों में है। इनमें वे भी शामिल हैं जिनसे हम आर्थिक विकास के क्षेत्र में टक्कर लेना चाहते हैं। नागरिक जब लोकतंत्र को कम किए जाने का विरोध करने लगते हैं उनके साथ वैसा ही व्यवहार होता है जैसा वर्तमान में चीन द्वारा हांग कांग में लोकतंत्र-समर्थकों के साथ किया जा रहा है। हमारी नज़रें इस समय चीन द्वारा की जा रही तेज रफ़्तार आर्थिक प्रगति पर ही है वहां हो रही लोकतंत्र की समाप्ति पर नहीं।
कहा तो यह भी जा सकता है कि लोकतंत्र, नागरिक अधिकारों, संवैधानिक संस्थानों की स्वायत्तता, बोलने की आज़ादी और धार्मिक स्वतंत्रता जैसे मुद्दों पर नागरिक भी ‘फुगावे’ में हैं। फुगावे से मतलब उस तरह के भ्रम से है जैसा आर्थिक सम्पन्नता के दावों को लेकर हर्षद मेहता के साम्राज्यवाद ने पैदा कर दिया था। नक़ली ‘बबल’ के फूटते ही लाखों लोग और घर तबाह हो गए थे। अभी अनुमान आना बाक़ी है कि कृषि सम्बन्धी क़ानूनों के कारण किसान-आत्महत्याओं के आँकड़ों में कमी आ जाएगी या वे और बढ़ जाएंगे ! पता नहीं कि किसानों के साथ आढ़तिए और छोटे अनाज व्यापारी भी आंकड़ों में शामिल हो जाएँगे !
जब अमिताभ कांत भारत में ज़्यादा लोकतंत्र होने की बात करते हैं तो यह नहीं बताते कि वह हक़ीक़त में कितना अधिक है ! मसलन, स्वीडन स्थित संस्था वी-डेम इंस्टीट्यूट द्वारा दुनिया के अलग-अलग देशों में लोकतंत्र की स्थिति को लेकर जारी की गई रिपोर्ट में जो कुछ कहा गया है उसे अमिताभ कांत के नज़रिए में विश्वसनीय नहीं माना जाना चाहिए। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में लोकतंत्र कमज़ोर पड़ रहा है। संस्थान द्वारा तैयार 179 मुल्कों की सूची के उदार लोकतंत्र सूचकांक में हमें नब्बे वें स्थान पर रखा गया है।
स्वीडिश संस्थान के तरीक़े की रपटों अथवा प्रतिकूल टिप्पणियों से हम न सिर्फ़ अप्रभावित रहते हैं, उन्हें दृढ़तापूर्वक ख़ारिज भी कर देते हैं। नागरिक अधिकारों की अवमानना अथवा सीमित होती धार्मिक आज़ादी की घटनाओं को लेकर प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों की रपटों में की जाने वाली आलोचनाओं को देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप बताया जाता है। हम केवल विदेशी पूंजी निवेश के ‘हस्तक्षेप’ का ही खुली बाहों के साथ स्वागत करना चाहते हैं, बाक़ी किसी क्षेत्र में नहीं। देश की जनता कोरोना की महामारी से संघर्ष करती हुई जिस समय अपनी जानें बचाने में जुटी हुई है, सरकार भी उसी समय अपने सारे सुधारों के खेत बो लेना चाहती है।
पिछले दिनों मनाए गए ‘संविधान दिवस’ के अवसर पर वेंकैया नायडू के कथन को उद्धृत करते हुए प्रकाशित एक समाचार के अनुसार, उपराष्ट्रपति ने कहा था कि न्यायपालिका द्वारा विधायिका और कार्यपालिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप किया जा रहा है, ऐसी चिंताएं हैं। सालिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कुछ माह पूर्व कोरोना के संदर्भ में विचार व्यक्त किया था कि देश के उच्च न्यायालयों के ज़रिए कुछ लोग समानांतर सरकार चला रहे हैं।
देश में इस समय जो कुछ भी चल रहा है और प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष तरीक़े से उसे व्यक्त किया जा रहा है उस सब का सीधा सम्बंध लोकतंत्र से है। नीति आयोग के एक प्रमुख व्यक्ति (सीईओ) के विवादास्पद कथन पर आश्चर्यजनक रूप से सत्ता के किसी भी कोने से कोई बेचैनी नहीं प्रकट हुई। प्रधानमंत्री नीति आयोग के अध्यक्ष हैं। एक मित्र ने आपातकाल के दौरान तब के एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता शशिभूषण द्वारा इंदिरा गांधी के बचाव में की गई टिप्पणी की ओर ध्यान दिलाया है कि : 'देश में एक सीमित तानाशाही ज़रूरी है।’ नीति आयोग के शीर्ष पुरुष जब लोकतंत्र की अधिकता से विचलित होते दिखाई पड़ते हैं तो सोचना पड़ेगा वे किस बात की तरफ़ संकेत कर रहे हैं। वे भी कहीं शशि भूषण की तरह ही सीमित अधिनायकवाद के वास्तुकार की भूमिका तो नहीं अदा कर रहे हैं?
कांग्रेस के भविष्य को लेकर इस समय सबसे ज़्यादा चिंता व्याप्त है। यह चिंता भाजपा भी कर रही है और कांग्रेस के भीतर ही नेताओं का एक समूह भी कर रहा है। दोनों ही चिंताएँ ऊपरी तौर पर भिन्न दिखाई देते हुए भी अपने अंतिम उद्देश्य में एक ही हैं। सारांश में यह कि पार्टी की कमान गांधी परिवार के हाथों से कैसे मुक्त हो ? आज की परिस्थिति में कांग्रेस को बचाने का आभास देते हुए उसे ख़त्म करने का सबसे अच्छा प्रजातांत्रिक तरीक़ा भी यही हो सकता है। जहां भाजपा की राष्ट्रीय मांग देश को कांग्रेस से मुक्त करने की है। कांग्रेस पार्टी के एक प्रभावशाली तबके की मांग फ़ैसलों की ज़िम्मेदारी किसी व्यक्ति (परिवार !) विशेष के हाथों में होने के बजाय सामूहिक नेतृत्व के हवाले किए जाने की है। सामूहिक फ़ैसलों की मांग में मुख्य रूप से यही तय होना शामिल माना जा सकता है कि विभिन्न पदों पर नियुक्ति और राज्य सभा के रिक्त स्थानों की पूर्ति के अधिकार अंततः किसके पास होने चाहिए !
