राजपथ - जनपथ
पार्टी सदस्यता और चुनौतियाँ
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने भले ही सदस्यता अभियान को लेकर प्रदेश के नेताओं की पीठ थपथपा दी है, और सदस्यता का टारगेट बढ़ा दिया है। मगर पार्टी के अंदरखाने में सदस्यता पर नई उलझन पैदा हो गई है। चर्चा है कि जितना सदस्य बनना बताया गया था, उतने नहीं बने हैं।
नड्डा की समीक्षा बैठक में प्रदेश के नेताओं ने बताया था कि अब तक 27 लाख सदस्य बने हैं। लेकिन वस्तु स्थिति यह है कि अभी सिर्फ 17 लाख सदस्य को ही मान्यता मिली है।
ऐसा नहीं है कि सदस्यता अभियान में कोई फर्जीवाड़ा हुआ है। दरअसल, 17 लाख सदस्य ऑनलाइन बने हैं, और हरेक का रिकॉर्ड मौजूद है। बाकी 10 लाख सदस्य मैन्युअल बने हैं। हाईकमान का स्पष्ट निर्देश है कि केवल ऑनलाइन को ही सदस्य माना जाएगा।
मैन्युअल सदस्य दूर दराज के इलाके जहां मोबाइल नेटवर्क आदि की समस्या थी वहां के लिए अनुमति दी गई थी, लेकिन उनकी भी ऑनलाइन एंट्री करनी होगी तभी उन्हें सदस्य माना जाएगा। यानी उनकी ऑनलाइन एंट्री अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ रही है। इसके बाद सदस्यता के नए टारगेट को लेकर पार्टी नेताओं का पसीना छूट रहा है।
न्याय यात्रा का माहौल
कांग्रेस की न्याय यात्रा गिरौदपुरी धाम से निकलकर कसडोल, और बलौदाबाजार के गांवों से होकर रायपुर के नजदीक खरोरा पहुंच चुकी है। दो तारीख को रायपुर में समापन होगा। न्याय यात्रा की अगुवाई वैसे तो प्रदेश अध्यक्ष दीपक बैज कर रहे हैं, लेकिन पार्टी के बड़े नेता भी अलग-अलग जगहों पर यात्रा में शिरकत कर रहे हैं।
पहले दिन नेता प्रतिपक्ष डॉ. चरणदास महंत, पूर्व डिप्टी सीएम टीएस सिंहदेव, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष मोहन मरकाम साथ थे। जैसे-जैसे यात्रा बढ़ी, तेज धूप और उमस की वजह से यात्रियों का बुरा हाल रहा। बैज ने तो रविवार को दोपहर भोजन के बाद कुछ देर एसी चालू कर कार में आराम किया, और फिर घंटे भर बाद फिर पदयात्रा शुरू की।
पूर्व सीएम भूपेश बघेल भी कल लाव लश्कर के साथ यात्रा में शामिल हुए। वो करीब 5 किमी बैज के साथ चले। इसके बाद वो दिल्ली के लिए निकल गए। उनका अंदाज कुछ हद तक दिवंगत पूर्व सीएम अजीत जोगी जैसा ही था। जोगी भी लाव लश्कर के साथ कार्यक्रम में आते थे, और फिर उनके जाते ही साथ आए लोग भी निकल जाते थे। भूपेश के साथ आए लोग भी निकल गए। फिर भी यात्रा उत्साह देखने को मिल रहा हैै। इससे दीपक बैज, और उनकी टीम काफी खुश भी हैं।
एंटी इनकंबेंसी से जूझ रहे पार्षद
सब कुछ समयानुकूल रहा तो निकाय चुनाव दिसंबर के तीसरे सप्ताह कराए जाएंगे। इसे देखते हुए विपक्ष में बैठे भाजपा के पार्षद, कांग्रेसी महापौर को और कांग्रेस के पार्षद-महापौर, सरकार को कोसने लगे हैं। यह सभी निगम, पालिका और नगर पंचायतों में हो रहा है। पांच वर्ष तक सबने मिलकर खीर खाई और चुनाव के समय खीर को कड़वा बताने में लग गए हैं। जनवरी-19 से 1825 दिन अपनी इनकम बढ़ाने में व्यस्त रहे दोनों ही दलों के पार्षद इस समय ज़बरदस्त एंटी इनकंबेंसी से गुजर रहे।
आउटर कहे जाने वाले वार्डों के पार्षद अधिक जूझ रहे। गांव से वार्ड बने इलाकों में लोगों में पार्षदों के लिए नाराजगी गले तक भरी हुई है।खासकर इन वार्डों के अंतिम छोर वाले इलाकों के लोग सबक सिखाने इंतजार कर रहे हैं। पार्षद कांग्रेस का हो या भाजपा का, इनको निपटाने की ठान चुके हैं। बिना स्ट्रीट लाइट की गलियां, मुख्य सडक़ें। एक-एक स्ट्रीट लाइट के लिए महीनों चक्कर लगवाया है इन पार्षदों ने। अब वोटर की बारी आ रही है। फिर भी इनका कहना है मैंने अपने वार्ड में विकास की गंगा बहाई। सडक़,सफाई बाग बगीचे बनवाए आदि आदि।
