राजपथ - जनपथ
यह जिला गुटबाजी वाला ही है !
बड़े नेताओं में आपसी संबंध मधुर न हो, तो छोटे कार्यकर्ताओं में इसका असर देखने को मिलता है। इसके चलते कई बार कार्यकर्ता आपस में उलझ जाते हैं। कुछ ऐसा ही नजारा भाजयुमो अध्यक्ष अमित साहू के गुरूवार को दुर्ग जिले के प्रवास के दौरान देखने को मिला।
दुर्ग भाजपा के दो बड़े नेता सरोज पाण्डेय और प्रेमप्रकाश पाण्डेय के बीच आपसी प्रतिद्वंदिता जगजाहिर है। दोनों के बीच बोलचाल तक बंद है। दोनों के समर्थक कई बार टकरा चुके हैं। और जब अमित साहू भिलाई पहुंचे, तो प्रेमप्रकाश पाण्डेय के समर्थकों ने जोरदार स्वागत किया।
अमित, प्रेमप्रकाश समर्थकों के साथ कई सेक्टरों में भी गए। और जब दुर्ग पहुंचे, तो तीन घंटे से इंतजार कर रहे सरोज पाण्डेय के समर्थक भडक़ गए। उन्होंने अमित साहू वापस जाओ के नारे लगाना शुरू कर दिया। पहले तो अमित और उनके साथ आए लोगों ने कार्यकर्ताओं को समझाने की कोशिश की, लेकिन सरोज समर्थकों का गुस्सा शांत नहीं हुआ। आखिरकार शोरगुल के बीच कार्यकर्ताओं को संबोधित कर अमित रायपुर आ गए।
भाजपा ही नहीं, कांग्रेस के लिए भी यह जिला सबसे अधिक गुटबाजी वाला हमेशा ही रहा है।
जब जिंदगी का ठिकाना नहीं, तो जिम ही क्यों?
कोरोना के खतरे के बीच कारोबारियों को भी जिंदा रहना है, इसलिए वे कोरोना का अपने-अपने हिसाब से इस्तेमाल कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में एक अंतरराष्ट्रीय ब्रांड के जिम के मालिक ने लोगों को वॉट्सऐप संदेश भेजा कि इस महामारी के दौरान जब भविष्य निश्चित नहीं है, तो दीर्घकालीन फीस क्यों पटाई जाए? उसने लोगों को कहा कि एक महीने की फीस देकर जिम के मेम्बर बनें।
पहली नजर में तो बात समझदारी की है कि जब जिंदा रहने का ठिकाना नहीं है, तो अधिक वक्त की फीस क्यों पटाई जाए क्योंंकि यह जिम तो मेम्बर के लंबे समय तक बीमार पडऩे पर भी उतने वक्त की छूट नहीं देता। लेकिन सवाल यह है कि अगर लोगों की जिंदगी पर इतना ही खतरा है, तो जिम जाकर, मेहनत करके, पसीना बहाकर कसरत क्यों की जाए? जब जिंदगी का ही ठिकाना नहीं है तो फिर सोफा पर बैठकर चिप्स खाते हुए टीवी क्यों नहीं देखा जाए?
इसलिए भविष्य का ठिकाना न होने का तर्क कम से कम कसरत के लिए मासिक फीस पटाने का सही प्रोत्साहन नहीं लगता।
आलू की ट्रकों में धान की तस्करी
हर साल धान का रकबा और खरीदी का लक्ष्य बढ़ा रही सरकार इस बार भी परेशान है कि दूसरे राज्यों से चोरी-छिपे लाये जा रहे धान पर रोक कैसे लगाई जाये। रायपुर, रायगढ़ जिले में ओडिशा से, बस्तर में आंध्र प्रदेश से, गौरेला इलाके में मध्यप्रदेश से और सरगुजा के बार्डर में यूपी तथा बिहार से धान को लाकर खपाने के नये-नये तरीके अपनाये जा रहे हैं।
सरगुजा जिले में प्रशासन के ध्यान में यह बात लाई गई है कि पिकअप, ट्रैक्टर और बैलगाडिय़ों का इस्तेमाल नहीं किया जा रहा बल्कि 16 चक्कों वाले बड़े ट्रकों का तस्करी में इस्तेमाल किया जा रहा है। बस थोड़ी दिक्कत बार्डर पर होती है। जहां बड़े अधिकारियों की तैनाती नहीं है वहां सफाई से ट्रकें निकाल ली जाती हैं। ट्रकों के बाहरी हिस्से में सौ-पचास बोरियां आलू की रखी होती हैं, भीतर धान लदा होता है। धान खरीदी तो अब शुरू होने वाली है, पर सुनाई यह दे रहा है इन राज्यों से लाकर हजारों बोरियां डम्प की जा चुकी हैं।
चार साल पहले सबको हैरानी हुई थी जब 70 से ज्यादा विकासखंडों में सूखा पड़ा था, फिर भी धान की बम्पर खरीदी की गई थी। धान खरीदने की अभी शुरूआत भी नहीं हुई है और दूसरे राज्यों के बिचौलिये सक्रिय हो गये हैं। यह गोरखधंधा तब से हो रहा है जब से यहां धान की अच्छी कीमत दी जाने लगी है। दरअसल, ज्यादा निगरानी की जरूरत राज्य के बाहर से आने वाले धान पर रखने की जरूरत है।
जब यूपीए सरकार में छत्तीसगढ़ से चरणदास महंत मंत्री थे, तब भी छत्तीसगढ़ की बीजेपी सरकार को धान के रिकॉर्ड उत्पादन का पुरस्कार मिला था. और दोनों सरकारों में सब यह जानते थे कि इन आंकड़ों में छत्तीसगढ़ के पडोसी राज्यों का अघोषित धान भी शामिल था।
शादी की चमक-दमक फीकी, पर लेन-देन घटा?
