राजपथ - जनपथ
यहां तो पूरा समय रहेगा...
रायपुर समेत चार संभागों के कमिश्नर रहे गोविंद राम चुरेंद्र की पुलिस प्राधिकार समिति के सचिव के पद पर पोस्टिंग कई लोगों को अटपटी लग सकती है। वजह यह है कि चुरेन्द्र से पहले समिति मेें रिटायर्ड एडिशनल कलेक्टर ओपी सिंह सचिव रहे हैं, और अब इस पद को सचिव स्तर के अफसर चुरेन्द्र के लिए अपग्रेड किया गया है।
समिति पुलिस कर्मियों से जुड़ी शिकायतों की पड़ताल करती है। समिति में चेयरमैन जस्टिस आईएस उपवेजा का कार्यकाल खत्म होने के बाद नई नियुक्ति नहीं हुई है। दुर्ग की अधिवक्ता रामकली यादव समिति की सदस्य हैं।
कहा जा रहा है कि चुरेन्द्र को सिर्फ इसलिए हटाया गया कि वो राजनीतिक गतिविधियों में विशेष रुचि ले रहे थे। चर्चा है कि वो बालोद जिले की विधानसभा सीट से चुनाव लडऩा चाहते हैं, और हल्ला है कि वो दबे-छिपे इसकी तैयारी भी कर रहे हैं। जहां तक उनकी नई नियुक्ति का सवाल है, तो प्राधिकार में ज्यादा कुछ काम नहीं है। सालभर में अधिकतम 4-5 फाइलें ही आती हैं। ऐसे में चुरेन्द्र के पास अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए रणनीति बनाने का पूरा समय रहेगा।
अब माहौल कुछ बेहतर
स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव को अफसरों को लेकर शायद ही कोई शिकायत रहेगी। वजह यह है कि प्रसन्ना आर को स्वास्थ्य सचिव बनाया गया है। भीम सिंह की संचालक के पद पर पोस्टिंग हुई है। खास बात यह है कि ये दोनों सरगुजा कलेक्टर रह चुके हैं, और सिंहदेव से दोनों के अच्छे संबंध हैं।
इससे पहले के विभाग प्रमुखों से सिंहदेव ज्यादा सहूलियत में नहीं रहे। डॉ. आलोक शुक्ला के साथ उनकी अनबन किसी से छिपी नहीं थी। यही वजह है कि डॉ. आलोक शुक्ला खुद रिक्वेस्ट कर विभाग से अलग हुए थे। उनके बाद रेणु पिल्ले से विवाद तो किसी तरह का नहीं था, मगर वो नियम पसंद वाली अफसर मानी जाती हैं, ऐसे में उनके साथ पूरी तरह सहज नहीं थे। यही हाल डॉ. मनिंदर कौर द्विवेदी के साथ भी था। अब डॉ. मनिंदर कौर केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर गई हैं, तो सीमित विकल्पों में प्रसन्ना, और भीम सिंह का चुनाव किया गया। जो कि सिंहदेव के मनमाफिक रहा।
चंद्राकर के गजब के तेवर!
भाजपा ने पिछले दिनों मुख्यमंत्री निवास के घेराव का जो आंदोलन किया तब से पार्टी के तेवर बदल गए हैं। अब वह अचानक इलेक्शन मोड में आ गई पार्टी बन गई है, और इसके सबसे तेज तेवरों वाले विधायक, अजय चंद्राकर पार्टी के प्रदेश के मुख्य प्रवक्ता होकर आग उगल रहे हैं। जिन तेवरों के साथ उन्होंने प्रदेश के एक बड़े अखबार को घेरा है, उससे प्रदेश के बाकी मीडिया का भी सम्हलकर बैठना हो गया है। आमतौर पर राजनीति के लोग मीडिया से कड़वाहट नहीं पालते, क्योंकि यह माना जाता है कि नदी में रहकर मगरमच्छ से बैर क्यों किया जाए। लेकिन अजय चंद्राकर ने अपने ताजा हमले से यह साबित कर दिया है कि वे बचपन से ही मगरमच्छों को पकडऩे वाले नरेन्द्र मोदी की पार्टी के हैं। वैसे चंद्राकर का यह मिजाज एकदम नया भी नहीं है। लोगों को याद होगा कि दो चुनाव पहले जब वे विधानसभा नहीं पहुंच पाए थे, तब भी उन्होंने अपने चुनाव प्रचार के दौरान एक दूसरे प्रमुख अखबार का नाम ले-लेकर भाषण दिए थे कि वे अखबारों के चुनावी-पैकेज खरीदने वाले नहीं हैं, वे उनके खिलाफ जो चाहे छापते रहें।
ऐसा भी नहीं कि मीडिया के पास अजय चंद्राकर के खिलाफ छापने को कोई मुद्दा ही न रहा हो, वे हर वक्त विवादों से घिरे भी रहते हैं, लेकिन आमने-सामने की लड़ाई लडऩे का हौसला भी उनका बने रहता है। अब भाजपा के देखने की बात सिर्फ यही है, कि पार्टी के मुख्य प्रवक्ता के रूप में वे भूपेश बघेल से लड़ते हैं, कांग्रेस पार्टी से लड़ते हैं, या साथ-साथ मीडिया से भी लड़ते हैं। पार्टी प्रवक्ता की मीडिया से ऐसी तीखी लड़ाई बहुत आम बात नहीं है, लेकिन हो सकता है कि यह मीडिया के भी सम्हलने का एक मौका हो कि अब वे अधिक लापरवाह होकर महफूज नहीं रह पाएंगे।
