राजपथ - जनपथ
सबके चक्कर में उजागर हो गए...
रायपुर के तीनों कांग्रेस विधायकों ने मेयर पद के लिए किसका नाम सुझाया था, यह साफ नहीं है। मगर दावेदारों को यह जरूर पता लग गया कि कौन उनके समर्थन में हैं, और कौन विरोध में। सुनते हैं कि दावेदार आपस में विधायकों की गतिविधियों को एक-दूसरे से साझा कर रहे थे। इन सबके चक्कर में एक सीनियर विधायक एक्सपोज भी हो गए।
हुआ यूं कि पिकनिक पर जाने से पहले मेयर के एक दावेदार एक सीनियर विधायक से मिलने उनके घर गए। दावेदार ने उनसे अपने लिए लॉबिंग करने का आग्रह किया। सीनियर विधायक ने उन्हें भरोसा दिलाया कि वे पूरी तरह उनके साथ हैं और निर्दलियों को अपने पाले में करने के लिए टिप्स भी दिए। विधायक के समर्थन का भरोसा मिलने के बाद दावेदार, मेयर पद के दूसरे दावेदार से मिलने पहुंचे। दोनों के बीच चर्चा चल रही थी कि सीनियर विधायक का फोन दूसरे दावेदार के पास आया और उन्होंने अपने पास समर्थन मांगने के लिए आए मेयर के दावेदार से चर्चा का ब्यौरा भी दे दिया।
दोनों दावेदारों ने एक-दूसरे से सीनियर विधायक के साथ हुई बातचीत साझा की। दिलचस्प बात यह है कि यह सब सीनियर विधायक को पता ही नहीं चला और वे सभी को अपना बताने के चक्कर में एक्सपोज हो गए। इसी तरह एक अन्य विधायक के किस्से को भी पार्टी केे लोग चटकारे लेकर सुना रहे हैं। यह विधायक एक दावेदार के घर दो-तीन दिनों तक घंटों मीटिंग कर मेयर बनाने के लिए लॉबिंग करने का दिखावा करते रहे। मगर जिसके लिए लॉबिंग कर रहे थे, उसका नाम ही आगे नहीं बढ़ाया। यह बात भी दावेदार के कानों तक पहुंच गई।
चर्चा यह है कि तीनों विधायक इस कोशिश में थे कि मेयर का दावेदार ऐसा हो, जो भविष्य में उनके लिए चुनौती न बन सके। यानी मेयर पद के लिए एजाज ढेबर को चुपचाप समर्थन दे दिया। ढेबर रायपुर दक्षिण विधानसभा क्षेत्र से पार्षद बने हैं और दक्षिण सीट भाजपा के पास है। ऐसे में ढेबर तीनों विधायकों के लिए चुनौती नहीं है। जबकि मेयर के अन्य दावेदार ज्ञानेश शर्मा, विकास उपाध्याय के लिए, नागभूषण राव और श्रीकुमार मेनन, पूर्व मंत्री सत्यनारायण शर्मा के लिए चुनौती बन सकते थे। इस पूरे घटनाक्रम से एक बात तो साफ हो गई कि दो विधायकों से मेयर पद के दावेदार से खुश नहीं हैं।
दुर्ग संभाग और भाजपा
दुर्ग संभाग में अधिकांश जगहों पर भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया है। कुछ जगह पर तो भाजपा बढ़त के बाद भी अपना अध्यक्ष नहीं बना पाई। भाजपा में प्रत्याशी चयन को लेकर तनातनी चलती रही। संभाग में बुरी हार के लिए पार्टी के भीतर पूर्व सीएम रमन सिंह और सरोज पाण्डेय की आलोचना हो रही है। राजनांदगांव-कवर्धा में रमन सिंह और दुर्ग में सरोज की एक तरफा चली है। सुनते हैं कि राजनांदगांव मेयर पद के लिए शोभा सोनी की जगह नए चेहरे को उतारने का सुझाव भी आया था, लेकिन पूर्व सीएम ने अपने कुछ करीबियों के कहने पर सुझाव को अनदेखा कर दिया।
हाल यह रहा कि नांदगांव में एक भाजपा पार्षद ने ही कांग्रेस के पक्ष में क्रॉस वोटिंग कर दी। यहां भाजपा की आसान हार हो गई। पूरे कवर्धा जिले में भाजपा एक भी जगह मुकाबले पर नहीं रही। डोंगरगढ़ में ज्यादा पार्षद होने के बावजूद पालिका अध्यक्ष का चुनाव हार गई। दुर्ग जिले का हाल यह रहा है कि एक भी म्युनिसिपल में पार्टी को जीत हासिल नहीं हो सकी। दिलचस्प बात यह है कि दुर्ग में हार पर बचाव के लिए सौदान सिंह आगे आए हैं। वे यह कहते सुने गए कि दुर्ग के वार्डों में पहले भी भाजपा पीछे रही है। ऐसे में अब असंतुष्ट नेता हार की भी समीक्षा करने की मांग से परहेज करने लग गए हैं।
छात्र आंदोलनों से परहेज!
सोशल मीडिया पर महज शब्दों से लोगों के दांत, नाखून, बदन की धारियां, और उनकी नीयत, सब कुछ उजागर हो जाते हैं। अभी जामिया मिलिया, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, और जेएनयू को लेकर बहुत से लोगों को लग रहा है कि विश्वविद्यालयों को राजनीति से दूर रहना चाहिए, रखना चाहिए। ये लोग जिस विचारधारा के समर्थन में ऐसे परहेज की वकालत कर रहे हैं, उनके मां-बाप अगर उसी विचारधारा के थे, तो उन्होंने आपातकाल के वक्त, और उसके बाद छात्र आंदोलनों से ही, छात्र राजनीति से ही नेहरू की बेटी की सरकार को जाते देखा था, और उसका जश्न मनाया था। जिन छात्रों को वोट डालने का हक है, जिन विश्वविद्यालयों में राजनीतिक दलों के अपने खुद के छात्र संगठनों के बैनरतले छात्रसंघ के चुनाव होते हैं, उनमें से भी कुछ दलों को आज विश्वविद्यालयों में राजनीति खटक रही है। ऐसे लोग आपातकाल के आलोचक रहे हैं, और उसके बाद की जनता सरकार के दौरान मीसाबंदियों की शक्ल में फायदा भी उठाया है। अब आज उन्हें लग रहा है कि छात्र आंदोलन मोदी सरकार से असहमति के साथ आगे बढ़ रहा है तो वे विश्वविद्यालयों में आंदोलनों के खिलाफ हो गए हैं। हिंदुस्तान केे इतिहास में अगर आपातकाल के वक्त छात्र आंदोलन न होते, तो जयप्रकाश नारायण के पीछे खड़े होने वाली भीड़ उतनी बड़ी न होती, और हो सकता है कि देश में आज भी आपातकाल चलते रहता। इसलिए अलग-अलग दौर में छात्र आंदोलनों का समर्थन और विरोध दर्ज होते चलता है। कम से कम उन लोगों को तो इसका विरोध नहीं करना चाहिए जो कि आपातकाल में उंगली भी कटाए बिना शहीद होकर पेंशन पा रहे हैं।
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