रायपुर
‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता
रायपुर, 14 अक्टूबर। केंद्र सरकार द्वारा आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत शुरु की गई कोल ब्लाकों की नीलामी प्रक्रिया ने देशभर के आदिवासी क्षेत्रों में नया बखेड़ा खड़ा कर दिया है। एक तरफ अपनी आजीविका के लिए पूरी तरह वनों पर आश्रित आदिवासी समाज अचानक आए इस संकट से चिंतित होकर आंदोलन पर उतर आया तो दूसरी ओर, वन्य प्राणियों के प्राकृतिक रहवास और पर्यावरण को लेकर अनेक सवाल उठ खड़े हुए हैं। छत्तीसगढ़ में भी यही परिदृश्य है, लेकिन यहां हो रहे आदिवासी आंदोलन में जहां राज्य सरकार और आंदोलनकारी एक ही पलड़े पर हैं, वहीं दोनों के ही निशाने पर दूसरे पलड़े में खड़ी मोदी सरकार की नीतियां हैं।
केंद्र की मोदी सरकार ने 18 जून को छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना, मध्य प्रदेश और झारखंड के 41 कोयला खदानों में कमर्शियल माइनिंग की नीलामी प्रक्रिया के लिए नोटिफिकेशन जारी किया था। इस पर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने पर्यावरणीय संवेदनशीलता और लेमरू प्रोजेक्ट का हवाला देते हुए 22 जून को एक पत्र लिखकर केंद्र से हसदेव क्षेत्र की पांच खदानों को कमर्शियल माइनिंग नीलामी प्रक्रिया से बाहर रखने का आग्रह किया था।