एक सौ पैंतीस साल पुरानी कांग्रेस को ‘प्रजातांत्रिक’ बनाने की लड़ाई एक ऐसे समय खड़ी की गई है कि वह न सिर्फ़ ‘प्रायोजित’ प्रतीत होती है, उसके पीछे के इरादे भी संदेहास्पद नज़र आते हैं। कांग्रेस-मुक्त भारत की स्थापना की दिशा में इसे पार्टी के कुछ विचारवान नेताओं का सत्तारूढ़ दल को ‘गुप्तदान’ भी माना जा सकता है। राजनीति में ऐसा होता ही रहता है। बेरोज़गार बेटों को मां-बाप से शिकायतें हो ही सकती है कि वे कमाकर नहीं ला रहे हैं इसीलिए घर में ग़रीबी है।
क्या किसी प्रकार का शक नहीं होता कि बंगाल चुनाव के ठीक पहले बिहार में उम्मीदवारों की हार को मुद्दा बनाकर जिस समय वरिष्ठ नेता कांग्रेस नेतृत्व को घेर रहे हैं,भाजपा के निशाने पर भी वही एक दल है ? दो विपरीत ध्रुवों वाली शक्तियों के निशाने पर एक ही समय पर एक टार्गेट कैसे हो सकता है ? इसी कांग्रेस के नेतृत्व में जब दो साल पहले तीन राज्यों में चुनाव जीतकर सरकारें बन गईं थीं तब तो वैसी आवाज़ें नहीं उठीं थीं जैसी आज सुनाई दे रही हैं!
एक देश, एक संविधान और एक चुनाव की पक्षधर भाजपा के लिए राष्ट्रीय स्तर पर केवल एकमात्र राजनीतिक दल के रूप में पहचान स्थापित करने के लिए ज़रूरी है कि कांग्रेस को एक क्षेत्रीय पार्टी की हैसियत तक सीमित और दिल्ली की तरफ़ खुलने वाली राज्यों की खिड़कियों को पूरी तरह से सील कर दिया जाए। जो प्रकट हो रहा है वह यही है कि सोनिया गांधी की अस्वस्थता को देखते हुए उनकी उपस्थिति में ही पार्टी-नेतृत्व का बँटवारा कर लेने की मांग उठाई जा रही है। राहुल गांधी ने सवाल भी किया था कि तेईस लोगों ने चिट्ठी उस वक्त ही क्यों लिखी जब सोनिया गांधी का अस्पताल में इलाज चल रहा था ?
स्पष्ट है कि जिस समय कांग्रेस को ही अपनी कमजोरी से निपटने के लिए इलाज की ज़रूरत है, नेतृत्व से जवाब-तलबी की जा रही है कि वह भाजपा की टक्कर में दौड़ क्यों नहीं लगा पा रही है ! सारे सवाल कांग्रेस को लेकर ही हैं। निर्वाचन आयोग द्वारा मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय दलों में कांग्रेस और भाजपा के अतिरिक्त छह और भी हैं पर उनकी कहीं कोई चर्चा नहीं है ! वे सभी दल क्षेत्रीय पार्टियाँ बन कर रह गए हैं।
इसमें शक नहीं कि एक मरणासन्न विपक्ष को इस समय जिस तरह के नेतृत्व की कांग्रेस से दरकार है वह अनुपस्थित है।ऐसा होने के कई कारणों में एक यह भी है कि कोरोना प्रबंधन के पर्दे में न सिर्फ़ नागरिकों की गतिविधियों को सीमित कर दिया गया है, विपक्षी दलों और उनकी सरकारों की चिंताओं की सीमाएँ भी तय कर दी गईं हैं। किसान आंदोलन के रूप में जो प्रतिरोध व्यक्त हो रहा है उसे बजाय किसानों की वास्तविक समस्याओं को लेकर फूटे आक्रोश के रूप में देखने के केंद्र के ख़िलाफ़ पंजाब की अमरिंदर सिंह सरकार द्वारा समर्थित राजनीतिक चुनौती के रूप में देखा जा रहा है। अगर यह सही है तो फिर कांग्रेस के बग़ावती नेता इसे पार्टी के जनता के साथ जुड़ने की ओर कदम भी मान सकते हैं जिसकी कि शिकायत उन्हें वर्तमान नेतृत्व से है।
भारतीय जनता पार्टी के एकछत्र शासन के मुक़ाबले देश में एक सशक्त (या कमज़ोर भी) राष्ट्रीय विपक्ष की ज़रूरत के कठिन समय में कांग्रेस नेतृत्व को अंदर से ही कठघरे में खड़ा करने की कोशिशें कई सवालों को जन्म देती हैं। चूंकि इस तरह की परिस्थितियाँ कांग्रेस के लिए पहला अनुभव नहीं है, लोग यह अनुमान भी लगाना चाहते हैं कि इंदिरा गांधी आज अगर होतीं तो मौजूदा संकट से कैसे निपटतीं और उनकी बहू होने के नाते सोनिया गांधी को ऐसा क्या करना चाहिए जो वे नहीं कर पा रही हैं? क्या उनके द्वारा तमाम बग़ावती नेताओं को यह सलाह नहीं दी जा सकती कि वे भी ममता, शरद पवार और संगमा की तरह ही विद्रोही कांग्रेसियों की एक और पृथक ‘कांग्रेस’ बना लें ? बाक़ी छह राष्ट्रीय दलों में तीन तो इन्हीं लोगों की बनाई हुई ‘कांग्रेस’ ही हैं। बाक़ी तीन में दो साम्यवादी दल और बसपा है। इनमें किसी की भी हालत देश से छुपी हुई नहीं है।
