राजपथ - जनपथ

छत्तीसगढ़ की धड़कन और हलचल पर दैनिक कॉलम : राजपथ-जनपथ : कवर्धा अनछुआ
17-Oct-2019
 छत्तीसगढ़ की धड़कन और हलचल पर दैनिक कॉलम : राजपथ-जनपथ : कवर्धा अनछुआ

कवर्धा अनछुआ
प्रदेश में सरकार बदलने के बाद कवर्धा ही एकमात्र ऐसा जिला है जहां प्रशासनिक स्तर पर कोई बदलाव नहीं हुआ है। जबकि यह पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह का गृह जिला है और उनकी व्यक्तिगत पसंद पर यहां के छोटे-बड़े अफसरों की पोस्टिंग होती थी। सरकार बदलने के बाद सबसे पहले कवर्धा कलेक्टर अवनीश शरण और एसपी लाल उम्मेद सिंह को बदले जाने की चर्चा रही, लेकिन 9 महीने गुजरने के बाद भी उन पर किसी तरह की आंच नहीं आई है। जबकि बाकी 26 जिलों के कलेक्टर-एसपी बदले जा चुके हैं। रायपुर में तो 9 महीने में दो एसपी बदल गए हैं। फिर भी कवर्धा जिले में न सिर्फ एसपी-कलेक्टर बल्कि निचले स्तर के अफसर भी यथावत हैं। यहां किसी तरह के फेरबदल के लिए परिवहन मंत्री मोहम्मद अकबर की राय अंतिम होगी। चर्चा है कि सीएम ने उन्हें फ्री हैंड दिया हुआ है। इन सबके बावजूद अकबर प्रशासन पर दबाव के पक्ष में नहीं रहते हैं। प्रशासन पर जरूरत से ज्यादा दबाव का फायदा उन्हें विधानसभा चुनाव में मिला और वे अब तक के छत्तीसगढ़ में सबसे ज्यादा वोट से जीतने वाले विधायक बन गए। सुनते हैं कि कवर्धा में प्रशासनिक महकमे में बदलाव की एक वजह यह है कि सरकार बदलते ही अफसरों ने अपनी कार्यशैली बदल दी है, जो कांग्रेस के लोग पहले निराश रहते थे वे अब संतुष्ट हैं। 

आलोक शुक्ला का वक्त बदला
नान घोटाले में फंसे प्रमुख सचिव डॉ. आलोक शुक्ला को हाईकोर्ट से बड़ी राहत मिल गई है। उनकी अग्रिम जमानत मंजूर कर दी गई है। आईएएस के वर्ष-86 बैच के अफसर डॉ. शुक्ला मौजूदा मुख्य सचिव  सुनील कुजूर के बैचमेट हैं। वे वरिष्ठता क्रम में उनसे ऊपर भी हैं, लेकिन नान घोटाले की वजह से वे अपर मुख्य सचिव नहीं बन पाए। वे पिछले चार साल कानूनी उलझन में फंसे रहे। 

रायपुर में पले-बढ़े डॉ. आलोक शुक्ला की गिनती काबिल अफसरों में होती है। उन्हें पीडीएस में बेहतर काम के लिए प्रधानमंत्री अवार्ड से नवाजा जा चुका है। केन्द्रीय चुनाव आयोग में भी पदस्थापना के दौरान अपना हुनर दिखा चुके हैं। अब जब कोर्ट से उन्हें राहत मिल गई है, तो उनकी पोस्टिंग भी तय मानी जा रही है। उनके रिटायरमेंट में 8 महीने बाकी हैं। मगर उन्हें इसके लिए 31 अक्टूबर तक इंतजार करना पड़ सकता है। वजह यह है कि कुजूर के एक्सटेंशन के लिए सीएम ने पीएम को पत्र लिखा है। यदि एक्सटेंशन नहीं मिलता, तो कुजूर रिटायर हो जाएंगे। तब सीके खेतान या आरपी मंडल में से कोई सीएस बनता है, तो डॉ. शुक्ला की पोस्टिंग हो सकती है। वह भी मंत्रालय के बाहर। लेकिन  अजय सिंह या बैजेन्द्र कुमार, सीएस बनते हैं, तो आलोक शुक्ला को मंत्रालय में पोस्टिंग मिल सकती है। फिलहाल प्रशासनिक फेरबदल को लेकर कयास ही लगाए जा रहे हैं। 

कुत्तों और उनके मालिकों की कहानी...
कुछ लोग सुबह और शाम अपने पालतू कुत्तों को खाना देते हैं, और फिर कुछ देर बाद उन्हें घुमाने के लिए निकलते हैं। घुमाने का तो नाम रहता है, असली मकसद होता है कि अपने घर से दूर, और दूसरे के घरों के करीब उनसे पखाना करवा दिया जाए, ताकि अपने आसपास सफाई बनी रहे। दुनिया के सभ्य देशों में, और हिन्दुस्तान के कुछ सभ्य शहरों में ऐसे लोग जब निकलते हैं, तो अपने साथ कुत्ते का पखाना उठाने के लिए प्लास्टिक का एक सामान लेकर चलते हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ में ऐसा कोई चलन दिखता नहीं है। नतीजा यह होता है कि लोग अपने घर के किनारे अगर कार ऐसे रोकें कि ड्राईवर की सीट दीवार की तरफ रहे, तो कुत्ते की गंदगी पर पांव पडऩे का खासा खतरा रहता है। एक-दो संपन्न इलाकों में ऐसी गंदगी से थके हुए गैर कुत्ता पालकों ने ऐसे कुत्ता-मालिकों के दिखने पर उनके साथ-साथ चलना तय किया, और जैसे ही कुत्ते ने गंदगी की, उन्होंने मालिक को घेरा कि इसे उठाओ। अब खाली हाथ आया हुआ मालिक इसे उठाए तो कैसे उठाए? लेकिन नतीजा यह हुआ कि दो-चार बार ऐसी घेरेबंदी से उस इलाके में कुत्ता मालिकों का आना बंद हो गया। 

गांधीगिरी का यह तरीका ठीक है कि लोगों से अपने कुत्ते की गंदगी उठाकर ले जाने को कहा जाए। यह सत्याग्रह कुछ और आगे बढऩा चाहिए क्योंकि कुछ कुत्ता मालिक तो बाग-बगीचों में भी कुत्ते ले जाने लगे हैं, और मरीन ड्राइव जैसे तालाब-किनारे भी। अब खाली हाथ जाने वाले ऐसे कुत्ताप्रेमी कुछ उठाकर लाएंगे भी कैसे, इसलिए उनकी घेराबंदी ही अकेला जरिया हो सकता है। फिलहाल सोशल मीडिया पर पटना की एक गली में लगे हुए एक पोस्टर की फोटो आई है जिसमें लिखा है- ऐ कमीने, गली को कुत्ते से गंदा मत करा रे कुत्ते...। 

अब हम कुत्ते शब्द को गाली की तरह इस्तेमाल करने के खिलाफ हैं, लेकिन ऐसा जाहिर है कि पटना के लोग हमसे सहमत नहीं हैं।   ([email protected])

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