राजपथ - जनपथ
आला अफसरों का जमावड़ा
पिछले दिनों राजनांदगांव शहर के एक तेंदूपत्ता व्यापारी के घर की शादी में राज्यभर के आला आईपीएस अफसरों के जमावड़े पर पुलिस महकमे में चटकारे लिए खूब बातें हो रही हैं। शादी में तेंदूपत्ता व्यापारी ने उन इलाकों के पुलिस अफसरों को खास न्यौता दिया था, जहां घने जंगल से उसका कारोबार पुलिस निगरानी में चलता रहा है। बताते हंै कि नांदगांव के एक आलीशान होटल में तेंदूपत्ता व्यापारी ने अपनी बहन के वैवाहिक कार्यक्रम में आईजी स्तर से लेकर एसडीओपी और थानेदारों से शादी में शामिल होने की गुजारिश की थी। सुनते हैं कि तेंदूपत्ता के कारोबार में नक्सल इलाकों में अफसर, व्यापारी के जान-माल को लेकर बेहद संजीदा रहे हैं। व्यापारी का सुकमा से लेकर राजनांदगांव के कई फड़ों पर एकाधिकार रहा है। हर साल तेंदूपत्ता तोड़ाई से लेकर ढुलाई तक पुलिस की इस कारोबारी पर नजरें इनायत रहती हैं। इस गहरे लगाव के पीछे पुलिस अफसरों की निजी रूचि के मायने कोई भी निकाल सकता है।
चर्चा है कि व्यापारी की बहन की शादी में कुछ अफसरों ने आने के लिए 300 किमी की लंबी दूरी तय करने से गुरेज नहीं किया। वैवाहिक समारोह में राज्य के आईजी और एसपी से लेकर एसडीओपी भी पहुंचे। थानेदारों ने भी अफसरों की मौजूदगी के चलते शादी में शिरकत की। व्यापारी ने पुलिस के साथ बनाए सालों के रिश्ते के दम पर शादी समारोह में एक तरह से अपनी प्रशासनिक धाक का नमूना दीगर कारोबारियों के सामने पेश किया।
प्रदीप गांधी सब पर भारी
पैसे लेकर संसद में सवाल पूछने के केस में फंसे प्रदीप गांधी भले ही भाजपा की मुख्य धारा से बाहर है, लेकिन वो पार्टी के शीर्ष नेताओं के हमेशा संपर्क में रहते हैं। संसद सत्र के दौरान वो हमेशा संसद भवन में देखे जा सकते हैं। पूर्व सांसदों को प्रवेश की अनुमति तो रहती ही है, और वो सेंट्रल हॉल में भी जा सकते हैं। प्रदीप गांधी की संसद की सदस्यता खत्म हुए 17 साल हो गए हैं, लेकिन उनकी सक्रियता मौजूदा सांसदों से ज्यादा दिखती है। शनिवार की शाम निवर्तमान राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को संसद के दोनों सदनों के सदस्यों ने उन्हें औपचारिक बिदाई दी। कोविंद सेंट्रल हॉल से बाहर निकले, तो प्रदीप गांधी भी उनके साथ हो लिए, और कुछ देर राष्ट्रपति के साथ फुसफुससाते नजर आए। दिलचस्प बात यह है कि प्रदेश के किसी भी सांसद को राष्ट्रपति के आसपास फटकने का मौका नहीं मिला। प्रदीप गांधी सब पर भारी दिखे।
सिंहदेव का क्या होगा?
टीएस सिंहदेव दिल्ली में है। वो पिछले दो दिन गुजरात में रहकर पार्टी की विधानसभा चुनाव तैयारियों की समीक्षा कर रहे थे। सिंहदेव का मसला हाईकमान के संज्ञान में है, लेकिन तत्काल कुछ होने की संभावना नहीं दिख रही है। चर्चा है कि सिंहदेव ने कई विधायकों से चर्चा भी की है। कहा जा रहा है कि उन्होंने अपनी स्थिति स्पष्ट की है, और उन्हें बताया है कि किन कारणों से पंचायत विभाग से अलग होना पड़ा है। जिन विधायकों से चर्चा हुई है, उनमें से कई ने सिंहदेव के खिलाफ चले हस्ताक्षर अभियान का हिस्सा थे। सिंहदेव के पद छोडऩे के फैसले से सदन में सरकार की काफी किरकिरी हुई थी। यह मामला आगे क्या रुख लेता है, यह देखना है। सुना है कि कुछ विधायकों ने उन्हें लिखकर भी दिया है कि उन्होंने ग़लतफ़हमी में दस्तख़त किए थे।
छुपा रुस्तम वाटरकॉक
बारिश के दिनों में धरती पर हरियाली की चादर बिखर जाती है। पशु-पक्षियों को इस मौसम में भरपूर आहार और पानी मिलता है। कई दुर्लभ पक्षी भी इस दौरान दिखाई देने लग जाते हैं। इनमें से एक है वाटरकॉक। इसे प्रवासी पक्षी बताया जाता है जो बारिश के दिनों में, खासकर धान की बोनी के वक्त दिखते हैं। इससे काफी लोग परिचित नहीं है। यह दलदल में झाडिय़ों के बीच प्राय: रहता है और फिर धीरे से फसलों के बीच चला जाता है। शर्मिला है, छिपकर रहता है। कोयल से अलग लेकिन उसी की तरह नर वाटरकॉक मादा को बुलाने के लिए कू-कू की आवाज निकालता है। पिछले कुछ सालों से इसे जगदलपुर के दलपत सागर में भी देखा जा रहा है। यह तस्वीर मोहनभाठा (कोटा) से हाल ही में ली गई है।
नौ दिन ऑफ मगर किस काम के
प्रदेश के सरकारी अधिकारी-कर्मचारी सोमवार से पांच दिन की हड़ताल पर होंगे, पर दफ्तरों में कुल छुट्टियां 9 दिनों की होगी, जिसकी शुरूआत शनिवार से हो गई। धरना देने के लिए कर्मचारी संगठनों के पदाधिकारी, सदस्य तो बैठेंगे पर बाकी सैर पर निकलना चाहते हैं। एक कर्मचारी ने अपना दर्द बयान किया, क्या करें, लगातार बारिश हो रही है। दूसरा ट्रेनों में भी रिजर्वेशन नहीं मिल रहा है। इन सबके चलते कहीं भी घूम आना मुश्किल है। काश बारिश नहीं होती तो अपने ही साधन से कहीं निकल पड़ते।
एक ओर किसान हैं जो अच्छी बारिश के चलते अच्छी फसल आने की उम्मीद में खुश दिखाई दे रहे हैं, दूसरी ओर कई कर्मचारी हैं जो मना रहे हैं कि मौसम खुले तो निकल पडऩे का माहौल बने।
फ्राड करने वाले का ज्ञान बढ़ा...
