राजपथ - जनपथ
अपने बच्चों को चुनौती देकर देखें
जिन लोगों को लगता है कि आज कम्प्यूटर, मोबाइल फोन, वीडियो गेम्स खेलने वाले उनके बच्चे पुरानी पीढिय़ों के मुकाबले अधिक होशियार हैं, तो उन्हें इम्तिहान का यह पर्चा देना चाहिए जो कि कक्षा पांचवीं का है। यह अलग बात है कि यह पौन सदी पहले 1943-44 की छमाही परीक्षा का है। इसे एक पत्रकार समरेन्द्र शर्मा ने पोस्ट करते हुए राहत की सांस ली है-गनीमत है कि हमारे समय में ऐसा पर्चा नहीं होता था!
नख, शिख, दंत विहीन आयोग..
आम लोग प्रताडि़त होते हैं पर कई बार सरकारी मशीनरी दबाव में, प्रभाव में आकर पीडि़तों के साथ न्याय नहीं करती। ऐसे में पीडि़तों को संवेदना के साथ शीघ्रता से न्याय मिले, पुलिस और अदालत की जटिल प्रक्रिया में न उलझना पड़े, इसके लिये बहुत से आयोग बनाये गये हैं। जैसे लोक आयोग, बाल आयोग, महिला आयोग। पर सरकारें कोई भी हों इन आयोगों की ताकत को जान-बूझकर सीमित रखना चाहती हैं। मंत्रालयों के अफसर इनकी भूमिका को बर्दाश्त नहीं करते।
लोक आयोग के एक पूर्व अध्यक्ष जस्टिस एल सी भादू ने एक बार अपनी रिपोर्ट में कहा था कि आयोग की शक्तियां कुछ नहीं हैं। वह नख, शिख, दंत विहीन है। आयोगों में जिनकी शिकायत होती है उनमें से अनेक लोगों को यह पता होता है और वे आयोग की नोटिस, फैसलों, सिफारिशों की वे परवाह नहीं करते। आयोग की सिफारिशों पर कोई कार्रवाई नहीं होती। अब यही बात खुलेआम एक प्रशासनिक अधिकारी ने कह दी है।
बैकुंठपुर कोरिया के एडीएम को उनकी पत्नी की शिकायत पर नोटिस देकर बुलाया गया, तो उन्होंने महिला आयोग की अध्यक्ष को ही धमका दिया। सुनवाई के दौरान कह दिया कि वे आयोग को नहीं मानते, जो करना है कर ले। आयोग के पास अधिकारी की पत्नी तब पहुंची थी जब पुलिस और विभागीय स्तर पर की गई शिकायत पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। अधिकारी पर घरेलू हिंसा, मारपीट का आरोप है। हाल ही में महिला आयोग अध्यक्ष ने पुलिस मुख्यालय के एक शीर्ष अधिकारी के खिलाफ शिकायत करने वाली महिला आरक्षक को भी न्याय दिलाने की बात कही थी पर उस पर कोर्ट ने फिलहाल अधिकारी को राहत दे दी है।
भाजपा शासनकाल में सन् 2014 के आसपास आयोगों को अधिकार सम्पन्न बनाने के लिये मंत्रियों की एक समिति भी बनाई गई थी, पर उस समिति ने क्या रिपोर्ट दी अब तक पता नहीं है। धमकाने वाले एडीएम पर कार्रवाई के लिये किसी आयोग को सीएम या सीएस से शिकायत करने की जरूरत क्यों पडऩी चाहिये। लोक आयोग, महिला आयोग की सिफारिशों पर कार्रवाई नहीं करनी है, उन्हें शक्तियां नहीं देनी है तो फिर भारी-भरकम सेटअप देकर अपव्यय क्यों किया जा रहा है और पीडि़तों को जबरन पेशियों में बुलाकर भटकाया क्यों जाता है?
बंगाली समाज की अनुशासित दुर्गा पूजा
राज्य के कई जिलों में नवरात्रि, दशहरा और दीवाली को देखते हुए बाजार को खोलने की समय सीमा में छूट दे दी गई है। कोरोना के कारण दुकानों, रेस्टारेंट को बंद करने की सीमा घटाई गई थी। अब पूरे त्यौहार निपटने तक छूट रहेगी। रेलवे ने भी स्पेशल ट्रेनों की घोषणायें की हैं। यह ट्रेन नवंबर माह के आखिरी तक चलेंगी।
त्यौहारों की माहभर से ज्यादा लम्बी कड़ी में सबसे ज्यादा भीड़ इक_ी होती है नवरात्रि पर। हजारों ज्योति कलशों का जगमगाना, देवी मंदिरों में लम्बी कतारों का लगना। मां के दरबार के लिये पदयात्रायें करना। विशाल दुर्गा प्रतिमायें, पंडाल की भारी सज्जा के साथ स्थापित करना। इस बार महामाया रतनपुर, मां बमलेश्वरी डोंगरगढ़ जैसे मंदिरों में दर्शन पर रोक लगी हुई है।
यूं तो हर त्यौहार सामाजिक उत्सव है लेकिन छत्तीसगढ़ में रह रहे बंगाली समाज के लिये नवरात्रि का अलग ही मतलब है। उनके दूर-दराज के रिश्तेदार घर लौटते हैं। काली बाड़ी में देवी की प्रतिमा स्थापित होती है। ढाकी बजते हैं। परिवार का हर सदस्य इसमें शामिल होता है। पंडित पारम्परिक तरीके से पूजा अर्पित कर प्रसाद वितरित करता है। यह प्रसाद ही उनका नौ दिनों का भोजन होता है। अधिकांश घरों में खाना ही नहीं बनता। हर शाम सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। कोरोना महामारी के दौरान पूजा उत्सव के आयोजन पर लगाये गये प्रतिबंध के घेरे में उनका उत्सव आ गया है।
हावड़ा ट्रेन रूट के सभी बड़े शहरों में बंगाली समुदाय के लोग बसे हुए हैं। आयोजकों का कहना था कि पहले भी हम बहुत अनुशासित ढंग से पूजा करते थे और अब कोरोना के दौर में करना है तो निर्देशों को मानेंगे, कुछ और कड़ाई बरतेंगे। लेकिन कोलकाता शहर की तस्वीरें बंगालियों ने ही पोस्ट की हैं जिनमें दुकानों ने लोगों का रेला लगा हुआ है, मास्क लगाए हुए धक्का-मुक्की हो रही है. आखिर हर बंगाली के साल भर के कपडे पूजा के वक़्त ही बनते हैं, खरीददारी कैसे ना हो?