शादी ब्याह की भव्यता हैसियत का पैमाना माना जाता है। इन समारोहों में फिजूलखर्जी, भोजन तथा संसाधनों की बर्बादी पर भी लोग सवाल उठाते रहे हैं। इसे एक सामाजिक बुराई के रूप में भी देखा जाता है क्योंकि दिखावे के फेर में लोग कर्ज में भी डूबते चले जाते हैं।
कोरोना ने एक रास्ता निकाला है ऐसे दिखावे से बचने के लिये। मेहमानों की संख्या को कम किया जाना, कम बारातियों को ले जाना, रस्मों को कटौती कर एक या दो दिन तक ही सीमित रखना, रिसेप्शन कम लोगों का रखना, जैसी कई पाबंदियां प्रशासन की ओर से ही लगा दी गई हैं। नाते रिश्तेदारों को सूचना भेजी जा रही है और आग्रह भी किया जा रहा है कि आप फेसबुक, यू ट्यूब पर लाइव प्रसारण देखें और वर-वधू को अपने घर से ही आशीर्वाद दें। मिठाई का पैकेट और नेग का सामान आपके घर पहुंचाया जायेगा। होटल, टेंट, शहनाई, कैटरर, डेकोरेटर को भी थोड़ा कम ही सही पर काम अब मिल रहा है।
इन सबके बीच सवाल यह है कि क्या लेने-देने में भी लोग ऐसी मितव्ययता दिखा रहे हैं? सुनाई यही दे रहा है कि इनमें कोई कमी नहीं है, दूल्हे का रेट उनकी हैसियत के अनुसार ही है। जेवरात और नगदी का लेन देन कितना हो कैसे हो इस पर कोई गाइडलाइन है भी नहीं, यह पहले की ही तरह लागू है, मंदी, बेरोजगारी, महंगाई पर इसका असर नहीं है।
आरटीआई एक्टिविस्ट का बहिष्कार
आरटीआई करोड़ों अरबों के राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर के घोटालों को सामने लाने में ही नहीं बल्कि काफी अधिकार-सम्पन्न तथा बजट के हकदार हो चुके ग्राम पंचायतों, गांवों के लिये भी कारगर है। ये वही इकाई है जिसके बारे में कभी पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी ने कहा था कि दिल्ली से पहुंचने वाला एक रुपया यहां तक आते-आते 15 पैसे रह जाता है।
गांव के स्तर पर आरटीआई का इस्तेमाल करना ज्यादा कठिन है क्योंकि यहां हडक़ाने, धमकाने के लिये जनप्रतिनिधि, ब्लॉक स्तर के प्रशासनिक अधिकारी, थानेदार एक साथ हो जाते हैं। डोंगरगढ़ ब्लॉक के करवारी गांव के एक जागरूक ग्रामीण भूषण सिन्हा को सरपंच के आदेश पर गांव से बहिष्कृत कर देने की खबर आई है। उससे 10 हजार रुपये जुर्माना मांगा जा रहा है। पुलिस और एसडीएम के स्तर तक उसने शिकायत की लेकिन किसी ने मदद नहीं की। बल्कि उसे सलाह दी जा रही है कि खामोशी के साथ जुर्माना पटा दे और पंचायत के खिलाफ आवाज न उठाये।
जैसी ख़बरें हैं, भूषण ने आरटीआई के तहत पूछा था कि गांव में कितनी आबादी जमीन, और कितनी घास जमीन है। हाईकोर्ट ने अलग-अलग मामलों को सुनते हुए छत्तीसगढ़ के जिला अधिकारियों को अतिक्रमण हटाकर रिपोर्ट सौंपने का निर्देश कई बार दिया है। गांवों में जिस तरह अतिक्रमण बढ़े हैं और आम जरूरतों की सार्वजनिक भूमि रसूख वालों ने दबा रखी है उसे देखते हुए ऐसी जानकारी मांगना जरूरी है। पर भूषण के साथ जो हो रहा है उसे देखकर प्रश्न उठता है कि व्हिसिल ब्लोअर की सुरक्षा के लिये बने कानून क्या गांवों पर लागू नहीं होते? आयोग को ध्यान देना चाहिये।