राजपथ - जनपथ
नेता प्रतिपक्ष को एक्सटेंशन!
छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव हारने के बाद बीजेपी निराशा के माहौल से ऊबर नहीं पाई है, हालांकि विधानसभा के बाद लोकसभा में बीजेपी का प्रदर्शन काफी अच्छा रहा, लेकिन नगरीय निकाय और पंचायत में फिर से बीजेपी को करारी हार का सामना करना पड़ा। स्थिति यह है कि संगठन में बैठकों के अलावा कोई हलचल दिखाई नहीं देती। ऐसे में विरोधियों को बीजेपी की मौजूदा स्थिति-परिस्थितियों पर टीका-टिप्पणी करने का मौका मिल जाता है।
अब प्रदेश के सबसे प्रमुख, राजधानी के नगर निगम को ही ले लीजिए। एक-डेढ़ साल का समय बीत चुका है, लेकिन बीजेपी अभी तक नेता प्रतिपक्ष का नाम तय नहीं कर पाई है। इस मुद्दे को लेकर सत्ता पक्ष की ओर से सवाल भी उठाए जाते रहे हैं। निगम के सभापति ने तो नेता प्रतिपक्ष तय करने के लिए बीजेपी की प्रभारी को भी पत्र लिखा था। उसके बाद भी बीजेपी संगठन में कोई सुगबुगाहट सुनाई नहीं पड़ रही है। निगम की सत्ता में काबिज कांग्रेसियों के लिए इससे अच्छी बात क्या हो सकती है कि उन्हें न तो विपक्ष के सवालों का जवाब देना पड़ रहा है और न ही उनके फैसलों के खिलाफ आवाज उठ रही है। फिर भी सत्ताधारी दल के लोग मजे लेने से नहीं चूक रहे हैं।
निगम में कांग्रेस के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने सुझाव दिया कि क्यों न पिछली परिषद के नेता प्रतिपक्ष को ही बीजेपी पार्षद दल का नेता मान लिया जाए। उनका कहना था कि पुराने नेताजी को ही नए की नियुक्ति तक एक्सटेंशन दे दिया जाए। प्रस्ताव भले ही हंसी-मजाक में आया लेकिन लोगों को जंच भी रही थी, लेकिन इसमें एक दिक्कत यह भी है कि पूर्व नेता प्रतिपक्ष दुर्भाग्य से पार्षद का चुनाव हार गए हैं। ऐसे में उनको कैसे नेता प्रतिपक्ष माना जाए ? लेकिन लोगों की दलील थी कि सदन के अंदर न सही बाहर तो कम से वे सत्ताधारी दल को घेर सकते हैं। यह प्रस्ताव पूर्व नेता प्रतिपक्ष तक भी पहुंची तो वे भी इस पर सहमत बताए जा रहे हैं। अब देखना यह है कि सियासी हंसी-ठिठोली भरे इस प्रस्ताव पर बीजेपी के नेता कितनी गंभीरता दिखाते हैं ?
छत्तीसगढ़ी को नेशनल अवार्ड मिलना
अमूमन हर साल 40-50 छत्तीसगढ़ी फिल्में बनती हैं। मगर बहुत कम यादगार होती हैं। दो चार फिल्मों को छोड़ दें तो बाकी बॉलीवुड, भोजपुरी या दक्षिण भारतीय फिल्मों की नकल होती हैं। नकल भी ठीक तरह से नहीं की जाती। फिल्म खिचड़ी बनकर रह जाती है। दर्शकों का एक बड़ा वर्ग इन फिल्मों को पसंद भी करता है पर उन्हें समीक्षकों की सराहना और पुरस्कार नहीं मिलते। ऐसी स्थिति में छत्तीसगढ़ी फिल्म ‘भूलन- द मेज’ को क्षेत्रीय श्रेणी का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिलना एक बड़ी उपलब्धि है। देश-विदेश के अनेक फिल्म फेस्टिवल्स में इस फिल्म ने पहले भी सम्मान और पुरस्कार हासिल किये हैं लेकिन राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार का मिलना सबसे अलग महत्व रखता है।
