राजपथ - जनपथ
दानीदाता से लोग लुटे...
ऑनलाइन एप से होने वाली ठगी का कोई ओर-छोर नहीं है। लोगों के हाथ में डेटा के साथ मोबाइल फोन क्या आया, धोखाधड़ी के शिकार होते जा रहे हैं। पर ऐसी सामूहिक ठगी शायद पहले नहीं हुई हो, जैसी सरगुजा जिले के भटगांव में हुई है। करीब 6-7 सौ लोगों ने दानीदाता एप डाउनलोड किया। कम से कम 500 रुपये का निवेश। फुटबाल में बेटिंग खेलने का मौका मिलता था। एक दिन में अधिकतम तीन बार। इसके बाद 0.75 प्रतिशत रकम जमा की गई राशि के लाभ के रूप में खाते में जमा हो रही थी। जितना ज्यादा निवेश, उतना ज्यादा फायदा। कई लोगों ने 2 लाख और उससे ज्यादा भी लगाए। 6 माह तक ऐप ठीक-ठाक चला। अब यह बंद हो चुका है, गूगल प्ले स्टोर से भी गायब है। अकेले भटगांव में कहा जा रहा है कि लोगों के एक करोड़ रुपये से ज्यादा डूब गए। बाकी जगहों से जानकारी जुटाई जाए तो यह रकम कहां पहुंचेगी, अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। गूगल सिर्फ वेरिफाइड एप अपने प्ले स्टोर पर डालने का दावा करता है। फिर ऐसी धोखाधड़ी करने वाले एप की उसने पुष्टि क्यों नहीं की, लोग जानना चाहते हैं। साइबर क्राइम से निपटने में अपनी जांच एजेंसियां भी बहुत एक्सपर्ट नहीं। सरकार ने ऐसे एप पर निगरानी के लिए कोई तंत्र भी नहीं बनाया है। चिटफंड कंपनियों के जरिये ठगी का तरीका पुराना हो गया, यह नई तकनीक से की जाने वाली ठगी है।
यह तो हद हो गई...
जंगल अफसर वन्यजीवों की हिफाजत को लेकर कितने सजग हैं यह कोरिया जिले के हाल ही में बने गुरु घासीदास टाइगर रिजर्व में हुई टाइगर की मौत से पता चलता है। मौत के अगले दिन बड़े अधिकारी घटनास्थल पर पहुंचे और घोषणा कर दी कि टाइग्रेस (बाघिन) की मौत हुई है। उन्हें पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टरों ने बताया कि यह मादा नहीं, नर बाघ है। यह ठीक है कि शहरी इलाकों से लोग जंगल में मौज-मस्ती के लिए जाते हैं और शराबखोरी भी कई लोग करते हैं। पर टाइगर रिजर्व और बायोस्फेयर के नाम पर नागरिकों को आने-जाने पर जो पाबंदी लगा दी जाती है उनका फायदा वन अधिकारी उठाते हैं। जंगल में बसे गांवों के लोग ज्यादातर उनसे भयभीत रहते हैं क्योंकि बीच-बीच में उनको इनसे ही रोजगार मिलता है। जंगल के भीतर क्या हो रहा है यह बाहरी दुनिया को पता ही नहीं चलता। कैम्पा और दूसरे मदों से जंगल में करोड़ों रुपये पहुंच रहे हैं। जीपीएम जिले के मरवाही वन मंडल में सात करोड़ रुपये के काम हुए नहीं और अधिकारियों ने रकम दबा दी। इसमें तत्कालीन जिला पंचायत सीईओ निपट गए, डीएफओ पर एक्शन हुआ। विधानसभा में भी यह मामला उठा था। सुनने में आ रहा है कि गुरु घासीदास टाइगर रिजर्व में भी ऐसा ही खेल चल रहा है। राजधानी में बैठे अफसरों की मेहरबानी से यहां कैंपा मद में खूब पैसे आ रहे हैं। टाइगर रिजर्व के डायरेक्टर राजधानी में बैठे एक सीनियर ऑफिसर के करीबी हैं, इसलिये ऐसा मुमकिन हो रहा है। घने जंगलों के भीतर चौड़ी सडक़ें और पुल-पुलियों का निर्माण कराया जा रहा है, जो जानवरों की स्वछन्द आवाजाही पर विपरीत प्रभाव डाल रहा है। इन निर्माण कार्यों की गुणवत्ता भी देखने वाला कोई नहीं है। जीपीएम जिले का मामला कोरिया जिले के ही संसदीय सचिव गुलाब कमरो ने विधानसभा में उठाया था, पर पता नहीं अपने खुद के जिले में हो रही गड़बड़ी की तरफ उनका ध्यान क्यों नहीं है? जिस रेंजर के इलाके में घटना हुई है वे तीन बार अपना तबादला रुकवाकर यहीं डटे हैं। विभाग में कई डिप्टी रेंजर अधिकारियों और नेताओं की उदारता के चलते रेंजर के प्रभार में हैं। ये भी उनमें से एक हैं। पहले इन अफसरों को नर-मादा पहचानने की ट्रेनिंग देनी चाहिए, उसके बाद उन्हें जंगल भेजना चाहिए।
झरने की ताकत
एक ओर बिजली के लिए देशभर में कोयले का संकट बना हुआ है और इसके लिए उद्योगपति घने जंगलों को भी उजाडऩे पर आमादा हैं, वहीं दूसरी ओर रायगढ़ के धरमजयगढ़ इलाके में अलग हटकर काम हुआ है। बेलसिंगा और माली कछार उरांव जनजाति बाहुल्य गांव हैं। पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण यहां तार खींचकर बिजली नहीं पहुंचाई जा सकी, पर विकल्प के रूप में सौर ऊर्जा की सुविधा भी अब तक नहीं मिल पाई। अब यहां सामाजिक विज्ञानी प्रो. डीएस मालिया ने प्राकृतिक झरने से टर्बाइन चलाकर बिजली पैदा कर दी है। जैसा उनका दावा है, दोनों गांवों के 26 घरों में पांच-पांच बल्ब इस बिजली से जलेंगे। आंगनबाड़ी और स्कूल भी बिजली से रोशन होंगे। यही नहीं रायगढ़ जिले के दो और गांवों में बहुत जल्दी यह प्रयोग शुरू किया जाएगा। जंगल को बचाये रखकर प्रकृति में उपलब्ध साधनों से ही गांव के विकास का यह सटीक उदाहरण है। हैरानी की बात है कि पिछले 20 साल से प्रो. वालिया इस आइडिया को मूर्त रूप देना चाहते थे, पर बजट के अभाव में काम रुका था। शासन ने शायद इस नये प्रयोग को अहमियत नहीं दी, वरना ग्रामीण विकास के मद में कई तरह के फंड होते हैं, जिससे यह काम पहले पूरा हो सकता था।
तो इसलिये बंधे हैं हाथ...
जो हसदेव अरण्य को बचाने के लिए चल रहे आंदोलन को देखने के लिए नहीं पहुंच सके हैं, यह तस्वीर देख सकते हैं। एक तरफ वन कर्मचारी मजदूरों को गाडिय़ों में भरकर पेड़ों को काटने के लिए पहुंचे हैं, दूसरी ओर पेड़ों को काटने से रोकने के लिए प्रभावित आदिवासी ढाल बनकर खड़े हैं।