राजपथ - जनपथ
रिले केन्द्र का इतिहास बन जाना...
1959 में शुरू हुए टेलीविजन इंडिया का सन् 1975 में नामकरण हुआ- दूरदर्शन। उस वक्त महानगरों में रिले केन्द्र स्थापित किये गये थे। पर सन् 1980 के आसपास पर दिन किसी न किसी शहर में एक नया रिले केन्द्र खोला जाता था। यह 1982 में होने वाले एशियाड की तैयारी थी। सीमित पहुंच वाले श्वेत-श्याम दूरदर्शन की पहुंच शहर से गांवों तक पहुंच गई। रंगीन प्रसारण भी शुरू हो गया। जिनके घरों में टीवी होते थे उनका अलग ही रुतबा था। रामायण, महाभारत, हम लोग, बुनियाद, तमस जैसे सीरियल्स जब शुरू होते थे तो सडक़ें सूनी हो जाती थी और लोग घर-बाहर का काम रोककर टीवी के सामने बैठ जाते थे। एक आदमी की ड्यूटी होती थी कि वह एंटिना का एंगल ठीक करता रहे। उस दौर की निशानी थे दूरदर्शन के रिले केंद्र। छत्तीसगढ़ के रायपुर, बिलासपुर, अंबिकापुर व जगदलपुर में बारी-बारी एचपीटी (हाई पावर ट्रांसमिशन) लगाये गये। फिर इनसे कनेक्टेड एलटीपी छोटे शहरों, कस्बों में लगाये गये। दो साल पहले से छत्तीसगढ़ ही नहीं देशभर के अधिकांश एलटीपी से प्रसारण बंद किये जा चुके हैं। रायगढ़, चांपा, सक्ती, खरौद, पेंड्रारोड, कोरबा आदि इनमें शामिल हैं।
अब दूरदर्शन ही नहीं सैकड़ों टीवी चैनल केबल और डीटीएच पर ही नहीं, बल्कि मोबाइल एप्लिकेशन पर मिल रहे हैं। ऐसे में एंटीना तानकर दूरदर्शन देखने वाला कोई शायद ही बच गया हो। इसीलिये रिले केन्द्रों का बंद करने का सिलसिला चल ही रहा है। रायपुर व बिलासपुर के एचटीपी रिले केन्द्र 31 अक्टूबर को बंद हो जायेंगे और प्रसारण सेवा का एक अध्याय इतिहास में दर्ज हो जायेगा।
पार्टियों की छूट, प्रसाद की नहीं
दुर्गा पूजा की उत्साह से तैयारी करने वालों को काफी इंतजार करने के बाद दिशा-निर्देश मिल गये हैं। शिकायत थी कि कम से कम पंडाल और मूर्तियों की साइज तो प्रशासन बता दे ताकि कारीगरों को काम दिया जा सके। कमोबेश पिछले साल की तरह की ही गाइडलाइन है, पर इसमें कई बातें लोगों को खटक रही है। जैसे भोग-भंडारे से मना क्यों किया गया है? जब प्रशासन ने खुद ही किसी भी हाल की क्षमता के मुकाबले 50 प्रतिशत लोगों की उपस्थिति में सभा समारोह, लंच, डिनर कराने की छूट दी है और होटल रेस्टारेंट भी खोल दिये हैं तो पूजा पंडाल में प्रसाद बांटने और भंडारा लगाने की इजाजत क्यों नहीं? वैसे भी पंडाल के भीतर 50 से ज्यादा लोगों की उपस्थिति एक समय में नहीं होनी चाहिये, यह गाइडलाइन तो दे दी गई है। दूसरे फंक्शन में 150 को इजाजत और पूजा में 50 लोगों को भी नहीं। यह फैसले का बंगाली समाज के पूजा उत्सव में खासा असर होने वाला है। उनके इलाके में काली बाड़ी होती है, पूरे नौ दिन परिवार का प्रत्येक सदस्य पूजा में शामिल होता है। घर में भोजन बनता ही नहीं और भंडारे का ही भोग लेने का चलन बना हुआ है। बंगाली समाज के एक पुजारी का कहना है कि बिना भोग-भंडारे के तो दुर्गोत्सव की पूजा अधूरी ही मानी जायेगी। जिन लोगों ने भी गाइडलाइन तैयार की उन्हें एक बार सोचना जरूर था कि जब शादी ब्याह और सामाजिक कार्यक्रमों में 150-200 लोगों को भोजन करने की छूट है तो पूजा में 50 लोगों को इजाजत देने में क्या गलत हो जाता।
दुर्गा विसर्जन की गाइडलाइन में कहा गया है कि बड़ी गाडिय़ों में प्रतिमा नहीं निकलेगी। कहीं रुकेगी भी नहीं, झांकी भी नहीं निकाली जायेगी। यहां तक तो ठीक है, पर कहा गया है कि विसर्जन में अधिकतम 10 लोगों को ही अनुमति दी जायेगी और उस छोटी गाड़ी में ही प्रतिमा के साथ सबको एक साथ बैठना होगा। छोटी गाड़ी में 10 लोगों को एक साथ बैठने की अनुमति देने से सोशल डिस्टेंस का पालन कैसे होगा? कोरोना से बचाव के लिये इनका दूर-दूर अलग गाडिय़ों में बैठना ठीक रहेगा, या एक साथ।
गाइडलाइन को बारीकी से पढ़ेंगे तो कई और इसी तरह के अजीब निर्देश मिलेंगे।