फिल्म में खूबी यह रही कि छत्तीसगढ़ के ही मंजे हुए कलाकार और तकनीशियनों को साथ लेकर इसका निर्माण, छत्तीसगढ़ (गरियाबंद) में किया गया। खैरागढ़ के कवि व कहानीकार संदीप बख्शी ने भूलन कांदा कहानी लिखी थी। एक लोक मान्यता है कि भूलन कांदा जिसके पैर में पड़ जाये उसकी स्मृति लुप्त हो जाती है। वह व्यक्ति यह भी नहीं बता पाता कि उसकी याददाश्त किस वजह से गई। यह पौधा वास्तव में हो या नहीं हो, पर कहानी दिलचस्प है, जिसमें गांव के लोगों का आपसी प्रेम भाव दिखाया गया है। एक व्यक्ति अपने पड़ोसी की लाचार स्थिति को देखकर उसके अपराध को अपने सिर पर ले लेता है और खुद जेल की सजा काटता है। निर्माता मनोज वर्मा ने जैसा बताया है कि यह फिल्म बहुत जल्द रिलीज होगी। यह पुरस्कार साबित करता है कि छत्तीसगढ़ की लोक कथाओं, परपम्पराओं, सामाजिक संरचना को यदि बखूबी उतारा जाये तो यहां की फिल्में नई ऊंचाईयां हासिल कर सकती हैं। उम्मीद है अब छत्तीसगढ़ी में भी लीक से हटकर कुछ काम करने की प्रेरणा दूसरे निर्माताओं को मिलेगी।
शार्टेज के बाद वैक्सीन के लिये कतार
कोई चीज मुफ्त मिल रही हो तो उसकी पूछ-परख नहीं होती, वहीं जब शार्टेज होता है तो लोगों में उसे पहले हासिल करने की हड़बड़ी हो जाती है। माह भर पहले कोरोना वैक्सीन लगवाने के नाम पर लोग हिचकिचाते, कतराते रहे। कोरोना वारियर्स भी टालने का बहाना ढूंढते रहे। धीरे-धीरे लोगों में झिझक दूर गई और वैक्सीनेशन का दर बढ़ता गया। अब स्थिति यह है कि प्रदेश के 1500 से ज्यादा सेंटर्स में हर दिन करीब 1 लाख डोज दिये जा रहे हैं। अब करीब 16 लाख कोविशील्ड और 80 हजार को वैक्सीन के जो डोज केन्द्र सरकार ने छत्तीसगढ़ को भेजे थे खत्म हो रहे हैं। अब स्टाक में केवल दो लाख डोज बचे हुए हैं जो महज दो दिन और चल पायेगा। दरअसल, पहले तो लोगों ने सोचा, जब मर्जी होगी लगवा लेंगे, वैक्सीन तो खत्म होने वाली नहीं। पर इस बीच कोरोना की दूसरी लहर शुरू हुई और टीका लगवाने की रफ्तार भी उसी तेजी से बढ़ गई। शार्टेज के कारण अब ज्यादातर निजी अस्पतालों को वैक्सीन की आपूर्ति बंद कर दी गई है। केवल सरकारी केन्द्रों में लगाये जा रहे हैं। वैक्सीन की नई खेप नहीं आई है पर केन्द्र व राज्य को चाहिये कि वह लोगों को आश्वस्त करे कि कोई छूटेगा नहीं। आखिर हम विदेशों में भी भेज रहे हैं तो अपने देश के लिये तो पर्याप्त मात्रा में बन ही रही होगी।
आंगनबाड़ी पर निगरानी का ये तरीका
केन्द्र सरकार के डिजिटल इंडिया स्कीम के चलते हर विभाग कोशिश कर रहा है कि वे अनुदान, मानदेय का ऑनलाइन भुगतान करे। इस योजना में अब आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को भी जोड़ लिया गया है। पेमेन्ट ऑनलाइन ट्रांसफर हो जाये तब भी दिक्कत नहीं लेकिन उन्हें बाध्य किया जा रहा है कि वे पोषण एप डाउनलोड करें। न सिर्फ डाउनलोड करें बल्कि पूरे माह का रिकार्ड भी अपलोड करें। मामूली वेतन पाने वाली आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, जिन्हें अब तक सरकारी कर्मचारी भी नहीं माना जाता गांवों में बच्चों और माताओं के पोषण की प्राथमिक कड़ी हैं। मोबाइल फोन का उन्हें इस तरह से इस्तेमाल करने कहा जा रहा है मानो हर किसी के पास स्मार्ट फोन है और उसका इस्तेमाल करने में दक्ष हैं। पोषण एप में रिकॉर्ड अपलोड नहीं करने पर उन्हें मानदेय भी नहीं भेजा जायेगा। यह आदेश पांच माह से लागू है। आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं का कहना है कि प्रदेश के 11 जिले ऐसे हैं जहां मोबाइल नेटवर्क बहुत कमजोर है। उनके पास स्मार्ट फोन खरीदने के लिये पैसे भी नहीं है। पिछली सरकार ने जो स्मार्ट फोन बांटे थे वे बहुत कम लोगों को मिले और ज्यादातर खराब भी हो चुके हैं। क्या केन्द्र सरकार उनकी इस व्यवहारिक समस्या को समझ रही है या राज्य सरकार कोई रास्ता निकालने की सोच रही है?