राजनांदगांव

मेहनतकश मजदूरों की कोरोना ने तोड़ी कमर
30-Apr-2021 2:02 PM
मेहनतकश मजदूरों की कोरोना ने तोड़ी कमर

  मजदूर दिवस पर बोले श्रमिक- जीने के लिए संघर्ष बना परंपरागत व्यवहार  

‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता
राजनांदगांव, 30 अप्रैल।
एक मई यानी मजदूर दिवस की खास महत्ता से लेकर मेहनतकश कौम माने जाने वाले मजदूर अंजान है। मजदूरों को इस दिन की खासियत को लेकर जानकारी की कमी है। वहीं एक मई को मजदूर दिवस के रूप में मनाए जाने पर मजदूरों के मन में सरकारों को लेकर कई तरह के सवाल खड़े हो रहे हैं। श्रमिकों को इस बात का इल्म नहीं है कि मजदूरों के हितों को लेकर केंद्र और राज्य सरकारों के पास ढेरों योजनाएं हैं। वैसे तो इन योजनाओं से मजदूरों के जीवन में खास बदलाव नजर नहीं आता, फिर भी सरकारों की दलील में यह बात हमेशा रही है कि श्रमिकों के जीवनस्तर को बेहतर रूप देने के लिए अफसर बिरादरी नीतिगत निर्णय लेता रहा है। 

‘छत्तीसगढ़’ से चर्चा करते कुछ मजदूरों ने कहा कि पेट की आग बुझाने के लिए मेहनत करना परंपरागत स्वभाव में बदल गया है। घर से काम करने  के लिए एक निर्धारित वक्त तय रहता है। जबकि वापसी का कोई समय तय नहीं है। एक मजदूर बाबूलाल चंद्राकर पेशे से हाथ ठेला खींचते हैं। वह लॉकडाउन में भी पूर्व दिनों की तरह सुबह 6 बजे निकलकर काम की तलाश करते हैं। लॉकडाउन से उनके कमाई पर स्वभाविक रूप से असर पड़ा है। लॉकडाउन में वह बमुश्किल 50 से 100 रुपए ही दिनभर मेहनत करने के बाद जुटा पा रहे हैं। उनका कहना है कि बिना हाथ-पैर चलाए पेट भरना मुश्किल है।
 
इसी तरह जंगलपुर निवासी रेवाराम साहू भी ठेला खींचकर दो वक्त की रोटी के लिए मेहनताना जुटाते हैं। शहर में पहुंचकर वह गलियों में सामानों की ढुलाई करते हैं। तब कहीं उन्हें मजदूरी मिलती है। इसी तरह इंदिरा नगर निवासी लक्ष्मी यादव भी मजदूरी करने को अपना किस्मत मानती है। गरीबी से तंग उसके परिवार को अब कोरोना से भी मुकाबला करना पड़ रहा है। जाहिर तौर पर दोहरी मार पडऩे से मजदूरों के जीवन में आफत आ गया है। इस कठिन दौर में वह मजदूरी करने के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रही है। 

नंदई की मंगला सोनकर इस बात से वाकिफ नहीं है कि सरकारों ने मजदूरों का भला करने के लिए कई योजनाएं बनाई है। उनका सवाल है कि यदि ऐसा है तो मजदूरों के जीवनस्तर में क्यों बदलाव नहीं हो रहे हैं, बल्कि वह यह सवाल करती है कि मजदूरों की आर्थिक स्थिति दिन-ब-दिन कमजोर हो रही है। बहरहाल मजदूर दिवस पर श्रमिकों की जुबान पर दर्द और शिकवा-शिकायतें हैं। सरकारों से उन्हें कोई मदद नहीं मिलने का अफसोस है। वहीं वह अपने जीवन में अब कोई बड़े बदलाव की उम्मीद नहीं देखते हैं।

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