राजपथ - जनपथ
शिक्षक रहना ही ठीक था
सूबे के प्रशासनिक तंत्र के साथ तालमेल बिठाने में नाकाम अफसरों की गिनती में इजाफा हो रहा है। पुलिस महकमे में हालत कुछ ऐसी है कि सिस्टम के साथ नहीं जुडऩे के चलते कई पुलिस अधिकारी बटालियन और पीएचक्यू में समय काट रहे हैं। ऐसे अफसरों में 1997 बैच के राज्य पुलिस सेवा के दर्शन सिंह मरावी अपने बैच के इकलौते अफसर हैं जो प्रमोशन नहीं होने का दर्द सहते 21 वीं बटालियन में कमाडेंट के तौर पर समय काट रहे हैं। गाहे-बगाहे वह यह भी कह जाते हैं कि शिक्षक रहने में ज्यादा भलाई थी। अविभाजित राजनांदगांव के रेंगाखार से सटे रोल गांव (अब कवर्धा )से शिक्षक रहते डीएसपी चुने गए मरावी अच्छी पोस्टिंग के लिए तरस रहे हैं। सुकमा एसपी के लिए उन्हें दो माह के लिए भेजा गया। उसके बाद से वह जंगल वारफेयर कॉलेज कांकेर में दो बार और बटालियन में तैनाती का दंश झेल रहे हैं। बताते हैं कि इस आदिवासी अफसर का सिस्टम से मेल नहीं हो पाया। एक मामले में विभागीय जांच आईपीएस अवार्ड में उनकी अड़चनें दूर नहीं हुई हैं। मरावी के बैच के दीगर अफसरों को आईपीएस अवार्ड मिले काफी समय हो गया है। मरावी दर्द में खुलकर कहते हैं कि डीएसपी की नौकरी से शिक्षक रहने में ही भलाई थी।
आरटीई में दाखिले के लिये इतनी कम अर्जी क्यों?
शिक्षा का अधिकार अधिनियम के तहत निजी स्कूलों के नये प्रवेश में 25 प्रतिशत सीट गरीब वर्ग के लिये आरक्षित होती है। हर बार पालकों की शिकायत रहती है कि उनके बच्चों को आवेदन के बाद भी दाखिला नहीं मिल रहा है। पर इस बार स्थिति उलटी है। राज्य के 6533 निजी स्कूलों में आरटीई के तहत उपलब्ध सीटों की संख्या 82 हजार 220 है। पर इनमें दाखिले के लिये आये कुल आवेदन 71 हजार 882 ही हैं। हालांकि यह स्थिति जांच के बाद आवेदन निरस्त होने के बाद की है। रायपुर, बिलासपुर, दुर्ग, कोरबा और जांजगीर ही ऐसे जिले हैं जहां सीटों से अधिक आवेदन हैं। पर बाकी जिलों में स्थिति यह है कि जो भी आवेदन हैं, दाखिला मिल जायेगा। इनमें दंतेवाड़ा, कांकेर, बस्तर, सुकमा, बालोद, बलरामपुर, गरियाबंद और नारायणपुर जिले हैं।
इस आंकड़े का थोड़ा विश्लेषण करें तो यह समझ में आता है कि मैदानी इलाके जहां आवागमन, संचार की सुविधा है, कुछ विकसित कहे जा सकते हैं उनमें आये आवेदन सीटों से ज्यादा हैं जैसे रायपुर, बिलासपुर या कोरबा। पर जहां से कम आवेदन आये हैं वे आदिवासी बाहुल्य जिले हैं। ये आधारभूत सुविधाओं के मामले में कुछ पीछे हैं। यह स्थिति शायद इसलिये भी हो कि आरटीई के बारे में लोग जागरूक नहीं हुए हों। आरटीई की भर्ती के बाद सरकार ट्यूशन फीस, यूनिफॉर्म और किताबों का खर्च तो उठाती है पर स्कूल से घर तक आने-जाने का नहीं। हो सकता है गरीब परिवारों को वहां यह खर्च भी भारी पड़ रहा हो। जो भी हो, निर्धन परिवारों के लिये मुफ्त शिक्षा की एक अच्छी योजना के प्रति रूचि में कमी चिंताजनक है। सरकार और समाज दोनों के लिये।
सोशल मीडिया पर समर्थकों की बेताबी
वाट्सअप, फेसबुक और ट्विटर नहीं होता तो पता नहीं चलता कि कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के मन में क्या चल रहा है। शीर्ष नेता लगातार यह दिखाने की कोशिश कर रहे थे कि सब ठीक चल रहा है पर सीएम भूपेश बघेल और स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंहदेव के समर्थन और विरोध में दनादन पोस्ट किये जा रहे थे। कोई कह रहा था हमें राजा नहीं चाहिये, किसानों के राज में किसान नेता ही चलेंगे। कोई कह रहा था, बाबा आप अभी जिम्मेदारी मत संभालिये वरना जब पांच साल पूरा होगा तो पूरा ठीकरा आपके सिर फूटेगा। फेहरिस्त लम्बी है आप इसके लिये कांग्रेस भाजपा नेताओं के पेज पर जाकर उनके समर्थकों, विरोधियों की प्रतिक्रिया कमेंट बॉक्स और उनकी पर्सनल पोस्ट में पढ़ सकते हैं।
जो जागत है सो पावत है..
चाणक्य कह गये हैं स्वयं की सफलता से बड़ा कोई भी लक्ष्य नहीं होता है। स्व. अजीत जोगी ने एक किस्सा एक वरिष्ठ पत्रकार को सुनाया था। संयुक्त मध्यप्रदेश के जमाने में पर्यवेक्षक गुलाम नबी आजाद की मौजूदगी में कांग्रेस सीएम के लिये नाम तय नहीं कर पा रही थी। बुंदेलखंड, मालवा, विंध्य..., अलग-अलग क्षेत्र से मांग उठ रही थी। प्रक्रिया में इतनी देर होने लगी कि बैठक में मौजूद एक दावेदार स्व. राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल कहीं विश्राम करने चले गये। इस बीच तय हुआ कि मुख्यमंत्री छत्तीसगढ़ का हो। स्व. शुक्ल के नाम पर सहमति बन गई। उस वक्त मोबाइल फोन तो था नहीं कि जहां हैं वहीं से उठाकर बुला लिया जाये। खोजबीन कराने पर वे नहीं मिले। फिर छत्तीसगढ़ से दूसरा नाम? वहां स्व. मोतीलाल वोरा मौजूद थे। विधायकों से सहमति ली गई और वोरा जी का नाम फाइनल हो गया, मिठाईयां बंट गई। अब बैठक में पहुंचे स्व. शुक्ल। उन्होंने कहा कि मैं तो आ गया हूं, जब पहले मेरा नाम तय हुआ तो मुझे ही मौका मिलना चाहिये। पर उन्हें बताया गया कि अब तो सब घोषणा हो गई है, कुछ नहीं हो सकता। स्व. शुक्ल ने एक बड़ा मौका गंवा दिया। आज के संदर्भ में इस किस्से का कौन सा सिरा मायने रखता है?