इंदौर, दिल्ली चंडीगढ़, बेंगलुरु मैसूर पिकनिक कर आए यह बोलकर कि अपने वार्ड को भी कनॉट प्लेस, लोधी रोड, पैलेस वार्ड, रेसीडेंसी बनाएंगे। लेकिन सच्चाई सबने देखा, हाल की बारिश में शहर, असम होकर रह गया। लोगों को स्कूलों में ठहरना पड़ा। सडक़ों पर बोट चलाना पड़ा। गलत नहीं हैं, नि:संदेह विकास तो हुआ है, इन पार्षदों के बैंक एकाउंट का, इनके स्वयं के मकानों का, स्कूटी, बाइक से अब एक्सयूवी,एसयूवी में चल रहे। जनता सब देख रही, बस आने वाला है उसका समय।
मेहनत का मोल नहीं
पंजाब के किसान, जो अनाज की भरपूर पैदावार के लिए जाने जाते हैं, आज अपनी मेहनत का सही मूल्य न मिलने पर धान को सडक़ों पर फेंककर विरोध कर रहे हैं। यह धान भी कोई साधारण किस्म नहीं, बल्कि सुगंधित बासमती है। किसानों का कहना है कि पिछले साल बासमती की कीमत 917 डॉलर प्रति टन थी, तब उन्हें 3500 रुपये प्रति क्विंटल मिले थे। अब जब इसकी अंतरराष्ट्रीय कीमत 1037 डॉलर प्रति टन हो गई है, तो उन्हें 2200 रुपये से ज्यादा नहीं मिल रहा है।
बासमती की खेती में लागत भी ज्यादा आती है, और बाजार में यह महंगा बिकता है। फिर भी किसानों को इसका फायदा नहीं मिल रहा। उनके अनुसार सारा मुनाफा बिचौलियों और आढ़तियों की जेब में जा रहा है। अगर छत्तीसगढ़ की बात करें, तो यहां ज्यादातर किसान सरकारी खरीद को ध्यान में रखते हुए मोटा धान उगाते हैं। खुले बाजार में बिकने वाले धान की यहां भी कोई खास कीमत नहीं मिलती, चाहे वह सुगंधित हो या मोटा।
इस कठिन परिस्थिति के बावजूद बाजार में चावल की कीमत लगातार बढ़ती जा रही है। बासमती तो बस खास लोगों और खास मौकों के लिए शाही चावल बनकर रह गया है, जबकि मेहनत करने वाले किसानों को उनके पसीने की असली कीमत नहीं मिल रही।
अधूरे आवासों का भविष्य क्या होगा?
छत्तीसगढ़ के पिछले विधानसभा चुनावों में प्रधानमंत्री आवास योजना के ठप पडऩे को भाजपा ने बड़ा मुद्दा बनाया था। इसका खामियाजा कांग्रेस को भुगतना पड़ा। अब नई भाजपा सरकार ने इस योजना को पुन: गति देने के लिए राशि जारी करनी शुरू कर दी है। हाल ही में केंद्र सरकार ने 2400 करोड़ रुपये की राशि स्वीकृत की है, जो प्रस्तावित 5 लाख 11 हजार आवासों की पहली किश्त है। मुख्यमंत्री साय ने कलेक्टरों को निर्देश दिया है कि किसी भी प्रकार की लेन-देन या भ्रष्टाचार की शिकायत मिलने पर सख्त कार्रवाई की जाए।
हालांकि, प्रधानमंत्री आवास योजना में भ्रष्टाचार की शुरुआत लाभार्थियों की सूची में नाम दर्ज होने के समय से ही हो जाती है। बंदरबांट तो किश्त जारी होने के बाद भी कम नहीं। ठेकेदार काम की जिम्मेदारी तो लेते हैं, पर अक्सर उसे अधूरा छोड़ देते हैं। पहली किश्त मिलने के बाद दूसरी किश्त तब जारी होती है जब निर्माण छत की ऊंचाई तक पहुंचता है, और तीसरी किश्त काम के और आगे बढऩे पर। चौथी और अंतिम किश्त तब मिलती है जब मकान पूरी तरह तैयार हो जाता है। फिलहाल, लाभार्थियों के खातों में पहली किश्त जमा कर दी गई है, लेकिन वह राशि अभी फ्रीज है, यानी उसे निकाला नहीं जा सकता। काम की प्रगति के साथ ही पहली किश्त जारी की जाएंगी। पिछले अनुभव बताते हैं कि शुरुआत में निगरानी तो होती है, परंतु बाद में निरीक्षण करने अधिकारी और कर्मचारी खुद ठेकेदारों से मिल जाते हैं। पूरे प्रदेश में ऐसे हजारों मकान हैं, जिनका निर्माण अधूरा पड़ा है क्योंकि अगली किश्त काम अधूरा होने के कारण रुक गई है। ठेकेदार और दलाल पहली किश्त हड़प कर गायब हो चुके हैं। वर्ष 2021 के बाद राज्य सरकार की ओर से हिस्सेदारी न मिलने और कोविड-19 के कारण केंद्र द्वारा धनराशि न भेजे जाने से योजना ठप हो गई। नतीजा यह हुआ कि अब इन लाभार्थियों के पास अपने अधूरे मकानों को पूरा करने के लिए धन नहीं है। प्रदेश में ऐसे ठेकेदारों से शायद ही कभी वसूली की गई हो, जिन्होंने लाभार्थियों की रकम हड़प ली। इस समस्या का हल क्या होगा?