राजपथ - जनपथ

कोरवा, बिरहोर स्कूल क्यों नहीं जाते?
कई दशक पहले देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद जब सरगुजा दौरे पर आए थे तो पहाड़ी कोरवा, बिरहोर जैसी विलुप्त होती जनजातियों के उत्थान की उम्मीद में उन्होंने अपना दत्तक पुत्र कहा था। आज यह सम्मान तो उन्हें मिला हुआ है पर दशा में खास बदलाव नहीं आया है। कोरबा में पहाड़ी कोरवा जनजाति की संख्या 2464 है, इनमें से 251 ही शिक्षित हैं, यानि करीब 10 प्रतिशत। बिरहोर 1584 हैं इनमें शिक्षित 71 ही हैं। जो पांच प्रतिशत भी नहीं। आंकड़े यह भी हैं कि इनमें से कॉलेज की पढ़ाई किसी ने पूरी नहीं की। कोरवा में 12वीं पास 2 तो बिरहोर में एक ही है, केवल 6 और 4 लोग दसवीं पास हैं। बाकी सब शिक्षित प्राइमरी और मिडिल तक ही पढ़ पाए।
यह हैरानी की बात है कि जिस कोरबा जिले में सीएसआर का बड़ा फंड हो, डीएमएफ में भरपूर राशि खर्च की जाती हो, विशेष प्राधिकरण भी है, तब इतनी ऐसी हालत क्यों है? इनकी संख्या इतनी कम है कि इन्हें कभी नेताओं ने वोट बैंक के रूप में नहीं देखा, शिक्षित हैं नहीं इसलिए प्रशासन पर दबाव भी नहीं बना पाए। यह भी एक पक्ष हो सकता है कि इन दोनों जनजातियों ने शिक्षा को जरूरी भी नहीं समझा हो। जंगल में पहाडिय़ों के बीच काफी भीतर उनके पारा-टोला होते हैं। स्कूल उनके घरों के पास नहीं होंगे, क्योंकि सरकार ने इनके लिए अलग कोई नीति बनाई नहीं। कम दाखिला वाले स्कूलों को तो बंद कर दिया जाता है, नये क्यों खुलेंगे। अब कोरबा में एक अभियान उन्होंने शुरू कराया गया है कि पहाड़ी कोरवा, बिरहोर बच्चों को स्कूलों में दाखिला दिया जाए। जो कभी स्कूल नहीं गए या पढ़ाई शुरू करने के बाद छोड़ दी, ऐसे 9 बच्चों को अब तक छात्रावासों में दाखिला दिलाया गया है, जिनमें एक बालिका है। कलेक्टर संजीव झा यहां सरगुजा से स्थानांतरित होकर आए हैं। वहां भी विशेष संरक्षित जातियों की स्थिति कमोबेश ऐसी ही है। अब स्थिति कुछ बदलने की उम्मीद है।
पोस्ट बॉक्स पर गाजर घास...
तकनीक ने संप्रेषण और संवाद के माध्यम को इतना विकसित कर दिया है कि धीरे-धीरे इन लाल डिब्बों की अहमियत ही घटती जा रही है। कुछ सरकारी चि_ियां, बैंक के कागजात जरूर अब भी भारतीय डाक सेवा से ही मिलते हैं, पर अब मेसैज, वाट्सएप, कॉल, वीडियो कॉल जैसी क्रांति आने के बाद कोई पोस्टकार्ड, अंतर्देशीय पत्र और पीले रंग के लिफाफे की जरूरत ही नहीं समझता। पर कुछ दिन बाद एक खास मौका आ रहा है जब इस लाल डिब्बे के आसपास उगे गाजर घास की सफाई हो जाएगी-वह है रक्षाबंधन।
डॉ. बांधी ने कोई नई बात नहीं कही
मस्तूरी विधायक डॉ. कृष्णमूर्ति बांधी का बयान दो दिनों से चर्चा में है। उन्होंने कहा कि सरकार को शराब की जगह गांजा-भांग के सेवन को विकल्प के रूप में लाना चाहिए। उनका यह कहना है कि हत्या, चोरी, लूट, बलात्कार के मामले शराब के साथ जुड़े होते हैं।
छत्तीसगढ़ में भांग की बिक्री पर रोक नहीं है। अनेक त्यौहारों व धार्मिक आयोजनों में भी इसे जगह मिलती है। पर गांजा प्रतिबंधित है। सांसद शशि थरूर, मेनका गांधी, केटीएस तुलसी जैसे अनेक नेता गांजे के उत्पादन को मान्यता देने का पक्ष लेते रहे हैं। तुलसी ने तो सुप्रीम कोर्ट में इसे लेकर एक याचिका भी दायर कर रखी है। गांजा अपने यहां प्रतिबंधित होते हुए भी इसकी खपत में कोई कमी नहीं है। पुलिस आंध्रप्रदेश और ओडिशा से हो रही तस्करी को रोज पकड़ रही है। यह यूपी बिहार भेजने के लिए रूट भी है। पुलिस की अवैध कमाई का यह जरिया भी है।
वैसे तो किसी भी तरह के नशे की पैरवी करना जायज नहीं, पर शायद डॉ. बांधी कहना चाह रहे हों कि नशाखोरी रुक नहीं सकती तो शराबबंदी के विकल्प के रूप में गांजा और भांग ज्यादा सही है। शराबबंदी छत्तीसगढ़ सरकार के संकल्प पत्र में था। अब तक नहीं की जा सकी तो इसकी वजह यह नहीं है कि वह इसे नशे का बेहतर जरिया मानती है, बल्कि इसलिये है क्योंकि इससे सरकार के राजस्व पर असर पड़ेगा। यह तो गांजा से कई गुना अधिक अवैध कमाई का जरिया है। ओवररेट, तस्करी, कोचिये के जरिये अवैध बिक्री और मिलावट की शिकायतें आती रहती है। परिवार, दोस्तों के बीच हत्या, चाकूबाजी की घटनाओं को देखें तो हर दूसरे मामले में शराब शामिल मिलेगी। इसलिये डॉ. बांधी की बातों को अजीबोगरीब या विवादित कैसे कह सकते हैं? पर सरकार मानेगी नहीं क्योंकि गांजा-भांग इतना सस्ता नशा है कि इससे सरकारी कोष में कुछ भी नहीं आएगा।