और अंत में : कांग्रेस के एक राष्ट्रीय प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला द्वारा प्रधानमंत्री की इस बात के लिए आलोचना किए जाने कि दिल्ली में किसानों के आंदोलन के वक्त वे कोरोना वैक्सीन के प्रयोग स्थलों की यात्रा पर थे अगले ही दिन पार्टी के दूसरे प्रवक्ता और वरिष्ठ नेता आनंद शर्मा ने मोदी की तारीफ़ करते हुए ट्वीट किया कि उनका (प्रधानमंत्री का) यह कदम भारतीय वैज्ञानिकों के प्रति सम्मान की अभिव्यक्ति है। इससे अग्रिम पंक्ति के कोरोना योद्धाओं का मनोबल बढ़ेगा। आनंद शर्मा का नाम उन तेईस लोगों में शामिल है जो कांग्रेस में शीर्ष नेतृत्व को लेकर सवाल खड़े कर रहे हैं। हालांकि शर्मा ने बाद में अपना फैलाया हुआ रायता समेटने की कोशिश भी की पर तब तक देर हो चुकी थी।
-श्रवण गर्ग
मुस्लिम नेता असदुद्दीन ओवैसी देश की चुनावी राजनीति में जो कुछ भी कर रहे हैं वह यह कि लगातार संगठित और मजबूत होते हिंदू राष्ट्रवाद के समानांतर अल्पसंख्यक स्वाभिमान और सुरक्षा का तेज़ी से ध्रुवीकरण कर रहे हैं। यह काम वे अत्यंत चतुराई के साथ संवैधानिक सीमाओं के भीतर कर रहे हैं। मुमकिन है उन्हें कांग्रेस सहित अन्य राजनीतिक दलों के उन उन अल्पसंख्यक नेताओं का भी मौन समर्थन प्राप्त हो जिन्हें हिंदू राष्ट्रवाद की लहर के चलते इस समय हाशियों पर डाला जा रहा है। बिहार के चुनावों में जो कुछ प्रकट हुआ है उसके अनुसार, ओवैसी का विरोध अब न सिर्फ भाजपा के हिंदुत्व तक ही सीमित है, वे तथाकथित धर्म निरपेक्ष राजनीति को भी अल्पसंख्यक हितों के लिए ख़तरा मानते हैं। बिहार चुनाव में भाजपा के खिलाफ विपक्षी गठबंधन को समर्थन के सवाल पर वे इस तरह के विचार व्यक्त कर भी चुके हैं।
पृथक पाकिस्तान के निर्माता मोहम्मद अली जिन्ना के अविभाजित भारत की राजनीति में उदय को लेकर जो आरोप तब कांग्रेस पर लगाए जाते रहे हैं वैसे ही इस समय ओवैसी को लेकर भाजपा पर लग रहे हैं। जिन्ना की तरह ओवैसी अल्पसंख्यकों के लिए किसी अलग देश की माँग तो निश्चित ही नहीं कर सकेंगे पर देश के भीतर ही उनके छोटे-छोटे टापू खड़े करने की क्षमता अवश्य दिखा रहे हैं। कहा जा सकता है कि जिन्ना के बाद ओवैसी मुस्लिमों के दूसरे बड़े नेता के रूप में उभर रहे हैं। जिन्ना की तरह ही ओवैसी ने भी विदेश से पढ़ाई करके देश की मुस्लिम राजनीति को अपना कार्यक्षेत्र बनाया है। ओवैसी ने भी क़ानून की पढ़ाई लंदन के उसी कॉलेज ( Lincoln's Inn London) से पूरी की है जहां से जिन्ना बैरिस्टर बनकर अविभाजित भारत में लौटे थे। ओवैसी का शुमार दुनिया के सबसे प्रभावशाली पाँच सौ मुस्लिम नेताओं में है। उनकी अभी उम्र सिर्फ इक्यावन साल की है । भारत में नेताओं की उम्र देखते हुए कहा जा सकता है कि ओवैसी एक लम्बे समय तक मुस्लिम राजनीति का नेतृत्व करने वाले हैं।
बिहार में मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों की पाँच सीटें जीतने के बाद ओवैसी के पश्चिम बंगाल के चुनावों में भाग लेने के फैसले से ममता बनर्जी का चिंतित होना ज़रूरी है पर वह बेमायने भी हो गया है। क्योंकि ओवैसी बंगाल में वही करना चाह रहे हैं जो ममता बनर्जी इतने सालों से करती आ रहीं थीं और अब अपने आपको को मुक्त करने का इरादा रखती हैं। ओवैसी तृणमूल नेता को बताना चाहते हैं कि बंगाल के अल्पसंख्यकों का उन्होंने यकीन खो दिया है। इसका फायदा निश्चित रूप से भाजपा को होगा पर उसकी ओवैसी को अभी चिंता नहीं है।भाजपा ने ममता की जो छवि 2021 के विधान सभा चुनावों के लिए प्रचारित की है वह यही कि राज्य की मुख्यमंत्री मुस्लिम हितों की संरक्षक और हिंदू हितों की विरोधी हैं।इस तर्क के पक्ष में वे तमाम निर्णय गिनाए जाते हैं जो राज्य की सत्ताईस प्रतिशत मुस्लिम आबादी के लिए पिछले सालों में ममता सरकार ने लिए हैं।
देखना यही बाक़ी रहेगा कि बंगाल के मुस्लिम मतदाता ओवैसी के साथ जाते हैं या फिर वैसा ही करेंगे जैसा वे पिछले चुनावों में करते रहे हैं। मुस्लिम मतदाता ऐसी परिस्थितियों में ऐसे किसी भी उम्मीदवार के पक्ष में अपना वोट डालते रहें हैं जिसके कि भाजपा या उसके द्वारा समर्थित प्रत्याशी के विरुद्ध जीतने की सबसे ज़्यादा सम्भावना हो वह चाहे ग़ैर-मुस्लिम ही क्यों न हो।बिहार के मुस्लिम मतदाताओं ने 2015 के चुनाव में ओवैसी के बजाय नीतीश का इसलिए समर्थन किया था कि वे तब भाजपा के खिलाफ राजद के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे थे। उन्होंने इस बार विपक्षी महगठबंधन का भी इसलिए समर्थन नहीं किया कि उसमें शामिल कांग्रेस ने नागरिकता कानून, तीन तलाक और मंदिर निर्माण आदि मुद्दों को लेकर अपना रुख़ स्पष्ट नहीं किया।
