रायपुर
इंस्टीट्यूट ऑफ एनर्जी इकोनॉमिक्स एंड फाइनेंशियल एनालिसिस की रिपोर्ट
‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता
रायपुर। केंद्र सरकार ने बुधवार को कैबिनेट की बैठक में 2025-26 तक पेट्रोल में 10 की जगह 20 फीसदी एथेनॉल मिलाने को मंजूरी दे दी। दरअसल, केंद्र सरकार की नजर पेट्रोलियम पदार्थों के आयात पर लगने वाले 551 बिलियन डॉलर के उस बिल को कम करने की तरफ है, जो लगातार बढ़ रहा है। लेकिन बुधवार के फैसले से देश को मक्के और गन्ने जैसी फसलों का रकबा बढ़ाना होगा, जो कि एथेनॉल बनाने के लिए चारे की तरह काम करता है। भारत में केंद्र सरकार का यह फैसला किसानों के साथ वाहन मालिकों का भी खासा नुकसान करेगा, क्योंकि पेट्रोल में एथेनॉल मिलाने से उनकी गाडिय़ों का माइलेज बिगड़ जाएगा।
भारत फिलहाल अपनी पेट्रोलियम पदार्थों की जरूरत का 85 प्रतिशत आयात करता है। सरकार की दलील है कि पेट्रोल में एथेनॉल की मात्रा मौजूदा 10 प्रतिशत से बढ़ाकर अगले 6 साल में 20 फीसदी करने से उसका पेट्रोलियम आयात का खर्च 4 बिलियन डॉलर, यानी करीब 30 हजार करोड़ रपए कम होगा। मूल रूप से एथेनॉल की ब्लेंडिंग को 20 प्रतिशत तक बढ़ाने का सुझाव नीति आयोग की तरफ से आया था, जिसके कैबिनेट ने मंजूर किया है। सरकार का यह भी दावा है कि पेट्रोल में एथेनॉल की ब्लेंडिंग से प्रदूषण कम होगा। हालांकि इंस्टीट्यूट ऑफ एनर्जी इकोनॉमिक्स एंड फाइनेंशियल एनालिसिस की रिपोर्ट कहती है कि इससे ग्लोबल वॉर्मिंग को बढ़ाने वाली गैसों को कम करने में खास मदद नहीं मिलने वाली है, बल्कि इससे देश की खाद्य सुरक्षा पर विपरीत असर पड़ेगा।
गाडिय़ों को होगा नुकसान
अगर सरकार पेट्रोल में एथेनॉल की ब्लेंडिंग करने की जगह इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा देती तो वह पर्यावरण के लिए ही नहीं, खाद्य सुरक्षा के लिए भी मुफीद होता। मिसाल के लिए 187 हेक्टेयर मक्के की फसल से पैदा हुए एथेनॉल को पेट्रोल में मिलाकर एक वाहन को सालभर में उतना ही दौड़ाया जा सकता है, जितना एक एकड़ क्षेत्र में सौर ऊर्जा से पैदा हुई बिजली से किसी ईवी को चार्ज करने पर वह तय करेगी। यानी एथेनॉल ब्लेंडेड गाडिय़ों और ईवी के बीच संचालन व्यय का अनुपात 187 प्रतिशत है।
आपकी गाडिय़ों को होगा यह बड़ा नुकसान भारत में अभी तक गन्ने के शीरे से बने एथेनॉल का करीब 10 प्रतिशत पेट्रोल में मिलाया जा रहा है। इसे अगर ई20 यानी 20 प्रतिशत के स्तर तक लाना हो तो गाडिय़ों के इंजन को इसके उपयुक्त बनाना होगा, जो कि एक खर्चीला काम है। भारत में 2008 से जो गाडिय़ां बन रही हैं, वे 10 फीसदी तक एथेनॉल ब्लेंडिंग को ही बर्दाश्त कर सकती हैं। ईंधन किफायती गाडिय़ां तो उससे भी कम, यानी ई5 (5 फीसदी ब्लेंडिंग ) को ही बर्दाश्त कर पाती हैं। अब केंद्र सरकार के फैसले के मुताबिक पेट्रोल में एथेनॉल की ब्लेंडिंग मौजूदा 10 फीसदी से बढ़ाई जाए तो ई10 वाली गाडिय़ों में पेट्रोल की खपत 7 फीसदी और ई 5 वाली गाडिय़ों में 10-15 फीसदी तक बढ़ जाएगी।
