राजपथ - जनपथ
सत्ता नहीं, तो संगठन के लिये ही उठापटक
जब सत्ता हाथ में हो तो संगठन में कौन बैठ रहा है इसे ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता। पर जब सत्ता न हो तो संगठन की अहमियत बढ़ जाती है। भाजपा युवा मोर्चा और महिला मोर्चा में नियुक्तियों को लेकर नया विवाद खड़ा हो गया है। ऐसे लोगों को युवा मोर्चा में नियुक्ति दी गई है जो 35 की उम्र पार कर चुके हैं। महिला मोर्चा के खिलाफ बयानबाजी करने वाले, संगठन में जमीनी स्तर पर कभी काम नहीं करने वाले तथा एनजीओ चलाने वालों को मोर्चा में नियुक्ति देने का आरोप लगा हुआ है। भाजपा खुद को पार्टी विथ डिफरेंस कहती है। वे कहते हैं कि साधारण से कार्यकर्ता को भी संसद, विधानसभा की टिकट दे दी जाती है। पर इस बार संगठन में उन लोगों को किनारे कर दिया गया जो लगातार परिश्रम करते रहे। उनको तवज्जो दी गई जो बड़े नेताओं के करीबी हैं या फिर रिश्तेदार। भाजपा की प्रदेश प्रभारी डी. पुरंदेश्वरी को सख्त मिजाज का माना जाता है। उनके रहते ऐसी नियुक्ति का जोखिम उठाया गया है तब तो देखना पड़ेगा इसकी प्रतिक्रिया में किसी पर गाज गिरती है या नहीं।
बुजुर्गों पर रेलवे की मेहरबानी
केन्द्रीय बजट से रेल बजट पहले अलग हुआ करता था। लोग इंतजार में रहते थे कि किस इलाके को कौन सी नई ट्रेन मिलने वाली है। अब तो लोग यह बात भूल भी गये हैं। बस लोगों को एक उम्मीद थी कोरोना संक्रमण के नाम पर यात्रियों से जो अधिक रकम लेना शुरू किया गया था और रियायतें बंद की गई थीं उसे फिर से शुरू कर दिया जायेगा। पर इस बारे में कोई स्पष्ट घोषणा नहीं हुई। बुजुर्गों को भी किराये में छूट नहीं मिल रही है। एक रेलवे अधिकारी का कहना है कि कोरोना में बुजुर्गों को ज्यादा जोखिम होता है। उनकी यात्रा को हतोत्साहित करने के लिये यह नियम बनाया गया। यानि 100 प्रतिशत किराया देकर बुजुर्ग यदि खतरा उठा रहे हैं तो रेलवे को कोई आपत्ति नहीं। उनको रियायत देने से कोरोना का खतरा बढ़ जायेगा !
आखिर में कौन बचेंगे?
छत्तीसगढ़ में एलीफेंट रिजर्व से लेकर टाइगर रिजर्व तक का मुद्दा भारी जटिल है। सरकार इन दोनों को बनाना भी चाहती है, लेकिन वह इन इलाकों को आदिवासियों की बेदखली को झेलने की हालत में भी नहीं है। फिर एलीफेंट रिजर्व का मुद्दा कोयला खदानों से भी जुड़ा हुआ है, जमीन के नीचे का कोयला निकालना असंभव हो जाएगा अगर ऊपर के पूरे इलाके को वन्य प्राणियों के लिए आरक्षित कर लिया गया। इसमें राज्य सरकार के हित कहीं केन्द्र सरकार के हितों से टकराते हैं, तो कहीं कारोबारियों के हित सरकारी नियमों से। फिर सरकार के आदेश कहीं नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के आदेशों से टकराते हैं, तो आदिवासियों की जिंदगी तो इनमें से तमाम तबकों से टकराती ही है। कुदरत ने भी अजीब इंतजाम किया है, जहां खनिज है, वहीं जंगल भी हैं, और जहां जंगल हैं, आदिवासी भी हैं। शहरी दखल के पहले तक तो आदिवासी जानवरों के साथ आराम से रह लेते थे, लेकिन अब जब सरकारों ने गिने-चुने जंगल छोड़े हैं, और इन गिने-चुने जंगलों में जानवरों और वहां बसे इंसानों में टकराव चल रहा है, तो पूरा मामला बड़ा जटिल हो गया है। पता नहीं आखिर में कौन बचेंगे, शायद खदान चलाने वाले कारोबारी!