भाजपा को ओवैसी जैसे नेताओं की उन तमाम राज्यों में जरूरत रहेगी जहां मुस्लिम आबादी का एक निर्णायक प्रतिशत उसके विपक्षी दलों के वोट बैंक में सेंध लगा सकता है।इनमें असम सहित उत्तर-पूर्व के राज्य भी शामिल हो सकते हैं। ओवैसी अपने कट्टरवादी सोच के साथ मुस्लिम आबादी का जितनी तीव्रता से ध्रुवीकरण करेंगे उससे ज़्यादा तेजी के साथ भाजपा को उसका राजनीतिक लाभ पहुँचेगा।भाजपा सहित किसी भी बड़े राजनीतिक दल ने अगर बिहार में चुनाव प्रचार के दौरान ओवैसी के घोषित-अघोषित एजेंडे पर प्रहार नहीं किए तो उनकी राजनीतिक मजबूरियों को समझा जा सकता है। ममता बनर्जी मुस्लिम मतदाताओं से खुले तौर पर यह नहीं कहना चाहेंगीं कि वे अगर तृणमूल के उम्मीदवारों के ख़िलाफ़ ओवैसी की पार्टी को वोट देंगे तो वे फिर से मुख्यमंत्री नहीं बन पाएंगी और इससे उनके ही (मुस्लिमों के) हितों पर चोट पड़ेगी।
बिहार में अपने उम्मीदवारों की जीत के बाद ओवैसी ने कहा था कि नतीजे उन लोगों के लिए संदेश है जो सोचते हैं कि उनकी पार्टी को चुनावों में भाग नहीं लेना चाहिए।’क्या हम कोई एन.जी.ओ. हैं कि हम सिर्फ सेमीनार करेंगे और पेपर पढ़ते रहेंगे ?हम एक राजनीतिक पार्टी हैं और सारे चुनावों में भाग लेंगे।’ अत: अब काफी कुछ साफ हो गया है कि ओवैसी का एजेंडा भाजपा के खिलाफ मुस्लिमों द्वारा उस विपक्ष को समर्थन देने का भी नहीं हो सकता जो अल्पसंख्यक मतों को बैसाखी बनाकर अंतत: बहुसंख्यक जमात की राजनीति ही करना चाहता है। कांग्रेस के कमजोर पड़ जाने का बुनियादी कारण भी यही है। बंगाल चुनावों के नतीजे ना सिर्फ भाजपा का ही भविष्य तय करेंगे, तृणमूल कांग्रेस की कथित अल्पसंख्यक परक नीतियों और सबसे अधिक तो ओवैसी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के लिए निर्णायक साबित होंगे। भाजपा अगर एक विपक्ष-मुक्त भारत के निर्माण में लगी है तो उसमें निश्चित ही ओवैसी की पार्टी को शामिल करके नहीं चल रही होगी !
-श्रवण गर्ग
सात माह बाद खुला अचानकमार अभयारण्य
'छत्तीसगढ़' संवाददाता
बिलासपुर, 1 नवंबर। अचानकमार टाइगर रिजर्व आज से पर्यटकों के लिये खोल दिया गया है। कोरोना संक्रमण काल के कारण इसे बीते अप्रैल माह से ही बंद कर दिया गया था।
अचानकमार में वन विभाग द्वारा एक 20 सीटर बस और सात जिप्सियों की व्यवस्था भ्रमण के लिये तय की गई है। यहां के विश्रामगृह और वाहनों का आरक्षण ऑनलाइन भी कराया जा सकता है। इसके लिये http://www.tigersofachanakmar.org लिंक पर जाना होगा।
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-श्रवण गर्ग
नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ इस समय एक ज़बरदस्त माहौल है।कहा जा रहा है कि इस बार तो उनकी पार्टी काफ़ी सीटें हारने वाली है और वे चौथी बार मुख्यमंत्री नहीं बन पाएँगे।प्रचारित किया जा रहा है कि ‘सुशासन’ बाबू ने बिहार को अपने राज के पंद्रह सालों में ‘कुशासन’ के अलावा और कुछ नहीं दिया।(हालाँकि भाजपा नेता सुशील मोदी भी इस दौरान एक दशक से ज़्यादा समय तक उनके ही साथ उप-मुख्यमंत्री रहे हैं)।क्या ऐसा तो नहीं है कि मतदाताओं, जिनमें कि लाखों की संख्या में वे प्रवासी मज़दूर भी शामिल हैं, जो अपार अमानवीय कष्टों को झेलते हुए हाल ही में बिहार में अपने घरों को लौटे हैं, की नाराज़गी की बारूद का मुँह मोदी सरकार की ओर से हटाकर नीतीश की तरफ़ किया जा रहा है ? नीतीश के मुँह पर भाजपा से गठबंधन का मास्क चढ़ा हुआ है और वे इस बारे में कोई सफ़ाई देने की हालत में भी नहीं हैं।
सवाल इस समय सिर्फ़ दो ही हैं : पहला तो यह कि आज अगर बिहार में राजनीतिक परिस्थितियाँ पाँच साल पहले जैसी होतीं और मुक़ाबला जद (यू)-राजद के गठबंधन और भाजपा के बीच ही होता तो चुनावी नतीजे किस प्रकार के हो सकते थे ? दूसरा सवाल यह कि नीतीश को देश में ग़ैर-कांग्रेसी और ग़ैर-भाजपाई विपक्ष के किसी सम्भावित राजनीतिक गठबंधन के लिहाज़ से क्या कमज़ोर होते देखना ठीक होगा ?और यह भी कि क्या तेजस्वी यादव ( उनके परिवार की ज्ञात-अज्ञात प्रतिष्ठा सहित ) नीतीश के योग्य राजनीतिक उत्तराधिकारी माने जा सकते हैं ?
