राजपथ - जनपथ
शुक्ला-टुटेजा का ईडी में बयान जारी..
नान मामले में ईडी राज्य के दो आईएएस अफसर डॉ. आलोक शुक्ला और अनिल टुटेजा के खिलाफ जांच कर रही है। दिल्ली में दोनों के बयान लिए जा रहे हैं। ईडी की जांच कम दिलचस्प नहीं है। नान प्रकरण की ईओडब्ल्यू-एसीबी जांच कर रही है और चालान भी पेश हो गया। ऐसे में मूल एफआईआर दर्ज होने के पांच साल बाद अचानक ईडी भी सक्रिय हो गई और नान की एफआईआर के आधार पर प्रकरण दर्ज कर लिया।
बात यही खत्म नहीं हुई। नान प्रकरण की ईडी की रायपुर ऑफिस जांच कर रही थी और कई लोगों के बयान भी लिए जा चुके थे। तभी अचानक प्रकरण को रायपुर के बजाए दिल्ली ऑफिस ट्रांसफर कर दिया गया। कोरोना के खतरे के बीच दोनों अफसरों को दिल्ली तलब किया गया। दूसरी तरफ, हाईकोर्ट ने आलोक शुक्ला की याचिका पर केन्द्र और ईडी को जवाब तलब किया है।
शुक्ला ने कोर्ट में यह तर्क रखा कि उनके खिलाफ अनुपातहीन संपत्ति का एक भी प्रकरण दर्ज नहीं किया है। सरकार से आज तक कोई नोटिस नहीं मिला है। ऐसे में उन्हें दिल्ली आकर बयान देने के लिए बाध्य किया जा रहा है। जबकि बाकियों की तरह उनका भी रायपुर में ही बयान लिया जा सकता था। आलोक शुक्ला ने पूरी जांच को अधिकारिताविहीन और राजनीतिक विद्वेष से की गई कार्रवाई निरूपित किया है। इस पर कोर्ट का फैसला चाहे जो भी हो, मगर यह मामला राजनीतिक रंग ले चुका है। भाजपा ने पहले ही आलोक शुक्ला की संविदा नियुक्ति को हाईकोर्ट में चुनौती दे रखी है।
सुनते हैं कि भाजपा के लोगों को समस्या यह है कि सरकार नान डायरी की एसआईटी जांच करा रही है। अब डायरी में उल्लेखित लेनदेन की जांच होगी, तो पिछले सरकार के पावरफुल लोगों पर आंच आना तय है। ऐसे में मौजूदा सरकार में पावरफुल अफसरों के खिलाफ ईडी की सक्रियता को राजनीतिक नजरिए से देखा जा रहा है। आज राजनितिक अविश्वास इतना अधिक है, कि केंद्र और राज्य की किसी भी जांच एजेंसी की कार्रवाई को बिना शक देखा ही नहीं जाता।
संवेदनशील अर्जी
छत्तीसगढ़ सरकार के गोबर खरीदने के फैसले से गरीब लोगों में खुशी है कि गोबर इक_ा करके वे कुछ कमाई कर सकेंगे। गाय पालने वाले लोग भी खुश हैं, और आरएसएस के लोग भी कि कोई तो सरकार है जो गाय को महत्व दे रही है।
लेकिन जानवरों और गोबर की जानकारी रखने वाले लोग जानते हैं कि गाय और भैंस के गोबर में कोई फर्क नहीं किया जा सकता, और जब सरकार खरीदेगी तो भैंस का गोबर भी साथ-साथ जाएगा ही। यह अलग बात है कि इस नाम को सम्मान देने के लिए भाषा में उसे गाय के साथ जोड़कर गोबर कहा जाता है।