भारत में अभी शराब बनाने वाली डिस्टिलरियों और अनाज से एथेनॉल पैदा करने वाली डिस्टिलरियों से 6.84 बिलियन लीटर एथेनॉल पैदा किया जाता है। अगर केंद्र सरकार को 2025-26 तक लक्षित 10.16 बिलियन लीटर एथेनॉल पैदा करना है तो उसे सालाना 60 लाख मीट्रिक टन गन्ने और 16.5 लाख मीट्रिक टन अनाज की अतिरिक्त जरूरत होगी। यानी देश को मक्का उत्पादन बढ़ाने के लिए 30 हजार वर्ग किलोमीटर अतिरिक्त जमीन चाहिए। रिपोर्ट के मुताबिक भारत इससे आधी जमीन पर 2050 तक बिजली पैदा कर सकता है।
बात केवल जमीन की ही नहीं है। एक टन गन्ने की फसल 100 किलो शकर और 70 लीटर एथेनॉल पैदा करती है। लेकिन केवल एक किलोग्राम शकर के उत्पादन के लिए 2000 लीटर तक पानी की जरूरत पड़ती है। इसी तरह एक लीटर एथेनॉल पैदा करने के लिए 2860 लीटर पानी चाहिए। इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या केंद्र सरकार किसानों से जबर्दस्ती या अनुबंध पर मक्के और गन्ने की ही खेती करवाएगी? अगर ऐसा होता है तो फिर बाकी अनाज कौन उगाएगा ? किसान परिवारों और देश की आम गरीब जनता की खाद्य सुरक्षा का क्या होगा ? इन सवालों को देखते हुए सरकार का फैसला देश की जनता के पेट पर लात मारने से कम नहीं है। नीति आयोग के रोडमैप पर उठते गंभीर सवाल गन्ने और शकर उद्योग पर गठित सरकारी टास्क फोर्स की रिपोर्ट कहती है कि केवल धान और गन्ने की खेती में ही देश का 70 फीसदी सिंचाई का पानी खप जाता है। इसके बाद और बाकी फसलों के लिए ज्यादा पानी नहीं बचता। इसे देखते हुए देश को फसल चक्र में बदलाव करने के साथ ही एथेनॉल बनाने के लिए दूसरी पर्यावरण अनुकूल फसलें तलाशनी होंगी।
धान और गन्ने के छिलके, बांस, जौ से बनेगा बायोफ्यूल
बायोफ्यूल को लेकर राष्ट्रीय नीति में धान के पुआल, गन्ने के छिलके, बांस और अन्य गैर खाद्य वनस्पतियों से एथेनॉल बनाने की बात कही गई है, लेकिन कैबिनेट के फैसले ने इन नीति को एक बार फिर परंपरागत विकल्पों- गन्ने और मक्के से ईंधन बनाने की तरफ लाकर खड़ा कर दिया है।
सरप्लस धान और रतनजोत विकल्प
बायोफ्यूल उत्पादन के लिए उपरोक्त जीन्स की कमी होने के आंकलन को देखते हुए छत्तीसगढ़ के नजरिए से सरप्लस धान और रतनजोत भी बेहतर विकल्प होंगे। छत्तीसगढ़ में सालाना 30 लाख टन से अधिक धान सरप्लस होता है। वहीं छत्तीसगढ़ की भूमि में रतनजोत उत्पादन बढ़ाया जा सकता है। इसके लिए इंडियन ऑयल ने छत्तीसगढ़ बायोफ्यूल प्राधिकरण से एक एमओयू भी कर रखा है।