मंत्री के दार्शनिक विचार (1)
छत्तीसगढ़ के मंत्री और सरगुजा के प्रतापपुर से विधायक डॉक्टर प्रेमसाय सिंह टेकाम के पास स्कूल शिक्षा ही नहीं, आदिम जाति अनुसूचित जाति और अल्पसंख्यक कल्याण विभाग भी है। नंदकुमार साय, ननकीराम कंवर और स्वर्गीय अजीत जोगी जैसे अनेक नेता मानते रहे हैं कि आदिवासियों में शराब परंपरा जरूर है, शराब घर में बनाने की छूट भी है लेकिन यह उनकी तरक्की में बहुत बड़ी बाधा है।
डॉक्टर प्रेमसाय को नशा मुक्ति अभियान के समापन समारोह में मुख्य अतिथि के रुप में वाड्रफनगर बुलाया गया था। शराब छोडऩे की नसीहत देने के बजाय वे पीने का सलीका बताने लगे। कहा कि हम भी उपयोग करते हैं। चुनाव वगैरह में भी काम आता है। शराब में पर्याप्त पानी मिलाकर पीना चाहिए, धीरे-धीरे पीना चाहिए। एक ही बार में नहीं गटक जाना चाहिए।
ऐसी नसीहत देने वाले डॉक्टर प्रेमसाय अकेले मंत्री नहीं है। आबकारी मंत्री कवासी लखमा भी समय-समय पर शराब के पक्ष में दलील देते रहते हैं। महिला बाल विकास मंत्री अनिला भेडिय़ा ने भी एक समारोह में सलाह दी थी कि पुरुषों को घर में पीकर सो जाना चाहिए इधर-उधर, लड़ाई-झगड़े करना ठीक नहीं है। यह उस सरकार के मंत्रियों का हाल है, जो चुनाव में लोगों से शराबबंदी का वादा करके मुकर रही है।
मंत्री के दर्शनिक विचार (2)
वाड्रफनगर के नशा मुक्ति अभियान के समापन में पहुंचे मंत्री डॉक्टर प्रेमसाय सिंह टेकाम से सवाल किया गया कि अंबिकापुर-बनारस सडक़ और दूसरी कई सडक़ें जर्जर हालत में हैं, इन्हें सरकार ठीक क्यों नहीं करवा रही है। मंत्री का अनूठा और बेतुका जवाब यह था कि सडक़ें खराब हैं, इसीलिए तो दुर्घटनाओं में कमी आ रही है। सडक़ें अच्छी बन जाएं तो दुर्घटनाएं बढ़ जाती है। हकीकत यह है कि जिस बनारस सडक़ की बात हो रही है, वह ओवरलोड भारी गाडिय़ों के कारण बर्बाद हुई हैं।
पीडब्ल्यूडी मंत्री ताम्रध्वज साहू शायद मंत्री के इस बयान को बुरा मानेंगे। खराब सडक़ों को किसी भी लिहाज से अच्छा बता देना ठीक नहीं है। इससे तो विभाग का बजट ही जीरो हो जाएगा। साहू कई बार कहते हैं कि राज्य सरकार की कोई सडक़ खराब नहीं है, जो हैं, सब राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण की हैं।
यह ध्यान दिलाना जरूरी है कि हाईकोर्ट में प्रदेशभर की खराब सडक़ों को लेकर दायर जनहित याचिका पर सुनवाई चल रही है। न्याय-मित्रों ने इसमें प्रदेश की 3 दर्जन से ज्यादा राज्य और नगर निगम के लंबी-लंबी सडक़ों की जर्जर हालत पर अदालत को रिपोर्ट सौंपी है।
आधी आबादी की दोहरी जिम्मेदारी
कामकाजी महिलाओं की बड़ी मुसीबत होती है। वित्तीय आत्मनिर्भरता के बावजूद लोग उनसे यह उम्मीद करते हैं कि पीढिय़ों से बनी-चली आ रही रूढिय़ों को अपने साथ चिपका कर चले। पति अपनी पत्नी को जींस और टॉप पहनाकर घुमाना चाहता है और सास चाहती है कि उसके माथे पर सिंदूर हो, मंदिर भी जाए, पूजा पाठ भी करें, उपवास भी रखे। वह पति का मन रखने के लिए पहनावा ओढ़ लेती है और उसी पहनावे में सिंदूर-टीका लगाकर, मंगलसूत्र पहनकर मंदिर भी चली जाती है। कितना मुश्किल होता है, दोनों भूमिकाओं में अपने आपको साबित करना।
इन दिनों सरकारी अधिकारी-कर्मचारियों की हड़ताल चल रही है। तीजा में 24 घंटे तक निर्जला उपवास पर रहने का बंधन महिलाओं पर था। फिर हड़ताल पर भी जाना है। महिलाओं को तीजा पर मेहंदी लगाने का भी प्रश्न है। वे हड़ताल में शामिल हुईं, मेहंदी भी लगाई। मेहंदी में लिखा- तीजा न मायके में, न ससुराल में, अब मनेगी बस हड़ताल में। हड़ताल की नहीं, पर मायके या ससुराल नहीं जाने के उनके विद्रोह की तो दाद दी जा सकती है।