लेकिन बोलचाल से लेकर धार्मिक भावनाओं तक गोवंश के लिए अलग जगह है, और भैंसवंश के लिए बिल्कुल अलग। देश के कुछ प्रदेशों में तो देवी के मंदिरों में भैंसों की बलि भी चढ़ती है, दूसरी तरफ गाय को लेकर भावनाएं बिल्कुल अलग रहती हैं। ऐसे में मध्यप्रदेश के रीवां की एक पुलिस बटालियन से एक दिलचस्प चि_ी सामने आई है। एक पुलिस ड्राइवर ने 6 दिन की सीएल की अर्जी दी है कि उसकी मां की तबियत ठीक नहीं है, और घर पर एक भैंस है जिसने हाल ही में बच्चा दिया है, और उसकी देखभाल करने वाला भी कोई नहीं है। उसने लिखा है कि आवेदक इस भैंस से बहुत प्यार करता है, और उसी भैंस का दूध पीकर भर्ती की दौड़ की तैयारी करता था, जीवन में उस भैंस का महत्वपूर्ण स्थान है, उस भैंस के कारण ही आज पुलिस में भर्ती है, एवं उस भैंस ने प्रार्थी के अच्छे-बुरे समय में साथ दिया है। अत: प्रार्थी का भी फर्ज बनता है कि ऐसे समय में उसकी देखभाल करे।
गाय के प्रति, और सिर्फ गाय के प्रति भावनाओं से भरे हुए इस देश में भैंस के प्रति ऐसी भावना देखने लायक है। और ऐसी भावनाओं को देखते हुए उसे छुट्टी जरूर मिल गई होगी। और इस अर्जी को पढ़कर बाकी लोगों को भी यह नसीहत मिल सकती है कि जिन जानवरों से इंसानों को मदद मिलती है, उनकी कैसी सेवा करनी चाहिए।
आज जन्मतिथि वालों को बधाई
आज पहली जुलाई को बहुत से प्रदेशों में स्कूलें शुरू हुआ करती थीं। बाद में पता नहीं 15 जून से खुलने लगीं, और सारा कैलेंडर गड़बड़ा गया। एक वक्त था जब घरों में बहुत बच्चे होते थे, परिवार संयुक्त रहते थे, और बहुत से बच्चों का स्कूलों में दाखिला करवाना रहता था। दाखिले के वक्त बच्चों के हाथ सिर के ऊपर से घुमाकर देखा जाता था कि वे कान छू पा रहे हैं या नहीं, उसे स्कूल में दाखिले की उम्र मान लिया जाता था। इसके बाद तारीख लिखानी पड़ती थी, तो बहुत से मां-बाप 30 जून या 1 जुलाई लिखा देते थे ताकि दाखिले के वक्त जरूरी उम्र पूरी हो चुकी दिखे। इस तरह बहुत से परिवार ऐसे थे जहां के हर बच्चे की दर्ज जन्मतिथि 30 जून या 1 जुलाई ही है। आज सोशल मीडिया पर ऐसे लोगों ने एक-दूसरे को बधाई लिखी है कि जिनके मां-बाप ने उनकी जन्मतिथि आज की लिखाई हो, उन सबको बधाई। बहुत पहले जन्म प्रमाणपत्र जैसा तो कुछ होता नहीं था, और स्कूल में जो कहा जाए उसे सिर के ऊपर से हाथ मुड़वाकर देखकर मान लिया जाता था।
फीस ही फीस...
निजी सलाहकार कंपनी अर्न्स्ट एण्ड यंग को भारी भरकम भुगतान पर सवाल उठ रहे हैं। पिछली सरकार ने टेंडर बुलाकर अर्न्स्ट एण्ड यंग को सरकारी योजनाओं पर सलाह देने के लिए नियुक्त किया था। कंपनी पर राज्य में निवेश लाने का दायित्व भी है। मगर जब से कंपनी ने काम शुरू किया है, प्रदेश से बाहर की एक भी कंपनी ने निवेश नहीं किया है। अलबत्ता, कंपनी को हर माह करीब 55 लाख रूपए का भुगतान हो रहा है। सालभर पहले अर्न्स्ट एण्ड यंग का अनुबंध खत्म करने की पहल भी हुई थी। कई सलाहकारों की छुट्टी भी की गई मगर इस कंपनी पर आंच नहीं आई। अब जब कौड़ी का काम रह गया है, तो भारी भरकम भुगतान पर सवाल उठना लाजमी है।