पहला सवाल दूसरे के मुक़ाबले इसलिए ज़्यादा महत्वपूर्ण है कि मई 2014 में हिंदुत्व की जिस 'विराट' लहर पर सवार होकर मोदी पहली बार संसद की चौखट पर धोक देने पहुँचे थे, उसके सात महीने बाद पहले दिल्ली के चुनावों और फिर उसके आठ माह बाद 2015 के अंत में बिहार के चुनावों में भाजपा की भारत-विजय की महत्वाकांक्षाएँ ध्वस्त हो गई थीं। इस समय तो हालात पूरी तरह से बेक़ाबू हैं, भाजपा या मोदी की कोई लहर भी नहीं है , मंदिर-निर्माण के भव्य भूमि पूजन के बाद भी। वर्ष 2018 के अंत और उसके बाद हुए विधानसभा चुनावों में कई राज्यों में ग़ैर-भाजपा सरकारों का बनना और हाल के महीनों में महाराष्ट्र का घटनाक्रम भी काफ़ी कुछ साफ़ कर देता है। पिछले चुनाव में जद (यू)-राजद गठबंधन की जीत के बाद शिवसेना ने नीतीश कुमार को ‘महानायक’ बताया था। उस समय तो शिवसेना एनडीए का ही एक हिस्सा थी।
मुद्दा यह भी है कि नीतीश के ख़िलाफ़ नाराज़गी कितनी ‘प्राकृतिक’ है और कितनी ‘मैन्यूफ़्रैक्चर्ड’ ।और यह भी कि भाजपाई शासन वाले राज्यों के मुक़ाबले बिहार की स्थिति कितनी ख़राब है ?किसी समय मोदी के मुक़ाबले ग़ैर-कांग्रेसी विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद के विकल्प माने जाने वाले नीतीश कुमार को इस वक्त हर कोई हारा हुआ क्यों देखना चाहता है ! इस समय तो एनडीए में शामिल कई दल भाजपा का साथ छोड़ चुके हैं।क्या ऐसा नहीं लगता कि जद(यू) की भाजपा के मुक़ाबले कम सीटों की गिनती या तो नीतीश को मोदी के ख़िलाफ़ ग़ैर-कांग्रेसी विपक्ष की ओर से आ सकने वाली किसी भी चुनौती को समाप्त कर देगी या फिर ‘सुशासन बाबू’ को बिहार का उद्धव ठाकरे बना देगी ?
कोई भी यह नहीं पूछ रहा है कि बिहार में नीतीश कुमार का कमज़ोर होना, क्या दिल्ली में नरेंद्र मोदी सरकार को 2024 के (या उसके पूर्व भी) चुनावों के पहले और ज़्यादा ‘एकाधिकारवादी’ तो नहीं बना देगा ? भाजपा चुनावों के ठीक पहले ‘चिराग़’ लेकर बिहार में क्या ढूँढ रही है ? चिराग़ ने सिर्फ़ नीतीश की पार्टी के उम्मीदवारों के ख़िलाफ़ ही अपने लोग खड़े किए हैं, भाजपा के ख़िलाफ़ नहीं। चिराग़ अपने आपको मोदी का ‘हनुमान’ बताते हुए नीतीश को रावण साबित करना चाह रहे हैं और प्रधानमंत्री मौन हैं। चिराग़ की पार्टी भी एनडीए में है और नीतीश की भी।
चुनाव परिणाम आने के बाद अगर नीतीश भाजपा को चुनौती दे देते हैं कि या तो वे (नीतीश) एनडीए में रहेंगे या फिर चिराग़ तो मोदी क्या निर्णय लेना चाहेंगे ? प्रधानमंत्री ने जब 23 अक्टूबर को रोहतास ज़िले के सासाराम से अपने चुनावी अभियान की शुरुआत ही अपने ‘प्रिय मित्र’ राम विलास पासवान को श्रद्धांजलि देते हुए की, तब उनके साथ मंच पर बैठे हुए नीतीश कुमार ने कैसा महसूस किया होगा ? क्या ऐसा होने वाला है कि बिहार में जीत गए तो मोदी के ‘नाम’ के कारण और हार गए तो नीतीश के ‘काम’ के कारण ?
बिहार में राजनीतिक दृष्टि से इस समय जो कुछ भी चल रहा है, वह अद्भुत है, पहले कभी नहीं हुआ होगा ! वह इस मायने में कि भाजपा का घोषित उद्देश्य और अघोषित एजेंडा दोनों ही अलग-अलग दिखाई दें ! घोषित यह कि नीतीश ही हर हाल में मुख्यमंत्री होंगे (‘चाहे हमें ज़्यादा सीटें मिल जाएँ तब भी’- जे.पी.नड्डा )। और अघोषित यह कि तेजस्वी के मार्फ़त लालू की हर तरह की वापसी को भी रोकना है और नीतीश पर निर्भरता को भी नियंत्रित करना है। इसमें यह भी शामिल हो सकता है कि भाजपा, नीतीश की राजनीतिक ज़रूरत बन जाए जो कि अभी उल्टा है।
नीतीश कुमार की तमाम कमज़ोरियों, विफलताओं और मोदी के शब्दों में ही गिनना हो तो ‘अहंकार’ के बावजूद इस समय उनका (नीतीश का) राष्ट्रीय पटल पर एक राजनीतिक ताक़त के रूप में बने रहना ज़रूरी है।अगर अतीत के लालू-पोषित ‘जंगल राज’ के ख़ौफ़ से मतदाताओं को वे मुक्त कर पाएँ तब भी तेजस्वी यादव केवल नीतीश के ‘परिस्थितिजन्य’ अस्थायी बिहारी विकल्प ही बन सकते हैं ‘आवश्यकताजन्य’ राष्ट्रीय विकल्प नहीं। इस समय ज़रूरत एक राष्ट्रीय विकल्प की है, जो कि ममता का उग्रवाद नहीं दे सकता। नीतीश को राजनीतिक संसार में मोदी का एक ग़ैर-भाजपाई, ग़ैर-कांग्रेसी प्रतिरूप माना जा सकता है।
दस नवम्बर के बाद बिहार में बहुत कुछ बदलने वाला है।इसमें राजनीतिक समीकरणों का उलट-फेर भी शामिल है। याद किया जा सकता है कि संघ प्रमुख मोहन भागवत द्वारा पिछली बार बिहार में अंतिम चरणों के मतदान के ठीक पहले आरक्षण के ख़िलाफ़ व्यक्त किए गए विचारों ने नतीजों को भाजपा के विरुद्ध और नीतीश के पक्ष में प्रभावित कर दिया था।अच्छे से जानते हुए भी कि आरक्षण को लेकर संघ और भाजपा के विचार पिछले चुनाव के बाद से बदले नहीं हैं ,केवल गठबंधनों के समीकरण बदल गए हैं ,नीतीश कुमार ने भाजपा को नाराज करते हुए अगर आबादी के अनुसार आरक्षण देने का इस समय मुद्दा उठा दिया है तो उन्होंने ऐसा उसके राजनीतिक परिणामों पर विचार करके ही किया होगा।चुनावी नतीजों के बाद हमें उनके राजनीतिक परिणामों की भी प्रतीक्षा करना चाहिए।