हर कोई परेशान है, मोबाइल फोन पर धोखाधड़ी के लिए आने वाले मेसैजेस को लेकर। ज्यादातर लोग कोई जवाब दिए बिना ऐसे एसएमएस डिलीट कर देते हैं। पर कभी-कभी कोई फुरसतिया या जागरूक व्यक्ति उसका जवाब भी दे देता है। इस मामले में भी ऐसा ही हुआ। फ्रॉड करने वाले को मेसैज भेजकर उसकी गलतियों के बारे में ध्यान दिलाया गया। गलत अंग्रेजी को सुधारने कहा, अपना असली नाम बताया और नसीहत दी कि थोड़ी पढ़ाई और कर लेता तो दो नंबर का काम करने की जरूरत नहीं पड़ती। जवाबी मैसेज क्या भेजा गया उसे भी पढिय़े-
मुझे खेद है सर, अगली बार फ्राड करते समय मैं इसका ध्यान रखूंगा। गाइड करने के लिए आभार...।
121 आदिवासियों को रिहा किसने कराया?
बुरकापाल में हुई 25 जवानों की हत्या के मामले में पांच साल से जेल में बंद सभी 121 आदिवासियों को पिछले दिनों कोर्ट ने बरी कर दिया और सबके सब रिहा हो गए। रिहाई के बाद जिला पंचायत के अध्यक्ष हरीश कवासी ने जो बयान जारी किया, उससे विवाद खड़ा हो गया है। कवासी का कहना है कि यह प्रदेश सरकार द्वारा प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप से निर्दोष आदिवासियों को रिहा कराने के लिए किए गए प्रयासों का नतीजा है। कांग्रेस ने चुनाव में यह वायदा किया भी था। अब तक 1200 आदिवासी रिहा कराए जा चुके हैं। बयान आते ही आदिवासी महासभा के अध्यक्ष पूर्व विधायक मनीष कुंजाम ने कहा कि ऐसा दावा करने वालों को कानून का ज्ञान नहीं। इस रिहाई में कोई भूमिका सरकार की नहीं रही। सभी कोर्ट से केस जीतकर बाहर आए हैं। मुकदमा चला, गवाही और जिरह हुई। रिहा करना ही था तो चार साल तक सरकार क्या कर रही थी? कुंजाम ने यह भी जोड़ दिया कि जिन 1200 लोगों की रिहाई की बात की जा रही है, वे सब शराब के मामले में पकड़ गए थे और कांग्रेस कार्यकर्ता थे। अभी भी कई निर्दोष जेलों में बंद हैं, उन्हें क्यों रिहा नहीं कराया जा रहा है?
यह तथ्य तो सामने है कि सरकार ने मामला वापस नहीं लिया, कोर्ट ने सुनवाई की प्रक्रिया अपनाई, इसके बाद रिहाई हुई। पर कवासी ने अप्रत्यक्ष प्रयास का भी जिक्र किया है। क्या इसका यह मतलब है कि सरकार की ओर से दलीलें कमजोर रखी गईं, जिसके चलते केस कमजोर हो गया? या फिर कोर्ट को सरकार की ओर से कोई संदेश दिया गया था? दोनों ही बातें न्याय व्यवस्था के लिए गंभीर है। कवासी को यह तो बताना चाहिए कि यह अप्रत्यक्ष सहयोग किस तरह का था? जो 1200 लोग पहले रिहा हुए उनके मामले तो सरकार ने वापस लिए हैं, पर इस मामले में ऐसा करना शायद मुमकिन नहीं था क्योंकि 25 जवानों की हत्या का आरोप लगा था। अब इन आदिवासियों के रिहा हो जाने के बाद यह तो साफ हो गया कि वे निर्दोष थे, पर यह जवानों की हत्या किसने की, क्या मारे गए जवानों के परिवारों को न्याय मिला? यह सवाल अपनी जगह पर तो मौजूद ही है।