राजपथ - जनपथ
कल तक नकली, आज हमदर्दी !
पूर्व सीएम रमन सिंह ने अमित और ऋचा जोगी के जाति प्रमाण पत्र और नामांकन निरस्त करने के फैसले की आलोचना कर पार्टी के आदिवासी नेताओं की नाराजगी मोल ले ली है। रमन सिंह का जोगी परिवार के समर्थन में खड़े होना विशेषकर दिग्गज आदिवासी नेता नंदकुमार साय, ननकीराम कंवर और रामविचार नेताम को बिल्कुल नहीं भा रहा है। तीनों ने जाति प्रमाण पत्र निरस्त करने के छानबीन समिति के फैसले का स्वागत किया है।
सुनते हैं कि पार्टी के भीतर आदिवासी एक्सप्रेस चलने की सुगबुगाहट है। रमन सिंह के पहले कार्यकाल में भी आदिवासी एक्सप्रेस दिल्ली रूट पर चली थी। तब आदिवासी-गैर आदिवासी, करीब डेढ़ दर्जन विधायकों ने रमन सिंह के खिलाफ मोर्चाबंदी की थी। तब हाईकमान और रमन सिंह की शालीनता-सज्जनता के आगे ये विधायक नतमस्तक होकर रह गए थे और फिर कभी खुले तौर पर नाराजगी सामने नहीं आई। इसके बाद तो पार्टी के भीतर रमन का कद बढ़ता गया और 15 साल सीएम रहने के बाद उन्हें विधानसभा चुनाव में बुरी हार के बाद भी राष्ट्रीय उपाध्यक्ष की जिम्मेदारी दी गई। वे प्रदेश से अकेले राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।
अब जब रमन सिंह, जाति प्रमाण मसले पर जोगी परिवार के साथ खड़े दिख रहे हैं, तो ये आदिवासी नेता बुरी तरह उखड़े नजर आ रहे हैं क्योंकि भाजपा पहली बार जोगी को नकली आदिवासी प्रचारित कर सत्ता में आई थी। तब जोगी के खिलाफ मुहिम के अगुवा नंदकुमार साय थे। ये अलग बात है कि विधानसभा चुनाव में उन्हें अजीत जोगी के हाथों बुरी हार का सामना करना पड़ा और वे सीएम पद की दौड़ से बाहर हो गए। साय इस बात को नहीं भूल पाए हैं।
चर्चा है कि साय और बाकी आदिवासी नेता पार्टी के भीतर रमन सिंह के दबदबे को खत्म करने के लिए मुहिम चला सकते हैं। इन नेताओं के बीच आपस में चर्चा चल भी रही है, और कुछ लोगों का अंदाजा है कि रमन सिंह विरोधी गैरआदिवासी नेताओं का भी उन्हें साथ मिल सकता है। पार्टी के असंतुष्ट नेता आने वाले दिनों में कैसा रूख अपनाते हैं, यह देखना है।
12 साल बाद वही, पर हालात अलग
नवंबर 2006 की घटना है। पूर्व विधानसभा अध्यक्ष राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल के निधन के बाद कोटा विधानसभा चुनाव के प्रबल दावेदार उनके परिवार के ही किसी सदस्य को माना जा रहा था। सब मानते थे कि स्व। शुक्ल की कोटा क्षेत्र में इतनी पकड़ थी कि उनके परिवार का कोई भी सदस्य चुनाव लड़े जीत पक्की थी। स्व। शुक्ला के परिवार के प्राय: सभी लोग अच्छे शासकीय सेवा में थे और हैं। सिर्फ एक बेटे जिनकी राजनीति में दिलचस्पी थी, वे सुनील शुक्ला हैं। कांग्रेस ने उनके लिये टिकट पक्की कर दी। इधर कोटा के कार्यकर्ताओं का एक धड़ा शुक्ल विरोधी भी था जो स्व। अजीत जोगी के करीबी थे। उन्होंने सुनील शुक्ला को टिकट देने के खिलाफ आवाज उठाई। नामांकन दाखिले के अंतिम दिन तक ऊहापोह की स्थिति थी। सुनील शुक्ला पर भारी दबाव था, उन्हें अपनी मिली हुई ऐसी टिकट जिसमें जीत पक्की थी, वापस करनी पड़ी। डॉ। रेणु जोगी को इस चुनाव में टिकट मिली, तब से वे लगातार जीतते आ रही हैं। पिछली बार उन्होंने कोटा से जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ की टिकट पर चुनाव जीता तो पहली बार कांग्रेस यहां से बुरी तरह हारी। लोगों ने यहां तक कह दिया कि कांग्रेस के डमी प्रत्याशी थे। पहली बार हुआ कि हमेशा जीतने वाली कांग्रेस इस सीट में तीसरे स्थान पर रही। सन् 2018 के चुनाव में जब हवा चलने लगी कि डॉ। जोगी को कांग्रेस की टिकट नहीं मिलेगी, तब फिर सुनील शुक्ला ने बयान दिया कि अब वे अपने पिता की विरासत को संभालना चाहते हैं। पर इन 12 सालों में बहुत कुछ घट गया था। टिकट लौटाने के बाद वे कांग्रेस के कार्यक्रमों में भी नहीं दिखते थे। एकाएक टिकट की मांग की तो पार्टी में उनके नाम पर किसी ने गंभीरता से विचार ही नहीं किया। इस क्षेत्र में कोटा के बाद मरवाही दूसरी सीट है जहां किसी कद्दावर नेता की मौत के बाद उनके परिवार को उनकी विरासत संभालने का मौका नहीं मिल पाया। इतिहास की पुनरावृत्ति हुई है पर परिस्थितियां भिन्न हैं। टिकट तो अमित जोगी के हाथ में था पर नामांकन वैध कराना नहीं।
तब तक ढील नहीं...
कोरोना संक्रमण के मामले में देश के अलग-अलग राज्यों से मिले-जुले आंकड़े आ रहे हैं। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने शायद अति उत्साह में कह दिया हो कि कोरोना का पीक दौर चला गया है। पीडि़तों की संख्या में कभी उछाल तो कभी गिरावट आती ही रही है। वैसे अपने ही बयान में उन्होंने यह भी कह दिया है कि ठंड के दिनों में एक आंधी और आ सकती है। छत्तीसगढ़ में भी कुछ ऐसी ही स्थिति है। पूरे प्रदेश में कल काफी दिनों के बाद ऐसा हुआ कि संक्रमितों की संख्या दो हजार से कम मिली लेकिन मौतों की संख्या कम नहीं हो रही है। बीते 24 घंटे में 10 लोगों की मौत दर्ज की गई। इनमें से 7 केस ऐसे बताये गये हैं जो किसी अन्य गंभीर बीमारी से भी पीडि़त थे। जब मंत्री कहें कि कोरोना से मुक्त हो रहे हैं तो उनका बयान एमपी, बिहार, मरवाही के कार्यकर्ताओं का हौसला या कहें, लापरवाही बढ़ाने के लिये काफी है। बीते सात-आठ महीने का बहुत खराब दौर गुजर जरूर चुका है पर मौजूदा हालात को नजरअंदाज करना घातक होगा। कोरोना से बचकर बाहर आये अमिताभ बच्चन कह रहे हों तब तो मान ही लेना चाहिये- जब तक दवाई नहीं, तब तक ढिलाई नहीं।
कल ही केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री का यह बयान भी देखें कि केरल में त्यौहार के बाद जिस तरह कोरोना बढ़ा उसे याद रखना चाहिए। अभी तो अगला एक महीना छत्तीसगढ़ में त्यौहार ही त्यौहार हैं।