क्या चिंता केवल यहीं तक सीमित कर ली जाए कि कुछ टीवी चैनलों ने विज्ञापनों के जरिए धन कमाने के उद्देश्य से ही अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए उस बड़े फर्ज़ीवाड़े को अंजाम दिया होगा जिसका कि हाल ही में मुंबई पुलिस ने भांडाफोड़ किया है? या फिर जब बात निकल ही गई है तो उसे दूर तक भी ले जाया जाना चाहिए? मामला काफी बड़ा है और उसकी जड़ें भी काफी गहरी हैं। यह केवल चैनलों द्वारा अपनी टीआरपी (टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट) बढ़ाने तक सीमित नहीं है।
पूछा जा सकता है कि इस भयावह कोरोना काल में जब दुनियाभर में राष्ट्राध्यक्षों की लोकप्रियता में सेंध लगी पड़ी है, डोनाल्ड ट्रम्प जैसे चतुर खिलाड़ी भी अपने से एक अपेक्षाकृत कमज़ोर प्रतिद्वंद्वी से ‘विश्वसनीय’ ओपीनियन पोल्स में बारह प्रतिशत से पीछे चल रहे हैं, हमारे यहाँ के जाने-माने मीडिया प्रतिष्ठान द्वारा करवाए जाने वाले सर्वेक्षण में प्रधानमंत्री मोदी को 66 और राहुल गांधी को केवल आठ प्रतिशत लोगों की पसंद बतलाए जाने का आधार आखऱि क्या है ? मोदी का पलड़ा निश्चित ही भारी होना चाहिए, पर क्या उनके और राहुल के बीच लोकप्रियता का गड्ढा भी अर्नब के ‘रिपब्लिक’ और दूसरे चैनलों के बीच की टीआरपी के फर्क की तरह ही संदेहास्पद नहीं माना जाए? इस बात का पता कहाँ के पुलिस कमिश्नर लगाएँगे कि प्रभावशाली राजनीतिक सत्ताधारियों की लोकप्रियता को जाँचने के मीटर देश में किस तरह के लोगों के घरों में लगे हुए हैं ?
जनता को भ्रम में डाला जा रहा है कि टीआरपी का फर्जीवाड़ा केवल विज्ञापनों के चालीस हजार करोड़ के बड़े बाजार में अपनी कमाई को बढ़ाने तक ही सीमित है। हकीकत में ऐसा नहीं है। दांव पर और कुछ इससे भी बड़ा लगा हुआ है। इसका संबंध देश और राज्यों में सूचना तंत्र पर कब्जे के जरिए राजनीतिक आधिपत्य स्थापित करने से भी हो सकता है। देशभर में अनुमानत: जो बीस करोड़ टीवी सेट्स घरों में लगे हुए हैं और उनके जरिए जनता को जो कुछ भी चौबीसों घंटे दिखाया जा सकता है, वह एक खास किस्म का व्यक्तिवादी प्रचार और किसी विचारधारा को दर्शकों के मस्तिष्क में बैठाने का उपक्रम भी हो सकता है।वह विज्ञापनों से होने वाली आमदनी से कहीं बड़ा और किसी सुनियोजित राजनीतिक नेटवर्क का हिस्सा हो तो भी कोई आश्चर्य की बात नहीं।
क्या कोई बता सकता है कि सुशांत सिंह राजपूत मामले में मुंबई पुलिस को बदनाम करने के लिए हजारों (पचास हजार?) फेक अकाउंट सोशल मीडिया पर रातों-रात कैसे उपस्थित हो गए और इतने महीनों तक सक्रिय भी कैसे रहे? इतने बड़े फर्जीवाड़े के सामने आने के बाद सत्ता के गलियारों से अभी तक भी कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया सामने क्यों नहीं आई? सोशल मीडिया पर इतनी बड़ी संख्या में फर्जी अकाउंट क्या देश की किसी बड़ी राजनीतिक हस्ती या दल के खिलाफ इसी तरह से रातों-रात प्रकट और सक्रिय होकर ‘लाइव’ रह सकते हैं ? निश्चित ही इतने बड़े काम को बिना किसी संगठित गिरोह की मदद के अंजाम नहीं दिया जा सकता। चुनावों के समय तो ये पचास हज़ार अकाउंट पचास लाख और पाँच करोड़ भी हो सकते हैं ! हुए भी हों तो क्या पता ! ‘रिपब्लिक’ या गिरफ्त में आ गए कुछ और चैनल तो टीवी स्क्रीन के पीछे जो बड़ा खेल चलता है, उसके सामने कुछ भी नहीं हैं। वह खेल और भी बड़ा है और उसके खिलाड़ी भी बड़े हैं। उसके ‘वार रूम्स’ भी अलग से हैं।
सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर नामी हस्तियों के लिए जिस तरह से ‘फर्जी’ फॉलोअर्स और ‘लाइक्स’ की खऱीदी की जाती है, वे चैनलों के फर्ज़ीवाड़े से कितनी अलग हैं? एक प्रसिद्ध गायक (रैपर) द्वारा यू ट्यूब पर अपना रिकार्ड बनाने के लिए फ़ेक ‘लाइक्स’ और ‘फॉलोइंग’ खरीदने के लिए बहत्तर लाख रुपए किसी कम्पनी को दिए जाने की हाल की कथित स्वीकारोक्ति, क्या हमें कहीं से भी नहीं चौंकाती? ऐसी तो देश में हजारों हस्तियाँ होंगी, जिनके सोशल मीडिया अकाउंट बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ ही संचालित करती हैं और इसी तरह से उनके लिए ‘नकली फालोअर्स’ की फौज भी तैयार की जाती है।
सवाल यह भी है कि एक खास किस्म की विचारधारा, दल विशेष या व्यक्तियों को लेकर सच्ची-झूठी ‘खबरों’ की शक्ल में अखबारों तथा पत्र-पत्रिकाओं में ‘प्लांट’ की जाने की सूचनाएँ और उपलब्धियाँ दो-तीन या ज़्यादा चैनलों द्वारा टीआरपी बढ़ाने के लिए अपनाए जाने वाले हथकंडों से कितनी भिन्न हैं ? सरकारें अपने विकास कार्यों की संदेहास्पद उपलब्धियों के बड़े-बड़े विज्ञापन जारी करती हैं और मीडिया संस्थानों में उन्हें लपकने के लिए होड़ मची रहती है। राज्यों में मीडिया (पर नियंत्रण) के लिए विज्ञापनों का बड़ा बजट होता है, जिस पर पूरी निगरानी ‘ऊपर’ से की जाती है। लिखे, छपे, बोले और दिखाए जाने वाले प्रत्येक शब्द और दृश्य की कड़ी मॉनीटरिंग होती है और उसी से विज्ञापनों की शक्ल में बाँटी जाने वाली राशि तय होती है। बताया जाता है कि ‘सुशासन बाबू' के बिहार में सूचना और जन-सम्पर्क विभाग का जो बजट वर्ष 2014-15 में लगभग 84 करोड़ था, वह पाँच सालों (2018-19) में बढक़र 133 करोड़ रुपए से ऊपर हो गया। चालू चुनावी साल का बजट कितना है अभी पता चलना बाक़ी है। अनुमानित तौर पर इतनी बड़ी राशि का साठ से सत्तर प्रतिशत प्रचार-प्रसार माध्यमों को दिए जाने वाले सरकारी विज्ञापनों पर खर्च होता है। हाल में सरकार की ‘उपलब्धियों’ का नया वीडियो भी जारी हुआ है और वह ख़ूब प्रचार पा रहा है।
कोई भी चैनल या प्रचार माध्यम, जिनमें अख़बार भी शामिल है, कभी यह नहीं बताता या स्वीकार करता कि पिछले साल भर, महीने या सप्ताह के दौरान कितनी अपुष्ट और प्रायोजित खबरें प्रसारित-प्रकाशित की गईं, कितने लोगों और समुदायों की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुँचाई गई, साम्प्रदायिक वैमनस्य फैलाने में क्या भूमिका निभाई गई! तब्लीगी जमात को लेकर जो दुष्प्रचार किया गया, वह तो अदालत के द्वारा बेनकाब हो भी चुका है। दिल्ली के दंगों में मीडिया की भूमिका का भी आगे-पीछे खुलासा हो जाएगा। एक चैनल पर बहस के बाद एक राजनीतिक दल से जुड़े प्रवक्ता की मौत ने क्या एंकरों की भाषा, जुबान और आत्माएँ बदल दी हैं या फिर सब कुछ पहले जैसा ही चल रहा है? कोरोना सहित बड़े-बड़े मुद्दों को दबाकर महीनों तक केवल एक अभिनेत्री और उसके परिवार को निशाने पर लेने का उद्देश्य क्या हकीकत में भी सिर्फ अपनी टीआरपी बढ़ाना था या फिर उसके कोई राजनीतिक निहितार्थ भी थे? ‘रिपब्लिक‘ चैनल या अर्नब जैसे ‘पत्रकार/एंकर’ कभी भी अकेले नहीं पडऩे वाले हैं! न ही मुंबई पुलिस द्वारा पर्दाफाश किए गए किसी भी फर्जीवाड़े में किसी को भी कभी कोई सजा होने वाली है। मारने वालों से बचाने वाले के हाथ काफी लंबे और बड़े हैं।
-श्रवण गर्ग
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने जब महाराष्ट्र से प्रकाशित होने वाली एक पत्रिका से अपने साक्षात्कार में कहा होगा कि पूरी दुनिया में भारत के मुस्लिम ही सबसे ज़्यादा संतुष्ट हैं, तब वे निश्चित ही कल्पना नहीं कर पाए होंगे कि एक राष्ट्रभक्त पारसी समूह और दक्षिण भारत के एक सार्वजनिक उपक्रम द्वारा संयुक्त रूप से संचालित आभूषण बनाने वाली कम्पनी तनिष्क द्वारा जारी किए जाने वाले वीडियो विज्ञापन के बाद राष्ट्रवादियों के झुंड उनके कहे की इस तरह से धज्जियाँ उड़ा देंगे ! इस हिंदी पत्रिका का नाम ‘विवेक’ बताया जाता है और भागवत का साक्षात्कार प्रकाशित होने के कोई पाँच दिन बाद ही ‘तनिष्क’ के खिलाफ मचे ‘सोशल बवाल’ ने देश में हिंदू-मुस्लिम संबंधों के ‘ज़मीनी विवेक’ की ‘गोदाई’ कर दी।
भारतीय त्योहारों के अवसर पर जारी किए जाने वाले अनूठे विज्ञापनों की तनिष्क की एक लम्बी श्रंखला है। विवाद का मुद्दा बनाए गए वीडियो विज्ञापन में एक ऐसी गर्भवती हिंदू महिला की ‘गोद भराई’ की रस्म के अत्यंत ही भावपूर्ण दृश्य हैं, जिसका विवाह एक मुस्लिम परिवार में हुआ है। ससुराल में हिंदू परम्परा के दृश्य से अभिभूत महिला जब अपनी मुस्लिम सास से सवाल करती है कि ऐसी रस्म तो उनके यहाँ नहीं होती तो वह (सास) जवाब देती है कि बेटी को ख़ुश रखने की रस्म तो हर घर में होती है।बवाल मचाने वालों ने अपनी ‘जनता ट्रायल’ में विज्ञापन को ‘लव-जिहाद’ को बढ़ावा देने वाला ठहरा दिया।
विरोध से घबराकर ‘तनिष्क’ ने अपने कर्मचारियों की हिफाजत के हित में विज्ञापन को वापस ले लिया।जिन लोगों ने विरोध किया वे उस छब्बीस-ग्यारह की बर्बरता को भूल गए, जब पाकिस्तानी आतंकवादियों ने इसी टाटा समूह के मुंबई स्थित ‘ताज होटल’ को खून की होली का मैदान बना दिया था और उसके सभी वर्गों के कर्मचारियों ने अपनी जानों की क़ुर्बानी देकर मेहमानों की जानें बचाई थीं।
मोहन भागवत एक बहुत ही विचारशील व्यक्ति हैं। ऐसा माना जाता है कि वे काफ़ी सोच-विचारकर ही कुछ कहते हैं, जिसमें यह भी शामिल होता है कि उनके कहे के बाद उसकी धार्मिक-राजनीतिक प्रतिक्रिया क्या हो सकती है! पर सवाल यह भी है कि भागवत या अन्य कोई विचारक कभी भी यह दावा क्यों नहीं करते कि दलित और पिछड़े वर्गों के लोग भी सबसे ज़्यादा भारत में ही संतुष्ट हैं ?
जब किसी प्रतिष्ठित हिंदू संगठन के सम्मानित व्यक्ति द्वारा केवल एक समुदाय विशेष को लेकर ही इस तरह का कोई दावा किया जाता है तो उससे जो ध्वनि निकलती है, वह कुछ अलग तरह से महसूस की जाती है। और वह यह कि जिन लोगों की संतुष्टि की बात कही जा रही है, उन्हें तो वास्तव में भारत देश में उस तरह से निवास करने की नैतिक पात्रता ही नहीं है, जैसी कि बाकी वर्गों और समुदायों को है। इस सवाल को तो खैर कोई उठा ही नहीं सकता कि सभी हिंदू भी वास्तव में संतुष्ट हैं या नहीं जबकि भारत को ‘मूलत:’ उन्हीं का देश माना जाता है। ऐसा मानकर चला जाता है कि अगर रहवासी बहुसंख्यक समुदाय का है तो उसके असंतुष्ट होने का तो कभी कोई कारण हो ही नहीं सकता।
हकीकत यह है कि लगभग सभी राजनीतिक दल, जिनमें कांग्रेस भी शामिल है, स्वतंत्रता प्राप्ति के सात दशकों से ज़्यादा समय बाद भी करोड़ों की एक बड़ी आबादी को कोई ‘आत्माधारी’ शरीर नहीं बल्कि एक ‘विषय’ (सब्जेक्ट) मानते हैं। इन दलों के सामने सवाल इस आबादी को विकास (या विज्ञापनों में भी!) बराबरी की भागीदारी प्रदान कराने का नहीं बल्कि यह है कि उसे अपने आपको देश की ‘मुख्यधारा’ में शामिल होने के बारे में सोचना चाहिए। उस मुख्यधारा में जो कि उसके लिए अदृश्य बना दी गई है।भारत को इस आबादी का देश ही नहीं माना जाता। उसे एक ऐसा मेहमान या शरणार्थी समझा जाता है, जो या तो ट्रेन छूट जाने के कारण अपने लिए निर्धारित वतन को रवाना नहीं हो पाया या फिर वह जान-बूझकर ही विलम्ब से स्टेशन पर पहुँचा।यह कोई नहीं बताता कि ‘मुख्यधारा’ आखिर किस कसौटी या बलिदान को माना जाएगा ! तनिष्क के विज्ञापन की बात करें तो उसकी एक परिभाषा यही निकलती है कि बहू अगर मुस्लिम और सास हिंदू होती तो ‘गोद भराई’ देश की मुख्यधारा में शामिल मान ली जाती।
दलित महिलाओं के साथ उच्च वर्गों से संबंध रखने वाले अपराधियों द्वारा बलात्कार, रात के अंधेरे में उनका प्रशासन द्वारा शव-दाह और सत्ताओं में बैठे लोगों (उत्तरप्रदेश ,राजस्थान, मध्यप्रदेश, ओडिशा आदि सभी शामिल हैं) द्वारा उनका बचाव-यह देश की कौन सी मुख्यधारा है, जिसके जरिए हम दुनिया की महाशक्ति बनना चाह रहे हैं ?
चिंता इस बात की नहीं है कि एक पारसी मालिक के आधिपत्य वाली कम्पनी द्वारा जारी विज्ञापन का इतने आक्रामक तरीके से विरोध किया गया ( गांधीधाम, गुजरात में तो धमकियों के बाद ‘तनिष्क’ के एक शोरूम के बाहर एक माफीनामा उसके मैनेजरों को गुजराती भाषा में चिपकाना पड़ा) कि उसे आनन-फानन में वापस लेना पड़ा और टाटा समूह की समूची देशभक्ति कठघरे में खड़ी कर दी गई, ज़्यादा क्षोभ यह है कि सत्ता और संगठनों के उच्च पदों पर बैठे लोगों ने भी इस नए कि़स्म के राष्ट्रवाद पर अपनी कोई आपत्ति या प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की।
सवाल यह भी है कि जब अति विशिष्ट लोगों के द्वारा इस तरह के दावे किए जाएँ कि मुस्लिम सबसे ज़्यादा संतुष्ट हैं, महिलाएँ सबसे ज़्यादा सुरक्षित हैं, दलितों और पिछड़ों के सम्मान की पूरी रक्षा की जाएगी तो उस पर कोई सवालिया निशान क्या केवल उन लोगों के द्वारा ही लगाए जाने चाहिए जो कि वास्तव में पीडि़त हैं या फिर उनके द्वारा भी जो राजनीतिक शोषण की समूची व्यवस्था को मज़बूत करने में अपनी भागीदारी निभा रहे हैं ?
-श्रवण गर्ग